From ravikant at sarai.net Thu Mar 1 13:48:43 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 1 Mar 2007 13:48:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) in March2007 Message-ID: <200703011348.43398.ravikant@sarai.net> saahitya ke rasikon ke liye. agar aap unocode istemal karte hain toh padma.mozdev.org se padma plugin extension download karke laga lein, taki abhivyakti/anubhuti ko unicode font mein parh sakein. agar diqqat pesh aaye toh banda hazir hai. cheers ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) in March2007 Date: गुरुवार 01 मार्च 2007 00:28 From: "AbhiAnu" To: "AnuAbhi" The message below is in Hindi Unicode. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). होली है भाई होली है * कहानियों के अंतर्गत यशपाल की कहानी: होली का मज़ाक * हास्य-व्यंग्य के अंतर्गत अशोक चक्रधर की कलम का धमाल: काव्य कामना कामदेव की कोमल कंचन कामिनी * संस्मरण में मधुलता अरोरा लेकर आई है: कुछ प्रख्यात लेखकों के व्यक्तिगत होली-पल * ललित निबंध में प्रेम जनमेजय का आलेख: लला फिर आईयो खेलन होली * साहित्यिक निबंध में सुधीर शाह के संग्रह से कतरनें: होली - पुराने दौर के समाचार-पत्रों मे * वसंती गीतों में- डॉ. इसाक 'अश्क', श्रीकृष्ण शर्मा, नचिकेता, कृष्णा नंद कृष्ण, कैलाश पचौरी, डॉ. ओमप्रकाश सिंह और बृजनाथ श्रीवास्तव * वसंती दोहों में- सुनील जोगी और डॉ. राम सनेहीलाल शर्मा 'यायावर' * वसंती कविताओं में- पवन शाक्य, नीलम जैन, दिव्यांग पुरोहित और आदित्य शुक्ल * वसंती अंजुमन में- साहिल लखनवी और जगदीश प्रसाद सारस्वत 'तैयब' * हास्य व्यंग्य में- पवन 'चंदन' और श्यामल सुमन अश्विन Abhivyakti and Anubhuti are Hindi Web Magazines, focusing on Art, Culture, Literature, Poetry , and Philosophy. As always, if Abhivyakti & Anubhuti announcement messages are not right for you, please do not hesitate to reply with subject=remove. This outbound E-Mail is certified Virus Free, and is checked by McAfee VirusScan Enterprise. -------------------- From neelimasayshi at gmail.com Fri Mar 2 16:17:37 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 2 Mar 2007 16:17:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWI4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN4KSg4KS+IOCkleCljeCkr+Cli+CkgiDgpJXgpLAg?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSW4KSk4KS+IOCkueClguCkgT8gLS0tLS0g4KST4KSq4KSo?= =?utf-8?b?IOCkuOCli+CksOCljeCkuCDgpK7gpYfgpII=?= Message-ID: <749797f90703020247s2c4fdb08ve038380e60002cb3@mail.gmail.com> मसिजीवी के इस मजेदार लेखन (या चेपन) का आनंद लें) नीलिमा मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ? ----- ओपन सोर्स में -मसिजीवी इस पोस्‍ट का सोर्सकोड यह है ... मंटो का वक्‍तव्‍य 'मैं अफसाना क्‍यों लिखता हूँ' लिया। फाइंड-रिपलेस कमांड से अफसाना की जगह चिट्ठा चेपा। तदनुसार कागज-कलम की जगह कंप्‍यूटर के शब्‍द रखे। .....पोस्‍ट कर दिया। कॉपराईट या तो मंटो का माना जाए या ओपनसोर्स में माना जाए। हाजिर है- मुझसे कहा गया कि मैं यह बताऊँ कि मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ? यह 'क्यों कर' मेरी समझ में नहीं आया. 'क्यों कर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह? अब आपको क्या बताऊँ कि मैं चिट्ठा क्योंकर लिखता हूँ. यह बड़ी उलझन की बात है. अगर में "किस तरह" को पेशनज़र रखूं को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में कुर्सी पर बैठ जाता हूँ. कीबोर्ड पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके चिट्ठा लिखना शुरू कर देता हूँ. मेरे तीन बच्‍चे शोर मचा रहे होती हैं. मैं उनसे बातें भी करता हूँ. उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए "सलाद" भी तैयार करता हूँ. अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर चिट्ठा लिखे जाता हूँ. अब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ. अगर यह पूछा जाए कि मैं चिट्ठा 'क्यों' लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है. मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है. मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी. मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैने किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे चिट्ठे लिखे हैं, जिन पर आए दिन विवाद चलते रहते हैं. जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ कखग होता हूँ जिसे हिंदी आती है न संस्‍कृत, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी. चिट्ठा मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती. मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई चिट्ठा निकल आए. कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूंकता रहता हूँ मगर चिट्ठा दिमाग से बाहर नहीं निकलता है. आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ. अनलिखे चिट्ठे की घोषणा वसूल कर चुका होता हूँ. इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है. करवटें बदलता हूँ. उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ. बच्चों का झूला झुलाता हूँ. घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ. जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ. मगर कम्बख़्त चिट्ठा जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ. जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता. सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है. मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता. लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं ब्‍लॉगिस्‍तान का बहुत बड़ा चिट्ठाकार हूँ. मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ. उन पर कोई जादू कर रहा हूँ. माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया. किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं चिट्ठा क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ. अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई उसने मुझसे यह कहा है, "आप सोचिए नहीं, कीबोर्ड पीटिए और लिखना शुरू कर दीजिए." मैं इसके कहने पर कीबोर्ड पर अंगुलियॉं चलाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई चिट्ठा उछलकर बाहर आ जाता है. मैं खुद को इस दृष्टि से चिट्ठाकार नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा? मसिजीवी का ब्‍लॉग http://masijeevi.blogspot.com/ -- Neelima zakir Husain Post Graduate College -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070302/41747fcb/attachment.html From zaighamimam at yahoo.co.in Sat Mar 3 14:57:39 2007 From: zaighamimam at yahoo.co.in (zaigham imam) Date: Sat, 3 Mar 2007 09:27:39 +0000 (GMT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?iso-8859-1?q?=E0=A4=B0=E0?= =?iso-8859-1?q?=A4=B5=E0=A4=BF=E0=A4=95=E0=A4=BE=E0=A4=82=E0=A4=A4_=E0=A4?= =?iso-8859-1?q?=9C=E0=A5=80_=E0=A4=AE=E0=A4=A6=E0=A4=A6_=E0=A4=95=E0=A5?= =?iso-8859-1?q?=87_=E0=A4=B2=E0=A4=BF=E0=A4=8F_=E0=A4=B6=E0=A5=81=E0=A4?= =?iso-8859-1?q?=95=E0=A5=8D=E0=A4=B0=E0=A4=BF=E0=A4=AF=E0=A4__=3DBE=3F=3D?= Message-ID: <970232.58906.qm@web7805.mail.in.yahoo.com> रविकांत जी शुक्रिया मेरी समस्‍या हल हो गई है, प्रसन्‍न हूं मेरी एक गजल के दो शेर खास आपके लिए फरियादे इश्‍क को मेरी मंजूर कर दिया दिल मेरे ठख्‍तियार से कुछ दूर कर दिया करके इस बला में नई उसने मुब्‍तला दुनिया की हर बला से मुझे दूर कर दिया कहता हूं दिन को रात जो कहते हो तुम तो हाय तुमने भी किस कदर हमें मजबूर कर दिया जैगम को कह रहे हो कि जूती है पांव की किस बात ने इतना तुम्‍हें मगरुर कर दिया होली की ढेर सारी शुभकामनाएं जैगम इमाम --------------------------------- Here’s a new way to find what you're looking for - Yahoo! Answers -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070303/8d0a7fad/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Sat Mar 3 15:17:11 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sat, 3 Mar 2007 15:17:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= test, ignore Message-ID: नमस्‍कार मेरा नाम जैगम इमाम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070303/fea08c81/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Mar 3 16:09:28 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 3 Mar 2007 16:09:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS44KSqIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkleClgeCkmyDgpLLgpL/gpJbgpL4g4KSl4KS+IC0x?= Message-ID: <200703031609.29213.ravikant@sarai.net> मनोहर श्याम जोशी को गुज़रे लगभग एक साल हो गया. होली का ही समय था, जब उनके सम्मान में वाणी प्रकाशन द्वारा ‌‌‌आयोजित एक जलसे में उनसे मुलाक़ात हुई थी, जो दुर्दैववश ‌आख़िरी मुलाक़ात साबित हुई. बहरहाल, संवेद ने फ़रवरी 2007 के अपने 15वें अंक में जोशी जी के कृतित्व पर कुछ सामग्री प्रकाशित की है, जो आप में से कुछ लोगों ने देखी-पढ़ी-सुनी होगी. जिन्होंने नहीं देखी है, उनके लिए उसमें से कुछ माल रविशंकर श्रीवास्तव अपने ब्लॉग पर डाल रहे हैं. अभी के लिए मेरा लेख पढ़ें, जिसे मैं दो-तीन भागों में पोस्ट करता हूँ http://rachanakar.blogspot.com/ संजीव का अच्छा लेख - किसे नापसंद है उपन्यासकार जोशी भी अगले हफ़्ते आ जाएगा. आपकी प्रतिक्रि या का इंतज़ार रहेगा. शुक्रिया रविकान्त ------- पहला भाग: कसपावतार में मनोहर श्याम की भाषा-लीला हमारी बिरादरी को यह तर्क स्वीकार नहीं हुआ कि लेखक बुद्धिजीवी होने के साथ-साथ शिल्पी भी है और उसे अपने शिल्प का जनता के ज्ञानवर्धन और मनोरंजन के लिए उपयोग करने में कोई संकोच नहीं हो ना चाहिए। शिल्प या भाषा की बात करना ही इंटेलेक्चुअलता की कमी का प्रमाण हमारी बिरादरी में माना जाता रहा है। एक गोष्ठी में मैंने जब शिल्प और भाषा की बात उठाई तो एक जनवादी युवक लेखक ने मुझे याद दिलाया कि शिल्प तो मोची को भी आता है और लच्छेदार बातों से रिझाना रंडी भी जानती है। विचारणीय है कि शिल्प को घटिया ठहरानेवाला यह तेवर कहीं 'मनुवादी' तो नहीं है? - 'मास मीडिया और साहित्य'' बदमासी' का सही अनुवाद लीला होगा इस संदर्भ में, यद्यपि सुधीजनों को इस अनुवाद से किंचित आध्यात्मिक कष्ट हो सकता है। - कसप बहुत पहले ही यह बात उनकी किताबों का ब्लर्ब बनने तक स्वयंसिद्ध हो चली थी कि जोशीजी के शिल्प का अनूठापन उसके खिलंदड़पन में है। शायद यह भी कि उनके कृतित्व की शैली उनके वृहत्तर केलिप्रिय व्यक्तित्व का ही उप-समुच्चय है, जो भी एकाध बार उनसे मिलने-जुलने या उनको सुनने का मौक़ा मिला, उसके आधार पर ऐसा अनुमान लगाता हूँ। आप यह भी कह सकते हैं कि मैं उल्टी गंगा बहा रहा हूँ - अपने एक निहायत चहेते लेखक की शख़्सियत में वह तलाश रहा हूँ, जो मुझे उनकी रचनाओं से हासिल हुआ है। पर यहाँ एक 'रिऐलिटी टीवी'-जैसे प्रसंग का उल्लेख शायद उतना बेमानी न होगा। जिस दिन उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई थी, उस दिन मैं चैनल बदलते हुए एस-1 पर ठिठक गया था, क्योंकि साक्षात जोशीजी ऐंकर के रस्मी सवालों का अनमना-सा जवाब देते हुए फोन-इन करनेवाले मित्रों से बधाइयाँ बटोर रहे थे। ज़ाहिरा तौर पर मौक़ा ख़ुशनुमा होने के सा थ-साथ साहित्यिक होने के चलते गंभीर था और वह भी यथासंभव संजीदा दीखने की कोशिश कर रहे थे। स्पष्टत: सायास। तभी मुंबई से जावेद अख़्तर का फोन आया। मुबारकवाद लिया, शुक्रिया वग़ैरह अदा किया और छूटते ही बोले, "अरे साहब आजकल तो आपके दिल्ली आने-जाने का पता ही नहीं चलता। ठीक है, आपने पीना छोड़ दिया है, पर हम तो अभी-भी कभी-कभार पी लेते हैं। मिल लिया कीजिए, आप नहीं तो हम ही थोड़ी पी लेंगे!" टीवी पर अपने पीने का ऐसा बेलौस और ऐलानिया हलफ़नामा पेश करना कम से कम साहित्यिकों में तो सिर्फ़ जोशीजी के ही बूते की बात थी। और यही सांस्कृतिक बदमासी हमारे जैसे 'जोशजू' के 'सीलिंग फ़ैनों' को बहुत पसंद थी/है/रहेगी। वैसे ही जैसे बहुत पहले उनकी लिखन-शैली - अज्ञेय के शब्दों में 'यह तो जोशीजी जैसा हो गया'1 - के हम मुरीद हो गए थे, उनकी चीज़ें खोद-खोदकर और बार-बार पढ़ते थे, उनकी पंक्तियों को शोले के डा यलॉग की तरह दुहराते थे, और आज जब मैं यह लिखने बैठा हूँ तो लिखाई के रास्ते का सबसे बड़ा अवरो ध वह उपन्यास ही बन गया है, जिस पर लिखना तय किया। मसला यह है कि आपको लगता है आपने पढ़ लिया है, महत्वपूर्ण पन्नों पर झंडे-पताके गाड़ दिए हैं, उनपर नोट्स भी चेप दिए हैं, और बस लि खने को तैयार हैं। लिखना शुरू भी कर देते हैं, किसी उद्धरण के लिए पोस्ट-इट-स्मारिका की शरण में जाते हैं और तत्क्षण पाठ की गिरफ़्त में आ जाते हैं। जहाँ से शुरू करो, वहीं से रसमय और 'फँसमय' - अब कोई 'अनपुटडाउनेबल' किताब पर लिखे तो कैसे लिखे! पाठमात्र का आनंद लेखन के लिए व्यवधान पैदा कर देता है। बहरहाल संवेद-संपादक राजीव के मोबाइली आर्तनाद से दिल लबरेज़ और इनबॉक्स जा म न हो जाता तो मैं कसप को एक बार और, बस, एक बार और... पढ़ने में मुब्तिला रहता। ख़ैर सा हब अब आन पड़ी है तो धंधे की ही बात करते हैं।