From bipulpandey at gmail.com Mon Oct 1 08:21:12 2007 From: bipulpandey at gmail.com (bipul pandey) Date: Mon, 1 Oct 2007 08:21:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= residence proof 7 Message-ID: सीए से सुनिए*** रेजिडेंस प्रूफ की छठी डाक*** मित्रों 2005 की बात है, जब मैं मयूर विहार में रहने वाले सीए राजेश अग्रवाल से अपने इनकम टैक्स का फॉर्म भरवाने गया था। तब रेजिडेंस प्रूफ की मुझे भी जरूरत पड़ी थी। आप सोच सकते हैं-- एक सीए जो मेरे मित्र भी थे क्या सलाह देते ? समस्या ही नहीं समस्याओं के अंबार निपटाने वाले राजेश अग्रवाल ने मुझे कई नसीहतें दे डाली। उनमें से जो मुझे पसंद आई वो था किसी एमएलए से रेजिडेंस प्रूफ सर्टिफिकेट बनवा लेना। एक पत्रकार होने की हैसियत से किसी एमएलए को पकड़ना बहुत मुश्किल नहीं था। लेकिन मुझे हैरानी तब हुई जब पता चला कि रेजिडेंस प्रूफ की दिक्कत उनके साथ भी थी। राजेश अपनी पत्नी का अकाउंट खुलवाना चाहते थे और वो संभव नहीं हो पा रहा था। शोध शुरू करने पर उनसे उनकी बातें विस्तार से पूछी।*** शादी के बाद राजेश ने नई जिंदगी शुरू की तो तमाम अड़चनें साथ थीं। बतौर चार्टर्ड अकाउंटेंट राजेश का सारा काम दिल्ली में था और शादी के बाद पत्नी को लेकर दिल्ली चले आए। राजेश कहते हैं- 'यहां मेरी अपनी बसी-बसाई जिंदगी थी। लेकिन पत्नी के साथ जिंदगी शुरू करनी थी। दिक्कत थी तो सिर्फ पत्नी के साथ। यहां आने पर पत्नी ने बैंक अकाउंट खुलवाने के लिए कहा। लेकिन उनका यहां का पता नहीं था। बैंक में अकाउंट खुलवाने गया तो पता चला कि पत्नी का अकाउंट मेरे ससुराल के पते पर खुल सकता है मेरे घर के पते पर नहीं। मेरी ससुराल जयपुर में है। बहुत मुश्किल हुई। हम अपने घर के पते पर अकाउंट खुलवाना चाह रहे थे और उस वक्त भी जीवन अपार्टमेंट में रह रहे थे। फिर मैंने राशन कार्ड बनवाने की सोची। राशन कौन लेता है—लेकिन वह हम दोनों के पते का प्रमाण हो जाता। करीब 2 महीने राशन कार्ड बनवाने में लगे। लेकिन वो भी जब हाथ आया तो पता चला कि अब वो रेजिडेंस प्रूफ के लिए मान्य नहीं रहा। राशन कार्ड में मुहर होती थी- 'यह रेजिडेंस प्रूफ के लिए मान्य नहीं है'। बैंक की गाइडलाइन में राशन कार्ड एड्रेस प्रूफ है भी नहीं।'*** दिक्कतों ने राजेश अग्रवाल का पीछा नहीं छोड़ा। राजेश अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं- 'पैन कार्ड बनवाना हो तो उसके लिए राशन कार्ड मांगते हैं। राशन कार्ड से मैंने पैन कार्ड बनवा लिया, लेकिन मकसद हल नहीं हो सका। पैन कार्ड में सिर्फ आईडेंटिटी है, कहीं पता नहीं होता। पते के लिए कभी-कभी बैंक स्टेटमेंट भी मांगते हैं, लेकिन बैंक स्टेटमेंट तभी होगा जब अकाउंट खुलेगा। अकाउंट तभी खुलेगा जब ड्राइविंग लाइसेंस हो। ड्राइविंग लाइसेंस तभी हो सकता है जब आपका रेजिडेंस प्रूफ हो। सिर्फ वोटर आई कार्ड ऐसा है जिसमें एड्रेस प्रूफ की जरूरत नहीं है। लेकिन वोटर आई कार्ड बनवाना भी तो माशा अल्ला बहुत ही मशक्कत का काम है।'*** 'मैं जहां रहता था वहां पर अपना वोटर आईडी बनवाया उससे राशन कार्ड बना, उससे पैन कार्ड बना। पैन कार्ड बनने के बाद पैन और राशन कार्ड की बदौलत डीएल बना, लेकिन ये रेजिडेंस प्रूफ इकट्ठा करने में मुझे चार साल लगे। लेकिन ये चार साल कौन लाकर देता?' राजेश अग्रवाल सीए होते हुए भी यह मान चुके थे कि यह सब जमाने का दस्तूर है। उन्होंने कहा कि- 'चार साल में हर दिक्कतें हर परेशानी थी, टेलीफोन लगवाना हो तो परेशानी टेलीफोन लगवा नहीं सकते, अब तो सबकुछ लगवा लिया लेकिन रेंट एग्रीमेंट देने को कोई राजी नहीं, रेंट एग्रीमेंट लेकर किसी तरह फोन लगवाया, फोन बिल भी रेजिडेंस प्रूफ माना जाता है। वो भी अगर एमटीएनएल का हो तो... लेकिन हकीकत ये है कि एमटीएनएल से ज्यादा बढ़िया और मुस्तैद काम प्राइवेट वाले लोग करते हैं.... लेकिन उनके टेलीफोन बिल को रेजिडेंस प्रूफ नहीं माना जाता.... पांच साल बाद इनके (पत्नी के) नाम से रेजिडेंस प्रूफ हो गया... बड़े इंपोर्टेंट हैं, बहुत संभाल कर रखता हूं...। उनका वोटर आई कार्ड बना हुआ था उससे फिर राशन कार्ड में नाम आया।'*** राजेश कहते हैं कि- 'इनकम टैक्स वाले कहते हैं पति का नहीं पिता का नाम दो, पति कभी भी बदल सकता है पति नहीं, अब आता है फादर्स नेम। घर की रजिस्ट्री पत्नी के नाम से कराई। लेकिन रजिस्ट्री करने वालों ने कहा कि आप अपना रेजिडेंस प्रूफ दिखाइए तब हम मानेंगे कि आप उसी मकान में रहते हैं... कौन कह सकता है कि जो मकान मैं खरीद रहा हूं उसमें मैं ही रहता हूं? अब उनके लिए कैसे लाएं रेजिडेंस प्रूफ? हम तो दिल्ली सरकार से दो फीसदी बचाने के लिए उनके (अपनी पत्नी के) नाम पर रजिस्ट्री कराना चाहते हैं। अब उसके लिए पेनलाइज होना पड़े ये तो ठीक नहीं है।'*** राजेश अग्रवाल इससे आगे कुछ बोलने को तैयार नहीं हुए... लेकिन जो सच मुझे पता चला वो यही कहते हैं कि राजेश की पत्नी के नाम रेजिडेंस प्रूफ हो गया... लेकिन कैसे (?) ये आप ही सोचिए।*** आपका मित्र बिपुल पांडेय 9868778088 आगे पढ़िए... राष्ट्रपति भवन का रेंट एग्रीमेंट है क्या? From ravikant at sarai.net Mon Oct 1 15:04:24 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 1 Oct 2007 15:04:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpKzgpY0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWJ4KSX4KS/4KSC4KSXIOCkleClgCDgpKbgpYHgpKjgpL/gpK/gpL4g?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCksuClh+Cklg==?= Message-ID: <200710011504.24911.ravikant@sarai.net> दोस्तो, काफ़ी पहले हमने बालेंदु दधीच के दो लेख( युनिकोड पर) दीवान पर डाले थे, सहारा से उठाकर. ये रहा चिट्ठाकारी पर उनका एक हालिया लेख, मज़े लें. गौरी पालीवाल भी कादंबिनी में लगातार लिखती रही हैं, उनसे गुज़ारिश है कि जो भी लिखें, उसे दी वान पर भी पोस्ट कर दिया करें, कृपा होगी. हमारे सभी साथी कादंबिनी तो नहीं पढ़ते, गो यह तय है कि कादंबिनी का नया स्वरूप पहले से बहुत बेहतर है, सामग्री बी पठनीय आती है. शुक्रिया ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: ब्लॉगिंग की दुनिया पर लेख Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 01:37 From: "Balendu Dadhich" To: baalendu at yahoo.com आदरणीय, ब्लॉगिंग की अनूठी दुनिया पर एक विस्तृत, शोधात्मक लेख लिखने की काफी इच्छा थी। वह इस बार की कादम्बिनी (अक्तूबर 07) में प्रकाशित हुआ है। ब्लॉगिंग के आसमान को पत्रिका के सात-आठ पन्नों में समेटने की असफल कोशिश है। इसके लिए कादम्बिनी के यशस्वी संपादक को धन्यवाद। हालांकि मैंने पूरी निष्पक्षता और ईमानदारी के साथ लिखने का प्रयास किया है लेकिन पता नहीं मैं इस महत्वपूर्ण विषय के साथ न्याय कर सका या नहीं। मूल लेख (असंपादित, अकटित, पूर्ण तथा मौलिक) अवस्था में मेरे निजी होमपेज http://www.balendu.com पर पोस्ट कर दिया है। आप चाहें तो पढ़ सकते हैं। प्रतिक्रिया दें तो बड़ा अच्छा लगेगा। आपसे आग्रह रहेगा कि उचित समझें तो अपने ब्लॉग या वेबसाइट पर (यदि है) मेरे होमपेज का लिंक डाल दें ताकि ब्लॉग जगत के अन्य साथियों और इच्छुक पाठकजनों तक भी बात पहुंच सके। सादर, बालेन्दु ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Tue Oct 2 00:08:34 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Tue, 2 Oct 2007 00:08:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSi4KS84KWH?= =?utf-8?b?IOCkruClgOCkoeCkv+Ckr+Ckviwg4KS54KWB4KSPIOCkrOClh+CklQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= Message-ID: <829019b0710011138h68d0b328q84f46ed1128784d4@mail.gmail.com> आज से करीब तीन दिन पहले डीयू में हिन्दी विभाग के अन्तर्गत पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़को पर उतर आए। उनका कहना है कि मीडिया के नाम पर उन्हें जो कुछ भी पढ़ाया जा रहा है, वो ठीक नहीं है। हिन्दी साहित्य पढ़कर आए लोग ही इसे पढ़ा रहे हैं। इसके अलावे इसे पढ़ाने और समझाने के लिए जिस इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरुरत होती है वो भी नदारद है। ये तो निश्चित तौर पर विचार करने वाली बात है कि कोई बंदा साल भर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को पढ़ाए और कभी किसी समाचार चैनल का मुंह ही नहीं देखा हो।....ये तो वही बात हो गई जैसे जिंदगी भर ईश्वर की सत्ता पर प्रवचन देनेवाले बाबाजी कभी खुद ईश्वर को नहीं देख पाए। ऐसे में पत्रकारिता या मीडिया को पढाना, मीडिया के नाम पर पाखंड है। साहित्य को लम्बे समय तक पढ़ते हुए और मीडिया में काम करते हुए मैंने अनुभव किया कि अपनी संरचना और काम करने के तरीके के कारण मीडिया और साहित्य दो अलग-अलग चीजें हैं और आप दोनों को पढने और पढाने के लिए एक ही तरीका नहीं अपना सकते। दोनों के विश्लेषण के लिए आपको अलग-अलग टूल्स अपनाने होंगे। इसलिए अपने ब्लॉग में भी हमनें दोनों के लिए अलग-अलग खाता खोल रखा है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए बुद्धू बक्सा और हिन्दी के लिए हिन्दी का टंटा। डीयू के हिन्दी विभाग में भी हिन्दी को पॉपुलर, कमाऊ और रोजगारपरक विषय बनाने की नीयत से जब पत्रकारिता को पढ़ने-पढ़ाने के लिए शामिल किया गया तो अक्सर मैं अफसोस जताया करता था कि इससे आनेवाले हिन्दी के छात्रों का बंटाधार हो जाएगा। अबतक बिहारी, मतिराम या प्रगतिशीलता के नाम पर नागार्जुन और मुक्तिबोध को पढ़ाने वाले गुरुजी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए समाचार निर्माण की प्रक्रिया पढ़ाएंगे।....वो भी पत्रकारिता की किताबों को पढ़कर। जिनके पास किसी भी समाचार चैनल या एजेंसी में एक भी दिन काम करने का अनुभव नहीं है। ऐसे में कबीर और टीआरपी के बीच डूबते-उतरते वे क्या पढ़ाएंगे या अबतक क्या पढ़ा रहे हैं, इसका विश्लेषण बहुत जरुरी है। इन गुरुओं के लिए कभी कोई वर्कशॉप नहीं हुआ और न ही पढ़ाने के लिए कहीं से कोई ट्रेनिंग ही ली। मेरे कहने का ये बिल्कुल मतलब नहीं है कि हिन्दी के लोग मीडिया पढ़ा नहीं सकते। मैं तो सिर्फ ये जोड़ना चाहता हूं कि अगर हिन्दी साहित्य पढ़कर कोई बंदा सीधे आज के स्टूडेंट को मीडिया पढ़ाना चाहता है तो बेहतर हो कि इससे पहले कोई वर्कशॉप में जाए। इससे उनकी गलतफहमी दूर हो जाएगी कि मीडिया सिर्फ शब्दों का खेल है। हिन्दी साहित्य पढ़कर मीडिया पढ़ाने में होता ये है कि एक तो गुरुओं को ये पता ही नहीं होता कि टेलीविजन के लिए लिखने में कितना बड़ा फर्क होता है। साहित्य के ठीक उलट इसे देखने वाले अलग-अलग मिजाज के लोग होते हैं।...आप शब्दों से अच्छे-अच्छे भाव पैदा करना चाहते हैं लेकिन आप जो कुछ भी कह रहे हैं वो लोगों को समझ ही नहीं आ रहा। सबसे जरुरी बात है कि वैसे किसी भी चीज के उपर लिखना या बहस करना और बात है और एक न्यूज की शक्ल में समय, बाजार और स्पेस के दबाव में लिखना बिल्कुल दूसरी बात है। इन सब चीजों की जानकारी ये हिन्दी वाले गुरु जी नहीं देते क्योंकि इन्होंने खुद कभी भी इस दिशा में गंभीरता से विचार नहीं किया। कुल मिलाकर इन गुरुओं को आज की मीडिया और उसकी वर्किंग कल्चर के बारे में कोई समझ नहीं है। वे साहित्य की तरह ही टेलीविजन को डील कर देते हैं। बहुत हुआ तो अखबारी पत्रकारिता के हिसाब से न्यूज चैनलों के लिए समाचार लिखने की प्रक्रिया समझा देते हैं। इस तरह पत्रकारिता के नाम पर हर साल एक ऐसी फौज खड़ी हो रही है जो अपने को हिन्दी वाले से अलग बताकर पत्रकारिता की पढ़ाई की है, वे हिन्दी विभाग से जुड़कर भी नागार्जुन या मुक्तिबोध के बारे में बात करने की स्थिति में नहीं हैं और न ही मीडिया की समझ उस ढ़ंग की है जिससे कि यहां से निकलकर सीधे किसी चैनल में काम कर सकें। ये हिन्दी सहित इन स्टूडेंट के लिए खतरनाक स्थिति है। ऐसे में अगर डीयू में इस पत्रकारिता का कोर्स कर रहे स्टूडेंट सड़कों पर उतर आते हैं तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है।....आप मीडिया में भी इथिक्स के नाम पर साहित्य झोंकते चले जाएंगे तो विरोध तो होगा ही...क्योंकि इस तरह के कोर्स को लाने के पहले आपने ही इसे रोजगारपरक होने की बात की थी और अब आप ही दोहरा चरित्र अपना रहे हैं। इसलिए और पौध बर्बाद हो इससे पहले गुरुजी कोई ठोस निर्णय लें...वरना विरोध का स्वर और तेज होगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071002/b8f0d207/attachment.html From girindranath at gmail.com Wed Oct 3 09:47:39 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Wed, 3 Oct 2007 09:47:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W+CkheCkqOClgQ==?= =?utf-8?b?4KSt4KS1XSDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpKTgpL7gpJXgpKQg4KSm4KWAIOCkueCliCwg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCkquCkueCkmuCkvuCkqCDgpKbgpYAg4KS54KWILi4uLi4uLg==?= In-Reply-To: <1191384828535.055ec343-d54e-48a3-bbd2-7586ec09def1@google.com> References: <1191384828535.055ec343-d54e-48a3-bbd2-7586ec09def1@google.com> Message-ID: <63309c960710022117o354dca22jcf82005ee209165@mail.gmail.com> [अनुभव] हिन्दी ब्लॉग ने ताकत दी है, एक पहचान दी है....... गिरीन्द्र नाथ हम एक अलग दौर के इंसान है, एक ऐसा दौर जहां तकनीक हमारे संग हर वक्त चलने को तैयार रहता है। इसके संग हम भी चलें यह भी आवश्यक है, कह सकते हैं हमारी जरूरत है। तकनीकी सुविधा-व्यवस्था से हम दूर तो रह ही नहीं सकते हैं। जबसे हिन्दी ब्लॉगिंग ने अपना स्पेस हमारे लिए बढ़ाया है, उसी समय से हम तकनीक की दुनिया से और भी नजदीक होते गये। हिन्दी अपनी उपस्थिति नेट पर जिस गति से बढ़ा रही है, उसके पीछे कहीं न कहीं हिन्दी ब्लाग का ही हाथ है। ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे इस बात की पुष्टि हो सकती है कि एक आम आदमी ब्लाग के जरिए किस प्रकार तकनीकी दुनिया से सहज होता गया। दरअसल यहीं से हिन्दी आनलाईन की तकदीर बदलनी शुरू हुई। भले हीं कुछ लोग इस दुनिया से पहले से ही परिचित थे, लेकिन उनकी संख्या कुछ खास नहीं थी। दरअसल वे इस दुनिया के आम नहीं खास रहे हैं। शायद इसी काऱण वे इस दुनिया में काफी तेजी से अपनी राह बना पाए। लेकिन एक ऐसा भी दौर आया जब लोग यहां काफी सहज होकर अपना आशियाना बनाने लगे। यह दौर काफी नया है। यूनिकोड के सुलभ हो जाने से सभी ने नेट पर हिन्दीयाना (हिन्दी में लिखना) प्रारंभ किया। कंप्यूटर से खार खाए लोग भी की-बोर्ड से यारी करने लगे, और यहीं से हिन्दी का एक अलग रूप सामने आया। ब्लॉगस्पाट डाट कॉम ने इस पूरे प्रकरण में तो कमाल का काम किया है। कुछ इसी तरह का काम हिन्दीनी डाट काम ने भी किया। इस वेब के औजार विभाग ने तो हिन्दी को सर्व सुलभ बनाने में ऐतिहासिक काम किया है। ठीक उसी प्रकार जैसे रवि रतलाम रचनाकार और अपने काम के द्वारा कर रहे हैं। वैसे हिन्दीनी को लोगों से रू-ब-रू कराने में सराय-सीएसडीएस के रविकान्त का भी हाथ है। सराय के दीवान@ सराय द्वारा इसका प्रचार-प्रसार हुआ है। फरवरी 2007 से तो हिन्दी ब्लॉगिंग सुनामी की तरह फैलने लगी। ऑन-लाइन हिन्दी का यह स्वर्णिम काल रहा है। पानीपत के हरिराम किशोर भी हिन्दनी के जरिए ब्लागियाने लगे। इसी बीच लोग मंगल फॉन्ट से परिचित हुए। यह तो और भी आसान निकला। अपने एक्सपी सिस्टम में लोग खुद हीं हिन्दी इन्सटॉल करने लगे। पहली बार जब किशनगंज बिहार के अरमान ने अपने सिस्टम के टुलबार पर HN और EN को स्थापित किया तो वह खुशी से पागल हो उठा। उसके अनुसार अब मैं तो फाईल नेम भी हिन्दी में ही लिखूंगा..। सबकुछ आसान होता गया, कह सकते हैं डॉट-कॉम की राह हमारे लिए टनाटन बन गयी। आज लोग जमकर हिन्दी में वेब पन्नों पर लिख रहे हैं। शायद राह और भी आसान होगी हमारे लिए, ठीक इसी बीच हमारे परिचय के दायरे में गूगल का ट्रांसलेटर औजार आ धमका। खुशी और भी बढ़ी..अब कमल लिखने के लिए kamal हीं लिखना पड़ रहा है। यहां मात्राओं और वर्णों में भी शुद्दता का ध्यान रखा गया है। दरअसल www.hindini.com के औजार पर इस तरह की आसानी का अनुभव हम नहीं कर पा रहे थे। आने वाला समय हिन्दी को ऑन-लाईन की दुनिया में और भी तेज रफ्तार से आगे ले जाएगा, ठीक फटाफट ट्वेंटी-20 क्रिकेट की तरह। बस हम सब अपने-अपने कामों के बीच भी हिन्दी को ऑन-लाईन दुनिया में पूरा स्पेस देते रहें...........। -- Posted By गिरीन्द्र नाथ झा to अनुभव at 10/02/2007 09:10:00 PM From rakesh at sarai.net Wed Oct 3 17:36:40 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Wed, 03 Oct 2007 17:36:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSC4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSCIOCkpeCli+CkoeCkvOCkviwg4KSl4KSV4KS+4KS14KSfIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KWC4KSwIOCkueCliyDgpJzgpL7gpI/gpJfgpYA=?= Message-ID: <470385D0.7030003@sarai.net> मित्रों समीरजी की उड़न तश्तरी से साभार हंसी की एक छोटी खुराक. मज़े लें. सप्रेम राकेश भूतपूर्व स्वर्गवासी श्री.ए..... जबलपुर में हमारे एक *भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र* श्री नारायण तिवारी जी रहते हैं. भूतपूर्व स्वर्गवासी सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है मगर वो उपर हो रहे समस्त क्रिया कलापों को इतने आत्म विश्वास और दृढ़ता से बताते हैं कि उनके पूर्व में स्वर्ग मे रहवास पर स्वतः ही विश्वास सा हो जाता है. हमारे एक और मित्र हैं मुकेश पटेल. ईश्वर की ऐसी नजर कि अच्छे खासे खाते पीते घर का यह बालक अगर किसी भिखारी के बाजू से भी निकल रहा हो तो भिखारी उसे बुलाकर कुछ पैसे दे दे. चेहरे पर पूर्ण दीनता के परमानेन्ट भाव. *मानो भुखमरी की चलती फिरती नुमाईश.* भर पेट खाना खा कर भी निकले तो लगे कि न जाने कितने दिन से भूखा है. हँसता भी तो लगता कि जैसे रो रहा है. सड़क पर क्रिकेट खेलते समय जब किसी के घर में गेंद चली जाये तो हम लोग मुकेश को ही भेजा करते थे गेंद लेने. उसे डांटना तो दूर, अगला गेंद के साथ मिठाई नाश्ता कराये बिना कभी विदा नहीं करता था. अपने चेहरे के चलते वह सतत एवं सर्वत्र दया का पात्र बना रहा. होली, दशहरे की चंदा टीम का भी वो हमेशा ही सरगना रहा और हर घर से चंदा मिलता रहा. अब तो उसका बड़ा व्यापार है. बैंक से लेकर इन्कमटैक्स वाले तक सब उस पर दया रखते हैं. आज तक किसी को घूस नहीं दी. बैंक वाले लोन देने के साथ साथ चाय पिला कर भेजते हैं. लोन की किश्त भरने जाते हैं तो बैंक निवेदन करने लगता है कि जल्दी नहीं है चाहें तो अगले महीने दे दीजियेगा. इन्कम टैक्स का क्लर्क भी बिना नाश्ता कराये उन्हें नहीं जाने देता. जहाँ मुकेश को अपने उपर ईश्वर की इस विशेष अनुकम्पा पर अभिमान था वहीं हमारे भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र नारायण के पास इस स्थिति के लिये भी कथा कि मुकेश का चेहरा ऐसा क्यूँ है. भू.पू.स्व. श्री नारायण बताते हैं कि वहाँ उपर कई फेक्टरियाँ हैं. भारत की अलग, अमरीका की अलग, चीन, अफ्रीका, जापान सब की अलग अलग. वहीं स्त्री पुरुषों का निर्माण होता है. सबके क्वालिटी कन्ट्रोल पूर्व निर्धारित हैं. अमरीकी गोरे, अफ्रिकी काले, भारत के भूरे आदि. सबकी भाव भंगीमा भी बाई डिफॉल्ट कैसी रहेगी, यह भी तय है. जैसे दोनों हाथ नीचे, पांव सीधे, मुँह बंद आदि. *यह बाई डिफॉल्ट सेटिंग है*, अब यदि किसी को हाथ उठाना है, तो उसे हरकत एवं प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद होगा, हाथ पुनः डिफॉल्ट अवस्था में आ जायेगा यानि फिर नीचे लटकने लगेगा. ऐसा ही चेहरे की भाव भंगिमा के साथ होता है. *बाई डिफॉल्ट आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं होते.* न खुश, न दुखी. विचार शून्य सा चेहरा. अब यदि आपको खुश होना है तो ओंठ फेलाईये, दांत दिखाईये और हा हा की आवाज करिये. इसे खुश हो कर हंसना कहते हैं. जैसे ही आप इसका प्रयास बंद कर देंगे पुनः डिफॉल्ट अवस्था को प्राप्त करेंगे अर्थात विचार शून्य सा चेहरा-बिना किसी भाव का. कई बार जल्दीबाजी में, जब कन्टेनर रवाना होने को तैयार होता है और कुछ मेटेरियल की जगह बाकी है, तब कुछ लोग जल्दी जल्दी लाद दिये जाते हैं. *वही डिफेक्टिव पीस कहलाते हैं. *उन्हीं में से एक उदाहरण मुकेश हैं जिनकी हड़बड़ी में चेहरे की डिफॉल्ट सेटिंग दीनता वाली हो गई. उन्हें सामान्य दिखने के लिये प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद, पुनः डिफॉल्ट अवस्था यानि दीनता के भाव. यह सारी बातें नारायण इतने आत्म विश्वास से बताते थे कि लगता था वो ही उस फेक्टरी के मैनेजर रहे होंगे जो इतनी विस्तार से पूरी कार्य प्रणाली और निर्माण प्रक्रिया की जानकारी है. *तभी तो सब उन्हें भूतपूर्व स्वर्गवासी की उपाधि से नवाजते थे.* उनके ज्ञान का विस्तार देखते हुए एक बार हमने भी जिज्ञासावश प्रश्न किया कि नारायण भाई, आप तो कह रहे थे कि भारत के लिये त्वचा का रंग भूरा फिक्स है. फिर यहाँ गोरे और हमारे रंग के लोग कहाँ से आ गये? भू.पू.स्व. नारायण जी ने तुरंत अपने संस्मराणत्मक अंदाज में कहना शुरु किया कि दरअसल *भारत की फैक्टरी के सुपरवाईजर विश्वकर्मा जी बहुत जुगाड़ू टाइप के हैं.* जब पेन्ट खत्म होने लगता है तो कभी तारपीन ज्यादा करवा देते है. कभी अमरीकी फेक्टरी का और कभी अफ्रिकी फेक्टरी का बचा पेन्ट मार देते हैं मगर मिला जुला कर, जोड़तोड़ कर काम निकाल ही देते हैं. इसीलिये भारत में भी कुछ लोग गोरे पैदा हो जाते हैं और अगर अफ्रिका वाला ज्यादा पेन्ट मार लाये तो तुम्हारे जैसे. किन्तु बाकी ऐसा नहीं करते वो काम रोक देते हैं. इसीलिये अफ्रिका में कभी कोई गोरा नहीं पैदा होता और न अमरीका में काला. *इसी से उनकी फैक्टरी भी मटेरियल के इन्तजार में कई कई दिन बंद रहती है तो प्रोडक्शन भी कम होता है.* आज तक मटेरियल की कमी के कारण भारत वाली फेक्टरी में काम नहीं रुका. हर साल सबसे अनवरत संचालन का अवार्ड भी विश्वकर्मा जी को ही मिलता है. इसीलिये तो हमारे यहाँ सभी फेक्टरियों में उनकी पूजा होती है. हम तो सन्न रह गये कि* वाह रे विश्वकर्मा जी, आप तो अवार्ड पर अवार्ड लूट रहे हो, जगह जगह पूजे जा रहे हो और खमिजियाना भुगतें हम!!* बहुत खूब! From vkt.vijay at gmail.com Wed Oct 3 19:43:24 2007 From: vkt.vijay at gmail.com (vijay thakur) Date: Wed, 3 Oct 2007 19:43:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?W+CkheCkqOClgQ==?= =?utf-8?b?4KSt4KS1XSDgpLngpL/gpKjgpY3gpKbgpYAg4KSs4KWN4KSy4KWJ4KSX?= =?utf-8?b?IOCkqOClhyDgpKTgpL7gpJXgpKQg4KSm4KWAIOCkueCliCwg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCkquCkueCkmuCkvuCkqCDgpKbgpYAg4KS54KWILi4uLi4uLg==?= In-Reply-To: <63309c960710022117o354dca22jcf82005ee209165@mail.gmail.com> References: <1191384828535.055ec343-d54e-48a3-bbd2-7586ec09def1@google.com> <63309c960710022117o354dca22jcf82005ee209165@mail.gmail.com> Message-ID: गिरेन्द्र, आपने सही और बहुत अच्छा लिखा है हिन्दी के ऑनलाइन होते सफर के बारे में। अंग्रेजी तो नेट पर शुरु से ही है, हिन्दीभाषियों की सुलगती कसक दिल में ही रह जाती थी जो अब इतनी आसानी से उड़ेल दी जाती है और दिल की बातें हिन्दी में ही लोगों के बीच हू-ब-हू रख दी जाती है...वाकई कमाल की बात है। कहते है कि हिन्दी का स्वर्णिम काल इतिहास के पन्नों में है और इस व्यवसायिक दुनिया में भारत में भी अंग्रेजी को ही बढ़ावा मिला लेकिन इस ऑनलाइन हिन्दी की वजह से हाईटेक होती जा रही युवा पीढ़ी ने भी इसे दिल से लगाया है जो बहुत ही सुखद है हिन्दी के लिए ...जो एक भाषा ही नहीं एक संस्कृति है। विजय. On 10/3/07, girindra nath wrote: > > [अनुभव] > हिन्दी ब्लॉग ने ताकत दी है, एक पहचान दी है....... > > गिरीन्द्र नाथ > > हम एक अलग दौर के इंसान है, एक ऐसा दौर जहां तकनीक हमारे संग हर वक्त > चलने को तैयार रहता है। इसके संग हम भी चलें यह भी आवश्यक है, कह सकते > हैं हमारी जरूरत है। तकनीकी सुविधा-व्यवस्था से हम दूर तो रह ही नहीं > सकते हैं। जबसे हिन्दी ब्लॉगिंग ने अपना स्पेस हमारे लिए बढ़ाया है, उसी > समय से हम तकनीक की दुनिया से और भी नजदीक होते गये। हिन्दी अपनी > उपस्थिति नेट पर जिस गति से बढ़ा रही है, उसके पीछे कहीं न कहीं हिन्दी > ब्लाग का ही हाथ है। > ऐसे कई उदाहरण हैं जिससे इस बात की पुष्टि हो सकती है कि एक आम आदमी > ब्लाग के जरिए किस प्रकार तकनीकी दुनिया से सहज होता गया। दरअसल यहीं से > हिन्दी आनलाईन की तकदीर बदलनी शुरू हुई। भले हीं कुछ लोग इस दुनिया से > पहले से ही परिचित थे, लेकिन उनकी संख्या कुछ खास नहीं थी। दरअसल वे इस > दुनिया के आम नहीं खास रहे हैं। शायद इसी काऱण वे इस दुनिया में काफी > तेजी से अपनी राह बना पाए। > लेकिन एक ऐसा भी दौर आया जब लोग यहां काफी सहज होकर अपना आशियाना बनाने > लगे। यह दौर काफी नया है। यूनिकोड के सुलभ हो जाने से सभी ने नेट पर > हिन्दीयाना (हिन्दी में लिखना) प्रारंभ किया। कंप्यूटर से खार खाए लोग भी > की-बोर्ड से यारी करने लगे, और यहीं से हिन्दी का एक अलग रूप सामने आया। > ब्लॉगस्पाट डाट कॉम ने इस पूरे प्रकरण में तो कमाल का काम किया है। कुछ > इसी तरह का काम हिन्दीनी डाट काम ने भी किया। इस वेब के औजार विभाग ने तो > हिन्दी को सर्व सुलभ बनाने में ऐतिहासिक काम किया है। ठीक उसी प्रकार > जैसे रवि रतलाम रचनाकार और अपने काम के द्वारा कर रहे हैं। वैसे हिन्दीनी > को लोगों से रू-ब-रू कराने में सराय-सीएसडीएस के रविकान्त का भी हाथ है। > सराय के दीवान@ सराय द्वारा इसका प्रचार-प्रसार हुआ है। फरवरी 2007 से तो > हिन्दी ब्लॉगिंग सुनामी की तरह फैलने लगी। ऑन-लाइन हिन्दी का यह स्वर्णिम > काल रहा है। पानीपत के हरिराम किशोर भी हिन्दनी के जरिए ब्लागियाने लगे। > इसी बीच लोग मंगल फॉन्ट से परिचित हुए। यह तो और भी आसान निकला। अपने > एक्सपी सिस्टम में लोग खुद हीं हिन्दी इन्सटॉल करने लगे। पहली बार जब > किशनगंज बिहार के अरमान ने अपने सिस्टम के टुलबार पर HN और EN को स्थापित > किया तो वह खुशी से पागल हो उठा। उसके अनुसार अब मैं तो फाईल नेम भी > हिन्दी में ही लिखूंगा..। सबकुछ आसान होता गया, कह सकते हैं डॉट-कॉम की > राह हमारे लिए टनाटन बन गयी। आज लोग जमकर हिन्दी में वेब पन्नों पर लिख > रहे हैं। शायद राह और भी आसान होगी हमारे लिए, ठीक इसी बीच हमारे परिचय > के दायरे में गूगल का ट्रांसलेटर औजार आ धमका। खुशी और भी बढ़ी..अब कमल > लिखने के लिए kamal हीं लिखना पड़ रहा है। यहां मात्राओं और वर्णों में > भी शुद्दता का ध्यान रखा गया है। दरअसल www.hindini.com के औजार पर इस > तरह की आसानी का अनुभव हम नहीं कर पा रहे थे। > आने वाला समय हिन्दी को ऑन-लाईन की दुनिया में और भी तेज रफ्तार से आगे > ले जाएगा, ठीक फटाफट ट्वेंटी-20 क्रिकेट की तरह। बस हम सब अपने-अपने > कामों के बीच भी हिन्दी को ऑन-लाईन दुनिया में पूरा स्पेस देते > रहें...........। > > -- > Posted By गिरीन्द्र नाथ झा to अनुभव at 10/02/2007 09:10:00 PM > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071003/4dcc30aa/attachment.html From vineetdu at gmail.com Thu Oct 4 11:39:04 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Wed, 3 Oct 2007 22:09:04 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ek nazar dekhe Message-ID: <829019b0710032309y35fff184med40613cf1e8f15d@mail.gmail.com> एक प्रवचन = एक हजार माया मेरी ये पोस्ट पढ़ने के पहले आप वादा करें कि हिन्दीवालों के लिए आगे से आप दो शब्दों का प्रयोग कभी नहीं करेंगे। एक तो ये कि फलां आदमी फलां कॉलेज में हिन्दी पढ़ाता है, इससे उनका सहित पूरे हिन्दी समाज का अपमान होता है और दूसरा ये कि उसे हिन्दी पढ़ाने के इतने पैसे मिलते हैं। काम और रुपया- पैसे का हिन्दी समाज शुरु से विरोधी रहा है। और अगर आप इसका प्रयोग उनके लिए करते हैं तो इससे उनका अपमान होता है।....काम में सभी तरह का काम आता है...पढ़ाने से लेकर भोग-विलास वगैरह...वगैरह। और रुपया -पैसा में...ये तो बताना नहीं पड़ेगा।....तो आप सोचेंगे कि भई जब हिन्दीवालों के खाते में महीने-महीने और विषयों के मास्टरों की तरह रुपया आता है तो उसे रुपया न कहें तो और क्या कहें। अच्छा सारे हिन्दीवालें औरों की तरह तैयार होकर टिफिन लेकर घर से रोज निकल जाते हैं तो उसे काम पर जाना न कहें तो और क्या कहें। तो सुनिए हिन्दी में रुपया को माया कहते हैं, ठगनी कहते हैं और काम को सेवा। हिन्दीवाले हिन्दी पढ़ाते नहीं उसकी सेवा करते हैं। और चूंकि सेवा और संवेदना का भाव इतना अधिक होता है कि वे अपने सहकर्मियों और तेजतर्रार छात्रों को इस माया में पड़ने नहीं देते। सारी माया अपने उपर ले लेते हैं और ये माया चाहे जितनी भी लीला करें इनके दोस्त-यार और छात्र तो बर्बाद होने से बच जाएंगे।......चलिए अब आगे बढ़ें। मैंने चैनल को अलविदा कहने का मन बनाया तो मेरे दिमाग में बार-बार एक ही सवाल आया कि कहां तो चला था खूब-रुपया पैसा कमाने...गाड़ी-फ्लैट खरीदने जो कि मेरे बाकी दोस्त भी सोचा करते हैं। लेडिस मित्र भी कहा करती कि तुम नहीं समझते हो यार दिल्ली में अपना फ्लैट होगा तो कम से पति का धौंस तो नहीं चलेगा। खैर जाने दीजिए इन सब बातों को।...मुद्दे पर आते हैं।...जब दुबारा हिन्दी की दुनिया में लौटने का मन बनाया तो सोचा इसके पहले ये पता कर लेना जरुरी है कि घर, फ्लैट और एसी कमरा हिन्दी में आकर नसीब हो चाहे नहीं...कम से कम होनेवाली पत्नी की डिलिवरी एसी हॉस्पीटल में करवा पाउंगा कि नहीं। मरने के पहले दादी ने वचन दिया था कि काशीजी में क्रियाकर्म करना और पत्नी बनने से पहले एक लेडिस ने वचन मांगा है कि वादा करो कि हमारे बच्चे और टीवी रिपोर्टरों की तरह एसी में पलेंगें-बढ़ेंगे। मैं सोचता हूं कि पले-बढ़े भले ही न कम से कम पैदा तो एसी में हो ले। जिस आवोहवा में पहली बार सांस लेगा उसका एहसास जिंदगी भर रहेगा। मैं भी सीना तानकर कह सकूंगा कि एसी का बच्चा है मामूली नहीं है जी और पत्नी, अगर सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो हो जाएगी, वो भी लोहराकोचा जाए तो अपने पीहर में महौल बना सके कि एसी में पैदा हुआ है न गर्मी एकदम से बर्दास्त नहीं होती।....यही सब सोचकर पता लगाने लगा कि आखिर हिन्दी समाज में रहकर देश और समाज सहित अपने बाल-बच्चों को कितना कुछ दे पाउंगा। मीडिया में काम करते हुए थोड़ा प्रोफेशनल और कांन्फीडेंट तो हो ही गया था....सो सोचा कि ऐसे दो-तीन प्रोफेसरों और हिन्दी के मास्टरों से मिल लिया जाए जो सबसे ज्यादा अभी हिन्दी की सेवा कर रहे हैं और जाहिर सबसे ज्यादा माया अपने उपर ले रहे हैं। मैंने सीधे-सीधे पूछा...सर हमें भी हिन्दी की खूब सेवा करनी है और ज्यादा से ज्यादा माया अपने उपर लेनी है ताकि बाकी का हिन्दी समाज इत्मीनान रहे। पहले तो उन्होंने मुझे समझाया जैसे चैनल वाले समझाते रहे कि क्या यहां अपने को बर्बाद कर रहे हो जाओ...अच्छा भला रिसर्च करो....वैसे ही इनलोगों ने समझाया कि क्या जिन्दगी हलाल करने पर तुले हो ...ये सेवा-वेवा हमारे लिए छोडो, जाओ मीडिया मे माल कमाओ, तुम जैसे होनहार बच्चों की वहां बहुत जरुरत है। मैं भी अड गया ...गुरुजी माल-वाल तो ठीक है लेकिन इज्जत और संस्कार भी तो एक चीज है और फिर आप ही तो कहा करते थे कि तुम ऑर्डर पर बने जीव हो..खासतौर पर हिन्दी के लिए।....अंत में उन्होंने हामी भर दी और सेवा और माया के अंतर्संबंधों (Interrelationship) को समझाया। हिन्दी की सेवा के लिए मासिक माया- 20000-22000 माया, शुरुआती दौर में सेवा का मौका- 16 से 18 दिन पांच घंटे राजनीतिक सक्रियता मिलाकर सुझाव - मीडिया से हो अखबार से जुड़ जाओ महीने में कम से कम 4 लेख- 2000 माया महीने में 2 साहित्यिक लेख- 1000 माया सुझाव- चैनल में जुगाड़ लगाओ महीने में 2-3 टॉक शो में गेस्ट- 5000 माया सुझाव- एक्सट्रा क्लास पर जोर दो महीने में 3-4 क्लास- 1000 माया दिल की बात- लेडिस कॉलेज मिल जाए तो एक्सट्रा क्लासेज ज्यादा मिलेंगे सुझाव- गेस्ट फैक्ल्टी बनो दिल की बात- मीडिया से हूं,कुकुरमुत्ते की तरह पत्रकार बनाने के कारखाने खुल रहे हैं सप्ताह में चार दिन सेवा- 2000 माया सुझाव- इन्टल बनो व्याख्यान दो महीने में दो व्याख्यान- 1500- 2000 माया राह खर्च अलग से सुझाव- दो- चार किताब लिख डालो दिल की बात- अगले साल ब्लॉग ही छपवा दूंगा सुझाव- बदला-बदली स्कीम, माने दोस्तों को अपने कॉलेजों में बुलाओ और उन्हें कहो कि वे तुम्हें बुलाएं। आपसे में पीठ ठोको, लॉबी मजबूत होगी, मार्केट बढेगा सुझाव- कभी-कभी यूपी, बिहार भी हो आओ दिल की बात- एक सेमेस्टर 2-3 बार, प्रतिमाह के हिसाब से 4000 माया सुझाव-आयोजकों से एसी 3 की टिकट लो स्लीपर में जाओ, जवान हो यार। जरा टोटल कर लो भइया बाकी कुछ खुद भी जेनरेट कर लेना *टोटल - 22000+2000+1000+5000+1000+2000+2000+2000+4000+1000( रॉयल्टी का ) = 41000 माया* *फुट नोट*- ये तो शुरुआती दौर है जैसे-जैसे बाजार बनेगा वैसे-वैसे सेवा और माया में उत्तरोतर वृद्धि होगी- -आजकल एनआरआई लोग हिन्दी पढ़ने लगे हैं तो विदेश गमन का भी योग बनेगा। - धनी घर की सुकन्या जो कि शादी के लिए पढ़ना चाहती है उससे भी इम्पोर्टेड उपहार - हिन्दी श्रद्धा और सेवा स्थली है, हरियाणा के छात्र घी देते रहेंगे कुल मिलाकर यहां भी मामला घाटे का नहीं है....और जो थोड़ा बहुत कॉम्प्लेक्स हिन्दी में होने का रहेगा उसे तुम्हारे बाल-बच्चे रिवॉक और नाइकी पहनकर, अंग्रेजी बोलकर पूरी कर देंगे।समझे बच्चा, इसलिए ठान लो कि हमें जिंदगी भर हिन्दी की सेवा करनी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071003/fc3a70ed/attachment.html From sadan at sarai.net Thu Oct 4 15:00:56 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Thu, 4 Oct 2007 15:00:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?ek_nazar_dekhe?= In-Reply-To: <829019b0710032309y35fff184med40613cf1e8f15d@mail.gmail.com> References: <829019b0710032309y35fff184med40613cf1e8f15d@mail.gmail.com> Message-ID: priya vineet, bahut achha laga padh kar. lekin jaisa ki mera swabhav hai dil mange more to aage bhi ye arth-sashtra humlogo ko padhate rahiye haan paresaani yahi ki yahan maya nahi milegi, hindi bloggers ko to log videsh bhi nahi bulaate lekin ek samay aayega jab aap pahale desh main buaaleye jaayenge phir aapka naam phelega, phir kuchh networking hogi, phir angreji waale logon ke bich aap pasand kiye jaane lagenge, kya pata ki tab tak log yah bhi kahane lagain ki yah aam hindi waala nahi hai yah blogiyaataa hai aur phir maya ko aap sahrukh khan ki tarah star lagane lagain.. to isi aas main, sadan. On 11:39 am 10/04/07 "vineet kumar" wrote: > > एक प्रवचन = एक हजार माया > मेरी ये पोस्ट पढ़ने के पहले आप वादा करें कि हिन्दीवालोऊ>  के लिए आगे से आप दो शब्दों क > ा प्रयोग कभी नहीं करेंगे। > एʦgt; ĕ तो ये कि फलां आदमी फलां > कॉल > ेज में हिन्दी पढ़ाता है, इसस > े उनका सहित पूरे हिन्दी > समाʦgt; Ĝ का अपमान होता है और > दूसरा य > े कि उसे हिन्दी पढ़ाने के इत > ने पैसे मिलते हैं। काम और रु > पया- पैसे का हिन्दी समाज शुर > ु से विरोधी रहा है। और अगर आऊ> > ʠइसका प्रयोग उनके लिए करते ऊ> > ٠ňं तो इससे उनका अपमान होता ऊ> > ٠ň।....काम में सभी तरह का काम > आʦgt; Ĥा है...पढ़ाने से लेकर > भोग-विऊ> Ҡľस वगैरह...वगैरह। और > रुपया -प > ैसा में...ये तो बताना नहीं > पडʦgt; ļेगा।....तो आप सोचेंगे कि > भई जʦgt; Ĭ हिन्दीवालों के खाते > में मऊ> ٠ŀने-महीने और विषयों > के मास् > टरों की तरह रुपया आता है तो ऊ> > ɠĸे रुपया न कहें तो और क्या > कʦgt; Ĺें। अच्छा सारे हिन्दीवालेʦgt; Ă औरों की तरह तैयार होकर टिफʦgt; Ŀन लेकर घर से रोज निकल जाते ह > ैं तो उसे काम पर जाना न कहें > ʦgt; Ĥो और क्या कहें। तो सुनिए > हिʦgt; Ĩ्दी में रुपया को माया > कहते ʦgt; Ĺैं, ठगनी कहते हैं और > काम को ऊ> ؠŇवा। हिन्दीवाले > हिन्दी पढऊ> ܠľते नहीं उसकी > सेवा करते हैं > । और चूंकि सेवा और संवेदना क > ा भाव इतना अधिक होता है कि वॊ> > Ǡअपने सहकर्मियों और तेजतर्ʦgt; İार छात्रों को इस माया में पʦgt; ġ़ने नहीं देते। सारी माया अऊ> ʠĨे उपर ले लेते हैं और ये मायʦgt; ľ चाहे जितनी भी लीला करें इनʦgt; ĕे दोस्त-यार और छात्र तो बर्ʦgt; Ĭाद होने से बच जाएंगे।......चलि > ए अब आगे बढ़ें। > > मैंने चैनल को अलविदा कहने > का मन बनाया तो मेरे दिमाग > में बार-बार एक ही सवाल आया > कि कहां तो चला था खूब-रुपया > पैसा कमाने...गाड़ी-फ्लैट > खरीदने जो कि मेरे बाकी > दोस्त भी सोचा करते हैं। > लेडिस मित्र भी कहा करती कि > तुम नहीं समझते हो यार > दिल्ली में अपना फ्लैट होगा > तो कम से पति का धौंस तो नहीं > चलेगा। खैर जाने दीजिए इन सब > बातों को।...मुद्दे पर आते > हैं।...जब दुबारा हिन्दी की > दुनिया में लौटने का मन > बनाया तो सोचा इसके पहले ये > पता कर लेना जरुरी है कि घर, > फ्लैट और एसी कमरा हिन्दी > में आकर नसीब हो चाहे > नहीं...कम से कम होनेवाली > पत्नी की डिलिवरी एसी > हॉस्पीटल में करवा पाउंगा > कि नहीं। मरने के पहले दादी > ने वचन दिया था कि काशीजी > में क्रियाकर्म करना और > पत्नी बनने से पहले एक लेडिस > ने वचन मांगा है कि वादा करो > कि हमारे बच्चे और टीवी > रिपोर्टरों की तरह एसी में > पलेंगें-बढ़ेंगे। मैं > सोचता हूं कि पले-बढ़े भले > ही न कम से कम पैदा तो एसी में > हो ले। जिस आवोहवा में पहली > बार सांस लेगा उसका एहसास > जिंदगी भर रहेगा। मैं भी > सीना तानकर कह सकूंगा कि एसी > का बच्चा है मामूली नहीं है > जी और पत्नी, अगर सबकुछ > ठीक-ठाक रहा तो हो जाएगी, वो > भी लोहराकोचा जाए तो अपने > पीहर में महौल बना सके कि > एसी में पैदा हुआ है न गर्मी > एकदम से बर्दास्त नहीं > होती।....यही सब सोचकर पता > लगाने लगा कि आखिर हिन्दी > समाज में रहकर देश और समाज > सहित अपने बाल-बच्चों को > कितना कुछ दे पाउंगा। > मीडिया में काम करते हुए थोड़ा प्रोफेशनल और कांन्फी > डेंट तो हो ही गया था....सो सोचऊ> > ޠकि ऐसे दो-तीन प्रोफेसरों औऊ> > Рहिन्दी के मास्टरों से मिल ऊ> > ҠĿया जाए जो सबसे ज्यादा अभी ऊ> > ٠Ŀन्दी की सेवा कर रहे हैं और > ʦgt; Ĝाहिर सबसे ज्यादा माया > अपने > उपर ले रहे हैं। मैंने सीधे-ऊ> > ؠŀधे पूछा...सर हमें भी हिन्दी > की खूब सेवा करनी है और ज्याद > ा से ज्यादा माया अपने उपर ले > नी है ताकि बाकी का हिन्दी सम > ाज इत्मीनान रहे। पहले तो > उनʦgt; ōहोंने मुझे समझाया जैसे > चैन > ल वाले समझाते रहे कि क्या यह > ां अपने को बर्बाद कर रहे हो ऊ> > ܠľओ...अच्छा भला रिसर्च करो....वʦgt; ňसे ही इनलोगों ने समझाया कि ʦgt; ĕ्या जिन्दगी हलाल करने पर तॊ> `IJे हो ...ये सेवा-वेवा हमारे लऊ> ߠď छोडो, जाओ मीडिया मे माल कमʦgt; ľओ, तुम जैसे होनहार बच्चों कʦgt; ŀ वहां बहुत जरुरत है। मैं भी > अड गया ...गुरुजी माल-वाल तो ठी > क है लेकिन इज्जत और संस्कार > भी तो एक चीज है और फिर आप ही त > ो कहा करते थे कि तुम ऑर्डर पऊ> > Рबने जीव हो..खासतौर पर हिन्दʦgt; ŀ के लिए।....अंत में उन्होंने ʦgt; Ĺामी भर दी और सेवा और माया के > अंतर्संबंधों (Interrelationship) को समʦgt; > ĝाया। > > > हिन्दी की सेवा के लिए > मासिक माया- 20000-22000 माया, > शुरुआती दौर में सेवा का > मौका- 16 से 18 दिन पांच घंटे > राजनीतिक सक्रियता मिलाकर > सुझाव - मीडिया से हो अखबार > से जुड़ जाओ महीने में कम से > कम 4 लेख- 2000 माया महीने में 2 > साहित्यिक लेख- 1000 माया > सुझाव- चैनल में जुगाड़ लगाओ > महीने में 2-3 टॉक शो में > गेस्ट- 5000 माया सुझाव- > एक्सट्रा क्लास पर जोर दो > महीने में 3-4 क्लास- 1000 माया > दिल की बात- लेडिस कॉलेज मिल > जाए तो एक्सट्रा क्लासेज > ज्यादा मिलेंगे सुझाव- > गेस्ट फैक्ल्टी बनो दिल की बात- मीडिया से हूं,कुकुरमुतʦgt; ōते की तरह पत्रकार बनाने के ʦgt; ĕारखाने खुल रहे हैं > सप्ताह में चार दिन सेवा- 2000 > माया सुझाव- इन्टल बनो > व्याख्यान दो महीने में दो > व्याख्यान- 1500- 2000 माया राह > खर्च अलग से सुझाव- दो- चार > किताब लिख डालो दिल की बात- > अगले साल ब्लॉग ही छपवा > दूंगा सुझाव- बदला-बदली > स्कीम, माने दोस्तों को अपने > कॉलेजों में बुलाओ और > उन्हें कहो कि वे तुम्हें > बुलाएं। आपसे में पीठ ठोको, > लॉबी मजबूत होगी, मार्केट > बढेगा सुझाव- कभी-कभी यूपी, > बिहार भी हो आओ दिल की बात- > एक सेमेस्टर 2-3 बार, प्रतिमाह > के हिसाब से 4000 माया सुझाव-आय > ोजकों से एसी 3 की टिकट लो > स्लʦgt; ŀपर में जाओ, जवान हो > यार। > जरा टोटल कर लो भइया बाकी > कुछ खुद भी जेनरेट कर लेना > टोटल - 22000+2000+1000+5000+1000+2000+2000+2000+4000+1000( > रॉयल्टी का ) = 41000 माया > > फुट नोट- ये तो शुरुआती दौर > है जैसे-जैसे बाजार बनेगा > वैसे-वैसे सेवा और माया में > उत्तरोतर वृद्धि होगी- > -आजकल एनआरआई लोग हिन्दी > पढ़ने लगे हैं तो विदेश गमन > का भी योग बनेगा। - धनी घर की > सुकन्या जो कि शादी के लिए > पढ़ना चाहती है उससे भी > इम्पोर्टेड उपहार - हिन्दी > श्रद्धा और सेवा स्थली है, > हरियाणा के छात्र घी देते > रहेंगे कुल मिलाकर यहां भी > मामला घाटे का नहीं है....और > जो थोड़ा बहुत कॉम्प्लेक्स > हिन्दी में होने का रहेगा > उसे तुम्हारे बाल-बच्चे > रिवॉक और नाइकी पहनकर, > अंग्रेजी बोलकर पूरी कर > देंगे।समझे बच्चा, इसलिए > ठान लो कि हमें जिंदगी भर हिन्दी की सेवा करनी From beingred at gmail.com Fri Oct 5 02:41:28 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 5 Oct 2007 02:41:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTQ=?= Message-ID: <363092e30710041411x684559f4p8da4ccd51016e2d7@mail.gmail.com> राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की चौथी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा कुछ महत्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा बिछाये सांप्रदायिक जाल में फंस गये. 19वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक नीति पर चलते हुए ब्रिटिश इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ताओं ने मुसलमान शासकों पर आरोप लगाया कि उन सभी ने समान और अनवरत रूप से हिंदू मंदिरों को नष्ट किया तथा हिंदुओं का दमन-उत्पीड़न किया ताकि मुसलिम राजाओं के शासन की तुलना में ब्रिटिश शासन की बेहतर छवि प्रस्तुत की जा सके. अंगरेज़ों द्वारा सांप्रदायिक इतिहास लेखन का सर्वाधिक स्पष्ट उदाहरण 1849 में भारत सरकार के सचिव एचएम इलियट की कलकत्ता से प्रकाशित पुस्तक, बिब्लियोग्राफिकल इंडेक्स : द हिस्टोरियंस ऑफ मुहम्मडन इंडियाके पहले खंड की उनके द्वारा लिखित प्रस्तावना में मिलता है. इलियट महोदय, जो बाद में चल कर डावसन के साथ सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासन से संबंधित आठ खंडोंवाली पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाइ इट्स हिस्टोरियंस के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए, मुसलिम शासकों की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना करते हैं. उनका रोष यह है कि `अंगरेजों द्वारा गद्दी पर बिठाये गये मुसलिम राजा भी आलस और भोगविलास के गर्त में डूब गये तथा दुर्गुणों में वे कालीगुला या कोमोडोस से होड़ देने लगे.' इलियट के अनुसार मुसलिम शासकों ने हिंदू शोभायात्राओं, पूजा-आराधना आदि पर रोक लगा दी. मूर्तियों का अंग-भंग किया, मंदिरों को धराशायी कर डाला. लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन किया और बड़े पैमाने पर खून-खराबा किया, संपत्ति की लूटपाट की आदि. उन्होंने पुस्तक के पहले खंड में इन सभी असहनीय कार्रवाइयों के उदाहरण प्रस्तुत किये. इलियट ने जो तसवीर प्रस्तुत की है वह लगभग एक तरफा है और निर्लज्जताभरी दुर्भावना से प्रेरित है. इलियट को पूरी आशा थी कि एक बार उसकी पुस्तक छप जाये तो अंगरेजों को `अपनी सरकार के तहत अधिकतम व्यक्तिगत स्वतंत्रता भोगनेवाले बड़बोले बाबुओं की देशभक्ति और अपनी वर्तमान हालत के पतन को लेकर चीख-पुकार सुनने को नहीं मिलेगी.' वह आशा प्रकट करते हैं कि `थोड़े से समय में ही' वे अब `उस अंधकारपूर्ण अवधि के दिनो' की वापसी के बारे में `आहें भरना' बंद कर देंगे. बहरहाल इलियट को यहां तक यकीन था कि अपने शारीरिक और नैतिक गठन में त्रुटियों के कारण, जिन्हें न तो भोजन से और न शिक्षा से दूर किया जा सकता है. भारतवासी राष्ट्रीय स्वतंत्रता तक का प्रयास नहीं करेंगे. पहली किस्तें : एक , दो , तीन ________________________ उपनिवेशवादी पुरातत्वेत्ता भी इलियट की ही भावनाओं को दोहराते हैं. इस तरह 1891 में अयोध्या के स्मारकों की चर्चा करते हुए, ए फ़्युहरर अविवेक पूर्ण ढंग से इस कुप्रेरित स्थानीय परंपरा को अपना लेते हैं कि जन्मस्थान पर स्थित मंदिर सहित अयोध्या के तीनों मंदिरों को मुसलमानों ने ही ध्वस्त किया था. (द मोनूमेंटल एंटीक्विटीज एंड इंस्क्रिप्शंस इन दि नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध, आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, इलाहाबाद,1891 पृ 297). आगे वह कहते हैं कि `अधिकतर आधुनिक ब्राह्मण और जैन मंदिर अपने से भी प्राचीन उन मंदिरों की जगह पर अवस्थित हैं, जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था' (वही, पृ 296-97). इन अतिरंजनापूर्ण टिप्पणियों का कोई आधार नहीं है, जो उस समय की गयी थीं, जब सन सत्तावन के विद्रोह की स्मृतियां ताजी ही थीं तथा ब्रिटिशविरोधी वहाबी आंदोलन की अनुगूंजें अभी मंद नहीं पड़ी थीं. ऐसा लगता है कि डब्ल्यूडब्ल्यू हंटरद्वारा मुसलमानों के सहायतार्थ दिये गये प्रवचन (इंडियन मुसलमांस, 1870) केवल शासकों तक ही सीमित थे और शैक्षिक जगत के उनके भाईबंदों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. यह साफ जाहिर है कि 19वीं शताब्दी के औपनिवेशिक इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता भारतीय इतिहासकारों को सांप्रदायिकता की घुट्टी पिलाने में सफल हो गये थे. यही कारण था कि बंगाल के प्रमुख इतिहासकारों ने पूर्वी भारत में ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना को वरदान समझा. हालांकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए समान रूप से उत्पीड़नकारी था, तो भी जदुनाथ सरकार जैसे महान इतिहासकार उसे परित्राणकारी कृत्य के रूप में देखते हैं. यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनके विचारों को आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव जैसे इतिहासकारों ने अपना लिया और उन्हें बेतुकेपन की हद तक खींच ले गये. श्रीवास्तव पाकिस्तान के निर्माण के लिए सिंध पर 712 में हुए अरबों के हमले को जिम्मेदार समझते है. यह बात सुविदित है कि सिंध पर अरबों द्वारा हमला भारत के इतिहास में निष्प्रभावी घटना थी. हालांकि अरबों ने भारतीय संस्कृति के कुछ तत्वों को पश्चिम में छितराया जरूर था पर सिंध पर उनके चार शताब्दियों के शासन ने भारतीय राज्यतंत्र संस्कृति और समाज पर कोई वास्तविक छाप नहीं छोड़ी. बंगाल के कुछ अग्रणी शिक्षाशास्त्रियों और इतिहासकारों के दिमाग चूंकि सांप्रदायिक ढर्रे पर काम कर रहे थे. अत: वे इतिहास के एक ऐसे समेकित विभाग के बारे में नहीं सोच सकते थे, जिसमें इतिहास के सभी कालों और पहलुओं को पढ़ाया जा सके. स्पष्ट ही प्राचीन भारत के महिमामंडन के लिए ही पहली बार देश में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति का अलग से एक विभाग खोला गया. इसी तरह हिंदू इतिहास के अध्ययन के समकक्ष इसलामिक इतिहास का एक विभाग भी खोला गया. यह महत्वपूर्ण है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए अनुशंसित पाठ्यक्रम में राजपूत इतिहास, मराठा आदि पर प्रबंध भी लिखे गये. इसके विपरीत अंगरेजों के औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बंगाल में अनेकानेक विद्रोहों की मिसाले होने के बावजूद उनके संबंध में कोई पाठ्यक्रम नहीं अपनाये गये. अत: ऐसा लगेगा कि मुसलमानों को विदेशी मानने का विचार-हालांकि वे स्थायी रूप से देश में बस गये थे और देश की मिली-जुली संस्कृति का अभिन्न अंग बन गये थे- सांप्रदायिक ढर्रे पर ऐतिहासिक अध्ययनों के संगठन द्वारा पोषित किया गया और विधि सम्मत करार दिया गया. विश्वविद्यालयों में ऐतिहासिक और अन्य अध्ययनों का नमूना कलकत्ता ने ही बंगाल, बिहार व अन्य पड़ोसी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के लिए प्रस्तुत किया. जब एकबार कलकत्ता में प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का विभाग खुल गया तो बाद में चल कर बनारस और दूसरे विश्वविद्यालयों में भी ऐसे विभाग खोले गये. इसमें कोई संदेह नही कि इन विभागों के कई सदस्यों ने बहुमूल्य शोधकार्य किया पर इसके साथ इनमें से बहुत से विभाग बहुत दिन तक रूढिवाद और हिंदू सांप्रदायिकता के गढ़ बने रहे और उन्होंने प्राचीन भारत में जो कुछ भी हुआ उसकी प्राचीनता और अनूठेपन पर जोर दिया तथा प्रकारांतर से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिंदू धर्म मूलत: इसलाम और अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/6d3088d9/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Oct 5 02:41:28 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 5 Oct 2007 02:41:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSC4KSq?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSm4KS+4KSv4KS/4KSVIOCksOCkvuCknOCkqOClgOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS/IOCklOCksCDgpLDgpL7gpK4g4KSV4KWAIOCkkOCkpOCkv+CkuQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS44KS/4KSV4KSk4KS+LTQ=?= Message-ID: <363092e30710041411x684559f4p8da4ccd51016e2d7@mail.gmail.com> राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की चौथी किस्त. प्रोफेसर आरएस शर्मा कुछ महत्वपूर्ण भारतीय इतिहासकार ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा बिछाये सांप्रदायिक जाल में फंस गये. 19वीं शताब्दी के दौरान मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करने की औपनिवेशिक नीति पर चलते हुए ब्रिटिश इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ताओं ने मुसलमान शासकों पर आरोप लगाया कि उन सभी ने समान और अनवरत रूप से हिंदू मंदिरों को नष्ट किया तथा हिंदुओं का दमन-उत्पीड़न किया ताकि मुसलिम राजाओं के शासन की तुलना में ब्रिटिश शासन की बेहतर छवि प्रस्तुत की जा सके. अंगरेज़ों द्वारा सांप्रदायिक इतिहास लेखन का सर्वाधिक स्पष्ट उदाहरण 1849 में भारत सरकार के सचिव एचएम इलियट की कलकत्ता से प्रकाशित पुस्तक, बिब्लियोग्राफिकल इंडेक्स : द हिस्टोरियंस ऑफ मुहम्मडन इंडियाके पहले खंड की उनके द्वारा लिखित प्रस्तावना में मिलता है. इलियट महोदय, जो बाद में चल कर डावसन के साथ सुल्तानों और मुगल बादशाहों के शासन से संबंधित आठ खंडोंवाली पुस्तक हिस्ट्री ऑफ इंडिया एज टोल्ड बाइ इट्स हिस्टोरियंस के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हुए, मुसलिम शासकों की कठोरतम शब्दों में भर्त्सना करते हैं. उनका रोष यह है कि `अंगरेजों द्वारा गद्दी पर बिठाये गये मुसलिम राजा भी आलस और भोगविलास के गर्त में डूब गये तथा दुर्गुणों में वे कालीगुला या कोमोडोस से होड़ देने लगे.' इलियट के अनुसार मुसलिम शासकों ने हिंदू शोभायात्राओं, पूजा-आराधना आदि पर रोक लगा दी. मूर्तियों का अंग-भंग किया, मंदिरों को धराशायी कर डाला. लोगों का जबरन धर्म परिवर्तन किया और बड़े पैमाने पर खून-खराबा किया, संपत्ति की लूटपाट की आदि. उन्होंने पुस्तक के पहले खंड में इन सभी असहनीय कार्रवाइयों के उदाहरण प्रस्तुत किये. इलियट ने जो तसवीर प्रस्तुत की है वह लगभग एक तरफा है और निर्लज्जताभरी दुर्भावना से प्रेरित है. इलियट को पूरी आशा थी कि एक बार उसकी पुस्तक छप जाये तो अंगरेजों को `अपनी सरकार के तहत अधिकतम व्यक्तिगत स्वतंत्रता भोगनेवाले बड़बोले बाबुओं की देशभक्ति और अपनी वर्तमान हालत के पतन को लेकर चीख-पुकार सुनने को नहीं मिलेगी.' वह आशा प्रकट करते हैं कि `थोड़े से समय में ही' वे अब `उस अंधकारपूर्ण अवधि के दिनो' की वापसी के बारे में `आहें भरना' बंद कर देंगे. बहरहाल इलियट को यहां तक यकीन था कि अपने शारीरिक और नैतिक गठन में त्रुटियों के कारण, जिन्हें न तो भोजन से और न शिक्षा से दूर किया जा सकता है. भारतवासी राष्ट्रीय स्वतंत्रता तक का प्रयास नहीं करेंगे. पहली किस्तें : एक , दो , तीन ________________________ उपनिवेशवादी पुरातत्वेत्ता भी इलियट की ही भावनाओं को दोहराते हैं. इस तरह 1891 में अयोध्या के स्मारकों की चर्चा करते हुए, ए फ़्युहरर अविवेक पूर्ण ढंग से इस कुप्रेरित स्थानीय परंपरा को अपना लेते हैं कि जन्मस्थान पर स्थित मंदिर सहित अयोध्या के तीनों मंदिरों को मुसलमानों ने ही ध्वस्त किया था. (द मोनूमेंटल एंटीक्विटीज एंड इंस्क्रिप्शंस इन दि नार्थ वेस्टर्न प्रोविंसेज एंड अवध, आरकियोलाजिकल सर्वे ऑफ इंडिया, इलाहाबाद,1891 पृ 297). आगे वह कहते हैं कि `अधिकतर आधुनिक ब्राह्मण और जैन मंदिर अपने से भी प्राचीन उन मंदिरों की जगह पर अवस्थित हैं, जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया था' (वही, पृ 296-97). इन अतिरंजनापूर्ण टिप्पणियों का कोई आधार नहीं है, जो उस समय की गयी थीं, जब सन सत्तावन के विद्रोह की स्मृतियां ताजी ही थीं तथा ब्रिटिशविरोधी वहाबी आंदोलन की अनुगूंजें अभी मंद नहीं पड़ी थीं. ऐसा लगता है कि डब्ल्यूडब्ल्यू हंटरद्वारा मुसलमानों के सहायतार्थ दिये गये प्रवचन (इंडियन मुसलमांस, 1870) केवल शासकों तक ही सीमित थे और शैक्षिक जगत के उनके भाईबंदों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा था. यह साफ जाहिर है कि 19वीं शताब्दी के औपनिवेशिक इतिहासकार और पुरातत्ववेत्ता भारतीय इतिहासकारों को सांप्रदायिकता की घुट्टी पिलाने में सफल हो गये थे. यही कारण था कि बंगाल के प्रमुख इतिहासकारों ने पूर्वी भारत में ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना को वरदान समझा. हालांकि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के लिए समान रूप से उत्पीड़नकारी था, तो भी जदुनाथ सरकार जैसे महान इतिहासकार उसे परित्राणकारी कृत्य के रूप में देखते हैं. यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि उनके विचारों को आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव जैसे इतिहासकारों ने अपना लिया और उन्हें बेतुकेपन की हद तक खींच ले गये. श्रीवास्तव पाकिस्तान के निर्माण के लिए सिंध पर 712 में हुए अरबों के हमले को जिम्मेदार समझते है. यह बात सुविदित है कि सिंध पर अरबों द्वारा हमला भारत के इतिहास में निष्प्रभावी घटना थी. हालांकि अरबों ने भारतीय संस्कृति के कुछ तत्वों को पश्चिम में छितराया जरूर था पर सिंध पर उनके चार शताब्दियों के शासन ने भारतीय राज्यतंत्र संस्कृति और समाज पर कोई वास्तविक छाप नहीं छोड़ी. बंगाल के कुछ अग्रणी शिक्षाशास्त्रियों और इतिहासकारों के दिमाग चूंकि सांप्रदायिक ढर्रे पर काम कर रहे थे. अत: वे इतिहास के एक ऐसे समेकित विभाग के बारे में नहीं सोच सकते थे, जिसमें इतिहास के सभी कालों और पहलुओं को पढ़ाया जा सके. स्पष्ट ही प्राचीन भारत के महिमामंडन के लिए ही पहली बार देश में कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राचीन इतिहास तथा संस्कृति का अलग से एक विभाग खोला गया. इसी तरह हिंदू इतिहास के अध्ययन के समकक्ष इसलामिक इतिहास का एक विभाग भी खोला गया. यह महत्वपूर्ण है कि कलकत्ता विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास के अध्ययन के लिए अनुशंसित पाठ्यक्रम में राजपूत इतिहास, मराठा आदि पर प्रबंध भी लिखे गये. इसके विपरीत अंगरेजों के औपनिवेशिक शासन के खिलाफ बंगाल में अनेकानेक विद्रोहों की मिसाले होने के बावजूद उनके संबंध में कोई पाठ्यक्रम नहीं अपनाये गये. अत: ऐसा लगेगा कि मुसलमानों को विदेशी मानने का विचार-हालांकि वे स्थायी रूप से देश में बस गये थे और देश की मिली-जुली संस्कृति का अभिन्न अंग बन गये थे- सांप्रदायिक ढर्रे पर ऐतिहासिक अध्ययनों के संगठन द्वारा पोषित किया गया और विधि सम्मत करार दिया गया. विश्वविद्यालयों में ऐतिहासिक और अन्य अध्ययनों का नमूना कलकत्ता ने ही बंगाल, बिहार व अन्य पड़ोसी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के लिए प्रस्तुत किया. जब एकबार कलकत्ता में प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का विभाग खुल गया तो बाद में चल कर बनारस और दूसरे विश्वविद्यालयों में भी ऐसे विभाग खोले गये. इसमें कोई संदेह नही कि इन विभागों के कई सदस्यों ने बहुमूल्य शोधकार्य किया पर इसके साथ इनमें से बहुत से विभाग बहुत दिन तक रूढिवाद और हिंदू सांप्रदायिकता के गढ़ बने रहे और उन्होंने प्राचीन भारत में जो कुछ भी हुआ उसकी प्राचीनता और अनूठेपन पर जोर दिया तथा प्रकारांतर से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि हिंदू धर्म मूलत: इसलाम और अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/6d3088d9/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Fri Oct 5 15:00:49 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 5 Oct 2007 15:00:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> दोस्तो, रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है कि हिन्दी में एक ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को सामने ला सके. पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा हुई. इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को बहस में शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला आयोजित करके या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब संदर्भ बदल गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को भी मिलेगा. अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ हद तक गौरी हमें बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही केन्द्रित होगा. मुझे लगता है कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं आपसे आपके वक़्त का दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी सामाग्री रख सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और हो सके तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में हैं. जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो होना ही चहिए. रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं जो सहज ही याद आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का सहयोग भी हमें मिलेगा. इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना करते हुए, उसे भी अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना जाए तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम संकीर्णता न बरतें तो सबका भला होगा.... सहयोग की अपेक्षा में रविकान्त + राजेश रंजन ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 From: Rajesh Ranjan To: Ravikant रविकांत, मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. आपका राजेश आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: १. औजार क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) ख. मोबाइल ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत घ. कैमरा ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... २. इतिहास - तकनीकी इतिहास ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, ई-लोकतंत्र ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति ६. गैर सरकारी संगठन व उनके प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. ____________________________________________________________________________ ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. http://autos.yahoo.com/new_cars.html ------------------------------------------------------- From jha.brajeshkumar at gmail.com Fri Oct 5 16:22:38 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Fri, 5 Oct 2007 16:22:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS+4KS5?= Message-ID: <6a32f8f0710050352x5eb35d6ey2fabe5c7d4866ca2@mail.gmail.com> उस शाम की बात रंग ला रही है. मुक्तिका आ रही है. अब आएगा मजा. ब्रजेश झा -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-6457 Size: 356 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/bbdcb9b5/attachment.bin From ravikant at sarai.net Fri Oct 5 16:59:41 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 5 Oct 2007 16:59:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS14KS/?= =?utf-8?b?4KSn4KSt4KS+4KSw4KSk4KWA?= Message-ID: <200710051659.41846.ravikant@sarai.net> विविध भारती हम सब के काम और फ़ुरसत दोनों ही लम्हों की साथी रही है. बचपन में जब टेप रिकॉर्डर गांवों में आसानी से उपलब्ध नहीं थे, इसी का तो सहारा था. फिर कॉलेज के दिनों तक इसने साथ दिया. विविध भारती नाम सुनने में बहुत अच्छा लगता है पर यह दरअसल अंग्रेज़ी के निहायत गद्यात्मक शब्द मिस्लेनियस का बहुत ख़ूबसूरत और काव्यात्मक अनुवाद है, देश व भाषा-भक्ति की चाशनी में लिपटा हुआ. और इसके जन्म के साथ ही फ़िल्मि गानों को आकाशवाणी में दाख़िला मि ला. हमारे नीति-नियामकों के उस दौर के शुद्धतावादी रवैये के चलते सिने-सामग्री को जात-बाहर किया हुआ था. तो लोग रेडियो सीलॉन या रेडियो नेपाल या ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस सुनते थे. पर विविध भारती ने जल्द ही अपना सिक्का जमा लिया, और इसे किसानों, जवानों, गृहिणियों, विद्यार्थियों, कारीगरों सब का प्यार मिला. आज भी व्यक्तिगत तौर पर मुझे सरकारी एफ़एम में ज़्या दा गहराई और विविधता दिखाई देती है. मज़े लें रविकान्त विविधभारती को बचाना होगा ! 5.10.07 http://bhadas.blogspot.com/2007/10/blog-post_1094.html आज भी विविधभारती का कोई जवाब नहीं। पचास की विविधभारती आज के हल्ला मचाते एफएम चैनलों के लिए नसीहत हैं। यह सही है कि आसानी से और बेहद साफ आवाज में सुने जा सकने वाले एफएम चैनल ने रेडियो की पूरी दुनिया को बदल दिया है। अगर यही सुविधा विविधभारती को मिलती तो शायद शहरी क्षेत्र में भी इन एफएम चैनलों को सिक्का जमाना इतना आसान नहीं होता। यह एक किस्म की बेईमानी ही कहीं जाएगी कि विविधभारती का वैसा आधुनिकीकरण नहीं किया गया जैसा एफएम चैनलों को उपलब्ध हैं। बेहद संतुलित हिंदी में विविधभारती के गूंजते कार्यक्रम कितना सुकून देते थे यह तो वहीं महसूस कर सकता है जो इन पचास सालों में विविध भारती का हमसफर रहा है। छायागीत और जवानों के कार्यक्रम से लेकर हवामहल तक क्या कुछ नहीं दिया विविधभारती ने। कह सकते हैं कि ऐसा शायद ही कोई शख्स हो जिन्होंने विविधभारती नहीं सुनी हो। ग्रामीण भारत के लिए तो अभी भी विविधभारती मनोरंजन के लिए मायने रखती है। यह सही है कि मनोरंजन के तमाम आयामों के विकसित होने के साथ ही विविधभारती अब अपना अस्तित्व खोती नजर आ रही है। क्या विविधभारती के असी म संगीत भंडार यूं ही बेकार हो जाएंगे? अगर ऐसा होगा तो यह अनर्थ ही होगा। एफएम की तरह विविधभारती के भी प्रसारण की व्यवस्था की जानी चाहिए। यही एकमात्र उपाय होगा जो विवि धभारती के हम जैसे दीवानों को फिर मनोरंजन की उसी दुनिया में ले जासकेगा जहां एफएम चैनलों का शोर कम होगा साथ ही रेडियो की इस धरोहर को बचाया जा सकेगा। अब जबकि ग्‍लोबलाइजेशन के इस दौर में, जबकि सस्‍ते मनोरंजन के ढेरों साधन धड़ाधड़ उग रहे हैं, थोक के भाव फिल्‍में बन रही हैं, मल्‍टीप्‍लेक्‍स खुल रहे हैं और रेडियो स्‍टेशनों की तो बरसात हुई जा रही है, कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्‍होंने अपना अर्थ और गरिमा नहीं खोयी। इस दौर में, जबकि वास्‍ तविक अर्थपूर्ण मनोरंजन पर बाजार और मुनाफे की तलवार लटकी हुई है, स्‍वस्‍थ मनोरंजन की लंबी विरासत को कायम रखते हुए ‘विविध भारती’ अपनी स्‍वर्ण जयंती मना रहा है। आज से पचास साल पहले 3 अक्‍तूबर, 1957 को आजाद हिंदुस्‍तान में देशवासियों को स्‍वस्‍थ और ज्ञानवर्द्धक मनोरंजन परोसने के उम्‍दा विचार की अभिव्‍यक्ति विविध भारती सेवा के रूप में सामने आई। तब तक टेलीवि जन की शुरुआत नहीं हुई थी, जबकि रेडियो 1927 से ही भारत में आ चुके थे। आजादी की लड़ाई में भी इन नवीन आविष्‍कारों ने महती भूमिका निभाई थी। बड़े पर्दे पर श्‍वेत-श्‍याम फिल्‍में धीरे-धीरे अपना रंग खोल रही थीं। सोहराब मोदी सरीखी शख्सियतें सिनेमा को एक अर्थ दे रही थीं।