From sadan at sarai.net Tue May 1 01:22:16 2007 From: sadan at sarai.net (Sadan) Date: Mon, 30 Apr 2007 19:52:16 +0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KS14KWA4KS2?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpL/gpKvgpY3gpLDgpJw=?= Message-ID: <463648F0.4020504@sarai.net> ृरवीश ने िफ्रज पर कुछ बिढया िलखा है. देखें, naisadak.blogger.com हमारा ‌अपने आस पास के भौितक जगत से गहरा नाता होता है यह तो हर कोई जानता है लेिकन इस संबंध को, इसके ताने बाने को जोडना बडी बात है. बहुत पहले 'िपंटी का साबुन' पढा था.... सदन. mamuliram.blogger.com From dajeet at gmail.com Tue May 1 17:23:23 2007 From: dajeet at gmail.com (ajeet dwivedi) Date: Tue, 1 May 2007 17:23:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= second posting Message-ID: <292e6580705010453o3f12a4b2vc69e3766a07e7f97@mail.gmail.com> दिल्ली की सीलिंग और यमुना पुश्ते के विस्थापन के मीडिया कवरेज पर दूसरी किश्त दोस्तो दिल्ली में अवैध निर्माण तोडने और सीलिंग लागू करने के अभियान की मीडिया कवरेज यमुना पुश्ते पर हुये विस्थापन की कवरेज से किस तरह और कितना भिन्न है इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि ये दोनों घटनायें क्यों और किन परिस्थितियों में शुरू हुईं. इसके साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इससे सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग कौन हैं. सबसे पहले सीलिंग की बात करते हैं. २००५ के साल में दिसंबर का महीना था. दिल्ली की सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी. तभी अदालत के फरमान से दिल्ली में सीलिंग की शुरुआत हुई. वैसे दिल्ली के अवैध निर्माण को लेकर कई याचिकायें काफी पहले से दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित थीं. दिसंबर २००५ में सुनवाई के बाद अदालत ने सख्त रुख अख्तियार करते हुये आदेश दिया की अवैध निर्माण तोडने की प्रक्रिया तत्काल शुरू कि जाये और सारे अवैध निर्माण जिनकी सूची दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के पास है उन्हें एक महीने के भीतर तोड दिया जाये. १८ दिसंबर २००५ को एमसीडी ने दिल्ली पुलिस की मदद से अवैध निर्माण तोडना शुरू किया. इस अभियान से पूरी दिल्ली में हंगामा मच गया. यह एक दोहरा अभियान था, जिसमें न सिर्फ अवैध निर्माण तोडा जाने वाला था, बल्कि रिहायशी इलाकों में चल रही कारोबारी गतिविधियों को भी बंद किया जाना था. अवैध निर्माण और रिहायशी इलाकों में कारोबारी गतिविधियां चलाने वाले वे लोग थे, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां इतनी बेहतर थीं कि वे अवैध काम कर सकते थे. दिल्ली में रहने वालों को पता है कि यहां कोई भी अवैध निर्माण करना कितना कठिन होता है. इसके लिये हमेशा आपके साथ रहने का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस को साधना होगा, एमसीडी के अधिकारियों को पटाना होगा, फिर पानी और बिजली वाले विभाग के अधिकारियों को भी किसी न किसी तरह से साथ मिलाना होगा तब जाकर बात बनेगी. ये सारे काम या तो पैसे के दम पर होंगे या किसी बहुत ऊंची पैरवी के दम पर. बगैर किसी पक्के आकलन के कहा जा सकता तमाम या ज्यादातर अवैध निर्माण उन लोगों के थे, जिनके पास अवैध और अनाप-शनाप पैसा है. क्योंकि अपनी मेहनत की कमाई को अवैध निर्माण मे नहीं लगाता, दूसरे कोई बैंक अवैध निर्माण के लिये कर्ज भी नहीं देता. इसलिये जाहिर है कि अदालत के निर्देश पर शुरू हुये इस अभियान का नकारात्मक असर इस महानगर के अगर सबसे प्रभावशाली नहीं तो कम से कम प्रभावशाली वर्ग के उपर पडना था और कायदे से अगर ये अभियान चलता रहता तो दिल्ली के भू माफिया, बिल्डर लाबी, भ्रश्ट अधिकारियों और नेताओं का गठजोड उजागर हो जाता. इससे स्पश्ट है की जिन लोगों को इस अभियान से नुकसान होना था वे ऐसे लोग थे जिनके हितों को बचाने की जिम्मेदारी नेताओं, अधिकारियों और काफी हद तक मीडिया की भी थी. जो लोग इस अभियान के खिलाफ सडकों पर उतरे उन्हें देखकर तस्वीर और साफ हो जाती है. भाजपा नेता सबसे प्रमुखता से सडक पर उतरे. कांग्रेस के नेता चाह कर भी ऐसा इसलिये नहीं कर पाये क्योंकि दिल्ली और केन्द्र दोनों जगह उनकी सरकार थी. लेकिन परदे के पीछे से उन्होंने यह व्यवस्था कर दी कि यह अभियान दम तोड दे. सीलिंग का शिकार हो रहे वर्ग और उसके खिलाफ खडे लोगों के हित एक थे और चूंकि मीडिया के हित भी इसी वर्ग से जुडे हैं (प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी) इसलिये इस विरोध को इतना मुखर स्वर मिला. पुश्ते के विस्थापन की स्थितियों, उससे प्रभावित हो रहे लोगों की वर्गीय हैसियत, इसके प्रति सीलिंग के विरोध में खडे वर्ग का नजरिया और उसमें मीडिया की भूमिका पर अगली किश्त बहुत जल्दी. अजीत द्विवेदी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070501/53163325/attachment.html From girindranath at gmail.com Tue May 1 19:38:06 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 1 May 2007 19:38:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?second_posting?= In-Reply-To: <292e6580705010453o3f12a4b2vc69e3766a07e7f97@mail.gmail.com> References: <292e6580705010453o3f12a4b2vc69e3766a07e7f97@mail.gmail.com> Message-ID: <63309c960705010708j1b66795x59a6cf304e5c1395@mail.gmail.com> सिलिंग अभियान के पिछे की बातों को रखने के लिए पहले धन्यवाद्. जहां तक अलग-अलग पार्टियो की इस अभियान को लेकर पकती खिचडियां थी उसे तो सब जानते ही हैं.खासकर मीडिया के रोल को लेकर काफी बातें सामने आ सकती है.आशा है कि आपकी अगली पोस्टींग इसी के आस पास घुमेगी और कई बातो को सामने प्रस्तुत करेगी. गिरीन्द्र www.anubhaw.blogspot.com On 5/1/07, ajeet dwivedi wrote: > दिल्ली की सीलिंग और यमुना पुश्ते के विस्थापन के मीडिया कवरेज पर दूसरी किश्त > दोस्तो दिल्ली में अवैध निर्माण तोडने और सीलिंग लागू करने के अभियान की मीडिया > कवरेज यमुना पुश्ते पर हुये विस्थापन की कवरेज से किस तरह और कितना भिन्न है > इसे समझने के लिये यह जानना जरूरी है कि ये दोनों घटनायें क्यों और किन > परिस्थितियों में शुरू हुईं. इसके साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इससे > सबसे अधिक प्रभावित होने वाले लोग कौन हैं. > सबसे पहले सीलिंग की बात करते हैं. २००५ के साल में दिसंबर का महीना था. दिल्ली > की सर्दी अपने पूरे शबाब पर थी. तभी अदालत के फरमान से दिल्ली में सीलिंग की > शुरुआत हुई. वैसे दिल्ली के अवैध निर्माण को लेकर कई याचिकायें काफी पहले से > दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित थीं. दिसंबर २००५ में सुनवाई के बाद अदालत ने सख्त > रुख अख्तियार करते हुये आदेश दिया की अवैध निर्माण तोडने की प्रक्रिया तत्काल > शुरू कि जाये और सारे अवैध निर्माण जिनकी सूची दिल्ली नगर निगम यानी एमसीडी के > पास है उन्हें एक महीने के भीतर तोड दिया जाये. १८ दिसंबर २००५ को एमसीडी ने > दिल्ली पुलिस की मदद से अवैध निर्माण तोडना शुरू किया. इस अभियान से पूरी > दिल्ली में हंगामा मच गया. यह एक दोहरा अभियान था, जिसमें न सिर्फ अवैध निर्माण > तोडा जाने वाला था, बल्कि रिहायशी इलाकों में चल रही कारोबारी गतिविधियों को भी > बंद किया जाना था. अवैध निर्माण और रिहायशी इलाकों में कारोबारी गतिविधियां > चलाने वाले वे लोग थे, जिनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियां इतनी बेहतर थीं कि वे > अवैध काम कर सकते थे. दिल्ली में रहने वालों को पता है कि यहां कोई भी अवैध > निर्माण करना कितना कठिन होता है. इसके लिये हमेशा आपके साथ रहने का दावा करने > वाली दिल्ली पुलिस को साधना होगा, एमसीडी के अधिकारियों को पटाना होगा, फिर > पानी और बिजली वाले विभाग के अधिकारियों को भी किसी न किसी तरह से साथ मिलाना > होगा तब जाकर बात बनेगी. ये सारे काम या तो पैसे के दम पर होंगे या किसी बहुत > ऊंची पैरवी के दम पर. बगैर किसी पक्के आकलन के कहा जा सकता तमाम या ज्यादातर > अवैध निर्माण उन लोगों के थे, जिनके पास अवैध और अनाप-शनाप पैसा है. क्योंकि > अपनी मेहनत की कमाई को अवैध निर्माण मे नहीं लगाता, दूसरे कोई बैंक अवैध > निर्माण के लिये कर्ज भी नहीं देता. इसलिये जाहिर है कि अदालत के निर्देश पर > शुरू हुये इस अभियान का नकारात्मक असर इस महानगर के अगर सबसे प्रभावशाली नहीं > तो कम से कम प्रभावशाली वर्ग के उपर पडना था और कायदे से अगर ये अभियान चलता > रहता तो दिल्ली के भू माफिया, बिल्डर लाबी, भ्रश्ट अधिकारियों और नेताओं का > गठजोड उजागर हो जाता. इससे स्पश्ट है की जिन लोगों को इस अभियान से नुकसान होना > था वे ऐसे लोग थे जिनके हितों को बचाने की जिम्मेदारी नेताओं, अधिकारियों और > काफी हद तक मीडिया की भी थी. > जो लोग इस अभियान के खिलाफ सडकों पर उतरे उन्हें देखकर तस्वीर और साफ हो जाती > है. भाजपा नेता सबसे प्रमुखता से सडक पर उतरे. कांग्रेस के नेता चाह कर भी ऐसा > इसलिये नहीं कर पाये क्योंकि दिल्ली और केन्द्र दोनों जगह उनकी सरकार थी. लेकिन > परदे के पीछे से उन्होंने यह व्यवस्था कर दी कि यह अभियान दम तोड दे. सीलिंग का > शिकार हो रहे वर्ग और उसके खिलाफ खडे लोगों के हित एक थे और चूंकि मीडिया के > हित भी इसी वर्ग से जुडे हैं (प्रत्यक्ष भी और परोक्ष भी) इसलिये इस विरोध को > इतना मुखर स्वर मिला. > पुश्ते के विस्थापन की स्थितियों, उससे प्रभावित हो रहे लोगों की वर्गीय > हैसियत, इसके प्रति सीलिंग के विरोध में खडे वर्ग का नजरिया और उसमें मीडिया की > भूमिका पर अगली किश्त बहुत जल्दी. > अजीत द्विवेदी > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From girindranath at gmail.com Tue May 1 19:52:54 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 1 May 2007 19:52:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?second_post-_kyonk?= =?utf-8?b?aSBoYXIgYmxvZyBrdWNoLi4uLi4=?= In-Reply-To: <5bf3a8c90704300939m39d06446s8e368bf07293ac9f@mail.gmail.com> References: <5bf3a8c90704300939m39d06446s8e368bf07293ac9f@mail.gmail.com> Message-ID: <63309c960705010722v5850ce2bp663a46b091465bf2@mail.gmail.com> गौरी पालिवाल जी का विषय-"क्योंकि हर ब्लॉग कुछ कहता है" के पोस्टींग को जब पढता हूं तो कई बातें दिमाग में खलबली मचाने लगती है. बकौल एक ब्लागर हर दिन नया लिखना कोई खेल नही है.(यह मेरा मानना है) खासकर आपने जो सक्रिय ब्लागरो के विषय में बात कही है उससे तो मैं सहमत हूं. नये ब्लागर तो हर दिन अपना स्पेस बना रहे है लेकिन उनके ब्लाग में आपको हर रोज नया मसाला नही मिलेगा. यह सच है. दूसरी ओर आपकी यह बात -"लेकिन,मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग जब लेखक को अर्थलाभ कराने लगेगी, तब इसमें नियमित लिखने वाले लेखकों-पाठकों की संख्या बढ़ेगी और विषयों में बहुत तेज़ी से विविधता दिखायी देगी।" में दम नजर आता है.क्योंकि जब मैं किसी को ब्लागिंग करने को कहता हूं तो उनका सपाट सवाल होता है-"क्या ब्लागिंग से कुछ कमाया भी जा सकता है..?" आशा है कि आपकी अगली पोस्टींग ब्लाग जगत से कई बाते सामने लायेगी. गिरीन्द्र् www.anubhaw.blogspot.com On 4/30/07, Gauri Paliwal wrote: > "क्योंकि हर ब्लॉग कुछ कहता है" विषय पर अपनी दूसरी पोस्टिंग लिखने से > पहले एक ईमानदार स्वीकारोक्ति.. > > "शोध का ये विषय उससे कहीं दुश्कर है-जितना मैंने सोचा था। दरअसल, इस > फेलोशिप मिलने के बाद ही हिन्दी ब्लॉगिंग यानि हिन्दी चिट्ठाकारिता में > इस तेज़ी से परिवर्तन हुए हैं कि शोध का दायरा लगातार फैलता जा रहा है, > जबकि प्रस्ताव देते वक्त हिन्दी में बमुश्किल 60-70 सक्रिय ब्लॉग थे।" > > फिर भी, शायद यही इस विषय में शोध का मज़ा भी है कि हम जितना जानते > हैं,उससे कहीं अधिक जानने के लिए बचा है। शायद,शोध पत्र प्रस्तुत करते > वक्त कई ऐसे नए सवाल भी खड़े होंगे-जिनके बारे में हमने सोचा भी न हो। > > इस स्वीकारोक्ति के बाद एक घोषणा- मैंने सराय के शोध के दौरान केस स्टडी > के लिए ही एक व्यंग्य ब्लॉग mastikibasti.blogspot.com बनाया है। इस पर > हिन्दी के कई व्यंग्यकारों से लिखवाने की कोशिश की जाएगी। इस ब्लॉग से > क्या, क्यों और कैसे निष्कर्ष निकालने की कोशिश होगी-इस पर अगली पोस्टिंग > में बात होगी। > > बहरहाल, हिन्दी चिट्ठों के बारे में इन दिनों मीडिया में भी इतनी चर्चा > है कि सराय के सभी साथी इस "खेल" से परिचित होंगे। मैंने अपनी पहली > पोस्टिंग में इस बात का ज़िक्र किया था कि हिन्दी में सक्रिय तौर पर > ब्लॉग लिखने वालों की संख्या अभी सीमित है। हालांकि, हिन्दी में ब्लॉग > लिखने वालों की संख्या में तेज़ी से इजाफा हो रहा है,पर अभी भी मेरा > मानना है कि सक्रिय ब्लॉग लिखने वालों की संख्या सीमित ही है। > > प्रमुख ब्लॉग एग्रीगेटर नारद के मुताबिक फिलहाल हिन्दी में ब्लॉग की > संख्या 600 से कुछ ज्यादा है। यद्यपि, कई चिट्ठों के नाम हमारी सूची में > हैं, लेकिन सूची पूरी नहीं कही जा सकती। इस बार, मैंने सोचा कि यही देखा > जाए कि हिन्दी में नियमित तौर पर कितने लोग चिट्ठाकारी कर रहे हैं। अब, > नियमित का दायरा क्या हो ? अपनी समझ के मुताबिक और सहूलियत के लिए मैंने > उन चिट्ठों को नियमित माना जो सप्ताह में कम से कम एक बार अपडेट किए गए > हों। लेकिन, मुमकिन है कि इक्का दुक्का सक्रिय चिट्ठाकार किसी विशेष > हफ्ते में एक भी पोस्ट न डाल पाए हों, इसलिए मैंने इस अवधि को नौ दिन कर > दिया। हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर नारद और हिन्दी ब्लॉग्स डॉट कॉम के जरिए 31 > मार्च से आठ-नौ अप्रैल तक के चिट्ठों को खंगाला तो निष्कर्ष में > निम्नलिखित तथ्य सामने आए। > इन नौ दिनों में कुल 150 लोगों ने चिट्ठे लिखे थे। इनमें से कुछ लोगों के > एक से अधिक चिट्ठे भी हैं यानि ब्लॉग की संख्या भले करीब 150 थी, लेकिन > लिखने वाले उससे कम हैं। इऩमें से कुछ चिट्ठाकार अति सक्रियता की अवस्था > मे दिखे यानि इनके चिट्ठे पर नौ दिनों में 10 से भी अधिक पोस्टिंग डाली > गईं। इनमें प्रमोद सिंह के अज़दक का रिकॉर्ड धुआंधार था, जिन्हें इतने > वक्त में 21 पोस्ट डालीं। इनके अलावा,वाह मनी (15),मोहल्ला (13),छू लो > आसमान (18), कमल शर्मा (18),हिन्द युग्म (19),महाशक्ति (12),कुछ लम्हे > (10),वर्षा (10) और ममताटीवी (11) मुख्य हैं। इसी तरह सक्रिय ब्लॉग की > श्रेणी भी बनायी जा सकती है। इसमें वो सारे चिट्ठे हैं, जिनकी बदौलत > हिन्दी चिट्ठों की दुनिया फल-फूल रही है। लेकिन, खास बात यह कि 150 में > से कम सक्रिय चिट्ठों की भी बड़ी संख्या थी। मेरी जानकारी के मुताबिक, > करीब 38 चिट्ठे ऐसे थे,जिन पर नौ दिनों में केवल एक पोस्ट डाली गई। इनमें > रत्ना की रसोई, बारह पत्थर, रेलगाड़ी, होम्योपेथी, दस्तक,राजलेख का > हिन्दी चिट्ठा, नितिन हिन्दुस्तानी का हिन्दी चिट्ठा, यूयुत्सु, ख्वाब का > दर, देश-दुनिया, इंकलिंक, रिफ्लेक्शन, विपन्न बुद्धि उवाच, शब्द यात्रा, > शब्द संघर्ष, महावीर, आवारा बंजारा, शत शत नमन, कुछ सच्चे मोती, मानस के > हंस, युगान्तर और चंपा का ब्लॉग जैसे चिट्ठे शामिल हैं। दिलचस्प बात यह > है कि इन कम सक्रिय ब्लॉग्स में से कुछ इस अध्ययन के बाद दोबारा दिखायी > ही नही दिए यानि इन पर फिर कोई पोस्ट नहीं डाली गई। पहली नज़र में इस तरह > के अध्ययन से एक बात साफ हो गई कि हिन्दी में महज़ 100-110 ब्लॉग्स पर ही > नियमित तौर पर पोस्टिंग हो रही है। > > वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दी में चिट्ठों की संख्या में अचानक > काफी बढ़ोतरी हुई है। रोज़ दो-तीन नए ब्लॉग मैदान में उतर रहे हैं। > लेकिन,चार साल के हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास में केवल 100 से 150 सक्रिय > चिट्ठे यह बताते हैं कि नियमित लिखना मज़ाक नहीं है। ब्लॉग मुफ्त में > बनाए जा सकते हैं,लिहाजा ब्लॉगिंग के बारे में सुनकर या पढ़कर उत्सुकता > में ब्लॉग बनाने वालों की संख्या बहुत अधिक है (हिन्दी -अंग्रेजी और सभी > भाषाओं में), लेकिन नियमित लिखना बेहद दुश्कर है। > > अब, हिन्दी ब्लॉग पर नियमित लिखा नहीं जाता, इसलिए सर्च इँजन के जरिए इन > पर हिट्स भी नहीं पड़ते यानि सर्च इँजन के जरिए इऩ्हें नए पाठक नहीं मिल > पा रहे हैं। वरिष्ठ चिट्ठाकार रवि रतलामी ने ब्लॉग 'एक शाम तेरे नाम' पर > मनीष की लिखी एक पोस्ट(हिन्दी चिट्ठाकारिता: कैसा है इसका वर्तमान और > क्या होगा इसका भविष्य) पर टिप्पणी करते हुए लिखा- > " यह कहना कि सर्च से हिन्दी पृष्ठों पर लोग नहीं आते, तो आज की स्थिति > में यह कथन गलत है। मेरे पृष्ठों पर अब 70 प्रतिशत लोग सर्च इंजन के जरिए > पहुंचते हैं- जी हां, हिन्दी सर्च इंजन के जरिए। इसका कारण है-पृष्ठों > में सामग्री की प्रचुरता। अगर सामग्री ही नहीं होगी तो सर्च इंजन क्या > खाक खोजेगा? " > > साफ है-हिन्दी चिट्ठाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती नियमित लिखना है। > > अब, यह मुमकिन कैसे होगा-यह हिन्दी चिट्ठाकारी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। > > अभी जो लोग हिन्दी में सक्रिय चिट्ठाकारी कर रहे हैं, उनके लिखने की चंद > खास वजह हैं। मसलन, लिखने की खुजली, अभिव्यक्ति की माध्यम मिलना, हिन्दी > से जुड़ाव, विदेश में बैठकर हिन्दी वासियों से संपर्क का साधन आदि आदि > (नीलिमा जी ने-हिन्दी चिट्ठाकार हिन्दी में चिट्ठाकारी क्यों करते > हैं(थे) पर अच्छा लिखा है)। मेरा अध्ययन भी जारी है। लेकिन,मुझे लगता है > कि हिन्दी ब्लॉगिंग जब लेखक को अर्थलाभ कराने लगेगी, तब इसमें नियमित > लिखने वाले लेखकों-पाठकों की संख्या बढ़ेगी और विषयों में बहुत तेज़ी से > विविधता दिखायी देगी। (अति प्रारंभिक निष्कर्ष)। > दरअसल, अभी तक हिन्दी ब्लॉगिंग पर विषयों की वो विविधता नहीं दिखायी > देती-जो इसके लिए पाठकों का नया वर्ग तैयार कर सके। चिट्ठाकार अपने अंदाज > में अपनी बात कहते हैं-कभी साहित्य की किसी विधा में तो कभी किस्से के > तौर पर, कभी देखी-पढ़ी बातों का जिक्र होता है तो कुछ चिट्ठों पर अति > गंभीर विषयों पर बहस हो रही है। दिलचस्प बात देखिए कि टेलीविजन न्यूज की > दुनिया में जो चार चीजें सबसे ज्यादा टीआरपी खींचती हैं,उनमें से एक पर > भी हिन्दी में विशेष ब्लॉग नहीं है। ये चार चीजें यानि 4C हैं- Cricket, > Cinema, Crime and Celebrity.। हिन्दी में चिट्ठाकार अपने अंदाज में > क्रिकेट पर (खिलाड़ियों पर भड़ास) लिख तो मारते हैं-लेकिन क्रिकेट को > समर्पित कोई ब्लॉग नहीं दिखता। ये सवाल अहम है कि क्या सिर्फ क्रिकेट के > ब्लॉग के पाठक नहीं है ? इसी तरह, धारणा है कि सिनेमा में सभी की जबरदस्त > दिलचस्पी होती है। टीवी चैनल पर आने वाले कार्यक्रम और अखबारों के बदलते > साप्ताहिक परिशिष्ट इस बात की बहुत हद तक पुष्टि भी करते हैं, पर हिन्दी > में मुख्यधारा के सिनेमा को पूरी तरह समर्पित कोई सक्रिय ब्लॉग नहीं है। > हां, सिलेमा एक ब्लॉग जरुर है। उस पर अच्छी विश्लेषणात्म पोस्ट भी नियमित > लिखी जाती हैं,लेकिन सिनेमा पर लेखन का आर्ट फार्मूला ज्यादा मालूम पड़ता > है। क्राइम बिकता है- लेकिन अपराध जगत की ख़बरें ,उसके पहलू, उससे जुड़े > किस्से, उससे जुड़ी सावधानियां, सुझाव आदि देने वाला कोई हिन्दी ब्लॉग > शायद नहीं है। अंग्रेजी में कई बड़ी सेलेब्रिटी लिख रही हैं,लेकिन हिन्दी > में ऐसा नहीं है। हिन्दी में न तो कोई सेलेब्रिटी (इक्का दुक्का > पत्रकारों को ही मान लें सेलेब्रिटी) लिख रहा है और न सेलेब्रिटी पर लिखा > जा रहा है। > > हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में एक दिलचस्प बात और देखने को मिल रही है। वो > है-ग्रुपिज़्म यानि समूहवादिता। हिन्दी चिट्ठों की संख्या भले 150 से > ज्यादा नहीं है, लेकिन चिट्ठाकारों के बीच लिखने और पढ़ने के अँदाज़ में > ही ग्रुपिज्म की झलक दिखायी दे रही है। हालांकि, यह बात बेहद प्रारंभिक > दौर के निष्कर्षों के आधार पर कह रही हूं लेकिन मुझे लगता है कि इससे कई > अच्छे हिन्दी चिट्ठों को नुकसान हो रहा है, और होगा। > > पहले मैंने सोचा था कि शोध करते वक्त अपना एक निजी ब्लॉग भी बनाया > जाएगा,लेकिन इस ग्रुपिज़्म और उसमें बह जाने के खतरे के चलते मैंने यह > इरादा फिलहाल छोड़ दिया है। दरअसल, पार्टीसिपैंट आब्‍जर्वेशन मैथड अपनाने > में बड़ा खतरा यह रहता ही है कि आप ऑब्जर्व करना छोड़, भागीदार बन जाते > हो। > > बहरहाल,बातें कुछ और कहनी हैं-लेकिन तथ्यों के साथ हाज़िर होना चाहती > हूं..इसलिए इस बार इतना ही। > हां, इस विषय पर शोध का विचार आने के बाद से मुझे लगता है कि हिन्दी > ब्लॉगिंग का विस्तार तभी हो सकेगा,जब लोगों को अर्थलाभ की संभावनाएं > दिखायी पड़े। मेरे शोध का एक पहलू इस आयाम से भी जुड़ेगा। इसकी शुरुआत हो > चुकी है, जिसकी चर्चा अगली पोस्टिंग में। > > -गौरी > > (नोट- मजे की बात यह है कि जिस दिन मैंने पोस्ट लिखी, उसी दिन नारद > एग्रीगेटर पर भी सक्रिय-कम सक्रिय आदि से जुड़ी एक लिस्ट हाजिर हो गई। > नारद ने सक्रिय ब्लॉग को 400 के करीब आंका है,लेकिन नारद ने 15 दिन में > कम से कम एक बार अपडेट होने वाले चिट्ठों को भी सक्रिय का दर्जा दिया है। > पर,जब ब्लॉग पर कंटेंट का महत्व बढ़ता जा रहा हो,तो पखवाड़े में एक पोस्ट > कम लगती है और इसलिए मैंने नौ दिन की अवधि रखी।) > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From tripathimrityunjay at gmail.com Wed May 2 19:50:27 2007 From: tripathimrityunjay at gmail.com (mrityunjay tripathi) Date: Wed, 2 May 2007 19:50:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= achha hai Message-ID: guru, posting neek hai. apni jaunpur ki yatra yad aa gai. insha allah aise hi likte rahiye. From neelimasayshi at gmail.com Wed May 2 22:18:18 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Wed, 2 May 2007 22:18:18 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KS14KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KS2IOCkleCkviDgpK7gpYvgpLngpLLgpY3igI3gpLLgpL4g4KSV?= =?utf-8?b?4KSl4KS+4KSm4KWH4KS2IOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <749797f90705020948n1c8e2539o11b3c0825094928b@mail.gmail.com> *मई माह की कथादेश आज ही मिली। देखा तो इस बार फिर अविनाशने इस पत्रिका में चिट्ठाकारी पर लिखा है। पता करने पर जानकारी मिली कि अब वे कथादेश में चिट्ठाकारी पर नियमित स्‍तंभ लिख रहे हैं। अप्रैल अंक और मई अंक दोनों के लेख व्‍यतिक्रम से प्रस्‍तुत हैं। मई अंक से अविकल* ** *इंटरनेट का मोहल्‍ला* *रचना की रफ्तार से पड़ते हैं जहॉं वार* पूरी दुनिया अपने अपने कारोबार में लगी है। हमेशा से लगी रही है। कारोबारों के बगैर ये दुनिया शायद ऐसी नहीं होती, जैसी है। खेती, किसानी, मजदूरी, मालिक-मुख्तारी, नेतागिरी, दलाली इन कारोबारों का हिस्सा रही है। सबने इस दुनिया को अपने अपने तरीके से बनाने की कोशिश की है। इन सामूहिक कोशिशों की बदौलत ही ये दुनिया न स्वर्ग है न नरक। अपनी जैसी है, जहां खुशी, दुख, ईर्ष्या और दोस्ती-कुर्बानी के संस्कारों के साथ हम मौजूद हैं। फिर वो खलिश कौन सी है, जो हमारी इस दुनिया में एक और दुनिया खोजने के लिए चिंतित करती रहती है? गवैये के पास सबसे अच्छे सुर और खोज की चिंता रहती है, धावक उड़ने के ख्व़ाब देखता है। प्रेमचंद के पास पुश्तैनी थोड़ी जायदाद थी, बाद में अपना प्रेस हो गया। आराम से खा-पी सकते थे, क्यों बेवजह कहानियां लिखते थे। मुक्तिबोध के पास जितना दिमाग था, वो अच्छी कंपनी के डाइरेक्टर हो सकते थे, लेकिन अभिव्यक्ति की त्रासद पीड़ा ने उन्हें हमेशा गऱीब रखा। दरअसल बहुत कुछ होने और संतोष के परम भाव के बाद भी बची हुई थोड़ी-सी अतृप्ति आदमी को उस वीरान टीले पर ले जाती है, जहां खड़े होकर वह ज़ोर-ज़ोर से चीख सके। दुनिया को बता सके कि... हम भी हैं, तुम भी हो, आमने-सामने। पूरी दुनिया में अपनी संवेदना को शब्दों के जरिये कहने की बेचैनी दरअसल यही है। हम भी हैं, तुम हो, आमने-सामने। कुछ तुम कहो, कुछ हम कहें। लेकिन काग़ज पर लिखा हुआ बहुत देर तक एकालाप की तरह गूंजता है। लेखक की आंखों में घूमती हुई स्याही कई तरह के चित्र बनाती है, लेकिन इन चित्रों की कद्र होने में कई बार बहुत देर हो जाती है। इंटरनेट पर ब्लॉग्स के जरिये सामने आ रही लिखत-पढ़त को बहुत जल्दी कद्रदान भी मिल रहे हैं और थू-थू करने वाले भी। अंग्रेज़ी में कई ब्लॉगर हैं, जो दरअसल तकनीकवेत्ता हैं- जब भी फुर्सत मिलती है, वे कुछ टिप्स अपने ब्लॉग पर छोड़ते हैं। हिंदी में भी हैं, जैसे रवि रतलामी (http://raviratlami.blogspot.com/), जितेंद्र चौधरी (http://www.jitu.info/merapanna/)... और ये लोग हर रोज़ या दो-तीन दिनों पर कुछ नयी बातें बताते हैं कि इंटरनेट से जुड़ी तकनीक में कहां-कहां क्या-क्या इज़ाफा हुआ है। हिंदी के लिए कितनी सहूलियतें उन इज़ाफों में शामिल हैं। लेकिन हिंदी में इन सूचनाओं को बांटने का आंदोलनी जज्ब़ा ज्य़ादा है। वरना एक हैं अमित अग्रवाल (http://labnol.blogspot.com/), अंग्रेज़ी ब्लॉगर, जिनकी एक दिन की कमाई है एक हज़ार डॉलर। यानी हर रोज़ क़रीब पैंतालीस हज़ार रुपये। हालांकि हिंदी कभी इस आमदनी तक नहीं पहुंचेगी, लेकिन अभिलाषा पालने वाले दर्जनों ब्लॉगर हिंदी में लगे-पड़े हुए हैं। कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हिंदी के बहुत सारे लेखक कभी अनायास बुकर या नोबल मिल जाने की ख्वाहिशों का खुशी देने वाला गम़ पाले हुए कुछ महान लिखने की कोशिश में रत हैं। हिंदी का एक कवि किसी पत्रिका से हज़ार रुपये का मेहनताना पाकर परम प्रसन्नचित्त रहता है, वैसे ही हिंदी के बहुधा ब्लॉगर एक-एक टिप्पणी से निहाल रहते हैं। अभी तक सर्वाधिक टिप्पणियों रिकॉर्ड सृजनशिल्पी ( http://srijanshilpi.com/) नाम के एक सज्जन के खाते में है, जिनकी सुभाष चंद्र बोस को कर्ण बताने वाले एक शोधपरक रचना पर कुल ४२ क्रिया-प्रतिक्रिया हुई थी। अनूप शुक्ला नाम के एक सज्जन लिखते हैं- इन विचारों से यह लगता है कि गांधी-नेहरु राष्ट्रनायक न होकर एकता कपूर के सीरियल के कोई कलाकार थे जो तमाम दूसरे लोगों को अपने रास्ते से हटाने की जुगत में ही लगे रहे। अब ऐसी बहसों से हिंदी को आज़ाद हो जाना चाहिए, लेकिन हिंदी ब्लॉगिंग अभी रामचरितमानस से शुरू होना चाह रही है। लेकिन कुछ संजीदा किस्म के लोग अब भी आगे की बहसों को उठा रहे हैं, जो वाकई समय की पेचीदगियों से मुठभेड़ करती हैं। कई सारे ब्लॉगरों को ऐसी टिप्पणियां मिलती रही हैं, जो किसी नाम से नहीं होतीं। वे बेनाम टिप्पणियां होती हैं। बेनाम प्रतिक्रियाओं के संसार की एक सहूलियत ये है कि इसमें नौकरियां बच जाती हैं और दोस्त दुश्मन होने से रह जाते हैं, लेकिन एक दूसरी सहूलियत है आज़ादी के एक नये क्षितिज की है। इन बेनाम चादरों की सहूलियतों पर हिंदी ब्लॉगिंग में जम कर बहस हुई। मसिजीवी (http://masijeevi.blogspot.com/) नामधारी ब्लॉगर ने कहा- मुझे मुखौटा आज़ाद करता है... ध्यान दें कि खत़रा यह है कि यदि आप इसे वाकई मुखौटों से मुक्त दुनिया बना देंगे तो ये दुनिया बाहर की 'रीयल` दुनिया जैसी ही बन जाएगी- नकली और पाखंड से भरी। आलोचक, धुरविरोधी, मसिजीवी ही नहीं, वे भी जो अपने नामों से चिट्ठाकारी (ब्लॉगिंग) करते हैं, एक झीना मुखौटा पहनते हैं, जो चिट्ठाकारी की जान है। उसे मत नोचो- ये हमें मुक्त करता है। हिंदी ब्लॉगिंग इंटरनेट पर अभिव्यक्ति का ऐसा ईजाद है, जो पर्देदारी को आज़ादी का एक और आयाम बताता है और जिस पर्देदारी में आप अपना आस-पड़ोस बिना संकोच के उघाड़ सकते हैं। और उस उघड़न पर चंद मिनटों में लाठी-बंदूक का वार भी पड़ जाएगा। सो इंतज़ार कीजिए, हिंदी ब्लॉगिंग आने वाले वक्त में हज़ारों मंटो-इस्मत की कतार खड़ी करेगा। अब आखिऱ में एक ब्लॉग चर्चा। अभय तिवारी मुंबई में सिनेमा-सीरियल के लिए लिखते हैं। पिछले दिनों उन्होंने एक नन्हा-सा चिट्ठा लिखा था- ऐ लम्बरदार, जियादा लंतरानी ना पेलो। कुछ इस तरह... गांव-कस्बे के सहज बोल बचन हैं- ऐ ना पेलो के अलावा, यहां जो बाकी शब्द हैं, उनका मूल अरबी भाषा में है। लम्बरदार बिगड़ा हुआ रूप है अलमबरदार का। अलम का मायने है झंडा, और बरदार फ़ारसी का प्रत्यय है, जिसका अर्थ है उठाने वाला। तो झंडा लेकर आगे-आगे चलने वाले को अलमबरदार कहा जाता है। और अपनी देशज भाषा में भी इसका लगभग यही अर्थ है। नेता मुखिया के लिए प्रयुक्त होता है। जियादा में ज़ियाद: फेरबदल नहीं हुई, मगर लन्तरानी! लन्तरानी का अर्थ है, 'तू मुझे नहीं देख सकता`। अयं? ये शब्द है कि वाक्य? असल में ये वाक्य ही है, जो ईश्वर ने मूसा से कहा है। जब मूसा ने उनको देखने की इच्छा प्रगट की। ईश्वर का यहां पर तौर ये है कि कहां मैं सर्वशक्तिमान ईश्वर और कहां तू एक अदना मनुष्य। इसी मूल भावना को ध्यान में रख कर इस वाक्य का प्रयोग एक मुहावरे के बतौर होता है। बहुत-बहुत बड़ी बड़ी बातें पेलने वाली प्रवृत्ति को चिन्हित करने के लिए। इतनी मासूम सी बात है, क्या आप को लग रहा है कि मैं लनतरानी पेल रहा हूं? अगली बार हिंदी ब्लॉगिंग की भाषा के चंद रूपक पेश करेंगे। -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070502/8e23f8db/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat May 5 11:24:22 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 5 May 2007 11:24:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSu4KSv?= =?utf-8?b?4KS+4KSs4KWAIOCkleCkviDgpKrgpKHgpL7gpLUgLCDgpLjgpKrgpKg=?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleCkviDgpLbgpLngpLA=?= Message-ID: <200705051124.22713.ravikant@sarai.net> zaigham imam ki Dak, jo baRa hone ke chalte atak gayii thee. ravikant ------------- कामयाबी का पडाव, सपनों का शहर 70 के दशक में इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय ने सिविल सेवा के क्षेत्र में कुछ ऐसी धाक जमाई की पूरे उत्‍तर भारत में हंगामा मच गया। उत्‍तर प्रदेश पीसीएस के अलावा बिहार राज्‍य लोक सेवा आयोग, मध्‍य प्रदेश लोक सेवा आयोग, राजस्‍थान लोक सेवा आयोग और यूपीएससी की परीक्षाओं में सफल होने वालों में यहां के लडकों की तादाद सबसे ज्‍यादा थी। यही वो समय था जब इस शहर में कोचिंगों ने पहले पहल अपनी जडे जमानी शुरु कीं। सिविल सेवा में इलाहाबाद के बढते वर्चस्‍व के चलते लडकों ने यहां की तरफ भागना शुरु किया। सरकारी नौकरी का बडा आकर्षण छात्रों को अपनी ओर खींच रहा था। जाहिर है इसका सबसे बडा फायदा आसपास के जिलों को ही मिलना था। किसानों ने इलाहाबाद को सरकारी नौकरी दिलाने वाला शहर समझ लिया। अब उनके लडके इलाहाबाद जाने के लिए टूट पडे। इस टूट पडने की शुरुआत होने के बाद ही यूपी के पांच अहम जिलों को जोडने वाली एजे और एएफ रेल पूरी तरह से लडकों के कब्‍जे में आ गई। अभी तक इन रेलों में छात्रों के तौर पर सिर्फ इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय में पढने वाले सफर करते थे मगर सन् 70 के बाद ऐसे छात्र भी इन रेलों से इलाहाबाद आने जाने लगे जो यहां चलने वाली कोचिंगों के जरिए सिविल सेवाओं में कामयाबी पाना चाहते थे। आंकडों के मुता‍बिक उस समय यह तादाद 1 लाख को पार कर गई थी। मगर नहीं, यह सिलसिला रुकने वाला नहीं था। 70 की जिस कामयाबी ने इलाहाबाद के दरवाजे पर दस्‍तक दी थी वो और अधिक बढती गई। 1980 के बाद सिविल सेवाओं में इलाहाबाद का वर्चस्‍व ज्‍यादा बढ गया। खासकर उत्‍तर प्रदेश लोक सेवा आयोग पूरी तरह से इलाहाबाद में पढ रहे छात्रों के कब्‍जे में आ गया। सफल अभ्‍यर्थियों की लिस्‍ट निकलती तो एक भी ऐसा नाम न होता जो इलाहाबाद से न जुडा हो। वर्ष 1990 तक इलाहाबाद में किसी न किसी तरीके से शिक्षा पा रहे लडकों की तादाद ढाई लाख के करीब पहुंच गई। मगर अब इनमें वो लडके भी शामिल हो गए जिनका मंशा अफसर न बनके इंजीनियर और डाक्‍टर बनना था। इस पढाई को बढावा देने में कोचिंग सेंटरों का बहुत बडा योगदान था। कामयाब किसानों के लडके लगातार अपनी जिंदगी बदल रहे थे। अब वो समय आ गया था जब लोग बातचीत में यह कहना पसंद करते थे कि उनका लडका इलाहाबाद में पढता है। शादियों में भी यही सनद काफी थी कि लडका इलाहाबाद में ''तैयारी'' कर रहा है। अब इलाहाबाद का ''सपनों का शहर'' हो गया था जहां से हर किसी मेहनत कश को मनमांगी मुराद मिल रही थी। किसान अपने खेत बेचबेच कर लडकों को पढाने के लिए इलाहाबाद भेजने लगे थे। सही मायनों में यह एक क्रांति थी, शिक्षा के जरिए कामयाबी पाने की क्रांति। अफसर बनने की धुन बकौल, रामभास्‍कर त्रिपाठी (स्‍पेशल गार्ड, राजधानी। 80 के दशक में इन पैसेंजर रेलों के नियमित रनिंग स्‍टाफ में शामिल, नार्दर्न रेलवे मेंस यूनियन के सक्रिय सदस्‍य) '' एजे (इलाहाबाद-जौनपुर पैसेंजर) गार्ड का पद सम्‍हाला तो रेल के अस्‍सी प्रतिशत पैसेंजर छात्र थे। इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से करीब-करीब जुडे प्रयाग स्‍टेशन पर लडकों का रेला उमडता था। रेल भर जाती तो उत्‍साही लडके छत पर बैठने से भी गुरेज नहीं करते। ठेठ गंवई पृष्‍ठभूमि से आने वाले लडके हमेशा परीक्षा की बातें किया करते। ज्‍यादातर के हाथ में मैगजीन या किताब होती जिसकी पढाई वो सफर के दौरान भी जारी रखते। बस ऐसा समझिए कि हर किसी पर अफसर बनने की धुन सवार थी। लडके अपने अपने घरों से आटा, चावल तेल और न जाने क्‍या-क्‍या ले आते थे। सबके पास कुछ हो न हो, एक बोरा जरुर होता था। स्‍टेशनों पर भी दिलचस्‍प नजारे दिखते। कंधे में गमछा डाले किसान अपने लडकों को रेल पकडाने के इंतजार में खडे रहते। ये वो वक्‍त था जब बदतमिजियां कम होती थीं। चेन पुलिंग भी बहुत ज्‍यादा नहीं थी। अलबत्‍ता लोग हम लोगों से अनुरोध करके रेल धीमी या रुकवा लिया करते थे। तब लडकों की साइकिलें, सामान सबकुछ इसी रेल से ढोया जाता। मेरे ख्‍याल से यह एक बेहद सस्‍ता साधन था। जिसमें चलने के लिए पैसा खर्च करना न करना आपके विवेक पर निर्भर था। फिर इन किसानों के बच्‍चों के पास ज्‍यादा पैसा भी नहीं था। कुल मिलाकर यह साधन एक वरदान था जो इन लडकों को रेलवे की तरफ मिला हुआ था।'' सिक्‍के का दूसरा पहलू ''1985 आते आते तस्‍वीर बदलने लगी थी। इलाहाबाद में ऐसे भी लडके आने लगे थे जिनका पढाई से ज्‍यादा वास्‍ता नहीं था। इनके लिए रेल भी खेल का सामान थी। जब चाहा चेन खींच दी। हौज पाइप निकाल लिया। ऐसी तमाम घटनाएं भी होती थीं जिनमें लडके प्रयाग स्‍टेशन पर पहुंच कर रेलों पर पत्‍थरों की बरसात कर देते। स्‍टूडेंट राजनीति के बढते प्रभाव की वजह से रेलवे प्रशासन के हाथ बंधे हुए थे। तब लडकों पर नकेल कसने के लिए चेकिंग स्‍टाफ लगाया गया, मगर टिकट मांगने पर हर बार टीटीयों को बुरी तरह मारा गया। यहां तक की कई टिकट चेक करने वालों चलती रेल से नीचे फेंक दिया गया। लडकों के हौसले लगातार बढते जा रहे थे। रेलवे ने फ‍िर मजिस्‍टेट चेकिंग का सहारा लिया। चेकिंग होती तो लडकों में भगदड मच जाती। डिब्‍बों में छूटी न जाने कितनी किताबें, बैग रेलवे प्रशासन जब्‍त कर लेता। उस वक्‍त पकडे गए कुछ लडकों को जीआरपी थाने भेजा गया मगर लडकों ने उत्‍पात मचा दिया। इतना ज्‍यादा विरोध हुआ कि रेल प्रशासन को घुटने टेकने पडे। दरअसल, अपनी जो जर्बदस्‍तियों से लडके लगातार जीत रहे थे, उनका हौसला बढ रहा था। रेलवे प्रशासन की ऐसी तैसी करने के बाद उन्‍हें मानो अपनी मनमानी करने की छूट मिल गई थी।'' अब जानिए क्‍या है ''एसीपी'' टाइमिंग का बेहतरीन नमूना। सेकेंड भर का खेल उसके बाद या तो गुड या फ‍िर गोबर। लेकिन यही कमाल यही है कि सिर्फ गुड ही गुड है गोबर नहीं। कभी नहीं। एसीपी का फुलफार्म होता है एलॉर्म चेन पुलिंग। चेन पुलिंग के इस तरीके में वैक्‍यूम नहीं कटता। बस तेज सूं सूं की आवाज के साथ सारा प्रेशर निकल जाता है। रेल पटरी पर खडी हो जाती है। लेकिन नहीं, इसके लिए रनिंग स्‍टाफ को ज्‍यादा चिंतिंत नहीं होना पडता। 8-10 मिनट में प्रेशर अपने आप बन जाता है और गाडी दुबारा चलने के लिए तैयार हो जाती है। एसीपी हर कोई नहीं कर सकता इसके लिए जरुरत होती है एक खास टाइमिंग (मुश्किल से 20-25 सेकेंड, जंजीर खींचने की हिम्‍मत नहीं जुटा पाया इसलिए सही टाइम का अंदाजा लगा रहा हूं )की। लिमिटेड टाइम से ज्‍यादा चेन खींची तो वैक्‍यूम कट जाएगा। वैसे गार्ड भी एसीपी कर सकता है, गार्ड केबिन में लगी मशीन का चक्‍का घुमाने वैक्‍यूम का प्रेशर निकल जाता है। (रविकांत जी ने मेरी दूसरी पोस्टिंग पर की गई टिप्‍पणी में इसका जिक्र किया है) यह एसीपी है। बहरहाल, गार्ड की तो बात ठीक है मगर कमाल देखिए इन बेटिकट इंजिनियरों का, क्‍या मजाल तो चेन खींचने में कोई गडबडी हो। एसीपी के बाद आराम से उतरे और रेल भी आगे बढ गई। रुट पर एसीपी की बाकायदा परंपरा है जो 1995 के करीब से परवान चढी बताई जाती है। इसके फ‍िक्‍स प्‍वाइंट्स भी हैं जहां आने के बाद डाइवर खुद रेल धीमी कर एसीपी का इंतजार करता है। जिन जगहों पर एसीपी होती है उनमें रेल लाइन के किनारे के स्‍कूल, बाजार और गांव प्रमुख रुप से शामिल हैं। फ‍िलहाल, पुरानी होने के बावजूद भी एसीपी नई है। वैक्‍यूम जोडने काटने के झंझटों के चलते रेल रोकने का यही तरीका सबसे ज्‍यादा पापुलर हुआ है बातचीत की एक बानगी जो एसीपी के दौरान आमतौर पर गार्ड और डाइवर के वॉकी टॉकी पर होती है। ''डाइवर 1एजे बात करें'' ''हां गार्ड साहब'' ''एसीपी हो गई'' गार्ड की आवाज ''हां ई ससुरे खींचना शुरु कर दिए'' '' केतना लेट चल रहे हैं'' '' एक घंटा'' ''चलिए समय मिला लीजिएगा'' ''प्रेशर नहीं बन रहा है वैक्‍यूम तो नहीं कट गया'' '' अरे ई सब साले कलाकार हैं वैक्‍यूम कटेगा'' प्रेशर बन गया '' चलें डाइवर साहब रेडी'' '' चलिए गार्ड साहब '' एसीपी पर एक और जानकारी है। एक्‍सप्रेस रेल गाडियों में एसीपी होने और वापस प्रेशर बनने में मुश्किल से 3 मिनट लगते हैं। रेलवे इन गाडियों में वैक्‍यूम के उन्‍नत उपकरणों का इस्‍तेमाल करता है। कहानी एएफ की मामला एजे जैसा ही है इलाहाबाद से फैजाबाद के बीच एएफ रोज 2 चक्‍कर मारती है । अप यानि इलाहाबाद- फैजाबाद के बीच गाडी नंबर होता है 1एएफ और 3 एएफ। जबकि डाउन यानि फैजाबाद से इलाहाबाद के बीच इनका नाम 2 एएफ और 4 एएफ हो जाता है। 155 किलोमीटर के अपने रुट के दौरान रेल कुल 21 बार रुकती है। ज्‍यादातर स्‍टापेज 2 मिनट के हैं, कुछ पर 5 और कुछ पर 10 मिनट के लिए भी खडी होती है। 1एएफ सुबह 3:55 पर इलाहाबाद से चलती है। 3 एएफ का समय सुबह के 8:00 बजे निर्धारित है। वापसी में यानि फैजाबाद से चलने वाली 2 एएफ दोपहर 13:20 पर चलती है। 4 एएफ का समय शाम 17:15 बजे का है। स्‍पीड की मुश्किल रेलवे के नियमों के मुताबिक रेल की न्‍यूनतम स्‍पीड 45 किलोमीटर प्रतिघंटा है, लेकिन 155 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए 5:35 घंटे का आधिकारिक टाइमटेबल बनाया गया है। रेल नियमित रुप से आधिकारिक टाइम टेबल से दो घंटे तक विलंबित चलती है। यहां रुकना है इलाहाबाद--------1: प्रयाग 2: फाफामऊ 3: सिवैथ 4: दयालपुर 5: मऊआईमा 6: धीरगंज 7: बिशननाथगंज 8: भुपियामऊ 9: प्रतापगढ 10: चिलबिला 11: कोहदोर 12: रामगंज 13: पिपरपुर 14: सुल्‍तानपुर 15: द्वारकागंज 16: कूडेभार 17: चोर बाजार 18: खजूरहट 19: मलेथूकनक 20: भरतकुंड 21: मऊधा ------फैजाबाद अगली पोस्टिंग में, इलाहाबाद की कामयाबी का रहस्‍य, एक पुल जो कहता है अंग्रेजों की बेवकूफी का किस्‍सा, रेल की राजनीति और कुछ रोचक प्रसंग। शुक्रिया जैगम From zaighamimam at gmail.com Sun May 6 00:44:47 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sun, 6 May 2007 00:44:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSq4KWB?= =?utf-8?b?4KSyIOCkquCkvuCkguCkoeClhyDgpJzgpYAg4KSV4KWHIOCkheCkqA==?= =?utf-8?b?4KWB4KSw4KWL4KSnIOCkquCksA==?= Message-ID: बिपुल पांडे जी के अनुरोध पर कामयाबी का पडाव सपनों का शहर पर बिपुल जी ने फोन पर टिप्‍पणी की। सबकुछ ठीक है लेकिन एएफ (इलाहाबाद-फैजाबाद पैसेंजर) का विवरण छोटा रह गया। उन्‍होंने टोक दिया इसलिए जरुरी है कि कुछ और विवरण दिए जाएं। पेश है एएफ की एक्‍सक्‍लूसिव कहानी--- वीआईपी रुट की टूटही गाडी ऐसा अंधेर कम देखने को मिलेगा। चिराग तले अंधेरा। किस्‍सा एएफ का ही है, जिसके रास्‍ते में यूं तो सबकुछ वीआईपी है मगर इस टूटही गाडी को कौन पूछता है। पैंसेजर अपने सफर में इलाहाबाद के बाद तीन और जिलों में घुसती है। इनमें से पहला है प्रतापगढ दूसरा सुल्‍तानपुर और तीसरा है फैजाबाद। अब देखिए इन जिलों का जिम्‍मा किसके कंधों पर है। प्रतापगढ में हैं राजा भईया जिनकी तूती अभी भी बोलती है। राजा साहब के तमाम कारिंदे, उनकी ''प्रजा'' धक्‍के खा खाकर इसी रेल में सफर करती है लेकिन नहीं राजा साहब को क्‍या फर्क पडता है। खैर दोष राजा साहब के मत्‍थे ही क्‍यों मढे अगले पडाव पर आईए, यहां है देश का सबसे शक्तिशाली नेहरु गांधी परिवार। यह सुल्‍तानपुर है। दुनिया की ताकतवर 100 हस्तियों में शामिल सोनिया गांधी की सीट यहीं बगल अमेठी में है। उनकी खुद की संसदीय सीट के हजारों लोग इसी रेल में रोज नर्क का सामना करते हैं लेकिन एक कोशिश भी नहीं होती कि दो चार डिब्‍बे और बढ जाएं। आगे आईए यह फैजाबाद है, यहां हैं विनय कटियार। बाबरी मस्जिद हंगामे से लेकर तमाम गहमागमियों में इनका नाम सुना जा सकता है। कटियार साहब हर बात को लेकर हंगामा कर सकते हैं मगर रोजमर्रा की जिंदगी जुडी इन छोटी चीजों के लिए फुर्सत शायद नहीं है। एक निराश प्रतिक्रिया रमेश सिंह अमेठी, सुल्‍तानपुर (दस साल से इलाहाबाद में सिविल सेवा की तैयारी कर रहे हैं) ''अमेठी के सारे लडके इसी रेल से इलाहाबाद जाते हैं। हम लोगों ने कई बार मैडम ( सोनिया गांधी)को ही चिट्ठी दी, रेल में डिब्‍बे में बढा दीजिए लेकिन कुछ नहीं हुआ''। नर्क के रास्‍ते स्‍वर्ग पहुंचने की कोशिश सरयू तट (अयोध्‍या, फैजाबाद) पर स्‍नान करने के बाद जब संगम की बारी आती है तो हर किसी को याद आती है यही गाडी। नब्‍बे-नब्‍बे सौ-सौ साल के बुढिया और बुढ्ढे चल पडते हैं तमाम धक्‍कामुक्कियों और परेशानियों के बीच अपना-अपना स्‍वर्ग तलाशने। हर साल यह भीड उमडती है, एएफ उबल पडती है बोझ इतना बढ जाता है कि लगता है गाडी चल ही नहीं पाएगी मगर नहीं चलना शायद जरुरी है। चलिए रेल की मुश्किल छोडिए, बताईए इस भीड में आखिर कैसे जाए कोई पिशाब करने, जाने की जगह मिल जाएगी मगर साहब बाथरुम के अंदर भी तीर्थयात्री भरे हैं। इसलिए उठिए मत, गठिया भरे पैरों में दर्द के बावजूद। पिशाब, पखाने के दर्द से पेट ऐंठने लगे फ‍िर भी। साढे पांच घंटे की आधिका‍रिक और नौ घंटे की अनाधिकारिक यात्रा के लिए। हर साल इलाहाबाद में लगने वाले माघ मेले में लाखों की तादाद में कल्‍पवासी ( संगम तट पर एक महीने की साधना को कल्‍पवास कहते हैं) इसी रेल को चुनते हैं। पहले यह गाडी संगम के नजदीकी दारागंज रेलवे स्‍टेशन तक जाती थी मगर बाद में रेलवे दारागंज को रुट से हटा दिया। तीर्थयात्रियों की परेशानी बढ गई मगर इससे तीर्थराज थोडी छूट जाएगा। लोग आते रहते हैं तमाम परेशानियों और मुश्किलों के बीच। एक आंखों देखी, कुंभ मेला, जनवरी 2000 रात के 1:30 मिनट प्रयाग स्‍टेशन, इलाहाबाद 4 डिग्री की कडकडाती ठंड, खुला आसमान। दूर तक फैला प्‍लेटफार्म और इतने लोग की गिनना मुश्किल। प्‍लेटफार्म पर पसरे हुए, खडे हुए, बीडी के कश मारते हुए, बतियाते हुए, उंघते हुए, रोटी के साथ अचार खाते हुए। कान लगाए, ''गडिया'' कब आएगी। कोई ऊनी चादर लपेटे हुए है तो कोई बोरा बिछाए, बोरा ओढे पडा हुआ है ऐसे जैसे मर गया हो लेकिन उद्घघोषणा होते ही सब चौंक जाते हैं। अब घर जाना है, स्‍नान पूरा हो गया। हर किसी के पास एक बोतल, गैलन जिसमें भरा हुआ है गंगा का पानी। अजीबो गरीब हाल है, जिसने न देखा हो वो पागल हो जाएगा। आस्‍था का यह रुप मेरे ख्‍याल से इलाहाबाद के अलावा कहीं देखने को नहीं मिल सकता। नब्‍बे-नब्‍बे सौ सौ साल के बुजुर्ग अपने बच्‍चो का हाथ पकडे बस इंतजार कर रहे हैं। खैर गाडी तो आएगी मगर अम्‍मा को बचाना भी तो है। गाडी आने के बाद हाथ छूटा तो अम्‍मा गईं काम, क्‍या जाने कुचल के मर जाएं। हाथ की पकड मजबूत है लेकिन अम्‍मा गुम न हों इसका भी इंतजाम है रस्‍सी से अम्‍मा को खुद से बांध लिया है। खैर रेल आ रही है सब तैयार हैं। लेकिन ये क्‍या, अंदर तो अंदर छत तक फुल है अब क्‍या करेंगे कैसे जाएंगें ये लोग। गाडी मिनट के लिए रुकी है। धक्‍के बाजी का दौर जारी है। कोई टूटी खिडकी से घुस रहा है तो कोई छत पर बैठे लोगों की तरफ अपना हाथ बढा रहा है। गाडी चलने को तैयार है। अम्‍मा भी अंदर हैं और बेटा है प्‍लेटफार्म खाली हो चुका है। 70 सीट प्रतिबोगी के हिसाब से 560 सीटों वाली रेलगाडी न जाने कितने लोग घुस गए किसी को नहीं पता। रेल भर गई लेकिन नहीं अभी तो और स्‍टेशन हैं, आगे भी सवारियां हैं जिन्‍हें इसी गाडी का इंतजार है। अभी और बहुत कुछ है, साथ रहने के लिए शुक्रिया, सबका जैगम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070506/96661fb4/attachment.html From bipulpandey at gmail.com Sun May 6 12:50:16 2007 From: bipulpandey at gmail.com (bipul pandey) Date: Sun, 6 May 2007 12:50:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KWI4KSX4KSu?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpLjgpKrgpKjgpYvgpIIg4KSV4KWAIOCksOClh+Cksg==?= Message-ID: जैगम जी के सपनों की रेल में... बात उन दिनों की है जब मैं भी इलाहाबाद में रहता था। गोरखपुर से इलाहाबाद का सफर या तो बस से पूरा होता था या चौरी-चौरा एक्सप्रेस से। हमलोगों में उन दिनों नाम छोटा करने का गजब का प्रचलन था। इसीलिए चौरी चौरा एक्सप्रेस भी चौचौ एक्सप्रेस हो गया था। गजब का लगाव था इस ट्रेन से। जब प्रयाग की पावन धरती कुंभ मेले के श्रद्धालुओं की आस्था से रंगने लगती तो हम छात्रों की मुसीबत बढ़ जाती। ट्रेन में सिर्फ एक पांव रखने की दरकार थी। जगह तो ट्रेन चलते ही अपने आप बन पड़ती थी। ट्रेन की बोगियां एक दूसरे से सटे लोगों से अंटी पड़ी रहती थीं। पाखाना-पेशाब की दिक्कत तो सबसे बड़ी दिक्कत थी। रास्ता भगवान से यही गुजारिश करते कट जाता था कि हे ईश्वर इस वक्त गू-मूत की दिक्कत से दूर रखना। उस वक्त दोस्तों में सनसनी फैल जाती... जब ये पता चलता कि अमुक बंदे का 'प्रेशर' रोके नहीं रुक रहा। उत्साह था और उम्र का तकाजा भी। जिस बंदे को 'प्रेशर' बन जाता, हनुमान की तरह ऊपर के तथाकथित बर्थ का दामन थामे किसी तरह टॉयलेट की तरफ बढ़ने लगता। बचता-बचाता हवा में लहराता हुआ। कई बीच में यात्रियों पर गिर भी पड़ते.. जिस पर प्यार भरा तकरार होता। लेकिन हाय रे किस्मत... हर तरफ टॉयलेट का दरवाजा भी बंद मिलता। वाकई ये बेहद दर्द भरे रोमांचक किस्से याद आ रहे हैं सैयद जैगम इमाम की पोस्टिंग पढ़कर। मैं जैगम जी की एक और बात से इत्तेफाक रखता हूं। 1990 में जब हम चौचौ एक्सप्रेस से सफर किया करते थे तब हम गांव के 'देहाती' रिजर्वेशन कराने वालों को बड़ी हिकारत से देखते थे। सोचते थे कि ऐसा मूर्ख आदमी भला कहां मिलेगा जो महज एक रात सो कर जाने के लिए तीस रुपये अधिक खर्च कर रहा है। उस वक्त ट्रेन में सोकर सफर करना राजशाही ठाट जैसा लगता था। जैगम जी से गुजारिश है हमें अपने रोचक किस्सों से रूबरू कराते रहें। आपका दोस्त बिपुल पांडेय -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070506/cc0d9bef/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Mon May 7 15:29:27 2007 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Mon, 7 May 2007 15:29:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bahurupiya sahar Message-ID: *बहुरूपिया शहर* *रंग राग* *अनामिका * पिछले हफ्ते एक अनूठी किताब से मिलीः 'बहुरूपिया शहर' नाम की एक किताब लगातार विस्थापन का शिकार रही बस्तियों के कुछ जहीन बच्चों ने मिल कर लिखी है- वह 'नई धारदार हिन्दी' का अच्छा नमूना है जिसमें कई क्षेत्रीयताओं के शब्द घुले-मिले हैं: नागर पैनेपन के साथ। मिल कर किया गया कोई भी काम एक अलग तरह के तेज़ से दमक जाता है: 'साथी, हाथ बढ़ाना, साथी रे' का भाव ही तो जीवन का मूल भाव है! जिस फिल्म का यह गाना है, वह मैंने इतने बचपन में देखी होगी कि अब उसका सिर्फ़ एक दृश्य याद है और गाने की भी बस दो पंक्तियाँ, दूसरी शायद यह कि 'एक अकेला थक जाएगा, मिल कर बोझ उठाना! ' दृश्य यह कि एक घर बन रहा है और कुछ लोग छत तक जाने वाली बांस की सीढ़ी के अलग-अलग पाए पर खड़े हैं- नीचे से कोई ईंट-गारे की एक तसली बढ़ाता है और हाथ-हाथ होती हुई तसली मिनटों में छत तक पहुँच जाती है। सहकारिता का यह अनुपम दृश्य आज भी डीटीसी बसों में आसानी से दिखाई दे जाता है- आगे कोई भीड़ में फंसा खड़ा हो तो उसका टिकट-भाड़ा और टिकट ऐसे ही हाथ-हाथ होते हुए उसके और कंडक्ट के बीच की दूरी तय कर लेते हैं। 'भरे भौन में होत है नैनन हुं से बात' का यह बड़ा प्यारा-सा आधुनिक संस्करण है। रीति-काल में तो भरे भवन में नायिका की आँखें नायक से मिलती हैं, यहाँ आदमी की आँखें आदमीयत से। आदमी और आदमीयत के बीच का यह आदिकालिक रोमांस है जिसकी कई रोचक झलकें हमें इस किताब के क्षण-चित्रों में मिलती हैं। सबसे बड़ी ताकत इन क्षण-चित्रों की है इनका वाक्-संयम। छोटे-छोटे, चुभते हुए वाक्य जैसे कि एकलव्य के तीर; कहीं भावनात्मक उद्रेक नहीं पर एक-एक तीक निशाने पर: 'गुड्डू गुमशुदा है ... बस्ती टूट रही है- बाहर से, भीतर से... कोई पतंग नहीं उड़ाता।... मेले में ढूँढ़ा, शहर में ढूँढ़ा रे... कुछ बातें बीन रहे हैं।... हर नज़र में एक शकल है। लगते सब गुड्डू की नकल है... समय बीत रहा है, घर भी बदल रहा है, यादें टूट रही हैं... घर का वही मुखौटा/ वापस आ चुका है।/ चौखट धुली हुई है, डेक भी चला हुआ है, परदा हिल रहा है, कोई बाहर खड़ा है, कौन है?' याद करें- 'गोदान' का गोबर जब गाँव छोड़ कर शहर आता है, झुनिया की गोद में एक बच्चा है जो पैदा तो हुआ है-वहीं, होरी, धनिया, सोना-रूपा ने मिल कर उसका सोइरी -पानी किया है, पर बड़ा वह शहर की विस्थापित बस्ती में ही होता है। कोई मिर्जा सुहैल अब इस शहर में बचे नहीं हैं जो अपने घर का पूरा दालान इनको देकर परिवार के बाहर का एक परिवार- महापरिवार बसा लें। गोबर के बच्चों को तो कहीं एक तिरपाल टांग कर किसी तरह जी लेना है- बुलडोजर आएगा बस्ती उजाड़ने- तब की तब देखी जाएगी- 'सरकार जब किसी को फांसी देती है, उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछती है। पर हमसे तो वह भी नहीं पूछा। कब-कब करते-करते हमें यहाँ से खदेड़ दिया ...।' लेकिन परवाह नहीं! कोई जानवर अगर पीछे पड़ा हो- एक बार पलट कर उसकी आँखों में आँखें डाल दे- वह खुद-ब-खुद थकमका कर खड़ा हो जाएगा। यही हाल यथार्थ का है। कभी शेर, कभी कुत्ते की तरह वह हमारे पीछे पड़ जाता है, लेकिन एक बार हम पीछे मुड़ कर उसकी आँखों में अपनी आँखें डाल देते हैं, एक अजब तरह की ताकत आ घेरती है हमें। सामूहिक लेखन गीदड़ और भेड़िए, पुलिस और सरकार की तरह पीछे पड़े यथार्थ की आँखों में आँखें डाल कर खड़ होने के इसी शऊर का नाम है जो देख-देखते हमारे भीतर की चट्टानों में प्रकाश के, ताकत के अनगिन झरने उद्घाटित करता है। हमें खुद नहीं पता होता कि हमारे भीतर इतनी शक्ति सोई थी, इतने झरने भीतर ही भीतर कुलबुला रहे थे, ऐसी बिजलियाँ सोई थीं।! कलम एक जादुई छड़ी इसी अर्थ में है कि यह हमें जोड़ देती है- जो भी पुल गए हैं, फिर से खड़े करती है। 'ब्लैक ऐंड वाइट'- दुनिया का सब स्याह-सफ़ेद सामने लाने का संकल्प एक बड़ा संकल्प है। 'बहुरूपिया शहर' 'कच्चे खांव-कच्चे खांव' डराता हुआ अगर आपके पीछे पड़ा भी है तो क्या-एक बार उसको पलट कर देख लीजिए- उसकी आँखों में देखिए सीधा- सारा डर गायब हो जाएगा। यही मैक्सिम गोर्की ने किया और उसके पहले चार्ल्स डिकेंस ने। वे भी इन्ही झुग्गी-झोपड़ियों में पले हुए स्कूल ड्रॉप-आउट थे। गोर्की ने तो रैनबसेरों, फुटपाथों, फैक्टरियों, रेस्तरां के बरामदों को अपना 'विश्वविद्यालय' कहा है और डेविड कॉपरफील्ड, ऑलिवर टिवस्ट और पिप आदि सैकड़ों गरीब बाल नायकों के चितेरे, चार्ल्स डिकेंस की जीवनी का एक स्थापित तथ्य है यह कि बाद के दिनों में जब वे थोड़े समृद्ध भी हो गए, भाग-भाग कर 'वाटरलू ब्रिज' के नीचे बसी उन झुग्गी-झोपड़ियों तक जाते रहे जहाँ बचपन में वे 'रूकरियों' के बीच तरह-तरह की जहालतें झेलते हुए अधपेटे ही जिए थे। तीन हज़ार विस्थापितों की इस बस्ती के एक कमरे में आग लगी तो एक साथ सैंतीस लोग जल कर मर गए- उन सब का संयुक्त धन एक शिलिंग था। जिसको सिनेमा की भाषा में 'कॉमिक हाइजंक' कहते हैं- वैसे क्षण-चित्र इस पुस्तक की अमूल्य निधि हैं: कबाड़ी, फेरीवाले, बंटी और बबलियाँ, तिरपाल में चलते ब्यूटी पार्लर, कॉल सेंटर, सार्वजनिक फ्रिज-रेडियो, कूरियर बॉय, लाउडस्पीकर और बुल्डोजर, स्मृतियाँ-सपने, विवाह-प्रेम-मनुहार- सब मिलकर ऐसा महानाट्य रचते हैं कि आदमी रुक कर देखने लगता है। ... और देखता है एक बड़ी प्रक्रिया की शुरुआत। 'फिनिश्ड प्रॉडक्ट्स' के इस पैकेट-बंद में ऐसी किताबें अपनी कचास और मटियालेपन की महान खनिज-गंध से हमको आप्यायित करती हुई यह किताब आपको यह सोचने के लिए विवश करती है कि चिटमिटिया के पौधों की तरह प्रतिभा भी अक्सर क्यारियों के पार ही उगती है। कुछ आदर्शवादी युवक जैसे प्रभात, रविकांत और श्वेता जयामी जैसी पढ़ी-लिखी वृद्धाओं की उम्र-भर संचित अनुभूतियों का संयोजन यदि 'अंकुर', 'चंद्रबिन्दु' आदि संस्थाओं के रूप में करते हैं, हर वंचित बस्ती में एक 'साइबर मुहल्ला' बसता है तो वह दिन दूर नहीं अनादूतों-उपेक्षितों-वंचितों का एक वृहत्तर संयुक्त परिवार इप्टा के दिखाए हुए सपने साकार कर देगा। हर कलम में होगी फावड़े की ताकत। बढ़ई का रंदा, जुलाहे की तकली, लुहार का हथौड़ा, दर्जी की सुई, किसान की हंसिया, मजदूर का तसला, फेरीवाले की रेहड़ी, कूरियर बॉय की साइकिल मिल कर इस कलम को धार देंगे और उर्जा। सात समुंदर की स्याही बनेगी और धरती बनेदी बड़ी स्लेट... व्यक्ति का अभिव्यक्ति से और प्रकाश का प्रकाशन से रिश्ता अमिट ही रहेगा। काठ के लिल्ली घोड़े पर सवार एक बहुरूपिया हमारी लस्तम-पस्तम घर भाग आते थे। जिन बहादुर बच्चों का कोई घर ही नहीं, वे इस बहुरूपिया शहर की आँखों में आँखें डाले खड़े हैं- यह ख़ासे नैतिक साहस का प्रसंग है। इसको हमारा नमन! जनसत्ता 6 रविवार 2007 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070507/442967d7/attachment.html From shveta at sarai.net Mon May 7 19:57:05 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Mon, 07 May 2007 19:57:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Bahurupiya Shehr ke kuchh kyun aur kaise Message-ID: <463F3739.9090804@sarai.net> Dear All, Bahurupiya Shehr ke launch (01 May) ke awsar par readings aur commentaries ke pehle kitaab ke lekhakon ka kitaab ke baare mein introduction neeche hai. Yahan bhi padha ja sakta hai: http://www.sarai.net/practices/cybermohalla/public-dialogue/books/bahurupiya-shehr/launch-text best shveta *BAHURUPIYA SHEHR KE LEKHAKON KE KUCHH KYUN AUR KAISE* आज हमारे साथ यहाँ शरीक़ होने के लिए आप सब का शुक्रिया। मेरा नाम यशोदा है, और मेरे साथ ये शमशेर है। हमारी सोच है कि इस किताब के बनने पर, किताब के बारे में आप सभी के कई सवाल होंगे। हमारे भी हैं। तो ये हैं, बहुरूपिया शहर के लेखकों के कुछ "क्यों" और "कैसे"। शहर क्यों? शहर रहने में नज़दीक और दोहराने में दूर है। ये दूरी ही शहर को दोहराने की चुनौती बनती है। कैसे? - शहर के कई मुखौटे हैं। हर मुखौटे से बनती बहुरूपी छवियाँ। जैसे सैकड़ों बनती-बदलती परछाइयाँ एक-दूसरे को बिना जाने एक-दूसरे की हमसफ़र बनती हों। ना जानते हुए हमसफ़र होने से एक जिग्यासा है, एक चाहत का उबाल है। लिखने से, दोहराने से हम दूरी को ख़त्म करने की कोशिश करते हैं। अपना अकेलापन इस आकर्षण से टकराता है। दूरी को पास लाने से अनगिनत जोड़ों का उभार होने लगता है। देखने से बदल कर रिश्ता शहर से बोलने का बन जाता है। तब शहर ना नींद आने देती है, ना ही नींद से जागने देती है। किताब क्यों? हर किताब एक ठिकाना है। अपनी सोच को ज़िंदा रखने का एक ज़रिया है। किताब हर संदर्भ में अपना संदर्भ रचने की क्षमता रखती है। किताब चलती ज़िंदगी में कुछ ठहर कर खोने के पल दे जाती है। किताब से बहस की जाती है। किताब को नकारा जाता है, स्वीकारा जाता है। शहर की अस्वीकृति के बीच स्वीकृति मिलने की एक आस है ये किताब। नाम क्यों? बहुरुपिया! जो मेरे सामने बैठा है, वो वही है जो मुझे दिख रहा है? या यहाँ से निकल कर कुछ और भी है? बहुरुपियापन हर आकृति में अपना दम भरता है। क्या यहाँ ऐसा कोई है, जिसकी आकृति फ़िक्सड हो? या फ़िक्स्ड होने से उसमें छटपटाहट ना हो? नाम किसी चीज़ को चिन्हित करता है। पर बहुरूपिया का रिश्ता हर गुज़रती तस्वीर से है। नाम से चिन्हित करने से पहले हर अंदरूनी कसक को समझने को मुमकिन करने की एक कोशिश है। इसमें एक विशालता का अहसास भी है, एक कमज़ोरी की जगह भी। बहुरूपिया में वो साया भी है जिसे हम देखना नहीं चाहते। लिखा कैसे? बयाँ करने की जुंबा हमें हमारे आसपास और अपनों से ही मिली है। लिखना किसी की ज़िन्दगी में गिरना नहीं होता बल्कि आपके सामने दोहराये गए पलों, सवालों और किसी की कश्मकश में सोच के ज़रिये उतरना होता है; जिसमें हम अलहड़ तैराक की तरह हाथ-पैर मार कर सोच के किनारे खोजते रहते हैं और फिर उसके ढाँचे में खुद को बयाँ करने की चाहत को जोड़ने लगते हैं। दाखिल होने में खुद से सवाल-जवाब की बौछार निरंतर चलती रहती है। दाखिल होने में दाखिला मायने नहीं रखता क्योंकि ये कोई एंट्री पास या कार्ड लिए नहीं होता जो आपके दाखिल होने को चिन्हित कर सके। लेकिन अपने अन्दर किसी को कैसे उतार रहे हैं वो मायने रखता है, ये उतारना हु-ब-हु को चुनौति देने वाला होता है। अपनी सोच के गाइड हम खुद होते हैं। जगह हमसे कैसे परिचित हो रही है और हम जगह को अपने से कैसे परिचित करा रहे हैं, वो एक अतंरद्धंद लिये होता है। यह सब दिखने में भले ही स्पष्ट हो पर सोच में अस्पष्टता की मारा-मारी चलती रहती है क्योंकि सोचने में कोई भी सोच मुकम्मल नहीं हो पाती । हर शब्द जितना अपने में धकेलता है, उतना ही वो असीम उड़ान की तरफ ले जाने वाला भी होता है । जिस तरह हम सोच में बंदिशों की हदों को लाँघ जाते हैं, उसी तरह हम हर लाइन के साथ बुनियादी शहर अपने अन्दर बसाते और उजाड़ते चलते हैं। चाहत, आदत, मज़ा और शौक लिखना मेरी चाहत नहीं - क्योंकि चाहत में हम अकेले होते है; ना आदत है क्योंकि आदत में बोरियत पीछा नहीं छोड़ती; मज़ा भी नहीं क्योंकि हर वक्त आप कुछ-न-कुछ नया तलाशने की लालसा लिये होते हैं, जो मज़ा देने वाला नहीं होता । शौक नहीं है क्योंकि शौक अइयाशी के अड्डे खोजता है। ये कुछ और है? एक जुनुनी हद तक अपने को खखोड़ने की जिग्यासा, जिसमें खुद से जूझने की उत्तेजना होती है और उस जूझने में हमारे साथ-साथ दूसरों की भी अनगिनत छवियाँ कुछ खास अहसास छोड़ जाती हैं। कुछ भी समीप नहीं होता पर अचानक से हुआ हादसा या बदलाव शहर को स्वेटर की तरह उधेड़ कर रख देता है। जिसके आगे खड़े रहना आसान नहीं फिर हम उसके समक्ष खड़े रहने के लिये भाषा तलाशते है जो किसी चुनौती से कम नहीं होता।