(इसी अंक में) संजीव ने अपना लेख लिखकर मेरा काम आसान कर दिया है, मुझे ग़ैरों की नहीं बस अपनी फ़िक़्र करनी है और थोड़ी-बहुत जोशीजी के फ़न की फ़िक़्र करनी है, बस इतना सोचना है कि जोशीजी हमें क्यों पसंद हैं। दूसरे शब्दों में, यह पूछना है कि भाषा और शिल्प की जोशीगिरी क्या है? वह क्या है जिसे दिनमान के आरंभिक दिनों में ही गुरू-गंभीर अज्ञेय ने लक्ष्य कर लिया था, और जिसको हम पढ़कर नहीं अघाते, पर जिसका स्वाद हमें बताना है: 'खिलंदड़ी भाषा' के गूँगे-के-गुड़ का विखंडन करना है। पर ध्‍यान रहे कि यह मैं किसी पहुँचे हुए भाषा-मर्मज्ञ होने के गुमान में या आलोचक के किसी औचक अवतार में नहीं कह रहा हूँ। ये उद्गार एक निरे फ़ैन के हैं, अस्‍तु! पहला ख़याल तो यह आता है जोशीजी के अमूमन संपूर्ण औपन्यासिक कृतित्व पर और इसलिए कसप पर भी कि यह 'मेटाफ़िक्‍श न' है। यानी ऐसी सजग गल्प कृति जो आपको अपने कृतित्व के एहसास से लगाता र बाख़बर रखती है, आपको भूलने नहीं देती कि यह आद्योपांत और मुकम्मल तौर पर एक रचना है। मसलन, यथार्थवादी तकनीक से इसका वैषम्य साफ़ है: यथार्थवाद 'जो देखा वह लिखा' का मंत्र लेकर चलता है, कुछ इस क़दर कि पाठ पर पाठक का विश्वास जमा रहे, वह कहे - ऐसा ही हुआ होगा, ऐसा ही तो होता है! इसके बरक्स अमूमन विडंबना के स्थायी स्वर में लिपटा मेटाफ़िक्‍शन यथार्थ और गल्प के अंतर्संबंधों पर सवाल खड़े करता है। उदाहरण के तौर पर यहाँ सुमित्रानंदन पंत भी आते हैं, और जयशंकर प्रसाद भी, पर उनका आवाहन भी किसी यथार्थ को पोसने के लिए नहीं होता। लाज़िम तौर पर आत्मचेता यह विधा जो पाठकों की प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान भी लगाती है, स्थितियों के अनुसार उन पर, पात्रों या ख़ुद पर कटाक्ष करती चलती है, और इन सबके लिए ज़रूरत के मुताबिक ढाँ चे में रैडिकल प्रयोग करने से गुरेज़ नहीं करती। विकिपीडिया2 के अनुसार मेटाफ़िक्‍शन के कथा- विन्यास में एकरैखिकता नहीं होती, आवश्यतानुसार फ़ुटनोट आते हैं, कभी फ़्लैशबैक होते है कभी फ़्लैशफ़ॉर्वर्ड, आदि-आदि। सो जोशीजी इस 'बेढब सी कादंबरी' को, किसी और की कहानी को, इतने तरह के तार्किक संभ्रम-वि भ्रम व सैद्धांतिक संभावनाओं के उहापोह में डालते हैं कि पाठक कथा के यथार्थ-मोह में फँस कर रह जा ए तो बलिहारी उसी की है, उपन्यासकार ने ऐसा कुछ नहीं किया, आप ऐसा कह सकते हैं। उपन्यासका र ने तो हर क़दम पर 'सुधी समीक्षकों' 'व 'सहृदय पाठकों' से वाद-विवाद-संवाद करने की कोशिश की है - बाज़ मौक़ों पर, भले ही तंज़िया लहज़े में - अब जब उसने 'प्रेम कहानियों की घनघोर पाठिका अपनी पत्नी' को समर्पण जैसी प्यारी जगह पर नहीं बख़्शा तो आप किस खेत की मूली हैं! उसने तो चाहा है कि आप मनोविज्ञान से, पॉप सोस्यॉलजी व सेक्सॉलजी, जीवरसायन विज्ञान से, हॉर्मोन आदि के स्राव से प्रेम-व-सेक्स की विकट-विशिष्ट और अनगढ़ स्थितियों को समझें। उसने तो कई ज़रूरी मोड़ों पर आशिक़-माशूक़ को हर तरह के विकल्प सुझाए और पाठकों से भी उन्हें साझा किया। यहाँ तक कि वह परम गल्पकार, जगत-मिथ्या-कार भगवान से भी प्रेम की परिभाषा, उसके दर्शन व उसकी नियति को लेकर अड़ा। बात कहीं बनती नहीं, एतमेव कहानी ऐसी क्याप-सी है। तिस पर भी अगर किसी को साधारण प्रेम-कहानी की तरह बाल्टी-भर-भर रोना आए तो इस गुनाह के देवता जोशीजी नहीं हैं। साफ़ है कि यह कहानी प्रेम-कहानियों की अपनी साहित्यिक विरासत से भी मुखा मुखम है, और ख़ुद को कहने के लिए तमाम तरह के संसाधन दस्‍तयाब करती है, उनकी ऐतिहासिक व्यंजना-अक्षमता से जूझती है, उनकी नुक़्ताचीनी करती है, उनसे चुनती-बीनती है, आड़ा-तिरछा, को हनीमार संबंध बनाते हुए उन्हें फ़ुटनोट में घायल करती चलती है। इस तरह की हायपरलिंक्ड अंतर्पाठ्यता कसप की ख़ासियत है, पर शायद यह समस्त जोशी-वाङ्मय का ही वैभव है। इस अर्थ में जोशीजी थोड़े डिमांडिंग लेखक हैं, उनकी क़िस्सागोई इतालवी उपन्यासकार उम्बर्तो इको जैसी क़िस्सागोई है, कि अगर ख़ूब मज़ा चाहिए तो आपको बहु-नहीं-तो-थोड़ा-पठित तो होना ही चाहिए। फिर यहाँ कहानी की गति या दिशा घटना-दर-घटना उत्कंठा पर अवलंबित नहीं है, न ही अभिधा त्मक निर्वचन पर, पैराग्राफ़ पिछले पैराग्राफ़ की किसी उक्ति से संबंध जोड़कर, कई बार एक नया उक्ति-वैचित्र्य पैदा कर, आगे बढ़ते हैं। यह नहीं कि कह दिया अब कुछ और कहो, बल्कि कह दिया उससे आगे जो कहना है, उसका क्या संबंध बनेगा, यह जुगाड़ते-इशारते चलना जोशीजी की क्रीड़ाप्रिय कल्पनाशीलता की विशेषता है। बाक़ी क्रमश:... From ravikant at sarai.net Sat Mar 3 16:45:34 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 3 Mar 2007 16:45:34 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS44KSqIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwLi4u4KSt4KS+4KSXLTI=?= Message-ID: <200703031645.34719.ravikant@sarai.net> संवेद और रचनाकार से साभार.... http://rachanakar.blogspot.com/ ..... इस क्रीड़ाप्रियता का दूसरा दिलचस्प पहलू निश्चय ही भाषा-प्रयोग है पर भाषा की स्टिक से अभिव्यक्ति को ड्रिबल करने का उनका अंदाज़, उनका आत्मविश्वास उन्हें बेनीपुरी, रेणु- प्रभृति महान शैलीकारों से भी दो क़दम आगे ले जाता है। आंचलिकता के बहुचर्चित संदर्भ पर थोड़ी और चर्चा करके शायद इसका खुलासा हो जाए। वैसे तो अब तक यह स्थापित हो ही चुका है कि 'आंचलिक' भी महज़ आंचलिक नहीं होता; साहित्य से पाठक या अलोचक का तादात्म्य वन-टू-वन का नहीं होता, या नी मैला आँचल के 'मेरीगंज' का विलायती नाम और 'आधा गाँव' का कम से कम उत्तर भारत के विभा जन का (अंतर-)राष्ट्रीय रूपक बन जाना अपने आप में इस बात के वैसे ही सबूत हैं, जैसे कालांतर में आंचलिकता के लेबल से ख़ुद रेणु का असंतोष। बहरहाल, मैला आँचल और आधा गाँव से एक फ़र्क़ तो है ही कि कसप के लिए कुमाउँनी भाषा का प्रयोग किसी कथ्यात्मक राजनीतिक रणनीति का हिस्सा नहीं है। पहले दोनों उपन्यास एक हद तक 'जनपद का कवि'-नुमा उद्घोष करते दिखते हैं। ऐसा लगता है कि भाषा की मुख्यधारा के रजिस्टर या दीवान में वह कहने की गुंजाइश नहीं रही थी, जो उन कहानियों के लेखक कहना चाह रहे थे, क्योंकि मुख्यधारा आम तौर पर नई क़िस्म की खड़ी बोली को साधकर प्रगति, एकता, अखंडता, पंचवार्षिक आधुनिकता और नागर जीवन के राष्ट्रवादी आख्यान गढ़ने में मसरूफ़ थी। अपने विस्फोटक कथ्यों के अलावा मैथिली-प्रधान हिन्दी और भोजपुरी उर्दू में लिखे दोनों पूर्ववर्ती उपन्यास इसी वजह से अपनी छाप भी छोड़ते हैं कि वे अपने चरित्रों की भाषिक संवेदनाओं के ज़रिए उत्तर बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के नितांत अनछुए पहलू उजागर करते हैं। ऐसी कहानियाँ, ऐसी 'उजबक' शैली में रचते हैं जिन्हें राष्ट्रीय इतिहास व आलोचना की प्रदत्त सुर्ख़ियों या शब्दावलियों में खपाना दुरूह हो गया। ऐसे दुस्साहस के लिए कुछ नासमझ आलोचकों द्वारा उनकी पर्याप्त लानत-मलामत भी की गई।3 बहरहाल, कसप के मुताल्लिक यह कहना नाकाफ़ी होगा कि जोशीजी इस उपन्यास के विन्यास में उस दूरी को पाटते हैं, जो संस्कृत-पोषिता हिन्दी और उससे दूर छिटक आई बोलियों का है(यह तो ज़ाहिर है पहले भी हुआ है, या यूँ कहें कि अब तक तो पहले के भाषायी-कथात्मक विद्रोहों को हिन्दी के 'गौ रवशाली इतिहास' में अंतर्भुक्त किया जा चुका है)। हक़ीक़त में, कुरु कुरु स्वाहा से लेकर बरास्ते हमज़ा द और बाक़ायदा क्याप तक जोशीजी मुख़्तलिफ़ भाषा-प्रकारों के नानाविध तेवर पेश करते हैं, और अक्सर तो एक ही कृति में उनकी विराट लीलाओं का मंचन करते नज़र आते हैं। वैसे तो सीधे तौर पर कम से कम इस उपन्यास में किसी फ़ौरी तौर पर शिनाख़्त किए जाने वाले 'राजनीतिक' एजेंडे की उपस्थिति नहीं हैं, पर संपूर्ण जोशी-वाङ्मय भाषा-मात्र की क्षमता का अपूर्व विस्तार है। जैसे हजारीप्रसाद द्विवेदी, रज़ा, रेणु, कृष्णा सोबती, काशीनाथ सिंह आदि की भाषा विरसे में मिली हदों का स्पष्ट अतिक्रमण है, वैसे ही जोशीजी की हर कृति मानक भाषा की सरहदों, उसके तटबंधों को अपनी रचनात्मक धार से नेस्तनाबूद करती चलती है। इसलिए भाषा की रचनात्मक राजनीति के संदर्भ में उनके कृतित्व के महत्व की अतिरंजना ग़ैर-मुमकिन है। फ़िलहाल इतना समझ लिया जाए कि आंचलिकता उनके भाषाई टूल-बक्से में बस एक और औज़ार है। कुमाउँनी हिन्दी तो कसप का घोषित माध्यम है ही, और उपन्यासकार, रेणु-राही का 'शब्दकोष दिखा कर उपन्यास पढ़ाने का सिलसिला'4 जारी रखता है। पर यहाँ कूर्मांचल के अलावा कम से कम तीन और अंचल हैं: पहला, अंग्रेज़ी का, जो मुख्यत: गुलनार और डीडी(नायक देवीदत्त का शॉर्टहैन्ड नाम!) के मध्य घटते प्रसंगों, और बाद में प्रौढ़ दिग्‍दर्शक डीडी + कला-संरक्षिका मिसेज़ मैत्रेयी के संदर्भों, ख़ासकर उनके संवादों में झलकता है; दूसरा, शास्त्री-शास्त्राणीजी की बनारसी भोजपुरी का, और ती सरा फ़िल्मी ज़बान का। और ये सब एक-दूसरे से क्या बख़ूबी नथे-गुँथे हैं, हर पाठक पर ज़ाहिर ही होगा। बब्बन और डीडी की आपसी कूट भाषा फ़िल्मी है, नायिका बेबी और उसकी सहेलियाँ एक ही साँ स में कुमाउँनी रस्मी गीत और फ़िल्मी गीत गाती हैं। प्रसंगवश एक और ग़ौर करने लायक़ बात यह है कि गाने बड़े करीने-से तिथिक्रमानुसार ही आते हैं - अगर कहानी 1954 में शुरू हुई है तो गीत भी उसके ही आसपास के हैं, और अगर कहानी ने तीस साल का फ़ासला तय कर लिया है तो गाने भी तदनुसार बदल जाते हैं। और जोशीजी फ़िल्मी भाषा की शरण में जाने से वह चिराचरित साहित्यिक परहेज़ भी नहीं करते। उपन्यास में प्रयुक्त अनगिनत गानों के मुखड़ों से एक मिसाल लें। प्रसंग है नायिका का प्यार के होने के प्रति प्रत्याशा-मिश्रित-याकि-भाववाचक प्रश्न का, जो वह सिनेगीत की एक पंक्ति के ज़रिए पेश करती है। बक़ौल जोशीजी : यहीं मुझे सिनेमाई गीतों का इतना अधिक सहारा लेने के लिए नायक-नायिका की ओर से, विज्ञ पाठकों से क्षमा-याचना करना भी आवश्यक प्रतीत होता है। मुझे विश्वास है कि वे मेरी लाचारी समझेंगे और उनकी सहानुभूति इस कथा के युवा पात्रों को समान रूप से प्राप्त हो सकेगी। प्रेमोपयोगी काव्य का हिन्दी में शोचनीय दारिद्र्य है। संस्कृत काव्य, रीतिकालीन-भक्तिकालीन काव्य और उर्दू शेरो- शायरी का सहारा वे ले सकते थे, किन्तु एक तो वे इनसे सुपरिचित नहीं है, दूसरे इनसे नितान्त सामन्ती-सा रंग मिलता है प्यार को जो लोकतंत्र में अभीष्ट नहीं। अस्तु सिनेमा-गीतों का ही संबल है। हिन्दी कवि क्यों प्रेमोपयोगी काव्य नहीं लिख सके, कतिपय रसाभिषिक्त कवियों के एतत्संबंधी सत्प्रयासों के बावजूद क्यों नहीं हिन्दीभाषी प्रेमियों के मध्य 'इस पार प्रिये तुम हो मधु है' अथवा 'इन फ़िरोजी ओठों पर बर्बाद मेरी जिन्दगी' अथवा 'पीले फूल कनेर के' गा-गाकर प्रेम करने का चलन हो सका - यह स्वतंत्र चिंतन का विषय है, जिस पर फिर कभी विचार हो सकता है। संप्रति विचारणीय है नायिका की वह चिरौरी : इतना तो बता दो कोई हमें क्या प्यार इसी को कहते हैं? नायिका द्वारा प्रस्तुत सूची में भी पहला इंदराज वही पुरानी सूचीवाला है : वह पास रहें या दूर रहें नज़रों में समाये रहते हैं। [पृ. 155] भाषा, लोक-संस्कृति, फ़िल्म व प्रेमोपयोगी हिन्दी साहित्यिक सामग्री के अंतर्संबंधों पर जोशीजी की अपनी समझ इस अवतरण से ज़ाहिर हो गई होगी। मेरा झगड़ा अगर उनसे है तो सिर्फ़ इतना कि उन्हों ने उर्दू को बड़ी आसानी से बाक़ियों कि तरह सामन्ती भाषा का दर्जा दे दिया, जैसे कि उर्दू ने कभी सामंतवाद से पूंजीवाद और समाजवादी सपनों की यात्रा तय ही नहीं की, मानो इक़बाल, मंटो, फ़ैज़, साहिर, मजरूह हुए ही नहीं, जैसे कि उर्दू का सबसे अहम फ़िल्मी ज़बान बने रहना मात्र संयोग हो। पर उनकी बाक़ी बातें मुझे तो ठीक लगीं, यह भी कि नायक-नायिका उर्दू साहित्यिक संस्कारों से किंचित दूर छिटक आए हैं - अपनी तरफ़ से बस इतना जोड़ दूँ - उसे वे अगर वापस हासिल भी करते हैं तो फ़िल्मों के ज़रिए ही। अंग्रेज़ी के संवाद तो नागरी में हैं ही, शाब्दिक पर लतीफ़ अनुवाद के साथ, मज़े की बात यह भी है कि एक बिन्दु के बाद जब पाठक मान चुके हैं कि गुलनार-डीडी की बातचीत का माध्यम अंग्रेज़ी ही है और जोशीजी उनके लिए अंग्रेज़ी झाड़ना बंद कर देते हैं तब भी हिन्दी संवादों में अंग्रेज़ी की ही तर्ज़ेबयानी - वाक्य-विन्यास, मुहावरे व जुमले - फ़ॉलो किए जाते हैं। रही बात 'शास्त्रीय' बनारसी के इस्तेमाल की तो वह पूरा सिलसिला ही मारक है। याद कीजिए कि शास्त्रीजी बनारसी भोजपुरी में कब फूटते हैं: तब जब वह बेबी की ज़िद के आगे विह्वल और निरुपाय हो जाते हैं। पति-पत्नी हताश हैं, रूस्वाई के अहसास में निहायत तन्हा हैं और दूसरों की शुद्ध हिन्दी की वर्तनी सुधारनेवाले प्रकांड भाषा-पंडित शास्त्रीजी ऐसी असाधारण स्थिति में 'कार्तिकेयक इजा' नहीं, 'कार्तिकेय कs महता री' से पूछा चाहते हैं कि अब करें तो क्या करें। निज भाषा से उनका अपना संबंध बिगड़ गया है, लगता है अधिकार जाता रहा है। पर विह्वल क्षणों में अटपटी पर-भाषा का आह्वान सुकून तो क्या देगा, उल्टे यही विशिष्ट संबोधन जोशीजी के हाथों कठिन-कठोर कटाक्ष-कुठार बन जाता है, और शा स्त्रीजी की जवानी के इतिहास/सांस्कृतिक यानी जिए हुए भूगोल/रोमांस या उसकी शून्यता/ज्ञान/वि राग/कूपमंडूकपन/दब्बूपन/इम्प्रैक्टिकलता - एक शब्द में संस्कारबद्धता - का ऐसा विशद और बेमुरव्वत नक़्शा खींचा जाता है कि निरपेक्ष पाठक भी त्राहि-त्राहि कर उठें: कुछ ऐसा ही है विस्मयादिबो धक चिह्न-विभूषित 'कार्त्तिकेय कs महतारी' के शीर्षक से शुरू या उस पर समाप्त होनेवाले अनुच्छेदों का असर!(पृ. 196-200) कहने को कसप एक मुख़्तसर-सी, असफल प्रेम कहानी है, पर जोशी जी की क़िस्सागोई की तकनीक में पगकर यह अद्वितीय बन जाती है। घोषित तौर पर नारूमानी जगह(टाट की टट्टी) से शुरू यह कहानी रूमानी भी है, अपने पूरे रास्ते किंचित करुण और अंत में त्रासद भी। पर इसकी उपलब्धि आशिक़ी के विमर्श के हज़ार रंगों, उसकी विविध स्थितियों, मनोदशाओं, आकर्षण-विकर्षणों, उत्कंठाओं, बेचैनियों, चुनौतियों, मजबूरियों, चालबाज़ियों, उद्घोषणाओं, प्रदर्शनप्रियताओं व गुप्त-चेष्टाओं के नि रूपण में है। 'मेलोड्रामा' के तमाम तत्त्वों से सजे होने के बावजूद यह मेलोड्रामा नहीं है तो इसलिए कि जोशीजी हर स्थिति का निर्मम आकलन करते हैं, और अपनी भाषाई बाज़ीगरी से पाठकों का ध्यान दिल और दिमाग़ के बीच तनी किसी रस्सी पर संतुलित-संकेन्द्रित किए चले जाते हैं। प्रेमी-प्रेमिका से आपकी सहमर्मिता भी बनी रहती है, आप तदनुरूप सोचने को बाध्य होते रहते हैं, पर जोशीजी की ती सरी आलोचनात्मक आँख में भी उतनी ही मोहिनी-शक्ति है, यानी आप प्रेम के विखंडन का लुत्फ़ उठाने को अभिशप्त हैं। यह लगभग तय है कि कसप लिखने से पहले जोशीजी ने फ़्रांसीसी भाषाविद-संरचनावादी-उत्तर-संरचनावा दी-दार्शनिक रोलाँ बार्थ के लवर्स डिस्कोर्स5 को नहीं पलटा होगा, क्योंकि अगर ऐसा होता तो वात्स्यायन, जॉनसन ऐण्ड मास्टर, आदि के साथ-साथ उन्होंने बार्थ को भी बेशक उद्धृत किया होता, पर बहुत पहले मुझे बार्थ पढ़ते हुए बराबर ऐसा अहसास होता रहा कि यहाँ जैसी कुछ चीज़ें मैंने कसप में पढ़ी हैं। लिहाज़ा जब यह लिखने बैठा तो दोनों किताबों की मानसिक तुलना स्वाभाविक लगी। दोनों की कथा-भूमि प्रेम है, और कथ्य उसका पाठ-सुख के ज़रिए विखंडन। चाहे वह 'अनाथ-ग्रंथि'-सेवी डीडी का प्रेम-विषयक बहिष्कार के अहसास से पोषित दैन्य हो, चाहे वह प्रेमी-मन की चिरंतन 'याकिवादी' द्विधाग्रस्तता हो या एकतरफ़ा प्रतीक्षा का विषाद, प्राथमिक या द्वितीयक ईर्ष्याभाव, सामनेवाले को जानने-न-जानने के बीच झूलना, आशिक़ रूह की भटकन, दिल का घुमक्कड़पन, सूफ़ियाना, हठधर्मी आत्मपीड़न, हर आशिक़ की तरह यह भरोसा कि उसका प्यार अद्वितीय है, अमर है, पर साथ ही यह नियतिवादी आस्था भी कि उसका कुछ नहीं हो सकता - इश्क़ दा लग्या रोग, बचने दी नइयों उम्मीद - आत्मनिर्वासन, अपराधबोध, जाने-अनजाने आशिक़ की मदद ही कर जानेवाले भेदिया की भूमिका, विशिष्ट प्रेम-उद्बोधन('जिलेम्बू-मारगाँठ'), ख़त लिखना, उनका इंतज़ार करना, चौंका हुआ होना आदि, प्रेम के शास्त्रीय/बार्थीय/जोशीय लक्षण हैं। कहा जा सकता है कि बार्थ ने पाश्चात्य परंपरा की कहानियों और आधुनिकता से उनमें पैदा दरार पर फ़ोकस किया है। उचित ही है कि उनके द्वारा उद्धृत दृष्टांतों में बड़े-बूढ़ों की ज़्यादा दख़ल नहीं है, नायक-नायिका की आपसी आशा-प्रत्याशाओं की आँख-मिचौली और धींगामुश्ती चलती है। पश्चिमी प्रेम-कहानियों में आधुनिकता द्वारा भावुकता को निरुद्देश्य और फ़ालतू सिद्ध कर दिए जाने की स्थिति में प्यार करना द्रोह का पर्याय बन जाता है। जो कसप में भी है और बेबी से नायिका तक मैत्रेयी का संक्रमण इसी द्रोह का परिणाम है। फ़र्क़ यह है यहाँ पर कि लेखन की परिधि में खलनायक की भूमिका में पूरा कुनबा, कुल-परिजन-सैन्य-दल है, समस्त समुदाय खड़ा है, यहाँ तक कि सारा शहर फुसफुसाकर सरगोशी करता दिखता है। ...