यही वह दौर था, जब विविध भारती अस्तित्‍व में आया। आकाशवाणी के तत्‍कालीन महानिदेशक गिरिजाकुमार माथुर ने एक ऐसी रेडियो सेवा की परिकल्‍पना की, जिसमें ढेर सारे रंग और विविधताएँ हों। इस तरह इस रेडिया सेवा का नाम पड़ा - विविध भारती। नरेंद्र शर्मा और गोपालदास आदि इस शुरुआत में सहयोगी रहे। संगीतकार अनिल विश्‍वास ने नरेंद्र शर्मा द्वारा लिखे गीत को स्‍वर दिए। यह विविध भारती पर प्रसारित होने वाला पहला गीत था। उसके बाद विविध भारती के पचास वर्षों की यात्रा में बहुत सारे उतार-चढ़ाव आए हैं। यह राज कपूर और देवानंद से लेकर आज के मसाला युग तक बॉलीवुड के सफर की भी गवाह रही है। विविध भारती के जयमाला और हवामहल आदि कार्यक्रम पचास साल से हिंदी श्रोताओं के दिलों में बसे हैं। आज के युग में, जब हर कुछ अस्‍थाई है, किसी फिल्‍म, किसी गीत या किसी कार्यक्रम की उम्र भी बहुत मामूली होती है, विविध भारती के कार्यक्रम पचास सालों से हिंदुस्‍तान के जनमानस में अपनी जगह बनाए हुए हैं। विविध भारती के संग्रहालय में बहुत से पुराने और दुर्लभ रिकॉर्ड मौजूद हैं। सोहराब मोदी, नौशाद, ओ.पी. नय्यर, नूरजहाँ, कुंदनलाल सहगल, मुकेश, माला सिन्‍हा और वहीदा रहमान तक की आवाज और उनके साथ कुछ अंतरंग बातचीत के रिकॉर्ड सुने जा सकते हैं। विविध भारती के विज्ञापनों में अक्‍सर राजकपूर की आवाज सुन पड़ती है, ‘पिताजी ने जब मुझे फिल्‍मों में भेजा, तो वह भी चौथे असिस्‍टेंट की हैसियत से। कहते थे, राजू, नीचे से शुरू करोगे तो एक दिन बहुत ऊपर तक जाओगे।’इन आवाजों को आज भी सुनन हमें किसी पुराने स्‍वप्‍नलोक में ले जाता है। हिंदी सिनेमा के उस समृद्ध दौ र में, उन दिनों की स्‍मृतियों में, जो आज भी बिल्‍कुल ताजा मालूम देती हैं। इतना ही नहीं, हरिवंशराय बच्‍चन और सुमित्रानंदन पंत तक की आवाज यहाँ सुनी जा सकती है। विविध भारती की शुरुआत उस दौर में हुई थी, जब साहित्‍य, कला, लेखन और संगीत की लोगों के बीच गहरी जड़ें थीं। विविध भारती ने उस धरोहर और उस दौर की बहुत-सी यादों को सँजोकर रखा है और आज भी उस परंपरा को कायम रखे हुए है। बदलते वक्‍त के साथ विविध भारती ने अपने कार्यक्रमों में बहुत से परिवर्तन किए। सेहतनामा, मुलाकात, सेल्‍युलॉइड के सितारे, सरगम के सितारे, मंथन, हलो फरमाइश और सखी-सहेली विविध भारती की माला में गूँथे गए नए मोती है। बेशक विविध भारती ने भी बाजार के साथ कुछ कदमताल करने की कोशिश की है, लेकिन उसकी असल महक और रंग अब भी बरकरार है। दुश्चिंताएं भी हैं कि क्या व्यावसायिकता के इस दौर में विविधभारती को बचाए रखने की ईमानदार कोशिश की जा रही है? शायद नहीं। तो फिर अब विविधभारती को भी एफएम चैनलों की तरह पूरे देश में सुने जाने की व्यवस्था करने का हमारी सरकार को अवश्य संकल्प लेना चाहिए। एक अच्छी परंपरा को कायम रखने का भी धर्म हमारी सरकार को निभाना होगा और विविधभारती को बचाना होगा। Posted by डा.मान्धाता सिंह at 12:40 पूर्वाह्न Labels: विविधभारती From rakeshjee at gmail.com Fri Oct 5 17:31:43 2007 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 5 Oct 2007 17:31:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> References: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> Message-ID: <292550dd0710050501j308a2fdcu3e2bca659e585790@mail.gmail.com> प्रिय दीवानों बिल्कुल ठीक कहा ब्रजेश ने. मुझे तो अंदाज़ा ही नहीं था कि इतनी जल्दी बात व्यापक हो जाएगी. राजेश रंजन और रविकान्त आप चाहें तो बन्दा भी स्वयंसेवकी के लिए राजी है. स्वरूप और समय आगे बातचीत में तय कर लिया जाएगा. शुभकामनाओं समेत राकेश स्वयंसेवक On 10/5/07, Ravikant wrote: > > दोस्तो, > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा > है कि हिन्दी में एक > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > सामने ला सके. > पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा > हुई. > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर > पाएँगे, > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों > को बहस में > शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > आयोजित करके > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर > अब संदर्भ बदल > गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद > होते चले जाएँगे. फिर कुछ > बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा > स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों > को भी मिलेगा. > अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > हद तक गौरी हमें > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए > चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ > सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी > पत्रिका निकालने में > उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर > सामग्री भी > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है > कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक > हो, > और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ > न जाए. > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > आपसे आपके वक़्त का > दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर > हम पहले कहकर सब > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि > क्या ऐसी किसी > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > सामाग्री रख > सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और > हो सके > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का > सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी > सलाहकार की भूमिका में > हैं. > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > होना ही चहिए. > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > जो सहज ही याद > आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर > दीवान पर बातचीत शुरू > करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त > लोगों को भेज सकते हैं, > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > सहयोग भी हमें मिलेगा. > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत > में रचनात्मक > हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > करते हुए, उसे भी > अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक > मुक्तिका अच्छा > लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता > रहेगा. इतना > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका > माना जाए तो हमें > कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम > संकीर्णता न बरतें > तो सबका भला होगा.... > > > सहयोग की अपेक्षा में > > रविकान्त + राजेश रंजन > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > From: Rajesh Ranjan > To: Ravikant > > रविकांत, > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > आपका > राजेश > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > १. औजार > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > ख. मोबाइल > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > घ. कैमरा > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > ई-लोकतंत्र > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > ____________________________________________________________________________ > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/477a0e2f/attachment.html From girindranath at gmail.com Fri Oct 5 21:24:18 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 5 Oct 2007 21:24:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> References: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> Message-ID: <63309c960710050854o6c2a19ebn5266301e73c29937@mail.gmail.com> दरअसल यह एक अनोखा प्रयोग होगा, खासकर तकनीकी विकास के इस दौर में हिन्दी के बढ़ते हस्तक्षेप को लेकर। शायद इस संबंध में जल्द हीं बातचीतों का दौर चलेगा। कंप्यूटर और मोबाईल के स्क्रीनों पर हिन्दीयाने का सुख शायद सबसे अलग और अनोखा सुख होता है। गिरीन्द्र अनुभव 9868086126 On 10/5/07, Ravikant wrote: > > दोस्तो, > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा > है कि हिन्दी में एक > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > सामने ला सके. > पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा > हुई. > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर > पाएँगे, > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों > को बहस में > शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > आयोजित करके > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर > अब संदर्भ बदल > गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद > होते चले जाएँगे. फिर कुछ > बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा > स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों > को भी मिलेगा. > अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > हद तक गौरी हमें > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए > चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ > सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी > पत्रिका निकालने में > उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर > सामग्री भी > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है > कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक > हो, > और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ > न जाए. > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > आपसे आपके वक़्त का > दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर > हम पहले कहकर सब > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि > क्या ऐसी किसी > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > सामाग्री रख > सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और > हो सके > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का > सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी > सलाहकार की भूमिका में > हैं. > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > होना ही चहिए. > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > जो सहज ही याद > आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर > दीवान पर बातचीत शुरू > करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त > लोगों को भेज सकते हैं, > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > सहयोग भी हमें मिलेगा. > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत > में रचनात्मक > हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > करते हुए, उसे भी > अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक > मुक्तिका अच्छा > लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता > रहेगा. इतना > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका > माना जाए तो हमें > कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम > संकीर्णता न बरतें > तो सबका भला होगा.... > > > सहयोग की अपेक्षा में > > रविकान्त + राजेश रंजन > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > From: Rajesh Ranjan > To: Ravikant > > रविकांत, > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > आपका > राजेश > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > १. औजार > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > ख. मोबाइल > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > घ. कैमरा > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > ई-लोकतंत्र > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > ____________________________________________________________________________ > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-6272 Size: 14386 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/fa0f7851/attachment.bin From alok at devanaagarii.net Sat Oct 6 09:26:41 2007 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Sat, 6 Oct 2007 09:26:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> References: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> Message-ID: <9f359c1e0710052056q7d96109q12f93bde9606fa46@mail.gmail.com> रविकांत जी, > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? जी हाँ, बिल्कुल जुड़ना चाहेंगे। वैसे मुझे लगता है कि यह लेख हिंदी की कागज़ी पत्रिकाओं में छपने चाहिए, ऑन्लाइन संस्करण तो बिल्कुल हो ही हो, उसके अलावा। पत्रिकाएँ छापने का मुझे अनुभव नहीं है, तो बताइए कि आप किस प्रकार का योगदान चाहेंगे? मैं किसी शनिवार-इतवार को आपसे दिल्ली में मुलाकात भी कर सकता हूँ - मुलाकात काफ़ी समय से बकाया है। आलोक 2007/10/5, Ravikant : > दोस्तो, > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है कि हिन्दी में एक > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को सामने ला सके. > पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा हुई. > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को बहस में > शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला आयोजित करके > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब संदर्भ बदल > गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ > बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को भी मिलेगा. > अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ हद तक गौरी हमें > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ > सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में > उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही केन्द्रित होगा. मुझे लगता है > कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, > और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं आपसे आपके वक़्त का > दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी सामाग्री रख > सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और हो सके > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का > सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में > हैं. > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो होना ही चहिए. > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं जो सहज ही याद > आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू > करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का सहयोग भी हमें मिलेगा. > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक > हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना करते हुए, उसे भी > अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा > लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना जाए तो हमें > कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम संकीर्णता न बरतें > तो सबका भला होगा.... > > > सहयोग की अपेक्षा में > > रविकान्त + राजेश रंजन > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > From: Rajesh Ranjan > To: Ravikant > > रविकांत, > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > आपका > राजेश > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > १. औजार > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > ख. मोबाइल > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > घ. कैमरा > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > ई-लोकतंत्र > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > ____________________________________________________________________________ > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From zaighamimam at gmail.com Sat Oct 6 09:51:02 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sat, 6 Oct 2007 09:51:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> References: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> Message-ID: ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा साहब जो नियमित ब्लागर नहीं है। पत्रिका के शुरूआती प्रस्ताव पर हम सब इतने उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? शायद रविकांत जी को एकबार फिर अपील करनी पड़े। मुक्तिका अनिमंत्रित सामग्री लौटाने के लिए जिम्मेदार नहीं है...कृपया गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका के मिजाज से मेलजोल खाती रचनाएं ही भेजें। अनिमंत्रित सामग्री भेजने के लिए आतुर जै़गम On 10/5/07, Ravikant wrote: > > दोस्तो, > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा > है कि हिन्दी में एक > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > सामने ला सके. > पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा > हुई. > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर > पाएँगे, > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों > को बहस में > शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > आयोजित करके > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर > अब संदर्भ बदल > गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद > होते चले जाएँगे. फिर कुछ > बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा > स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों > को भी मिलेगा. > अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > हद तक गौरी हमें > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए > चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ > सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी > पत्रिका निकालने में > उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर > सामग्री भी > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है > कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक > हो, > और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ > न जाए. > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > आपसे आपके वक़्त का > दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर > हम पहले कहकर सब > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि > क्या ऐसी किसी > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > सामाग्री रख > सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और > हो सके > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का > सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी > सलाहकार की भूमिका में > हैं. > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > होना ही चहिए. > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > जो सहज ही याद > आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर > दीवान पर बातचीत शुरू > करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त > लोगों को भेज सकते हैं, > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > सहयोग भी हमें मिलेगा. > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत > में रचनात्मक > हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > करते हुए, उसे भी > अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक > मुक्तिका अच्छा > लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता > रहेगा. इतना > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका > माना जाए तो हमें > कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम > संकीर्णता न बरतें > तो सबका भला होगा.... > > > सहयोग की अपेक्षा में > > रविकान्त + राजेश रंजन > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > From: Rajesh Ranjan > To: Ravikant > > रविकांत, > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > आपका > राजेश > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > १. औजार > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > ख. मोबाइल > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > घ. कैमरा > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > ई-लोकतंत्र > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > ____________________________________________________________________________ > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/3bb00fcd/attachment.html -------------- next part -------------- An embedded message was scrubbed... From: irfan Subject: =?UTF-8?B?4KS54KS/4KSC4KSm4KWAIOClnuCkv+CksuCljQ==?= =?UTF-8?B?4KSu4KWH4KSCIOCklOCksCDgpIXgpZvgpKbgpJU=?= Date: Sat, 6 Oct 2007 09:52:24 +0530 Size: 2813 Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071005/3bb00fcd/attachment.mht From beingred at gmail.com Sat Oct 6 15:05:27 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 6 Oct 2007 15:05:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWHIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KS/4KSwLCDgpJzgpYsg4KSy4KWC4KSf4KWHIOCklOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSk4KWL4KSh4KWHIOCkl+Ckr+Clhw==?= Message-ID: <363092e30710060235w5367f838gb3e23344990523e8@mail.gmail.com> वे मंदिर, जो लूटे और तोडे़ गये इतिहास में बार बार हिंदू मंदिरों के लूटे और तोडे़ जाने का ज़िक्र आता है. इसके लिए सांप्रदायिक इतिहासकार और राजनीतिक दल शासकों के मुसलमान होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं. प्रख्यात इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा सांप्रदायिक राजनीति और राम के अस्तित्व संबंधी अपने व्याख्यान के इस चरण में उन्हीं मंदिरों की कहानी कह रहे हैं. राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की पांचवीं किस्त. पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार ___________________________ सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-5 प्रोफेसर आरएस शर्मा वर्तमान में पुनरुत्थानवादी विचारों को कुछ सांप्रदायिक मानसिकतावाले लेखक इस्तेमाल कर रहे हैं और उन्हें समर्थन दे रहे हैं. यह दावा किया जा रहा है कि अतीत में दुनिया में जो कुछ भी अच्छा और महान रहा है, वह भारत से ही उद्भूत हुआ और यहीं से दुनिया के दूसरे भागों में फैला. लेकिन इतिहासकार, जिन्हें ठोस प्रमाणों को आधार बनाना होता है, ऐसे विचारों को स्वीकार नही कर सकते. बात चाहे विभिन्न प्रकार की धातुओं और सिक्कों के इस्तेमाल की हो या लेखन के प्रयोग और सभ्यता के ऐसे ही अन्य तत्वों की, हमें तो बड़ी ही सावधानी से प्रमाणों की छानबीन करनी होती है. जैसाकि पता चलेगा तमाम अति पुनरुत्थानवादी विचार ऐसे इतिहासकार प्रस्तुत करते हैं, जो हिंदू संप्रदायवादी और इसलामी रुढ़िपंथी विचारों से प्रतिबद्ध है. भारत में संप्रदायवाद की समस्या को बुनियादी तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की समस्या के तौर पर देखा जाता है. यह समस्या इस तरह नहीं सुलझायी जा सकती कि एक धर्म विशेष को माननेवाले शासकों द्वारा दूसरे धर्म को माननेवाले शासकों और अधीनों के खिलाफ की गयी दमन-उत्पीड़न की कार्रवाइयों पर परदा डाला जाये. इतिहास बतलाता है कि शासक वर्ग चाहे किसी भी धर्म के रहे हों, उनका यह विशेषाधिकार रहा है कि वे अपनी प्रजा को और अपने दुश्मनों को लूटें और उनका उत्पीड़न करें और जो मालमत्ता मिले उसकी मुख्यत: शासक वर्ग के ऊपरी तबकों के सदस्यों के बीच बंदरबांट कर लें. अगर इसलामी बादशाहों और राजाओं ने हिंदू मंदिरों की लूटपाट की तो इतिहासकार इस तथ्य को नजरअंदाज करके उनके प्रति कोई सद्भावना पैदा नहीं कर सकते. पर ऐसी लूटपाट के कारणों का विश्लेषण करना होगा और उनकी व्याख्या करनी होगी जैसा कि मोहम्मद हबीब ने अपनी पुस्तक सुल्तान महमूद आफ गजनीन में महमूद गजनी द्वारा की गयी लूटपाट के मामले में किया है. साधारण व्यक्ति भी इस बात को देख सकता है कि चाहे सभी हिंदू मंदिर सोमनाथ और तिरुपतिके मंदिरों की तरह समृद्ध न रहे हों तो भी आम तौर पर मसजिदों के मुकाबले मंदिर कहीं अधिक समृद्ध हुआ करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में, सोमनाथ मंदिर में 500 देवदासियां, 300 हजाम और बहुत से पुजारी थे. इस मंदिर के स्वामित्व में 10 हजार गांव थे. पर मसजिदों की वास्तु संबंधी बनावट ही ऐसी है कि संपत्ति संग्रह के लिए वहां कोई जगह नहीं होती. यह तो प्रार्थना के लिए एक खुली इमारत होती है. मंदिरो में संपदा के संचय के कारण ही कुछ हिंदू राजा कीमती धातुओ से बनायी गयी मूर्तियों को ध्वस्त करने और राजकोष के लिए धन संपत्ति पर कब्जा करने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के अंत में कश्मीर के शासक हर्ष ने ऐसा ही किया था. उसने एक अधिकारी नियुक्त किया था, जिसका काम मूर्तियों को ध्वस्त करना था (देवोत्पाटन). ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति और कौटिल्य द्वारा अर्थशास्त्र में अंधविश्वासपूर्ण युक्तियों से भोले-भाले लोगों से पैसा उगाहने के लिए सुझाये गये उपायों से यह विचार खारिज हो जाता है कि हिंदू शासक वर्ग के लोग अपनी प्रजा के प्रति लगातार सहिष्णु रहते आये थे. पतंजलि के महाभाष्य, यानी ईसा पूर्व 400 के लगभग के पाणिनी के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी पर ईसा पूर्व 150 के लगभग लिखित उनकी टीका के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अपना खजाना भरने के लिए मौर्य शासक धातु मूर्तियों को पिघलाते थे. अत: धन की अदम्य लालसा के चलते मौर्यों और अन्य शासकों ने धार्मिक मूर्तियों की पवित्रता तक को नहीं बख्शा. निश्चय ही अशोक ने जो कुछ किया वह कहीं अधिक श्लाघ्य और सराहनीय था, पर उसकी नीति से ब्राह्मणों को आर्थिक धक्का लगा. मौर्यों की सत्ता के रहे-सहे अवशेषों का सफाया करनेवाला और ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अंत के आसपास ब्राह्मण राजवंश का संस्थापक, पुष्यमित्र शुंग दूसरी तीसरी शताब्दि के आसपास लिखित ग्रंथ दिव्यावदान में बौद्ध मतावलंबियों के घोर उत्पीड़क के रूप में प्रकट होता है. वह अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ स्तूपों को नष्ट करता, विहारों को जलाता, भिक्षुओं की हत्याएं करता, शाकल यानी आधुनिक सियालकोट तक आगे बढ़ता चला गया था. सियालकोट में उसने घोषणा की थी कि जो भी उसे एक बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे सोने के सौ सिक्के पुरस्कार में मिलेंगे. यह बात अतिरंजनापूर्ण भी हो सकती है, क्योंकि शुंग शासन के अंतर्गत बौद्ध स्तूपों का निर्माण भी किया गया था. लेकिन पुष्यमित्र शुंग और भिक्षुओं के बीच शत्रुतापूर्ण वातावरण से इनकार नहीं कि या जा सकता. हमें यह भी पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में गौड़ के शैव शासक शशांक ने उस बोधिवृक्ष को कटवा डाला था, जिसके नीचे बैठ कर बुद्ध को ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ था. सातवीं शताब्दी के उसके समकालीन राजा हर्ष को सहिष्णु शासक माना जाता है पर उसने भी उन ब्राह्मणों को कारावास में डाला और उनका संहार किया था जिन पर कन्नौज की सभा में बुद्ध के सम्मान में खड़ी की गयी मीनार को जलाने का षड़ंयत्र रचने का आरोप था. मध्यकाल के आरंभ में दक्षिण भारत के जैनियों और शैवों के बीच हमें खुली शत्रुता की बातें सुनने को मिलती हैं और परंपरागत कथनों से पता चलता है कि 8000 जैनियों को सूली पर चढ़ा दिया गया था. यह घटना मंदिर के उत्कीर्णनों में भी परिलक्षित है. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071006/8a6e700b/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Oct 6 15:05:27 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 6 Oct 2007 15:05:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWHIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KS/4KSwLCDgpJzgpYsg4KSy4KWC4KSf4KWHIOCklOCksCA=?= =?utf-8?b?4KSk4KWL4KSh4KWHIOCkl+Ckr+Clhw==?= Message-ID: <363092e30710060235w5367f838gb3e23344990523e8@mail.gmail.com> वे मंदिर, जो लूटे और तोडे़ गये इतिहास में बार बार हिंदू मंदिरों के लूटे और तोडे़ जाने का ज़िक्र आता है. इसके लिए सांप्रदायिक इतिहासकार और राजनीतिक दल शासकों के मुसलमान होने को ज़िम्मेवार ठहराते हैं. प्रख्यात इतिहासकार प्रो रामशरण शर्मा सांप्रदायिक राजनीति और राम के अस्तित्व संबंधी अपने व्याख्यान के इस चरण में उन्हीं मंदिरों की कहानी कह रहे हैं. राम और कृष्ण के अस्तित्व, इतिहास के सांप्रदायिकीकरण और धर्म के राजनीतिक इस्तेमाल पर प्रोफेसर राम शरण शर्मा के व्याख्यान की पांचवीं किस्त. पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार ___________________________ सांप्रदायिक राजनीति और राम की ऐतिहासिकता-5 प्रोफेसर आरएस शर्मा वर्तमान में पुनरुत्थानवादी विचारों को कुछ सांप्रदायिक मानसिकतावाले लेखक इस्तेमाल कर रहे हैं और उन्हें समर्थन दे रहे हैं. यह दावा किया जा रहा है कि अतीत में दुनिया में जो कुछ भी अच्छा और महान रहा है, वह भारत से ही उद्भूत हुआ और यहीं से दुनिया के दूसरे भागों में फैला. लेकिन इतिहासकार, जिन्हें ठोस प्रमाणों को आधार बनाना होता है, ऐसे विचारों को स्वीकार नही कर सकते. बात चाहे विभिन्न प्रकार की धातुओं और सिक्कों के इस्तेमाल की हो या लेखन के प्रयोग और सभ्यता के ऐसे ही अन्य तत्वों की, हमें तो बड़ी ही सावधानी से प्रमाणों की छानबीन करनी होती है. जैसाकि पता चलेगा तमाम अति पुनरुत्थानवादी विचार ऐसे इतिहासकार प्रस्तुत करते हैं, जो हिंदू संप्रदायवादी और इसलामी रुढ़िपंथी विचारों से प्रतिबद्ध है. भारत में संप्रदायवाद की समस्या को बुनियादी तौर पर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच संबंधों की समस्या के तौर पर देखा जाता है. यह समस्या इस तरह नहीं सुलझायी जा सकती कि एक धर्म विशेष को माननेवाले शासकों द्वारा दूसरे धर्म को माननेवाले शासकों और अधीनों के खिलाफ की गयी दमन-उत्पीड़न की कार्रवाइयों पर परदा डाला जाये. इतिहास बतलाता है कि शासक वर्ग चाहे किसी भी धर्म के रहे हों, उनका यह विशेषाधिकार रहा है कि वे अपनी प्रजा को और अपने दुश्मनों को लूटें और उनका उत्पीड़न करें और जो मालमत्ता मिले उसकी मुख्यत: शासक वर्ग के ऊपरी तबकों के सदस्यों के बीच बंदरबांट कर लें. अगर इसलामी बादशाहों और राजाओं ने हिंदू मंदिरों की लूटपाट की तो इतिहासकार इस तथ्य को नजरअंदाज करके उनके प्रति कोई सद्भावना पैदा नहीं कर सकते. पर ऐसी लूटपाट के कारणों का विश्लेषण करना होगा और उनकी व्याख्या करनी होगी जैसा कि मोहम्मद हबीब ने अपनी पुस्तक सुल्तान महमूद आफ गजनीन में महमूद गजनी द्वारा की गयी लूटपाट के मामले में किया है. साधारण व्यक्ति भी इस बात को देख सकता है कि चाहे सभी हिंदू मंदिर सोमनाथ और तिरुपतिके मंदिरों की तरह समृद्ध न रहे हों तो भी आम तौर पर मसजिदों के मुकाबले मंदिर कहीं अधिक समृद्ध हुआ करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के आरंभ में, सोमनाथ मंदिर में 500 देवदासियां, 300 हजाम और बहुत से पुजारी थे. इस मंदिर के स्वामित्व में 10 हजार गांव थे. पर मसजिदों की वास्तु संबंधी बनावट ही ऐसी है कि संपत्ति संग्रह के लिए वहां कोई जगह नहीं होती. यह तो प्रार्थना के लिए एक खुली इमारत होती है. मंदिरो में संपदा के संचय के कारण ही कुछ हिंदू राजा कीमती धातुओ से बनायी गयी मूर्तियों को ध्वस्त करने और राजकोष के लिए धन संपत्ति पर कब्जा करने के लिए विशेष अधिकारी नियुक्त करते थे. ग्यारहवीं शताब्दी के अंत में कश्मीर के शासक हर्ष ने ऐसा ही किया था. उसने एक अधिकारी नियुक्त किया था, जिसका काम मूर्तियों को ध्वस्त करना था (देवोत्पाटन). ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति और कौटिल्य द्वारा अर्थशास्त्र में अंधविश्वासपूर्ण युक्तियों से भोले-भाले लोगों से पैसा उगाहने के लिए सुझाये गये उपायों से यह विचार खारिज हो जाता है कि हिंदू शासक वर्ग के लोग अपनी प्रजा के प्रति लगातार सहिष्णु रहते आये थे. पतंजलि के महाभाष्य, यानी ईसा पूर्व 400 के लगभग के पाणिनी के प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ अष्टाध्यायी पर ईसा पूर्व 150 के लगभग लिखित उनकी टीका के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि अपना खजाना भरने के लिए मौर्य शासक धातु मूर्तियों को पिघलाते थे. अत: धन की अदम्य लालसा के चलते मौर्यों और अन्य शासकों ने धार्मिक मूर्तियों की पवित्रता तक को नहीं बख्शा. निश्चय ही अशोक ने जो कुछ किया वह कहीं अधिक श्लाघ्य और सराहनीय था, पर उसकी नीति से ब्राह्मणों को आर्थिक धक्का लगा. मौर्यों की सत्ता के रहे-सहे अवशेषों का सफाया करनेवाला और ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के अंत के आसपास ब्राह्मण राजवंश का संस्थापक, पुष्यमित्र शुंग दूसरी तीसरी शताब्दि के आसपास लिखित ग्रंथ दिव्यावदान में बौद्ध मतावलंबियों के घोर उत्पीड़क के रूप में प्रकट होता है. वह अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ स्तूपों को नष्ट करता, विहारों को जलाता, भिक्षुओं की हत्याएं करता, शाकल यानी आधुनिक सियालकोट तक आगे बढ़ता चला गया था. सियालकोट में उसने घोषणा की थी कि जो भी उसे एक बौद्ध भिक्षु का सिर लाकर देगा, उसे सोने के सौ सिक्के पुरस्कार में मिलेंगे. यह बात अतिरंजनापूर्ण भी हो सकती है, क्योंकि शुंग शासन के अंतर्गत बौद्ध स्तूपों का निर्माण भी किया गया था. लेकिन पुष्यमित्र शुंग और भिक्षुओं के बीच शत्रुतापूर्ण वातावरण से इनकार नहीं कि या जा सकता. हमें यह भी पता चलता है कि पश्चिम बंगाल में गौड़ के शैव शासक शशांक ने उस बोधिवृक्ष को कटवा डाला था, जिसके नीचे बैठ कर बुद्ध को ज्ञान (बुद्धत्व) प्राप्त हुआ था. सातवीं शताब्दी के उसके समकालीन राजा हर्ष को सहिष्णु शासक माना जाता है पर उसने भी उन ब्राह्मणों को कारावास में डाला और उनका संहार किया था जिन पर कन्नौज की सभा में बुद्ध के सम्मान में खड़ी की गयी मीनार को जलाने का षड़ंयत्र रचने का आरोप था. मध्यकाल के आरंभ में दक्षिण भारत के जैनियों और शैवों के बीच हमें खुली शत्रुता की बातें सुनने को मिलती हैं और परंपरागत कथनों से पता चलता है कि 8000 जैनियों को सूली पर चढ़ा दिया गया था. यह घटना मंदिर के उत्कीर्णनों में भी परिलक्षित है. क्रमशः -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071006/8a6e700b/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Sun Oct 7 00:30:22 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 6 Oct 2007 11:00:22 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWM4KSf4KWH?= =?utf-8?b?IOCkueCliOCkgiDgpJXgpJ/gpL4g4KSV4KWH?= Message-ID: <829019b0710061200n77fa17dflbfc5e3d4f7ff0ac2@mail.gmail.com> *गए थे भाई लोग पॉलिटिक्स, प्यार छोड़ के* *लौटे हैं झारखंड से * *अपनी अब कटा के* *आए दिन इंजतार के* *आए दिन इंतजार के ।।* भाई....ये हिन्दी वालों को अचानक क्या हो गया था, कोई फोन करके क्रीम कलर या फिर आसमानी रंग की शर्ट खरीदने की बात कर रहा रहा था तो कोई फोन करके पूछ रहा है की कम दाम में बढ़िया जूते कहां मिलेंगे तो कोई कह रहा है भाई रे सिर्फ दो घंटे के लिए चलो न मेरे साथ बाजार, कुछ शॉपिंग करनी है। मैंने सोचा कि सरकार ने रिसर्चर का हुलिया सुधारने मतलब कि वो लगे कि रिसर्च कर रहा है के लिए जो वजीफा देना शुरु किया है ये उसी का जोश है कि कोई शर्ट खरीदनी चाह रहा है तो कोई जूते। जो बंदा बुध बाजार से पचास रुपये में आध दर्जन चड्डी खरीदता है वो पूछ रहा है कि जॉकी का ऑरिजिनल माल कहां मिलेगा। जो एक ही मोजे को उलटकर पहनता है आज उसे नाइकी के मोजे लेने हैं। एक बंदे को डार्क कलर की बनियान इसलिए पसंद है क्योंकि ये गंदा कम होता है, आज एक जोड़ी सफेद बनियान चाहिए।......मेरे एक साथी है बीएचयू से, पैदाइशी पवित्र भूमि कहां है पता नहीं, और न जानना जरुरी है क्योंकि अब वे बनारस की फक्कड संस्कृति में आकंठ डूब चुके हैं। हमें गरियाते हैं कि आप भोगी आदमी हैं हिन्दी के नाम पर बिलटउआ शोधार्थी हैं आप बढिया-बढिया विदेशी ब्रांडेड कपड़ा पहनकर हिन्दी के भिखमंगई लुक को तहस-नहस करने में लगे हैं....हमसे पूछ रहे थे कि कौन-सा रेडीमेड पैंट अच्छा रहेगा लुई फिलिप कि ऐरो।..... सबको राय दिया भइया कपड़ा-लत्ता खरीदना इतनी हड़बड़ी की चीज नहीं है काहे एकदम से ऐसे पैसा उड़ाने में लगे हो...सरकार ने हुलिया सुधारने के लिए पैसे दिए हैं लेकिन विवेक बेच कर थोडे ही हुलिया सुधरेगा। किसी ने कुछ नहीं कहा और न ही बताया कि बात क्या है।....एक दो से पूछा कि आप तो सरकार के पहले से ही दामाद हैं। दो साल पहले से ही जेआरएफ उठा रहे हैं तो फिर ये अचानक देह की सर्विसिंग माने जूता से लेकर चड्डी तक बदलने का इरादा अब क्यों आ गया। आप तो प्रोपर्टी जुटाने( किताब) वाले जीव है तो फिर ये भोग-विलास के चक्कर में कहां से पड़ गए। भाई साहब थोड़ी देर चुप रहे और फिर एकदम से झटका मारकर बोले चैनल में आप रोज सज-संवर कर किसके लिए जाते थे....उम्मीद बंधेगी तो आपका भी अंदाज बदल जाएगा। मैंने मन ही मन थुकियाते हुए बोला....बत्तख साला...जिन्दगी भर दीदी-दीदी और दिल्ली आकर मैडम से उपर तो उठ नहीं सका और अब वृद्धा पेंशन मिल रहा है तो जवानी सूझी है। ऐय्याशी का एबीसी नहीं जानता है और आज अंदाज समझा रहा है। भाई साहब हमारे जेएनयू वाले तो और घाघ निकले, बाजार में साथ ऐसे घूम रहे थे कि जैसे सबको मॉरिशस या फिर जर्मनी से पढ़ाने का ऑफर आया है। बीच-बीच में मजाक करता तो चुप मार जाते। मैं मन ही मन अपने को कोसता तू यही बैठे-बैठे ब्लॉग लिखता रह और ग्लोबल होने के सपने देख और ये सब साल-दो साल बाद एनआरआई का ठप्पा लेकर घूमेंगे।....खैर चांद देखकर बल्लीमारान दौडंने की वजह किसी ने मुझे नहीं बताई। करीब सात-आठ दिन बाद जब सब मैं भूल-भाल गया तो फिर फोन आने शुरु हुए। एक ने पूछा यार सुना है कि तुम्हारा झारखंड बहुत सुंदर है। मैंने कहा हां भाई मेरा झारखंड तो वाकई बहुत सुंदर है लेकिन कुछ दिनों के लिए वो मधु कोडा का झारखंड हो गया है इसलिए अब पता नहीं कितना सुंदर है। लेकिन ये अचानक झारखंड प्रेम कैसे उमड़ पड़ा भाई। जबाव मिला बस ऐसे ही जाना चाहता हूं..बता न कौन-कौन सी ट्रेन जाती है। तब भी मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आया लेकिन बाद में एक-दो फोन आए और वे पूछ रहे थे कि विनीतजी आप कब जा रहे हैं झारखंड या फिर आप किस ट्रेन से जा रहे हैं। वो भी सब जगह से हार गए और हमारे सीनियर्स की बतायी कहानी से डर गए तब अंत में मुझे फोन किया कि साथ लेंगे। एक- दो अंकल चिप्स में गाइड मिल जाएगा इसलिए। मेरे सीनियर ने उन्हें बताया था कि वहां लूटपाट का तरीका थोड़ा आदिम है। चोर अंगूठी छिनता नहीं बल्कि हाथ काटकर झोले में रख लेता है और फाका (एकांत) में जाकर अंगूठी निकालकर हाथ फेंक देता है। एक-दो भावुक साथी( साथी जिसे बनाने में कॉलेज का हाथ रहा कि एक ही सेशन और क्लास में एडमीशन दिया) जिसपर कुदरत थोड़ा और टाइम और कच्चा माल देता तो लेडिस होते....फोन करके कहा..क्या विनीत विश भी नहीं करोगे, तुम्हारा तो वैसे भी हो जाएगा, हमलोगों का इलाका थोड़ा अल्टर पड़ जाता है.....मुश्किल है यार लेकिन विश तो कर दो। लोग बताते हैं कि इस बाजारवाद और कनज्यूमर कल्चर के दौर में बत्तीस दांत के बनिए का कहा भी खूब फलता है। इतना सब हो जाने पर तरीके से समझ में आया कि भाई लोग झारखंड के लिए लेक्चरर बनने जा रहे हैं। नोट- मैं भी झारखंड में रहकर हिन्दी पढा-लिखा हूं और अगर लेक्चरर होने के लिए अगर ये बड़ी शर्त है....मुझे पता नहीं और न ही सरकार की और से कोई घोषणा हुई है तो मेरे लिए तो एक सीट फिक्स थी...लेकिन मैंने फार्म ही नहीं भरा....एक तो बहुत बाद में पता चला और दूसरी बात जो कि उससे भी बड़ी वजह है वो ये कि आपको वहां हिन्दी पढ़ाने के लिए हिन्दी का अनुवाद करना पड़ेगा।..ये परेशानी मेरे कॉलेज के टीचर अक्सर झेला करते थे और हमलोग कसम खाते कि न भाई...हिन्दी पढ़ाना बड़ा टफ काम है। सो मैं फार्म भरा ही नहीं और वहां गया ही नहीं।.....और हमारे सारे भाई इस अखिल भारतीय जोर-आजमाइश रैली में झारखंड कूच कर गए। *टेलीफोनिक टॉक उर्फ हौसला बढ़ाओ साथी* फोन पर भाई लोग नाम बता रहे हैं मुझसे जानना चाह रहे हैं कि ये सारे महाशय किस-किस क्षेत्र के एक्सपर्ट हैं माने कविता, कहानी, उपन्यास, साहित्यिक चुटकुला, साहित्यक पॉलिटिकल स्टंटः आगे से साहित्यक नहीं लगा रहा हूं लम्बा हो जाएगा आप मन में ही जोड़ लें, मसखरई, ऋतु- रंग आदि-आदि। मैंने फोन पर ही बताया कि ये डीयू, जेएनयू वाला एक्सपर्ट वाला फंडा वहां के मामले में भी मत पेलो। वहां के लोग हिन्दी की सेवा नहीं साधना करते हैं इसलिए तमाम विधाओं पर समान अधिकार होता है, किसी भी विषय पर प्रश्न पूछने की काबिलीयत रखते हैं। और ऐसा पूछकर हमारे पूर्वज गुरुओं का अपमान मत करो।....जो भी पूछा जाए उसे श्रद्धा से समझो और सुनो ये लॉजिक-वॉजिक डीयू के अढॉक पोस्ट के लिए बचा के रखो। इसकी खपत दिल्ली में आकर होगी। बार-बार फोन करके पूछते हो तो लगता है कहीं न कहीं तुम मेरी बेइज्जती कर रहे हो....अगर परेशानी हो रही है तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए था न कि कहां जा रहे हो। अब गए हो तो वहां की शर्तों पर इंटरव्यू दो और अब आकर ही बात करना, पैसे बचाओ....अभी रिजल्ट आने तक जेब पर थोड़ा कंट्रोल रखो। इतनी नसीहतें देने के बावजूद एक जूनियर ने मिस कॉल दिया और कहा कि सर दिल्ली आने पर दस जूते मार लीजिएगा और बिल से दुगुने पैसे ले लीजिएगा लेकिन मेरी बात सुन लीजिए प्लीज। गुस्सा तो बहुत आया, बोला जब तुमलोग मुझे इतना जरुरी आदमी समझते हो तो पैरवी करते आना कि हमारे एक सीनियर को जन सम्पर्क विभाग में रख लीजिए....चलो बोलो। *जूनियर ने सुनाया इंटरव्यू का अनुभव यानि* *कॉन्फीडेंस के चिथड़े होने की स्टोरी* *एक्पर्ट- *किस विषय पर काम है *जूनियर- *जी फिल्म पर एक्पर्ट- ये क्या सब पर काम कराते हैं डीयू, जेएनयू के लोग जूनियर- मन में, बेकार लिया ये टॉपिक, नशा चढा था उत्तर-आधुनिक बनने का हिन्दी में रहकर भी डिफरेंट दिखने का एक्पर्ट- देवदास देखे हो जूनियर- जी एक्सपर्ट- किसकी रचना है इ देवदास (एक्सपर्ट मन ही मन याद कर रहा है किसकी रचना है....) जूनियर- जी शरतचंद्र एक्सपर्ट- पुरानेवाले में और नएवाले देवदास फिल्म में क्या फर्क है। जूनियर- जी प्रस्तुति और अभिनय को लेकर फर्क है एक्सपर्ट- तुमको नहीं लगता है कि जो बात रचना में है वो बात फिल्म में नहीं है जूनियर- मुझे लगता है ऐसा माध्यम में बदलाव के कारण हुआ है और इतनी छूट तो मिलनी चाहिए एक्सपर्ट- फिल्म को ही शोध के लिए क्यों चुना जूनियर- मुझे लगाता है कि भारत जैसे देश में सिनेमा सबसे ज्यादा पॉपुलर माध्यम है और इसे सामाजिक बदलाव के लिए काम में लाया जा सकता है,आगे मैं इसी दिशा में काम करना चाहता हूं। एक्सपर्ट- ये फ्लैश-बैक क्या होता है। जूनियर- जब इंसान बहुत तकलीफ में हो, बहुत खुश हो या फिर उसकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत बदल जाती है और उसके पहले की स्थिति को दिखाने के लिए जिस टेकनिक का इस्तेमाल किया जाता है उसे फ्लैश- बैक कहते हैं एक्सपर्ट- राम की शक्तिपूजा पढ़े हो..उसमें फ्लैशबैगक कहां है। जूनियर- जी माता कहती थी मुझे राजीवनयन या फिर याद आया उपवन विदेह का एक्सपर्ट-पूरी पंक्ति सुनाओ जूनियर- जी पूरी पंक्ति तो याद नहीं है, बहुत पहले पढ़ी थी एक्सपर्ट- अच्छा टीक है जाओ। नोट- जूनियर को एक्सपर्ट का नाम नहीं पता। इससे पता चलता है कि या तो जूनियर को साहित्यिक हलकों की समझ नहीं है या फिर साहित्य की दुनिया में लद्दड है। .....एक्सपर्ट तो फिर भी एक्सपर्ट है। इस तरह से जितने लोग उतने तरह के उनके अनुभव। अब सारे के सारे लौट आए हैं झारखंड की वादियों से। जो कुछ रुक गए हैं उनको सर्कुलर रोड या फिर सेक्टर-2 धुर्वा में कुछ जरुरी काम है, कुछ का अपना घर पड़ता है....भांजे-भतीजियों के साथ रावण को जलाकर लौटेंगे और दो-चार बंदों को अपनी कजिन जो कि इंटरव्यू के दौरान बने हैं उन्हें तोरपा, लोहरदग्गा या गुमला छोड़ने जाना है। *सर्वसम्मति से जो सब बोले - इंटरव्यू में तो फाड दिए गुरु वो भी सोचेगा कि बेटा किससे पाला पडा है, एक्सपर्ट का तो बार-बार होंठ सूख रहा था* *- मजाक है डीयू, जेएनयू से पढ़े लड़को से सवाल-जबाव करना, ऐसा पटखनिया दिए कि चारो-कोना चित्त* *-भाई हमको तो साफ बोला एक्सपर्ट कि समकालीनता को लेकर आपके जो विचार हैं उसपर कोई किताब लिखकर साहित्य पर कुछ उपकार क्यों नहीं कर देते हैं।* *- भाई वहां जाकर हमको लगा कि हम भी कुछ चीज हैं, यहां तो दिल्ली में गाइड एक चैप्टर चेक करने पर इतना दौड़ाता है कि डिप्रेशन से उबरनें में हफ्ता लग जाता है।* *कुल मिलाकर सैंकड़ों शेखी के किस्से और हिन्दी, झारखंड और एक्सपर्ट को लेकर सैंकडों* *धारणाओं की निर्मिति।* लेकिन इन सबके बावजूद एक सामान्य धारणा रिजल्ट का इंतजार करते हुए इनकी बनी है वो ये कि *अगर सबकुछ सही रहा, टैलेंट पर जोर रहा और घूस-घास नहीं चली तो मेरा होने से कोई नहीं रोक सकता। करीब ढाई सौ लोग किसी न किसी माध्यम से ऐसा बता चुके हैं जबकि सरकार ने हिन्दी की 90 के आसपास सीटों की घोषणा की है ।....* -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071006/e932da52/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Oct 7 00:36:09 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 7 Oct 2007 00:36:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSV4KSk?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSk4KWN4KSw4KS/4KSVIOCksuCkoeCkvuCkh+Ckr+Cliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KS44KS/4KSV4KWB4KSh4KS84KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCljeCkquClh+CkuA==?= Message-ID: <363092e30710061206m4f93b589jfa92b762f36dc183@mail.gmail.com> लोकतांत्रिक लडाइयों के लिए सिकुड़ता स्पेस सीतामढी़ ज़िले के रुन्नीसैदपुर में भाकपा (माले) नेता अशोक साह की पुलिस हिरासत में हत्या कर दी गयी. यह मासूम सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं है कि हिरासत में किसने हत्या की होगी. अशोक साह बाढ राहत सामग्री में धांधली को लेकर खाद्यान्न माफ़िया के खिलाफ़ संघर्षरत थे. उन्होंने एक शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीका अपनाया था. मगर उन्हें इसके लिए सबक सिखा दिया गया. पुलिस ने उन पर दुष्कर्म का (बिल्कुल झूठा) आरोप लगाते हुए उन्हें हिरासत में ले लिया. इसके बाद उनकी पत्नी मंजू देवी के सामने ही थाने में पिटाई की गयी. जब उनकी मौत हो गयी, तो रातोंरात उनके शव को अस्पताल भेज दिया गया. अशोक साह मुख्यंत्री तक से मिले थे और शिकायत की थी-मगर सब बेअसर रहा. वे मार दिये गये, मगर उन्होंने एक बार फिर देश के पूरे तंत्र की-जो जितना जनविरोधी है उतना ही गैर संवेदनशील भी- असलियत सामने रख गये. यह उनकी मौत का एक और मतलब भी है. अगर हमारे देश में लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण संघर्षों का जवाब यही है तो हम क्यों माओवादी आंदोलनों को कोसते हैं? अगर लोग शांतिपूर्ण तरीके से नहीं लड़ने दिये जायेंगे और उनकी समस्याओं का निबटारा नहीं होगा तो वे फिर वे हथियार ही उठायेंगे. तंत्र खुद उनके लिए जगह तैयार करता है-और फिर उनके उन्मूलन के लिये करोडों रुपये खर्च किये जाते हैं. अशोक साह की हत्या और इसके निहितार्थों पर प्रभात खबरके स्थानीय संपादक अजय कुमार की टिप्पणी. लोकतांत्रिक लडा़इयों के लिए सिकुड़ता स्पेस अजय कुमार अशोक साह मारे गये. पुलिस हिरासत में उनकी मौत (हत्या) हो गयी. अशोक कोई बड़े नेता नहीं थे. लेकिन वह बड़ा काम जरूर कर रहे थे. यह उनकी मौत का कारण बना. बाढ़ राहत के मौके को ललचायी नजरों से अवसर के तौर पर देखना प्रशासनिक तंत्र का पुराना जनविरोधी धंधा रहा है. इस बाढ़ में इस धंधे के खिलाफ आम लोगों की दर्जनों स्थानों पर पुलिस-प्रशासन के साथ तीखी झड़पें हुईं. कई जगहों पर गोलियां चलीं. लाठी की तो पूछिए ही नहीं. अशोक साह ने सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर में बाढ़ राहत में गोलमाल के खिलाफ आवाज उठायी थी. निर्धारित वजन की तुलना में कम राहत सामग्री देना किसी अपराध से कम नहीं है. इस अपराध के खिलाफ बोलने की सजा अशोक को मिली. जो अपराधी थे, वे खुले घूम रहे हैं. यह इस समय की त्रासदी है. सरकार कहती है कि जो भ्रष्ट हैं, उनके बारे में सूचनाएं दें. अशोक ने यह सब कुछ किया, बाढ़पीड़ितों के साथ मिल कर. पर यह व्यवस्था उन्हें कोई संरक्षण नहीं दे सकी. अगर उनके साथ आम जन खड़े न होते, तो शायद उनका शव भी गायब हो जाता. इस आशंका की वजह पुलिस का वह चरित्र है, जो इस घटना में बार-बार दिखता है. बाढ़ राहत में गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाने पर दुष्कर्म का एक झूठा मुकदमा उन पर लाद दिया गया. पुलिस ने राहत में गड़बड़ी करनेवालों के खिलाफ तो कुछ भी नहीं किया, उलटे उसने एक लोकतांत्रिक आवाज को खामोश कर दिया. इस व्यवस्था को घुन की तरह चाट-चाट कर कमजोर-विकृत बना रहे तत्वों की वह चेरी बनी रही. हमारे आसपास जो कुछ भी गलत चल रहा है, आखिर उसे कहां रखा जाये? थाने का हाल तो सबके सामने है. इस मामले में डीआइजी के निर्देशों का खुल्लम-खुला उल्लंघन `मनसोखी' का नमूना है. यह भी कि निचले स्तर पर पुलिस बल किस कदर उच्छृंखल हो चुका है. जानकारी यह भी मिली है कि अशोक को थाने पर लाने के बाद उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए बड़े अधिकारियों को लानतें दी जा रही थीं. कहा जा रहा था कि हमारे खिलाफ बोलने का अंजाम अब समझ लो. मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक में अशोक ने स्थानीय पुलिस और भ्रष्टचारियों की साजिश के बारे में जानकारी दी थी. पर हुआ कुछ भी नहीं. इस प्रकरण ने इस सवाल को भी मौजूं बना दिया है लोकतांत्रिक तरीके से व्यवस्था विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ने की जगह कितनी सिकुड़ती जा रही है. क्या उसी राजनीतिज्ञ की बात सुनी जायेगी, तो बाहुबली और ताकतवर हो? आम आदमी की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होगी क्या? -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071007/03700084/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Oct 7 00:36:09 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 7 Oct 2007 00:36:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWL4KSV4KSk?= =?utf-8?b?4KS+4KSC4KSk4KWN4KSw4KS/4KSVIOCksuCkoeCkvuCkh+Ckr+Cliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KS44KS/4KSV4KWB4KSh4KS84KSk?= =?utf-8?b?4KS+IOCkuOCljeCkquClh+CkuA==?= Message-ID: <363092e30710061206m4f93b589jfa92b762f36dc183@mail.gmail.com> लोकतांत्रिक लडाइयों के लिए सिकुड़ता स्पेस सीतामढी़ ज़िले के रुन्नीसैदपुर में भाकपा (माले) नेता अशोक साह की पुलिस हिरासत में हत्या कर दी गयी. यह मासूम सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं है कि हिरासत में किसने हत्या की होगी. अशोक साह बाढ राहत सामग्री में धांधली को लेकर खाद्यान्न माफ़िया के खिलाफ़ संघर्षरत थे. उन्होंने एक शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीका अपनाया था. मगर उन्हें इसके लिए सबक सिखा दिया गया. पुलिस ने उन पर दुष्कर्म का (बिल्कुल झूठा) आरोप लगाते हुए उन्हें हिरासत में ले लिया. इसके बाद उनकी पत्नी मंजू देवी के सामने ही थाने में पिटाई की गयी. जब उनकी मौत हो गयी, तो रातोंरात उनके शव को अस्पताल भेज दिया गया. अशोक साह मुख्यंत्री तक से मिले थे और शिकायत की थी-मगर सब बेअसर रहा. वे मार दिये गये, मगर उन्होंने एक बार फिर देश के पूरे तंत्र की-जो जितना जनविरोधी है उतना ही गैर संवेदनशील भी- असलियत सामने रख गये. यह उनकी मौत का एक और मतलब भी है. अगर हमारे देश में लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण संघर्षों का जवाब यही है तो हम क्यों माओवादी आंदोलनों को कोसते हैं? अगर लोग शांतिपूर्ण तरीके से नहीं लड़ने दिये जायेंगे और उनकी समस्याओं का निबटारा नहीं होगा तो वे फिर वे हथियार ही उठायेंगे. तंत्र खुद उनके लिए जगह तैयार करता है-और फिर उनके उन्मूलन के लिये करोडों रुपये खर्च किये जाते हैं. अशोक साह की हत्या और इसके निहितार्थों पर प्रभात खबरके स्थानीय संपादक अजय कुमार की टिप्पणी. लोकतांत्रिक लडा़इयों के लिए सिकुड़ता स्पेस अजय कुमार अशोक साह मारे गये. पुलिस हिरासत में उनकी मौत (हत्या) हो गयी. अशोक कोई बड़े नेता नहीं थे. लेकिन वह बड़ा काम जरूर कर रहे थे. यह उनकी मौत का कारण बना. बाढ़ राहत के मौके को ललचायी नजरों से अवसर के तौर पर देखना प्रशासनिक तंत्र का पुराना जनविरोधी धंधा रहा है. इस बाढ़ में इस धंधे के खिलाफ आम लोगों की दर्जनों स्थानों पर पुलिस-प्रशासन के साथ तीखी झड़पें हुईं. कई जगहों पर गोलियां चलीं. लाठी की तो पूछिए ही नहीं. अशोक साह ने सीतामढ़ी के रुन्नीसैदपुर में बाढ़ राहत में गोलमाल के खिलाफ आवाज उठायी थी. निर्धारित वजन की तुलना में कम राहत सामग्री देना किसी अपराध से कम नहीं है. इस अपराध के खिलाफ बोलने की सजा अशोक को मिली. जो अपराधी थे, वे खुले घूम रहे हैं. यह इस समय की त्रासदी है. सरकार कहती है कि जो भ्रष्ट हैं, उनके बारे में सूचनाएं दें. अशोक ने यह सब कुछ किया, बाढ़पीड़ितों के साथ मिल कर. पर यह व्यवस्था उन्हें कोई संरक्षण नहीं दे सकी. अगर उनके साथ आम जन खड़े न होते, तो शायद उनका शव भी गायब हो जाता. इस आशंका की वजह पुलिस का वह चरित्र है, जो इस घटना में बार-बार दिखता है. बाढ़ राहत में गड़बड़ी के खिलाफ आवाज उठाने पर दुष्कर्म का एक झूठा मुकदमा उन पर लाद दिया गया. पुलिस ने राहत में गड़बड़ी करनेवालों के खिलाफ तो कुछ भी नहीं किया, उलटे उसने एक लोकतांत्रिक आवाज को खामोश कर दिया. इस व्यवस्था को घुन की तरह चाट-चाट कर कमजोर-विकृत बना रहे तत्वों की वह चेरी बनी रही. हमारे आसपास जो कुछ भी गलत चल रहा है, आखिर उसे कहां रखा जाये? थाने का हाल तो सबके सामने है. इस मामले में डीआइजी के निर्देशों का खुल्लम-खुला उल्लंघन `मनसोखी' का नमूना है. यह भी कि निचले स्तर पर पुलिस बल किस कदर उच्छृंखल हो चुका है. जानकारी यह भी मिली है कि अशोक को थाने पर लाने के बाद उन्हें भद्दी-भद्दी गालियां देते हुए बड़े अधिकारियों को लानतें दी जा रही थीं. कहा जा रहा था कि हमारे खिलाफ बोलने का अंजाम अब समझ लो. मुख्यमंत्री के जनता दरबार तक में अशोक ने स्थानीय पुलिस और भ्रष्टचारियों की साजिश के बारे में जानकारी दी थी. पर हुआ कुछ भी नहीं. इस प्रकरण ने इस सवाल को भी मौजूं बना दिया है लोकतांत्रिक तरीके से व्यवस्था विरोधी प्रवृत्तियों के खिलाफ लड़ने की जगह कितनी सिकुड़ती जा रही है. क्या उसी राजनीतिज्ञ की बात सुनी जायेगी, तो बाहुबली और ताकतवर हो? आम आदमी की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं होगी क्या? -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071007/03700084/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Sun Oct 7 01:21:42 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 7 Oct 2007 01:21:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Petition for JUSTICE in Rizwanur's case Message-ID: <363092e30710061251y1d55b8e1ld27bed555f9a5c5e@mail.gmail.com> http://www.petitiononline.com/rrpt0310/petition.html To: Chief Minister of West Bengal, India This is an appeal from friends and citizens of Kolkata to the Honourable Chief Minister of West Bengal, Shri Buddhadeb Bhattacharya to take some effective action in the matter of the late Rizwanur Rahman and Priyanka Todi. We demand 1. That a CBI investigation be ordered to find out who threatened Rizwanur and his friends and the situation in which he died. 2. That the Police Commissioner, Mr. Prasun Mukherjee, be asked to step down immediately for displaying an appalling ignorance of the rule of law with the comments he made in a press conference. 3. That the guilty be brought to justice 4. That there be mandatory training for police on how a democracy is supposed to work and what constitutes extrajudicial action 5. That our beloved city be rescued from the venal nexus of corrupt politicians and policemen and the moneyed class. 6. That the adult citizens of Kolkata, who face everything, from flooded streets to berserk auto-drivers, with a smile on their faces, be allowed to lead their personal lives according to their wishes, without interference from an out-of-control police department. यह संदेश अग्रसारित किया जा रहा है, जो मुझे ओरकुट पर मिला है. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071007/f809d657/attachment.html From beingred at gmail.com Sun Oct 7 01:21:42 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 7 Oct 2007 01:21:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Petition for JUSTICE in Rizwanur's case Message-ID: <363092e30710061251y1d55b8e1ld27bed555f9a5c5e@mail.gmail.com> http://www.petitiononline.com/rrpt0310/petition.html To: Chief Minister of West Bengal, India This is an appeal from friends and citizens of Kolkata to the Honourable Chief Minister of West Bengal, Shri Buddhadeb Bhattacharya to take some effective action in the matter of the late Rizwanur Rahman and Priyanka Todi. We demand 1. That a CBI investigation be ordered to find out who threatened Rizwanur and his friends and the situation in which he died. 2. That the Police Commissioner, Mr. Prasun Mukherjee, be asked to step down immediately for displaying an appalling ignorance of the rule of law with the comments he made in a press conference. 3. That the guilty be brought to justice 4. That there be mandatory training for police on how a democracy is supposed to work and what constitutes extrajudicial action 5. That our beloved city be rescued from the venal nexus of corrupt politicians and policemen and the moneyed class. 6. That the adult citizens of Kolkata, who face everything, from flooded streets to berserk auto-drivers, with a smile on their faces, be allowed to lead their personal lives according to their wishes, without interference from an out-of-control police department. यह संदेश अग्रसारित किया जा रहा है, जो मुझे ओरकुट पर मिला है. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071007/f809d657/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Mon Oct 8 10:00:32 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 8 Oct 2007 10:00:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KSC4KSk?= =?utf-8?b?IOCkiuCksOCljeCknOCkviDgpJXgpYcg4KSF4KS44KSy4KWAIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWL4KSkIOCkueCliOCkgiDgpLjgpYLgpKog4KS1IOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSy4KSo4KWA?= Message-ID: <363092e30710072130r406d6d76y3b09f02337e4b58d@mail.gmail.com> अनंत ऊर्जा के असली स्रोत हैं सूप व चलनी प्रायः गंभीर विषयों पर लिखनेवाले कुमार अनिल ने इधर कई व्यंग्य लिखे हैं और उनसे लोग तिलमिलाये भी हैं. प्रस्तुत हैं उसके व्यंग्यों में से कुछ, क्रमवार. आज पहला व्यंग्य. कुमार अनिल ऊर्जा को लेकर देश में एटमी करार पर इतनी तेज बहस हुई कि सरकार डगमगाने लगी. ऊर्जा की बहस में देश की कीमती ऊर्जा बरबाद हुई. चलनी कहे सूप से कि तुममे हैं अनेक छेद. इस कहावत के जरिये आदमी की अनावश्यक दोष निकालने की प्रवृत्ति की निंदा की जाती है. निंदा-दर-निंदा के बावजूद यह प्रवृत्ति जिंदा है, क्योंकि यह प्रवृत्ति आदमी को ऊर्जा देती है. इससे एक रस मिलता है. ऊर्जा के असली स्रोत हैं सूप व चलनी. इनके बेहतर इस्तेमाल से ऊर्जा समस्या का समाधान संभव है. युगों-युगों से इसका इस्तेमाल होता आया है. एक आदमी जब इसका इस्तेमाल करता है, तो उसके तन-मन में ऊर्जा के लावे फूटने लगते हैं. मान लीजिए, किसी ने कोई अच्छा काम कर दिया. सभी उसकी महानता के नीचे दबने लगते हैं. इसी बीच कोई पुरुष उसके अच्छे काम की तुलना किसी बड़े अच्छे काम से कर देता है. क्षण भर में अच्छे काम की महत्ता कपूर की तरह उड़ जाती है. पहला व्यक्ति अपने को हीन समझने लगता है, जबकि दूसरे में ऊर्जा का संचार होने लगता है. अभ्यास से आदमी इसके इस्तेमाल में महारत हासिल कर सकता है. आज के नेताओं के पास चलनी व सूप का बड़ा स्टॉक है. नीतीश जी चाहे जितना अच्छा काम करें, राबड़ी उन्हें अपने सूप से एक बार में ही फटक देती हैं. विपक्ष को ऊर्जा मिलती है. सूप व चलनी का स्टॉक सत्ता पक्ष भी रखता है. विपक्ष आज का सवाल खड़ा करेगा, तो सत्ता पक्ष पंद्रह सालों की चलनी में चाल देगा. इससे सत्ता पक्ष को ऊर्जा मिलती है. कवि-लेखक भी इसका इस्तेमाल करके ऊर्जावान होते हैं. फिराक की चर्चा हो, तो आप फैज की चर्चा शुरु कर दें. आपकी धाक जमनी तय है. गोष्ठी में ऊर्जा की तरंगें दौड़ने लगती हैं. इससे भी काम न चले, तो आप कवि के पायजामे की चर्चा कर सकते हैं. इसका इस्तेमाल सर्वव्यापी है. इसका इस्तेमाल सर्वव्यापी है. ब्लॉग से लेकर दफ्तर तक. दफ्तर में अगर राम कुमार की आलोचना हो, तो उसे चाहिए कि वह फौरन श्याम कुमार का पोस्टमार्टम शुरू कर दे. इससे आलोचना का असर फौरन छू-मंतर हो जाता है और राम कुमार में फिर से ऊर्जा भर जाती है. जिसके पास जितनी वेराइटी के सूप व चलनी होंगे, वह उतना ही प्रकाशमान होगा. मिथिला के भोज में जो व्यक्ति भोजन की सपाट बड़ाई करेगा, उसे भोलू समझा जाता है. जो देवता सिंह साहब के भोज में खाते हुए चौधरी साहब के भोज का गुणगाण करेंगे, उनकी पूछ बढ़ जाती है. यजमान अपने को तुच्छ समझने लगता है व देवता के चेहरे पर बल्ब जलने लगते हैं. ऐसे देवताओं का बिरादरी में मान बढ़ जाता है. वे समाज में रोशनी फैलाने लगते हैं. विज्ञान की चर्चा हो, तो आप इतिहास के सूप से फटक दीजिए. इतिहास की चर्चा हो तो आप आस्था की चलनी में चाल दीजिए. इससे राष्ट्र मजबूत होता है. इस राष्ट्रीय ऊर्जा से लोग भूख-प्यास तक भूल जाते हैं. महिलाओं के पास पहले छोटे साइज के सूप व चलनी थे. वे दिन भर घर में बैठ कर पति को फटकती रहती थीं. दिल्ली में स्वराज व सोनी के पास बड़ी-बड़ी चलनियां हैं. मायावती के सूप से मुलायम खेमे में दहशत है. बिहार की पंचायतों में महिलाएं तेजी से सूप व चलनी के इस्तेमाल की ट्रेनिंग ले रही हैं. हर धर्म में स्वर्ग की कल्पना की गयी है, पर कोई आदमी मरना नहीं चाहता. इसलिए कि वहां सूप व चलनी की व्यवस्था नहीं है. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071008/ecfa3692/attachment.html From beingred at gmail.com Mon Oct 8 10:00:32 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 8 Oct 2007 10:00:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSo4KSC4KSk?= =?utf-8?b?IOCkiuCksOCljeCknOCkviDgpJXgpYcg4KSF4KS44KSy4KWAIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWL4KSkIOCkueCliOCkgiDgpLjgpYLgpKog4KS1IOCkmg==?= =?utf-8?b?4KSy4KSo4KWA?