कभी तो हम माहौल में खुद को इतना उतार लेते है की उसमें मैं कहाँ हूँ वो पहचान पाना बहुत मुशकिल हो जाता है। चीजों में परिवर्तन लिखने की लालसा और जिग्यासा को बढ़ावा देता है और सोच में उत्तेजित होकर माहौल को रचने की क्षमता । पाठक क्यों? हर कोई अपने संदर्भ में जीता है, जीने की कोशिश करता है। पढ़ना हमारी जमी हुई छवियों को बहस में लाता है, उनका रूप टटोलता है, उन्हें उकसाता है। पढ़ना अपने आप को देखने की अलग नज़र देता है। "मेरे" और "तुम्हारे" बाहर, पढ़ने में एक तीसरे संदर्भ के बीज पनपते हैं। कोई ऐसा तीसरा संदर्भ, जहाँ ज़िंदगियाँ दस्तक देकर कल्पना और हकीकत के बीच अपने मायने बनाती और तलाशती हैं। यही लिखा क्यों? हर जगह की अपनी ख़ासियत होती है, उन्ही ख़ासियत को इकट्ठा कर वो अपने बसने की और बसे रहने की ज़िद्द को ज़िंदा रखते हैं। लेख इन्हीं ज़िद्दों की चुनौती में है। इसके साथ समय जुड़ा है। जो निश्चित तौर से चलते समय में ही अपनी क्षमता नहीं रखता। अतीत, वर्तमान और भविष्य के समय का त्रिकोणिय-ट्रायएंगल है, जिसमें धुंधली और गाढ़ी यादों का चुनाव किया जाता है, उन्हें सींचा जाता है। एक वक़्त, दूसरे वक़्त से भिन्न है। यही भिन्नता दो लेखों के बीच के अंतरद्वंद बनते हैं। उनको जितना उबाल देते हैँ, उतने सवाल भी करते हैं। लेखों के उबाल, सवाल, निर्णय, जगह का पैमाना तरह-तरह से उनमें सांस लेने की धड़कन है और पल-समय इस धड़कन की नब्ज़। कुछ छोटी नब्ज़ होती है तो कुछ बड़ी नब्ज़ - यानि समय या पल। छोटे पल जब हज़ारों पल में जुड़ते हैं या शामील होते हैं तो लोगों के साथ-साथ हम खुद को भी पाते हैं। लेख इन्ही पलों के माप के पैमाने हैं। और छोटे पलों के स्केल में अपने आपको बड़ा पाने का अहसास होता है। Read by Yashoda Singh+Shamsher Ali at Bahurupiya Shehr Launch/01 May 2007/India Habitat Centre/New Delhi From beingred at gmail.com Tue May 8 02:00:52 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 8 May 2007 02:00:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS24KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSwIOCkleCkreClgCDgpK3gpL7gpLDgpKQg4KSV4KS+IOCkuQ==?= =?utf-8?b?4KS/4KS44KWN4KS44KS+IOCkqOCkueClgOCkgiDgpKXgpL4gOiDgpIU=?= =?utf-8?b?4KSw4KWB4KSC4KSn4KSk4KS/IOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: <363092e30705071330tc2348bcu9bea2c8a6289b39f@mail.gmail.com> कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं था : अरुंधति राय देश और दुनिया में जिस तरह के हालात हैं उनमें लेखकों का क्या दायित्व बनता है और वे कहां खड़े हैं इस पर लगातार बहस होती रही है. साम्राज्यवाद का हमला साहित्य और संस्कृति पर भी हो रहा है. यह जनता को उसके संघर्षों और संवेदना से अलगाव में डाल देने की कोशिश के तहत हो रहा है. ऐसे में जब अरुंधति राय इस पर कुछ कहती हैं तो उसको सुनने का अपना अलग महत्व होता है. वे कम से कम अभी दुनिया की सबसे ज़्यादा सुनी जानेवाली और सबसे विश्वसनीय आवाज़ हैं. उनसे विभिन्न मुद्दों पर बात की है वैभव सिंह ने. यह बातचीत समकालीन जनमत में प्रकाशित हो चुकी है. यहां पूरी बातचीत का पहला आधा हिस्सा ही दिया जा रहा है. बाकी पढ़ेंगे कल. साम्राज्यवाद का दौर बड़ा खतरनाक होता है और इसका जीवन के हर क्षेत्र पर असर पड़ता है. कला-संस्कृति भी इससे अछूती नहीं रहती है. ऐसे में साम्राज्यवाद का सामना कर रहे लेखकों का क्या दायित्व होता है? देखिए, पहले तो मैं साफ कर दूं कि परिस्थितियां कैसी भी हों, मैं लेखकों के बारे में कोई नियम बनाने के सख्त खिलाफ हूं. हर लेखक दूसरे लेखक से अलग होता है और सामाजिक यथार्थ को समझने की उसकी दृष्टि भी अलग होती है. इसलिए उसे क्या लिखना चाहिए, क्या नहीं, इस पर पहले से कोई तयशुदा मानदंड नहीं विकसित किये जाने चाहिए. ऐसे मानदंड अक्सर ही जड़ होते हैं और जिन गतिशील मानवीय भावों से जीवंत रचनाओं का जन्म होता है, उनके साथ न्याय नहीं कर पाते हैं. वैसे भी हमें अखबारी रिपोर्ट जैसे उपन्यास या कहानियां नहीं चाहिए, क्योंकि उनसे पाठक अपने को लंबे समय तक जोड़ नहीं पाते हैं. सामाजिक थीम को आधार बना कर लिखे गये गीत अन्य गीतों की तुलना में ज्यादा सुंदर होते हैं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता. सबसे बड़ी विडंबना यह है कि जो लोग पहले से तय कर सामाजिक मुद्दों पर लिखने बैठते हैं, अक्सर ही उनकी रचनाएं दोयम दर्जे की और घटिया होती हैं. लेकि न इसका यह मतलब भी नहीं कि जो सामाजिक मुद्दों पर नहीं लिखते हैं, वे हमेशा अच्छी रचनाएं ही लिखते हैं. मैं अंगरेजी में लिखती हूं और जानती हूं कि अंगरेज लेखकों की दुनिया ही अलग होती है. उन्हें इससे फर्क पड़ता ही नहीं कि उनके उपन्यासों में कोई सामाजिक मुद्दा आता है या नहीं और उससे समाज में परिवर्तन का लक्ष्य कहां तक पूरा होता है. वैसे भी लेखकों के दायित्व के बारे में इकतरफा ढंग से विचार करना क ठिन होता है, क्योंकि लेखक भी कई राजनीतिक दलों और विचारधाराओं में बंटे होते हैं. ये प्रगतिशील, रेसिस्ट, फासिस्ट या कम्युनल, कुछ भी हो सकते हैं. उनकी पॉलिटिक्स अलग-अलग होती है. पढें पूरा इंटरव्यू : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070508/5759bedc/attachment.html From beingred at gmail.com Tue May 8 02:01:59 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 8 May 2007 02:01:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSJ4KSk4KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSwIOCkquCljeCksOCkpuClh+CktiA6IOCkueCkvuCkpSDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSs4KWH4KSV4KS+4KSw4KWAIOCklOCksCDgpJXgpK7gpLIg4KSV4KWA?= =?utf-8?b?IOCkrOCkpuCkrOClgg==?= Message-ID: <363092e30705071331n1b30f090k3b43ecce62076e81@mail.gmail.com> उत्तर प्रदेश : हाथ की बेकारी और कमल की बदबू हाथ, हाथी, साइकिल और कमल रविभूषण राजनीतिक दलों के चुनाव चिह्रों के अर्थ अक्सर हमारे लिए विचारणीय नहीं होते. नाजिम हिकमत की `हाथ' पर लिखी मशहूर कविता को अगर हम याद न भी करें, तो इतना तो सभी जानते हैं कि हाथ ने ही मनुष्य को सबसे पहले मानवेतर प्राणियों से अलग किया. जो कुछ संदर और सार्थक है, उसमें हाथ की सर्वोपरि भूमिका है. अब हाथ कांग्रेस का चुनाव चिह्र है और जहां तक हाथ का साथ देने का प्रश्न है, 1989 के बाद भारत के बदले हुए राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस की भूमिका क्रमश: घटती गयी है. फिलहाल उत्तर प्रदेश के चुनाव को ध्यान में रखते हुए वहां कांग्रेस, बसपा, सपा और भाजपा के भविष्य पर विचार किया जा सकता है. अभी द इंडियन एक्सप्रेस सीएनएन-आइबीएन, सीएसडीएस ने जो चुनाव पूर्व सर्वेक्षण किया है, उसमें बसपा की स्थिति अन्य राजनीतिक दलों की तुलना में सर्वाधिक अच्छी है. पढें पूरा लेख यहां : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070508/b5bfe088/attachment.html From beingred at gmail.com Wed May 9 02:36:37 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 9 May 2007 02:36:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSo4KS+?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSCIOCkleCkviDgpKbgpYfgpLXgpKTgpL4gOiA0MCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkieCkruCljeCksCDgpK7gpYfgpIIgNDAg4KSF4KSt4KS/4KSv?= =?utf-8?b?4KWL4KSX?= Message-ID: <363092e30705081406g2b179d55s93181927f1295b04@mail.gmail.com> गुनाहों का देवता : 40 की उम्र में 40 अभियोग शहाबुद्दीन पर अब तक चले कुल मामले क्र. थाना कांड संख्या, दिनांक धारा १ सीवान नगर १३४/८५ ,११.५.८५ ३६४, ३६५, ३७९, ३४ आइपीसी (आरोपित) २. सीवान नगर २१७/ ८५,०२.०९.८५ ३०७,३२३, ३४ आइपीसी, २७ आ एक्ट ३. सीवान नगर २२२/८५, ०९.०९.८५ ३०७, ३४१, ३२३, ३२४, ३४ आइपीसी, २७ आ एक्ट ४. सीवान नगर ०७९/८६, १०.०४.८६ ३९७, ४०२, ४११, ४१२, ४१४, २१६ ए आइपीसी, २५ ए, २६/३५ आ एक्ट ५. सीवान मु २२८/८६, ३१.१२.८६ १४७, १४८, ३२५, ३०२ आइपीसी, २७ आ एक्ट, ५ वि पदार्थ अधि ६. १२.०९.६६ ३०४, ३२४, ३२३, ३४ आइपीसी पूरा पढें : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070509/69bf609b/attachment.html From beingred at gmail.com Wed May 9 02:40:05 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 9 May 2007 02:40:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KS+4KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSm4KWN4KSm4KWA4KSoIOCklOCksCDgpIngpLjgpJXgpYcg4KSs?= =?utf-8?b?4KS+4KSmIOCkleCkviDgpKzgpL/gpLngpL7gpLA=?= Message-ID: <363092e30705081410r4d4a2438r7eb1c1a78a03cecf@mail.gmail.com> समाज की अपनी एक गति होती है. वह बुरी चीज़ों को बहुत देर तक स्वीकर नहीं करता. उसमें अच्छे को बुरे से अलग करने की एक प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. इतिहास का कूडे़दान यहीं आकर प्रासंगिक बनता है. एक समय था जब डान और अपराधी अपने समाज में बडी़ प्रतिष्ठा के साथ सामने आये. कुछ जातियों ने उनमें अपनी जातिगत पहचान भी तलाश की. मगर अब वह दौर लगता है कुछ कम हो रहा है. अब वह स्वीकृति उतने निर्बाध तरीके से नहीं मिल रही है बाहुबलियों को. मगर यह भी नहीं है कि यह एकदम खत्म ही हो गया है. वे अब भी हैं और अपनी जगहों पर मज़बूती से जमे हुए हैं. शहाबुद्दीन को सज़ा सिर्फ़ उनके घटते रुतबे को दरसाती है. मगर हमारा यह कहना भी है कि इस सज़ा से ज़्यादा उत्साहित होने की ज़रूरत नहीं है. हमारी व्यवस्था का जो चरित्र है उसमें अंतत: वे बच निकलेंगे. यह व्यवस्था सिर्फ़ अपने विरोधियों को सज़ा देने में यकीन रखती है, 'अपनों' को नहीं. शहाबुद्दीन जो भी हों, उसके अपने ही हैं. वह उसका बाल भी बांका नहीं होने देगी, जैसे वह पंढेर का नहीं होने दे रही है. खैर देखते हैं अनिल जी क्या कह रहे हैं. पूरा पढें http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070509/7ebbcee4/attachment.html From beingred at gmail.com Wed May 9 02:41:10 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 9 May 2007 02:41:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KS+4KSs?= =?utf-8?b?4KWB4KSm4KWN4KSm4KWA4KSoIDog4KSH4KSk4KS/4KS54KS+4KS4IA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWHIOCkleClguCkoeClh+CkpuCkvuCkqCDgpK7gpYfgpIIg4KSF?= =?utf-8?b?4KSsIOCkreClgCDgpJzgpJfgpLkg4KSV4KS+4KWe4KWAIOCkueCliA==?= Message-ID: <363092e30705081411u9922598y6a4669832ae12d0e@mail.gmail.com> शहाबुद्दीन : इतिहास के कूडेदान में अब भी जगह काफ़ी है साहेब को सजा रजनीश उपाध्याय बिहार के युवा पत्रकारों में राजनीतिक रूप से सबसे सचेत और सबसे उर्वर पत्रकार हैं. राज्य की राजनीतिक घटनाओं पर उनकी पैनी नज़र रहती है. फ़िलहाल प्रभात खबर, पटना के ब्यूरो प्रमुख हैं. साथ ही इतिहास और वर्तमान की एक अहम पत्रिका 'इतिहासबोध' से भी जुड़े रहे हैं. रजनीश उपाध्याय शहाबुद्दीन पर कानून के लंबे हाथ पहुंचने में 22 साल लगे. 11 मई, 1985 को उन पर पहला मुकदमा दर्ज हुआ था, आठ मई को उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी अभी कई और मुकदमों में फैसला आना बाकी है. वे ट्रायल की प्रक्रिया में हैं ठीक दो दिन बाद (10 मई को) शहाबुद्दीन 40 के हो जायेंगे. 40 साल की उम्र में उन पर 40 मुकदमे दर्ज हुए. कु छ पहले ही खत्म हो गये, बाकी 31 अभी चल रहे हैं इस अवधि में वे सीवान में पहले शहाब, फिर साहेब और लोक सभा में डॉक्टर शहाबुद्दीन के नाम से जाने जाते रहे. शहाबुद्दीन के खिलाफ पहला मुक दमा 11 मई, 1985 को सीवान नगर थाना में कांड संख्या 134/85 के तहत मारपीट के आरोप में दर्ज हुआ था. तब उनकी उम्र महज 18 साल की थी और वे `शहाब' के नाम से जाने जाते थे . 1990 के विधानसभा चुनाव में जीरादेई से पहली बार निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में विधायक चुने गये पूरा पढें : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070509/2f637f13/attachment.html From beingred at gmail.com Wed May 9 02:42:02 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 9 May 2007 02:42:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KWB4KSC?= =?utf-8?b?4KSn4KSk4KS/IOCksOCkvuCkryDgpJXgpYAg4KSs4KS+4KSk4KSa4KWA?= =?utf-8?b?4KSkIOCkleClhyDgpKzgpL7gpLDgpYcg4KSu4KWH4KSC?= Message-ID: <363092e30705081412x18b39aa4l6b65f18dd260b824@mail.gmail.com> अरुंधति राय की बातचीत के बारे में वादा था कि आज हम आपको अरुंधति राय की बातचीत का बाकी हिस्सा पढवायेंगे. मगर आज शहाबुद्दीन को सज़ा सुनाये जाने के बाद लगा कि इस पर सामग्री जाये तो बेहतर रहेगा. इसलिए बातचीत अब कल. reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070509/44bbf4b2/attachment.html From beingred at gmail.com Fri May 11 01:14:06 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 11 May 2007 01:14:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKzgpL7gpLDgpYcg4KSu4KWH4KSCIOCkuOCkrOCkuA==?= =?utf-8?b?4KWHIOCkrOCkoeCkvOCkviDgpK3gpY3gpLDgpK4g4KS54KWIIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KS/IOCkr+CkueCkvuCkgiDgpLLgpYvgpJXgpKTgpILgpKTgpY3gpLAg?= =?utf-8?b?4KS54KWIIDog4KSF4KSw4KWB4KSC4KSn4KSk4KS/IOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: <363092e30705101244w572fa4f6ve1f164c22de52c6f@mail.gmail.com> भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है : अरुंधति राय हम इस बातचीत का पहला हिस्सा पढ़ चुके हैं. प्रस्तुत है दूसरा हिस्सा. प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय से बात की है वैभव सिंह ने. भारत का लोकतंत्र किन सीमाओं और खतरों का शिकार है? क्या जनमत निर्मित कर इस लोकतंत्र को कामयाब बनाया जा सकता है? दरअसल, भारत के बारे में सबसे बड़ा भ्रम है कि यहां लोकतंत्र है और इस भ्रम को साम्राज्यवादी चिंतन के प्रभाव में रहनेवाली मीडिया भी दिन-रात प्रचारित करती है. यहां विरोध को भी बड़ी आसानी से पचा लिया जाता है. जिस तरह ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्च्न को मीडिया भुनाती है उसी तरह अरुंधति राय को भी स्टूडियो में बुला कर उसे अपने विचारों को रखने का मौका दिया जाता है, क्योंकि दुनिया को दिखाना है कि देखिए हम कितने लोक तांत्रिक हैं. हम एक क्रू ड नहीं बल्कि सॉफिस्टिके टेड समय से गुजर रहे हैं, जहां हर विरोध को खूबसूरती से पहले दिखाया जाता है और फिर उसे दुत्कार दिया जाता है. उन्हें बिग स्टोरीज चाहिए अपने बिजनेस के लिए और बदकिस्मती से लोगों के रोजाना के संघर्षों में उन्हें कुछ भी नया और सनसनीखेज नजर ही नहीं आता. गरीबों के नाम पर जतायी जानेवाली हमदर्दी (पॉलिटिक्स ऑफ पिटी) भी बड़ी खतरनाक होती है और एनजीओ व मिशनरीज इस हमदर्दी जताने की घटिया राजनीति का सबसे ज्यादा फायदा उठाते हैं. उनके द्वारा कई बार एम्पावरमेंट शब्द का इस्तेमाल होता है, जिसके राजनीतिक निहितार्थ बड़े खतरनाक हैं. एम्पावरमेंट के जरिये कमजोर वर्गों को रिप्रजेंट करने का दावा किया जाता है और पैसा कमाया जाता है, जबकि हमें सही अर्थों में लोगों को पावरफुल बनाने की ओर ध्यान देना चाहिए. प्राइवेट सेक्टर लोगों को खुश रखने के लिए पीपुल्स कार तो बना रहा है, लेकिन लोगों को पीने का पानी और खाना कहां से मिलेगा, इस पर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है. पूरा पढें : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070511/9dcfbc71/attachment.html From beingred at gmail.com Fri May 11 01:15:17 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 11 May 2007 01:15:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KSw4KSk?= =?utf-8?b?4KWA4KSvIOCksOCkvuCkt+CljeCkn+CljeCksCDgpJXgpYAg4KSq4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KS44KS1IOCkquClgOCkoeCkvuCkvCAy?= Message-ID: <363092e30705101245x190af4a4t918e02b2b04af1ed@mail.gmail.com> भारतीय राष्ट्र की प्रसव पीडा़ 2 प्रणय कृष्ण 1857 का पहला स्वाधीनता संग्राम प्रगतिशील राष्ट्रवाद का प्रस्थान बिंदु है. उसकी विरासत राष्ट्र निर्माण के कांग्रेसी मॉडल का भी सकारात्मक निषेध करती है जिसकी कमजोरियों का लाभ उठा कर सांप्रदायिक फासिस्ट ताकतें पिछले 8 दशकों से शक्ति संचय करती रही हैं. यह विरासत हमारे लिए अविस्मरणीय है क्योंकि आज भी दूसरी आजादी के लिए, साम्राज्यवाद और सांप्रदायिक फासीवाद की दोहरी चुनौतियों का सामना महज संसदीय और संवैधानिक दायरे में ही कैद रह कर नहीं किया जा सकता. 1857 के विद्रोह के पीछे 18वीं सदी से ही चली आ रही किसान और आदिवासी विद्रोहों की लंबी परंपरा थी. ये सारे विद्रोह क्षेत्रीय या स्थानीय स्तर पर घनघोर सामाजिक उत्पीड़न, सामंती जुल्म और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के संरक्षण में गांवों में जमींदार-महाजन गंठजोड़ की अमानवीय लूट खसोट के खिलाफ फूट पड़े थे. स्मरणीय है कि उन दिनों देहाती इलाकों में इसी लूट-खसोट के चलते अकालों का सिलसिला बना रहता था. यह सच है कि इन विद्रोहों के पीछे आजाद व लोकतांत्रिक भारत बनाने का कोई सचेत सिद्धांत नहीं था, लेकिन इनमें कोई ऐसी संजीदा और दमदार बात जरूर थी जो बाद के वर्षों में चले आजादी के कांग्रेसी आंदोलन में व्यापारिक तबके और उभरते मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के बड़े हिस्सों की सांठगांठ की राजनीति और नपे-तुले विरोध से इन विद्रोहों को बिल्कुल अलग दिखाती है. 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम ने इन विद्रोहों को एक बड़ा साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी फलक दिया और सही मायने में एक राष्ट्रीय आयाम भी. ब्रिटिश साम्राज्यवाद और ग्रामीण समाज में उसके प्रमुख स्तंभ जमींदार और महाजन विद्रोहियों के निशाने पर थे. जाहिर है कि एक ही साथ ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति और सामाजिक शक्ति संतुलन में बदलाव लाकर ग्रामीण क्षेत्रों में जमींदार-महाजनों के खिलाफ किसान जनता का वर्चस्व कायम करना विद्रोहियों का ध्येय था. पूरा पढें : http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070511/dd3a7a37/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Sat May 12 02:01:53 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sat, 12 May 2007 02:01:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkpA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSc4KWAIOCkleCkueCkvuCkqOClgCcnJyc=?= Message-ID: * एक ताजी कहानी'''' ''बनियों की गली'' गली में बनियों का राज था। ढेर सारी दुकानें, आढतें और न जाने कितने गोदाम। सब के सब इसी गली में थे। बनिए और उनके नौजवान लडके दिन भर दुकान पर बैठे ग्राहकों से हिसाब किताब में मसरुफ रहते। शुरु-शुरु में वो इस गली से गुजरने में डरती थी, न जाने कब किसकी गंदी फब्‍ती कानों को छलनी कर दे। फ‍िर क्‍या पता किसी का हाथ उसके बुरके तक भी पहुंच जाए। डरते सहमते जब वो इस गली को पार कर लेती तब उसकी जान में जान आती। मगर डर का यह सिलसिला ज्‍यादा दिनों तक नहीं चला। उसने गौर किया ग्राहकों से उलझे बनिए उसकी तरफ ज्‍यादा ध्‍यान नहीं देते। हां इक्‍का दुक्‍का लडके उसकी तरफ जरुर देखते मगर उनकी जिज्ञासा उसके शरीर में न होकर के उस काले बुर्के में थी जिससे वो अपने को छुपाए रखती थी। वो पढती नहीं थी, छोटी क्‍लास के बच्‍चों को पढाती थी। तमाम शहर में मकान तलाशने के बावजूद जब उसके अब्‍बा को मकान नहीं मिला तो हारकर इस बस्‍ती का रुख करना पडा। अब्‍बा ने मशविरा दिया था ''बेटी घर से बाहर न निकलो'' मगर उनकी आवाज में ज्‍यादा दम नहीं था। घर में कमाने वाला कोई न था फ‍िर वो कुछ रुपयों का इंतजाम कर रही थी तो इसमें बुरा क्‍या था। दिन गुजर रहे थे उसके स्‍कूल जाने का सिलसिला जारी था। उसने नोट किया इधर बीच बनियों की गली के ठीक बाद पडने वाले चौराहे पर पास के मदरसे के तीन चार लडके रोज खडे रहते हैं। उसने ज्‍यादा ध्‍यान नहीं दिया। दिल में एकबारगी आवाज उठी, भला इनसे क्‍या डरना। एक दिन अजीबो गरीब बात हुई। चौराहे पर एक लडका उसके ठीक सामने आ गया। हाथ उठाकर बडी अदा से कहा अस्‍सलाम आलेकुम। वो चौंक गई। उसके लडकों से इस तरह की उम्‍मीद कतई नहीं थी। उसने कोई जवाब नहीं दिया। कलेजा थर थर कांप रहा था। वापसी में भी वही लडके उसके सामने खडे थे। उसने घबरा कर तेज तेज चलना शुरु कर दिया। लडके उसकी तरफ बढे मगर वो फटाक से बनियों की गली में घुस गई। लंबी-लंबी दाढी, सफाचट मूंछ ओर सिर पर गोल टोपी रखने वाले लडकों के इरादे उसे वहशतनाक लगे। रात को वो सो नहीं सकी। रात भर जहन में यही ख्‍याल आता रहा कि कल क्‍या होगा। उसने ख्‍वाब भी देखा, बडी दाढी वाले एक लडके ने उसका दुपट्टा खींच लिया है। स्‍कूल जाने का वक्‍त हो गया था। वो दरवाजे तक गई मगर फ‍िर लौट आई। आज फ‍िर बदतमीजी का सामना करना पडा तो.....। उसने अब्‍बा से दरख्‍वास्‍त की, उसके साथ स्‍कूल तक चलें। उसने खुलकर कुछ नहीं कहा। अब्‍बा ने भी कुछ नहीं पूछा। मगर उन्‍हें बनियों पर बेतहाशा गुस्‍सा आया। दांत किचकिचाते हुए उन्‍होंने अंदाजा लगा लिया कि बनिये के किसी लडके ने उनकी बेटी को छेडा है। बेटी को गली के पार पहुंचाने के बाद वो वापस लौटने लगे। चौराहे पर अभी भी वो लडके खडे थे। उसने अब्‍बा से स्‍कूल तक चलने की बात कही। आज लडके कुछ नहीं बोले। वापसी में उसका दिल जोर जोर से धडक रहा था। मगर नहीं चौराहे पर लडके नदारद थे। उसने खुदा का शुक्र अदा किया। घर पहुंची तो अम्‍मा उसकी परेशानी का सबब पूछ रहीं थीं। अम्‍मा बार बार बनियों को गाली भी दे रहीं थीं। उन्‍होंने उसे गली छोडने की सलाह भी दी। मगर वो कुछ नहीं बोली। आज अब्‍बा घर नहीं थे। उसे पहले की तरह अकेले स्‍कूल जाना था। गली से चौराहे पर पहुंचते वक्‍त उसका कलेजा धाड धाड बज रहा था। चौराहे पर लडके हमेशा की तरह उसके इंतजार में खडे थे। वो हिम्‍मत बांधकर आगे बढी मगर फ‍िर एक लडका उसके सामने आ गया। उसके बढने के अंदाज ने उसकी रीढ में सिहरन पैदा कर दी। उसके मुंह से चीख निकल गई। वो वापस बनियों की गली की तरफ दौड पडी। गली के बनिये सारा तमाशा देख रहे थे। शरीफ लडकी से छेडछाड उन्‍हें रास नहीं आई। गली के नौजवान मदरसों के इन लुच्‍चों की तरफ दौड पडे। जरा सी देर में पूरी गली के बनिये शोहदों की धुनाई कर रहे थे। भीड लडकों को पीट रही थी और वो चुपचाप किनारे से स्‍कूल निकल गई। वापस में चौराहा खामोश था। लडके नदारद थे। गली से गुजरते वक्‍त उसे ऐसा लगा कि हर कोई उसे देख रहा है। मगर ये आंखें उसे निहारने के लिए नहीं उठी थीं। ये सहानूभूति और गर्व से उठी नजरें थीं जो उसे बता रहीं थीं कि चिंता मत करो हम अपनी बहू बेटियों के साथ छेडछाड करने वालों का यही हश्र करते हैं। घर पहुंची तो देखा अब्‍बा एक मौलवी से गूफ्तगू कर रहे हैं। ये उस मदरसे के प्रिंसिपल थे जहां मार खाने वाले लडके तालीम हासिल कर रहे थे। अब्‍बा ने उसे हिकारत की नजर से देखा। उसे कुछ समझ नहीं आया। कमरे में गई अम्‍मा से मसला पूछने। जबान खोली ही थी कि एक थप्‍पड मुंह पर रसीद हो गया। उसे समझ नहीं आया कि आखिर माजरा क्‍या है। अम्‍मा सिर पटक रहीं थीं, उसने खानदान के मुंह पर कालिख पोत दी। अम्‍मा बयान कर करके रोए जा रहीं थीं। उनकी बुदबुदाती आवाज में उसे सिर्फ इतना समझ आया, बनिए के लडकों से उसकी यारी थी जिन्‍होंने उन शरीफ तालिबे इल्‍मों को पीट दिया। उसका कलेजा मुंह को आ गया, आंखों में आंसू की बूंद छलक आई। अगली सुबह घर में खाना नहीं पका। उसके स्‍कूल जाना छोड दिया। (किस्‍सा अलीगढ का है। एक जानने वाले ने सुनाया था, ये वादा लेते हुए कि मैं इसपे कुछ न कुछ लिखूं।) शुक्रिया सैयद जैगम इमाम * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070512/91db6f98/attachment.html From puranika at gmail.com Mon May 14 16:28:09 2007 From: puranika at gmail.com (alok puranik) Date: Mon, 14 May 2007 16:28:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= pl include me in your mailiing list Message-ID: <98b648f60705140358j2a5e6082y45e9e4794218109c@mail.gmail.com> hi pl include me in your mailing list alok puranik 9810018799 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070514/67b29b26/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon May 14 16:36:55 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 14 May 2007 16:36:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIbgpLI=?= =?utf-8?b?4KWL4KSVIOCkquClgeCksOCkvuCko+Ckv+CklSDgpJXgpYAg4KSm4KWC4KS4?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkoeCkvuCklQ==?= Message-ID: <200705141636.55963.ravikant@sarai.net> maaf kiijiyega, mere paas hi kahin atka hua tha. Taki sanad rahe, Gopal Jee Pradhan ka bhi ek lamba post aa chuka hai - North East par lekhe hindi upanyason par, abhi unicode mein rupantarit karke bhejunga. cheers ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: आलोक पुराणिक की दूसरी डाक Date: शुक्रवार 04 मई 2007 19:45 From: "alok puranik" To: ravikant at sarai.net Cc: vivek at sarai.net * * *सेकंड पोस्टिंग उर्फ दूसरी डाक* *चैप्टर एक-बाजारों के प्रकार* * * *बाजारों के बगैर गुजारा नहीं है। बाजार जाये बगैर कोई चारा नहीं है।* *कबिरा खड़ा बाजार में, मांगे सबकी खैर-कबीरदासजी भी सबकी खैर बाजार में खड़े होकर मांगते थे। कबीरदास शायद समझते थे कि सबको बाजार में आना ही है। देने वाला भी बाजार में आयेगा और लेने वाले को तो बाजार में आना ही है। * * सब पैसे के भाई, देता साथ नहीं कोई, खाने-पीने को पैसा हो रे, तो जोरु बंदगी करें, एक दिन खाना नहीं मिले, तो फिर कै जवाब करे-यह बात भी कबीरदास ने ही कही है। पैसा बोले तो बाजार,पैसा बाजार से आयेगा। पैसा बाजार में जायेगा। बल्कि अब तो बाजार इतना स्मार्ट हो गया है कि वह घर से आकर होम डिलीवरी देकर पैसा आपके पास से ले जायेगा। * *बाजार घर तक आये, या घर बाजार तक जाये, बाजार चाहिए। खाने-पीने की चीजें बाजार से आयेंगी। बाजार में जायेंगी। आटे से लेकर बर्गर तक के लिए बाजार में जाना पड़ता है या फिर बाजार खुद आ जाता है। * * * *1947-एक बाजार स्टोरी यानी कोना * *बाजार अब तो अखबारों में बहुत पसर गया है। बल्कि इतना पसर गया है कि देखना पड़ता है कि उसके अलावा भी अखबारों में कुछ है या नहीं। पर एक वक्त था कि बाजार अखबार में एक कोने में होता था, आजादी के तत्काल बाद के हिंदुस्तान अखबार को देखें, तो साफ होता है कि बाजार-व्यापार को आखिरी पेज यानी पेज छह पर सातवें कालम में दिया जाता था। हिंदुस्तान 19 अगस्त, 1947 के अंक को देखें, तो साफ होता है कि पूरा कारोबार एक पेज के एक कोने में निपट जाया करता था। * * * *हिंदुस्तान 19 अगस्त, 1947 के छठे पेज पर सातवें कालम में मुंबई सराफा बाजार की रिपोर्ट यूं है- * *बम्बई सराफा * *बम्बई 18 अगस्त। बम्बई सराफे के आज के भाव इस प्रकार रहे-* *खुलते भाव* *चांदी तैयार-भाव नहीं खुला, वायदा-172|| ), सोना तैयार-108=), वायदा-108=),गिन्नी का भाव खुला नहीं। * *बन्द भाव* *चांदी तैयार -175| ), वायदा -173|| , सोना तैयार -109=)..........* * * * खुलने और बंद होने के भाव दिये जाते थे। सोना तैयार और वायदे के भाव अलग-अलग होते थे। वायदा बाजार का बाकायदा एक रोल है। यह वायदा बाजार नेताओं के वायदे के बाजार की तरह नहीं होता, जिसमें वायदे बेभाव फेंके जाते हैं। वायदा बाजार के भावों से आशय उन सौदों के भावों से होता था, जिन्हे भविष्य में निपटाया जाना है। यानी जिनके भविष्य में निपटाये जाने का वायदा अभी किया जा रहा है। तैयार का मामला बोले तो बिलकुल रेडी-आज ही लो जी टाइप। * * दोनों तरह के भावों के बारे में बताया जाता था। * * * * * * * * * *बम्बई-सोने से रुई से शेयर बाजार तक* * * *बम्बई बाजारों के केंद्र में था। बंबई का सराफा बाजार, बंबई का रुई बाजार , बंबई शेयर बाजार-बंबई के बिना बात अधूरी होती थी। * *बम्बई रूई-* *बम्बई 18 अगस्त। बम्बई –रुई बाजार के आज के बन्द भाव इस प्रकार रहे-* *सितम्बर -431=), ऊंचे में-431|), नीचे में-430 )* * * *बंबई के बाजार खुलें, तो खबरें होती थीं और न खुलें, तो इसकी खबर भी होती थी। जैसे- हिंदुस्तान 19 अगस्त, 1947 के छठे पेज पर सातवें कालम में दर्ज है-* * * *बम्बई शेयर बाजार* *बम्बई 18 अगस्त। बम्बई शेयर बाजार आज बन्द रहा। * * * * * *जिक्रे-ए-दिल्ली सराफा* *पर दिल्ली के बाजारों का जिक्र भी होता था। जैसे - हिंदुस्तान 19 अगस्त, 1947 के छठे पेज पर सातवें कालम में दर्ज है-* * * *दिल्ली सराफा* *दिल्ली 18 अगस्त। दिल्ली सराफे के भाव लक्ष्मी नारायण चमनलाल द्वारा प्राप्त आज इस प्रकार रहे-चांदी 999 170 ||), 996 -177) , तेजाबी-176) , वायदा -168 |||), गद्दी -173), सिक्का- 154 ||), सोना-पासा -110 |, पाटला-110), देसी-108) , गिन्नी 73)* * * * * *हापुड़ भी है जी* *जहां बंबई और दिल्ली हैं, वहां हापुड़ भी है जी। हापुड़ बराबर मौजूद रहता था। हापुड़ के बाजारों को बराबर महत्व दिया जाता था। जैसे - हिंदुस्तान 19 अगस्त, 1947 के छठे पेज पर सातवें कालम में दर्ज है-* * * *हापुड़ सराफा* *हमारे संवाददाता द्वारा* *हापुड़ 18 अगस्त। हापुड़ सराफे के भाव आज निम्न रहे-चांदी वायदा-168 ||=), खुलते भाव-168| ), सोना-वायदा-108 |||), खुलते भाव 108 ||)। * * * *हापुड़ मंडी* *हमारे संवाददाता द्वारा* *हापुड़-18 अगस्त। हापुड़ मंडी के भाव आज इस प्रकार रहे। गेहूं-22) से 24) तक, चना-16) तक, जौ -14) तक, मटर तैयार-14 |||= ), खत्ती[1]की मटर-15 ||=), मक्का 12||), बाजरा- 12) , जवार-11), बेझड़ -14 |), अरहर तैयार -15 | |), खत्ती की -15 |||), उरद 22 ||), मूंग -17|||), मसूर 17) से 20) तक, गुड़ -22), शक्कर-19 |||), मेथी-14), सरसों-26 |||), पीली सरसों 27 |||), मूंगफली 17 ||) बिनौला -15 ||), वारदाना तैयार-80), असौज-81 )* *खत्तियां* *गेहूं-86, चना-8, जौ-640, मटर-125, मक्का-30, बेझड़-10, अरहर-132* * * * * *रोटी, कपड़ा और मकान और शेयर बाजार में बांबे डाइंग* *बंबई की पुरानी फिल्मों को देखें, तो उद्योगपति आम तौर पर कपड़ा उद्योगपति हुआ करता था। ज्यादा पुरानी नहीं, बोले तो, 1983 में आयी बी. आर. चोपड़ा की फिल्म मजदूर में उद्योगपति टैक्सटाइल की फैक्ट्री के मालिक थे। हीरो राज बब्बर टेक्सटाइल इंजीनियर थे। साहब, जलवा था टेक्सटाइल का। रोटी, कपड़ा और मकान मिल जाये, बहुत था। इससे ज्यादा सपने क्या थे। रोटी, कपड़ा और मकान जहां केंद्र में हों, वहां टेक्सटाइल कंपनियों का जलवा तो स्वाभाविक होगा ही। बम्बई शेयर बाजार की कवरेज में टेक्सटाइल शेयरों के भाव अलग से, अलग श्रेणी में दिये जाते थे। शेयर बाजार पर एक रिपोर्ट यह देखिये-* *हिंदुस्तान 23 अगस्त, 1947, आखिरी पेज, छठा पेज* *आखिरी कालम , सातवां * *व्यापार समाचार* *बम्बई शेयर बाजार* *बम्बई, 22 अगस्त। बम्बई शेयर बाजार के भाव आज इस प्रकार रहे-* *सिक्योरिटीज- * * * *3 ||| प्रतिशत (1948-52)-100 |||=* *3 प्रतिशत (1940-52) 102 |= * *3 प्रतिशत (1953-55) 102 ||* *3 प्रतिशत (1951-54) 102 ||-)* *3 प्रतिशत (1963-65) 101 |||)* *3 दो खड़े प्रतिशत(1947-50) 101 |||=* *3 प्रतिशत (1986) 100 || -* *3 प्रतिशत (1966-88) 100 ||=_* *4 प्रतिशत (1960-70) 113 |||* *3 प्रतिशत (1955-60) 114 |* * * * * *टेक्सटाइल* *अहमदाबाद एडवांस-465)* *बाम्बे डाइंग- 1055)* *सेंट्रल इंडिया-306)* *कोलावा लैण्ड-240)* *सेंचूरी मिल्स -980)* *गोकाक-317)* *इंडिया ब्लिचिंग-158)* *कोहीनूर- 578)* *फोनिक्स-1,210)* *स्वदेशी-596)* *शोलापुर-6125)* *विष्णु-615)* *विविध-* *अलकाक-687 ||), वेलापुर 270), वेलापुर(न्यू) 476 एक डंडा), बाम्बे बर्मा-165), बाम्बे स्टीम-557 ||), बम्बे ट्राम्बे-119 ||), बी.बी. पेट्रोल-3 || =), सिन्धिया स्टीम-31 ||=), आन्ध्र वेली-शिवराजपुर -38), टाटा पावर-1722), टाटा हाइड्रो-172), टाटा स्टील-1970), टाटा स्टील (आर्डी) 391), प्रेम कन्सट्रक्शन-195) इन्डियन आइरन 36 |||=), बर्मा कार्पोरेशन -4 |||), इन्डिया कापर-3 ||= ), एसोसियेटेड सीमेन्ट, 164) न्यू इन्डिया इन्स्योरेन्स -79) , टाटा स्टील (एफ.पी.) 210), (एस.पी.)-163)* * * * * *बैंक-* *सेंट्रल-97 |||* *इंपीरियल (एफ.पी.) 2,235)* *इंपीरियल (एफ.पी.) 557 ||)* *बैंक आव इंडिया-235)* *रिजर्व- 116 ||)* * * *इलेक्ट्रिक- * *अजमेर इलेक्ट्रिक -12||)* *बाम्बे सर्बवर्न- 158||| )* * * *जरा सीन खींचिये आंखों के सामने, कट टू 1947, आफ कोर्स ब्लैक एंड व्हाईट में ही सही, बम्बई शेयर बाजार में सौदे हो रहे हैं। टेक्सटाइल कंपनियों के बास लोग सिगार मुंह से लगाये, सिर ऊपर की उठाये, मानो यूं कह रहे हों कि शेयर बाजार ही हम चलाते हैं। सो बाजार की रिपोर्टिंग में टेक्सटाइल कंपनियों के भावों को जोरदार भाव देना पड़ेगा-जोरदार भाव- बाम्बे डाइंग 1055 रुपये, 22 अगस्त 1947 के भाव। * *ऊपर लिखी टैक्टाइल कंपनियों में अधिकांश मुहावरे की भाषा में बोलें, तो काल के गाल में समा गयी हैं। अर्थव्यवस्था रोटी, कपड़ा और मकान से उठकर रोटी, मोबाइल और मकान पर आ गयी। और सिर्फ रिकार्ड के लिए नोट करते चलें कि बांबे डाइंग जो उस दौर में दिलीप कुमार जैसी स्टार होती थी, अब 2007 में एक्स्ट्रा की हैसियत में मुश्किल से मानी जाती है। **[2]* * * * * *1950 तक पूरा पेज और ग्लोबल तब भी थे जी* *1950 तक आते-आते व्यापार समाचारों को पूरा पेज मिलना शुरु हो गया था-* *तीस सितंबर 1950 हिन्दुस्तान पेज सात पर कुल अखबार आठ पेज का था। * *इसमें शेयर बाजार की कवरेज यूं थी-* *बम्बई शेयर बाजार* *कोरिया की खबरों के कारण भाव और अधिक नीचे गिरे –दो कालम की खबर* *डेफर्ड में 16) हानि: बेलापुर व सिंधिया मजबूत* *(हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा)* *बम्बई, 29 सितम्बर। चालू सेटिलमेंट के अंतिम दिन आज शेयर बाजार में कमजोर स्थिति रही। नये समर्थन की क्मी के कारण स्टील और टेक्सटाइल शेयर कमजोरी के साथ खुले और नीचे चले गये। सुस्त बाजार में बेलापुर और सिंधिया गत भावों पर कायम रहे। * *कोरिया में संयुक्त राष्ट्रीय सेनाओं की प्रगति के फलस्वरुप सटोरिये ऐसे बड़े स्तर पर बड़े पैमाने पर कारोबार करने के लिए तैयार नहीं थे जिस पर कि युद्ध बंद होने का एकदम बुरा प्रभाव पड़े। टेक्सटाइल वर्ग में कमजोर सटोरियों के लिए यह एक संकेत है कि उन्हे मैदान छोड़ देना चाहिए। वैसे टेक्सटाइल वर्ग ने हड़ताल के कारण मंदी की भावना की उपेक्षा की थी। * *टाटा डेफर्ड और आर्डीनरी गत रात्रि के भाव से 16) और 4) नीचे गिर कर क्रमश:1723 |||) और 329 ||) पर खुले और 1716 |) और 328) तक नीचे गिर गये। यत्र तत्र समर्थन के फलस्वरुप उनमें 1728 |||) और 329 |||) तक का सुधार हुआ लेकिन बन्द होते समय वे 1716 |) और 327 ||) तक गिर गये इंडियन आयरन और बंगाल स्टील भी टाटा शेयरों की सहानुभूति में 31 |||= और 21 ||| = पर कमजोर रहे और प्रत्येक ने 9 आने हानि दी।* *टेक्सटाइल वर्ग में बम्बई डाइंग 926 एक खड़ा) पर खुलकर कमजोरी के साथ 920) (ला.रहित )पर बन्द हुआ।....* * * *ग्लोबलाइजेशन का मसला भारतीय शेयर बाजार के लिए नया नहीं है। तब भी कोरिया में संयुक्त राष्ट्रीय सेनाओं की प्रगति से बाजार प्रभावित होता था और शेयर बाजार की रिपोर्टिंग में यह ग्लोबल चेतना तब भी थी। * * * *कलकत्ते की खामोशी * *तीस सितंबर 1950 हिन्दुस्तान पेज सात पर कलकत्ता शेयर बाजार की रिपोर्ट यूं थी-* *कलकत्ता शेयर बाजार के सभी वर्गों में खामोशी* *कलकत्ता, 29 सितम्बर, बाजार के सभी वर्गों में खामोशी रही और कारोबार सीमित था। आज 1 बजकर 45 मिनट तक बन्द भाव इस प्रकार रहे-............* * * *इस रिपोर्ट का फार्मेट कमोबेश वही था, जो मुंबई शेयर बाजार की रिपोर्ट का था। * * * * * *बाजार तरह-तरह के* *बाजारों की वैराइटी खासी व्यापक थी और है। उदाहरण के लिए मुंबई के अलावा कलकत्ता शेयर बाजार, दिल्ली शेयर बाजार, मद्रास शेयर बाजार की संक्षिप्त रिपोर्टिंग होती थी। * * * *हिन्दुस्तान 10 अक्तूबर 1950, मंगलवार व्यापार समाचार पेज पर ये रिपोर्टें थीं-* *बम्बई शेयर बाजार की रिपोर्ट,-दो कालम* *कलकत्ता शेयर बाजार की रिपोर्ट –सिंगल कालम* *मद्रास शेयर बाजार की रिपोर्ट-सिंगल कालम* *दिल्ली शेयर बाजार की रिपोर्ट-सिंगल कालम* *दिल्ली सराफा-सिंगल कालम* *दिल्ली के तेल बाजार के भावों की टेबल जिसमें मूंगफली, गोला, अलसी, महुआ, अरंडी, नीम, बिनौला रिफाइंड, तिल के टीन और ड्राम के भाव बताये गये हैं। * * * *हिन्दुस्तान 10 अक्तूबर 1950, मंगलवार व्यापार समाचार पेज की एक रिपोर्ट में सोमवार के विभिन्न मंडियों के भाव बताये गये।* *दिल्ली-गल्ला छिलका चना, चूरी चना, गुवार, मूंग, उड़द, मसूर, अरहर, चना कंट्रोल के भाव बताये गये। * *तिलहन-सरसों, बिनौला दक्खनी, काला, तिल सफेद, * *खल-सरसों, बिनोला, तिल* *नया गुड़ के भाव* *दिल्ली किराना भाव* * * * * * * * * *भटिंडा भी है* *बम्बई का जलवा है, बिलकुल है। इतना है कि वहां के बाजार क्यों बंद रहे, यह भी बताया जाता रहा है- हिन्दुस्तान 10 अक्तूबर 1950, मंगलवार व्यापार समाचार पेज पर दिया गया है-* *बम्बई* *तिल व तेल के बाजार एक सदस्य की मृत्यु हो जाने के फलस्वरुप बन्द रहे। * *मसाले काली मिर्च तैयार,दालचीनी, लोंग, कपूर, पारा के भाव बताये गये।* * * *भटिंडा भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। * * * *भटिंडा* *अनाज व दालें चना, चना आटा, दाल चना, बिल्टीकट प्रति बोरी चना, बेसन, चूरी, गेहूं, गेहूं आटा, जौ नया, मूंग, गुवार तैयार, गुवार बिल्टीकट प्रति बोरी, गुवार वायदा माघ, मोठ बिल्टीकट प्रति बोरी, दाल मूंग, दाल उड़द, दाल मसूर के भाव दिये गये। * * * *रुई भटिंडा* *तेल तिलहन, सरसों तैयार, सरसों बिल्टीकट प्रति बोरी, सरसों वायदा असौज, जेष्ठ तारामीरा, शुद्ध तेल सरसों, बिनोला देसी, शक्कर। * * * * * * * *सो साहब, किस्सा संक्षेप में यूं है कि बाजार तरह-तरह के थे और हैं। रुई से लेकर तेल के बाजार, टेक्सटाइल से लेकर टेक्सटाइल कंपनियों के शेयरों के खेल के बाजार। हल्दी बम्बई से लेकर हल्दी हरोट,हल्दी मच्छली, हल्दी निजामाबादी, हल्दी गठ्ठे तक के बाजार गोला बम्बई बड़ा, गोला बम्बई छोटा, कटोरी, किशमिश, आवजोश से लेकर पिश्ता, बादाम कागजी, बादामी गीरदी, बादाम दुजावी काठा, गोला नं. 18, ईलायची छोटी, ईलायची बड़ी, लौंग, दालचीनी, मिर्च काली, मिर्च लाल, सूंठ एलपाई, जीरा सफेद, सौंफ, धनिया, अमचूर, पोस्तदाना, गूंद मकलाई, कत्था कानपुरी, चाय काली, सुपारी, सींख नारियल, फटकरी सफेद, फटकरी लाल, सज्जी काली, मेंहदी पत्ता, मेंहदी पिस्सी, नारियल, सुतली, गिरी बादाम, काजू के बाजार। ऐसे बाजार-वैसे बाजार, ना जाने कैसे –कैसे बाजार। इस चैप्टर में तो बस बाजारों के प्रकार बताये हैं जनाब। इनके रंग-ढंग आगे के किस्से में बतायेंगे साहब। * *मिलते हैं छोटे से ब्रेक के बाद। * * * * ------------------------------ * *[1]* * खत्ती से आशय एक अंडरग्राउंड टैंक से होता था, जिसमें अनाज रखा जाता था। जमीन के नीचे खुदाई करके अनाज रखने की व्यवस्था की जाती थी। खत्ती का यह आशय हापुड़ इलाके ताल्लुक रखने वाले बुजुर्ग पत्रकार राजेंद्र त्यागी ने बताया है * *[2]* * शेयर बाजार और कारपोरेट सेक्टर का शायरी से बहुत ताल्लुक नहीं है, पर पुरानी रिपोर्टो को अब देखकर अहमद फराज का वह शेर याद आता है-* *फराज ख्वाब नजर आती है दुनिया हमको,* * जो लोग जाने -जहां थे, हुए फसाना वो.* *रोटी कपड़ा और मकान के युग की बांबे डाइंग रोटी मोबाइल और मकान में क्या हो गयी है, इसे यूं देखा जा सकता है। 4 फरवरी, 2007 को बंबई शेयर बाजार में बांबे डाइंग के एक शेयर कीमत थी 557.80 रुपये। मोटे तौर पर यूं समझा जा सकता है कि इस दिन इस पूरी कंपनी की मार्केट वैल्यू थी –करीब 2153.67 करोड़ रुपये। यानी थ्योरिटिकली, इस कीमत पर कोई पूरी कंपनी को हासिल कर सकता था। 1879 में स्थापित बांबे डाइंग यानी करीब 128 साल पुरानी इस कंपनी की हैसियत रोटी, मोबाइल और मकान के दौर में क्या है, यह समझने के लिए करीब पंद्रह साल पुरानी कंपनी भारती एयरटेल के आंकड़ों को देखना होगा। भारती एयरटेल के शेयर के भाव 4 मई, 2007 को बंबई शेयर बाजार में 817.80 रुपये थी। इस दिन इस कंपनी की मार्केट वैल्यू थी-1,55,049 करोड़ रुपये। यानी भारती एयरटेल कंपनी के बदले बांबे डाइंग जैसी 72 कंपनियां खरीदी जा सकती हैं। जो लोग जाने-जहां थे, हुए फसाना वो। अखबारी फसानों यानी रिपोर्टों में भी यही बात देखी जा सकती है। * *स्त्रोत-यहां प्रयुक्त आंकड़े मनीकंट्रोल डाट काम, बांबे डाइंग कंपनी की वैबसाइट, भारती एयरटेल कंपनी की वैबसाइट से लिये गये हैं। * ---- From ravikant at sarai.net Mon May 14 16:43:15 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 14 May 2007 16:43:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?=28no_subject=29?= Message-ID: <200705141643.15834.ravikant@sarai.net> अठारह सौ सत्तावन के सरकारी और अख़बारी बहस-मुबाहिसों के इस दौर में थोड़ी चिट्ठाकारी भी सही. आलोक पुराणिक के ब्लॉग से. http://puranikalok.blogspot.com/ रविकान्त SATURDAY, MAY 12, 2007 1857 और चालू चैनल-मंगल पांडे, कांटेपररी लुक लाइए ना 1857 और चालू चैनल-मंगल पांडे, कांटेपररी लुक में आइये ना दो इंतजार में उर्फ आठ लाख की मोटरसाइकिल आलोक पुराणिक चालू चैनल परेशान हैं, 1857 को डेंढ सौ साल हो लिये हैं। साक्षात् बहादुरशाह जफर, मंगल पांडे खुद आये हैं ऊपर से इस मौके पर कुछ बताने। चालू चैनल परेशान यूं है कि मामला अपमार्केट जमाना है। मंगल पांडे देसी मजबूत आदमी, आंखों में जोश। बहादुरशाह जफर शायर- चैनल वाले परेशान हैं, इन्हे कैसे सैट करें। क्या सैट बनायें। प्रोग्राम जमाने के लिए स्पांसर जमाना जरुरी है। स्पांसर जमाने के लिए अपमार्केट जमाना जरुरी है। बाई दि वे आप कुछ अपमार्केट ड्रेस में नहीं हो सकते क्या-एक प्रोड्यूसर मंगल पांडे से पूछ रहा है। आपका आशय क्या है-मंगल पांडे पूछ रहे हैं। देखिये आपको थोंडा कंटेपररी लुक देना जरुरी है। फिर आपको पता नहीं, मंगल पांडे से बंडी अलग तरह की एक्सपेक्टेशन्स हो गयी हैं। मतलब जैसे कि आमिर खान जब से मंगल पांडे बने हैं, तब से मामला यह हो गया है कि कोल्ड ड्रिंक बेचने का हुनर तो मंगल पांडे में जरुरी है-प्रोड्यूसर कह रहा है। कोल्ड ड्रिंक से आपका आशय क्या है-मंगल पांडे फिर पूछ रहे हैं। ओफ्फो, आपको तो कुछ पता ही नहीं है- प्रोड्यूसर झल्ला रहा है। ओ. के. जफर साहब क्या यह पासिबल है कि आपने जो शेर कहे हैं, उनमें कुछ अंगरेजी शब्द मिला लें, अप मार्केट हो जायेगा। इतना एडजस्टमेंट तो करना पंडेगा-प्रोड्यूसर बहादुरशाह जफर से कह रहा है। जफर साहब नाराज हैं-मैंने अंगरेजों से एडजस्टमेंट नहीं किया, अंगरेजी से एडजस्टमेंट क्यों करुंगा। देखिये, फिर हम यूं करेंगे कि मंगल पांडे और आपको रीयल में नहीं लेंगे, हम आपकी जगह कुछ और लोगों को मंगल पांडे और बहादुर शाह जफंर बना देंगे, इसे हम नाटय रुपातंरण कहते हैं- प्रोड्यूसर समझा रहा है। मंगल पांडे और बहादुरशाह जफर स्टूडियो के कोने में बैठा दिये गये हैं। कुछ अपमार्केट बंदे लाये गये हैं, एक मंगल पांडे हो गये हैं, दूसरे जफर। चालू चैनल का पोग्राम शुरु हो गया है-फ्रीडम एड न्यू हाइट, 1857 की फ्रीडम फाइट। एंकर-हां तो मंगल पांडेजी बताइए। आपने कैसे किया, क्या किया। मंगल पांडे का माडल-जी मैंने वही किया, जो आपने मंगल पांडे फिल्म में किया। बस थोंडा सा फर्क यह है कि फिल्म वाले मंगल पांडे को यादा पैसे दिये गये होंगे, मुझे तो बहुत कम पैसे में सैट कर लिया गया है। (प्रोड्यूसर एंकर को डांटता है, कुछ इंटरेस्टिंग एक्शन की बात करो ना ) एंकर- तो बताइए मंगल पांडेजी जो आपने किया, उसके पीछे क्या था। कैसे आपने वह सब कर दिया। जरा बताइए। बीच में कमर्शियल ब्रेक कूद लेता है- हर सिचुएशन के लिए हाजिर है सर, अलां-फलां कोल्ड ड्रिंक की पावर। मंगल पांडे का माडल-जी मैं क्या बताऊं। आपने कमर्शियल ब्रेक में बता दिया है। ओरिजिनल मंगल पांडे स्टूडियो में गुस्सा हो रहे हैं। एक असिस्टेंट प्र्रोडयूसर उन्हे कोल्ड ड्रिंक आफर कर रहा है। मंगल पांडे और गुस्सा हो रहे हैं। एंकर-जफर सर आप रंगून क्यों गये, रंगून तो बहुत बोरिंग प्लेस है। आप कहीं और क्यों नहीं गये, जैसे पेरिस, जैसे न्यूयार्क। जफर का माडल-जी मेरे हाथ में कहां था जाना, अपनी मर्जी कहां चलती है। कमर्शियल ब्रेक फिर कूद लेता है-अपनी मर्जी पर चलिये, सबको चलाइए, हर चीज के लिए हमसे लोन ले जाइए। चौबीस घंटे लोन उपलब्ध, गिव मी मनी बैंक। एंकर-ओह, क्या उस टाइम इस तरह से लोन देने वाले बैंक नहीं थे, जो आप अपनी मर्जी से न्यूयार्क या पेरिस नहीं जा सकते थे। ओरिजनल बहादुरशाह जफर स्टूडियो में गुस्सा हो रहे हैं। उन्हे एक एक्जीक्यूटिव टाइप बंदा कह रहा है-सर नाराज न हों, हम आपको बहुत ही कंसेशनल रेट वाला लोन देंगे। प्लीज कोआपरेशन कीजिये। एंकर- ओके बहादुरशाह जफर साहब प्लीज वो वाला शेर सुनाइए, जो बहुत हिट था। जफर का माडल-उम्र-ए-दराज मांग कर लाये थे चार दिन, दो आरजू में कट गये, दो इंतजार में एंकर-सर इसका हिंदी में ट्रांसलेशन कर दीजिये। जफर का माडल -ओ. के. इसे हिंदी में यूं कहेंगे कि टू डेज तो विश में कट गये, टू वेटिंग में। एक और कमर्शियल ब्रेक कूद लेता है-नो वेटिंग इंस्टैंट डिलीवरी, अलां -फलां पिजा। एक और कमर्शियल ब्रेक कूदता है-वेट करना पंडता है, अच्छी चीजों के लिए वेट करना पंडता है। आठ लाख रुपये देकर इंपोटर्ेड मोटरसाइकिल बुक कराइए। पांच साल बाद नंबर आयेगा। एंकर-जफर साहब क्या आपने अपना शेर इस मोटरसाइकिल कंपनी के लिए लिखा था कि कुछ सालों तक तो तक इसकी आरजू करो, फिर कई सालों तक इसका इंतजार करो। जफंर का माडल मुस्कुराता है। ओरिजिनल जफर और ओरिजनल मंगल पांडे स्टूडियो में बहुत गुस्सा हो रहे हैं। चैनल वालों ने उन्हे मिलकर स्टूडियो से बाहर निकाल दिया है। 1857 शो हिट हो लिया है। आलोक पुराणिक एफ-1 बी-39 रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011 मोबाइल-09810018799 From ravikant at sarai.net Mon May 14 16:47:47 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 14 May 2007 16:47:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= 1857 - ek aur Message-ID: <200705141647.47500.ravikant@sarai.net> vaheen se. enjoy! Ravikant FRIDAY, MAY 11, 2007 1857-मेरठ से दिल्ली वाया पटना 1857-मेरठ से दिल्ली वाया पटना आलोक पुराणिक निम्नलिखित लेख कक्षा सात के उस छात्र की कापी से लिया गया है, जिसे यथार्थवादी हिंदी निबंध प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार मिला है- गदर यानी 1857 का हमारे सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन में बहुत महत्व है। जैसा कि हम जानते हैं कि गदर पर एक फिल्म बन चुकी है, जिसमें सन्नी देओल ने बहुत धांसू एक्शन किया था। इस फिल्म को देखकर ही हमें पता चला कि गदर तो बहुत मजेदार होता था। 1942 के बारे भी हमें ऐसे ही पता चला था, जब एक डाइरेक्टर ने फिल्म बनायी थी 1942- एक लव स्टोरी। 1857 पर कोई लव स्टोरी टाइप कुछ बनायेगा, तो हमें 1857 के बारे में और भी बहुत कुछ समझ में आयेगा। हमें पता चला कि इस दिन की याद में सरकार ने ऐसे जुगाड किये, जिसमें मेरठ से दिल्ली तक लोग चलकर पहुंचे। केंद्रीय सचिवालय में काम करने वाले मेरे चाचाजी कहते हैं, सारे सरकारी कर्मचारियों को भी इस जश्न में भागीदार बनाया जाना चाहिए। यह किया जाना चाहिए था कि मेरठ से जिस रास्ते में क्रांतिकारी चलकर दिल्ली आये थे, उस रुट का टीए डीए सरकार सारे सरकारी कर्मचारियों को दिलवा देती। यह भी क्रांति के खाते में डाल दिया जाता। 1857 तब सरकारी कर्मचारियों के लिए जोरदारी से मनता। वैसे मेरे अंकल का कहना है कि अनलिमिटेड टीए डीए का इंतजाम होना हो, तो फिर सारे सरकारी कर्मचारी मेरठ से दिल्ली वाया चेन्नई और अंडमान निकोबार आते। किसी ने रेलवे मंत्रालय के किसी अफसर को सुझाव दिया कि बेहतर होता अगर इस मौके पर रेल गदर एक्सप्रेस चलाये। इस पर उस पर अफसर ने आफ दि रिकार्ड बताया कि मेरठ से लेकर दिल्ली तक के रुट पर गदर एक्सप्रेस चलानी हो तो भी लालूजी उसे वाया पटना ले आयेंगे। और करुणानिधि वीटो लगा देंगे कि मेरठ से दिल्ली का रास्ता अगर वाया चेन्नई नहीं निकाला, तो सपोर्ट वापस ले लेंगे। और लेफ्ट वाले पुरानी धमकी देंगे कि अगर मेरठ से दिल्ली का रास्ता वाया कलकत्ता नहीं निकाला, तो हम सपोर्ट वापस नहीं लेंगे, और कांग्रेस नेताओं को टेंशन में डाले रहेंगे। तो इस तरह से हम देख सकते हैं कि गदर का भारी राजनीतिक महत्व है। इसके अलावा, हमने देखा कि इसका भारी आर्थिक महत्व भी है। कई शोध परियोजनाएं इस पर चली हैं, और एकाध इतिहासकार नहीं, बल्कि इतिहासकारों की कई पीढियां इस पर पली हैं। इतिहास के अलावा अन्य विषयों वाले गदर से कैसे खा-पी सकते हैं, इस पर शोध होना अभी बाकी है। आलोक पुराणिक एफ-१ बी-३९ रामप्रस्थ गाजियाबाद-201011 मोबाइल -09810018799 From beingred at gmail.com Tue May 15 18:21:32 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 15 May 2007 18:21:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?MTg1NyDgpJTgpLAg?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm4KWCIOClnuCkvuCkuOCkv+CkuOCljeCkn+Cliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClhyDgpLfgpKHgpY3gpK/gpILgpKTgpY3gpLA=?= Message-ID: <363092e30705150551v245c1d3fx2f9daa2ce12a9d76@mail.gmail.com> 1857 और हिंदू फ़ासिस्टों के षड्यंत्र आज भी उन लोगों की कमी नहीं है जो यह मानते हैं कि अंगरेज़ों ने देश को मुसलमानों की गुलामी से आज़ाद कराया. वे इसी के साथ कम्युनिस्टों को गरियाते रहते हैं कि वे अंगरेज़ों के हाथों में खेलते रहे हैं और उनके इशारों पर ही वामपंथी इतिहासकार देश का गलत इतिहास लिखते आये हैं. मगर यह लेख आप पढें और हमें बताएं कि कौन अंगरेज़ों की चाकरी में लगा था (और अब भी है), किसने अंगरेज़ों के हाथों की कठपुतली बनना स्वीकार किया और अब भी बना हुआ है, और यह कि कौन अब भी अंगरेज़ों ( अब के साम्राज्यवादियों) के इशारे पर अपने ही देश की जनता के खिलाफ़ युद्धरत है. प्रणय कृष्ण अंगरेजों ने सांप्रदायिक आग भड़काने की कोशिशों में कोई कमी नहीं रखी, फिर भी 1857 के स्वाधीनता संग्राम में साम्राज्यवाद विरोधी धुरी के इर्द-गिर्द हिंदू-मुस्लिम एकता बरकरार रही. वहीं 1857 के विद्रोह के दमन के बाद का राष्ट्रीय आंदोलन अंग्रेजों की बांटो और राज करो की नीति का बार-बार शिकार होता रहा. कारण यह था कि कांग्रेसी नेतृत्व कभी उस साझा संस्कृति या गंगा-जमुनी तहजीब की ताकत को पहचान ही न पाया जो सैकड़ों वर्षों के दौरान विकसित हुई थी. 1857 के विद्रोहियों ने राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता को आधुनिक विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में बैठ कर योरप से नहीं सीखा था, पूरे मध्यकाल के दौरान अनेक मुस्लिम राजवंश जो दिल्ली की गद्दी पर बैठे उन सभी ने धर्म और धर्माचार्यों को राजकाज से अलग रखा. शरीयत के कानून को कभी भी राज्य के अपने कानूनों पर तरजीह नहीं दी गयी. धर्मचार्यों को पठन-पाठन का काम दिया गया और राजकाज से उन्हें अलग रखा गया. मध्यकाल का भारतीय राज्य कभी भी धर्मराज्य नहीं बन सका. मुगलकाल के दौरान न केवल हिंदू-मुस्लिम शासक वर्गों के बीच सत्ता की साझेदारी विकसित हुई बल्कि सूफी और भक्ति आंदोलनों के प्रभाव से समाज में सांप्रदायिक सौहार्द भी स्थापित हुआ. 1857 की बेमिसाल हिंदू-मुस्लिम एकता सूअर और गाय की चर्बी वाले कारतूसों के कारण नहीं पैदा हुई थी (जैसा कि ब्रिटिश इतिहासकारों ने षड्यंत्रपूर्वक साबित करने की कोशिश की थी) बल्कि यह इसी दीर्घ पृष्ठभूमि की उपज थी. साथ ही साथ इस एकता का आधार पूर्णत: लौकिक था. बर्तानवी उपनिवेशवाद ने अपनी लूट-खसोट की नीति के तहत भारत की कृषि, व्यापार, उद्योग-धंधों सबको चौपट कर दिया था और उसकी लूट के शिकार सभी धर्मों के लोग बन रहे थे. इस बात ने धर्मों की भिन्नता के परे पीड़ितों की एकता का भौतिक आधार मुहैया कराया था. read full story on http://hashiya.blogspot.com -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070515/ac515bcf/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat May 19 21:08:21 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 19 May 2007 21:08:21 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiBSZTogW0lu?= =?utf-8?b?ZGxpbnV4LWhpbmRpXSBbRndkOiBDaGl0dGhha2FyIDo6IOCkhuCkquCklQ==?= =?utf-8?b?4KS+IOCkrOCljeCksuCli+CklyDgpIbgpKog4KSV4KWL4KSHIOCkreClgCA=?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KS34KS+4KSu4KWH4KSCIOCkquCljeCksOCkleCkvuCktuClgA==?= =?utf-8?b?4KSkIOCkleCksCDgpLbgpJXgpY3gpKTgpYcg4KS54KWLXQ==?= Message-ID: <200705192108.21849.ravikant@sarai.net> दीगर डाक सूची से. ‌अगर ‌आपके डाक-बक्से मेँ दोबारा पहुंचा हो, तो क्षमा-याचना साहित. ‌रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: [Indlinux-hindi] [Fwd: Chitthakar :: आपका ब्लोग आप कोइ भी भाषामें प्रकाशीत कर शक्ते हो] Date: शनिवार 19 मई 2007 10:10 From: Hariram To: "List for Hindi Localization" रवि जी, कृपया सुधार करें, "भोमियो" भारतीय लिपियों के वेबसाइट का सिर्फ लिम्यन्तरण कर सकता है, भाषान्तरण अर्थात् अनुवाद नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए यदि मूल वेबसाइट हिन्दी-देवनागरी लिपि में है तो उसका पाठ रोमन, बंगला, ओड़िआ, गुजराती, तेलगु आदि लिपियों में से इच्छित लिपि लिप्यन्तरित होकर दिखाई देगा, किन्तु भाषा शब्द ज्यों के त्यों रहेंगे। हरिराम On 5/18/07, Ravishankar Shrivastava wrote: > FYI > > -------- Original Message -------- > Subject: Chitthakar :: आपका ब्लोग आप कोइ भी भाषामें प्रकाशीत कर शक्ते हो > Date: Fri, 18 May 2007 17:23:53 -0000 > From: piyush > Reply-To: Chithakar at googlegroups.com > To: Chithakar > > > अब आपका ब्लोग आप कोइ भी भाषामें प्रकाशीत कर शक्ते हो या तो पढ शक्ते > हो. यहां दी गयी यु.आर.