क्रमश: From ravikant at sarai.net Sat Mar 3 16:51:48 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 3 Mar 2007 16:51:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS44KSqIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwLi4u4KSt4KS+4KSXLTM=?= Message-ID: <200703031651.48941.ravikant@sarai.net> संवेद और रचनाकार से साभार.... रचनाकार पर कुछ चित्र भी उपलब्ध हैं. http://rachanakar.blogspot.com/ ..... गतांक से आगे... किरदार के हिसाब से डीडी अपने वक़्त की पैदाइश है, बौद्धिक लेकिन बिल्कुल देवदासाना, पर नायिका के चित्रण में जोशीजी ने एक बार फिर कई परंपराओं को ध्वस्त कर दिया है। याद कीजि ए वह प्रसंग, जब डीडी-बेबी न बोलने की हिदायत पर अमल करते हुए स्लेट-पेंसिल पर लिखकर वार्ता लाप करते हैं, और जब नींबू को लेकर विवाद उठता है, नायक भावुकतावश नींबू के नायिका द्वारा नमक लगाकर चट कर दिए जाने की संभावना से प्रतिहत है - प्यार के अमर-अमोल उपहार का ऐसा दैनंदिन इस्तेमाल! - जोशीजी नायक को जैसे समझाते हैं - " अरे यह तो शुरुआत है। जब पराकाष्ठा पर पहुँचेगा तेरा प्यार, तब नायिका तेरा चुराकर दिया नींबू क्या, स्वयं तुझे दही-नमक से खा जाएगी। भक्षण प्रेम का अंतिम चरण है। कितना तो प्यारा लग रहा होता है चूहा बिल्ली को, जिस समय वह पंजा मार रही होती है उस पर।" भोज्य/भोक्ता, शिकार/शिकारी की कैसी भूमिका-पलट करते हैं जो शीजी, यह साफ़ हो गया होगा। पर मेरे इस लेख के ताल्लुक से महत्वपूर्ण पंक्ति है - 'भक्षण प्रेम का अंतिम चरण है'। कामायनी मुझे ठीक-ठीक याद नहीं पर उर्वशी का मशहूर प्रेम-काम, देह-अदेह का द्वैत कितनी सफ़ाई से, फ़ैसलाकुन लहज़े में समाप्त होता है, यह विचारणीय है। 'रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और क्या है'! बात तो वही है, पर भूमिका-विपर्यय दर्शनीय है। 'भक्षण प्रेम का अंतिम चरण है'। वह उपन्यास ही क्या जिसमें इस तरह की सार-गर्हित, चिर-स्मरणी य और बहु-उद्धरणीय इकलाइनाँ जुमले न हों। प्रसंगेतर आनंद और प्रसंगातीत उपादेयता ऐसी लाइनों की ताक़त है। निवेदन है कि जोशीजी इस कला के महारथी हैं। आइए देखें उनकी कुछ चुभती हुई पंक्तियाँ, जिन्हें आप श्रद्धानुसार जुमले, फ़िक़रे या सूक्तियाँ कह सकते हैं: - ज़िन्दगी की घास खोदने में जुटे हुए हम सब कभी चौंककर घास, घाम और खुरपा तीनों भुला देते हैं तो प्यार का जन्म होता है।(पृ.11) - असंभव के आयाम में ही होता है, प्‍यार रूपी व्‍यायाम। (16) - प्रेम कालजयी होने का एक दुस्‍साहसी पर कुल मिलाकर दयनीय कर्म है। मानव कितना भी कैसा भी यत्‍न कर ले काल हमेशा से प्रेमजयी रहा है।(280) - प्यार होने के लिए न विपुल समय चाहिए, न कोई स्थूल आलंबन! उसके लिए कुछ चाहिए तो आक्रान्त हो सकने की क्षमता। - प्‍यार वह भार है, जिससे मानस-पोत जीवन सागर में संतुलित, गर्वोन्‍नत तिर पाता है। (119) - क्या वही लोग हमें प्रीतिकर नहीं होते जिन पर हम हँस सकें, जो हमें हँसा सकें?(121) - बेबी बैडमिंटन में ज़िला-स्तर की चैंपियन है, यह बात अलग है कि इस जिले में बैडमिंटन स्तरीय नहीं। (14) - विफल दाम्पत्य संवादहीनता को जन्म देता है। सफल दाम्पत्य संवाद की अनावश्यकता को। क्या मौन ही विवाह की चरम परिणति है?(200). - साहित्यिक लोगों की बातचीत में इस तरह का घपला हो जाता है। उनमें शब्‍दों के बहुत अर्थ निका लने की प्रवृत्ति जो होती है। फिर जब डीडी ने अपना मसला दो-टूक बयान किया, तो ऐसे समझाने पर तो साहित्यकार तक समझ जाते हैं। (102) - 'अस्मिता का प्रश्न शेष रह जाता है।' 'जो शेष रह जाता है, कहीं उतनी ही अस्मिता तो नहीं।' (87). - वर्षों-वर्षों बैठा रहूँगा इसी तरह इस गाड़ी में जिसका नाम आकांक्षा है...संघर्ष का टिकट मेरे पा स होगा, सुविधा का रिजर्वेशन नहीं। (84)। - नियति लिखती है हमारी पहली कविता और जीवन-भर हम उसका संशोधन किये जाते हैं।(72). - मुख से न बोलने की मुनादी क्या आँखों पर भी लागू होती है? इन लाउड-स्पीकर आँखों पर! - "भीतर जाती है कि नहीं?", ठुल'दा सुर्ख़ियों में चीखते हैं।(51). - अपने वर्त्तमान पर लानत भेजने का युवाओं को वैसा ही अधिकार है, जैसा मेरे जैसे वृद्धों को अतीत की स्मृति में भावुक होने का। - यौवन गुलनार का बीत चुका है, लेकिन वह उसे साग्रह बनाए हुए है, इसलिए उसके संदर्भ में यौवन-भार-मंथरा विशेषण का प्रयोग करते हुए मेरी लेखनी हिचकती नहीं।(111) - वैसे विधाता के विनोदी स्वभाव का परिचय देने के लिए यह पर्याप्त नहीं कि उसने मल-निष्कासन और काम-क्रीड़ा के लिए अलग-अलग अंग बनाना अस्वाभाविक समझा?(231) - मनोविज्ञान, समाजशास्‍त्र, सामाजिक प्राणिशास्‍त्र - सब औसत सत्‍य के शास्‍त्र हैं. इनका औसत सदा दूसरों पर लागू होता है। हम सब अपनी दृष्‍टि में अनुपम हैं। (176) तो जोशीजी के भाषाई तरकश में इसी तरह के असंख्य छोटे-छोटे पर नुकीले तीर हैं, गंभीर घाव करनेवा ले। यह भी ज़ाहिर है कि वह अपनी बौद्धिक विरासत से, सामाजिक संस्कार से दो-दो हाथ कर रहे हैं, उनसे सतत शास्त्रार्थरत हैं। वे संस्कृति की राजनीति को अहम मानते हैं, और इसीलिए अपने ज़हर-बुझे व्यंग्य-बाण की बौछार कर पुरातनपंथी रिपुसैन्यदल को मर्माहत कर देते हैं। सेक्स-विषयक प्रसंगों में वे काफ़ी कुछ लिख जाते हैं, पर जो नहीं लिख पाते उसके लिए गेंद सुधी-समीक्षकों के पाले में डाल जाते हैं - 'है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं' वाले अंदाज़ में। मुझे लगता है कि जोशीजी ने अपने साहसि क पूर्ववर्तियों के कड़वे तजुर्बे से बहुत-कुछ सीखा है - इस तरह के आरोप नज़ीर अकबराबादी और मंटो से लेकर तमाम आंचलिकों पर तो लगाए ही गए, सुरेन्द्र वर्मा जैसे समकालीनों को एक हद तक नज़रअंदा ज़ करने के पीछे भी वही समझ हो सकती है। अपनी बात जोशीजी के मार्फ़त पुष्ट करने के लिए एक आख़िरी लंबे उद्धरण की इजाज़त चाहूँगा, जिसमें उनका अपना राजनीतिक रुख़ भी साफ़ हो जाता है: नायक के पौरुष के आगे प्रश्नचिह्न-सा लगा होने के बावजूद सैद्धांतिक स्तर पर यह शंका उठ सकती है कि यह कथानक परुषसत्तात्मक हुआ जा रहा है। अस्तु, नायिका की ओर से कुछ निवेदन करने की अनुमति चाहूँगा। किन्तु कुछ और कहूँ, इससे पूर्व यह स्वीकार करना अपना कर्त्तव्य समझता हूँ कि नायिका के निरूपण में मेरा स्वयं पुल्लिंग होना बाधक है। इस विषय में हुए साहित्यिक शास्त्रार्थ में से तीन स्थापनाओं का उल्लेख कर देना श्रेयस्कर होगा।पहली यह कि पुरुष अपने साहित्य में स्त्रियों की भूमिका सीमित रखते हैं और उस सीमित भूमिका का निरूपण भी पुरुषसत्तात्मक मानकों के अनुसार करते हैं। दूसरी यह कि हिन्दी कथाकार नारी को पूज्या मानते हैं(कभी पुष्प-गन्धाक्षत और मन्त्रोच्चार से, कभी लात-घूँसे और गाली-गलौच से), अतएव उस सामान्य नारी का निरूपण करना उनके लिए असंभव है जो न चण्डी है, न रण्डी। तीसरा यह कि हिन्दी-लेखक का सहवास का अनुभव इतना सीमित और दरिद्र होता है कि अपने में यही अनंत आश्चर्य का विषय है कि नारी पर लिखने के लिए उसका कलम भी कैसे उठ पाता है। कलम किसी तरह उठ ही गया है तो नायिका के संदर्भ में कुछ लिखना ही होगा। (पृ. 78) ज़ाहिर है कि जोशीजी परंपरा को प्रश्नांकित करते हुए ख़ुद को भी सर्वज्ञता की निर्भ्रम कोटि में नहीं रखते। अपने दृष्टिकोण को पाठकों के रू-ब-रू खोल कर रख देते हैं। हिचकिचाहट दर्ज करने के बाद दैहिक विषयों में भी पूरे मनोयोग से लगते हैं, उन्हें 'भदेस' की पराकाष्ठा तक ले जाते हैं - चाहे वह बेबी का अपने 'लफड़-दफड़ बूबुआ' से लाड़-भरी नाराज़गी का प्रसंग हो, या गुलनार की संयत पेशेवर कार्यशीलता के साथ-साथ उसकी बिंदास दैहिकता के प्रति बौद्धिक डीडी की असहजता या फिर मंदि र के पास उस सुरम्य पवित्र स्थल पर बेबी-डीडी का एक-दूसरे को देखते-दिखाते हुए पेशाब करना, जि सका अंत 'लतावेष्टिक' आलिंगन में होता है - इन प्रसंगों में जुगुप्सा कहीं नहीं, हास्य-रसाभिषिक्त वर्णन है क्योंकि सेक्स के चित्रण को जोशीजी उसके नैसर्गिक अटपटेपन और हमारे 'लाटे' नायक के अना ड़ीपन के साथ प्रस्तुत करते हैं। शायद यह भी अहम है कि नायक-नायिका का झगड़ोपरान्त बिछोह बि स्तर पर ही, ऐन पराकाष्ठा के बिंदु के पहले नायिका के उघड़े बदन पर नायक द्वारा चादर डाल देने पर होती है। चादर डालने का यह क़िस्सा भी जोशीजी ने रघुवीर सहाय की असली ज़िन्दगी से उठाई है।6 परन्‍तु इस चदरिया को वह कितना खींचते हैं, ग़ौरतलब यह है। इस एक चादर के वितान में जैसे पूरा सभ्यता-विमर्श लिपटा चला आता है - नेहरू की पंचवर्षीय योजना से लेकर गांधीजी के क़ब्ज़ तक, कामायनी से लेकर गोदान तक, ब्रह्मबीजीय सृष्टि-मिथक से लेकर 'बिग बैंग' तक। और क़िस्सागोई ऐसी कि इन सारे कार्य-कारण घटकों को कहानी की वैकल्पिक परिणतियों की कसौटी पर कसकर छाँ टते हुए चादर द्वारा लाज-ढँकाउ अंत के चुनाव के औचित्य से जोड़ देने का करतब दिखाते हैं। निवेदन है कि मेरी जानकारी में जोशीजी के पहले इतनी अर्थच्छायाओं वाली चादर सिर्फ़ कबीर ने ओढ़ी थी या फिर समकालीनों की बात करें तो मात्र सलमान रुश्दी ने मिड्नाइट्स चिल्ड्रेन में छेदिल चादर के पर्दे के पीछे इतने असरदार जादुई तमाशे का आयोजन किया है। बहरहाल, जोशीजी इस प्रेम-कहानी का पटाक्षेप यहीं नहीं कर देते, शॉट फ़्रीज़ न करके उसे आगे बढ़ा देते हैं। ऐसे परिपाटी-पोषित अंत उन्हें पसंद नहीं, जिनसे पाठक सीधे-सादे सुखांत का सुख उठाए या दुखांत की सुखमय पीड़ा झेले। बल्कि यह कहानी जहाँ ख़त्म होती है, वहाँ से एक 'सीक्वेल' का भी बख़ूबी आरंभ हो सकता है। पर मैं इस तरह की भाषा का इस्तेमाल यहाँ सिर्फ़ इसलिए कर रहा हूँ कि अपने पाठकों का ध्यान कैमरे से लिखे गए इस उपन्यास की ओर खींच सकूँ। रेणु के बारे में किसी सुधी समीक्षक ने सही फ़रमाया है कि उन्होंने हिन्दी भाषा को पार्श्व-संगीत दिया। उसी तर्ज़ पर कहा जा सकता है कि जोशीजी ने अपनी कहानियों में कई मौक़ों पर सिनेमाई मंज़रनामे लिखे और इस तरह हिन्दी को एक अभिनव, चलचित्रोपम, मुहावरा दिया। 'चालीस दिनों की शूटिंग' में समाप्त कसप में इसके नायक के अपने प्रशिक्षण व व्यवसाय के अनुरूप कथात्मक काव्यात्मकता है तो सिनेमाई ना टकीयता भी। अक्सर वर्तमान-काल में घटती घटनाएँ हैं, पर उन्हें अलग-अलग कोणों से देखती आँखें है, जो दृश्य-बंध बनाती चलती है। आँखों से आँखों के बनते त्रिकोण हैं, तो उनको तोड़ते कट भी हैं। दृश्यों का संपादन तो पाठकों व सुधी समीक्षकों को बता-बताकर किया ही गया है। मैं जो पहला सीन अपकी स्मृति में री-प्ले करने की इजाज़त चाहूँगा वह है डीडी द्वारा नारियल न लिए जाने वाला, जिसमें लॉङ्‍ग शॉट भी है, क्लोज़ अप भी, लोग-बाग तो रस्मी संवाद बोल ही रहे हैं, पर बीच में शास्त्रीजी द्वारा देने और नायक द्वारा न लेने के चलते एक गोला भी लुढ़क रहा है सीढ़ियों से नारि यल का, बैटलशिप पोटेंप्किन के मशहूर ओडेसा-स्टेप्स के दृश्य की तरह, पीछे से सीढ़ियाँ उतरती नायिका के पाजेब भी बज रहे हैं, और जैसा कि मैंने ऊपर कहा, नयन-कोण तो बन-टूट ही रहे हैं।(पृ. 148-49). या फिर इसके फ़ौरन बाद होल्डॉल पर एक-दूसरे से पीठ-टिकाए बैठे मौनव्रतधारी पर स्लेट-संभाषण-रत नायक-नायिका का ही दृश्‍य याद कीजिए जिसमें बात नींबू-भक्षण से शुरू होकर ओंठ-भक्षण की ओर जाती है: और जब नायिका ने लगभग काट दिया है उसका निचला ओंठ, नायक अनुभव कर रहा है कि नीहारिकाओं के मध्य जो है झंझावात, उसी की सहानुभूति में झंकृत हो उठा है मेरा समस्त स्नायु तंत्र। एक-दूसरे को टोहते-टटोलते इन दो को, जो एक हो जाना चाहते हैं, किसी बात की सुध नहीं है, किन्तु मैं आशंकित-सा देख रहा हूँ इस कक्ष के द्वार को, जिस पर यह गन्दा-सा पर्दा पड़ा है। कहीं कोई इन्हें देख न ले! और कोई नहीं देख रहा है - इस तथ्य से आश्वस्त होने के बाद मैं अपनी आश्वस्त मुद्रा पर स्वयं हँसता हूँ। उसने तो देखा ही होगा और कितनी तो ईर्ष्या है उसके मन में, अपनी ही माया से। अधिक भौतिक धरातल पर यह कि इस कमरे में बाहर से कोई आ रहे हैं। उनकी आहट पाते ही ये एक-दूसरे से अलग हुए। गुड़िया देखकर सकपकायी, उसके पीछे से आती पड़ोस की लड़कियाँ मुस्कुरायीं। पूछा गुड़िया ने स्वयं लजाकर, "ये क्या हो रहा है?" "गणित सीख रही हूँ।" कह रही है नायिका स्लेट दिखाकर और हँस रही है। गुड़िया और लड़कियाँ पढ़ रही हैं गणित का विचित्र-सा सवाल - "चखा नहीं तो कैसे मालूम?" अब आप ही देख लीजिए साहब कि फ़िल्म की पूरी रिहर्सल हो चुकी है या नहीं, चुंबन वग़ैरह के दृश्य से ही बोल्ड शुरुआत है, जो आजकल तो सेंसरवाले भी पास कर ही देते हैं, बस अपना कैमरा उठाइए और शूट कर लीजिए। इतना ख़याल रहे कि इस दृश्यावली में लेखक भी मौजूद है, अपनी तमाम भाव-भंगिमाओं के साथ, सो दूसरा कैमरा उस पर भी होगा। कैमरे में अगर क़ैद नहीं हो सकती तो वह निराकार आँख जो सर्वदर्शी ईश्वर की है, जिसको लेखक-दिग्दर्शक पूरी स्क्रिप्ट के दौरान जोशीजी यथासंभव जलाते-भुनाते और जला-कटा सुनाते रहते हैं, पर हिन्दी सिनेमा में तो अदृश्‍य को दृश्‍य मान करने के लिए पार्श्वसंगीत का युक्तिसंगत विधान है ही, लिहाज़ा आप आकाशवाणी करा दें कि: ख़ुदा भी आसमाँ से जब ज़मीं पर देखता होगा...! तो यह है जोशीजी का फ़न, उनकी ख़ुदी की बुलंदी, जिसका एक ट्रेलर ही मैं यहाँ पेश कर पाया हूँ, अपनी सर्जना-शक्ति के बूते जो ईश्वर तक को मसख़रा साबित कर देता है, जो क़ब्र में लेटे मंटो की तरह यह सोचने का साहस करता है कि हम दोनों में बड़ा कथाकार कौन है। प्रश्न याकिवादी है - वह परम-लीलाकार याकि यह 'बदमास' जोशी! **-** संदर्भ- 1 मनोहर श्याम जोशी, रघुवीर सहाय: रचनाओं के बहाने एक स्मरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003. 2 http://www.wikipedia.org/metafiction 3 भारत यायावर(सं.) मैला आँचल: वाद-विवाद और संवाद, आधार प्रकाशन, पंचकूला, (हरियाणा), 2006. 4 भारत यायावर(सं), मैला आँचल के कुछ आलेख. 5 रोलाँ बार्थ, अ लवर्स डिस्कोर्स: फ़्रैग्मेण्ट्स, फ़्रासीसी से अनुवाद: रिचर्ड हावर्ड; हिल ऐण्ड वाङ, 1977. 