= Message-ID: <363092e30710072130r406d6d76y3b09f02337e4b58d@mail.gmail.com> अनंत ऊर्जा के असली स्रोत हैं सूप व चलनी प्रायः गंभीर विषयों पर लिखनेवाले कुमार अनिल ने इधर कई व्यंग्य लिखे हैं और उनसे लोग तिलमिलाये भी हैं. प्रस्तुत हैं उसके व्यंग्यों में से कुछ, क्रमवार. आज पहला व्यंग्य. कुमार अनिल ऊर्जा को लेकर देश में एटमी करार पर इतनी तेज बहस हुई कि सरकार डगमगाने लगी. ऊर्जा की बहस में देश की कीमती ऊर्जा बरबाद हुई. चलनी कहे सूप से कि तुममे हैं अनेक छेद. इस कहावत के जरिये आदमी की अनावश्यक दोष निकालने की प्रवृत्ति की निंदा की जाती है. निंदा-दर-निंदा के बावजूद यह प्रवृत्ति जिंदा है, क्योंकि यह प्रवृत्ति आदमी को ऊर्जा देती है. इससे एक रस मिलता है. ऊर्जा के असली स्रोत हैं सूप व चलनी. इनके बेहतर इस्तेमाल से ऊर्जा समस्या का समाधान संभव है. युगों-युगों से इसका इस्तेमाल होता आया है. एक आदमी जब इसका इस्तेमाल करता है, तो उसके तन-मन में ऊर्जा के लावे फूटने लगते हैं. मान लीजिए, किसी ने कोई अच्छा काम कर दिया. सभी उसकी महानता के नीचे दबने लगते हैं. इसी बीच कोई पुरुष उसके अच्छे काम की तुलना किसी बड़े अच्छे काम से कर देता है. क्षण भर में अच्छे काम की महत्ता कपूर की तरह उड़ जाती है. पहला व्यक्ति अपने को हीन समझने लगता है, जबकि दूसरे में ऊर्जा का संचार होने लगता है. अभ्यास से आदमी इसके इस्तेमाल में महारत हासिल कर सकता है. आज के नेताओं के पास चलनी व सूप का बड़ा स्टॉक है. नीतीश जी चाहे जितना अच्छा काम करें, राबड़ी उन्हें अपने सूप से एक बार में ही फटक देती हैं. विपक्ष को ऊर्जा मिलती है. सूप व चलनी का स्टॉक सत्ता पक्ष भी रखता है. विपक्ष आज का सवाल खड़ा करेगा, तो सत्ता पक्ष पंद्रह सालों की चलनी में चाल देगा. इससे सत्ता पक्ष को ऊर्जा मिलती है. कवि-लेखक भी इसका इस्तेमाल करके ऊर्जावान होते हैं. फिराक की चर्चा हो, तो आप फैज की चर्चा शुरु कर दें. आपकी धाक जमनी तय है. गोष्ठी में ऊर्जा की तरंगें दौड़ने लगती हैं. इससे भी काम न चले, तो आप कवि के पायजामे की चर्चा कर सकते हैं. इसका इस्तेमाल सर्वव्यापी है. इसका इस्तेमाल सर्वव्यापी है. ब्लॉग से लेकर दफ्तर तक. दफ्तर में अगर राम कुमार की आलोचना हो, तो उसे चाहिए कि वह फौरन श्याम कुमार का पोस्टमार्टम शुरू कर दे. इससे आलोचना का असर फौरन छू-मंतर हो जाता है और राम कुमार में फिर से ऊर्जा भर जाती है. जिसके पास जितनी वेराइटी के सूप व चलनी होंगे, वह उतना ही प्रकाशमान होगा. मिथिला के भोज में जो व्यक्ति भोजन की सपाट बड़ाई करेगा, उसे भोलू समझा जाता है. जो देवता सिंह साहब के भोज में खाते हुए चौधरी साहब के भोज का गुणगाण करेंगे, उनकी पूछ बढ़ जाती है. यजमान अपने को तुच्छ समझने लगता है व देवता के चेहरे पर बल्ब जलने लगते हैं. ऐसे देवताओं का बिरादरी में मान बढ़ जाता है. वे समाज में रोशनी फैलाने लगते हैं. विज्ञान की चर्चा हो, तो आप इतिहास के सूप से फटक दीजिए. इतिहास की चर्चा हो तो आप आस्था की चलनी में चाल दीजिए. इससे राष्ट्र मजबूत होता है. इस राष्ट्रीय ऊर्जा से लोग भूख-प्यास तक भूल जाते हैं. महिलाओं के पास पहले छोटे साइज के सूप व चलनी थे. वे दिन भर घर में बैठ कर पति को फटकती रहती थीं. दिल्ली में स्वराज व सोनी के पास बड़ी-बड़ी चलनियां हैं. मायावती के सूप से मुलायम खेमे में दहशत है. बिहार की पंचायतों में महिलाएं तेजी से सूप व चलनी के इस्तेमाल की ट्रेनिंग ले रही हैं. हर धर्म में स्वर्ग की कल्पना की गयी है, पर कोई आदमी मरना नहीं चाहता. इसलिए कि वहां सूप व चलनी की व्यवस्था नहीं है. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071008/ecfa3692/attachment-0001.html From ravikant at sarai.net Mon Oct 8 12:48:10 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 8 Oct 2007 12:48:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWM4KSf4KWH?= =?utf-8?b?IOCkueCliOCkgiDgpJXgpJ/gpL4g4KSV4KWH?= In-Reply-To: <829019b0710061200n77fa17dflbfc5e3d4f7ff0ac2@mail.gmail.com> References: <829019b0710061200n77fa17dflbfc5e3d4f7ff0ac2@mail.gmail.com> Message-ID: <200710081248.11035.ravikant@sarai.net> बहुत ख़ूब विनीत, मज़ा ‌आया. एक बात थोड़ा समझा कर लिखो कि जब झारखंड में हिन्दी पढ़ाते हैं तो ‌‌‌अनुवाद क्यों करते हैँ, किस से किस में या कैसी ज़बान से कैसी ज़बान में? बिहार - तब झारखंड था नहीं - के विद्यार्थियों को दिल्ली में इतिहास पढ़ाने का ‌अपना तजुर्बा यह रहा कि उनमें से कुछ ऐसी कड़क हिन्दी लिखते थे कि हमारे दिविवि के इतिहास के शिक्षकों पर भारी पड़ती थी. लिहाज़ा मेरी सलाह होती थी कि इसको ज़रा टोन डाउन करो, थोड़ी नरमी बरतो, मिली जुली ज़बान लिखो तो तुम्हारी सेहत के लिए बेहतर होगा. वैसे तुमने निहायत सधी भाषा में ‌अच्छा नक़्शा ख़ीचा है. पिछली डाक भी मज़ेदार थी. एक बार फिर शुक्रिया. रविकान्त रविवार 07 अक्टूबर 2007 00:30 को, vineet kumar ने लिखा था: > *गए थे भाई लोग > पॉलिटिक्स, प्यार छोड़ के* > *लौटे हैं झारखंड से * > *अपनी अब कटा के* > *आए दिन इंजतार के* > *आए दिन इंतजार के ।।* > भाई....ये हिन्दी वालों को अचानक क्या हो गया था, कोई फोन करके क्रीम कलर या > फिर आसमानी रंग की शर्ट खरीदने की बात कर रहा रहा था तो कोई फोन करके पूछ रहा > है की कम दाम में बढ़िया जूते कहां मिलेंगे तो कोई कह रहा है भाई रे सिर्फ दो > घंटे के लिए चलो न मेरे साथ बाजार, कुछ शॉपिंग करनी है। मैंने सोचा कि सरकार > ने रिसर्चर का हुलिया सुधारने मतलब कि वो लगे कि रिसर्च कर रहा है के लिए जो > वजीफा देना शुरु किया है ये उसी का जोश है कि कोई शर्ट खरीदनी चाह रहा है तो > कोई जूते। जो बंदा बुध बाजार से पचास रुपये में आध दर्जन चड्डी खरीदता है वो > पूछ रहा है कि जॉकी का ऑरिजिनल माल कहां मिलेगा। जो एक ही मोजे को उलटकर पहनता > है आज उसे नाइकी के मोजे लेने हैं। एक बंदे को डार्क कलर की बनियान इसलिए पसंद > है क्योंकि ये गंदा कम होता है, आज एक जोड़ी सफेद बनियान चाहिए।......मेरे एक > साथी है बीएचयू से, पैदाइशी पवित्र भूमि कहां है पता नहीं, और न जानना जरुरी > है क्योंकि अब वे बनारस की फक्कड संस्कृति में आकंठ डूब चुके हैं। हमें > गरियाते हैं कि आप भोगी आदमी हैं हिन्दी के नाम पर बिलटउआ शोधार्थी हैं आप > बढिया-बढिया विदेशी ब्रांडेड कपड़ा पहनकर हिन्दी के भिखमंगई लुक को तहस-नहस > करने में लगे हैं....हमसे पूछ रहे थे कि कौन-सा रेडीमेड पैंट अच्छा रहेगा लुई > फिलिप कि ऐरो।..... > सबको राय दिया भइया कपड़ा-लत्ता खरीदना इतनी हड़बड़ी की चीज नहीं है काहे एकदम > से ऐसे पैसा उड़ाने में लगे हो...सरकार ने हुलिया सुधारने के लिए पैसे दिए हैं > लेकिन विवेक बेच कर थोडे ही हुलिया सुधरेगा। किसी ने कुछ नहीं कहा और न ही > बताया कि बात क्या है।....एक दो से पूछा कि आप तो सरकार के पहले से ही दामाद > हैं। दो साल पहले से ही जेआरएफ उठा रहे हैं तो फिर ये अचानक देह की सर्विसिंग > माने जूता से लेकर चड्डी तक बदलने का इरादा अब क्यों आ गया। आप तो प्रोपर्टी > जुटाने( किताब) वाले जीव है तो फिर ये भोग-विलास के चक्कर में कहां से पड़ गए। > भाई साहब थोड़ी देर चुप रहे और फिर एकदम से झटका मारकर बोले चैनल में आप रोज > सज-संवर कर किसके लिए जाते थे....उम्मीद बंधेगी तो आपका भी अंदाज बदल जाएगा। > मैंने मन ही मन थुकियाते हुए बोला....बत्तख साला...जिन्दगी भर दीदी-दीदी और > दिल्ली आकर मैडम से उपर तो उठ नहीं सका और अब वृद्धा पेंशन मिल रहा है तो > जवानी सूझी है। ऐय्याशी का एबीसी नहीं जानता है और आज अंदाज समझा रहा है। भाई > साहब हमारे जेएनयू वाले तो और घाघ निकले, बाजार में साथ ऐसे घूम रहे थे कि > जैसे सबको मॉरिशस या फिर जर्मनी से पढ़ाने का ऑफर आया है। बीच-बीच में मजाक > करता तो चुप मार जाते। मैं मन ही मन अपने को कोसता तू यही बैठे-बैठे ब्लॉग > लिखता रह और ग्लोबल होने के सपने देख और ये सब साल-दो साल बाद एनआरआई का ठप्पा > लेकर घूमेंगे।....खैर चांद देखकर बल्लीमारान दौडंने की वजह किसी ने मुझे नहीं > बताई। करीब सात-आठ दिन बाद जब सब मैं भूल-भाल गया तो फिर फोन आने शुरु हुए। एक > ने पूछा यार सुना है कि तुम्हारा झारखंड बहुत सुंदर है। मैंने कहा हां भाई > मेरा झारखंड तो वाकई बहुत सुंदर है लेकिन कुछ दिनों के लिए वो मधु कोडा का > झारखंड हो गया है इसलिए अब पता नहीं कितना सुंदर है। लेकिन ये अचानक झारखंड > प्रेम कैसे उमड़ पड़ा भाई। जबाव मिला बस ऐसे ही जाना चाहता हूं..बता न कौन-कौन > सी ट्रेन जाती है। तब भी मेरी समझ में कुछ ज्यादा नहीं आया लेकिन बाद में > एक-दो फोन आए और वे पूछ रहे थे कि विनीतजी आप कब जा रहे हैं झारखंड या फिर आप > किस ट्रेन से जा रहे हैं। वो भी सब जगह से हार गए और हमारे सीनियर्स की बतायी > कहानी से डर गए तब अंत में मुझे फोन किया कि साथ लेंगे। एक- दो अंकल चिप्स में > गाइड मिल जाएगा इसलिए। मेरे सीनियर ने उन्हें बताया था कि वहां लूटपाट का > तरीका थोड़ा आदिम है। चोर अंगूठी छिनता नहीं बल्कि हाथ काटकर झोले में रख लेता > है और फाका (एकांत) में जाकर अंगूठी निकालकर हाथ फेंक देता है। एक-दो भावुक > साथी( साथी जिसे बनाने में कॉलेज का हाथ रहा कि एक ही सेशन और क्लास में > एडमीशन दिया) जिसपर कुदरत थोड़ा और टाइम और कच्चा माल देता तो लेडिस > होते....फोन करके कहा..क्या विनीत विश भी नहीं करोगे, तुम्हारा तो वैसे भी हो > जाएगा, हमलोगों का इलाका थोड़ा अल्टर पड़ जाता है.....मुश्किल है यार लेकिन > विश तो कर दो। लोग बताते हैं कि इस बाजारवाद और कनज्यूमर कल्चर के दौर में > बत्तीस दांत के बनिए का कहा भी खूब फलता है। इतना सब हो जाने पर तरीके से समझ > में आया कि भाई लोग झारखंड के लिए लेक्चरर बनने जा रहे हैं। > नोट- मैं भी झारखंड में रहकर हिन्दी पढा-लिखा हूं और अगर लेक्चरर होने के लिए > अगर ये बड़ी शर्त है....मुझे पता नहीं और न ही सरकार की और से कोई घोषणा हुई > है तो मेरे लिए तो एक सीट फिक्स थी...लेकिन मैंने फार्म ही नहीं भरा....एक तो > बहुत बाद में पता चला और दूसरी बात जो कि उससे भी बड़ी वजह है वो ये कि आपको > वहां हिन्दी पढ़ाने के लिए हिन्दी का अनुवाद करना पड़ेगा।..ये परेशानी मेरे > कॉलेज के टीचर अक्सर झेला करते थे और हमलोग कसम खाते कि न भाई...हिन्दी पढ़ाना > बड़ा टफ काम है। सो मैं फार्म भरा ही नहीं और वहां गया ही नहीं।.....और हमारे > सारे भाई इस अखिल भारतीय जोर-आजमाइश रैली में झारखंड कूच कर गए। > > *टेलीफोनिक टॉक उर्फ हौसला बढ़ाओ साथी* > फोन पर भाई लोग नाम बता रहे हैं मुझसे जानना चाह रहे हैं कि ये सारे महाशय > किस-किस क्षेत्र के एक्सपर्ट हैं माने कविता, कहानी, उपन्यास, साहित्यिक > चुटकुला, साहित्यक पॉलिटिकल स्टंटः आगे से साहित्यक नहीं लगा रहा हूं लम्बा हो > जाएगा आप मन में ही जोड़ लें, मसखरई, ऋतु- रंग आदि-आदि। मैंने फोन पर ही बताया > कि ये डीयू, जेएनयू वाला एक्सपर्ट वाला फंडा वहां के मामले में भी मत पेलो। > वहां के लोग हिन्दी की सेवा नहीं साधना करते हैं इसलिए तमाम विधाओं पर समान > अधिकार होता है, किसी भी विषय पर प्रश्न पूछने की काबिलीयत रखते हैं। और ऐसा > पूछकर हमारे पूर्वज गुरुओं का अपमान मत करो।....जो भी पूछा जाए उसे श्रद्धा से > समझो और सुनो ये लॉजिक-वॉजिक डीयू के अढॉक पोस्ट के लिए बचा के रखो। इसकी खपत > दिल्ली में आकर होगी। बार-बार फोन करके पूछते हो तो लगता है कहीं न कहीं तुम > मेरी बेइज्जती कर रहे हो....अगर परेशानी हो रही है तो तुम्हें पहले सोचना > चाहिए था न कि कहां जा रहे हो। अब गए हो तो वहां की शर्तों पर इंटरव्यू दो और > अब आकर ही बात करना, पैसे बचाओ....अभी रिजल्ट आने तक जेब पर थोड़ा कंट्रोल > रखो। इतनी नसीहतें देने के बावजूद एक जूनियर ने मिस कॉल दिया और कहा कि सर > दिल्ली आने पर दस जूते मार लीजिएगा और बिल से दुगुने पैसे ले लीजिएगा लेकिन > मेरी बात सुन लीजिए प्लीज। गुस्सा तो बहुत आया, बोला जब तुमलोग मुझे इतना > जरुरी आदमी समझते हो तो पैरवी करते आना कि हमारे एक सीनियर को जन सम्पर्क > विभाग में रख लीजिए....चलो बोलो। > *जूनियर ने सुनाया इंटरव्यू का अनुभव यानि* > *कॉन्फीडेंस के चिथड़े होने की स्टोरी* > *एक्पर्ट- *किस विषय पर काम है > *जूनियर- *जी फिल्म पर > एक्पर्ट- ये क्या सब पर काम कराते हैं डीयू, जेएनयू के लोग > जूनियर- मन में, बेकार लिया ये टॉपिक, नशा चढा था उत्तर-आधुनिक बनने का > हिन्दी में रहकर भी डिफरेंट दिखने का > एक्पर्ट- देवदास देखे हो > जूनियर- जी > एक्सपर्ट- किसकी रचना है इ देवदास > (एक्सपर्ट मन ही मन याद कर रहा है किसकी रचना है....) > जूनियर- जी शरतचंद्र > एक्सपर्ट- पुरानेवाले में और नएवाले देवदास फिल्म में क्या फर्क है। > जूनियर- जी प्रस्तुति और अभिनय को लेकर फर्क है > एक्सपर्ट- तुमको नहीं लगता है कि जो बात रचना में है वो बात फिल्म में नहीं है > जूनियर- मुझे लगता है ऐसा माध्यम में बदलाव के कारण हुआ है और इतनी छूट तो > मिलनी चाहिए > एक्सपर्ट- फिल्म को ही शोध के लिए क्यों चुना > जूनियर- मुझे लगाता है कि भारत जैसे देश में सिनेमा सबसे ज्यादा पॉपुलर माध्यम > है और इसे सामाजिक बदलाव के लिए काम में लाया जा सकता है,आगे मैं इसी दिशा में > काम करना चाहता हूं। > एक्सपर्ट- ये फ्लैश-बैक क्या होता है। > जूनियर- जब इंसान बहुत तकलीफ में हो, बहुत खुश हो या फिर उसकी सामाजिक-आर्थिक > हैसियत बदल जाती है और उसके पहले की स्थिति को दिखाने के लिए जिस टेकनिक का > इस्तेमाल किया जाता है उसे फ्लैश- बैक कहते हैं > एक्सपर्ट- राम की शक्तिपूजा पढ़े हो..उसमें फ्लैशबैगक कहां है। > जूनियर- जी माता कहती थी मुझे राजीवनयन या फिर याद आया उपवन विदेह का > एक्सपर्ट-पूरी पंक्ति सुनाओ > जूनियर- जी पूरी पंक्ति तो याद नहीं है, बहुत पहले पढ़ी थी > एक्सपर्ट- अच्छा टीक है जाओ। > नोट- जूनियर को एक्सपर्ट का नाम नहीं पता। इससे पता चलता है कि या तो जूनियर > को साहित्यिक हलकों की समझ नहीं है या फिर साहित्य की दुनिया में लद्दड है। > .....एक्सपर्ट तो फिर भी एक्सपर्ट है। > इस तरह से जितने लोग उतने तरह के उनके अनुभव। अब सारे के सारे लौट आए हैं > झारखंड की वादियों से। जो कुछ रुक गए हैं उनको सर्कुलर रोड या फिर सेक्टर-2 > धुर्वा में कुछ जरुरी काम है, कुछ का अपना घर पड़ता है....भांजे-भतीजियों के > साथ रावण को जलाकर लौटेंगे और दो-चार बंदों को अपनी कजिन जो कि इंटरव्यू के > दौरान बने हैं उन्हें तोरपा, लोहरदग्गा या गुमला छोड़ने जाना है। > *सर्वसम्मति से जो सब बोले > - इंटरव्यू में तो फाड दिए गुरु वो भी सोचेगा कि बेटा किससे पाला पडा है, > एक्सपर्ट का तो बार-बार होंठ सूख रहा था* > *- मजाक है डीयू, जेएनयू से पढ़े लड़को से सवाल-जबाव करना, ऐसा पटखनिया दिए कि > चारो-कोना चित्त* > *-भाई हमको तो साफ बोला एक्सपर्ट कि समकालीनता को लेकर आपके जो विचार हैं उसपर > कोई किताब लिखकर साहित्य पर कुछ उपकार क्यों नहीं कर देते हैं।* > *- भाई वहां जाकर हमको लगा कि हम भी कुछ चीज हैं, यहां तो दिल्ली में गाइड एक > चैप्टर चेक करने पर इतना दौड़ाता है कि डिप्रेशन से उबरनें में हफ्ता लग जाता > है।* > *कुल मिलाकर सैंकड़ों शेखी के किस्से और हिन्दी, झारखंड और एक्सपर्ट को लेकर > सैंकडों* > *धारणाओं की निर्मिति।* > लेकिन इन सबके बावजूद एक सामान्य धारणा रिजल्ट का इंतजार करते हुए इनकी बनी है > वो ये कि > *अगर सबकुछ सही रहा, टैलेंट पर जोर रहा और घूस-घास नहीं चली तो मेरा होने से > कोई नहीं रोक सकता। करीब ढाई सौ लोग किसी न किसी माध्यम से ऐसा बता चुके हैं > जबकि सरकार ने हिन्दी की 90 के आसपास सीटों की घोषणा की है ।....* From ravikant at sarai.net Mon Oct 8 13:55:19 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 8 Oct 2007 13:55:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <9f359c1e0710052056q7d96109q12f93bde9606fa46@mail.gmail.com> References: <200710051500.49936.ravikant@sarai.net> <9f359c1e0710052056q7d96109q12f93bde9606fa46@mail.gmail.com> Message-ID: <200710081355.19303.ravikant@sarai.net> शुक्रिया आलोक, और बाक़ी तमाम साथियों का जिन्हें पत्रिका का ख़याल अच्छा लगा और जो वैसे ही बहुत कुछ कर रहे हैं, फिर भी कुछ और वक़्त देने के लिए तैयार हैं. ये पत्रिका दरअसल छप कर ही आएगी. संपादन वग़ैरह ऑनलाइन होता रहेगा, और उसकी एक तैयार प्रति वेब पर सार्वजनिक कर दी जाएगी. शनिवार को मैं सराय में हूँगा और इतवार को घर पर. तो बिल्कुल मिलते हैं. रविकान्त शनिवार 06 अक्टूबर 2007 09:26 को, आपने लिखा था: > रविकांत जी, > > > कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि > > क्या ऐसी किसी पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > जी हाँ, बिल्कुल जुड़ना चाहेंगे। वैसे मुझे लगता है कि यह लेख हिंदी की > कागज़ी पत्रिकाओं में छपने चाहिए, ऑन्लाइन संस्करण तो बिल्कुल हो ही हो, > उसके अलावा। > पत्रिकाएँ छापने का मुझे अनुभव नहीं है, तो बताइए कि आप किस प्रकार का > योगदान चाहेंगे? मैं किसी शनिवार-इतवार को आपसे दिल्ली में मुलाकात भी कर > सकता हूँ - मुलाकात काफ़ी समय से बकाया है। > आलोक > > 2007/10/5, Ravikant : > > दोस्तो, > > > > From ravikant at sarai.net Mon Oct 8 14:01:25 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 8 Oct 2007 14:01:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpLngpL8=?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWAIOClnuCkv+CksuCljeCkruClh+CkgiDgpJTgpLAg4KSF4KWb?= =?utf-8?b?4KSm4KSV?= Message-ID: <200710081401.25261.ravikant@sarai.net> सुनिये जनाब प्रमोद सिंह से सिनेमा पर बातचीत का पॉडकास्ट. शुक्रिया इरफ़ान भाई. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: हिंदी फ़िल्में और अज़दक Date: शनिवार 06 अक्टूबर 2007 09:52 From: irfan To: deewan at sarai.net, ravikant at sarai.net Cc: sirfirf at yahoo.com हिंदी फ़िल्में और अज़दक सुनिये टूटी हुई बिखरी हुई पर ------------------------------------------------------- From vineetdu at gmail.com Mon Oct 8 18:18:08 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 8 Oct 2007 18:18:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruCkvuCkqOClgCDgpKTgpYDgpKgg4KSV4KWH4KSy4KWH?= Message-ID: <829019b0710080548v6f146d86u72a357c4a063e880@mail.gmail.com> बाबा मानी तीन केले दिल्ली यूनिवर्सिटी से किसी भी रुप में सरोकार है या रहा होगा तो आपने बाबा शब्द जरुर सुना होगा। अपने तरफ पापा के बाबूजी के लिए बाबा शब्द का प्रयोग करते हैं या फिर बूढ़े-बुजुर्गों के लिए। लेकिन कैम्पस में बाबा का मानी कुछ और ही होते हैं।जब मैं शुरु-शुरु डीयू में आया तो हॉस्टल सहित दूसरी चीजों को लेकर बहुत परेशानी हुई। लोगों ने समझाया कि बाबा के पास जाओ, अपनी तकलीफ बताओ...जरुर मदद करेंगे। भगवान पर रत्ती भर भरोसा है नहीं, तब भी नहीं था सो टाल गया और तकलीफें झेलता रहा। झारखंड से था इसलिए मुझसे मिले बिना ही लोगों ने धारणा बना ली थी कि जरुर बोक्का होगा या फिर दिल का बहुत साफ। करियर के लिहाज से ये दोनों चीजें बहुत खतरनाक है..हमसे गए-गुजरों को हॉस्टल मिल गया और मैं बजाता रह गया। तभी एक दिन मेरे एक क्लासमेट ने मुझे एक आदमी से मिलाया जो कि आदमी होने की योग्यता खो चुका था। उनकी तरफ मुंह करके और मेरी तरफ इशारा करके बताया कि विनीत है और झारखंड से आया है। बातचीत में वो बंदा बार-बार झारखंड पर विशेष जोर दे रहा था और आदमी की बातचीत से लग रहा था कि उसे बिहार से विशेष लगाव है। अंत में मैंने जोड़ा कि सर घर तो बाबूजी ने झारखंड में बनवा लिया है लेकिन मैं हूं तो बिहार का ही। राशन कार्ड भी बिहार का ही है। मुस्कराते हुए आदमी ने कहा...स्साला बत्तख ही रह गए इसीलिए तो हम तुमको अपने में मिक्स नहीं होने देते पहीले सीधे काहे नहीं बोल दिए की हमहुं बिहारी है....सोचोगे कि अपने को बिहारियों से अलग रखें और दिखें और हेल-मेल से काम भी बन जाए। चलो भागो यहां से। बाद में पता चला कि ये किसी हॉस्टल के बाबा हैं और बाकी हॉस्टलों के बाबाओं ने आपसी सहमति और आस्था से सुपर बाबा मान लिया है।सुपर बाबा यानि कहीं भी टांग डालने की कूबत। आप धर्म के हिसाब से निरंकारी बाबा समझ लें क्योंकि इनकी लीला फिक्स नहीं है। ये अगर पढ़ते हैं हिन्दू कॉलेज में तो रामजस वाले पूछने आ जाते हैं कि अबकी इलेक्शन में किसको बैठाना है उठाने का काम तो बाबा करेंगे ही। मार हुआ है कोठारी हॉस्टल में तो इनके हॉस्टल के इनके अपने स्वयंसेवक स्थिति पर काबू पाने के लिए पहुंच जाएंगे। मैंने कई बार अपनी आंखों से देखा है कि दिल्ली पुलिस भी इनके हिसाब से फैसले लेती है या फिर कई बार इनके बीच में पड़ने से समझौता हुआ है। दिल्ली पुलिस को भी बाबा का प्रताप और पहुंच की खबर होती है भले ही उसे अपने एस.एच.ओ. के बारे में पता न रहे कि वो किस बैच का है या फिर बोर्ड कब पास किया है।हॉस्टल की लिस्ट निकले और वो बिना बाबा की मर्जी के...अगर आप ऐसा सोचते हैं जैसा कि कभी ऑथिरिटी ने सोचने की कोशिश की थी तो समझिए आपको डीयू से फिर से ग्रेजुएशन करने की जरुरत है। ये सब बचकाना हरकत वे ही वार्डन कर जाते थे जिन्होंने पहले कभी डीयू का मुंह नहीं देखा। पैसे की तंगी, कमजोर अंग्रेजी, आत्मविश्वास की कमी या फिर कम पर्सेंटेज के कारण यहां पढ़ नहीं पाए लेकिन बाद में सरकार की अखिल भारतीय नीति के तहत पढ़ाने आ गए। पहले वाली कमजोरी आपको अभी भी इनमें जब-तब दिख जाएगी. लेकिन इनकी दिली इच्छा रहती है कि ये कुछ ऐसा कर जाएं कि डीयू से ग्रेजुएट हुए स्टूडेंट को ये बताना नहीं पड़े कि - पहिचान कौन।.....बाबा ने कई बार इनको भी तरीके से पटकनी दी है, एक-दो बार तो नौकरी पर बन आई है। अच्छा बाबा का आहार-विहार भी सबसे अलग होता था, जब तीन-तेरह करने के बाद मुझे हॉस्टल मिल गया तो मैं तो कभी इनके सामने पड़ना ही नहीं चाहता, साइड से क़ट लेता, लेकिन लोग औऱ हमारे खाने बनाने वाले उस्ताद जी बताया करते कि रात में उनके कमरे में सबकुछ ले जाकर बाबा की इच्छा के मुताबिक खाना बनाना पड़ता है। बाकियों से अलग- एकदम डिफरेंट।अब यहां बहुत अधिक लिस्ट बढाने की जरुरत है कि बाबा क्या-क्या किया करते थे या फिर ये बताने की जरुरत है कि उनका भौतिक स्वरुप कैसा होता था। एकेडमिक परफॉरमेंस कैसा होता था....ये सब पूछकर हमसे क्लर्की न करवाएं। उनके कार्यों और प्रवृत्तियों के आधार पर आप ग्राफिक्स तैयार कर लें।समय बदला, छात्र राजनीति कमजोर हुई, देशभर में स्टूडेंट पॉलिटिक्स पर नकेल कसा जाने लगा उसकी लगातार नकारात्मक छवि पेश की जाने लगी और ये मान लिया जाने लगा कि स्टूडेंट ये सब छोड़कर अपनी पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दे, राजनीति उसकी पर्सनालिटी का हिस्सा नहीं है। पढ़ाई-लिखाई करे मतलब अपने को बाजार के हिसाब से तैयार करे। आनेवाले समय में सरकार का एक बेहतर नागरिक बनें, बढ़िया करदाता बने। इसका सीधा असर आप डीयू की पॉलिटिक्स में देख सकते हैं। छात्र चुनाव तो यहां बंद नहीं हुए हैं लेकिन चुनाव का जो रंग-ढंग है वो सेठों और बड़ी पार्टियों के लिए सट्टे की चीज बनकर रह गई है। आप देखेंगे कि सालभर में राजनीतिक पार्टियां डीयू के मसले में रुचि नहीं लेती लेकिन चुनाव की शक्ल विधान- सभा के चुनाव से भी ज्यादा भव्य हो गया है।.....यही कारण है कि अब कोई कॉलेज या स्टूडेंट अपने ढ़ंग से मुद्दे को उठाता है तो डूसू को उससे दूर ही रखता है। ताजा उदाहरण इन्द्रप्रस्थ कॉलेज को लें । खैर.......ये सब हो जाने से बाबा की स्थिति में लगातार गिरावट आई है। ऑथिरिटी को डर नहीं है कि स्टूडेंट विरोध करेंगे, डूसू अपने साथ है। अब बाबा की स्थिति ये है कि या तो वो डूसू का पालतू हो जा या फिर अपने वजूद को बनाए रखने के लिए लगातार संघर्ष करे जो कि आज की तारीख में बड़ ही मुश्किल काम है.।जो बाबा अपने वजूद बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रहा है वो बाबागिरी के नाम पर कमरे में गेस्ट रख ले रहा है, गेस्ट के आने पर बिना कूपन कटाए खाना खिला सकता है या फिर बहुत हुआ तो हम जैसे आम हॉस्टलरों के हटकर एक की जगह तीन केले खा सकता है इससे ज्यादा कुछ कर लेना अब उसके बूते की बात नहीं है।....तो अब हैं ये डीयू के बाबा और इनकी माली हालत..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071008/fbe7c5e9/attachment.html From girindranath at gmail.com Mon Oct 8 21:12:19 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Mon, 8 Oct 2007 21:12:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?iso-8859-1?q?DEFANGED=5B0?= =?iso-8859-1?q?=5D_DEFANGED=5B1=5D=3A_=E0=A4=87=E0=A4=82=E0=A4=9F?= =?iso-8859-1?q?=E0=A4=B0_=E0=A4=A8=E0=A5=87=E0=A4=9F_=E0=A4=AA_=E0?= =?iso-8859-1?q?=A4=B0_=E0=A4=B5=E0=A4=BF=E0=A4=9A_=E0=A4=B0=E0=A4?= =?iso-8859-1?q?=A4=E0=A5=87_=E0=A4=B9_=E0=A5=81=E0=A4=8F_=E0=A4=87?= =?iso-8859-1?q?=E0=A4=A8=E0=A4=B8=E0=A5=87_=28_http=3A//raj_neesh-?= =?iso-8859-1?q?mangla=2Ede/uni_c_=22__=22_ode=2Ephp_=29_=E0=A4=AD?= =?iso-8859-1?q?=E0=A5=87=E0=A4=82=E0=A4=9F_=E0=A4=B9=E0=A5=81=E0?= =?iso-8859-1?q?=A4=88=E0=A5=A4?= Message-ID: <63309c960710080842u33d8d9cfo8ab927492d42e2ea@mail.gmail.com> इंटरनेट पर विचरते हुए इनसे (http://rajneesh-mangla.de/unicode.php ) भेंट हुई। हो सकता है आप परिचित हों, तो भी इस पर नजर डालें। आप फान्ट कन्वर्ट करने के लिए यहां भी क्लिक कर सकते हैं। शुक्रिया. गिरीन्द्र अनुभव -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071008/418b1742/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Oct 9 16:46:04 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 9 Oct 2007 04:16:04 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSs4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KSm4KS+4KSPIOCkh+CktuCljeCklQ==?= Message-ID: <6a32f8f0710090416u665b4eb7re9fbc0c87a9a4a5f@mail.gmail.com> *अजित कुमार* यानि हिन्दी सहित्य का बेहद पहचाना हुआ नाम। सहित्य से अलग *अजित कुमार* को आम पाठक एक जमाने में धर्मयुग पत्रिका में खूब पढ़ा करते थे। अब नए जमाने के आम पाठकों में कम ही लोग धर्मयुग और अजित बाबु के बारे में नाम से ज्यादा कुछ जानते हैं। ऐसे में लीजिए इक याद ताजा करिए। *इब्तिदाए इश्क * यात्राओं के साथ शुरू से ही प्रीति, आश्चर्य और संतोष की जो भावना मेरे मन में जुड़ी रही है और अपनी जन्मभूमि की यात्रा ने इन भावों के साथ हमेशा गहरी खुशी और नई पहचान की जो अनुभूति मुझे दी है, वह सब इस बार की उन्नाव-लखनऊ यात्रा के दौरान शुरू से आखिर तक गायब रहा। यह बात अलग है कि दिल्ली की भयानकता, खीझ और थकान की तुलना में, एक हफ्ता फिर चैन से बीता लेकिन बचपन और यौवन के दिनों में यहां जो मस्ती और बेफिक्री हुआ करती थी, उसकी जगह अनवरत भागा-दौड़ी और कशमकश ने आखिरकार उन्नाव और लखनऊ को भी मेरे लिए दिल्ली बनाकर ही छोड़ा। वह सपना खंडित चाहे अभी न हुआ लेकिन बदरंग जरूर हो गया कि ऐसा वक्त आएगा जब हम अवकाश लेकर चैन और आराम की जिन्दगी अपने वतन में बिताएंगे। इस यात्रा ने समझाया कि चैन और आराम किसी छोटी सी छुट्टी के दौरान मनाली या गुलमर्ग में मिले तो मिले; उन्नाव, नवाबगंज और लखनऊ में तो मुकदमों, झगड़ों, फ़सादों, पटवारियों, पेशकारों, चपरासियों, अफसरों को भुगताते-निपटाते ही गुजारना होगा। सुख की कल्पना यहां तो साकार होने वाली नहीं, क्योंकि चकबंदी अधिकारी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमों का जाल फैला हुआ है। मेरे जीवन-काल में वह सिमटने वाला नहीं, भले ही मैं औऱ बीस वर्षों तक जीने की उम्मीद करूं। सच तो यह है कि नवाबगंज का मतलब मेरे लिए पिछले तमाम वर्षों में खीझ, गुस्से, अवरोध, भरपूर कोशिश के अलावा और कुछ नहीं रहा। इस यात्रा ने मुझे बार-बार यह सोचने के लिए मजबूर किया कि जिस जीवन की रक्षा और सुरक्षा की हम जी-तोड़ कोशिश करते हैं, वह जीवन तो गायब हो जाता है, सिर्फ कोशिश ही कोशिश यहां से वहां तक फैली रहती है। हम अपने कन्धों पर बोझ बढ़ाते चले जाते हैं और अगली पीढ़ी के लिए एक ऐसी गठरी छोड़ जाते हैं दुर्गन्धयुक्त, मैले कपड़ों की, जिसको धुलाने की लागत शायद हमारे पीछे छूट गये बैंक-बैलेन्स से कहीं ज्यादा होगी। आखिर क्यों मुझे यह यात्रा करनी पड़ी ? इसीलिए न कि मेरे पिता ने बीस साल पहले करीब ढाई हजार रुपये में ज़मीन का एक टुकड़ा खरीदा था जिसकी कीमत आज बहुत हो चुकी है और जिसके किसी हिस्से को हथियाने में एक स्थानीय गुंडा कामयाब हो गया। अब मैं बीस साल तक उसके साथ मुकदमेबाजी करूंगा फिर मुमकिन है, जीतने पर लाख-दो लाख और लगाकर, अड़ोस-पड़ोस की थोड़ी और ज़मीन खरीद अपने बेटे-भतीजों को सौंप जाऊं। फिर जब वे हिसाब-किताब बिठा कर आत्मतृप्त होने लगेंगे कि उनके खानदान की माली हैसियत अकेले नवाबगंज में पच्चीस लाख रुपये से अधिक की है और वहां आरा मिल. पेपर मिल या कोल्ड स्टोरेज का लाभकारी धन्धा मज़े से शुरू किया जा सकता है तो उन्हें पता चले कि उनकी जमीन के किसी अन्य टुकड़े पर किसी अन्य स्थानीय लठैत ने कब्जा जमा लिया है। तब वे अपनी जमीन की कीमत अस्सी लाख या दो करोड़ रुपये हो जाने तक अनवरत मुकदमेबाजी करते जाएं... यह सिनिरेयो दिल्ली से रवाना होते समय भीड़ भरे रेल के डिब्बे में जागते-ऊंघते कभी दिमागी तो कभी पलकों में बनता-मिटता रहा है। पहला पड़ाव था उन्नाव, जहां वकीलों से मिलने का मतलब था- एक ऐसे जाल में फंसा महसूस करना, जिससे निकलने की न कभी हम उम्मीद कर पाते हैं, न उसमें फंसे बिना अपने लिए कोई दूसरा चारा ही खोज पाते हैं। जब तुम्हारे अधिकार पर कोई दूसरा ज़बर्दस्ती दखल करे तो तुम यदि इतने विरक्त या बुद्धिमान नहीं हो कि इस कब्जे को नज़रअंदाज कर सको तो यह तय है कि तुम पुलिस – कचहरी, वकील, गवाह, कागज-तारीख के अनवरत शिकंजे में जरूर ही फंस जाओगे। यह तटस्थता या होशियारी मैं अपने निजी जीवन में थोड़ी बहुत लागू कर सका, जबकि बाकी तमाम लोग इसे दब्बूपन, कायरता, सुस्ती, पलायनवाद आदि- आदि कहते समझते रहे लेकिन अपने पिता और छोटे भाई को मैं कभी नहीं समझा पाया कि ज़मीन-जायदाद और मान-मर्यादा के लिए लड़ने-झगडने में समय, शक्ति और साधन का जो अपव्यय करना पड़ता है, उससे हमेशा एक ही मसल याद आती है कि 'टके की बुलबुल नौ टका हुसकाई।' चूकिं, उनकी राय मुझसे मेल न खाती थी और मैं खूद भी कभी-कभी सोचने लगता था कि गलती कहीं न कहीं मेरे ही सोच में है, और कि जो भी हो मुझे ज़रूरत के वक़्त उनके हाथ मज़बूत करने चाहिए- यह मेरा नैतिक कर्तव्य है- तो आखिरकार मुझे भी, मजबूरन इस जंजाल में फंसना पड़ा, लेकिन जब मैं इस मुहिम का हिस्सा बना, तो मैंने यह भी समझा कि यहां अधिक वास्तविक दुनिया है जो हमें जीने का ज्यादा कारगर ढंग सिखा सकती है और संसार का पूर्णतर चित्र हमारे सामने रखती है। उस एक हफ्ते में मैंने बहुत जानकारी हासिल की, जिसे विस्तार से बताना जरूरी नहीं, अपनी समझ के लिए कुछ ही मुद्दे दर्ज करता हूं ताकि सनद रहे और वक़्त जरूरत काम आय। मैंने अनुभव किया कि आम तौर से निचले दर्जे के कर्मचारी अधिक सुस्त, काहिल और भ्रष्ट हैं बनिस्पक ऊंचे दर्जे के। कार्यकुशलता और शिष्टता का भी बड़ अभाव है। लेकिन हमारी व्यवस्था का ढांचा कुछ ऐसा है कि पैसे या निजी संबंधों के बल पर हम अपना अधिकतर काम इस निचले तबके के अमले से करवा सकते हैं। पटवारी, पेशकार, सिपाही, दारोगा हमारे लिए जितना कारगर हो सकता है, उतना मंत्री, सचिव या उच्च अधिकारी वर्ग नहीं हो पाता। देश का जीवन- स्तर जिस निचले दर्जे पर सामान्य रूप से चलता है, वहां सुई की उपयोगिता तलवार की तुलना में कहीं अधिक दिखाई देती है। जहां तक उच्च अधिकारियों का संबंध है, वे किन्हीं मामलों में कारगर होते जरूर हैं, लेकिन तभी जब उन पर ऊपर से कोई गहरा दबाव पड़े या कोई अन्य बड़ी वजह हो, वरना आमतौर से वे हीला-हवाल कर मामले से बचने की और कीचड़ में कमल वाली छवि बनाये रखने की कोशिश करते हैं। यह जरूर है कि हमारी व्यवस्था में उनकी हैसियत ऐसी बनायी गई है कि यदि वे प्रभावकारी हस्तक्षेप का निर्णय लेते हैं तो तमाम बन्द दरवाजे अपने आप खुलने लगते हैं। हमारे मामले में भी यही बात लागू हुई कि एक मामूली पटवारी ने जमीन के कागजों में मौजूद तनिक से पेंच की जानकारी किसी स्थानीय हड़पबाज घुसपैठिये को दे दि और उसने हमारी जमीन में ऐसी लात घुसा दी कि उसे निकाल फेंकना मुश्किल हो गया। बहरहाल जब सत्ता के पहियों को हमने घुमाना शुरू किया तो ऐसा लगा कि पटवारी उनके वेग को संभाल नहीं पा रहा है, लेकिन यह तो लड़ाई की महज शुरूआत है। अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता कि चक्के में फंसा पेंचकस उसको जाम कर देगा या खुद टूट-फूट जायेगा। बहुत सी अन्य बातों पर लड़ाई का नतीजा निर्भर करेगा। अभी तो मुझे न मामले की पूरी जानकारी है न झगड़े की शक्ल साफ़ हुई है। सिर्फ चार-छह बार पेशियों पर हाजिर होना और तारीखों का बढ़ जाना ही हाथ लगा है। इसे पूर्वजन्मों के संचित पुण्य का फल कहूं या किन्हीं पापों का फूट निकलना, मैं नहीं जानता। यह बेशक मालूम है कि बिना आरक्षण वाली वापसी रेल यात्रा में पिताजी द्वारा सिखाया गया मूलमंत्र मैं कितना ही जपूं कि, 'बैठने की जगह मिले तो खड़े मत रहना और लेटने की गुंजाइश दिखे तो बैठे रहने से बचना' लेकिन इसका क्या भरोसा कि भेड़ियाधसान मुझे डिब्बे के भीतर घुसेड़ कर ही चैन लेगी या गाड़ी छूट जाने के बाद प्लेटफार्म पर अटका और अगली ट्रेन की फिक्र में डूबा मैं देर तक दोहराता ही रह जाऊंगा- 'इब्तिदाए इश्क है... रोता है क्या ! आगे आगे देखिये होता है क्या !' -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071009/e1ab58b0/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Oct 10 01:52:36 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 10 Oct 2007 01:52:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?LeCkheCkruClh+CksOCkv+CkleCkviDgpKrgpLDgpK7gpL7gpKPgpYEg?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KS+4KSw4KSDIOCkruCkvuCkqOCktSDgpJzgpL7gpKTgpL8g?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkheCkuOCljeCkpOCkv+CkpOCljeCktSDgpLngpYAg4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KS14KSCIOCkquCksCDgpLLgpJfgpL4g4KS54KWI?= Message-ID: <363092e30710091322w7e1d8dcay61d9fa02fc0f288f@mail.gmail.com> भारत-अमेरिका परमाणु करारः मानव जाति का अस्तित्व ही दावं पर लगा है नोम चोम्स्की ज़िंदाबाद केवल अरुंधति राय ही नहीं करतीं, किसी न किसी कारण से वे सभी लोग भी करते हैं जो अमेरिकी साम्राज्य के लौह पंजे के तले अपनी गरदन दबी हुई महसूस करते हैं और उसके खिलाफ़ संघर्षों में भागीदार हैं. चोम्स्की अमेरिका में रहते हुए अमेरिकी नीतियों के सबसे मुखर आलोचक हैं. यह लगभग सर्वसम्मत बात है कि अभी की दुनिया के वे सबसे बडे़ बौद्धिक-विचारक हैं. उनकी आवाज़ दुनिया की सबसे बडी़ आवाज़ों में से है. मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर एमेरिटस चोम्स्की की गिनती बीसवीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषाविज्ञानियों में होती है, मगर उनका काम मीडिया, राजनीति और आधुनिक मनोविज्ञान में भी वैसा ही-उतना ही महत्वपूर्ण है. इस बार वे भारत द्वारा अमेरिका के साथ किये गये करार पर चिंता जता रहे हैं. आइए, हम सब सुनें. नोम चोम्स्की परमाणुसंपन्न देश अपराधी देश हैं. विश्व न्यायालय के अनुसार उनका कानूनी दायित्व है कि वे परमाणु अप्रसार संधि की धारा छह की कसौटी पर खरे उतरें. इस संधि के प्रावधानों के अनुसार परमाणु हथियारों के पूरी तरह से खात्मे के लिए विश्वासपूर्ण समझौते करना है. कोई भी परमाणुसंपन्न देश इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है. इसका उल्लंघन करने में संयुक्त राज्य अमेरिका अगुआ है, खासतौर पर बुश प्रशासन, जिसने यहां तक कहा कि वे धारा छह के अधीन नहीं हैं. ___________________________________________________________ यहां सुनिए एक दुर्लभ बातचीत, जिसमें नोम चोम्स्की दुनिया के एक और महान विचारक-लेखक हावर्ड ज़िन के साथ इराक, वियतनाम, एक्टिविज़्म और इतिहास पर चर्चा कर रहे हैं. इस बातचीत का हिंदी अनुवाद जल्दी ही हाशिया पर देने की कोशिश चल रही है. ___________________________________________________________ 27 जुलाई को वाशिंगटन ने भारत के साथ एक ऐसा समझौता किया है, जो परमाणु अप्रसार संधि की मूल आत्मा को नष्ट करता है. हालांकि दोनों देशों में इसका पुरजोर विरोध हो रहा है. इस्राइल और पाकिस्तान की भांति भारत ने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किया है. इसने इस संधि से बाहर रह कर परमाणु हथियार विकसित किया है. यह समझौता करके बुश प्रशासन ने उद्दंड व्यवहार को अपना समर्थन दिया है. यह समझौता संयुक्त राज्य अमेरिका के कानून का उल्लंघन तो है ही, साथ ही न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप को बाइपास भी करता है. यह ग्रुप 45 देशों का समूह है, जिसने परमाणु हथियारों के विस्तार के खतरे को कम करने के लिए कड़े नियम बनाये हैं. आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक डैरिल किंबाल का आकलन है कि यह समझौता भारत को और परमाणु परीक्षण करने से प्रतिबंधित नहीं करता है. सबसे चकित करनेवाली बात यह है कि अगर भारत ऐसे परीक्षण करता है, तब भी अन्य देशों से ईंधन हासिल करने में वाशिंगटन दिल्ली की मदद करेगा. यह बम बनाने के लिए सीमित घरेलू आपूर्ति को फ्री करने के लिए भारत को अनुमति भी देता है. ये सारे कदम अंतरराष्ट्रीय अप्रसार समझौते का सीधा उल्लंघन हैं. भारत-अमेरिकी समझौता दूसरे देशों को नियम तोड़ने के लिए उकसानेवाला है. ऐसी खबर है कि पाकिस्तान परमाणु हथियारों के लिए प्लूटोनियम उत्पादन के लिए रिएक्टर बनानेवाला है. यह ज्यादा उन्नत हथियार बनाने के दौर की शुरुआत है. भारत जैसी सुविधा हासिल करने के लिए इस्राइल अमेरिकी कांग्रेस में लॉबिंग कर रहा है. उसने नियमों से छुटकारे के लिए न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से निवेदन किया है. एक बार अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियों ने दरवाजा खोल दिया, तो चीन-पाकिस्तान समझौते की भांति अब फ्रांस, रूस और ऑस्ट्रेलिया भारत के साथ परमाणु समझौते के लिए आगे बढ़ें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. भारत-अमेरिकी समझौते में फौजी और व्यापारिक दोनों ही उद्देश्य निहित हैं. परमाणु हथियार विशेषज्ञ गैरी मिलहोलिन ने कांग्रेस में विदेश सचिव कोंडेलिजा राइस द्वारा दिये गये बयान के हवाले से बताया है कि `प्राइवेट सेक्टर को ध्यान में रखते हुए इस डील को बनाया गया था. खासतौर पर एयरक्राफ्ट और रिएक्टर के लिए.' मिलहोलिन मानते हैं कि यह डील फौजी विमानों के लिए है. परमाणु युद्ध के खिलाफ प्रतिबंधों को नजरअंदाज करके यह समझौता क्षेत्रीय तनावों को न सिर्फ बढ़ाता है, बल्कि वह दिन भी जल्द ही दिखा सकता है, जब परमाणु विस्फोट किसी अमेरिकी शहर को तबाह कर देगा. वाशिंगटन का संदेश साफ है- `संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए पैसे की तुलना में निर्यात नियंत्रण कम महत्वपूर्ण है.' अमेरिकी कारपोरेटों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है मुनाफा, चाहे कितना भी खतरा क्यों न हो. किंबाल बताते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका परमाणु व्यापार के मामले में भारत को उन देशों की तुलना में ज्यादा सहूलियत दे रहा है, जो परमाणु अप्रसार संधि की सभी शर्तों और जवाबदेहियों को पूरा कर रहे हैं. दुनिया के अधिकांश हिस्से में कुछ ही लोग इस पागलपन को देखने में असफल रह सकते हैं. ईरान के खिलाफ युद्ध की धमकी के दौरान ऐसा दिखा कि वाशिंगटन उन देशों को पुरस्कृत करता है, जो परमाणु अप्रसार संधि के नियमों की अवहेलना करते हैं. वस्तुस्थिति यह है कि बुरी तरह से उकसाने के बावजूद ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि के नियमों का उल्लंघन नहीं किया है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने ईरान के दो पड़ोसियों पर कब्जा जमा लिया है और ईरान की सत्ता को खुले तौर पर गिराने में लगा है. गौरतलब है कि 1979 से ईरान पर अमेरिकी नियंत्रण नहीं है, इससे वह क्षुब्ध है. पिछले कुछ वर्षों से भारत और पाकिस्तान ने दोनों देशों के बीच तनाव कम करने की दिशा में कोशिशें की हैं. आम लोगों के आपसी संपर्क में बढ़ोत्तरी हुई है. दोनों देशों के बीच कई लंबित विवादों पर बातचीत का दौर जारी है. भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते से इस प्रक्रिया पर उलटा असर पड़ सकता है. इस पूरे क्षेत्र में भरोसा निर्माण के कई साधनों में से एक है- पाकिस्तान के रास्ते बननेवाली प्राकृतिक गैस के लिए ईरान-भारत पाइपलाइन का निर्माण. यह पाइपलाइन इलाके के लोगों को एक साथ करती और शांतिपूर्ण एकता की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त करती. यह पाइपलाइन और वह उम्मीदें, जो इससे बंधी हैं, भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते की बलि चढ़ सकते हैं. अमेरिका इसे अपने दुश्मन ईरान से भारत को अलगाने के रूप में देखता है, इसीलिए वह भारत को ईरानी गैस के बदले में परमाणु शक्ति दे रहा है. हालांकि सच्चाई यह है कि अमेरिका जो भारत को देगा, वह ईरान से मिलनेवाली सामग्री की तुलना में बहुत ही कम है. भारत-अमेरिकी समझौता वाशिंगटन के द्वारा ईरान को अलग-थलग करने का उपाय है. 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने `हाइड एक्ट' पारित किया है, जिसमें निर्दिष्ट है कि जनसंहार के हथियारों को हासिल करने के प्रयासों के लिए ईरान को निरुत्साहित करने, अलग-थलग करने और जरूरत पड़े तो प्रतिबंधित करने और नियंत्रण करने की अमेरिकी कोशिशों में भारत का पूरा और सक्रिय सहयोग हासिल किया जाये. गौरतलब है कि अधिकांश अमेरिकी और ईरानी लोग इस पूरे इलाके (ईरान और इस्राइल समेत)को परमाणु हथियारों से मुक्त क्षेत्र बनाने के पक्षधर हैं. तीन अप्रैल 1991 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 687 को भी याद कर सकते हैं, जब अमेरिका से इराक पर हमले की बाबत जवाब-तलब किया गया था, तो वाशिंगटन ने लगातार वकालत की थी कि मध्य-पूर्व क्षेत्र को नरसंहार के हथियारों और मिसाइलों से मुक्त किया जाये. साफ है, मौजूदा संकट को कम करने के रास्ते की कमी नहीं है. भारत-अमेरिकी समझौते को पटरी से उतार दिये जाने की जरूरत है. परमाणु युद्ध का खतरा बहुत ही गंभीर है और बढ़ रहा है. और इसकी वजह अमेरिकी अगुआईवाले वो परमाणुसंपन्न देश हैं, जो परमाणु अप्रसार के दायित्वों को पूरा करने से इनकार करते हैं और उसका खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं. भारत-अमेरिकी समझौते का यह नवीनतम प्रयास विपत्ति की तरफ ही एक और कदम होगा. इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप के द्वारा इसके निरीक्षण के बाद अमेरिकी कांग्रेस के पास इस समझौते को जांचने-परखने के लिए चिंतन करने का मौका है. मुमकिन है कि कांग्रेस इस समझौते को रद्द कर सकती है. कांग्रेस में परमाणु अस्त्रों के खिलाड़ियों से ऊबे हुए लोगों की संख्या अच्छी है. आगे बढ़ने का सबसे अच्छा रास्ता है कि वैश्विक स्तर पर परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए काम किया जाये. हम इस बात को समझें कि दावं पर मानव जाति का अस्तित्व लगा है. अनुवाद: विनय भूषण साभार: खलीज टाइम्स, हिंदी अनुवाद प्रभात खबर में प्रकाशित | मूल लेख यहां पढें. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071010/c6041f6e/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Oct 10 01:52:36 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 10 Oct 2007 01:52:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?LeCkheCkruClh+CksOCkv+CkleCkviDgpKrgpLDgpK7gpL7gpKPgpYEg?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KS+4KSw4KSDIOCkruCkvuCkqOCktSDgpJzgpL7gpKTgpL8g?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkheCkuOCljeCkpOCkv+CkpOCljeCktSDgpLngpYAg4KSm?= =?utf-8?b?4KS+4KS14KSCIOCkquCksCDgpLLgpJfgpL4g4KS54KWI?= Message-ID: <363092e30710091322w7e1d8dcay61d9fa02fc0f288f@mail.gmail.com> भारत-अमेरिका परमाणु करारः मानव जाति का अस्तित्व ही दावं पर लगा है नोम चोम्स्की ज़िंदाबाद केवल अरुंधति राय ही नहीं करतीं, किसी न किसी कारण से वे सभी लोग भी करते हैं जो अमेरिकी साम्राज्य के लौह पंजे के तले अपनी गरदन दबी हुई महसूस करते हैं और उसके खिलाफ़ संघर्षों में भागीदार हैं. चोम्स्की अमेरिका में रहते हुए अमेरिकी नीतियों के सबसे मुखर आलोचक हैं. यह लगभग सर्वसम्मत बात है कि अभी की दुनिया के वे सबसे बडे़ बौद्धिक-विचारक हैं. उनकी आवाज़ दुनिया की सबसे बडी़ आवाज़ों में से है. मैसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर एमेरिटस चोम्स्की की गिनती बीसवीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाषाविज्ञानियों में होती है, मगर उनका काम मीडिया, राजनीति और आधुनिक मनोविज्ञान में भी वैसा ही-उतना ही महत्वपूर्ण है. इस बार वे भारत द्वारा अमेरिका के साथ किये गये करार पर चिंता जता रहे हैं. आइए, हम सब सुनें. नोम चोम्स्की परमाणुसंपन्न देश अपराधी देश हैं. विश्व न्यायालय के अनुसार उनका कानूनी दायित्व है कि वे परमाणु अप्रसार संधि की धारा छह की कसौटी पर खरे उतरें. इस संधि के प्रावधानों के अनुसार परमाणु हथियारों के पूरी तरह से खात्मे के लिए विश्वासपूर्ण समझौते करना है. कोई भी परमाणुसंपन्न देश इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा है. इसका उल्लंघन करने में संयुक्त राज्य अमेरिका अगुआ है, खासतौर पर बुश प्रशासन, जिसने यहां तक कहा कि वे धारा छह के अधीन नहीं हैं. ___________________________________________________________ यहां सुनिए एक दुर्लभ बातचीत, जिसमें नोम चोम्स्की दुनिया के एक और महान विचारक-लेखक हावर्ड ज़िन के साथ इराक, वियतनाम, एक्टिविज़्म और इतिहास पर चर्चा कर रहे हैं. इस बातचीत का हिंदी अनुवाद जल्दी ही हाशिया पर देने की कोशिश चल रही है. ___________________________________________________________ 27 जुलाई को वाशिंगटन ने भारत के साथ एक ऐसा समझौता किया है, जो परमाणु अप्रसार संधि की मूल आत्मा को नष्ट करता है. हालांकि दोनों देशों में इसका पुरजोर विरोध हो रहा है. इस्राइल और पाकिस्तान की भांति भारत ने एनपीटी पर दस्तखत नहीं किया है. इसने इस संधि से बाहर रह कर परमाणु हथियार विकसित किया है. यह समझौता करके बुश प्रशासन ने उद्दंड व्यवहार को अपना समर्थन दिया है. यह समझौता संयुक्त राज्य अमेरिका के कानून का उल्लंघन तो है ही, साथ ही न्यूक्लियर सप्लायर ग्रुप को बाइपास भी करता है. यह ग्रुप 45 देशों का समूह है, जिसने परमाणु हथियारों के विस्तार के खतरे को कम करने के लिए कड़े नियम बनाये हैं. आर्म्स कंट्रोल एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक डैरिल किंबाल का आकलन है कि यह समझौता भारत को और परमाणु परीक्षण करने से प्रतिबंधित नहीं करता है. सबसे चकित करनेवाली बात यह है कि अगर भारत ऐसे परीक्षण करता है, तब भी अन्य देशों से ईंधन हासिल करने में वाशिंगटन दिल्ली की मदद करेगा. यह बम बनाने के लिए सीमित घरेलू आपूर्ति को फ्री करने के लिए भारत को अनुमति भी देता है. ये सारे कदम अंतरराष्ट्रीय अप्रसार समझौते का सीधा उल्लंघन हैं. भारत-अमेरिकी समझौता दूसरे देशों को नियम तोड़ने के लिए उकसानेवाला है. ऐसी खबर है कि पाकिस्तान परमाणु हथियारों के लिए प्लूटोनियम उत्पादन के लिए रिएक्टर बनानेवाला है. यह ज्यादा उन्नत हथियार बनाने के दौर की शुरुआत है. भारत जैसी सुविधा हासिल करने के लिए इस्राइल अमेरिकी कांग्रेस में लॉबिंग कर रहा है. उसने नियमों से छुटकारे के लिए न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप से निवेदन किया है. एक बार अंतरराष्ट्रीय महाशक्तियों ने दरवाजा खोल दिया, तो चीन-पाकिस्तान समझौते की भांति अब फ्रांस, रूस और ऑस्ट्रेलिया भारत के साथ परमाणु समझौते के लिए आगे बढ़ें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा. भारत-अमेरिकी समझौते में फौजी और व्यापारिक दोनों ही उद्देश्य निहित हैं. परमाणु हथियार विशेषज्ञ गैरी मिलहोलिन ने कांग्रेस में विदेश सचिव कोंडेलिजा राइस द्वारा दिये गये बयान के हवाले से बताया है कि `प्राइवेट सेक्टर को ध्यान में रखते हुए इस डील को बनाया गया था. खासतौर पर एयरक्राफ्ट और रिएक्टर के लिए.' मिलहोलिन मानते हैं कि यह डील फौजी विमानों के लिए है. परमाणु युद्ध के खिलाफ प्रतिबंधों को नजरअंदाज करके यह समझौता क्षेत्रीय तनावों को न सिर्फ बढ़ाता है, बल्कि वह दिन भी जल्द ही दिखा सकता है, जब परमाणु विस्फोट किसी अमेरिकी शहर को तबाह कर देगा. वाशिंगटन का संदेश साफ है- `संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए पैसे की तुलना में निर्यात नियंत्रण कम महत्वपूर्ण है.' अमेरिकी कारपोरेटों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है मुनाफा, चाहे कितना भी खतरा क्यों न हो. किंबाल बताते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका परमाणु व्यापार के मामले में भारत को उन देशों की तुलना में ज्यादा सहूलियत दे रहा है, जो परमाणु अप्रसार संधि की सभी शर्तों और जवाबदेहियों को पूरा कर रहे हैं. दुनिया के अधिकांश हिस्से में कुछ ही लोग इस पागलपन को देखने में असफल रह सकते हैं. ईरान के खिलाफ युद्ध की धमकी के दौरान ऐसा दिखा कि वाशिंगटन उन देशों को पुरस्कृत करता है, जो परमाणु अप्रसार संधि के नियमों की अवहेलना करते हैं. वस्तुस्थिति यह है कि बुरी तरह से उकसाने के बावजूद ईरान ने परमाणु अप्रसार संधि के नियमों का उल्लंघन नहीं किया है. संयुक्त राज्य अमेरिका ने ईरान के दो पड़ोसियों पर कब्जा जमा लिया है और ईरान की सत्ता को खुले तौर पर गिराने में लगा है. गौरतलब है कि 1979 से ईरान पर अमेरिकी नियंत्रण नहीं है, इससे वह क्षुब्ध है. पिछले कुछ वर्षों से भारत और पाकिस्तान ने दोनों देशों के बीच तनाव कम करने की दिशा में कोशिशें की हैं. आम लोगों के आपसी संपर्क में बढ़ोत्तरी हुई है. दोनों देशों के बीच कई लंबित विवादों पर बातचीत का दौर जारी है. भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते से इस प्रक्रिया पर उलटा असर पड़ सकता है. इस पूरे क्षेत्र में भरोसा निर्माण के कई साधनों में से एक है- पाकिस्तान के रास्ते बननेवाली प्राकृतिक गैस के लिए ईरान-भारत पाइपलाइन का निर्माण. यह पाइपलाइन इलाके के लोगों को एक साथ करती और शांतिपूर्ण एकता की संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त करती. यह पाइपलाइन और वह उम्मीदें, जो इससे बंधी हैं, भारत-अमेरिकी परमाणु समझौते की बलि चढ़ सकते हैं. अमेरिका इसे अपने दुश्मन ईरान से भारत को अलगाने के रूप में देखता है, इसीलिए वह भारत को ईरानी गैस के बदले में परमाणु शक्ति दे रहा है. हालांकि सच्चाई यह है कि अमेरिका जो भारत को देगा, वह ईरान से मिलनेवाली सामग्री की तुलना में बहुत ही कम है. भारत-अमेरिकी समझौता वाशिंगटन के द्वारा ईरान को अलग-थलग करने का उपाय है. 2006 में अमेरिकी कांग्रेस ने `हाइड एक्ट' पारित किया है, जिसमें निर्दिष्ट है कि जनसंहार के हथियारों को हासिल करने के प्रयासों के लिए ईरान को निरुत्साहित करने, अलग-थलग करने और जरूरत पड़े तो प्रतिबंधित करने और नियंत्रण करने की अमेरिकी कोशिशों में भारत का पूरा और सक्रिय सहयोग हासिल किया जाये. गौरतलब है कि अधिकांश अमेरिकी और ईरानी लोग इस पूरे इलाके (ईरान और इस्राइल समेत)को परमाणु हथियारों से मुक्त क्षेत्र बनाने के पक्षधर हैं. तीन अप्रैल 1991 के संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 687 को भी याद कर सकते हैं, जब अमेरिका से इराक पर हमले की बाबत जवाब-तलब किया गया था, तो वाशिंगटन ने लगातार वकालत की थी कि मध्य-पूर्व क्षेत्र को नरसंहार के हथियारों और मिसाइलों से मुक्त किया जाये. साफ है, मौजूदा संकट को कम करने के रास्ते की कमी नहीं है. भारत-अमेरिकी समझौते को पटरी से उतार दिये जाने की जरूरत है. परमाणु युद्ध का खतरा बहुत ही गंभीर है और बढ़ रहा है. और इसकी वजह अमेरिकी अगुआईवाले वो परमाणुसंपन्न देश हैं, जो परमाणु अप्रसार के दायित्वों को पूरा करने से इनकार करते हैं और उसका खुलेआम उल्लंघन कर रहे हैं. भारत-अमेरिकी समझौते का यह नवीनतम प्रयास विपत्ति की तरफ ही एक और कदम होगा. इंटरनेशनल एटॉमिक एनर्जी एजेंसी और न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप के द्वारा इसके निरीक्षण के बाद अमेरिकी कांग्रेस के पास इस समझौते को जांचने-परखने के लिए चिंतन करने का मौका है. मुमकिन है कि कांग्रेस इस समझौते को रद्द कर सकती है. कांग्रेस में परमाणु अस्त्रों के खिलाड़ियों से ऊबे हुए लोगों की संख्या अच्छी है. आगे बढ़ने का सबसे अच्छा रास्ता है कि वैश्विक स्तर पर परमाणु निरस्त्रीकरण के लिए काम किया जाये. हम इस बात को समझें कि दावं पर मानव जाति का अस्तित्व लगा है. अनुवाद: विनय भूषण साभार: खलीज टाइम्स, हिंदी अनुवाद प्रभात खबर में प्रकाशित | मूल लेख यहां पढें. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071010/c6041f6e/attachment-0001.html From rajeshkajha at yahoo.com Wed Oct 10 13:37:48 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Wed, 10 Oct 2007 01:07:48 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: <635866.61825.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> रविकांत जी के साथ ऐसी एक पत्रिका के लिए लगातार बात होती रही और मुझे यह खुशी है कि ऐसी पत्रिका व उसके स्वरूप पर चर्चा दीवान मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. चर्चा के लिए दीवान मेलिंग लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं हो सकती थी. मैं मानना है कि दीवान लिस्ट से बेहतर शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं है जहां इतने सारे विषयों पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार हिन्दी में की जाती है. खैर, रविकांत जी का शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम "नेतृत्व" के लिए रखा. नेतृत्व शब्द इतना भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ भयानुभूति भी होने लगी है. इसका यह अर्थ न लिया जाये कि मैं काम के किसी बोझ से डरता हूँ या इस काम के लिए मेरे पास समय कम है... मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि ऐसी पत्रिका के लिए मैं लगातार प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की भांति काम करूंगा... आपके सुझाव व सहयोग की अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, आकार-प्रकार, रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी चीजों पर आपकी राय जरूरी है राजेश रंजन ----- Original Message ---- From: zaigham imam To: deewan at sarai.net Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM Subject: Re: [दीवान]एक अपील ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा साहब जो नियमित ब्लागर नहीं है। पत्रिका के शुरूआती प्रस्ताव पर हम सब इतने उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? शायद रविकांत जी को एकबार फिर अपील करनी पड़े। मुक्तिका अनिमंत्रित सामग्री लौटाने के लिए जिम्मेदार नहीं है...कृपया गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका के मिजाज से मेलजोल खाती रचनाएं ही भेजें। अनिमंत्रित सामग्री भेजने के लिए आतुर जै़गम On 10/5/07, Ravikant wrote: दोस्तो, रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है कि हिन्दी में एक ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को सामने ला सके. पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर मुख्तसर सी चर्चा हुई. इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को बहस में शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला आयोजित करके या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब संदर्भ बदल गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को भी मिलेगा. अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद है. संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ हद तक गौरी हमें बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही केन्द्रित होगा. मुझे लगता है कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं आपसे आपके वक़्त का दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी सामाग्री रख सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, संपादन और हो सके तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में हैं. जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो होना ही चहिए. रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं जो सहज ही याद आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का सहयोग भी हमें मिलेगा. इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का परिचय कराना ज़रूरी लगता है. आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना करते हुए, उसे भी अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना जाए तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले में हम संकीर्णता न बरतें तो सबका भला होगा.... सहयोग की अपेक्षा में रविकान्त + राजेश रंजन ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 From: Rajesh Ranjan < rajeshkajha at yahoo.com> To: Ravikant रविकांत, मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. आपका राजेश आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: १. औजार क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) ख. मोबाइल ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत घ. कैमरा ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... २. इतिहास - तकनीकी इतिहास ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, ई-लोकतंत्र ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति ६. गैर सरकारी संगठन व उनके प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. ____________________________________________________________________________ ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. http://autos.yahoo.com/new_cars.html ------------------------------------------------------- _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan ____________________________________________________________________________________ Fussy? Opinionated? Impossible to please? Perfect. Join Yahoo!'s user panel and lay it on us. http://surveylink.yahoo.com/gmrs/yahoo_panel_invite.asp?a=7 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071010/f06e9d77/attachment.html From tetra at sarai.net Wed Oct 10 16:32:14 2007 From: tetra at sarai.net (tetra) Date: Wed, 10 Oct 2007 16:32:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= This is a test mail Plz ignor Message-ID: <470CB136.9020605@sarai.net> ttttttttttttttttttttttttt From ravikant at sarai.net Wed Oct 10 16:22:12 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 10 Oct 2007 16:22:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <635866.61825.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> References: <635866.61825.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> Message-ID: <200710101622.13129.ravikant@sarai.net> इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, आलोक जो चंडीगढ़ में हैं, और जल्द ही दिल्ली में होंगे, इस रविवार को तक़रीबन 11 बजे मेरे घर पर आएँगे और कुछ विचार विमर्श होगा. आपमें से जो सज्जन या सजनी आना चाहें उनका स्वागत है. बातचीत का ब्यौरा दीवान पर डाल दिया जाएगा. ये वही आलोक हैं, जिन्हें हिन्दी का पहले ब्लॉगर के उपनाम से भी जाना जाता है - 9.2.11 की बदौलत. रविकान्त बुधवार 10 अक्टूबर 2007 13:37 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > रविकांत जी के साथ ऐसी एक पत्रिका के लिए लगातार बात होती रही और मुझे यह खुशी > है कि ऐसी पत्रिका व उसके स्वरूप पर चर्चा दीवान मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. > चर्चा के लिए दीवान मेलिंग लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं हो सकती थी. मैं मानना है > कि दीवान लिस्ट से बेहतर शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं > है जहां इतने सारे विषयों पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार हिन्दी में की जाती है. > > खैर, रविकांत जी का शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम "नेतृत्व" के लिए रखा. > नेतृत्व शब्द इतना भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ भयानुभूति भी होने लगी है. > इसका यह अर्थ न लिया जाये कि मैं काम के किसी बोझ से डरता हूँ या इस काम के > लिए मेरे पास समय कम है... मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि ऐसी पत्रिका > के लिए मैं लगातार प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की भांति काम करूंगा... > > आपके सुझाव व सहयोग की अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, आकार-प्रकार, > रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी चीजों पर आपकी राय जरूरी है > > > राजेश रंजन > > > ----- Original Message ---- > From: zaigham imam > To: deewan at sarai.net > Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा साहब जो नियमित ब्लागर नहीं है। पत्रिका के शुरूआती > प्रस्ताव पर हम सब इतने उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? शायद रविकांत जी को > एकबार फिर अपील करनी पड़े। मुक्तिका अनिमंत्रित सामग्री लौटाने के लिए > जिम्मेदार नहीं है...