एल. पर जाइए. > > अगर आपका हिन्दी ब्लोग का पत्ता हैः http://hi.wordpress.com > > उसे रोमन हिन्दी में पढने के लिएः > http://bhomiyo.com/en.xliterate/hi.wordpress.com > > उसे तेलुगु में पढने के लिएः > http://bhomiyo.com/te.xliterate/hi.wordpress.com > > ज्यादा जानकारी के लीएः http://bhomiyo.wordpress.com > > धन्यवाद ------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat May 19 21:12:43 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 19 May 2007 21:12:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: pure Hindi Podcasting service Message-ID: <200705192112.43099.ravikant@sarai.net> maaf kiijiye yeh cheez angrezi mein hi aayi hai. filhal anuvad nahin karunga. lekin shayad kaam ki lage. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: An India PRwire article from: Debashish (debashish at gmail.com) Date: बुधवार 16 मई 2007 22:19 From: Debashish To: dhaleta.surender at thebrandreporter.com, ravikant at sarai.net Greetings from IndiaPRwire.com! You have been sent this message from Debashish (debashish at gmail.com) Debashish said: With a request to spread the word please. Podbharti.com launches pure Hindi Podcasting service India's first pure Hindi Podcast targeted towards Hindi audience in India and abroad would provide rich coverage of News & Views about Indic blogging, Tools & Technology, Current Affairs and the Entertainment Industry. To view the entire article, go to http://www.indiaprwire.com/pressrelease/internet/200705112847.htm For the latest in business news visit http://www.indiaprwire.com ----------------------------------------------------------------------------- --------- If you need any help, please contact us at support at indiaprwire.com (C) Copyright 2006 India PRwire Pvt. Ltd. All Rights Reserved. ------------------------------------------------------- -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-113179 Size: 2398 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070519/723930f9/attachment.bin From ravikant at sarai.net Sat May 19 21:26:46 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 19 May 2007 21:26:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KSr4KWC4KS54KShIOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLngpYg=?= Message-ID: <200705192126.47033.ravikant@sarai.net> दीवानो, ज़ैग़म ने ‌इसे फूहड़ रचना कहा है. मेरा ‌उनसे इत्तेफ़ाक़ है, क्योँकि मुझे यह वीभत्स लगती है, लेकिन यथार्थ कई बार वीभत्स होता ही है, और उसमेँ वह रस नहीँ मिलता, जिसकी सौंदर्यशास्त्री अपेक्षा करते हैँ. मैँ आपके साथ यह बाँटते हुए ज़ैग़म जैसा ही हिचक रहा हूँ, लेकिन हमेँ भावनाओँ के आहत होने की राजनीति से धीरे-धीरे ऊपर उठना ही चाहिए. हमें थोड़ा थेथर होना ही चाहिए. इतनी चेतावनी अवश्य दे दूँ, कि जिनकी संवेदनाएँ नाज़ुक हैँ, वे इसे पढ़ने से परहेज़ करें. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: एक फूहड कहानी है Date: शुक्रवार 18 मई 2007 08:58 From: "zaigham imam" To: ravikant at sarai.net * * *सर नमस्‍कार* *एक फूहड कहानी है। पहले सोचा था दीवान पर डाल दूं लेकिन फिर लगा आपसे पूछे बिना ऐसा करुंगा तो शायद गडबड हो जाए। एक औरत की पीडा है जो मर गई, मगर अभी भी ऐसी कई औरतें होंगी जो रोज इस नर्क से गुजरती हैं।ज्‍यादा नहीं लिखूंगा नहीं आप कहेंगे की ज्ञान दे रहा है। शुक्रिया जैगम ** ** *देहधर्म* *''* *कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक दिया। नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर घुसने की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस चूस के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्‍त सीना फ‍िर भी उठा जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी... पिछाडा भी खराब हो गया है, घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्‍त करते हुए उसने अपने सामने का हिस्‍सा उसके सामने परोस दिया। वो फ‍िर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। कभी आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक चुका था चूल्‍हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे... ''** * *बदन* *पर साडी डाल के परभतिया चूल्‍हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्‍जी बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्‍ा से थपथपा कर उसने तवे पर डाल दी। चिमटा हाथ्‍ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्‍हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही थीं। नरेस हाथ्‍ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी। * *वो* *नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्‍क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब नरेस भी ऐसा नहीं था। बिल्‍कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, धुंवे के खूबसूरत छल्‍ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो नहीं थी मगर नैन नक्‍श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में ''बिलैक ब्‍यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस वापस शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्‍या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से अच्‍छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्‍या क्‍या सोच रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्‍मन सिकुडा लटक रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे निहार रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। ''कुत्‍ती साली मजाक करती है। बहुत देखे का सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्‍सा भी उत्‍तेजित हो गया था। ''ले ले'' कहकर उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। गूं गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर सारी उल्‍टी कर **दी। * *सुबह* *होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए खाना तैयार करना था। एक बार फ‍िर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्‍हे से बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट अपने हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई जगहों पर काली थी। '' खाने का डिब्‍बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। साइकिल जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्‍कुल दिखना बंद हो जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फ‍िर रो रहा था। उसने फटाक से ब्‍लाउज का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक समय पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई थी। सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्‍मी माई भला कइसे आ पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्‍तूर उसके मुंह में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट मिट्टी गारा क्‍या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में आते हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं हुआ। ठेकेदार साले अव्‍वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फ‍िर उनको खुश करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्‍यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से। * *''* *अरे आ आना क्‍या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद है मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''**। और एक बार फ‍िर वो अगाडे के बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्‍ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फ‍िर रोज की तरह अगला रास्‍ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो गया। उसने देह में साडी लपेटी और चूल्‍हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर रहे थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी। * *परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्‍यादा बेदर्दी के साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्‍पताल चलने की बात कही है * *,** दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफ‍िन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। कहां। अस्‍पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्‍टरन के चक्‍कर में पडती है कुछ नहीं हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्‍मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह अपनी छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्‍मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्‍छन है। अम्‍मा न जाने कैसी होगी। बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्‍मा की याद आई। अम्‍मा उसे चाहती थीं। उन्‍होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फ‍िर उसने खुद कुछ कहना छोड दिया। * *शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों में जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग दुरुस्‍त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फ‍िर भी जलने के लिए आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे में अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की हल्‍की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्‍लास्टिक की पन्‍नी थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो भिन्‍नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी। * *''मून्‍नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फ‍िर खाएंगें''। ''आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फ‍िर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फ‍िर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी नरेस उसके लिए मुसम्‍मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्‍लास्टिक उठाकर मुंह में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी प्‍लास्टिक में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट दी। नरेस गुस्‍साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे जैसे आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी , **भन्‍ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फ‍िर उसकी तरफ उछाल दिया। चिमटा चूल्‍हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्‍सा सातवें आसमान पर था। वो नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से नरेस के लटकते हिस्‍से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न जाने कब उसकी साडी जिस्‍म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। वो खामोश थी नरेस का गुस्‍सा बढता जा रहा था। वो चूल्‍हे में गिरे चिमटे को अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा जिस्‍म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को परभतिया के अगले हिस्‍से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर उसके अगले हिस्‍से को बंद कर रहा था। * *सैयद जैगम इमाम* ------------------------------------------------------- From mahmood.farooqui at gmail.com Sat May 19 19:53:25 2007 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Sat, 19 May 2007 19:53:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KSr4KWC4KS54KShIOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLngpYg=?= In-Reply-To: <200705192126.47033.ravikant@sarai.net> References: <200705192126.47033.ravikant@sarai.net> Message-ID: doston rachna kaise phuhar ho sakti hai...iska mansha hamare andar romanch paida karna thori hai, apne maqsad mein kaamyab, ek sundar rachna hai... On 19/05/07, Ravikant wrote: > > दीवानो, > > ज़ैग़म ने इसे फूहड़ रचना कहा है. मेरा उनसे इत्तेफ़ाक़ है, क्योँकि मुझे यह > वीभत्स लगती है, लेकिन > यथार्थ कई बार वीभत्स होता ही है, और उसमेँ वह रस नहीँ मिलता, जिसकी > सौंदर्यशास्त्री अपेक्षा > करते हैँ. मैँ आपके साथ यह बाँटते हुए ज़ैग़म जैसा ही हिचक रहा हूँ, लेकिन > हमेँ भावनाओँ के > आहत होने की राजनीति से धीरे-धीरे ऊपर उठना ही चाहिए. हमें थोड़ा थेथर होना > ही चाहिए. > > इतनी चेतावनी अवश्य दे दूँ, कि जिनकी संवेदनाएँ नाज़ुक हैँ, वे इसे पढ़ने से > परहेज़ करें. > > रविकान्त > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: एक फूहड कहानी है > Date: शुक्रवार 18 मई 2007 08:58 > From: "zaigham imam" > To: ravikant at sarai.net > > * * > *सर नमस्कार* > *एक फूहड कहानी है। पहले सोचा था दीवान पर डाल दूं लेकिन > फिर लगा आपसे पूछे बिना ऐसा करुंगा तो शायद गडबड हो जाए। एक औरत की पीडा है > जो मर गई, मगर अभी भी ऐसी कई औरतें होंगी जो रोज इस नर्क से गुजरती > हैं।ज्यादा > नहीं लिखूंगा नहीं आप कहेंगे की ज्ञान दे रहा है। > शुक्रिया > जैगम > > > ** > ** > *देहधर्म* > > *''* > *कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक > दिया। > नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर > घुसने > की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी > से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस > चूस > के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्त सीना फिर भी उठा > जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी... पिछाडा भी > खराब हो गया है, घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने > उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्त करते हुए उसने अपने सामने का > हिस्सा उसके सामने परोस दिया। वो फिर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे > मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। > कभी > आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ > नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक > चुका > था चूल्हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे... ''** * > > *बदन* > *पर साडी डाल के परभतिया चूल्हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्जी > बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्ा से थपथपा कर उसने तवे > पर > डाल दी। चिमटा हाथ्ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का > चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही > थीं। नरेस हाथ्ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके > सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी। * > > *वो* > *नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब > नरेस > भी ऐसा नहीं था। बिल्कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, > धुंवे > के खूबसूरत छल्ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं > थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो > नहीं > थी मगर नैन नक्श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में ''बिलैक > ब्यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस > वापस > शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से > अच्छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्या क्या सोच > रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर > बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्मन सिकुडा लटक > रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो > नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे > निहार > रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात > घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। ''कुत्ती साली मजाक करती है। बहुत देखे > का > सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्सा भी उत्तेजित हो गया था। ''ले ले'' कहकर > उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। > गूं > गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। > थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर > सारी > उल्टी कर **दी। * > > *सुबह* > *होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए > खाना तैयार करना था। एक बार फिर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्हे से > बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट > अपने > हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई > जगहों > पर काली थी। '' खाने का डिब्बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने > के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। > साइकिल > जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्कुल दिखना बंद > हो > जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फिर रो रहा था। उसने फटाक से ब्लाउज > का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें > शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक > समय > पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई > थी। > सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। > उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में > टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्मी माई भला कइसे आ > पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्तूर उसके मुंह > में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट > मिट्टी > गारा क्या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में > आते > हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं > हुआ। > ठेकेदार साले अव्वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फिर उनको खुश > करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से। * > > *''* > *अरे आ आना क्या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी > बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद > है > मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''**। और एक बार फिर वो अगाडे के > बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फिर > रोज की तरह अगला रास्ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो > गया। > उसने देह में साडी लपेटी और चूल्हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने > लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल > रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर > रहे > थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी। * > > *परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्यादा बेदर्दी के > साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्पताल चलने की बात कही > है > * > *,** दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफिन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। > कहां। अस्पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली > कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्टरन के चक्कर में पडती है कुछ नहीं > हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला > गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह > अपनी > छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके > से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्छन है। अम्मा न जाने कैसी होगी। > बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है > जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्मा की याद आई। > अम्मा उसे चाहती थीं। उन्होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं > करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फिर उसने खुद कुछ कहना छोड > दिया। * > > *शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों > में > जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग > दुरुस्त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फिर भी जलने के लिए > आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे > में > अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की > हल्की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्लास्टिक की पन्नी > थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो > भिन्नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी। * > *''मून्नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड > मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फिर खाएंगें''। ''आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते > हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फिर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो > कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस > मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फिर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी > नरेस उसके लिए मुसम्मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्लास्टिक उठाकर मुंह > में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी > प्लास्टिक > में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट > दी। नरेस गुस्साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे > जैसे > आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी > , > **भन्ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फिर उसकी तरफ उछाल > दिया। चिमटा चूल्हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो > नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से > नरेस के लटकते हिस्से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा > धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न > जाने कब उसकी साडी जिस्म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। > वो खामोश थी नरेस का गुस्सा बढता जा रहा था। वो चूल्हे में गिरे चिमटे को > अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा > जिस्म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को > परभतिया के अगले हिस्से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला > गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर > उसके > अगले हिस्से को बंद कर रहा था। * > > *सैयद जैगम इमाम* > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070519/25792505/attachment.html From arshad.mcrc at gmail.com Sun May 20 00:27:22 2007 From: arshad.mcrc at gmail.com (arshad amanullah) Date: Sat, 19 May 2007 11:57:22 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KSr4KWC4KS54KShIOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLngpYg=?= In-Reply-To: References: <200705192126.47033.ravikant@sarai.net> Message-ID: <2076f31d0705191157s12fe5d91qeb80dab57024d71e@mail.gmail.com> beghair jargon mare behad khubsurati se aap ne bahut kuchh kaha hai.kahani na sirf bebak hai balki qari ki tamam tawajjo ko giraftar karne ki bharpur salahiyat rakhti hai. kamyaabhi ke liye mobarkabad qubul karen. arshad amanullah On 5/19/07, mahmood farooqui wrote: > doston rachna kaise phuhar ho sakti hai...iska mansha hamare andar romanch > paida karna thori hai, apne maqsad mein kaamyab, ek sundar rachna hai... > > > On 19/05/07, Ravikant wrote: > > दीवानो, > > > > ज़ैग़म ने इसे फूहड़ रचना कहा है. मेरा उनसे इत्तेफ़ाक़ है, क्योँकि मुझे यह > वीभत्स लगती है, लेकिन > > यथार्थ कई बार वीभत्स होता ही है, और उसमेँ वह रस नहीँ मिलता, जिसकी > सौंदर्यशास्त्री अपेक्षा > > करते हैँ. मैँ आपके साथ यह बाँटते हुए ज़ैग़म जैसा ही हिचक रहा हूँ, लेकिन > हमेँ भावनाओँ के > > आहत होने की राजनीति से धीरे-धीरे ऊपर उठना ही चाहिए. हमें थोड़ा थेथर होना > ही चाहिए. > > > > इतनी चेतावनी अवश्य दे दूँ, कि जिनकी संवेदनाएँ नाज़ुक हैँ, वे इसे पढ़ने से > परहेज़ करें. > > > > रविकान्त > > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > > > Subject: एक फूहड कहानी है > > Date: शुक्रवार 18 मई 2007 08:58 > > From: "zaigham imam" > > To: ravikant at sarai.net > > > > * * > > *सर नमस्कार* > > *एक फूहड कहानी है। पहले सोचा था दीवान पर डाल दूं लेकिन > > फिर लगा आपसे पूछे बिना ऐसा करुंगा तो शायद गडबड हो जाए। एक औरत की पीडा है > > जो मर गई, मगर अभी भी ऐसी कई औरतें होंगी जो रोज इस नर्क से गुजरती > हैं।ज्यादा > > नहीं लिखूंगा नहीं आप कहेंगे की ज्ञान दे रहा है। > > शुक्रिया > > जैगम > > > > > > ** > > ** > > *देहधर्म* > > > > *''* > > *कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक > दिया। > > नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर > घुसने > > की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी > > से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस > चूस > > के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्त सीना फिर भी उठा > > जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी... पिछाडा भी > > खराब हो गया है, घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने > > उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्त करते हुए उसने अपने सामने का > > हिस्सा उसके सामने परोस दिया। वो फिर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे > > मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। > कभी > > आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ > > नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक > चुका > > था चूल्हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे... ''** * > > > > *बदन* > > *पर साडी डाल के परभतिया चूल्हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्जी > > बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्ा से थपथपा कर उसने तवे > पर > > डाल दी। चिमटा हाथ्ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का > > चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही > > थीं। नरेस हाथ्ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके > > सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी। * > > > > *वो* > > *नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब > नरेस > > भी ऐसा नहीं था। बिल्कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, > धुंवे > > के खूबसूरत छल्ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं > > थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो > नहीं > > थी मगर नैन नक्श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में ''बिलैक > > ब्यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस > वापस > > शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से > > अच्छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्या क्या सोच > > रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर > > बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्मन सिकुडा लटक > > रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो > > नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे > निहार > > रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात > > घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। ''कुत्ती साली मजाक करती है। बहुत देखे > का > > सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्सा भी उत्तेजित हो गया था। ''ले ले'' कहकर > > उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। > गूं > > गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। > > थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर > सारी > > उल्टी कर **दी। * > > > > *सुबह* > > *होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए > > खाना तैयार करना था। एक बार फिर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्हे से > > बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट > अपने > > हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई > जगहों > > पर काली थी। '' खाने का डिब्बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने > > के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। > साइकिल > > जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्कुल दिखना बंद > हो > > जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फिर रो रहा था। उसने फटाक से ब्लाउज > > का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें > > शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक > समय > > पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई > थी। > > सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। > > उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में > > टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्मी माई भला कइसे आ > > पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्तूर उसके मुंह > > में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट > मिट्टी > > गारा क्या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में > आते > > हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं > हुआ। > > ठेकेदार साले अव्वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फिर उनको खुश > > करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से। * > > > > *''* > > *अरे आ आना क्या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी > > बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद > है > > मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''**। और एक बार फिर वो अगाडे के > > बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फिर > > रोज की तरह अगला रास्ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो > गया। > > उसने देह में साडी लपेटी और चूल्हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने > > लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल > > रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर > रहे > > थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी। * > > > > *परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्यादा बेदर्दी के > > साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्पताल चलने की बात कही > है > > * > > *,** दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफिन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। > > कहां। अस्पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली > > कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्टरन के चक्कर में पडती है कुछ नहीं > > हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला > > गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह > अपनी > > छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके > > से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्छन है। अम्मा न जाने कैसी होगी। > > बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है > > जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्मा की याद आई। > > अम्मा उसे चाहती थीं। उन्होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं > > करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फिर उसने खुद कुछ कहना छोड > > दिया। * > > > > *शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों > में > > जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग > > दुरुस्त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फिर भी जलने के लिए > > आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे > में > > अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की > > हल्की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्लास्टिक की पन्नी > > थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो > > भिन्नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी। * > > *''मून्नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड > > मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फिर खाएंगें''। ''आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते > > हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फिर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो > > कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस > > मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फिर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी > > नरेस उसके लिए मुसम्मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्लास्टिक उठाकर मुंह > > में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी > प्लास्टिक > > में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट > > दी। नरेस गुस्साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे > जैसे > > आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी > , > > **भन्ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फिर उसकी तरफ उछाल > > दिया। चिमटा चूल्हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो > > नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से > > नरेस के लटकते हिस्से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा > > धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न > > जाने कब उसकी साडी जिस्म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। > > वो खामोश थी नरेस का गुस्सा बढता जा रहा था। वो चूल्हे में गिरे चिमटे को > > अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा > > जिस्म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को > > परभतिया के अगले हिस्से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला > > गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर > उसके > > अगले हिस्से को बंद कर रहा था। * > > > > *सैयद जैगम इमाम* > > > > ------------------------------------------------------- > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- arshad amanullah 34,masihgarh, jamia nagar new delhi-25. From bipulpandey at gmail.com Sun May 20 17:54:55 2007 From: bipulpandey at gmail.com (bipul pandey) Date: Sun, 20 May 2007 17:54:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSW4KSV?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKTgpYfgpLDgpLkg4KS44KS+4KSyIOCklOCksCDgpLA=?= =?utf-8?b?4KWH4KSc4KS/4KSh4KWH4KSC4KS4IOCkquCljeCksOClguCkqw==?= Message-ID: रेजिडेंस प्रूफ का दलदल और वो तेरह साल रेजिडेंस प्रूफ की तीसरी डाक रेजिडेंस प्रूफ। दोस्तों चावल का एक दाना आपने चख लिया। कैसा लगा स्वाद? रेजिडेंस प्रूफ पर पिछली डाक में आपको मैंने नवीन की दिक्कतों का पुलिंदा भेजा था। दिल्ली ही नहीं पूरे देश में रहने वाले जानते हैं कि नवीन की बातें नई नहीं थीं। देश में जाने कितने लोग इससे बड़ा बोझ उठाए घूम रहे हैं। मैं भी यही कहता हूं कि जहां भी कंकड़ मारता हूं वहीं परेशान हाल लोग मिल जाते हैं। जब बताता हूं कि सराय ने मेरे ऊपर एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है... आपकी आवाज को आगे ले जाने की.. तो राजी खुशी इंटरव्यू देने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन कितने कंकड़ मारूं मैं.. ऐसे कितनों को आपके सामने लाने की जरूरत होगी? आपमें से भी कइयों के सामने यही संकट होगा। अब आपका ये पूछने का मन हो सकता है कि जब इसी दलदल में सब धंसे हैं तो मैं ये सारी बातें बता किसे रहा हूं। बंधुओं समस्या का होना कोई समस्या नहीं है, समस्या है समस्या को समस्या न समझ पाना। 1990 का दौर था.. जब मैं अपने गांव से बस पर साइकिल और एक अटैची लादकर इलाहाबाद पहुंच गया.. जीवन संवारने या यूं कहें कि पढ़ने की पुरानी परंपरा निभाने के लिए। बस हो या ट्रेन.. यही दो साधन थे जिनसे हम सब गांव और इलाहाबाद के बीच सफर किया करते थे। एक बार जब घर से इलाहाबाद के लिए निकला तो ठसाठस भरी ट्रेन की भीड़ ने सारा मिजाज खराब कर दिया। ट्रेन में लकड़ी के पटरे से झांक रहे कीलों को नजरअंदाज कर मैं एक अकेली सीट पर कब्जा जमाए बैठा था। इतने में ही एक और मुसाफिर ने अपनी सीट पर साथ बिठाने की गुजारिश की। और फिर हम एक सीट पर दो लोग हो गए। लेकिन बात यहीं नहीं थमी। एक शिक्षक पहुंचे और उन्होंने भी साथ बिठाने की गुजारिश की। हद हो गई भाई। जिस पर एक अकेले का बैठना भी अपने आप में सजा है उस पर तीन-तीन कैसे बैठे? मैं उसकी बातें सुनकर बौखला गया था। दीगर बात ये थी कि सीट पर पहले मैं ही बैठा था और मैं किसी तीसरे से सीट साझा करने को तैयार नहीं था। लेकिन सच ये है कि अगर शिक्षक की जगह मैं होता तो मैं भी यही करता। शिक्षक ने दलील दी- बेटा कष्ट तो झेलना ही पड़ेगा.. सफर का नाम इसीलिए सफर है। जी हां.. शब्दों की जादूगरी थी.. एक सफर उर्दू का शब्द जिसे हिंदी में यात्रा कह सकते हैं। दूसरा सफर शब्द अंग्रेजी का, जिसे आप झेलना कह सकते हैं। वाकई.. उसकी बातों ने जादू कर दिया, दलील मेरे दिल में बैठ गई। राजी-खुशी मैं तैयार हो गया बुजुर्गियत को सम्मान देने के लिए। आमतौर पर लोग इसी बात से इत्तेफाक रखते हैं, यह जानते हुए भी कि यह सरासर झूठ है। हमें हमारी मजबूरियों में बांधे रखा जा रहा है। हमें सच से दूर रखा जा रहा है। सरकारों ने हम सब को मुसाफिर बना रखा है।*** बात रेजिडेंस प्रूफ की। पिछली बार आपको बताया था कि कैसे दिल्लीवाले नवीन कुमार को अपनी मोटरसाइकिल किसी और के नाम पर खरीदनी पड़ी। ये सारा झंझट करना पड़ा किश्त के वास्ते। बैंक वालों की पाई-पाई चुका दी, लेकिन मोटरसाइकिल अपनी नहीं हुई। जो मोटरसाइकिल का मालिक (?) था, वो अब इस दुनिया में नहीं रहा। अब अवैध हो चुकी मोटरसाइकिल दिल्ली की सड़कों पर फर्राटे से दौड़ रही है। रेड लाइट जंप करो तो कोई दिक्कत नहीं.. पुलिस की नजरों के सामने से गाड़ी भगा ले जाओ तो भी कोई बात नहीं.. चालान कहीं और जाना है। जिसके पास चालान जाना है वो थाने के चक्कर काटने वाले शरीर का चोला छोड़ चुका है। मेरा मकसद है कुछ ऐसे ही और लोगों से आपको मिलवाना और अब मैं आपको मिलवाने जा रहा हूं अखिलेश मणि त्रिपाठी से। दिल्ली के शकरपुर में रहने वाले तीस-बत्तीस साल के लेखक। *** वे तेरह साल *** कानून कहता है कि अगर आप कहीं दस साल रह लेते हैं तो वहां के नागरिक हो सकते हैं। नागरिकता के लिए आवेदन करने का धर्म पूरा कर सकते हैं। ये अलग बात है कि आपको इसके बाद भी नागरिकता नहीं मिल सकती। लेकिन रेजिडेंस प्रूफ के चक्कर ने अखिलेश मणि त्रिपाठी को दिल्लीवाला नहीं होने दिया। वो भी तेरह साल में। अखिलेश कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में जन्म के बाद जौनपुर का सफर याद है। पहले तो नागरिकता एक ही राज्य के इन दो जिलों में बंट गई। रहा-सहा कसर निकला जब 1994 में दिल्ली पहुंचे। बकौल अखिलेश बेदर्द दिल्ली शहर में आशियाना बसाते ही हर काम के लिए पहचान मांगने लगी। ये वो दिन था जब रात जैसे-तैसे क्रिश्चियन कॉलोनी में कार गैरेज के ऊपर बने तंग से कमरे में कट जाती थी। दिन बीतता था दिल्ली विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में। प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी चल रही थी... लेकिन घर से पैसे मंगाने के लिए इंतजार करना होता था किसी के जौनपुर से आने का। कभी-कभी ये चुनौती की तरह लगता था... एक तरफ परीक्षा की तारीख नजदीक आ रही होती थी... समय का दबाव... तो दूसरी तरफ होती थी पेट भरने की चिंता। पहली बार पहचान की कमी तब खली जब अकाउंट खुलवाने के लिए बैंक पहुंचे। हर बैंक पहचान मांगता है। साथ ही दिल्ली में रहने का प्रमाण पत्र यानि रेजिडेंस प्रूफ। ड्राइविंग लाइसेंस था तो जौनपुर का। वोटर आईडी के बारे में अखिलेश को खुद पता नहीं। कुशीनगर या जौनपुर कहीं वोटरलिस्ट में नाम जरूर है लेकिन फोटो पहचान पत्र नहीं। ये वो दौर था जब बैंकों में कोई गारेंटर भी मांगा जाता था। कोई ऐसा शख्स जिसका उसी बैंक के उसी ब्रांच में अकाउंट हो और वो यह जिम्मेदारी लेने को तैयार हो कि खाता खोलने वाला कोई गड़बड़ी नहीं करेगा। आखिर में थक हारकर अकाउंट का झंझट छोड़ ही दिया।*** लेकिन अखिलेश का अकाउंट खुला। बकौल अखिलेश उस समय वो हकीकत नगर में किन्हीं महेंद्र सिंह के यहां रहते थे... उन्होंने एक बैंक में अकाउंट खुलवा दिया... कैसे खुलवाया ये वही जानते हैं लेकिन अखिलेश से इस बार बैंक वालों ने न तो रेजिडेंस प्रूफ मांगा न तो पहचान का प्रमाण। महेंद्र सिंह एक दिन सीधे पासबुक लेकर घर पहुंचे और अखिलेश से मिठाई खाई। आखिर इतने दिनों की तपस्या सफल जो हो चुकी थी। तब तक दिल्ली में रहते चार साल गुजर चुके थे...। अब इस बात का सुकून था कि घर से डाक से ड्राफ्ट आ जाएगा। पैसा मंगाना, भुनाना, निकालना सबकुछ अपने हाथ में। *** हाय रे किस्मत... ये हनीमून की बेला तीन महीने से अधिक नहीं चली। अखिलेश को घर से बुलावा आ गया... कुछ कारण होंगे, शायद सरायवालों को बताना न चाहते हों... तय नहीं था कि दिल्ली वापस लौटना भी है या नहीं। कलेजे पर पत्थर रखकर अखिलेश को अपना अकाउंट बंद करवाना पड़ा... बोरिया-बिस्तर समेटकर घर निकलना पड़ा। वक्त ने करवट बदली... फिर तीन महीने बाद अखिलेश दिल्ली आ गए। लेकिन इस बार पढ़ने-लिखने के साथ पेशे की भी दरकार थी। अपने दम पर दिल्ली आए थे। उस मुफलिसी के दिन थे। अखिलेश को कभी नहीं लगा कि अब अकाउंट खुलवाने की जरूरत पड़ेगी भी... वो लेखक बन गए... दरियागंज के एक नामी पब्लिशिंग कंपनी के लिए किताबें लिखने लगे। जब पहली बार कंपनी काम की कीमत अदा करने वाली थी तभी घड़ों सिर पर पानी पड़ गया। वक्त बदल चुका था.. लेकिन कैश में कारोबार मजबूरी बनकर तारी थी। अखिलेश कहते हैं कि साल 2006 में कंपनी ने अपने लेटरहेड पर उनको अपना एम्प्लाई बनाया और अकाउंट खुलवाया। *** अखिलेश के इन तेरह सालों का लेखा-जोखा आपके सामने है। अखिलेश आज भी दिक्कतों से जूझ रहे हैं। सारी अर्थव्यवस्था आज भी रेजिडेंस प्रूफ के ईर्द-गीर्द घूम रही है और इस चक्रव्यूह से निकलने का कोई रास्ता नहीं। लोन लेने का, रसोई गैस लेने का, फोन लगवाने का.. ऐसे कई सपने हैं जो पूरे होते नहीं दिख रहे। आप ही बताइए अखिलेश क्या करें। अखिलेश कहते हैं अब पैन कार्ड बनवाना है तो कैसे बनवाऊं, इनकम टैक्स भी भरना है तो कैसे भरूं। न तो लोन ले पा रहा हूं न इंस्टॉलमेंट पर कुछ खरीद पाता हूं। 'पता नहीं इस देश में मैं बेगाना हूं या मेरे लिए ही यह देश बेगाना है....' *** आगे है- एक ट्रक रेजिडेंस प्रूफ की होली आपका दोस्त बिपुल पांडेय 77 सिद्धार्थ निकेतन कौशांबी, गाजियाबाद उत्तर प्रदेश -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070520/c06599a8/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Mon May 21 19:27:16 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Mon, 21 May 2007 19:27:16 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS34KSv?= Message-ID: <6a32f8f0705210657m386017e8nef3f7e6549a41293@mail.gmail.com> *लघु सिनेमा पर बात* सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के अभाव में शहराती जीवन जीने वाले लोग दूरदर्शन को कब का भुला चुके हैं। अब इनके बच्चे क्यों याद रखें? इनके लिए तो बाजार ने बड़ा विकल्प छोड़ रखा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी, जब ग्रामीन बच्चों के साथ हमलोग दूरदर्शन के चैनलों का नाम तक याद न रखें! उसके बाद तो यह सरकारी दादागिरी के बूते ही रुपया कमा पाएगा। ऐसी परिस्थितियां अचानक नहीं बनती हैं। कई वजहें घुल-मिल कर नए माहौल पैदा करती हैं। ऐसे में यहां एक बड़ी वजह होगी, अच्छी डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म का इन चैनलों पर नहीं दिखाया जाना। दूरदर्शन के प्रति अनायास उत्पन्न हुआ वर्षों पुराना राग कमोबेश अब भी बना हुआ है। पहले दूरदर्शन पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्मों के लिए समय सीमा तय की गई थी। इसे नियमित रूप से दिखलाया जाता था। लेकिन, अब ऐसी फिल्में दिखाना दूरदर्शन को रास नहीं आ रहा है। जबकि, अमेरिका और यूरोप में अब भी टीवी पर डाक्यूमेंटरी फिल्में दिखाई जाती हैं। भारत में चल रहे निजी चैनलों से हम इसकी उम्मीद नहीं करते हैं। उनका काम तो बस चर्चा करना भर रह गया है। अमरिका में दिखाई गई माइकल मूर की डाक्यूमेंटरी फारनहाईट 9/11, की यहां के चैनलों पर खूब चर्चा हुई। लेकिन किसी भारतीय चैनलों ने इसकी सफलता से सबक लेना उचित नहीं समझा। यहां दूरदर्शन के पास डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्म के लिए कोई तय समय नहीं है। हमारे नए-पुराने फिल्मकार साल दर साल डाक्यूमेंटरी पर डाक्यूमेंटरी बनाते जा रहे हैं। पैसे की कमी, ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मंचों का अभाव और घटते दर्शक वर्ग के बावजूद लोग अब भी फिल्में बना रहे हैं। महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बहस चला रहे हैं। वहां विचार-विमर्श को जीवित रखे हुए हैं। इनकी कोशिश बेकार न हो, इसके लिए जरूरी है कि दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है तो सैकड़ों फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। जबतक समाज अपनी समस्याओं का अध्ययन नहीं करेगा, तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी फिल्में अपनी महती भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के तौर पर- यदि सुहासिनी मुले और तपन बोस द्वारा बनाई गई डाक्यूमेंट्री 'एन इंडियन स्टोरी' को हम सभी देख चुके होते तो 'गंगाजल'फिल्म का यथार्थ हमारी समझ में स्वत: आ जाता। दरअसल, यह डाक्यूमेंट्री भागलपुर में कैदियों की आखें फोड़ देने की घटना पर आधारित है। स्थितियों को समझने में हम इसका फायदा उठा सकते थे। खैर, इतने के बावजूद अब भी इक्का-दुक्का लोगों से उम्मीद है। देखें आगे हम कितना हदतोड़ी बन पाते हैं। ब्रजेश झा 09350975445 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070521/758b517d/attachment.html From shveta at sarai.net Mon May 21 20:38:47 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Mon, 21 May 2007 20:38:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpI/gpJUg?= =?utf-8?b?4KSr4KWC4KS54KShIOCkleCkueCkvuCkqOClgCDgpLngpYg=?= In-Reply-To: <2076f31d0705191157s12fe5d91qeb80dab57024d71e@mail.gmail.com> References: <200705192126.47033.ravikant@sarai.net> <2076f31d0705191157s12fe5d91qeb80dab57024d71e@mail.gmail.com> Message-ID: <4651B5FF.4090208@sarai.net> डीयर ज़ैगम, सभी, मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स वर्कर्ज़ के साथ काम करती अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना था कि सर्वे के दौरान जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी बार करने के बाद थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते हैं? किस-किस तरह की अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से और हर बार पूछने पर उनका जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका मैंने हिंदी अनुवाद पढ़ा है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला पाने के भाषाई साधन क्या मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह कर आप सुनने-सुनाने के माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता है। लेकिन चलिये, "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, और बात को थोड़ा आगे बढ़ाया जाए। 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना "वीभस्त" हो सकता है, हम इस से अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" बनाना संभव है, इसके बड़े पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे रूबरू हो इसका उल्लेख करने के परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर पर भी सोच बहुत गहरी है, होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" (डोमेस्टिक स्पेस) अनछुई जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख (कहानी) खड़ा है। मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, हालांकि उनकी मंशा पाठक में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे की अपनी सोच को छोड़ कर उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या बदलाव, क्या चुप्पी लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से फिंसल जाती है, ये कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी हैं कहना अपूर्णता में दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना ही "एक अत्याचारी और एक बेचारी" लेखक। ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के बारे में आपकी जिग्यासा होना एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के प्रेमी" जैसी क्षमता भी अपने अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की कोशिश के विपरीत, परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी है। उसकी कोई सोच नहीं है। वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी उसके ज़हन में आती है तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता है। पर लेख इन crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। सलाम श्वेता arshad amanullah wrote: > beghair jargon mare behad khubsurati se aap ne bahut kuchh kaha > hai.kahani na sirf bebak hai balki qari ki tamam tawajjo ko giraftar > karne ki bharpur salahiyat rakhti hai. kamyaabhi ke liye mobarkabad > qubul karen. > > arshad amanullah > > On 5/19/07, mahmood farooqui wrote: > >> doston rachna kaise phuhar ho sakti hai...iska mansha hamare andar romanch >> paida karna thori hai, apne maqsad mein kaamyab, ek sundar rachna hai... >> >> >> On 19/05/07, Ravikant wrote: >> >>> दीवानो, >>> >>> ज़ैग़म ने इसे फूहड़ रचना कहा है. मेरा उनसे इत्तेफ़ाक़ है, क्योँकि मुझे यह >>> >> वीभत्स लगती है, लेकिन >> >>> यथार्थ कई बार वीभत्स होता ही है, और उसमेँ वह रस नहीँ मिलता, जिसकी >>> >> सौंदर्यशास्त्री अपेक्षा >> >>> करते हैँ. मैँ आपके साथ यह बाँटते हुए ज़ैग़म जैसा ही हिचक रहा हूँ, लेकिन >>> >> हमेँ भावनाओँ के >> >>> आहत होने की राजनीति से धीरे-धीरे ऊपर उठना ही चाहिए. हमें थोड़ा थेथर होना >>> >> ही चाहिए. >> >>> इतनी चेतावनी अवश्य दे दूँ, कि जिनकी संवेदनाएँ नाज़ुक हैँ, वे इसे पढ़ने से >>> >> परहेज़ करें. >> >>> रविकान्त >>> >>> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- >>> >>> Subject: एक फूहड कहानी है >>> Date: शुक्रवार 18 मई 2007 08:58 >>> From: "zaigham imam" >>> To: ravikant at sarai.net >>> >>> * * >>> *सर नमस्कार* >>> *एक फूहड कहानी है। पहले सोचा था दीवान पर डाल दूं लेकिन >>> फिर लगा आपसे पूछे बिना ऐसा करुंगा तो शायद गडबड हो जाए। एक औरत की पीडा है >>> जो मर गई, मगर अभी भी ऐसी कई औरतें होंगी जो रोज इस नर्क से गुजरती >>> >> हैं।ज्यादा >> >>> नहीं लिखूंगा नहीं आप कहेंगे की ज्ञान दे रहा है। >>> शुक्रिया >>> जैगम >>> >>> >>> ** >>> ** >>> *देहधर्म* >>> >>> *''* >>> *कुतिया पीछे घूम ''। परभतिया की साडी खोलते हुए नरेस ने उसे चौकी पर पटक >>> >> दिया। >> >>> नंगी परभतिया बेमन से अगाडे के बल चौकी पर पलट गई। वो पीछे से उसके भीतर >>> >> घुसने >> >>> की कोशिश करने लगा। सीने के बल लेटी परभतिया के दोंनो उभार चौकी की कठोर लकडी >>> से दबे हुए थे। सिसकारी निकली मगर उसने दबा ली, बिटुआ जाग जाएगा। छाती चूस >>> >> चूस >> >>> के बेहाल हो गया तब कहीं जाकर नींद आई। दूध नहीं है कमबख्त सीना फिर भी उठा >>> जा रहा है। भगवान जाने कोई बीमारी हो गई लगती है। ''साली रंडी... पिछाडा भी >>> खराब हो गया है, घुसेडो तो ऐसे घुसता है जैसे सुरंग में...चल आगे''। नरेस ने >>> उसके पिछाडे पर भरपूर हाथ मारा। दर्द बर्दाश्त करते हुए उसने अपने सामने का >>> हिस्सा उसके सामने परोस दिया। वो फिर शुरु हो गया। झटके पर झटके लग रहे थे >>> मगर वो खामोश थी। आदत पड गई थी। बिटुआ के जनम से पहिले से यह सब चल रहा है। >>> >> कभी >> >>> आगे तो कभी पीछे। ''....चल उठ। खा खा के सांड होती जा रही है मगर देह में कुछ >>> नहीं है जिधर हाथ लगाओ लगता है मांस उखडकर हाथ में आ जाएगा''। नरेस अब थक >>> >> चुका >> >>> था चूल्हे के पास पहुंचकर बीडी सुलगाने लगा। '' खाना लगा दे... ''** * >>> >>> *बदन* >>> *पर साडी डाल के परभतिया चूल्हे के पास जा पहुंची। आटा गूंथा रखा था। सब्जी >>> बन चुकी थी बस रोटी सेंकनी बाकी थी। आटे की लोई हाथ्ा से थपथपा कर उसने तवे >>> >> पर >> >>> डाल दी। चिमटा हाथ्ा में था। रोटी पलटी और वापस टोकरी में डाल दी। लोहे का >>> चिमटा पूरी रफ्तार के साथ चूल्हे मे चल रहा था। रोटिया लगातार बनती जा रही >>> थीं। नरेस हाथ्ा मुंह धोकर वापस आ चुका था। थाली में खाना सजाए परभतिया उसके >>> सामने पहुंची। नरेस खा रहा था और वो हमेशा की तरह उसे पंखा झल रही थी। * >>> >>> *वो* >>> *नरेस की बीबी नहीं थी। उसे नरेस से इश्क था। भागकर आई थी अपने घर से। तब >>> >> नरेस >> >>> भी ऐसा नहीं था। बिल्कुल छैला था। शहर में रहके आया था। सिगरेट पीता था, >>> >> धुंवे >> >>> के खूबसूरत छल्ले निकालता था। वो उस पर आशिक थी। खैर पहले वो भी परभतिया नहीं >>> थी। उसका नाम प्रभा था। बापू ने बडे चाव से ये नाम रखा था। बहुत सुंदर तो >>> >> नहीं >> >>> थी मगर नैन नक्श तीखे थे। नरेस कहता था ऐसी लडकियों को शहर में ''बिलैक >>> ब्यूटी'' कहते हैं। नरेस के साथ भागी तो सोचा था शहर में रहेगी। मगर नरेस >>> >> वापस >> >>> शहर नहीं गया। कहता था, ''वहां क्या रखा है। सडक के किनारे गुजारे करने से >>> अच्छा है कि अपने गांव में दू रोटी खाके पडे रहो''। वो न जाने क्या क्या सोच >>> रही थी। आधी रात गुजर चुकी थी। आसमान में तारे बिखरे पडे थे। नरेस चौकी पर >>> बेसुध पडा सो रहा था। धोती खुल गई थी। सामने उसकी जान की दुश्मन सिकुडा लटक >>> रहा था। वो कभी चड्ढी नहीं पहनता था। करवट बदलते बदलते धोती खुल जाती और वो >>> नंगा हो जाता। हर राज नरेस नंगा होता और वो उसे देखती। एक रात जब वो उसे >>> >> निहार >> >>> रही थी, नरेस की आंख खुल गई। खुली धोती देखकर आग बबूला हो गया। पिल पडा लात >>> घूंसों से मार मारके बेहाल कर दिया। ''कुत्ती साली मजाक करती है। बहुत देखे >>> >> का >> >>> सौक चर्राया है।'' नरेस का वो हिस्सा भी उत्तेजित हो गया था। ''ले ले'' कहकर >>> उसने सारा का सारा जबरन उसके मुंह में घुसा दिया। वो नहीं भी नहीं कर सकी। >>> >> गूं >> >>> गूं करती रही। नरेस पागलों की तरह उसके मुंह के भीतर झटके पर झटका मारता रहा। >>> थोडी देर बाद जब होश आया तब कहीं जाकर उसे मुक्ति मिली। उसने वहीं पर ढेर >>> >> सारी >> >>> उल्टी कर **दी। * >>> >>> *सुबह* >>> *होने में अभी एक घंटे का समय था। वो उठ गई। बिटुआ को नहलाना था। नरेस के लिए >>> खाना तैयार करना था। एक बार फिर एक के बाद एक गर्मागर्म रोटियां चूल्हे से >>> बाहर निकल रहीं थीं। सुईठा धिककर लाल हो चुका था। परभतिया को उसकी गर्माहट >>> >> अपने >> >>> हाथ में महसूस हो रही थी। वो कई बार सुईठे से जल चुकी थी। हाथ की खाल कई >>> >> जगहों >> >>> पर काली थी। '' खाने का डिब्बा दे'' नरेस की आवाज थी। वो साइकिल पर चढकर जाने >>> के लिए तैयार हो चुका था। वो रोज दरवाजे पर खडी होकर उसे जाते देखते थी। >>> >> साइकिल >> >>> जब तक आंखों से ओझल न हो जाती देखती रहती। आखिर में नरेस बिल्कुल दिखना बंद >>> >> हो >> >>> जाता और वो चौकी पर आकर पसर जाती। बिटुआ फिर रो रहा था। उसने फटाक से ब्लाउज >>> का एक सिरा उठाया और दूध की सूखी धार उसके मुंह में थमा दी। छाती में हलचलें >>> शुरु हो गईं बिटुआ दूध की खोज में जुटा था और वो कुछ सोच रही थी। अबकि ठीक >>> >> समय >> >>> पर माहवारी नहीं हुई। भीतर दरद भी होता है पर नरेस को कौन समझाए। शाम हो गई >>> >> थी। >> >>> सूरज जल जलकर थक चुका था। अब वापस लौट रहा था अपने साथ अपनी रोशनी समेट के। >>> उसने लालटेन जला दी। हर शाम को उसका पहला यही काम था। लालटेन जलाकर आंगन में >>> टांग देना। सांझ को रोशनी बहुत जरुरी है। अंधेरे में लक्ष्मी माई भला कइसे आ >>> पाएंगीं। साइकिल के पहियों की आवाज थी। नरेस लौट आया। बीडी बदस्तूर उसके मुंह >>> में सुलग रही थी। काम कर करके थक जाता है बेचारा , उसे दया आ रही थी ईंट >>> >> मिट्टी >> >>> गारा क्या नहीं करना पडता। दिन भर खून जलाओ तब कहीं जाकर चार पैसे हाथ में >>> >> आते >> >>> हैं। उसने नरेस से कहा था वो भी मजूरी करना चाहती है। मगर नरेस तैयार नहीं >>> >> हुआ। >> >>> ठेकेदार साले अव्वल नंबर के मादरचो..