6 मनोहर श्याम जोशी, रघुवीर सहाय From ravikant at sarai.net Sat Mar 3 16:53:50 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 3 Mar 2007 16:53:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] see the trees to be cut Message-ID: <200703031653.50700.ravikant@sarai.net> x-posting ke liye maafi mangta hoon. shukriya ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Reader-list] see the trees to be cut Date: शनिवार 03 मार्च 2007 10:17 From: Ravi Agarwal To: reader-list at sarai.net Dear all, this follows my barrage of mails over the past days. I can only photograph so many trees! Every single tree you see in the pictures below are marked for felling. No exception. These pictures from today morning are on the road between Kaka nagar and Sunder Nagar (near zoo), not only on both sides but also the centre of the road.And as I said yesterday this is over 14 kms for a high capacity bus service!!! The felling is from Madangir to Moolchand to Delhi Gate I have been told - the whole length. A friend spoke to a senior Env official delhi yesterday. He said 'we cannot stop progress.' So either rise and shine now dear friends or then like the romans 'have an orgy' of progress. Please spread the word. If we can save anything, anything it will take some effort. Else it is all gone -- over 2500 prime trees - some over 50 years old or older. and if you can please circulate as widely as possible. ravi PICTURES HERE! also my new blogsite www.inturbulenttimes at blogspot.com ------------------------------------------------------- From kishorebudha at hotmail.com Sat Mar 3 17:55:53 2007 From: kishorebudha at hotmail.com (Kishore Budha) Date: Sat, 3 Mar 2007 12:25:53 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= South Asia media digest Mar 03 Message-ID: Daily South Asia Media Digests From Subaltern Media (http://subalternmedia.com). *** Please note that all links have been shortened using TinyURL *** #1: Coverage of the other country in Indian and Pakistani newspapers Indian Media coverage of Pakistan Terrorism and nuclear proliferation were the main agenda for the Indian newspapers with 11 stories on the same. Most of the stories on terrorism were primed by US position on the matter. Thus, US policy positions provide the cues for coverage. The coverage of Kashmir in both Pakistani and Indian media was driven by the statement of Mirwaiz Umer Farooq over troop reduction. Total Stories: 22 Bilateral relations: 2 Economy and Business: 1 Kashmir: 2 Nuclear Proliferation: 2 Foreign Affairs: 2 Terrorism: 11 Politics: 1 Samjhauta Bombing: 2 Read here: http://tinyurl.com/3y53za ---------------------------------------- Pakistani Media coverage of India Once again, the Pakistani media interest in India spans a wide range of topics. Unlike Indian coverage of Kashmir, which was led by Mirwaiz Umer Farooq's statement on troop reduction, the same was not picked by all Pakistani newspapers. Instead, the actions of Indian military were picked up. Bilateral trade and the Indian economy continue to interest the editors, which is contrasted by reports about India's poor. Total Stories: 16 Bilateral Trade: 3 Crime: 1 Economy and Business: 2 Kashmir: 3 Politics: 4 Samjhauta: 1 Misc.: 2 Read it here: http://tinyurl.com/2qooee --------------------------------------- #2: Daily digest of South Asia media-related news Headlines -- Govt-ULFA nexus, attack on media rock LS -- Web2Corp's ByIndia.com to Launch ''Google Adwords-Like'' System in India -- Online editions of Indian newspapers read in over 62 countries -- Citizen journalism thrives on Sri Lanka peace blog -- Anti-terrorism law used to choke media dissent Read it here: http://tinyurl.com/358ysr -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070303/11e16750/attachment.html From girindranath at gmail.com Sat Mar 3 19:29:53 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sat, 3 Mar 2007 19:44:53 +0545 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KWL4KSy4KWA?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpLbgpYHgpK3gpJXgpL7gpK7gpKjgpL7gpK/gpYfgpIIu?= =?utf-8?b?IC4u?= Message-ID: <63309c960703030559g15df067cpaa6d15e3f1460f7f@mail.gmail.com> होली की शुभकामनायें. ..नज़ीर अकबराबादी के इन पंक्तियों के संग आप सभी को फागुन के इस मस्ताने पर्व में रंगा..रंग होली की मस्त छाप.. गिरीन्द्र नाथ झा www.anubhaw.blogspot.com "जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की परियों के रंग दमकते हों ख़ुम शीशे जाम छलकते हों महबूब नशे में छकते हों जब फागुन रंग झमकते हों नाच रंगीली परियों का कुछ भीगी तानें होली की कुछ तबले खड़कें रंग भरे कुछ घुँघरू ताल छनकते हों जब फागुन रंग झमकते हों मुँह लाल गुलाबी आँखें हों और हाथों में पिचकारी हो उस रंग भरी पिचकारी को अँगिया पर तक के मारी हो सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की" From kishorebudha at hotmail.com Sun Mar 4 15:23:48 2007 From: kishorebudha at hotmail.com (Kishore Budha) Date: Sun, 4 Mar 2007 09:53:48 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= South Asia Media Digest Mar 04 07 Message-ID: Daily South Asia Media Digests From Subaltern Media (http://subalternmedia.com). ** Please note that TinyURL has been used to shorten links, which often break up . All links point to http://subalternmedia.com ** Summary of Indian media coverage of Pakistan Terrorism (6) and the Indian prime minister's statement on Kashmir troop reduction (4) were the dominant news stories. Like yesterday, stories on terrorism in Pakistan were influenced by US statements and positions. Interestingly, the Hatf II missile test was not carried by Hindustan Times and Indian Express. Newspapers surveyed: Times of India, The Hindu, Indian Express, Hindustan Times Total Stories: 17 Bilateral Relations: 4 Defence: 2 Kashmir: 4 Society: 1 Terrorism: 6 Read it here: http://tinyurl.com/ysw47w ----------------------------------------------- Summary of Pakistan media coverage of India Indian economy and business continue to be a key component of news coverage about India. Performance by Indian companies ICICI and Tata are covered along with legal wranglings. Once again, developmental stories ("Indian puppeteers struggle to survive" & "Violence common for married Indian women") serve to contrast the coverage of Indian economic growth. The ICJ appeal to India to repeal its armed forces act for picked up by Dawn and Daily Times while unlike the Indian newspapers the Indian prime ministers statement on Kashmir has not been picked up. Newspapers surveyed: Daily Times, The News - International, Dawn Total Stories: 16 Bilateral relations: 3 Economy & Business: 5 Law: 2 Politics: 1 Samjhauta Bombing: 1 Society: 4 Read it here: http://tinyurl.com/39fnmw ----------------------------------------------- South Asia Media News Headlines India Readers prefer online newspapers: Study Who reads papers on the Net? BBC's World Service in China faces increasingly uncertain future Opening western minds to international crosswinds Nepal Operation models of govt media discussed Ill treatment to media persons condemned Sri Lanka Gotabhaya Rajapaksa \'supressing\' media Read it here: http://tinyurl.com/3bxpo9 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070304/26e6196c/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Sun Mar 4 23:22:26 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sun, 4 Mar 2007 23:22:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?Jycg4KS44KSq4KSo?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleClgCDgpLDgpYfgpLIgJyc=?= Message-ID: स्वप्नलोक में आपका स्वागत है। आईएएस (भारतीय सिविल सेवा) बनने की कल्पना, पीसीएस (प्रादेशिक सिविल सेवा) होने का सुख। कुछ नहीं तो वकील या फिर मास्टर। सपने दर सपने। सपने सच होते हैं, टूट भी जाते हैं, मगर इन्हें देखने का क्रम नहीं टूटता। 20 से 30 किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से हिचकोले खाती दौडती रेल में सपनें कई हजार किलोमीटर प्रतिसेकेंड की चाल से दौडते हैं। आखिर दौडे भी क्यों न, ये सपनों की रेल है। -------एजे (इलाहाबाद-जौनपुर) और एएफ (इलाहाबाद-फैजाबाद) पैसेंजर रेल उत्तर प्रदेश के सबसे मशहूर शिक्षा के गढ को कई दशक से छात्रों से जोड रही हैं। सफर करने वाले हजारों को अर्श से फर्श तक पहुंचा देने वाली रेलों का कोई पुरसाहाल नहीं है। टूटी सीट, गायब पंखे और खिडकी की जगह-जगह उखडी राड खूबसूरत सपनों के पीछे के सच की कहानी बयां करती हैं, जिंदगी की पटरी पर दौडते लाखों लडकों के संघर्ष की कहानी। -------सपनों की रेल सिर्फ दो पैसेंजर रेलों की कहानी नहीं है। कोशिश है इलाहाबाद में एक अदद सरकारी नौकरी के लिए जूझने वाले लडकों की जिंदगी खंगालने की। 10-12 रुपये का रेल टिकट न खरीद के पढाई के लिए मैगजीन या किताब खरीदने की जद्दोजहद की। परिवार के उम्मीदों की जो कभी पूरी होती हैं तो कभी टूट जाती हैं। इलाहाबाद की असली पढाई संस्कृति क्या है, पूरब का आक्सफोर्ड आखिर क्यों लडकों के दिल को लुभाता रहा है। क्‍या होता है उन लडकों का जिनके सपने कभी पूरे नहीं हो पाते। सबकुछ इन्हीं रेलों की कहानी की मार्फत सामने आएगा। कुछ रोचक प्रेम कथाएं भी हैं जो यहीं पर उल्लेखित की जाएंगीं। कुछ दिलचस्प 1-पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई छोटे गांवों और कस्बों में आज भी इन रेलों में बैठने वाले लडकों को कलक्टर कहा जाता है। यहां इन रेलों में बैठना आईएएस, पीसीएस बनने की राह की पहली सीढी है। 2-इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में पढने और यहां आकर नौकरियों की तैयारी करने वालों में तीस से चालीस फीसदी उन्हीं इलाकों से आते हैं जहां यह रेलें अपनी सेवाएं दे रही हैं। 3-रेलों की बदहाली के जिम्मेदार रेलवे के साथ-साथ इनमें सफर करने वाले लडके भी हैं। वाश बेसिन के शीशों को अपने कमरे में लाकर कोई भावी आईएएस अपनी जुल्फें संवारता है, पंखें और बल्ब भी पढाई में मददगार हैं। 4-सफर करने वाले कई चयनित अधिकारी आज भी इन रेलों पर फूल माला चढाते हैं। 5- रेल रेलवे के नियमों के मुताबिक कम, लडकों के दिशा निर्देशों पर ज्यादा चलती है। जब जहां चाहो चेन खींच दो। अपने बारे में पेशे से पत्रकार। अमर उजाला हिंदी अखबार के लिए रिर्पोटिंग। 2002 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक। 2004 में माखनलाल चतुर्वेदी नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ जर्नलिज्म, भोपाल से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर। लेखन में गहरी दिलचस्पी। हाल ही में हिंदु मुस्लिम संबंधों पर आधारित एक उपन्यास पूरा किया है। नावेल जल्द ही प्रकाशित होगा। हिंदी की सभी विधाओं मसलन कहानी, कविता, व्यंग्य, लेख, लघुकथा के अलावा उर्दू गजल लेखन में दिलचस्पी। काफी कुछ प्रकाशित भी हुआ है। आखिर में, रविकांत जी का शुक्रिया सैयद जैगम इमाम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070304/89d9e8a1/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Mar 5 11:54:44 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 5 Mar 2007 11:54:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkpuCliOCkqOCkv+CklSDgpJXgpL7gpLLgpJzgpK/gpYAg4KSw4KSa4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSP4KSC?= Message-ID: <200703051154.45416.ravikant@sarai.net> रवीश के ब्लॉग - नई सड़क - से. तेवर क़ाबिले-ग़ौर है. मज़े लें. रविकान्त http://naisadak.blogspot.com/2007/03/blog-post_02.html मेरी दैनिक कालजयी रचनाएं ब्लाग ने कालजयी रचनाओं को फिर से परिभाषित करने की मांग की है । ब्लाग कहता है वक्त अब सदि यों के हिसाब से नहीं चलता है । इस दौर में तो इतिहास भी दस साल पहले तक का लिखा जाने लगा है । मॉडर्न हिस्ट्री । इसलिए समय अब पलछीन है । तो मैं कह रहा हूं कि महीनों तक लिखी जाने वाली रचनाएं अब से कालजयी नहीं कहलायेंगी । वो तो पूरे काल को खा पीकर रची जाती हैं । ब्ला ग के दौर में दैनिक लेखन ही कालजयी हैं । इसलिए रोज़ के लिखे हुए को आप कमतर न मानें । जितनी देर में राजकमल प्रकाशन वाले किसी कालजयी रचना का प्रूफ पढ़ेंगे उतनी देर में ब्लाग रचनाओं की प्रतिक्रिया आ जाती हैं । कमेंट्स कॉलम में । यह भूमिका क्यों ? भूमिका लेखन कला की पहली आदत हैं । जब तक आप भूमिका नहीं बांधेंगे लिखेंगे क्या । इनदिनों मैं हर दिन लिखने लगा हूं । बहुत लोग लिख रहे हैं । लिखते ही हमारी रचनाएं देश और काल की सभी सीमाएं झट से लांघ जाती हैं । बहरहाल रोज़ लिखने से लेखन का महत्व कम नहीं होता होगा । ऐसा मेरा नया आत्मविश्वास है । अविनाश जी कहते हैं प्रेमचंद के ज़माने में ब्लाग होता तो वो लाखों कहानियां लिख गए होते । ठीक बात है । लालटेन की रौशनी और स्याही के कारण हमारे महान रचनाकारों का काफी वक्त बर्बाद हुआ है । पर नो रिग्रेट्स । जो हुआ सो हुआ । उनके टाइम में बहुत कुछ नहीं था लेकिन यह क्या कम था कि महान रचनाकार थे । इधर तो कोई महान ही नहीं हो रहा है । वैक्यूम देख मैंने ट्राई किया है लेकिन हो नहीं पा रहा हूं । महान होने के बाद ही तो कालजयी होंगी मेरी रचनाएं । जाने दीजिए । लिखते रहिए । सांत्वना पुरस्कारों से भी वंचित यह लेखक रुकने वाला नहीं है । हम ब्लागकार पाठकों के लिए नई चुनौती बनने वाले हैं । हर दिन लिख लिख कर उनके चश्मे का पावर बढ़ा देंगे । हम लिखेंगे साथी । तुम पढ़ोगे न । क्या लिखा जाए यह एक बड़ा मसला है । विषय सभी पुराने हैं । मैं नए विषयों का इंतज़ार नहीं कर सकता । मौलिक होना मुश्किल काम है । मौलिकता से दुनिया नहीं बदली है । यह एक सत्य है । वि ज्ञान से लेकर विचार का प्रसार उसमें जोड़ घटाव करने के बाद ही हुआ है । एडीसन बल्ब बना कर गए थे । ट्यूब लाइट नहीं बनाया था । सीएफएल लैंप नहीं बनाया था । मार्क्स ने जो विचारधारा दिया उसमें रूस चीन और हिंदुस्तान में जोड़ घटा कर प्रयोग हुआ है । मौलिक सिर्फ क्रेडिट देने के लि ए है । इसलिए मैं मौलिक नहीं हूं । आपको लगता है तो अच्छा है । मेरी दैनिक कालजयी रचनाओं के पाठकों के प्रति आभार । मैं इतिहास में साप्ताहिक कॉलम लिख कर अमर नहीं होना चाहता । मैं रोज़ लिख कर ठोंगा बनना चा हता हूं । मुझे पढ़ने के बाद मेरे लिखे में बादाम भर दें । खा कर फेंक दें । यानी कमेंट्स देने के बाद भूल जाएं । क्योंकि मैं दूसरी दैनिक कालजयी रचनाओं की जुगाड़ में लग जाता हूं । बिल्कुल फालतू नहीं हूं । रोज़ लिखना एक आसान और महान काम है । From kishorebudha at