कृपया गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका के मिजाज से मेलजोल खाती > रचनाएं ही भेजें। > > > अनिमंत्रित सामग्री भेजने के लिए आतुर > जै़गम > > > > > On 10/5/07, Ravikant wrote: > > दोस्तो, > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है > कि हिन्दी में एक > > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > सामने ला सके. पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर > मुख्तसर सी चर्चा हुई. इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे > हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, > > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को > बहस में शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > आयोजित करके > > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब > संदर्भ बदल गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से > आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल > के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को > भी मिलेगा. अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद > है. > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > हद तक गौरी हमें > > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया > रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि > शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा > हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी > > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका > नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को > भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. > > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > आपसे आपके वक़्त का दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने > कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे > पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी > > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > सामाग्री रख सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, > संपादन और हो सके > > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे > ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में हैं. > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > होना ही चहिए. > > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > जो सहज ही याद आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी > गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त > प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > सहयोग भी हमें मिलेगा. इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने > लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का > परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > करते हुए, उसे भी अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, > वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते > हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना > > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना > जाए तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले > में हम संकीर्णता न बरतें तो सबका भला होगा.... > > > सहयोग की अपेक्षा में > > > रविकान्त + राजेश रंजन > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > From: Rajesh Ranjan < > rajeshkajha at yahoo.com> > To: Ravikant > > रविकांत, > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > > आपका > राजेश > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > १. औजार > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > ख. मोबाइल > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > घ. कैमरा > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > ई-लोकतंत्र > > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > ___________________________________________________________________________ >_ > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > ------------------------------------------------------- > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > ___________________________________________________________________________ >_________ Fussy? Opinionated? Impossible to please? Perfect. Join Yahoo!'s > user panel and lay it on us. > http://surveylink.yahoo.com/gmrs/yahoo_panel_invite.asp?a=7 From ravikant at sarai.net Wed Oct 10 12:00:00 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 10 Oct 2007 12:00:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Om Message-ID: <200710101200.01117.ravikant@sarai.net> shukriya shivam bhejne ke liye aur shuddhabrata sengupta, sunane ke liye! bahut achhi cheez bahut dinon baad. maze lein ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Om Date: सोमवार 08 अक्टूबर 2007 21:52 From: "Shivam Vij" To: undisclosed-recipients:; Baba Nagarjun, the Hindi poet, was jailed by Indira Gandhi's government for writing this anti-Emergency song. It was sung last year by the Assamese singer Zubeen for the movie "Strings" by Sanjay Jha. Zubeen is on the ULFA hitlist for singing Hindi songs. Chances are, you'll go mad listening to this. best shivam ------------------------------------------------------- -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Om...!.mp3 Type: audio/mpeg Size: 6129980 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071010/4f978441/attachment.mp3 From vineetdu at gmail.com Thu Oct 11 07:47:44 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 11 Oct 2007 07:47:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWH?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgiDgpKTgpKwg4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= Message-ID: <829019b0710101917v23b38aaei9c9c87bee95b1a7a@mail.gmail.com> हममें से कई पत्रकार साथी ऐसे हैं जिन्होंने लाख-दो लाख मोटी फीस देकर, प्रशिक्षु पत्रकार का बिल्ला लटकाकर, दिनभर ब्लैक कॉफी पीकर और डिसकशन के नाम लड़कियों के साथ लिव इन रिलेशनशिप और मदरहुड फीलिंग वीफोर मैरेज जैसे स्टार्टर मुद्दों पर बात करके मीडिया कोर्स नहीं किया है। हम तो दुविधा की जिंदगी जीनेवाले जीव रहे। शुरु से दिमाग में लाल बत्ती रही या फिर जेआरएफ निकालकर सरकारी दामाद बनने की ललक । लेकिन दिमाग में ये भी डर बना रहा कि भइया इन दोनों में से कुछ भी नसीब नहीं हुआ तो क्या करोगे। लेडिस और ब्लैक कॉफी तो दिमाग में आते ही नहीं थे।...इस लिहाज से मीडिया लाइन हमारे लिए मुगलसराय जंक्शन की तरह रहा है जहां से सभी जगह के लिए ट्रेनें और रास्ते खुलते हैं।....सो सेफ्टी के लिहाज से, फ्रसटेशन से बचने के लिए और कुछ दिन और बाबूजी को टालने के नाते हम जैसे कई लोगों ने मीडिया में हाथ आजमाया होगा और आज कई सफल पत्रकार भी बन गए होंगे या हैं।.....चूंकि अब मीडिया में भी पहलेवाली बात तो रह नहीं गई है कि तिवारीजी, मिश्राजी या झाजी को फोन लगाया और देखते-देखते हो गए पत्रकार। अब तो मीडिया भी मैंनेजमेंट की तरह है, जहां कुछ भी बेचने के पहले बेचने का कोर्स करना पड़ता है और कोई आपके कहने पर क्यों खरीदे इसे ढ़ग से समझना पड़ता है भले ही कोर्स करने के बाद आप एक कंघी भी बेचने लायक न बन पाएं।... तिवारीजी और झाजी का सोर्स तो कोर्स के बाद ही चलेगी।....तो यही सब सोचकर हम दुविधाजीवी, सुविधा के लिए बेचैन मीडिया में आजमाने चल दिए।.....तो भाई जिसमें कुछ कर गुजरने की ललक हो और आगे बढ़ने की तमन्ना उसके उपर मुसीबतों का पहाड़ आ जाए कुछ खास फर्क नहीं पड़ता है फिर नौकरी के लिए और पत्रकार होने के लिए कोर्स औरनॉलेज क्या चीज है...सो हम भी लग गए कोर्स करने की फिराक में ।पता चला दिल्ली में विद्या भवन नाम का कोई इंस्टीच्यूट है जो कि खास हम जैसे दुविधाजीवी लोगों को ध्यान में रखकर डिजाइन किया गया है। इस इंस्टीच्यूट की खास बात है कि आप अगर थोड़ा भी समझदार किस्म के इंसान हैं तो आपका यहां एडमीशन होना तय है। मैं तो कहना चाहता था कि यहां खर-पतवार किसी का भी हो सकता है। लेकिन इस मामले में विद्या भवन समझदार है। यहां इंट्रेंस अंग्रेजी में है।इसलिए समझदारी का मतलब अंग्रेजी के 26सों वर्णों की जानकारी और पहचान से है। हम जैसे हिन्दीवालों के लिए तो ये इंस्टीच्यूट गंगा का काम करता है। हिन्दीवालों के बीच शेखी बघारने में बनता है कि अंग्रेजी में मीडिया का इंट्रेंस पास किया हैं। जिंदगी भर का दाग कि अंग्रेजी में लद्धड होगा तभी हिन्दी पढ़ रहा छुड़ा देता है। अपने तरफ भी मान बढ़ेगा कि झारखंड, बिहार के देहाती भुच्च इलाके से मैट्रिक पास करने के बावजूद भी दिल्ली में इंग्लिश मीडियम में परीक्षा पास किया है। अगर मेरी मां की तरह ही आपकी मां भी है तो एक बड़ा धार्मिक विधान करा देगी। बाबूजी को अपने नक्कारे बेटे पर एक बार फिर गर्व होगा( फिर इसलिए कि मैट्रिक में भी एक बार हुआ था, और नक्कारा इसलिए कि टॉप करने के बावजूद इंजीनियरिंग, मेडिकल में न जाकर आर्टस पढ़कर पैसे बर्बाद किए) और वो भी इंटरमीडिएट पढानेवाले प्रोफेसर को बताएंगे कि मेरा लड़का टीवी पर आएगा।....इतने पर तो कोर्स करने के लिए 15-16 हजार रुपये मिल ही जाएंगे।....थोड़ा टाल-विटाल हो तो अपनी अकड़ बढ़ा लो, बस एक साल दम मारिए, साल होते-होते सीएनएन, एनडी24*7 का चेक दूंगा..बाबूजी जबतक किसका चेक देगा,नोट करने में लगे होंगे तब तक अपनी भावुक मां को भिड़ा दो...ये कहने के लिए कि कितना पुन परताप से तो लड़का इंग्लिश की परीक्षा में पास किया है और फिर ठीक ही होगा न रिपोर्टर बनेगा तो इ गैसवाला बहुत फजहत करता है...डरेगा..सुनकर कि। फिर भी परेशानी हो तो ब्याही दीदी से मांग लो। इतना होने पर घरेलू लोन तो मिल ही जाएगा यार।.....मुझे पता है आप कर लोगे।चलो भाई एडमीशन तो हो गया। डीयू से विद्या भवन तक मेट्रो से साथ जाने के लिए एक लेडिस भी मिल गई। है तो लड़की लेकिन बहुत मैच्योर है इसलिए लेडिस कहना ज्यादा सही रहेगा।....अब बात पढ़ाई-लिखाई और कोर्स की। आपको यहां मीडिया पढ़कर मीडिया हाउस में काम करने के लिए तैयार नहीं किया जाएगा...बल्कि मीडिया एथिक्स पर लेक्चर पेलने और आज की मीडिया को गरियाने के लिए तैयार किया जाएगा। और सबसे मजेदार बात तो ये कि आप यहां कोर्स चाहे जो भी करो, एक पेपर सबके लिए कॉमन है- कल्चरर हेरिटेज ऑफ इंडिया। भवन का मानना है कि हमारी कोशिश है कि यहां के बच्चे जब यहां से निकले तो न सिर्फ एक पत्रकार बनकर बल्कि देश का एक बेहतर नागरिक बनकर भी। और इसके लिए जरुरी है कि उसे अपने देश की संस्कृति और पहचान को लेकर अच्छी समझ हो। बात भी सही है। लेकिन भवन के लिए पत्रकार होना और अच्छी समझ का होना दो अलग-अलग चीजें हैं। अपने देश के बारे में इतिहास, भूगोल, आर्थिक नीतियों, रानीतिक फैसलों, संविधान और समीतियों-संगठनों के बारे में जो कुछ भी हम जानते हैं,,,हो सकता है इससे हमारी जानकारी बढ़ती हो लेकिन इससे हमारे भीतर भारतीय होने का गर्व भी पैदा होता है इसकी गारंटी नहीं है।.....इसलिए भवन भारत की संस्कृति का पुनर्पाठ कराता है जिसमें वेदों, पुराणों की संख्या और उसके महत्व से लेकर राष्ट्र यानि कि हिन्दू राष्ट्र को आगे ले जाने में किस-किस वीर-वांकुरों का योगदान रहा इसे विस्तार से बताता है। विद्या भवन की ये कोशिश होती है कि इस पेपर के माध्यम से मीडिया पढ़ रहे लोगों को इतनी शिक्षा जरुर दे दी जाए जिससे कि जब वे पत्रकार के रुप में आगे काम करें तो एटमी करार पर, गुजरात पर, राष्ट्रवाद पर और विदर्भ के किसानों पर उसी तरीके से सोच सकें, लिख सकें और फैसले ले सकें जिस तरह से नागपुर कार्यालय या फिर भोपाल की बैठक में शामिल लोग लेते हैं।मुझे अपनी मां का हो-हल्ला याद आता है जब मेरे इसाई संस्था( संत जेवियर कॉलेज,रांची) में नाम लिखाने पर मचाया था कि अब लोग इसे पकड़कर इसाई बना देंगे और पता नहीं क्या-क्या खिलाएंगे और मेरा बेटा लंगोट का थोड़ा भी कच्चा निकला तो लेडिस लोग इसको फांस लेगी। तब पढ़ाई की गुणवत्ता के अलावे मां की मान्यताओं को ध्वस्त करने के लिए घर से भागा था।....ये सब सोचकर पूरे साल तक मन कसैला होता रहा खासकर उस पेपर के पीरियड में कि मां टाइप की जिद से पीछा छूटेगा भी कि नहीं। क्योंकि देखिए न आपके बाकी के पेपरों में क्या होगा इसका तो कोई माई-बाप नहीं है लेकिन इस पेपर के लिए बाक़ायदा भवन की ओर से एक किताब दी जाती है जो कि परीक्षा के लिहाज से बहुत ही उपयोगी है। अब इस पेपर और किताब को पढ़कर वहां कोर्स कर रहा बंदा विद्या भवन की पैटर्न पर तैयार हो पाता है कि नहीं इसे जानना बहुत ही जरुरी और रोचक होगा। ये अलग से एक पोस्ट की मांग करता है। इसलिए ये सफर आगे भी जारी रहेगा।.....कल फिर बात होगी और कैसे बोल पड़े वहां के एक मास्टर साहब इस अंदाज में कि ....ये तो झागवाला है ////// -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071011/f8536808/attachment.html From sadan at sarai.net Thu Oct 11 10:54:19 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Thu, 11 Oct 2007 10:54:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWH?= =?utf-8?b?ICAgIOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgiDgpKTgpKwg4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSVICAg4KS+4KSw?= In-Reply-To: <829019b0710101917v23b38aaei9c9c87bee95b1a7a@mail.gmail.com> References: <829019b0710101917v23b38aaei9c9c87bee95b1a7a@mail.gmail.com> Message-ID: <26203c12ef36ad3dcce2d43a4200733c@sarai.net> bhai padh kar majaa aa raha hai. jaari rakhiye. sadan. On 7:47 am 10/11/07 "vineet kumar" wrote: > > हममें से कई पत्रकार साथी > ऐसे हैं जिन्होंने लाख-दो लाख मोटी फीस देकर, प्रशिक्षʦgt; Ł पत्रकार का बिल्ला लटकाकर, ʦgt; Ħिनभर ब्लैक कॉफी पीकर और डिऊ> ؠĕशन के नाम लड़कियों के साथ ऊ> ҠĿव इन रिलेशनशिप और मदरहुड फ > ीलिंग वीफोर मैरेज जैसे स्टऊ> > ޠİ्टर मुद्दों पर बात करके मी > डिया कोर्स नहीं किया है। हम > तो दुविधा की जिंदगी जीनेवाऊ> > ҠŇ जीव रहे। शुरु से दिमाग मेऊ> >  लाल बत्ती रही या फिर जेआरएऊ> > ˠनिकालकर सरकारी दामाद बनने > की ललक । लेकिन दिमाग में ये ऊ> > ͠ŀ डर बना रहा कि भइया इन > दोनोʦgt; Ă में से कुछ भी नसीब > नहीं हुआ > तो क्या करोगे। लेडिस और ब्ल > ैक कॉफी तो दिमाग में आते ही ऊ> > ȠĹीं थे।...इस लिहाज से मीडिया > लाइन हमारे लिए मुगलसराय जंऊ> > ՠōशन की तरह रहा है जहां से > सभʦgt; ŀ जगह के लिए ट्रेनें और > रास्ʦgt; Ĥे खुलते हैं।....सो > सेफ्टी के ʦgt; IJिहाज से, फ्रसटेशन से बचने कʦgt; Ň लिए और कुछ दिन और बाबूजी को > टालने के नाते हम जैसे कई लोऊ> > נŋं ने मीडिया में हाथ आजमाया > होगा और आज कई सफल पत्रकार भॊ> > बन गए होंगे या हैं।.....चूंकि > अब मीडिया में भी पहलेवाली > बʦgt; ľत तो रह नहीं गई है कि > तिवारी > जी, मिश्राजी या झाजी को फोन ऊ> > Ҡėाया और देखते-देखते हो गए पऊ> > Ġōरकार। अब तो मीडिया भी मैंन > ेजमेंट की तरह है, जहां कुछ भॊ> > बेचने के पहले बेचने का कोरॊ> > ͠ĸ करना पड़ता है और कोई आपके > ʦgt; ĕहने पर क्यों खरीदे इसे > ढ़ग ʦgt; ĸे समझना पड़ता है भले > ही कोरʦgt; ōस करने के बाद आप एक > कंघी भी ऊ> ̠Ňचने लायक न बन > पाएं।... तिवार > ीजी और झाजी का सोर्स तो कोर् > स के बाद ही चलेगी।....तो यही सऊ> > ̠सोचकर हम दुविधाजीवी, सुविध > ा के लिए बेचैन मीडिया में आज > माने चल दिए।.....तो भाई जिसमें > कुछ कर गुजरने की ललक हो और आʦgt; > ėे बढ़ने की तमन्ना उसके उपर > ʦgt; Įुसीबतों का पहाड़ आ जाए > कुछ ʦgt; Ėास फर्क नहीं पड़ता है > फिर नʦgt; Ōकरी के लिए और पत्रकार होने ʦgt; ĕे लिए कोर्स औरनॉलेज क्या चॊ> Ĝ है...सो हम भी लग गए कोर्स करʦgt; Ĩे की फिराक में ।पता चला दिलʦgt; ōली में विद्या भवन नाम का कोʦgt; Ĉ इंस्टीच्यूट है जो कि खास हʦgt; Į जैसे दुविधाजीवी लोगों को ऊ> Ǡōयान में रखकर डिजाइन किया ग > या है। इस इंस्टीच्यूट की > खाʦgt; ĸ बात है कि आप अगर थोड़ा > भी सऊ> Πĝदार किस्म के इंसान > हैं तो ऊ> ƠĪका यहां एडमीशन > होना तय है। > मैं तो कहना चाहता था कि यहाऊ> >  खर-पतवार किसी का भी हो सकता > है। लेकिन इस मामले में > विद्ʦgt; įा भवन समझदार है। यहां > इंट्ऊ> РŇंस अंग्रेजी में > है।इसलिए ʦgt; ĸमझदारी का मतलब > अंग्रेजी के > 26सों वर्णों की जानकारी और पʦgt; > Ĺचान से है। हम जैसे हिन्दीवऊ> > ޠIJों के लिए तो ये इंस्टीच्यू > ट गंगा का काम करता है। हिन्द > ीवालों के बीच शेखी बघारने > मʦgt; Ňं बनता है कि अंग्रेजी > में मʦgt; ŀडिया का इंट्रेंस पास > किया ऊ> ٠ňं। जिंदगी भर का दाग > कि अंगॊ> ͠İेजी में लद्धड होगा > तभी हिन > ्दी पढ़ रहा छुड़ा देता है। अ > पने तरफ भी मान बढ़ेगा कि झार > खंड, बिहार के देहाती भुच्च इ > लाके से मैट्रिक पास करने के > बावजूद भी दिल्ली में इंग्लऊ> > ߠĶ मीडियम में परीक्षा पास कि > या है। अगर मेरी मां की तरह हॊ> > आपकी मां भी है तो एक बड़ा धा > र्मिक विधान करा देगी। बाबूऊ> > ܠŀ को अपने नक्कारे बेटे पर एऊ> > ՠबार फिर गर्व होगा( फिर > इसलिʦgt; ď कि मैट्रिक में भी एक > बार हु > आ था, और नक्कारा इसलिए कि टॉऊ> > ʠकरने के बावजूद इंजीनियरिंʦgt; ė, मेडिकल में न जाकर आर्टस पढ > ़कर पैसे बर्बाद किए) और वो भॊ> > इंटरमीडिएट पढानेवाले प्रॊ> > ˠīेसर को बताएंगे कि मेरा लड़ > का टीवी पर आएगा।....इतने पर तो > कोर्स करने के लिए 15-16 हजार रु > पये मिल ही जाएंगे।....थोड़ा > टʦgt; ľल-विटाल हो तो अपनी अकड़ > बढ़ʦgt; ľ लो, बस एक साल दम मारिए, > साल ह > ोते-होते सीएनएन, एनडी24*7 का चॊ> > Ǡĕ दूंगा..बाबूजी जबतक किसका ऊ> > ڠŇक देगा,नोट करने में लगे होऊ> >  ėे तब तक अपनी भावुक मां को > भʦgt; Ŀड़ा दो...ये कहने के लिए कि > किʦgt; Ĥना पुन परताप से तो > लड़का इंʦgt; ė्लिश की परीक्षा > में पास किऊ> Ϡľ है और फिर ठीक > ही होगा न रिप > ोर्टर बनेगा तो इ गैसवाला > बहʦgt; Łत फजहत करता है...डरेगा..सुनकऊ> Рकि। फिर भी परेशानी हो तो ब्ʦgt; įाही दीदी से मांग लो। इतना हʦgt; ŋने पर घरेलू लोन तो मिल ही जा > एगा यार।.....मुझे पता है आप कर > ʦgt; IJोगे।चलो भाई एडमीशन तो हो > गऊ> Ϡľ। डीयू से विद्या भवन तक > मेऊ> ߠōरो से साथ जाने के लिए एक > लेʦgt; ġिस भी मिल गई। है तो > लड़की ले > किन बहुत मैच्योर है इसलिए > लʦgt; Ňडिस कहना ज्यादा सही > रहेगा। > ....अब बात पढ़ाई-लिखाई और कोर् > स की। आपको यहां मीडिया > पढ़कʦgt; İ मीडिया हाउस में काम > करने कʦgt; Ň लिए तैयार नहीं > किया जाएगा.. > .बल्कि मीडिया एथिक्स पर > लेकʦgt; ōचर पेलने और आज की > मीडिया को > गरियाने के लिए तैयार किया > जʦgt; ľएगा। और सबसे मजेदार बात > तो ʦgt; įे कि आप यहां कोर्स चाहे > जो भ > ी करो, एक पेपर सबके लिए कॉमन > ʦgt; Ĺै- कल्चरर हेरिटेज ऑफ > इंडियऊ> ޠŤ भवन का मानना है कि > हमारी कʦgt; ŋशिश है कि यहां के > बच्चे जब य > हां से निकले तो न सिर्फ एक पऊ> > Ġōरकार बनकर बल्कि देश का एक ऊ> > ̠Ňहतर नागरिक बनकर भी। और इसक > े लिए जरुरी है कि उसे अपने दॊ> > ǠĶ की संस्कृति और पहचान को लॊ> > Ǡĕर अच्छी समझ हो। बात भी सही > ʦgt; Ĺै। लेकिन भवन के लिए > पत्रकाऊ> Рहोना और अच्छी समझ > का होना दʦgt; ŋ अलग-अलग चीजें > हैं। अपने देʦgt; Ķ के बारे में > इतिहास, भूगोल, ऊ> Ơİ्थिक > नीतियों, रानीतिक फैसʦgt; IJों, > संविधान और समीतियों-संऊ> > נĠनों के बारे में जो कुछ भी > हʦgt; Į जानते हैं,,,हो सकता है > इससे ʦgt; Ĺमारी जानकारी बढ़ती > हो लेकि > न इससे हमारे भीतर भारतीय > होʦgt; Ĩे का गर्व भी पैदा होता > है इस > की गारंटी नहीं है।.....इसलिए भ > वन भारत की संस्कृति का > पुनरʦgt; ōपाठ कराता है जिसमें > वेदों, ʦgt; Īुराणों की संख्या > और उसके मऊ> ٠Ĥ्व से लेकर > राष्ट्र यानि कि > हिन्दू राष्ट्र को आगे ले जा > ने में किस-किस वीर-वांकुरों > का योगदान रहा इसे विस्तार > सʦgt; Ň बताता है। विद्या भवन की > ये > कोशिश होती है कि इस पेपर के ऊ> > Πľध्यम से मीडिया पढ़ रहे लोग > ों को इतनी शिक्षा जरुर दे दी > जाए जिससे कि जब वे पत्रकार ऊ> > ՠŇ रुप में आगे काम करें तो > एटʦgt; Įी करार पर, गुजरात पर, > राष्ट् > रवाद पर और विदर्भ के किसानोʦgt; Ă पर उसी तरीके से सोच सकें, लऊ> ߠĖ सकें और फैसले ले सकें जिस ʦgt; Ĥरह से नागपुर कार्यालय या फऊ> ߠİ भोपाल की बैठक में शामिल लॊ> ˠė लेते हैं।मुझे अपनी मां का > हो-हल्ला याद आता है जब मेरे ʦgt; > ćसाई संस्था( संत जेवियर कॉलॊ> > ǠĜ,रांची) में नाम लिखाने पर > मʦgt; Ěाया था कि अब लोग इसे > पकड़कर > इसाई बना देंगे और पता नहीं क > ्या-क्या खिलाएंगे और मेरा > बʦgt; Ňटा लंगोट का थोड़ा भी > कच्चा ʦgt; Ĩिकला तो लेडिस लोग > इसको फांऊ> ؠलेगी। तब पढ़ाई की > गुणवत्ता > के अलावे मां की मान्यताओं क > ो ध्वस्त करने के लिए घर से भऊ> > ޠėा था।....ये सब सोचकर पूरे साऊ> > Ҡतक मन कसैला होता रहा खासकर > ʦgt; ĉस पेपर के पीरियड में कि > मां > टाइप की जिद से पीछा छूटेगा भ > ी कि नहीं। क्योंकि देखिए न आ > पके बाकी के पेपरों में क्या > होगा इसका तो कोई माई-बाप नही > ं है लेकिन इस पेपर के लिए बाऊ> > ՠļायदा भवन की ओर से एक किताब > ʦgt; Ħी जाती है जो कि परीक्षा के > ल > िहाज से बहुत ही उपयोगी है। अ > ब इस पेपर और किताब को पढ़कर ऊ> > ՠĹां कोर्स कर रहा बंदा विद्य > ा भवन की पैटर्न पर तैयार हो ऊ> > ʠľता है कि नहीं इसे जानना बहॊ> > `Ĥ ही जरुरी और रोचक होगा। ये ʦgt; > ąलग से एक पोस्ट की मांग करता > है। इसलिए ये सफर आगे भी जारी > रहेगा।.....कल फिर बात होगी और ʦgt; > ĕैसे बोल पड़े वहां के एक > मासʦgt; ōटर साहब इस अंदाज में > कि ....ये > तो झागवाला है ////// From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 16:00:29 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 16:00:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWH?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgiDgpKTgpKwg4KSq4KSk4KWN4KSw4KSV4KS+?= =?utf-8?b?4KSw?= In-Reply-To: <829019b0710101917v23b38aaei9c9c87bee95b1a7a@mail.gmail.com> References: <829019b0710101917v23b38aaei9c9c87bee95b1a7a@mail.gmail.com> Message-ID: <200710111600.29157.ravikant@sarai.net> बहुत ख़ूब विनीत, बड़ी दिलचस्प जगहों पर, बड़े मस्त अंदाज़ में लिए जा रहे हो...सदन की तरह मैं भी कहूँगा: ये दिल माँगे मोर! रविकान्त गुरुवार 11 अक्टूबर 2007 07:47 को, vineet kumar ने लिखा था: > अब इस पेपर और किताब को पढ़कर वहां कोर्स कर रहा बंदा विद्या भवन की पैटर्न पर तैयार हो पाता है कि नहीं इसे जानना बहुत ही जरुरी और रोचक होगा। ये अलग से एक पोस्ट की मांग करता है। इसलिए ये सफर आगे भी जारी रहेगा।.....कल फिर बात होगी और कैसे बोल पड़े वहां के एक मास्टर साहब इस अंदाज में कि ....ये तो झागवाला है ////// From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 16:25:23 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 16:25:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIDog4KS24KS54KSwIOCkpuCksCDgpLbgpLngpLAv4KSq4KSC4KSV?= =?utf-8?b?4KScIOCksOCkvuCklw==?= Message-ID: <200710111625.23351.ravikant@sarai.net> तद्भव के ताज़ा अंक से धारावाहिक उठाईगिरी. और भी बहुत कुछ है यहाँ, जैसे कि काशीनाथ सिंह का नया उपन्यास, जो मैंने अभी नहीं पढ़ा है. http://www.tadbhav.com/pankajrag_kabitai.htm#pankaj पंकज राग दिल्ली विश्वविद्यालय से पढ़कर, यहाँ इतिहास पढ़ाकर फिर भारतीय प्रशासनिक सेवा में गए, आजकल मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक सेवा करते हुए भी काफ़ी-कुछ, और बहुत अच्छा, पढ़-लिख रहें हैं. रविकान्त दिल्ली : शहर दर शहर/पंकज राग 1857 पर पंकज राग का काम इधर चर्चा में रहा। उनकी पुस्तक 'धुनों की यात्रा' एक यादगार कृति के रूप में दर्ज की जा रही है। जाहिर है कि ये काम भूलतः नहीं हैं पर पंकज मूलतः कवि हैं। इतिहास के अध्येता पंकज की इस लम्बी कविता में इतिहास और कविता की जुगलबंदी को देखना दिलचस्प होगा।(सं.) ----- खुश हो लें कि आप दिल्ली में हैं खुश हो लें कि आप मर्कज में हैं बिना खतों के लिफाफों में आपके पते बहुत साफ नहीं फिर भी आप मजमून बना लेंगे क्योंकि आप दिल्ली में हैं। आंखों की पुतलियों पर ठहरती नहीं है दिल्ली हाथ के आईने में रुकते नहीं हैं लोग फिर भी , दिल्ली जब जब बुलाती है लोग दौड़े चले आते हैं। सवाल कई उठते हैं क्या दिल्ली एक आवाज है क्या दिल्ली की गलियां पुकारती हैं ? क्या दिल्ली की रातों में आत्माएं भटकती हैं ? दिल्ली , जो हमेशा से शहर कहलाती रही वह कहीं टिकती क्यों नहीं ? यह हमेशा की बेचैनी कैसी ? बार बार इलाके बदलने की यह कैसी उत्कंठा ? बदलते मौसमों का यह शहर क्या पिघलते मौसमों का भी शहर रहा है ? जवाब सीधे नहीं हैं , सीधे जवाब गलत हो जाएंगे वैसे ही जैसे दिल्ली भी कई बार गलत हो चुकी है उसका इतिहास गलत हो चुका है उसके ख्वाब फिर गलतियां कर रहे हैं यह भूल कर कि फतह और शिकस्त के जाहिराना सिरों के बीच भी कितनी ही बूंदों ने लगातार टपक कर जगह तलाशी है इन जगहों का कोई तूर्यनाद नहीं हुआ पर वे स्वप्नचित्रा भी नहीं सैकड़ों वर्षों से उन जगहों पर वक्त चला है , दिन ढले हैं , तकलीफ में भी नींद मौजूं रही है और सुबहें कभी कभी सादिक की तरह धुली धुली भी लगी हैं। उन्हीं जगहों पर इबादत हुई है , खुदा को कोसा भी गया है होड़ में लोग दौड़े हैं , हताशा में मन बैठा भी है फि भी रहा है , कोफ्त भी हुई है शगल भी रहे हैं , बीमारी भी फरामोशी भी हुई है , वफादारी भी। बदलते इलाकों में भी यह सब बदस्तूर जारी रहा है जैसे जन्म और मृत्यु और उनके बीच कायदों से बंधती , उसे तोड़ती कभी झूलती , कभी झुलाती पूरी की पूरी जिन्दगी। दिल्ली को खोजना है तो ऐसी जगहों पर भी जाना होगा शहर सिर्फ महामहिम नहीं , बहुत से मामूली लोग भी बसाते हैं दिल्ली , शहर दर शहर, सिर्फ निगहबानों की नहीं इंसानों की भी कहानी है। 1. सूरजकुंड को बने हजार बरस बीत गये जब वह बना उस वक्त भी बीत चुका था बहुत कुछ और दूर हो गये थे मौर्य काल के पहले से चली आ रही बसाहटों के अवशेष। यह अरावली के उत्तर की हवा थी जिसे तोमर वंश ने अपने गुणगान के लिये रोक रखा था यह पगड़ियों का जमाना था जिनके पास पगड़ियां थीं उनके पास रास्ते थे रास्तों पर तिलक , चंदन, पूजा और मंदिर की शोभा थी लगान और लगाम से कसी हुई भीड़ थी जो सूरजकुंड के पास बने सूर्य मंदिर में बहुत कुछ मांगा करती थी वही सूर्य मंदिर जो अब नहीं है धूल और मिट्टी , पत्थर और द्रव्य कुछ बहे , कुछ रहे जो उडे+ उनके पास टोलियां थीं जो पिसे उनके पास घोंसले थे लाल कोट का पत्थर लाल था पर चौहानों के आगे पीला पड़ गया लड़ना व्यावहारिक था , इसलिए धर्म भी था लाल और पीले टीके चलते रहे पृथ्वीराज के किला राय पिथौरा में भी जीतना शुभ था और शुभ ईश्वर था। समुद्र नहीं था , जानने की ख्वाहिश भी नहीं थी ख्वाहिशें पगड़ियों के रंगों में सिमटी थीं और उनसे बाहर जो कुछ भी था वह तुच्छ था , वह कर्मों का फल था। वैसे बच्चे उस वक्त भी कहानियां सुन कर सोते होंगे कुछ बेचारे यूं भी सो जाया करते थे उनका बचपन सच था कहानी नहीं सुनने का शौक बड़ों को अधिक था खास तौर पर अपनी कहानियां जिनका झूठ भी सत्य था और सत्य हमेशा वीर था। ऐसी कहानियां सुनाने वाले हर सदी में रहते और पनपते हैं अरावली की हवा वाली उस दिल्ली में भी फूले फले चारण और भाट - पृथ्वीराज की तलवार और ढाल संयोगिता का रूप बेमिसाल मुहम्मद गोरी का आतंक या चंदबरदाई की प्रशस्ति - इन सब का आप जो चाहें मतलब निकाल सकते हैं लेकिन आपके सभी मतलब अधूरे ही रहेंगे क्योंकि गोरी के गुलाम सुल्तान बने पर उनके भी गुलाम थे कवातुल इस्लाम मस्जिद बनी पर उसके खम्भे मंदिरों के थे कुतुब मीनार ने सर उठाया पर चंद्रगुप्त का लौह स्तम्भ भी खड़ा रहा। वे तुर्की के मुसलमान ही थे चाहे कुतबुद्दीन ऐबक हो , या अल्तमश या फिर गैर तुर्की गुलाम से प्यार करने वाली और तुर्की चहलगानी से लड़ने वाली रजिया हो पर दिल्ली न हिन्दू थी न मुसलमान वह उसी राजसी खेल के नये पैंतरे देखने वाली दिल्ली थी जो इजलास में हंसी मजाक की पाबंदगी पर हैरान भी होती थी और फिर खुदा की परछाईं बने बल्बन पर पीछे पीछे हंस भी लेती थी जो नस्ली अभिजात्य के बड़बोलेपन से खौफजदा भी थी और तुर्की अमीरजादों को सजदा और पैबोस में झुका देख अपना डर थोड़ा कम भी कर लेती थी जो मेवाती लुटेरों के डर से मुक्ति पाकर राहत की सांस भी भरती थी और हलाकू के पोते के साथ आये हजारों मंगोलों के शहर में बसने से आक्रांत भी हो जाती थी। पगड़ियां बदलने लगी थीं बांधने के तरीके भी आदमी किसी और आदमी को देख रहा था आदमी किसी और आदमी से लड़ रहा था और आदमी किसी और आदमी से मिल भी रहा था आदमी और कुछ और आदमी मिल कर बना रहे थे मिले जुले आदमी यह भी एक जिन्दगी थी जो तमाम राजसी खेलों के समानांतर बड़ी तेजी से चल रही थी और दिल्ली जी रही थी। From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 16:29:49 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 16:29:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSwIOCktuCkueCksC/gpKrgpILgpJXgpJwg4KSw4KS+4KSXIC0gMg==?= Message-ID: <200710111629.49552.ravikant@sarai.net> २. सीरी फोर्ट ऑडिटोरियम में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह चल रहा था और वहीं बाहर की कार पार्किंग में एक स्विस महिला के साथ बलात्कार भीड़ अंदर थी , बाहर सन्नाटा था और वैसे भी दिल्ली की भीड़ ऐसे मौकों पर अलग ही पायी जाती है वह जल्दी टोकती नहीं वह चलती है , चलने देती है उसे अचरज भी नहीं होता जैसे उस दिन भी नहीं जब अलाउद्दीन खिलजी ने कुतुब छोड़ अपनी राजधानी सीरी को बनाया। नयी जगह थी , नये अमीर थे तुर्की अमीरजादों की कमर तोड़ कर और बुलंद था शाही फरमान विरोध मना था , षडयंत्र पर नजर थी हौजखास से जमातखाना मस्जिद तक फैला था शहर इमारतों के गुम्बद अब और चौडे+ थे अमीर उमरा के नस्ली आधार की तरह लेकिन सीरी में दरख्तों के बीच जगह कम थी अमीरी का फैलना शक में डालता था शायद इसलिये दिल्ली में दावतें खुशनसीब नहीं थीं। दिल्ली को अभी बहुत कुछ देखना था अभी तो साम्राज्यवाद का पहला डंका था जो मलिक कफूर के साथ दक्कन तक बजा अब कुल का नहीं ताकत और लूट का अभिजात्य था जिसके आगे जौहर में जल गये कुलीनता के ढोये तकाजे पता नहीं अलाउद्दीन ने किसी पद्मिनी को देखा भी या नहीं पर रणथम्भौर और चित्तौड़ ने देख लिया इस नये तेवर की दिल्ली को जिसकी इमारतों में मंगोल कारीगरों ने पहली बार पद्म की कलियां बनायी थीं और बनाये थे सच्चे मेहराब बिना यह समझे कि उसके ऊपर बैठा था हुकूमत का एक ऐसा सच जो लूटता था पर बांटता नहीं जो हिस्सा मांगने पर मंगोलों का खून पानी की तरह बहा सकता था और उस पानी को अपने हौज ए खास में इकट्ठा कर दिल्ली वालों को पिला सकता था। साम्राज्यवाद चाहे छुपा हो या बेबाक मध्यकालीन हो या नवीन उसकी जड़ों में कहीं न कहीं पोशीदा रहता है बाजार। मानों दिल्ली से निकली सेनाओं के हुजूम में बैठे थे तीन जादूगर - अलाउद्दीन के बनाये तीन बाजार लगान को बढ़ा कर गल्ले की शक्ल दी गयी इस शक्ल को मुकद्दमों से बदल कर दोआब के नये आमिलों की कठोर भंगिमा दी गयी और इस शक्ल को सीधी वसूली से पाला पोसा एक ऐसा वयस्क शरीर दिया गया जिसके आगे बच्चों की तरह मचलती कीमतों ने दम तोड़ दिया। यह सामंतवादी साम्राज्यवाद की हुंकार थी जहां घोड़े और गुलामों के दाम भी बंधे थे और विदेशी कपड़ों का सलीका भी नियंत्रित था जहां सैनिक और अमीर अभी वैसी पहाड़ी नदियां थे जो घाट तोड़ नहीं पातीं और जहां बरनी अमलदारी के अहाते में वजू के लिये हौज की तलाश में गंगा जमुना को देख नहीं पाता था लेकिन गंगा भी बह रही थी और जमुना भी दोनों के पानी से अलग अलग भी स्वर निकलते थे और साथ साथ भी अमीर खुसरो की हिंदवी की तरह जो कभी रबाब के हल्के तरंगों पर ऐमन और सनम जैसी फारसी रागदारियों के साथ महफिलों की शमादानों को जलाती थी तो कभी बिल्कुल अपनी सी बन कर निजामुद्दीन औलिया और बख्तियार काकी के इर्द गिर्द फैले तमाम जातियों और मजहबों के हुजूम को प्रेम का मधवा पिलाती थी। पनघट की डगर अभी भी कठिन थी और कई पहेलियां समझ में भी नहीं आती थीं फिर भी मटकियां जमुना से भरी जा सकती थीं रात में थक कर लौटने के लिये घर सलामत थे जिनके अंदर जिहाले मिस्कीं मकुन तगाफुल की दिल्ली नैना जुड़ाती थी और बतियां बनाती थी। From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 16:39:07 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 16:39:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSwIOCktuCkueCksC/gpKrgpILgpJXgpJwg4KSw4KS+4KSXIC0gMw==?= Message-ID: <200710111639.07718.ravikant@sarai.net> 3. दिल्ली की धूप हमेशा से तीखी जैसे हर इच्छा , आकांक्षा, विश्वास या सनक के पीछे एक जीवंतता हो। पहले दिल्ली की गर्मी में चिपचिपाहट नहीं थी जो भी था वह ठोस ठोस था जैसे तुगलकाबाद को छोड़ बनाया गया मुहम्मद बिन तुगलक का जहांपनाह धूसर पत्थरों की किलानुमा इमारतों का सिलसिला वही खुरदुरापन इतना ज्यादा कि ढलान वाली दीवारों के बावजूद सुल्तानी दम्भ फिसले नहीं। इसका कोई तुक नहीं कि मुहम्मद तुगलक के जहांपनाह की दीवारों के दक्षिण में आज आई.आई.टी. की इमारत है अतीत की नीरसता और भविष्य की यांत्रिकी के बीच एक सीधी रेखा खींचने पर लोग ऐतराज करेंगे यंत्राचलित विश्व आगे भागता है पीछे नहीं और गियासुद्दीन तुगलक के मकबरे को भले ही दारुल अमन का नाम दे दिया गया हो पर उससे उसके मौत की दुर्घटना शांत नहीं हो पायी। मध्यकालीन दिल्ली थी अफवाहों की गलियां थीं आज की तरह ही बढ़ा चढ़ा कर सच बताने की दलीलें होड़ कम पर विश्वास अधिक तब सतपुल के नीचे पानी ठहरा नहीं था और निजामुद्दीन औलिया के 'अभी दिल्ली दूर है' के कथन की चर्चा आक्रांत भी करती थी और रोमांचित भी सूफियाना कव्वालियों की मदमस्ती की तरह वह एक अलग दुनिया थी वह भी दिल्ली थी वहां एक दूसरा जहांपनाह था उसके मुरीद थे , उसके गरीब थे जो खुदा को रोज छूते थे , उसमें मिल जाते थे मिलने की खुशी में अमीर हो लेते थे पर उसके बाद फिर से गरीब थे अंधेरा था , फिर भी रोशन थी चिराग दिल्ली। मालवीय नगर से कालकाजी जाने वाली सड़क पर शाम के धुंधलके में चलने भर से उस जमाने की दिल्ली की पर्तें खुलती जाएंगी , ऐसा भी नहीं है। पर्तें ही सीधी कहां होती हैं और धूसर इमारतों का धुंधलके में मिल जाने का खतरा तो हमेशा से ही रहा है। मुहम्मद तुगलक सूफी नहीं था पर उसके योगियों और जैनियों से मिलने पर उसे यौक्तिक और तार्किक कह कर गालियां कइयों ने दीं दिल्ली से हटा कर देवगिरि को अपनी राजधानी बना कर दौलताबाद नाम देना यदि राजनीति थी तो दिल्ली के अफसरान , बड़े लोगों और खुदा से मिलने वाले सूफियों को दिल्ली छोड़ उस अनदेखे दौलत की ओर जबरन ले चलने पर मजबूर करने को जुल्म की शक्ल दी गयी। बड़े लोग तब भी दिल्ली नहीं छोड़ना चाहते थे पर विचारों का तिलिस्म बनाने वाले वे ही तब भी थे शायद इसीलिये इतिहास में कैद नहीं है दिल्लीवालों के लिये इतने सारे सूफियों के जाने का अफसोस या बड़े बड़े लोगों से विमुक्त उनकी राहत भरी सांस। सूफियाना हवाएं दक्कन पहुंचीं या मुहम्मदी फतह कांगड़ा पहुंची इससे उन्हें क्या उनकी अनुभूतियों की चादर अभी भी उनकी अपनी थी और वैसे भी दिल्लीवालों को दिल्ली से बाहर कुछ दिखा ही कब है! होती रहे चांदी की कमी दुनिया में , उनकी कल्पना की दिल्ली तो खुद चांदी थी यह चांदी थोड़ी धूमिल हो सकती थी बहुतेरे सूफियों के जाने के मलाल से या दौलताबाद से पानी की कमी के कारण लौटे अमीर उमरा को लेकर पर इसका रसूख मस्तिष्क की कई तहों तक फैला था इसीलिए जहांपनाह के कांसे के सिक्के चल नहीं पाये। कुछ बरस बाद भी जब मौत की प्लेग चल निकली और तुगलक बादशाह भी दिल्ली छोड़ स्वर्गद्वारी चल पड़े तो भी दिल्ली बैठी नहीं , मर कर जिन्दा हुई उसी जहांपनाह में और उसी वक्त जब दोआब में फसल सुधार का सुल्तानी प्रयोग करों की क्रूर संरचना के कारण दम तोड़ रहा था। ढांचा तो नहीं बदला पर कभी कभी शाम के उसी ढलान पर बिना बामुलाहिजा होशियार दिल्ली जीतती रही। ४. तुम मुझे फीरोजी बना दो दिल्ली की उस मध्यमवर्गीय लड़की ने अपने पास बैठे लड़के से कहा कोटला फीरोजशाह के स्लेटी खंडहरों के बीच उस लड़के का उत्तर फंस सा गया फिर इन दोनों की कहानी का कुछ नहीं हुआ वैसे ही जैसे फीरोजाबाद का भी कुछ न हो सका मानों कुलीनों और उलेमा को मनाते मनाते थक कर फीरोजशाह शिकार पर निकल गया हो शहर से दूर- जोर बाग और करोलबाग में वहीं जहां कुलीन बसते हैं और जहां कुलीन नहीं बसते हैं। फीरोजाबाद में ही कुलीनता वंशानुगत हुई फीरोजाबाद की औरतों को फकीरों की मजारों पर जाने की मनाही हुई फीरोजाबाद के सिपाहियों को तनख्वाह नहीं , गांवों की लगान का हक मिला और फीरोजाबाद के घोड़ों को ताकत से नहीं रिश्वत से तौला गया पर हौजखास से पीर गैब तक फैले इस शहर में हवा फिर भी बहती रही सिर्फ जमुना के किनारे से निकाली नहरों के पास ही नहीं बल्कि खैराती अस्पतालों , मदरसों और सरकारी दहेज से ब्याही विपन्न बेटियों के पास भी। फिर चीजों के दाम कम थे , इसलिए मुफलिसी भी पल ही गयी वैसे देखा जाये तो इससे हवा को क्या फर्क पड़ता कि फीरोजशाह ने उलेमा से डर कर अपने महल की चित्राकारी खुद खुरचवा दी या कि फीरोजशाह की बनवायी इमारतों से अधिक सराही गयीं बेगमपुरी और खिड़की मस्जिद जैसी उसके वजीर खान ए जहान जूनां शाह की सात मस्जिदें पर दिल्ली को हमेशा फर्क लगा है खुशामदगी के उलझते धागों को दिल्ली न कभी सुलझा पायी और न बांध ही पायी वह बस फीरोज की तरह कुतुब मीनार की मंजिलें बढ़वाती रह गयी। जिस अशोक स्तम्भ को फीरोज शाह ने अम्बाले से लाकर कुश्क ए फीरोज में लगाया उसका रंग तो और भी स्याह था एक लाख अस्सी हजार गुलामों को छूकर बहते बहते हवा भी फीरोजी न रही और अंदर ही अंदर सीझते शहर की मौत तक शिकारगाहें भी पस्त हो चली थीं। फीरोज अपनी मुश्किलों के साथ हौजखास में दफ्न हुआ कोटला फीरोज शाह की आलीशान जामी मस्जिद में नमाज सशंकित सी रही वही मस्जिद जिसके खंडहरों में बैठे जोड़ों की कहानी आज भी आगे नहीं बढ़ पाती दिल्ली उन्हें ठुकराती नहीं पर बेसलीके ही सही उनकी उलझनों को किनारे कर समय आते ही आगे निकल जाती है। From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 16:57:48 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 16:57:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSwIOCktuCkueCksC/gpKrgpILgpJXgpJwg4KSw4KS+4KSXIC0gNA==?= Message-ID: <200710111657.48419.ravikant@sarai.net> 5. वह छोटी सी थी पर उसे भूलिएगा नहीं - अठकोण और चौकोर मकबरों की दिल्ली को सय्‌यद और लोदी सामंतों की दिल्ली को तैमूर की रूह के ऊपर धड़कती उस दिल्ली को जो शहर बनते बनते रह गयी। मुबारकाबाद की गलियों की दबी दबी पदचापों की तरह जिन्दगी फिर भी चलती है। शिल्पकारों के बिना , कारीगरों के बिना भी पेड़ फल फूल लेते हैं बेलें और पत्तियां बगीचे बना देती हैं शाखों के बीच से तब भी झांका ही था दिल्ली का छोटा आकाश अफगानी सल्तनत की चुनौतियों , अभिराधन, शमन और दमन के बीच फिर भी झलकती ही रही वही पुरानी हिन्दुस्तानी जहांदारी ऐसी झलकों के सहारे ही पुख्ता रही हैं शाखें खरक , केंदु, अशोक और महुए की तमाम गंधों के साथ जिनके बीच दिल्ली आज भी लोदी गार्डेन में टहलने जाती है। 6. पुराने किले में कम भीड़ रहती है जिन्होंने पांडवों की तलाश वहां कर ली , उनके कदम भी चुक गये जिन्होंने प्रगति के साथ मैदान जोड़ा वे दोनों को ही ढूंढ रहे होंगे शायद अंततः वे अप्पूघर और चिड़ियाघर को खोज कर खुशी भी जाहिर कर दें वैसे भी नाम में क्या रखा है यहां हुमायूं का शहर था दीनपनाह जो अब नहीं है जब था तब भी क्या वह दीन की पनाह था या जहांपनाह की मुगलाई शान का एक मजमा जिनके साथ अपने तख्त के सहारे हुमायूं गणित और रहस्यवाद का खेल खेलता था। वैसे भी उसके पत्थर सीरी के वही पुराने खिलजी पत्थर थे जिनकी जड़ें कमजोर थीं इतनी कि हुमायूं की पूरी शानो शौकत ढह गयी और जब वापस आयी तब तक शेरशाह तो न था , पर उसके अपने पत्थर जम चुके थे पुराने किले की दीवारों पर , किला ए कोहना मस्जिद की मेहराबों पर और शेर मंडल की सीढ़ियों पर - वही सीढ़ियां जिन पर चढ़ कर हुमायूं अपने पुस्तकालय में जाता था और वही जिनसे नमाज के लिये उतरते हुए वह लुढ़क कर खुदा को प्यारा हुआ। तालीम और खुदा के रिश्ते को बहुत गाढ़ा करना उस वक्त भी खतरनाक था दिल्लीवालों ने इस बात को ठहर ठहर कर समझा है फिर भी थोड़ी कमी रह ही गयी है , शायद इसीलिए जमुना पुराने किले से दूर खिसक गयी है। 7. वैसे आप लाख बिगाड़ लें पर दिल्ली की जो हवा है वह इलाकों की चाल से ही बहेगी और उसमें जो पुश्तैनी गंध है वह उन बस्तियों से आज भी उठ लेगी जिसे अगर आप आंख बंद कर महसूस करें तो आप भी शायद उसे शाहजहांनाबाद ही कहें। क्योंकि शाहजहांनाबाद सिर्फ शाहजहां का नहीं था करीब अस्सी बरस बाद बनी राजधानी की शक्ल में एक रवायत थी जो तख्ते ताऊस की बुलंदी को दीवाने खास के संगमरमरी बहिश्त को बादशाही हमाम की खुशबू को या मीना बाजार की बेगमों की हंसी को अपने हिसाब से कभी खुल कर या कभी रहस्य भरी सरगोशी के साथ लाल किले की छनछनाती उतार से छान कर सड़क के बीचों बीच अंधेरे उजाले का खेल खेलती झिलझिलाती हुई एक चांदनी चौक बनाती थी। वह कुछ खुशफहमियों का जमाना था सीताराम बाजार की बड़ी हवेलियों का जमाना जिसके दरीचे बाहर कम अंदर के विशाल आंगन की ओर अधिक खुलते थे। रसोई घर की थी , बातें बाहर की - सरपरस्ती के साथ साथ चुगलियों की चटनी जब रसोई की गंध थम जाती थी तो अपच बदगुमानी बन दरवाजे से बाहर गलियों की हवा खाने से बाज नहीं आती थी। नीचे गलियां , कटरे और मुहल्ले पेशेवर नाम , पेशेवर किस्से, कुछ पेशेवर फि भी जिनकी हदों से अलग जहालत और जिल्लत की बू से खुद ही मरती कुछ बस्तियां जिनके पेशे गरीबी से भी बदतर थे। ऊपर जामा मस्जिद की मीनारें खुदपरस्ती की खुदाई उड़ान हवाई उड़ान के नशे में मस्त भागते गोले और काबुली कबूतर उन्हें उड़ा कर और भिड़ा कर बादशाहत का भ्रम पालता एक बहुत बड़ा वर्ग जो नीचे देखना नहीं चाहता था , जो नीचे देखने से डरता था। यूं भी दिल्ली के इन इलाकों में ही मिलते हैं भिखमंगे और पागल और उनसे हमेशा से एक अलग गंध आती रही है जो न शाहजहां के फरमानों के आगे दबी न ही जहांआरा की सवारी की कस्तूरी खुशबू के आगे जिसे कहवाघरों की जमात तब न दबा पायी जिसे वातानुकूलित गाड़ियों का हुजूम अब भी न कुचल सका उनसे बचने के लिये ऊपर ही ऊपर उड़ता रहा शाहजहांनाबाद चाहे दरबारी मिर्जे , सेठ, सौदागर, दुकानदार हों या इल्म और हुनर के कलाकार - कुछ बहुत ऊपर, कुछ थोड़ा ऊपर लेकिन सभी ऊपर , बेशक ऊपर। परवाजों की ये कहानियां आज तक गाहे बगाहे सुनायी पड़ती हैं दिल्ली के इन इलाकों में जिनके नसीब में आगे जमीनी हकीकतों का सिलसिला हो वे ऐसी कहानियों को बडे+ प्यार से पालपोस कर बड़ा करते हैं साथ में हाय हाय भी लगी रहती है गिरने की हाय , गिर कर न उठ पाने का अफसोस अंदर के खोखलेपन को न मान कर इधर उधर की वजहें तलाशने की उत्कंठा औरंगजेब की कट्टरता के बढे+ चढे+ किस्से रोशनआरा की उच्छृंखलता के कारनामे फरूखसियर के दोगलेपन के चर्चे बरहा भाइयों की नमकहरामी पर लानत लालकुंअर की खूबसूरत चालबाजियों पर तौबा या अदारंग और सदारंग के खयालों में डूबे मुहम्मद शाह रंगीले की शराबों पर लाहौल। दिल्ली बतकहियों का शहर बन गया चांदनी चौक के बीचोंबीच बहता पानी गंदलाता गया पानी के कीटाणु तो दिल्ली की तीखी चाट ने मार डाले पर नादिरशाही जुल्म का खून ऐसा जमा कि झिलमिलाती चांदनी लाल नजर आने लगी उस दिन से लाल किले के पत्थर कुछ स्याह नजर आने लगे जाटों , मराठों और रोहिलों के घुड़सवारों के बीच बादशाही नजर पथरा गयी शाहआलम की इन्हीं आंखों को फोड़ा था रोहिलों ने तहजीब के पास घोड़े नहीं थे हिनहिनाते कैसे ? अंगरखों में सिकुड़ कर बैठ गया दिल्लीपन जीनतुल मस्जिद में शहरे आशोब लिखा नहीं गया , महसूस किया गया दीवान ए खास की शमां आखिरी शमां थी इसकी रोशनी में चमकने के लिये न कोहेनूर था न रत्नों की पेटियां रोशनी गालिब , जौक और मोमिन से होकर अंततः बहादुरशाह जफर पर ठहर कर थरथरा जाती थी मानो बल्लीमारान की गलियों से निकल कर हजारों ख्वाहिशें लाल किले की सिमटी बारादरियों में दम तोड़ रही हों मानो मौत के साथ चलने का इंतजार हो फिर भी बादशाहत के पास होने की खुशी ऐसी कि पास कोई दूसरा तो नहीं। किले की दीवारें बेनूर सही अभी भी दीवारें तो थीं शहर उस पार था जिससे अभी भी कुछ दूर थीं इस पार की शामें और जिनके सहारे सारे दिन महफूजियत के कुछ भ्रम उस पार भी फैलाये जा सकते थे दरियागंज की उन हवेलियों के बीच भी जहां फिरंगी रहने लगे थे जहां आक्टरलोनी को लूनी अख्तर कह कर दिल्लीपन की इंतहा मानी जा सकती थी जहां विलियम फ्रेजर के हरम को अपनी तहजीब की अगली कड़ी समझा जा सकता था जहां गदर के सिपाहियों को सामंती तहजीब के पैमाने से कुछ लुच्चे उत्पातियों की शक्ल दी जा सकती थी जहां सब्जीमंडी की आर पार की लड़ाई से जितना खून खौला , जितना खून बहा उतना ही पतला भी रहा जिस दिन खूनी दरवाजे पर मुगलिया सल्तनत के खून का आखिरी कतरा गिरा उस दिन भी दिल्ली शांत ही रही कोतवाली के पास फांसियों की कतार के बीच भी कोई हलचल नहीं हुई घंटेवालान की मिठाइयां बनती रहीं निहारी के कबाब बिकते रहे परिन्दे उड़ते रहे तमाम प्यार , मुहब्बत, फि और तकरीर के बावजूद दिल्लीपन अंततः एक शब्द साबित हुआ अधिक से अधिक एक जुमला जो तमाम पुरानी गंधों के बीच आंखें खोल कर देखने पर आपके चारों तरफ इस तरह उछलेगा जैसे भीड़ भरे बाजार की होड़ में ललचाता एक ब्रांड नेम। From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 17:13:45 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 17:13:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSwIOCktuCkueCksC/gpKrgpILgpJXgpJwg4KSw4KS+4KSXIC0gNg==?= Message-ID: <200710111713.45511.ravikant@sarai.net> 8. दिल्ली के अनवरत रेंगते ट्रैफिक में जब कॉकटेल्स की छलकती रंगीनियां सूखने लगती हैं और हयात या शांगरीला से निकले कार्पोरेट मल्टीनेशनल धनाढ्यों की भाषा को हिचकियां आने लगती हैं उस वक्त रेडियो मिर्ची या एफ.एम. से जो 'हिंगलिश' का लटकेदार प्रलाप होता है वह उतना बेमानी भी नहीं जितना आप समझते हैं वह नव साम्राज्यवाद का आलाप है जहां अर्थहीनता का ही अर्थ है आप झुंझलायें नहीं , व्यवस्था को गाली न दें आप एक खिलखिलाती नवयौवना से होलीडे पैकेज , आइटम गर्ल्स , हॉलीवुड की चमक और वॉलीवुड के सितारों की बातें सुन कर समय का सदुपयोग करें और खुश हो लें कि आप भी ग्लोबल हो गये हैं। भाषा की अपनी सत्ता होती है हमेशा से रही है उस वक्त भी थी जब माल रोड पर टहलते सिविल लाइंस के अंग्रेजों को देख देख दिल्लीवालों ने मुगलिया यादें छोड़ अंग्रेजी सीखना शुरू किया। कश्मीरी गेट पर , १८५७ के मैगजीन विस्फोट के स्थल के बिल्कुल पास शुरू हुए सेंट स्टीफेंस और हिन्दू कॉलेज और १८५७ की दहशत को मन में लिये उत्तर की ओर दूर दूर फैलता गया एक प्रजातीय अलगाव सिविल लाइंस के बंगलों की शक्ल में जहां हेलीबरी से निकले नये ब्रिटिश राज्य के इंडियन सिविल सर्विस ने स्टील फ्रेम की तरह एक नयी दिल्ली बसायी। स्टील फ्रेम में जकड़ी दिल्ली कांपती रही मिर्जां गालिब अपनी पेंशन के लिये भटकते रहे सूरज चमकता रहा चांद टटोलता रहा रास्ते मेडेन्स की दूधिया दीवारों के बीच , लुडलो कासल के पोर्च के दरम्यान जिसके अंदर के ठंडे बरामदों पर जिन और टॉनिक के बीच ईश्वर सम्राट को बचाता रहा। दिल्ली में अब नौबतखाना नहीं था , भीड़ भाड़ की वह चटख रंगत भी नहीं पहलूनशीं होने का वह जमाना भी गया चहलकदमी के नये अंदाज थे नसीमे सहर विलायत से चली थी , गुनगुनी शाम कश्मीरी गेट में होती थी और चांदनी चौक उसे नीमनिगाही से देखता था। कनखियों के इस खेल से दिल्ली बहुत मुफीद होकर निकली बंगाल की गर्म हवाओं की तुलना में ठंडे ठंडे लगे यहां के बंगले राजधानी दिल्ली को फिर बनना ही था साम्राज्यवाद बहुत जटिल था और उतना ही ठोस रस्मी दिल्ली से बहुत अलग कागजों की सभ्यता के आगे दम तोड़ते आचार और व्यवहार के अदब कचहरियों की नयी जमात कारकूनों की नयी कतारें जमीन और मिल्कियत की नयी हकीकत जिसके आगे बदतमीज लगते थे उर्दू के अफसाने और सुरों से भटकता था गजलों का रियाज। महफिलों का नहीं कैम्पों का जमाना था वह कैम्प भी शहर बन सकते थे जैसे जॉर्ज के दरबार का किंग्सवे कैम्प जिसकी शान के आगे झुके झुके थे हमारे सैकड़ों हुक्मबरदार वफादारी से गलगलाये , नजरानों की बौछार में लिजलिजे कुछ और तोप दगवाने की इनायत से गदगद। यह बंगाल नहीं दिल्ली थी यहां कोई स्वदेशी आंदोलन नहीं था यहां कालीबाड़ी के आगे शपथ लेते नौजवान नहीं थे और अभी भी मजलिसे रक्सो सरोद की यादों के मातमी बादल तो थे पर बारिश नहीं थी। इसलिए दिल्ली को फिर से राजधानी बनाना लाट साहबों के लिये तो महफूज था पर दिल्ली अचकचा गयी। अचकचा कर उठने वालों के दिल अक्सर धड़कते हैं दिल्ली भी धड़की जब हार्डिंग पर सरे बाजार बम फेंका गया पर अपने बाजारों में सड़क के दोनों तरफ चलना दिल्ली वालों ने कभी नहीं छोड़ा है लाला हरदयाल का गदर आंदोलन बहुत दूर था और अब तो बाजार बढ़ रहे थे उपनिवेशवाद तिजोरियों में नहीं पूरी दुनिया की तिजारतों , बैंकों और पूंजी के साथ नये नये रूप धर कर आ रहा था जिन्हें सम्भालते सम्भालते चांदनी चौक का चेहरा भी बदलने लगा था। दिल्ली एक बार फिर कई चेहरों के साथ थी प्रथम विश्वयुद्ध की मार से कराहते चेहरे एक ओर तो रायसीना की पहाड़ी की तरफ फैलती नयी राजधानी की ओर उत्सुकता से लगी ठेकेदारी की कल्पनाएं दूसरी तरफ नयी दिल्ली बनी तो ऐसी बनी जैसे सूरज कभी ढलेगा ही नहीं वह सिर्फ लुट्यंस और बेकर का वास्तुशास्त्र लेकर नहीं आयी वह भव्यता का सदियों पुराना शास्त्र लेकर आयी जहां नये वाइसराय निवास की किलेनुमा दीवारों से लेकर विशालकाय बंगलों तक के सिलसिलों में कुछ भी सूफियाना न था अब ढेर सारे बल्बन थे , कितने ही अलाउद्दीन और मुंह में चुरुट दबाये , एड़ियां खटखटाते ऊंचे खम्भों वाले कनाट प्लेस में पृथ्वी की तरह गोल गोल घूमते ताजमहल को भी बर्तानिया ले जाने के सपने देखते कई कई शाहजहां। औपनिवेशिक रोमांस में भी औरतें आ सकती हैं जैसे माउंटबैटन का एडविना को दिल्ली में प्रपोज करना पर वह पुराने वाइसराय निवास की बातें थीं जहां अब विश्वविद्यालय था इसलिए वे बातें भी शायद किताबी थीं। उपनिवेशों में प्रेम हमेशा उपयोगी होना चाहिए मुनाफे के लिये ऊपर के होंठ को कड़ा रखना चाहिए साम्राज्यवाद पूर्णतः मर्द होता है और दिल्ली के हुनर बाजार नहीं , बूढ़ी तवायफों के कोठे थे। वैसे मुनाफे का हमेशा से कुछ हिस्सा दिल्ली वालों के हाथ भी लगता ही रहा है अबकी बार ठेकों से उपजी नयी रईसी थी जिसके खुले बंगलों को विदेशी शिष्टाचार की बयार सम्भ्रांत बनाती थी यहां बंद कमरे न थे लेकिन जहां थे वहां कानाफूसी से शुरू होकर बातें बढ़ने लगी थीं और बढ़ते बढ़ते चौराहों तक भी आने लगी थीं विदेश ने देश को पहचान दी थी , और इस पहचान में जो प्रेम उमड़ा था वह सूखे सख्त होठों से नहीं तरल और ऊष्म आवाजों से ओत प्रोत था। अभ्यावेदनों की दुनिया से हट कर दिल्ली खिलाफत के नये शब्द सीख रही थी असहयोग , बहिष्कार, सत्याग्रह और सविनय अविज्ञा लोगों को संगठित करने के नये तरीके अपने और पराये के भिन्न प्रतीक मानों विशिष्ट और साधारण के बीच की गहराई को पाटने के लिये बनाये जा रहे हों कई कई पुल और बताया जा रहा हो लगातार कि इन्हें पार करके ही पाओगे तुम श्वेत , शुभ्र लिबास धारण किये हुए उस गरिमामय औरत की गोद जो तुम्हारी मां है। उल्लास के बार बार उठते कई हुजूम थे सड़कों पर सुबह दोपहर शाम सभी उजले उजले थे गांधी टोपियों और खादी के कुर्तों और साड़ियों की तरह जो उमंग की हवाओं से फड़फड़ाते हुए बार बार यह भूल जाते थे कि सेण्ट्रल असेम्बली के बम के पीछे उजले कपड़ों की नहीं बिना कपड़ों के मजदूरों की भी बातें थीं और कि दिल्ली में बिना दरारों के पुल और बिना गढ्ढों की सड़क कभी नहीं बन पाये हैं। इसलिए जब आजादी आयी तो वह किसी करिश्माई गुब्बारे के मानिन्द न थी जो खुले आकाश में उड़ा ले जाता वह कोई व्यक्ति भी नहीं जो सिर्फ अपने नाम से पहचान लिया जाता आजाद मुल्क की राजधानी की पहली सुबह को जिन अहसासों के साथ आना चाहिए था वैसा हुआ नहीं कुछ तो आदमी हमेशा से खुद अपना दुश्मन रहा ही है कुछ विभेदों के पूरी तरह मिटने की आशा भी संशकित सी थी और खुशी के उस दिन भी कुछ काले बादल छाये ही रहे। एक बहुत बड़ा हिस्सा जो अपना था वह अपना न रहा रोटियां टुकड़ों में बंट गयीं दस्तरखान सिमट गये बरसात की उस टूटी टूटी धूप में कितनों से इलाके ही नहीं , पूरी की पूरी दिल्ली छूट गयी मिट्टी की गंध तो ले गये , पर मिट्टी धरी रह गयी। दिल्ली फिर से सवालों का शहर था दंगाइयों का खून भी अगर दिल्ली के उन्हीं गली कूचों से निकला था तो वह कत्ल हुए बाशिंदों से अधिक मजहबी कैसे हो गया ? पाकिस्तान के इबादतखाने क्या दिल्ली की जामा मस्जिद से अधिक पुख्ता थे ? लाहौर में कबूतर दिल्ली से ज्यादा करतबी कब से हो गये ? महात्मा गांधी हे राम बोल कर क्यों मरे ? वह कौन सा हिन्दू था जिसने उन्हें मार डाला ? क्या शरणार्थिंयों के कैम्पों की जिल्लत और रंज से ही दिल्ली कुछ कट्टर हो चली है ? क्या अंग्रेज सचमुच चले गये ? तो फिर नयी दिल्ली के उन बंगलों और क्लबों में हमें घुसने क्यों नहीं दिया जाता ? ऐसे कई सवाल थे जिनसे दिल्ली आक्रांत रही है कई अभ्युक्तियां भी कहीं न कहीं अब सवाल ही थीं जैसे लाल किले पर तिरंगा साल दर साल फहराता रहा करोल बाग , पटेल नगर और पंजाबी बाग की बड़ी बड़ी कोठियों में शरणार्थियों ने एक अनूठे जीवट का अध्याय भी लिखा कॉफी हाउस में नये फलसफे और नयी कहानियों के बीच ढेर सारी सुलगायी सिगरेटों को अधभरे प्यालों में मसल कर बुझाया गया कॉलेजों में दुनिया को बदलने की हवा भी चली नेहरू का शांतिवन विचारधारा का विश्वविद्यालय बन खलबलाता रहा राष्ट्रीयकरण के सपनीले दौर में नार्थ ब्लाक और साउथ ब्लाक भी खींचते रहे अदब का एक बहुत बड़ा संसार बांये चला फिर दिल्ली के बढ़ते यातायात के दबाव में धीरे धीरे यातायात के नियम तोड़ता गया तुर्कमान गेट की बस्ती आपातकाल के दौरान तोड़ी गयी पालिका बाजार वहीं बना जहां पहले कॉफी हाउस था एशियन गेम्स के समय दिल्ली में रंगीन टी.वी. का आना बड़ी बात बन गयी सिख दंगों के दौरान कनाट प्लेस और करोलबाग में भी सन्नाटा छाया रहा इससे भी बड़ा सन्नाटा पूरी दिल्ली की सड़कों पर तब छाया जब हर हफ्ते रामायण सीरियल दिखाया गया दिल्ली में जगराते भी इसी दौरान बड़ी तेजी से बढे+ दिल्ली भी उतनी ही तेजी से बढ़ी है पहाड़गंज में जहां १८०३ में लार्ड लेक ने मराठों को हराया था वहां मराठे नहीं बिहारी अधिक रहते हैं दिल्ली के मिस्त्री , रिक्शेवाले, चौकीदार अब सब के सब पुरबिया हैं दिल्ली में फूलवालों की सैर अब भी बख्तियार काकी की दरगाह से जोगमाया मंदिर जाती है पर उससे अधिक भीड़ छठ के समय घाटों पर और दशहरा के दौरान रामलीला मैदान में रहती है। दिल्ली में उमस बहुत बढ़ गयी है बहुत सारे लोगों ने अब शीशे चढ़ा रखे हैं अंदर पूंजी का सामंतवाद बहता है जो दिमाग को ठंडा रखता है और जिसे गर्मी महसूस होने पर खरीदा और बेचा जा सकता है डी.एल.एफ. के बड़े बड़े शापिंग माल्स में बड़े बड़े मल्टीनेशनल पे पैकेजों के सहारे बार्बी डॉल्स की तरह जिनकी गुड़ियों सी शादी नहीं होती और जो विचारशून्यता की अंतर्राष्ट्रीय खुशी में माचो मर्दों से लिपट लिपट कर क्रेजी किया करती हैं। सुनते हैं कि दिल्ली अब एक फैलता हुआ शहर नहीं दुनिया है वैसे ही जैसे भारत अब देश नहीं , विश्व हो रहा है दिल्ली में रहने वाले भी अब विश्व देख रहे हैं विदेशी कम्पनी वाले , यू.एन.डी.पी. और यहां तक कि भारतीय नौकरशाह भी उन्हें बता रहे हैं कि अट्टालिकाओं में जो वैश्वी सोना इकठ्ठा हो रहा है उसका द्रव्य रिस रिस कर नीचे ही गिरेगा और यह दिल्ली पर है कि वह सवालों की कैद से बाहर आकर उसे कितनी तेजी से अपनी हथेलियों में लपक लेती है। इसी रेलमपेल में भाग रही है दिल्ली सांसें फुलाते हुए , आसमान की ओर देखती हवाओं से दुनिया खींच कर मुट्ठियों में बंद करने को व्याकुल लेकिन गाड़ियों की बेतहाशा बढ़ती कतारों के इस वक्त में जब सड़क पार करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन सा हो हर शाम हजारों चलने वालों के लिये दिल्ली फिर एक शहर हो जाती है पसीने से लस्त ऐसे लोगों का शहर जिन्हें थोड़ी देर के लिये रात का सन्नाटा चाहिए , थोड़ी नींद चाहिए और छोटे छोटे सपने चाहिए जिसमें विश्व नहीं , उनकी ही कदकाठी की उनकी ही जुबान बोलती सीधी सादी , सच्ची आंखों वाली शरीके हाल सी दिल्ली हो। (ख़त्म) From ravikant at sarai.net Thu Oct 11 18:49:01 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 11 Oct 2007 18:49:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] [Announcements] Book Launch- Bombay Cinema: An Archive of the City Message-ID: <200710111849.01561.ravikant@sarai.net> वैसे कल सराय में साढ़े चार बजे शाम को चश्मे-बद्दूर भी है. सई परांजपे की ही फ़िल्म *कथा* अगले हफ़्ते उसी समय पर दिखाई जाएगी. दिल्लीवासी श्रद्धानुसार और फ़ुर्सतानुसार आएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Reader-list] [Announcements] Book Launch- Bombay Cinema: An Archive of the City Date: मंगलवार 09 अक्टूबर 2007 23:20 From: Iram Ghufran To: announcements at sarai.net An Illustrated Talk By Ranjani Mazumdar (School of Arts & Aesthetics, Jawaharlal Nehru University) To Celebrate the Publication of her Book Bombay Cinema: An Archive of the City (Published by Permanent Black, 2007) Discussants: Ravi Vasudevan (Centre for the Study of Developing Societies, Sarai) Shohini Ghosh (MCRC, Jamia Milia Islamia) Friday, October 12th at 6.30 pm at Gulmohar, India Habitat Centre New Delhi _______________________________________________ announcements mailing list announcements at sarai.net https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/announcements _________________________________________ reader-list: an open discussion list on media and the city. Critiques & Collaborations To subscribe: send an email to reader-list-request at sarai.net with subscribe in the subject header. To unsubscribe: https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/reader-list List archive: <https://mail.sarai.net/pipermail/reader-list/> ------------------------------------------------------- From beingred at gmail.com Fri Oct 12 06:13:23 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 12 Oct 2007 06:13:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KWA4KSw4KWH4KSCIOCkreClgCDgpLngpK7gpL7gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWAIOCkpuClgeCkqOCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYAg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?Li7gpIbgpKog4KSt4KWAIOCkpuClh+CkluCkv+Ckjw==?= Message-ID: <363092e30710111743k1b6010edx452d20661b2ad05d@mail.gmail.com> ये चेहरे भी हमारी ही दुनिया के हैं लालिमा ने अपने ब्लाग पर इनमें से कुछ तसवीरें एक अलबम के रूप में पोस्ट कीं तो देख कर रोंगटे खडे़ हो गये. अविश्वसनीय-सी लगनेवाली ये तसवीरें हमारे ही समय की हैं-किसी और समय की नहीं और हमारे ही मुल्कों की हैं. जब हम अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात कर रहे होते हैं तो हमारे लिए पूरी दुनिया एक मुल्क की तरह होती है. और ये तसवीरें उसी दुनिया का चेहरा हैं-असली और खरा चेहरा-जिसमें एक खास फोन नंबर हासिल करने के लिए 15 लाख रुपये फूंके जा सकते हैं. सोचा कि इन्हें थोडा और बेहतर ढंग से पेश किया जाये. और फिर जो सामने आया वह ये वीडियो है. पीछे बजनेवाले एक गीत की जगह इंतेसाब ने ली-तो फिर उसकी लेंथ के हिसाब से कुछ और फोटो डाले गये-इनमें से दो एक ब्लागर साथी के ब्लाग से लिये गये. गीत एक दूसरे ब्लागर साथी के यहां से. आप भी देखें, और...अपनी राय ज़रूर दें. बस एक ध्यान रखें-इस वीडियो का मुख्य उद्देश्य फोटोग्राफ्स दिखाना है. कहीं-कहीं गीत के साथ फोटो का मेल नहीं भी होगा. वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें. http://hashiya.blogspot.com/2007/10/blog-post_12.html या फिर यहां आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071012/a55e5451/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Oct 12 06:13:23 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 12 Oct 2007 06:13:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS44KS14KWA4KSw4KWH4KSCIOCkreClgCDgpLngpK7gpL7gpLDgpYAg?= =?utf-8?b?4KS54KWAIOCkpuClgeCkqOCkv+Ckr+CkviDgpJXgpYAg4KS54KWI4KSC?= =?utf-8?b?Li7gpIbgpKog4KSt4KWAIOCkpuClh+CkluCkv+Ckjw==?= Message-ID: <363092e30710111743k1b6010edx452d20661b2ad05d@mail.gmail.com> ये चेहरे भी हमारी ही दुनिया के हैं लालिमा ने अपने ब्लाग पर इनमें से कुछ तसवीरें एक अलबम के रूप में पोस्ट कीं तो देख कर रोंगटे खडे़ हो गये. अविश्वसनीय-सी लगनेवाली ये तसवीरें हमारे ही समय की हैं-किसी और समय की नहीं और हमारे ही मुल्कों की हैं. जब हम अंतरराष्ट्रीयतावाद की बात कर रहे होते हैं तो हमारे लिए पूरी दुनिया एक मुल्क की तरह होती है. और ये तसवीरें उसी दुनिया का चेहरा हैं-असली और खरा चेहरा-जिसमें एक खास फोन नंबर हासिल करने के लिए 15 लाख रुपये फूंके जा सकते हैं. सोचा कि इन्हें थोडा और बेहतर ढंग से पेश किया जाये. और फिर जो सामने आया वह ये वीडियो है. पीछे बजनेवाले एक गीत की जगह इंतेसाब ने ली-तो फिर उसकी लेंथ के हिसाब से कुछ और फोटो डाले गये-इनमें से दो एक ब्लागर साथी के ब्लाग से लिये गये. गीत एक दूसरे ब्लागर साथी के यहां से. आप भी देखें, और...अपनी राय ज़रूर दें. बस एक ध्यान रखें-इस वीडियो का मुख्य उद्देश्य फोटोग्राफ्स दिखाना है. कहीं-कहीं गीत के साथ फोटो का मेल नहीं भी होगा. वीडियो देखने के लिए यहां क्लिक करें. http://hashiya.blogspot.com/2007/10/blog-post_12.html या फिर यहां आयें. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071012/a55e5451/attachment-0001.html From vineetdu at gmail.com Fri Oct 12 10:47:49 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Thu, 11 Oct 2007 21:17:49 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWLIOCkneCkvuCkl+CkteCkvuCksuCkviDgpLngpYgg4KSv4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KS/IOCkuOCkv+CksOCljeCkqyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLA=?= Message-ID: <829019b0710112217xdb59a23i1eabc9c7da722559@mail.gmail.com> ये तो झागवाला है यानि सिर्फ पत्रकार *भइया तो अभी तक हमने बात की थी कि कैसे विद्या भवन में देश और संस्कृति को लेकर समझदारी बढ़ाने के नाम पर एक पेपर का पैटर्न कुछ इस तरह तैयार किया गया है जिसके जरिए पत्रकारिता को हिन्दूवादी शक्ल में ढालने की कोशिश होती है। अपने लगभग एक साल के मीडिया करियर में कभी भी इस तरह के ज्ञान की जरुरत महसूस नहीं हुई और न ही मुझे लगा कि संस्कृति के नाम पर वेदों की संख्या रटी जाए। अब आगे........* कल्चरल हैरीटेज ऑफ इंडिया की क्लास सिर्फ शनिवार को हुआ करती थी जिसमें कि एटेंडेंस अनिवार्य था। भावी पत्रकार बताते हैं कि ये सिससिला अब भी बरकरार है। वैसे भी इस तरह की क्लासेज के लिए एक दिन ही पर्याप्त होता। एटेंडेंस की मार से क्लास में खचाखच भीड़ होती और मुझे लगता कि गौरवशाली आर्य संस्कृति का उद्धार करने के लिए हमें तैयार किया जा रहा है। इन सब मामलों में मैं शुरु से ही उपयोगितावादी किस्म का आदमी रहा हूं। सो एकदिन मास्टर साहब से बोल दिया कि- सर जब इतना सबकुछ कराते ही हो तो क्लास के बाद कुछ बंटवा क्यों नहीं देते...कुछ मुंह मीठा करा दिया करो। तब से मास्टर मुझे ताड़ता रहता और क्लास में एकाध सवाल जरुर मुझसे पूछता। सवाल पूछता कि किसी पांच उपनिषदों का महत्व बताओ। पांच क्या मुझे अपने लिए एक भी उपनिषद् काम के नहीं लगते और मैं चुप मार जाता। उस समय वे लेडिसों की तरफ ऐसे ताकते मानो उनका मखौल उड़ा रहे हों कि ये है तुम्हारी पसंद, ऐसा लद्धड कि जिसको अपनी संसकृति का एबीसी भी नहीं आता। लेकिन लेडिस कहां टूटूने वाली थी। सबेस्टियन की एड की क्लास मुझे छोड़ और किसे समझ आती थी। दरअसल जितना मैं अपने इस कोर्स को लेकर कन्प्यूज्ड था उतना ही बंदा अपनी क्लास को लेकर। इसलिए अंग्रेजी में वो जो कुछ भी बांचता उसका हिन्दी तर्जुमा मैं टीवी विज्ञापनों से जोड़कर समझा देता और लेडिस लोग यू नो आई मीन लगाकर बहस नहीं करती। मेरे सर्किल में जितनी भी लेडिस थी उसमें अमूमन सब सुंदर ही थी। अंग्रेजी में कुछ के हाथ एमसीडी स्कूल या फिर बिहार बोर्ड के कारण तंग थे। कुछ की अंग्रेजी काफी अच्छी थी लेकिन वो अंग्रेजी कॉफी हाउस, रिक्शेवाले का भाड़ा काटने और छिछोरे किस्म के लौंडों को सटकाने के समय ही काम आते। क्लास में आते ही अंग्रेजी में उनका टावर काम नहीं करता औऱ नेटवर्क पूरी तरह गोल। ऐसे में अपनी खूब चलती। तो ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे जो भी कह लें पत्रकार होने की उम्मीद बढ़ती जा रही थी। कोर्स पूरे होनेवाले थे। अच्छा, आजकल मार्केट में अधपके आइटम की डिमांड ज्यादा है इसलिए ठीक इसी समय - ले लीजिए न सर, देख लीजिए न सर, हो जाएगा न सर वाली लाइफ स्टाइल में इन्ट्री कर गया। इग्जाम भी नजदीक आ रहे थे और देखते ही देखते गुलजार भवन मुर्दा सराय बन गया, लोगों ने आना बंद कर दिया था। ....अब सबसे मुलाकात सिर्फ इग्जामिनेशन हॉल में ही होते।मेरे सारे पेपर बहुत ही अच्छे जा रहे थे। आर्टस से था सो ज्यादा दिमाग नहीं लगाता। खूब जमकर लिखता, आत्मविश्वास से लवरेज होकर। दिमाग में बस यही होता कि किसी सवाल के उपर जितना कुछ आता है सब लिख डालो मास्टर को जो-जो पसंद आएगा,छांटकर नंबर दे देगा। अब रह गया था सिर्फ एक पेपर विद्या भवन का सबसे फेवरेट पेपर। कल्चरल हैरि....। और दिन होता क्या था कि बंदे लोग और खासकर लेडिस इग्जाम के पांच मिनट पहले तक किताबों पर ऐसे नजर गड़ाती जैसे कुछ दिन पहले अपनी मॉडल गीतांजलि दिल्ली की सड़कों पर गड़ाती नजर आयी थी। लेकिन इस पेपर में नजारा कुछ बदला-बदला सा लगा। लोग-बाग खुल्ला घूम रहे थे, पेपर के बाद क्या करेंगे इस पर हांक रहे थे। एक लेडिस जो मुझ पर अक्सर झिड़कती रही और जिसपर मैं जान छिड़कता रहा, आज आपही आकर बोलती है, पेपर के बाद आज मैं तुम्हें कॉफी पिलांउगी, साथ में टोमैटो टैंगो लेज भी। मैडमजी हम तो सिर्फ आपकी कम्पनी से निहाल हो जाते आप तो माल भी खर्चेंगे। धन्य है बाबा कामदेव की माया। चलिए, ये भी पेपर अपने निर्धारित समय से शुरु हो गया। सवाल थे, वही सब जो सब पढ़ाए गए थे या यों कहिए जो संस्कार डाले गए थे। वेदों को लेकर, रामायण के कौनसे पात्र आपको सबसे अच्छे लगते हैं, और क्यों। महापुरुषों पर टिप्पणियां जिसके उपर मैंने ऐसे लिखा कि वे इतने महान क्यों हैं कि ये हमारी परीक्षा में सवाल के रुप में अवतरित हुए। मैं तो खूब दबाकर लिख रहा था, कुछ तो चिढ़ से कि -कर चेक बेटा मेरी कॉपी, कॉपी की वजन देखकर नंबर देगा औऱ कुछ अपनी लत भी है बहुत लिखने की। एम.