होते हैं , पहिले काम करो फिर उनको खुश >>> करो तब कहीं जाकर पइसा देते हैं। ज्यादा चूं चपड की तो मजूरी गई हाथ से। * >>> >>> *''* >>> *अरे आ आना क्या हुआ रोज नखरे करती है नहीं देना है तो बता दे इसका इंतजाम भी >>> बाहर ही कर लूंगा।'' नरेस उसे चौकी की ओर खींच रहा था। उसने कहा कि अंदर दरद >>> >> है >> >>> मगर नरेस बेपरवाह ''अभी ठीक हो जाएगा ले... ''**। और एक बार फिर वो अगाडे के >>> बल चौकी पर पडी थी। नरेस पिछले रास्ते से उसके अंदर पहुंच चुका था। और फिर >>> रोज की तरह अगला रास्ता भी उसे नरेस के हवाले करना पडा। नरेस थककर चूर हो >>> >> गया। >> >>> उसने देह में साडी लपेटी और चूल्हे की तरफ चल दी। गर्मामर्ग रोटियां बाहर आने >>> लगीं। चिमटे से कभी रोटी अलग तो कभी पलट। चिमटा लाल था उसके हाथ करीब करीब जल >>> रहे थे मगर उसने चिमटा नहीं छोडा। आंखों से गिरे आंसू बार बार आटे में गिर >>> >> रहे >> >>> थे। नरेस खाना खाकर हमेशा की तरह चौकी पर पसरा हुआ था।धोती खुल गई थी। * >>> >>> *परभतिया का पोर पोर दर्द में डूबा था। आज नरेस उसके साथ ज्यादा बेदर्दी के >>> साथ पेश आया। अंदर से खून तक निकल गया। नरेस ने कल अस्पताल चलने की बात कही >>> >> है >> >>> * >>> *,** दिखाना जरुरी है। मैं भी चलूं टिफिन देते हुए उसने नरेस से पूछा था। >>> कहां। अस्पताल। रात में कहे तो थे कि कल ले चलेंगे। हां मगर ठेकेदार की गाली >>> कौन सुनेगा बाद में चलेंगे। तू काहे डाक्टरन के चक्कर में पडती है कुछ नहीं >>> हुआ। सांझ को तेरे लिए मुसम्मी का रस लाऊंगा पी लेना ताकत आ जाएगी। नरेस चला >>> गया। वो उसे देखती रही। तब तक जब तक साइकिल ओझल नहीं हो गई। बिटुआ का मुंह >>> >> अपनी >> >>> छाती में देकर वो चौकी पर सो गई। अम्मा कहतीं थीं कि इस जगह से कभी गलत तरीके >>> से खून न आना चहिए। सरीर में गडबडी का बडा लच्छन है। अम्मा न जाने कैसी होगी। >>> बुढिया माई। परभवा हमार बिटिया है कभी गलत काम नहीं करेगी। नरेसवा आवारा है >>> जादू करवा दिया हमरी बेटी पर। दस साल में उसे पहली बार अम्मा की याद आई। >>> अम्मा उसे चाहती थीं। उन्होंने उससे कहा था कि नरेसवा उससे कभी शादी नहीं >>> करेगा। ऐसा हुआ भी नरेस शादी की बात टालता रहा और फिर उसने खुद कुछ कहना छोड >>> दिया। * >>> >>> *शाम हो गई थी। आंगन में लालटेन टांगने के बाद वो खाना बनाने की तैयारियों >>> >> में >> >>> जुट गई। नरेस को देर हो रही थी। रोटी के लिए आटा गूंथ लिया। चिमटे से आग >>> दुरुस्त करने लगी। ये चिमटा भी अजब भी लाख जला लो मगर फिर भी जलने के लिए >>> आतुर रहता है। नरेस अभी तक नहीं आया। रात गहरा रही थी। उसने हाथों के घेरे >>> >> में >> >>> अपने सिर को ढक लिया। ये उसकी आदत थी थक जाती तो ऐसे ही बैठती। साइकिल की >>> हल्की सी आहट पर वो उठ खडी हुई।नरेस आ गया। हाथ में प्लास्टिक की पन्नी >>> थी।नरेस आज मूड में था। उसने परभतिया के होंठो में अपना मुंह सटा दिया। वो >>> भिन्नाते हुए पीछे हट गई। उसने पी रखी थी। * >>> *''मून्नू ने पिला दी। भगवान कसम जरा सी पी है।'' नरेस हंस रहा था। ''देख मूड >>> मत खराब कर पहले एक बार हो जाए फिर खाएंगें''। ''आ आ '' नरेस लगभग पुचकारते >>> हुए उसे चौकी तक ले आया। और एक बार फिर परभतिया उसके नीचे दब गई। कभी कहीं तो >>> कहीं। नरेस उसे बुरी तरह से भंभोड रहा था। समूचा निगल जाने को आतुर। पूरे बीस >>> मिनट बाद वो नरेस की कैद से आजाद हुई। खून फिर निकला था। लेकिन आज वो खुश थी >>> नरेस उसके लिए मुसम्मी का रस लाया था। उसने किनारे रखी प्लास्टिक उठाकर मुंह >>> में लगा ली। ऐसा लगा जैसे तेजाब पी लिया हो ....सिर चकरा गया। हरामी >>> >> प्लास्टिक >> >>> में शराब भर लाया। चौकी पर लेटे हांफ रहे नरेस पर उसने सारी की सारी शराब उलट >>> दी। नरेस गुस्साया नहीं हंस दिया। ''अरे पी ले सब दरद दूर हो जाएगा''।उसे >>> >> जैसे >> >>> आग लग गई। आग के पास पडा चिमटा उठाया और नरेस को दे मारा।चोट उसके सिर पर लगी >>> >> , >> >>> **भन्ना गया। मगर चुप रहा। मजाक में उसने चिमटा एक बार फिर उसकी तरफ उछाल >>> दिया। चिमटा चूल्हे में जा गिरा। परभतिया का गुस्सा सातवें आसमान पर था। वो >>> नरेस पर झपट पडी। नरेस की धोती खुल गई वो नंगा हो गया। उसने पूरी फुर्ती से >>> नरेस के लटकते हिस्से को दांतों से पकड लिया।नरेस चीख उठा। आग में गिरा चिमटा >>> धिककर लाल था। नरेस ने परभतिया को उठाया और चौकी पर पटक दिया। मारपीट में न >>> जाने कब उसकी साडी जिस्म से गायब हो गई थी। नरेस उसे बुरी तरह से पीट रहा था। >>> वो खामोश थी नरेस का गुस्सा बढता जा रहा था। वो चूल्हे में गिरे चिमटे को >>> अपनी धोती से पकड के ले आया। आंख बंद किए परभतिया सिसक रही थी। उसका नंगा >>> जिस्म आसमान के नीचे खुला पडा था। अचानक नरेस ने आग में लाल हुए चिमटे को >>> परभतिया के अगले हिस्से पर रखकर दबा दिया। गर्म चिमटा मांस को पिघलाता चला >>> गया। परभतिया एक लंबी चीख मारकर बेहोश हो गई। नरेस दहकते चिमटे घुमघुमाकर >>> >> उसके >> >>> अगले हिस्से को बंद कर रहा था। * >>> >>> *सैयद जैगम इमाम* >>> >>> ------------------------------------------------------- >>> _______________________________________________ >>> Deewan mailing list >>> Deewan at mail.sarai.net >>> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >>> >>> >> _______________________________________________ >> Deewan mailing list >> Deewan at mail.sarai.net >> http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan >> >> >> > > > From zaighamimam at gmail.com Tue May 22 01:38:34 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Tue, 22 May 2007 01:38:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= Message-ID: श्‍वेता जी, मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते हैं ऐसा नहीं होता है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास (अन्‍यथा न लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। अकसर उन्‍हें इस टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया गूंगी है। ठीक बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार सराय के शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था कि नरेस का कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे क्‍या समझा जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो हिस्‍सा काट लेना चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं आता ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या परभतिया। कहानी तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों की कोई सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं मानूंगा। परभतिया की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई सबकुछ वहीं खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की देह नरेस की जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के बीच का सेक्‍स वीभत्‍स रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है नहीं। आगे पीछे या किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को क्रूर क्‍यों समझती है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार है। परभतिया को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी बनाने को आतुर रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। आपने पढा, नरेस उसे मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ कुछ कर सकता है। अंत में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई बंदूक गलती से चल जाए, किसी की जान चली जाए। * कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी मर्द के भाग जाए तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ एक ऐसा रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके उत्‍तर ने मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये प्रीति जिंटा की फ‍िल्‍म *''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी झेलझाल कर कुंवारी मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ रही है बाहर निकली तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे वहीं पहुंचाएगा जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। आप लिखती हैं। सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे *रूबरू* हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। रुबरु हो पाने की क्षमता बहुत कुछ है। *जरुरी* नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए उसमें झांककर देखा जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात है। फ‍िर भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं के कोठे पर शराब पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के *नाम* पर धोखे को भी मैं आक्षेप समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें मैं धोखा देने की कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर क्‍या संवाद ऐसे हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन क्‍या खाक, मंटो का मुकाबला कर सकते हैं। रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर भी कहानी है तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में चलता है। बेहद खूबसूरत सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल न हो। हर कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। वालेकुल अस्‍सलाम जैगम ------------------------- On 5/21/07, Shveta wrote: > श्‍वेता जी ने कहा था > डीयर ज़ैगम, सभी, > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स वर्कर्ज़ > के साथ काम करती > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना था कि सर्वे > के दौरान > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी बार करने > के बाद > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते हैं? किस-किस > तरह की > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से और हर बार > पूछने पर उनका > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, जगह और > हिंसा के > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ इनका > ज़रा भी अंदेशा > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा देता > हुआ पाते हैं। > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका मैंने > हिंदी अनुवाद पढ़ा > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला पाने के भाषाई > साधन क्या > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह कर आप > सुनने-सुनाने के > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता है। लेकिन > चलिये, > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, और बात को > थोड़ा > आगे बढ़ाया जाए। > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना "वीभस्त" हो सकता > है, हम इस से > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" बनाना > संभव है, इसके बड़े > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे रूबरू हो इसका > उल्लेख करने के > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर पर भी सोच > बहुत गहरी है, > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" (डोमेस्टिक > स्पेस) अनछुई > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख (कहानी) > खड़ा है। > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, हालांकि > उनकी मंशा पाठक > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे की अपनी सोच > को छोड़ कर > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या बदलाव, > क्या चुप्पी > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से फिंसल > जाती है, ये > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी हैं कहना > अपूर्णता में > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना ही "एक > अत्याचारी > और एक बेचारी" लेखक। > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के बारे में > आपकी जिग्यासा होना > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के प्रेमी" जैसी > क्षमता भी अपने > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की कोशिश के > विपरीत, > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी है। उसकी कोई > सोच नहीं है। > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी उसके ज़हन > में आती है > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता है। पर > लेख इन > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > सलाम > श्वेता > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070522/f521aa78/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue May 22 19:43:24 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 22 May 2007 19:43:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWB4KSy4KS+4KSV4KS+4KSkIOCksuCkpOCkv+CkleCkviDgpLDgpYfgpKM=?= =?utf-8?b?4KWBIOCkuOClhw==?= Message-ID: <200705221943.24209.ravikant@sarai.net> riyaz ul Haq saheb isko bhejne ki koshish kar rahe the, aTka paRa tha. vaise saara kuchh unke blog: http://hashiya.blogspot.com/ par maujod hai. riyaz, dhairya ke liye shukriya, riyaz, mere khayal se address deewan at sarai ki jagah kuchh aur tha isliye yeh gaRbaR ho rahi thee. एक ‌और दर्दनाक कहानी - लतिका जी के चित्र देखने होँ तो रियाज़ के ब्लॉग पर जाएँ. ravikant राजेंद्रनगर के ब्लॉक नंबर दो में पटना इंप्रूवमेंट ट्रस्ट का एक पुराना मकान. दूसरी मंजिल पर हरे रंग का एक दरवाजा. जंग लगा एक पुराना नेम प्लेट लगा है- फणीश्वरनाथ रेणु . एक झुर्रीदार चेहरेवाली औसत कद की एक बूढ़ी महिला दरवाजा खोलती हैं-लतिका रेणु. रेणु जी की पत्नी. मेरे साथ गये बांग्ला कवि विश्वजीत सेन को देख कर कुछ याद करने की कोशिश करती हैं. वे हमें अंदर ले जाती हैं. कमरे में विधानचंद्र राय, नेहरू और रेणु जी की तसवीर. 1994 का एक पुराना कैलेंडर. किताबों और नटराज की प्रतिमा पर धूल जमी है. बाहर फोटो टंगे हैं-रेणु और उनके मित्रों के. घर में लगता है, रेणु का समय अब भी बचा हुआ है. एक ओर कटी सब्जी का कटोरा रखा हुआ है-शायद वे सब्जी काट रही थीं. बातें शुरू होती हैं. वे रेणु जी पर प्राय: बात नहीं करना चाहतीं. अगर मेरे साथ विश्वजी त दा नहीं होते तो उनसे बात कर पाना मुश्किल था. पुराना परिचय है उनका. काफी कुछ दिया है इस महिला ने रेणु को. प्रकारांतर से हिंदी साहित्य को. हजारीबाग के सेंट कोलंबस कॉलेज के एक प्रोफेसर की बेटी लतिका जी इंटर करने के बाद पटना आयी थीं-नर्सिंग की ट्रेनिंग के लिए. फिर पटना की ही होकर रह गयीं. पटना मेडिकल कॉलेज में ही भेंट हुई फणीश्वरनाथ रेणु से. उनके फेफड़ों में तकलीफ थी. नेपाल में राणाशाही के खिलाफ संघर्ष में शामिल थे रेणु. एक बार वे गिर गये और पुलिस ने उनकी पीठ को अपने बूटों से रौंद डाला था. तब से खराब हो गये फेफ ड़े. खून की उल्टी तभी से शुरू हुई. लतिका जी उन दिनों को याद करते हुए कभी उदास होती हैं, कभी हंसती हैं, वैसी हंसी जैसी जुलूस की पवित्रा हंसती है. ट्रेनिंग खत्म होने के बाद पटना में ही गर्दनीबाग में चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में नि युक्ति हुई. छह माह बाद सब्जीबाग के सिफ्टन चाइल्ड वेल्फेयर सेंटर में आ गयीं. तब तक रेणु जी से उनकी शादी हो चुकी थी. रेणु जी ने उन्हें बताया नहीं कि उनकी एक पत्नी औराही हिंगना में भी हैं. शादी के काफी समय बाद जब वे पूर्णिया उनके घर गयीं तो पता चला. इस पर वे नाराज भी हुईं, पर मान गयीं. लतिका जी शादी से जुड़े इन प्रसंगों को याद नहीं करना चाहतीं. काफी कटु अनुभव हैं उनके. रेणु जी के पुत्र ने उनकी किताबों का उत्तराधिकार उनसे छीन लिया. वह यह फ्लैट भी ले लेना चाहता था, जि समें अभी वे हैं और जिसे उन्होंने अपने पैसे से खरीदा था. रेणु जी ने इस फ्लैट के आधार पर 20000 रुपये कर्ज लिये थे बैंक से. बैंक ने कहा कि जो पैसे चुका देगा फ्लैट उसका. लतिका जी ने कैसे-कैसे वे पैसे चुका ये और फ्लैट हासिल किया. वे भुला दी गयी हैं. अब उन किताबों पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, जिनकी रचना से लेकर प्रका शन तक में उनका इतना योगदान रहा. मैला आंचल के पहले प्रकाशक ने प्रकाशन से हाथ खींच लिया, कहा कि पहले पूरा पैसा जमा करो. लतिका जी ने दो हजार दिये तब किताब छपी. नेपाल के बीपी कोइराला को किताब की पहली प्रति भेंट की गयी. उसका विमोचन सिफ्टन सेंटर में ही सुशीला को इराला ने किया. इसके बाद, जब उसे राजकमल प्रकाशन ने छापा तो उस पर देश भर में चर्चा होने लगी. लतिका जी बताती हैं कि रेणु दिन में कभी नहीं लिखते, घूमते रहते और गपशप करते. हमेशा रात में लिखते, मुसहरी लगा कर. इसी में उनका हेल्थ खराब हुआ. लिख लेते तो कहते-सारा काम छोड़ कर सुनो. बीच में टोका टाकी मंजूर नहीं थी उन्हें. कितना भी काम हो वे नहीं मानते. अगर कह दिया कि अभी काम है तो गुस्सा जाते, कहते हम नहीं बोलेंगे जाओ. फिर उस दिन खाना भी नहीं खाते. जब तीसरी कसम फिल्म बन रही थी तो रेणु मुंबई गये. उनकी बीमारी का टेलीग्राम पाकर वे अकेली मुंबई गयीं. मगर रेणु ठी क थे. वहां उन्होंने फिल्म का प्रेस शो देखा. तीसरी कसम पूरी हुई. लतिका जी ने पटना के वीणा सिनेमा में रेणु जी के साथ फ़िल्म देखी. उसके बाद कभी नहीं देखी तीसरी कसम. रेणु के निधन के बाद उनके परिवारवालों से नाता लगभग टूट ही गया. उनकी एक बेटी कभी आ जाती है मिलने. गांववाली पत्नी भी पटना आती हैं तो आ जाती हैं मिलने, पर लगाव कभी नहीं हुआ. नर्सिंग का काम छोड़ने के बाद कई स्कूलों में पढ़ाती रही हैं. अब घर पर खाली हैं. आय का कोई जरिया नहीं है. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद 700 रुपये प्रतिमाह देता है, पर वह भी साल भर-छह महीने में कभी एक बार. पूछने पर कि इतने कम में कैसे काम चलता है, वे हंसने लगती हैं-चल ही जाता है. अब वे कहीं आती-जाती नहीं हैं. किताबें पढ़ती रहती हैं, रेणु की भी. सबसे अधिक मैला आंचल पसंद है और उसका पात्र डॉ प्रशांत. अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में अनूदित रेणु की कि ताबें हैं लतिका जी के पास. खाली समय में बैठ कर उनको सहेजती हैं, जिल्दें लगाती हैं. लतिका जी ने अपने जीवन के बेहतरीन साल रेणु को दिये. अब 80 पार की अपनी उम्र में वे न सिर्फ़ अकेली हैं, बल्कि लगभग शक्तिहीन भी. उनकी सुधि लेनेवाला कोई नहीं है. रेणु के पुराने मित्र भी अब नहीं आते. एक ऐसी औरत के लिए जिसने हिंदी साहित्य की अमर कृतियों के लेखन और प्रकाशन में इतनी बड़ी भूमिका निभायी, सरकार के पास नियमित रूप से देने के लिए 700 रुपये तक नहीं हैं. हाल ही में पटना फिल्म महोत्सव में तीसरी कसम दिखायी गयी. किसी ने लतिका जी को पूछा तक नहीं. शायद सब भूल चुके हैं उन्हें, वे सब जिन्होंने रेणु और उनके लेखन से अपना भविष्य बना लिया. एक लेखक और उसकी विरासत के लिए हमारे समाज में इतनी संवेदना भी नहीं बची है. From ravikant at sarai.net Tue May 22 20:01:57 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 22 May 2007 20:01:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCkguCkpCDgpJTgpLAg4KSk4KWB4KSy4KS44KWAIOCkleCkviDgpKQ=?= =?utf-8?b?4KWA4KSoIOCkmuCljOCkpeCkvuCkiCDgpJXgpL7gpLXgpY3gpK8g4KSV4KWC?= =?utf-8?b?4KSh4KS84KS+IOCkueCliD8=?= Message-ID: <200705222001.57160.ravikant@sarai.net> is Daak ka main sirf Dakiya hun. riyaz ko ummeed hogi ki kuchh log shayad is soochi par ismein dilchaspi lenge. meri apni gati is mein thoRi hai. मूल के लिए हाशिया पर जाएँ. पर इसमेँ नामवर जी के वाचिक आलोचना कर्म पर किए गए कटाक्ष ने मेरा ध्यान खीँचा है. रविभूषण की समस्या है कि नामवर सिंह सिर्फ़ बोलते हैँ, लिखते नहीँ, इसलिए फिसल जाते हैँ, उनके कहे का रिकॉर्ड नहीँ होता, सुविधानुसार प्रशस्ति या निंदा लुटाते रहते हैँ. मेरे ख़याल से यह बात सोचने लायक़ है कि तकनीक के साथ भाषाई जनपद का, या भाषाई सामग्री के उत्पादन का, उसकी विश्वसनीयता का क्या रिश्ता है? क्या नामवर जी ने जानबूझ कर अपनी आलोचकीय आज़ादी के लिए यह रणनीति बना ली है? किसी दोस्त के पास अगर कोई जवाब हो तो हमें, बताएँ. ravikant नामवर (वाचिक) आलोचक नामवर सिंह ने पंत काव्य को कूडा़ कहा और वहीं डा सदानंद शाही ने तुलसी साहित्य को भी ऐसा ही कुछ कहा. हम यह मानते हैं कि किसी लेखक को उसकी प्रतिबद्धता और अपने समय को उसके उथलपुथल के साथ दर्ज़ करने की काबिलियत ही उसे महान बनाती है. तुलसी और पंत में ये दोनों ही नहीं हैं. पंत, केवल कल्पना लोक के कवि हैं तो दूसरी ओर तुलसी समाज को रूढियों और सामंती मूल्यों से (ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी...आदि, आदि) लैस करते हैं. यही वजह है कि पंत अब चर्चा से बाहर रह्ते हैं और तुलसी धर्म की सीमा में कैद रह गये. किसी साहित्यिक रचना का धर्मग्रंथ बन जाना उसकी कमजोरी को दिखाता है. इसका मतलब है कि आप उस पर साहित्यिक कसौटियों के साथ विचार करने को स्वतंत्र नहीं रह जाते हैं. यह किसी विचार को धर्मवि धान बना देने जैसा ही है. मगर हमारा यह भी मानना है कि किसी लेखक पर इस तरह का फ़ैसला देने का काम लिखित तौर पर होना चाहिए न कि वाचिक तौर पर. और नामवर सिंह जिस तरह हवा का रुख देख कर भाषा बदलते रहते हैं हम उसका भी समर्थन नहीं करते. वे एक समय में नेरुदा को लाल सला म कहते हैं तो अगले ही पल सहारा राय को सहारा प्रणाम. मगर इसी के साथ हम उनपर हुए मुकदमों का भी विरोध करते हैं. रविभूषण का यह लेख प्रभात खबर में भी छप चुका है. ........ बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन एवं विकास केंद्र, भारत कला भवन और बनारस के प्रेमचंद साहित्य संस्थान द्वारा आयोजित दो दिवसीय `महादेवी जन्मशती महोत्सव' (5-6 मई, 2007) में नामवर सिंह द्वारा सुमित्रानंदन पंत पर की गयी टिप्पणी बनारस और बनारस के बाहर आजकल चर्चा में है. संगोष्ठी महादेवी वर्मा : वेदना और विद्रोह पर केंद्रित थी.नामवर सिंह ने जयशंकर प्रसाद और निराला के बाद महादेवी को स्थान देते हुए पंत काव्य में तीन चौथाई कूड़ा होने की बात कही. उन्होंने महादेवी को पंत से बड़ा कवि घोषित किया. उनकी आपत्ति महादेवी को `वेदना और विद्रोह' में बांध देने और सीमित करने पर भी थी. जिस महादेवी ने जीवन को `विरह का जलजात' कहा और वेदना में जन्म, करुणा में मिला आवास के द्वारा विरह, करुणा और वेदना को व्यापक अर्थों में ग्रहण किया था, उसे नामवर ने दुख के सीमित अर्थ में रख दिया. स्वयं महादेवी ने अपने निबंधों में `वेदना' पर जो विचार किया है, उसे देखने से यह स्पष्ट हो जायेगा कि महादेवी की वेदना सामान्य और सीमित नहीं थी. उसके दुख को निजी दुख समझना भी गलत है. इस संगोष्ठी में केदरनाथ सिंह, राजेंद्र कुमार, पीएन सिंह आदि ने जो बातें कहीं, उनकी ओर, और नामवर ने भारतीय कविता पर जो विचार किया, उसकी अनदेखी की गयी और यह टिप्पणी विशेष प्रमुख हो गयी कि पंत साहित्य का तीन चौथाई कूड़ा है. कूड़ा और कूड़ेदान किसी को प्रिय नहीं हैं. फालतू व महत्वहीन की तुलना में कूड़ा शब्द ज्यादा तीखा और बेधक है. बनारस से प्रकाशित दैनिक हिंदुस्तान ने इसे एक मुद्दा बना कर बनारस के कवियों, लेखकों, आलोचकों और प्राध्यापकों से नामवर की टिप्पणी पर प्रतिक्रियाएं छापीं. बच्च्न सिंह, चंद्रबली सिंह, ज्ञा नेंद्रपति, चौथी राम यादव, पीएन सिंह, कुमार पंकज, अवधेश प्रधान, वाचस्पति, बलराज पांडेय, सदानंद शाही, सुरेंद्र प्रताप, चंद्रकला त्रिपाठी, श्रीप्रकाश शुक्ल आदि में से कुछ ने नामवर के कथन से सहमति प्रकट की और कुछ ने उनकी इस टिप्पणी की आलोचना की. बच्चन सिंह को कूड़ा शब्द के प्रयोग पर घोर आपत्ति है और पीएन सिंह इस शब्द को `मंचीय अभिव्यक्ति' कह कर इसे गंभीरता से न लेने की बात कहते हैं. ज्ञानेंद्रपति के अनुसार नामवर अवसरानुकूल बयान देते हैं. हिंदी दैनिक अमर उजाला ने इस पर संपादकीय (आठ मई) भी लिखा. चंद्रबली सिंह ने नामवर के कथन में उनका दंभ देखा. एक समय चंद्रबली सिंह ने भी पंत की तीखी आलोचना की थी, पर उनके लेखन को कूड़ा नहीं कहा था. अब अक्सर निजी बातचीत में नामवर के कथन को गंभीरता से न लेने की बात कही जाती है. नामवर सदैव गंभीर बातें नहीं करते, पर उनका कथन सदैव तथ्यहीन भी नहीं होता. कविता को वे खेल मानते हैं और अब आलोचना भी उनके लिए खेल है. वे कुशल खिलाड़ी हैं और करीब 60 वर्ष से हिंदी आलोचना के केंद्र में विद्यमान हैं. मीडिया में भी वे सदैव उपस्थित रहते हैं और उनके कथन पर टीका-टिप्पणी होती रहती है. कभी मृणाल पांडे ने नामवर को हिंदी का अमिताभ बच्चन कहा था और अब भाजपा के कुछ प्रबुद्ध उन्हें `हिंदी साहित्य का राखी सावंत' कह रहे हैं. स्पष्ट है, वैचारि कता व गंभीरता का लोप हो रहा है. दूसरों को आहत करना शिक्षित समुदाय का स्वभाव बन गया है. पंत अपनी परवर्ती रचनाओं के प्रति आलोचकों के विचार से अवगत थे. उन्होंने कई स्थलों पर इस संबंध में लिखा है. नंद दुलारे वाजपेयी ने सर्वप्रथम छापावाद की `बृहत्रयी' प्रस्तुत की थी. महादेवी इस बृहत्रयी से बाहर थीं. बाद में एक लघुत्रयी भी बनायी गयी और उसमें महादेवी के साथ रामकुमार वर्मा और भगवती चरण वर्मा को शामिल किया गया. इसे कुछ लोगों ने `वर्मा-त्रयी' भी कहा. छा यावाद को पंत कवि चतुष्टम तक ही सीमित नहीं रखते थे. भगवती चरण वर्मा और रामकुमार वर्मा के साथ उन्होंने छायावाद के षड्मुख व्यक्तित्व की चर्चा की है. महादेवी की काव्य-रचना प्रसाद, निराला, पंत के बाद आरंभ हुई. नीहार (1930) का प्रकाशन अनामिका, पल्लव और परिमल के प्रका शन के बाद हुआ. छायावादी कवियों में एक दूसरे के प्रति स्नेह व सम्मान का भाव था. महादेवी ने निराला, प्रसाद और पंत को `पथ के साथी' कहा है. तुलनात्मक आलोचना बहुत पहले मुरझा चुकी है. महादेवी वर्मा का सुमित्रानंदन पंत से परिचय धीरेंद्र वर्मा ने अपने विवाह के अवसर पर कराया था. वैसे महादेवी ने पंत को पहली बार हिंदू बोर्डिंग हाउस में हुए एक कवि-सम्मेलन में देखा था. महादेवी के अनुसार पंत के जीवन पर संघर्षों ने `अपनी रुक्षता और कठोरता का इतिहास' नहीं लिखा है. महादेवी की दृष्टि में पंत चिर सृजनशील कलाकार और नये प्रभात के अभिनंदन के लिए उन्मुख थे उन्होंने पंत की `अनंत सृजन संभावनाओं' की बात कही है. जिन कृतियों से आलोचक पंत में विचलन-फिसलन देखते हैं, महादेवी का ध्यान उधर भी गया था. पंत की ग्राम्या, युगवाणी आदि काव्य कृतियों के संबंध में महादेवी ने लि खा है, `उन्होंने अपनी सद्य: प्राप्त यथार्थ भूमि की संभावनाओं को स्वर-चित्रित करने का प्रयत्न किया है.' पंत के सामने उनकी काव्य कृतियों का विरोध आरंभ हो चुका था. उस समय आज की तरह `कूड़ा' शब्द प्रयुक्त नहीं होता था. पंत ने स्वयं अपने विरोधी आलोचकों के दृष्टिकोण का उल्लेख किया है कि वे विचार और दर्शन को आत्मसात न कर, केवल उसके बौद्धिक प्रभावों को अपनी कृतियों में दुहराते हैं. लोकातयन के प्रकाशन (1965) के बाद इलाहाबाद में विवेचना की गोष्ठी में पंत की उपस्थिति में विजयदेव नारायण साही को जब `लोकायतन' की चर्चा में बोलने को कहा गया, तब उन्होंने खड़े हो कर कहा था `यह कृति न मैंने पढ़ी है और न पढूंगा.' हल्ला मचा कि साही के कथन से पंत का `वध' हो गया. साही साही थे. उनकी आलोचना में गंभीरता थी. बाद में हो-हल्ला होने पर साही ने अपने कथन का उत्तरांश (और न पढ़ूंगा) वापस ले लिया था. नामवर अपना कथन वापस नहीं लेंगे. वे तीन चौथाई का तर्क दे सकते हैं और संख्या भी गिना सकते हैं. विजयदेव नारायण साही ने लोकायतन पर ध्यान नहीं दिया. पर पंत को इसी पर सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार मिला. साही इस पुरस्कार की आलोचना कर सकते थे. नामवर कैसे करेंगे? वे पुरस्कार देनेवालों में रहे हैं. पंत ने लिखा है कि प्रसाद के आंसू के दूसरे संस्करण में उनकी कविता चांदनी की कुछ कल्पनाओं तथा बिंबों का समावेश है और निराला की यमुना में उनकी कविता स्वप्न व छाया आदि की `स्पष्ट अनुगूंज' है. फिर भी उनका कथन है, `हम यह प्रमाणित नहीं कर सकते कि हमने एक दूसरे का अनुगमन या अनुकरण किया है.' उन्होंने स्वीकारा है कि `मेरे तुम आती हो में महादेवी के जो तुम आ जाते एक बार का अप्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित होता है.' पंत ने छायावाद : पुनमूल्यांकन में महादेवी की बहुत प्रशंसा की है. उन्होंने महादेवी को `छायावाद के वसंत वन की सबसे मधुर, भाव-मुखर पिकी' कहा है. पंत ने शुक्लजी के शब्दों में `कूल की रूह सूंघनेवाले' आलोचकों की भी बात कही है. कला और बूढ़ा चांद और चिदंबरा क्या पंत की `तीन चौथाई' में शामिल होनेवाली रचनाएं हैं? पहले पर साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला और दूसरे पर भारतीय ज्ञानपीठ. पुरस्कार महत्वपूर्ण नहीं हैं, पर क्या नामवर इन पुरस्कारों को खारिज करेंगे? किसी कवि की सभी रचनाएं एक समान नहीं होतीं. खारिजी आलोचना का भी महत्व है, पर यह लिखित रूप में होनी चाहिए. शांतिप्रिय द्विवेदी ने पंत पर एक मोटी पुस्तक ज्योति विहंग लिखी थी. द्विवेदी की जन्मशती बीत गयी. उन्हें किसी ने याद नहीं किया. तुलसीदास की भी सभी रचनाएं कविता की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी. पर नामवर की भाषा में उन रचनाओं को भी कूड़ा कहना, जैसा कि सदानंद शाही ने कहा है, उचित नहीं है. बनारस के अपने रंग और और ठाठ हैं. मस्ती और फिकरेबाजी है. नामवर सिंह और सदानंद शाही के खिलाफ लंका (बनारस) थाने में तहरीर दाखिल करना सस्ते किस्म की प्रचारप्रियता है. मगर फिलहाल यही हो रहा है. आलोचना का स्तर खुद आलोचक गिरा रहे हैं और आलम यह है कि हमारे समय में आलोचना से अधिक टिप्पणियां महत्वपूर्ण बन रही हैं. From chandma1987 at gmail.com Tue May 22 16:04:57 2007 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Tue, 22 May 2007 16:04:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Jamiya Uraf Badla Hua Jamana- Message-ID: *जामिआ उर्फ बदला हुआ जमाना* सुधीर चंद्र जामिया मिल्लिया इस्लामिया और उसके उपकुलपति मुशीरुल हसन से मेरा पुराना संबंध है। जामिआ में मैंने अपनी पहली मुकम्मल नौकरी की। इतिहास विभाग में लेक्चर की हैसियत से तकरीबन पंद्रह साल। उस समय जामिआ के उपकुलपति थे प्रोफेसर मुहम्मद मुजीब। निहायत शायस्ता, संभ्रांत शख़्स। इतिहास, दर्शन और साहित्य में पगे हुए। पुराने खानदानी रईस। पर समानता और प्रजातंत्र के सच्चे पक्षधर। मुजी साहब जामिआ के पर्याय थे। जामिआ जानी ही जाती थी उनके और डॉक्टर जाकिर हुसैन के नाम से उस वक़्त। बाद में मुजीब साहब का नाम तिरोहित होने लगा। आज जामिआ जानी जा रही है प्रोफेसर मुशीरुल हसन के नाम से। अगर मुजीब साहब या जाकिर साहब इस जामिआ में आ सकते तो उनका भाव कुछ वैसा ही होता जैसा सुदामा का द्वारका से अपनी नगरिया में लौटने पर हुआ था। ये रौनक, ये चमक-दमक, ये वैभव। और वे दिन जब, पहली तारीख़ को भूल जाइए, कितनी बार महीनों बाद तनख्वाह मिलती थी। बड़ी तकलीफ़ होती थी उस वक्त। वे चाहे दोस्त हों या दुकानदार, उधार देने वाले उधार लेने वाले का आत्म-सम्मान हमेशा तो नहीं बनाए रख सकते। और जामिआ भले ही सुदामा रही हो उस वक्त भी, राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान रहे अपने रवैय के चलते, केंद्र सरकार कृष्ण नहीं बन पाई थी उसके प्रति। नतीजतन, जामिआ को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्ज़ा तो दूर, सामान्य विश्विद्यालय की मान्यता भी नहीं मिली थी। उसे 'डीम्मड यूनिवर्सिटी' की श्रेणी में डाला गया था जिसका असल में अर्थ था 'डूम्ड यूनिवर्सिटी'। आज जामिआ केंद्रीय विश्वविद्यालय है। देश में बदलते राजनीतिक समीकरण ने केंद्र सरकार को कृष्ण बना दिया है इस सुदामा के प्रति। देर से और किसी भी संकीर्ण हिसाब-किताब के कारण सही, जामिआ जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के इदारे के दिन बदले यह अच्छा ही हुआ। पर इन बदलते दिनों ने जामिआ में जो बदलाब पैदा किया वह एक स्तर पर घातक सिद्ध हुआ। सत्ता से नजदीकी और लाभ की लालसा ने उसे याचक की मानसिकता दे दी। वरना क्यों सामान्य बौद्धिक परंपरा, शिष्टाचार और मर्यादा की अवहेलना कर जामिआ परिसर के किसी रास्ते का नाम शाह राहे अर्जुन सिंह रखा जाता और अर्जुन सिंह सेंटर फॉर डिस्टेंस ऐंड ओपन लर्निंग की स्थापना की जाती? मैं मानना चाहूँगा कि अब भी स्थिति इतनी नहीं बिगड़ी है कि बुद्धिजीवियों या सामान्य लोगों को यह समझाना पड़े है कि जामिआ में जो हुआ वह ठीक नहीं है। या कि क्यों वह ठीक नहीं है। या कि चाटुकारिता और दरबारगीरी का इस हद तक आ जाना न केवल शिक्षा के लिए, बल्कि प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए ख़तरे की आख़िरी घंटी है। क्यों इस बुरे वक्त में याद आ रहे हैं अंधे सूरदास? संतन को कहा सीकरी सों काम। उम्मीद है कुछ बचे हैं अंधे अभी समाज में। बुरे वक्त की बात पर मुशीरुल हसन से हुई अपनी बात भी बता दूँ। मुशीर को मैं तब जानता हूँ जब उनके पिता, प्रोफेसर मुहीब्बुल हसन, जामिआ में इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे। निहायत नेकदिल इंसान। मुशीर ख़ुद उस वक्त अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। धीरे-धीरे मेरे संबंध उनसे उस तरह के बन गए जिनको आमतौर पर दोस्ती कहा जाता है। प्रगाढ़ और अंतरंग नहीं, पर दोस्त। लगा इस मसले पर मुशीर से बात कर लेनी चाहिए। कितना ही यकीन क्यों न हो कि जो कुछ हुआ है सरासर गलत और निंदनीय है, पता तो कर लें कि उपकुलपति की हैसियत से मुशीर को क्या कहना है। हो सकता है, कुछ हो जो हम जैसों की समझ में नहीं आ रहा। मोबाइल पर फ़ोन किया तो पुराने खुलूस से मुशीर का 'आदाब' सुनाई पड़ा। मैंने पूछा, भाई यह अर्जुन सिंह को लेकर क्या हो गया जामिआ में। जवाब में शुरू के 'क्यों क्या हो गया' के बाद मुझे बताया गया कि यह 'यूनैनिमस' फैसला था, एक डीन ने यह प्रस्ताव रखा और सर्वसम्मति से उसको मान लिया गया। मैंने कहा, ज़ाहिर है वक्त बदल रहा है। जवाब मिला, नहीं, वक्त नहीं बदल रहा है। वक्त वही है। बस जामिआ का वक्त बदल रहा है। अब मिनिस्ट्री जामिआ की ओर तवज्जो देती है। ख़राब मन और ख़राब हो गया। यह वह मुशीर है जिसके समर्थन में सैटनिक वर्सेज को लेकर हुए कांड में देश भर के तमाम सोचने-समझने वाले लोग एकजुट हो गए थे। यही वह मुशीर है जिसने हाल ही में जामिआ मिल्लिया इस्लामिया का इतिहास लिखा है। उससे ज़्यादा किसको अहसास होना चाहिए था बौद्धिक स्वतंत्रता और जामिआ की रिवायत का? सर्वसम्मति से हुआ फैसला! क्या तर्क़ है यह? और अगर वाकई यह फैसला सर्वसम्मति से पारित हुआ तो वह तो ख़ासतौर से शर्मनाक है। किस तरह के लोग जामिआ की निरणायक समितियों में बैठते हैं कि उमें से किसी भी ऐसे प्रस्ताव के विरोध का विवेक और साहस नहीं था? और अगर यह फैसला सर्वसम्मति से पारित नहीं हुआ तो उपकुलपति मुशीरुल हसन के बारे में क्या सोचा जाए? जिस तरह मैंने मुशीर से बात करना ज़रूरी समझा इस सिलसिले में, उसी तरह मैंने कुछ और लोगों से भी बात की जो जामिआ से वाबस्ता हैं। जो कहानी उभर कर आई वह कुछ इस तरह है। जामिआ की शिषा संकाय के डीन, प्रोफेसर मुहम्मद मियां ने यह प्रसताव मजलिसे तालीमी (एकेडेमिक काउंसिल) के सामने रखा। बहस के दौरान कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। ख़ुद उपकुलपति ने कहा कि ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा। जब इस बाबत कोई फैसला नहीं हो सकता तो उपकुलपति को अधिकार दे दिया गया कि वे जो मुनासिब समझें करें। मजलिसे तालीमी की इस मीटिंग के बाद उपकुलपति को यह प्रस्ताव मुनासिब लगा और उन्होंने उसे मजलिसे मुंतजमा (इग्जेक्यूटिव काउंसिल) के सामने रखा जहाँ सर्वसम्मति से वह पारित हुआ। इस ब्योरे की सत्यता का दावा तो मैं नहीं कर सकता, पर यह विश्वसनीय लगता है। इसकी विश्वसनीयता इसलिए भी है कि यह मुशीर दावे को, कि फैसला 'यूनैनिमस' था, झूठ से तकनीकी स्तर पर निकलने का रास्ता देता-सा लगता है। यानी कि मजलिसे तालीमी में प्रस्ताव के विरोध में तो लोग बोले, वे ख़ुद बोले, पर मजलिसे का फैसला सर्वसम्मति से था कि फैसला उपकुलपति महोदय पर छोड़ दिया जाए। जब से मैंने उन्हें जाना, इन चालीस-पैंतालीस सालों में जामिआ और मुशीर दोनों ही बहुत बदले हैं। इस सिलसिले के शुरुआती दौर का एक वाकया याद आता है। प्रोफेसर नूरुल हसन हमारे इतिहास विभाग में आए थे। मंत्री नहीं बने थे तब। राज्यसभा में आ गए थे। भाषण के बाद हम चंद लोगों के साथ चाय पीते-पीते बोले, 'हमारे बदकिस्मती यह है कि हमें इंदिरा गांधी को वोट देना पड़ता है।' नूरुल हसन की बदकिस्मती थमी नहीं। सत्ता के दरवाजे खोलती रही उनके लिए। बदकिस्मती का मलाल मिटा कर कुछ कारगर करने का अहसास भी, संभव है, दिला दिया हो उन्हें। मुशीर की बद किस्मती है कि वे उपकुलपति हैं जामिआ के। इदारे को तरक्की की राह पर ले जाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता उन्हें। एक भी मिसाल जामिआ के लंबे इतिहास में कि कोई उपकुलपति इतना पैसा लाया हो और खोले हों उसने इतने नए केंद्र और इतने नए विभाग? वे जानते थे कि मुहम्मद मियां का मंत्री महोदय को सम्मानित करने का, इस बेहयाई से सम्मानित करने का, प्रस्ताव उचित नहीं है। उन्होंने, जितना संभव था उनकी नाजुक स्थिति में, प्रस्ताव का विरोध भी किया। पर क्या करते वे जब, उनके कहने के बावजूद कि ऐसा करना मुनासिब नहीं है, मजलिसे तालीमी ने फैसला उनके कंधों पर डाल दिया? अगर वे उस प्रस्ताव को निरस्त कर देते तो इसकी ख़बर तो भाई लोग पहुँचा ही देते मंत्री महोदय तक। तब क्या होता? गरज यह कि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं था सिवाय मुहम्मद मियां के प्रस्ताव को मजलिसे मुंतजमां में पेश करने के। और अफसोस कि वहाँ किसी ने चूं तक न की। फिर जो होना था होकर रहा। मुशीर स्वयं नहीं, पर उनके खैरख्वाह कहने लगे हैं कि उनको फंसाया गया है। सवाल उठता है कि कैसे फंसाए जा सकते थे वे? मान लीजिए कि मंत्री महोदय तक ख़बर पहुँचा भी दी जाती कि जामिआ का उपकुलपति तैयार नहीं था उनको इस तरह सम्मानित करने के लिए। तो क्या होता? क्या जामिआ को दिए 43करोड़ रुपए- या जो भी रकम रही हो- वापस ले लेता मानव संसाधन मंत्रालय? या जामिआ को भविष्य के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता? हाँ, जाती तौर पर, संभव है, मुशीर-मंत्री समीकरण कुछ गड़बड़ा जाता। असल बदकिस्मती यहीं पैदा होती है। अपने को महत्त्वपूर्ण, नतीजतन अपनी संस्था के लिए अनिवार्य, मानने वालों की नज़र में उनका जाती कुछ नहीं होता। उनकी हानि संस्था की हानि होती है। गरज यह कि मुशीर यह सोच ही नहीं सकते थे कि अर्जुन सिंह से उनके अपने समीकरण के गड़बड़ाने से उस संस्था का उपकार नहीं होगा जिसके वे प्रमुख हैं। इसलिए उन्होंने जो भी किया संस्था के हित में किया। यह सब मैं तंजन नहीं कह रहा। व्यंग्य बड़ी कठिन कला है। मुझे नहीं आती। मैं बस हैरान हूँ। कैसे हो जाता है संस्थाएँ जिनकी शानदार रिवायत हैं व्यक्ति जिनको, शायद अकारण ही नहीं, हम सराहते रहे, अपनी रीढ़ खो बैठते हैं? कैसे ऐसा अशोभनीय आचरण, जिसे किसी भी स्वस्थ समाज में केवल निंदनीय माना जा सकता है, व्यक्तियों और संस्थाओं के लिए घातक न होकर लाभदायक सिद्ध हो जाता है? न ही उनकी आत्म छवि धूमिल होती है। चूंकि संस्थाएँ व्यक्तियों द्वारा संचालित होती हैं तो व्यक्तियों पर ही ध्यान दें। सो यह भी चमत्कार ही है कि, कम से कम अपनी दृष्टि में, ये व्यक्ति कभी गलत नहीं होते। गलत करने समय भी वे सही होते हैं। उनका हर गलत काम किसी बड़े घ्येय के लिए होता है। ओछा बनना पड़ता है उन्हें महत् उद्देश्यों की सिद्धि के लिए। बोछे बन कर वे और ऊँचे जाते हैं। और जितने ऊँचे जाते हैं उतना ही बढ़ता है उनका सामर्थ्य और उनकी शक्ति। अंधे हैं वे जो देख नहीं पाते सीकरी का प्रताप! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070522/d73525ae/attachment.html From chandma1987 at gmail.com Tue May 22 16:08:17 2007 From: chandma1987 at gmail.com (chandma1987 at gmail.com) Date: Tue, 22 May 2007 16:08:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Jamiya Uraf Badla Hua Jamana- Message-ID: जामिआ उर्फ बदला हुआ जमाना सुधीर चंद्र जामिया मिल्लिया इस्लामिया और उसके उपकुलपति मुशीरुल हसन से मेरा पुराना संबंध है। जामिआ में मैंने अपनी पहली मुकम्मल नौकरी की। इतिहास विभाग में लेक्चर की हैसियत से तकरीबन पंद्रह साल। उस समय जामिआ के उपकुलपति थे प्रोफेसर मुहम्मद मुजीब। निहायत शायस्ता, संभ्रांत शख़्स। इतिहास, दर्शन और साहित्य में पगे हुए। पुराने खानदानी रईस। पर समानता और प्रजातंत्र के सच्चे पक्षधर। मुजी साहब जामिआ के पर्याय थे। जामिआ जानी ही जाती थी उनके और डॉक्टर जाकिर हुसैन के नाम से उस वक़्त। बाद में मुजीब साहब का नाम तिरोहित होने लगा। आज जामिआ जानी जा रही है प्रोफेसर मुशीरुल हसन के नाम से। अगर मुजीब साहब या जाकिर साहब इस जामिआ में आ सकते तो उनका भाव कुछ वैसा ही होता जैसा सुदामा का द्वारका से अपनी नगरिया में लौटने पर हुआ था। ये रौनक, ये चमक-दमक, ये वैभव। और वे दिन जब, पहली तारीख़ को भूल जाइए, कितनी बार महीनों बाद तनख्वाह मिलती थी। बड़ी तकलीफ़ होती थी उस वक्त। वे चाहे दोस्त हों या दुकानदार, उधार देने वाले उधार लेने वाले का आत्म-सम्मान हमेशा तो नहीं बनाए रख सकते। और जामिआ भले ही सुदामा रही हो उस वक्त भी, राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान रहे अपने रवैय के चलते, केंद्र सरकार कृष्ण नहीं बन पाई थी उसके प्रति। नतीजतन, जामिआ को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्ज़ा तो दूर, सामान्य विश्विद्यालय की मान्यता भी नहीं मिली थी। उसे 'डीम्मड यूनिवर्सिटी' की श्रेणी में डाला गया था जिसका असल में अर्थ था 'डूम्ड यूनिवर्सिटी'। आज जामिआ केंद्रीय विश्वविद्यालय है। देश में बदलते राजनीतिक समीकरण ने केंद्र सरकार को कृष्ण बना दिया है इस सुदामा के प्रति। देर से और किसी भी संकीर्ण हिसाब-किताब के कारण सही, जामिआ जैसे ऐतिहासिक महत्त्व के इदारे के दिन बदले यह अच्छा ही हुआ। पर इन बदलते दिनों ने जामिआ में जो बदलाब पैदा किया वह एक स्तर पर घातक सिद्ध हुआ। सत्ता से नजदीकी और लाभ की लालसा ने उसे याचक की मानसिकता दे दी। वरना क्यों सामान्य बौद्धिक परंपरा, शिष्टाचार और मर्यादा की अवहेलना कर जामिआ परिसर के किसी रास्ते का नाम शाह राहे अर्जुन सिंह रखा जाता और अर्जुन सिंह सेंटर फॉर डिस्टेंस ऐंड ओपन लर्निंग की स्थापना की जाती? मैं मानना चाहूँगा कि अब भी स्थिति इतनी नहीं बिगड़ी है कि बुद्धिजीवियों या सामान्य लोगों को यह समझाना पड़े है कि जामिआ में जो हुआ वह ठीक नहीं है। या कि क्यों वह ठीक नहीं है। या कि चाटुकारिता और दरबारगीरी का इस हद तक आ जाना न केवल शिक्षा के लिए, बल्कि प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए ख़तरे की आख़िरी घंटी है। क्यों इस बुरे वक्त में याद आ रहे हैं अंधे सूरदास? संतन को कहा सीकरी सों काम। उम्मीद है कुछ बचे हैं अंधे अभी समाज में। बुरे वक्त की बात पर मुशीरुल हसन से हुई अपनी बात भी बता दूँ। मुशीर को मैं तब जानता हूँ जब उनके पिता, प्रोफेसर मुहीब्बुल हसन, जामिआ में इतिहास विभाग के अध्यक्ष थे। निहायत नेकदिल इंसान। मुशीर ख़ुद उस वक्त अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में पढ़ रहे थे। धीरे-धीरे मेरे संबंध उनसे उस तरह के बन गए जिनको आमतौर पर दोस्ती कहा जाता है। प्रगाढ़ और अंतरंग नहीं, पर दोस्त। लगा इस मसले पर मुशीर से बात कर लेनी चाहिए। कितना ही यकीन क्यों न हो कि जो कुछ हुआ है सरासर गलत और निंदनीय है, पता तो कर लें कि उपकुलपति की हैसियत से मुशीर को क्या कहना है। हो सकता है, कुछ हो जो हम जैसों की समझ में नहीं आ रहा। मोबाइल पर फ़ोन किया तो पुराने खुलूस से मुशीर का 'आदाब' सुनाई पड़ा। मैंने पूछा, भाई यह अर्जुन सिंह को लेकर क्या हो गया जामिआ में। जवाब में शुरू के 'क्यों क्या हो गया' के बाद मुझे बताया गया कि यह 'यूनैनिमस' फैसला था, एक डीन ने यह प्रस्ताव रखा और सर्वसम्मति से उसको मान लिया गया। मैंने कहा, ज़ाहिर है वक्त बदल रहा है। जवाब मिला, नहीं, वक्त नहीं बदल रहा है। वक्त वही है। बस जामिआ का वक्त बदल रहा है। अब मिनिस्ट्री जामिआ की ओर तवज्जो देती है। ख़राब मन और ख़राब हो गया। यह वह मुशीर है जिसके समर्थन में सैटनिक वर्सेज को लेकर हुए कांड में देश भर के तमाम सोचने-समझने वाले लोग एकजुट हो गए थे। यही वह मुशीर है जिसने हाल ही में जामिआ मिल्लिया इस्लामिया का इतिहास लिखा है। उससे ज़्यादा किसको अहसास होना चाहिए था बौद्धिक स्वतंत्रता और जामिआ की रिवायत का? सर्वसम्मति से हुआ फैसला! क्या तर्क़ है यह? और अगर वाकई यह फैसला सर्वसम्मति से पारित हुआ तो वह तो ख़ासतौर से शर्मनाक है। किस तरह के लोग जामिआ की निरणायक समितियों में बैठते हैं कि उमें से किसी भी ऐसे प्रस्ताव के विरोध का विवेक और साहस नहीं था? और अगर यह फैसला सर्वसम्मति से पारित नहीं हुआ तो उपकुलपति मुशीरुल हसन के बारे में क्या सोचा जाए? जिस तरह मैंने मुशीर से बात करना ज़रूरी समझा इस सिलसिले में, उसी तरह मैंने कुछ और लोगों से भी बात की जो जामिआ से वाबस्ता हैं। जो कहानी उभर कर आई वह कुछ इस तरह है। जामिआ की शिषा संकाय के डीन, प्रोफेसर मुहम्मद मियां ने यह प्रसताव मजलिसे तालीमी (एकेडेमिक काउंसिल) के सामने रखा। बहस के दौरान कुछ लोगों ने इसका विरोध किया। ख़ुद उपकुलपति ने कहा कि ऐसा करना मुनासिब नहीं होगा। जब इस बाबत कोई फैसला नहीं हो सकता तो उपकुलपति को अधिकार दे दिया गया कि वे जो मुनासिब समझें करें। मजलिसे तालीमी की इस मीटिंग के बाद उपकुलपति को यह प्रस्ताव मुनासिब लगा और उन्होंने उसे मजलिसे मुंतजमा (इग्जेक्यूटिव काउंसिल) के सामने रखा जहाँ सर्वसम्मति से वह पारित हुआ। इस ब्योरे की सत्यता का दावा तो मैं नहीं कर सकता, पर यह विश्वसनीय लगता है। इसकी विश्वसनीयता इसलिए भी है कि यह मुशीर दावे को, कि फैसला 'यूनैनिमस' था, झूठ से तकनीकी स्तर पर निकलने का रास्ता देता-सा लगता है। यानी कि मजलिसे तालीमी में प्रस्ताव के विरोध में तो लोग बोले, वे ख़ुद बोले, पर मजलिसे का फैसला सर्वसम्मति से था कि फैसला उपकुलपति महोदय पर छोड़ दिया जाए। जब से मैंने उन्हें जाना, इन चालीस-पैंतालीस सालों में जामिआ और मुशीर दोनों ही बहुत बदले हैं। इस सिलसिले के शुरुआती दौर का एक वाकया याद आता है। प्रोफेसर नूरुल हसन हमारे इतिहास विभाग में आए थे। मंत्री नहीं बने थे तब। राज्यसभा में आ गए थे। भाषण के बाद हम चंद लोगों के साथ चाय पीते-पीते बोले, 'हमारे बदकिस्मती यह है कि हमें इंदिरा गांधी को वोट देना पड़ता है।' नूरुल हसन की बदकिस्मती थमी नहीं। सत्ता के दरवाजे खोलती रही उनके लिए। बदकिस्मती का मलाल मिटा कर कुछ कारगर करने का अहसास भी, संभव है, दिला दिया हो उन्हें। मुशीर की बद किस्मती है कि वे उपकुलपति हैं जामिआ के। इदारे को तरक्की की राह पर ले जाने के लिए क्या कुछ नहीं करना पड़ता उन्हें। एक भी मिसाल जामिआ के लंबे इतिहास में कि कोई उपकुलपति इतना पैसा लाया हो और खोले हों उसने इतने नए केंद्र और इतने नए विभाग? वे जानते थे कि मुहम्मद मियां का मंत्री महोदय को सम्मानित करने का, इस बेहयाई से सम्मानित करने का, प्रस्ताव उचित नहीं है। उन्होंने, जितना संभव था उनकी नाजुक स्थिति में, प्रस्ताव का विरोध भी किया। पर क्या करते वे जब, उनके कहने के बावजूद कि ऐसा करना मुनासिब नहीं है, मजलिसे तालीमी ने फैसला उनके कंधों पर डाल दिया? अगर वे उस प्रस्ताव को निरस्त कर देते तो इसकी ख़बर तो भाई लोग पहुँचा ही देते मंत्री महोदय तक। तब क्या होता? गरज यह कि उनके पास कोई विकल्प ही नहीं था सिवाय मुहम्मद मियां के प्रस्ताव को मजलिसे मुंतजमां में पेश करने के। और अफसोस कि वहाँ किसी ने चूं तक न की। फिर जो होना था होकर रहा। मुशीर स्वयं नहीं, पर उनके खैरख्वाह कहने लगे हैं कि उनको फंसाया गया है। सवाल उठता है कि कैसे फंसाए जा सकते थे वे? मान लीजिए कि मंत्री महोदय तक ख़बर पहुँचा भी दी जाती कि जामिआ का उपकुलपति तैयार नहीं था उनको इस तरह सम्मानित करने के लिए। तो क्या होता? क्या जामिआ को दिए 43करोड़ रुपए- या जो भी रकम रही हो- वापस ले लेता मानव संसाधन मंत्रालय? या जामिआ को भविष्य के लिए ब्लैकलिस्ट कर दिया जाता? हाँ, जाती तौर पर, संभव है, मुशीर-मंत्री समीकरण कुछ गड़बड़ा जाता। असल बदकिस्मती यहीं पैदा होती है। अपने को महत्त्वपूर्ण, नतीजतन अपनी संस्था के लिए अनिवार्य, मानने वालों की नज़र में उनका जाती कुछ नहीं होता। उनकी हानि संस्था की हानि होती है। गरज यह कि मुशीर यह सोच ही नहीं सकते थे कि अर्जुन सिंह से उनके अपने समीकरण के गड़बड़ाने से उस संस्था का उपकार नहीं होगा जिसके वे प्रमुख हैं। इसलिए उन्होंने जो भी किया संस्था के हित में किया। यह सब मैं तंजन नहीं कह रहा। व्यंग्य बड़ी कठिन कला है। मुझे नहीं आती। मैं बस हैरान हूँ। कैसे हो जाता है संस्थाएँ जिनकी शानदार रिवायत हैं व्यक्ति जिनको, शायद अकारण ही नहीं, हम सराहते रहे, अपनी रीढ़ खो बैठते हैं? कैसे ऐसा अशोभनीय आचरण, जिसे किसी भी स्वस्थ समाज में केवल निंदनीय माना जा सकता है, व्यक्तियों और संस्थाओं के लिए घातक न होकर लाभदायक सिद्ध हो जाता है? न ही उनकी आत्म छवि धूमिल होती है। चूंकि संस्थाएँ व्यक्तियों द्वारा संचालित होती हैं तो व्यक्तियों पर ही ध्यान दें। सो यह भी चमत्कार ही है कि, कम से कम अपनी दृष्टि में, ये व्यक्ति कभी गलत नहीं होते। गलत करने समय भी वे सही होते हैं। उनका हर गलत काम किसी बड़े घ्येय के लिए होता है। ओछा बनना पड़ता है उन्हें महत् उद्देश्यों की सिद्धि के लिए। बोछे बन कर वे और ऊँचे जाते हैं। और जितने ऊँचे जाते हैं उतना ही बढ़ता है उनका सामर्थ्य और उनकी शक्ति। अंधे हैं वे जो देख नहीं पाते सीकरी का प्रताप! जनसत्ता, दिल्ली , 20 मई 2007 From shveta at sarai.net Tue May 22 23:59:15 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Tue, 22 May 2007 23:59:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= In-Reply-To: References: Message-ID: <4653367B.3070808@sarai.net> Dear Zaigham, Apni kahani ke rishte mein "phuhad" ko behti naak wale nadan bacche ki chhavi dena - yeh bada hi interesting twist raha :- ) Khair, shukriya, aap ne bata to diya ki kahani ke peechhe soch yeh hai ki shramik varg mein aurat apne ghar se "urhari" ho nikle aur bina shadi kisi ke saath rahe, aisi aurat ki koi soch nahin aur uska hashar yun hota hai. Iske vipreet empirical evidence dene se ap ke is yakeen mein farq ki gunjayish nahin; ap ka apni jigyasa se utpann vishayon par kahani likhna rukwana bhi mere - na shayad kisi aur ke - interests mein nahin :- ) Waise, kahani ko sochne mein "stree aur purush ka farq mita den", jaisa ki ap ne apne mail mein karne ka aagrah kiya hai, to is tarah ki kahani likhna ap ke liye mumkin bhi nahin. Iska stage hi stree aur purush ka farq hai. Yeh kahani aap do aadmiyon ya do auraton ke beech rishte ke liye likh nahin sakte the. salaam shveta ps: Waise, clarify kar dun, aap ne ek dum galat samjha ki meri apeksha hai ki do logon ko qaidi bana ke, buri tarah se chabuk se peetne ke baad ek chhote se ek pinjre mein daal kar, har baar ek doosre ki chhuwan se utpan peeda ko dekh kar phir gaur farmaya jaaye aur unke zariye "human nature and the curious behaviour of men" par meditate kiya jaaye. Aap samajh nahin paaye, koi baat nahin, ki behas to kahani mein aisa hone par thi :- ) (With very sincere apologies to Raoul Vaneigem!) zaigham imam wrote: > श्‍वेता जी, > > मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते हैं ऐसा नहीं होता > है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास (अन्‍यथा न > लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। अकसर उन्‍हें इस > टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया गूंगी है। ठीक > बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार सराय के > शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था कि नरेस का > कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे क्‍या समझा > जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो हिस्‍सा काट लेना > चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। > > क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं आता > > ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या परभतिया। कहानी > तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों की कोई > सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं मानूंगा। परभतिया > की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई सबकुछ वहीं > खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की देह नरेस की > जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के बीच का सेक्‍स वीभत्‍स > रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है नहीं। आगे पीछे या > किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को क्रूर क्‍यों समझती > है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार है। परभतिया > को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी बनाने को आतुर > रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। आपने पढा, नरेस उसे > मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ कुछ कर सकता है। अंत > में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई बंदूक गलती से चल > जाए, किसी की जान चली जाए। / > > कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी मर्द के भाग जाए > तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ एक ऐसा > रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके उत्‍तर ने > मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये प्रीति जिंटा की फ‍िल्‍म > > /''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी झेलझाल कर कुंवारी > मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ रही है बाहर निकली > तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे वहीं पहुंचाएगा > जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। > > आप लिखती हैं। > > सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि > जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे /रूबरू/ हो पाने की अपनी क्षमता को हम > ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। रुबरु हो पाने की क्षमता > बहुत कुछ है। /जरुरी/ नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए उसमें झांककर देखा > जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात है। फ‍िर > भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं के कोठे पर शराब > पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के /नाम/ पर धोखे को भी मैं आक्षेप > समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें मैं धोखा देने की > कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर क्‍या संवाद ऐसे > हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन क्‍या खाक, मंटो का > मुकाबला कर सकते हैं। > > रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर भी कहानी है > तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में चलता है। बेहद खूबसूरत > सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल न हो। हर > कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। > > वालेकुल अस्‍सलाम > > जैगम > > ------------------------- > > > On 5/21/07, *Shveta* < shveta at sarai.net > wrote: > > श्‍वेता जी ने कहा था > > > > डीयर ज़ैगम, सभी, > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स वर्कर्ज़ के साथ काम > करती > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना था कि सर्वे के > दौरान > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी बार करने के बाद > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते हैं? किस-किस > तरह की > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से और हर बार पूछने पर > उनका > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, जगह और हिंसा के > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ इनका ज़रा भी > अंदेशा > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा देता हुआ > पाते हैं। > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका मैंने हिंदी > अनुवाद पढ़ा > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला पाने के भाषाई साधन > क्या > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह कर आप > सुनने-सुनाने के > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता है। लेकिन चलिये, > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, और बात को > थोड़ा > आगे बढ़ाया जाए। > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना "वीभस्त" हो सकता है, हम > इस से > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" बनाना संभव है, > इसके बड़े > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे रूबरू हो इसका उल्लेख > करने के > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर पर भी सोच बहुत > गहरी है, > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" (डोमेस्टिक > स्पेस) अनछुई > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख (कहानी) खड़ा है। > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, हालांकि उनकी > मंशा पाठक > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे की अपनी सोच को > छोड़ कर > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या बदलाव, क्या > चुप्पी > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से फिंसल जाती है, ये > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी हैं कहना > अपूर्णता में > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना ही "एक > अत्याचारी > और एक बेचारी" लेखक। > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के बारे में आपकी > जिग्यासा होना > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के प्रेमी" जैसी क्षमता > भी अपने > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की कोशिश के विपरीत, > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी है। उसकी कोई सोच > नहीं है। > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी उसके ज़हन में > आती है > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता है। पर लेख इन > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > सलाम > श्वेता > > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > From beingred at gmail.com Wed May 23 01:24:30 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 23 May 2007 01:24:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkjw==?