hotmail.com Mon Mar 5 17:37:32 2007 From: kishorebudha at hotmail.com (Kishore Budha) Date: Mon, 5 Mar 2007 12:07:32 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= South Asia Media Digest Mar 05 2007 Message-ID: South Asia Media Digest Mar 05 2007 India in Pakistan media Mar 05 07 Summary Call it the Monday morning media blues... but media coverage of India in Pakistan newspapers was subdued (the same is observed in Indian newspaeprs). Only 11 stories were located. Bilateral Trade and India's budget continued to draw interest, particularly the spend on defence. A leader article countered western charges of terrorism in Pakistan, particularly in following India's lead. As usual "human interest" stories from India were carried. Total Stories: 11 Bilateral Trade: 3 Defence: 1 Economy & Business: 2 Terrorism: 1 Samjhauta: 2 Society: 2 Read it here: http://tinyurl.com/36vbqr Pakistan in Indian media Mar 05 07 Summary The Monday morning media blues appears to be a problem in India as well... like their Pakistani counterparts, the coverage of Pakistan in Indian newspapers was subdued. Total stories: 6 Bilateral relations: 1 Economy & Business: 1 Samjhauta Bombings: 1 Terrorism: 2 Society: 1 Read it here: http://tinyurl.com/2wamw6 South Asia Media News Mar 05 07 Headlines Regional TV channels planned in Pakistan Independent news channel soon to make PTV news more dynamic ... DBTB Continues to Fight Pakistan's Internet Blockade at 1st Year Anniversary Read it here: http://tinyurl.com/2s439q -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070305/1c11d2af/attachment.html From kishorebudha at hotmail.com Tue Mar 6 15:05:17 2007 From: kishorebudha at hotmail.com (Kishore Budha) Date: Tue, 6 Mar 2007 09:35:17 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= South Asia Media Digest Mar 06, 2007 Message-ID: South Asia Media Digest A daily collection of links to news reports about India and Pakistan in the other countries' English language newspapers. Pakistan in Indian media Mar 06, 2007 Summary The Indian media interest in Pakistan continued to be focused on bilateral relations - joint terror mechanism talks, US forces' hot-pursuits into Pakistan. The single analysis piece was a leader page article in Hindustan Times questioning India's policy of cosying up to Musharraf. Unlike in the Pakistani media "human interest" or business-related stories have not been carried. Total Stories: 16 Bilateral relations: 4 (also see category Terrorism) Foreign affairs: 3 Kashmir: 2 Terrorism: 4 Politics: 2 Economy & Business: 1 Read it here: http://tinyurl.com/ypmm5t India in Pakistan Media Mar 06, 2007 Summary Coverage of India in Pakistan continued to span a variety of categories, with a sustained interest in the Indian business and economic landscape. The bilateral meet on anti-terror mechanisms was given due coverage. Dawn carried an interesting analysis of the peace process. Written by former foreign secretary Shamshad Ahmad, the article tried to put the peace process in perspective. Reports relating to Indian law were given prominence and Kashmir took a backseat. Total stories: 22 Bilateral relations: 8 Defence: 1 Economy & Business: 5 Kashmir: 1 Law: 6 Politics: 1 Read it here: http://tinyurl.com/yuas9q South Asia Media News 06 Mar 2007 Bhutan - Bhutan paper appeals for aid India - Media stocks fall like nine pins with Sensex - US Newsprint decline helps Indian press - Victim of media stereotyping - Advertisers bet Rs 1900 cr on cricket this year - Indiantelevision.com interview with HLL GM- media services Rahul Welde - Be constructive in criticism, Balakrishnan tells media - Media should draw attention of policy makers: CJI - Bollywood bows to broadband - TataSky wants only some Zee channels Nepal - Tour operators and media meet organized in Bangkok - NPI training concludes Sri Lanka - UK Urged to Press Sri Lanka on Media Freedom - Tigers open up new satellite radio station from Vanni Read it here: http://tinyurl.com/2jjslf -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070306/ebc2083a/attachment.html From lokesh at sarai.net Wed Mar 7 04:34:36 2007 From: lokesh at sarai.net (Lokesh) Date: Tue, 06 Mar 2007 18:04:36 -0500 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= invite for 8 th March Message-ID: <45EDF384.8070105@sarai.net> 8 th March 2007 Invitation for A Joint Programme On International Women’s Day Friends This is an appeal to organisations/ groups/ individuals to join hands to celebrate International Women's Day together on the Delhi University campus.Please come with your banners/posters/programmes and inform as many people as possible to make it a big event. It would not be a cliche to say that the need to strengthen our unity has never been so pressing as it is felt today. Despite our collective struggles to establish ‘Zero Tolerance for Sexual Harassment’ on the campus, everybody knows that there has been no qualitative improvement in the situation. Let us meet at Vivekanand Statue, Delhi University (North Campus) at 12 noon ( Thursday, 8 th March). It will be good if you can just forward the invite to other friends/formations so that they can also join us. In solidarity Anjali Stree Adhikar Sangathan From ravikant at sarai.net Wed Mar 7 12:10:13 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Mar 2007 12:10:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkquCkuOCkguCkpiDgpLngpYgg4KSJ4KSq4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KS+4KSwIOCknOCli+CktuClgCA/IC0x?= Message-ID: <200703071210.14090.ravikant@sarai.net> जोशी जी पर कुछ और मसाला... संजीव कुमार का बेहतरीन आलेख. संवेद और रचनाकार से साभार. http://rachanakar.blogspot.com/ मज़े लें और प्रतिक्रियाएँ भेजें. रविकान्त किसे नापसंद है उपन्यासकार जोशी ? - संजीव कुमार पिछले लगभग ढाई दशकों में मनोहर श्याम जोशी हिंदी के अकेले ऐसे उपन्यासकार रहे हैं, जिन्हें पसंद करने के सवाल पर पाठक-आलोचक समाज में तीखा ध्रुवीकरण देखा जा सकता है। लोग या तो उनके धुर प्रशंसक रहे हैं या धुर निंदक। यह स्थिति साहित्य की सराहना और आस्वाद संबंधी सैध्दांतिकी में दि लचस्पी रखनेवालों के लिए अत्यंत सारगर्भित है, क्योंकि ऐसे ध्रुवीकरण से पैदा होनेवाली बहसें ही सा हित्य की यात्रा के निर्णायक मोड़ों का मानचित्र तैयार करती हैं। जहां तक जोशी का सवाल है, उनके संबंध में ऐसी बहसें अभी तक कायदे से हो नहीं पाई हैं। बाकायदा बहस छेड़ पाने की महत्वाकांक्षा इपंले (इन पंक्तियों के लेखक) की भी नहीं है, पर वह उपन्यासकार जोशी को नापसंद करनेवाले मिज़ाज का एक मोटा खाका अवश्य खींचना चाहता है। इपंले की ऐसी कोशिश से कितनी मानीख़ेज़ बातें निकल पाएंगी, कहना मुश्किल है, पर इसमें संदेह नहीं कि ऐसी कोशिश अगर कि सी समर्थ सिध्दांतकार के हाथों हो, तो उससे कथा-कथन संबंधी कई नये प्रस्थानों पर रोशनी पड़ेगी। तो आइए, देखें, किसे नापसंद है उपन्यासकार जोशी ! नापसंद करनेवालों में सबसे अव्वल वे लोग हैं, जिन्हें किसी उपन्यास से आधिकारिक कथन वाली एक निर्भ्रांत कथा की अपेक्षा रहती है। ऐसी कथाओं का वाचक प्राय: ईश्वर वत् सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होता है और अगर वैसा नहीं भी होता, यानी अगर उसका अवलोकन-बिंदु मनुष्य वत् अवरूद्ध होता है (सामान्यत: प्रथम पुरुष वाचक), तो अपनी सीमित जानकारी से ही वह एक निर्भ्रांत पाठ तैयार कर लेता है। आज तक की कथा-आलोचना को ऐसे निर्भ्रांत क़िस्सों के बारे में ही निर्णय देने का अभ्या स रहा है। 'गोदान' कृषि संस्कृति का महाकाव्य है या शहर और गांव के दो पाटों के बीच बहती भा रतीय जीवन की विशाल धारा का चित्र - इन दोनों तरह के निर्णयों के लिए निर्णयकर्ता का इस बात के प्रति आश्वस्त होना जरूरी है कि डोरी, गोबर, भोला, दातादीन, मातादीन, दुलारी सहुआइन, धनिया, झुनिया, रायसाहब, खन्ना, मेहता, मिर्ज़ा खुर्शैद, गोविंदी, मालती इत्यादि पा त्रों से संबंधित तथ्य, स्थितियां और घटनाएं संदेह से परे हैं। यह आश्वासन उसे वाचक के आधिकारिक कथन से प्राप्त होता है। अगर तथ्यों और घटनाओं के बारे में वाचक के कथन की आधिकारिकता किसी वजह से ख़ारिज़ हो जाए, तो निर्णय देने की प्रक्रिया में भारी संकट खड़ा हो जाएगा। कई बार आलोचक वाचक की ऐसी बातों को मानने से इंकार भी कर देता है, जो राय के रूप में आई हों, पर वहां भी वह वाचक द्वारा प्रस्तुत स्थूल तथ्यों और घटनाओं को असंदिग्ध मानने पर विवश होता है। वस्तुत: उन्हीं तथ्यों और घटनाओं को आधार बना कर वह वाचक की रायज़नी पर सवाल खड़े करता है। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों किसी आलोचक ने डोरी के बारे में गोदान के वाचक की सहानुभूति को इस आधार पर निंदनीय माना कि वह एक बेईमान आदमी है, जो भोला से उसकी गाय ठग लेता है और दमड़ी बंसोड़ के साथ बांस का सौदा करने में अपने भाइयों का हिस्सा मारने की कोशिश करता है। या नी वाचक भोला को ठगने की कोशिशों का जो वृत्तांत देता है, उसे तथ्य के रूप में स्वीकार कर लेना और डोरी के बारे में उसके इस कथन को, कि ''डोरी किसान था और किसी के जलते हुए घर पर हाथ सेंकना उसने सीखा ही न था'', एक आत्मगत प्रतिक्रिया मान कर ख़ारिज़ कर देना - ऐसी प्रवृत्ति आलोचना में अक्सर देखी जाती है। यह प्रवृत्ति कितनी मूर्खतापूर्ण है, इस बात को फ़िलहाल रहने दें। जो बात हमारे काम की है, वो यह कि वाचक द्वारा दी गई जानकारी को पूरी तरह या काफ़ी दूर तक आधिकारिक मान कर ही आज तक की पाठकीय और आलोचकीय प्रतिक्रियाएं आकार ग्रहण करती आई हैं। और ऐसा मानना कही से भी पाठक-आलोचक की अपनी सहूलियत का मामला नहीं रहा है। जब से कथाएं लिखी जा रही हैं, तब से आज तक उनका विधान वाचक के इसी प्राधिकार पर टिका है। कथा के चिराचरित विधान में उसे संदिग्ध और अविश्वसनीय मान पाने की गुंजाइश ही नहीं होती। ठीक इसी बिंदु पर मनोहर श्याम जोशी के कथा-विधान का वैचित्र्य प्रकट होता है। 'कसप' को छोड़ कर उनके किसी भी उपन्यास की कथा में तथ्यों, स्थितियों और घटनाओं की विश्वसनीयता बरकरार नहीं रहती। विश्वसनीयता की किलेबंदी तो ख़ैर 'कसप' में भी नहीं है (वाचक के ईश्वर वत् सर्वज्ञ-सर्वव्यापी होने और बिनसर के घने जंगलों में बैठ कर आधुनिक कादंबरी लिखने वाला वयोवृद्ध संस्कृतज्ञ, संभवत: नायिका का पिता, होने के बीच एक तनाव है), पर उसकी कथा-पद्धति कम-से-कम जानबूझ कर संदेह पैदा नहीं करती। 'हरिया हरक्यूलीज़ की हैरानी', 'हमज़ाद' और 'क्याप' का ढांचा ऐसा है कि किस्सागोई का चरम उदाहरण होते हुए भी ये उपन्यास अपने ही किस्से को संदिग्ध बनाते चलते हैं और अंतत: जो चीज़ निकल कर आती है, उसे किस्सा कहने की बजाय किस्सों के बनने का किस्सा कहना ही उचित और संभव लगता है। ऐसा-ही-था और ऐसा-ही-हुआ वाला दावा इन तीनों उपन्यासों में नहीं मिलता, बल्कि इस तरह के तमाम दावों का खंडन करते हुए ये उपन्यास बताते हैं कि कुछ हुआ तो ज़रूर था, लेकिन उस तक पहुंच पाना नामुमकिन है। जहां तक पहुंच पाना मुमकिन है, वह मूल घटना नहीं, घटना की प्रस्तुतियां हैं, वृत्तांत हैं, जिनमें अनेक पाठांतर मिलते हैं। यह एक ऐसी चीज़ है, जिसे निर्भ्रांत कथा की उम्मीद रखनेवाले पचा नहीं पाते। अपच की स्थिति में दो तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आती हैं। जो समझदार हैं, वे जान लेते हैं कि यह चीज़ लाख नापसंद हो, पर चिराचरित कथा-विधान से इतनी अलग है कि इस पर चिराचरित पद्धति से कोई राय ज़ाहिर करना एक तरह के फंसाव को निमंत्रण देना है। जो नासमझ हैं, उन्हें इस फंसाव का अंदेशा ही नहीं होता और वे पुराने आज्मूदा तरीके से उपन्यास की खिंचाई करने का हास्यास्पद दुस्साहस कर बैठते हैं। कोई आठ नौ साल पहले 'दूसरा शनिवार' में 'हमज़ाद' की एक समीक्षा आई थी, जिसमें समीक्षक ने अपने तईं जोशी जी पर काफ़ी तीखा प्रहार करते हुए बताया था कि सफ़ेद-स्याह चरित्र गढ़नेवाली पद्धति, जिसे आधुनिकता के आगमन के साथ साहित्य ने कब का पीछे छोड़ दिया, आज भी इस उपन्यास में देखी जा सकती है और उपन्यासकार ने बुरे को बुरा दिखाने की तमाम हदें तोड़ते हुए एक तरह से अपने ही बीमार दिमाग़ का परिचय दिया है। उस समीक्षक से ग़लती ये हो गई कि उसने 'हमज़ाद' की समीक्षा के नाम पर तख़तराम विलायतीराम धरेजा 'तअस्सुफ़' अहमदपुरी के लिखे अफ़साने 'मेड़ा शर्म भी तू, मेड़ा शान भी तू' की समीक्षा लिख दी। यह तख़तराम उपन्यास का ही एक पात्र है, जो उपन्यास के भीतर मिस्टर जयदेव को ब्लैकमेल करने के लिए एक अफ़साना लिखता है जिसमें, उसके दावे के अनुसार, जयदेव के बाप पुनयानी साहिब की दरिंदगी का कच्चा चिट्ठा दर्ज़ है। इसी अफ़साने को मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास 'हमज़ाद' मानते हुए, उसके आगे-पीछे हुए पत्राचार की पूरी अनदेखी करते हुए और इस बात की कोई नोटिस न लेते हुए कि 'मेड़ा शर्म भी तू, मेड़ा शान भी तू' की कैसी धज्जियां उपन्यास के भीतर ही जयदेव के पत्र में उड़ाई गई हैं, वह समीक्षा लिखी गई थी। इससे क्या साबित होता है? यही कि इस तरह की रचनाओं के सम्मुख आलोचना में एक दयनीय पिछड़ापन है। रचना एक क़िस्सा देती है और लगे हाथ उसे पंक्चर भी कर देती है, पर निर्भ्रांत कथा की अपेक्षा रखनेवाली आलोचना-पद्धति पंक्चर किये जाने की इस कार्रवाई की नोटिस ही नहीं ले पाती, क्योंकि उसने ऐसी सुनियोजित छिद्रों और दरारों वाली कथा से निपटना सीखा नहीं है। रचना आधिकारिक कथन वाली निर्भ्रांत कथा को छोड़ कर आगे बढ़ गई है, पर आलोचना है कि इस नये विधान के आगे अपने औज़ारों की लाचारगी को या तो देख नहीं पाती या देख कर भी उन्हें बदलने को तैयार नहीं हो ती और छाड़न को ही रचना का सत्व मान कर उस पर टूट पड़ती है। kramashah.... From ravikant at sarai.net Wed Mar 7 12:10:50 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Mar 2007 12:10:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkquCkuOCkguCkpiDgpLngpYgg4KSJ4KSq4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KS+4KSwIOCknOCli+CktuClgCA/IC0gMg==?