ए फर्स्ट इयर में कम लिखता था लेकिन जब सबको कॉपी लेते देखा तो लूज मोशन शुरु हो गया था, हर पांच मिनट पर आवाज आती सर शीट। दूसरे साल मैंने पढ़ने से ज्यादा लिखने पर जोर दिया और परीक्षा की कॉपी को उगलदान बना डाला। यही लत बरकरार थी। मुझे आधे घंटे तक ध्यान नहीं था, बाद में जब खुसुर-फुसुर हल्ले में कन्वर्ट हो गया तो देखा लोग आपस में बातें कर रहे हैं। कोई भवन की अमूल्य किताब निकाल रहा है। मास्टर मिमियाकर कह रहा है मत करो ऐसा भाई लेकिन मॉड लेडिस के सामने वो भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया, फिर तो महौल परीक्षा से ज्यादा ऐसा था कि कौन देखकर सबसे बढ़िया लिख सकता है। मैं लेडिस देखकर अच्छा बोल सकता हूं लेकिन किताब देखकर लिख नहीं सकता। बस दनानद लिखता जा रहा था। मास्टर ने दरवाजा बंद कर दिया था और खुद बाहर खड़े हो गए थे कि कोई आए तो बंदों को इत्तला कर दें। एकबार मेरे पास आए और बोले कोई परेशानी है तो तुम भी देख लो। मैंने कहा डिस्टर्ब न करें जनसत्ता के पाठक से ऐसी बात। हिकारत भरी नजरों से उन्हें देखा लगभग गरियाते हुए और वे इस अंदाज में कि ये ते झागवाला है। पेपर खत्म हो गए थे, सारे लोग इत्मीनान से बाहर गप्पे लड़ा रहे थे, गजब का आत्मसंतोष दिखा सबों के चेहरों पर। एक- दो बंदा मेरी तरफ देखकर तड़प रहा था जैसे घर में टीवी पर हरीशचंद्र सीरियल आने पर चैनल बदलने के लिए तड़प उठता है, बदलो इस चैनल को.....अभी तुरंत। कॉफी पिलानेवाली लेडिस दिल्ली एनसीआर( है एक बंदा) के साथ मोमो खा रही थी। विद्या भवन इस पेपर के जरिए लोगों को हिन्दूवादी पत्रकार तो नहीं बना पाया लेकिन अपने धरोहर का बेहतर इस्तेमाल करना सिखा गया जो कि ज्यादा जरुरी है।लोगों ने फोन करके बताया कि विनीत अपना रिजल्ट आ गया है लेकिन चार महीने बाद भी जब रिजल्ट लाने की सोचता हूं तो पता नहीं क्यों मितली सी आने लगती है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071011/d02f8b7f/attachment.html From sadan at sarai.net Fri Oct 12 12:13:24 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Fri, 12 Oct 2007 12:13:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpCAg?= =?utf-8?b?IOCliyDgpJ3gpL7gpJfgpLXgpL7gpLLgpL4g4KS54KWIIOCkr+Ckvg==?= =?utf-8?b?4KSoICAg4KS/IOCkuOCkv+CksOCljeCkqyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJU=?= =?utf-8?b?4KS+4KSw?= In-Reply-To: <829019b0710112217xdb59a23i1eabc9c7da722559@mail.gmail.com> References: <829019b0710112217xdb59a23i1eabc9c7da722559@mail.gmail.com> Message-ID: <7f95b7b4a8c26518c9f110077303379e@sarai.net> bhai vineet, phir se doharaa dun ki achha laga. bahut achha laga lekin dil maange mor ke tarj par yadi kahun ki ab thora lamba likh maaro. posting kab khatam ho jaati hai pataa hi nahi chalta aur lambe posting ke saath kuchh farmaisain bhi lete jaayen. to jhumari tilaiya se chunnu-munnu, dewar-bhabhi,boyfriend-grildfriend, chhote raam, majhale pande, sukhi-nirdhan, ramniwas, unke parosi jhalak lal, unki car wali madam, mali ujare chaman, rasoiye khirkadam, pinti, bablee aur unke saathi sabki farmais ki ab samay aa gaya hai aap jara apne 'ledis' aur unke 'ledaaon' par thora bistaar se 'chorbatti wala' prakash dain. hamare feminist corner ka manana jhai ki aapki 'ledis' mahaj mohare ki tarah bebak khatputaliya hain to jara unke apne 'agency' ko lekar bhi aayain. police constable nek chand sahab ka kahana hai ki aap sab par to najar rakh te ho aur sab par mukadama daayar karne ki firaak main rahate ho kuchh khichaiy apni bhi kar daalo bhaiya aisa lagat hai ki aap bhitar se kahain to hamesa full control main rahte hain in postings main. to farmaise ki list lambi hoti ja rahi hai... dekhain ki hamare vineet kya kahte hain. sadan. On 10:47 am 10/12/07 "vineet kumar" wrote: > > ये तो झागवाला है यानि > सिर्फ पत्रकार भइया तो अभी > तक हमने बात की थी कि कैसे > विद्या भवन में देश और > संस्कृति को लेकर समझदारी > बढ़ाने के नाम पर एक पेपर का > पैटर्न कुछ इस तरह तैयार > किया गया है जिसके जरिए > पत्रकारिता को हिन्दूवादी > शक्ल में ढालने की कोशिश > होती है। अपने लगभग एक साल > के मीडिया करियर में कभी भी > इस तरह के ज्ञान की जरुरत > महसूस नहीं हुई और न ही मुझे > लगा कि संस्कृति के नाम पर > वेदों की संख्या रटी जाए। अब > आगे........ कल्चरल हैरीटेज ऑफ > इंडिया की क्लास सिर्फ > शनिवार को हुआ करती थी जिसमें कि एटेंडेंस अनिवार् > य था। भावी पत्रकार बताते > हैʦgt; Ă कि ये सिससिला अब भी > बरकरार > है। वैसे भी इस तरह की क्लासे > ज के लिए एक दिन ही पर्याप्त ऊ> > ٠ŋता। एटेंडेंस की मार से क्ल > ास में खचाखच भीड़ होती और मु > झे लगता कि गौरवशाली आर्य > संʦgt; ĸ्कृति का उद्धार करने के > लिऊ> Ϡहमें तैयार किया जा रहा > है। ʦgt; ćन सब मामलों में मैं > शुरु से > ही उपयोगितावादी किस्म का आऊ> > ƠĮी रहा हूं। सो एकदिन मास्टर > साहब से बोल दिया कि- सर जब इत > ना सबकुछ कराते ही हो तो क्ला > स के बाद कुछ बंटवा क्यों नही > ं देते...कुछ मुंह मीठा करा > दिʦgt; įा करो। तब से मास्टर > मुझे ताʦgt; ġ़ता रहता और क्लास > में एकाध ʦgt; ĸवाल जरुर मुझसे > पूछता। सवाल > पूछता कि किसी पांच उपनिषदोʦgt; > Ă का महत्व बताओ। पांच क्या > मʦgt; Łझे अपने लिए एक भी उपनिषद् कʦgt; ľम के नहीं लगते और मैं चुप मा > र जाता। उस समय वे लेडिसों की > तरफ ऐसे ताकते मानो उनका मखौ > ल उड़ा रहे हों कि ये है तुम्ऊ> > ٠ľरी पसंद, ऐसा लद्धड कि जिसकॊ> > ˠअपनी संसकृति का एबीसी भी नऊ> > ٠ŀं आता। लेकिन लेडिस कहां टू > टूने वाली थी। > सबेस्टियन की एड की क्लास > मुझे छोड़ और किसे समझ आती > थी। दरअसल जितना मैं अपने इस > कोर्स को लेकर कन्प्यूज्ड > था उतना ही बंदा अपनी क्लास > को लेकर। इसलिए अंग्रेजी > में वो जो कुछ भी बांचता > उसका हिन्दी तर्जुमा मैं > टीवी विज्ञापनों से जोड़कर > समझा देता और लेडिस लोग यू > नो आई मीन लगाकर बहस नहीं > करती। मेरे सर्किल में > जितनी भी लेडिस थी उसमें > अमूमन सब सुंदर ही थी। > अंग्रेजी में कुछ के हाथ > एमसीडी स्कूल या फिर बिहार > बोर्ड के कारण तंग थे। कुछ > की अंग्रेजी काफी अच्छी थी > लेकिन वो अंग्रेजी कॉफी > हाउस, रिक्शेवाले का भाड़ा > काटने और छिछोरे किस्म के > लौंडों को सटकाने के समय ही > काम आते। क्लास में आते ही > अंग्रेजी में उनका टावर काम > नहीं करता औऱ नेटवर्क पूरी > तरह गोल। ऐसे में अपनी खूब चलती। तो ऐसे-वैसे, जैसे-तैसे > जो भी कह लें पत्रकार होने कॊ> > उम्मीद बढ़ती जा रही थी। कोऊ> > Рōस पूरे होनेवाले थे। अच्छा, > आजकल मार्केट में अधपके आइटʦgt; > Į की डिमांड ज्यादा है इसलिए > ʦgt; Ġीक इसी समय - ले लीजिए न सर, > दे > ख लीजिए न सर, हो जाएगा न सर वा > ली लाइफ स्टाइल में इन्ट्री > ʦgt; ĕर गया। > इग्जाम भी नजदीक आ रहे थे और > देखते ही देखते गुलजार भवन > मुर्दा सराय बन गया, लोगों > ने आना बंद कर दिया था। ....अब सबसे मुलाकात सिर्फ इग्जामि > नेशन हॉल में ही होते।मेरे > सʦgt; ľरे पेपर बहुत ही अच्छे जा > रहʦgt; Ň थे। आर्टस से था सो > ज्यादा द > िमाग नहीं लगाता। खूब जमकर > लʦgt; Ŀखता, आत्मविश्वास से > लवरेज ऊ> ٠ŋकर। दिमाग में बस > यही होता ऊ> ՠĿ किसी सवाल के उपर > जितना कुऊ> ۠आता है सब लिख डालो > मास्टर कʦgt; ŋ जो-जो पसंद > आएगा,छांटकर नंबʦgt; İ दे देगा। > अब रह गया था सिर्फ एक पेपर > विद्या भवन का सबसे फेवरेट > पेपर। कल्चरल हैरि....। और दिन > होता क्या था कि बंदे लोग और > खासकर लेडिस इग्जाम के पांच > मिनट पहले तक किताबों पर ऐसे > नजर गड़ाती जैसे कुछ दिन > पहले अपनी मॉडल गीतांजलि > दिल्ली की सड़कों पर गड़ाती > नजर आयी थी। लेकिन इस पेपर > में नजारा कुछ बदला-बदला सा > लगा। लोग-बाग खुल्ला घूम रहे > थे, पेपर के बाद क्या करेंगे > इस पर हांक रहे थे। एक लेडिस > जो मुझ पर अक्सर झिड़कती रही > और जिसपर मैं जान छिड़कता > रहा, आज आपही आकर बोलती है, > पेपर के बाद आज मैं तुम्हें > कॉफी पिलांउगी, साथ में > टोमैटो टैंगो लेज भी। > मैडमजी हम तो सिर्फ आपकी > कम्पनी से निहाल हो जाते आप > तो माल भी खर्चेंगे। धन्य है > बाबा कामदेव की माया। चलिए, > ये भी पेपर अपने निर्धारित > समय से शुरु हो गया। सवाल थे, > वही सब जो सब पढ़ाए गए थे या > यों कहिए जो संस्कार डाले गए > थे। वेदों को लेकर, रामायण > के कौनसे पात्र आपको सबसे > अच्छे लगते हैं, और क्यों। > महापुरुषों पर टिप्पणियां > जिसके उपर मैंने ऐसे लिखा कि > वे इतने महान क्यों हैं कि > ये हमारी परीक्षा में सवाल > के रुप में अवतरित हुए। मैं > तो खूब दबाकर लिख रहा था, कुछ > तो चिढ़ से कि -कर चेक बेटा > मेरी कॉपी, कॉपी की वजन > देखकर नंबर देगा औऱ कुछ अपनी > लत भी है बहुत लिखने की। एम.ए > फर्स्ट इयर में कम लिखता था > लेकिन जब सबको कॉपी लेते > देखा तो लूज मोशन शुरु हो > गया था, हर पांच मिनट पर आवाज > आती सर शीट। दूसरे साल मैंने > पढ़ने से ज्यादा लिखने पर > जोर दिया और परीक्षा की कॉपी > को उगलदान बना डाला। यही लत > बरकरार थी। मुझे आधे घंटे > तक ध्यान नहीं था, बाद में जब > खुसुर-फुसुर हल्ले में > कन्वर्ट हो गया तो देखा लोग > आपस में बातें कर रहे हैं। > कोई भवन की अमूल्य किताब > निकाल रहा है। मास्टर > मिमियाकर कह रहा है मत करो > ऐसा भाई लेकिन मॉड लेडिस के > सामने वो भी ज्यादा देर तक > टिक नहीं पाया, फिर तो महौल > परीक्षा से ज्यादा ऐसा था कि > कौन देखकर सबसे बढ़िया लिख > सकता है। मैं लेडिस देखकर > अच्छा बोल सकता हूं लेकिन > किताब देखकर लिख नहीं सकता। > बस दनानद लिखता जा रहा था। > मास्टर ने दरवाजा बंद कर > दिया था और खुद बाहर खड़े हो > गए थे कि कोई आए तो बंदों को > इत्तला कर दें। एकबार मेरे > पास आए और बोले कोई परेशानी > है तो तुम भी देख लो। मैंने कहा डिस्टर्ब न करें जनसत्तऊ> ޠके पाठक से ऐसी बात। हिकारत ʦgt; ĭरी नजरों से उन्हें देखा लगऊ> ͠ė गरियाते हुए और वे इस अंदाऊ> ܠमें कि ये ते झागवाला है। > पेपर खत्म हो गए थे, सारे > लोग इत्मीनान से बाहर गप्पे लड़ा रहे थे, गजब का आत्मसंतो > ष दिखा सबों के चेहरों पर। एक > - दो बंदा मेरी तरफ देखकर तड़ऊ> > ʠरहा था जैसे घर में टीवी पर ह > रीशचंद्र सीरियल आने पर चैनऊ> > Ҡबदलने के लिए तड़प उठता है, ब > दलो इस चैनल को.....अभी तुरंत। ऊ> > ՠʼnफी पिलानेवाली लेडिस दिल्ऊ> > Ҡŀ एनसीआर( है एक बंदा) के साथ ऊ> > Πŋमो खा रही थी। विद्या भवन इऊ> > ؠपेपर के जरिए लोगों को हिन्ऊ> > Ơłवादी पत्रकार तो नहीं बना प > ाया लेकिन अपने धरोहर का > बेहʦgt; Ĥर इस्तेमाल करना सिखा > गया जॊ> ˠकि ज्यादा जरुरी > है।लोगों न > े फोन करके बताया कि विनीत अप > ना रिजल्ट आ गया है लेकिन चार > महीने बाद भी जब रिजल्ट लाने > की सोचता हूं तो पता नहीं क्ऊ> > Ϡŋं मितली सी आने लगती है। From rakeshjee at gmail.com Fri Oct 12 14:08:05 2007 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Fri, 12 Oct 2007 14:08:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWHIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KWLIOCkneCkvuCkl+CkteCkvuCksuCkviDgpLngpYgg4KSv4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KS/IOCkuOCkv+CksOCljeCkqyDgpKrgpKTgpY3gpLDgpJXgpL7gpLA=?= In-Reply-To: <829019b0710112217xdb59a23i1eabc9c7da722559@mail.gmail.com> References: <829019b0710112217xdb59a23i1eabc9c7da722559@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0710120138n6df791afgdd0e09f1bd32297c@mail.gmail.com> विनीत भाई हमेशा की तरह मस्त और दिलचस्प. सदन जी की बात मुझे भी ठीक लग रही है. ऐसा जुल्म न करें. थोड़ा और विस्तार दें. शुक्रिया राकेश On 10/12/07, vineet kumar wrote: > > ये तो झागवाला है यानि सिर्फ पत्रकार > > *भइया तो अभी तक हमने बात की थी कि कैसे विद्या भवन में देश और संस्कृति को > लेकर समझदारी बढ़ाने के नाम पर एक पेपर का पैटर्न कुछ इस तरह तैयार किया गया है > जिसके जरिए पत्रकारिता को हिन्दूवादी शक्ल में ढालने की कोशिश होती है। अपने > लगभग एक साल के मीडिया करियर में कभी भी इस तरह के ज्ञान की जरुरत महसूस नहीं > हुई और न ही मुझे लगा कि संस्कृति के नाम पर वेदों की संख्या रटी जाए। अब > आगे........ * > कल्चरल हैरीटेज ऑफ इंडिया की क्लास सिर्फ शनिवार को हुआ करती थी जिसमें कि > एटेंडेंस अनिवार्य था। भावी पत्रकार बताते हैं कि ये सिससिला अब भी बरकरार है। > वैसे भी इस तरह की क्लासेज के लिए एक दिन ही पर्याप्त होता। एटेंडेंस की मार से > क्लास में खचाखच भीड़ होती और मुझे लगता कि गौरवशाली आर्य संस्कृति का उद्धार > करने के लिए हमें तैयार किया जा रहा है। इन सब मामलों में मैं शुरु से ही > उपयोगितावादी किस्म का आदमी रहा हूं। सो एकदिन मास्टर साहब से बोल दिया कि- सर > जब इतना सबकुछ कराते ही हो तो क्लास के बाद कुछ बंटवा क्यों नहीं देते...कुछ > मुंह मीठा करा दिया करो। तब से मास्टर मुझे ताड़ता रहता और क्लास में एकाध सवाल > जरुर मुझसे पूछता। सवाल पूछता कि किसी पांच उपनिषदों का महत्व बताओ। पांच क्या > मुझे अपने लिए एक भी उपनिषद् काम के नहीं लगते और मैं चुप मार जाता। उस समय वे > लेडिसों की तरफ ऐसे ताकते मानो उनका मखौल उड़ा रहे हों कि ये है तुम्हारी पसंद, > ऐसा लद्धड कि जिसको अपनी संसकृति का एबीसी भी नहीं आता। लेकिन लेडिस कहां > टूटूने वाली थी। > सबेस्टियन की एड की क्लास मुझे छोड़ और किसे समझ आती थी। दरअसल जितना मैं > अपने इस कोर्स को लेकर कन्प्यूज्ड था उतना ही बंदा अपनी क्लास को लेकर। इसलिए > अंग्रेजी में वो जो कुछ भी बांचता उसका हिन्दी तर्जुमा मैं टीवी विज्ञापनों से > जोड़कर समझा देता और लेडिस लोग यू नो आई मीन लगाकर बहस नहीं करती। मेरे सर्किल > में जितनी भी लेडिस थी उसमें अमूमन सब सुंदर ही थी। अंग्रेजी में कुछ के हाथ > एमसीडी स्कूल या फिर बिहार बोर्ड के कारण तंग थे। कुछ की अंग्रेजी काफी अच्छी > थी लेकिन वो अंग्रेजी कॉफी हाउस, रिक्शेवाले का भाड़ा काटने और छिछोरे किस्म के > लौंडों को सटकाने के समय ही काम आते। क्लास में आते ही अंग्रेजी में उनका टावर > काम नहीं करता औऱ नेटवर्क पूरी तरह गोल। ऐसे में अपनी खूब चलती। तो ऐसे-वैसे, > जैसे-तैसे जो भी कह लें पत्रकार होने की उम्मीद बढ़ती जा रही थी। कोर्स पूरे > होनेवाले थे। अच्छा, आजकल मार्केट में अधपके आइटम की डिमांड ज्यादा है इसलिए > ठीक इसी समय - ले लीजिए न सर, देख लीजिए न सर, हो जाएगा न सर वाली लाइफ स्टाइल > में इन्ट्री कर गया। > इग्जाम भी नजदीक आ रहे थे और देखते ही देखते गुलजार भवन मुर्दा सराय बन गया, > लोगों ने आना बंद कर दिया था। > ....अब सबसे मुलाकात सिर्फ इग्जामिनेशन हॉल में ही होते।मेरे सारे पेपर बहुत > ही अच्छे जा रहे थे। आर्टस से था सो ज्यादा दिमाग नहीं लगाता। खूब जमकर लिखता, > आत्मविश्वास से लवरेज होकर। दिमाग में बस यही होता कि किसी सवाल के उपर जितना > कुछ आता है सब लिख डालो मास्टर को जो-जो पसंद आएगा,छांटकर नंबर दे देगा। > अब रह गया था सिर्फ एक पेपर विद्या भवन का सबसे फेवरेट पेपर। कल्चरल > हैरि....। और दिन होता क्या था कि बंदे लोग और खासकर लेडिस इग्जाम के पांच मिनट > पहले तक किताबों पर ऐसे नजर गड़ाती जैसे कुछ दिन पहले अपनी मॉडल गीतांजलि > दिल्ली की सड़कों पर गड़ाती नजर आयी थी। लेकिन इस पेपर में नजारा कुछ बदला-बदला > सा लगा। लोग-बाग खुल्ला घूम रहे थे, पेपर के बाद क्या करेंगे इस पर हांक रहे > थे। एक लेडिस जो मुझ पर अक्सर झिड़कती रही और जिसपर मैं जान छिड़कता रहा, आज > आपही आकर बोलती है, पेपर के बाद आज मैं तुम्हें कॉफी पिलांउगी, साथ में टोमैटो > टैंगो लेज भी। मैडमजी हम तो सिर्फ आपकी कम्पनी से निहाल हो जाते आप तो माल भी > खर्चेंगे। धन्य है बाबा कामदेव की माया। > चलिए, ये भी पेपर अपने निर्धारित समय से शुरु हो गया। सवाल थे, वही सब जो सब > पढ़ाए गए थे या यों कहिए जो संस्कार डाले गए थे। वेदों को लेकर, रामायण के > कौनसे पात्र आपको सबसे अच्छे लगते हैं, और क्यों। महापुरुषों पर टिप्पणियां > जिसके उपर मैंने ऐसे लिखा कि वे इतने महान क्यों हैं कि ये हमारी परीक्षा में > सवाल के रुप में अवतरित हुए। मैं तो खूब दबाकर लिख रहा था, कुछ तो चिढ़ से कि > -कर चेक बेटा मेरी कॉपी, कॉपी की वजन देखकर नंबर देगा औऱ कुछ अपनी लत भी है > बहुत लिखने की। एम.ए फर्स्ट इयर में कम लिखता था लेकिन जब सबको कॉपी लेते > देखा तो लूज मोशन शुरु हो गया था, हर पांच मिनट पर आवाज आती सर शीट। दूसरे साल > मैंने पढ़ने से ज्यादा लिखने पर जोर दिया और परीक्षा की कॉपी को उगलदान बना > डाला। यही लत बरकरार थी। > मुझे आधे घंटे तक ध्यान नहीं था, बाद में जब खुसुर-फुसुर हल्ले में कन्वर्ट > हो गया तो देखा लोग आपस में बातें कर रहे हैं। कोई भवन की अमूल्य किताब निकाल > रहा है। मास्टर मिमियाकर कह रहा है मत करो ऐसा भाई लेकिन मॉड लेडिस के सामने वो > भी ज्यादा देर तक टिक नहीं पाया, फिर तो महौल परीक्षा से ज्यादा ऐसा था कि कौन > देखकर सबसे बढ़िया लिख सकता है। मैं लेडिस देखकर अच्छा बोल सकता हूं लेकिन > किताब देखकर लिख नहीं सकता। बस दनानद लिखता जा रहा था। मास्टर ने दरवाजा बंद कर > दिया था और खुद बाहर खड़े हो गए थे कि कोई आए तो बंदों को इत्तला कर दें। एकबार > मेरे पास आए और बोले कोई परेशानी है तो तुम भी देख लो। मैंने कहा डिस्टर्ब न > करें जनसत्ता के पाठक से ऐसी बात। हिकारत भरी नजरों से उन्हें देखा लगभग > गरियाते हुए और वे इस अंदाज में कि ये ते झागवाला है। > पेपर खत्म हो गए थे, सारे लोग इत्मीनान से बाहर गप्पे लड़ा रहे थे, गजब का > आत्मसंतोष दिखा सबों के चेहरों पर। एक- दो बंदा मेरी तरफ देखकर तड़प रहा था > जैसे घर में टीवी पर हरीशचंद्र सीरियल आने पर चैनल बदलने के लिए तड़प उठता है, > बदलो इस चैनल को.....अभी तुरंत। कॉफी पिलानेवाली लेडिस दिल्ली एनसीआर( है एक > बंदा) के साथ मोमो खा रही थी। विद्या भवन इस पेपर के जरिए लोगों को हिन्दूवादी > पत्रकार तो नहीं बना पाया लेकिन अपने धरोहर का बेहतर इस्तेमाल करना सिखा गया जो > कि ज्यादा जरुरी है।लोगों ने फोन करके बताया कि विनीत अपना रिजल्ट आ गया है > लेकिन चार महीने बाद भी जब रिजल्ट लाने की सोचता हूं तो पता नहीं क्यों मितली > सी आने लगती है। > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ http://haftawar.blogspot.com Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071012/19c36f33/attachment.html From tetra at sarai.net Fri Oct 12 15:49:56 2007 From: tetra at sarai.net (tetra) Date: Fri, 12 Oct 2007 15:49:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Test Message-ID: <470F4A4C.30107@sarai.net> ttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttttt From ravikant at sarai.net Sat Oct 13 17:31:50 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 13 Oct 2007 17:31:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= urdu tools Message-ID: <200710131731.51029.ravikant@sarai.net> dosto, x-posting ke liye maafi chahta hun. yeh jaankaari urducomputing @ yahoogroups se milee hai. try karke dekhen aur batayein kya chalta hai, kya nahin. http://www.crulp.org par yeh sab kuchh hai: -SeaMonkey Urdu Localization -Urdu Normalization API -Nafees Riqa Font (Beta) -Urdu Collation API -Urdu Spell Checker -Urdu Word List -Online Urdu Dictionary -Sindhi English Dictionary -Other Downloads Phir is site par bhi kuchh promising cheezein dikh rahi hain: http://www.khazina.org/ shukriya ravikant From vineetdu at gmail.com Mon Oct 15 10:36:42 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sun, 14 Oct 2007 21:06:42 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSTIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWH4KSV4KS/4KSC4KSXIOCkpuClh+CkguCkl+Clhw==?= Message-ID: <829019b0710142206g344545b6ofb90145158ca54a8@mail.gmail.com> इंडिया टीवी की रिपोर्टर बड़ी तेजी से दिल्ली विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी में घुसती है और साथ में कैमरामैन फटाफट शॉट लेने शुरु कर देता है। कैमरामैन फ्रेम बना रहा है उन किताबों का जो कि जमीन पर बिखरे पड़े हैं। कुछ पुरानी किताबें कुछ नयी किताबें। पीछे से दो चार लड़के चिल्लाते हुए आते हैं और जो रिसर्चर और स्टूडेंट कम्प्यूटर पर काम कर रहे होते हैं उन्हें जबरदस्ती हाथ पकड़कर उठा रहे हैं और कह रहे हैं, आपलोग बाहर जाइए...जल्दी, भगाए जानेवाले में एक मैं भी था, बाहर तो मुझे भी जाना ही था लेकिन बिना कारण जाने बाहर जाना ठीक नहीं समझा, रिपोर्टर की ओर बढा, हम दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह से जानते थे अब तक अमूमन आम मेंला, फूड विलेज और इसी तरह की सॉफ्ट स्टोरी पर काम किया करती थी लेकिन अब चैनल बदलने के साथ मिजाज भी बदल गया। उसे ये तो पता था कि मैं भी डीयू से पढ़ा हूं लेकिन अभी यहां रिसर्च कर रहा हूं ये बात मालूम नहीं थी सो बताने लगी- यहां के रिसर्चर का बहुत ही बुरा हाल हैं , उनपर बहुत ही अत्याचार होता हैं, इनकी कई तरह की मांगे हैं जिसपर प्रशासन ध्यान नहीं दे रही है.....बगैरह-बगैरह। लाइब्रेरी की बदहाली को बताने के लिए तब तक कैमरामैन ने खूब सारे शॉट्स बना लिए थे। रिपोर्टर से बात करते देख लाइब्रेरियन मेरे पास आए और कहने लगे।....सर इन किताबों की जो फोटो ले रहे हैं ये मेम्बर द्वारा लौटाई गई किताबें हैं और दरअसल ये चाहते हैं कि रिसर्चर के लिए भी चुनाव हो इसलिए ऐसा कर रहे हैं। महाशय की सारी बातें रिपोर्टर से ठीक उलट थी जबकि और अपने साथी रिसर्चर से बात की तो उनकी बातों मे और रिपोर्टर की बातों में कोई फर्क नहीं था। तो ये मान लिया जाए कि रिसर्चर सही थे और उस सच का साथ देने आयी थी इंडिया टीवी की रिपोर्टर। इस पूरे मामले में मेरी आपत्ति सिर्फ इस बात पर थी कि आपको इस बात की इजाजत किसने दे दी कि आप चालीस-पचास काम कर रहे लोगों को डिस्टर्ब करके उनके हित में ख़बर दिखाएं और उन भाई साहब को किसने मंत्र दिया कि जिसके लिए काम कर रहे हो उसी को काम के बीच से हाथ पकड़कर बाहर खींचो। मैंने रिपोर्टर से कहा, लाईब्रेरी के लोगों से भी तो बात कर लो, मेरा मतलब है बाइट ले लो, गलत-सही तो बाद में होगा लेकिन एकतरफा स्टोरी तो चलेगी नहीं।.....बात आई गई हो गई और मैडम बाहर आकर देख लेंगें टाइप के लोगों को कवर करने में जुट गयी।....इधर जिन लोगों को काम करते उठाया गया था वे बहुत नाराज थे, सारे कम्प्यूटर के तार खींच दिए गए थे।....बार-बार एक ही बात दोहरा रहे थे कि ऐसा करके चाहेंगे कि हम चुनाव होने पर वोट दें तो ऐसा कभी नहीं होगा। एक ने कहा जरा-सा भी मीडिया सेंस नहीं है जो चैनल सांप-संपेरा दिखाकर लोगों को बरगलाने का काम करता है, उसकी रिपोर्टर को भाई साहब बरगला कर ले आए कि आ जाओ ब्रेकिंग न्यूज मिलेगी....पता नहीं किसी ने ये भी कहा हो कि हम अपने उपर पेट्रोल डालेंगे और आप कवर करके अर्जुन सिंह पर दबाव बनाना। सब चमकना चाहते हैं, सब बहुत जल्दी चमकना चाहते हैं। रिपोर्टर रोतोंरात चमकना चाहती है सेंट्रल लाइब्रेरी पर कच्ची-पक्की स्टोरी चलाकर बिना होमवर्क किए, बिना ये जाने कि सेंट्रल लाइब्रेरी का मेन गेट पिछले तीन-चार महीने से बंद क्यों है, वो चिल्लाता हुआ बंदा रातोंरात पब्लिक फेस वैल्यू पैदा करना चाहता है, विधान-सभा जाना चाहता है। काम कर रहा रिसर्चर किसी भी बात पर प्रशासन का विरोध नहीं करता क्योंकि उसे चमकने की जल्दी नहीं है और कल को उसे सिस्टम के भीतर ही आना है।.....इसलिए अपने-अपने ढ़ंग से शोर-शराबा और हंगामा सब पैदा करते हैं. कल रविवार को जनसत्ता में एक खबर छापी है कि दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधार्थियों में काफी गुस्सा है लेकिन संवाददाता ने ये नहीं बताया कि कौन से शोधार्थियों में गुस्सा है जो काम के बीच उठाए गए थे उनमें या फिर जो पकड़-पकड़कर उठा रहे थे उनमें। लेकिन आगे जिस तरह की मांगों की चर्चा की गई उससे ये साफ हो जाता है कि हाथ पकड़नेवालों का गुस्साना अब भी जारी है और भगाए गए लोगों में अब गुस्सा कहां अब वे घर में ही पढ़ते हैं, एक-दो ने तो अपना कम्प्यूटर खरीद लिया है, वे तो सिस्टम के लिए बने हैं फिर विरोध कैसा। मैडम खोज रही होगी कोई धांसू स्टोरी और किसी ने फिर फोन करके बुलाया होगा कि आ जाओ ब्रेंकिंग देंगे।वैसे भी प्रकाश बनकर चमकने की ललक तो अभी छूटी नहीं, सैंकडों मिल जाएंगे।.... -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-38 Size: 9481 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071014/b410f5c5/attachment.bin From ravikant at sarai.net Mon Oct 15 14:56:43 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 15 Oct 2007 14:56:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= dilchasp lekh Message-ID: <200710151456.43830.ravikant@sarai.net> रविवार डॉट कॉम से साभार: थोड़ी-बहुत बहस की माँग करता है. अरविंद कुमार *सहज समांतर कोश * के कोशकार हैं. और फ़िल्मी पत्रिका माधुरी के यशस्वी संपादक रह चुके हैं. आजकल फिर जमकर स्तंभ लिख रहे हैं. http://www.raviwar.com/news.asp?c1 रविकान्त ------- हिंदीः अगस्त 47 से 07 तक पंडिताऊ जकड़न से मिली मुक्ति अरविंद कुमार पंदरह अगस्त 1947 को मैं साढ़े सतरह वर्ष का उत्साही तरुण था--देशभक्ति और हिंदी प्रेम से भरा था. छापेख़ाने में काम करता था. वहाँ से सरिता का प्रकाशन मेरे सामने 1945 में आरंभ हो चुका था, बाद में मैं उसका सहायक संपादक बनने वाला था, लेकिन 47 में पत्रकारिता से बहुत दूर था. हाँ, अपने कांग्रेस सेवा दल के साथियों के साथ गीता पर चर्चा में मैं ज़रूर कुछ समय बिताता था. भाषा की बारीक़ियों को कम समझता था, लेकिन हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने की चाह थी. चाह थी कि उस में अँगरेजी शब्द कम से कम हों. उर्दू के शब्दों को भी विदेशी मानता था. उर्दू से द्वेष कुछ इसलिए भी था कि जब मेरी साइकिल खो गई थी तो थाने में मेरी हिंदी में लिखी शिकायत स्वीकार नहीं की गई थी--कारण कि उन दिनों सरकारी कामकाज की भाषा उर्दू थी. साथ साथ गाँधी जी के प्रभाव में हिंदुस्तानी का समर्थक भी था. कहना चाहिए मेरे विचा र अपरिभाषित थे, और भ्रमित भी. हिंदी कवि सम्मेलनों और मुशायरों में जाने का शौक़ था. इसलिए भाषा में हिंदी और उर्दू दोनों के संस्कार थे. यूँ भी, उन दिनों रोज़मर्रा की बोली में उर्दू के शब्द काफ़ी होते थे हिंदी औरतों की भाषा मानी जाती थी, या रामायण की, पूजापाठ की. कुछ दोस्त कुछ परिचित जन की रुचि साहित्य में भी थी. मैं भी कविता लिखने की कोशिश करता था. कई साहित्यकारों से भी मुलाक़ात होती थी. उस ज़माने के लेखकों कवियों की और आज के लेखकों की वेशभूषा में जो अंतर है, वही अंतर तब की और अब की भाषा में भी कहा जा सकता था. जीवन जैसी हिंदी तब खद्दर का कुर्ता, धोती, पाजामा, लंबे बाल, मैथिलीशरण गुप्त, हरिऔध, पंत जी की छवि ही सब लेखकों की छवि थी. आज देखिए क्या लेखक, क्या पत्रकार... सब तरफ़ पतलून, जींस, बुशशर्ट, टी शर्ट... तब क़लम, निब वाले पैन, कहीं कहीं फ़ाउनटेन भी होते थे... आजकल बालपैन, कंप्यूटर, ईमेल... आमदनी कम होती थी, जीवन शैली सादी. साइकिल भी कम होती थी, अकसर छोटे शहर थे जिन में पैदल या ताँगों से काम चल जाता था... आजकल के वाहन ही कुछ और हैं...यह जो परिवर्तन है, वैसा ही हिंदी में है. तब हिंदी में पंडिताऊपन था. साहित्यकार उस से उबारने में लगे थे. पत्रकारों के हाथों में हिंदी में नए शब्द आ रहे थे. तब गवा-गवी, गया-गयी चलते थे, अब गया-गई हो गए हैं. तब की पत्नि अब पत्नी है. श्रीमति जी अब श्रीमती जी हैं. छपने के लिए रचनाएँ पतले लंबोतरे काग़ज़ की पट्टियों पर लिखी जाती थीं, ताकि कंपोज़ीटर की स्टि क में सरकाई जा सकें. आजकल कंप्यूटर पर सीधे लिखी जाती हैं. तब हैंड कंपोजिग में ग़लतियाँ बहुत होती थीं, शब्दकोश में भी प्रूफ़रीडिंग की ग़लतियाँ मिलना असंभव नहीं था. अब ग़लतियाँ कितने कम होती हैं ! सेंट्रल कैबिनेट बनाम बिचबिंदु खोली आज़ाद होते ही हिंदी को आधुनिक बनाने के लिए तरह-तरह की शब्दावलियाँ बनाने का ज़िम्मा भारत सरकार ने उठा लिया. एक तरफ़ पंडित सुंदरलाल ने हास्यास्पद हिंदुस्तानी कोश बनाया. उस में सेंट्रल कैबिनेट बिचबिंदु खोली बन गई. दूसरी तरफ़ डाक्टर रघुबीर ने इंग्लिश-हिंदी डिक्शनरी बना कर उलटी दिशा दी. संस्कृत की समृद्ध शब्दावली और व्याकरण को आधार बना कर जो हिंदी शब्द बनाने की दिशा और प्रक्रिया उन्हों ने दी, वह आम पाठक के लिए हास्यास्पद बन गई. लौहपथगामिनी (रेलगाड़ी) और कंठलंगोट (टाई) जैसे रघुबीरी शब्द या उन के मज़ाक़ बनाए गए. यह बात नज़रअंदाज़ कर दी गई कि शब्द जनता बनाती है, कारीगर बनाते हैं, विद्वान नहीं. जो भी हुआ पंडिताऊ जकड़न से हिंदी छूटी, आधुनिक भाषा बनने के रास्ते तलाशने लगी. रघुबीरी से विद्रोह कर आजकल हिंदी में अँगरेजी शब्दों की रेलपेल शुरू हो गई है. सभी अँगरेजी शब्द हमेशा को इस में रहेंगे, ऐसा नहीं है. एक बैलेंस हो कर रहेगा. तकनीकी शब्द का अनुवाद यानी समय बरबाद लेकिन एक बात ज़रूर कही जानी चाहिए- किसी तकनीकी शब्द का अनुवाद करके उसे प्रचलित करने में जितना समय बरबाद जाता है, उतनी देर में कई गुना नए तकनीकी शब्द और पैदा हो जाते हैं. किसी ज़माने में सीडैक में जिस्ट कार्ड और इसफ़ौक फ़ौंट बना कर भारत की सारी लिपियों को जोड़ने वाले, शब्द तकनीक में क्रांति लाने वाले श्री मोहन तांबे ने मुझ से पुणे में एक बार कहा था- भारत सरकार कंप्यूटर भाषा को पूरी तरह हिंदी में करने के लिए जो ज़ोर दे रही है, वह देश के लिए घातक सिद्ध होगा. जब तक हम किसी एक प्रोग्रा म को हिंदी में करेंगे, तब तक बीसियों नए विकसित प्रोग्राम बन जाएँगे, और हम पुराने प्रोग्रामों के हिंदी संस्करण बनाते पाए जाएँगे. अच्छा है कि वह कार्यक्रम अपनी मौत मर गया है. माइक्रोसौ फ़्ट ने वर्ड आदि में इंटरफ़ेस मात्र हिंदी का किया है. भाषा तो सब के पीछे वही कंप्यूटर की डिजिटल भाषा है और मेन कमांड अभी तक अँगरेजी में हैं. दुनिया की भाषा अँगरेजी यहाँ एक बात और ध्यान देने की है. हमारा अँगरेजी विरोध एक पराधीन देश का शासक देश की भाषा के विरुद्ध था. आज हालत बदल चुकी है. अँगरेजी मात्र इंग्लैंड की भाषा नहीं है. वह अमरीका, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों की भाषा है. यूरोप के देश भी अँगरेजी माध्यम से यूरोपीय यूनियन का काम चलाने की कोशिश में हैं. अँगरेजी के कट्टर दुश्मन फ़्राँस तक ने बच्चों को अँगरेजी पढ़ाने की दिशा में क़दम उठाए हैं. इसलिए मैं समझता हूँ कि आज मेरा 47 वाला अँगरेज़ी विरोध बेमानी है. आज अँगरेजी हमारे लिए दुनिया तक पहुँचने की सीढ़ी है. जब निम्न वर्ग के लोग भी निजी उन्नति के लिए बच्चों को अँगरेजी पढ़ा रहे हैं, तो हमारी दैनिक बोली में उस के शब्द आएँगे ही, लेखन में भी, अख़बारों में भी. From alok at devanaagarii.net Mon Oct 15 16:04:18 2007 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Mon, 15 Oct 2007 16:04:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <200710101622.13129.ravikant@sarai.net> References: <635866.61825.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> <200710101622.13129.ravikant@sarai.net> Message-ID: <9f359c1e0710150334r4910e4d0y330c42d11d36c074@mail.gmail.com> रविकांत जी, मुलाकात हुई, समय देने के लिए सार्वजनिक रूप से धन्यवाद। आलोक 2007/10/10, Ravikant : > इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, आलोक जो चंडीगढ़ में हैं, और जल्द ही दिल्ली में होंगे, इस रविवार > को तक़रीबन 11 बजे मेरे घर पर आएँगे और कुछ विचार विमर्श होगा. आपमें से जो सज्जन या सजनी > आना चाहें उनका स्वागत है. बातचीत का ब्यौरा दीवान पर डाल दिया जाएगा. ये वही आलोक हैं, > जिन्हें हिन्दी का पहले ब्लॉगर के उपनाम से भी जाना जाता है - 9.2.11 की बदौलत. > > रविकान्त > > > बुधवार 10 अक्टूबर 2007 13:37 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > > रविकांत जी के साथ ऐसी एक पत्रिका के लिए लगातार बात होती रही और मुझे यह खुशी > > है कि ऐसी पत्रिका व उसके स्वरूप पर चर्चा दीवान मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. > > चर्चा के लिए दीवान मेलिंग लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं हो सकती थी. मैं मानना है > > कि दीवान लिस्ट से बेहतर शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं > > है जहां इतने सारे विषयों पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार हिन्दी में की जाती है. > > > > खैर, रविकांत जी का शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम "नेतृत्व" के लिए रखा. > > नेतृत्व शब्द इतना भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ भयानुभूति भी होने लगी है. > > इसका यह अर्थ न लिया जाये कि मैं काम के किसी बोझ से डरता हूँ या इस काम के > > लिए मेरे पास समय कम है... मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि ऐसी पत्रिका > > के लिए मैं लगातार प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की भांति काम करूंगा... > > > > आपके सुझाव व सहयोग की अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, आकार-प्रकार, > > रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी चीजों पर आपकी राय जरूरी है > > > > > > राजेश रंजन > > > > > > ----- Original Message ---- > > From: zaigham imam > > To: deewan at sarai.net > > Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM > > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > > ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा साहब जो नियमित ब्लागर नहीं है। पत्रिका के शुरूआती > > प्रस्ताव पर हम सब इतने उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? शायद रविकांत जी को > > एकबार फिर अपील करनी पड़े। मुक्तिका अनिमंत्रित सामग्री लौटाने के लिए > > जिम्मेदार नहीं है...कृपया गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका के मिजाज से मेलजोल खाती > > रचनाएं ही भेजें। > > > > > > अनिमंत्रित सामग्री भेजने के लिए आतुर > > जै़गम > > > > > > > > > > On 10/5/07, Ravikant wrote: > > > > दोस्तो, > > > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है > > कि हिन्दी में एक > > > > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > > सामने ला सके. पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर > > मुख्तसर सी चर्चा हुई. इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे > > हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, > > > > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को > > बहस में शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > > आयोजित करके > > > > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब > > संदर्भ बदल गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से > > आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल > > के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > > > > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को > > भी मिलेगा. अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद > > है. > > > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > > हद तक गौरी हमें > > > > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया > > रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि > > शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा > > हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी > > > > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका > > नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को > > भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. > > > > > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > > आपसे आपके वक़्त का दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने > > कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे > > पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी > > > > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > > सामाग्री रख सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, > > संपादन और हो सके > > > > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे > > ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में हैं. > > > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > > होना ही चहिए. > > > > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > > जो सहज ही याद आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी > > गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त > > प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > > > > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > > सहयोग भी हमें मिलेगा. इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने > > लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का > > परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > > > > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > > करते हुए, उसे भी अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, > > वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते > > हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना > > > > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना > > जाए तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले > > में हम संकीर्णता न बरतें तो सबका भला होगा.... > > > > > > सहयोग की अपेक्षा में > > > > > > रविकान्त + राजेश रंजन > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > > From: Rajesh Ranjan < > > rajeshkajha at yahoo.com> > > To: Ravikant > > > > रविकांत, > > > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > > > > > आपका > > राजेश > > > > > > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > > > > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > > > > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > > १. औजार > > > > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > > ख. मोबाइल > > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > > घ. कैमरा > > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > > > > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > > ई-लोकतंत्र > > > > > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > > > > ___________________________________________________________________________ > >_ > > > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > > > ------------------------------------------------------- > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > ___________________________________________________________________________ > >_________ Fussy? Opinionated? Impossible to please? Perfect. Join Yahoo!'s > > user panel and lay it on us. > > http://surveylink.yahoo.com/gmrs/yahoo_panel_invite.asp?a=7 > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From rakesh at sarai.net Tue Oct 16 16:37:25 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Tue, 16 Oct 2007 16:37:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSv4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KSkIOCkpOCljeCksOCkvuCkuOCkpuClgCDgpJXgpYcg4KSt4KSv4KS+4KS1?= =?utf-8?b?4KS5IOCkheCkteCktuClh+CktyBJSQ==?= Message-ID: <47149B6D.9010706@sarai.net> *सपाटु वाली दाई का अंगना * बहुत दिनों बाद मैं गांव में था. अपने एक भाई के साथ मैं किसी दिशा में निकल रहा था. सपाटु वाली दाई के घर के बग़ल से गुज़र रहा था कि आवाज़ आयी, ‘डिट्टू तनी एन्ने आबे त (डिट्टू थोड़ा इधर आओ)’. ये आवाज़ कीचड़ में सनी एक 13-14 साल की लड़की की थी. डिट्टू ने बताया कि ये दाई की पोती है. मैं भी डिट्टू के सा‍थ उनके आंगन में गया. दाई अपने आंगन से कीचड़ साफ़ कर रही थी और वो लड़की डोल (छोटी बाल्टी) से आंगन का पानी निकाल रही थी. पूछने पर पता चला कि वो कीचड़ पिछले तीन महीनों के जल-जमाव का असर है. दाई का छोटा लड़का रमेश जो रिश्ते में चाचा हैं, दीदी के साथ पढ़ते थे – चारपाई पर बैठे थे. कहा, ‘यहां रहते तुम तब पता चलता कि तीन महीना कैसे गुजरा है लोगों का इस गांव में. बाईस दिन लगातार मुसलाधार बारिश. साग-सब्ज़ी के लिए लोग तरस गया. आना-जाना सब बंद था. देख रहे हो न कि आज तक किस तरह कीचड़ जमा है...’ बात ख़त्म भी नहीं हुई थी कि दाई बोल पड़ी, ‘तीन महीना से जोना घर में सुतई जाई छई लोग ओही में खनो बनई छई. ओहु में कखनियो एन्ने से त कखनियो ओन्ने से टप-टप पानी टपकइते रहलई (तीन महीने से उसी घर में खाना बन रहा है जिसमें सब सोते हैं. उस पर भी कभी इधर से तो कभी उधर से, पानी टपकता ही रहा).’ जिस चूल्हे पर उनका खाना बनता था, आंगन में अब वो जीर्ण-शीर्ण हालत में है. दाई की पोती ने पहले डोल से बचा-खुचा पानी निकाला और उसके बाद दाई अब कीचड़ पर हाथ फेर रही थी. लिपाई कर रही थी. आंगन के चारो तरफ़ यानी टाट-फूस की झड़ी दीवार, नीचे की तरफ़ पर्याप्त सीलन और कहीं-कहीं जमी काई इस बात की गवाही देते हैं कि पानी में ये भी डूबे हुए थे. असोरा (गैलरी) की मिट्टी भी धंस रही थी. उस पर कुछ ईंटें रखी हुई थी, जिस पर पांव रखकर बारिश के दिनों में उनके घर के लोग एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते थे. आंगन के बाहर जो चापाकल है उसका नीचला सिरा भी पानी में डूबा हुआ था. चापाकल से दो कदम दूर एक गबरा (गंदे पानी का जमाव) है जो उस दौरान उपट गया था. यानी उसका पानी भी आंगन में आया होगा. सहज ही अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कितना मुश्किल रहा होगा उस चापाकल से पानी लेना और उसका इस्तेमाल करना! आज भी सड़ांध आती है आंगन से. तमाम तरह के किटाणुओं और गंदगी के साथ जमे रहे दाई के परिवार वाले. दाई का घर और दरवाज़ा अच्छे दिनों में ख़ुशबूदार फूलों से महकता रहता था. बचपन के दिनों में हम चोर-सिपाही खेलते हुए उनके आंगन में छुपने चले जाया करते थे. दाई के चेहरे पर अब झुर्री आ गयी है. चौदह-पन्द्रह साल पहले नहीं थी. बस समानता एक ही है उनके तब और अब के चेहरे में. जितने सफ़ेद बाल तब थे उनके आज भी कमोबेश उतने ही हैं. दाई बच्चों में अपने उस सपाटु (चीकू) के पेड़ के कारण बहुत लोकप्रिय थीं जिसके बारे में तब ये सुना करता था कि ‘बरमसिया’ (बारहों महीने फलने वाला) है. वैसे तो दाई हम बच्चों को सपाटु ज़रूर देती थीं लेकिन न देने की स्थिति में बच्चे उनके सामने ही ढेले से तोड़ने से नहीं डरते थे. तब दाई बच्चों के पीछे दौड़ पड़ती थीं और जो बच्चा उनकी पकड़ में आ जाता था उसे उसकी मां के पास ले जाती थीं और शिकायत करती थीं. पीटती नहीं थीं. वो काम अकसर बच्चों की मां कर दिया करती थीं. बहुत दिन हुए उस पेड़ के कटे. शायद ऐसी ही किसी बारिश में या बाढ़ के दिनों में जलावन के लिए उसे काटा गया होगा. पता नहीं इस बरसात में दाई ने जलावन का इंतजाम कैसे किया होगा! From rakesh at sarai.net Tue Oct 16 16:48:41 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Tue, 16 Oct 2007 16:48:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KSv4KS+4KSo?= =?utf-8?b?4KSVIOCkpOCljeCksOCkvuCkuOCkpuClgCDgpJXgpYcg4KSt4KSv4KS+4KS1?= =?utf-8?b?4KS5IOCkheCkteCktuClh+Cktw==?= Message-ID: <47149E11.5050301@sarai.net> आंखें मलते हुए जब सुबह उठा तो कम्बल-तकिए वाले ने कहा, 'सर पटना जंक्शन उतरिएगा न ? बस आ गया, सामान तैयार कर लीजिए.' फटाफट अंगौछा बैग में घुसेड़ा और बेसिन पर जाकर आंखों में पानी झोंका. रेल प्लेटफ़ॉर्म पर आ चुकी थी. ग़लती से सामने की तरफ़ निकल गया. बस स्टैंड के लिए ऑटो नहीं मिल रहा था. दो-एक ऑटो वाला राजी भी हुए तो ज़्यादा पैसे की मांग की. आखिरकार एक रिक्शावाले ने बताया, 'इस सामने जो गल्ली देख रहे हैं, उधरे से निकल जाइए. ओ पार ढेर टेम्पु वाला मिलेगा.' वही किया. ऑटो भी मिला और मैं बस स्टैंड आ गया. मधुवनी जयनगर आवाज़ लगाते एक कंडक्टर/हेल्पर ने पूछा, 'कहां? कहां जाना ?' मुज़फ़्फ़रपुर सुनने के बाद उसने कहा, 'आइए-आइए. समुच्चा सीट त खालिए है. बइठिए, बस अब चलने ही बाली है. टाइम हो गया है.' मैं दाखिल हो गया. थोड़ी देर में एक आदमी आया और मेरे सामने उस बक्से को खोलकर उसने एक सीडी की पन्नी रखी जिसमें टेलीविज़न रखा था. एक-बार बग़ल में रखे रिमोट से कुछ-कुछ करने के बाद उसने कहा, 'कहां है साला सोहना, बहानचोद मोबाइल चार्ज करता है, अब इ सीडी चलिए नहीं रहा है.' चंद सेकेण्ड में ही वो आदमी आ गया और यह जानकारी ले लेने के बाद कि दिक़्क़त क्या है, अपनी उस्तादी करने लगा और सीडी चालू. दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे हाजीपुर तक मैंने भी देखा. बीच-बीच में कभी-कभार ध्यान इधर-उधर गया वर्ना बड़ी तल्लीनता से देखता रहा था. हाजीपुर में दाखिल होते ही बड़ी त्रासदी के अवशेष दिखने लगे. रेलवे क्रॉसिंग के ठीक बग़ल मे जो नवोदय विद्यालय है, उसके हाते में अब भी 3-4 फ़ीट के क़रीब पानी जमा था. आगे बढ़ने पर देखा - जेल और कचहरी परिसर जलमग्न. थाना भी सड़क पर ही. मेज़-कुर्सी लगाकर बैठे दारोगा साहब और उनके अगल-बगल खड़े दो-चार सिपाही. कहीं-कहीं सड़क पार करता पानी का धार. ये तब की बात है जब लोग कह रहे हैं बाढ़ समाप्त हो गया है. 75-80 किलोमीटर की दूरी तय करने में बस को क़रीब साढे तीन घंटे लगे, और ऐसा भी नहीं कि पूरा रास्ता ख़राब हो. जगह-जगह जाम. सड़क किनारे बसे कुछ टोलों और गांवों को देखकर बेहद हैरानी हुई. पांच फ़ीट से भी ज़्यादा पानी में कुछ खड़े और कुछ लुढ़के टाट-फूस के घर. किसी की छप्पर झुकी हुई तो किसी की पानी में औंधी पड़ी. लोग कहां गए, सीट पर बैठा सोचता रहा. पर जब कहीं-कहीं सड़क किनारे साड़ी, लुंगी और कटी-फटी प्लास्टिक से तनी सिरकियां दिखीं तो लगा जिन्दा हैं लोग शायद. कहीं-कहीं ऐसी सिरकियां रेलवे लाइनों के किनारे भी दिखे. दरअसल, रेलवे लाइन ही सबसे उंची जगह नज़र आ रही थी. मुज़फ़्फ़रपुर पहुंचने से थोड़ी देर पहले इन दृश्यों को कैमरे में क़ैद करने की बात ध्यान आयी. पर काफ़ी देर हो चुकी थी और कई बार लगा कि मैं उल्टी तरफ़ बैठा हूं. फिर भी एक-आध तस्वीरें ले पाया, जो इस पोस्ट के साथ लगा रहा हूं. क्रमश: From rakesh at sarai.net Tue Oct 16 16:54:26 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Tue, 16 Oct 2007 16:54:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS54KWH4KSC?= =?utf-8?b?IOCkpOCliyDgpI/gpJUg4KSo4KSC4KSs4KSwICE=?= Message-ID: <47149F6A.2030307@sarai.net> प्रिय दोस्तों हाल की बिहार यात्रा के कुछ अनुभव आपसे साझा कर रहा हूं. कुछ किस्तें और आएंगी. सलाम राकेश ये है जी पटना रेलवे जंक्शन के आसपास का. हुआ यूं कि मैं अपने एक मित्र से मिलकर बेली रोड से वापस रिक्शे से आ रहा था. रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. यानी ये रास्ता वो वाला नहीं था जिधर से मैं बेली रोड गया था. न इन्कम टैक्स गोलम्बर आया, न मंडल और न ही वीमेंस कॉलेज ... हां तो मैं कह रहा था कि रिक्शावाले ने कहीं बीच से निकाल लिया. मुझे जब ये एहसास हुआ कि ऐसा कुछा हुआ है तो मैंने उनसे पूछा. उन्होंने कहा, ‘आरे सर, सौटकट ले लिए हैं. जल्दी पहुंच जाइएगा अन्ने माहे, वोइसे भी हमलोग का सब दिन का काम है न इ. कुछो गड़बड़ नहीं होगा.’ मैंने कहा, ‘वो तो ठीक है लेकिन हमको किसी मार्केट जैसी जगह के बगल से निकलना था, जहां खाने-पीने की दुकान हो.’ ‘त पहिले बताते न! आच्छा चलिए आगे मिलेगा खाने-पीने का दोकान’ कहकर वह पै‍डल मारता रहा. बिल्कुल अंधेरा तो नहीं लेकिन अनजान जगह के हिसाब से खलने वाला ज़रूर था. पर जब रास्ते में जब कुछ मंत्रियों के घर और विधान सभा तथा विधान परिषद के स्टाफ़ क्वार्टर्स दिखे तब तसल्ली हुर्इ. कहां तो पटना जंक्शन के आसपास का एक अनुभव बांट रहा था और कहां मैं रिक्शायात्रा का वर्णन करने लगा. हां तो लौटा जाए जंक्शन के आसपास. पर रिक्शे से ही तो आना है. रिक्शे की गति से ही तो पहुंचना हो पाएगा. मैं रिक्शा पर बैठे-बैठे सड़क पर इधर-उधर खाने और ‘पीने’ के ठिकाने तलाश रहा था. ढंग का एक भी नज़र नहीं आया, रिक्शा ज़रूर हनुमान मंदिर के आसपास पहुंच चुका था. मैंने रिक्शा चालक से कहा, ‘अभी स्टेशन मत ले चलिए, समय है गाड़ी में.’ अब खाने-‘पीने’ के बजाय मेरी दिलचस्पी केवल ‘पीने’ में रह गयी थी. इशारे से पूछा, ‘किधर है पीने की दुकान’. उन्होंने मुंह और संकेत के सहारे दायीं तरफ़ गली में बताया. मैंने कहा, ‘वहीं ले चलिए रिक्शा.’ एक दुकान के सामने पहुंचकर उन्होंने रिक्शा रोक दिया और अपने आप ही बोलने लगे, ‘का जाने काहे बंद किया है दोकनिया आज?’ तब तक अगल-बगल खड़े, बैठे, पसरे हुओं में से किसी ने कहा, ‘ईद है न आज, एही ला बंद है दोकान. ओन्ने चले जाइए ओ गलिया में. पान दोकान के बग़ल में मिल जाएगा. जे चाहिएगा उहे मिल जाएगा.’ गज़ब! एक बंद दुकान के बाहर चहलकदमी करते कुछ लोग. कुछ लोग आसपास फ़ुटपाथ पर लकड़ी से घिरे स्थान में रखे बेंचों पर विविध रंगों वाले पानी के साथ इत्मीनान से बैठे थे. कहीं से आवाज़ आयी, ‘कउ ची चाहिए?’ मैंने अपनी ज़रूरत बतायी और प्रश्नवाचक के हाथ में सौ का एक नोट थमाया.’ नोट को पुन: मेरी हथेली पर रखते हुए उसने इशारे से वो जगह बता दी जहां ये देकर कुछ लेना था. 8x8 इंच से आसपास के एक छिद्र से समस्त कार्रवाई संचालित की जा रही थी. अंदर बल्व की पीली रौशनी में एक व्यक्ति ये काम कर रहे थे. औरों की तरह मैंने भी उनसे अपनी ज़रूरत बतायी, पैसे दिए. चंद सेकेंड में चेहरे पर दिव्य मुस्कान और उससे भी ज़्यादा हृदय ने एक विशेष प्रकार की संतुष्टि का एहसास किया. यहां दिल्ली में तो ड्राई डे वाले दिन आजकल बहुत दिक़्क़त होने लगी है. पहले मजनूं का टीला में आसानी से मिल जाता था पर अब तो घर-घर पूछना पड़ता है. मिलता भी है तो दूनी क़ीमत अदा करने पर और फिर भी ‘माल’ की असलीयत पर संदेह बना ही रहता है. उस छिद्र से तो केवल 3 रुपए अतिरिक्त पर ही तरल मिल गया था और कहें तो ‘एक नंबर’! From rakesh at sarai.net Tue Oct 16 16:59:17 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Tue, 16 Oct 2007 16:59:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSyIA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkquClh+CknyDgpJXgpL4g4KSG4KSV4KS+4KSwIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KSi4KS8IOCknOCkvuCkpOCkviDgpLngpYg=?= Message-ID: <4714A08D.1070500@sarai.net> मित्रों एक और यात्रा संस्मरण झेलें. सलाम राकेश अजायबपुर स्टेशन, उत्तरप्रदेश 15 अक्टूबर 2007 15 मिनट से अजायबपुर स्टेशन पर गाड़ी खड़ी है. इससे पहले दनकौर स्टेशन पर 25 मिनट से भी ज़्यादा देर तक यह खड़ी रही थी. कुप्पियों में बैठे यात्रियों के सेलफ़ोन की घंटियां रह-रहकर बज रही हैं. कुछ रिंग टोन्स तो बेहद कर्कश हैं जबकि कुछ बेहद मीठी धुनें सुना रहा है. मैंने तो दनकौर में ही अपना लैपटॉप निकाल लिया था. आते-जाते नेटवर्क के बीच कभी जीमेल पर तो कभी सराय.नेट पर मेल चेक कर रहा हूं और रह-रहकर डायरी भी लगता हूं. हमारे बाद वाली कुप्पी में पटना से चढ़ी उस युवती ने जब अपने नोकिया सेट पर ज़ोर-ज़ोर से गीत सुनाना आरंभ कर दिया जो देर रात तक डिब्बे में इधर से उधर करती रही थी, तब मैंने भी मीडिया प्लेयर खोल लिया. इस वक़्त ‘छोर दो आंचल, ज़माना क्या कहेगा ...’ सुन और सुना रहा हूं. लंबी यात्रा में रेल देर होने पर सवारियों की जो स्थिति होती होगी, इस वक़्त वही हो रही है. अपने रिश्तेदारों को फ़ोन मिलाना, उन्हें दिलासा दिलाने के अंदाज में ख़ुद को तसल्ली देते हमसफ़रों का चेहरा मुझे एक-सा ही लग रहा है. इस बीच कई और रेल आयी और सांय से चली भी गयी. हम अजायबपुर में ही अजायबघर की चीज़ों की तरह पड़े हैं. मैं तो चाय नहीं पीता पर पीने वालों को ठंडी ही मिल रही है, क्योंकि इस गाड़ी में रसोर्इयान नहीं है. किसी स्टेशन से खाने-पीने की चीज़ें उठा ली जाती है और उसके बाद चाय गरम ..., ब्रेड कटलेट, अंडा ब्रेड टाइप की रटंती चालू. मैं यहां जब ये लिख रहा हूं, अचानक मेरी नज़र सामने वाली खिड़की से बाहर उस दुकान पर चली गयी जहां बड़े-से थाल में केसरिया रंग की जलेबियां सजा कर रखी हुई हैं और हलवाई अभी कोई और चीज़ छान रहा है. शायद समोसा या कोइ नमकीन. अपने जी से बाहर आ रहे पानी को जबरदस्ती वापस जी पार करना पड़ रहा है. डर लग रहा है, किसी तरह कूद के दुकान पर चला जाउं और इस बीच में रेल चल पड़ी तो ... वैसे मेरा तज़ुर्बा ये कहता है कि रेल यात्राओं के दौरान ख़ास तौर से लोगों के पेट का आकार बढ़ जाता है, उन्हें भूख ज़्यादा लगने लगती है, पाचन शक्ति ख़ूब शक्तिशाली हो जाती है. तभी तो चने-मुंगफली से लेकर भांति-भांति के आकार-प्रकार वाले कटलेट्स, हर तरह के गरमागरम पकवान : खाते ही रहते हैं लोग. बुरा हो इस एसी डिब्बों की खिड़कियों का कि इसके सवारियों को खाने-पीने की ऐसी बहुत से चीज़ों से महरूम रहना पड़ता है. वही राजधानी जो हमारे गरीब रथ के बाद चलने वाली थी पटना से, अजायबपुर में हमें पछाड़ गयी. लगता है अभी इस गरीब रथ को और पछाड़ खिलाया जाएगा, क्योंकि अब भी इसमें कोई हलचल नहीं हो रही है. अच्छा पिछली रात की एक घटना बताता हूं. बक्सर से आगे बढ़ने पर मैंने अपना लैपटॉप निकाल लिया और ई मेल वगैरह देखने लगा. इतने में बग़ल वाली कुप्पी से एक अधेड़-से सज्जन आए, मेरा कंधा थपथपाया और कहा, ‘सर इंटरनेट चल रहा है?’ ‘जी’ कह भी नहीं पाया था मैं कि उन्होंने चेहरे पर ‘तात्कालिक शालीनता’ की एक छोटी सी चदरी लपेटे कहा, ‘पता चल जाएगा कि सेन्सेक्स की क्या स्थिति है?’ पल भर के लिए मैं फ़्रीज़ हो गया. ‘होश’ में आया तो नेट की गति का जायजा लिया और बोला, ‘सर नेट चल तो रहा है, पर काफ़ी धीमा है. इस वक़्त तो नहीं लेकिन आगे चल कर यदि स्पीड ठीक हुई तो मैं ज़रूर आपकी मदद कर पाउंगा. हक़ीक़त ये है कि सेन्सेक्स सुनते ही मैं तहे दिल तक जल चुका था. जनाब ने ये भी नहीं सोचा कि सेन्सेक्स का उठान-गिरान, उसकी कबड्डी उनके लिए व्यवसाय है उससे किसी और को भला क्यों दिलचस्पी होने लगी. बहरहाल, जनाव अपनी जगह पर वापस लौट गए और मैं फिर से ब्लॉग-विचरण में लग गया. पर नेटवर्क का नॉटवर्किंग के सिद्धांत पर अपनी मर्जी से आना-जाना लगा रहा. From beingred at gmail.com Thu Oct 18 01:19:00 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 18 Oct 2007 01:19:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSuIOCkueCkruCksuCkvuCkteCksOCli+CkgiDgpJXgpYAg4KSy?= =?utf-8?b?4KWC4KSf4KSq4KS+4KSfIOCklOCksCDgpIXgpKjgpY3gpK8g4KSQ4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KS+4KS44KS/4KSVIOCkpOCkpeCljeCkrw==?= Message-ID: <363092e30710171249o6a97aa7fy79d5f2920ca98b6a@mail.gmail.com> मुसलिम हमलावरों की लूटपाट और अन्य ऐतिहासिक तथ्य राम के अस्तित्व, सांप्रदायिक राजनीति और इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर प्रख्यात इतिहासकार प्रो राम शरण शर्मा के व्याख्यान की छठी किस्त में इतिहासकारों द्वारा अपनायी गयी त्रुटिपूर्ण और एकांगी इतिहास दृष्टि की चर्चा की गयी है. प्रो राम शरण शर्मा आरंभिक मध्यकालीन बिहार की विभिन्न प्रतिमाएं स्पष्ट रूप से यह संकेत करती हैं कि बौद्धों और ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों के बीच खुला और हिंसक टकराव रहा था. इन प्रतिमाओं में अपराजित सहित कई बौद्ध देवताओं को शैव देवों को पैरों से रौंदते हुए चित्रित किया गया है. धर्मग्रंथों में यह टकराव बौद्धों के खिलाफ शंकर द्वारा व्यापक पैमाने पर चलाये गये अभियान में प्रतिबिंबित होता है. यह सोचना गलत होगा कि बौद्धों का इस देश से सफाया केवल इस वजह से हुआ कि उनके खिलाफ वैचारिक प्रचार किया गया था. ऐसा लगता है उनका बाकायदा उत्पीड़न किया गया था. इससे उनके सामने केवल दो विकल्प बच रहे थे. या तो वे भाग कर दूसरे देशों में चले जायें या फिर सामाजिक विषमताओं से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम धर्म अपना ले. विचार करने की बात है कि भारत में धर्म के रूप में इस्लाम केवल उन क्षेत्रों में ही पैर जमा सका जो बौद्ध धर्म के मजबूत गढ़ थे. यह बात कश्मीर, उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र, पंजाब और सिंध के बारे में सच लगती है. उसी तरह नालंदा (बिहार शरीफ), भागलपुर (चंपारण) और बांगलादेश में, जहां बौद्ध काफी संख्या में रहते थे, मुसलिम आबादी है. बौद्ध भारत से वस्तुत: गायब क्यों हो गये इस बात को केवल इस आधार पर ही स्पष्ट नहीं किया जा सकता कि उनका धर्म आंतरिक तौर पर परिवर्तित हो रहा था. इस प्रश्न पर विचार करने के लिए उनके प्रति मध्यकालीन हिंदू शासक वर्गों और धार्मिक नेताओं के दृष्टिकोण पर ध्यान देना होगा. जैनियों का भी उत्पीड़न किया जाता रहा था. लखनऊ संग्रहालय में रखी जैन देवी देवताओं की कई प्रस्तर मूर्तियां, विरूपित अवस्था में मिली हैं. स्पष्टत: ही यह काम इन मूर्तियों को वैष्णव जामा पहनाने के लिए कुछ वैष्णवों द्वारा किया गया था. जैनियों ने अपने कर्मकांडों और सामाजिक रीति-रिवाजों को काफी हद तक संशोधित करके, अपने को प्रभुत्वशाली ब्राह्मणवादी जीवन पद्धति के अनुरूप ढाल लिया. इस बात पर जोर देना गलत होगा कि हिंदू एक समेकित समुदाय थे. जाने-माने पुनरुत्थानवादी और मुस्लिम विरोधी इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार तक इस बात को मानते हैं कि हिंदू शासक वर्ग की कतारों में एकजुटता का अभाव था और वे अंतर्विरोधों से बुरी तरह ग्रस्त थे. उन्हें यह बात बहुत ही दुखद लगती है कि जब एक हिंदू राज्य पर मुसलमानों ने हमला किया तो एक पड़ोसी हिंदू राजा ने इस अवसर का लाभ उठा कर पीछे की तरफ से उस राज्य पर वार किया. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल, खंड-5, प्रस्तावना, पृष्ठ 14-16). पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार , पांच _____________________________________ विंध्याचल के दक्षिणवर्ती क्षेत्र तक में मुस्लिम खतरे को इतना कम करके आंका गया कि दक्कन के शक्तिशाली यादव शासकों ने गुजरात के चालुक्यों पर दक्षिण से ठीक उस समय हमला बोल दिया जब वे उत्तर में आये मुस्लिम हमलावरों के साथ जीवन-मरण के संघर्ष में लगे थे (वही पृष्ठ 14). हिंदू धार्मिक नेताओं के बीच सांप्रदायिक असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण अयोध्या के मध्यकालीन इतिहास से लिया जा सकता है. जब तक औरंगजेब का शासन था, उसके लौह हस्त के नीच अयोध्या में सब कुछ शांत रहा. पर 1707 में उसकी मृत्यु के बाद हम वहां शैव संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के संगठित दलों के बीच खुला और हिंसक टकराव देखते हैं. इन दोनों के बीच विवाद का मुद्दा यह था कि धार्मिक स्थलों पर किसका कब्जा रहे और तीर्थयात्रियों को भेंट और उपहारों में प्राप्त होनेवाली आय किसके हाथ लगे. 1804-05 की एक पुस्तक से इन दोनों संप्रदायों के बीच होनेवाले हिंसक टकरावों के बारे में उद्धरण दिये जा सकते हैं : उस समय जब राम जन्म दिवस का अवसर आया, लोग बड़ी संख्या में कौसलपुर में एकत्र हुए. कौन उस जबर्दस्त भीड़ का वर्णन कर सकता है. उस स्थान पर हथियार लिये जटाजूटधारी और अंग-प्रत्यंग में भस्म रमाये असीमित(संख्या में) संन्यासी वेश में बलिष्ठ योद्धा उपस्थित थे. वह युद्ध के लिए मचलती सैनिकों की असीम सेना थी. वैरागियों के साथ लड़ाई छिड़ गयी. इस लड़ाई में (वैरागियों को) कुछ भी हाथ न लगा क्योंकि उनके पास रणनीति का अभाव था. उन्होंने वहां उनकी ओर बढ़ने की गलती की. वैरागी वेशभूषा दुर्गति का कारण बन गयी. वैरागी वेशभूषावाले सारे लोग भाग खड़े हुए उनसे बहुत दूर (यानी संन्यासियो से) उन्होंने अवधपुर का परित्याग कर दिया. जहां भी उन्हें (संन्यासियों को) वैरागी वेष में लोग नजर आते, वे उन्हे भयावह रूप से आतंकित करते. उनके डर से हर कोई भयभीत था और जहां भी संभव हो सका लोगों ने गुप्त स्थानों में शरण ली और अपने को छिपा लिया. उन्होंने अपना बाना बदल डाला और अपने संप्रदाय संबंधी चिह्र छिपा दिये. कोई भी अपनी सही-सही पहचान नहीं प्रकट कर रहा था. (हैंसबेकर, अयोध्या, गोरनिंगनन, 1986, पृष्ठ 149 में श्रीमहाराजचरित रघुनाथ प्रसाद से उद्धृत) उक्त उद्धरण मध्यकालीन धार्मिक हिंदू नेताओं द्वारा सहिष्णुता बरतने के मिथक का भंडाफोड़ कर देता है. हम लक्षित कर सकते हैं कि सदियों के मतारोपण से एक समेकित हिंदू समुदाय का निर्माण नहीं हुआ. आज तक भी तथाकथित अनुसूचित जातियां पशुओं का मांस खाती हैं, जिनमें गायें भी शामिल हैं तथा कुछ मामलों में अपने मृतकों को दफनाती तक हैं. उत्पीड़ित वर्गो की ठीक यही वह कोटि है, जिसे महात्मा गांधी ने हरिजन की संज्ञा दी थी और बिहार और अन्यत्र गांवों में जिनके मकानों को मुख्यत: आर्थिक कारणों से जला कर राख कर दिया जाता है और जिनके परिवार के सदस्यों को भून डाला जाता है. एकदम हाल में जब बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोगों ने दक्षिण में ईसाई धर्म अपनाने का फैसला किया तो इससे हिंदुत्व के तथाकथित संरक्षकों के बीच बड़ा कोहराम मच गया. इसी तरह, पुराणपंथियों के हिंसक प्रचार के बावजूद, मुसलमानों को समेकित समुदाय नहीं माना जा सकता. भारत में और अन्यत्र शियाओं और सुन्नियों के बीच खूनी टकराव सर्वविदित है. ईरान और इराक के बीच लंबे समय तक चले खूनी टकराव की तो चर्चा ही क्या. भारत में बहुत से ऊंचे दर्जे के और संपन्न मुस्लिम परिवार, हिंदुओं के उच्चतर तबकों और संपन्न परिवारों की तरह ही जुलाहों, पंसारियों और मुसलमानों के अन्य तथाकथित निम्न समुदायों को नीची नजर से देखते हैं. दंगा जांच आयोग की रिपोर्टो से पता चलता है कि दंगों के दौरान हिंदू और मुसलिम दोनों संप्रदायों के निम्न तबकों के लोग ही बड़ी संख्या में उत्पीड़न और खून-खराबों के शिकार बनते हैं. रमेशचंद्र मजूमदार मुसलमानों को हिंदुओं के साथ अनवरत रूप से वैरभाव में लिप्त एक समेकित धार्मिक समुदाय मानते हैं. महमूद गज़नी और तैमूर का भूत ऐतिहासिक रूप से उन्हें संत्रस्त किये रहता है. जैसाकि वह कहते है- 400 वर्ष पहले सुलतान महमूद के समय से भारत में कभी भी हिंदुओं के सोचे-समझे तौर पर किये गये ऐसे नृशंस हत्याकांड नहीं देखे गये (जैसेकि तैमूर के समय में). उसके धर्मोन्मादी सैनिकों ने अनियंत्रित हिंसा और बेरोक बर्बरता बरपा करने में कल्पना के सारे बांध तोड़ दिये और उसकी चरम सीमा वह थी, जब दिल्ली के मैदानों के बाहर एक लाख हिंदू कैदियों का नृशंस नरमेध रचाया गया. एक ऐसी घटना, जिसकी दुनिया के इतिहास में कोई मिसाल नहीं (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपुल, प्रस्तावना, पृष्ठ-24). ऐसे वक्तव्य महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी और समरकंद के तॅमूर द्वारा मुस्लिम जन समुदाय और मध्य एशिया के शासकों पर ढहाये गये कहर को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. उनका मुख्य उद्देश्य था दूसरे देशों की लूटपाट करना, अपना खजाना भरना तथा अपनी संपदा में वृद्धि करना. जब महमूद गजनी और मोहम्मद गौरी ने भारत पर चढ़ाई की, तब उसके आक्रमण के शिकार क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी वस्तुत: अस्तित्वहीन थी. लेकिन 10वीं-11वीं शताब्दियों तक लगभग पूरा मध्य एशिया इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो चुका था और फिर भी अपने इन सहधर्मियों को इन आक्रांताओ ने नही बख्शा. मध्य एशिया के मुसलमानों की उन्होंने जो लूटमार मचायी वह उत्तर भारत के हिंदुओं की उनके द्वारा की गयी लूटमार से व्यापकता और बर्बरता में कहीं कम नहीं थी. क्रमश : -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071018/5112117a/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Oct 18 01:19:00 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 18 Oct 2007 01:19:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWB4KS44KSy?