= =?utf-8?b?4KSVIOCkheCkuOCkueCkv+Ckt+CljeCko+ClgSDgpLjgpK7gpL7gpJwg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkueCkv+CkuOCljeCkuOCkviDgpKjgpLngpYDgpIIg4KS5?= =?utf-8?b?4KWLIOCkuOCkleCkpOClhw==?= Message-ID: <363092e30705221254x479ed98el1440185bb16b22f8@mail.gmail.com> हम एक असहिष्णु समाज का हिस्सा नहीं हो सकते आजकल देश में आप कुछ भी कहिए तो लोगों की भावनाएं आहत हो जाती हैं और न जाने दंड विधान की कितनी धाराओं का उल्लंघन हो जाता है. अभी कुछ ही दिन हुए हैं जब एक कलाकार द्वारा बनायी गयी कुछ तसवीरों पर संघी गुंडों ने उत्पात मचाया था. अभी नामवर जी द्वारा पंत साहित्य और सदानंद शाही द्वारा तुलसी सहित्य में कूडा़ नज़र आने पर उसी तरह लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं जिस तरह गुजरात में मुसलमानों के कत्लेआम को दिखाये जाने पर भगवाधारियों की होती हैं. हमारे देश का नरेंद्र मोदीकरण बढ़ रहा है और ऐसी जगहें लगातार कम होती जा रही हैं जहां बैठ कर कोई कलाकार, फ़िल्मकार, लेखक अपना काम कर सके. और अदालतें इस मोदीकरण में एक अहम हिस्सेदार बन कर सामने आयी हैं, चाहे वह हुसैन का मामला हो या नामवर सिंह का. देखने में ये सभी मामले अलग-अलग भले लगें पर सभी जुडे़ हुए हैं. इस मुद्दे पर हाशिया पर रविभूषण जी का लेखआ चुका है. आगे पटना के कई लेखकों-पत्रकारों का नज़रिया हम सामने रखेंगे. आज हम कलाकारों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर बीबीसी के विनोद वर्मा का आलेखदे रहे हैं, सभार- (इस टिप्पणी के साथ कि विनोद जी को जिन दलों से बडी़ मासूम-सी उम्मीदें हैं, वे दल खुद ऐसी ही हरकतें करते रहे हैं, इसलिए हमें उनसे कोई उम्मीद नहीं है) यह बीबीसी हिंदी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है. हमें इन मुद्दों पर बहस करनी ही होगी क्योंकि बकौल भाई अविनाश, 'हम एक असहिष्णु समाज के हिस्से नहीं हो सकते.' अभिव्यक्ति की एकतरफ़ा स्वतंत्रता विनोद वर्मा वड़ोदरा के सुप्रसिद्ध कला संस्थान में जो विवाद खड़ा हुआ है उसने कई पुराने सवालों को कुरेद कर एक बार फिर सतह पर ला दिया है. इस सवाल ने पहले की ही तरह बुद्धिजीवियों, लेखकों, बड़े समाचार पत्रों और अन्य प्रगतिशील ताक़तों को एकसाथ ला दिया है. और कहना न होगा कि कट्टरपंथी ताक़तें हमेशा की तरह एकजुट हैं और सारे विरोधों को अनदेखा, अनसुना करते हुए वही कर रही हैं जो वे कहना-करना चाहती हैं. इस बार का विवाद देवी-देवताओं के कथित अश्लील चित्र बनाने को लेकर शुरु हुआ. इसके बाद भारतीय संस्कृति के तथाकथित रखवालों ने वही सब किया जो वे करते आए हैं. पेंटिंग बनाने वाले छात्र को गिरफ़्तार कर लिया गया और कला विभाग के डीन को निलंबित कर दिया गया. संयोग भर नहीं है कि विवाद गुजरात में हुआ. नरेंद्र मोदी शासित गुजरात में ऐसे विवादों और उसकी ऐसी परिणति पर अब किसी को आश्चर्य भी नहीं होता. आश्चर्य तो यह होता है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में जहाँ सरकारें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का राग अलापते नहीं थकतीं, वहाँ यह यह सब होता है. भारतीय जनता पार्टी, बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना जैसे कुछ संगठनों ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को अपना एकाधिकार मान लिया है. पिछले कुछ बरसों में उन्होंने बार-बार इसे साबित भी किया है. उनकी मर्ज़ी के बिना न कोई चित्रकार ऐसे चित्र बना सकता है जो उनको न जँचे. न कोई ऐसा नाटक कर सकता है जो उनको न रुचे. कोई फ़िल्मकार फ़िल्म नहीं बना सकता. बना भी ले तो उसे प्रदर्शित नहीं कर सकता. जैसा कि गुजरात में 'परज़ानिया' फ़िल्म के साथ हुआ. एमएफ़ हुसैन जैसे देश के प्रतिष्ठित कलाकार के साथ पिछले कुछ सालों में जो कुछ घटा है वह भारत के सांस्कृतिक और लोकतांत्रिक इतिहास में एक काला अध्याय है. आश्चर्य नहीं होता जब मोदी सरकार के संरक्षण में यह सब होता है. उनका एजेंडा साफ़ है. आश्चर्य तब भी नहीं होता जब देश की समाजवादी पार्टियाँ चुप रहती हैं क्योंकि वे सत्ता पाने के लिए भाजपा के पहलू में ही बैठी हुई हैं. खजुराहो के मंदिर अपने समय के समाज की सहिष्णुता के प्रतीक हैं.आश्यर्च होता है जब वामपंथी दल और कांग्रेस पार्टी इस मामले में अपने प्रवक्ताओं के भरोसे काम चलाने की कोशिश करते हैं और ऐसी घटनाओं का विरोध केवल बयानों तक सीमित होकर रह जाता है. आश्चर्य तब भी होता है जब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का गृहमंत्रालय हुसैन की पेंटिंग्स को लेकर उन्हें नोटिस भेजता है और जवाबतलब करता है. कलाकारों को संयम की सलाह देना अपनी जगह सही है. दूसरों की भावनाओं को आहत न करने का मशविरा भी ठीक है. कलाकारों की स्वतंत्रता की भी सीमाएँ हैं. लेकिन सलाह-मशविरे की जगह सबक सिखाने की इच्छा अपने आपमें घातक है. सवाल यह है कि क्या विरोध का वही एक रास्ता है जो विश्वहिंदू परिषद, शिवसेना और बजरंग दल के कार्यालयों में तय होता है? यह ठीक है कि भारत में कलाकारों और साहित्यकारों को अपनी अपेक्षित जगह पाने के लिए अब संघर्ष करना पड़ता है और आख़िर में वे हाशिए पर ही नज़र आते हैं. लेकिन उन्हें धकेलकर हाशिए से भी बाहर कर देने की कोशिश अपने आपमें अश्लीलता है. अच्छा ही है कि वात्सायन ने बीते ज़माने में कामसूत्र की रचना कर ली, चंदेलों ने एक हज़ार साल पहले खजुराहो के मंदिर बनवा दिए और राजा नरसिंहदेव ने तेरहवीं शताब्दी में कोणार्क में मिथुन मूर्तियाँ लगवाने की हिम्मत कर ली. अगर इन संगठनों को इतिहास में जाने की अनुमति हो तो वे वात्सायन का मुँह काला कर दें और चंदेलों को सरेआम फाँसी देकर खजुराहो के मंदिरों को तहस-नहस कर दें. वैसे जो कुछ ये कर रहे हैं वह भारत की सांस्कृतिक विरासत पर कालिख़ पोतने से कोई कम भी नहीं है. मूल पोस्ट के लिए हाशिया पर जायें. -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070523/0aadc659/attachment.html From vijaykumarthakur at gmail.com Wed May 23 14:18:24 2007 From: vijaykumarthakur at gmail.com (vijay kumar) Date: Wed, 23 May 2007 14:18:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS34KSv?= In-Reply-To: <6a32f8f0705210657m386017e8nef3f7e6549a41293@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0705210657m386017e8nef3f7e6549a41293@mail.gmail.com> Message-ID: ब्रजेश जी, आपने बहुत अच्छा मुद्दा उठाया कि दूरदर्शन भी अब डॉक्युमेंटरी फिल्मों से मुह चुरा रही है जो किसी भी दृष्टि से अच्छा नहीं है। समाज में घटित कई लोमहर्षक घटनाएं बिना सबके दिलों पर दस्तक दिए ऐसे ही चुप हो जाती है जिससे समाज भविष्य के लिए यथोचित शिक्षा नहीं ले पाता जबकि ये डॉक्युमेंटरी फिल्में लोगों को ऐसी वास्तविकता से रु-ब-रु कराता है, तब ही संचार के इस क्रांति के सकारात्मक उपयोग का एक और पहलू का स्पर्श होता है। पुनः आपका यह लिखना बिल्कुल सही है कि " ....जरूरी है कि दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है तो सैकड़ों फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। जबतक समाज अपनी समस्याओं का अध्ययन नहीं करेगा , तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी फिल्में अपनी महती भूमिका निभा सकती है। " आपका, विजय. On 21/05/07, brajesh kumar jha wrote: > > > > *लघु सिनेमा पर बात* > > सुरुचिपूर्ण कार्यक्रम के अभाव में शहराती जीवन जीने वाले लोग दूरदर्शन को कब > का > > भुला चुके हैं। अब इनके बच्चे क्यों याद रखें ? इनके लिए तो बाजार ने बड़ा > विकल्प > > छोड़ रखा है। कोई ताज्जुब की बात नहीं होगी , जब ग्रामीन बच्चों के साथ हमलोग > > > दूरदर्शन के चैनलों का नाम तक याद न रखें ! उसके बाद तो यह सरकारी दादागिरी > के > > बूते ही रुपया कमा पाएगा। ऐसी परिस्थितियां अचानक नहीं बनती हैं। कई वजहें > घुल-मिल > > कर नए माहौल पैदा करती हैं। ऐसे में यहां एक बड़ी वजह होगी , अच्छी > डाक्यूमेंटरी और > > लघु फिल्म का इन चैनलों पर नहीं दिखाया जाना। > > दूरदर्शन के प्रति अनायास उत्पन्न हुआ वर्षों पुराना राग कमोबेश अब भी बना > हुआ है। > > पहले दूरदर्शन पर डाक्यूमेंटरी और लघु फिल्मों के लिए समय सीमा तय की गई थी। > > इसे नियमित रूप से दिखलाया जाता था। लेकिन , अब ऐसी फिल्में दिखाना दूरदर्शन > को > > रास नहीं आ रहा है। जबकि, अमेरिका और यूरोप में अब भी टीवी पर डाक्यूमेंटरी > फिल्में > > दिखाई जाती हैं। भारत में चल रहे निजी चैनलों से हम इसकी उम्मीद नहीं करते > हैं। > > उनका काम तो बस चर्चा करना भर रह गया है। अमरिका में दिखाई गई माइकल मूर > > की डाक्यूमेंटरी फारनहाईट 9 /11, की यहां के चैनलों पर खूब चर्चा हुई। लेकिन > किसी भारतीय > > चैनलों ने इसकी सफलता से सबक लेना उचित नहीं समझा। यहां दूरदर्शन के पास > डाक्यूमेंटरी > > और लघु फिल्म के लिए कोई तय समय नहीं है। > > हमारे नए-पुराने फिल्मकार साल दर साल डाक्यूमेंटरी पर डाक्यूमेंटरी बनाते जा > रहे हैं। पैसे की > > कमी, ऐसी फिल्मों के प्रदर्शन के लिए मंचों का अभाव और घटते दर्शक वर्ग के > बावजूद लोग अब > > भी फिल्में बना रहे हैं। महत्वपूर्ण सामाजिक सरोकार से जुड़े मुद्दों पर बहस > चला रहे हैं। > > वहां विचार-विमर्श को जीवित रखे हुए हैं। इनकी कोशिश बेकार न हो, इसके लिए > जरूरी है कि > > दूरदर्शन पर ऐसी फिल्मों को दिखाने का एक समय तय हो। यदि यह मुमकिन नहीं है > तो सैकड़ों > > फिल्मकारों की सृजनात्मकता का कोई मोल नहीं है। जबतक समाज अपनी समस्याओं का > अध्ययन > > नहीं करेगा, तबतक उसका समाधान निकाल पाना मुश्किल है। इस अध्ययन में एसी > फिल्में अपनी > > महती भूमिका निभा सकती है। उदाहरण के तौर पर- यदि सुहासिनी मुले और तपन बोस > द्वारा बनाई > > गई डाक्यूमेंट्री 'एन इंडियन स्टोरी ' को हम सभी देख चुके होते तो 'गंगाजल 'फिल्म का यथार्थ हमारी > > समझ में स्वत : आ जाता। दरअसल, यह डाक्यूमेंट्री भागलपुर में कैदियों की आखें > फोड़ देने की घटना पर आधारित है। स्थितियों को समझने में हम इसका फायदा उठा > सकते थे। > > खैर, इतने के बावजूद अब भी इक्का-दुक्का लोगों से उम्मीद है। देखें आगे हम > कितना हदतोड़ी बन पाते हैं। > > > ब्रजेश झा 09350975445 > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Vijay Kumar Thakur Agriculture Consultant Samtech InfoNet Ltd. 4 & 14, DSIDC, Computer complex, Scheme I Okhla Industrial Area, Phase - II, New Delhi-20 Office 91-11-55682488,93,99 Ext-315, 301,313 E-mail: vijay.thakur at samtechindia.com http://vijay-safar.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070523/271c8212/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Wed May 23 23:17:22 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Wed, 23 May 2007 23:17:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= In-Reply-To: <4653367B.3070808@sarai.net> References: <4653367B.3070808@sarai.net> Message-ID: श्‍वेता जी, अजीब बात है कि आप-आप बार-बार कहानी को मेरी जिज्ञासा से उत्‍पन्‍न विषय कह रही हैं। मैं रविकांत जी को भेजे गए पहले ही मेल में साफ कर चुका हूं कि ये किस्‍सा सौ फीसदी असली है। ये दीवान पर है। मैंने उस महिला को देखा नहीं, सुना जरुर था। जहां तक सोच वाली बात है तो इस पर बडी लंबी बहस हो सकती है। आप अपनी सोच से बहस करेंगीं मैं अपनी। और हां, सबूत हर चीज के होते हैं कामयाबी के भी नाकामयाबी के भी। लिहाजा इस बहस में पडना बेकार है कि आप क्‍या साबित कर सकती हैं और मैं क्‍या साबित कर सकता हूं। स्‍त्री और पुरुष के बीच का फर्क मिटाना या मिटना संभव नहीं है। ये भी आपकी सोच है। मेरी सोच के मुताबिक परिस्‍ि‍थतियां इंसान को अलग अलग एक्‍शन या फ‍िर रिएक्‍शन के लिए बाध्‍य करती हैं। इस मामले में भी ऐसा है। परभतिया या नरेस से ज्‍यादा मैं उस परि‍स्थिति को दोषी मानता हूं जो इस तरह की घटना को अंजाम देने के लिए बनी। जहां तक फूहडता को नादान बच्‍चे का जामा पहनाने का आपका व्‍यंग्‍य है तो यहां आप ठीक तरीके से नहीं समझीं। मैंने कहा बच्‍चा खूबसूरत है लेकिन उसका आवरण फूहड है, जैसे कि कहानी में, विषय सीरियस हैं लेकिन शब्‍द अश्‍लील हैं गंदे हैं। आप के कुछ और सवालों के जवाब नीचे के मेल में हैं। आपके एक समर्थक ने लिखा। उनका सवाल मेरा जवाब दोंनो है। बहरहाल, आपसे इतना जरुर कहना चाहूंगा हूं कि कहानी कोई गणित नहीं है। जिससे दो गुणे दो चार ही होते हैं। यहां दो गुणे दो कुछ भी हो सकता है। एक बार फ‍िर शुक्रिया जैगम ज़ैगम, मैं श्‍वेता की बात से सहमत हूं। आपकी कहानी में एक ऐसा चित्र है, जो सामाजिक दारुण का कोई बड़ा स्‍केच नहीं खींचता। नरेस की क्रूरता हिंदी-उर्दू कहानियों में भरी पड़ी है। आपकी कहानी हमें अखिलेश की यक्षगान कहानी की याद दिलाती है। क्‍या आपलोगों ने वो कहानी पढ़ी है? कहानी के साथ दिक्कत यही है। कुछ भी कहकर उसे खारिज किया जा सकता है। जैसा की श्वेता जी मंटो को लेकर सवाल उठाती हैं। लेकिन आप बताईए कौन सी किताब में लिखा है कि कहानी में सामाजिक दारुणता जरुर होनी चाहिए? कहानी निहायत व्यक्तिगत भी हो सकती है, जैसे कि मैंने लिखी। मेरा मकसद सिर्फ परभतिया की कहानी को सामने लाना था। आप क्या समझते हैं क्या लिखने वाला नहीं जानता की वो क्या निकाल के लाया है? ये एक सच्ची घटना थी। मैं अगर चाहता तो इसी घटना को आभिजात्य वर्ग की कहानी बनाकर परोसता। फिर सबको मजा आता। कीमती अंत:वस्त्र, एसी कमरा और देह का खेल। यही सबकुछ होता मगर न वीभत्स लगता न लिजलिजा। लेकिन मैंने परभतिया को चुना। रही बात कहानी के यक्षगान जैसा होने की तो मैंने अभी तक अखिलेश को नहीं पढा। आप कहते हैं कि हिंदू उर्दू की कहानियां नरेसों की क्रूरता से भरी पडी हैं। बिल्कुल सही है। लेकिन ये भी सही है कि सबके परभतिया और नरेस अलग-अलग हैं। शुक्रिया जैगम On 5/22/07, Shveta wrote: > > > Dear Zaigham, > > Apni kahani ke rishte mein "phuhad" ko behti naak wale nadan bacche ki > chhavi dena - yeh bada hi interesting twist raha :- ) Khair, shukriya, > aap ne bata to diya ki kahani ke peechhe soch yeh hai ki shramik varg > mein aurat apne ghar se "urhari" ho nikle aur bina shadi kisi ke saath > rahe, aisi aurat ki koi soch nahin aur uska hashar yun hota hai. Iske > vipreet empirical evidence dene se ap ke is yakeen mein farq ki > gunjayish nahin; ap ka apni jigyasa se utpann vishayon par kahani likhna > rukwana bhi mere - na shayad kisi aur ke - interests mein nahin :- ) > > Waise, kahani ko sochne mein "stree aur purush ka farq mita den", jaisa > ki ap ne apne mail mein karne ka aagrah kiya hai, to is tarah ki kahani > likhna ap ke liye mumkin bhi nahin. Iska stage hi stree aur purush ka > farq hai. Yeh kahani aap do aadmiyon ya do auraton ke beech rishte ke > liye likh nahin sakte the. > > salaam > shveta > > ps: Waise, clarify kar dun, aap ne ek dum galat samjha ki meri apeksha > hai ki do logon ko qaidi bana ke, buri tarah se chabuk se peetne ke baad > ek chhote se ek pinjre mein daal kar, har baar ek doosre ki chhuwan se > utpan peeda ko dekh kar phir gaur farmaya jaaye aur unke zariye "human > nature and the curious behaviour of men" par meditate kiya jaaye. Aap > samajh nahin paaye, koi baat nahin, ki behas to kahani mein aisa hone > par thi :- ) (With very sincere apologies to Raoul Vaneigem!) > > > > zaigham imam wrote: > > श्‍वेता जी, > > > > मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते हैं ऐसा > नहीं होता > > है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास (अन्‍यथा > न > > लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। अकसर > उन्‍हें इस > > टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया गूंगी है। > ठीक > > बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार सराय के > > शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था कि > नरेस का > > कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे क्‍या > समझा > > जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो हिस्‍सा > काट लेना > > चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। > > > > क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं आता > > > > ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या परभतिया। > कहानी > > तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों की कोई > > सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं > मानूंगा। परभतिया > > की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई सबकुछ > वहीं > > खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की देह > नरेस की > > जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के बीच का > सेक्‍स वीभत्‍स > > रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है नहीं। आगे > पीछे या > > किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को क्रूर > क्‍यों समझती > > है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार है। > परभतिया > > को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी बनाने > को आतुर > > रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। आपने > पढा, नरेस उसे > > मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ कुछ कर > सकता है। अंत > > में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई बंदूक > गलती से चल > > जाए, किसी की जान चली जाए। / > > > > कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी मर्द के > भाग जाए > > तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ एक > ऐसा > > रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके > उत्‍तर ने > > मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये प्रीति > जिंटा की फ‍िल्‍म > > > > /''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी झेलझाल > कर कुंवारी > > मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ रही है > बाहर निकली > > तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे वहीं > पहुंचाएगा > > जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। > > > > आप लिखती हैं। > > > > सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने > सूख गए हैं कि > > जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे /रूबरू/ हो पाने की अपनी > क्षमता को हम > > ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। रुबरु हो > पाने की क्षमता > > बहुत कुछ है। /जरुरी/ नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए उसमें > झांककर देखा > > जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात है। फ‍िर > > भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं के > कोठे पर शराब > > पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के /नाम/ पर धोखे को भी > मैं आक्षेप > > समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें मैं > धोखा देने की > > कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर क्‍या > संवाद ऐसे > > हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन क्‍या खाक, > मंटो का > > मुकाबला कर सकते हैं। > > > > रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर भी > कहानी है > > तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में चलता है। > बेहद खूबसूरत > > सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल न हो। > हर > > कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। > > > > वालेकुल अस्‍सलाम > > > > जैगम > > > > ------------------------- > > > > > > On 5/21/07, *Shveta* < shveta at sarai.net > > wrote: > > > > श्‍वेता जी ने कहा था > > > > > > > > डीयर ज़ैगम, सभी, > > > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स > वर्कर्ज़ के साथ काम > > करती > > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना था कि > सर्वे के > > दौरान > > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी बार > करने के बाद > > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते हैं? > किस-किस > > तरह की > > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से और > हर बार पूछने पर > > उनका > > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, जगह > और हिंसा के > > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ > इनका ज़रा भी > > अंदेशा > > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा > देता हुआ > > पाते हैं। > > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका > मैंने हिंदी > > अनुवाद पढ़ा > > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला पाने के > भाषाई साधन > > क्या > > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह कर > आप > > सुनने-सुनाने के > > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता है। > लेकिन चलिये, > > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, और > बात को > > थोड़ा > > आगे बढ़ाया जाए। > > > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना "वीभस्त" हो > सकता है, हम > > इस से > > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" > बनाना संभव है, > > इसके बड़े > > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे रूबरू हो > इसका उल्लेख > > करने के > > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर पर भी > सोच बहुत > > गहरी है, > > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" > (डोमेस्टिक > > स्पेस) अनछुई > > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख > (कहानी) खड़ा है। > > > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, > हालांकि उनकी > > मंशा पाठक > > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे की > अपनी सोच को > > छोड़ कर > > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या > बदलाव, क्या > > चुप्पी > > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से > फिंसल जाती है, ये > > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी हैं > कहना > > अपूर्णता में > > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना ही > "एक > > अत्याचारी > > और एक बेचारी" लेखक। > > > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के बारे > में आपकी > > जिग्यासा होना > > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के प्रेमी" > जैसी क्षमता > > भी अपने > > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की कोशिश > के विपरीत, > > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी है। > उसकी कोई सोच > > नहीं है। > > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी > उसके ज़हन में > > आती है > > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता है। > पर लेख इन > > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > > > सलाम > > श्वेता > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070523/1f209300/attachment.html From avinashonly at gmail.com Wed May 23 23:56:35 2007 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Wed, 23 May 2007 19:26:35 +0100 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= In-Reply-To: References: <4653367B.3070808@sarai.net> Message-ID: <85de31b90705231126y4b4ecca5hbbad0688d68308cf@mail.gmail.com> ज़ैगम जी, श्‍वेता की बात अंतत: सही है। आप मान लें। आपकी बात में अब अपनी कहानी को सही साबित करने के लिए गैर ज़रूरी तर्क आने लगे हैं। आपने कहानी लिख दी, अब लोग अपनी बात कहेंगे। हर बात पर रचनाकार की सफाई ज़रूरी नहीं होती। हां, एक और बात... कोई भी किस्‍सा और सच्‍चा हादसा भी सौ फीसदी असली नहीं होता। और आप सबूतों पर जिस तरह की बात कर रहे हैं, वह भी बेकार है। हमारे मुल्‍क की अदालतों का हश्र सबूतों की अस्तित्‍वहीनता का ही नतीजा है। वैसे आपकी कहानी सतही विवरणों का एक साधारण सा स्‍केच है। इसका जवाब मुझे नहीं चाहिए, क्‍योंकि उस जवाब में आप यही साबित करेंगे कि कहानी कैसे यथार्थ का नया नक्‍शा तैयार कर रही है। जबकि मैं ये मान ही नहीं सकता। शुक्रिया। अविनाश। On 5/23/07, zaigham imam wrote: > > > श्‍वेता जी, > > अजीब बात है कि आप-आप बार-बार कहानी को मेरी जिज्ञासा से उत्‍पन्‍न विषय कह रही > हैं। मैं रविकांत जी को भेजे गए पहले ही मेल में साफ कर चुका हूं कि ये किस्‍सा > सौ फीसदी असली है। ये दीवान पर है। मैंने उस महिला को देखा नहीं, सुना जरुर था। > जहां तक सोच वाली बात है तो इस पर बडी लंबी बहस हो सकती है। आप अपनी सोच से बहस > करेंगीं मैं अपनी। और हां, सबूत हर चीज के होते हैं कामयाबी के भी नाकामयाबी के > भी। लिहाजा इस बहस में पडना बेकार है कि आप क्‍या साबित कर सकती हैं और मैं > क्‍या साबित कर सकता हूं। स्‍त्री और पुरुष के बीच का फर्क मिटाना या मिटना > संभव नहीं है। ये भी आपकी सोच है। मेरी सोच के मुताबिक परिस्‍ि‍थतियां इंसान को > अलग अलग एक्‍शन या फ‍िर रिएक्‍शन के लिए बाध्‍य करती हैं। इस मामले में भी ऐसा > है। परभतिया या नरेस से ज्‍यादा मैं उस परि‍स्थिति को दोषी मानता हूं जो इस तरह > की घटना को अंजाम देने के लिए बनी। जहां तक फूहडता को नादान बच्‍चे का जामा > पहनाने का आपका व्‍यंग्‍य है तो यहां आप ठीक तरीके से नहीं समझीं। मैंने कहा > बच्‍चा खूबसूरत है लेकिन उसका आवरण फूहड है, जैसे कि कहानी में , विषय सीरियस > हैं लेकिन शब्‍द अश्‍लील हैं गंदे हैं। आप के कुछ और सवालों के जवाब नीचे के > मेल में हैं। आपके एक समर्थक ने लिखा। उनका सवाल मेरा जवाब दोंनो है। बहरहाल, > आपसे इतना जरुर कहना चाहूंगा हूं कि कहानी कोई गणित नहीं है। जिससे दो गुणे दो > चार ही होते हैं। यहां दो गुणे दो कुछ भी हो सकता है। > > एक बार फ‍िर शुक्रिया > > जैगम > > > > ज़ैगम, > मैं श्‍वेता की बात से सहमत हूं। आपकी कहानी में एक ऐसा चित्र है, जो > सामाजिक दारुण का कोई बड़ा स्‍केच नहीं खींचता। नरेस की क्रूरता > हिंदी-उर्दू कहानियों में भरी पड़ी है। आपकी कहानी हमें अखिलेश की > यक्षगान कहानी की याद दिलाती है। क्‍या आपलोगों ने वो कहानी पढ़ी है ? > > > > > कहानीके साथ दिक्कत यही है। कुछ भी कहकर उसे खारिज किया जा सकता है। जैसा की > श्वेता जी मंटो को लेकर सवाल उठाती हैं। लेकिन आप बताईए कौन सी किताब में लिखा > है कि कहानी में सामाजिक दारुणता जरुर होनी चाहिए? कहानी निहायत व्यक्तिगत भी > हो सकती है, जैसे कि मैंने लिखी। मेरा मकसद सिर्फ परभतिया की कहानी को सामने > लाना था। आप क्या समझते हैं क्या लिखने वाला नहीं जानता की वो क्या निकाल के > लाया है? ये एक सच्ची घटना थी। मैं अगर चाहता तो इसी घटना को आभिजात्य वर्ग की > कहानी बनाकर परोसता। फिर सबको मजा आता। कीमती अंत :वस्त्र, एसी कमरा और देह का > खेल। यही सबकुछ होता मगर न वीभत्स लगता न लिजलिजा। लेकिन मैंने परभतिया को > चुना। रही बात कहानी के यक्षगान जैसा होने की तो मैंने अभी तक अखिलेश को नहीं > पढा। आप कहते हैं कि हिंदू उर्दू की कहानियां नरेसों की क्रूरता से भरी पडी > हैं। बिल्कुल सही है। लेकिन ये भी सही है कि सबके परभतिया और नरेस अलग-अलग हैं। > > शुक्रिया > > जैगम > > > > > > > On 5/22/07, Shveta wrote: > > > > Dear Zaigham, > > > > Apni kahani ke rishte mein "phuhad" ko behti naak wale nadan bacche ki > > chhavi dena - yeh bada hi interesting twist raha :- ) Khair, shukriya, > > aap ne bata to diya ki kahani ke peechhe soch yeh hai ki shramik varg > > mein aurat apne ghar se "urhari" ho nikle aur bina shadi kisi ke saath > > rahe, aisi aurat ki koi soch nahin aur uska hashar yun hota hai. Iske > > vipreet empirical evidence dene se ap ke is yakeen mein farq ki > > gunjayish nahin; ap ka apni jigyasa se utpann vishayon par kahani likhna > > rukwana bhi mere - na shayad kisi aur ke - interests mein nahin :- ) > > > > Waise, kahani ko sochne mein "stree aur purush ka farq mita den", jaisa > > ki ap ne apne mail mein karne ka aagrah kiya hai, to is tarah ki kahani > > likhna ap ke liye mumkin bhi nahin. Iska stage hi stree aur purush ka > > farq hai. Yeh kahani aap do aadmiyon ya do auraton ke beech rishte ke > > liye likh nahin sakte the. > > > > salaam > > shveta > > > > ps: Waise, clarify kar dun, aap ne ek dum galat samjha ki meri apeksha > > hai ki do logon ko qaidi bana ke, buri tarah se chabuk se peetne ke baad > > ek chhote se ek pinjre mein daal kar, har baar ek doosre ki chhuwan se > > utpan peeda ko dekh kar phir gaur farmaya jaaye aur unke zariye "human > > nature and the curious behaviour of men" par meditate kiya jaaye. Aap > > samajh nahin paaye, koi baat nahin, ki behas to kahani mein aisa hone > > par thi :- ) (With very sincere apologies to Raoul Vaneigem!) > > > > > > > > zaigham imam wrote: > > > श्‍वेता जी, > > > > > > मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते हैं ऐसा > नहीं होता > > > है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास (अन्‍यथा > न > > > लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। अकसर > उन्‍हें इस > > > टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया गूंगी है। > ठीक > > > बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार सराय के > > > शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था कि > नरेस का > > > कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे क्‍या > समझा > > > जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो हिस्‍सा > काट लेना > > > चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। > > > > > > क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं आता > > > > > > ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या परभतिया। > कहानी > > > तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों की कोई > > > सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं > मानूंगा। परभतिया > > > की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई सबकुछ > वहीं > > > खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की देह > नरेस की > > > जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के बीच का > सेक्‍स वीभत्‍स > > > रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है नहीं। आगे > पीछे या > > > किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को क्रूर > क्‍यों समझती > > > है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार है। > परभतिया > > > को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी बनाने > को आतुर > > > रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। आपने > पढा, नरेस उसे > > > मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ कुछ कर > सकता है। अंत > > > में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई बंदूक > गलती से चल > > > जाए, किसी की जान चली जाए। / > > > > > > कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी मर्द के > भाग जाए > > > तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ एक > ऐसा > > > रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके > उत्‍तर ने > > > मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये प्रीति > जिंटा की फ‍िल्‍म > > > > > > /''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी झेलझाल > कर कुंवारी > > > मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ रही है > बाहर निकली > > > तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे वहीं > पहुंचाएगा > > > जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। > > > > > > आप लिखती हैं। > > > > > > सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने > सूख गए हैं कि > > > जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे /रूबरू/ हो पाने की अपनी > क्षमता को हम > > > ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। रुबरु हो > पाने की क्षमता > > > बहुत कुछ है। /जरुरी/ नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए उसमें > झांककर देखा > > > जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात है। फ‍िर > > > भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं के > कोठे पर शराब > > > पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के /नाम/ पर धोखे को भी > मैं आक्षेप > > > समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें मैं > धोखा देने की > > > कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर क्‍या > संवाद ऐसे > > > हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन क्‍या खाक, > मंटो का > > > मुकाबला कर सकते हैं। > > > > > > रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर भी > कहानी है > > > तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में चलता है। > बेहद खूबसूरत > > > सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल न हो। > हर > > > कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। > > > > > > वालेकुल अस्‍सलाम > > > > > > जैगम > > > > > > ------------------------- > > > > > > > > > On 5/21/07, *Shveta* < shveta at sarai.net > > wrote: > > > > > > श्‍वेता जी ने कहा था > > > > > > > > > > > > डीयर ज़ैगम, सभी, > > > > > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स > वर्कर्ज़ के साथ काम > > > करती > > > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना था कि > सर्वे के > > > दौरान > > > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी बार > करने के बाद > > > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते हैं? > किस-किस > > > तरह की > > > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से और > हर बार पूछने पर > > > उनका > > > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, जगह > और हिंसा के > > > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि जहाँ > इनका ज़रा भी > > > अंदेशा > > > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को धोखा > देता हुआ > > > पाते हैं। > > > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका > मैंने हिंदी > > > अनुवाद पढ़ा > > > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला पाने के > भाषाई साधन > > > क्या > > > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह कर > आप > > > सुनने-सुनाने के > > > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता है। > लेकिन चलिये, > > > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, और > बात को > > > थोड़ा > > > आगे बढ़ाया जाए। > > > > > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना "वीभस्त" हो > सकता है, हम > > > इस से > > > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" > बनाना संभव है, > > > इसके बड़े > > > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे रूबरू हो > इसका उल्लेख > > > करने के > > > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर पर भी > सोच बहुत > > > गहरी है, > > > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" > (डोमेस्टिक > > > स्पेस) अनछुई > > > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख > (कहानी) खड़ा है। > > > > > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, > हालांकि उनकी > > > मंशा पाठक > > > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे की > अपनी सोच को > > > छोड़ कर > > > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या > बदलाव, क्या > > > चुप्पी > > > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से > फिंसल जाती है, ये > > > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी हैं > कहना > > > अपूर्णता में > > > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना ही > "एक > > > अत्याचारी > > > और एक बेचारी" लेखक। > > > > > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के बारे > में आपकी > > > जिग्यासा होना > > > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के प्रेमी" > जैसी क्षमता > > > भी अपने > > > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की कोशिश > के विपरीत, > > > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी है। > उसकी कोई सोच > > > नहीं है। > > > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी > उसके ज़हन में > > > आती है > > > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता है। > पर लेख इन > > > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > > > > > सलाम > > > श्वेता > > > > > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > > > > > _______________________________________________ > > > Deewan mailing list > > > Deewan at mail.sarai.net > > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From beingred at gmail.com Thu May 24 00:55:40 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 24 May 2007 00:55:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSH4KSPLCA=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkheCkguCkp+Clh+CksOClhyDgpLjgpK7gpK8g4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkrOCkvuCkueCksCDgpKjgpL/gpJXgpLLgpYfgpII=?= Message-ID: <363092e30705231225q7ef97eb6yef5f6622b2e0ca5@mail.gmail.com> आइए, हम अंधेरे समय से बाहर निकलें हम अंधेरे समय में रह रहे हैं. यहां बोलने, सोचने, लिखने, फ़िल्में बनाने और किसी के बारे में कोई राय व्यक्त करने पर भी लगभग अघोषित पाबंदी है. हमारे सामने एक तरफ़ छत्ती़सगढ़ की मिसाल है जहां मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उग्रवादियों से सांठ-गांठ होने के एक बेहद ढीले-ढाले आरोप में गिरफ़्तार कर लिया जाता है तो दूसरी ओर नामवर सिंह जैसे वरिष्ठ आलोचक को इसलिए अदालत में तलब किया जाता है कि उन्होंने एक घटिया और अप्रासंगिक हो चुके कवि की असलियत बता दी. हम उसी देश में रह रहे हैं जहां पेंटरों को मनमाने तरीके से तबाह करने की हर कोशिश की जाती है और फ़िल्मों के लिए एक पूरे के पूरे राज्य के दरवाजे बंद कर दिये जाते हैं. हम नहीं जानते कि किसी एक देश में कब एक साथ इस तरह का आतंक कायम किया गया हो. और वह भी आज़ादी और लोकतंत्र की बहरी कर कर देनेवाली नारेबाजी के साथ. और ऐसे में घुघूती बासूती जी का आग्रहहै कि हम जब इस अंधे समय के खिलाफ़ बोलें तो दुनिया के इतिहास के हर अंधे समय के खिलाफ़ भी बोलें. हम नहीं जानते कि कोई कैसे अंधे समय को अंधे समय से अलग कर सकता है. हम जब एक अंधेरे के खिलाफ़ बोलते हैं तो हमारी आवाज़ दुनिया की तमाम अंधेरी ताकतों और तारीख के तमाम स्याह पन्नों को खिलाफ़ भी होती है. और जब वे ऐसा कोई आग्रह करती हैं तो हमें उनकी नीयत पर संदेह करना चाहिए. हमें बहस के समकालीन मोर्चों को भोथडा़ होने से बचाना चाहिए. जारी बहस को आगे बढाते हुए नामवर सिंह-पंत मुद्दे और उसके संदर्भ में लेखकों की आज़ादी पर हम आज दो लेखको के विचार दे रहे हैं. इनमें से एक तो अरुंधति राय के हाल ही में आये एक इंटरव्यू का अंश है जो हाशिया पर भी प्रकाशित किया गया था. हम कल भी हाज़िर होंगे पटना के कुछ बडे लेखकों के साथ. अरुंधति राय एक लेखक अगर जनसंघर्षों में अपनी जान दे सकता है, तो अपनी लेखकीय आजादी के लिए भी संघर्ष कर सकता है. लेखकों में रेडिकल, फासिस्ट और हरामी, हर तरह के लेखक शामिल हैं. ऐसे लेखक हैं जो परमाणु अस्त्रों का विरोध करते हैं, तो ऐसे भी हैं जो बीजेपी शासनों के दौरान न्यूक्लियर टेस्ट का समर्थन करने के लिए बीजेपी के साथ खड़े हो गये थे. दूसरे विश्वयुद्ध में ऐसे तथाक थित संस्कृतिकर्मी भी थे जो यहूदियों के सफाये को जर्मनी के उत्थान के लिए सही ठहराते थे और हिटलर के पक्ष में डॉक्यूमेंटरीज भी तैयार की गयी थीं. कुछ दिन पहले सलमान रुश्दी को एक मैग्जीन में अमरीकी झंडे में लिपटे दिखाया गया था. हिंदुस्तान में आज गुजरात में भयानक हालात हैं, लेकिन कितने गुजराती लेखक हैं जो नरेंद्र मोदी के खिलाफ खुल कर लिख रहे हैं? वहां तो मुसलमानों के घेटो तैयार हो रहे हैं और उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है. उन्हें खुलेआम मारो तो लोगों का ध्यान जाता है, लोगों से गालियां सुननी पड़ती हैं. लेकिन अब तो वहां ऐसा माहौल बना दिया गया है कि मुसलमान खुद ही अपना कारोबार समेट कर, घर-बार बेच कर चुपचाप भागने की तैयारी कर रहे हैं. संतोष सहर भाकपा माले से जुडे़ और एक बेहद खामोश लेखक हैं. हंस, समकालीन जनमत, संप्रति पथ और फ़िलहाल जैसी पत्रिकाओं में छपने के बावजूद वे लिखने के मामले में बहुत सुस्त रहते हैं. वे जसम से जुडे़ रहे हैं. संतोष सहर नामवर सिंह ने सुमित्रानंदन पंत के बारे में जो टिप्पणी कि उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. ये बातें कहीं लिखित रूप में हों तब बात दूसरी है. क्योंकि ऐसा माना जा सकता है कि वे उनके विचार हैं. लेकिन सार्वजनिक स्थलों पर ऐसा बोलना विवादों में रहने की मानसिकता को दरसाता है. जब उनसे पूछा जायेगा तो हो सकता है वे अपने कहे से मुकर जायें. हिंदी साहित्य की अपनी एक लंबी परंपरा रही है. इसमें हर तरह की चीजें हैं. कुछ जनपक्षीय हैं तो कुछ क्रांतिकारी भी. किसी भी लेखक या साहित्यकार का निरंतर विकास होता ही है. इसलिए पहले लिखित साहित्य को कूड़ा कहना कहीं से भी ठीक नहीं है. फिर चाहे वह पंत जी के संदर्भ में बात कही गयी हो या तुलसीदास के बारे में. हां कम या ज्यादा के पैमाने पर इसका मूल्यांकन किया जा सकता है. सुमित्रानंदन पंत छायावाद के पहले लेखक माने जाते हैं और छायावाद का संबंध हिंदी साहित्य में प्रगतिशील साहित्य से बिलकुल स्पष्ट रूप सें जुड़ा हुआ है. छायावाद के चार स्तंभ कहे जाने में प्रसाद सबसे पहले पायदान पर आते हैं. यह भी सच है कि छायावाद की सबसे कमजोर कड़ी पंत जी ही माने जाते हैं. लेकि न इसका मतलब कहीं से भी यह नहीं निकाला जा सकता है कि उनका शुरुआती साहित्य कूड़ा था. साहित्य में इन बातों पर बहस की जा सकती है. इसके जरिये सही विचारों को भी सामने लाया जा सकता है. अदालत का हस्तक्षेप इसमें सही जान नहीं पड़ता है. साहित्य की चीजों को साहित्य के अंदर ही सुलझा लेना चाहिए. बाहरी हस्तक्षेप बेमानी है. क्योंकि इससे कोई ठोस हल नहीं निकलेगा. आज जरूरत है साहित्य के सम्यक विवेचन की. नामवर सिंह की आदतों में शामिल है कि वे कहीं भी किसी विषय पर टिप्पणी कर देते हैं. साहित्य का मूल्यांकन करना तो उन्होंने लगभग छोड़ दिया है. वे खुद ही कहते हैं कि आजकल की कविता उनकी समझ से बाहर की चीज है. समकालीन कविताएं उन्हें रास नहीं आती हैं. इसलिए भी उन्होंने कविताओं के मूल्यांकन से अपना पल्ला झाड़ लिया है. मेरे कहने का मतलब है कि ऐसा कह कर उन्होंने खुद ही अपने लिए सीमाएं निर्धारित कर ली हैं. इसलिए अच्छा तो यही होगा कि वे अपनी सीमा में ही रहें और उल्टी-सीधी टिप्पणी से बचें. -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070524/11fa2264/attachment.html From beingred at gmail.com Fri May 25 02:08:00 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 25 May 2007 02:08:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWHIOCkhQ==?= =?utf-8?b?4KSsIOCkleCkv+CkuOCkleClhyDgpLLgpL/gpI8g4KSG4KSv4KWH4KSC?= =?utf-8?b?4KSX4KWHID8=?= Message-ID: <363092e30705241338s1948f3e3o8d67ecd531be66fb@mail.gmail.com> वे अब किसके लिए आयेंगे ? हम पहले भी बता चुके हैं, किस तरह देश में मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की आवाज़ दबायी जा रही है. डा विनायक सेन की गिरफ़्तारी के बाद छत्तीसगढ़ पीयूसीएल के अध्यक्ष राजेंद्र सायल को भी गिरफ़्तार कर लिया गया है. बहुचर्चित शंकर गुहा नियोगी हत्याकांड मामले में अदालत के फैसले पर टिप्पणी करने के आरोप में उनको आज पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। लगभग नौ साल पहले की गई इस टिप्पणी पर जबलपुर हाईकोर्ट ने उन्हें छ: माह की सजा सुनाई थी। श्री सायल द्वारा सुप्रीम कोर्ट में अपील करने पर सजा की अवधि कम कर एक सप्ताह तय कर दी गई। विस्तार से जानें देशबंधु पर. यहां हम डा विनायक सेन की गिरफ़्तारी पर देशबंधु में छपे अनिल चमड़िया के आलेखको पुनर्प्रस्तुत कर रहे हैं. हम इस मुद्दे को भी नामवर सिंह, चंद्रमोहन, हुसेन आदि मामलों से अलग कर के नहीं देख रहे. डॉ. विनायक सेन का सिलसिला नहीं रूका तो... अनिल चमड़िया दिल्ली के प्रेस क्लब में पूर्व न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर, वकील प्रशांत भूषण, लेखिका अरूंधति राय, जेपी आंदोलन के नेता अख्तर हुसैन, विधायक डॉ. सुनीलम और दूसरे कई लोग मीडिया वालों से यह अनुरोध कर रहे थे कि छत्तीसगढ़ में पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) के उपाध्यक्ष डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी की सूचना छापने की कृपा करें। उन्हें चौदह मई को बिलासपुर में जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 और गैर कानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 के तहत गिरफ्तार किया गया था। डॉ. विनायक सेन पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में डॉक्टर थे। लेकिन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के नेता शंकर गुहा नियोगी के आंदोलन के प्रभाव में आकर वे आदिवासियों के बीच वहां जाकर काम करने लगे। कामगारों द्वारा चलाए जाने वाला शहीद अस्पताल खड़ा किया। इन दिनों खासतौर से यह देखा जाता है कि मीडिया के पत्रकारों की मानसकिता कामगारों की तरह नहीं रही। वे अधिकारियों की तरह सोचते और हुक्म देते हैं। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के संबंध में भी उन्हाेंने पुलिस के आरोपों की तरफ से सोचना शुरू किया। इसीलिए उनके भीतर लोकतंत्र के मूल्य बोध को जगाने की कोशिश करनी पड़ रही है। एक व्यापारी पीयूष गुहा ने पुलिस द्वारा खुद को गैरकानूनी तरीके से हिरासत में रखे जाने के दौरान यह बयान दिया है कि डॉ. विनायक सेन का माओवादियों से रिश्ता हैं। स्टिंग आपरेशन में फंसे छत्तीसगढ़ के एक सांसद संसद भवन में तो यह तक कह रहे थे कि उन्हें पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने बताया है कि उनके पास पक्के सबूत हैं। रायपुर जेल तक उड़ाने की योजना थी। इसीलिए एक बड़े नक्सलवादी को (संभवत: नारायण सन्याल) को वहां से बिलासपुर की जेल में भेज दिया गया है। पिछले पचास-साठ वर्षों में ऐसे न जाने कितने उदाहरण मिल सकते हैं जिसमें कि सरकार और पुलिस ने लोगों के लिए लड़ने वाले या लोकतंत्र के पक्ष में बोलने वालों के खिलाफ तरह-तरह के आरोपों में मुकदमें लादे हैं। कांग्रेस की सरकारों ने शासन के ढांचे को इस दिशा में मजबूत किया। इंदिरा गांधी तानाशाही तक पहुंच गईं। आपातकाल लगाया। देश के बडे-बड़े नेताओं को बड़ौदा डायनामाइट कांड में फंसाया था। सरकार अपने विरोधियों को पकड़वाने के बाद हमेशा ही कहती है कि उसके पास पुख्ता सबूत हैं। लेकिन इस देश में क्या कभी देश के किसी बुद्धिजीवी और सामाजिक कार्यकर्ता के खिलाफ पुख्ता सबूत साबित हो सकें? यहां इस बात से ज्यादा चिंता हो रही है कि सरकारी मशीनरियां तेजी से फासीवाद की तरफ बढ़ रही हैं। आपातकाल लगा तो विरोध हुआ। न्यायपालिका ने घुटने टेके। लेकिन मीडिया के कम से कम एक हिस्से ने तो लड़ाई लड़ी। कई पत्रकार जेल गए। संसदीय राजनीतिक पाटयों से लेकर नक्सलवादियों तक ने तानाशाही के खिलाफ एकजुटता दिखाई। लेकिन आपातकाल के बाद सत्ता मशीनरी ने दमन के साथ-साथ उसके विरोध की ताकतों को तरह-तरह से अलग-थलग किया और अब अमेरिकी शासन शैली को स्वीकृति मिलने के बाद तो वह आक्रमकता की स्थिति में आ गई है। मीडिया की पूरी मानसिकता इस तरह से तैयार की जा रही है कि वह सरकारी मशीनरी की तरह सोचे। वह लोकतंत्र का कोई सवाल ही नहीं खड़ा करें। सरकारी नीतियों की वजह से संघर्ष की परिस्थितियां खड़ी हो तो वह नीतियों के बजाय संघर्ष को विकास विरोधी बताने की मुहिम में शामिल हो। संघर्षों को राष्ट्र विरोधी तक करार करने के तर्कों में मददगार हो। शासन व्यवस्था के पास एक बड़ा हथियार पहले ही मौजूद है। किसी संघर्ष को हिंसक बताकर उसे कानून एवं व्यवस्था के समस्या के रूप में खड़ी करे। वह शांति की एकतरफा जिम्मेदारी स्थापित करने में कामयाब होती रही है। इस गणतांत्रिक ढांचे में यह भी किया गया है कि राय और केन्द्र की नीतियों को एक रूप करने के तरीके खोजे गए। छत्तीसगढ़ की सरकार जब दमन करे तो केन्द्र सरकार कानून एवं व्यवस्था को राय का विषय बता दे और जब छत्तीसगढ़ में कानून एवं व्यवस्था के नाम पर दमन की कार्रवाइयां चलाने के लिए फौज की जरूरत हो तो केन्द्र सरकार उसे अपना राष्ट्रीय और संवैधानिक कर्तव्य बताए। डॉ. विनायक सेन की गिरफ्तारी के बाद केन्द्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से एक प्रतिनिधिमंडल मिला तो उन्होंने कहा कि ये छत्तीसगढ़ का मामला है और वे केवल सरकार को लिखकर पूछ सकते हैं। प्रतिनिधिमंडल चाहें तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और न्यायालय में जा सकता है। देश का गृहमंत्री किन मामलों में लाचार दिखने लगा है? छत्तीसगढ़ एक ऐसा उदाहरण है जहां संसदीय लोकतंत्र में संस्थाओं के स्तर पर दिखने वाले भेद मिट गए हैं। छत्तीसगढ़ आदिवासियों के राय के रूप में अलग हुआ। आदिवासी विधायक बहुमत में चुनाव जीते लेकिन सरकार का नेतृत्व गैर आदिवासी करता है। भाजपा की सरकार है और सलवा-जुडूम कांग्रेस के नेतृत्व चलता में हैं। सलवा-जुडूम के जुर्मों के खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग चुप है। न्यायालय में इतिहासकार रामचन्द्र गुहा ने वहां की स्थितियां बयान की है। अनुभव रहा है कि सत्ता मशीनरी जिस संघर्ष को राष्ट्र विरोधी, विकास विरोधी और हिंसक के रूप में स्थापित करने के तर्कों को समाज के मध्य वर्ग तक ले जाने में सफल हो जा रहा है तो उसके खिलाफ तमाम संस्थाओं की राय एक सी बन जाती है। सरकारी मशीनरियों को कौन सा एक आक्रमक विचार संचालित कर रहा है? छत्तीसगढ़ में जन सुरक्षा विशेष कानून 2005 बना है, वह पोटा से भी ज्यादा दमनकारी है। लेकिन उसे लेकर कोई मतभेद छत्तीसगढ़ की दोनों सत्ताधारी पाटयों के बीच नहीं दिखा। दरअसल कांग्रेस और भाजपा की नीतियों में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। कांग्रेस ने जो दमनकारी प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया है, भाजपा उसका इस्तेमाल ही नहीं करना चाहती है बल्कि उसे और मजबूत करना चाहती है। कांग्रेस ने टाडा लगाया तो भाजपा ने पोटा लगाया। पोटा खत्म किया तो राष्ट्र की सुरक्षा के नाम पर गैरकानूनी गतिविधि रोधक कानून 1967 में उसके प्रावधानों को जोड़ दिया गया। दोनों ही पाटयों का सामाजिक, आथक और राजनीतिक आधार एक है। कांग्रेस के जमाने में जिस तरह से दलितों और आदिवासियों को नक्सलवादी के नाम पर मारा गया है उसी तरह से भाजपा शासित रायों में भी मारा गया है। छत्तीसगढ़ में सलवा-जुडूम की ज्यादतियों को लेकर देश के उन बड़े अधिकारियों एवं न्यायाधीशों ने कई कई रिपोटर्ें पेश की हैं जो भारत सरकार के महत्वपूर्ण ओहदे पर रह चुके हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में काम करने वाले प्रोफेसर्स, पत्रकारों, वकीलों ने बताया कि कैसे छत्तीसगढ़ में आदिवासी मारे जा रहे हैं। अमेरिका ने कहा था कि जो हमारे साथ नहीं है वह आतंकवाद के साथ है। छत्तीसगढ़ में इसी वाक्य को दोहराया गया कि जो सलवा-जुडूम के साथ नहीं है वो माओवादियों के साथ है। जब राजनैतिक सत्ता इस तरह से आक्रमक हो जाए तो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। यहां तो सरकार के साथ हां में हां नहीं मिलाने वाले सभी के सभी माओवादी माने जा सकते हैं। संसदीय लोकतंत्र का ढांचा इस तरह का समझा जाता रहा है कि लोकतांत्रिक सिद्धांतों और मूल्यों पर हमलों पर अंकुश लगाने की गुंजाइश रहती है। लेकिन अनुभव बताता है कि पूरा ढांचा एकरूप हो चुका है। ऐसी स्थितियों के लिए ही मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है। मीडिया भी जब सरकारी संस्थाओं की तरह सोचने लगे तो लोकतंत्र में लोग अपनी बात कहने के लिए कहां जा सकते हैं? जब लोकतंत्र ही नहीं बचेगा तो मीडिया अपनी ताकत को कैसे बचाकर रख सकेगा। लोकतंत्र एक सिद्धांत है और यह सोचना कि वह किसी मामले में तो लोकतंत्र की आवाज उठाएगा और किसी में नहीं तो वह गफलत में है। स्टार न्यूज के मुंबई दफ्तर पर हमले के बाद पिछले दिनों दिल्ली के प्रेस क्लब में हुई विरोध सभा में चंद ही लोग जमा हो सके। लोकतांत्रिक मूल्यों को बचाने के लिए पिछले वर्षों में जो कुछ हासिल किया उस पर तेजी से हमले हो रहे है। लोकतंत्र के मूल्यों पर हमले के लिए राष्ट्रवाद और शांति की आड़ ली जाती है। सत्ता मशीनरी बराबर इस किस्म की दुविधा पैदा करने की कोशिश करती है। राष्ट्र चाहिए या लोकतंत्र? लेकिन जागरूकता इसी में सिद्ध होती है कि वह दो में से एक के चुनाव करने के प्रश्न के तरीके को ही ध्वस्त कर दे। राष्ट्र अपनी व्यवस्था के लिए जाना जाता है। राष्ट्र की जब व्यवस्था ही लोकतांत्रिक नहीं होगी तो उसका क्या अर्थ रह जाता है? लगातार शांतिपूर्ण संघर्षों की उपेक्षा जानबूझकर की जा रही है। उन बुद्धिजीवियों को ठिकाने लगाने का है जो जन संघर्षों के साथ रहते हैं। छत्तीसगढ़ भारतीय समाज व्यवस्था की भविष्य की नीति की जमीन तैयार कर रहा है। देश का बड़ा हिस्सा आदिवासियों जैसा ही होता जा रहा है। यह सोचना कि वहां आदिवासी मारे जा रहे हैं, ऐसा नहीं है। आदिवासी जैसे हालात में रहने वाले लोग मारे जा रहे हैं। -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070525/17884b82/attachment.html From beingred at gmail.com Fri May 25 02:08:49 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 25 May 2007 02:08:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSc4KSw?