= Message-ID: <200703071210.50217.ravikant@sarai.net> गतांक से आगे.... इपंले की जानकारी में आज तक जोशी पर किसी ने भी ज्ञानमीमांसात्मक प्रश्नों को लेकर हमला नहीं किया, जबकि उपन्यासकार जोशी के साथ सबसे गंभीर बहस इसी धरातल पर हो सकती है। अपने पहले उपन्यास 'कुरु कुरु स्वाहा' से लेकर आख़िरी उपन्यास 'क्याप' तक वे इस जगत्-सचाई-सार को लेकर 'आब्सेस्ड' हैं ('कसप' को छोड़ कर) कि हम यथार्थ से नहीं, उसकी बहुविध प्रस्तुतियों से ही रू-ब-रू होते/हो सकते हैं। वास्तविकता विभिन्न आख्यानों में गुम है और उसे उनके बीच से निचोड़ कर निकाल पाना नामुमकिन है। वास्तविकता पहुंचेली है - तारा झावेरी से लेकर महामाया सेनगुप्ता तक के विभिन्न नामों और तांत्रिक से लेकर नक्सली तक के विभिन्न कामों के बीच जिसकी पहचान स्थि र कर पाना वाचक के लिए संभव नहीं हो पाता, जबकि इस वाचक के लिए उसकी भौतिक उपस्थिति कहीं से माया/भ्रम नहीं है (आख़िर सागरतट पर वह इस अप्सरावत सुंदरी से गुत्थमगुत्था होता है और युद्धक्षेत्र से ख़बर आती है कि जोशी जी खेत रहे)। वास्तविकता गूमालिंग की जिज्ञासा में हैरान हरि या है, जिसके अनेक क़िस्से बिरादरी में प्रचलित हैं और उनमें से किसी पर भी उपन्यास के वाचक की मुहर नहीं लगी है। वह कहता है - ''हम जितना ही अनुमान-अनुसंधान करते गए, हमारे पास उतने ही तथ्य और कथ्य जमा होते गए। लेकिन उनके विषय में सत्यासत्य का निर्णय करना कठिनतर होता चला गया। क्या वे सच-जैसे लगनेवाले झूठ थे? या कि झूठ-जैसे लगनेवाले सच थे? या कि वे कुछ सच और कुछ झूठ थे? क्या जो पक्षधर नहीं हैं, उनके लिए कुछ भी सच नहीं है? या कि उनके लिए कुछ भी झूठ नहीं है? अगर निष्पक्षता का मतलब अनिर्णय है, तो क्या हम हरिया हरक्यूलीज़ की हैरानी की कहानी पर बस इसी तरह हैरान ही होते रह सकते हैं? रात को नुक्कड़ के पनवाड़ी की दुकान पर पक्षधरों के झूठ टकराते रहे और उनमें से किसी एक को हमेशा-हमेशा के लिए सच मान लेना बिरादरी में लोकतंत्र के ज़ो र पकड़ लेने के कारण असंभवप्राय हो गया।'' वास्तविकता रहस्यमय ढिणमिणाण भैरव काण्ड है, जिसके बारे में प्रकाशित एक किस्से की ऐसी-तैसी फेरता हुआ 'क्याप' का वाचक एक अलग आख्यान प्रस्तुत करता है और अंत में उस काण्ड का रहस्य हल करने के लिए कुछ अते-पते देता हुआ सीधे-सीधे यह भी कह जाता है कि 'फस्कियाधार वाले यों भी गप्पी समझे जाते हैं।' (वाचक खुद फस्कियाधार निवासी है और फसक का मतलब है गप्प।) यानी अपने डेढ़ सौ पृष्ट लंबे दावे को वह अंतत: फसक बता चलता है। जोशी जी के इस आख़िरी उपन्यास की आख़िरी पंक्ति है - ''आप कहेंगे कि यह कथा तो क्याप-जैसी हुई ! धैर्य-धन्य पाठकों, यही तो रोना है।'' (क्याप माने कुछ अजीब, अनगढ़-सा।) एक अर्थ में यह बात जोशी के पूरे कथा-साहित्य पर लागू होती है। उनके जैसा किस्सागो - किस्सागोई वाली शैली से लेकर गझिन घटना-व्यापार की गढ़ंत तक में - पूरे हिंदी साहित्य में कोई नहीं हुआ और यह किस्सागोई के शिखर पर पहुंचे हुए इस रचनाकार के लिए ही संभव था कि वह किस्सों को अंदर से तोड़ कर रख देने की हिमाक़त करे। कोई हैरत नहीं कि जोशी अपना अगला उपन्यास बंगाल (मौजूदा बांग्लादेश) के भवाल संन्यासी मामले पर लिख रहे थे। (इस लेख के छपने तक शायद वह प्रकाशित हो चुका हो।) पूर्वी बंगाल की एक बहुत बड़ी ज़मींदारी - उसके तीन उत्तराधिकारियों में से दूसरे कुमार की कथित संदिग्ध मौत और कथित संदिग्ध दाह-संस्कार - लोगों में अफ़वाह कि कुमार मरे नहीं हैं, संन्यासियों के एक समूह में भटक रहे हैं - बाद में दो और उत्तराधिकारियों की मौत के साथ ज़मींदारी का कोई वारिस नहीं - कथित मौ त के बारह साल बाद द्वितीय कुमार ठहराये जानेवाले संन्यासी का आगमन - सत्य के निर्धारण के लि ए लगभग पच्चीस साल तक चलनेवाली अदालती कार्रवाई - पक्ष और विपक्ष में हज़ारों लोगों की गवा हियां, तथ्यातथ्य के हज़ारों साक्ष्य, सत्यासत्य के हज़ारों क़िस्से - इसके बाद निर्णयों का दौर - एक निर्णय में संन्यासी को बहुरूपिया करार दिया जाना, दूसरे निर्णयों में उसे सचमुच का कुमार बता या जाना और अंतत: इंग्लैंड की प्रिवी काउंसिल द्वारा ऊंची अदालत के इस निर्णय को बहाल रखा जाना। स्वाधीनतापूर्व हिंदुस्तान के इस बहुचर्चित मामले पर इतिहासकार पार्थ चटर्जी ने किताब लिखी है, 'ए प्रिंसली इम्पोस्टर ? द कुमार ऑफ़ भवाल एंड द सेक्रेट हिस्ट्री ऑफ़ इंडियन नेशनलिज्म' (प्रथम संस्करण : 2002, परमानेंट ब्लैक, दिल्ली)। पूरी किताब इस मामले के एक-एक बारीक ब्यौरे को सामने लाती है, पर अपनी ओर से कहीं भी यह दावा नहीं करती कि दरअसल संन्यासी बहुरूपिया था या द्वितीय कुमार रामेंद्र नारायण रॉय। कारण स्पष्ट है। इतिहासकार के पास यह जानने के स्रोत तो हैं कि कब किस बात को सत्य की मान्यता दी गई - क्यों दी गई, इसका अनुमान लगाने की एक पद्धति भी उसके पास है - लेकिन सत्य था क्या, इसे जानने के स्रोत उसके पास नहीं हैं। भूमि का में पार्थ लिखते है -''. . . शुरू में ही ये बता दूं कि भवाल केस के विराट दस्तावेज़ों के बीच का म करते हुए चार साल बिता चुके होने के बाद भी, और इस तथ्य के बावजूद कि तीन अदालतों ने मुद्दई के पक्ष में अपना निर्णय दिया, मैं आज भी अज्ञेयवादी ही ठहरता हूं। मैं नहीं जानता कि जो संन्यासी 1921 में ढाका में नमूदार हुआ, वह क्या सचमुच भवाल का द्वितीय कुमार ही था जिसकी, उस समय तक की जानकारी के मुताबिक, 1909 में दार्जिलिंग में मृत्यु हो गई थी? सत्य की जांच के जितने तरीके मैं जानता हूं, उन सबको साक्ष्य पर लागू करने के बाद और तीनों अदालतों के जिन जजों ने केस की सुनवाई की थी, उनके द्वारा अपनाई गई प्रक्रियाओं का अपनी क्षमता भर यथोचित और पारदर्शी मूल्यांकन करने के बाद मैं यह बात कह रहा हूं। मैं महसूस करता हूं कि सत्य से अंतत: वंचित रह जाने की इस दु:स्थिति के लिए ज़िम्मेदार मेरी पध्दतियां हैं। अगर मैं भवाल केस पर कोई उपन्यास लिख रहा होता, तो मेरे पास अपनी कथा के लिए अधिक सुसंगत कथानक और अधिक संतोषजनक निष्कर्ष गढ़ पाने की आज़ादी होती। दूसरी ओर, जज के स्थान पर न होना मुझे ख़ासा सुकून भी देता है। इतिहासकार के विपरीत वह विडंबना का आनंद लूटने की विलासिता नहीं कर सकता; उसे यह निर्णय सुनाना ही पड़ता है कि आख़िरकार मामला साबित हुआ या नहीं !'' क्या भवाल संन्यासी को लेकर जोशी का उपन्यास वैसा ही होगा, जैसे उपन्यास की बात पार्थ कर रहे हैं? जिसमें अधिक सुसंगत कथानक और अधिक संतोषजनक निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया होगा? उपन्यासकार के रूप में जोशी जी की दिलचस्पियों से परिचित उनका कोई भी पाठक कह सकता है, नहीं। इस प्रकरण की ओर अगर उनका ध्यान खिंचा होगा, तो ठीक इसी कारण से कि यहां आख्यानों में वास्तवि कता के गुम जाने की तस्वीर बहुत मुकम्मिल और जीवंत रूप में उभरती है। उन्होंने निष्चित रूप से किसी ऐसे कुमार की कहानी नहीं लिखी होगी, जो तेरह साल तक भटकने के बाद संन्यासी बन कर अपने राज में लौटता है और अपने न्यायोचित उत्तराधिकार का दावा करता हुआ पच्चीस साल तक मुकदमा लड़ता है। उन्होंने किसी ऐसे बहुरूपिये ठग की कहानी भी नहीं लिखी होगी, जो प्रजा में फैली हुई एक अफवाह का दामन थाम कर अपने कुमार होने का दावा ठोंकता है और अंतत: अपनी ठगी में विजयी हो ता है। सबसे अधिक संभावना इस बात की है कि उन्होंने उन तमाम कहानियों की कहानी लिखी हो, जो सत्य का अपने-अपने तरीके से दावा करती हैं। ऐसी कहानी में हमें अंतत: यह पता नहीं चलता कि सत्य की जीत हुई या हार, बल्कि यह कि सत्य के किस दावे की जीत हुई और किसकी हार? यानी पार्थ जिसे एक उपन्यासकार की सुविधा बता रहे हैं, जोशी कभी उस सुविधा का भोग करनेवाले उपन्यासकार नहीं रहे और इस रूप में एक ख़ास तरह की आस्वाद-क्षमता वाले पाठकों-आलोचकों के लिए ख़ासे असुविधाजनक हो गए। जैसा कि मैंने पीछे कहा, उपन्यासकार जोशी से अगर कोई गंभीर बहस हो सकती है, तो इसी ज्ञानमीमांसा के सवाल पर। कोई चाहे तो उनके ख़िलाफ़ इस नुक्ते पर एक व्यवस्थित दलील तैयार कर सकता है कि वे दरअसल कहना क्या चाहते हैं? क्या यही कि किसी चीज़ के बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता? तो फिर इतना कुछ कहने की ज़रूरत उन्होंने क्यों महसूस की? लेकिन अफ़सोस, इस तरह के सवालों के साथ जोशी से निपटने की कोशिश कभी की नहीं गई। इपंले की महत्वाकांक्षा है कि वह अपने इस पसंदीदा लेखक को कभी इन सवालों के साथ घेरने का आत्मविश्वास अपने अंदर महसूस करे . . . या कम-से-कम सिलसिलेवार तरीके से यही साबित कर पाए कि जोशी इस तरह के सवालों के आगे परास्त हो जानेवाला मीडियॉकर नहीं है। ...क्रमश: From ravikant at sarai.net Wed Mar 7 12:11:10 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Mar 2007 12:11:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkquCkuOCkguCkpiDgpLngpYgg4KSJ4KSq4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KS+4KSwIOCknOCli+CktuClgCA/IC0gMw==?= Message-ID: <200703071211.10769.ravikant@sarai.net> गतांक से आगे... कथा-विधान के बाद अब थोड़ी चर्चा उपन्यासकार जोशी के खिलंदड़े 'इष्टाइल' की। उनका खिलंदड़ापन ऐसे तमाम लोगों को नाग़वार गुज़रता है जो (1) मुद्रा की गंभीरता से ही मुद्दे की गंभीरता का अनुमान लगा पाते हैं और (2) समाज तथा मानवता के बहुत सारे 'गंभीर' प्रश्नों को लेकर इस क़दर 'चिंतित' हैं कि पठन के सुख को महसूसने और सराहने की क्षमता खो चुके हैं। जोशी जी की मुद्रा 'कुरु कुरु स्वाहा' से लेकर 'क्याप' तक कभी गंभीर नहीं रही। कहीं वे गूएन (गू की गंध) का जाप करते मिलते हैं, तो कहीं गौंतेन (गोमूत्र की गंध) का; कहीं कृष्णा मेनन के साथ फ्रांज फेनन का तुक मिलाते पाए जाते हैं, तो कहीं दिमाग़ का अगाड़ी और जिस्म का पिछाड़ी साथ-साथ दिए जाने की चर्चा करते। ऐसे लेखक को अगर गुरु-गंभीर हिंदी समाज के बहुतेरे लोग महज़ भाषा का खेल करनेवाला हल्का-फुल्का गपोड़ मान लें, तो क्या आश्चर्य ! आश्चर्य तो तब होगा, जब ये लोग समझें कि 'केतना त्रासद है हास्य अउर केतना हास्यास्पद है त्रास' ('कुरु कुरु स्वाहा' में रथिजित भट्टाचार्य)। इसे समझानेवाले असंख्य प्रसंग जोशी साहित्य में मिलेंगे, बशर्ते कि मुद्रा की गंभीरता से ही मुद्दे की गंभीरता का अनुमान लगाने की हड़बड़ी छोड़ कर उसका पारायण किया जाए। 'क्याप' की गौंतेन-चर्चा इस लिहाज़ से इपंले को अविस्मरणीय लगती है। नायक दलित है, जाति का डूम। बहुत मेधावी विद्यार्थी। हाई स्कूल पास करने के बाद सरकारी स्कॉलरशिप के साथ लखनऊ के एक कॉलेज में दाख़िला मिलता है। अपने ही गांव के एक ब्राह्मण कांग्रेसी नेता उर्बादत्तज्यू के घर के बारामदे पर, उनकी कांग्रेसी प्रगतिशीलता की बदौलत, रहने का इंतज़ाम हो जाता है। रहने-खाने के बदले बाग़-बग़ीचे और मवेशियों से जुड़े कई काम करने के साथ-साथ उर्बादत्तज्यू की लड़की को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी भी तय होती है और यहां से शुरू होती है नायक की 'जवानी और जवानी की दुखभरी कहा नी भी'। पहली बार उर्बादत्तज्यू के घर के पिछवाड़े में नौकर द्वारा अपनी थाली में बासी रो टी-सब्ज़ी ऊपर से गिराये जाने का इंतज़ार करते हुए नायक गीले बालों को तौलिए से पोंछती उस सुंदर-सी किशोरी को देखता है। उसे लगता है कि उसने 'जन्म इसी को पढ़ाने और इससे प्रेमपाठ पाने के लिए ही लिया है'। फिर शुरू होता है पढ़ाने का सिलसिला। एक डूम को ट्यूशन के लिए घर के भी तर तो घुसने दिया नहीं जा सकता। इसलिए जगह तय होती है, बग़ीचे की ओर खुलनेवाली वह कोठरी जिसमें कुदाल-फावड़े रखे जाते हैं। हर शाम कॉलेज से लौट कर वह उत्तरा नाम्नी इस किशोरी को इसी कोठरी में पढ़ाता है और पूरे समय उत्तरा की कर्कशा बुआ निगाह रखने के लिए वहीं बैठी रहा करती हैं। अब गौंतेन की चर्चा उपन्यासकार के ही शब्दों में - ''वह ट्यूशन के लिए अपनी भद्ये को साथ लेकर आतीं। उनके हाथ में गौंत यानी गोमूत्र का डिब्बा होता। वह दरवाज़े पर आरामकुर्सी डालकर बैठ जातीं और जवान गुरु और किशोर शिष्या पर अपनी गिद्ध-दृष्टि जमाये रखतीं। ज्यों ही ट्यूशन पढ़ाकर मैं बाहर जाता वह अपने पर, उत्तरा पर और फ़र्श पर, कमरे की हर चीज़ पर, गौंत छिड़कतीं। मैं यह सोच-सोच कर दुखी होने लगा कि अगर कभी बामण की इस बेटी के मुंह से ग़लती से डूम के इस बेटे के लिए प्यार-जैसा कोई शब्द निकल गया तो इसकी बुबू इसे शायद गौंत से ही कुल्ला करवायेगी। ख़ैर, इस दुख ने मुझे मांजा और मेरे क्रांति संकल्प को मज़बूत बनाया। मैं प्रेम में पड़ता गया। अपने को मार्क्स और उत्तरा को मार्क्स की संपन्न सामंती प्रेमिका के रूप में देखता गया। बग़ीचे की ओर खुलनेवाली वह कोठरी गौंतेन यानी गोमूत्र-गंध से भर गयी। और वही गौं तेन हमेशा-हमेशा के लिए मेरे वास्ते शृंगार रस का उद्दीपन करने वाली शै बन गयी। ''मैं गौंत को इस तरह सूंघने लगा मानो वह 'इवनिंग इन पेरिस'-जैसा कोई विलायती सेण्ट हो। मैं उस कमरे में भी गौंतेन बीच-बीच में तब सूंघने लगा जब वहां कोई दूसरा नहीं होता। इतनी सावधानी बरतने पर भी एक दिन उर्बादत्तज्यू ने मुझे पकड़ ही लिया। मैं उन्हें गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जा ने का रहस्य समझा न सका। मुझे यह कहकर मत टोकिए कि गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जाने का इस रहस्यमय ढिणमिणाण भैरव काण्ड से क्या लेना-देना है? धैर्य रखिए और मेरी इस बात पर विश्वास की जिए कि अगर गोमूत्र फ्रांसिसी इत्र न बन जाता तो यह 'रहस्यमय' हादसा न होता। बल्कि उस हादसे में तो कोई रहस्य है ही नहीं। रहस्य तो इसी में है कि गोमूत्र फ्रांसिसी इत्र बन जा सकता है। गोमूत्र के फ्रांसिसी इत्र बन जाने जैसे रहस्यमय काण्डों से ही कविता से लेकर क्रांति तक मानवता की श्रेष्ठतम उपलब्धियां संभव होती आई हैं।'' पढ़ाई के साथ-साथ शुरू होती है बामण की बेटी और डूम के बेटे की गुपचुप प्रेमकथा, जिसका विफल अंत नायिका की खुदकुशी और नायक के गहरे अपराधबोध के साथ होता है। अब नायक को हर समय 'क्वार वाक्क' यानी कोरी उल्टी आती रहती है, जिसमें वह सूअर की तरह 'ओंइक ओंइक' करता जाता है। इस रोग के बारे में एक बार कोई सिरफिरा कहता है कि उर्बादत्तज्यू के यहां रह कर उसने बामण को जो छूत लगा रखी है, ये उसी की सज़ा है और प्रायश्चित के लिए एक लुटिया गौंत पीना होगा। नायक गोमूत्र तो नहीं पीता है, मगर एक छोटी बोतल लेकर सीधा जंगल चला जाता है वहां चरती हुई किसी गाय की तलाश में। ''मुझे याद आ गया था, गोमूत्र प्रेमिका की याद दिलानेवाला फ्रांसिसी इत्र है मेरे लिए। जब मैं बोतल में गौंत भर रहा था तो मेरे नथुनों में ही नहीं, मेरे रोम-रोम में जल्लाद बुबू की निगाहों से बचते हुए मेरी निगाहों से निगाह और अंगुलियों से अंगुलियां मिलाती एक भद्ये के प्यार की गंध बसती चली जा रही थी। उस दिन के बाद से मैं बराबर अपने पास किसी छोटी शीशी में गोमूत्र रखने लगा और उसे बीच-बीच में सूंघने लगा। . . . मैं छिपा कर क्या सूंघता हूं इस बारे में तरह-तरह की चर्चाएं चलीं। किसी ने सोचा नसवार, किसी ने सोचा कोकैन, किसी ने