= =?utf-8?b?4KS/4KSuIOCkueCkruCksuCkvuCkteCksOCli+CkgiDgpJXgpYAg4KSy?= =?utf-8?b?4KWC4KSf4KSq4KS+4KSfIOCklOCksCDgpIXgpKjgpY3gpK8g4KSQ4KSk?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KS+4KS44KS/4KSVIOCkpOCkpeCljeCkrw==?= Message-ID: <363092e30710171249o6a97aa7fy79d5f2920ca98b6a@mail.gmail.com> मुसलिम हमलावरों की लूटपाट और अन्य ऐतिहासिक तथ्य राम के अस्तित्व, सांप्रदायिक राजनीति और इतिहास के विभिन्न पहलुओं पर प्रख्यात इतिहासकार प्रो राम शरण शर्मा के व्याख्यान की छठी किस्त में इतिहासकारों द्वारा अपनायी गयी त्रुटिपूर्ण और एकांगी इतिहास दृष्टि की चर्चा की गयी है. प्रो राम शरण शर्मा आरंभिक मध्यकालीन बिहार की विभिन्न प्रतिमाएं स्पष्ट रूप से यह संकेत करती हैं कि बौद्धों और ब्राह्मण धर्म के अनुयायियों के बीच खुला और हिंसक टकराव रहा था. इन प्रतिमाओं में अपराजित सहित कई बौद्ध देवताओं को शैव देवों को पैरों से रौंदते हुए चित्रित किया गया है. धर्मग्रंथों में यह टकराव बौद्धों के खिलाफ शंकर द्वारा व्यापक पैमाने पर चलाये गये अभियान में प्रतिबिंबित होता है. यह सोचना गलत होगा कि बौद्धों का इस देश से सफाया केवल इस वजह से हुआ कि उनके खिलाफ वैचारिक प्रचार किया गया था. ऐसा लगता है उनका बाकायदा उत्पीड़न किया गया था. इससे उनके सामने केवल दो विकल्प बच रहे थे. या तो वे भाग कर दूसरे देशों में चले जायें या फिर सामाजिक विषमताओं से छुटकारा पाने के लिए इस्लाम धर्म अपना ले. विचार करने की बात है कि भारत में धर्म के रूप में इस्लाम केवल उन क्षेत्रों में ही पैर जमा सका जो बौद्ध धर्म के मजबूत गढ़ थे. यह बात कश्मीर, उत्तर पश्चिमी सीमांत क्षेत्र, पंजाब और सिंध के बारे में सच लगती है. उसी तरह नालंदा (बिहार शरीफ), भागलपुर (चंपारण) और बांगलादेश में, जहां बौद्ध काफी संख्या में रहते थे, मुसलिम आबादी है. बौद्ध भारत से वस्तुत: गायब क्यों हो गये इस बात को केवल इस आधार पर ही स्पष्ट नहीं किया जा सकता कि उनका धर्म आंतरिक तौर पर परिवर्तित हो रहा था. इस प्रश्न पर विचार करने के लिए उनके प्रति मध्यकालीन हिंदू शासक वर्गों और धार्मिक नेताओं के दृष्टिकोण पर ध्यान देना होगा. जैनियों का भी उत्पीड़न किया जाता रहा था. लखनऊ संग्रहालय में रखी जैन देवी देवताओं की कई प्रस्तर मूर्तियां, विरूपित अवस्था में मिली हैं. स्पष्टत: ही यह काम इन मूर्तियों को वैष्णव जामा पहनाने के लिए कुछ वैष्णवों द्वारा किया गया था. जैनियों ने अपने कर्मकांडों और सामाजिक रीति-रिवाजों को काफी हद तक संशोधित करके, अपने को प्रभुत्वशाली ब्राह्मणवादी जीवन पद्धति के अनुरूप ढाल लिया. इस बात पर जोर देना गलत होगा कि हिंदू एक समेकित समुदाय थे. जाने-माने पुनरुत्थानवादी और मुस्लिम विरोधी इतिहासकार रमेशचंद्र मजूमदार तक इस बात को मानते हैं कि हिंदू शासक वर्ग की कतारों में एकजुटता का अभाव था और वे अंतर्विरोधों से बुरी तरह ग्रस्त थे. उन्हें यह बात बहुत ही दुखद लगती है कि जब एक हिंदू राज्य पर मुसलमानों ने हमला किया तो एक पड़ोसी हिंदू राजा ने इस अवसर का लाभ उठा कर पीछे की तरफ से उस राज्य पर वार किया. (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ इंडियन पीपुल, खंड-5, प्रस्तावना, पृष्ठ 14-16). पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार , पांच _____________________________________ विंध्याचल के दक्षिणवर्ती क्षेत्र तक में मुस्लिम खतरे को इतना कम करके आंका गया कि दक्कन के शक्तिशाली यादव शासकों ने गुजरात के चालुक्यों पर दक्षिण से ठीक उस समय हमला बोल दिया जब वे उत्तर में आये मुस्लिम हमलावरों के साथ जीवन-मरण के संघर्ष में लगे थे (वही पृष्ठ 14). हिंदू धार्मिक नेताओं के बीच सांप्रदायिक असहिष्णुता का स्पष्ट उदाहरण अयोध्या के मध्यकालीन इतिहास से लिया जा सकता है. जब तक औरंगजेब का शासन था, उसके लौह हस्त के नीच अयोध्या में सब कुछ शांत रहा. पर 1707 में उसकी मृत्यु के बाद हम वहां शैव संन्यासियों और वैष्णव वैरागियों के संगठित दलों के बीच खुला और हिंसक टकराव देखते हैं. इन दोनों के बीच विवाद का मुद्दा यह था कि धार्मिक स्थलों पर किसका कब्जा रहे और तीर्थयात्रियों को भेंट और उपहारों में प्राप्त होनेवाली आय किसके हाथ लगे. 1804-05 की एक पुस्तक से इन दोनों संप्रदायों के बीच होनेवाले हिंसक टकरावों के बारे में उद्धरण दिये जा सकते हैं : उस समय जब राम जन्म दिवस का अवसर आया, लोग बड़ी संख्या में कौसलपुर में एकत्र हुए. कौन उस जबर्दस्त भीड़ का वर्णन कर सकता है. उस स्थान पर हथियार लिये जटाजूटधारी और अंग-प्रत्यंग में भस्म रमाये असीमित(संख्या में) संन्यासी वेश में बलिष्ठ योद्धा उपस्थित थे. वह युद्ध के लिए मचलती सैनिकों की असीम सेना थी. वैरागियों के साथ लड़ाई छिड़ गयी. इस लड़ाई में (वैरागियों को) कुछ भी हाथ न लगा क्योंकि उनके पास रणनीति का अभाव था. उन्होंने वहां उनकी ओर बढ़ने की गलती की. वैरागी वेशभूषा दुर्गति का कारण बन गयी. वैरागी वेशभूषावाले सारे लोग भाग खड़े हुए उनसे बहुत दूर (यानी संन्यासियो से) उन्होंने अवधपुर का परित्याग कर दिया. जहां भी उन्हें (संन्यासियों को) वैरागी वेष में लोग नजर आते, वे उन्हे भयावह रूप से आतंकित करते. उनके डर से हर कोई भयभीत था और जहां भी संभव हो सका लोगों ने गुप्त स्थानों में शरण ली और अपने को छिपा लिया. उन्होंने अपना बाना बदल डाला और अपने संप्रदाय संबंधी चिह्र छिपा दिये. कोई भी अपनी सही-सही पहचान नहीं प्रकट कर रहा था. (हैंसबेकर, अयोध्या, गोरनिंगनन, 1986, पृष्ठ 149 में श्रीमहाराजचरित रघुनाथ प्रसाद से उद्धृत) उक्त उद्धरण मध्यकालीन धार्मिक हिंदू नेताओं द्वारा सहिष्णुता बरतने के मिथक का भंडाफोड़ कर देता है. हम लक्षित कर सकते हैं कि सदियों के मतारोपण से एक समेकित हिंदू समुदाय का निर्माण नहीं हुआ. आज तक भी तथाकथित अनुसूचित जातियां पशुओं का मांस खाती हैं, जिनमें गायें भी शामिल हैं तथा कुछ मामलों में अपने मृतकों को दफनाती तक हैं. उत्पीड़ित वर्गो की ठीक यही वह कोटि है, जिसे महात्मा गांधी ने हरिजन की संज्ञा दी थी और बिहार और अन्यत्र गांवों में जिनके मकानों को मुख्यत: आर्थिक कारणों से जला कर राख कर दिया जाता है और जिनके परिवार के सदस्यों को भून डाला जाता है. एकदम हाल में जब बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति के लोगों ने दक्षिण में ईसाई धर्म अपनाने का फैसला किया तो इससे हिंदुत्व के तथाकथित संरक्षकों के बीच बड़ा कोहराम मच गया. इसी तरह, पुराणपंथियों के हिंसक प्रचार के बावजूद, मुसलमानों को समेकित समुदाय नहीं माना जा सकता. भारत में और अन्यत्र शियाओं और सुन्नियों के बीच खूनी टकराव सर्वविदित है. ईरान और इराक के बीच लंबे समय तक चले खूनी टकराव की तो चर्चा ही क्या. भारत में बहुत से ऊंचे दर्जे के और संपन्न मुस्लिम परिवार, हिंदुओं के उच्चतर तबकों और संपन्न परिवारों की तरह ही जुलाहों, पंसारियों और मुसलमानों के अन्य तथाकथित निम्न समुदायों को नीची नजर से देखते हैं. दंगा जांच आयोग की रिपोर्टो से पता चलता है कि दंगों के दौरान हिंदू और मुसलिम दोनों संप्रदायों के निम्न तबकों के लोग ही बड़ी संख्या में उत्पीड़न और खून-खराबों के शिकार बनते हैं. रमेशचंद्र मजूमदार मुसलमानों को हिंदुओं के साथ अनवरत रूप से वैरभाव में लिप्त एक समेकित धार्मिक समुदाय मानते हैं. महमूद गज़नी और तैमूर का भूत ऐतिहासिक रूप से उन्हें संत्रस्त किये रहता है. जैसाकि वह कहते है- 400 वर्ष पहले सुलतान महमूद के समय से भारत में कभी भी हिंदुओं के सोचे-समझे तौर पर किये गये ऐसे नृशंस हत्याकांड नहीं देखे गये (जैसेकि तैमूर के समय में). उसके धर्मोन्मादी सैनिकों ने अनियंत्रित हिंसा और बेरोक बर्बरता बरपा करने में कल्पना के सारे बांध तोड़ दिये और उसकी चरम सीमा वह थी, जब दिल्ली के मैदानों के बाहर एक लाख हिंदू कैदियों का नृशंस नरमेध रचाया गया. एक ऐसी घटना, जिसकी दुनिया के इतिहास में कोई मिसाल नहीं (हिस्ट्री एंड कल्चर ऑफ द इंडियन पीपुल, प्रस्तावना, पृष्ठ-24). ऐसे वक्तव्य महमूद गजनी, मोहम्मद गौरी और समरकंद के तॅमूर द्वारा मुस्लिम जन समुदाय और मध्य एशिया के शासकों पर ढहाये गये कहर को पूरी तरह नजरअंदाज कर देते हैं. उनका मुख्य उद्देश्य था दूसरे देशों की लूटपाट करना, अपना खजाना भरना तथा अपनी संपदा में वृद्धि करना. जब महमूद गजनी और मोहम्मद गौरी ने भारत पर चढ़ाई की, तब उसके आक्रमण के शिकार क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी वस्तुत: अस्तित्वहीन थी. लेकिन 10वीं-11वीं शताब्दियों तक लगभग पूरा मध्य एशिया इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो चुका था और फिर भी अपने इन सहधर्मियों को इन आक्रांताओ ने नही बख्शा. मध्य एशिया के मुसलमानों की उन्होंने जो लूटमार मचायी वह उत्तर भारत के हिंदुओं की उनके द्वारा की गयी लूटमार से व्यापकता और बर्बरता में कहीं कम नहीं थी. क्रमश : -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071018/5112117a/attachment-0001.html From beingred at gmail.com Thu Oct 18 01:19:38 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 18 Oct 2007 01:19:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+?= =?utf-8?b?IOCksOCkvuCkruCkpuClh+CktSDgpKzgpKjgpL7gpK4g4KSs4KS/4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkleClhyDgpKbgpZ7gpY3gpKTgpLDgpYA=?= Message-ID: <363092e30710171249q66906071g508d3a82621c3e7d@mail.gmail.com> बाबा रामदेव बनाम बिहार के दफ़्तरी आज कुमार अनिल बिहार के दफ़्तरों और दफ़्तरियों की खबर ले रहे हैं. कुमार अनिल बिहार में बाबा रामदेव के समर्थक उदास हैं. इसलिए कि बाबा का प्रभाव लगातार कमजोर होता जा रहा है. लोगों ने कपालभाति आदि का अभ्यास बंद कर दिया है. बाबा के स्वस्थ भारत की कल्पना को सबसे बड़ी चुनौती बिहार सरकार के दफ्तरों ने दी है. कपालभाति आदि से क्या होता है? सांस की गति तेज की जाती है. योग से मांसपेशियां मजबूत होती हैं. बिहार सरकार के दफ्तरों का कहना है कि जो काम बाबा फीस लेकर करते हैं, वही काम वे मुफ्त में करते हैं. आपको विश्वास नहीं, तो आप कोई भी छोटा-सा काम लेकर किसी दफ्तर में चले जायें. आपको इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग तक इतनी दफा आना- जाना पड़ेगा कि आपकी सांसें ऊपर-नीचे होने लगेंगीं. पतंजलि में एक बाबा हैं. यहां हर दफ्तर में अनेक बाबा हैं. वहां भी बाबा से रू -ब-रू होना मुश्किल है. यहां भी आसान नहीं. वे कभी लंदन, कभी अमेरिका में हैं. यहां के बाबा की खोज-खबर ही नामुमकिन है. रामदेव बाबा बस एक ही चीज में आगे हैं. वे बेहतर ब्रांडिंग कर लेते हैं. टीवी में छाये रहते हैं. बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह अपने दफ्तरों की ब्रांडिंग करे. देश को बताये कि प्रखंड के बड़ा बाबू से लेकर सचिवालय के मुलाजिम तक लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर किस प्रकार मैराथन धावक तैयार करने का काम कर रहे हैं. नीतीश जी गरीबों के लिए नाहक परेशान हैं. अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं. लाखों खर्च हुए. उन्हें चाहिए कि वे अविलंब एक आदेश पारित करें. हर गरीब के लिए सुबह-सुबह सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना अनिवार्य कर दें. साल भर में गरीब हट्टे-कट्टे हो जायेंगे. आखिर आंबेडकर छात्रावास के लड़के छात्रवृत्ति के लिए दौड़-दौड़ कर हट्टे-क ट्टे हो रहे हैं या नहीं. पतंजलि के बाबा के पास गिने-चुने नुस्खे हैं. हमारे दफ्तरों के पास अनगिनत नुस्खे हैं. लाल कार्ड की सूची, आवास प्रमाणपत्र, माध्यमिक बोर्ड से अंक प्रमाणपत्र... कितना गिनायें. कोई काम शुरू कर के देखिए. भूमिहीन कमजोर होता है व भूस्वामी मजबूत. भूस्वामी इसलिए मजबूत होता है, क्योंकि दादा से पोता तक वह दाखिल-खारिज के लिए दौड़ता रहता है. आजकल जच्चा-बच्चा भत्ता देने की योजना चल रही है. हर जननी मातृत्व भत्ते के लिए अस्पतालों की दौड़ लगा रही है. इससे जच्चा तंदुरुस्त होती है, फिर बच्चे तो तंदुरुस्त होंगे ही. यह योजना बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में ज्यादा कारगर है. वहां जान-माल की क्षतिपूर्ति के लिए अनेक योजनाएं शुरू की गयी हैं. क्षतिपूर्ति के लिए हर आदमी दौड़ रहा है. रोज दौड़ रहा है. इससे बाढ़पीड़ितों के साथ ही उनकी आनेवाली नस्लें भी स्वस्थ होंगी. पतंजलि के बाबा कहते हैं कि कोका-कोला मत पियो. कई तो कहते हैं कि गोमूत्र ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक है. बिहार के बाढ़पीड़ित गोमूत्र में और भी जैविक पदार्थ मिला कर पी रहे हैं. पी कर सीधे स्वर्ग जा रहे हैं. डायरिया तो मुफ्त में वाहवाही ले रहा है. असली योगदान तो हमारे दफ्तरों का है, स्वास्थ्य केंद्रों का है. जय हो दफ्तर की. जय हो दफ्तरी की. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071018/c2e2c450/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Oct 18 01:19:38 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 18 Oct 2007 01:19:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSs4KS+?= =?utf-8?b?IOCksOCkvuCkruCkpuClh+CktSDgpKzgpKjgpL7gpK4g4KSs4KS/4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkleClhyDgpKbgpZ7gpY3gpKTgpLDgpYA=?= Message-ID: <363092e30710171249q66906071g508d3a82621c3e7d@mail.gmail.com> बाबा रामदेव बनाम बिहार के दफ़्तरी आज कुमार अनिल बिहार के दफ़्तरों और दफ़्तरियों की खबर ले रहे हैं. कुमार अनिल बिहार में बाबा रामदेव के समर्थक उदास हैं. इसलिए कि बाबा का प्रभाव लगातार कमजोर होता जा रहा है. लोगों ने कपालभाति आदि का अभ्यास बंद कर दिया है. बाबा के स्वस्थ भारत की कल्पना को सबसे बड़ी चुनौती बिहार सरकार के दफ्तरों ने दी है. कपालभाति आदि से क्या होता है? सांस की गति तेज की जाती है. योग से मांसपेशियां मजबूत होती हैं. बिहार सरकार के दफ्तरों का कहना है कि जो काम बाबा फीस लेकर करते हैं, वही काम वे मुफ्त में करते हैं. आपको विश्वास नहीं, तो आप कोई भी छोटा-सा काम लेकर किसी दफ्तर में चले जायें. आपको इस बिल्डिंग से उस बिल्डिंग तक इतनी दफा आना- जाना पड़ेगा कि आपकी सांसें ऊपर-नीचे होने लगेंगीं. पतंजलि में एक बाबा हैं. यहां हर दफ्तर में अनेक बाबा हैं. वहां भी बाबा से रू -ब-रू होना मुश्किल है. यहां भी आसान नहीं. वे कभी लंदन, कभी अमेरिका में हैं. यहां के बाबा की खोज-खबर ही नामुमकिन है. रामदेव बाबा बस एक ही चीज में आगे हैं. वे बेहतर ब्रांडिंग कर लेते हैं. टीवी में छाये रहते हैं. बिहार सरकार को भी चाहिए कि वह अपने दफ्तरों की ब्रांडिंग करे. देश को बताये कि प्रखंड के बड़ा बाबू से लेकर सचिवालय के मुलाजिम तक लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर किस प्रकार मैराथन धावक तैयार करने का काम कर रहे हैं. नीतीश जी गरीबों के लिए नाहक परेशान हैं. अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन कर रहे हैं. लाखों खर्च हुए. उन्हें चाहिए कि वे अविलंब एक आदेश पारित करें. हर गरीब के लिए सुबह-सुबह सरकारी दफ्तरों का चक्कर लगाना अनिवार्य कर दें. साल भर में गरीब हट्टे-कट्टे हो जायेंगे. आखिर आंबेडकर छात्रावास के लड़के छात्रवृत्ति के लिए दौड़-दौड़ कर हट्टे-क ट्टे हो रहे हैं या नहीं. पतंजलि के बाबा के पास गिने-चुने नुस्खे हैं. हमारे दफ्तरों के पास अनगिनत नुस्खे हैं. लाल कार्ड की सूची, आवास प्रमाणपत्र, माध्यमिक बोर्ड से अंक प्रमाणपत्र... कितना गिनायें. कोई काम शुरू कर के देखिए. भूमिहीन कमजोर होता है व भूस्वामी मजबूत. भूस्वामी इसलिए मजबूत होता है, क्योंकि दादा से पोता तक वह दाखिल-खारिज के लिए दौड़ता रहता है. आजकल जच्चा-बच्चा भत्ता देने की योजना चल रही है. हर जननी मातृत्व भत्ते के लिए अस्पतालों की दौड़ लगा रही है. इससे जच्चा तंदुरुस्त होती है, फिर बच्चे तो तंदुरुस्त होंगे ही. यह योजना बाढ़ग्रस्त क्षेत्रों में ज्यादा कारगर है. वहां जान-माल की क्षतिपूर्ति के लिए अनेक योजनाएं शुरू की गयी हैं. क्षतिपूर्ति के लिए हर आदमी दौड़ रहा है. रोज दौड़ रहा है. इससे बाढ़पीड़ितों के साथ ही उनकी आनेवाली नस्लें भी स्वस्थ होंगी. पतंजलि के बाबा कहते हैं कि कोका-कोला मत पियो. कई तो कहते हैं कि गोमूत्र ज्यादा स्वास्थ्यवर्धक है. बिहार के बाढ़पीड़ित गोमूत्र में और भी जैविक पदार्थ मिला कर पी रहे हैं. पी कर सीधे स्वर्ग जा रहे हैं. डायरिया तो मुफ्त में वाहवाही ले रहा है. असली योगदान तो हमारे दफ्तरों का है, स्वास्थ्य केंद्रों का है. जय हो दफ्तर की. जय हो दफ्तरी की. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071018/c2e2c450/attachment-0001.html From neeraj_agrawal_07 at yahoo.co.in Thu Oct 18 19:26:10 2007 From: neeraj_agrawal_07 at yahoo.co.in (neeraj agrawal) Date: Thu, 18 Oct 2007 19:26:10 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSy4KS+?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSC4KSh4KWAIOCkueCliCDgpK3gpYLgpJYg4KSV4KS+IOCkmA==?= =?utf-8?b?4KSw?= Message-ID: <601878.24095.qm@web8709.mail.in.yahoo.com> भूख का घर है कालाहांडी सैकड़ों लोगों की मौत को झुठलाने में लगी सरकार स्थानः तेलानागी, रामपुर, कालाहांडी तारीखः 3 सितंबर 2007 आज 3 साल का रोमू भूख और बीमारी से मर गया. रोमू जबेला का छोटा भाई था. तारीखः 4 सितंबर 2007 आज पत्ते खा कर बीमार हुए प्रदीप मथोयलो की मौत हो गई. प्रदीप जबेला के पिता थे. तारीखः 7 सितंबर 2007 आज दो दिनों से भूख से जुझ रही सोनाई ने दम तोड़ दिया. सोनाई जबेला की मां थी. इसके बाद ? मैं जब यह सब कुछ लिख रहा हूं तो मुझे नहीं पता कि तेलानागी की 12 साल की जबेला का क्या हुआ. 5 दिन के भीतर छोटे भाई, पिता औऱ फिर मां को गंवाने वाली जबेला का अब कोई नहीं बचा था. आंखों में आंसू नहीं, कोई उम्मीद नहीं, कोई सपना भी नहीं. लेकिन अपनी झोपड़ी के दरवाजे की ओर एकटक देखती उसकी आंखों को देखकर मैं सिहर गया था. जाने कितनी-कितनी देर तक वह दरवाजे को घूरती रही. किसे घूर रही थी जबेला....? लगा कि जैसे इस झोपड़ी के बाहर मौत चहलकदमी कर रही है और जबेला उसे घूर रही हो- एकटक ! और जबेला ही क्यों, आदिवासियों के इस गांव में जाने कितने घरों में पथराई-सी आंखों वाले लोग नजर आए थे. इस छोटे-से गांव में अब तक 20 से अधिक लोगों की मौत हो गई है. गांव की गलियों में खड़े किसी नौजवान या बुजुर्ग से पूछेंगे तो वे ऊंगलियों पर मौत को गिनाना शुरु कर देते हैं- एक, दो, तीन....संख्या बीस से ऊपर चली जाती है. और इन मौतों का कारण ? जवाब केवल एक है- भूख. भूख का भूगोल आज़ादी के 60 सालों में कालाहांडी और उसके आसपास के जिलों में हर साल सैकड़ों की संख्या में लोग भूख और भूख से होने वाली बीमारी का शिकार हो कर दम तोड़ देते हैं. लगता है, जैसे कालाहांडी के खेतों में भूख ही उपजती है. कालाहांडी के थुआमुल, रामपुर, गोपीनाथपुर का इलाका हो या कि फिर कोरापुट और रायगडा के सुदूर गांव. यहां बस एक ही आवाज़ आती है- भूख, भूख और भूख ! लेकिन नहीं. यह आवाज़ केवल इन गांवों तक ही है. लकदक करते एसी कमरों में बैठने वाले सरकारी तंत्र के लोग इस आवाज़ पर ज़ोर से चीखते हैं- यह सब झूठ है. कालाहांडी, कोरापुट और रायगडा के गांवों में काम करने वाले स्वयंसेवी संगठनों की मानें तो अब तक 250 से अधिक लोग भूख और भूख से होने वाली बीमारी के कारण मर गए हैं. हर रोज इस आंकड़े में इजाफा हो रहा है. हालांकि इन मौतों से राज्य के खाद्य आपूर्ति मंत्री मनमोहन सामल नाराज़ हैं. सामल कहते हैं- “राज्य में हो रही मौतों के पीछे केवल बीमारी है. देश के हर राज्य में बरसात के समय इस तरह की बीमारियां फैलती हैं. इसे भूख के कारण होने वाली मौत बताना बहुत ही आपत्तिजनक है. मीडिया इस तरह की बीमारियों से होने वाली मौत को भी बहुत बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा है.” राज्य के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक हालांकि इन मौतों के कारण परेशान हैं और उनके समर्थक भी. यही कारण है कि इन इलाकों में सत्ताधारी दल से जुड़े राजनीतिज्ञ विधानसभा चुनाव की तरह सक्रिय हो गए हैं. भूख से होने वाली मौतों को हर संभव गांव की सरहद में ही रोकने की कवायद तेज हो गई है. यहां तक कि इन गांवों में काम करने वाले स्वयंसेवी संस्थाओं पर भी दबाव बनाया जाने लगा है. अनाज वितरण की व्यवस्था बेहाल एक्शन एड से संबद्ध एक सामाजिक कार्यकर्ता बताते हैं-“हरेक राजनीतिक दल जब विपक्ष में होता है तो इन मौतों को लेकर हायतौबा मचाता है लेकिन सत्ता में आते ही उसके स्वर बदल जाते हैं. भूख से होने वाली मौतों को बीमारी बताकर मामले को रफा –दफा करने की कोशिश पहली बार नहीं हो रही है. हर सरकार यही करती रही है.” कालाहांडी के सांसद बिक्रम केशरी के अनुसार उन्होंने पहले ही पूरे मुद्दे को संसद में उठाया था लेकिन राज्य सरकार ने समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया. हज़ारों घरों में लोगों के पास खाने को कुछ नहीं था और सरकारी गोदामों में अनाज सड़ते रहे. ये और बात है कि कालाहांडी के कलेक्टर प्रमोदचंद पटनायक अनाज की वितरण व्यवस्था को पूरी तरह दुरुस्त मानते हैं. लेकिन कलेक्टर के दावे का दूसरा पहलू ये है कि हर रोज सैकड़ों की संख्या में भूख से बिलबिलाते लोग कलेक्टोरेट परिसर में अपना राशन कार्ड बनवाने पहुंच रहे हैं. जाहिर है, जब लोगों के पास राशन कार्ड ही नहीं है, तो सरकार अनाज कहां बांट रही थी ? इसका जवाब किसी के पास नहीं है. और जब कोई ठीक-ठीक जवाब नहीं हो, तो उन सवालों को राजनीति में उलझाने की कोशिश होती है. फिलहाल उड़ीसा में यही हो रहा है. भूख और उससे होने वाली मौत अब यहां राजनीति का हिस्सा है, जिसका लाभ हर कोई लेना चाहता है. नीरज gyaanology.blogspot.com Now you can chat without downloading messenger. 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071018/f4846a2b/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Oct 19 01:25:55 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 19 Oct 2007 01:25:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkheCkuOCljeCkpOCkv+CkpOCljeCktSDgpJTgpLAg4KSF?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSn4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <363092e30710181255i6ba64773t358539a51b6a159@mail.gmail.com> राम का अस्तित्व और अयोध्या क्या राम का वास्तव में कोई अस्तित्व था? क्या अयोध्या एक ऐतिहासिक नगरी है? प्रख्यात इतिहासकार राम शरण शर्मा अपने लंबे व्याख्यान के इस हिस्से में (और आगे के हिस्सों में भी) मुख्यतः इसकी चर्चा कर रहे हैं. सातवीं किस्त. प्रो राम शरण शर्मा इतिहास में लूटपाट करनेवाले आमतौर कब्जे में आयी लूटपाट के मामले में अपने सभी उत्पीड़ितों से एक जैसा ही व्यवहार करते हैं. इसी तरह तैमूर ने मध्य एशिया में मुस्लिम आबादी पर उससे कहीं अधिक विध्वंस बरपा किया, जितना उसने भारत में किया था. 1398-99 में भारत में काफी मुस्लिम आबादी थी पर तब भी गैर मुस्लिम आबादी उससे ज्यादा ही थी. इस तरह हालांकि तैमूर के हमले प्रथमत: मुसलमान शासकों के खिलाफ लक्षित थे पर जो प्रजा उसके हमलों की शिकार बनी, उसमें स्वभावत: ही हिंदू भी थे. ऐसे अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं कि जब सत्ता और लूट के माल का मामला होता था तो हिंदू और मुस्लिम दोनों ही शासक वर्गों के सदस्य समान रूप से क्रूर सिद्ध होते थे. इसके विपरीत ऐसे बहुत से उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें हिंदु और मुस्लिम दोनों समुदायों के आम लोगों के बीच मौजूद सहिष्णुता की बात तो जाने दीजिए, हिंदु और मुस्लिम शासकों, दोनों ने सहिष्णुता दर्शायी. इसलिए मुस्लिम शासकों को क्रूर और हिंदू शासकों को दयालु व सहिष्णु शासकों के रूप में चित्रित करना गलत होगा. पर दुर्भाग्य से हिंदू संप्रदायवादी ऐसी ही छवि चित्रित कर रहे है तथा मुस्लिम कट्टरपंथी भी कोशिश में है कि इस मामले में उनसे पीछे न रहें. पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार , पांच, छह _____________________________________ सांप्रदायिक प्रचार का एक महत्वपूर्ण नमूना बाबरी मसजिद की दीवारों पर अंकित एकदम हाल के 30 भित्ति चित्र हैं. इस मसजिद में राम की प्रतिमा को जबर्दस्ती बिठाया गया है. जिस जिला न्यायाधीश के फैसले की वजह से संप्रदायवादी बाबरी मसजिद को कब्जे में ले सके, उसकी प्रतिमा बड़े ही उत्साहपूर्वक मसजिद के प्रवेश द्वार पर स्थापित की गयी है. उस के बाद से तो लगता है कि संप्रदायवादी राम की पूजा करने से अधिक उस न्यायाधीश की छवि को महिमा मंडित करने में संलग्न रहे हैं. दरअसल राम को अपने निकृष्टतम राजनीतिक दुराग्रहों को छुपाने के लिए आड़ बना लिया गया है. एक भित्ति चित्र में यह दर्शाया गया है कि किस तरह बाबर के सैनिक राम के इस कल्पित मंदिर को ध्वस्त कर रहे हैं और हिंदुओं का कत्लेआम कर रहे हैं. इस भित्ति चित्र के नीचे लिखा है कि बाबर के सिपाहियों ने अयोध्या में राम मंदिर पर हमला करते समय 75000 हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया और उनके रक्त को गारे की तरह इस्तेमाल कर बाबरी मसजिद खड़ी की. आग लगानेवाली ऐसी झूठी बातें सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने के लिए प्रस्तुत की जाती हैं. यह प्रचार उतना ही झूठा है जितना यह विचार कि बाबर ने राम मंदिर को ध्वस्त किया और उसकी जगह पर बाबरी मसजिद बनवायी. उत्तर प्रदेश के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक, रामचंद्र सिंह ने अयोध्या में 17 स्थानों की खुदाई करवायी और ऋणमोचन घाट व गुप्तारघाट नाम के दो स्थलों का भी उत्खनन करवाया. उनके अनुसार वहां अधिकतर स्थानों पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से पहले आबादी होने के चिह्र नहीं मिलते. केवल मणिपर्वत और सुग्रीवपर्वत नाम के दो स्थानों को मौर्य काल का कहा जा सकता है. भारत सरकार के पुरात्तत्व विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक ब्रजवासी लाल ने कई बार अयोध्या के कई स्थलों का उत्खनन करवाया और इस उत्खनन से पता चला कि ईसा पूर्व सातवीं सदी भी कुछ पहले ही जान पड़ता है क्योंकि उत्तरी छापवाले पोलिशदार बर्तनों की तिथि को आसानी से उक्त काल का नहीं ठहराया जा सकता. यह बात याद रखनी होगी कि अयोध्या में बस्ती होने की सबसे पुरानी अवधि के लिए हमारे पास कोई कार्बन तिथि नहीं है. वहां प्रारंभिक आबादी की अधिक विश्वसनीय तिथि कुछ मृण्मूर्तियों के अस्तित्व द्वारा मिलती है. इनमें से एक जैन आकृति है, जो मौर्य युग की अथवा ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अंत और ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के के आरंभ की हैं. बहरहाल, मध्य गंगा क्षेत्र की कछारी भूमि में जितने स्थानों का उत्खनन किया गया, उनमें से अधिकतर स्थान ईसा पूर्व सातवीं-छठी शताब्दी तक पर्याप्त रूप से बसे हुए प्रतीत नहीं होते. जो लोग राम की ऐतिहासिकता में विश्वास करते हैं, वे उनकी तिथि ईसा पूर्व 2000 के आसपास तय करके चलते हैं. यह इस आधार पर किया जाता है कि राम दाशरथि महाभारत युद्ध से लगभग 65 पीढ़ियों पूर्व हुए थे. आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 1000 के आसपास हुआ था. इसलिए हमारे सामने पर्याप्त रूप से अयोध्या के बसने और अयोध्या में राम के युग के बीच 1000 वर्षों से अधिक का अंतर प्रकट होता है. इसी कठिनाई की वजह से कुछ विद्वान अयोध्या को अफगानिस्तान में बताने की कोशिश करते हैं. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071019/bdb00b0d/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Oct 19 01:25:55 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 19 Oct 2007 01:25:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS+4KSuIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkheCkuOCljeCkpOCkv+CkpOCljeCktSDgpJTgpLAg4KSF?= =?utf-8?b?4KSv4KWL4KSn4KWN4KSv4KS+?= Message-ID: <363092e30710181255i6ba64773t358539a51b6a159@mail.gmail.com> राम का अस्तित्व और अयोध्या क्या राम का वास्तव में कोई अस्तित्व था? क्या अयोध्या एक ऐतिहासिक नगरी है? प्रख्यात इतिहासकार राम शरण शर्मा अपने लंबे व्याख्यान के इस हिस्से में (और आगे के हिस्सों में भी) मुख्यतः इसकी चर्चा कर रहे हैं. सातवीं किस्त. प्रो राम शरण शर्मा इतिहास में लूटपाट करनेवाले आमतौर कब्जे में आयी लूटपाट के मामले में अपने सभी उत्पीड़ितों से एक जैसा ही व्यवहार करते हैं. इसी तरह तैमूर ने मध्य एशिया में मुस्लिम आबादी पर उससे कहीं अधिक विध्वंस बरपा किया, जितना उसने भारत में किया था. 1398-99 में भारत में काफी मुस्लिम आबादी थी पर तब भी गैर मुस्लिम आबादी उससे ज्यादा ही थी. इस तरह हालांकि तैमूर के हमले प्रथमत: मुसलमान शासकों के खिलाफ लक्षित थे पर जो प्रजा उसके हमलों की शिकार बनी, उसमें स्वभावत: ही हिंदू भी थे. ऐसे अनेकानेक उदाहरण दिये जा सकते हैं कि जब सत्ता और लूट के माल का मामला होता था तो हिंदू और मुस्लिम दोनों ही शासक वर्गों के सदस्य समान रूप से क्रूर सिद्ध होते थे. इसके विपरीत ऐसे बहुत से उदाहरण भी मिलते हैं, जिनमें हिंदु और मुस्लिम दोनों समुदायों के आम लोगों के बीच मौजूद सहिष्णुता की बात तो जाने दीजिए, हिंदु और मुस्लिम शासकों, दोनों ने सहिष्णुता दर्शायी. इसलिए मुस्लिम शासकों को क्रूर और हिंदू शासकों को दयालु व सहिष्णु शासकों के रूप में चित्रित करना गलत होगा. पर दुर्भाग्य से हिंदू संप्रदायवादी ऐसी ही छवि चित्रित कर रहे है तथा मुस्लिम कट्टरपंथी भी कोशिश में है कि इस मामले में उनसे पीछे न रहें. पिछली किस्तें : एक , दो , तीन, चार , पांच, छह _____________________________________ सांप्रदायिक प्रचार का एक महत्वपूर्ण नमूना बाबरी मसजिद की दीवारों पर अंकित एकदम हाल के 30 भित्ति चित्र हैं. इस मसजिद में राम की प्रतिमा को जबर्दस्ती बिठाया गया है. जिस जिला न्यायाधीश के फैसले की वजह से संप्रदायवादी बाबरी मसजिद को कब्जे में ले सके, उसकी प्रतिमा बड़े ही उत्साहपूर्वक मसजिद के प्रवेश द्वार पर स्थापित की गयी है. उस के बाद से तो लगता है कि संप्रदायवादी राम की पूजा करने से अधिक उस न्यायाधीश की छवि को महिमा मंडित करने में संलग्न रहे हैं. दरअसल राम को अपने निकृष्टतम राजनीतिक दुराग्रहों को छुपाने के लिए आड़ बना लिया गया है. एक भित्ति चित्र में यह दर्शाया गया है कि किस तरह बाबर के सैनिक राम के इस कल्पित मंदिर को ध्वस्त कर रहे हैं और हिंदुओं का कत्लेआम कर रहे हैं. इस भित्ति चित्र के नीचे लिखा है कि बाबर के सिपाहियों ने अयोध्या में राम मंदिर पर हमला करते समय 75000 हिंदुओं को मौत के घाट उतार दिया और उनके रक्त को गारे की तरह इस्तेमाल कर बाबरी मसजिद खड़ी की. आग लगानेवाली ऐसी झूठी बातें सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने के लिए प्रस्तुत की जाती हैं. यह प्रचार उतना ही झूठा है जितना यह विचार कि बाबर ने राम मंदिर को ध्वस्त किया और उसकी जगह पर बाबरी मसजिद बनवायी. उत्तर प्रदेश के पुरातत्व विभाग के भूतपूर्व निदेशक, रामचंद्र सिंह ने अयोध्या में 17 स्थानों की खुदाई करवायी और ऋणमोचन घाट व गुप्तारघाट नाम के दो स्थलों का भी उत्खनन करवाया. उनके अनुसार वहां अधिकतर स्थानों पर ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी से पहले आबादी होने के चिह्र नहीं मिलते. केवल मणिपर्वत और सुग्रीवपर्वत नाम के दो स्थानों को मौर्य काल का कहा जा सकता है. भारत सरकार के पुरात्तत्व विभाग के भूतपूर्व महानिदेशक ब्रजवासी लाल ने कई बार अयोध्या के कई स्थलों का उत्खनन करवाया और इस उत्खनन से पता चला कि ईसा पूर्व सातवीं सदी भी कुछ पहले ही जान पड़ता है क्योंकि उत्तरी छापवाले पोलिशदार बर्तनों की तिथि को आसानी से उक्त काल का नहीं ठहराया जा सकता. यह बात याद रखनी होगी कि अयोध्या में बस्ती होने की सबसे पुरानी अवधि के लिए हमारे पास कोई कार्बन तिथि नहीं है. वहां प्रारंभिक आबादी की अधिक विश्वसनीय तिथि कुछ मृण्मूर्तियों के अस्तित्व द्वारा मिलती है. इनमें से एक जैन आकृति है, जो मौर्य युग की अथवा ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के अंत और ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के के आरंभ की हैं. बहरहाल, मध्य गंगा क्षेत्र की कछारी भूमि में जितने स्थानों का उत्खनन किया गया, उनमें से अधिकतर स्थान ईसा पूर्व सातवीं-छठी शताब्दी तक पर्याप्त रूप से बसे हुए प्रतीत नहीं होते. जो लोग राम की ऐतिहासिकता में विश्वास करते हैं, वे उनकी तिथि ईसा पूर्व 2000 के आसपास तय करके चलते हैं. यह इस आधार पर किया जाता है कि राम दाशरथि महाभारत युद्ध से लगभग 65 पीढ़ियों पूर्व हुए थे. आम तौर पर यह स्वीकार किया जाता है कि महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 1000 के आसपास हुआ था. इसलिए हमारे सामने पर्याप्त रूप से अयोध्या के बसने और अयोध्या में राम के युग के बीच 1000 वर्षों से अधिक का अंतर प्रकट होता है. इसी कठिनाई की वजह से कुछ विद्वान अयोध्या को अफगानिस्तान में बताने की कोशिश करते हैं. -- REYAZ-UL-HAQUE______________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071019/bdb00b0d/attachment-0001.html From sadan at sarai.net Fri Oct 19 11:29:58 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Fri, 19 Oct 2007 11:29:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= riyaz ke liye: itihaas ka moh paas In-Reply-To: <363092e30710181255i6ba64773t358539a51b6a159@mail.gmail.com> References: <363092e30710181255i6ba64773t358539a51b6a159@mail.gmail.com> Message-ID: <437ccaf1b67d132c4191b4455bb12734@sarai.net> reyaz-ul ko shukriya ki we bare hi dilo jaan se hamare liye itihas ke purodha ke paak wachan aur unki kaabiliyat ko deewan par pesh kar rahe hain. itihaas ke chhatron ke liye saayad ye jaankaariyaan bahut nayi nahi hongi. pichhale das- pandrah saalon main ram ke astitva ko lekar aur baabri masjid se sambandhit bibaadon ke upar bahut kuchh wyabsayik ( commercial nahi professional)aitihashik dristikono se bhi likha gaya hai, aur yah maanane main hamame se bahuton ko koi aapatti nahi hogi ki aise kitaabon ki aur lekhon ki jarurat hamare samaaj ko, hamare akaadmi ko bahut hai. itana kahane ke baad main yah bhi chaahungaa ki hum kitane samay tak itihaas aur puratatav aur un tarkon ka bojh dhote rahenge jo ek khaas discipline ke logic ki upaj hai. hum itihaas ko ( aur wah bhi ek khaas tarah ke itihaas ko, yah saayad main yahan ingit kar doon ki jis tarah ka itihas hamare sharmaji jindagi bhar likhate padhate rahe ya jis tarah ki itihas drishti hamare sansthaano main abhi bhi upadesh mulak rupon main padhai jaati hai) kab tak apane hathiyaar ki tarah istemaal karate rahenge. itihaas kaaron ko, jinhone puri siddat se jindagi bhar ek discipline ki sewa ki hai aur mewa arjit kiya hai, baar baar bibaadon ke ghere main wakeel ki tarah bulaya jaataa hai. main to kahunga ki kujrimon ki tarah samman kiya jata hai jisame jirah karane waala aur judge dono hi netagan hote hain jo puri courtrrom ke karyawaahi ko stage ke roop main istemaal karate hain. itihaaskaar bechaare kya karain. naitik roop se society ke prati, secularism ke prati uttardaayi hain to siti bajate hi maidaan main kud parate hain. abhi kuchh din pahale hi times of India main ek baraa saa notice dekha , sarkaari kisam ka, wahi sethusamudram project waalaa. ab isame ek expert committee banaa di gayi hai, madraas ke university ke vice-chancellor ki adhyakshataa main, baithakain bhi saayad wahin hogi aur aur to aur apane sharma ji kaa naam bhi usamain ghusaa diya hai. ab kya karain sattar ke dasak main hain, retire jindagi bitaa rahe hain ( we retire kar gaye hain yah baat us notice taiyaar karane waale ne pacha liya aur likha diya professor of history delhi university) . to kya karain chennai aanaa jaanaa parega hamare sharma ji ko, budhape main bhi ye netik jimmedaari ke bhoj ko le kar dho rahe hain. ab nahi jaayenge to koi communal historian kahin naa ghus jaay. udhar pichhale epw main romila thapar ne ek lamba special article likh mara, diya defence apane ASI ki taraf se. ki bhai koi galat nahi kiya yadi affidivit main likh hi diya ki raam ki koi aitihaaskita nahi hai. to jo hamare senior line of defence hai wah bare dino ke baad maidaan main kudi, lekin mujhe lagataa hai ki is baar maamlaa kuchh adhik dur nahi jaayegi. dekhate hain... par sawaal mera kuchh aur hai, yeh to bich main yun hi diggajon ko shrdhanjali dene main lag gaya. sawaal yah ki kab tak bartmaan itihaas ke bojh se dabi rahegi? is bojh ko kon utaaregaa? jo diggaj hain wo to jaahir hai is bojh se usi traha jhuke hue hain jaise 6 kilo sone ke mukut se hamare mandiron main bhagwaano ki murtiyaan jhuki rahati hai. sawaal yah bhi ki kitane dino tak itihaas ke maidaan main hum bartmaan ko ghasitate rahenge? kisake liye, kyon aur kis tarah? sadan. On 1:25 am 10/19/07 reyaz-ul-haque wrote: > > राम का अस्तित्व > और अयोध्या > क्याराम का वास्तव में कोई > अस्तित्व था? क्या अयोध्या एक ऐतिहासिक नगरी है?प्रख्यऊ> ޠĤ इतिहासकार राम शरण शर्मा अ > पने लंबे व्याख्यान के इस > हिʦgt; ĸ्से में(और आगे के > हिस्सों मʦgt; Ňं भी) मुख्यतः > इसकी चर्चा कर > रहे हैं. सातवीं किस्त. > > प्रो राम शरण शर्मा > > इतिहासमें लूटपाट करनेवालॊ> > Ǡआमतौर कब्जे में आयी लूटपाट > के मामले में अपने सभीउत्पीʦgt; > ġ़ितों से एक जैसा ही व्यवहाऊ> > Рकरते हैं. इसी तरह तैमूर ने म > ध्य एशियामें मुस्लिम आबादी > पर उससे कहीं अधिक विध्वंस ब > रपा किया, जितना उसने भारतमेʦgt; Ă किया था. 1398-99 में भारत में काʦgt; īी मुस्लिम आबादी थी पर तब भी > गैरमुस्लिम आबादी उससे ज्या > दा ही थी. इस तरह हालांकि तैमॊ> >  İ के हमले प्रथमत:मुसलमान शा > सकों के खिलाफ लक्षित थे पर ज > ो प्रजा उसके हमलों की शिकार > बनी,उसमें स्वभावत: ही हिंदू > भी थे. ऐसे अनेकानेक उदाहरण द > िये जा सकते हैं किजब सत्ता औ > र लूट के माल का मामला होता थऊ> > ޠतो हिंदू और मुस्लिम दोनों ऊ> > ٠ŀशासक वर्गों के सदस्य समान > रूप से क्रूर सिद्ध होते थे. ऊ> > Ǡĸके विपरीत ऐसेबहुत से > उदाहʦgt; İण भी मिलते हैं, > जिनमें हिंदʦgt; Ł और मुस्लिम > दोनों समुदायों > केआम लोगों के बीच मौजूद सहि > ष्णुता की बात तो जाने दीजिए, > हिंदु और मुस्लिमशासकों, दोʦgt; > Ĩों ने सहिष्णुता दर्शायी. इऊ> > ؠIJिए मुस्लिम शासकों को > क्रूʦgt; İ औरहिंदू शासकों को > दयालु व ʦgt; ĸहिष्णु शासकों के > रूप में चऊ> ߠĤ्रित करना > गलतहोगा. पर दुर् > भाग्य से हिंदू संप्रदायवाद > ी ऐसी ही छवि चित्रित कर रहे ऊ> > ٠ňतथा मुस्लिम कट्टरपंथी भी > ʦgt; ĕोशिश में है कि इस मामले > में > उनसे पीछे न रहें. > > पिछली किस्तें : एक, दो, तीन, > चार, पांच, छह _____________________________________ > सांप्रदायिकप्रचार का एक > महत्वपूर्ण नमूना बाबरी > मसजिद की दीवारों पर अंकित > एकदम हालके 30 भित्ति चित्र > हैं. इस मसजिद में राम की > प्रतिमा को जबर्दस्ती > बिठायागया है. जिस जिला > न्यायाधीश के फैसले की वजह > से संप्रदायवादी बाबरी > मसजिदको कब्जे में ले सके, > उसकी प्रतिमा बड़े ही > उत्साहपूर्वक मसजिद के > प्रवेशद्वार पर स्थापित की > गयी है. उस के बाद से तो लगता > है कि संप्रदायवादी रामकी > पूजा करने से अधिक उस > न्यायाधीश की छवि को महिमा > मंडित करने में संलग्नरहे > हैं. दरअसल राम को अपने > निकृष्टतम राजनीतिक > दुराग्रहों को छुपाने > केलिए आड़ बना लिया गया है. > एक भित्ति चित्र में यह > दर्शाया गया है कि किसतरह > बाबर के सैनिक राम के इस > कल्पित मंदिर को ध्वस्त कर > रहे हैं औरहिंदुओं का > कत्लेआम कर रहे हैं. इस > भित्ति चित्र के नीचे लिखा > है कि बाबरके सिपाहियों ने > अयोध्या में राम मंदिर पर > हमला करते समय 75000 हिंदुओं > कोमौत के घाट उतार दिया और > उनके रक्त को गारे की तरह > इस्तेमाल कर बाबरीमसजिद > खड़ी की. आग लगानेवाली ऐसी > झूठी बातें सांप्रदायिक > भावनाओं को हवादेने के लिए > प्रस्तुत की जाती हैं. यह > प्रचार उतना ही झूठा है > जितना यहविचार कि बाबर ने > राम मंदिर को ध्वस्त किया और उसकी जगह पर बाबरी मसजिदबनवऊ> ޠįी. > उत्तर प्रदेश के पुरातत्व > विभाग केभूतपूर्व निदेशक, > रामचंद्र सिंह ने अयोध्या में 17 स्थानों की खुदाईकरवाय > ी और ऋणमोचन घाट व गुप्तारघाʦgt; ğ नाम के दो स्थलों का भी उत्ख > नन करवाया.उनके अनुसार वहां > ʦgt; ąधिकतर स्थानों पर ईसा > पूर्व > दूसरी शताब्दी से पहलेआबादॊ> > होने के चिह्र नहीं मिलते. कʦgt; > Ňवल मणिपर्वत और सुग्रीवपर्ʦgt; ĵत नाम के दोस्थानों को मौर्ऊ> Ϡकाल का कहा जा सकता है. भारत ऊ> ؠİकार के पुरात्तत्व विभागकॊ> Ǡभूतपूर्व महानिदेशक ब्रजवऊ> ޠĸी लाल ने कई बार अयोध्या के ʦgt; ĕई स्थलों काउत्खनन करवाया औ > र इस उत्खनन से पता चला कि ईसऊ> > ޠपूर्व सातवीं सदी भी कुछपहल > े ही जान पड़ता है क्योंकि उत > ्तरी छापवाले पोलिशदार बर्त > नों की तिथि कोआसानी से उक्त > काल का नहीं ठहराया जा सकता. > यहबात याद रखनी होगी कि > अयोध्या में बस्ती होने की सबसे पुरानी अवधि के लिएहमाऊ> РŇ पास कोई कार्बन तिथि नहीं ऊ> ٠ň. वहां प्रारंभिक आबादी की ऊ> Šħिकविश्वसनीय तिथि कुछ मृणॊ> ͠Įूर्तियों के अस्तित्व द्वऊ> ޠİा मिलती है. इनमें सेएक जैन ʦgt; Ćकृति है, जो मौर्य युग की अथव > ा ईसा पूर्व चौथी शताब्दी के > अंत औरईसा पूर्व तीसरी शताबॊ> > ͠Ħी के के आरंभ की हैं. बहरहाल, > मध्य गंगा क्षेत्र कीकछारी ʦgt; > ĭूमि में जितने स्थानों का उऊ> > Ġōखनन किया गया, उनमें से अधिऊ> > ՠĤर स्थानईसा पूर्व सातवीं-छʦgt; Ġी शताब्दी तक पर्याप्त रूप ऊ> ؠŇ बसे हुए प्रतीत नहींहोते. ऊ> ܠŋ लोग राम की ऐतिहासिकता में > विश्वास करते हैं, वे उनकी तऊ> > ߠĥि ईसापूर्व 2000 के आसपास तय > कʦgt; İके चलते हैं. यह इस आधार पर > कऊ> ߠįा जाता है कि रामदाशरथि > महा > भारत युद्ध से लगभग 65 पीढ़ियॊ> > ˠĂ पूर्व हुए थे. आम तौर पर यहस > ्वीकार किया जाता है कि > महाभʦgt; ľरत युद्ध ईसा पूर्व 1000 > के आसप > ास हुआ था.इसलिए हमारे सामने > पर्याप्त रूप से अयोध्या के > ʦgt; Ĭसने और अयोध्या में राम > केयॊ> `ė के बीच 1000 वर्षों से > अधिक का > अंतर प्रकट होता है. इसी कठिऊ> > Ƞľई की वजहसे कुछ विद्वान अयो > ध्या को अफगानिस्तान में बतऊ> > ޠĨे की कोशिश करते हैं. > -- > REYAZ-UL-HAQUE______________________________ > prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 > Ph - 0612234881 > - - > http://hashiya.blogspot.com From vineetdu at gmail.com Sun Oct 21 10:45:48 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Sat, 20 Oct 2007 21:15:48 -0800 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KSw4KS/4KSv?= =?utf-8?b?4KSwIOCkoeClguCkrOCliyDgpKbgpYfgpJfgpYAg4KSo4KS14KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSw4KS+IOCkleClgCDgpLDgpL7gpK7gpJXgpJrgpYzgpKE=?= =?utf-8?b?4KS84KWA?= Message-ID: <829019b0710202215l1c96f216oa04431ce3ec6625e@mail.gmail.com> करियर डूबो देगी नवरात्रा की रामकचौड़ी दिल्ली यूनिवर्सिटी के हेल्थ सेंटर के सामने भारी भीड़। देखकर अच्छा लगा कि चलो सरकारी विज्ञापन का असर हुआ है, लोग पोलियो का टीका और एचआईवी की जांच कराने आए हैं। लेकिन मन में दुविधा भी कि अचानक इतने लोग जागरुक कैसे हो गए। नजदीक जाकर देखा तो एक भी बच्चा टीका लेने की उम्र का नहीं था और न ही कोई युवा साथी और स्त्रियां जिसे देखकर लगे कि वे अपनी जांच कराने आए हैं। चारो तरफ से लोग घिरे हैं और बीच में कुछ हलचल जारी है। पता किया तो मालूम हुआ कि रात में माता जागरण है, अभी इसलिए रामकचौड़ी बांटा जा रहा है। दिल्ली आकर रामकचौड़ी का इतिहास जानने की इच्छा बराबर बनी रही है कि राम कचौडी राम ने वनवास जाने से पहले खाया था या फिर वनवास से लौटकर। इस कचौडी को कहीं माता सीता ने वनवास में ही तो नही बनाया था, रावण के आने के पहले। लेकिन यहां ये सवाल पूछना ठीक नहीं था,मार हो सकती थी, दंगा भड़कने का खतरा था। क्योंकि भीड़ में दो ही तरह के लोग शामिल थे, एक जिसे कि किसी पंडित ने बताया कि मजबूरों को रामकचौड़ी खिलाओ,पाप कटेगा और दूसरे वे लोग जिनका दोपहरे के खाने दस रुपये बच जाते और इस बीच अगर मैं कुछ करता तो दोनों भड़क जाते क्योंकि हिन्दुस्तान में भूख और पाप से मुक्ति सबसे बड़ा मुद्दा है। और जहां यहां अंगूठा डाला तो फिर खैर नहीं। ये भी डर था कि जहां मुद्दा छेड़ा कि कम्मीटेड रामभक्त कलेम न करने लगे कि यहीं थी सीता रसोई और यहीं पर बनी थी देश की पहली राम कचौडी, अब कौन लड़े इनसे जब सरकार पार पा ही नहीं रही हो तो फिर अपना कहां बस है। लेकिन मन में सवाल भी कि पूरी दिल्ली छोड़कर इसे सबसे सही जगह हमारी यूनिवर्सिटी ही लगी। मैं जब रांची, झारखंड में था तो अपने कॉलेज के साथियों के साथ छठ पूजा के दिनों में बोरा और खाली डिब्बा लेकर रोड़ के दोनों ओर खड़े हो जाते, डैम में सूर्य को अर्घ्य देकर लौटते और हमारे बोरे और डिब्बों में प्रसाद के तौर पर ठेकुआ डालते जाते। पन्द्रह- बीस दिनों तक वही हमारा नाश्ता होता। मेरे साथ कई इसाई और आदिवासी साथी भी होते जो सालोंभर हिन्दुओं के कर्मकांड को खूब गरियाते, मूर्ति पूजा का विरोध करते और इस गरज से भी कि मैं चिढ़ जाउंगा लेकिन उनके साथ जब मैं भी गरियाने लगता तो आमीन..आमीन बोलकर चले जाते। प्रसाद जमा करने का ये तरीका चार साल तक चला। लड़कियां हमें बड़े प्यार से प्रसाद देती कि जेबेरियन होकर हमसे प्रसाद मांग रहे हैं। लेकिन दिल्ली में तो नजारा ही कुछ और है, ऐसे पब्लिक प्लेस में खड़े होकर मांगना, कोई सोच भी कैसे सकता है। मेरा बार-बार मन हो रहा था कि लग जाउं लाइन में लेकिन हर दो मिनट पर पहचान का दिख जाता, अंत में सोचा देखे तो देख ले अपन तो आज खाएंगे ही रामकचौड़ी। फिर डर लगा अपने मीडिया साथियों से कि आकर बाइट लेंगे, पूछेंगे कि कैसा लग रहा है रामकचौडी खाने में। अच्छा ये बताइए, आप रिसर्चर लोग सिर्फ यहीं खाते हैं या फिर पेशेवर लंगर, आई मीन कितने साल का अनुभव है। और तब फिर अपने दर्शकों से कहती .....तो आप देख रहे हैं कि डीयू में लगे इस लंगर में न केवल मजबूर लोग शामिल हैं बल्कि रिसर्चर भी खूब मजे ले रहे हैं। कई दुविधाएं लेकिन निबट लेंगे सबसे और इनकी तो मैं ब्लॉग लिखकर भड़ास निकाल लूंगा।... लग गया लाइन में । पीछे से आवाज आई क्यों भाई पैसा मिलना शुरु नहीं हुआ है , अरे डॉक्टर साहब गाइड का नाम डूबाइएगा क्या, यही बचा था करने के लिए पढ़-लिखकर चुतियापा। एक ने कहा, कल ही दू गो लक्स के गंजी लिए हैं, कटोरा फ्री दिया है, आके ले जाइएगा। अपने एक साथी ने कहा स्साला इंटल बन रहा है। देखा एक रिक्शेवाले की नजर मेरे उपर लगातार बनी है, सोच रहा होगा कि भागा हुआ सिरफिरा है, आंखों में चमक आती जा रही थी उसकी कि इत्तला करने पर सरकार जरुर इनाम देगी।....सब झेल गया लेकिन अचानक अपनी मॉडल गीतांजलि की याद आ गयी और सोचा कि कल को लेक्चरर की इंटरव्यू के लिए गया और जहां मुझे देखते ही गुरुजी के विरोधी खेमेवाले मास्टर साहब ने चिल्ला दिया कि बहाली लेक्चरर की होनी है या पागल की, तब तो अपनी बत्ती लग गयी। धीरे से दोना लिया, टप्परवेयर की टिफिन निकाली, उसमें रामकचौड़ी डाली और स्पिक मैके की कैंटिन में हर्बल टी के साथ लेकर बैठ गया...मन में यही सोच रहा था कि थैंक गॉड, अपने झारखंडी साथी ने नहीं देखा नहीं तो उसे जाकर बताता कि विनीत तो भीख मांगकर अपना काम चलाता है, कर्जा में डूबा है, सारे पैसे चुकाने में चले जाते। यूजीसी नेट के लिए अभी दस दिन से ही तो आने लगी है अपने पास.... लेबल: कैम्पस का झोल-झाल -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071020/30a9436d/attachment.html From sadan at sarai.net Mon Oct 22 12:45:59 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Mon, 22 Oct 2007 12:45:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= navraatra aur navraatri In-Reply-To: <829019b0710202215l1c96f216oa04431ce3ec6625e@mail.gmail.com> References: <829019b0710202215l1c96f216oa04431ce3ec6625e@mail.gmail.com> Message-ID: vineet, delhi ki kai baaton ki traha mujhe yah kabhi samajh main nahi aayaa ki jahaan pure desh bhar main ( punjaab, hariyaana ka pataa nahi bhai) navraatri ( raatri ke saath nav lagaa kar) kaha jaataa hai wahin delhi main ise raatraa kyon kaha jaataa hai. ek do baar apane intel types parichiton se puchha bhi to hikaarat se dekhaa bhaav kuchh aisa ki cultural subjectivism nahi padhe ho bachu to chup maar gaya. lekin aaj phir yah sawaal puchhane ko man machal gaya. kuchh aur bhi sabd jo mere samajh se pare the aur jinakaa hamare kuch bihari agrajon ne chintan manan kiyaa woh hai: behan ke.... maine chaar bindu diye ki pataa nahi koi mere posting par aapatti na khari kar de. wese meri sujhav hai ki hum deewan par ek prachalit savdon ka online kosh banain. dekhiye bhai yah na kah dijiega ki aisa prayaas kahin aur chal raha hai aur wah jaaiye, apana muh lekar. bhai kitaab ki rachanaa aur subh karya to kai jagahon par saath saath chal saktaa hai. delhi aur aaspaas ke pradeshon main bole jaanewaali gaaliyon ka ek bahut purana kosh to sarai ke archive main bhi hai lekin hum deewan par bhi ise sure kar sakte hain. saayad ek baar yah baat deewan par pahale bhi uthi thi, lekin duniyaabi jhamelon main pichhe chhut gayi. On 10:45 am 10/21/07 "vineet kumar" wrote: > > करियर डूबो देगी नवरात्रा > की रामकचौड़ी > > दिल्ली यूनिवर्सिटी के > हेल्थ सेंटर के सामने भारी > भीड़। देखकर अच्छा लगा कि > चलो सरकारी विज्ञापन का असर > हुआ है, लोग पोलियो का टीका > और एचआईवी की जांच कराने आए > हैं। लेकिन मन में दुविधा भी > कि अचानक इतने लोग जागरुक > कैसे हो गए। नजदीक जाकर देखा > तो एक भी बच्चा टीका लेने की > उम्र का नहीं था और न ही कोई > युवा साथी और स्त्रियां > जिसे देखकर लगे कि वे अपनी > जांच कराने आए हैं। चारो तरफ > से लोग घिरे हैं और बीच में > कुछ हलचल जारी है। पता किया > तो मालूम हुआ कि रात में > माता जागरण है, अभी इसलिए > रामकचौड़ी बांटा जा रहा है। > दिल्ली आकर रामकचौड़ी का > इतिहास जानने की इच्छा > बराबर बनी रही है कि राम > कचौडी राम ने वनवास जाने से > पहले खाया था या फिर वनवास > से लौटकर। इस कचौडी को कहीं > माता सीता ने वनवास में ही > तो नही बनाया था, रावण के आने > के पहले। लेकिन यहां ये सवाल > पूछना ठीक नहीं था,मार हो > सकती थी, दंगा भड़कने का > खतरा था। क्योंकि भीड़ में > दो ही तरह के लोग शामिल थे, एक > जिसे कि किसी पंडित ने बताया > कि मजबूरों को रामकचौड़ी > खिलाओ,पाप कटेगा और दूसरे वे > लोग जिनका दोपहरे के खाने दस > रुपये बच जाते और इस बीच अगर > मैं कुछ करता तो दोनों भड़क > जाते क्योंकि हिन्दुस्तान > में भूख और पाप से मुक्ति > सबसे बड़ा मुद्दा है। और > जहां यहां अंगूठा डाला तो > फिर खैर नहीं। ये भी डर था कि > जहां मुद्दा छेड़ा कि > कम्मीटेड रामभक्त कलेम न > करने लगे कि यहीं थी सीता > रसोई और यहीं पर बनी थी देश > की पहली राम कचौडी, अब कौन > लड़े इनसे जब सरकार पार पा > ही नहीं रही हो तो फिर अपना > कहां बस है। लेकिन मन में > सवाल भी कि पूरी दिल्ली > छोड़कर इसे सबसे सही जगह > हमारी यूनिवर्सिटी ही लगी। > मैं जब रांची, झारखंड में था > तो अपने कॉलेज के साथियों के > साथ छठ पूजा के दिनों में > बोरा और खाली डिब्बा लेकर > रोड़ के दोनों ओर खड़े हो > जाते, डैम में सूर्य को > अर्घ्य देकर लौटते और हमारे > बोरे और डिब्बों में प्रसाद > के तौर पर ठेकुआ डालते जाते। > पन्द्रह- बीस दिनों तक वही > हमारा नाश्ता होता। मेरे > साथ कई इसाई और आदिवासी साथी भी होते जो सालोंभर हिन्दुओऊ>  के कर्मकांड को खूब गरियाते > , मूर्ति पूजा का विरोध करते ऊ> > Ԡİ इस गरज से भी कि मैं चिढ़ जा > उंगा लेकिन उनके साथ जब मैं भ > ी गरियाने लगता तो आमीन..आमीन > बोलकर चले जाते। प्रसाद जमा > करने का ये तरीका चार साल तक ऊ> > ڠIJा। लड़कियां हमें बड़े > प्यʦgt; ľर से प्रसाद देती कि > जेबेरिऊ> ϠĨ होकर हमसे प्रसाद > मांग रहे > हैं। > लेकिन दिल्ली में तो नजारा > ही कुछ और है, ऐसे पब्लिक > प्लेस में खड़े होकर मांगना, > कोई सोच भी कैसे सकता है। > मेरा बार-बार मन हो रहा था कि > लग जाउं लाइन में लेकिन हर > दो मिनट पर पहचान का दिख > जाता, अंत में सोचा देखे तो > देख ले अपन तो आज खाएंगे ही > रामकचौड़ी। फिर डर लगा > अपने मीडिया साथियों से कि > आकर बाइट लेंगे, पूछेंगे कि > कैसा लग रहा है रामकचौडी > खाने में। अच्छा ये बताइए, > आप रिसर्चर लोग सिर्फ यहीं > खाते हैं या फिर पेशेवर > लंगर, आई मीन कितने साल का > अनुभव है। और तब फिर अपने > दर्शकों से कहती .....तो आप देख > रहे हैं कि डीयू में लगे इस > लंगर में न केवल मजबूर लोग > शामिल हैं बल्कि रिसर्चर भी > खूब मजे ले रहे हैं। कई > दुविधाएं लेकिन निबट लेंगे > सबसे और इनकी तो मैं ब्लॉग > लिखकर भड़ास निकाल लूंगा।... > लग गया लाइन में । पीछे से > आवाज आई क्यों भाई पैसा > मिलना शुरु नहीं हुआ है , अरे > डॉक्टर साहब गाइड का नाम > डूबाइएगा क्या, यही बचा था > करने के लिए पढ़-लिखकर > चुतियापा। एक ने कहा, कल ही > दू गो लक्स के गंजी लिए हैं, > कटोरा फ्री दिया है, आके ले > जाइएगा। अपने एक साथी ने कहा > स्साला इंटल बन रहा है। देखा > एक रिक्शेवाले की नजर मेरे > उपर लगातार बनी है, सोच रहा > होगा कि भागा हुआ सिरफिरा > है, आंखों में चमक आती जा रही > थी उसकी कि इत्तला करने पर > सरकार जरुर इनाम देगी।....सब > झेल गया लेकिन अचानक अपनी > मॉडल गीतांजलि की याद आ गयी > और सोचा कि कल को लेक्चरर की > इंटरव्यू के लिए गया और जहां > मुझे देखते ही गुरुजी के > विरोधी खेमेवाले मास्टर > साहब ने चिल्ला दिया कि > बहाली लेक्चरर की होनी है या > पागल की, तब तो अपनी बत्ती लग > गयी। धीरे से दोना लिया, > टप्परवेयर की टिफिन निकाली, > उसमें रामकचौड़ी डाली और > स्पिक मैके की कैंटिन में > हर्बल टी के साथ लेकर बैठ > गया...मन में यही सोच रहा था > कि थैंक गॉड, अपने झारखंडी > साथी ने नहीं देखा नहीं तो > उसे जाकर बताता कि विनीत तो > भीख मांगकर अपना काम चलाता > है, कर्जा में डूबा है, सारे > पैसे चुकाने में चले जाते। > यूजीसी नेट के लिए अभी दस > दिन से ही तो आने लगी है अपने > पास.... लेबल: कैम्पस का झोल-झाल From vineetdu at gmail.com Mon Oct 22 13:39:52 2007 From: vineetdu at gmail.com (vineet kumar) Date: Mon, 22 Oct 2007 13:39:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSc4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpKbgpY3gpKfgpKEg4KS5?= =?utf-8?b?4KWI4KSCIOCkruCli+CkpuClgA==?= Message-ID: <829019b0710220109h54e69469p394afbd29a654621@mail.gmail.com> एक ठीक-ठाक समझदार आदमी जब बाजार जाता है तो वही खरीद कर लाता है जिसकी उसे जरुररत होती है। जरुरत है आलू की तो चीकू नहीं खरीदता। लेकिन मीडिया में समझदार आदमी भी गच्चा खा जाता है जैसे अभी दो दिन पहले गच्चा खा गए अपने डेविल्स एडवोकेट के तेजतर्रार एंकर करन थापर। करन पिछले नौ-दस महीने से देश के सबसे सफल मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी(गुजरात) का इंटरव्यू लेने की कसरत में जुटे थे। दिसम्बर-जनवरी से ही मान-मनौअल चल रहा था कि दे दीजिए, आपसे ये नहीं पूछेंगे, वो ही पूछेंगे और अंत में मोदी रावण जलाने के दो दिन पहले सीएनएन आइबीएन की स्क्रीन पर अवतरित हुए। लेकिन करन के नौ-दस महीने की तैयारी पर मोदी ने साढ़े चार मिनट में मट्ठा घोल दिया, चार मिनट बोलने पर ही पानी की तलब हुई और पानी पीकर एकदम से बोले...न, अपनी दोस्ती बनी रहे, बस। करन पूछ रहे थे गुजरात के लिए आपने जनता से माफी मांगी. मोदी ने कहा हां. करन ने कहा एक बार फिर दुहराएंगे...मोदी का जबाब था हमें जो भी कहना था उसी समय बोल दिया। मतलब साफ था कि चैनल को जितनी मर्जी हो उतनी बार लूप चलाए, रीटेक ले, नेता आदमी स्टेटमेंट बार-बार नहीं दोहराता, बदल भले दे। मोदी ने भी वैसा ही किया।....करन कहते रह गए......मोदीजी, मोदीजी, लेकिन बिदक चुके मोदी को और रथ पर चढ़ चुके आडवाणी को भला कौन रोक सकता है, सो वे नहीं रुके। अब देखिए, चैनल को कितनी मशक्कत करनी पड़ी होगी, इस इक्सक्यूलिसीव इंटरव्यू के लिए, लाखों का खर्चा आया होगा, कैमरायूनिट, गाडी भाड़ा वगैरह...वगैरह। लेकिन न्यूज के नाम पर साढे चार मिनट का मटेरियल, जिसमें 20-25 सेकेंड मोदीजी के पानी पीने में ही चला गया। तो क्या बाकी के समय में स्क्रीन को ब्लैक जाने दे। ऐसे कैसे हो सकता है, पैसा लगा है भइया, टीआरपी का मामला है, अब जो है उसी से मसाला निकालना है भाई...सो मसाला निकल भी आया। शाम को सीएनएन के भतीजे IBN7 पर आ गया मसाला डंके की चोट पर। अरे खबर हर कीमत पर जब बोला है तो दर्शकों से चीट थोडे ही करनी है और फिर इसको लगा डाला तो लाइफ झिंगा ला ला.... लगाकर जो बैठे हैं उनकी झंड थोडे ही करनी है। सो सीएनएन की तुरही IBN7 पर डंके में कन्वर्ट हो गयी, जिसमें दो कौडी का माल नहीं था उसे हॉट रेसेपी बना दिया, भइया इसे कहते हैं मीडिया की अक्लमंदी। एंकर और भुक्तभोगी करन लग गए लाइव देने। अविनाश भाई ने लिखा मोहल्ला पर कि क्यों असहज हुए मोदी। यही सवाल एंकर ने करन से पूछा तो करन ने बताया कि हो सकता है मोदी अंग्रेजी के कारण ऐसा हो गए। एफ.एमपर एक एड आती है... *अंग्रेजी तो आती है लेकिन साले झिझक मार जाती है।* यहां उल्टा हो गया। झिझक तो नहीं है लेकिन एक घड़ी के लिए करन को जरुर लगा होगा कि इंटरव्यू से बढ़िया रहता साक्षातकार करवाना. बंदा भाषा को लेकर लसक तो नहीं जाता, कहां तो न्यूज बनाने आए थे कि गुजरात दंगा नहीं जेनोसाइड, मोदी उस दौरान तटस्थ नहीं थे....वगैरह.. लेकिन न्यूज क्या बनी *अंग्रेजी में लद्धड हैं मोदी। *क्या करोगे, अब इसी को खपाओ। कुछ पानी पीने पर भी बात हो सकती है कि जब भी आप परेशानी महसूस करने लगें, मोदीजी की तरह बिना हिचक के मांगकर पानी पिएं, राहत मिलेगी. अंग्रेजी चैनलों को नसीहत मिलेगी कि भइया कसम खाकर मत बैठो कि सब इंगलिस में ही पूछेंगे और दिखाएंगै, मेन मुद्दा है मसाला का कि जैसे मिल जाए। यहां हिन्दी प्रेमियों को थोड़ा खुश होने का भी स्पेस है कि वे इंगलिसवालों को हिन्दी की तरफ लौटने के लिए मजबूर कर सकते हैं। अच्छा मीडिया में ये पहली दफा नहीं हुआ है कि गए थे, बाल सेट करवाने, चेहरा चमकाने और आए माथा मुड़ाकर। तुर्कमान गेट पर एक बंदा गया था शिक्षा जगत में चल रहे सेक्स रैकेट का खुलासा करने और आतंकवादी का ठप्पा लगवा लिया, फर्जीगिरी में फंस गया। न्यूज लेने गया था, आपही न्यूज बन गया। चैनल हेड को कहना पड़ गया कि हमारे रिपोर्टर ने हमें डार्क में रखा। अब चैनल की कमिटमेंट के मुताबिक- *खबर हमारी फैसला आपका,* जनता सोच रही है कि जिस चैनल का रिपोर्टर अपने बॉस को डार्क में रख रहा है वो चैनल तो पूरे देश को और हमको भी डार्क में रखेगा। लो भाई गए थे जिप दि ट्रूथ करने अपनी जिप और जुबान बंद करनी पड़ गयी। यही हाल हुआ देश के सबसे तेज चैनल के साथ। चैनल लालूजी से सिर्फ इतना जानना चाह रहा है कि आपने भारी घाटे की रेल को मुनाफे की रेल यानि लालू की रेल में कैसे कन्वर्ट कर दिया। चैनल को इसी पर खेलना था..तो उल्टे लालू ने पूछ दिया कि ढंडा में इ बच्चा सबको काहे बैठाए हो और डीयू कैम्पस के सबसे इन्टल बंदो से पूछ डाला, आने के लिए चैनल ने पइसा दिया है का। इ लो न्यूज कहां से कहां पहुंच गयी। इसको कहते हैं कि खाटी दही की हांडी में चूहे का मुत देना।...सो वही होता रहता है। लेकिन इतनी मेहनत से जमायी दही को फेंक तो नहीं देंगे, कढ़ी के काम आएगी।...तो न्यूज का बड़ा हिस्सा कढ़ी है..झालदार, मसालेदार। अच्छा, घर में कुछ उल्टा-पुल्टा खरीद लाए और दानी किस्म के नहीं हैं, फ्रीज नहीं है तो माल सड़ जाएगा। खबरों की दुनिया में कुछ भी बेकार नहीं जाता, सड़ता नहीं है क्योंकि यहां खाने और पचाने वालों की आबादी करोडों में है।... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071022/498bc4b8/attachment.html From sadan at sarai.net Mon Oct 22 14:39:57 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Mon, 22 Oct 2007 14:39:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSC4KSX4KWN?= =?utf-8?b?ICAg4KSw4KWH4KSc4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLLgpKbgpY3gpKfgpKEg?= =?utf-8?b?4KS5ICAg4KWI4KSCIOCkruCli+CkpuClgA==?= In-Reply-To: <829019b0710220109h54e69469p394afbd29a654621@mail.gmail.com> References: <829019b0710220109h54e69469p394afbd29a654621@mail.gmail.com> Message-ID: <197ecd3f76afd963e82b82d7ff2c5ebd@sarai.net> aajkal main (humlog, pariwar sahit) tv se banchit hain. yahan hamare campus main cable aati nahi aur tatasky jise lagane par life jhingaa laalaa ho jaataa hai abhi lagbaayi nahi isiliye karan-modi prakaran ka visual sukh lene se banchit ra gaya hun. ek do baar website par jaa kar try bhi mara par baat jami nahi. haan times of India par interview ka transcript jarur padha. aur usi ke bal bute par mujhe lagata hai ki vineet is maamle ko ek aur angle se dekhane ki jarurat hai aur wah hai anchor ke apane trp rating ka maamlaa. is modi left-over interview main yadi kisi ka image sabase jyaadaa circulate ho raha hai to wah apane karan bhaiya ka hi. ki bhai jis aadmi ne bare hansate hanste binaa kisi hichak ke kitne hi musakil sawaalon ka jawab pahale de diya usi modi ko karan ne maidaan se ukhaar phenka. yadi interview successfull ho hi jaati, yaani complete ho hi jaati to karan thapar ka naam itana charchaa main kyon aataa. interview ek murder ki tarah joint text hotaa hai. jis tarah murder ka script murderer aur murdered dono ke sambaad ka parinaam hota hai usi tarah interview interviewer aur respondent dono ki sahjamin par taiyaar hota hai. aur yahan to respondent maidaan chhor kar bhaag kharaa hua to maidan main to bas interviewer ka naam hi dikhai dene ko rah gaya. sadan. p.s. waise karan bhaiya se mujhe bahut koft hoti hai, wo top down look, wo all in control gesture aur chabaa kar angrezi bolana jaise ki duniya tuchh jibon se bhari pari ho, saamne betha hua banda bhi chirkut aur dekhane wala to khair churkut hai hi. yahi akkharpan parbhu ji main khataktaa hai, khaskar uski khi khi hansi main. daant niporte rahte hai On 1:39 pm 10/22/07 "vineet kumar" wrote: > > एक ठीक-ठाक समझदार आदमी जब > बाजार जाता है तो वही खरीद > कर लाता है जिसकी उसे जरुररत > होती है। जरुरत है आलू की तो > चीकू नहीं खरीदता। लेकिन > मीडिया में समझदार आदमी भी > गच्चा खा जाता है जैसे अभी > दो दिन पहले गच्चा खा गए > अपने डेविल्स एडवोकेट के > तेजतर्रार एंकर करन थापर। > करन पिछले नौ-दस महीने से देश के सबसे सफल मुख्यमंत्रॊ> नरेन्द्र मोदी(गुजरात) का इऊ>  ğरव्यू लेने की कसरत में जुट > े थे। दिसम्बर-जनवरी से ही मा > न-मनौअल चल रहा था कि दे दीजिऊ> > Ϭ आपसे ये नहीं पूछेंगे, वो ही > पूछेंगे और अंत में मोदी राव > ण जलाने के दो दिन पहले सीएनए > न आइबीएन की स्क्रीन पर > अवतरʦgt; Ŀत हुए। लेकिन करन के > नौ-दस मह > ीने की तैयारी पर मोदी ने साढ > ़े चार मिनट में मट्ठा घोल दि > या, चार मिनट बोलने पर ही पानॊ> > की तलब हुई और पानी पीकर एकदʦgt; > Į से बोले...