= =?utf-8?b?4KS+4KSkIOCkrOCkqOCkpOCkviDgpLjgpL7gpLDgpL4g4KSm4KWH4KS2?= Message-ID: <363092e30705241338v3f6fee23p14a9e4cae6e9c604@mail.gmail.com> गुजरात बनता सारा देश जब-जब फ़ासीवाद समाज, कला और राजनीति को खरोंचने की कोशिश करता है, याद आती है पिकासो की गुएर्निका. यह आज भी गुजरातों और केसरिया फ़ासीवाद समेत सभी तरह के फ़ासीवाद के खिलाफ़ लडा़ई में हमारे लिए रोशनी की मीनार की तरह है. अपने समय के कई सवाल हमारे समय जवाब के इंतज़ार में हैं. क्या हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के बंधक समय में यों ही रहते रहेंगे? क्या इस समय से निकलने का रास्ता नहीं? क्या सारा देश इसी तरह गुजरात में बदलता रहेगा और हम अपने दड़बों में सिकुडे़ सहमे बैठे रहेंगे? क्या इस गुजरात का मुकाबला करने का समय अब नहीं आ गया है? क्या इस देश की बहुप्रचारित आज़ादी का यही मतलब रह गया है कि भगवाधारी अपना मध्ययुगीन कचडा़ हम पर उंडे़लते रहें, पूरे देश को एक भयावह मोदीयुग में धकेलते रहें और देश का पूरा ढांचा उसके आगे दंडवत हो जाये? जैसा अपूर्वानंद जीने सवाल उठाया है क्या आज गा़लिब होते, कबीर होते, मीरां होतीं तो हम उन्हें यों ही अदालतों में घसीटते और अदालतें यह तय करतीं कि गालिब कौन-सा दोहा लिखें और कौन जला दें, मीरां क्या गायें और क्या न गायें और गा़लिब की कौन-सी गज़ल आपत्तिजनक है? आप भले इससे इनकार करें, हम ठीक ऐसे ही दौर से गुज़र रहे हैं. और हमें अपने समय के इन सवालों से कतरा कर निकलने के बजाय उनसे जूझने की ज़रूरत है. तर्क और तरकश अपूर्वानंद क्या अब उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब परीक्षा भवनों में, अखबारों में संपादकों के कक्ष में, फिल्मों में सेट पर, गानों के स्टूडियो में ऐसे लोग बैठे रहेंगे जो लिखे जानेवाले उत्तरों, संपादक के लिए तैयार की जा रही रिपोर्ट, फिल्मों के दृश्यांकन और गानों के बोल की निर्माण के स्तर पर ही चौकसी करेंगे और उनमें काट-छांट करेंगे? या क्या वह समय पहले ही नहीं आ पहुंचा है? भारतीय न्याय व्यवथा की आरंभिक इकाइयों की निगाह में नामवर सिंह, एमएफ हुसेन और चंद्रमोहन एक मायने में समान हैं. अलग-अलग जगहों पर निचली अदालतों ने तीनों को ही अलग-अलग मामलों में भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए, 295ए के तहत मुकदमों में हाजिर होने का हुक्म सुनाया है. इन धाराओं का संबंध में ऐसे अपराध से है, जो विभिन्न समुदायों के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थल, निवास, जाति या समुदाय के आधार पर शत्रुता पैदा करने और सौहार्द बिगाड़ने की नीयत से और किसी समुदाय के धर्म या धार्मिक भावनाओं का अपमान करने के लिए जान-बूझ कर द्वेषपूर्ण कृत्य के रूप में किया गया हो. हुसेन पर कई शहरों की निचली अदालतों में इन धाराओं के तहत मुकदमे दर्ज हुए और हर जगह से उन्हें अदालत में पेश होने का हुक्म सुनाया गया. ध्यान देने की बात यह है कि इन धाराओं में वर्णित अपराधों की सुनवाई प्रथम श्रेणी मजिस्टेट द्वारा की जानी होती है और ये गैर-जमानती हैं. पुलिस को मामले की तहकीकात करनी ही होगी. विधिवेत्ता राजीव धवन के अनुसार ऐसे मामले में पुलिस को गिरफ्तार करने का हक है, लेकिन जमानत देने का अधिकार नहीं है. हालांकि गिरफ्तारी की अवधि साठ दिनों की है, लेकिन धवन के मुताबिक उस व्यक्ति को दिमागी, शारीरिक और आत्मिक नुकसान हो ही चुका होता है. 2006 के पहले ऐसे मामलों में आगे बढ़ने के पहले राज्य की अनुमति जरूरी होती थी. पर 2006 में उच्च्तम न्यायालय ने पैस्टर राजू बनाम कर्नाटक राज्य के मुकदमे में कर्नाटक उच्च न्यायालय के उस निर्णय को पलट दिया, जिसके हिसाब से तहकीकात के दौरान, पुलिस अभियुक्त को हिरासत में नहीं ले सकती. इसके चलते अब हुसेन हों या चंद्रमोहन या नामवर सिंह, गिरफ्तारी का खतरा तीनों पर है. हुसेन अब तक किसी मामले में गिरफ्तार नहीं हुए हैं, लेकिन पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा दिल्ली और मुंबई पुलिस को उनके खिलाफ मुनासिब कार्रवाई के आदेश देने के बाद यह खतरा उन पर बढ़ तो गया ही है. महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा के कला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र चंद्रमोहन को छह दिनों तक हिरासत में रहना पड़ा. नामवर सिंह को अभी बनारस के मजिस्ट्रेट ने अपने सामने हाजिर होने को कहा है. नामवर सिंह ने पिछले दिनों बनारस में आयोजित किसी गोष्ठी में सुमित्रानंदन पंत की एक चौथाई रचनाओं को कूड़ा कहा, ऐसा बताते हैं. इससे पंत जी के समर्थकों या उपासकों की भावनाओं को चोट पहुंची. जख्म इतना गहरा था कि वे अदालत तक नामवर सिंह के खिलाफ गुहार लगाने पहुंच गये. जिन्होंने भी इस लायक समझा कि मामला दर्ज किया जाये, वे निश्चय ही आहत भावनाओं के प्रति सहानुभूतिशील होंगे. न्यायिक प्रावधानों का इतने हास्यास्पद ढंग से दुरुपयोग भारत में सभ्य विचार-विमर्श को किस तरह के झटके दे सकता है, इसका अनुमान संबंधित न्यायिक अधिकारियों को शायद नहीं है. अमर्त्य सेन भारत को तर्क करनेवालों की परंपरा का देश कहते हैं. उनकी इस गर्वपूर्ण उक्ति पर पिछले सालों में जिम्मेदारी की जगह से होनेवाले ऐसे फैसलों की वजह से निश्चय ही सवालिया निशान लग गया है. चंद्रमोहन पर हमले के बाद हमलावर द्वारा ही की गयी शिकायत के बाद उसे गिरफ्तार कर लेना अत्यंत ही गंभीर घटना थी. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने ठीक ही सयाजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा को नोटिस जारी किया और पूरे मामले पर रिपोर्ट मांगी. कुछ लोग इसे केंद्रीय हस्तक्षेप के रूप में देखेंगे, लेकिन वडोदरा का मामला लितना कला और अभिव्यक्ति पर आक्रमण का नहीं था, उतना एक अकादेमिक संस्था का खुद को विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल जैसे आततायियों के सुपुर्द कर देने का था. प्रासंगिक प्रश्न यह है कि कला संकाय में होनेवाले इम्तहान में कौन-सा छात्र कौन-सी कृति प्रविष्टि के रूप में देने जा रहा है, यह खबर बाहर कैसे गयी? यह अधिकार क्या किसी को दिया जा सकता है कि वह परीक्षा कक्ष में घुस जाये? क्या इम्तहान में लिखे जाने या दिये जानेवाले उत्तरों पर परीक्षक के अलावा किसी को टिप्पणी करने का हक है? ये वे आरंभिक प्रश्न हैं जो चंद्रमोहन के मामले में संबंधित न्यायिक अधिकारी को पूछने चाहिए थे, पर शायद पूछे नहीं गये. हुसेन के मामले में भी मामला दर्ज करने के पहले यह पूछा जा सकता था कि क्या वे सार्वजनिक प्रचार सामग्री तैयार कर रहे थे. कलाकृतियों को क्या सार्वजनिक बयान या भाषण के बराबर का दर्जा दिया जाना उचित है? किसी निजी-संग्रह में या सीमित पहुंचवाली कला दीर्घा में लगी कलाकृति को क्या दो समुदायों के बीच विद्वेष भड़काने के उद्देश्य से प्रेरित बताना तर्कपूर्ण है? नामवर सिंह के खिलाफ दर्ज मामला चंद्रमोहन या हुसेनवाले मामलों की श्रेणी का नहीं क्योंकि पहले दोनों ही प्रसंगों में संघ से जुड़े संगठन की योजना है, जबकि नामवर सिंह के प्रसंग में ऐसा नहीं है. लेकिन तीनों के ही सिलसिले में यह प्रश्न तो प्रसंगिक है ही: क्या हमारे देश में सार्वजनिक विचार-विमर्श या व्यक्तिगत रचनाशीलता के लिए स्थान घटता जा रहा है? क्या 21वीं सदी में गालिब का होना खतरनाक नहीं? क्या वे धर्म और धर्मोपदेशक की खिल्ली उड़ाने को स्वतंत्र होंगे? उसी प्रकार क्या प्रेमचंद या हरिशंकर परसाई का लेखन अबाधित रह पायेगा? मजाक उड़ाना, व्यंग्य करना कला और साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा रहा है. कलाकार अपनी ही मूर्ति बनाता और ढालना नहीं है, वह बने बनाये गये बुतों को ध्वस्त कर सकता है. अगर बुतपरस्ती वह करता है, तो बुतशिकन भी उसे होना ही होगा. पर क्या हमारे दौर में कला के क्या रचना के स्वभाव से अंतर्भूत बुतशिकनी की इजाजत है? क्या अब उस दिन का इंतजार कर रहे हैं जब परीक्षा भवनों में, अखबारों में संपादकों के कक्ष में, फिल्मों में सेट पर, गानों के स्टूडियो में ऐसे लोग बैठे रहेंगे जो लिखे जानेवाले उत्तरों, संपादक के लिए तैयार की जा रही रिपोर्ट, फिल्मों के दृश्यांकन और गानों के बोल की निर्माण के स्तर पर ही चौकसी करेंगे और उनमें काट-छांट करेंगे? या क्या वह समय पहले ही नहीं आ पहुंचा है? आखिरकार, दीपा मेहता अपनी फिल्म वाटर भारत में नहीं बना सकीं, हुसेन लंबे समय से भारत से निर्वासन में हैं, कला दीर्घाओं के मालिक गुजरात में ही नहीं, अन्यत्र भी कलाकारों को असुविधाजनक कलाकृतियां प्रदर्शित न करने की भद्र सलाह दे रहे हैं. जेम्स लेन की शिवाजी पर लिखी किताब पर अदालत द्वारा पाबंदी हटाये जाने के बाद भी शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक बयानों पर कोई कार्रवाई नहीं की गयी है. क्या तर्क वागीशों का यह देश मूर्खता के प्रदेश में बदल रहा है? 1857 के 150वें, भगत सिंह के 100वें और आजादी के 60वें साल में यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रश्न हमारे सामने है. अपूर्वानंद जी का यह आलेख जनसता के 23 मई के संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ है. वहां से साभार. -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070525/6195952f/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Fri May 25 02:17:39 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Fri, 25 May 2007 02:17:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= In-Reply-To: <85de31b90705231126y4b4ecca5hbbad0688d68308cf@mail.gmail.com> References: <4653367B.3070808@sarai.net> <85de31b90705231126y4b4ecca5hbbad0688d68308cf@mail.gmail.com> Message-ID: अविनाश जी, यही तो दिक्‍कत है। आप नहीं मान सकते, श्‍वेता जी नहीं मान सकती और मैं भी नहीं मान सकता। वैसे आप श्‍वेता जी का पक्ष ले जरुर रहे हैं लेकिन आपमें और उनमें फर्क है। वो विश्‍लेषण करना चाह रही हैं और आप खारिज। आप लिखते हैं कि मैं गैर जरुरी तर्क दे रहा हूं माफ कीजिएगा सबूतों की बात श्‍वेता जी कर रही हैं। मैं भी उनको वही बता रहा हूं जो आपने अदालत जैसा भारीकम शब्‍द जोडकर बताया। रही रचनाकार की सफाई की बात तो उसको सुई कोंचते रहिए बेचारा कुछ बोले तो कहिए सफाई दे रहा है। मैं यथार्थ का नक्‍शा तैयार करने के लिए कहानी नहीं लिखता। ये बडे लोगों का काम है। रही कहानी के सतही स्‍केच होने की बात तो सतह पर रहने वाले लोगों पर लिखी कहानी सतही ही होगी? ऐसा मैं नहीं बाजार कहता है जिसकी आप जैसे लोग नुमांइदगी कर रहे हैं। एक बार फ‍िर शुक्रिया, जैगम On 5/23/07, avinash das wrote: > > ज़ैगम जी, श्‍वेता की बात अंतत: सही है। आप मान लें। आपकी बात में अब > अपनी कहानी को सही साबित करने के लिए गैर ज़रूरी तर्क आने लगे हैं। आपने > कहानी लिख दी, अब लोग अपनी बात कहेंगे। हर बात पर रचनाकार की सफाई ज़रूरी > नहीं होती। हां, एक और बात... कोई भी किस्‍सा और सच्‍चा हादसा भी सौ > फीसदी असली नहीं होता। और आप सबूतों पर जिस तरह की बात कर रहे हैं, वह भी > बेकार है। हमारे मुल्‍क की अदालतों का हश्र सबूतों की अस्तित्‍वहीनता का > ही नतीजा है। वैसे आपकी कहानी सतही विवरणों का एक साधारण सा स्‍केच है। > इसका जवाब मुझे नहीं चाहिए, क्‍योंकि उस जवाब में आप यही साबित करेंगे कि > कहानी कैसे यथार्थ का नया नक्‍शा तैयार कर रही है। जबकि मैं ये मान ही > नहीं सकता। शुक्रिया। अविनाश। > > On 5/23/07, zaigham imam wrote: > > > > > > श्‍वेता जी, > > > > अजीब बात है कि आप-आप बार-बार कहानी को मेरी जिज्ञासा से उत्‍पन्‍न विषय कह > रही > > हैं। मैं रविकांत जी को भेजे गए पहले ही मेल में साफ कर चुका हूं कि ये > किस्‍सा > > सौ फीसदी असली है। ये दीवान पर है। मैंने उस महिला को देखा नहीं, सुना जरुर > था। > > जहां तक सोच वाली बात है तो इस पर बडी लंबी बहस हो सकती है। आप अपनी सोच से > बहस > > करेंगीं मैं अपनी। और हां, सबूत हर चीज के होते हैं कामयाबी के भी > नाकामयाबी के > > भी। लिहाजा इस बहस में पडना बेकार है कि आप क्‍या साबित कर सकती हैं और मैं > > क्‍या साबित कर सकता हूं। स्‍त्री और पुरुष के बीच का फर्क मिटाना या मिटना > > संभव नहीं है। ये भी आपकी सोच है। मेरी सोच के मुताबिक परिस्‍ि‍थतियां > इंसान को > > अलग अलग एक्‍शन या फ‍िर रिएक्‍शन के लिए बाध्‍य करती हैं। इस मामले में भी > ऐसा > > है। परभतिया या नरेस से ज्‍यादा मैं उस परि‍स्थिति को दोषी मानता हूं जो इस > तरह > > की घटना को अंजाम देने के लिए बनी। जहां तक फूहडता को नादान बच्‍चे का जामा > > पहनाने का आपका व्‍यंग्‍य है तो यहां आप ठीक तरीके से नहीं समझीं। मैंने > कहा > > बच्‍चा खूबसूरत है लेकिन उसका आवरण फूहड है, जैसे कि कहानी में , विषय > सीरियस > > हैं लेकिन शब्‍द अश्‍लील हैं गंदे हैं। आप के कुछ और सवालों के जवाब नीचे > के > > मेल में हैं। आपके एक समर्थक ने लिखा। उनका सवाल मेरा जवाब दोंनो है। > बहरहाल, > > आपसे इतना जरुर कहना चाहूंगा हूं कि कहानी कोई गणित नहीं है। जिससे दो गुणे > दो > > चार ही होते हैं। यहां दो गुणे दो कुछ भी हो सकता है। > > > > एक बार फ‍िर शुक्रिया > > > > जैगम > > > > > > > > ज़ैगम, > > मैं श्‍वेता की बात से सहमत हूं। आपकी कहानी में एक ऐसा चित्र है, जो > > सामाजिक दारुण का कोई बड़ा स्‍केच नहीं खींचता। नरेस की क्रूरता > > हिंदी-उर्दू कहानियों में भरी पड़ी है। आपकी कहानी हमें अखिलेश की > > यक्षगान कहानी की याद दिलाती है। क्‍या आपलोगों ने वो कहानी पढ़ी है ? > > > > > > > > > > कहानीके साथ दिक्कत यही है। कुछ भी कहकर उसे खारिज किया जा सकता है। जैसा > की > > श्वेता जी मंटो को लेकर सवाल उठाती हैं। लेकिन आप बताईए कौन सी किताब में > लिखा > > है कि कहानी में सामाजिक दारुणता जरुर होनी चाहिए? कहानी निहायत व्यक्तिगत > भी > > हो सकती है, जैसे कि मैंने लिखी। मेरा मकसद सिर्फ परभतिया की कहानी को > सामने > > लाना था। आप क्या समझते हैं क्या लिखने वाला नहीं जानता की वो क्या निकाल > के > > लाया है? ये एक सच्ची घटना थी। मैं अगर चाहता तो इसी घटना को आभिजात्य वर्ग > की > > कहानी बनाकर परोसता। फिर सबको मजा आता। कीमती अंत :वस्त्र, एसी कमरा और देह > का > > खेल। यही सबकुछ होता मगर न वीभत्स लगता न लिजलिजा। लेकिन मैंने परभतिया को > > चुना। रही बात कहानी के यक्षगान जैसा होने की तो मैंने अभी तक अखिलेश को > नहीं > > पढा। आप कहते हैं कि हिंदू उर्दू की कहानियां नरेसों की क्रूरता से भरी पडी > > हैं। बिल्कुल सही है। लेकिन ये भी सही है कि सबके परभतिया और नरेस अलग-अलग > हैं। > > > > शुक्रिया > > > > जैगम > > > > > > > > > > > > > > On 5/22/07, Shveta wrote: > > > > > > Dear Zaigham, > > > > > > Apni kahani ke rishte mein "phuhad" ko behti naak wale nadan bacche ki > > > chhavi dena - yeh bada hi interesting twist raha :- ) Khair, shukriya, > > > aap ne bata to diya ki kahani ke peechhe soch yeh hai ki shramik varg > > > mein aurat apne ghar se "urhari" ho nikle aur bina shadi kisi ke saath > > > rahe, aisi aurat ki koi soch nahin aur uska hashar yun hota hai. Iske > > > vipreet empirical evidence dene se ap ke is yakeen mein farq ki > > > gunjayish nahin; ap ka apni jigyasa se utpann vishayon par kahani > likhna > > > rukwana bhi mere - na shayad kisi aur ke - interests mein nahin :- ) > > > > > > Waise, kahani ko sochne mein "stree aur purush ka farq mita den", > jaisa > > > ki ap ne apne mail mein karne ka aagrah kiya hai, to is tarah ki > kahani > > > likhna ap ke liye mumkin bhi nahin. Iska stage hi stree aur purush ka > > > farq hai. Yeh kahani aap do aadmiyon ya do auraton ke beech rishte ke > > > liye likh nahin sakte the. > > > > > > salaam > > > shveta > > > > > > ps: Waise, clarify kar dun, aap ne ek dum galat samjha ki meri apeksha > > > hai ki do logon ko qaidi bana ke, buri tarah se chabuk se peetne ke > baad > > > ek chhote se ek pinjre mein daal kar, har baar ek doosre ki chhuwan se > > > utpan peeda ko dekh kar phir gaur farmaya jaaye aur unke zariye "human > > > nature and the curious behaviour of men" par meditate kiya jaaye. Aap > > > samajh nahin paaye, koi baat nahin, ki behas to kahani mein aisa hone > > > par thi :- ) (With very sincere apologies to Raoul Vaneigem!) > > > > > > > > > > > > zaigham imam wrote: > > > > श्‍वेता जी, > > > > > > > > मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते हैं > ऐसा > > नहीं होता > > > > है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास > (अन्‍यथा > > न > > > > लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। अकसर > > उन्‍हें इस > > > > टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया गूंगी > है। > > ठीक > > > > बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार > सराय के > > > > शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था > कि > > नरेस का > > > > कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे > क्‍या > > समझा > > > > जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो > हिस्‍सा > > काट लेना > > > > चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। > > > > > > > > क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं > आता > > > > > > > > ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या > परभतिया। > > कहानी > > > > तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों की > कोई > > > > सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं > > मानूंगा। परभतिया > > > > की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई सबकुछ > > वहीं > > > > खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की > देह > > नरेस की > > > > जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के बीच > का > > सेक्‍स वीभत्‍स > > > > रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है नहीं। > आगे > > पीछे या > > > > किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को क्रूर > > क्‍यों समझती > > > > है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार है। > > परभतिया > > > > को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी > बनाने > > को आतुर > > > > रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। आपने > > पढा, नरेस उसे > > > > मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ कुछ > कर > > सकता है। अंत > > > > में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई > बंदूक > > गलती से चल > > > > जाए, किसी की जान चली जाए। / > > > > > > > > कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी मर्द > के > > भाग जाए > > > > तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ > एक > > ऐसा > > > > रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके > > उत्‍तर ने > > > > मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये प्रीति > > जिंटा की फ‍िल्‍म > > > > > > > > /''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी > झेलझाल > > कर कुंवारी > > > > मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ रही > है > > बाहर निकली > > > > तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे वहीं > > पहुंचाएगा > > > > जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। > > > > > > > > आप लिखती हैं। > > > > > > > > सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल > इतने > > सूख गए हैं कि > > > > जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे /रूबरू/ हो पाने की अपनी > > क्षमता को हम > > > > ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। > रुबरु हो > > पाने की क्षमता > > > > बहुत कुछ है। /जरुरी/ नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए > उसमें > > झांककर देखा > > > > जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात है। > फ‍िर > > > > भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं के > > कोठे पर शराब > > > > पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के /नाम/ पर धोखे को > भी > > मैं आक्षेप > > > > समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें मैं > > धोखा देने की > > > > कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर क्‍या > > संवाद ऐसे > > > > हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन क्‍या > खाक, > > मंटो का > > > > मुकाबला कर सकते हैं। > > > > > > > > रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर भी > > कहानी है > > > > तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में चलता > है। > > बेहद खूबसूरत > > > > सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल न > हो। > > हर > > > > कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। > > > > > > > > वालेकुल अस्‍सलाम > > > > > > > > जैगम > > > > > > > > ------------------------- > > > > > > > > > > > > On 5/21/07, *Shveta* < shveta at sarai.net > > > wrote: > > > > > > > > श्‍वेता जी ने कहा था > > > > > > > > > > > > > > > > डीयर ज़ैगम, सभी, > > > > > > > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल सेक्स > > वर्कर्ज़ के साथ काम > > > > करती > > > > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना > था कि > > सर्वे के > > > > दौरान > > > > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? कितनी > बार > > करने के बाद > > > > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते > हैं? > > किस-किस > > > > तरह की > > > > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने से > और > > हर बार पूछने पर > > > > उनका > > > > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। सेक्स, > जगह > > और हिंसा के > > > > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि > जहाँ > > इनका ज़रा भी > > > > अंदेशा > > > > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को > धोखा > > देता हुआ > > > > पाते हैं। > > > > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" (जिसका > > मैंने हिंदी > > > > अनुवाद पढ़ा > > > > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला > पाने के > > भाषाई साधन > > > > क्या > > > > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" कह > कर > > आप > > > > सुनने-सुनाने के > > > > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता > है। > > लेकिन चलिये, > > > > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा जाए, > और > > बात को > > > > थोड़ा > > > > आगे बढ़ाया जाए। > > > > > > > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना > "वीभस्त" हो > > सकता है, हम > > > > इस से > > > > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक प्रैक्टिस" > > बनाना संभव है, > > > > इसके बड़े > > > > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे > रूबरू हो > > इसका उल्लेख > > > > करने के > > > > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर > पर भी > > सोच बहुत > > > > गहरी है, > > > > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में "घर" > > (डोमेस्टिक > > > > स्पेस) अनछुई > > > > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका लेख > > (कहानी) खड़ा है। > > > > > > > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते हैं, > > हालांकि उनकी > > > > मंशा पाठक > > > > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे > की > > अपनी सोच को > > > > छोड़ कर > > > > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में क्या > > बदलाव, क्या > > > > चुप्पी > > > > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ से > > फिंसल जाती है, ये > > > > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ लिखी > हैं > > कहना > > > > अपूर्णता में > > > > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, ना > ही > > "एक > > > > अत्याचारी > > > > और एक बेचारी" लेखक। > > > > > > > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के > बारे > > में आपकी > > > > जिग्यासा होना > > > > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के > प्रेमी" > > जैसी क्षमता > > > > भी अपने > > > > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की > कोशिश > > के विपरीत, > > > > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी > है। > > उसकी कोई सोच > > > > नहीं है। > > > > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ भी > > उसके ज़हन में > > > > आती है > > > > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा होता > है। > > पर लेख इन > > > > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > > > > > > > सलाम > > > > श्वेता > > > > > > > > > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > Deewan mailing list > > > > Deewan at mail.sarai.net > > > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070525/2a377f2a/attachment.html From bipulpandey at gmail.com Fri May 25 12:31:39 2007 From: bipulpandey at gmail.com (bipul pandey) Date: Fri, 25 May 2007 12:31:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS/4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkquCksOCkreCkpOCkv+Ckr+CkviDgpKzgpKjgpYcg4KS54KWLIA==?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KSk4KS+IOCkueCliCDgpJfgpYHgpJzgpL7gpLDgpL4gPw==?= In-Reply-To: References: <4653367B.3070808@sarai.net> <85de31b90705231126y4b4ecca5hbbad0688d68308cf@mail.gmail.com> Message-ID: मैंने जैगम इमाम की कहानी पर श्वेता और अविनाश जी की प्रतिक्रिया पढ़ी। जैगम इमाम की अनावश्यक सफाई दर सफाई भी। श्वेता जी ने कहानी को उपन्यास लेडी चैटर्लीज लवर से जोड़कर देखा है। वाकई आश्चर्य की बात है। कहानी में कोई उपन्यास ढूंढ रहा हो, ऐसे कम ही लोग मिलते हैं। मैंने तो आज तक नहीं देखा। श्वेता जी ने कथानक को भी सिरे से खारिज कर दिया है क्योंकि वह लेडी चैटर्लीज के लवर की तरह मजा नहीं देता। बड़ी सीधी सी बात है। कहानी कहां से देगी मजा... पिछाड़ की पीड़ा और शारीरिक भूख की रोमानियत... दोनों दो ध्रुवों पर खड़े हैं। श्वेता जी ने एक सवाल और खड़ा किया था... परभतिया गूंगी है। आमतौर पर हर नारीवादी नारी ऐसा ही कहती है। जिसने सिर्फ किताबें पढ़कर पीड़ा का एहसास किया हो। बेबसी और बेचारगी जैसे शब्दों में उलझी रही हो। हकीकत की जमीन पाकर ये शब्द कितने भयानक हो जाते हैं, इसकी भनक तक न हो। पलंगतोड़ मर्द भी कई जगह गूंगे हो जाते हैं, यह अलग से बहस का विषय हो सकता है, लेकिन श्वेता जी की मानसिक जुगाली अच्छी लगी। अविनाश जी की प्रतिक्रिया भी अच्छी लगी। लेकिन अविनाश जी मजा लेने के लिए कुछ ज्यादा ही आतुर दिख रहे हैं। उनके मुताबिक कहानी सतही विवरणों का साधारण सा स्केच है। अगर जैगम की जगह आप होते तो क्या कोई डाक्यूमेंटरी फिल्म बना देते? जिसे रस ले-लेकर देखा जाता? रही बात अपनी कहानी को फूहड़ कहने की रचनाकार की हिमाकत की, तो मैं ये मानता हूं कि अगर जैगम जी ने अपनी कहानी पर फूहड़ता का जामा न पहनाया होता तो कहानी वाकई फूहड़ हो जाती। जैगम जी और रविकांत जी की इसी टिप्पणी ने कहानी को शील और संकोच का आवरण दे दिया है। मैं आज तक कहानी नहीं लिख सका... लेकिन जैगम की कहानी पढ़कर एकबारगी भरोसा नहीं हुआ कि लेखक इतनी जल्दी इतना कुछ कह जाएगा। मेरी नजर में ये कहानी बेहद दमदार है... आगे जैगम इमाम से गुजारिश जरूर करूंगा कि कहानी में मजा तलाशने वालों के मनमाफिक न बन जाएं। कहानी का कोई कोना कमजोर नहीं है... सिर्फ मात्रा की कुछ गलतियों को छोड़कर। आपका मित्र बिपुल पांडेय On 5/25/07, zaigham imam wrote: > > अविनाश जी, यही तो दिक्‍कत है। आप नहीं मान सकते, श्‍वेता जी नहीं मान सकती > और मैं भी नहीं मान सकता। वैसे आप श्‍वेता जी का पक्ष ले जरुर रहे हैं लेकिन > आपमें और उनमें फर्क है। वो विश्‍लेषण करना चाह रही हैं और आप खारिज। आप लिखते > हैं कि मैं गैर जरुरी तर्क दे रहा हूं माफ कीजिएगा सबूतों की बात श्‍वेता जी कर > रही हैं। मैं भी उनको वही बता रहा हूं जो आपने अदालत जैसा भारीकम शब्‍द जोडकर > बताया। रही रचनाकार की सफाई की बात तो उसको सुई कोंचते रहिए बेचारा कुछ बोले तो > कहिए सफाई दे रहा है। मैं यथार्थ का नक्‍शा तैयार करने के लिए कहानी नहीं > लिखता। ये बडे लोगों का काम है। रही कहानी के सतही स्‍केच होने की बात तो सतह > पर रहने वाले लोगों पर लिखी कहानी सतही ही होगी? ऐसा मैं नहीं बाजार कहता है > जिसकी आप जैसे लोग नुमांइदगी कर रहे हैं। > एक बार फ‍िर शुक्रिया, जैगम > On 5/23/07, avinash das wrote: > > > > ज़ैगम जी, श्‍वेता की बात अंतत: सही है। आप मान लें। आपकी बात में अब > > अपनी कहानी को सही साबित करने के लिए गैर ज़रूरी तर्क आने लगे हैं। आपने > > कहानी लिख दी, अब लोग अपनी बात कहेंगे। हर बात पर रचनाकार की सफाई ज़रूरी > > नहीं होती। हां, एक और बात... कोई भी किस्‍सा और सच्‍चा हादसा भी सौ > > फीसदी असली नहीं होता। और आप सबूतों पर जिस तरह की बात कर रहे हैं, वह भी > > बेकार है। हमारे मुल्‍क की अदालतों का हश्र सबूतों की अस्तित्‍वहीनता का > > ही नतीजा है। वैसे आपकी कहानी सतही विवरणों का एक साधारण सा स्‍केच है। > > इसका जवाब मुझे नहीं चाहिए, क्‍योंकि उस जवाब में आप यही साबित करेंगे कि > > कहानी कैसे यथार्थ का नया नक्‍शा तैयार कर रही है। जबकि मैं ये मान ही > > नहीं सकता। शुक्रिया। अविनाश। > > > > On 5/23/07, zaigham imam wrote: > > > > > > > > > श्‍वेता जी, > > > > > > अजीब बात है कि आप-आप बार-बार कहानी को मेरी जिज्ञासा से उत्‍पन्‍न विषय > > कह रही > > > हैं। मैं रविकांत जी को भेजे गए पहले ही मेल में साफ कर चुका हूं कि ये > > किस्‍सा > > > सौ फीसदी असली है। ये दीवान पर है। मैंने उस महिला को देखा नहीं, सुना > > जरुर था। > > > जहां तक सोच वाली बात है तो इस पर बडी लंबी बहस हो सकती है। आप अपनी सोच > > से बहस > > > करेंगीं मैं अपनी। और हां, सबूत हर चीज के होते हैं कामयाबी के भी > > नाकामयाबी के > > > भी। लिहाजा इस बहस में पडना बेकार है कि आप क्‍या साबित कर सकती हैं और > > मैं > > > क्‍या साबित कर सकता हूं। स्‍त्री और पुरुष के बीच का फर्क मिटाना या > > मिटना > > > संभव नहीं है। ये भी आपकी सोच है। मेरी सोच के मुताबिक परिस्‍ि‍थतियां > > इंसान को > > > अलग अलग एक्‍शन या फ‍िर रिएक्‍शन के लिए बाध्‍य करती हैं। इस मामले में > > भी ऐसा > > > है। परभतिया या नरेस से ज्‍यादा मैं उस परि‍स्थिति को दोषी मानता हूं जो > > इस तरह > > > की घटना को अंजाम देने के लिए बनी। जहां तक फूहडता को नादान बच्‍चे का > > जामा > > > पहनाने का आपका व्‍यंग्‍य है तो यहां आप ठीक तरीके से नहीं समझीं। मैंने > > कहा > > > बच्‍चा खूबसूरत है लेकिन उसका आवरण फूहड है, जैसे कि कहानी में , विषय > > सीरियस > > > हैं लेकिन शब्‍द अश्‍लील हैं गंदे हैं। आप के कुछ और सवालों के जवाब नीचे > > के > > > मेल में हैं। आपके एक समर्थक ने लिखा। उनका सवाल मेरा जवाब दोंनो है। > > बहरहाल, > > > आपसे इतना जरुर कहना चाहूंगा हूं कि कहानी कोई गणित नहीं है। जिससे दो > > गुणे दो > > > चार ही होते हैं। यहां दो गुणे दो कुछ भी हो सकता है। > > > > > > एक बार फ‍िर शुक्रिया > > > > > > जैगम > > > > > > > > > > > > ज़ैगम, > > > मैं श्‍वेता की बात से सहमत हूं। आपकी कहानी में एक ऐसा चित्र है, जो > > > सामाजिक दारुण का कोई बड़ा स्‍केच नहीं खींचता। नरेस की क्रूरता > > > हिंदी-उर्दू कहानियों में भरी पड़ी है। आपकी कहानी हमें अखिलेश की > > > यक्षगान कहानी की याद दिलाती है। क्‍या आपलोगों ने वो कहानी पढ़ी है ? > > > > > > > > > > > > > > > कहानीके साथ दिक्कत यही है। कुछ भी कहकर उसे खारिज किया जा सकता है। जैसा > > की > > > श्वेता जी मंटो को लेकर सवाल उठाती हैं। लेकिन आप बताईए कौन सी किताब में > > लिखा > > > है कि कहानी में सामाजिक दारुणता जरुर होनी चाहिए? कहानी निहायत > > व्यक्तिगत भी > > > हो सकती है, जैसे कि मैंने लिखी। मेरा मकसद सिर्फ परभतिया की कहानी को > > सामने > > > लाना था। आप क्या समझते हैं क्या लिखने वाला नहीं जानता की वो क्या निकाल > > के > > > लाया है? ये एक सच्ची घटना थी। मैं अगर चाहता तो इसी घटना को आभिजात्य > > वर्ग की > > > कहानी बनाकर परोसता। फिर सबको मजा आता। कीमती अंत :वस्त्र, एसी कमरा और > > देह का > > > खेल। यही सबकुछ होता मगर न वीभत्स लगता न लिजलिजा। लेकिन मैंने परभतिया > > को > > > चुना। रही बात कहानी के यक्षगान जैसा होने की तो मैंने अभी तक अखिलेश को > > नहीं > > > पढा। आप कहते हैं कि हिंदू उर्दू की कहानियां नरेसों की क्रूरता से भरी > > पडी > > > हैं। बिल्कुल सही है। लेकिन ये भी सही है कि सबके परभतिया और नरेस > > अलग-अलग हैं। > > > > > > शुक्रिया > > > > > > जैगम > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > On 5/22/07, Shveta wrote: > > > > > > > > Dear Zaigham, > > > > > > > > Apni kahani ke rishte mein "phuhad" ko behti naak wale nadan bacche > > ki > > > > chhavi dena - yeh bada hi interesting twist raha :- ) Khair, > > shukriya, > > > > aap ne bata to diya ki kahani ke peechhe soch yeh hai ki shramik > > varg > > > > mein aurat apne ghar se "urhari" ho nikle aur bina shadi kisi ke > > saath > > > > rahe, aisi aurat ki koi soch nahin aur uska hashar yun hota hai. > > Iske > > > > vipreet empirical evidence dene se ap ke is yakeen mein farq ki > > > > gunjayish nahin; ap ka apni jigyasa se utpann vishayon par kahani > > likhna > > > > rukwana bhi mere - na shayad kisi aur ke - interests mein nahin :- ) > > > > > > > > Waise, kahani ko sochne mein "stree aur purush ka farq mita den", > > jaisa > > > > ki ap ne apne mail mein karne ka aagrah kiya hai, to is tarah ki > > kahani > > > > likhna ap ke liye mumkin bhi nahin. Iska stage hi stree aur purush > > ka > > > > farq hai. Yeh kahani aap do aadmiyon ya do auraton ke beech rishte > > ke > > > > liye likh nahin sakte the. > > > > > > > > salaam > > > > shveta > > > > > > > > ps: Waise, clarify kar dun, aap ne ek dum galat samjha ki meri > > apeksha > > > > hai ki do logon ko qaidi bana ke, buri tarah se chabuk se peetne ke > > baad > > > > ek chhote se ek pinjre mein daal kar, har baar ek doosre ki chhuwan > > se > > > > utpan peeda ko dekh kar phir gaur farmaya jaaye aur unke zariye > > "human > > > > nature and the curious behaviour of men" par meditate kiya jaaye. > > Aap > > > > samajh nahin paaye, koi baat nahin, ki behas to kahani mein aisa > > hone > > > > par thi :- ) (With very sincere apologies to Raoul Vaneigem!) > > > > > > > > > > > > > > > > zaigham imam wrote: > > > > > श्‍वेता जी, > > > > > > > > > > मैं कतई नहीं कहूंगा कि ये सत्‍य है और ऐसा होता है। चलिए मान लेते > > हैं ऐसा > > > नहीं होता > > > > > है। लेकिन फ‍िर होता क्‍या है? मेरी कहानी के बहाने आपने खूब भडास > > (अन्‍यथा > > > न > > > > > लीजिएगा) निकाली है। देह से जुडी कहानियों के साथ दिक्‍कत यही है। > > अकसर > > > उन्‍हें इस > > > > > टाइप की आलोचनाओं से रुबरु होना पडता है। आपकी शिकायत है परभतिया > > गूंगी है। > > > ठीक > > > > > बात। लेकिन अभी एक दिन पहले अरशद अमानुल्‍लाह साहब (शायद पिछली बार > > सराय के > > > > > शोधार्थी थे) से फोन पर इसी कहानी के विषय में बात हुई, उनका कहना था > > कि > > > नरेस का > > > > > कैरेक्‍टर दब गया है। उसे और खुलकर सामने आना चाहिए था। अब बताईए इसे > > क्‍या > > > समझा > > > > > जाए। जहां तक मैं समझ रहा हूं आपके मुताबिक परभतिया को नरेस का वो > > हिस्‍सा > > > काट लेना > > > > > चाहिए था। वो चूक गई। लेकिन नरेस नहीं चूका। > > > > > > > > > > क्‍या फर्क पडता है। शायद इस अंत से आपको मजा आ जाता लेकिन मुझे नहीं > > आता > > > > > > > > > > ? स्‍त्री और पुरुष का फर्क मिटा दीजिए फ‍िर देखिए। नरेस मरे या > > परभतिया। > > > कहानी > > > > > तो अपना सवाल लिए वहीं खडी है। और हां सच मानिए। परभतिया जैसी औरतों > > की कोई > > > > > सोच नहीं होती। आप कह सकती हैं मैं गलत कह रहा हूं। लेकिन मैं नहीं > > > मानूंगा। परभतिया > > > > > की अगर कोई सोच होती तो वो नरेस के साथ भागती ही नहीं। वो भाग गई > > सबकुछ > > > वहीं > > > > > खत्‍म हो गया। उसके बाद तो सब देह पर ही निर्भर करता है। परभतिया की > > देह > > > नरेस की > > > > > जरुरत थी। वो उसे दे रही थी। मेरे शब्‍दों में भले ही उन दोंनो के > > बीच का > > > सेक्‍स वीभत्‍स > > > > > रुप में चित्रित हो रहा हो लेकिन असल में सबकुछ इतना वीभत्‍स है > > नहीं। आगे > > > पीछे या > > > > > किसी और तरीके से, है सबकुछ इसी शरीर के सुख के लिए। आप नरेस को > > क्रूर > > > क्‍यों समझती > > > > > है। दस साल से एक रखैल को लेकर पडा रहने वाला आदमी क्‍या कम दमदार > > है। > > > परभतिया > > > > > को उससे हमदर्दी होती है , क्‍या ऐसे ही। रोज वो चूल्‍हा जलाए रोटी > > बनाने > > > को आतुर > > > > > रहती है, ऐसे ही। वो नरेस का हाथ बंटाने के लिए तैयार है, ऐसे ही। > > आपने > > > पढा, नरेस उसे > > > > > मजदूरी क्‍यों नहीं करने देना चाहता , उसे डर है ठेकेदार उसके साथ > > कुछ कर > > > सकता है। अंत > > > > > में जो कुछ होता है वो परिस्थितिवश हो रहा है। बिल्‍कुल ऐसे जैसे कोई > > बंदूक > > > गलती से चल > > > > > जाए, किसी की जान चली जाए। / > > > > > > > > > > कहानी का सवाल तो ये है। उस माहौल में जिसमें परभतिया है औरत किसी > > मर्द के > > > भाग जाए > > > > > तो बिना परभतिया बने उसका गुजारा कैसे हो सकता है। आप बताईएगा, सिर्फ > > एक > > > ऐसा > > > > > रास्‍ता जो परभतिया को इस नर्क मु‍क्ति दिला दे। यकीन मानिए अगर आपके > > > उत्‍तर ने > > > > > मुझे संतुष्‍ट कर दिया तो फि‍र कभी ऐसी कहानी नहीं लिखूंगा। ये > > प्रीति > > > जिंटा की फ‍िल्‍म > > > > > > > > > > /''क्‍या कहना'' नहीं है जहां प्रेगनेंट नायिका थोडी बहुत परेशानी > > झेलझाल > > > कर कुंवारी > > > > > मां बनने की तैयारी में है। यहां तो परभतिया एक अकेले नरेस से जूझ > > रही है > > > बाहर निकली > > > > > तो नरेसों की भीड है उनसे छूटी तो निहायत ही कमीना समाज है जो उसे > > वहीं > > > पहुंचाएगा > > > > > जहां नरेस के हाथों वो इत्‍तफाक से पहुंच गई। > > > > > > > > > > आप लिखती हैं। > > > > > > > > > > सेक्स, जगह और हिंसा के भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल > > इतने > > > सूख गए हैं कि > > > > > जहाँ इनका ज़रा भी अंदेशा होता है, वहाँ उससे /रूबरू/ हो पाने की > > अपनी > > > क्षमता को हम > > > > > ख़ुद को धोखा देता हुआ पाते हैं। यहां भी मैं आपसे सहमत नहीं हूं। > > रुबरु हो > > > पाने की क्षमता > > > > > बहुत कुछ है। /जरुरी/ नहीं है कि किसी चीज के बारे में लिखने के लिए > > उसमें > > > झांककर देखा > > > > > जाए। '' जो दिखा सो लिखा'' तो क्‍या लिखा। मंटो के साथ भी यही बात > > है। फ‍िर > > > > > भी उन्‍होंने बहुत कुछ देखा। उनकी जिंदगी का काफी हिस्‍सा वेश्‍याओं > > के > > > कोठे पर शराब > > > > > पीते हुए निकला था। खैर रुबरु होने होने की क्षमता के /नाम/ पर धोखे > > को भी > > > मैं आक्षेप > > > > > समझता हूं। मेरी कहानी से शुरु करते हैं, ऐसा कौन सी बात है जिसमें > > मैं > > > धोखा देने की > > > > > कोशिश कर रहा हूं। परभतिया और नरेस के बीच के क्रियाकलाप या फ‍िर > > क्‍या > > > संवाद ऐसे > > > > > हैं जो हजम न हों ? फ‍िर लिखने वालों ने तो देखकर भी लिखा लेकिन > > क्‍या खाक, > > > मंटो का > > > > > मुकाबला कर सकते हैं। > > > > > > > > > > रही अपनी कहानी को फूहड कहने की बात तो यहां आप सही हैं। लेकिन फ‍िर > > भी > > > कहानी है > > > > > तो फूहड। शहरों में ये शब्‍द ज्‍यादा प्रचलित नहीं है। गांवों में > > चलता है। > > > बेहद खूबसूरत > > > > > सा‍ बच्‍चा हो, लेकिन नाक बह रही हो , पैंट न पहने हो, माथे पर काजल > > न हो। > > > हर > > > > > कोई यही कहेगा, है तो बडा खूबसूरत लेकिन फूहड। > > > > > > > > > > वालेकुल अस्‍सलाम > > > > > > > > > > जैगम > > > > > > > > > > ------------------------- > > > > > > > > > > > > > > > On 5/21/07, *Shveta* < shveta at sarai.net > >> > > > wrote: > > > > > > > > > > श्‍वेता जी ने कहा था > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > डीयर ज़ैगम, सभी, > > > > > > > > > > मेरे कुछ दोस्त, जो समाज सेवा में कार्यरत हैं, ने कमर्शियल > > सेक्स > > > वर्कर्ज़ के साथ काम > > > > > करती > > > > > अपनी टीम के बारे में एक कड़ी मुश्किल का खुलासा किया। उनका कहना > > था कि > > > सर्वे के > > > > > दौरान > > > > > जब वो सवाल करते हैं - आप दिन में कितनी बार सेक्स करते हो? > > कितनी बार > > > करने के बाद > > > > > थकान लगती है? आपके क्लायंट आपके साथ किस-किस तरह के बरताव करते > > हैं? > > > किस-किस > > > > > तरह की > > > > > अपेक्षाएँ होती हैं उन्हें? - तो उन्हें बार-बार ये सवाल पूछने > > से और > > > हर बार पूछने पर > > > > > उनका > > > > > जवाब क्या होगा, इसका अंदाज़ा लगाने से "मज़ा" आने लगता है। > > सेक्स, जगह > > > और हिंसा के > > > > > भाषाई सोचने और सुनने-सुनाने के हमारे माहौल इतने सूख गए हैं कि > > जहाँ > > > इनका ज़रा भी > > > > > अंदेशा > > > > > होता है, वहाँ उससे रूबरू हो पाने की अपनी क्षमता को हम ख़ुद को > > धोखा > > > देता हुआ > > > > > पाते हैं। > > > > > ऐसे में मुझे कुछ रचनाओं, जैसे इशिगुरो की "इकूको की डायरी" > > (जिसका > > > मैंने हिंदी > > > > > अनुवाद पढ़ा > > > > > है) का ख़्याल आता है - कि सामाजिक रूप में सेक्स को मन में ला > > पाने के > > > भाषाई साधन > > > > > क्या > > > > > मौजूद हैं, और कहाँ-कहाँ मौजूद हैं? शायद अपनी कहानी को "फूहड़" > > कह कर > > > आप > > > > > सुनने-सुनाने के > > > > > माहौल की दरिद्रता से उपजी हिचक का इज़हार कर रहे थे। ये समझ आता > > है। > > > लेकिन चलिये, > > > > > "फूहड़" का वस्त्र हटा कर आपकी रचना को उसकी नग्नता में देखा > > जाए, और > > > बात को > > > > > थोड़ा > > > > > आगे बढ़ाया जाए। > > > > > > > > > > 21वीं शताब्दी 20वीं के खंडहरों में खड़ी है। मनुष्य कितना > > "वीभस्त" हो > > > सकता है, हम > > > > > इस से > > > > > अपरिचित नहीं हैं। दूसरे को ध्वंस करने को एक "एस्थेटिक > > प्रैक्टिस" > > > बनाना संभव है, > > > > > इसके बड़े > > > > > पैमाने पर प्रयोग किए जा चुके हैं। लेखक और अन्य रचनाकार इससे > > रूबरू हो > > > इसका उल्लेख > > > > > करने के > > > > > परीश्रम में लगे रहे हैं, इसके समक्ष खड़े होने पर भाषाई फ़ेलियर > > पर भी > > > सोच बहुत > > > > > गहरी है, > > > > > होनी ही है। फ़ेमिनिज़्म की सबसे बड़ी सफलता है कि इस सब में > > "घर" > > > (डोमेस्टिक > > > > > स्पेस) अनछुई > > > > > जगह नहीं रही है। सेक्स, जगह और हिंसा के त्रिकोण में ही आपका > > लेख > > > (कहानी) खड़ा है। > > > > > > > > > > मन्टो को गली-गली में सब क्यों दोहराते हैं? ("फूहड़" भी कहते > > हैं, > > > हालांकि उनकी > > > > > मंशा पाठक > > > > > में "रोमांच" लाने की नहीं थी।) उनकी कहानियों में नाड़े के नीचे > > की > > > अपनी सोच को > > > > > छोड़ कर > > > > > उतरा जाए तो हिंसा का भाषा से क्या रिश्ता है, हिंसा भाषा में > > क्या > > > बदलाव, क्या > > > > > चुप्पी > > > > > लाती है, हिंसा को भाषा में उतारने में क्या हद है जो हमारी समझ > > से > > > फिंसल जाती है, ये > > > > > कोशिश सुनाई देती है। "मन्टो" ने बंटवारे के समय की कहानियाँ > > लिखी हैं > > > कहना > > > > > अपूर्णता में > > > > > दोहराना होगा। मन्टो ना ही "जिससे रूबरू, उसको हूबहू" लेखक थे, > > ना ही > > > "एक > > > > > अत्याचारी > > > > > और एक बेचारी" लेखक। > > > > > > > > > > ज़ैगम, श्रमिक वर्ग में सेक्स, जगह और हिंसा के बीच के रिश्ते के > > बारे > > > में आपकी > > > > > जिग्यासा होना > > > > > एक हद तक समझ आता है। (काश कि ये जिग्यासा "लेडी चैटर्ले के > > प्रेमी" > > > जैसी क्षमता > > > > > भी अपने > > > > > अंदर कुबूल कर पाती! पर वो किसी अन्य कड़ी में...।) पर, लेख की > > कोशिश > > > के विपरीत, > > > > > परभतिया के साथ सोचने में मैं लाचार हूँ। आपके लेख में वो गूँगी > > है। > > > उसकी कोई सोच > > > > > नहीं है। > > > > > वो "बेचारी" है। उसकी दोहराने की क्षमता में भी लाचारी है - माँ > > भी > > > उसके ज़हन में > > > > > आती है > > > > > तो डाँट-फटकार-डरावने कथन के साथ। आप कहेंगे, ये सत्य है, ऐसा > > होता है। > > > पर लेख इन > > > > > crutches पर खड़ा नहीं हो सकता। > > > > > > > > > > सलाम > > > > > श्वेता > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > > > Deewan mailing list > > > > > Deewan at mail.sarai.net > > > > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > > > Deewan mailing list > > > Deewan at mail.sarai.net > > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070525/efcd6c27/attachment.html From beingred at gmail.com Sun May 27 02:52:15 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sun, 27 May 2007 02:52:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KSuIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSsIOCkj+CklSDgpJ/gpL7gpIfgpK4g4KSs4KSuIOCkquCksCDgpKw=?= =?utf-8?b?4KWI4KSg4KWHIOCkueClgeCkjyDgpLngpYjgpIIgOiDgpIXgpLDgpYE=?= =?utf-8?b?4KSC4KSn4KSk4KS/IOCksOCkvuCkrw==?= Message-ID: <363092e30705261422s140adf56xd0993d9bd60bcbca@mail.gmail.com> हम सब एक टाइम बम पर बैठे हुए हैं : अरुंधति राय मुकदमे की कानूनी जांच किये बिना आप किसी को फांसी कैसे दे सकते हैं? अफ़ज़ल को अब तक फांसी नहीं पडी़ है और इसलिए यह बात दोहराने का हमारे लिए समय है, मगर ध्यान रहे कि वह सीमित ही है, कि उसके मुकदमे की फिर से जांच हो. संसद पर हमला और उसके बाद उसके आरोपितों के मामलों में कई अजीब घटनाएं घटी हैं इसलिए सारा मामला ही संदिग्ध हो जाता है. इस बातचीत में अरुंधति राय ने कई अहम सवाल उठाये हैं जो अब भी अनुत्तरित हैं. अफ़ज़ल का मुकदमा देश की न्यायपालिका के लिए एक कसौटी बन कर उभरा है और नागरिक समाज के सवाल अब भी न्यायपालिका ने नहीं दिये हैं. यह अनुवाद समयांतर के फ़रवरी अंक में प्रकाशित हुआ था. मगर इसमें मूल अंगरेज़ी से मिलाने पर कुछ त्रुटियां मिलीं जिनमें से कुछ सुधार दी गयी हैं. कुछ पंक्तियां मूल अंगरेज़ी से अनुवाद करते वक्त अनुवादक ने छोड़ दीं थीं, जिनमें से कुछ ज़रूरी पंक्तियों को इस प्रस्तुति में जोड़ दिया गया है. बाकी, जिनसे लगा कि कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ रहा है, उन्हें नहीं जोडा गया है. अरूंधति रॉय से अमित सेनगुप्त की बातचीत 13 दिसंबर, 2001 को भारतीय संसद पर पांच शस्त्रधारी लोगों ने हमला किया. कुछ लोगों का कहना है कि ये छह थे. पांच साल बीत गये. हम अभी तक यह नहीं जानते कि आखिर ये हमलावर कौन थे. नागरिक समाज का कहना है कि पुलिस ने कानून की धज्जियां उड़ा दीं. झूठे प्रमाण इकट्ठे किये और गलत बयानबाजी की. अफजल गुरु के बयान को गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित किया. फिर भी सर्वोच्च न्यायालय ने अफजल गुरु के गुनाह स्वीकार करने की घटना को खारिज कर दिया, जिसे सभी गैर जिम्मेवार टीवी चैनलों ने खूब प्रचारित-प्रसारित किया था, जो पुलिस की विशेष शाखा ने उन्हें मुहैया करायी थी. इससे पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर एसएआर गिलानी को भी झूठी साजिश में फंसाया गया था, जिसकी वजह से वे फांसी के फंदे से बाल-बाल बचे. अरुंधति राय, समाजशास्त्री रजनी कोठारी सहित प्रसिद्ध नागरिकों द्वारा मृत्युदंड का विरोध भी किया गया था. गिलानी बरी हुए. अरुंधति रॉय कहती हैं कि आज तक उन पांच या छह हमलावरों के बारे में कोई नहीं जानता है. क्या यह सब अंदर की बात है? इस साक्षात्कार में अरुंधति राय से इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की गयी है. न तो कोई जानता है और न ही स्पष्ट रूप से सिद्ध कर सकता है, क्योंकि पुलिस, जांच एजेंसियां और मीडिया सब मिल कर इस पर प्रचार और झूठ का मुलम्मा चढ़ा रहे हैं. अब कसूरवार होने के सही सबूत न मिलने पर भी साजिश के तहत अफजल गुरु को फांसी की सजा सुना दी गयी है. न्यायालय में मुकदमे की जांच के समय उसकी ओर से कोई कानूनी प्रतिनिधि नहीं था. इसलिए मुकदमे की दोबारा न्यायिक जांच की मांग की जा रही है. तो दूसरी ओर भाजपा उसे फांसी दिलाने पर तुली हुई है. मुकदमे की कानूनी जांच किये बिना आप किसी को फांसी कैसे दे सकते हैं? अरुंधति राय ने 12 दिसंबर को दिल्ली में खचाखच भरे एक आडिटोरियम में पेंगुइन द्वारा प्रकाशित एक नयी किताब 13 दिसंबर : ए रीडर. द स्ट्रेंज केस आफ़ द अटैक आन द इंडिया पार्लियामेंट का विमोचन किया. इस पुस्तक में विभिन्न विद्वानों पत्रकारों और वकीलों द्वारा लिखे गये 15 निबंध हैं, जिन्होंने उपलब्ध तथ्यों के आधार पर संसद हमले के मुद्दे पर संदेहास्पद जांच और पक्षपातपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ गंभीर प्रश्न उठाये हैं. रीडर में अरुंधति राय द्वारा लिखा गया एक इंट्रोडक्शन है. लेखकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि संसद पर किये गये इस हमले से एक ओर पाकिस्तान से सैनिक मोरचाबंदी हुई वहीं उपमहाद्वीप में परमाणु युद्ध का खतरा हो गया. हजारों मासूमों की जानें गयीं और करोड़ों रुपये की बरबादी के बावजूद इस मामले की जांच की कोई आवश्यकता महसूस नहीं की गयी. राय ने 13 सवाल उठाये हैं जो अभी तक अनुत्तरित हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी बाकी है कि क्या बिना किसी ठोस सबूत और कानूनी प्रतिनिधित्व के अफजल को फांसी दे दी जायेगी? क्या कट्टरवादी इसलामी आतंकवाद एक सच्चाई है या धोखा या फिर यह भारतीय व्यवस्था की प्रचार मशीनरी और जांच सूत्रों द्वारा बनायी गयी साजिश है? यह न तो पूरी तरह झूठ है और न ही पूरा सच. राबर्ट पेप ने अपनी पुस्तक डाइंग टू विन में बताया है कि कैसे आत्मघाती दस्ते नवउपनिवेशवाद से लड़ने में कारगर रहे हैं. जिसे हम इसलामी आतंकवाद या इसलामी कट्टरवाद जैसे खतरे के रूप में चिह्रित करते हैं, उसका मुक्ति संघर्षों में काफी बड़ा योगदान है. मुक्ति संघर्ष में लोगों को एक सूत्र में पिरोने के लिए धर्म का सहारा लेना कोई नयी बात नहीं है. कट्टरवाद का दूसरा पहलू यह है कि जब लोग खुद को एक विशेष वर्ग या धर्म से जुड़ा मानते हैं तो वे अपने में ही सिमट जाते हैं. इसका तीसरा जटिल रूप यह है कि इसलामी कट्टरवाद अब इस रूप में बदनाम हो गया है कि वे कब्जे के लिए लड़ रहे हैं. और इसलिए वे हमलावर हैं. शुरू में फ़लस्तीन में हमास के साथ हो चुका है, जिससे फ़लस्तीन मुक्ति मोरचा (पीएलओ) जैसा धर्म निरपेक्ष संगठन भी बदनाम हो गया. कश्मीर में भी यही सब हो रहा है. क्योंकि अगर वे प्रतिरोध को कुछ पागल, सनकी लोगों के रूप में जो दुनिया को ध्वस्त करने पर उतारू हैं, चित्रित कर दें तो वे युद्ध का अधिकतर हिस्सा वे जीत चुके होंगे. जो कोई भी कश्मीर में इसलामी कट्टरता की बात करता है उसे देखना चाहिए कि वहां से ज्यादा बुरका मुंबई या पुरानी दिल्ली में महिलाएं पहनती हैं. आप ग्रामीण बिहार की महिलाओं को कश्मीर की महिलाओं से ज्यादा शोषित पायेंगे. लेकिन जहां पुलिस ओर सैन्य बल जितने ही क्रूर होंगे जनता भी वैसी होगी. लश्कर-ए-तोइबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे इसलामी आतंकी संगठनों पर आपकी क्या राय है? मैं उनके बारे में ज्यादा नहीं जानती लेकिन इतना कह सकती हूं कि कश्मीर में इन्हें कोई आतंकी संगठन के रूप में नहीं मानता. ज्यादातर लोग इसे आजादी के संघर्ष के लिए जरूरी मानते हैं. उनके बारे में दिल्ली के लोगों की सोच और कश्मीर के लोगों की सोच में काफी अंतर है. अगर श्रीनगर में एक बम फटने से स्कूल जाते हुए बच्चे मर जाते हैं तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? बहुत भयानक. लेकिन मुझे मीडिया/प्रेस रिपोर्टों को पढ़/देख कर यह नहीं मालूम होगा कि यह सब कौन करता है. वे मिलिटेंट हो सकते हैं मगर समान रूप से वे सुरक्षा बल, पुलिस, कोई धोखेबाज या सरेंडर किया हुआ मिलिटेंट जो पुलिस के लिए काम कर रहा हो, भी हो सकता है. यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है. सच बताना लोगों के लिए बहुत कठिन है. शायद उनसे सच उगलवाया भी नहीं जा सकता. कश्मीर ऐसी घाटी है जहां सैनिक हैं, मिलिटेंट हैं, हथियार है, गोला-बारूद है, जासूस, दोतरफा, एजेंट खुफिया एजेंसी, एनजीओ और बेहिसाब पैसा है. कुछ-से-कुछ होता रहता है वहां. सेना वहां अनाथालय और सिलाई केंद्र चला रही है. टीवी चैनल केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय का है. ऐसे में यह बताना कठिन है कि कौन किसके लिए काम कर रहा है, कौन किसका इस्तेमाल कर रहा है. कभी-कभी लोग खुद भी यह नहीं जान पाते हैं कि वे किसके लिए काम कर रहे हैं या उन्हें किसने लगा रखा है. क्या आपको लगता है कि भारत में मुसलमानों को व्यवस्थित रूप से निशाना बनाया गया है? हां. सच्चर कमेटी की रिपोर्ट में भी तो अप्रत्यक्ष रूप से यही कहा गया है. (यह रिपोर्ट प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त समिति द्वारा तैयार की गयी है, जिसमें कहा गया है कि भारतीय मुसलमान देश का सबसे गरीब पिछड़ा, अशिक्षित और बदहाल समुदाय है, जिसे उच्च या मध्यमवर्गीय नौकरियों में प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाया है.) गुजरात में जो हो रहा है, मानवता के खिलाफ अपराध है. भाजपा के नेतृत्व में 2002 में दक्षिणपंथी हिंदुओं द्वारा मुसलिम विरोधी नरसंहार में 2000 मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया गया. 