सो चा इत्र, सिर्फ़ मैंने ही जाना कि मैं क्रांति की प्रेरणा देनेवाले प्रेम को सूंघता हूं।'' केतना त्रासद है हास्य अउर केतना हास्यास्पद है त्रास ! एक व्यक्तित्व के भीतर गोमूत्र की गंध का यह सफ़र क्या किसी सुधी पाठक को महज़ खिलंदड़ेपन का नमूना लग सकता है? निहायत गैरसंज़ीदा-सा दिखता हुआ कथाकार यहां जितने नायाब ढंग से गंध-साहचर्य के अत्यंत परिचित, फिर भी अत्यंत गहन मनोवैज्ञानिक पहलू को दलित होने की मार्मिक यातना और प्रेम की अनादि छटपटाहट के साथ बुन देता है, वह अद्भुत है। पर क्या कीजिए यदि किसी को ये बुनाई तभी समझ में आए, जब कथाकार बाकायदा इन्हें बुनने की भंगिमा में दिखलाई दे ! क्या कीजिए यदि किसी को 'कविता से लेकर क्रांति तक मानवता की श्रेष्ठतम उपलब्धियों' पर वाचक की टिप्पणी कथाकार का एक मज़ाक जान पड़े और इन उपलब्धियों को व्यक्तित्व में बन आई गांठों/ग्रंथियों से तथा उन गांठों को सामाजिक स्थितियों से जोड़नेवाला जटिल रचाव उसे समझ में न आए ! क्या कीजिए यदि वाचक को गौंत की गंध में गोंते लगाता देख कोई अपने नथुनों के साथ-साथ दिमाग़ के दरवाजे भी बंद कर ले ! निस्संदेह, जिनके पठन में ये संस्कारगत रुकावटें नहीं हैं, जो आंखों की लेंस का फ़ोकस बदल कर शरारत के झीने अवगुंठन के पार देख सकते और वहां छिपी पीड़ा को महसूस कर सकते हैं, जो भंगिमा एवं कथ्य के परंपरासिध्द तालमेल को भंग कर एक नई संगत बिठाने की हरक़त से चकित-मुदित होना जानते हैं, उन्हें ही उपन्यासकार जोशी पसंद आएंगे। शैली के संदर्भ में दूसरा नुक्ता पठन के सुख को महसूसने और सराहने की क्षमता से जुड़ा है। यह दुर्भा ग्यपूर्ण है कि हिंदी के सर्जक-आलोचक समाज में ऐसे लोगों की एक बड़ी तादाद है, जिनकी सामाजि क-राजनीतिक संघर्षों में भागीदारी तो नगण्य है, पर जिनके लेखन में और आलोचनात्मक मानदंडों में इकहरी/फ़ॉर्मूलेबाज़ समाज-चिंता का पूरा क़ब्ज़ा है। ऐसे लोग मनोहर श्याम जोशी के अद्भुत हास्य-वि नोद और अनवरत चलनेवाली चुटकियों की झड़ी के साथ कहकहे नहीं लगा पाते। वे जोशी को मूलत: मसखरा भी मानते हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसे लोगों से इपंले बस इतना कह सकता है कि समाज की चिंता में आप हंसना छोड़ दें, यह बहुत बुरी बात है और मुल्तानी मिट्टी की तरह चेहरे पर चढ़ाई गई गंभीरता के लेप में दरार पड़ने के भय से हंसना छोड़ दें, यह तो और भी बुरी बात है। अपने अंदर झांक कर देखिए कि चिंता सचमुच किस चीज़ की है, समाज की या मुल्तानी मिट्टी नुमा गंभीरता के 'फ़ेस पैक' की ? अब नापसंद करनेवालों की सूची में, फ़िलहाल के लिए, आख़िरी प्रविष्टि। यहां खड़े हैं इपंले की अपनी बौद्धिक-वैचारिक प्रजाति के लोग यानी कम्युनिस्ट। निस्संदेह, इस प्रजाति के सारे जोशीपढ़े लोग यहां नहीं है, पर उनमें से बहुत सारे हैं। पीछे बताई गई वजहों के अलावा ये जोशी से इस वजह से भी रुस्वा हैं कि उसने कम्युनिस्टों को बहुत गाली दे रखी है। अरे कॉमरेड, ये बड़ा छलिया लेखक है; इसे दुबारा ग़ौर से पढ़ो। इसने जिस भी पात्र की चर्चा श्रध्दापूर्वक अच्छे इंसान के रूप में की, वह कम्युनिस्ट निकला। पूरी कौम के नाम एक कौमी गाली निकालनेवाले ख़लीक या कल्चरवालों के जमावड़े में 'न्यू एज' बिछा कर बैठनेवाले स्यूडो कॉमरेड जोशी को ही सिर्फ़ याद न रखो (हालांकि उनमें भी इतना बुरा कुछ नहीं है)। 'सिनेमा जगत के सौ फ़ीसदी जीनियस' रथिजित भट्टाचार्य को भी याद रखो, जो ''विफल व्यक्तियों से घण्टों बातें कर सकते थे, लेकिन सफल व्यक्तियों से, और ख़ास कर उन सफल व्यक्तियों से जो उनकी सफलता के हेतु बन सकते थे, बात करने के लिए पांच मिनट निकाल सकना भी उनके लिए दूभर था।'' इस दादा की चर्चा 'कुरु कुरु स्वाहा' का वाचक लगातार श्रध्दामिश्रित विस्मय के साथ ही करता है और यह कोई 'ग़लती से हो गई मिस्टेक' नहीं है कि उपन्यास के सबसे वि चक्षण एवं गहन अंतर्दृष्टि वाले संवाद इसी पात्र के हिस्से में हैं। अपनी अधूरी पड़ी फ़िल्म के स्क्रिप्ट में स्लाइट कम्प्रोमाइज़ की बात पर यह पात्र गरज कर कहता है, ''जाओ अभी तूम कमप्लीट कर लो ओ फिलीम। ... एक ही बात - नाम मेरा मत देना। यही मैं बोले हैं प्रोडयूसर से कि बना लो अउर क्रेडिट दो 'अबरुध्द गान' डाइरेक्टेड बाई स्लाइट कम्प्रोमाइज। जोसी मनहर सियाम, कभी मेरा सा मने आयन्दा स्लाइट कम्प्रोमाइज शे एक्सप्रेशन यूज मत करना, समझा। रथिजित भट्टाचार्य जानता नेई कि स्लाइट कम्प्रोमाइज क्या होता? बिग कम्प्रोमाइज, टोटल कम्प्रोमाइज, एइसा बोलेगा तो ओ रथिजित जानता। सुपरहिट कमर्शियल उससे बनवाने का हो तो एइसा बोलो। वह बनायेगा मूड होने से। बनाया है, जभी मूड हुआ था।'' वाचक के यह कहने पर कि 'बिग हिट बनाना आपके बायें हाथ का खेल है', दादा मुस्कुरा कर बोलते हैं, ''ऐ मनहर, बायें हाथ का खेल मत बोलो जी - वह मेरा कमि टेड हाथ - लेफ्टिस्ट ! सारा कॉमरेड लोग रागेंगे - दादा एई की, आपनी बामपक्खे कमर्शियल काज कोरचेन। तो अभी, आई हैव डिसाइडेड, अम इन लोग से कहेगा जे मैं भी तोमारी तरह दायां हाथ से कमर्शियल बनाते और बायां हाथ से कम्युनिस्ट रहते।'' जोशी जी जब किसी संदर्भ में पूछते हैं, ''रेवो ल्यूशनरी होकर आप नियति की बात कैसे कर पाते हैं?'', तब दादा का लाख टके का जवाब है, ''ओ एइसे कि जो आसाल क्रांतिकारी होगा ओ जानेगा जे क्रांति मानव जातीर अदृश्ट।'' क्रमाश: ... From ravikant at sarai.net Wed Mar 7 12:11:19 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Mar 2007 12:11:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/4KS44KWH?= =?utf-8?b?IOCkqOCkvuCkquCkuOCkguCkpiDgpLngpYgg4KSJ4KSq4KSo4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?4KS44KSV4KS+4KSwIOCknOCli+CktuClgCA/IC0gNA==?= Message-ID: <200703071211.19390.ravikant@sarai.net> गतांक से आगे...आख़िरी पोस्ट 'क्याप' के कका खीमराम यानी खिमुवा खब्ती को याद रखो, कॉमरेड ! ''दिहातियों की तरह सिलेटी कपड़े का तंग मोहरी का पाजामा और उसी कपड़े की कमीज़ और बांहों तथा कॉलर से चीकट हो चुका काला कोट पहने, अपनी छतरी टेक कर दुर्गम चढ़ाइयां पार करते, नमस्कार की जगह लाल सलाम कहते, पता नहीं किस रूस-हूस के किन लेनिन-हेनिन की फसकें सुनाते हुए अधेड़ और कुंवारे खीमराम निरक्षर गांववालों के ही नहीं, मुट्ठी-भर शहरी पढ़े-लिखों के मन में भी हास्य और करुण रस पैदा करते रहे। उनसे शायद ही कभी किसी ने कम्युनिस्ट साहित्य खरीदा हो। लेकिन सारे कस्तूरीकोट में शायद ही कोई ऐसा रहा हो जिसने उनका स्वागत न किया हो, उन्हें बैठने के लिए आसन न दिया हो, कलेवा या भोजन न कराया हो, विदा करते हुए बतौर उपहार छोटा सिक्का या कोई छोटी-मोटी चीज़ - जैसे अपने बाड़े में लगी ककड़ी - उन्हें न थमायी हो।'' ऐसा कम्युनिस्ट चरित्र आपको पार्टी वालों से लेकर गैरपार्टी लेखकों तक कहीं नहीं मिलेगा। यह विडंबना - कि शायद ही किसी ने कम्युनिस्ट साहित्य खरीदा हो, लेकिन शायद किसी ने उनका स्वागत न किया हो - पहली बार जोशी की ही बदौलत हिंदी साहित्य में दर्ज़ हुई है। इस वाक्य को यों भी पढ़ सकते हैं - शायद ही किसी ने वोट दिया हो, लेकिन शायद ही किसी ने महान न कहा हो। खीमराम को कई लोग खब्ती मानते हैं और उन पर हंसते हैं। उनका अनुयायी भतीजा, कथा का वाचक-ना यक, जब उनसे पूछता है कि लोगों के हंसने पर उन्हें बुरा लगता है या नहीं, खीमराम का उत्तर विचा रधारात्मक स्तर पर जितना ही समृध्द है, भावनात्मक स्तर पर उतना ही छू जानेवाला - ''सच बात तो यह है भाऊ कि जब तक मार्क्स का संदेश मान कर हम लोग समाज में गैरबराबरी पूरी तरह ख़त्म नहीं कर देंगे, जब तक हम मार्क्स की इस बात का मर्म समझ नहीं लेंगे कि मनिख तो अपनी खुशी के लिए तमाम तरह की चीजें रचनेवाले को ही कहा जा सकता है, दूसरे के लिए मेहनत-मजूरी करनेवाली मशीन को नहीं, तब तक हर इंसान दूसरे इंसान पर हंसता ही रहेगा, उससे सच्ची हमदर्दी कभी नहीं रखेगा। भाऊ, इस निखद्द समाज में हर आदमी दूसरे पर हंसता है कहा। ताकतवर कमज़ोर के मुंह पर हंसता है तो कमज़ोर ताकतवर के पीठ पीछे।'' इन कॉमरेड कका के मरने के बाद भतीजे के पास उनकी एक तस्वीर बची रहती है। बहुत आगे चल कर, जब भी यह भतीजा - कथा का 'मैं' - अपने क्रांतिपथ में हताशा का अनुभव करता है, कका खीमराम की इस तस्वीर से बातें कर और उनसे बेशक़ीमती मशवरे हासिल कर अपनी हताशा दूर करता है। अपने अनुया यियों का अवसरवाद जब उसकी हताशा को चरम पर पहुंचा देता है, तब कका से बातें करने की कोशिश में वह पाता है कि बदरंग हो चुकी तस्वीर में वे ढूंढ़े से नज़र नहीं आते। ''मेरे स्मृति-शेष कका का एकमात्र स्मारक यह चित्र ही था, किंतु इसमें से कका कुछ उसी तरह गायब हो गये थे अथवा उनके वा रिसों द्वारा गायब करा दिये गये थे जैसे कि मास्को में क्रेमलिन की प्राचीर में कृतार्थ रूसियों के दर्शनार्थ संभाल कर रखी हुई 'व्हाट इज़ टू बी डन' के लेखक की लाश गायब कराई जा रही थी अब ! . . . फिर चित्र को एकटक देखते हुए मैंने अपनी स्मृति में कका का आह्वान किया ताकि अपनी स्मृति से कका के चेहरे का उस बदरंग चित्र पर आरोपण कर सकूं। मैंने पाया कि स्मृति-शेष क्रांतिकारी कका एक क्रांतिकारी के रूप में मेरी स्मृति तक में शेष हो चुके हैं। मैं बहुत छटपटाया और अपनी स्मृति के आगे बहुत गिड़गिड़ाया लेकिन मेरे जेहन में एक अदद कॉमेडियन कका ही उभरते रहे। मुझे उनकी सारी कहानी ऐसी प्रतीत हुई जिस पर खुल कर हंस लेना डूम रामध्यानु से लेकर बामण मेधातिथि तक सबके सामाजिक-राजनीतिक स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद 'लाफ्टर योगा' सिद्ध हो सकता था।'' खीमराम जैसे चरित्र का रचयिता उपन्यासकार जोशी क्या किसी को कम्युनिस्टों के बारे में अनाप-शना प बकनेवाला लेखक लग सकता है? हां, वे छद्म प्रगतिशीलों को अक्सर लाभप्रद 'लाफ्टर योगा' का विषय बनाते हैं, यह बात सही है। यह बात भी सही है कि वे कम्युनिस्टों के बारे में अक्सर ख़ासी ती खी राजनीतिक चुटकियां लेते हैं। पर मज़ाक और चुटकियों के रूप में आनेवाली इन गहरी आलोचनाओं में कि सी नारेबाज़ को ही प्रतिक्रांति के तत्व नज़र आएंगे। अगर हम सबसे उम्दा क़िस्म का समाज रचने का सपना देखते हैं, तो हमें उन आलोचनाओं के प्रति सबसे अधिक खुला हुआ भी होना चाहिए, जो पिछले अनुभवों के आधार पर उस समाज-रचना की रुकावटों को रेखांकित करती हैं। हर आलोचना बदनाम करने के लिए ही नहीं होती, कॉमरेड ! जानता हूं, यह मान लेना ख़ासा मुश्किल है, पर आपके लिए अगर यह मुश्किल ही नहीं, असंभव हो, और वह भी 'क्याप' की आलोचनात्मक हमदर्दी के बावजूद, तो आप किसी समाज-रचना के स्वप्न से नहीं, निहायत सामंती क़िस्म की बाबूसाहबी से परिचालित हैं और यह चिंता का विषय है कि इस वैचारिक असहिष्णुता की नींव पर कैसे समाज की रचना होगी ! पर यह कहना कि इपंले की प्रजाति के कई लोग सिर्फ़ उपर्युक्त कारणों से ही जोशी को नापसंद करते हैं, ग़लत होगा। उनकी नापसंदगी में ध्वनित होता एक बड़ा सवाल ये है कि अपने ही तरह के 'याकिवाद' के शिकार इस लेखक के यहां समाज का कौन-सा यथार्थ-बोध मिलता है? यह एक तरफ लेखक की व्यापक दिलचस्पियों और दूसरी तरफ़ ज्ञान-मीमांसा के नये प्रस्थानों से टकरानेवाला सवाल है। कई बार इपंले ने खुद बड़ी कोफ्त के साथ - और कई रियायतों के साथ - अपने इस पसंदीदा लेखक के पुस्तकावतार से यह सवाल पूछा है। इपंले को विश्वास है, खीमराम की तस्वीर की तरह पुस्तकें कभी-न-कभी इस सवाल का जवाब देंगी। ;;; रचनाकार - संजीव कुमार हिन्दी के तेजस्वी समीक्षक हैं. संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ व्याख्याता. सम्वेद, अंक -15, फरवरी 2007 से साभार. सम्वेद - संपादक राजीव रंजन गिरी, बी 3/44, तीसरी मंजिल, रोहिणी, दिल्ली - 110085 लेखक संपर्क: संजीव कुमार, वरिष्ठ व्याख्याता, देशबंधु कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) पता : सी - 35, विदिशा अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं0 - 79, इंद्रप्रस्थ विस्तार, पटपड़गंज, दिल्ली पिन - 110092 From paliwal.gauri at gmail.com Fri Mar 9 10:13:48 2007 From: paliwal.gauri at gmail.com (Gauri Paliwal) Date: Fri, 9 Mar 2007 10:13:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= first posting...kyonki har... Message-ID: <5bf3a8c90703082043x4c00d73ds6a89ff32640a8ce1@mail.gmail.com> क्योंकि हर ब्लॉग कुछ कहता है- नाम से साफ है कि मैं अपने शोध में इस बात की पड़ताल करने की कोशिश करुंगी कि हिन्दी के ब्लॉग क्या, क्यों और कैसे कह रहे हैं। इंटरनेट पर हिन्दी ब्लॉग की तादाद काफी कम है-लिहाजा इस बारे में सबसे पहला ख्याल यही आया है कि ऐसा क्यों है। हिन्दी समाज की ब्लॉग लिखने में रुचि क्यों नहीं है? क्या इसकी वजह आर्थिक है अथवा हिन्दी समाज तकनीक के झंझट के डर से बच रहा है? क्या ब्लॉग लेखन से हिन्दी भाषी लोगों को कोई आर्थिक लाभ हो सकता है, जैसा कई अंग्रेज़ी ब्लॉगर्स को हो रहा है? वैसे, नीलिमा जी भी इस विषय से जुड़ा शोध कर रही हैं- लिहाजा अध्ययन के कई पहलू समान होंगे-लेकिन मैं मानती हूं कि मैं अपने शोध को "केस स्टडी" के तौर पर आगे ले जाऊं। मसलन-हिन्दी के चंद लोकप्रिय ब्लॉग इतने लोकप्रिय क्यों हैं। इसके अलावा, अपना एक ब्लॉग आरंभ कर, शोध केंद्रित होते हुए, उसे केस स्टडी के तौर पर लूं। हिन्दी ब्लॉग के माध्यम से कमाई के मामले में मैंने चार लोगों से अपना ब्लॉग आरंभ करने का वादा लिया है। मैं उनके नाम का खुलासा नहीं करुंगी अलबत्ता शोध के आखिर में उन चार ब्लॉग के जरिए आय आदि का लेखा-जोखा रखूंगी। इसी दौरान, कई बातें सामने आएंगी-जैसे ब्लॉग को लोकप्रिय करने के तरीके आदि। हिन्दी ब्लॉगर के प्रोफाइल जानने में भी लोगों की दिलचस्पी हो सकती है, इसलिए इस बाबत भी अध्ययन किया जाएगा। दरअसल, हिन्दी ब्लॉग को पहली नज़र में देखने में यही लगता है कि सक्रिय रुप से हिन्दी में ब्लॉग लिखने वाले लेखक 25-30 से ज्यादा नहीं है। इसमें भी, पचास फीसदी स्वांत सुखाय लिख रहे हैं। बुरा न मानिए,जब ठेठ साहित्य की बाजार में कहीं पूछ नहीं है-तो ब्लॉग पर लोग कविताएं-कहानी लिखकर कमाई कर सकते हैं-ये मानना मुश्किल है-फिर भी रिसर्च का विषय है। फिलहाल, अभी तक कुछ पारिवारित तो कुछ और दूसरे कार्यों में व्यस्त होने के चलते मैं इस विषय पर ज्यादा सोच नहीं पाई हूं-लेकिन अब नियमित पोस्टिंग का वादा है। धन्यवाद- गौरी पालीवाल From girindranath at gmail.com Fri Mar 9 18:26:51 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 9 Mar 2007 18:26:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSC4KSV4KS/IOCkueCksCDgpKzgpY3gpLLgpL7gpJcg4KSV4KWB4KSb?= =?utf-8?b?IOCkleCkueCkpOCkviDgpLngpYgi?= Message-ID: <63309c960703090456uf19aac6jd4a3d65b48fe4225@mail.gmail.com> "क्योंकि हर ब्लाग कुछ कहता है" जब इस विषय को जाना तो एक संतुष्टि हुई चलो ब्लगरों की दुनिया को कोई झांक तो रहा है.सो पहले बधाई इस काम के लिए. अब आपके पोस्टींग को लेकर कुछ बातें- सचमुच हर ब्लाग का अपना अलग चरित्र होता है. हर कोई जो ब्लागिंग कर रहा है उसका एक अपना खाका होता है.