न, अपनी दोस्ती बनी > रहे, बस। करन पूछ रहे थे गुजरऊ> > ޠĤ के लिए आपने जनता से माफी > मʦgt; ľंगी. मोदी ने कहा हां. करन > ने ʦgt; ĕहा एक बार फिर दुहराएंगे...मो > दी का जबाब था हमें जो भी कहनऊ> > ޠथा उसी समय बोल दिया। मतलब > सʦgt; ľफ था कि चैनल को जितनी > मर्जी > हो उतनी बार लूप चलाए, रीटेक ऊ> > ҠŇ, नेता आदमी स्टेटमेंट बार-ऊ> > ̠ľर नहीं दोहराता, बदल भले देॊ> > Ġमोदी ने भी वैसा ही किया।....कʦgt; İन कहते रह गए......मोदीजी, मोदीऊ> ܠŀ, लेकिन बिदक चुके मोदी को औʦgt; İ रथ पर चढ़ चुके आडवाणी को भल > ा कौन रोक सकता है, सो वे नहीं > रुके। > अब देखिए, चैनल को कितनी > मशक्कत करनी पड़ी होगी, इस > इक्सक्यूलिसीव इंटरव्यू के > लिए, लाखों का खर्चा आया > होगा, कैमरायूनिट, गाडी > भाड़ा वगैरह...वगैरह। लेकिन > न्यूज के नाम पर साढे चार > मिनट का मटेरियल, जिसमें 20-25 > सेकेंड मोदीजी के पानी पीने > में ही चला गया। तो क्या > बाकी के समय में स्क्रीन को > ब्लैक जाने दे। ऐसे कैसे हो > सकता है, पैसा लगा है भइया, > टीआरपी का मामला है, अब जो है > उसी से मसाला निकालना है > भाई...सो मसाला निकल भी आया। > शाम को सीएनएन के भतीजे IBN7 पर > आ गया मसाला डंके की चोट पर। > अरे खबर हर कीमत पर जब बोला > है तो दर्शकों से चीट थोडे > ही करनी है और फिर इसको लगा > डाला तो लाइफ झिंगा ला ला.... > लगाकर जो बैठे हैं उनकी झंड > थोडे ही करनी है। सो सीएनएन > की तुरही IBN7 पर डंके में > कन्वर्ट हो गयी, जिसमें दो > कौडी का माल नहीं था उसे हॉट > रेसेपी बना दिया, भइया इसे कहते हैं मीडिया की अक्लमंदॊ> Ť एंकर और भुक्तभोगी करन लग ऊ> נď लाइव देने। > अविनाश भाई ने लिखा मोहल्ला > पर कि क्यों असहज हुए मोदी। ऊ> > ϠĹी सवाल एंकर ने करन से पूछा > ʦgt; Ĥो करन ने बताया कि हो सकता > है > मोदी अंग्रेजी के कारण ऐसा ह > ो गए। एफ.एम पर एक एड आती > है...अʦgt; Ăग्रेजी तो आती है > लेकिन सालॊ> Ǡझिझक मार जाती > है। यहां उल्ऊ> ߠľ हो गया। झिझक > तो नहीं है लेʦgt; ĕिन एक घड़ी के > लिए करन को जरु > र लगा होगा कि इंटरव्यू से बढ > ़िया रहता साक्षातकार करवान > ा. बंदा भाषा को लेकर लसक तो > नʦgt; Ĺीं जाता, कहां तो न्यूज > बनानʦgt; Ň आए थे कि गुजरात दंगा > नहीं ज > ेनोसाइड, मोदी उस दौरान > तटस्ʦgt; ĥ नहीं थे....वगैरह.. > लेकिन न्यू > ज क्या बनी > अंग्रेजी में लद्धड हैं > मोदी। क्या करोगे, अब इसी को > खपाओ। कुछ पानी पीने पर भी > बात हो सकती है कि जब भी आप > परेशानी महसूस करने लगें, > मोदीजी की तरह बिना हिचक के > मांगकर पानी पिएं, राहत > मिलेगी. अंग्रेजी चैनलों को > नसीहत मिलेगी कि भइया कसम > खाकर मत बैठो कि सब इंगलिस > में ही पूछेंगे और दिखाएंगै, > मेन मुद्दा है मसाला का कि > जैसे मिल जाए। यहां हिन्दी > प्रेमियों को थोड़ा खुश > होने का भी स्पेस है कि वे > इंगलिसवालों को हिन्दी की > तरफ लौटने के लिए मजबूर कर > सकते हैं। अच्छा मीडिया > में ये पहली दफा नहीं हुआ है > कि गए थे, बाल सेट करवाने, > चेहरा चमकाने और आए माथा > मुड़ाकर। तुर्कमान गेट पर > एक बंदा गया था शिक्षा जगत > में चल रहे सेक्स रैकेट का > खुलासा करने और आतंकवादी का > ठप्पा लगवा लिया, फर्जीगिरी > में फंस गया। न्यूज लेने गया > था, आपही न्यूज बन गया। चैनल > हेड को कहना पड़ गया कि > हमारे रिपोर्टर ने हमें > डार्क में रखा। अब चैनल की > कमिटमेंट के मुताबिक- खबर > हमारी फैसला आपका, जनता सोच > रही है कि जिस चैनल का > रिपोर्टर अपने बॉस को डार्क > में रख रहा है वो चैनल तो > पूरे देश को और हमको भी > डार्क में रखेगा। लो भाई गए > थे जिप दि ट्रूथ करने अपनी > जिप और जुबान बंद करनी पड़ > गयी। यही हाल हुआ देश के > सबसे तेज चैनल के साथ। चैनल > लालूजी से सिर्फ इतना जानना > चाह रहा है कि आपने भारी > घाटे की रेल को मुनाफे की > रेल यानि लालू की रेल में > कैसे कन्वर्ट कर दिया। चैनल > को इसी पर खेलना था..तो उल्टे > लालू ने पूछ दिया कि ढंडा > में इ बच्चा सबको काहे बैठाए > हो और डीयू कैम्पस के सबसे > इन्टल बंदो से पूछ डाला, आने > के लिए चैनल ने पइसा दिया है > का। इ लो न्यूज कहां से कहां > पहुंच गयी। इसको कहते हैं कि > खाटी दही की हांडी में चूहे > का मुत देना।...सो वही होता > रहता है। लेकिन इतनी मेहनत > से जमायी दही को फेंक तो > नहीं देंगे, कढ़ी के काम > आएगी।...तो न्यूज का बड़ा > हिस्सा कढ़ी है..झालदार, > मसालेदार। अच्छा, घर में कुछ > उल्टा-पुल्टा खरीद लाए और > दानी किस्म के नहीं हैं, > फ्रीज नहीं है तो माल सड़ > जाएगा। खबरों की दुनिया में > कुछ भी बेकार नहीं जाता, > सड़ता नहीं है क्योंकि यहां > खाने और पचाने वालों की आबादी करोडों में है।... From sadan at sarai.net Mon Oct 22 14:50:55 2007 From: sadan at sarai.net (sadan at sarai.net) Date: Mon, 22 Oct 2007 14:50:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <43b3a511ac6287ebf2047445b32d79ca@sarai.net> mitron aur mitranio, aajkal main kuchh jyada bol raha hun aur wah bhi roman main. to kya apologetic hone jarurat hai? sawaal isliye ki aapka jawaab to ayega hai nahi aur main swachhand rahungaa. dar asal maine thori si asafal koshis hindi unicode main likhane ki hai. ravikant ke madad se lekin puri tarah safal nahi ho paya hun. main window xp professional istemaal karataa hun. maine isake regional setting main jaa kar indic script enable to kar liya hai. mere desktop par Hin icon bhi aa raha hai( on the bottom right hand side) maine keyman aur devromU bhi download kiya par keyman mujhe lagataa hai thik se install nahi ho paya hai. maine ise download kiya hai. main kisi step main galati kar raha hun par samajh nahi paa raha. sujhab ka intejaar rahega. abhi main devnaagri main to likh letaa hun lekin a dabaane par devnaagri ka wahi sunai dene baalaa sabd nahi ubharta hai. sadan. From ravikant at sarai.net Mon Oct 22 15:19:30 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 22 Oct 2007 15:19:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= sine itihas: hindustan ka Message-ID: <200710221519.30633.ravikant@sarai.net> iske dharavahik aane ki ummeed hai, dekhte rahein: http://www.raviwar.com/news.asp?c4 ravikant वो भूली दास्तां बात से पहले की बात फ़िल्मों की यात्रा कथा यानी ऋषि कण्व की बेटी की कहानी कृष्ण राघव बड़ा ही आश्चर्य हुआ जब हमारे मित्र के. मोती गोकुलसिंह ने यह बताया कि उन्होंने भारतीय लोकप्रिय सिनेमा पर एक गंभीर पुस्तक लिखी है, जिसके द्वारा उन्होंने यह दर्शाया है कि किस तरह सिनेमा के साथ-साथ भारतीय समाज अथवा भारतीय समाज के साथ सिनेमा बदलता गया है. पुरानी बात को नए तरीके से इस तरह भी कह सकता हूं कि साहित्य ही नहीं “सिनेमा भी समाज का दर्पण है.” इस पुस्तक का नाम भी कुछ ऐसा ही है-“इंडियन पॉप्युलर सिनेमा : ए नेरेटिव आफ कल्चरल चेंज.” अब आप कहेंगे कि इस किताब के लेखन पर मुझे आश्चर्य क्यों? सो आश्चर्य एक नहीं कई हैं, कुछ सुखद कुछ दुखद. पहला तो यह कि इसे लिखने वाले मोती गोकुलसिंह यह किताब लिखने से पूर्व कभी भारत नहीं आए. वे भारतीय भी नहीं हैं. भारतीय मूल का उन्हें आप अवश्य कह सकते हैं क्योंकि वे मारीशस के हैं. इसमें भी एक पेंच है. वर्षों हो गए उन्हें मॉरीशस छोड़े. लगभग पैंतीस साल से वे लंदन में हैं और हिन्दी फिल्मों के द्वारा वे उस समाज, सभ्यता और संस्कृति से सतत् जुड़े रहे हैं जो कभी उनके पुरखों की थी. मोती को हिन्दी बोलनी नहीं आती. पढ़ने-लिखने का तो सवाल ही नहीं. घर में टूटी-फूटी भोजपुरी बोली जाती थी. वह भी उनके माता-पिता द्वारा, भाई-बहनों ने कभी नहीं बोली. इन्हें जो भी टूटे-फूटे दो-चार शब्द हिन्दी के आते हैं, वे केवल हिंदी फिल्में देखते रहने के कारण. लंदन में रहकर उम्र भर समाज शास्त्र पढ़ाते रहे. रिटायर हुए तो युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट लंदन में दक्षिण एशिया संबंधित विषयों पर एक नया विभाग खोलने में विश्वविद्यालय को मदद दी. या यों कहें कि यह विभाग इन्हीं के इशारे पर, इन्हीं की देखरेख में खुला. आजकल उसी के निदेशक हैं और अब इतनी बड़ी भूमिका के बाद दूसरे आश्चर्य के बारे में बताता हूं कि इस विभाग का एक विषय है “भारतीय लोकप्रिय सिनेमों का अध्ययन” (स्टडी ऑफ इंडियन पॉप्युलर सिनेमा). इसका कारण जानने पर मुझे एक और सुखद आश्चर्य हुआ कि एक सर्वेक्षण किए जाने पर यह पता चला कि समूचे विश्व के सिनेमा में भारतीय लोकप्रिय सिनेमा समाज को प्रभावित करने में सबसे अधिक सक्षम रहा है. युनिवर्सिंटी ऑफ ईस्ट लंदन में आज हिन्दी फिल्मों के गाने, विभिन्न दृश्य, फिल्म समीक्षाएं, समाज पर उनका प्रभाव इत्यादि का अवलोकन-अध्ययन चलता रहता है और यों तो पढ़ने वालों में इक्का-दुक्का हिन्दुस्तानी भी हैं किन्तु साधारणत: विदेशी ही अधिक हैं. है न आश्चर्य। दुखद आश्चर्य यह कि ये सब बातें हम भारतीयों ने क्यों नहीं सोची? लंदन तो छोड़िए हमने तो भारतीय लोकप्रिय सिनेमा को कभी अपने स्कूल-कॉलेज के लायक भी नहीं समझा. बल्कि न जाने कितनी ही धार्मिक संस्था एं हैं जिन्होंने हमारे बुजुर्गों के दिमाग में यह ठूंस-ठूंस कर भर दिया था कि फिल्में छूत का वह रोग हैं जिनका शिकार होते ही शराफत तुरंत मर जाती है. वैसे इस बात पर ख़ुश हुआ जा सकता है कि इस सा ल स्कूलों के पाठ्यक्रम में एकाध फ़िल्मों से संबंधित अध्याय जोड़े गए है. ऐसे में यह सवाल अपनी जगह बरकरार है कि“क्यों हैं यह इतना 'पॉप्यूलर?” क्यों इसकी चर्चा देश से भी अधिक विदेशों में होती है? क्यों आज अप्रवासी भारतीय, दूरदराज देशों में बैठे, हमारी भाषा, संस्कृति से अनजान होकर भी हिन्दी सिनेमा के अध्ययन और निर्माण पर टूट-टूटकर गिर रहे हैं? क्या है यह सिनेमा? कहां से कहां तक पहुंचने की कहानी है ? क्या अब भी यह वही है जैसा पहले था? यदि नहीं तो पहले क्या था और अब क्या है? बहुत बड़ी जद्दोजहद की कहानी है यह. ऋषि कण्व की बेटी शकुन्तला की कहानी है यह. चलिए प्रारंभ करें. पचास का दशक. बंबई की चौपाटी. हिन्दी फिल्मों का रजत जयंती समारोह. इस अवसर पर भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहब फालके का अभिनंदन होना था. थ्री पीस सूट में सज-धजे राजकपूर जब अपनी बात कह चुके तो उसके बाद दादा साहब फालके का नाम पुकारा गया. जनसमूह को एक और थ्री पीस सूट वाले का इंतजार था किंतु माइक पर जो आदमी आया वह नाटे से कद का एक बूढ़ा मराठी था, जिसने सादा सफेद कमीज के नीचे धोती और ऊपर एक भूरा कोट पहन रखा था. सिर पर एक काली टोपी और आंखों पर चश्मा. चेहरे पर जीवन के अनुभव की झुर्रियां और गहन गंभीरता. जो इस व्यक्ति ने कहा वह आप भी सुन लीजिए तो शायद समझ पाएं कि यह भारतीय सिनेमा कहां से कहां पहुंचा है और कहां पहुंचना चाहिए. दादा साहब ने कहा, “भारत में फिल्में बनाने की मैंने शुरूआत की थी, अपनी पत्नी के गहने बेचकर, उसी पत्नी, बच्चों और स्वयं से भी अभिनय करवाकर, घर के सामने बने हौद को फिल्म धोने की लेबो रेटरी में बदलकर, स्वयं ही कहानीकार, निर्माता, निर्देशक, कलाकार और संपादक बनकर, यानी हर तरह से लूट-पिटकर. यही फिल्म मेरे घर से निकलकर आप तक पहुंची है. यह फिल्म मेरी बेटी है. मैं ऋषि कण्व की तरह हूं, जिसके आश्रम से निकली उसकी यह बेटी 'फिल्म' आज राजप्रासादों में पहुंची है. मैंने इसे बड़े जतन से पाला-पोसा है, इसका ध्यान रखिएगा.” सो ऋषि के आश्रम से निकलकर राज प्रसाद तक पहुंचने की कहानी है, यह भारतीय फिल्मों की गाथा. छोटी-बड़ी न जाने कितनी बातें हैं जो इसके साथ जुड़ी हैं. गुदगुदाती हैं, हंसाती है रूलाती हैं, कल, आज और कल के समाज की कड़ी बन जाती हैं. आइए अगली बार से आप और हम मिलकर उस सुहाने सफर पर चलें जो हमें आगे नहीं, पीछे की ओर ले जाएगा और फिर अतीत के रथ में बिठाकर मीठे-मीठे हिचको ले खिलाते हुए आज के मुकाम पर वापस पहुंचा देगा. तो अगली बार से हम वो बातें करेंगे, जब फिल्म को फिल्म नहीं 'बाइस्कोप' कहा जाता थ From ravikant at sarai.net Mon Oct 22 15:45:40 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 22 Oct 2007 15:45:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KSoICwg?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= In-Reply-To: <43b3a511ac6287ebf2047445b32d79ca@sarai.net> References: <43b3a511ac6287ebf2047445b32d79ca@sarai.net> Message-ID: <200710221545.40814.ravikant@sarai.net> सदन, आलोक, और दोस्तो, पहले सदन से: तुमने कीमैन लगा लिया, फिर देवरॉम लगाया क्या? उसे लगाने के लिए एक बार फिर रीजनल/लैंग्वेज सेटिंग में जाओ. वहाँ एक और स्तर अंदर जाकर कीबोर्ड को चुनकर लगाओ. एक बार रीस्टार्ट करो, देखो, चलता है कि नहीं. देवरॉम है भी तुम्हारे पास? नहीं चले तो कंयूटर खोलकर रखना, फोन पर बात करते हैं. दूसरा विकल्प गूगल टूल का था, ट्राय किया? इधर आलोक से जो बातचीत हुई, वह दिलचस्प रही. तफ़सीलात मेरे और उनके पास हैं, हम डालते हैं, कल ही. लेकिन सबसे अद्भुत तजुर्बा जो मेरा रहा उस दिन का, वह था, आलोक के मैक को हिन्दी में देखने का. मैक वालों ने अपना युनिकोड फ़ॉन्ट बनाया है, और वह शायद सबसे अच्छा देवनागरी फ़ॉन्ट है, नोटपैड तक में एकदम साफ़ झलकता है, मेरी एक बार फिर विनती होगी आलोक से कि वे उसके *कैसे करें* को दीवान पर पोस्ट करें, देवनागरी डॉट नेट पर तो डालें हीं. सराय में हमारे कई दोस्त मैकियाने वाले हैं, उनकी भारी मदद होगी. शुक्रिया रविकान्त सोमवार 22 अक्टूबर 2007 14:50 को, sadan at sarai.net ने लिखा था: > mitron aur mitranio, > aajkal main kuchh jyada bol raha hun aur wah bhi roman main. to kya > apologetic hone jarurat hai? sawaal isliye ki aapka jawaab to ayega hai > nahi aur main swachhand rahungaa. > dar asal maine thori si asafal koshis hindi unicode main likhane ki hai. > ravikant ke madad se lekin puri tarah safal nahi ho paya hun. > main window xp professional istemaal karataa hun. maine isake regional > setting main jaa kar indic script enable to kar liya hai. mere desktop par > Hin icon bhi aa raha hai( on the bottom right hand side) maine keyman aur > devromU bhi download kiya par keyman mujhe lagataa hai thik se install nahi > ho paya hai. maine ise download kiya hai. > main kisi step main galati kar raha hun par samajh nahi paa raha. sujhab ka > intejaar rahega. > abhi main devnaagri main to likh letaa hun lekin a dabaane par devnaagri ka > wahi sunai dene baalaa sabd nahi ubharta hai. > sadan. > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From alok at devanaagarii.net Mon Oct 22 16:26:07 2007 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Mon, 22 Oct 2007 16:26:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSm4KSoICwg?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= In-Reply-To: <200710221545.40814.ravikant@sarai.net> References: <43b3a511ac6287ebf2047445b32d79ca@sarai.net> <200710221545.40814.ravikant@sarai.net> Message-ID: <9f359c1e0710220356q1fd33627k5f249ce2127df489@mail.gmail.com> 2007/10/22, Ravikant : > है, नोटपैड तक में एकदम साफ़ झलकता है, मेरी एक बार फिर विनती होगी आलोक से कि वे उसके > *कैसे करें* को दीवान पर पोस्ट करें, देवनागरी डॉट नेट पर तो डालें हीं. सराय में हमारे कई दोस्त > मैकियाने वाले हैं, उनकी भारी मदद होगी. बिल्कुल, आज शाम को ही डालता हूँ, तस्वीरों के साथ। -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From dajeet at gmail.com Tue Oct 23 17:53:03 2007 From: dajeet at gmail.com (ajeet dwivedi) Date: Tue, 23 Oct 2007 17:53:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KWA4KSy4KS/?= =?utf-8?b?4KSC4KSXIOCkrOCkqOCkvuCkriDgpK/gpK7gpYHgpKjgpL4g4KSq4KWB?= =?utf-8?b?4KS24KWN4KSk4KWHIOCkleCkviDgpLXgpL/gpLjgpY3gpKXgpL7gpKo=?= =?utf-8?b?4KSoLCDgpJrgpYzgpKXgpYAg4KSV4KS/4KS24KWN4KSk?= Message-ID: <292e6580710230523k84959b5sccf1ffbc0ac97515@mail.gmail.com> मीडिया का वर्ग भेद चौथी किश्त सीलिंग बनाम यमुना पुश्ते का विस्थापन अजीत द्विवेदी मीडिया मस्ती की खबरें करता है। मूड की खबरें करता है। भारत-आस्ट्रेलिया का मैच हो तो एक दिन पहले मेट्रो मूड से लेकर कस्बे तक के मूड की खबर ली जाती है। भारत हारे या जीते दोनों ही स्थितियों में मैच के अगले दिन रिएक्शन स्टोरी आती है। खबरिया चैनल तो हाथ के हाथ रिएक्शन स्टोरी भी दिखा देते हैं। पॉप, रॉक, भांगड़ा गायकों-नर्तकों की मस्ती की खबरें मीडिया का पहला सरोकार हैं। ऐसे में अगर कोई मूड बिगाड़ने वाली खबर आ जाए तो उसका क्या करें। जब ऐसी खबरें आती हैं तब उसके आकलन के दूसरे आधार तलाशे जाते हैं। मस्ती और मूड में एक किस्म की सार्वभौमिकता है। शकीरा और लोपेज से लेकर माधुरी दीक्षित और राखी सावंत तक सब एक स्केल से मापे जाते हैं। पर इनसे इतर जो खबरें होती हैं, उनके आकलन के पैमाने अलग-अलग होते हैं। दिल्ली में सीलिंग और यमुना पुश्ते पर विस्थापन ये दो ऐसे मुद्दे हैं, जो मेट्रो मूड की खबरों से अलग हैं। इसलिए जब ये दोनों खबरें ब्रेक हुईं तो सारे सार्वभौमिक पैमाने ध्वस्त हो गए। न तो मस्ती और मूड के पैमाने याद रहे और न चैनलों की जीवन रेखा बन चुका टीआरपी का पैमाना याद रहा। तब आकलन का आधार वर्ग और काफी हद तक वर्ण बना और इसलिए दोनों के प्रसारण-मुद्रण में एक बड़ा भेदभाव दिखा, जिसकी चर्चा पिछली तीन किस्तों से मैं कर रहा हूं। जिस तरह से अखबार में खबरों का महत्व इस बात से तय होता है कि खबर कितने कॉलम की है, उसकी हेडिंग कितने प्वाइंट में है, किस पन्ने पर छपी है, उसी तरह से टेलीविजन में उसका महत्व इससे तय होता है कि रन डाउन में उसे किस नंबर पर रखा गया, कितनी बार उसे हेडलाइन में दिखाया गया है, उस पर कितनी देर का पैकेज बना या उस पर कोई आधे-एक घंटे का प्रोग्राम बना या नहीं। यहां एक फर्क समझना जरूरी है। अखबार में जब खबर छपती है तो चाहे वह सिंगल कॉलम हो या आठ कॉलम बैनर हो, उसमें कोई चीज दोहराई नहीं जाती है। आपके पास जितनी सूचनाएं हैं या जो भी फोटो है, उसे आप एक बार इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन टेलीविजन में विजुअल (जो हो सकता है कि पांच सेकंड का हो), एक बाइट (जो हो सकता है दस शब्दों की हो) और एक सूचना (जो हो सकता है कि खबरों की कसौटी पर खरा नहीं उतरती हो) उस पर आधे घंटे का प्रोग्राम बनाया जा सकता है। एक विजुअल को इस दौरान 28 बार दिखाया जाएगा, एक बाइट 12 बार चलाई जाएगी और एक सूचना को हथौड़े की तरह 32 बार आपके सिर पर मारा जाएगा। 24 घंटे के टेलीविजन चैनल कुल मिला कर करीब छह घंटे के ओरिजिनल फुटेज पर सारे दिन चलते हैं। इसलिए अगर आपको सारे दिन कोई खबर टीवी पर चलती दिखे, तो इसका यह कतई मतलब नहीं निकालिएगा कि इसके लिए चैनल ने कई घंटों का वीडियो फुटेज जुटाया है। हो सकता है कि आधे घंटे के फुटेज पर सारे दिन का प्रोग्राम चलाया जाए। इस लंबी भूमिका की जरूरत इसलिए है कि जब हम यह जानें कि सीलिंग के लिए किसी चैनल ने कितनी देर की फुटेज जुटाई और पुश्ते पर के विस्थापन की कितनी देर की ओरिजिनल फुटेज उनके पास है तो हमें वास्तविकता का आभास हो सके। मुझे लगता है कि किसी एक चैनल का आंकड़ा इस बात की पुष्टि करने के लिए पर्याप्त होगा कि दोनों घटनाओं की कवरेज में कितना भेदभाव था। 2004 की शुरुआत में यमुना पुश्ते पर विस्थापन हुआ था। वह आम चुनाव का साल था और विस्थापन हमेशा एक राजनीतिक मुद्दा होता है। इसके बावजूद पुश्ते के विस्थापन को विस्थापित हो रहे लोगों के नजरिए से कवर नहीं किया गया। लेकिन यह अवांतर चर्चा का विषय है। अभी नंबर एक की होड़ में सबसे शिद्दत से शामिल चैनल स्टार न्यूज का उस समय महज छह-सात महीने पहले एनडीटीवी से अलगाव हुआ था और स्टार ने स्वतंत्र ऑपरेशन शुरू किया था। उसने पुश्ते के विस्थापन एक सामान्य घटना की तरह एक दिन के बुलेटिन में निपटा दिया। चैनल के भीतर से मिली अनधिकृत जानकारी के मुताबिक इस पूरे घटनाक्रम की करीब 20-22 मिनट की रॉ फुटेज चैनल के पास है। जाहिर है, इसमें ज्यादा हिस्सा नेताओं के पुश्ते पर आने-जाने का होगा। गौरतलब है कि एक खास लेकिन प्रचलित राजनीतिक नौटंकी की तर्ज पर शीला दीक्षित मौका मुआयना करने गई थीं और विस्थापन का सारा ठीकरा केंद्र सरकार के सर फोड़ कर आ गई थीं। इसके तुरंत बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी पुनर्वास के लिए निर्धारित जगह पर गईं और विस्थापितों से मिलीं। स्टार के 20-22 मिनट के रॉ फुटेज में ज्यादा हिस्सा इन्हीं राजनीतिक मेल-मुलाकातों का है। लेकिन दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के आदेश से हुई सीलिंग की करीब साढ़े चार घंटे की रॉ फुटेज चैनल के पास है और इन फुटेज के एयर टाइम का हिसाब लगाने के लिए बहुत मशक्कत की जरूर होगी, जो संभवतः चैनल वालों ने भी नहीं की है। पत्रकारिता में एक मशहूर उक्ति है कि एक तस्वीर एक हजार शब्द के बराबर बातें बयान करती हैं। इस लिहाज से लाइव वीडियो फुटेज तो सारी कहानी बयान कर सकती है। लेकिन सभी तस्वीरों और सभी वीडियो फुटेज के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि आजकल तस्वीरें और फुटेज जितना दिखाते हैं, उससे कहीं ज्यादा छिपाते हैं। सीलिंग और यमुना पुश्ते से विस्थापन दोनों की फुटेज के एक-एक उदाहरण से इस बात को समझा जा सकता है। सीलिंग के दौरान चैनल लगातार उन लोगों को दिखाता रहा, जिनकी दुकानें सील हो रही थीं। जिस व्यक्ति की दुकान सील हो रही थी, उसे और उसके परिवार को यह कहते हुए दिखाया गया कि अब इनका क्या होगा, इनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा है। इसमें कुछ भी गलत नहीं था। जिनकी दुकानें सील हुईं, उनमें से ज्यादातर संपन्न लोग थे, लेकिन निश्चित रूप से कुछ निम्न आय वर्ग के लोग भी थे, जिनकी आजीविका का साधन छीना जा रहा था। चैनल ने ऐसे थोड़े से लोगों के बहाने एक व्यापक सहानुभूति का माहौल बनाया। यह नहीं बताया कि कानून का उल्लंघन करके बनाई गई इन दुकानों से क्या मुश्किल आ रही है। कभी भी रिहायशी इलाकों में चल रही दुकानों के कारण होने वाले ट्रैफिक जाम के बारे में नहीं बताया गया। यहां तक कि रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों की आपत्तियों को भी बहुत गंभीरता से नहीं दिखाया गया। इसके उलट यमुना पुश्ते पर हो रहे विस्थापन के दौरान मैली होकर बहती यमुना की फुटेज दिखाई गई और प्रकारांतर से यह बताया गया कि विस्थापन के बाद यमुना का प्रदूषण कम हो जाएगा। हकीकत यह है कि पुश्ते पर रहने वाले लोगों का यमुना का प्रदूषण में पांच फीसदी से भी कम योगदान है। वह तो दिल्ली की मध्यवर्गीय और समृद्ध लोगों की कॉलोनियों से निकलने वाले डेढ़ दर्जन बड़े नाले हैं, जो यमुना के प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। प्रसारण में बरते गए इस भेदभाव से सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्यों मार्च के अंतिम हफ्ते में शुरू हुई सीलिंग की प्रक्रिया सितंबर तक पहुंचते-पहुंचते बंद हो गई और यमुना पुश्ते से करीब डे़ढ़ लाख लोग बड़ी आसानी से विस्थापित होकर होलंबी कलां पहुंच गए। यहां भी लोगों की आजीविका छीनी, स्कूल जाने वाले बच्चों की पढ़ाई छूटी, दशकों से बना हुए आशियाना उजड़ा, पर वह तो चैनल का सरोकार नहीं है न। क्योंकि यह जिनके साथ हुआ वे चैनल चलाने वाले लोगों के वर्ग व वर्ण के नहीं हैं और उनकी खबर टीआरपी के यूनिवर्सल पैमाने पर भी कहीं नहीं टिकती है। -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-3 Size: 17568 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071023/bfe7184b/attachment.bin From ravikant at sarai.net Wed Oct 24 12:35:29 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Oct 2007 12:35:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJvgpKA=?= =?utf-8?b?4KS14KWA4KSCIOCkquCli+CkuOCljeCkny0gMTk3OC0xOTg3IOCkleClgCA=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KSn4KS/?= Message-ID: <200710241235.29326.ravikant@sarai.net> आलोक जी, इसे देर से और याद दिलाने के बाद परोसने के लिए माफ़ी चाहूँगा. यह भ्रम इसलिए हो जाता है कि कई बार मैं मान लेता हूँ मेरे पास आया है तो बरास्ते दीवान ही आया होगा, जबकि आप ये हमें ज़ाती तौर पर भेज रहे होते हैं. बहुत बढ़िया जा रहा है! शुक्रिया रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: छठवीं पोस्ट- 1978-1987 की अवधि Date: सोमवार 15 अक्टूबर 2007 17:00 From: "alok puranik" To: ravikant at sarai.net, vivek at sarai.net Cc: alokpuranik at yahoo.com छठवीं पोस्ट- 1978-1987 की अवधि सुधरता मूंग, उछलता काबुली चना दशकों के बावजूद मंडी रिपोर्टिंग की भाषा कमोबेश वैसी ही रही। देखें- दैनिक हिन्दुस्तान, 21 दिसम्बर 1978, पेज नंबर सात दो कालम की खबर अनाज व दालें उड़द, मोठ, मूंग सुधरे-काबली चने में भारी तेजी दिल्ली -20 दिसं (एनएनएस) राजस्थान में फसल कमजोर होने की आशंका से तथा आवक घटने के कारण उड़द, मोठ के भाव 2 /10 रुपये बढ़ गये। स्टाक के अभाव में काबुली चना 25/50 रु. उछलते सुना गया। उत्तर प्रदेश में नये माल की आवक बढ़ने से चावलों में पूर्वस्तर की मजबूती रही। बाजरा व मक्की के भाव मांग के अभाव में 1 /2 रुपये ढीले रहे। मसूर व अरहर में भी दाल मिलों की लिवाली से 5-5 रुपये का लाभ हुआ। भाव प्रति क्विंटल- ....... सर्राफा बाजार चांदी, सोना स्टे. दोनों में तेजी दिल्ली , 20 दिसंबर, (एन.एन.एस.)न्यूयार्क के तेज समाचार से चाँदी तेजाबी 4 रु बढ़ गई। सोने में भी 1 /5 रुपये की तेजी आई। बम्बई के तेज समाचार से सोना स्टैंडर्ड 7 रु. प्रति दस ग्राम बढ़ाकर बोला गया। विटूर में भी इसकी देखा-देखी एक रुपये का लाभ हुआ। ............... ग्लोबलाइजेशन का जलवा तब भी था, और दिखता था सर्राफा बाजार में तस्करी का उल्लेख विशेष तौर पर किया जाता था। ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया ने सिर्फ 1991 के बाद ही जोर नहीं पकड़ा है। इसके पहले तस्करी का खासा असर सोने-चांदी के भावों में देखने में आता था। सिर्फ तस्करी ही नहीं, न्यूयार्क के तेज समाचार यानी न्यूयार्क में भावों में तेजी से भारतीय बाजार भी उछलते थे। और इस बात को खासी प्रमुखता के साथ रिपोर्टिंग में बताया जाता था। देखें- नवभारत टाइम्स 21 नवम्बर 1980 पेज नंबर सात दो कालम का समाचार दिल्ली सर्राफा बाजार न्यूयार्क के तेज समाचार से चांदी उछली-सोने में भी तेजी दिल्ली 20 नवम्बर, (एन.एन.एस.) न्यूयार्क से तेजी के समाचार आने तथा कथित तस्करी की जोरदार लिवाली से आज सर्राफा बाजार में चांदी 100 रुपये प्रति किलो था सोना लगभग 55 रु. प्रति दस ग्राम का और उछाला खा गया। सोने में आठ दिन में 115 रुपये तथा चांदी में 161 रुपयेकी तेजी आ चुकी थी। . भाव इस प्रकार रहे – चाँदी प्रति किलो-तेजाबी खुली 2710 बंद 2760 ऊंची 2760 नीची 2710 .. नवभारत टाइम्स, 14 दिसम्बर 1980 पेज नंबर सात दो कालम का समाचार दिल्ली सर्राफा विदेशों से तेज समाचारों से चाँदी व सोने में सुधार दिल्ली -13 दिसम्बर (एन.एन.एस.) न्यूयार्क व लन्दन के तेज समाचारों के कारण तथा अंतर्राष्ट्रीय राजनैतिक स्थिति विस्फोटक होने से आज दिल्ली सर्राफा बाजार में दोनों कीमती धातुओं के मूल्य तेजी से सुधर गये। न्यूयार्क में 175 सेंट भाव बढ़ जाने से चाँदी तेजाबी दिल्ली में एकदम 72 रुपया उछलकर 2733 रुपया हो गयी। चाँदी का उठाव भी आज काफी अच्छा 80 सिल्ली रहा। बिकवाल कम थे। चाँदी का सिक्का 2838 रुपये से तेज होकर 2930 रुपया पर आ पहुंचा। चाँदी (.999) 82 रुपये ऊंची थी। ........... क्रिकेट, तस्कर और वाघा बोर्डर क्रिकेट का असर भारतवर्ष में कई बातों पर पड़ता है। दफ्तरों की हाजिरी से लेकर सड़क के ट्रेफिक तक पर क्रिकेट अपना असर डालता है। क्रिकेट भारत में खेल नहीं, धर्म है-मतलब यह जुमला भी इतना पुराना है, जितना पुराना भारत में क्रिकेट है। पर क्रिकेट का असर सोना-चांदी के भावों पर पड़ता था, यह जानना खासा दिलचस्प है। यह उस दौर की बात है, जब सोने-चांदी के भावों पर तस्करी का असर खासा होता था। तो पूरा सिलसिला यूं बनता है कि क्रिकेट का असर तस्करी पर पड़ता था, और तस्करी का असर भावों पर पड़ता था, तो संक्षेप में यह कहें कि क्रिकेट सोना-चांदी के भावों को प्रभावित करता हुई दीखता था। है ना आश्चर्यजनक किंतु सत्य कोटि का तथ्य। देखें- हिन्दुस्तान 11 दिसंबर, 1982 पेज नंबर सात दो कालम सराफा बाजार सटोरियों व तस्करों से चांदी पुन 39 रु. ऊंची, सोना बढ़ा दिल्ली -10 दिसम्बर, (एनएनएस) स्थानीय सटोरियों व पंजाब के कथित तस्करों की भारी लिवाली की चर्चा से चाँदी, तेजाबी डिलीवरी पुन 39 रु. ऊंची हो गई। सोना विटूर भी 10 रु. बढ़ते सुना गया। लाहौर में हो रहे क्रिकेट मैच के उपलक्ष्य में पाकिस्तान सरकार द्वारा वाघा बार्डर को 12 घंटे के लिए खोल दिये जाने से पाकिस्तान की चांदी के तस्कर निर्यात में वृद्धि की चर्चा सुनी जा रही थी। न्यूयार्क में भी इसके भाव 10 सेंट प्रति औंस बढने की खबर थी, जिससे चांदी तेजाबी डिलीवरी 2806 से बढ़कर 2845 रु. प्रति किलो हो गयी। ................. वही कटान, वही समर्थन कटान और समर्थन , ढीलापन शेयर बाजार की रिपोर्टिंग में बराबर चल रहे थे। देखें- हिन्दुस्तान 20 जनवरी, 1982, पेज नंबर सात कलकत्ता शेयर कलकत्ता -19 जनवरी, (ह.स.) शुरु की स्थिरता के बाद औद्योगिक शेयरों को निरंतर बिकवाली से जोरदार धक्का लगा। बाद में कुछ शेयर पटान व समर्थन से सुधर गए। ......हिन्दालको 32 पर बंद हुआ और ग्वालियर रेयन शुरु में 47.60 तक नीचे उतरने के बाद ऊंचे में 48.70 पर बंद हुआ।.. जे.के.सिंथेटिक्स 54.80 और केशोराम 61.10पर बंद हुए। वही ढीलापन... नवभारत टाइम्स 16 अक्तूबर, 1984, पेज नंबर नौ, दो कालम का समाचार जिन्स बाजार की हेडिंग के तहत मूंगफली तेल ढीला नई दिल्ली 15 अक्तूबर, (एनएनएस) मध्य प्रदेश व गुजरात तथा उत्तर भारत में नई मूंगफली की आवक बढ़ने के कारण तेल मूंगफली 20 रुपये ढीला रहा। नीम अरंडी और तिल के तेलों में भी 10 से 20 रु. की हानि हुई लेकिन चावल तेल 50 रु. का उछाला खा गया। मिल डिलीवरी चीनी में 1 से 4 रु. की और चमक आई। चने 5 से 6 रु टूट गए। ज्वार में भी नरमी थी लेकिन उड़द और इसकी दाल के भाव 5 से 10 रु. तेज हो गए। ........रिपोर्ट खत्म श्रीमती इन्दिरा गान्धी की हत्या और बाजार का सन्नाटा श्रीमती इन्दिरा गान्धी की हत्या को तमाम बाजारों ने बहुत गंभीरता से लिया। यह बात रिपोर्टिंग में बराबर दिखायी देती है। नवभारत टाइम्स 1 नवम्बर, 1984, पेज नंबर नौ दो कालम जिन्स बाजार चीनी और खंडसारी नरम दिल्ली 31 अक्तूबर (एनएनएस) प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा पर घातक हमला होने से उनकी गांधी की हत्या की खबर से आज दिल्ली की मंडियों में सन्नाटा छा गया। मांग के अभाव में चीनी और खंडसारी के भाव और ढीले पड़ गए। चने व बेसन में मजबूती रही, जबकि चावलों में कारोबार सुस्त था तेल गोला 10 रु. प्रतिटीन ढीला रहा। जबकि तेल तिल में कुछ सुधार हुआ। ..रिपोर्ट खत्म। मांग के अभाव में चीनी और खंडसारी तो ढीले ही पड़ गये। चने व बेसन में हालांकि ढीलापन व सन्नाटा नहीं देखा गया। श्रीमती इन्दिरा गान्धी की हत्या और स्तब्ध शेयर बाजार श्रीमती गान्धी की हत्या को शेयर बाजार ने बहुत गंभीरता से लिया। शेयर बाजार ने इस घटना पर बहुत गंभीर प्रतिक्रिया की। जैसा कि इस रिपोर्ट से साफ होता है- नवभारत टाइम्स 2 नवंबर, 1984, पेज नंबर सात सिंगल कालम, व्यापार वार्ता शेयर दलाल स्तब्ध कारोबार बन्द प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या के समाचार से बुधवार को दिल्ली सहित देश के सभी शेयर बाजारों में सन्नाटा छाया रहा। कारोबारी स्तब्ध रह गए। प्रबंधकों ने तो श्रीमती गांधी की गोली मार दिए जाने की खबर पाते ही कारोबार बन्द करने का नोटिस पहले ही जारी कर दिया था। शेयर दलालों को अनधिकृत कारोबार करने के विरुद्ध कड़ी चेतावनी भी दे दी गयी गई है। नए आदेश जारी होने तक शेयर कारोबार बन्द रहेगा। इसीलिए अब अनधिकृत सौदों का कोई अस्तित्व नहीं रह गया। श्रीमती गांधी के मृत्यु हो जाने की पुष्टि हो जाने के पर शेयर कारोबारी इस दुखद घटना के सम्भावित असर का जायजा लेते और विचार-विमर्श करते देखे गए। राष्ट्र को पहुंचे गंभीर आघात के बाद अंतर्धारणा में निराशा का व्याप्त होना स्वाभाविक था। राजनीतिक ही नहीं आर्थिक क्षेत्रों में भी इस वारदात से अनिश्चित स्थिति बनी रहेगी। अनेक कम्पनियां अब प्रस्तावित परियोजनाओं और विस्तार कार्यक्रमों के बारे में पुन विचार करके ही अपने निर्णयों को अन्तिम रुप देंगी। मर्चेण्ट बैंकिंग क्षेत्रों का अनुमान है कि सार्वजनिक अभिदान के लिए भारी संख्या में जारी होने वाले कम्पनियों के शेयरों के बारे में उन्हे धीरज और धैर्य से काम लेना होगा। बाजार में कुछ लोगों का कहना है कि कुछ दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। कारोबारी शीघ्र ही कामकाज में व्यस्त हो जाएंगे। इस देश ने पहले भी ऐसे सदमों और गम्भीर संकटों का सामना किया है। कोई सन्देह नहीं कि इस वर्तमान संकट से हम न उबरें। बम्बई शेयर बाजार के अधिकारियों ने गुरुवार और शुक्रवार को बाजार बन्द रखने का निर्णय किया है। तथापि दो नवम्बर को प्रबंध बोर्ड की बैठक में सम्पूर्ण स्थिति पर विचार किया जाएगा। चालू सौदों का भुगतान 5 और 6 नवम्बर तक स्थगित कर दिया गया है। -रिपोर्ट खत्म पर बाजार बाजार ही होते हैं। बाजार दुर्घटना से स्तब्ध होता है। फिर संभलने की कोशिश करता है। जबदरस्त से जबरदस्त दुर्घटना के बाद भी बाजार सामान्य स्थिति की ओर उन्मुख होने की कोशिश करता है। नवभारत टाइम्स की इस रिपोर्ट में इस बात को रेखांकित करने की कोशिश की गयी है- बाजार में कुछ लोगों का कहना है कि कुछ दिनों में स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। कारोबारी शीघ्र ही कामकाज में व्यस्त हो जाएंगे। इस देश ने पहले भी ऐसे सदमों और गम्भीर संकटों का सामना किया है। कोई संदेह नहीं कि इस वर्तमान संकट से हम न उबरें। .......... श्रीमती गांधी की हत्या के बाद की अनिश्चितता शेयर बाजार में श्रीमती गांधी की हत्या के बाद विकट अनिश्चितता बनी रही। शेयर बाजार पांच दिन बन्द रहे। फिर भी बाजार नरमी के साथ खुला। देखें- नवभारत टाइम्स, 6 नवम्बर, 1984, पेज छह दो कालम की खबर बम्बई शेयर-सेंचुरी तथा रिलायन्स में गिरावट बम्बई, 5 नवम्बर, (प्रेट्र) स्थानीय शेयर बाजार पांच दिन बन्द रखने के बाद नरमी की धारणा को लेकर खुला। वर्तमान अनिश्चित स्थिति में सटोरिये सौदे करने में कतरा रहे थे। समर्थन के अभाव में सेंचुरी व रिलायन्स सहित प्रमुख सूचियों में व्यापक गिरावट आई।......... दिल्ली शेयर-नरम रुख दिल्ली, 5 नवम्बर (एन.एन.एस.) सरकार द्वारा देश में अमन चैन स्थापित करने के लिए भरपूर कार्यवाही किये जाने के का यद्यपि काफी सीमा तक अनुकूल प्रभाव पड़ा लेकिन बाजारों में अभी भय व दहशत का वातावरण होने से शेयर बाजार में मंदे का रुख रहा। लिवाल अभी मार्केट से गायब नजर आये। धन की तंगी भी बढ़ गई। आज ए.सी.सी. में 5 रु व सैंचुरी स्पिनिंग में 13 रु. निकल गये। इसी प्रकार गुजरात नर्मदा,ग्वालियर रेयन, हिन्द मोटर व मोदी रबड़ में 1.12 रु. से 1.87 रु. तथा रैलाइंस टैक्सटाइल में 8.75 रु. की गिरावट आई। लोहिया मशीन्स 3.38 रु. व ओसवाल एग्रो 4.88 रु. और टेल्को 3 रु. टूट गई। इसके विपरीत छुटपुट समर्थन मिलने से फूड स्पेशिलिटीज एक रुपया और जे.के.सिंथेटिक्स 1.50 रुपये सुधऱ गए जबकि श्रीराम फाइबर्स पूर्वस्तर पर कायम रहा। रिपोर्ट खत्म। राजीव गांधी के रुख की प्रतीक्षा शेयर बाजार में अनिश्चितता काफी लंबे समय तक चली । शेयर बाजार ने श्रीमती गांधी के निधन को सिर्फ राजनीतिक दुर्घटना के तौर पर नहीं लिया, बल्कि शेयर बाजार इस सवाल को लेकर चिंतित था कि राजीव गांधी के नेतृत्व में देश की आर्थिक नीतियां कहां जायेंगी। राजीव गांधी के रुख के लेकर अनिश्चितता को इस रिपोर्ट में साफ तौर पर चिह्नित किया गया है- नवभारत टाइम्स 12 नवम्बर, 1984 पेज छह दो कालम दिल्ली शेयर बाजार की समीक्षा सामान्य व्यापारिक स्थिति न होने से शेयर नरम दिल्ली 11 नवम्बर, (एन.एन.एस.) देश में हिंसात्मक उपद्रव काफी हद तक काबू में आ जाने पर भी व्यापारिक स्थिति पूर्णत सामान्य न होने और प्रवासी भारतीय उद्योगपति श्री स्वराज पाल की शेयर खरीद अवैध होने के न्यायायिक निर्णय से गत सप्ताह अधिकांश शेयरों में नरमी रही। 30 अक्तूबर के बाद शेयर बाजार 5 नवंबर को खुला था। आलोच्य सप्ताह शेयर बाजार में अभी नरमी का रुख ही था। श्रीमती इन्दिरा गांधी की क्रूर हत्या के बाद देश में नफरत की जो हिंसात्मक लहर चली थी उस पर काफी हद तक सरकार ने काबू पा लिया था और स्थिति सामान्य होती जा रही है मगर अभी उद्योग व व्यापार ट्रकों की कमी, विद्युत संकट आदि समस्याओं से नहीं उबर पाया था। इसके अलावा नए प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी का उद्योग व व्यापार ने समर्थन तो किया है लेकिन अभी तक उनके रुख का पता नहीं चल पाया है। कारोबारी उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। .......रिपोर्ट खत्म जलवे यूटीआई के , छापे की छाप एक दौर था, जब भारतीय शेयर बाजारों में यूनिट ट्रस्ट आफ इंडिया यानी यूटीआई द्वारा खरीद या बिक्री किये जाने का बाजार पर बहुत असर पड़ता था। यानी यूटीआई की खरीदारी से बाजार उठ जाया करता था, और यूटीआई की बिकवाली से बाजार गिर जाया करता था। पर अब यह इतिहास की बात है। अब बाजार में इतने तरह-तरह के देशी-विदेशी संस्थान सक्रिय हैं कि यूटीआई का जिक्र तक आम तौर पर शेयर बाजार की रिपोर्टिंग में नहीं होता है। खास तौर पर विदेशी वित्तीय संस्थानों की खरीद-बिक्री तो अब शेयर बाजार की रिपोर्टिंग में चिह्नित की जाती है। यानी विदेशी वित्तीय संस्थान अब बाजार को उठाने-गिराने की हैसियत में हैं। यह हैसियत पहले यूटीआई की थी। यह दौर और है, वह दौर और था। यूटीआई तब भी था, यूटीआई अब भी है, शेयर बाजार में फिलोसोफिकल होने की इजाजत हो, तो उस कहावत को याद किया जा सकता है-समय बड़ा बलवान, भिल्लिन लूटी गोपिका, वे ही अर्जुन वे ही बाण। यूटीआई अब शेयर बाजार को उठाने-गिराने की हैसियत में नहीं है। पर साहब एक वक्त की बात है, और उस वक्त की रिपोर्ट देखिये। यूटीआई की खरीद-बिक्री को बाकायदा रिपोर्ट किया जाता था। और इस बात पर किंचित आश्चर्य भी व्यक्त किया जाता था कि यूटीआई की खऱीद के बावजूद बाजार अगर नहीं चढ़ा, तो इसका मतलब है कि बाजार सच में भारी ढीलेपन का शिकार है। देखें- नवभारत टाइम्स 17 नवम्बर, 1986, पेज नौ तीन कालम दिल्ली शेयर समीक्षा दिल्ली 16 नवम्बर (एन.एन.एस.) बाद में सुधार के बावजूद स्थानीय शेयर बाजार गत सप्ताह सीमावर्ती तनाव तथा सरकारी छापों के डर से दबा रहा। यूनिट ट्रस्ट द्वारा कुछ प्रमुख शेयरों में लिवाली किए जाने का वांछित प्रभाव नहीं पडा। बंबई में दलालों के कागजात अभी वापिस न मिलने से सेटलमेंट का काम स्थगित हो गया। देश की 80 कम्पनियों को पूंजी बढ़ाने की अनुमति मिलने पर भी शेयरों में पूंजी लगाने वालों का उत्साह ठंडा नजर आया। अधिसंख्य शेयरों में गिरावट आई। सीमावर्ती तनाव को देखते हुए आलोच्य सप्ताह शेयर बाजार मंदड़ियों के जोर से दबकर खुला। यद्यपि यूनिट ट्रस्ट द्वारा टाटा स्टील , मुकन्द आयरन, इंडियन रेयन, ए.सी.सी. इंडियन आर्गेनिक, जुआरी एग्रो आदि शेयरों में लिवाली किए जाने और बंबई में एक तेजड़िये द्वारा टिस्को और प्रीमियर आटो की भारी लिवाली किये जाने की खबर थी, लेकिन बंबई शेयर बाजार के कई दलालों के हिसाब-किताब के कागजात जो छापों के दौरान जब्त हुए थे, वापिस न मिलने से सेटलमेंट का काम रुक जाने तथा फेरा कानून के अन्तर्गत सरकार द्वारा और सख्ती से छापे डालने की चेतावनी देने से कारोबारी गतिविधि कमजोर रही। .........कारोबारियों के विचार में अगर राजनैतिक स्थिति सुधर जाए तथा देश के आधे राज्यों में जो सूखा पड़ रहा है वहां वर्षा हो जाए तो शेयरों में तेजी आ सकती है। रिपोर्ट खत्म। तस्करी का असर, फिर दरअसल काफी लंबे समय तक तस्करी सोना-चांदी की बाजार रिपोर्टिंग में एक मुख्य कारक के तौर पर चिह्नित की जाती रही। बल्कि अगर उस दौर की सर्राफा रिपोर्टिंग को लगातार देखा जाये तो लगता कि यह तस्करी की रिपोर्टिंग ही लगती है। मतलब यह तक लगता है की सोने-चांदी के बाजार की सटीक रिपोर्टिंग करने के लिए उस दौर के सर्राफा रिपोर्टर तस्करों के घनिष्ठ संपर्क में रहते होंगे। तस्करी की खबरें सर्राफा रिपोर्टिंग में नियमित तौर पर देखने में आती थीं। ऐसा लगातार कई सालों तक होता रहा। देखें- नवभारत टाइम्स 4 जनवरी, 1987 पेज 7 दो कालम दिल्ली सर्राफा तस्करी आवक की चर्चा से चाँदी और गिरी –सोना खामोश दिल्ली 3 जनवरी (एन.एन.एस.) बंबई से इस सप्ताह लगभग 150 सिल्ली विदेशी चांदी की तस्करी की आवक होने की चर्चा से चांदी में गिरावट जारी रही। सोना खामोश था। बंबई में मंदे का समाचार आने तथा तेजड़ियों की खामोशी से चांदी तेजाबी डिलीवरी 4152 से घटकर 4146 रु. प्रति किलो रह गई। चांदी 999 में 4201 रु. पर 7 रु. प्रति किलो की हानि हुई। कहा जाता है कि गुजरात तथा बंबई में चांदी का तस्कर आयात फिर शुरु हो गया। इस सप्ताह में लगभग 150 सिल्ली चांदी केवल बंबई में आ जाने का अनुमान था। सिक्का 7 रु. और टूट गया। सोने में तस्करी आवक कमजोर होने तथा जेवर वालों की पूछताछ आने सोना बिटूर पूर्वस्तर पर टिका रहा। जेवर और स्टैंडर्ड सोने में खामोशी रही। ................रिपोर्ट खत्म सुस्ती व ढीलापन और अनिश्चय का कोहरा सुस्ती ढीलापन बाजार रिपोर्टिंग में भी था और 1987 के शुरु में शेयर बाजार में भी था। देखें- नवभारत टाइम्स 4 जनवरी, 1987, पेज 7 दो कालम दिल्ली शेयर बाजार की साप्ताहिक समीक्षा ओसवाल, रेलायंस टिस्को व टेल्को, में तेजी के साथ शुभारंभ दिल्ली 3 जनवरी (एन.एन.एस.) आलोच्य सप्ताह केवल एक दिन के कारोबार में ओसवाल एग्रो., टेल्को, रेलायन्स आदि कई शेयरों ने नए साल में तेजी की अच्छी ज्योति जगाई,जबकि ए.सी.सी. , एस्कार्ट्रस , जे.के. लोहिया में सुस्ती रही। अभी अधिकांश शेयर सरकारी नीति स्पष्ट न होने के कारण अनिश्चय के कोहरे में फंसे हुए हैं। गत सप्ताह केवल शुक्रवार को शेयर बाजार खुला था।... रेलायन्स में चमक दस्ती डिलीवरी विशिष्ट शेयरों के रेयन वर्ग में रेलायन्स नए साल में नीचे स्तर पर लिवाली बढने से 172 रु. से बढ़कर 194 रुपये गया। आम धारणा थी कि जिन लोकप्रिय शेयरों में गिरावट आई है, उनमें लिवाली करने वाला आगे चलकर कमा खा सकता है। ओर के 94 रु. पर 50 पैसे ऊंचा रहा। ....... एस्कोर्ट्स सुस्त आटो शेयरों में टेल्को निरंतर तेजड़ियों की लिवाली से 555 से बढ़कर 584 रु.हो गया। यह उम्मीद है कम्पनी की नई आटो मोबाइल नीति शेयरों में जान डाल देगी। .....रिपोर्ट खत्म। मतलब मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है बाजार की रिपोर्टिंग में कमोबेश कोई बदलाव नहीं दिखायी पड़ता। वे ही शब्द, वही ढर्रा। बहुत कुछ बदल रहा था, पर बाजार की रिपोर्टिंग को देखें, तो शायद बहुत कम बदल रहा था। 1987 में राजनीति नेहरु काल से राजीव गांधी काल तक सफर तय कर चुकी थी। पर शेयर बाजार की रिपोर्टिंग, सोना चांदी बाजार की रिपोर्टिंग शायद अभी भी पुराने काल में थी। वो ही शब्द, वो ही मुहावरे, वो ही ढीलापन, वो ही सुस्ती। खैर 1987 के बाद के दशक में शेयर बाजार तो बुनियादी तौर पर बदल गये। पर बाजार की रिपोर्टिंग की भाषा सच में बदली क्या। इस सवाल का जवाब जानने के लिए मिलते हैं एक ब्रेक के बाद। ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Wed Oct 24 15:29:06 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 24 Oct 2007 15:29:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSJ4KSq4KS+4KSm4KWH4KSvIOCkn+ClguCksjog4KS54KS/4KSC4KSm4KWA?= =?utf-8?b?4KSX4KS+4KSl4KS+?= Message-ID: <200710241529.06623.ravikant@sarai.net> google hindi groups se ye jaankari mili. hamein linux pe bhi iske chalne ka intezar rahega, windows par maze mein chalta hai. naam behtar ho sakta hai. iske yuva nirmataon(do bhai, ek behan, विवेचक ऐट जीमेल डॉट कॉम ) ko sujhav de sakein toh behtar. maze lein. download karne ke liye yahan jayein: http://hindigatha.media-toolbar.com/ shukriya ravikant राष्ट्रभाषा का नया टूल हिंदीगाथा क्या है ? क्लिक पर हिंदी की दुनिया 00हिंदीगाथा क्या है ? -यह एक टूलबार हैं । जो इंटरनेट एक्सप्लोरर और मोजिल्ला पर काम करने वाला टूल बार है । इसकी विशेषता यह है कि अब तक आपने अँग्रेजी के टूल बार जरूर देखे होगें, पर यह हिंदी का टूल बार है । यह अंतरजाल यानी कि इंटरनेट पर हिंदी के बारे में लगभग सर्वस्व ढूँढने, पढने, लिखने और परखने वालों के लिए एक खास और शोधपूर्ण स्त्रोत औजार है । इसके सहारे आप अंतरजाल पर हिंदी की दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं । इसके लिए कतई ज़रूरी नहीं कि आप किसी खास जाल स्थल का नाम जाने, अर्थात् उस वेबसाइट का युआरएल जाने । आपको बस्स संबंधित पर क्लिक करते जाना है । इसे हम एक क्लिक पर हिंदी की दुनि या भी कह सकते हैं । 0 हिंदीटूल बार 'हिंदीगाथा' नाम ही क्यों ? - अंतरजाल पर हिंदी की दुनिया लगातार समृद्ध होती जा रही है । अब कोई भी यहाँ हिंदी की महत्वपूर्ण साइटों पर पहुँच सकता है । उसे खंगाल सकता है । पर उसका पता के बिना वह लगभग यह कह बैठता है कि उसे अंतरजाल पर हिंदी दिखाई ही नहीं देती । हम ऐसे हिंदी की सामग्री खोजने वालों को नकारते नहीं हैं बल्कि उन्हें अंतरजाल के माध्यम से हिंदी के वैश्विक प्रतिष्ठा से जोड़ना चा हते हैं । उसकी यात्रा की एक बानगी दिखाना चाहते हैं । यानी कि हिंदी की गाथा गाना चाहते हैं, सो हम अपने हिंदी टूलबार का नाम ‘हिंदीगाथा’ रखा है । इस दिशा में हम अपने मित्रों की राय भी जानना चाहते हैं कि इस हिंदी टूल बार का अंतिम रूप से क्या नाम रखें, कृपया सुझाब दें । हमारा पता है - vivechak at gmail.com 0आप कैसे इस टूल बार को डाउनलोड कर सकते हैं ? - आप या कोई भी इसे यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं । यह पूर्णतः निःशुल्क और निंरतर अपडेट या अद्यतन होते रहने वाला टूल है । 0आपको हिंदी टूलबार हिंदीगाथा लोड़ करने से क्या-क्या सुविधा मिलेगी ? - यदि कोई हिंदी टूलबार हिंदीगाथा डाउनलोड़ कर इंस्टाल करने पर उसके इंटरनेट वेब ब्राउजर में हिं दी की लगभग सारे कामों से जुड़ने का अवसर मिल सकेगा । इस टूलबार को इंस्टाल करते करने के बाद आपके ब्राउजर में हिंदी की सैकड़ों साइट सीधे लिंकित हो जाते हैं जहाँ से आप सीधे वहाँ तक पहुँच सकते हैं । ये साइट हिंदी के साइट्स, पोर्टल, ऑनलाइन रेडियो, टीव्ही, आश्वश्यक संसाधन आदि से संबंधित हैं । प्रकारांतर से हम इन्हें निम्नलिखित खंडों में बांट सकते हैं - 1.वेब-पत्रिका - हिंदी की 30 साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षिक वेबपत्रिकाएँ । 2. समाचार पत्र - देश-विदेश के सभी दैनिक, साप्ताहिक, मासिक समाचार पत्रों के ऑनलाइन संस्करण। 3. ऑनलाइन रेडियो चैनल - देश-विदेश के शताधिक ऑनलाइन रेडियो चैनल से प्रसारित संगीत, समाचार का बगैर किसी म्यूजिक प्लेयर के रसपान । 4. संदर्भ केंद्र - हिंदी के महत्वपूर्ण लिंक (हिंदी लिखने के सभी औजार-ऑनलाईन-आफलाइन, सर्च इंजन, शब्दकोश, हिंदी या युनिकोडित सहायता, हिंदी शब्दकोश, बहुभाषीय शब्दकोश), हिंदी ई-मेल, आवश्यक डाउनलोड्स हेतु जाल-स्थलों के लिंक आदि । 5. ब्लॉग्स - हिंदी चिट्ठों के सभी एग्रीगेटर, चिट्ठे लिखने के संसाधन, सभी चिट्ठों के पते । 6. लाइव क्रिकेट - किसी भी अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच का ऑनलाइन स्कोर कार्ड । 7. लाईव टीवी चैनल्स - हिंदी के महत्वपूर्ण टीवी चैनल्स । वीडियो क्लिप्स आदि । 8. चैटिंग - समूह के सदस्यों के मध्य बिना किसी सॉफ्टवेयर के ऑनलाइन बातचीत करने की सुविधा। 9. गैजेट्स - दैनिक जीवन की ज़रूरी चीजें जैसे - कैलोरी कैलकुलेटर, सुडोकु आदि खास ऑनलाइन खेल, युनि ट कन्वर्टर, अपने कंप्यूटर का आइपी एड्रेस, ऑनलाईन वायुयान, होटल, कार बुकिंग, युट्यूब्स, विकिपीडिया(इंटरनेट पर इनसायक्लोपीडिया, ऑनलाइन नोटबुक्स, स्मरण नोट्स )तथा कई चीजें । 10. खोज इतिहास का विनष्टीकरण - एक क्लिक से सर्च करने वाले शब्दों के इतिहास को कंप्यूटर से हटाना । 11. इमेल नोटिफायर - बार-बार ई-मेल में आइड़ी-पासवर्ड डाले बिना मेल चेक करने की सुविझा। मेल आने पर ध्वनि-संकेत के साथ । 12. समाचार-सूचना - गूगल हिंदी समाचारों की आर एस एस फीड । 13. शहर का मौसम - आपके शहर का मौसम, मौसम संबधी भविष्यवाणी । 14. सर्चिंग - गूगल सर्च इमेज, न्यूज, स्टॉक 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हिंदी के संसार में प्रवेश कर सकते हैं । महत्वपूर्ण जाल-स्थलों तक फेवरिट्स में बुकमार्क किया बिना आप सीधे पहुँच सकते हैं । सच तो यह है कि उन्हें बार बार टाइप करने में लगने वाला समय भी बचता है । कहने का मतलब एक क्लिक से हिंदी दुनिया में प्रवेश । 0 यदि मैं अपने पसंदीदा हिंदी साइट्स को जुड़वाना चाहूँ तो ? - जी, हाँ, आपका स्वागत है । आप अपने साइट्स को स्वयं जुड़वा सकते हैं । इसके लिए बस आपको श्रेणीवार उसका युआरएल हमें भेजना होगा । तो आइये आपका हम तीनों भाई-बहन स्वागत करते हैं । हम यानी छात्र प्रगति, प्रशांत और प्रतीक चाहते हैं कि इस विकसित हिंदी केंद्रित टूलबार को स्थापित करें और देखें कैसे आप स्वयं को हिंदीमय महसूस करते हैं । हाँ, यह कोई आविष्कार नहीं है । न ही कोई खास खोज । बस्स हिंदी प्रेमियों को जोड़ने की एक सुविधा है । इसे हमने इंटरनेट पर उपलब्ध तकनीकी सुविधाओं की सहायता से उपलब्ध कराया है । यही सोचकर कि क्यों न हम अँग्रेजी जाने बिना ही सीधे हिंदीभाषी लोगों को इंटरनेट पर हिंदी के फैलते संसार से परिचित करा सकें । हम स्वागत करेंगे कि आप हमें अपना विचार पढ़ने का मौका दें । सुझाव दें । From rakesh at sarai.net Wed Oct 24 16:24:12 2007 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Wed, 24 Oct 2007 16:24:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSa4KWA?= =?utf-8?b?4KSc4KWAIOCkleCkoeCkvOCkvuCkueClgCDgpJbgpLDgpYDgpKbgpKjgpYcg?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSV4KSy4KWA4KSC?= Message-ID: <471F2454.7070406@sarai.net> मित्रों एक संस्मरण फिर पेश कर रहा हूं आप दीवानों के लिए. जैसा लगे बताइएगा. नहीं तो ऐसे ही लिखता चला जाउंगा :-\ . सलाम राकेश *दोपहर* में भोजन के बाद मुझे नींद आने लगी थी. सोने की कोशिश कर रहा था. मच्छरों की भनभनाहट और बच्चों की उधम-कूद के बीच आंखों का बन्‍द होना और खुलना जारी था. इसी बीच एक तीखी आवाज़ कानों में पहुंची. पर मैं बिस्तर पर पड़ा ही रहा. इधर आंगन से मेरी छोटी चाचीजी ‘बुझाई अ बरतन वाला जानु आएल हई’ कहकर बाहर निकलीं. किसी बच्चे से पूछा, ‘बरतन वाला हकार देइत रहलई ह, केन्ने गेलई?’ बच्चे ने कहा, ‘जा, दाई उ त ओन्ने सड़क ओरि चल गेलौ.’ चाची ने उस बच्चे से उसे बुलाने के लिए कहा. थोड़ी देर में वर्तन वाला दरवाज़े पर आ चुका था. चाची ने उसे बिठाया और उससे बातचीत शुरू कर दी. बातचीत इतनी उंची आवाज़ में हो रही थी कि मेरे लिए सोने की कोई भी कोशिश करना बेकार था. उठकर बाहर आ गया. देखा, एक वृद्ध ठठेरा एल्युमिनियम के वर्तनों को एक बड़े से जाले में लिए बैठा था. चाचीजी और उनके बातचीत के दौरान पता चला कि वह पड़ोस के गांव बेलहियां का रहने वाला है. ख़ैर चाचीजी ने उससे एक कड़ाही दिखाने को बोला. उन्होंने कड़ाही दिखाई. समय आ गया था मोलभाव करने का. ठठेरे ने जो भी क़ीमत बतायी थी कि चाचीजी ने बड़े नाटकीय अंदाज़ में उसे खारिज करते हुए कहा, ‘बुझाई अ उमिर के जौरे-जौरे बुढ़वा के अकिलो घटल जाई छई. अंहेर बतियाई छि. भल न ओई अंगना में 130 के लेलथिन ह कड़ाही. अई से लमहरे होतई.’ ठठेरे ने कहा, ‘त हम कहां कहइले कि लेईए लिउ अतेक में. आहां न बताउ कि कतेक देबई?’ चाचीजी ने जो भी क़ीमत लगाया, ठठेरे को वो मंजूर नहीं था. उन्होंने कहा, ‘ठीक हई, आहां दाम लगा न लेली. जहां मिलत एतना में उंहें से ले लेब. काहे ला बेसी पइसा जियान करब.’ इसी के साथ उन्होंने से कड़ाही मांगी. ‘काहे ला हड़बड़ाई छि. रुकू न पूछवा देइले भाव’ कहकर चाचीजी ने किसी बच्चे से पड़ोस की एक दूसरी चाचीजी को बुलावा भेजा. थोड़ी देर वो चाचीजी भी आ गयीं. एक बार फिर मोलभाव शुरू हुआ. अब दो चाचियों के सामने एक अकेला बुजुर्ग ठठेरा! क़ीमत और कड़ाही की क्वालिटी को लेकर दोनों पक्षों के बीच जिरह होती रही. इस बीच सामने से एक भाभीजी आ गयीं. रह-रह कर भाभीजी भी जिरह में अपना योगदान देती रहीं. क़ीमत संबंधी जिरह हो ही रही थी कि चाचीजी ने उनसे पूछा, ‘त अनाजो त ले न लेब हो बुढ़ा?’ बुढ़े ने कहा, ‘न, नगद लागत. लेबे के है त लिउ न त जाए दिउ. आउरो जगह जाए के है हमरा.’ चाचीजी का अपना ये अस्त्र भी जाता दिखा. उन्होंने ज़ोर देकर कहा, ‘है अनाज न काहे लेब? धान देब. आहां स के गांव में है धान?’ ठठेरे ने कहा, ‘न है त कि भेलई. एखुन कुंटल (एक-एक क्विंटल) चाउर (चावल) न मिललई ह रिलीफ़ में, आ उपर से पांच-पांच सौ रुपइयो मिललई ह. कि करबई हम धान लेके?’ उसके बाद, गांव-जवार में धान की फसल कैसी है इस बार - चर्चा होने लगी. आखिरकार ठठेरे ने अनाज लेने से मना कर दिया. चाचीजी इस फिराक में थीं कि किसी तरह क़ीमत पर चर्चा हो जाती है, तो कुछ पैसे और कुछ अनाज देकर वो कड़ाही ले लेंगी. पर बात न बनती देख उन्होंने उस बूढ़े ठठेरे को ये बताना शुरू किया कि वो तो ‘लोकल’ सामान इस्तेमाल ही नहीं करती हैं, ये तो त्यौहार (नवरात्रे) आ रहा हैं इसीलिए वो ये कड़ाही ले लेना चाह रही थीं. इसी बहाने एक वर्तन हो जाता. वर्ना मुज़फ़्फ़रपुर तो रोज़ का आना-जाना है, वहीं से मंगवा लेंगी. ठठेरा बार-बार ये कहते रहे, ‘ओहो, जाउ न त मुजफरेपुर से मंगवा लेब, हम कहां कहइले कि हमरे से ले लिउ. हमरा जाए दिउ आउरो जगह जाए के हैं.’ मोलभाव में एक घंटा से भी ज़्यादा समय गुज़र गया. नतीजा वही रहा जिसका ठठेरे को संदेह था. चाचीजी ने कड़ाही नहीं ली. From alok at devanaagarii.net Thu Oct 25 14:39:07 2007 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Thu, 25 Oct 2007 14:39:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <845102.8856.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> References: <845102.8856.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> Message-ID: <9f359c1e0710250209v64588b4bvf41f813e8618b487@mail.gmail.com> 007/10/25, Rajesh Ranjan : > आलोकजी, रविकांतजी के साथ अपनी बातचीत के हिस्सों को लिस्ट पर रखने के लिए आपको > आग्रह करने > से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ. मत रोकिए राजेश साहब! अफ़सोस यह है कि सारी चर्चा रविकांत जी के लैपटॉप में कैद है। मुझे अधिकतर चीज़ें याद तो हैं, पर अच्छा होगा यदि रविकांत जी चर्चा को आज़ाद कर दें, उँगलियों की कुछ वर्जिश बचेगी। हाँ, नाम के बारे में हमने चर्चा नहीं की थी, सो जब तक रविकांत जी नकलचिप्पी करते हैं, उस पर बातचीत तो हो ही सकती है। आलोक -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From ravikant at sarai.net Thu Oct 25 18:08:03 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 25 Oct 2007 18:08:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= In-Reply-To: <845102.8856.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> References: <845102.8856.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> Message-ID: <200710251808.03927.ravikant@sarai.net> राजेश, आलोक माफ़ करना यारो. कई सारी उलझनें थीं. आलोक काफ़ी व्यवस्थित इंसान हैं, वो कुछ सवाल बक़ायदा लिखकर लाए थे, जो शायद मेरे जैसे अव्यवस्थित इंसान से चर्चाक्रम में बिखर गया हो. मुझे जो चीज़े याद हैं, उन्हें दुहराने की कोशिश करता हूँ. 1. पहला सवाल कॉपीराइट को लेकर था, कि अगर हम जहाँ-तहाँ, जैसे कि ब्लॉग की दुनिया से सामग्री उठायेंगे तो क्या स्वत्वाधिकार-हनन नहीं होगा? कितना भयानक शब्द है ये, और उससे भी ज़्यादा तो आजकल चालू *सर्वाधिकार* ... देखना है कहीं सर्वस्वाधिकार न हो जाए! ख़ैर मज़ाक छोड़ते हुए, इस मसले पर दिलचस्प बात हुई, जिसमें पूरा अमेरिकी औद्योगिकरण का इतिहास और इसके आलोक में उसकी मौजूदा चौधराहट, इन सबकी चीड़-फाड़ की गई. ये भी ग़ौर किया गया कि नेट पर चालू रिवाज हिन्दी के 'साभार'-रियाज़ से काफ़ी मेल खाता है, अगर विकिया के हिन्दी संग्रह की सनद मानें. लिहाज़ा, हम चोरी नहीं करेंगे कि कुछ चुपचाप उठा लिया. हम कुछ भी लेंगे शरा फ़त से बताकर लेंगे, इजाज़त लेकर लेंगे और पत्रिका में यथायोग्य उसको अक्नॉलेज करेंगे बाक़ी जो सज्जन मिल्कियत पसंद हैं, वे जानें, उनका धर्म जाने! 2. हम ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में खुला रवैया लेकर चलेंगे. वैसे हमारे साथियों में कई लोग मुक्त सॉफ़्टवेयर के हिमायती हैं, पर भाषाई कंप्यूटिंग को अंततः इससे आज़ाद ही रखा जाए तो बेहतर है. वैसे भी तकनीकी तौर पर दुनिया अब नेट-केन्द्रित होती जा रही है. तो हम मुक्त की वकालत करते हुए, किसी भी अच्छे औज़ार की चर्चा करेंगे, उसकी तह में जाने की कोशिश करेंगे और उम्मीद करेंगे कि इन तंत्रों में भाषाई औज़ारों के मामले में भी एक स्वस्थ होड़ चलती रहे. कुछ भी अग्राह्य नहीं है. मसलन अगर मैक का देवनागरी फ़ॉन्ट अगर सबसे अच्छा बन पड़ा है तो यह तो लिनक्स और विन्डोज़ वालों के लिए सहज ही चुनौती है, और उन्हें इसे उसी तरह लेना होगा. हम इस स्पर्धा-भाव को मंद-मंद हवा दे सकते हैं. 3. नेटाचार: नेट की कोई तहज़ीब होती है या होनी चाहिए, हमारा समाज इससे लगभग अनजान है, यह बहस छेड़ने की ज़रूरत महसूस होती है पर कोई नैतिक लबादा ओढ़े बिना. उसी तरह सुरक्षा, और सावधानी को लेकर भी उपयोगी बातें की जाएँ. 4. जहाँ तक रवैये की बात है आलोक का निश्चित मत था कि हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए, न ही हमें कभी भाषणबाज़ी करनी चाहिए. 5. उसी तरह, हम प्रशंसात्मक पत्र नहीं छापेंगे, कुछ ख़याल होगा, छपी हुई सामग्री में अगर कुछ रमा-रमी झलके तो ही छापेंगे. पाटकों से सवाल-जवाब का रिश्ता हो, एक-दो पन्ने का. 6. मियाद क्या होगी - हर दो महीने या हर तीन महीने? मेरे ख़याल से तीन महीने में एक बार. कुछ और विषय जो हमारी बातचीत में उभरे: क. तकनीकी इतिहास, कालक्रम/कालरेखा के साथ. कंप्यूटरी का, नेट का नेट पर स्थित कई विधाओं का. ख. खोज पर लगातार लिखा जाए - क्या, कैसे?? ग. भाषा और तकनीकी के रिश्ते पर बहुत कुछ परोसा जा सकता है - इतिहास, लेखन-विधि, उसके बदलाव आदि पर. अनुवाद पर भी, हमारे पास काफ़ी सामूहिक तजुर्बा है अब तक. घ. कुछ मददगार ट्यूटोरियल तो दिए ही जाएँगे. लिनक्स क्या है? से शुरू करते हुए: एक स्थायी स्तंभ चलाया जाए. रवि श्रीवास्तव ने कई औज़ारों पर समीक्षाएँ लिखी हैं, उन्हें अद्यतन करते हुए पेश किया जाए, बेशक एक स्तंभ यह भी. च. चिट्ठाजगत के माहिर तो कई हें इस सूची डाक-पर, पर बच्चों के चिट्ठों के बारे में आलोक की जा नकारी है, वे लिखेंगे. वे आशा जोगलेकर नामक महिला से भी बात करेंगे, लिखने के लिए. बहरहाल उनका ब्लॉग ये रहा: ashaj45.blogspot.com वग़ैरह-वग़ैरह. घटे-बढ़े की भरपाई आलोक करेंगे. हाँ यह भी तय हुआ कि विकी पेज बनाया जाए काम के लिए, जिसके बारे में मैंने करुणाकर को भी बता दिया है. उसका कहना है कि इस हफ़्ते के अंत तक हो जाएगा. एकाध प्रकाशक से भी उत्साहजनक बात हुई है, लेकिन नाम मैं, उनसे मिलने के बात निर्णय होने पर ही बताऊँगा, मुझे लगता है एक पूरा प्रेज़ेन्टेशन देना होगा उनको. नीलिमा, विजेन्दर, प्रमोद जी और अविनाश से भी कुछ ठोस, कुछ हल्की बातें हुई हैं. तो ये तो रही हमारी करतूत... आप सब आगे आएँ, बात बढ़ाएँ, ताकि निकल ही चुकी है तो दूर तक जाए. नाम का सवाल रह गया: आज मैं सोच रहा था: कंप्युत्रिका = कंप्यूटर+पत्रिका, थोड़ा सीमित-सा लगता है, अभी तक कुछ जँच नहीं रहा है! रविकान्त गुरुवार 25 अक्टूबर 2007 14:33 को, आपने लिखा था: > साथियो, > > सबसे पहले हम सभी नामकरण संस्कार करना चाहेंगे पत्रिका का जो यथासंभव > सर्वगुणसंपन्न हो... आपका सहयोग जरूरी है! तो कुछ सुझाव दीजिये, चर्चा चलाइये, > दीवान लिस्ट के साथियों जो भी संभव हो कीजिये...एक बढ़िया सा नाम सुझा दीजिये. > > आलोकजी, रविकांतजी के साथ अपनी बातचीत के हिस्सों को लिस्ट पर रखने के लिए > आपको आग्रह करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ. > > सादर, > राजेश रंजन > > > > > > ----- Original Message ---- > From: आलोक कुमार > To: ravikant at sarai.net; deewan at sarai.net > Sent: Monday, October 15, 2007 4:04:18 PM > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > रविकांत जी, > मुलाकात हुई, समय देने के > लिए सार्वजनिक रूप से धन्यवाद। > आलोक > > 2007/10/10, Ravikant : > > इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते > > हुए, आलोक जो चंडीगढ़ में > हैं, और जल्द ही दिल्ली में > होंगे, इस रविवार > > > को तक़रीबन 11 बजे मेरे घर पर > > आएँगे और कुछ विचार विमर्श > होगा. आपमें से जो सज्जन या > सजनी > > > आना चाहें उनका स्वागत है. > > बातचीत का ब्यौरा दीवान पर > डाल दिया जाएगा. ये वही आलोक > हैं, > > > जिन्हें हिन्दी का पहले > > ब्लॉगर के उपनाम से भी जाना > जाता है - 9.2.11 की बदौलत. > > > रविकान्त > > > > > > बुधवार 10 अक्टूबर 2007 13:37 को, Rajesh > > Ranjan ने लिखा था: > > > रविकांत जी के साथ ऐसी एक > > पत्रिका के लिए लगातार बात > होती रही और मुझे यह खुशी > > > > है कि ऐसी पत्रिका व उसके > > स्वरूप पर चर्चा दीवान > मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. > > > > चर्चा के लिए दीवान मेलिंग > > लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं > हो सकती थी. मैं मानना है > > > > कि दीवान लिस्ट से बेहतर > > शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं > > > > है जहां इतने सारे विषयों > > पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार > हिन्दी में की जाती है. > > > > खैर, रविकांत जी का > > शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम > "नेतृत्व" के लिए रखा. > > > > नेतृत्व शब्द इतना > > भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ > भयानुभूति भी होने लगी है. > > > > इसका यह अर्थ न लिया जाये > > कि मैं काम के किसी बोझ से > डरता हूँ या इस काम के > > > > लिए मेरे पास समय कम है... > > मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि > ऐसी पत्रिका > > > > के लिए मैं लगातार > > प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की > भांति काम करूंगा... > > > > आपके सुझाव व सहयोग की > > अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, > आकार-प्रकार, > > > > रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी > > चीजों पर आपकी राय जरूरी है > > > > राजेश रंजन > > > > > > > > > ----- Original Message ---- > > > From: zaigham imam > > > To: deewan at sarai.net > > > Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM > > > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > > > > ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा > > साहब जो नियमित ब्लागर नहीं > है। पत्रिका के शुरूआती > > > > प्रस्ताव पर हम सब इतने > > उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? > शायद रविकांत जी को > > > > एकबार फिर अपील करनी पड़े। > > मुक्तिका अनिमंत्रित > सामग्री लौटाने के लिए > > > > जिम्मेदार नहीं है...