1,50,000 को बेघर कर दिया गया. पुनर्वास के बजाय उन्हें पूरी तरह से उजाड़ दिया गया है और अब राज्य से भी बाहर भगाया जा रहा है. हमारी धर्मनिरपेक्ष सरकार भी चुप्पी लगाये हुए है, जिसमें वामपंथी भी शामिल हैं. 2002 की हिंसा तो सबने देखी, लेकिन यह अदृश्य फासीवादी हिंसा भी उतनी ही भयावह है. ऐसा लगता है कि मुसलमान के बारे में हम केवल यही बात करते हैं कि वह या तो पीडि़त है या आतंकवादी. मुझे लगता है कि हम सब एक टाइमबम के ऊपर बैठे हैं. क्या आपको लगता है कि 13 दिसंबर का हमला कोई साजिश का हिस्सा तो नहीं? यह इस पर निर्भर करता है कि अंदर क्या है और बाहर क्या है. मैं नहीं समझती कि हम यह कर सकते हैं. वास्तव में एक के ऊपर एक रखी परतों को खोल कर देखा जाये तो शुरू में ही सच्चाई साफ हो जाती है, जिसमें संसद, न्यायपालिका, मास मीडिया और जब निचली सतह पर कश्मीर में सुरक्षा तंत्र तक पहुंचते हैं तो एसटीएफ़, एसओजी आदि जासूसों, मुखबिरों, सरेंडर मिलिटेंटों आदि के साथ आपस में घुलमिल जाते हैं. ससंद पर हमले के मामले में भी यही खुलासा होना बाकी है. हम यह नहीं जानते हैं कि इसके पीछे कौन लोग थे. बस इतना जानते हैं कि अरेस्ट मेमो से छड़्छाड़ की गयी, जो भी कार्रवाई हुई, उसमें सबूतों और गवाहों को झूठ और दबाव का जामा पहनाया गया था और स्वीकारोक्तियां यातना के भीतर से निकलीं. क्यों? आप कोई रॉकेट वैज्ञानिक तो नहीं है कि अनुमान लगा लेंगे कि जब कोई झूठ बोलता है तो इसका मतलब है कि वह कुछ छिपा रहा है. वह क्या है है, यह हमें जानना है और इसे जानने का मुझे पूरा हक है. अनुवाद : जितेंद्र कुमार http://hashiya.blogspot.com -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070527/b6f22f7b/attachment.html From beingred at gmail.com Mon May 28 01:17:02 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Mon, 28 May 2007 01:17:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSw4KS44KWN?= =?utf-8?b?4KS14KSk4KWALCDgpKbgpYHgpLDgpY3gpJfgpL4g4KSU4KSwIOCkpg==?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KWM4KSq4KSm4KWAIOCkleCliyDgpKjgpILgpJfgpL4g4KSV?= =?utf-8?b?4KWM4KSoIOCkleCksCDgpLDgpLngpL4g4KS54KWIPw==?= Message-ID: <363092e30705271247t2cb68d4ajf89393fbd3bb2392@mail.gmail.com> सरस्वती, दुर्गा और द्रौपदी को नंगा कौन कर रहा है? नामवर, हुसैन और चंद्रमोहन रविभूषण अस्सी वर्षीय आलोचक नामवर सिंह, नब्बे वर्षीय विश्वप्रसिद्ध कलाकार मकबूल फिदा हुसैन और सयाजीराव विश्वविद्यालय, बड़ोदरा के ललितकला संकाय के तेईस वर्षीय स्नातकोत्तर छात्र चंद्रमोहन श्री लक्ष्मनतुला भारतीय दंड संहिता की कई धाराओं के तहत अभियुक्त हैं. भारत धर्म प्रधान देश है, पर यहां धार्मिक कट्टरता का इतिहास नया है. भूमंडलीकरण के दौर में यह धार्मिक कट्टरता बढ़ी है. हम मानवीय भावनाओं के आहत होने की चर्चा और चिंता नहीं करते; धार्मिक भावनाओं के आहत होने की बातें करते हैं. जबसे भाजपा चमकी है, धार्मिक भावनाओं के आहत होने के उदाहरण बढ़े हैं. भारत में इसलामी कट्टरता और हिंदू कट्टरता बढ़ती गयी है और सदाशयता-सहिष्णुता नष्ट हो रही है. भारतीय दंड संहिता की विविध धाराओं में वर्णित अपराधों की संख्या कम नहीं है. तो क्या नामवर, हुसैन और चंद्रमोहन सचमुच अपराधी अभियुक्त हैं? नामवर आलोचक हैं और उन्हें पंत-साहित्य के एक बड़े भाग को कूड़ा कहने का अधिकार है. पिछले 20-30 वर्ष में देश में कूड़ा अधिक इकट्ठा हो गया है. साहित्य की भाषा में सिर्फ अभिधा प्रयोग नहीं होता. वहां लक्षणा और व्यंजना के लिए अधिक जगह है. कूड़ा का एक अर्थ फालतू है और पंत काव्य के मर्मज्ञ जानते हैं कि पंत का परवर्ती काव्य उल्लेखनीय नहीं रहा. आज बहुत कम ऐसे राजनीतिज्ञ हैं, जिन्हें कला, साहित्य व संस्कृति की गहरी समझ हो और वे उनमें वर्णित-चित्रित रंग-रेखा, ध्वनि, शब्द, वाक्य तथा उनके विविध आशय-अर्थ से अवगत हों. राजनीति जिस मुकाम पर पहुंच गयी है, वहां केवल छीना-झपटी, कुटिलता, धोखाधड़ी और फरेब है. कला-साहित्य-संस्कृति का दृश्य इससे भिन्न है. कवि-लेखक, संस्कृतिकर्मी और कलाकार जीवन की रक्षा ही नहीं कर रहे, उसे गति भी दे रहे हैं. मकबूल फिदा हुसैन ने 1996 में सरस्वती, दुर्गा और द्रौपदी के नग्न चित्र बनाये थे. हिंदुत्व परिवार के सदस्यों ने इन चित्रों का विरोध किया. हुसैन के एक चित्र में सीता हनुमान की पूंछ पर बैठ रही थीं. 1998 में मुंबई के उनके घर में तोड़-फोड़ की गयी. इंदौर और राजकोट में उन पर आपराधिक मुकदमे दायर हुए. हरिद्वार की एक अदालत ने मुंबई में हुसैन की संपत्ति जब्त करने का आदेश भी दिया. हुसैन के चित्रों के गंभीर आशयों को समझना चाहिए. रंगों, रेखाओं, ध्वनियों और शब्दों से सबका संबंध और सरोकार नहीं है. यह जानने का प्रयत्न होना चाहिए कि एक बड़ा कलाकार एक विशेष समय में देवी-देवताओं के नग्न चित्र क्यों बना रहा है? क्या उसी ने नग्न चित्रों की रचना की है या नग्न चित्रों का अपना एक इतिहास भी है? हिंदू देवी-देवताओं की नग्न मूर्तियां भी हैं. क्या खजुराहो, कोणार्क जैसे मंदिरों की मूर्तियां तोड़ी जायेंगी? ऐसे पौराणिक साहित्य, जिसमें ऐसे वर्णन हैं, जला दिये जायेंगे? शिवलिंग को पूजनेवाली स्त्रियों के साथ हमारा व्यवहार कैसा होगा? हुसैन के चित्रों के गहरे अभिप्राय हैं. क्या हमारे समय में सरस्वती, दुर्गा और द्रौपदी को नंगा करनेवाले नहीं हैं? क्या हम उनकी पहचान नहीं करेंगे? जिनके पास राजनीतिक सत्ता है और जो इस सत्ता के करीबी हैं, वे सब देवी-देवता के कार्यों से अलग उन्हें विकृत और नग्न करने में लगे हुए हैं. वे हमारे देश में हैं और हुसैन अपने देश से बाहर हैं - निर्वासित. भाजपा सांसद मेनका गांधी ने विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी को 12 मई 2007 को लिखे पत्र में आग्रह किया है कि वे भाजपा की गुजरात और महाराष्ट्र शाखाओं को उन कलाकारों के विरुद्ध अभियान बंद करने के लिए कहें, जिनकी कृतियां उन्हें पसंद नहीं हैं. कलाकार, कवि व लेखक सत्य के पक्षधर हैं और झूठ को सच बनाने की कला में दक्ष लोग सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते. लोकतंत्र में जिनकी आस्था नहीं है, वे अभिव्यक्ति के विविध माध्यमों को अपने मनोनुकूल बनाना चाहेंगे. भारत में फासीवादी शक्तियां कई हैं और इनके कार्य ध्वंसात्मक हैं. तेलुगुभाषी चंद्रमोहन सयाजीराव विश्वविद्यालय बड़ोदरा के विश्व प्रसिद्ध ललितकला संकाय के अंतिम वर्ष के छात्र हैं. मितभाषी, अपने कार्य के प्रति समर्पित, सहपाठियों के लिए प्रेरक और अनुशासित चंद्रमोहन गुजरात ललितकला अकादमी द्वारा पुरस्कृत हैं. चंद्रमोहन द्वारा बनाये गये चित्र उनकी परीक्षा के लिए थे. इन चित्रों पर उन्हें अंक प्राप्त होने थे. यह चित्र प्रदर्शनी परीक्षा से संबद्ध थी, खुली प्रदर्शनी नहीं थी. जिस चित्र प्रदर्शनी को कायदे से विश्वविद्यालय के अधिकारी भी नहीं देख सकते थे, उसे भाजपा के नीरज जैन के नेतृत्व में आये लोगों ने क्षतिग्रस्त किया. विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश कर चंद्रमोहन के साथ मारपीट करना अपराध था, पर गुजरात में अपराध का अर्थ दूसरा है. भाजपा तथा उसके अनुषंगी संगठनों से जुड़े सभी लोग वहां नैतिक हैं. पुलिस उनकी है. चंद्रमोहन को पुलिस ने भादंसं की धारा 153-ए के तहत गिरफ्तार किया. पांच दिन जेल में रहने के बाद उन्हें जमानत मिली. पुलिस ने उपद्रवियों को नहीं, चंद्रमोहन को गिरफ्तार किया. कुलपति के कहने पर भी संकाय के अध्यक्ष (डीन) प्रोफेसर शिवजी पणिक्कर ने न तो प्रदर्शनी बंद की और न माफी मांगी. विहिप और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने यह प्रदर्शनी बंद करा दी. आरोप यह था कि इस प्रदर्शनी से हिंदुओं और ईसाइयों की धार्मिक भावनाएं आहत हुई हैं. भारतीय दंड संहिता में 153-ए और 295-ए ऐसी धाराएं हैं, जो धार्मिक भावनाओं के अपमान से जुड़ी हुई हैं. नामवर सिंह पर बनारस में राजनीति विज्ञान के अध्यापक कौशल किशोर मिश्र ने एक अदालत में नालिश की है. भारतीय दंड संहिता में उपर्युक्त धाराओं के अतिरिक्त कलाकारों, कवियों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को परेशान करनेवाली अन्य कई धाराएं हैं. इस मुद्दे पर भाजपा, उसके कार्यकर्ता और उसके सहयोगी, जो प्रोफेसर और कुलपति हैं, एकजुट हैं. यह एक चिंताजनक स्थिति है, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिए. सयाजीराव विवि के कुलपति ने विश्वविद्यालय की गरिमा घटायी है. संकाय के डीन पणिक्कर ने जहां प्रजातांत्रिक उसूलों और नियमों पर ध्यान दिया, वहां विश्वविद्यालय के अधिकारी उससे उदासीन ही नहीं, उसके विरुद्ध रहे. छात्रों ने जो विरोध-प्रदर्शनी लगायी, विश्वविद्यालय ने उसे बंद करा दिया. पणिक्कर ने अपने छात्रों के साथ परीक्षा संबंधी प्रदर्शनी का विरोध किया और विवि के अधिकारियों की आलोचना की. कुलपति ने उपद्रवियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. क्या कुलपति किसी राजनीतिक दल के एजेंट की तरह काम कर सकता है? सजा परीक्षार्थी की उत्तरपुस्तिका फाड़नेवालों को मिलनी चाहिए या परीक्षार्थी को? कुलपति ने एक कदम आगे बढ़ कर डीन को निलंबित कर दिया. रोमिला थापर और दीपक नैयर ने राष्ट्रपति को लिखे पत्र में कुलपति के कार्य को विश्वविद्यालय के अनुपयुक्त बताया है. दसवीं पंचवर्षीय योजना (2002-07) में सयाजीराव विवि ने यूजीसी से 676.84 लाख रुपये प्राप्त किये हैं. यूजीसी विश्वविद्यालयों को राशि उनके अकादमिक विकास के लिए देती है. विश्वविद्यालय जैसे संस्थान राजनीतिक दलों और उनकी सरकारों के हित साधन के लिए नहीं हैं. परीक्षा को बाधित करना अपराध है और ऐसे अपराधियों को सजा मिलनी चाहिए. सयाजीराव विश्वविद्यालय के छात्रों और अध्यापकों ने यूजीसी को लिखा और अब मानव संसाधन मंत्रालय को यूजीसी की रिपोर्ट देखनी है. भारतीय संस्कृति के स्वनियुक्त रक्षकों की संख्या बढ़ रही है. रचना-सृजन, सच बोलने और लिखने पर पाबंदियां लगायी जा रही हैं. कलाकार, लेखक, चित्रकार, फिल्मकार निशाने पर हैं. अगर अकादमिक संस्थाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला होता है, तो इसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए. नामवर, हुसैन और चंद्रमोहन- तीनों को अदालत के समक्ष उपस्थित होना है. जिन लोगों ने हुसैन की आंखें फोड़ने, हाथ काटने और सर कलम करने की धमकियां दीं, उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गयी. आज नामवर, हुसैन और चंद्रमोहन अभियुक्त हैं. कल दूसरे होंगे. यह सिलसिला थमनेवाला नहीं है. कला धर्म को क्षतिग्रस्त नहीं करती. धार्मिक मानक काल सापेक्ष हैं, जबकि कलाएं कालविहीन हैं. यह सार्थक और रचनात्मक अभिव्यक्तियों के विविध माध्यमों के लोगों के एकजुट होने का समय है. प्रभात खबर से -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070528/e2c1f7c8/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon May 28 20:28:53 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 28 May 2007 20:28:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bazar bhav - third post, part-1 Message-ID: <200705282028.53711.ravikant@sarai.net> बहुत ख़ूब, आलोक जी, समाजवाद से डरे हुए शेयर बाज़ार का वर्णन काफ़ी दिलचस्प है. मुझे याद आता है कि जब संप्रग सरकार सत्ता में आने-आने को थी, तो शेयर बाज़ार ढुलमुला गया था - और हमारे मीडिया ने इसे संकट की  घड़ी बताते हुए मणिशंकर अय्यर से जवाब तलब की, तो इस स्वनामधन्य कम्युनिस्ट ने कहा था: हमें क्या, हम तो कम्युनिस्ट हैं! फिर जब प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया तो बाज़ार चढ़ने लगा. यही प्रधानमंत्री आजकल उद्योगपतियों से कहते फिर रहे हैं, कि कमाओ पर अनावश्यक दिखावा न करो, वरना लोग बर्दाश्त नहीं करेंगे. ये दुनिया जितनी बदलती है, उतनी ही वैसी-की-वैसी रहती है!   मज़े लें. हाँ, कई जगह आलोक ने शब्दों को तिरछा या मोटा किया था, जो इस सादे पाठ में दिखाई नहीं दे रहा था, लिहाज़ा हमने उनके निर्देश मिटा दिए हैं. अगर वे चाहते हैं कि हम उसे उसकी मौलिकता में देखें, तो शायद हमें उनके ब्लॉग की शरण लेनी होगी, जिसका लिंक वे यहाँ डाल ही देंगे. रविकान्त ----------  आगे भेजे गए संदेश  ---------- पोस्ट तीन- चैप्टर दो- सिलसिला 1947 से 1957 तक का चीनी कम यानी चोरी का खुला बाजार बुजुर्ग बताते हैं और कुछ इस अंदाज में बताते हैं कि पुराने टाइम में सब कुछ एकदम ठीक-ठाक था। ईमानदारी ही ईमानदारी सब तरफ बरसती थी। आदर्शों की चौतरफा बरसात होती थी। पर बाजारों की रिपोर्टिंग बताती है कि मामला एकदम पाजिटिव नहीं था। चोर भी थे, उनका बाजार भी था। और न सिर्फ था, बल्कि उसकी बाकायदा रिपोर्टिंग होती थी, देखें- हिंदुस्तान मंगलवार 6 दिसम्बर, 1949, पेज नंबर छह चीनी की साप्ताहिक रिपोर्ट- बाजार की स्थिति में सुधार नहीं-तटकर बोर्ड की जांच-खंडसारी के भाव तेज-तीन कालम की रिपोर्ट (निज संवादाता द्वारा) हापुड़, 5 दिसम्बर। चीनी के बाजार की स्थिति में अभी कोई सुधार नहीं हुआ है। जानकार लोगों का कहना है कि अधिकारी कुछ भी कहें अभी जल्दी कोई सुधार नहीं होना भी नहीं है। बहुत कम चीनी कहीं-कहीं पर सरकारी भावों पर राशन कार्डों में बिक रही है लेकिन उतनी कम मात्रा में किस का काम चलता है और लोगों को चोर बाजार वालों का मुंह देखना पड़ता है। इस समय के नियत भाव करीब करीब यह है-आगरा 31 ||-) 9 पाई, पटना 32 =_) 8 पाई, कलकत्ता 33 |=_ ).........लेकिन चोर बाजार से कानपुर में 120) , हापुड़ में 80) और मुजफ्फरनगर में 75) प्रति मन के भाव में बहुत थोड़ी चीनी मिल पाती है। बंबई में चोर बाजार का भाव 62) , प्रति 14 सेर के मन के हैं। विवाह शादियों का आजकल शाहलग होने के कारण मांग बहुत है और लोग बहुत परेशान हैं। ...... रिपोर्ट की भाषा बोलचाल की भाषा है-जैसे –उतनी काम मात्रा में किस का काम चलता है और लोगों को चोरबाजार वालों का मुंह देखना पड़ता है। शाहलग ठेठ हिंदी का शब्द का है, जिसका आशय है –विवाह-शादियों के मुहूर्तों का समय। चोरी का खुला बाजार रिपोर्टिंग में देखने में आता था। गौरतलब है कि यह दौर कंट्रोल का दौर था। चोर बाजार की रिपोर्टिंग को सामान्य रिपोर्ट में ही दिया जाता था। ताकि चोर बाजार से लाभान्वित होने की इच्छा रखने वालों के लिए सनद रहे, और वक्त-जरुरत काम आये। कंट्रोल के कष्ट वह कंट्रोल का दौर था। कंट्रोल से आशय यह कि किसी वस्तु का उत्पादन और उपभोग कितना हो, इस पर सरकार का कंट्रोल रहता था। इस कंट्रोल का असर बाजार पर पड़ता था। कंट्रोल के मसले बाजार रिपोर्टिंग में बहुत महत्वपूर्ण तरीके से पेश आते थे। देखें-हिन्दुस्तान शुक्रवार 9 दिसम्बर, 1949 पेज नंबर छह तीन कालम की रिपोर्ट मध्यप्रांत की चिठ्ठी बिक्री कर तथा कपास –मूल्यनियंत्रण का कुप्रभाव अनाज व रुई बाजार में मन्दी, सूती कपड़ा, विदेश चला, करघा संकट की आशंका नागपुर (डाक से)। गत सप्ताह से अनाज और रुई बाजार में मंदी आ जाने के कारण सनसनी फैल गई है। माडेल मिल के कपास की खऱीद बंद कर देने के कारण बाजार में कोई लेवाल नहीं है, जिसका असर किसानों पर पड़ रहा है। वे कपास की गाड़ियां लाने में हिचकिचा रहे हैं। गत शनिवार से रेलवे बुकिंग भी बन्द कर दिया है। इस कारण व्यापारी भी घबराय से मालूम हो रहे हैं। कपास पर बिक्री कर हो जाने के कारण किसानों में असन्तोष है तथा केन्द्रीय सरकार के कपास की कीमत पर नियंत्रण कर देने के कारण मिलों ने खऱीद भी बन्द करदी है। मिल मालिकों ने यह धमकी दी है कि यदि उन्हे नियंत्रित दर पर कपास नहीं मिला, तो वो मिल बन्द कर देंगे। इस धमकी माडेल मिल 16 तारीख से कार्यान्वित करने जा रही है। मिल मालिक धमकाते थे, कंट्रोल रेट यानी सस्ते रेट पर कपास चाहिए था उन्हे। नहीं तो वे खरीद बंद करते थे। तब सनसनी रुई बाजार में मंदी आने से भी फैलती थी। सट्टेबाजों का रुख दृढ़, ढीलापन हिन्दुस्तान 10 दिसम्बर, 1949 पेज नंबर छह व्यापार समाचार, कलकत्ता शेयर एक कालम कलकत्ता 9 दिसम्बर। सट्टेबाजों में बाजार का रुख दृढ़ रहा । इसके विपरीत पटसन व कोयला कम्पनियों के शेयरों के भाव कुछ ढीले रहे, किन्तु कारोबार सब वर्गों में संतोषजनक रहा। ........... बाजार में दृढ़ता से आशय सौदों की मजबूती से था, यानी काफी सौदे हुए। पटसन व कोयला कम्पनियों के शेयरों के भाव ढीले होने का आशय यह रहा कि इनके भावों में चढ़ाव नहीं उतार देखा गया। विस्तृत समीक्षा नहीं इस दौर तक भी शेयर बाजार की विस्तृत समीक्षा आने का दौर नहीं था। शेयरों के भाव दिये जाते थे, और साथ चार आठ-दस लाइनों में विवरण निपटा दिया जाता था। कुल व्यापारिक खबरों की कवरेज आधे पेज से ज्यादा नहीं थी। उदाहरण के लिए –देखें हिन्दुस्तान 20 दिसम्बर 1949 पेज नंबर छह डबल कालम का हेडिंग, इंट्रो, फिर सिंगल कालम की खबर बम्बई –शेयरों के भावों में वृद्धि बम्बई- 19 दिसम्बर। बम्बई शेयर बाजार में शेयरों के भावों में घटत-बढ़त हुई। स्टील की खरीद ज्यादा हुई तथा टाटा डेफर्डस का भाव 1515) से 1530) तक गया था , किंतु आखीर में 1521 |) तक गिर गया। आर्डिनरी के भाव 314 ||) से 313 तक रह गए। इंडियन आयरन तथा बंगाल स्टील्स के खुलते भाव क्रमश 30 - ) व 22 |||) थे, जबकि बन्द भाव क्रमश 30 ||) तीन ||| व 23 -) था।............ प्रतिबन्ध का प्रभाव प्रतिबन्ध और कंट्रोल के मसले खासे महत्वपूर्ण मसले थे। सरकारी नीतियां हर तरह के बाजार पर असर डालती थीं। डालती तो अब भी हैं, पर तब कुछ ज्यादा डालती थीं। और जैसा कि बताया जा चुका है कि रोटी, कपड़े में उलझी अर्थव्यवस्था में कपड़ा बाजार खासी अहमियत रखता था। इसीलिये टेक्सटाइल कंपनियों के शेयरों को बाजार रिपोर्टिंग में खासा महत्व दिया जाता था। देखें-हिन्दुस्तान 5 जनवरी, 1950 पेज नंबर छह दो कालम का व्यापार समाचार बम्बई-4 जनवरी। भारत सरकार द्वारा सूती कपड़े के निर्यात-मूल्य पर से प्रतिबन्ध हटाए जाने के फलस्वरुप आज टैक्सटाइल्स के शेयरों के भावों में मजबूती आ गई। सभी में लाभ दिखाई देता था, परंतु कुछ के भाव बहुत ऊंचे चढ़ गये। भावों में यह जो चढ़ाव आया,वह अल्पकालीन था, इसके बाद इसमें गिरावट हुई। जिन लोगों ने बाद में शेयर खरीदे, उन्हे घाटा भी हुआ, परंतु इतना होने पर भी आज का बाजार कल से कहीं अधिक मजबूती के साथ बन्द हुआ। ................. कटान, पटान  और एडजस्टमेंट कटान और पटान का असर सोने चांदी के भावों पर पड़ता था और अब भी पड़ता है। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान 4 नवम्बर, 1954, पेज नंबर नौ पेज शीर्षक-व्यापार और उद्योग बम्बई सराफा सोने के भावों में मजबूती :चांदी में ढीलापन हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा बम्बई, 3 नवंबर। स्थानीय सराफे में आज तेजड़ियों की कटान तथा समर्थन की कमी के कारण चांदी वायदे के भावों में गिरावट आई, जबकि मंदड़ियों की पटान से सोना वायदे मजबूत रहे। अन्य  बाजारों की सक्रियता की सहानुभूति में सराफे के भावों में सुधार होता दिखाई देता है। कलकत्ता की कमजोर खबरों के कारण चांदी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा जबकि पेशेवर समर्थन के फलस्वरुप चांदी के भावों में बंद होते समय सुधार हो गया। चांदी की 15 सिल्लियों की आमद रही, जबकि 8 सिल्लियों उठाई गई। 4,000 तोले सोने की आमद हुई व 3,000 तोले सोना उठाया गया। मांग अधिक न होने के कारण सोना तैयार के प्रीमियम में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। चांदी व सोने की अडजस्टमेंट दरें क्रमश 159)  व 88 |-) की रही। ...... (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है)  तेजड़ियों से मतलब बाजार में ऐसे कारोबारियों से होता है, जो भविष्य के भावों के बारे में सकारात्मक रुख रखता है यानी उन्हे उम्मीद होती है कि आने वाले दिनों में भाव ऊपर जायेंगे। इस उम्मीद में ये सौदे करते हैं। पर अगर इन्हे भविष्य के बाजार से उम्मीद न हो, तो ये अपने सौदे काटते हैं या कैंसल करते हैं। इसे कटान कहा जाता है। मंदड़िये वे कारोबारी होते हैं, जो इस उम्मीद में कारोबार करते हैं कि आने वाले टाइम में भाव गिरेंगे। मंदड़िये, जैसा कि नाम से साफ है, मंदी की भावना से प्रेरित रहते हैं। मंदड़ियों को जब लगता है कि भविष्य में भाव तेज हो सकते हैं, तो ये अपने भविष्य के सौदों को पटाते हैं या बैलेंस करते हैं। इसे मंदड़ियों की पटान कहा जाता है। और बाजार भावों से ताल्लुक रखने वाले जानते हैं कि अब की दुनिया में आदमी से आदमी भले ही सहानुभूति न रखे, बाजार परस्पर रखते हैं। बाजार रखते भी थे। इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि अन्य  बाजारों की सक्रियता की सहानुभूति में सराफे के भावों में सुधार होता दिखाई देता है। कटान, पटान, सहानुभूति, समर्थन बाजार रिपोर्टिंग में आम तौर पर प्रयुक्त होने वाले शब्द रहे हैं। समर्थन से आशय मांग के समर्थन से है, जैसे समर्थन के कारण चांदी के भाव बढ़ गये, यानी चांदी में मांग आने के कारण इसके भाव बढ़ गये। इस रिपोर्ट में गौर की बात यह भी है कि एडजस्टमेंट शब्द का प्रयोग हुआ है। बाजार रिपोर्टिंग ने विशुद्ध हिंदी के प्रति विशेष आग्रह आम तौर पर नहीं रखा है। मिली-जुली भाषा बाजारों की खासियत रही है, मिली-जुली भाषा बाजार रिपोर्टिंग की खासियत रही है। मुलायम, नरम, स्थिर, वायदा मुलायम, नरम बाजारों की अवस्थाओं के नाम हैं। स्थिर भी बाजार की स्थिति का नाम है। मुलायम से मतलब कि भाव बढ़े नहीं। नरम का मतलब भी वही है। स्थिर का मतलब यह है कि बाजार में उतार-चढ़ाव  नहीं हुआ। वायदों का बाजार तो वैसे राजनीति में सजता है। हर पांच साल में नेता वोटों की पैठ में वायदों की दुकान सजाता है। पर बाजारों में वायदा बाजार से आशय भविष्य के बाजार के सौदों से होता था। यानी ऐसे सौदे जो भविष्य के लिए किये  जाते थे। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान 4 नवम्बर, 1954, पेज नंबर नौ पेज शीर्षक-व्यापार और उद्योग दिल्ली सराफा सोना वायदा स्थिर: चांदी मुलायम (हमारे व्यापार  संवाददाता द्वारा) दिल्ली , 3 नवम्बर। आज स्थानीय सराफा बाजार में चांदी में मुलायमी रही  और सोने के भाव प्राय कल के  भावों के स्तर पर घूमते रहे। सौदा अच्छा हुआ और अन्त में चांदी का रुख नरम रहा और सोना कुछ मजबूत रहा, क्योंकि तैयार बाजार में मांग अच्छी थी। चांदी वायदा कल की तुलना में ||) नीचा खुलकर उत्तरप्रदेश के सटोरियों की बिकवाली के कारण ||=) और नीचा गिरा। ..  खामोशी, खरीदुओं शायरों के अंदाज में कहें, इश्क में जुबान खामोश रहती है, निगाहें बोलती हैं। मामला कल्चरल शॉक का हो सकता है अगर जुबान की खामोशी की बजाय गल्ले बाजार की खामोशी की जिक्र होने लगे। जी होता था और होता भी है। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान 4 नवम्बर, 1954, पेज नंबर नौ पेज शीर्षक-व्यापार और उद्योग दिल्ली बाजार काली मिर्च और लौंग के भाव गिरे-गल्ला स्थिर-किंतु वायदे कमजोर (हमारे संवाददाता द्वारा) दिल्ली, 3 नवम्बर। आज स्थानीय गल्ला बाजार में खामोशी सी रही और भाव प्राय कल जैसे ही स्थिर पड़े रहे। चने के भाव में लगभग |) मन की मुलायमी आई। यह मुलायमी चने की आगामी फसल अच्छी होने की आशा से और मांग कम होने के कारण आई। अनाज के साथ दालों के भावों में भी कोई विशेष घटा-बढ़ी नहीं हुई। तिलहन तथा तेलों में स्थिरता का रुख बना रहा और भाव कल के स्तर पर पड़े रहे। मूंगफली तेल के सौराष्ट्र से आज लगभग 7000 टीन यहां पर पहुंचे। इनमें से 3500 टीन वनस्पति की फैक्ट्रियों ने ले लिये। बाकी यहां पर खप गये। आमद के साथ-साथ मांग भी अच्छी रहने के कारण न तो भाव बढ़े और न वे घटे। यद्यपि मूंगफली के तेल के वायदे के भावों में बिक्री के दबाव से अवश्य मुलायमी आई, मगर उसका तैयार माल के भावों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। ............. गुड़ के भाव  कल से 1) मन गिरकर 17) मन हो गये। वायदे के  भावों में भी आज मुलायमी रही। उत्तर प्रदेश की मंडियों में नये गुड़ की आमद अच्छी है, जिससे वहां के व्यापारी बिकवाल बने। चीनी के भाव मुलायम पड़े हुए हैं। बाहर की मांग बहुत कम है, जबकि आमद अच्छी है। आज चीनी के यहां पर दो वैगन आये। स्थानीय पंजाब एक्सचेंज में जिन्सों के वायदा बाजार का रुख मुलायमी की ओर ही रहा। कारोबार आज ढीला ही रहा। बाजार कल से लगभग 4-6 आने नीचा खुला और फिर खरीदुओं की अनुपस्थिति में उसी स्तर पर घूमता रहा। गुड़ और सरसों वायदे में 1-1 आने की और नरमी आई। ......... किराना मंडी में काली मिर्च के भाव 10) मन और लौंग के भाव 10-15 रुपये मन कम हो गये। माल अच्छी मात्रा में आ रहा है। हल्दी के भावों में भी थोड़ी नरमी है। रिपोर्ट में खरीदारों के लिए खरीदुओं का प्रयोग किया गया है। मजेदार प्रयोग है। अब इस तरह का प्रयोग देखने में नहीं आता था। shesh agli daak mein.... From ravikant at sarai.net Mon May 28 20:32:26 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 28 May 2007 20:32:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bazar bhav: gatank se aage Message-ID: <200705282032.26183.ravikant@sarai.net> dosto, yeh post thoRi lambi thee, lihaza do hisson mein ise toRna paRA. R ------ टेक्सटाइल की ऊंचाई, टेक्सटाइल की खामोशी  हिन्दुस्तान 4 नवम्बर, 1954, पेज नंबर नौ पेज शीर्षक-व्यापार और उद्योग बम्बई शेयर बाजार  पेशेवरों के समर्थन के कारण भावों में चहुंमुखी सुधार बम्बई, 3 नवम्बर। पेशेवरों का पुन समर्थन मिल जाने के कारण बाजार की भावना में आज बेहतरी का रुख आ गया और भावों में चहुंमुखी सुधार हुआ। स्टील शेयरों में टाटा आर्डिनरी 223) से बढ़कर 226) पर बन्द हुए। सहानुभूति में इंडियन आयरन 35 =_) पर आ गये। पेशेवरों की खरीद के कारण टैक्सटाइल शेयर भी सक्रिय रहे। बम्बई डाइंग 515) पर 8 |||ऊंचे बन्द हुए। बैंक, बीमा तथा बिजली कम्पनियों के शेयर खामोशी के साथ स्थिर रहे। आम रुख की सहानुभूति में विविध समूह के शेयरों में भी ऊंचे का रुख आ गया। ...  एक रिपोर्ट और देखें- हिन्दुस्तान 5 नवम्बर 1954 व्यापार और उद्योग पेज नंबर नौ दो कालम की खबर  बम्बई शेयर बाजार बाजार खामोशी के साथ दृढ़- टेक्सटाइल में सक्रियता  (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा)   बम्बई, 4 नवम्बर। स्थानीय शेयर बाजार में आज मजबूती का रुख रहा और प्रोत्साहन की कमी के कारण भावों में सीमित उतार-चढ़ाव हुआ। टाटा स्टील आर्डिनरी 227) पर खुले और 226 ||| ) पर बंद हुए ........टेक्सटाइल में कम कारोबार किया गया। ........... टेक्सटाइल की सक्रियता और टेक्सटाइल की खामोशी दोनों का महत्व था। स्टील की चमक बाजार रिपोर्टिंग का एक खास पक्ष यह रहा है कि इसमें शब्दों का चुनाव संबंधित आइटम के हिसाब से किया जाता रहा है। स्टील तो चमक जाता था, पर टेक्सटाइल शेयर आम तौर पर मजबूत या कमजोर या खामोश होते थे। एक नमूना देखें-- हिन्दुस्तान शनिवार, 6 नवम्बर, 1954 पेज सात दो कालम की खबर बम्बई शेयर बाजार अधिक उत्पादन के समाचार से  टाटा स्टील में चमक (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 5 नवम्बर। बाजार में वैसे तो खामोशी रही किन्तु गत माह टाटा आयरन एंड कम्पनी लिमिटेड का उत्पादन अधिक रहने के समाचार से टाटा आर्डिनरी में चमक आ गई। बेलापुर भी एक नये स्तर पर पहुंचे किन्तु मुनाफा वसूली के कारण वे पुन:  नीचे आ गये। बाजार का रुख अच्छा ही रहा। .... स्टील शेयरों की तुलना में टैक्सटाइल खामोश रहे। नया समर्थन न मिलने के कारण भाव साधारणतया पूर्व स्तर पर स्थिर रहे। ...............  समाजवाद से घबराहट  उस दौर में शेयर बाजार समाजवाद से डरता था। समाजवाद से डरकर बाजार के  भाव के गिर जाया करते थे। बाजार रिपोर्टिंग में इस डर को साफ देखा जा सकता है-  हिन्दुस्तान गुरुवार 23 दिसम्बर 1954,पेज नौ बम्बई शेयर बाजार प्रधानमंत्री के भाषण के फलस्वरुप शेयरों में गिरावट देश के लिए समाजवादी अर्थ-व्यवस्था की वकालत बाजार के लिए परेशानी (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 22 दिसम्बर, । प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरु द्वारा देश के लिए समाजवादी अर्थ व्यवस्था की वकालत करने के कारण शेयर बाजार में आज परेशानी की भावना पाई जाती थी। तेजड़िए अपने शेयर बेचने को उत्सुक थे। बम्बई डाइंग में जो कि हाल ही में बाजार में उल्लेखनीय बना हुआ था, 20) की गिरावट आई। टाटा आर्डीनरी और इंडियन आयरन दोनों ही दबे हुए रहे। कल के भावों की तुलना में सभी शेयर गिर कर बन्द हुए। ......... शेयर बाजार परेशानी की भावना में आ जाया करता था। समाजवाद पर आश्वासन से सुधार समाजवाद से डरा हुआ शेयर बाजार  आश्वासन पाकर सुधर भी जाया करता था। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान 24 दिसम्बर, 1954 पेज नौ बम्बई शेयर बाजार बाजार में सुधार की भावना-इम्पीरियल नीचे गिरे (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 23 दिसम्बर। प्रधानमंत्री द्वारा यह आश्वासन दिये जाने पर कि राज्य जो सम्पत्ति हस्तगत करेगा, उसकी उचित क्षतिपूर्ति करेगा, कल की हानि बहुत कुछ पूरी हो गई। एक प्रमुख उद्योगपति ने देश की आर्थिक प्रगति में निजी उद्योगों के महत्व के सम्बन्ध में वक्तव्य दिया उसका भी बाजार की भावना पर अनुकूल प्रभाव पड़ा। इसके अलावा यह भी अफवाह थी कि टाटा स्टील कम्पनी को विस्तार कार्यक्रम के लिए विश्व बैंक से पड़े पैमाने पर ऋण मिलने की संभावना है।..... प्रधानमंत्री ने आश्वासन दिया कि समाजवाद ऐसे ही नहीं आ जायेगा। कायदे से आयेगा, जिसकी सम्पत्ति राज्य लेगा, उसे उचित क्षतिपूर्ति की जायेगी। बाजार इस आश्वासन पर सुधर गया। इत्ते-इत्ते समाजवाद का आतंक समाजवाद शेयर बाजार को आतंकित करता था। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान 27 दिसम्बर, सोमवार 1954, पेज सात पेज का शीर्षक-साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा कलकत्ता शेयर, सिंगल कालम की खबर नेहरुजी के आश्वासन से बाजार में सुधार (हमारे विशेष संवाददाता द्वारा) कलकत्ता, 26 दिसम्बर। अनेक प्रतिकूल तत्वो के कारण स्थानीय शेयर बाजार बुधवार तक दबा हुआ रहा। लेकिन वृहस्पतिवार को जो कि सप्ताह में कारोबार का अंतिम दिन था, बाजार का रुख निश्चित रुप से बेहतर हो गया क्योंकि पटसन शेयरों में कुछ पटान की गई और चाय शेयरों  में पुन सक्रियता  गई। बाजार सतर्कता के रुख के साथ बन्द हुआ। तेजड़ियों की कटान प्रारम्भिक मन्दी के लिए उत्तरदायी थी। अनेक अनिश्चितताओं ने विक्रेताओं को बाजार से भगा दिया और अनिच्छुक बाजार पर  शेयर लाद दिए गए। निजी सम्पत्ति हस्तगत करने के लिए संविधान में संशोधन के लिए संविधान सभा में विधेयक प्रस्तुत किए जाने,समाज के लिए समाजवादी ढांचा स्वीकार करने के सम्बन्ध में लोकसभा प्रस्ताव स्वीकृत होने, धीरे-धीरे मैनेजिंग एजेंसी प्रणाली खत्म किए जाने के भय और इम्पीरियल बैंक के राष्ट्रीयकरण की घोषणा ने मिलकर बाजार में आतंक की स्थिति पैदा कर दी। लेकिन हस्तगत की गई निजी सम्पत्ति की उचित क्षति पूर्ति के प्रधान मंत्री के आश्वासन और एक प्रमुख  उद्योगपति के वक्तव्य के, जिसमें कहा गया कि निजी उद्यमों को देश के विकास में बड़ा भाग लेना है, कारण सप्ताह के उत्तरार्ध में हानि का अधिकांश भाग खत्म हो गया।......... निजी सम्पत्ति हस्तगत किये जाने का खतरा, इम्पीरियल बैंक के राष्ट्रीयकरण ने बाजार में आतंक पैदा कर दिया। समाजवाद समय-समय पर बाजार को डराता रहा। आश्वासन के बाद फिर सुधार की भावना दिखाता रहा। एक और उदाहरण यह है- हिन्दुस्तान 27 दिसम्बर, सोमवार 1954, पेज सात पेज का शीर्षक-साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा बम्बई शेयर बाजार सरकारी आश्वासन के कारण प्रारम्भिक घबराहट खत्म (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 25 दिसम्बर। इम्पीरियल बैंक तथा कुछ अन्य राज्य बैंकों के राष्ट्रीयकरण की घोषणा के कारण आलोच्य सप्ताह में शेयर दबे हुए रहे। सप्ताहांत में भावना में सुधार हुआ। प्रधान मंत्री ने समाजवादी ढांचे के सम्बन्ध में जो विचार प्रकट किए तथा संविधान की धारा 31 के संशोधन के प्रस्ताव के कारण घबराहट का वातावरण पैदा हो गया। ..... लोहेतर, गल्ला  और जाने कहां गयी साइकिल कई शब्द अब नहीं रहे, जैसे लोहेतर। लोहे से इतर यानी लोहे के अलावा धातुओं के लिए इसका प्रयोग होता था-लोहेतर धातुएं। देखें- हिन्दुस्तान 27 दिसम्बर, सोमवार 1954, पेज सात पेज का शीर्षक-साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा लोहेतर धातुएं रांगे में कमजोरी, ताम्बा मजबूत इस शीर्षक से बम्बई डेटलाइन से खबर दी गयी है। एक और रिपोर्ट देखें- हिन्दुस्तान 27 दिसम्बर, सोमवार 1954, पेज सात पेज का शीर्षक-साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा चार कालम की खबर जिसे लीड भी कहा जा सकता है दिल्ली बाजार हल्दी, काजू, ग्वार, बिनौले के तेल, खालों, देसी साइकिलों और गर्म कपड़ों में मुलायमी सभी बाजारों में कारोबार कम-जिंस वायदे कुछ मजबूत (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली-26 दिसम्बर। आलोच्य सप्ताह में स्थानीय बाजारों में अनिश्चित रुख रहा। कुछ बाजारों में –जैसे गल्ला, जिन्सों का वायदा, किराना में थोड़ी मजबूती रही। तेल, खल, खालें और कपड़ा बाजार मुलायम रहे, जबकि साइकिल, तिलहन जैसे बाजारों का रुख दुतरफा रहा। बाजारों में रुख तो अलग-अलग रहा, लेकिन एक बात में अधिकांश बाजार समान रहे। यह समानता कारोबार की थी। अर्थात कारोबार प्राय सभी में क्म हुआ।  कारोबार कम होने का कारण उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बिक्री कर सम्बन्धी जारी किया गया आदेश है। उस आदेश से व्यापारियों में घबराहट मची हुई है और उत्तर प्रदेश में माल नहीं भेजते। इस सम्बन्ध में शनिवार को दिल्ली राज्य की विभिन्न व्यापारिक संस्थाओं के प्रतिनिधियों की एक सभा हुई थी। सभा में कुछ प्रस्ताव पास किये गए। एक प्रस्ताव द्वारा उत्तर प्रदेश राज्य सरकार से मांग की गई कि वह दिल्ली के व्यापारियों पर कर जांच आयोग की रिपोर्ट आने तक बिक्री कर लागू  न करे। प्रस्ताव में यह प्रकट किया गया है कि यदि उत्तर प्रदेश सरकार उनकी मांग स्वीकार न करेगी, तो उसके विरोध में वहां के बिक्री कर विभाग में अपने नाम दर्ज नहीं कराएंगे। गल्ला मजबूत गल्ला बाजार में मजबूती का रुख रहा। गेहूं दड़े की आमद कम थी, जिससे भाव लगभग |||) मन मजबूत हो गए। अच्छे किस्म के गेहूं के भाव स्थिर रहे। मध्य सप्ताह तक चने का रुख मजबूत रहा। बाद में जब पंजाब सरकार के स्टाक नीलाम हुए तो यहां पर आमद बढ़ गई और भाव भी नरम हो गए। ग्वार में 8-10 आने की मुलायमी आई। बासमती चावल के भाव पूर्व सप्ताह के स्तर पर बने रहे, लेकिन सेला और दड़ा चावल के भावों में थोड़ी मजबूती रही। मक्का की उत्तर प्रदेश से आमद अच्छी थी, जबकि पंजाब से तथा स्थानीय मांग अच्छी थी। भाव 4-6 आने की घटा बढ़ी से घूमते रहे। मसूर में थोड़ी मजबूती रही। मूंग , उड़द के भावों में कोई हेर-फेर नहीं हुआ। दालों के बाजार में स्थिरता का रुख रहा। तिलहन में स्थिरता सरसों की बंगाल में अच्छी मांग होने के कारण भाव में ||) की मजबूती आई थी, परन्तु अन्त में मांग कम होने से मजबूती टिक नहीं सकी, भाव पूर्व सप्ताह के स्तर पर आ डटे। मूंगफली की फसल पंजाब में तथा उत्तर प्रदेश में अच्छी है। वहां की मंडियों में माल भी अच्छा आ रहा है, किन्तु व्यापारी स्टाक नहीं करते।  भाव पड़े रहे। तिल की फसल अच्छी है और आमद भी अच्छी है, जिससे भाव कमजोर रहे। बिनौला दखनी में थोड़ी मजबूती रही, जबकि बिनौला काले की खरीदारी कम थी। गोले के भाव थोड़े मजबूत थे।............. जिंस वायदा मजबूत जिन्सों के वायदा बाजार में इस बात कुछ मजबूती का रुख रहा। सौदा खासा हुआ। ....... जिन मंदड़ियों ने पिछले कुछ  सप्ताहों से अपना अड्डा जमाया हुआ था  और बिक्री कर चुके थे। जब कोई नया बिकवाल नहीं रहा, तब से मजबूती आती गई। इसके अतिरिक्त बहुत ही अफवाहें थीं, जिनसे मजबूती आई। कुछ अफवाहें ये थीं कि सरकार दूर पूर्व देशों में गुड़ भेजेगी और भाव निर्धारित करके बाजारों से गुड़ खरीदेगी। बाजारों में आमद पूर्व सप्ताहों जैसी ही रही। मौसम सूखा होने और गुड़ की सहानुभूति में सरसों वायदे में सुधार हुआ। ग्वार के तैयार बाजारों में आमद अच्छी रही बताते हैं, जिससे वायदे में प्राय नरमी रही। मटर में स्थिरता रही और मामूली उतार-चढ़ाव के साथ भाव घूमते रहे। कारोबार भी ढीला ही था। मूंगफली तेल वायदे में मुलायमी का रुख रहा। यह मुलायमी वायदे की सहानुभूति में आयी।........ साइकिलों में अनिश्चित रुख साइकिलों के बाजार में भी कारोबार अधिक नहीं हुआ और रुख अनिश्चित रहा। कुछ किस्म की साइकिलों के भाव पड़े रहे , जबकि अन्य किस्म की साइकिलों में या तो थोड़ी नरमी आई या मजबूती आई। देशी साइकिलों में रोबिन हुड तथा रैले साइकिलों की काफी संख्या में आमद होने से  उनके भाव 2-3 रुपये प्रति साइकिल कम हो गए। फिलिप्स साइकिलों में भी मामूली नरमी आई। इनके विपरीत हरकुलिस साइकिल का माल कम आया, जिससे भाव लगभग 188 ||) तक हो गए। पूर्व सप्ताह में इसे के भाव 187) के आसपास थे। अन्य किस्म की साइकिलों के भावों में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।  टायरों की सप्लाई कम रही। इससे टायरों के भाव भी मामूली मजबूत रहे। कपड़ा बाजार में नरमी कपड़ा बाजार में नरमी रही। बाहर के गाहक न होने से कारोबार बहुत ढीला रहा। हालांकि सूती कपड़े में नाम मात्र ही नरमी आई, लेकिन गरम कपड़े में अच्छी मुलायमी रही। बताया जाता है कि लगभग एक महीने तक कारोबार ढीला रहेगा। बाहर के गरम कपड़े के व्यापारी पहले ही कपड़ा ले जा चुके हैं। एक महीने तक वे अपना माल बेचेंगे, वरना बाद में मौसम निकल जाएगा। सूती कपड़े की खरीद का मौसम संभवत फरवरी से शुरु होगा।  इन कारणों से आगामी एक महीने में कम कारोबार होने की संभावना है। गौरतलब यह है कि साप्ताहिक रिपोर्ट कुछ विस्तृत हुआ करती थी।  साइकिल बाजार की रिपोर्ट का महत्व होता था। अब साइकिल के बाजार का जिक्र और फिक्र किसी अखबार में नहीं होता था। पर यह वह दौर था, जब फिल्मों के हीरो भी साइकिलों पर चलते-फिरते दिखायी देते थे। साइकिल परिवहन का खास साधन थी। साइकिल को एक खास सामाजिक मान्यता थी। साइकिल की यह मान्यता बाजार रिपोर्टिंग में साफ तौर पर दिखायी देती है। रिपोर्ट में दर्ज है- देशी साइकिलों में रोबिन हुड तथा रैले साइकिलों की काफी संख्या में आमद होने से  उनके भाव 2-3 रुपये प्रति साइकिल कम हो गए। फिलिप्स साइकिलों में भी मामूली नरमी आई। इनके विपरीत हरकुलिस साइकिल का माल कम आया,..  रोबिन हुड और रैले, फिलिप्स और हरकुलिस साईकिलों का जिक्र खासे सम्मान से किया जाता था। मध्यवर्गीय समाज में साइकिल का सम्मान खत्म हो चुका है, सो अब की बाजार- रिपोर्टिंग से भी वह गायब हो गयी है। समाजवाद की कंपकपी,हड़ताल का हड़कंप समाजवाद का जोर था, हड़तालों के हल्ले में बाजार सहम जाया करता  था। बाजार रिपोर्टिंग में श्रमिक हड़तालों के बाजार पर असर को विस्तार से बताया जाता था। देखें एक रिपोर्ट-दैनिक हिंदुस्तान, 21 अक्तूबर 1957, सोमवार,पेज नंबर सात शीर्षक साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा बम्बई शेयर बिकवाली के दबाव से पूर्व सप्ताहों का लाभ खत्म (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 20 अक्तूबर। स्थानीय शेयर  बाजार में गत दो सप्ताहों में जो सुधार हुआ था वह सुधार नए समर्थन की कमी और मंदड़ियों की बिकवाली के कारण आलोच्य सप्ताह में कायम नहीं रह सकता और भाव पुन गिर गये। सप्ताहांत में कुछ कम्पनियों से उत्साहवर्धक समाचार मिलने के कारण भावों में कुछ सुधार अवश्य हुआ किन्तु इसके बाद भी प्रारम्भ की हानि खत्म नहीं हो सकी। सप्ताहांत में बन्द होते समय बाजार में खामोशी की भावना थी। आलोच्य सप्ताह में औद्योगिक खामोश खुलने के बाद इस आशंका के कारण कि शीघ्र ही देश में श्रम हड़तालें शुरु हो जाने वाली हैं तेजड़ियों की कटान का शिकार बने। इसी समय दिल्ली में श्रम मंत्रियों का जो सम्मेलन हुआ, उसने यह सिफारिश की कि वेतन आयोगों और औद्योगिक अदालतों द्वारा जो फैसले दिए जाएं उनको लागू न करने वाले औद्योगिक संस्थानों को कठोर दंड दिया जाय। इससे शेयरों में और गिरावट आई। कलकत्ते में बैंक कर्मचारियों की हड़ताल बदस्तूर जारी रहने तथा रेलवे में हड़ताल शुरु हो जाने की आशंका से बाजार पर बिकवाली का  और दबाव पड़ा। दिवाली के निकट आ जाने पर भी कपड़ा बाजार की स्थिति में सुधार न होने के कारण टैक्सटाइल शेयरों में भारी बिकवाली की गई, क्योंकि मिलों के पास स्टाक बढ़ने जाने से इस उद्योग की कठिनाइयां बराबर बढ़ती जा रही हैं। ..........कपड़ा बाजार की स्थिति में सुधार न होने, मिलों के पास स्टाक में उत्तरोत्तर वृद्धि होते जाने और मिलों की उत्पादन लागत बढ़ जाने के कारण टैक्सटाइल शेयरों में हानि अधिक रही। बैंक शेयर भी मुलायम रहे किन्तु बिजली शेयरों का समर्थन किया गया। बीमा कम्पनियों में न्यु इंडिया इस समाचार के कारण ऊपर उठ गए कि पूंजी विनियोग के नियंत्रक ने कंपनी को बोनस शेयर जारी करने की अनुमति दे दी है। चीनी व सीमेंट शेयरों में स्थिरता रही। मोटर कंपनियों के शेयर भी स्थिर थे। जहाज कंपनियों के शेयरों में जहां सिंधिया ऊंचे उठे वहां ग्रेट ईस्टर्न नीचे रहे। विविध समूह में एलकाक, बंबई बर्मा, नेशनल रेयन, प्रीमियर कंस्ट्रक्शन , टाटा लोको, टाटा केमिकल, विमको तथा अन्य़ शेयर नीचे रहे। श्रम कानून कड़ाई से पालन होंगे, इस आशंका से बाजार सहम जाया करता था। समाजवाद से आतंकित रहने वाला बाजार श्रम कानूनों की कड़ाई के झटके झेलकर और नीचे चला जाया करता था। उस दौर की बाजार रिपोर्टिंग इस पक्ष का उल्लेखनीय वर्णन करती थी। उड़द की पूछताछ, दिसावर,  घटिया बाजरा बाजार रिपोर्टिंग में पूछताछ कम होने का मतलब होता था कि संबधित वस्तु की मांग कम हो रही है। घटिया बाजरा का स्टाक अच्छा जब कहा जाता था, तो इसका मतलब था कि कम गुणवत्ता वाले बाजरा का स्टाक खासी मात्रा में था। अब घटिया को खुले आम घटिया नहीं लिखा जाता। उसे कम गुणवत्ता वाला लिखा जाता है। दिसावर की मांग का जिक्र भी खासे महत्वपूर्ण अंदाज में होता था। दिसावर की मांग से आशय उस मांग से है, जो मुख्य केंद्रों से ना आकर छोटे केंद्रों और दूर-दराज के केंद्रों से आती थी। एक नमूना देखें- दैनिक हिंदुस्तान 21 अक्तूबर 1957, सोमवार पेज नंबर सात शीर्षक साप्ताहिक व्यापारिक समीक्षा दिल्ली बाजार तेल व बारदाना दृढ़-किराना मंडी में भी मजबूती जिंस वायदे और शेयर नरम-सराफा वायदों में अनिश्चितता (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली-20 अक्तूबर। आलोच्य सप्ताह में स्थानीय गल्ला तथा दाल मंडी में  मिश्रित रुख रहा, किन्तु तेल बारदाना तथा किराने में प्राय दृढ़ता थी। इसके विपरीत लोहेतर धातुएं, जिन्स वायदों, शेयर, तिहलन तथा चीनी आदि मंडियों में मुलायमी आई। सराफे में नीरसता थी। गल्ले  में फार्म तथा दड़ा गेहूं की आमद व खपत बराबर होने से उनके भाव क्रमश रु. 17 तथा रु. 14 प्रति मन पर पड़े रहे। पीले चने की सप्ताह के अन्तिम दिनों में मांग निकली। स्टाक की कमी  के कारण उसमें लगभग  75 नए पैसों की मजबूती आकर अंत  में भाव रु. 12.25 प्रति मन पर रहे। इसके विपरीत गरड़ा चने की आमद अच्छी थी। इससे उसमें 37 नए पैसों की मुलायमी आई। बढ़िया काबली चने की आमद की तुलना में उसकी खपत मामूली होने के कारण उसमें एक रुपये की नरमी आकर  अन्त में भाव रु. 16 प्रति मन पर रहे। बासमती चावल की आमद कम थी।  त्यौहारों के कारण मांग ज्यादा हुई तथा स्टाक की कमी के कारण उसमें रु. 1 की मजबूती आकर अन्त में भाव रु. 29 से र. 34 प्रति मन पर स्थिर रहे। सेला चावल के भाव रु. 24 से रु. 26 प्रति मन पर स्थिर रहे। मोटे अनाज मोटे अनाजों में मक्का की आमद की तुलना में खपत कम होने के कारण उसमें थोड़ी मुलायमी रही। घटिया बाजरे का  स्टाक अच्छा था। उत्पादन वाले क्षेत्रों की मंडियों में नया बाजरा आने से पुराने माल के भावों में लगभग 50 नए पैसों की नरमी आई। बढ़िया बाजरे के भाव रु. 15 प्रति मन पर बोले जा रहे थे। दड़ा तथा मोटी मूंग की आमद कम थी। मांग अधिक होने के कारण उसमें लगभग 25 नए पैसों से 75 नए पैसों तक की मजबूती आई, किन्तु उड़द की पूछताछ कम होने से उसमें थोड़ी मुलायमी रही। मसूर की आमद की तुलना में खपत अच्छी होने के कारण उसके भावों में लगभग 50 नए पैसों की वृद्धि हुई। ग्वार की आमद कम थी। दिसावरों से तेजी की खबरों के आधार पर खऱीदार अच्छे रहे, जिससे उसमें लगभग रु. 1 की तेजी रही। छिलका चने का स्टाक अच्छा था, मगर मांग कम होने के कारण उसमें ल गभग 37 नए पैसों की नरमी रही। सराफा सराफे में अनिश्चितता रही। कारोबार ढीला था, जिससे भावों में उतार-चढ़ाव भी कम हुआ। शुरु से ही बाजार नरम था। और फिर इस खबर से कि जापान भारत को पूंजीगत चीजों के आयात में सहायता देगा-विक्रेताओं का जोर हुआ। इससे भावों में और मुलायमी आई। पहले दिन ही नीचे के भावों प खरीद का समर्थन प्राप्त हुआ , फलस्वरुप भावों में थोड़ा सुधार हुआ। यह सुधार अस्थायी सिद्ध हुआ, क्योंकि तिब्बत से भारी मात्रा में चांदी आने के डर से कलकत्ते की एक प्रमुख पार्टी  ने अच्छी बिक्री की। किंतु तैयार चांदी में उठाव अधिक होने से दृढ़ता रही। मध्य सप्ताह के बाद अनधिकृत सोना पकड़े जाने की खबरों से तथा सीरिया में स्थिति गम्भीर होने से बाजार में फिर सुधार आया। फिर भी बाजार में अनिश्चितता रही। .....लोहेतर धातुएं लोहेतर धातुओं में प्राय नरमी की धारणा रही। खासतौर से तांबे के तारों की फूट के भाव बाहर की मंदी की खबरों  से रु. 120 से गिरकर रु. 115 प्रति मन हो गए। इसके अलावा तांबे की सिल्लियों, तांबे की फूट............का स्टाक अच्छा था और मांग कम थी, जिससे उनमें रु. 2 से रु. 3 मन की मुलायमी आई।  सराफा बाजार की  रिपोर्टिंग अंतर्राष्ट्रीय कारकों जैसे जापान के आयात सहयोग और तिब्बत से आने वाली आपूर्ति का जिक्र करती थी। जीवन बीमा निगम की अंधाधुंधी, दरम्याने दर्जे बाजार रिपोर्टिंग में अंधाधुंधी शब्द का प्रयोग होता था। अंधाधुंधी का आशय एक तरह से मनमानी से है। एक नमूना देखें- हिन्दुस्तान सोमवार, 23 दिसम्बर, 1957 बीमा निगम के विनियोग पर बहस से बाजार कमजोर (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 22 दिसम्बर। आलोच्य सप्ताह में बिकवाली के भारी दबाव के कारण शेयरों में उल्लेखनीय गिरावट आई। यह बिकवाली संसद में जीवन बीमा निगम के विनियोग के सिलसिले में जो बहस हुई, उसके कारण की गई। सप्ताहांत में बाजार कमजोर रहा। जीवन बीमा निगम के  विनियोग के सिलसिले में संसद में जो बहस हुई उससे बाजार को भावना को गहरा धक्का लगा। इस बहस से यह स्पष्ट हो गया कि राष्ट्रीयकरण हो जाने के बाद भी जीवन बीमा निगम ने अपने विनियोग में उसी अंधाधुंधी से काम लिया जिस अंधाधुंधी से निजी क्षेत्र की कम्पनियां अपने हित में पहले लेती थीं। इससे वह सारा मकसद खत्म हो गया, जिसके लिए बीमा कारोबार का राष्ट्रीयकरण किया गया था। इस बहस से बाजार में यह भय फैल गया है कि जब तक वित्त मंत्री द्वारा सुझाई गयी विनियोग के सिलसिले में जांच पूरी नहीं हो जाती है, तब तक जीवन बीमा निगम शेयरों का समर्थन नहीं कर सकेगी यह उल्लेखनीय है कि काफी अर्से से बाजार को केवल जीवन बीमा का समर्थन मिल रहा है और अन्य क्षेत्रों से शेयरों के लिए बिलकुल राशि नहीं आ रही है। इस भय के कारण तेजड़ियों ने भारी कटान की जिसका लाभ उठाकर मंदड़ियों ने भाव और गिरा दिए। सप्ताहांत में मंदड़ियों की पटान से शेयरों में कुछ सुधार अवश्य हुआ, किंतु इसके बाद बावजूद बाजार कमजोर बंद हुआ। इसके अलावा दरम्याने दर्जे के कपड़े पर उत्पादन कर कम कर देने के बाद भी कपड़ा बाजार की स्थिति में सुधार न होने से भी बाजार में कमजोरी आई। ..... टैक्सटाइल शेयरों के भाव भी कटान के कारण गिरे। (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है)  गौरतलब है कि यह वह दौर था, जब जीवन बीमा निगम शेयर बाजार में महत्वपूर्ण खिलाड़ी हुआ करता था। जीवन बीमा निगम अगर शेयर बाजार से शेयर खरीदा करता था, तो बाजार ऊपर उठ  जाया करता था  और अगर निगम खरीदारी नहीं करता था, तो बाजार में मंदी की भावना आ जाया करती थी। दरम्याने शब्द का प्रयोग बहुतायत में होता था। दरम्याने से मतलब मीडियम स्तर, मध्यम स्तर से है। कुल मिलाकर 1947 से 1957 की बाजार रिपोर्टिंग समाजवाद के डर को बयान करती है। समाजवाद से बाजार खामोश, अस्थिर , सहमा हुआ हो जाता था। समाजवाद आता था, या नहीं आता था, यह सवाल तो अलग है, पर शेयर बाजार उसके आने की बात भर से डर जाया करता था। यह डर आगे के दौर में भी चला। उस दौर में भी आपको ले जायेंगे। 1958 से 1967 की अवधि की भी करेंगे याद, मिलते हैं एक छोटे से ब्रेक के बाद। * From neelimasayshi at gmail.com Mon May 28 15:35:34 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Mon, 28 May 2007 15:35:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOClgCDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSt4KS+4KS34KS+IOCkquCksCDgpJXgpKXgpL7gpKbgpYfgpLYg4KSu?= =?utf-8?b?4KWH4KSCIOCkheCkteCkv+CkqOCkvuCktg==?= Message-ID: <749797f90705280305s75eb6fd1j8f999fe9b07b2a06@mail.gmail.com> *इंटरनेट का मोहल्ला *बुरी हिंदी की अच्छी चर्चा-चिंता करते ब्लॉग *अविनाश * हिंदी की चिंता करते हुए सुधीश पचौरी जब अनउलटनीय जैसे भाब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करते हैं, तो भाषा के शास्‍त्रीय संस्कारों वाले हमारे दोस्तों को लगता है कि इस तरह का प्रयोग एक ऐसे ज़लज़ले की तरह है, जो हमारी भाषा को खत़्म कर देगा। वहीं कुछ लोग हिंदी में समंदर पार के लोकप्रिय और सहज शब्दों की आवाजाही की वकालत करते हैं। कहते हैं, अंग्रेज़ी इसलिए फैल रही है, क्योंकि उसकी शब्द सामर्थ्य फैल रही है। उदाहरण के तौर पर ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी की बात बताते हैं। कहते हैं कि हर संस्करण में दूसरी भाशाओं के कुछ-एक शब्द जुड़ जाते हैं। यह किसी भी भाषा के अमीर होने का राज़ है कि उसकी खिड़कियां खुली है। अंग्रेज़ी के संदर्भ में इस बात का हामी होने के बावजूद हमें अंग्रेज़ी के फैलने की ज्यादा वज़ह उसके साम्राज्य का फैलना लगता है। बहरहाल, शब्द ज़रूरी हैं और हिंदी में शब्द कम हो रहे हैं। यही वजह है कि इस भाषा में रचे जाने वाले साहित्य का असर उसके समाज पर नहीं है। किताबें कम बिकती है और सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ता है कि कोई क्या लिख रहा है। इसके बावजूद कि हर साल कुछ स्वायत्त सरकारी संस्थानों की तरफ से हिंदी के मेधावी लोगों को पुरस्कार मिलते हैं और बाकी मेधावी लेखकों को पुरस्कार पायी किताब की सामाजिक ज़रूरत से ज्यादा ईर्ष्या भाव से मुठभेड़ करनी पड़ती है। ऐसी हिंदी में किसी बड़े लेखक के साहित्य के अधिकांश भाग को कूड़ा कहने पर नामवर सिंह फंस गये हैं। वे फंस इसलिए गये, क्योंकि उन्होंने ऐसी हिंदी में लिखने से ज्यादा बोलना ज़रूरी समझा। अगर बोलने की तादाद में लिखा होता, तो वे ऐसे बयान से पहले अपनी तरफ देख गये होते और तब बनारस की अदालत का मूर्ख न्यायाधीश उन्हें सम्मन नहीं भेज पाता। खैर, हिंदी जैसी है, उसे वैसी ही रहने दिये जाने की तरफदारी अनामदास नहीं कर रहे। वे यूएसए में रहते हैं। उनका असली नाम क्या है, किसी को नहीं मालूम। किसी को... मतलब... इंटरनेट पर हिंदी में सक्रिय उन तमाम ब्लॉगरों को, जो अनामदास के लेखन के कायल हैं। उनके ब्लॉग का पता है: http://anamdasblog.blogspot । वे लिखते हैं, *'आप उतने ही शब्द जानते हैं, जितनी आपने दुनिया देखी है। शब्द भंडार और अनुभव संसार बिल्कुल समानुपाती होते हैं।` इस इंट्रो के साथ वे बताते हैं कि अगर आप ये नहीं जानते, तो आपने ये नहीं किया और वो नहीं जानते तो आपने वो नहीं किया। इस तरह वे लिखते हैं, 'करनी, साबल, खंती, गैंता, रंदा, बरमा जैसे शब्द अगर आपको नहीं मालूम, इसका मतलब है कि आपके घर में मज़दूरों और बढ़ई ने कभी काम नहीं किया या फिर वे क्या करते हैं, क्यों करते हैं, कैसे करते हैं, इसमें आपकी दिलचस्पी नहीं रही।` * ब्लॉग लेखन में सहूलियत ये है कि इसमें सृजन की पैदाइश के चंद मिनटों बाद ही लेखक से सीधे संवाद संभव है। हमने टिप्पणी की, 'आपकी बात सटीक है। शब्दों को लेकर हमारी साकांक्षता कैसी है, रही है- से ही हमारा शब्द संसार बीघा दर बीघा बढ़ता है। लेकिन आप सोचिए, उन किरायेदारों के बच्चों के पास कैसे शब्द आएंगे, जिनकी अपनी कोई ज़मीन, कोई कस्बा, कोई शहर न हो। मकान मालिक को घर में कुछ नया बनवाना होता है, तो घर खाली करने के लिए कह देता है। इस तरह बढ़ई की भाषा से हम अनजान रहते हैं। मकान मालिक कहेगा, मछली नहीं खाना है, तो मछली बाज़ार के शोरगुल में छिपा संगीत और मछलियों की किस्मों से हमारा रिश्ता सिमटता जाएगा। इस तरह जो इस देश में किरायेदार होने के लिए अभिशप्त हैं, उन्हें अपनी भाषा को लेकर जो कुंठा है, और अगर वे कुंठाएं कुछ शब्दों में ही बाहर आती हैं, तो क्या हम उन्हें मूर्ख कहेंगे?` इस पर प्रमोद सिंह ने अपने ब्लॉग (http://azdak.blogspot.com) पर अच्छी हिंदी की दूसरी किस्त में लिखा, 'आप किराये के घरों में रहे हों या पिता-परिवार के रोज़गार के चक्कर में अजाने/अपनाये प्रदेशों में, आपकी भाषाई संस्थापना को वह ज़रा ऐड़ा-बेड़ा तो कर ही डालता है। विस्थापन और बेगानेपन में शाब्दिक संस्कार की वह वैसी नींव नहीं डालता, जो आपको तनी रीढ़ के साथ चाक-चौबंद दुरुस्त खड़ा करे। मगर साथ ही यह भी सही है कि इस अजनबीपन के अनजाने लोक में नये अनुभवों (शब्दों) की खिड़की भी खुलती है। अब यह आपको तय करने की बात है कि ये नई खिड़कियां आपकी (मानक) भाषाई हवेली में खुलेंगी या नहीं। ऐसी नयी हवाओं का वहां स्वागत होगा या वे दुरदुराई जाएंगी।` हिंदी की पत्रकारीय ज़मीन पर ये विमर्श एकतरफा हो रहा है। सुधीश पचौरी को उनके लिखे पर प्रशंसा या लानत-मलामत से भरी पातियों की संख्या यकीनन नगण्य होगी। हिंदी थिसॉरस बना कर अरविंद कुमार रातोंरात जाने ज़रूर गये, लेकिन तमाम इंटरव्यू में वे इस सवाल से यकीनन बोर हो गये होंगे कि इस काम को करने में आपको कितने दिन लगे या इतने बड़े काम को आपने अंजाम कैसे दिया। अगर इनका काम वेब स्पेस के जरिये जारी होता, तो ब्लॉगिंग वाले सुधीश पचौरी से सवाल कर सकते हैं कि आप जिन नवीन शब्दों के साथ अपनी हिंदी मांज रहे हैं, उनके स्रोत क्या हैं। क्या वे स्रोत हिंदी के आम जन हैं, या वे जनविमुख पत्रिकाएं, जो महंगी दुकानों में पन्नी वाली ज़िल्द में मिलती हैं! मुझे लगता है कि अभी वेब स्पेस में ज्यादा लोकतांत्रिक तरीके से विमर्श को अंजाम दिया जा रहा है। चाहे वह हिंदी की बात हो या हिंदी समाज की बात हो। यही वजह है कि हिंदी के जिन पूर्व परिचितों के पास कंप्यूटर और इंटरनेट की सहूलियत आ रही है, वे ब्लॉगिंग शुरू कर रहे हैं। पागलदास कविता से मशहूर हुए बोधिसत्व (http://vinay-patrika.blogspot), समकालीन जनमत की संपादकीय टीम के सक्रिय सदस्य चंद्रभूषण (http://pahalu.blogspot.com) और इरफान (http://tooteehueebikhreehuee.blogspot) और अर्थशास्त्र और व्यंग्य को समान रूप से साधने वाले आलोक पुराणिक (http://puranikalok.blogspot) इन दिनों ब्लॉग पर हर रोज़ कुछ न कुछ लिख रहे हैं। हम कह सकते हैं कि इस नये हथियार का स्वीकार हिंदी 'मन` के लिए ज़रूरी है, और जिस तरह से हिंदी के अखब़ार और पत्रिकाएं ब्लॉगिंग का ज़िक्र कर रही हैं, ये रोज़ाना इस्तेमाल की चीज़ हो जाएगी। -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070528/76a422fc/attachment.html From avinashonly at gmail.com Mon May 28 15:47:02 2007 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Mon, 28 May 2007 11:17:02 +0100 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS54KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSl4KS+IOCktuCkueCksCDgpKjgpLngpYDgpIIg4KSl4KS+?= Message-ID: <85de31b90705280317ib68e399m666e4f5d3b195391@mail.gmail.com> दोस्‍तों, मैंने उपन्‍यास की तर्ज पर एक छोटी-सी कोशिश शुरू की है। क्‍या आप सब एक बार नज़र मार (या नज़र फेर भी) सकते हैं: http://mohalla.blogspot.com/2007/05/blog-post_27.html और http://mohalla.blogspot.com/2007/05/blog-post_28.html अविनाश From beingred at gmail.com Tue May 29 00:54:23 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 29 May 2007 00:54:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KS+4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS14KSk4KWAIDog4KS44KWN4KS14KS+4KSX4KSkLCDgpKrgpLAg4KSV?= =?utf-8?b?4KWB4KSbIOCkuOCkteCkvuCksg==?= Message-ID: <363092e30705281224u419a0272i5999fed467560db5@mail.gmail.com> मायावती : स्वागत, पर कुछ सवाल मायावती के चुन कर आने को कुछ लोगों ने बडी़ सामाजिक क्रांति भी माना है. हमारा यह मानना रहा है कि मायावती का जीतना भले अपने समय की एक अहम घटना हो, यह भारतीय समाज के जड़ता को तोड़ने का माध्यम नहीं बन सकता. इसके लिए सामाजिक और आर्थिक संबंधों में जो ज़रूरी आधार और बदलाव चाहिए, वे केवल चुनाव जीतने से किसी समुदाय के हाथों में आये नेतृत्व भर से संभव नहीं है. यह मायावती के बस में नहीं है. इसी के साथ मायावती के सत्ता में आने के बाद जो सवाल उभरे हैं उन पर सत्येंद्र रंजन की एक नज़र. आलेख प्रभात खबर में प्रकाशित. सत्येंद्र रंजन उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत कई मायने में भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अहम घटना है. मगर इससे ही जुड़ा हुआ और उतना ही अहम सवाल यह है कि क्या इतिहास ने मायावती को जो अवसर दिया है, क्या वे सचमुच खुद को उसके काबिल साबित कर पायेंगी? अगर मायावती ने दूरदृष्टि एवं न्यूनतम वैचारिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया और उन ऊंचे आदर्शों को ध्यान में रखा जो बाबा साहेब आंबेडकर एवं बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम के संघर्षों से पैदा हुए, तो उनकी मौजूदा उपलब्धि इतिहास में एक मील का पत्थर बन सकती है. मायावती की उपलब्धि बेमिसाल है. यह पहला मौका है, जब दलित नेतृत्व में ऐसा सामाजिक-राजनीतिक गंठबंधन बना, जो अपने दम पर सत्ता में आने में कामयाब हुआ है. इस नेतृत्व और इस गंठबंधन में कई खामियां बतायी जा सकती हैं. मसलन कहा जा सकता है कि नेतृत्व निजी महत्त्वाकांक्षाओं व सत्ता लिप्सा से प्रेरित है और जो सामाजिक गंठबंधन बना, वह अवसरवादी है. इसके बावजूद इस घटना के राजनीतिक और ऐतिहासिक महत्त्व की अनदेखी नहीं की जा सकती. बसपा ने दलितों की एकजुटता कड़ी मेहनत से हासिल की. चूंकि यह एकजुटता चुनावी सफलता के लिए काफी नहीं थी, इसलिए इसे एक नये सामाजिक समीकरण का हिस्सा बनाने के अलावा बसपा नेतृत्व के पास कोई और विकल्प नहीं था. हाल के चुनाव की सफलता ने यह साबित कर दिया है कि ऐसा समीकरण बनाने में मायावती कामयाब रहीं. सबसे अहम बात यही है कि उन्होंने जो सामाजिक गंठबंधन बनाया, उसका नेतृत्व बिना किसी संदेह के उनके हाथ में रहा. सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई से जु़डे संगठनों में यह लंबे समय से बहस का मुद्दा रहा है कि जिसकी लड़ाई, उसका नेतृत्व कैसे स्थापित किया जाये. इन तबकों की वकालत करनेवाली कम्युनिस्ट पार्टियों, अब इतिहास के पन्नों का हिस्सा बन चुके सोशलिस्ट आंदोलन और यहां तक कि नक्सली संगठनों में भी नेतृत्व मध्यवर्गीय और अधिकांश मौकों पर सवर्ण वर्ग का रहा है. यह बात कहने का मतलब इन पार्टियों या संगठनों के नेतृत्व की वैचारिक प्रतिबद्धता पर सवाल उठाना कतई नहीं है, लेकिन ये सवाल खुद इनके भीतर उठते रहे हैं कि आखिर कैसे सबसे उत्पीड़ित समूहों के भीतर से नेतृत्व पैदा किया जाये? यह सवाल इसलिए अहम है कि सामाजिक और आर्थिक समता की लड़ाई तब तक पूरी नहीं होगी, जब तक सबसे वंचित तबकों से उभरनेवाला नेतृत्व सबसे अगली कतार में नहीं आयेगा. इसी लिहाज से बसपा की उपलब्धियां बेमिसाल हैं. यह पार्टी एक दलित नेता ने खड़ी की और उन्होंने दलितों के भीतर अपने उत्तराधिकारी का चुनाव किया. उस उत्तराधिकारी ने राजसत्ता पर लोकतांत्रिक ढंग से कब्जे कर उनका सपना पूरा करने के लिए कारगर रणनीति बनायी और आज वे बिना किसी मेहरबानी के देश के सबसे बड़ी राज्य की मुख्यमंत्री हैं. एक अखबार में छपी एक खबर बताती है कि दलितों के लिए इस सफलता का क्या अर्थ है- जब उप्र विधानसभा चुनाव के नतीजे आने लगे और मायावती आगे निकलने लगीं तो उनके एक समर्थक ने शराब पीनी शुरू कर दी. बसपा के आगे बढ़ते हर कदम के साथ वह मायावती जिंदाबाद के नारे लगाता रहा और शराब पीता रहा. इसके पहले कि मायावती को पूरा बहुमत मिलने की खबर आती, हर्षोन्माद ने उस व्यक्ति की जान ले ली. क्या ऐसी खुशी आज किसी और पार्टी की जीत पर उसके किसी समर्थक को हो सकती है? ऐसा इसलिए नहीं हो सकता, क्योंकि मायावती की जीत के साथ करोड़ों दलितों का कोई आर्थिक या कारोबारी स्वार्थ नहीं जुड़ा हुआ है, बल्कि सदियों के शोषण से उनकी मुक्ति की उम्मीद जुड़ी हुई है. इसीलिए मायावती से उनकी ईमानदार भावनाएं जुड़ी हुई हैं. उनके लिए मायावती ऐसी प्रतीक हैं, जिसकी अहमियत समझना शायद किसी गैरदलित के लिए मुमकिन न हो. मायावती की देश की राजनीति में जो हैसियत बनी है, उसके साथ अब उन पर कुछ उतनी ही बड़ी जिम्मेदारियां भी आ गयी हैं. मायावती के सामने यक्ष प्रश्न यह है कि क्या वे अब भी अगर अपना फायदा हो तो किसी भी पार्टी के साथ जाने की रणनीति पर चलती रहेंगी? यूपी में उन्होंने इसके पहले जब तीन बार सरकार बनायी तो उन्होंने इसके लिए भाजपा से हाथ मिलाया. 2002 में भाजपा का समर्थन बरकरार रखने की कोशिश में वे गुजरात में नरेंद्र मोदी तक का प्रचार करने चली गयीं. इस तरह उन्होंने अपना और अपनी पार्टी का नाम उस पार्टी से जोड़ा, जो भारतीय राजनीति में सामाजिक रूढ़िवाद और दक्षिणपंथ की नुमाइंदगी करती है और अपने मूल चरित्र में समता एवं जनतंत्र के खिलाफ है. अगर बसपा कहती है कि उसने सिर्फ अल्पकालिक रणनीति के तहत भाजपा से हाथ मिलाया तो असल में उनका समर्थन करने के पीछे भाजपा का भी यही मकसद था. भाजपा और पूरे संघ परिवार की विचारधारा असल में मानवीय स्वतंत्रता को सीमित और नियंत्रित करने का उपक्रम है, और उसका मकसद समाज में जारी शोषण और गैर बराबरी को कायम रखना है. सवाल यह है कि इसका दलित आंदोलन के उद्देश्यों से क्या मेल हो सकता है? भारत में इस समय जब जनतांत्रिक अधिकारों की लड़ाई आगे बढ़ रही है, उसी समय धार्मिक कट्टरपंथी ताकतों की तरफ से देश की संवैधानिक व्यवस्था के लिए जोरदार चुनौतियां पैदा की जा रही हैं. हिंदू सांप्रदायिक-फासीवाद, इस्लामी आतंकवाद और सिख कट्टरपंथ के उग्र चेहरे हमारे सामने हैं. ऐसे में देश की सभी प्रगतिशील शक्तियों के सामने चुनौती है कि वे धर्मनिरपेक्षता को आस्था व न्यूनतम राष्ट्रीय सहमति का सवाल बनाये रखें. उत्तर प्रदेश में बसपा ने सवर्ण जातियों, खासकर ब्राह्मणों को अपनी राजनीतिक योजना का हिस्सा बनाकर नये सोच का परिचय दिया. उसने यह भी दिखाया है कि जब वह कोई नया सोच लेकर आती हैं तो उस पर अमल भी करती हैं, और उसकी बातों पर लोग भरोसा करते हैं. इसीलिए बसपा की जीत ने देश के प्रगतिशील खेमे में नयी उम्मीदें पैदा की हैं. बसपा की जीत का एक परिणाम यह भी हुआ कि भाजपा यूपी की राजनीति में लगभग अप्रासंगिक हो गयी. वह महज 120 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही. यानी 280 से भी ज्यादा सीटों पर वह मुकाबले में भी नहीं रही. इससे दिल्ली की गद्दी पर उसका दावा कमजोर जरूर हुआ है. लेकिन उसकी वापसी आज भी मुमकिन है. इसलिए देश की प्रगतिशील शक्तियां बसपा से यह उम्मीद जरूर करेंगी कि जैसे उसने उत्तर प्रदेश में सामाजिक गठबंधन बनाया, वैसे ही वह राष्ट्रीय राजनीति में राजनीतिक गठबंधन बनाने की राजनीतिक बुद्धि और उदारता दिखाये. जाहिर है, वैचारिक आधार पर यह गठबंधन धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के साथ ही बन सकता है. यहां यह बात जरूर है कि ऐसे गठबंधन की सारी जिम्मेदारी मायावती पर नहीं है. इसके लिए कांग्रेस, यूपीए के बाकी दलों और वामपंथी पार्टियों को भी वैसी समझ और उदारता दिखानी होगी. अगर ये सभी दल भारत की इस ऐतिहासिक जरूरत को समझ सके, तो निश्चित रूप से देश को फिलहाल एक बड़े खतरे से बचाया जा सकता है. मायावती के सामने दूसरा बड़ा सवाल आर्थिक नीतियों का है. कांशीराम के जमाने में बसपा चुनाव घोषणापत्र जारी नहीं करती थी. कांशीराम का मानना था कि राजसत्ता पर कब्जे के बाद उनकी पार्टी बहुजन के हित में नीतियां बना लेगी. अब यह मकसद पूरा हो गया है. मायावती ने बहुजन से सर्वजन की यात्रा पूरी कर ली है और इस सफर से वे लखनऊ की गद्दी पर हैं. क्या अब भी उन्हें दलित आंदोलन के आर्थिक एजेंडे की जरूरत महसूस नहीं होती? बहरहाल, यह बात पूरे यकीन के साथ कही जा सकती है कि अब ऐसे एजेंडे की अनदेखी वो सिर्फ अपने नुकसान की कीमत पर ही कर सकती हैं. मायावती की जीत स्वागतयोग्य है. सिर्फ यह जीत ही उप्र के विकास की दिशा में एक बड़ा मुकाम है. लेकिन यह मायावती के लिए अंतिम मुकाम नहीं होना चाहिए. दोहराव के जोखिम के बावजूद यह कहने की जरूरत है कि उनके सामने अब चुनौती संवैधानिक जनतंत्र की रक्षा के लिए धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने और दलित आंदोलन का आर्थिक एजेंडा पेश करने की है. अगर वे ऐसा नहीं कर सकीं तो वे एक बड़ा ऐतिहासिक मौका खो देंगी. यह उनके और भारतीय लोकतंत्र दोनों के लिए बेहद दुर्भाग्यपूर्ण होगा. -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070529/19b7b1df/attachment.html From confirmations at emailenfuego.net Tue May 29 09:25:49 2007 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Mon, 28 May 2007 22:55:49 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkruCli+CkueCksuCljeCksuCkvg==?= Message-ID: <576514.54541180410949626.JavaMail.rsspp@app2> Hello there, You recently requested an email subscription to मोहल्ला. We can't wait to send the updates you want via email, so please click the following link to activate your subscription immediately: http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?i=1887254&k=Q2za4xv3mA (If the link above does not appear clickable or does not open a browser window when you click it, copy it and paste it into your web browser's Location bar.) From avinashonly at gmail.com Tue May 29 22:19:39 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 29 May 2007 11:49:39 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <8900721.1042581180457379713.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// जनता आपसे छूट गयी है, हमारे प्रिय लेखको! Posted: 29 May 2007 10:44 AM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/120549262/blog-post_9142.html नितिन की चिट्ठी आयी। मोहल्‍ले में लेखक की सक्रियता पर पत्र-प्रतिपत्र (वाद-प्रतिवाद कहना ज्‍यादा सही है) पढ़ कर। जितना मैं नितिन को जानता हूं,वे लेखक नहीं हैं। अपने समय के लेखकों को जानते हैं। पढ़ कर जानते हैं। जानते हैं, इसलिए उनकी अपने समय के लेखकों से एक अपेक्षा भी है। इस ताज़ा विवाद ने उन्‍हें विचलित किया है। क्‍योंकि वे सचमुच नहीं जानते कि कोई लेखक सामाजिक-राजनीतिक तौर पर अपनी निष्क्रियता के पक्ष में इस तरह अपने विचार भी रख सकता है। अपनी इस हैरानी का जवाब उन्‍होंने खुद ढूंढ़ने की कोशिश की। कुछ मिला, तो हमें भेज दिया। हम यहां उसे प्रकाशित कर रहे हैं। अगर आप लेखक हैं और नहीं भी हैं, तो नितिन की बात में कुछ अपनी बात भी जोड़ सकते हैं। जब वाजपेयी जी प्रधानमंत्री थे, तो टीवी पर राजू श्रीवास्‍तव उनकी मिमिक्री उतार रहा था। उसने कहा, वाजपेयी जी भाषण देने लगे तो- (भाषण की नकल उतारते हुए राजू ने आंख बंद की और वाजपेयी की चिर-परिचित मुद्रा बनायी) तो थोड़ा रुके और एक लंबे अंतराल के बाद जब आंखें खोली और वाक्‍य का आख़‍िरी शब्‍द पूरा किया, तो सुनने वाली जनता जा चुकी थी। हिंदी के लेखकों की कुछ यही गति दिखाई देती है- ऐसा इस बहस को या अक्‍सर होने वाली इसी तरह की बहसों को सुन कर लगता है। लेखक समाज आंखें बंद कर के या बहुत थोड़ा खोल कर आंदोलन के शुरू होने का इंतज़ार करता रह गया है और जनता कहीं और, किसी दूसरे माध्‍यम, या किन्‍हीं दूसरे तरीक़ों से अपना प्रतिरोध ज़ाहिर करने की ओर निकल गयी है। "समय तेज़ गति से भाग रहा है...", "साम्राज्‍यवाद का शिकंजा फैल गया है...", "बाज़ारवाद हावी हो गया है...", "मूल्‍यों का पतन तेज़ी से हो रहा है..." या और भी इसी तरह के कुछ जुमले हमारे साथियों की ज़ुबान का हिस्‍सा बन चुके हैं। लेकिन देखने की बात है कि इस गति और हमले से टकराने की क्षमता पर हमारे साथियों का क्‍या मानना है...! क्‍या इसी तरह से रचना के नाम पर समय और ग़ायब रहने के अवकाश की दुहाई देने से काम चलेगा? जबकि आपके विरोधी खेमे के लोग निरंतर गतिमान हैं। दिन-रात बाज़ारवादी मूल्‍यों की पक्षधर रचनाएं करने के नये-नये माध्‍यमों से लैस हैं। आप कहां हैं? मत कहिएगा कि आंदोलन में उतरने की तैयारी कर रहे हैं!!! आप रचना को सक्रियता के ख़‍िलाफ़ खड़ी करते रहिए, जनता कहीं और निकल पड़ी है। मेरे घर में भाई वगैरह मिला कर कुल छह बच्‍चे हैं। बारहवीं से नीचे की कक्षा में। उनके बीच मैं माखौल न बन जाऊं इसलिए उनकी भाषा में बात करके उनके साथ बैठ पाता हूं। वो सब अमरीका के कट्टर विरोधी हैं। सद्दाम को सही मानते हैं। नंदीग्राम को ग़लत मानते हैं। और उन्‍हें मैकडोनल्‍ड का बर्गर और पेप्‍सी बहुत अच्‍छा लगता है। मैं जब तक हिंदी का छात्र था, पेप्‍सी नहीं पीता था, आजकल उनके साथ दबा कर पीता हूं। /////////////////////////////////////////// एक लेखक का काम क्या है Posted: 29 May 2007 10:44 AM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/120309264/blog-post_1150.html दिल्‍ली में हर रविवार को कुछ युवा लेखक एक पार्क में जुटते रहे हैं। पिछले दिनों राजधानी की सघन सृजनात्‍मक हलचलों में से आप इसे भी गिन सकते हैं। वे युवा जो रचनात्‍मक स्‍तर पर एक अच्‍छे समाज की कल्‍पना के साथ सक्रिय हों, उनका एक जगह लगातार जुटना एक ऐतिहासिक परिघटना की तरह ही है। ज़ाहिर है, जहां समूह होगा और लोकतंत्र उस समूह की बुनियादी शर्त होगी- मतभेद भी होंगे। ऐसे ही मतभेदों में से एक रहा- रचनात्‍मक सक्रियता की व्‍याख्‍याओं को लेकर। कुछ मानते रहे कि देश भर में होने वाले दमन और उसके खिलाफ खड़े जनांदोलनों के साथ प्रतीकात्‍मक सहमति के तौर पर एक लेखक को कलम के अलावा भी अपनी सक्रियता दिखानी होगी, तो कुछ को प्रदर्शन से जुड़ी हुई ऐसी सक्रियता गै़र रचनात्‍मक ज्‍यादा लगती रही। बात समूह टूटने तक पहुंच गयी है। लेकिन जो बहस है, वो सिर्फ इस समूह के लिए ज़रूरी नहीं है- रचनात्म‍कता की समझ को लेकर एक व्‍यापक संदर्भ में ज़रूरी बहस है। इसलिए हम दो नितांत व्‍यक्तिगत चिट्ठियों को मोहल्‍ले में बांच रहे हैं- ताकि विमर्श का ये संदर्भ ज्‍यादा से ज्‍यादा लोगों से जुड़े।पहला पत्र, सहमतों के लिए एक खुला पत्र साम्राज्‍यवाद विरोधी लेखक मंच एक नकारात्मक नाम है। संभवतः इसीलिए क्‍योंकि इसके तहत अब तक तमाम विरोधी तेवर ही प्रकट हुए हैं। वे रचना के नाम पर क्या कर रहे हैं, क्या कर सकते हैं, इसके लिए जगह बनती यहां नहीं दीखती है। लेखक के लिए मात्र रचना ही उसकी सक्रियता का प्रकाशित दस्तावेज होती है और उसकी सक्रियता की पड़ताल उसी आधार पर होती है। लेखक संघ में लेखक के लिए रचना का क्या मानी होता है यह जाहिर है। वह कहानी, कविता, आलेख, रिपोर्ताज आदि ही है, थोथी बकवास इसका विकल्प नहीं हो सकता। इस संघ में रचनात्मकता का यह हाल है कि हम केवल दूसरों की रचनाओं में मीन-मेख निकालते हैं। अपनी हालत यह है कि हम रद्दी रचनाएं छपवाकर उसके रद्दी होने की घोषणा भी अनंत हेकड़ी के साथ करते हैं। हमारी समझ से इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किसी लेखक संघ के लिए कुछ और हो ही नहीं सकता। जबकि वह लेखक ही भविष्य के इस संघ का घोषित प्रतिनिधि हो। इन नकारात्मक संदर्भों में हम पहले तो लेखक संघ का नाम बदलकर वैज्ञानिक लोकतांत्रिक समाजवादी लेखक संघ रखना चाहेंगे। इसका काम संघ के युवा लेखकों की रचनात्मकता की पड़ताल व उसका विकास होगा। किसी लेखक की सक्रियता का अंतिम पैमाना उसका लेखन होगा, उसकी मौखिक दलीलें नहीं। हम अपने और बाहर के नवतुरिया लेखकों की रचनाओं को सामने लाएंगे और उनका सार्वजनिक पाठ कराएंगे। अपनी एक-एक पाई जोड़कर जुटायी गयी राशि को पिछले आयोजनों जैसे आयोजनों पर खर्च करने की हमारी कोई मंशा नहीं है। उस तरीके से सस्ता प्रचार पाना हमारा ध्येय नहीं है। किसी भी वैसे आयोजन को करने से पहले हम बुलेटिन, पुस्तिका, पत्रिका आदि निकालकर अपनी स्थिति स्पष्ट करेंगे। उसके बाद ही हम वैसा प्रदर्शनकामी, व्ययी आयोजन करेंगे, वह भी साल में एक या ज्यादा से ज्यादा दो होंगे। इस लेखक संघ में शामिल लोगों के लिए हर सप्ताह बैठक में आना अनिवार्यता नहीं होगी। महीने में अगर कोई एक बार भी शामिल हो पाता है, तो उसकी वही अहमियत होगी जो हर सप्ताह नियमित आनेवालों की होगी। लेखकों का महत्व उनकी रचना के आधार पर होगा, उनकी उपस्थिति या जुमलेबाजी के आधार पर नहीं। अगर महीनों हमारी बैठकों में न भी कोई रचनाकार अगली बार किसी बेहतरीन रचना के साथ उपस्थित होगा तो उसकी सक्रियता को किसी से कम करके नहीं आंका जाएगा। सक्रियता पर सवाल पूछकर हम किसी लेखक को लज्जित नहीं करेंगे। क्योंकि सक्रियता ऐसी चीज नहीं है, जिसे ऊंची आवाज में बोलकर या सड़क पर खड़े होकर, चिल्ला कर दर्शायी जा सके। सक्रियता को संघ रचनात्मकता के आईने में देखेगा, इसके लिए कोई दूसरी कसौटी मान्य नहीं होगी। बाकी सक्रियता उसका निजी मुआमला होगा। उससे जुड़े सवाल यहां नहीं उठेंगे। सिगरेट फूंकना या डेढ़ इंच की पार्टियों की सर्वाधिक उल्लसित होकर चर्चा करने को हम सक्रियता के विरोध में अय्याशी या कुंठा से जोड़कर देखेंगे। पत्रकारिता से जुड़े लेखक अगर अच्छी-बुरी घटनाओं की चर्चा करते हैं या रपट लिखते हैं या कहीं आते-जाते हैं, उसका मात्र सूचनात्मक महत्व ही होगा, लेखकीक सक्रियता से उसका कोई लेना-देना नहीं होगा। क्योंकि वह सक्रियता उनकी रोटी से जुड़ा एक पेशेवर कार्य भर माना जाएगा। स्वतंत्र पत्रकार इसके अपवाद होंगे। पिछली बैठक में शब्द को पकड़ने पर आपत्ति की गयी थी। हमारा मानना है कि आम लोगों तक लेखक के रूप में हमारे शब्द ही पहुंचेंगे, हमारे चेहरे की छटा उसका विकल्प नहीं बनेगी। कुमार मुकुल, स्वतंत्र मिश्र, पंकज चौधरी अरविंद शेष, पंकज पराशर, अच्युतानंद मिश्र प्रतिपत्र पर्चा पढ़ा। पर शायद मैं इन दलीलों से सहमत न हो पाऊं। वैसे ये फर्स्‍ट हैंड रिएक्‍शन है और मुझे भी और सोचने की ज़रूरत है। पर मैं अपना नज़रिया इस पर्चे पर आपको लिख रहा हूं। सहमति-असहमति अपनी जगह है, पर कृपया इसे अन्‍यथा न लें। बहुत सालों पहले हमारे हिल्‍सा (बिहार) में, जहां से मैं हूं, एक संघ के आदमी से मेरी बात होती थी। बात नहीं बहस कहना ज्‍यादा उचित होगा। उनका कहना था कि आपलोग हर चीज़ का विरोध करते हैं और मुर्दाबाद करते हैं। आपके विज़न में और कुछ है ही नहीं। लालू और मुलायम जैसे समाजवादियों के सत्ता में आने और असफल हो जाने पर किसी ने कमेंट में कहा था कि चूंकि ये सिर्फ विरोध करना जानते थे, वही करके यहां तक पहुंचे थे, सो कोई अच्‍छा काम नहीं कर पाये। मुझे समझ में नहीं आता, लालू-मुलायम जैसे लोग सत्ता संतुलन तो सीख जाते हैं, पर अच्‍छा काम करना कैसे नहीं सीख पाते। मेरे ख़याल से ये उनकी ईमानदारी का प्रश्‍न ज्‍यादा है, योग्‍यता का उतना नहीं। पर्चे में सबसे ऊपर जो बात है, वो मुझे कुछ कुछ वैसी ही लग रही है। चूंकि टाइटल में ही विरोध है, अत: यह एक नकारात्‍मक नाम है। मैं इससे सहमत नहीं हूं। मार्क्‍स का सारा लेखन कैपिटलिज्‍म और इसकी प्रवृत्तियों के खिलाफ है। इस मतलब यह नहीं कि उनके लेखन में कोई सकारात्‍मक पक्ष नहीं है। वैसे भी साम्राज्‍यवाद पूंजीवाद का वो स्‍वरूप है, जिसका विरोध ही हो सकता है। समर्थन तो कतई नहीं। दूसरी बात ये कि चाहे गांधीवादी हों, समाजवादी हों, कम्‍युनिस्‍ट हों या नक्‍सल, सारे लोग एक राय से साम्राज्‍यवाद के खिलाफ हैं। और ये एक व्‍यापक सहमति का आलेख हो सकता है, जो हमारे मंच में है। कम से कम मैं तो यही समझ कर इसमें अपने को शामिल मानता हूं। एक और बात पर्चे में लिखी है कि लेखक की पहचान उसके लेखन से होना चाहिए, राजनीतिक सक्रियता से नहीं। मैं ये ज़रूर मानता हूं कि लेखक की पहचान उसकी रचना से होती है, पर लेखक सिर्फ लेखक ही है, ऐसी बात मुझे नहीं लगती। एक तो ये कि वो किसी समाज, राष्‍ट्र का अंग होता है। पहले वो एक नागरिक होता है, बाद में लेखक या कुछ और। अगर कोई ये कहे कि मज़दूरों को सिर्फ मज़दूरी से मतलब रखना चाहिए, और किसी चीज़ से नहीं, क्‍योंकि उसका काम मज़दूरी करना है और उसकी पहचान उसके अच्‍छे काम से ही है, जैसा कि आप कह रहे हैं कि लेखक का उसकी रचना से- तो ये ठीक नहीं है। हां, अगर कोई मीन-मेख निकालता है तो ग़लत है, चाहे जो भी हो। किसी भी रचना का क्रिएटिव क्रिटिक होना चाहिए न कि उसका मज़ाक उड़ाना। चाहे कोई अपनी रचना का करे या किसी और की- मेरी नज़र में ये ग़लत है। आप लिख रहे हैं कि पत्रकारीय चीज़ों का महत्‍व नहीं होगा। फिर तो मैं वैसे ही बाहर हो जाऊंगा। क्‍योंकि मैं कविता-कहानी वगैरह नहीं लिखता। दरअसल लिखना ही नहीं आता। आप भी वही ग़लती दोहरा रहे हैं, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से नहीं करते। आप नहीं चाहते किसी व्‍यक्ति या रचना का मज़ाक उड़ाया जाए और खुद व्‍यक्ति का मज़ाक उड़ा रहे हैं। जिस छोटी बात पर वहां बहस शुरू हुई थी, वो इतनी बड़ी नहीं कि उसे इतना तूल दिया जाए क्‍योंकि मैं वहां खुद था। उम्‍मीद करता हूं, सब मिल कर कुछ अच्‍छा करने की कोशिश करेंगे क्‍योंकि वक्‍त की यही मांग है। अगर कोई ग्रुप असफल होता है, या जनता के हित में चल रहे किसी आंदोलन या काम में रुकावट आती है, असफलता मिलती है, तो ये हम सबकी विफलता मानी जाएगी। कल कोई ये नहीं पूछेगा कि वजह क्‍या थी। लोग बस इतना ही पूछेंगे कि आप चुप क्‍यों थे। आपको ब्रेख्‍त की कविता याद होगी। जहां तक लेखकों की साहित्‍य से इतर सक्रियता का सवाल है- हमारे सामने वाल्‍टर बेंजामिन, क्रिस्‍टोफर कॉडवेल, लोर्का, नेरुदा से लेकर तमाम तरह के उदाहरण हैं। मैं खुद को इसी परंपरा में रखना चाहूंगा। उम्‍मीद करते हैं आप मेरे तर्कों को तरजीह देंगे। इसे किसी चश्‍मे से नहीं देखेंगे। आपका, मृत्‍युंजय /////////////////////////////////////////// वो एक अलग ही घर था Posted: 29 May 2007 10:43 AM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/120478816/blog-post_647.html हमारे बचपन में कई ऐसे दोस्‍त होते हैं, जो सिर्फ दोस्‍त होते हैं। तब की कई छवियां बस यूं ही होती हैं। उन छवियों में छिपा रहस्‍य धीरे-धीरे खुलता है, जब उम्र बढ़ती है। लेकिन जब उम्र बढ़ती है, तो उन सारे रहस्‍यों तक पहुंचने वाले सुराग बंद हो चुके होते हैं। बचपन में देखे हुए गांव के खंडहर अब अपनी जगह पर नहीं हैं। वहां इमारतें बन चुकी हैं। एक बड़ी नाव, जिस पर एक साथ सौ आदमी चढ़ सकते थे, अब गांव से गुज़रने वाली नदी में नहीं चलती। क्‍योंकि नदी पर अब पुल बन चुका है। जो बचपन की निठल्‍ली छवियों में थे- वे अब दिल्‍ली और गुजरात में कमाते हैं। गांव में कभी-कभार आने वाले जिस तगड़े आदमी को हम ख़ूंखार और डकैत मानते थे, उम्र आने पर यही पता चला कि अंडरग्राउंड राजनीति के लीडर थे। यानी जो दृश्‍य एक वक्‍त में आपको बना रहे होते हैं, आपके बन जाने के बाद वे सारे दृश्‍य एक-एक करके ग़ायब हो जाते हैं। आप उन पुराने दृश्‍यों को फिर से देखना चाहते हैं, लेकिन वे हाथ से रेत की तरह निकल चुके होते हैं और सीने में गहरा अवसाद बलगम की तरह जम जाता है। मुश्किल होता है पुराने प्रसंगों में लौटना। लेकिन ये मुश्किल काम चूंकि हर समय में होता आया है- इसलिए हम भी इसको अंजाम देने की कोशिश कर रहे हैं। शहर की मेरी कहानी का अगला हिस्‍सा पढ़ि‍ए। /////////////////////////////////////////// भोजपुर से चल कर आया एक सिनेमा Posted: 28 May 2007 11:20 PM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/120414534/blog-post_29.html मल्‍टीप्‍लेक्‍स और बाज़ारू अभिव्‍यक्तियों से इस समय में नितिन कुमार सिनेमा की एक वैकल्पिक दुनिया बनाने में जुटे हैं। नितिन ने दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में छात्र राजनीति पर एक डाकुमेंटरी फिल्‍म भी बनायी है और अभी हाल ही में नक्‍सलबाड़ी के चालीस साल पर एक खूबसूरत डाकु-ड्रामा भी बनाया। नितिन ने हमें अपनी फिल्‍म के बनने की जानकारी बहुत थोड़े शब्‍दों में मेल किया। हम मोहल्‍ले में उनके मेल को सार्वजनिक कर रहे हैं। 2007, भारत की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास का महत्वपूर्ण मोड़ है। 1857 की लड़ाई के 150 साल, भगत सिंह की जन्मशताब्दी और नक्सलबाड़ी आंदोलन के 40 साल, इसी वर्ष हैं- जब हर प्रदेश के पास अपना 'कालाहांडी' है, साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों के खिलाफ किसान लड़ते हुए बर्बर दमन का सामना कर रहे हैं। फिल्म, 150 वर्षों के इस संघर्ष के इतिहास को जोड़ने वाले सूत्र की तलाश है। क्या 1857 के बागिय़ों का सूत्र आज नंदीग्राम और सिंगूर के किसानों से जुड़ता है? भगत सिंह ने कहा था कि हमारी लड़ाई तो 1857 से ही शुरू है। क्या यह बात आज के दौर के क्रांतिकारी आंदोलनों के लिए भी लागू होती है? आज की सत्ता क्या भगतसिंह के 'भूरे अंग्रेजों' के हाथ में है? और नक्सलबाड़ी की चिंगारी आज कहां है? नागार्जुन ने '80 के दशक में ही कहा था - भोजपुर! हमारी टीम फिल्म विधा से जुड़े युवाओं की टीम DISSOLVE साम्राज्यवादी-बाज़ारवादी संस्कृति के खिलाफ वैकल्पिक संस्कृति के लिए चल रहे संघर्षों में शामिल है। फिल्म बनाने से लेकर उसे आम जनता के बीच पहुंचाने तक का वैकल्पिक मॉडल विकसित करने के लिए DISSOLVE ने पिछले दो सालों में सफल प्रयोग किये हैं। इसने सीमित संसाधनों के बीच न केवल फिल्म का निर्माण जारी रखा बल्कि फिल्म वितरण की वैकल्पिक प्रणाली विकसित करने का भी प्रयास किया है। यह फिल्म उसी प्रयास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। प्रयोगवादी नैरेटिव स्टाइल के साथ चित्रों और आंदोलनों के गीतों के माध्यम से इस फिल्म की कथा का ताना-बाना बुना गया है। फिल्म इसी साल 23 मार्च को दिल्ली मैं रीलीज़ की गयी। तब से हम लोग देश कॆ अलग अलग हिस्सों में इसकी 4000 सीडी बेच चुके हैं। हाल ही मे इसका एक टुकडा हमने यूट्यूब पर डाला है। सीधे यूट्यूब पर देखें। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=1887254&key=Q2za4xv3mA If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070529/73ce8448/attachment.html From naisehar at gmail.com Wed May 30 11:17:11 2007 From: naisehar at gmail.com (Mrityunjay Prabhakar) Date: Wed, 30 May 2007 11:17:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= story Message-ID: Ravikantjee namaskar sending you an article on farmers aparthy.. do have a look your's Mrityunjay Prabhakar -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: kisan.doc Type: application/msword Size: 74752 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070530/f95459e9/attachment.doc From ravikant at sarai.net Wed May 30 17:10:20 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 30 May 2007 17:10:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?story?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200705301710.20313.ravikant@sarai.net> Dear Mrityunjay, I quite enjoyed reading the version you sent yesterday. I think it is important - but takes leave of analysis on globalisation the moment it starts talking about peasants in India. As an one-off thing it is good. I will put it on the deewan list, if I have your permission. Better still you subscribe to the list and post it yourself. Keep writing, you are a thoughtful writer - who can make connections across several disciplines - which is rare amongst people who write in Hindi. cheers ravikant बुधवार 30 मई 2007 11:17 को, Mrityunjay Prabhakar ने लिखा था: > Ravikantjee > namaskar > > sending you an article on farmers aparthy.. > do have a look > > your's > > Mrityunjay Prabhakar From ravikant at sarai.net Wed May 30 20:25:50 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 30 May 2007 20:25:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Fwd=3A_Re=3A_story?= Message-ID: <200705302025.50337.ravikant@sarai.net> दोस्तो, यह डाक चूंकि संलग्नवत आई थी, लिहाज़ा रह गई थी शायद. वैसे भी डाक-सूची पर संलग्नक या अटैचमेंट न भेजना ही सही है, क्योंकि इससे इसके अभिलाखागार में पुराने लेखों को ढूँढना आसान होता है. बहरहाल पेश है, मृत्युंजय प्रभाकर का आलेख सादे पाठ के रूप में, जिसे मूल रूप से आप नई सहर नामक उनके ब्लॉग पर भी पढ़ सकते हैँ. रविकान्त कौन मार रहा है किसानों को हम एक ऐसे देश के नागरिक हैं, जहां चारों ओर त्राहिमाम है और देश का शासक वर्ग रोम के तानाशाह नीरो की तरह जीडीपी विकास दर की मधुर धुन बजा रहा है। शासक वर्ग की खाल इतनी मोटी हो चुकी है कि इन पर किसी भी चीज का असर नहीं होता। एक तरफ देश का हर छोटा-बड़ा राजनेता करोड़ों के हेर-फेर का आरोपी या दोषी है, हमारे देश के उद्यमी अरबपतियों की सूची में जापान के उद्यमियों को पीछे छोड़ चुके हैं, वहीं दूसरी तरफ देश का बहुसंख्यक हिस्सा भुखमरी के कगार पर है। अकारण नहीं है कि इस साल यू-एन-डी-पी द्वारा जारी किये गये मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 126 वां है। किसानों द्वारा आत्महत्या की खबरें अब अखबारों में जगह नहीं पातीं, क्योंकि यह रोज़ की बात हो चुकी है और ब्रेकिंग न्यूज के इस ज़माने में किसी को भी चौंकाने वाली खबर नहीं रह गयी है। देश का प्रधानमंत्री ऐसे ही एक क्षेत्र में जाकर कुछ राहत पैकेज की घोषणा कर आता है और अपने कर्तव्य की इतिश्री मान कर बैठ जाता है। जबकि राहत पैकेज के उसके एलान के बाद उसी इलाक़े में किसानों की आत्महत्या की दर और भी बढ़ जाती है। देश के बाकी हिस्सों में जो हो रहा है, अगर उसे भी शामिल कर लें, तो इस देश को आत्महंता देश घोषित करने की नौबत आ जाएगी। याद करें यह वही देश है, जहां एक समय किसान इतने आत्मनिर्भर थे कि कहावत प्रचलित थी, कोऊ नृप हो हमें का हानी। आश्‍चर्य यह है कि आंकड़ों में हर साल गरीबी घटने की बात बतायी जाती है। अभी हाल में आयी एक रिपोर्ट में बड़े फख्र के साथ यह दिखलाया गया कि गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या घट कर मात्र तीस करोड़ रह गयी है। पर गरीबी रेखा से पार पाने वाले और इसके नीचे रह जाने वा ले लोगों की आय का आंकड़ा देखें, तो आप अपने रहनुमाओं की बाजीगरी देख कर हैरान रह जाएंगे। राजधानी दिल्ली में जो परिवार रोज 14 रूपये से अधिक खर्च करता है, उसे गरीबी रेखा से ऊपर माना गया है। जितने रुपयों में दिल्ली जैसे शहर में एक व्यक्ति का नाश्‍ता भी नहीं आता, उतना खर्च एक पूरे परिवार के लिए कैसे पूरा हो सकता है, यह तो बस आंकड़ों के बाजीगर ही समझ सकते हैं। यही हाल अन्य राज्यों का भी है। कुछ महीने पहले के एक सर्वे में यह तथ्य सामने आया था कि देश के 25 करोड़ परिवारों की रोज की आमदनी 12 रूपये से भी कम है। उस पर मुश्किल यह है कि ये सारे आंकड़े बाजीगरों के ही हैं। सवाल उठता है यह सब क्यों कर घटित हो रहा है। सवाल यह भी है कि अगर भूमंडलीकरण इतना ही सर्वनाशी है, तो फिर शासक वर्ग इसके पीछे क्यों पड़ा है। इसका सीधा सा अर्थ है कि देश का शा सक वर्ग और इसकी जमात इन परिवर्तनों से खुश है। और इसका सीधा असर साफ-साफ दिखता भी है। जो शहरी मध्य वर्ग कल तक 15-20 हजार की नौकरी को बड़ी उपलब्धि मानता था, आज वह लाखों में खेल रहा है। भले ही आबादी के हिसाब से यह तबका छोटा हो, पर इसने शहरी अर्थतंत्र को एक नयी गति दी है। घर-घर तक पसरता बाजार और मॉल इसकी पहचान बन चुके हैं। जबकि दूसरी तरफ किसान आत्महत्या को विवश और लाचार हैं। पर क्या विकास की इस गुलाबी तस्वीर और देश के बहुसंख्यक लोगों की दुश्‍वारी के बीच कोई रिश्‍ता हो सकता है? ऐसा होना तो नहीं चाहिए, पर दुर्भाग्य से ऐसा ही है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ऐसे ही विराधाभासों पर टिकी होती है। भारत में इस खास तरह के पूंजीवादी संक्रमण पर बात करना चाहें, तो हमें इसकी पृष्‍ठभूमि में झांकने की जरूरत महसूस होगी। भूमंडलीकरण का दौर हमारे देश में 1990 के समय परवान चढ़ी। यह वही दौर था जब देश में मंडल और कमंडल की राजनीति भी उफान पर थी। भारतीय इतिहास को पूरी तरह बदल देनेवाली इन तीन परिघटनाओं पर अलग-अलग काफी बात हो चुकी है। कुछ लोगों ने मंडल और कमंडल आंदोलन को आपस में जोड़ कर देखने की कोशिश भी की है। पर 'मंडल', 'कमंडल' और 'भूमंडलीकरण' को जोड़कर देखने की कोशिश शायद ही की गयी है। क्लाउद लेवी-स्ट्रास के संरचनावाद के मूल सिद्धान्त को आधार बनाकर बात करें तो पहली समानता तो इन तीनों शब्दों में एक खास तरह की एकरूपता है, जिसके मूल में निश्‍िचत तौर पर 'मंडल' शब्द है। पर इन तीनों के बीच एक अलग ही किस्म का संबंध है। जिस पर से पर्दा उठाने के लिए थोड़े विस्तार में जाने की जरूरत है। 1857 के सिपाही विद्रोह के कारण मिले झटके के बाद अंग्रेजों ने भारतीय सामंतवाद से एक खास तरह का समझौता कायम किया, जो आजादी के बाद भी भारतीय शासक वर्ग निभाता रहा। लेकिन आजादी के पहले कांग्रेस के मूल प्रस्तावों में शामिल रहे जमींदारी उन्मूलन के सिद्धान्त ने निश्चित तौर पर भारतीय सामंतवाद को डरा दिया था। जमींदारों के इसी भय ने द्विराष्‍ट्र के विखंडनवादी सिद्धा न्त को मजबूती दी, जिसकी परिणति भारत विभाजन में हुई। उच्च जातियों ने विभाजन का फायदा जम कर उठाया। मुस्लिम जमींदारों द्वारा छोड़ी गयी ज़मीन, चल और अचल संपत्ति को हस्तगत करने में इन्होंने कोई देरी नहीं की। कुछ ज़मीनें पिछड़ी जातियों के भी हाथ लगी। आज़ादी के बाद भी शा सक वर्ग में सामंतवाद के हावी रहने के कारण ज़मींदारी उन्मूलन की बात धरी की धरी रह गयी। सा मंती वर्ग तब तक पूरी तरह संभल चुका था। विदेशों में पली-बढ़ी इनकी पीढ़ी तो पहले ही सचेत हो चुकी थी। इसने नये ज़माने के रंग-ढंग, देख-सुन-समझ लिया था। नेहरु की उद्योगपरस्त नीतियों ने भी सामंतवाद को सचेत करने में भूमिका निभायी। खेती से ज्यादा ध्यान सामंतवाद मुनाफा संस्कृति का हि स्सा बनने में देने लगा। पर तब तक बड़े सामंत और राजा-रजबाड़े ही इस दौड़ में शामिल थे। मंझोले और छोटे ज़मींदार अभी भी पुराने अंदाज़ में ही चल रहे थे। हालांकि इस बदलाव में छोटी-बड़ी काश्‍त कारी की उतनी भूमिका नहीं थी, जितनी उनकी शिक्षा और समझदारी की। पर आज़ादी के बाद कम्‍ युनिस्ट पार्टियों के ज़मींदारी विरोधी और भूमि अधिग्रहण आंदोलनों और नक्सलबाड़ी ने इन पर जो गहरी चोट की, उसने रही-सही कसर भी पूरी कर दी। सामंत वर्गों ने अपना सीधा नाता शहरों से जोड़ लिया। जहां पहले से या तो इनकी संतानें अच्छी नौकरियों में थीं या व्यवसाय को अपना चुकी थीं। यही वह समय था जब छोटी जोत वाली किसान जातियां जो ज्यादातर पिछड़े वर्गों से आती थीं, ने ताकत हासिल की। पहले तो उन्होंने बटाई पर इनकी ज़मीनें लीं और फिर हाड़-पसीने की कमा ई से बचाये रुपयों से ज़मीनें खरीदनी शुरू कर दी। जब इन्हें आर्थिक आज़ादी हासिल हुई, तो असहनीय सामाजिक व्यवस्था के प्रति वर्षों से इनके मन में दबा गुस्सा बाहर आया और अपने को ताकतवर बनाने के लिए इन्होंने सारा ज़ोर सत्ता हासिल करने में लगा दिया। और यहीं से पिछड़ी और उच्च जातियों के आपसी टकराव का रास्ता साफ हो गया। क्योंकि सत्ता की चाभी से नये अवसरों की जो गंगा नि कलती थी, वह उच्च जातियां किसी और को थमाने को तैयार नहीं थीं। पिछड़ों के लिए नौकरी में आरक्षण की मांग ने इस लड़ाई को हवा दी, जिससे मंडल और कमंडल के बीच संघर्ष उभर कर सतह पर आ गया। 1989 के चुनाव में जनता दल की जीत में पिछड़ों के उभार ने बड़ी भूमिका निभायी। 1990 तक कई राज्यों में पिछड़ी जाति के लोग सत्तासीन हो गये। इसके साथ ही पिछड़ी जातियों ने आरक्षण की जंग भी जीत ली। यहीं से उच्च जातियों को लगना शुरू हुआ कि उनका तिलिस्म अब टूट रहा है। सत्ता के साथ ही वे सारे संसाधन जिन पर अब तक सिर्फ इनका कब्‍ज़ा था, इनके हाथों से निकलने का खतरा पैदा हो गया। यहीं से उन्होंने यह समझ लिया कि लोकतंत्र अब उनके काम का नहीं रह गया है। लोकतांत्रिक प्रणाली को कमजोर बनाये बिना अब इनका काम चलने वाला नहीं है। ऐसा सरकार की शक्तियों को कमज़ोर करके ही किया जा सकता है। जिसमें सार्वजनिक उपक्रमों को ख़त्म कर निजी उपक्रमों को बढ़ावा देना शामिल था। उनके विदेशी आका सोवियत संघ के विघटन के बाद से ही बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों के माध्यम से पूंजी की विश्‍व विजयी अभियान पर निकल चुके थे। अंतत: 1991 में भारतीय शासक वर्ग ने भूमंडलीकरण को अपना लिया। इससे इन्होंने एक तीर से कई निशाने साधे। एक तो आरक्षण से पिछड़ों को मिल सकने वाली सरकारी नौकरियों पर लगाम कस दी। क्योंकि सार्वजनिक उपक्रमों को एक-एक कर या तो बंद या बेच देने की योजना बनायी गयी। दूसरे यह कि कृषि के कारण पिछड़े वर्गों को मि ल रहे लाभों से वंचित करने का मौका मिल गया। यह इस प्रकार संभव हुआ कि शासक वर्ग ने कृषि को अपनी प्राथमिकता सूची से ग़ायब कर दिया और कृषि पर मिलने वाली सब्सिडी को न्यूनतम कर दिया । (जबकि प्राइवेट सेक्टर को वो सारी सुविधाएं दी गयीं, सेज़ इसका सबसे बड़ा नमूना है)। इस प्रकार देश की रीढ़ कृषि अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया गया। देश भर में कृषि संकट की जो हाहा कार सुनाई पड़ रही है, इसकी नींव भारतीय शासक वर्ग ने 90 के दशक में ही तैयार कर दी थी। भारतीय मध्य वर्ग, पूंजीपति वर्ग और अन्तराष्‍ट्रीय साम्राज्यवाद ने भारतीय समाज के भीतर के इस तनाव का जबर्दस्त फायदा उठाया। वे अपनी सारी नीतियां भारतीय शासक वर्ग से मनवाने में कामयाब रही। यह विडंबना ही कहा जाएगा कि इसमें पिछड़े वर्ग से आये नेताओं ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। बहुत हद तक तो निजी लाभ के लिए और कुछ इनको समझ पाने के अभाव के कारण। मुश्किल यह है कि हम लड़ाई लड़ने की बात तो करते हैं, पर हमेशा निशाना ग़लत लगाते हैं। कुछ तो मार्क्‍सवादी चेतना से वशीभूत अन्तरराष्‍ट्रवाद के कारण और कुछ सब कुछ समझते हुए भी। इसीलिए भारत में वर्ग और जाति के उत्स को जोड़ कर देखने की जरूरत है। भारतीय कृषि संकट को दूर करने के लिए बाहरी ही नहीं, आन्तरिक दुश्‍मनों की पहचान भी उतनी ही जरूरी है। मृत्युंजय प्रभाकर (मृत्‍युंजय पटना ls हैं। जेएनयू में कला-सौंदर्य की अपनी पटनिया समझदारी को एक बड़ा फलक दिया। इन दिनों चरखा फीचर एजेंसी से जुड़े हैं। वे बता रहे हैं कि खेती कैसे एक अच्छी-ख़ासी किसान आबादी को तबाह कर रही है, वे मर रहे हैं और प्रधानमंत्री विकास की लोरियां गाकर मुल्क के नागरिकों को सुला रहे हैं। इस बात की ख़ास तौर पर पड़ताल की गयी है कि कृषि संकट की असली जड़ें क्या हैं और किसानों को कमज़ोर करने की साज़ि‍श की शुरुआत दरअसल कब से होनी शुरू हुई।) see it on mohalla.blogspot.com also Mrityunjay Prabhakar http://nai-sehar.blogspot.com http://naisehar.blogspot.com Contact no: 09910417507 naisehar at gmail.com From avinashonly at gmail.com Wed May 30 22:11:07 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Wed, 30 May 2007 11:41:07 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <26615524.908331180543267425.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// हिंदी हैरान है कि सनसनी हिट हो रही है Posted: 29 May 2007 11:08 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/120686313/blog-post_30.html नया ज्ञानोदय के प्रबंध संपादक के नाम खुला पत्र ये पत्र हिंदी के विनम्र कथाकार, आलोचक और शोधार्थी कर्मेंदु शिशिर ने नया ज्ञानोदय के प्रबंधक को लिखा। नया ज्ञानोदय भारतीय ज्ञानपीठ से निकलने वाली हिंदी की मासिक पत्रिका है और हिंदी के वरिष्‍ठ कथाकार रवींद्र कालिया उसके संपादक हैं। अभी दो अंकों में नया ज्ञानोदय का युवी पीढ़ी विशेषांक आया है। ये पत्र उसी विशेषांक के संदर्भ में है। अभी तक ये पत्र कहीं भी प्रकाशित नहीं हुआ है। हम इसकी अविकल प्रस्‍तुति कर रहे हैं।मान्यवर! सम्मान में, साहू अखिलेश जैन, प्रबंध संपादक नया ज्ञानोदय एवं प्रबंध न्यासी, भारतीय ज्ञानपीठ, 18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्ट बॉक्स नं - 3113, नयी दिल्ली - 110003 अभिवादन। मुझे बहुत खुशी होती, अगर यह पत्र किसी प्रीतिकर प्रसंग में लिखता। यह पत्र लिखते हुए, मुझे दुख हो रहा है और पीड़ा भी। मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप इसे गंभीरता से लेंगे या अपने पास पडी रददी की टोकरी में डालेंगे। मैंने जो महसूस किया, उसे लिखना मेरी आंतरिक विवशता थी - सो लिखा। अब आपकी नैतिकता और आपका विवेक, वह आप जानें। आपकी संस्था स्वर्गीया रमा जैन जी द्वारा दिये कुछ मूल्यों पर स्थापित है, जिसकी गरिमापूर्ण परंपरा रही है। कम-से-कम आपकी संस्था की ओर से ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए, जिससे वह कलंकित हो। इसमें संदेह नहीं कि आपने अपनी उपस्थिति से इसे पुनर्जाग्रत किया। आपने पुरानी गरिमा की वापसी के लिए जो-जो उपक्रम किये, उसे व्यापक रूप से सराहना भी मिली। इसमें 'नया ज्ञानोदय` का प्रकाशन एक बड़ी पहल थी। इसके साथ हिन्दी के व्यापक प्रबुद्धजनों से आपका संवाद, संबंध और सरोकार बना और रचनात्मक सक्रियता बढ़ी। यह अत्यंत खेद की बात है कि अब आपकी संस्था इसे तेजी से खो रही है। ऐसी बातों पर तत्काल गौर करना श्रेयस्कर होगा। आप नया ज्ञानोदय, अंक 51, मई 2007 के संपादकीय की इन पंक्तियों को ध्‍यान से पढ़ें- पिछलग्गुओं की फौज आज नहीं तैयार हो रही, वह रेजिमेंट पहले से मौजूद थी। उसकी शिनाख्त करनी हो, तो हाल ही में वाराणसी में आयोजित उस कार्यक्रम का अध्ययन किया जा सकता है, जिसके विजय कुमार खुद चश्मदीद गवाह थे। युवा पीढ़ी के स्थानीय रचनाकारों के अलावा वहां किस पीढ़ी की फौज थी, यह किसी से छिपा नहीं। साहित्य अकादमी से सम्मानित कवि ज्ञानेन्द्रपति के 'पहल सम्मान' समारोह के प्रसंग में यह बात कही जा रही है। इसमें मैं भी शामिल था और डेढ़-दो सौ तक लेखक, कवि, विचारक और बुद्धिजीवी पूरे देश से अपने खर्चे से आये थे। संपादकीय में तमाम सहभागियों के प्रति ऐसी अशालीन भाषा और सोच भरी टिप्पणी लिखना कहीं से शोभन नहीं लगता। साहित्य मूलत: सोच, संवेदन और संस्कार से जुड़ा होता है। ज़ाहिर है कोई भी सुबुद्ध व्यक्ति इसे गरिमापूर्ण तो नहीं ही कहेगा। 'स्थानीय रचनाकारों के अलावा'- दिल्ली के बाहर रहने वाले हिन्दी लेखक स्थानीय ही होते हैं। यह तो आपका सौजन्य है कि आपने अपने संपादक को बाहर से लाकर दिल्ली में बसा दिया और वे अखिल भारतीय हो गये। आगे लिखा है- 'अध्ययन किया जा सकता है'- यह संपादकीय गद्य का कहीं से बेहतर नमूना नहीं है। समारोह में शामिल होने के कारण ऐसी टिप्पणी से मैंने खुद को अपमानित महसूस किया और मुझे गहरी पीड़ा हुई। उम्र की इस दहलीज पर ऐसा विचलन तो किसी सभ्य नागरिक को भी शोभा नहीं देता, आपके संपादक तो वरिष्‍ठ कथाकार रह चुके हैं। कम-से-कम संपादक से न्यूनतम गरिमा की बुनियादी अपेक्षा तो हम कर ही सकते हैं! दूसरा प्रसंग साहित्यिक राजनीति से जुड़ा है। सच पूछिये तो ऐसी स्तरहीनता की उम्मीद हम स्वप्न में भी नहीं कर सकते थे। इस आसंग में मैं अपनी गहरी आपत्ति दर्ज करना चाहूंगा, क्योंकि यह कृत्य घोर अनैतिक है। सबसे अधिक चकित करने वाली बात इसमें संपादक की भूमिका और उनकी समझ है- जो चिंत्य है। आप खुद देखें और विचार करें। आपके संपादक बार-बार आग्रह करके विजय कुमार से समकालीन कविता पर लेख लिखवाते हैं। जब लेख आ जाता है, तो उसे बिना गंभीरता से पढ़ और बिना समझे टिप्पणी जड़ देते हैं। ऐसी टिप्पणी, जिसमें वे 'तटस्थता' की बुनियादी संपादकीय नैतिकता छोड़ कर अपनी मुखर पक्षधरता प्रकट कर देते हैं। साथ ही इसके पक्ष में वे एक और गंभीर संपादकीय 'पाप' यह कर जाते हैं कि अपने विपरीत पड़ते लेख से दो अंशों को हटा देते हैं। अगर ऐसा ही था तो पक्षधरता के साथ-साथ संपादकीय दक्षता का परिचय देते हुए, वे लेखक की गरिमा का भी ख्याल रख सकते थे। बस, संपादकीय कौशल की जरूरत थी। फिर, विजय कुमार समकालीनों में कोई साधारण हैसियत वाले भी नहीं। हिन्दी में उनका योगदान इतना बहुस्तरीय है कि समकालीनों में दस नाम लिये जाएं, तो वे उसमें अनिवार्यत: शामिल किये जाएंगे। वैसे योगदान और समझ के आधार पर लेखकों के प्रति सलूक करने की तमीज तो हम बहुत सारे लोगों में नहीं पाते, तो इसके लिए आपके संपादक को हम 'ब्लेम' नहीं करेंगे। लेकिन उन्होंने जिन ज्ञात-अज्ञात कारणों से यह सब किया, वह बेहद निंदनीय है। आपके संपादक ने विजय कुमार के स्वीकृत लेख को तमाम संपादकीय नैतिकताओं को तिलांजलि देकर छपने से पूर्व ही दिल्ली के तलछटवासी पंक-प्रेमियों में वितरित कर दिया। यह तो पूरा देश जानता है कि दिल्ली की दुर्गंध पूरे देश में कितनी तेज फैलती है! तुरंत देशव्यापी संचार संपर्कों के द्वारा उलीच दी गई कुत्सा पूरी हिन्दी में पसर गयी। जब मेरे जैसे नामालूम के पास भी फोन आने लगे, तो मानना चाहिए कि हिन्दी के सुख्यातों तक यह सब बात प्रमुखता से पहुंचायी गयी होगी। विजय कुमार जी के लेख छपने के पूर्व ही फोन कर-करके अकारण मानसिक यातना पहुंचायी जाने लगी। उन्‍होंने यह बात भी बतायी कि यह सब करने वालों में सबसे अधिक पहल खुद संपादक ने ही की। यह संपादकीय पतन की पराकाष्‍ठा है। लेख छपने के बाद फिर महीने भर मानसिक प्रताड़ना का सिलसिला चला। मेरी बुद्धि थोड़ी मंद है, इसलिए उस लेख में ऐसी कोई बात नहीं लगी, जो लेख को एकपक्षीय बनाती हो। उसमें ऐसे गंभीर दृष्टि-बिंदु थे, जिस पर रचनात्मक बहस आगे बढ़ायी जा सकती थी। लेकिन आपके सनसनी पसंद संपादक को भला गंभीर विमर्श से क्या लेना-देना। सो महीने भर एकपक्षीय वाक् आक्रमण हुए कि आने वाले अंक में मिसाइल पत्र दागे गये हैं। हिन्दी हैरान और संपादक प्रसन्न कि सनसनी हिट हो रही है। हमलोग हाशिये के मामूली जीव-जंतु तुरंत उत्सुक-अधीर हो जाते हैं। सो, अगले अंक की बिना प्रतीक्षा किये Internet से बहस की चारों टिप्पणियां उपलब्ध कर लीं। विजय कुमार के प्रतिपक्ष में छपी तीनों टिप्पणियां क्रमश: प्रबुद्ध, प्रतिभावान और चर्चित कवि की थी, जो सौभाग्य से हमारे निजी और आत्मीय हैं। कृष्‍णमोहन जी प्रबुद्ध हैं, वे बड़े विश्वास और साहस से अपनी बातें रखते हैं। ज्यादा उलझाव और लाग-लपेट उन्हें पसंद नहीं। उनके स्वभाव और लेखन में कुछ-कुछ ठेठ जातीय रंग हैं। रवीन्द्र थोड़े मस्त, मनमौजी तबीयत के प्यारे कवि हैं। इन दोनों से मैंने बात की, उनके आग्रहों और आरोपों को समझने की कोशिश भी। हरेप्रकाश तो पारिवारिक ही हैं, लेकिन प्रयत्न के बावजूद बात न हो सकी। चौथा लेख विजय कुमार का है, जो संपादक के कई अदीठ कृत्यों पर नयी रोशनी डाल रहा है। पहले आप इस पूरी बहस अंक 52 पर संपादकीय टिप्पणी देखें- सबसे ज्यादा पत्र और फोन काल्स हमें 'आज का कविता समय' पर लिखे गये विजय कुमार के आलेख पर मिले। अगर 'सबसे ज्यादा पत्र' इस लेख पर आये थे, तो संपादक ने उन्हीं तीन पत्रों का चयन क्यों किया, जो उसके मई अंक में व्यक्त पक्षधरता के अनुकूल थे? 'सबसे ज्यादा पत्र' का स्वर क्या एकपक्षीय था? अगर ऐसा था तो निश्चय ही विजय कुमार का लेख युवा पीढ़ी के विरूद्व घोर डैमेजिंग था, फिर उसे युवा पीढ़ी विशेषांक में छापने का क्या औचित्य था? यह तो एक तरह से संपादकीय पंगुता हुई। 'अगर सबसे ज्यादा पत्र' के स्वर में वैविध्य था, तो दूसरे स्वरों को दरकिनार कर क्या संपादक ने अपनी तानाशाही और घनघोर व्यक्तिवादी प्रवृत्ति का नग्न प्रदर्शन नहीं किया? अगर वाकई संपादक के पास सृजनात्मक सोच-समझ और बुनियादी नैतिकता होती, तो वे इसी लेख के अर्थवान, जीवंत और विचारोत्तेजक बिंदुओं को अपने संपादकीय में संकेतों से रेखांकित कर सकते थे। इससे बहस-विमर्श चिंत्य, अशोभन और कुरूपता से अलग, अपेक्षित मुददों पर एकाग्र हो जाता। विजय कुमार के लेख में ऐसे कई बिंदु थे, जो मुझ जैसे कम समझ वालों को भी सूझ रहे थे। जैसे- रचना विरोधी परिवेश में सृजन का संकट, विभिन्न स्तरों पर हुए विस्थापन के विविध आयाम, गलाकाट प्रतिद्वंद्विता में अस्तित्व के लिए जीवन मूल्यों का संकट, विशाल हिन्दी प्रदेश की विभिन्न जनपदीयताओं की अपनी विशिष्‍टताएं, सांस्कृतिक पहचान, रूप, रंग, गंध, स्वाद और स्वरों का वैविध्य- सहित कई बातें थी, जो विमर्श को विचारोत्तेजक और गंभीर बना सकती थीं। अगर वाकई संपादक के पास समकालीन कविता की कोई समझ थी, तो उन्हें अपनी कूब्बत छुपानी नहीं चाहिए थी। वे अपना दम दिखाते और संपादकीय में एक पंक्ति भी ऐसी जोड़ पाते कि कैसे नयी पीढ़ी की कविता, अपने पूर्ववर्तियों से अलग होती है- तो हम उनके कृतज्ञ होते। "नयी पीढी - नयी पीढ़ी - नयी पीढी" का कनस्तर पीटने से न तो कविता का कुछ भला होने वाला है और न ही इस तरह कोई पीढी स्थापित होती है। समय और समाज के साथ सघन सरोकार, गंभीर अध्ययन और निरंतर रचनात्मक अभ्यास के साथ गंभीर विचार-विश्लेषण से ही पीढ़ियां स्थापित होती आयी हैं और आगे भी इसी तरह से होंगी। 60 वर्ष के बाद तो नागार्जुन, त्रिलोचन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल के कायदे से संकलन छपे और वे लोग चर्चा में आये। 20 वर्षों के अंतराल के बाद केदारनाथ सिंह का दूसरा संकलन आया था। स्थापित होने की अधीरता कहां थी इन लोगों में? न ही वे विमर्शों में इतने उतेजित और उद्धत हुए कभी! नयी पीढ़ी को भी यह बात समझनी चाहिए कि समझहीनों की पक्षधरता और आक्रामक सनसनी उनके किसी काम की नहीं। यह बहुत खेद की बात है कि आपके संपादक ने एक बौद्धिक संपन्न, अर्थवान और विचारोतेजक बन सकने वाली बहस की संभावना के विपरीत पूरे साहित्यिक पर्यावरण को ही बुरी तरह प्रदूषित किया। आप संपादक की मंशा देखिए, सिर्फ शीर्षक में। हरेप्रकाश जी की टिप्पणी के शीर्षक पर गौर कीजिये- हम सब बूझते हैं विजय कुमार जी। हरेप्रकाश जी का ऐसा दुस्‍साहस न उचित है, न शोभनीय। यह चिंतनीय बात है। यह सामान्य बात थी कि अगर संपादक की नीयत साफ होती, तो आपकी पत्रिका दिल्ली से निकलती है- जहां दिग्गजों की कमी नहीं थी। अगर चाहते तो किसी एक गंभीर नाम से आग्रह कर बहस को आगे बढ़ा सकते थे। इसके उलट तलछटवासियों की कानाफुसकी में यह बात हवा में फैलायी जा रही थी कि निरंजन श्रोत्रिय की कविता फासिस्ट कविता है - जिसकी चर्चा विजय कुमार ने की है। विजय कुमार ने तो उनकी कविता का संक्षिप्त विश्लेषण युवा पीढ़ी की ओर से 'उदाहरण' के रूप में किया था, जिसे चूक से या अपनी त्वरा में हरेप्रकाश जी ने 'एकमात्र' मान कर, अपने दौर के सबसे पढ़े-लिखे विजय कुमार जी की ऐसी-तैसी कर डाली। रौ में आकर नयी पीढ़ी से असंबद्ध विजय जी की कुछ बातों को वे अपने ऊपर लेकर उग्र प्रतिपक्षी की मुद्रा में हुंकार भरने लगे। हम तो उनकी बहुत सारी बातों को युवकोचित मानकर अनदेखी करेंगे और यह कामना करेंगे कि उनकी प्रतिभा सकारात्मक तरीके से रचनात्मक स्तर पर ही एकाग्र हो, लेकिन आपके संपादक की यह आश्चर्यजनक चूक थी कि उन्हें यह सब नहीं सूझा। यह नयी पीढ़ी को संवारने और स्थापित करने वाला कौन-सा संपादकीय विवेक है? यह मेरी समझ में नहीं आया। निरंजन श्रोत्रिय की कविता विजय कुमार के विश्लेषण से अच्छी नहीं हुई है, न ही किसी के कहने के भरोसे कोई रचना अच्छी या बुरी होती है। हरिशंकर परसाई परिहास में कहा करते थे कि अगर मेरे कहने से कोई रचनाकार बड़ा हो जाता है, तो मैं उदारतापूर्वक सर्टिफिकेट देने को तैयार हूं। निरंजन की कविता अपनी अंदरूनी मार्मिकता से अच्छी हुई है, जो हमारी चेतना को झकझोरती है और हमें गहरे व्यथित करती है। एक गहरे अवसाद के बावजूद जीवन और सामाजिक सहभागिता के प्रति सहज मानवीय आस्था को मजबूत करती है, निरंजन एक छोटा कवि हो सकता है, लेकिन उसकी यह कविता एक अच्छी कविता है। 'पहल' जैसी पत्रिका में तीन-चार अंक पूर्व छपने के बावजूद यह कविता हिन्दी में अदीठ (अज्ञात) रह गयी। जब से यह कविता वाराणसी के 'स्थानीय' और 'पिछलग्गुओं के रेजिमेंट' के विशाल आयोजन में पढ़ी गयी है, तभी से दिल्ली के कुछ कवियों के नीचे कुछ गड़ने लगा है। वे 'जले डिब्बे में संगीत' जैसे स्थूल पक्ष में फासिस्ट आधार ढूंढ रहे हैं। अगर कविता की ऐसी ही स्थूल समझ है, तो उसे व्यक्त करने वाले साहसियों में किसी एक को भी सामने आना चाहिए था। लेकिन ये चतुर सुजान और बेहद शातिर लोग हैं, इतने कच्चे भी नहीं, जो ऐसी बेवकूफी कर अपनी समझ की भद पिटा लेते। इस कविता को निर्दोष मन से बार-बार पढ़ा जाए और अंत से पूरी कविता को समझने की एक ईमानदार कोशिश की जाए, तो संभव है कविता का अदीठ गवाक्ष दिख जाए। कविता के अंत में संगीत की चलती हुई जुगलबंदी अपने चरमोत्कर्ष में एकत्व तक पहुंच कर एकाएक टूट जाती है। किस तरह इस टूटन की झंकृति पूरी कविता की सांगीतिक लय को मार्मिक अवसाद में बदल देती है। किस तरह फासिस्ट एक अद्भुत जुगलबंदी की सांगीतिक सिंफनी को छिन्न-भिन्न कर, सब कुछ ध्वंस कर देते हैं, कुछ इस तरह का मर्म इस कविता में दीप्त हुआ है। वैसे भी दिल्ली दिमाग वालों का शहर है। वहां बसे अप्रवासी कवियों को वहां की रवायतें अपना कर कुछ दिल वाला भी बनना चाहिए, इससे कविता रचने और समझने में सहूलियत होगी। यह तो कविता और नये कवियों के लिए भी संहार वाली बात होगी, अगर कविता और कवियों की समझ और पहचान रणनीतियों और कूटनीतियों से बने। यह हिन्दी की विडंबना ही है कि हर चूक जाने वाला रचनाकार लेखन में आवृत्ति करता है अथवा लिखना छोड़ देता है, तो परिदृश्य पर खेल खेलने लगता है, संपादकी करने लगता है तथा संस्थाओं, पुरस्कारों, आयोजनों, चर्चाओं और तरह-तरह से उटापटक का खेल रच इतिहास में किसी को दर्ज कराने अथवा मिटाने की ऐजेंसी चलाने लगता है। मुझे तो इस खेल में बार-बार आपके 'नया ज्ञानोदय' संपादक पर तरस आता रहा कि उन्हें अंत-अंत तक यह पता नहीं चला कि वे खिलाड़ी नहीं महज एक मोहरा भर हैं। आखिरी बात लिखते हुए शर्म से मेरा सिर झुक जाता है, जब आपके संपादक किसी रचनाकार के परिचय में यह लिखते हैं कि इनकी एक पत्नी और बहत्तर प्रेमिकाएं हैं। मुझे भय है कि अब क्या बात यहां तक जाएगी कि आपकी पत्रिका में किसी महिला रचनाकार के परिचय में हमबिस्तरों की सूची छपेगी। मैं तो हैरान रह गया। बहुत सारे लोगों ने इसे संस्कारों के पतन की पराकाष्‍ठा कहा। निस्‍संदेह आप स्वर्गीया रमा जैन जी द्वारा स्थापित संस्कारों से ही अनुप्राणित रहे होंगे। इसलिए आपसे न्यूनतम परंपरा के सम्मान की अपेक्षा तो की ही जा सकती है। कम-से-कम उनकी दिवंगत आत्मा को आहत करने वाले ओछेपन से अपने उपक्रमों की गतिविधियों को बचाये रखें,, यही उचित है। वैसे आपका प्रबंधन, आपकी मर्जी!शुभकामना, सम्मान और क्षमा सहित, आपका कर्मेन्दु शिशिर पटना -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070530/98eb7470/attachment.html From beingred at gmail.com Thu May 31 00:48:45 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 31 May 2007 00:48:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Li4u4KSk4KWLIA==?= =?utf-8?b?4KSH4KS4IOCkpuClh+CktiDgpLjgpYcg4KSu4KWH4KSw4KS+IOCkqA==?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCkluCkvuCksOCkv+CknCDgpJXgpLAg4KSm4KWH4KSC?= Message-ID: <363092e30705301218i8e5728dmf415614aee56adc1@mail.gmail.com> ...तो इस देश से मेरा नाम खारिज कर दें यह जश्न, यह गीत किसी को बहुत हैं... जो कल तक हमारे लहू की खामोश नदी में तैरने का अभ्यास करते थे. कविता का स्लाइड शो देखने के लिए यहां क्लिक करें. बेदखली के लिए विनयपत्र 9 सितंबर, 1950 को पंजाब के तलवंडी में जन्मे पाश ने देश को कई अविस्मरणीय कविताएं दीं. पाश ने समय पर जो लकीरें खींचीं वे आज भी हैं और हमारे समय के जख्मों को याद दिलाती हैं. आज जब भारत अपने ही नागरिकों के प्रति निरंतर असहिष्णु होता जा रहा है, अरुंधति राय के शब्दों में कहें तो-अपने ही लोगों को गुलाम बना चुका है, पाश की यह कविता हमें खरोंचती है. इसी के साथ यह देश की मनगढ़ंत परिभाषा देनेवालों और राष्ट्रीयता के अपने मापदंड तय करने वालों के खिलाफ़ है. हम इसे यहां इस देश और समाज को और अधिक असहिष्णु होने से बचाने की आप्त पुकार के बतौर प्रस्तुत कर रहे हैं. -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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