कृपया > > गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका > के मिजाज से मेलजोल खाती > > > > रचनाएं ही भेजें। > > > > > > > > > अनिमंत्रित सामग्री > > भेजने के लिए आतुर > > > > जै़गम > > > > > > > > > > > > > > > On 10/5/07, Ravikant wrote: > > > > > > दोस्तो, > > > > > > रेडहैट के राजेश रंजन और > > मेरे बीच काफ़ी समय से इस > प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है > > > > कि हिन्दी में एक > > > > > > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो > > भाषाई कंप्यूटिंग में चल > रहे विभिन्न प्रयोगों को > > > > सामने ला सके. पिछले दिनों > > विजेन्द्र और अविनाश तथा > प्रमोद जी से भी इस पर > > > > मुख्तसर सी चर्चा हुई. > > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम > लोगों के एक ऐसे > > > > हिस्से से बातचीत कर > > पाएँगे, > > > > जिनमें तकनीकी दक्षता > > शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के > माहिर हैँ. इन लोगों को > > > > बहस में शामिल किए बिना > > हमारी सारी कोशिशें अधूरी > होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > > > > समय-समय पर, यह कोशिश की है, > > ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की > समीक्षा कार्यशाला > > > > आयोजित करके > > > > > > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा > > निकालकर. हमारी पहुंच तब भी > सीमित थी अब भी है. पर अब > > > > संदर्भ बदल गया है, और > > भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार > जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से > > > > आज़ाद होते चले जाएँगे. > > फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब > की एक जैसी हैँ - मिसाल > > > > के तौर पर हमें अच्छा > > स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > > > > एक भाषा में यह बन जाता है > > तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा > दूसरे भाषा-भाषियों को > > > > भी मिलेगा. अभी तो समस्या > > यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत > कम लोगों तक महदूद > > > > है. > > > > > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया > > है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, > गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > > > > हद तक गौरी हमें > > > > > > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए > > अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - > दनदनाते हुए चिट्ठिया > > > > रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो > > हमें वहां से मिल जाएगी. > मेरा अपना ख़याल है कि > > > > शुद्ध तकनीकी पत्रिका > > निकालने में उसके फ़ौरन डूबने > का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा > > > > हम सार्वजनिक दिलचस्पी की > > दीगर सामग्री भी > > > > डालेंगे, पर हमारा मूल > > उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में > भाषायी प्रयोगों पर ही > > > > केन्द्रित होगा. मुझे लगता > > है कि शुरुआती तौर पर हम एक > त्रैमासिक पत्रिका > > > > नकालें, जिसका संपादनादि > > अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन > के लिए किसी प्रकाशक को > > > > भी पकड़ सकते हैं. हमारी > > जेब से कुछ न जाए. > > > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप > > सबके सहयोग के बिना नहीं > निकल सकती. लिहाज़ा मैं > > > > आपसे आपके वक़्त का दान > > लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर > हुआ हूँ. हमारे अपने > > > > कुछ ख़यालात हैं, पर हम > > पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर > देना चाहते हैँ. तो सबसे > > > > पहला सवाल तो आप सबसे यही > > है कि क्या ऐसी किसी > > > > पत्रिका की दरकार है? अगर > > है, तो उसमें क्या-क्या होना > चाहिए? > > > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना > > चाहेंगे? > > > > काम यही करना होगा कि हम > > विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह > रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > > > > सामाग्री रख सकते हैँ बहस > > हो सकती है, संपादन भी हो सकता > है. आपको आलेख-संकलन, > > > > संपादन और हो सके > > > > > > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे > > सकते हैं. हमारा नेतृत्व > राजेश रंजन करेंगे, > > > > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं > > का सपना है, और उन्ही के पास > इसके लिए हम सबसे > > > > ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी > > सलाहकार की भूमिका में हैं. > > > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को > > ढूढने की बात है तो मुझे लगता > है कि कुछ लोगों को तो > > > > होना ही चहिए. > > > > > > रवि रतलामी, देबाशीष, > > विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - > ये कुछ ऐसे नाम हैं > > > > जो सहज ही याद आते हैँ. इन > > सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता > और नेतृत्व क्षमता देखी > > > > गई है. पर दीवान पर बातचीत > > शुरू करने के पीछे ख़याल ही > यही है कि यह एक मुक्त > > > > प्रस्ताव है, आप इसे > > उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > > > > उन्हें हम दीवान पर > > बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि > करुणाकर और गोरा का > > > > सहयोग भी हमें मिलेगा. > > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, > रवीश आदि न जाने कितने > > > > लोगों ने ब्लॉग जगत में > > रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, > जिनसे बाहरी दुनिया का > > > > परिचय कराना ज़रूरी लगता > > है. > > > > आप नीचे जाते हुए देख सकते > > हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा > था - इसकी परिकल्पना > > > > करते हुए, उसे भी अभी खुला > > ही माना जाए, नाम भी अगर कोई > बेहतर हो तो सुझाएं, > > > > वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका > > अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम > ब्लॉग का ही रख सकते > > > > हैं, भले ही कवर उसके अंदर > > बदलता रहेगा. इतना > > > > बता दूँ कि यह सराय की > > पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त > जनपद की पत्रिका माना > > > > जाए तो हमें कोई ऐतराज़ > > नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा > भाषाई औज़ारों के मामले > > > > में हम संकीर्णता न बरतें > > तो सबका भला होगा.... > > > > सहयोग की अपेक्षा में > > > > > > > > > रविकान्त + राजेश रंजन > > > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश > > ---------- > > > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी > > केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > > > From: Rajesh Ranjan < > > > rajeshkajha at yahoo.com> > > > To: Ravikant > > > > > > रविकांत, > > > > > > मैंने जिस सामग्री को > > इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा > हूँ > > > > आगे सुझाव दीजिये क्या > > किया जाए. > > > > आपका > > > राजेश > > > > > > > > > > > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी > > केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > हमारी भाषा हिंदी में एक > > तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका > हो ऐसी हमारी आकंक्षा > > > > रहती है. परंतु उसको > > व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश > अभी तक नहीं हो > > > > पायी है. रविकांतजी ने > > अपने करोलबाग स्थित घर पर देर > रात बैठकर इसके लिये एक > > > > खाका तैयार किया है... विषय > > वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( > > एक अनियतकालीन पत्रिका) > > > > पूरे डिजिटल संस्कृति को > > समेटने की कोशिश करेगी यह > पत्रिका > > > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के > > गिर्द इसका ताना बाना बुना > > जा सकता है: > > > १. औजार > > > > > > > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व > > सॉफ्टवेयर) > > > > ख. मोबाइल > > > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से > > जुड़ी बातचीत > > > > घ. कैमरा > > > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, > > वेबसाइट > > > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ > > में ध्यान देने की कोशिश की > जायेगी.... > > > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > > > > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > > > > > ४. राजनीति - सरकार एक > > आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश > रहेगी, ई-गवर्नेंस, > > > > ई-लोकतंत्र > > > > > > > > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, > > लाइसेंस, नकल की संस्कृति > > > > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > > > प्रयास आलेख हम मुक्त > > स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, > ब्लॉगर > > > > और कुछ जाने माने लेखकों > > से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > > ___________________________________________________________________________ > > > >_ > > > > > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! 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The last time he came into prominence was in 1978 when he won the Palme D'Or at Cannes with The Tree of Wooden Clogs. From IMDB, on "The Tree of Wooden Clogs" A mosaic of peasant life in Lombardy at the turn of the twentieth century that slowly moves along for three hours but never comes close to losing interest thanks to the wealth of details and (though amateur) moving performances. In the title lies the heartwrenching conclusion abruptly reached after the meandering and soulful journey that is taken into the lives of a group of peasant families, with the butchering of a goose and later a pig, a marriage, a boatride to Milan, and a dinner amongst the sisters of a convent while the stirrings of political change and repression stay mainly in the background but are there to see. While the focus is on the peasants, the world that the movie creates is more like being there than any other film around from Wikipedia.. L'Albero degli zoccoli is a 1978 Italian film written and directed by Ermanno Olmi. It was released as The Tree of Wooden Clogs in the USA and as The Tree with the Wooden Clogs in the UK. The film concerns Italian peasant life in the early 20th century. It has some similarities with the earlier Italian neorealist movement, in that it focuses on the lives of the poor, and the parts were played by real farmers and locals, rather than professional actors. It won fourteen awards including the Palme d'or at Cannes and the César Award for Best Foreign Film. The original version of the movie is spoken in Bergamasque, an Eastern Lombard dialect From RAVISH at NDTV.COM Sun Oct 28 19:05:26 2007 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Sun, 28 Oct 2007 19:05:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= aapki raay chaahiye....ravish Message-ID: maine naisadak.blogspot par ye lekh dala hai...josh men likh diya..phir lagaa ki santo ki raay lenee chaahiye...ravish ?????? ?? ??????? ?? ??? ?? ???? ?? ??? ?????? ?? ??????? ??? ???? ?????? ???? ?? ?? ????? ???? ???? ?????? ???? ????, ??????? ????, ????? ????, ??? ???? ??? ???? ?? ???? ??? ???? ???? ???? ?? ?? ????? ?? ??????? ??? ??????? ??????? ?? ??? ?? ??? ??? ?? ?? ?? ??????? ?? ??????? ?? ????? ????? ?????? ??? ?????? ???? ?? ??? ??? ??? ??? ???? ??? ?? ?????? ?? ???? ?? ???? ?? ?? ?? ?? ???? ???? ???? ??? ????, ???? ???? ?? ??????? ???? ?? ???? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ??? ?????? ?? ???????? ???? ?? ????? ?? ????? ??????? ?? ???? ??????? ?? ????? ??? ?????? ?? ??? ???? ???? ?? ??? ?????? ?? ??????? ??? ??? ???? ????? ???? ???????? ??? ??? ?? ?? ?????? ?? ???? ?? ????? ??? ????? ?? ???? ???? ???? ?? ??? ???? ????? ???? ??? ???? ????? ???? ?? ?? ?? ??????? ???? ?????? ?? ???? ???? ?? ?????? ?? ??? ??? ?????? ?? ??? ??? ???? ???? ?? ????? ?? ?? ???? ?????? ??? ? ??? ????? ??? ??? ????, ????? ???? ?? ??? ????? ???? ?????? ?????? ?? ??? ?? ???????? ??????? ?????? ?? ??? ???? ?? ?? ??????? ??? ???? ????? ???? ????? ????? ??????? ???????? ??? ?? ???? ?????? ?? ???? ???? ????? ????? ???? ????? ?? ????? ?? ????? ?? ??????? ???? ??? ???? ???? ?????? ??? ?? ?? ?? ?????? ??? ?? ?????? ?? ????? ???? ?????? ???? ??? ????? ???? ??? ??? ??? ?? ?????? ?????? ????????? ??? ??????? ???? ????? ?? ??? ??? ????? ?? ??? ???????? ?????? ???? ???? ?????? ????? ?????? ?????? ?? ?? ?? ??? ??? ????? ??? ??????? ?????? ???? ??? ??? ?? ????? ??????????, ?????? ??????? ???????, ???????? ??? ???? ?????????? ?? ?? ???? ?????? ?? ?????? ?? ???? ?? ?? ?? ??? ??? ???? ?????? ?? ???? ?? ??? ??? ???? ???? ?????? ???? ?? ???? ???? ?? ???? ????? ????????? ?? ??????? ?? ??? ???? ???? ?? ??? ????? ?? ??? ????? ????, ????? ??? ???? ?? ???? ?? ??? ? ???? ?? ???? ?? ???? ??? ???? ?? ???? ?? ???? ?? ??? ???? ?? ?? ????? ?? ???? ??? ?? ????? ?? ?? ??? ???????? ???? ??? ?? ?? ???? ??? ?????? ???? ?? ???? ?? ?? ???? ????? ???? ????? ???? ?? ??? ???? ????? ?? ?? ?? ??????? ?? ??????? ???? ?? ?????? ???? ?? ?? ?? ???? ????? ????? ??????? ?? ??? ?? ??? ?????? ?? ?????? ?? ??? ?? ???? ???? ?? ???? ??????? ????? ?? ???? ?? ?????? ?? ???? ???????? ?? ???? ???? ??? ????? ???? ??? ????? ????? ??? ???? ??? ???? ?? ??? ??? ?? ??? ?? ??? ???? ???? ??? ?? ??? ?????? ??? ???? ??? ??? ??? ??????? ?? ?? ???????????? ????? ?? ??? ??????? ?? ????? ???? ??? ?? ?????? ???? ??? ?? ???????????? ?? ???? ????? ?? ???? ?? ????? ?? ??????? ???? ?? ?? ?????????? ??? ??? ??? ?????? ?????? ??? ?? ?? ???????????? ??? ??? ?? ??? ???? ?????? ?? ????? ??? ????? ??? ??? ??? ??????? ???? ???? ???? ???? ??????? ?? ????? ??? ?? ?????? ????? ??? ??? ?? ?? ??? ?? ???? ?? ???? ?? ???? ?? ???? ??? ???? ??? ???? ??? ????? ?????? ???? ?????? ?? ???? ?? ???? ????? ?? ????? ???? ??? ??????? ?? ???????????? ?? ???? ??? ?????? ?? ??????? ??????? ?? ?????? ??? ?????? ?? ?? ?????? ??? ????? ?? ?????? ??? ?? ???? ????(?????) ?? ??? ?? ??? ??????? ?????? ??? ????? ?? ?? ???? ?? ??? ?? ??? ???? ?? ????? ??? ??? ???? ???? ??? ??????? ??????? ??? ?????? ?? ??? ?? ??? ???? ????? ?? ?????? ?? ???????? ??????? ?? ????? ??? ???? ???? ????? ????????? ?? ??? ?? ?????? ?? ??? ??? ?? ????? ?? ??? ?? ???? ?? ?? ????? ?????? ?? ???? ?? ??????? ??? ??? ?? ???????? ???? ??? ?? ?? ?? ??? ?? ??? ??? ?? ???? ???????? ?? ??? ????? ??? ?? ????? ???? ???? ?? ????????? ???? ?? ??? ???? ???? ???? ???? ?????? ???? ???? ??? ????? ?????? ?? ??????? ???? ??????? ??? ???? ?? ???? ? ??? ??? ?????????? ??? ???? ?????? ??? ????? ???? ??? ??? ???? ??? ??? ???? ????? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071028/5c8f4f79/attachment.html From alok at devanaagarii.net Sun Oct 28 20:18:01 2007 From: alok at devanaagarii.net (=?UTF-8?B?4KSG4KSy4KWL4KSVIOCkleClgeCkruCkvuCksA==?=) Date: Sun, 28 Oct 2007 20:18:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?aapki_raay_chaahiy?= =?utf-8?b?ZS4uLi5yYXZpc2g=?= In-Reply-To: References: Message-ID: <9f359c1e0710280748l34cd677chdc1f1723bd1b2455@mail.gmail.com> > स्थानीय लोग दलितों की गाय का दूध नहीं पीते। यह जानकारी तो मेरे लिए नई है, और आश्चर्यजनक। मुझे लगता है कि जातिसूचक नाम हटाना भी इस दिशा में एक कदम होगा, आइडिया के विज्ञापन की तरह। 2007/10/28, Ravish Kumar : > > > > > > > > maine naisadak.blogspot par ye lekh dala hai...josh men likh diya..phir > lagaa ki santo ki raay lenee chaahiye...ravish > > > > गांवों को बुलडोजर से ढहा दो > > > > > > भारत के सभी गांवों पर बुलडोजर चला देना चाहिए। > > सारे घर और सड़के तोड़ देनी चाहिए। बाभन टोली, कुम्हार टोली, ठाकुर टोली, चमर > टोली आदि आदि। ये क्या है। क्या हमने सोचा कि इन नामों की टोलियों में जातिवाद > बेशर्मी से मौज कर रहा है। जब तक ये टोलियां है जातिवाद से हमारी लड़ाई फिज़ूल > है। इसीलिए मेरी एक समझ बनी है। लोग खड़े हों और गांवों पर हमला कर दें। एक एक > घर को तोड़ दें। ताकि चमर टोली, बाभन टोली और कुम्हार टोली का वजूद हमेशा के > लिए खत्म हो जाए। > > > > > > ऐसे गांवों का अस्तित्व भारत के लिखित और मान्य संविधान की तमाम भावनाओं के > खिलाफ है। बराबरी की बात करते हैं। और गैर बराबरी के मोहल्ले बने हुए हैं। > जिनका आधार जातिवादी है। ठीक है कि आरक्षण के कारण और शहरों में पलायन के कारण > दलित टोली के कुछ मकान पक्के होने लगे हैं। लेकिन क्या इन नए और सवर्णों जैसे > मकानों का बाभन टोली के मकानों से कोई नया रिश्ता बन रहा है। क्या भारत की > आबादी के इस बड़े हिस्से में आ रहे बदलाव में बभन टोली, ठाकुर टोली के लोग > शामिल हैं। आर्थिक प्रगति के बाद भी जातिवादी टोलियां मज़बूत हो रही हैं। > > > > अब इन टोलियों में पलने बढ़ने वाला सवर्ण बच्चा सामान्य व्यावहार में भी दलित > बच्चों से फर्क करना सीखता होगा। दलित बच्चे इस अपमान को सहजता से स्वीकार करते > हुए बड़े होते होंगे। ठीक है कि कई गांवों में अब दलितों को चप्पल नहीं उतारना > होता मगर पहचान कहां मिट रही है। उस व्यापक समाजिक प्रक्रिया में साझीदार कहां > बनाया जा रहा है। > > > > > > इसलिए एक नया राजनीतिक आंदोलन खड़ा होना चाहिए। जिसकी शुरूआत गांवों से हो और > बाद में शहरों में पहुंचे। दिल्ली जैसे शहर में भी माथुर अपार्टमेंच, गुप्ता > हाउसिंग सोसायटी, अहमदाबाद में दलित अपार्टमेंट बन गए हैं। गांवों से शुरूआत का > मतलब यह है कि कुछ चार पांच गांवों को मॉडल के रूप में चुना जाना चाहिए। जहां > के तमाम घरों और उनसे जुड़ी स्मृतियों को बुलडोजर से ढहा दिया जाए। > > नई नगर योजना के तहत सड़के बनें, जिनके आने जाने से जाति का पता न चले। घर बने। > एक कतार में सबके घर हों। सब जाति के लोग हों। एक ही मैदान हो ताकि सभी के > बच्चे एक ही जगह खेलें।यह नियम बने कि एक कतार में लगातार किसी एक जाति का घर > नहीं होगा। यानी ठाकुर टोली और चमर टोली खत्म। > > > > > > अब आप यह पूछेंगे कि जातिवाद खत्म हो जाएगा? > > जवाब यह है कि नहीं होगा। लेकिन जातिवाद के नाम पर बने सीमेंट और मिट्टी के कुछ > घर मिटा देने से उसका कंक्रीट ढांचा तो खत्म हो जाएगा। जो आपकी मानसिकता को > आकार देता है। पहचान देता है। उसमें खांचे बना देता है। जहां आप ऊंच नीच के भाव > के साथ रहते हैं। > > > > > > मैं यह बात गुस्से में नहीं लिख रहा है। स्टालिन के की डाक्यूमेंटरी देखने के > बाद जातिवाद पर विचार करते हुए यह रास्ता दिखा है। यह डाक्यूमेंटरी उन तमाम > लोगों के मुंह पर तमाचा है जिन्हें लगता है कि हिंदुस्तान बदल गया है। इंडिया > अनटच्ड नाम की इस डाक्यूमेंटरी में देश भर में फैले छूआछूत को पर्दे में उतारा > गया है। इसे देखिये। आपको शर्म नहीं आएगी क्योंकि आप जानते हैं कि छूआछूत हमारे > देश में अब भी है। हम सबने इस शर्म को छुपा कर जीना सीख लिया है। जैसे कोई > शातिर अपराधी अपने इरादों को छुपा कर शरीफ दिखने की कोशिश करता है। स्टालिन की > डाक्यूमेंटरी हर धर्म में छूआछूत की कंक्रीट इमारतों को पकड़ती है। गुजरात के > एक प्रसंग में कैमरे पर दिखाते हैं कि कैसे पटेल(सवर्ण) की गाय का दूध स्थानीय > बाज़ार में बिकता है और दलित की गाय का दूध बाहर के राज्य में भेज दिया जाता > है। क्योंकि स्थानीय लोग दलितों की गाय का दूध नहीं पीते। ये गुजरात की > कापरेटिव सोसायटी की हकीकत है। जहां दलित दुग्ध उत्पादकों के साथ यह बर्ताव हो > रहा है। अब इसमें एक बात हो सकती है कि दूसरे ज़िलों या बाहर के राज्यों में > अलग से प्रचारित किया जाए कि आप जो दूध पी रहे हैं वो दलित कोपरेटिव का है। > देखते हैं कि कितने पढ़े लिखे और प्रगतिशील भारत के लोग पीना जारी रखते हैं। > इसीलिए आइये मेरे साथ चलिए। गांवों को तोड़ने। इनकी प्रशंसा बंद करने का वक्त आ > गया है। हिंदुस्तान में इससे भ्रष्ट कोई बसावट नहीं है। इसे तोड़ दो। नया गांव > बनाओ। > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net From ravikant at sarai.net Mon Oct 29 14:38:12 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 29 Oct 2007 14:38:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= no smoking kii sameeksha Message-ID: <200710291438.12909.ravikant@sarai.net> http://www.hindimedia.in/content/view/594/33/ se saabhar ravikant फिल्म समीक्षा रामकिशोर पारचा Monday, 29 October 2007 दो टूक: सिगरेट पीना बुरी बात है और सेहत के लिए खतरनाक भी, लेकिन क्या इतनी कि कोई आपकी सिगरेट छुड़ाने के लिए आपकी जान के पीछे ही पड़ जाए। जॉन अब्राहम, आयशा टाकिया और परेश रा वल के अभिनय वाली अनुराग कश्यप की नयी फिल्म नो स्मोंकिग की कुछ इसी कहानी वाली मगर फ्रैंच की नोआर शैली और तकनीक के कमाल के साथ बनने वाली खतरनाक कल्पनाओं से से गढी गयी डार्क और हार्ड सपनीली फंतासी फिल्म है। कहानी: फिल्म की कहानी सिगरेट पीने की खतरनाक आदत के शिकार के ;जॉन अब्राहम)की है। के इस कदर no-smoking-smallइस आदत का शिकार है कि उसकी पत्नी अंजलि (आयशा टाकिया) उसे छोड़कर चली जाती है। अंतत उसका दोस्त अब्बास टायरवाला (रनवीर शौरी) उसकी इस आदत से छुटकारा दिलाने के लिए शर्तिया इसे छुड़ाने का दावा करने वाले बाबा बंगाली (परेश रावल) से मिलने का मशविरा देता है। ना चाहते हुए भी उससे मिलने तो चला जाता है लेकिन यहीं से उसकी मुश्किलों का सफर भी शुरू हो जाता है। बाबा के इलाज की शर्त है एक अनुबंध और उससे बंधने के बाद आप या तो सिगरेट छोड देंगे या फिर अपनी जान। सिगरेट के आदी उसे छोडने के लिए बाबा के खौफ, रिश्तों के भंवर और उसके खतरनाक परिणामों की थोड़ी सी वृतचित्रात्मक लेकिन रोचक कहानी है नो स्मोकिंग। गीत संगीत: अनुराग की यह फिल्म दरअसल एक विषयक फिल्म है सो इसके गीत भी गुलजार ने ऐसे ही शब्दों और आरोहों के साथ लिखे हैं। हालंकि फिल्म का हश्र चाहे जो हो पर इसके गीत और विशाल भा दवाज का संगीत हमेशा की तरह नए प्रतीकों और सरोकारों के साथ मौजूद हैं। इसके फूंक फूंक और जब भी सिगेरट जलती है जैसे गीतों का फिल्मांकन भी कमाल का है। अभिनय: वाटर और टैक्सी नौ दो ग्यारह के बाद जॉन जो अभिनय किया है वह चौकांने वाला है। नो स्मोकिंग में वे अपने पात्र और चरित्रों के सरोंकारो और द्वंद में फँसे आदमी के जिस प्रतीकात्मक और सांकेतिक बिंब को उभारते हैं वह कमाल का है । दबाव और खासतौर से चितिंत रहने वाले दृश्यों में वे अपनी पूरी प्रतिभा का इस्तेमाल करते हैं। आयशा टाकिया साधारण हैं पर बाबा के चरित्र में परेश का चरित्र काल्पनिक होते हुए भी चौंकाने के साथ थर्राने वाला है। रनवीर शौरी की अभिनेता होने की काबिलियत का फायदा अब हिंदी सिनेमा उठाने लगा है और जल्द ही वे आजा नचले जैसी फिल्म में भी दिखायी देंगे पर मुझे अफसोस है कि उन्हे अब भी केवल विशेष फिल्मों का कलाकार ही माना जाता है। निर्देशन: अनुराग की यह फिल्म हाल ही में रोम में दिखायी गयी है और अपनी पाँच के बाद ब्लैक फ्रा यडे के बाद आयी इस फिल्म से वे नए और तकनीकी मगर हार्ड और डार्क सिनेमा के ऐसे निर्देशक के रूप में सामने आए हैं जो दुनिया भर में बहुत कम लोगों को हजम होता है पर इसका मतलब यह नहीं है कि उनकी फिल्में आम आदमी की समझ से बाहर है। वे आम आदमी के सिनेमा की ही बात करते हैं बस उनके कहने के यथार्थ से व्यवसायिक सिनेमा की पटरी नहीं बैठती। मैंने उनकी पाँच फिल्म बरसों पहले एक समारोह में देखी थी और सेसंर में फंसे होने के कारण आज भी उसे भारत में व्यवसयिक स्तर पर प्रदर्शि त नहीं किया जा सका है। यह फिल्म भी हमारे सामने जिस शैली के नए सिनेमा को सामने लाती है वह कुछ लोगों को `अरे यह क्या फिल्म है, वाले अदांज में नकारने की गुजारिश कर सकता है पर गौर से देखे तो यह हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत रिश्तों के साथ हमारे स्वास्थ्य के सरोकारों से जुड़ी वि शेष फिल्म भी है। फिल्म क्यों देखें: जॉन के बेहतर अभिनय और अनुराग कश्यप की जीवन की सच्चाई दिखाने वाली एक और फिल्म के लिए। फिल्म क्यों न देखें: नहीं, जरूर देखें आखिर यह हमारी सेहत से जुडा मामला है। From ravikant at sarai.net Tue Oct 30 12:11:40 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 30 Oct 2007 12:11:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Saar Sansaar Jan.-March 08 Message-ID: <200710301211.40430.ravikant@sarai.net> हैदराबाद से छप रहे विश्व साहित्य का मज़ा लीजिए, पीडीएफ़ में. जो लेखक हैं, वे स्विट्ज़रलैंड में रेज़ीडेन्सी के लिए भी आवेदन कर सकते हैं. : www.saarsansaar.com रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Saar Sansaar Jan.-March 08 Date: सोमवार 29 अक्टूबर 2007 22:59 From: "Amrit Mehta" To: roggausch at daad.de Dear Friends of Literature, The Jan.-March 08 issue of "Saar Sansaar" contains 4 Prose-texts from Switzerland, Germany and Uruguay and 7 poems from Finland. There is a short-story by the Swiss author Irene Borquin and an Uruguayan story by Orosyo Kiroga. The other two prose-texts are excerpts from 2 books. There is a piece from German writer Günter Wallraff's celebrated novel "Ganz unten", which we have been serializing since years, and a substantial portion from Fawzia Assad's novel "Layla: An Egyptian Woman." Then there are poems by the Finnish author Manfred Peter Hein and a scholarly commentary on one of the poems by Prof. Andreas Kelletat from Johannes-Gutenberg University, Mainz, Germany. The story of Layla and the poems by the Finnish poet are two vital intercultural components of this issue. Fawzia Assad is an Egyptian Copt, a former Professor at Cairo University, who has now been living for a number of years in Geneva, Switzerland, as a free-lance author writing in French. The excerpt from her novel provides a remarkable insight into the cultural, social and religious reality of Egyptian Coptic Christians and their shared sorrows and joys with their Muslim brethren. While the Egypt-born Fawzia Assad writes her literature in French, the Finnish poet Manfred Peter Hein writes his literature in German - mostly political, about Germany, about Egypt, about Palestine, about Afghanistan, which truly makes him a poet, who, as Goethe would have put it, is creating "world literature". Please click at www.saarsansaar.com read all these texts. If you are a writer, then do not miss on the information on a Writers' Residency in Lavigny (Switzerland) on pages 30-32 of the magazine: the last date for sending the applications is January 2008. Wishing you an excellent read dr. amrit mehta ------------------------------------------------------- From rajeshkajha at yahoo.com Tue Oct 30 14:18:39 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 30 Oct 2007 01:48:39 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: Your message to Deewan awaits moderator approval Message-ID: <354241.83922.qm@web52903.mail.re2.yahoo.com> मेरा एक संदेश मॉडरेटर के पास अधिक भारी होने के कारण इंतजार कर रहा है... कृपया हरी झंडी दिखाएं. राजेश From: "deewan-bounces at mail.sarai.net" To: rajeshkajha at yahoo.com Sent: Tuesday, October 30, 2007 1:41:38 PM Subject: Your message to Deewan awaits moderator approval Your mail to 'Deewan' with the subject Re: [दीवान]एक अपील Is being held until the list moderator can review it for approval. The reason it is being held: Message body is too big: 181487 bytes with a limit of 100 KB Either the message will get posted to the list, or you will receive notification of the moderator's decision. If you would like to cancel this posting, please visit the following URL: http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/confirm/deewan/edc1285777f7a1efe3ee46f3879b23b60c160432 __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com DEFANGED.96369> ----- Forwarded Message ---- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071030/71f71da4/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Oct 30 16:50:40 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 30 Oct 2007 04:20:40 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Rnc6IOCkj+CklSA=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: <815835.18156.qm@web52910.mail.re2.yahoo.com> सदनजी कोई बात नहीं...फिर भेज दे रहा हूँ From: Rajesh Ranjan To: Deewan Sent: Tuesday, October 30, 2007 1:41:26 PM Subject: Re: [दीवान]एक अपील शुक्रिया रविकांतजी! मैं इधर तीन-चार दिनों से मेल देख नहीं पाया...माफ कीजियेगा. बातचीत बेहद दिलचस्प है...शायद हमारे दूसरे दीवान साथियों को भी बढिया लगा होगा. कंप्युत्रिका काफी बढ़िया नाम है. बेहद सटीक. कपिल मुनि सांख्य दर्शन के प्रणेता थे. संख्या उस दर्शन के केंद्र में थी. (मेरी जानकारी थोड़ी कम है इसलिए कुछ कहने सुनने में गलती हो जाए तो माफ कीजियेगा). हर आधुनिक प्रगति को परंपरा से जोड़कर देखने वाले कंप्यूटर के मूल में उस दर्शन के पहुंच की खोज करते दीखते हैं. सांख्य से जुड़ा कोई नाम डिजिटल को पूरा का पूरा आत्मसात कर सकता है... इन चीजों पर भी विचार किया जा सकता है. तो फिर देर क्या है...दीवान-ए-आम में कुछ और सुझाइये, या सुझाव में कुछ जोड़िये-घटाइये...लेकिन बहस को चलाते रहिए. आलोक जी..कुछ घटा बढा है तो आप सुना दीजिए... राजेश ----- Original Message ---- From: Ravikant To: deewan at sarai.net Sent: Thursday, October 25, 2007 6:08:03 PM Subject: Re: [दीवान]एक अपील राजेश, आलोक माफ़ करना यारो. कई सारी उलझनें थीं. आलोक काफ़ी व्यवस्थित इंसान हैं, वो कुछ सवाल बक़ायदा लिखकर लाए थे, जो शायद मेरे जैसे अव्यवस्थित इंसान से चर्चाक्रम में बिखर गया हो. मुझे जो चीज़े याद हैं, उन्हें दुहराने की कोशिश करता हूँ. 1. पहला सवाल कॉपीराइट को लेकर था, कि अगर हम जहाँ-तहाँ, जैसे कि ब्लॉग की दुनिया से सामग्री उठायेंगे तो क्या स्वत्वाधिकार-हनन नहीं होगा? कितना भयानक शब्द है ये, और उससे भी ज़्यादा तो आजकल चालू *सर्वाधिकार* ... देखना है कहीं सर्वस्वाधिकार न हो जाए! ख़ैर मज़ाक छोड़ते हुए, इस मसले पर दिलचस्प बात हुई, जिसमें पूरा अमेरिकी औद्योगिकरण का इतिहास और इसके आलोक में उसकी मौजूदा चौधराहट, इन सबकी चीड़-फाड़ की गई. ये भी ग़ौर किया गया कि नेट पर चालू रिवाज हिन्दी के 'साभार'-रियाज़ से काफ़ी मेल खाता है, अगर विकिया के हिन्दी संग्रह की सनद मानें. लिहाज़ा, हम चोरी नहीं करेंगे कि कुछ चुपचाप उठा लिया. हम कुछ भी लेंगे शरा फ़त से बताकर लेंगे, इजाज़त लेकर लेंगे और पत्रिका में यथायोग्य उसको अक्नॉलेज करेंगे बाक़ी जो सज्जन मिल्कियत पसंद हैं, वे जानें, उनका धर्म जाने! 2. हम ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में खुला रवैया लेकर चलेंगे. वैसे हमारे साथियों में कई लोग मुक्त सॉफ़्टवेयर के हिमायती हैं, पर भाषाई कंप्यूटिंग को अंततः इससे आज़ाद ही रखा जाए तो बेहतर है. वैसे भी तकनीकी तौर पर दुनिया अब नेट-केन्द्रित होती जा रही है. तो हम मुक्त की वकालत करते हुए, किसी भी अच्छे औज़ार की चर्चा करेंगे, उसकी तह में जाने की कोशिश करेंगे और उम्मीद करेंगे कि इन तंत्रों में भाषाई औज़ारों के मामले में भी एक स्वस्थ होड़ चलती रहे. कुछ भी अग्राह्य नहीं है. मसलन अगर मैक का देवनागरी फ़ॉन्ट अगर सबसे अच्छा बन पड़ा है तो यह तो लिनक्स और विन्डोज़ वालों के लिए सहज ही चुनौती है, और उन्हें इसे उसी तरह लेना होगा. हम इस स्पर्धा-भाव को मंद-मंद हवा दे सकते हैं. 3. नेटाचार: नेट की कोई तहज़ीब होती है या होनी चाहिए, हमारा समाज इससे लगभग अनजान है, यह बहस छेड़ने की ज़रूरत महसूस होती है पर कोई नैतिक लबादा ओढ़े बिना. उसी तरह सुरक्षा, और सावधानी को लेकर भी उपयोगी बातें की जाएँ. 4. जहाँ तक रवैये की बात है आलोक का निश्चित मत था कि हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए, न ही हमें कभी भाषणबाज़ी करनी चाहिए. 5. उसी तरह, हम प्रशंसात्मक पत्र नहीं छापेंगे, कुछ ख़याल होगा, छपी हुई सामग्री में अगर कुछ रमा-रमी झलके तो ही छापेंगे. पाटकों से सवाल-जवाब का रिश्ता हो, एक-दो पन्ने का. 6. मियाद क्या होगी - हर दो महीने या हर तीन महीने? मेरे ख़याल से तीन महीने में एक बार. कुछ और विषय जो हमारी बातचीत में उभरे: क. तDEFANGED.806> ----- Forwarded Message ----कनीकी इतिहास, कालक्रम/कालरेखा के साथ. कंप्यूटरी का, नेट का नेट पर स्थित कई विधाओं का. ख. खोज पर लगातार लिखा जाए - क्या, कैसे?? ग. भाषा और तकनीकी के रिश्ते पर बहुत कुछ परोसा जा सकता है - इतिहास, लेखन-विधि, उसके बदलाव आदि पर. अनुवाद पर भी, हमारे पास काफ़ी सामूहिक तजुर्बा है अब तक. घ. कुछ मददगार ट्यूटोरियल तो दिए ही जाएँगे. लिनक्स क्या है? से शुरू करते हुए: एक स्थायी स्तंभ चलाया जाए. रवि श्रीवास्तव ने कई औज़ारों पर समीक्षाएँ लिखी हैं, उन्हें अद्यतन करते हुए पेश किया जाए, बेशक एक स्तंभ यह भी. च. चिट्ठाजगत के माहिर तो कई हें इस सूची डाक-पर, पर बच्चों के चिट्ठों के बारे में आलोक की जा नकारी है, वे लिखेंगे. वे आशा जोगलेकर नामक महिला से भी बात करेंगे, लिखने के लिए. बहरहाल उनका ब्लॉग ये रहा: ashaj45.blogspot.com वग़ैरह-वग़ैरह. घटे-बढ़े की भरपाई आलोक करेंगे. हाँ यह भी तय हुआ कि विकी पेज बनाया जाए काम के लिए, जिसके बारे में मैंने करुणाकर को भी बता दिया है. उसका कहना है कि इस हफ़्ते के अंत तक हो जाएगा. एकाध प्रकाशक से भी उत्साहजनक बात हुई है, लेकिन नाम मैं, उनसे मिलने के बात निर्णय होने पर ही बताऊँगा, मुझे लगता है एक पूरा प्रेज़ेन्टेशन देना होगा उनको. नीलिमा, विजेन्दर, प्रमोद जी और अविनाश से भी कुछ ठोस, कुछ हल्की बातें हुई हैं. तो ये तो रही हमारी करतूत... आप सब आगे आएँ, बात बढ़ाएँ, ताकि निकल ही चुकी है तो दूर तक जाए. नाम का सवाल रह गया: आज मैं सोच रहा था: कंप्युत्रिका = कंप्यूटर+पत्रिका, थोड़ा सीमित-सा लगता है, अभी तक कुछ जँच नहीं रहा है! रविकान्त गुरुवार 25 अक्टूबर 2007 14:33 को, आपने लिखा था: > साथियो, > > सबसे पहले हम सभी नामकरण संस्कार करना चाहेंगे पत्रिका का जो यथासंभव > सर्वगुणसंपन्न हो... आपका सहयोग जरूरी है! तो कुछ सुझाव दीजिये, चर्चा चलाइये, > दीवान लिस्ट के साथियों जो भी संभव हो कीजिये...एक बढ़िया सा नाम सुझा दीजिये. > > आलोकजी, रविकांतजी के साथ अपनी बातचीत के हिस्सों को लिस्ट पर रखने के लिए __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071030/625078b4/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Thu Oct 25 14:33:55 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 25 Oct 2007 02:03:55 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: <845102.8856.qm@web52902.mail.re2.yahoo.com> साथियो, सबसे पहले हम सभी नामकरण संस्कार करना चाहेंगे पत्रिका का जो यथासंभव सर्वगुणसंपन्न हो... आपका सहयोग जरूरी है! तो कुछ सुझाव दीजिये, चर्चा चलाइये, दीवान लिस्ट के साथियों जो भी संभव हो कीजिये...एक बढ़िया सा नाम सुझा दीजिये. आलोकजी, रविकांतजी के साथ अपनी बातचीत के हिस्सों को लिस्ट पर रखने के लिए आपको आग्रह करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ. सादर, राजेश रंजन ----- Original Message ---- From: आलोक कुमार To: ravikant at sarai.net; deewan at sarai.net Sent: Monday, October 15, 2007 4:04:18 PM Subject: Re: [दीवान]एक अपील रविकांत जी, मुलाकात हुई, समय देने के लिए सार्वजनिक रूप से धन्यवाद। आलोक 2007/10/10, Ravikant : > इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए, आलोक जो चंडीगढ़ में हैं, और जल्द ही दिल्ली में होंगे, इस रविवार > को तक़रीबन 11 बजे मेरे घर पर आएँगे और कुछ विचार विमर्श होगा. आपमें से जो सज्जन या सजनी > आना चाहें उनका स्वागत है. बातचीत का ब्यौरा दीवान पर डाल दिया जाएगा. ये वही आलोक हैं, > जिन्हें हिन्दी का पहले ब्लॉगर के उपनाम से भी जाना जाता है - 9.2.11 की बदौलत. > > रविकान्त > > > बुधवार 10 अक्टूबर 2007 13:37 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > > रविकांत जी के साथ ऐसी एक पत्रिका के लिए लगातार बात होती रही और मुझे यह खुशी > > है कि ऐसी पत्रिका व उसके स्वरूप पर चर्चा दीवान मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. > > चर्चा के लिए दीवान मेलिंग लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं हो सकती थी. मैं मानना है > > कि दीवान लिस्ट से बेहतर शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं > > है जहां इतने सारे विषयों पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार हिन्दी में की जाती है. > > > > खैर, रविकांत जी का शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम "नेतृत्व" के लिए रखा. > > नेतृत्व शब्द इतना भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ भयानुभूति भी होने लगी है. > > इसका यह अर्थ न लिया जाये कि मैं काम के किसी बोझ से डरता हूँ या इस काम के > > लिए मेरे पास समय कम है... मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि ऐसी पत्रिका > > के लिए मैं लगातार प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की भांति काम करूंगा... > > > > आपके सुझाव व सहयोग की अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, आकार-प्रकार, > > रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी चीजों पर आपकी राय जरूरी है > > > > > > राजेश रंजन > > > > > > ----- Original Message ---- > > From: zaigham imam > > To: deewan at sarai.net > > Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM > > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > > ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा साहब जो नियमित ब्लागर नहीं है। पत्रिका के शुरूआती > > प्रस्ताव पर हम सब इतने उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? शायद रविकांत जी को > > एकबार फिर अपील करनी पड़े। मुक्तिका अनिमंत्रित सामग्री लौटाने के लिए > > जिम्मेदार नहीं है...कृपया गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका के मिजाज से मेलजोल खाती > > रचनाएं ही भेजें। > > > > > > अनिमंत्रित सामग्री भेजने के लिए आतुर > > जै़गम > > > > > > > > > > On 10/5/07, Ravikant wrote: > > > > दोस्तो, > > > > रेडहैट के राजेश रंजन और मेरे बीच काफ़ी समय से इस प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है > > कि हिन्दी में एक > > > > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो भाषाई कंप्यूटिंग में चल रहे विभिन्न प्रयोगों को > > सामने ला सके. पिछले दिनों विजेन्द्र और अविनाश तथा प्रमोद जी से भी इस पर > > मुख्तसर सी चर्चा हुई. इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम लोगों के एक ऐसे > > हिस्से से बातचीत कर पाएँगे, > > > > जिनमें तकनीकी दक्षता शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के माहिर हैँ. इन लोगों को > > बहस में शामिल किए बिना हमारी सारी कोशिशें अधूरी होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > > समय-समय पर, यह कोशिश की है, ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की समीक्षा कार्यशाला > > आयोजित करके > > > > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा निकालकर. हमारी पहुंच तब भी सीमित थी अब भी है. पर अब > > संदर्भ बदल गया है, और भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से > > आज़ाद होते चले जाएँगे. फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब की एक जैसी हैँ - मिसाल > > के तौर पर हमें अच्छा स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > > > > एक भाषा में यह बन जाता है तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा दूसरे भाषा-भाषियों को > > भी मिलेगा. अभी तो समस्या यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत कम लोगों तक महदूद > > है. > > > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > > हद तक गौरी हमें > > > > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - दनदनाते हुए चिट्ठिया > > रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो हमें वहां से मिल जाएगी. मेरा अपना ख़याल है कि > > शुद्ध तकनीकी पत्रिका निकालने में उसके फ़ौरन डूबने का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा > > हम सार्वजनिक दिलचस्पी की दीगर सामग्री भी > > > > डालेंगे, पर हमारा मूल उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में भाषायी प्रयोगों पर ही > > केन्द्रित होगा. मुझे लगता है कि शुरुआती तौर पर हम एक त्रैमासिक पत्रिका > > नकालें, जिसका संपादनादि अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन के लिए किसी प्रकाशक को > > भी पकड़ सकते हैं. हमारी जेब से कुछ न जाए. > > > > > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप सबके सहयोग के बिना नहीं निकल सकती. लिहाज़ा मैं > > आपसे आपके वक़्त का दान लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर हुआ हूँ. हमारे अपने > > कुछ ख़यालात हैं, पर हम पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर देना चाहते हैँ. तो सबसे > > पहला सवाल तो आप सबसे यही है कि क्या ऐसी किसी > > > > पत्रिका की दरकार है? अगर है, तो उसमें क्या-क्या होना चाहिए? > > > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना चाहेंगे? > > > > काम यही करना होगा कि हम विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > > सामाग्री रख सकते हैँ बहस हो सकती है, संपादन भी हो सकता है. आपको आलेख-संकलन, > > संपादन और हो सके > > > > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे सकते हैं. हमारा नेतृत्व राजेश रंजन करेंगे, > > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं का सपना है, और उन्ही के पास इसके लिए हम सबसे > > ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी सलाहकार की भूमिका में हैं. > > > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को ढूढने की बात है तो मुझे लगता है कि कुछ लोगों को तो > > होना ही चहिए. > > > > रवि रतलामी, देबाशीष, विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - ये कुछ ऐसे नाम हैं > > जो सहज ही याद आते हैँ. इन सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता और नेतृत्व क्षमता देखी > > गई है. पर दीवान पर बातचीत शुरू करने के पीछे ख़याल ही यही है कि यह एक मुक्त > > प्रस्ताव है, आप इसे उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > > > > उन्हें हम दीवान पर बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि करुणाकर और गोरा का > > सहयोग भी हमें मिलेगा. इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, रवीश आदि न जाने कितने > > लोगों ने ब्लॉग जगत में रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, जिनसे बाहरी दुनिया का > > परिचय कराना ज़रूरी लगता है. > > > > > > आप नीचे जाते हुए देख सकते हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा था - इसकी परिकल्पना > > करते हुए, उसे भी अभी खुला ही माना जाए, नाम भी अगर कोई बेहतर हो तो सुझाएं, > > वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम ब्लॉग का ही रख सकते > > हैं, भले ही कवर उसके अंदर बदलता रहेगा. इतना > > > > बता दूँ कि यह सराय की पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त जनपद की पत्रिका माना > > जाए तो हमें कोई ऐतराज़ नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा भाषाई औज़ारों के मामले > > में हम संकीर्णता न बरतें तो सबका भला होगा.... > > > > > > सहयोग की अपेक्षा में > > > > > > रविकान्त + राजेश रंजन > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > > From: Rajesh Ranjan < > > rajeshkajha at yahoo.com> > > To: Ravikant > > > > रविकांत, > > > > मैंने जिस सामग्री को इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा हूँ > > > > आगे सुझाव दीजिये क्या किया जाए. > > > > > > आपका > > राजेश > > > > > > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > > > हमारी भाषा हिंदी में एक तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका हो ऐसी हमारी आकंक्षा > > रहती है. परंतु उसको व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश अभी तक नहीं हो > > > > पायी है. रविकांतजी ने अपने करोलबाग स्थित घर पर देर रात बैठकर इसके लिये एक > > खाका तैयार किया है... विषय वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( एक अनियतकालीन पत्रिका) > > > > पूरे डिजिटल संस्कृति को समेटने की कोशिश करेगी यह पत्रिका > > > > > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के गिर्द इसका ताना बाना बुना जा सकता है: > > १. औजार > > > > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर) > > ख. मोबाइल > > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से जुड़ी बातचीत > > घ. कैमरा > > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, वेबसाइट > > > > > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ में ध्यान देने की कोशिश की जायेगी.... > > > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > > > ४. राजनीति - सरकार एक आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश रहेगी, ई-गवर्नेंस, > > ई-लोकतंत्र > > > > > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, लाइसेंस, नकल की संस्कृति > > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > > प्रयास आलेख हम मुक्त स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, ब्लॉगर > > और कुछ जाने माने लेखकों से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > > > > ___________________________________________________________________________ > >_ > > > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! Autos. > > http://autos.yahoo.com/new_cars.html > > > > ------------------------------------------------------- > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > ___________________________________________________________________________ > >_________ Fussy? Opinionated? Impossible to please? Perfect. Join Yahoo!'s > > user panel and lay it on us. > > http://surveylink.yahoo.com/gmrs/yahoo_panel_invite.asp?a=7 > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Can't see Hindi? http://devanaagarii.net _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20071025/2d8e2216/attachment.html From rajeshkajha at yahoo.com Tue Oct 30 13:41:26 2007 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 30 Oct 2007 01:11:26 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSq4KWA4KSy?= Message-ID: <984091.45939.qm@web52901.mail.re2.yahoo.com> शुक्रिया रविकांतजी! मैं इधर तीन-चार दिनों से मेल देख नहीं पाया...माफ कीजियेगा. बातचीत बेहद दिलचस्प है...शायद हमारे दूसरे दीवान साथियों को भी बढिया लगा होगा. कंप्युत्रिका काफी बढ़िया नाम है. बेहद सटीक. कपिल मुनि सांख्य दर्शन के प्रणेता थे. संख्या उस दर्शन के केंद्र में थी. (मेरी जानकारी थोड़ी कम है इसलिए कुछ कहने सुनने में गलती हो जाए तो माफ कीजियेगा). हर आधुनिक प्रगति को परंपरा से जोड़कर देखने वाले कंप्यूटर के मूल में उस दर्शन के पहुंच की खोज करते दीखते हैं. सांख्य से जुड़ा कोई नाम डिजिटल को पूरा का पूरा आत्मसात कर सकता है... इन चीजों पर भी विचार किया जा सकता है. तो फिर देर क्या है...दीवान-ए-आम में कुछ और सुझाइये, या सुझाव में कुछ जोड़िये-घटाइये...लेकिन बहस को चलाते रहिए. आलोक जी..कुछ घटा बढा है तो आप सुना दीजिए... राजेश ----- Original Message ---- From: Ravikant To: deewan at sarai.net Sent: Thursday, October 25, 2007 6:08:03 PM Subject: Re: [दीवान]एक अपील राजेश, आलोक माफ़ करना यारो. कई सारी उलझनें थीं. आलोक काफ़ी व्यवस्थित इंसान हैं, वो कुछ सवाल बक़ायदा लिखकर लाए थे, जो शायद मेरे जैसे अव्यवस्थित इंसान से चर्चाक्रम में बिखर गया हो. मुझे जो चीज़े याद हैं, उन्हें दुहराने की कोशिश करता हूँ. 1. पहला सवाल कॉपीराइट को लेकर था, कि अगर हम जहाँ-तहाँ, जैसे कि ब्लॉग की दुनिया से सामग्री उठायेंगे तो क्या स्वत्वाधिकार-हनन नहीं होगा? कितना भयानक शब्द है ये, और उससे भी ज़्यादा तो आजकल चालू *सर्वाधिकार* ... देखना है कहीं सर्वस्वाधिकार न हो जाए! ख़ैर मज़ाक छोड़ते हुए, इस मसले पर दिलचस्प बात हुई, जिसमें पूरा अमेरिकी औद्योगिकरण का इतिहास और इसके आलोक में उसकी मौजूदा चौधराहट, इन सबकी चीड़-फाड़ की गई. ये भी ग़ौर किया गया कि नेट पर चालू रिवाज हिन्दी के 'साभार'-रियाज़ से काफ़ी मेल खाता है, अगर विकिया के हिन्दी संग्रह की सनद मानें. लिहाज़ा, हम चोरी नहीं करेंगे कि कुछ चुपचाप उठा लिया. हम कुछ भी लेंगे शरा फ़त से बताकर लेंगे, इजाज़त लेकर लेंगे और पत्रिका में यथायोग्य उसको अक्नॉलेज करेंगे बाक़ी जो सज्जन मिल्कियत पसंद हैं, वे जानें, उनका धर्म जाने! 2. हम ऑपरेटिंग सिस्टम के बारे में खुला रवैया लेकर चलेंगे. वैसे हमारे साथियों में कई लोग मुक्त सॉफ़्टवेयर के हिमायती हैं, पर भाषाई कंप्यूटिंग को अंततः इससे आज़ाद ही रखा जाए तो बेहतर है. वैसे भी तकनीकी तौर पर दुनिया अब नेट-केन्द्रित होती जा रही है. तो हम मुक्त की वकालत करते हुए, किसी भी अच्छे औज़ार की चर्चा करेंगे, उसकी तह में जाने की कोशिश करेंगे और उम्मीद करेंगे कि इन तंत्रों में भाषाई औज़ारों के मामले में भी एक स्वस्थ होड़ चलती रहे. कुछ भी अग्राह्य नहीं है. मसलन अगर मैक का देवनागरी फ़ॉन्ट अगर सबसे अच्छा बन पड़ा है तो यह तो लिनक्स और विन्डोज़ वालों के लिए सहज ही चुनौती है, और उन्हें इसे उसी तरह लेना होगा. हम इस स्पर्धा-भाव को मंद-मंद हवा दे सकते हैं. 3. नेटाचार: नेट की कोई तहज़ीब होती है या होनी चाहिए, हमारा समाज इससे लगभग अनजान है, यह बहस छेड़ने की ज़रूरत महसूस होती है पर कोई नैतिक लबादा ओढ़े बिना. उसी तरह सुरक्षा, और सावधानी को लेकर भी उपयोगी बातें की जाएँ. 4. जहाँ तक रवैये की बात है आलोक का निश्चित मत था कि हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए, न ही हमें कभी भाषणबाज़ी करनी चाहिए. 5. उसी तरह, हम प्रशंसात्मक पत्र नहीं छापेंगे, कुछ ख़याल होगा, छपी हुई सामग्री में अगर कुछ रमा-रमी झलके तो ही छापेंगे. पाटकों से सवाल-जवाब का रिश्ता हो, एक-दो पन्ने का. 6. मियाद क्या होगी - हर दो महीने या हर तीन महीने? मेरे ख़याल से तीन महीने में एक बार. कुछ और विषय जो हमारी बातचीत में उभरे: क. तकनीकी इतिहास, कालक्रम/कालरेखा के साथ. कंप्यूटरी का, नेट का नेट पर स्थित कई विधाओं का. ख. खोज पर लगातार लिखा जाए - क्या, कैसे?? ग. भाषा और तकनीकी के रिश्ते पर बहुत कुछ परोसा जा सकता है - इतिहास, लेखन-विधि, उसके बदलाव आदि पर. अनुवाद पर भी, हमारे पास काफ़ी सामूहिक तजुर्बा है अब तक. घ. कुछ मददगार ट्यूटोरियल तो दिए ही जाएँगे. लिनक्स क्या है? से शुरू करते हुए: एक स्थायी स्तंभ चलाया जाए. रवि श्रीवास्तव ने कई औज़ारों पर समीक्षाएँ लिखी हैं, उन्हें अद्यतन करते हुए पेश किया जाए, बेशक एक स्तंभ यह भी. च. चिट्ठाजगत के माहिर तो कई हें इस सूची डाक-पर, पर बच्चों के चिट्ठों के बारे में आलोक की जा नकारी है, वे लिखेंगे. वे आशा जोगलेकर नामक महिला से भी बात करेंगे, लिखने के लिए. बहरहाल उनका ब्लॉग ये रहा: ashaj45.blogspot.com वग़ैरह-वग़ैरह. घटे-बढ़े की भरपाई आलोक करेंगे. हाँ यह भी तय हुआ कि विकी पेज बनाया जाए काम के लिए, जिसके बारे में मैंने करुणाकर को भी बता दिया है. उसका कहना है कि इस हफ़्ते के अंत तक हो जाएगा. एकाध प्रकाशक से भी उत्साहजनक बात हुई है, लेकिन नाम मैं, उनसे मिलने के बात निर्णय होने पर ही बताऊँगा, मुझे लगता है एक पूरा प्रेज़ेन्टेशन देना होगा उनको. नीलिमा, विजेन्दर, प्रमोद जी और अविनाश से भी कुछ ठोस, कुछ हल्की बातें हुई हैं. तो ये तो रही हमारी करतूत... आप सब आगे आएँ, बात बढ़ाएँ, ताकि निकल ही चुकी है तो दूर तक जाए. नाम का सवाल रह गया: आज मैं सोच रहा था: कंप्युत्रिका = कंप्यूटर+पत्रिका, थोड़ा सीमित-सा लगता है, अभी तक कुछ जँच नहीं रहा है! रविकान्त गुरुवार 25 अक्टूबर 2007 14:33 को, आपने लिखा था: > साथियो, > > सबसे पहले हम सभी नामकरण संस्कार करना चाहेंगे पत्रिका का जो यथासंभव > सर्वगुणसंपन्न हो... आपका सहयोग जरूरी है! तो कुछ सुझाव दीजिये, चर्चा चलाइये, > दीवान लिस्ट के साथियों जो भी संभव हो कीजिये...एक बढ़िया सा नाम सुझा दीजिये. > > आलोकजी, रविकांतजी के साथ अपनी बातचीत के हिस्सों को लिस्ट पर रखने के लिए > आपको आग्रह करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ. > > सादर, > राजेश रंजन > > > > > > ----- Original Message ---- > From: आलोक कुमार > To: ravikant at sarai.net; deewan at sarai.net > Sent: Monday, October 15, 2007 4:04:18 PM > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > रविकांत जी, > मुलाकात हुई, समय देने के > लिए सार्वजनिक रूप से धन्यवाद। > आलोक > > 2007/10/10, Ravikant : > > इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते > > हुए, आलोक जो चंडीगढ़ में > हैं, और जल्द ही दिल्ली में > होंगे, इस रविवार > > > को तक़रीबन 11 बजे मेरे घर पर > > आएँगे और कुछ विचार विमर्श > होगा. आपमें से जो सज्जन या > सजनी > > > आना चाहें उनका स्वागत है. > > बातचीत का ब्यौरा दीवान पर > डाल दिया जाएगा. ये वही आलोक > हैं, > > > जिन्हें हिन्दी का पहले > > ब्लॉगर के उपनाम से भी जाना > जाता है - 9.2.11 की बदौलत. > > > रविकान्त > > > > > > बुधवार 10 अक्टूबर 2007 13:37 को, Rajesh > > Ranjan ने लिखा था: > > > रविकांत जी के साथ ऐसी एक > > पत्रिका के लिए लगातार बात > होती रही और मुझे यह खुशी > > > > है कि ऐसी पत्रिका व उसके > > स्वरूप पर चर्चा दीवान > मेलिंग लिस्ट पर हो रही है. > > > > चर्चा के लिए दीवान मेलिंग > > लिस्ट से बढ़िया जगह नहीं > हो सकती थी. मैं मानना है > > > > कि दीवान लिस्ट से बेहतर > > शायद कोई मेलिंग लिस्ट नहीं > > > > है जहां इतने सारे विषयों > > पर ऐसी गंभीर चर्चा लगातार > हिन्दी में की जाती है. > > > > खैर, रविकांत जी का > > शुक्रिया कि उन्होंने मेरा नाम > "नेतृत्व" के लिए रखा. > > > > नेतृत्व शब्द इतना > > भारी-भरकम हो जाता है कि कुछ > भयानुभूति भी होने लगी है. > > > > इसका यह अर्थ न लिया जाये > > कि मैं काम के किसी बोझ से > डरता हूँ या इस काम के > > > > लिए मेरे पास समय कम है... > > मैं इतना जरूर कहना चाहूंगा कि > ऐसी पत्रिका > > > > के लिए मैं लगातार > > प्रतिबद्ध व मिहनती कार्यकर्ता की > भांति काम करूंगा... > > > > आपके सुझाव व सहयोग की > > अपेक्षा है...विषय वस्तु, अंतराल, > आकार-प्रकार, > > > > रूप-रेखा, नामकरण आदि सभी > > चीजों पर आपकी राय जरूरी है > > > > राजेश रंजन > > > > > > > > > ----- Original Message ---- > > > From: zaigham imam > > > To: deewan at sarai.net > > > Sent: Saturday, October 6, 2007 9:51:02 AM > > > Subject: Re: [दीवान]एक अपील > > > > > > ज़रा उनका भी ख्याल रखिएगा > > साहब जो नियमित ब्लागर नहीं > है। पत्रिका के शुरूआती > > > > प्रस्ताव पर हम सब इतने > > उत्साहित हैं....आगे क्या होगा? > शायद रविकांत जी को > > > > एकबार फिर अपील करनी पड़े। > > मुक्तिका अनिमंत्रित > सामग्री लौटाने के लिए > > > > जिम्मेदार नहीं है...कृपया > > गुणवत्तापूर्ण और पत्रिका > के मिजाज से मेलजोल खाती > > > > रचनाएं ही भेजें। > > > > > > > > > अनिमंत्रित सामग्री > > भेजने के लिए आतुर > > > > जै़गम > > > > > > > > > > > > > > > On 10/5/07, Ravikant wrote: > > > > > > दोस्तो, > > > > > > रेडहैट के राजेश रंजन और > > मेरे बीच काफ़ी समय से इस > प्रस्ताव पर मंथन चल रहा है > > > > कि हिन्दी में एक > > > > > > ऐसी पत्रिका निकाली जाए जो > > भाषाई कंप्यूटिंग में चल > रहे विभिन्न प्रयोगों को > > > > सामने ला सके. पिछले दिनों > > विजेन्द्र और अविनाश तथा > प्रमोद जी से भी इस पर > > > > मुख्तसर सी चर्चा हुई. > > इसका एक फ़ायदा यह भी होगा कि हम > लोगों के एक ऐसे > > > > हिस्से से बातचीत कर > > पाएँगे, > > > > जिनमें तकनीकी दक्षता > > शायद कम हो पर जो भाषा-प्रयोग के > माहिर हैँ. इन लोगों को > > > > बहस में शामिल किए बिना > > हमारी सारी कोशिशें अधूरी > होंगी. हमने छोटे पैमाने पर, > > > > समय-समय पर, यह कोशिश की है, > > ख़ास तौर पर इंडलिनक्स की > समीक्षा कार्यशाला > > > > आयोजित करके > > > > > > या हिन्दलिनक्स ख़बरनामा > > निकालकर. हमारी पहुंच तब भी > सीमित थी अब भी है. पर अब > > > > संदर्भ बदल गया है, और > > भाषाई कंप्यूटिंग करने के औज़ार > जल्द ही प्लैटफ़ॉर्म से > > > > आज़ाद होते चले जाएँगे. > > फिर कुछ बुनियादी ज़रूरतेँ सब > की एक जैसी हैँ - मिसाल > > > > के तौर पर हमें अच्छा > > स्पेल-चेकर चाहिए, तो अगर > > > > एक भाषा में यह बन जाता है > > तो तकनीकी सफलताओं का फ़ायदा > दूसरे भाषा-भाषियों को > > > > भी मिलेगा. अभी तो समस्या > > यह है कि यह रचनात्मक काम बहुत > कम लोगों तक महदूद > > > > है. > > > > > > संदर्भ इसलिए भी बदल गया > > है क्योंकि जैसाकि नीलिमा, > गिरीन्द्र, राकेश और कुछ > > > > हद तक गौरी हमें > > > > > > बताती रही हैं कि ब्लॉगिए > > अब अपने फ़ुल फ़ॉर्म में हैं - > दनदनाते हुए चिट्ठिया > > > > रहे हैँ, तो कुछ सामग्री तो > > हमें वहां से मिल जाएगी. > मेरा अपना ख़याल है कि > > > > शुद्ध तकनीकी पत्रिका > > निकालने में उसके फ़ौरन डूबने > का ख़तरा भारी है, लिहाज़ा > > > > हम सार्वजनिक दिलचस्पी की > > दीगर सामग्री भी > > > > डालेंगे, पर हमारा मूल > > उद्देश्य कंप्यूटिंग युग में > भाषायी प्रयोगों पर ही > > > > केन्द्रित होगा. मुझे लगता > > है कि शुरुआती तौर पर हम एक > त्रैमासिक पत्रिका > > > > नकालें, जिसका संपादनादि > > अवैतनिक हो, और जिसके प्रकाशन > के लिए किसी प्रकाशक को > > > > भी पकड़ सकते हैं. हमारी > > जेब से कुछ न जाए. > > > > ज़ाहिर है ऐसी पत्रिका आप > > सबके सहयोग के बिना नहीं > निकल सकती. लिहाज़ा मैं > > > > आपसे आपके वक़्त का दान > > लेने कि लिए कटोरा लेकर हाज़िर > हुआ हूँ. हमारे अपने > > > > कुछ ख़यालात हैं, पर हम > > पहले कहकर सब कुछ बंद नहीँ कर > देना चाहते हैँ. तो सबसे > > > > पहला सवाल तो आप सबसे यही > > है कि क्या ऐसी किसी > > > > पत्रिका की दरकार है? अगर > > है, तो उसमें क्या-क्या होना > चाहिए? > > > > और कौन-से लोग इससे जुड़ना > > चाहेंगे? > > > > काम यही करना होगा कि हम > > विकी जैसी एक ऑनलाइन जगह > रखेंगे जहाँ एक साथ सारी > > > > सामाग्री रख सकते हैँ बहस > > हो सकती है, संपादन भी हो सकता > है. आपको आलेख-संकलन, > > > > संपादन और हो सके > > > > > > तो डिज़ाइन आदि में मदद दे > > सकते हैं. हमारा नेतृत्व > राजेश रंजन करेंगे, > > > > क्योंकि यह मूलत: उन्हीं > > का सपना है, और उन्ही के पास > इसके लिए हम सबसे > > > > ज़्यादा वक़्त है. हम उनकी > > सलाहकार की भूमिका में हैं. > > > > जहाँ तक स्वयंसेवियों को > > ढूढने की बात है तो मुझे लगता > है कि कुछ लोगों को तो > > > > होना ही चहिए. > > > > > > रवि रतलामी, देबाशीष, > > विजेन्द्र, आलोक, अविनाश, नीलिमा - > ये कुछ ऐसे नाम हैं > > > > जो सहज ही याद आते हैँ. इन > > सबमें ग़ज़ब की प्रतिबद्धता > और नेतृत्व क्षमता देखी > > > > गई है. पर दीवान पर बातचीत > > शुरू करने के पीछे ख़याल ही > यही है कि यह एक मुक्त > > > > प्रस्ताव है, आप इसे > > उपयुक्त लोगों को भेज सकते हैं, > > > > उन्हें हम दीवान पर > > बुलाएंगे. मैं उम्मीद करता हूँ कि > करुणाकर और गोरा का > > > > सहयोग भी हमें मिलेगा. > > इनके अलावा रियाज़, गिरीन्द्र,, > रवीश आदि न जाने कितने > > > > लोगों ने ब्लॉग जगत में > > रचनात्मक हस्पक्षेप किए हैं, > जिनसे बाहरी दुनिया का > > > > परिचय कराना ज़रूरी लगता > > है. > > > > आप नीचे जाते हुए देख सकते > > हैं कि हमने एक खाका-सा खींचा > था - इसकी परिकल्पना > > > > करते हुए, उसे भी अभी खुला > > ही माना जाए, नाम भी अगर कोई > बेहतर हो तो सुझाएं, > > > > वैसे मुझे अभी तक मुक्तिका > > अच्छा लग रहा है. डिज़ाइन हम > ब्लॉग का ही रख सकते > > > > हैं, भले ही कवर उसके अंदर > > बदलता रहेगा. इतना > > > > बता दूँ कि यह सराय की > > पत्रिका नहीं होगी. हाँ इसे मुक्त > जनपद की पत्रिका माना > > > > जाए तो हमें कोई ऐतराज़ > > नहीं है, पर जैसा कि मैंने कहा > भाषाई औज़ारों के मामले > > > > में हम संकीर्णता न बरतें > > तो सबका भला होगा.... > > > > सहयोग की अपेक्षा में > > > > > > > > > रविकान्त + राजेश रंजन > > > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश > > ---------- > > > > Subject: आई-टी व प्रौद्योगिकी > > केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > Date: सोमवार 01 अक्टूबर 2007 15:54 > > > From: Rajesh Ranjan < > > > rajeshkajha at yahoo.com> > > > To: Ravikant > > > > > > रविकांत, > > > > > > मैंने जिस सामग्री को > > इंडलिनक्स पर डाला था वह भेज रहा > हूँ > > > > आगे सुझाव दीजिये क्या > > किया जाए. > > > > आपका > > > राजेश > > > > > > > > > > > > > > > आई-टी व प्रौद्योगिकी > > केंद्रित हिंदी पत्रिका > > > > हमारी भाषा हिंदी में एक > > तकनीकी जर्नल हो एक पत्रिका > हो ऐसी हमारी आकंक्षा > > > > रहती है. परंतु उसको > > व्यापकता में समेटने की कोई कोशिश > अभी तक नहीं हो > > > > पायी है. रविकांतजी ने > > अपने करोलबाग स्थित घर पर देर > रात बैठकर इसके लिये एक > > > > खाका तैयार किया है... विषय > > वस्तु का एक खूबसूरत लेआउट... > > > > नाम : मुक्तिका / मुक्तक ( > > एक अनियतकालीन पत्रिका) > > > > पूरे डिजिटल संस्कृति को > > समेटने की कोशिश करेगी यह > पत्रिका > > > > मोटे तौर पर इन विंदुओं के > > गिर्द इसका ताना बाना बुना > > जा सकता है: > > > १. औजार > > > > > > > > > क. कंप्यूटर (हार्डवेयर व > > सॉफ्टवेयर) > > > > ख. मोबाइल > > > ग. फिल्म व संगीत - तकनीक से > > जुड़ी बातचीत > > > > घ. कैमरा > > > ङ. इंटरनेट - ब्लॉग, ईमेल, > > वेबसाइट > > > > इनसे जुड़े हाउ टू पर आरंभ > > में ध्यान देने की कोशिश की > जायेगी.... > > > > २. इतिहास - तकनीकी इतिहास > > > > > > ३. समाज - व्यक्तिगत यात्रा > > > > > > ४. राजनीति - सरकार एक > > आलोचनात्मक पड़ताल की कोशिश > रहेगी, ई-गवर्नेंस, > > > > ई-लोकतंत्र > > > > > > > > > ५. कानून - बौद्धिक संपदा, > > लाइसेंस, नकल की संस्कृति > > > > ६. गैर सरकारी संगठन व उनके > > > प्रयास आलेख हम मुक्त > > स्रोत से जुड़े संगठन, सराय, > ब्लॉगर > > > > और कुछ जाने माने लेखकों > > से लेने की कोशिश करेंगे.. > > > > > > ___________________________________________________________________________ > > > >_ > > > > > > ________ Check out the hottest 2008 models today at Yahoo! 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