आपने जैसा कि सवाल उठाया है कि "हिन्दी के ब्लॉग क्या, क्यों और कैसे कह रहे हैं।" काफी रोचक रिजल्ट दे सकता है. क्यों कि हर कोई यूं ही ब्लाग तो नहीं बना रहा है. जैसा कि नीलिमा जी ब्लाग के नामों आदि को लेकर काम आगे बढा रही है उससे इस बात की पुष्टि होती है. हिन्दी-अंग्रेजी को लेकर भी कई परते सामने आ सकती है. अब यह नही कहा जा सकता है कि सक्रिय हिन्दी ब्लागरो की संख्या कम है. नारद,भाषा जैसी ब्लाग डायरेक्ट्री को यदि झांका जाए तो पता चलाता है कि अनेक ब्लागर प्रतिदिन ब्लाग को अपडेट कर रहे हैं. आप कह सकती है "ठेट अंग्रेजी ब्लागर की तरह्." खैर, आपकी केस स्ट्डी कई परतो को खोलने में कामयाब होगी. इसी आशा के साथ. गिरीन्द्र नाथ झा. www.anubhaw.blogspot.com From avinashonly at gmail.com Sat Mar 10 09:58:02 2007 From: avinashonly at gmail.com (avinash das) Date: Sat, 10 Mar 2007 09:58:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4oCN4KSy4KWHIOCkruClh+CkgiDgpKrgpILgpJXgpJwg4KSq4KSa?= =?utf-8?b?4KWM4KSw4KWA?= Message-ID: <85de31b90703092028x5e451c6ev747cef9a17007f4d@mail.gmail.com> साथियो, टीवी पर देश के दिग्‍गजों से मुठभेड़ करते इस शख्‍स को आपने बार-बार देखा होगा। एक ज़माना था, जब पंकज पचौरी गांवों में अहले भोर सुनाई देने वाली बीबीसी की ख़बरों की आवाज़ रहे। एनडीटीवी के हमलोग कार्यक्रम में आम और ख़ास चेहरों के बीच सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर संजीदा बहस को संचालित करते हुए वे हमेशा जन-पत्रकार की भूमिका में होते हैं। देश के मीडिया समाज में उनकी राय मायने रखती है और अक्‍सर अख़बार भी पंकज को छापते रहते हैं। अब अच्‍छी ख़बर ये है कि वे नियमित मोहल्‍ले में लिखा करेंगे। उनकी कलम (अब तो की-बोर्ड) हर उस हाशिये को भी रंगेगी, जो टीवी के पर्दे पर किसी ज्ञात-अज्ञात डर से नहीं दिखते। बस आप इंतज़ार करें... चंद घंटे और... क्रिकेट के महामेला में डूबे देश और बाज़ार की कथा लेकर पंकज पचौरी आपके सामने मोहल्‍ले की गलियों में होंगे। अविनाश http://mohalla.blogspot.com/ From dajeet at gmail.com Sat Mar 10 16:16:08 2007 From: dajeet at gmail.com (ajeet dwivedi) Date: Sat, 10 Mar 2007 16:16:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= pehli posting.... media ki najar me sealing banaam pushte ka visthapan Message-ID: <292e6580703100246t11175705we6137ae75a0d30cd@mail.gmail.com> मीडिया की नजर में सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन मीडिया का सर्वव्याप्तिकरण एक किस्म का आश्वासन देता है कि लोकतन्त्र टिका हुआ रहेगा. जब सर्वव्याप्तिकरण की बात चली है तो इस पर भी विचार कर लिया जाए कि इसकी व्याप्ति कहां-कहां तक है. यह नेताओं के बेडरूम तक पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच नेताओं और नौकरशाहों के दफ्तर तक है, जहां रिश्वत का ब्यापार चलता है. यह महानायकों के घरों तक भी पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच साठ फीट गहरे गढे तक भी है. सन्सद से लेकर सडक तक मीडिया ही तो है. यह नेताओं को बेनकाब करता है, भ्रष्टाचार पकडता है. इसके चलते एक दर्जन सान्सदं की कुर्सी गयी.यह न होता तो क्या जेसिका लाल को न्याय मिल पाता? क्या प्रियदर्शनी मटू को न्याय मिलता? ये और इस तरह की बहुत सारी बातें पिछले दिनो आये हंस पत्रिका के विशेष अंक मे मीडिया के प्रमुख लोगों ने कहे हैं. ऐसा ही कुछ दिखता भी है इसलिए इसे नही मानने की कोई वजह नही है. लेकिन क्या मीडिया के इस सर्वव्याप्तिकरण की दशा और दिशा दोनों पूरी तरह सही हैं? यह विवाद का विषय है. मुझे खुद भी इस पर सन्देह है इसलिए जब दिल्ली मे सीलिन्ग चल रही थी तो इसके मीडिया कवरेज पर मैंने बारीकी से नजर रखी थी. मेरे जेहन मे कुछ ही समय पहले यमुना के पुश्ते पर हुए विस्थापन की तस्वीरें भी थीं. दोनों के मीडिया कवरेज के तुलनात्मक विश्लेषण से कई रोचक तथ्य सामने आए. इनमें से यह एक तथ्य प्रमुखता से उभरा कि भारतीय मीडिया एक किस्म के वर्गभेद का शिकार है. इस वर्गभेद के कई कारण हैं, जिनका विश्लेषण आगे होगा. मीडिया में जाति को लेकर कुछ अध्ययन पहले हुए हैं, उनका भी जिक्र होगा. लेकिन इसकी शुरुआती तस्वीर मैं बताना चाहूंगा. हमारा राष्ट्रीय मीडिया जब सीलिन्ग को कवर कर रहा था तो उसका नजरिया कुछ ऐसा था जैसे राजधानी के आम आदमी पर सरकार जुल्म ढा रही है. लोगों द्वारा किए गए अवैध निर्माण का मसला नेप्थ्य मे चला गया था. अवैध निर्माण मीडिया की नजर मे सेकेन्डरी मसला था. मुख्य मसला लोगों को उनके घरों से हटाने का था. लेकिन जब यही मीडिया यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करता है तो उसका नजरिया बदल जाता है. उस समय हजारों लोगों को भेड बकरियों कि तरह उनके घरों से निकाल कर किसी ऐसी जगह भेज देना जहां बुनियादी सुविधाओं का भी अता पता न हो, मीडिया के लिए मुख्य मसला नही था. तब मुख्य मसला अवैध निर्माण, यमुना का सौदर्यीकरण और यहां तक कि आईटीओ की सडक का जाम होना था. ये खबर अखबार और चैनलों की सुर्खियों मे थोडे समय के लिए आए लेकिन बिल्कुल राजनीतिक कारण से. तब मीडिया मे यह कयास लगाया जाता रहा कि थोडे समय बाद होने वाले लोकसभा चुनाव पर इसका क्या असर होगा. न तो इसे रोकने का कोई आन्दोलन चला और न कोई अध्यादेश आया. एमसीडी के चुनाव ने सीलिन्ग रुकवा दी, लेकिन लोकसभा का चुनाव पुश्ते का विस्थापन नहीं रोक सका. इसके भी कई राजनीतिक और सामाजिक आयाम हैं, जिन पर आगे विचार किया जाएगा. आज इतना ही. यूनिकोड में लिखने का पहला अनुभव है इसलिए कुछ अशुधियां होंगी. इसके बाद शायद ये अशुधियां न मिलें. आगे अध्ययन के निष्कर्ष और उस पर आधारित अपनी राय लेकर सराय पर नियमित मिलूंगा. परिचय -हिंदी पत्रकारिता से जुडा हूं और कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ भी सक्रिय हूं. धन्यवाद अजीत कुमार द्विवेदी -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070310/e13595a1/attachment.html From girindranath at gmail.com Sat Mar 10 17:19:56 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Sat, 10 Mar 2007 17:19:56 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSc4KWA4KSk?= =?utf-8?b?IOCkpuCljeCkteCkv+CkteClh+CkpuClgCDgpJzgpYAg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KSq4KS54KSy4KWHIOCkquCli+CkuOCljeCkn+ClgOCkguCklyDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWLIOCkquCkouCkqOClhyDgpJXgpYcg4KSs4KS+4KSmLi4u?= Message-ID: <63309c960703100349s5b93fcd4qbcf3a9efbe1d70ca@mail.gmail.com> अजीत द्विवेदी जी के पहले पोस्टींग को पढने के बाद.......... मीडिया के नज़र को शायद अब ढंग से उकारा जाएगा. .आखिर आपका विषय हीं इस ओर इशारा कर रहा है. हां, यह अलग बात है कि विस्थापन से जुडे सवालो को आप अपने शोध कार्य में प्राथमिकता देंगे. लेकिन आपके इस पोस्टींग से आशा की जा सकती है कि आप लगे हाथ हमें कई बिन्दुओ से रू ब रू करायेगें. जैसा कि आपने पहले ही लिखा है-"मीडिया का सर्वव्याप्तिकरण एक किस्म का आश्वासन देता है कि लोकतन्त्र टिका हुआ रहेगा. जब सर्वव्याप्तिकरण की बात चली है तो इस पर भी विचार कर लिया जाए कि इसकी व्याप्ति कहां-कहां तक है. यह नेताओं के बेडरूम तक पहुंचा हुआ है. इसकी पहुंच नेताओं और नौकरशाहों के दफ्तर तक है, जहां रिश्वत का ब्यापार चलता है. यह महानायकों के घरों तक भी पहुंचा हुआ है" हम जैसे लोग तो बस यह्वी चाहते है कि रिसर्च के जरिए आप कई परतो को खोलें. गिरीन्द्र नाथ झा. www.anubhaw.blogspot.com From shahnawaz1980 at gmail.com Sun Mar 11 22:59:33 2007 From: shahnawaz1980 at gmail.com (Shahnawaz Mohammed) Date: Sun, 11 Mar 2007 18:29:33 +0100 (CET) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Shahnawaz has Tagged you! :) Message-ID: <20070311172933.4641B28D761@mail.sarai.net> An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070311/9079f30a/attachment.html From lokesh at sarai.net Tue Mar 13 22:28:48 2007 From: lokesh at sarai.net (Lokesh) Date: Tue, 13 Mar 2007 12:58:48 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Does Science Education Blunt Social Consciousness ? Message-ID: <45F6D848.3040407@sarai.net> on the occasion of /124th Death Anniversary of Karl Marx & 128th Birth Anniversary of Albert Einstien/ Marx Club /Invite you to/ a Discussion on *Does Science Education Blunt Social Consciousness ?** * Lead Speakers : RAVI SINHA (Physicist & Political activist) VIKRAM VYAS (Lecturer, Deptt. of Physics, St. Stephens) Student Panel : Awanish (KMC), Saumya (KMC), Ishira (St. Stephens), Vaibhav Raj (Ramjas), Shiekha (Ramjas), Nayanjyoti (Ramjas) Venue : Seminar Room, Kirori Mal College Time : 11.00 A.M. Date : 14th March, Wednesday. E-mail : marxclub at gmail.com From ved1964 at gmail.com Tue Mar 13 21:59:52 2007 From: ved1964 at gmail.com (ved prakash) Date: Tue, 13 Mar 2007 09:29:52 -0700 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ved prakash wants to chat Message-ID: <3452482c0703130929u68f4ffe4i@mail.gmail.com> ----------------------------------------------------------------------- ved prakash wants to stay in touch using some of Google's most sophisticated new products. If you already have Google Mail or Google Talk, visit: http://mail.google.com/mail/b-12d6ae3e8c-9ee9e7d592-cd645a82a5daf89e You will need to click on this link to be able to chat with ved prakash. To get Google Mail; a free email account from Google with over 2,600 megabytes of storage; and chat with ved prakash, visit: http://mail.google.com/mail/a-12d6ae3e8c-9ee9e7d592-d57395fcf4 Google Mail offers: - Powerful spam protection - Built-in search for finding your messages and a helpful way of organising emails into "conversations" - No pop-up ads or untargeted banners, just text ads and related information that are relevant to the content of your messages - Instant messaging capabilities right inside Google Mail All this and it is yours for free. But wait, there is more! You can also get Google Talk: http://www.google.com/talk/intl/en-GB/ It is a small Windows* download that allows you to make free calls to your friends through your computer. It is simple and clutter free and it works with any computer speaker and microphone. Google Mail and Google Talk are still in beta. We are working hard to add new features and make improvements, so we might also ask for your comments and suggestions periodically. We appreciate your help in making our products even better! Thank you, The Google Team To learn more about Google Mail and Google Talk, visit: http://mail.google.com/mail/help/intl/en_GB/about.html http://www.google.com/talk/intl/en-GB/about.html (If clicking the URLs in this message does not work, copy and paste them into the address bar of your browser). * Not a Windows user? No problem. You can also connect to the Google Talk service from any platform using third-party clients (http://www.google.com/talk/intl/en-GB/otherclients.html). From ravikant at sarai.net Wed Mar 14 17:46:05 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 14 Mar 2007 17:46:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?KuCksOClh+CknA==?= =?utf-8?b?4KS84KWA4KSh4KWH4KSC4KS4IOCkquCljeCksOClguCkqyoqKg==?= Message-ID: <200703141746.05261.ravikant@sarai.net> bipul pandey ki pehli posting. ravikant *शोध के बारे में*** * * *रेज़ीडेंस प्रूफ*** *कदम-कदम की जरूरत उर्फ सरकारी सजा*** दिल्ली में हर साल सात लाख की आबादी आकर बस जाती है। यहां आते ही साबका पड़ता है दुनियादारी से। घर से पैसे आते हैं तो कैसे आएं, बैंक में अकाउंट खोलना जरूरी है। गाड़ी चलाने के लिए ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना है। अगर विदेश आना-जाना हो तो पासपोर्ट बनवाना है। गृहस्थी बसानी है तो फोन लेना है, रसोई गैस का कनेक्शन, बिजली-पानी का कनेक्शन लेना है। इन हर कामों में जरूरत पड़ती है रेज़ीडेंस प्रूफ की। यानी कदम-कदम की जरूरत। लेकिन इस जरूरत को हासिल करने के लिए कम ठोकरें नहीं खानी पड़ती। दरअसल पहले प्रमाण से ही बाकी सारे प्रमाण हासिल होते हैं — ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, वोटर पहचान पत्र, पासपोर्ट या फिर कोई और। लेकिन पहला प्रमाण मिलना इतना आसान भी नहीं। इन सभी प्रमाणों का एक ऐसा चक्रव्यूह यानी वीसस साइकिल है कि उसी में व्यक्ति उलझा रहता है। यहीं पर पढ़ाया जाता है अपराध का सरकारी पाठ। कोई एक रेजीडेंस प्रूफ हासिल करने के लिए हेराफेरी करने का पाठ। अगर एक अनुमान जताया जाए तो महानगर की नब्बे फीसदी आबादी यही करती है। * * *लाल फीताशाही में फंसी सरकार*** सरकारी महकमे में कोई विभाग ऐसा नहीं है जो लोगों को बिजली-पानी की तरह घर के पते का प्रमाण देता हो। यानी रेजीडेंस प्रूफ। सरकारी महकमे में सिर्फ एक जगह ऐसा है जहां आपको सिर्फ पता देना होता है, प्रमाण अफसर जुटाते हैं। वोटर आई कार्ड। लेकिन इसके लिए आपको सरकारी स्कीम का इंतजार करना होता है और सरकार को अपनी कार्रवाई पूरी करने के लिए दो महीने का वक्त देना हो ता है। बाकी विभागों से अपेंडिक्स की तरह जोड़ी गई जिम्मेदारी को पूरा करने की उम्मीद करना बेमानी है। 22 जुलाई 2005— सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार की राशन कार्ड पर जमकर खिंचाई की। इस खिंचाई की वजह था दिल्ली सरकार का वह आंकड़ा जिसमें बताया गया था कि साल 2000 में दिल्ली में कुल 44.1 लाख परिवारों के पास राशन कार्ड थे। सरकार के मुताबिक एक परिवार में औसतन पांच लोग होते हैं जिन्हें राशन दिया जाता है। लेकिन गौर करने वाली बात ये थी कि राशन कार्ड के हिसाब से साल 2000 में दिल्ली में दो करोड़ लोगों को राशन दिया जा रहा था। जबकि दिल्ली की अभी आबादी 1.40करोड़ के करीब है। ये उदाहरण है कि राशन कार्ड की बंदरबांट कैसे होती है। बावजूद इसके अगर हम अपने आसपास देख लें तो अधिकतर लोगों के पास राशन कार्ड नहीं मिलेगा। * * *पराया शहर, नए छात्र*** दिक्कत उनके साथ है जो घर से सीधे दिल्ली पढ़ने और तैयारी करने आते हैं। जिनके पास स्टूडेंट आई कार्ड भी नहीं होता। घर से पैसे मंगाए तो मंगाए कैसे। बैंक अकाउंट नहीं खुल पाता। दफ्तरों के धक्के खाने के बाद बिना दफ्तर गए रेज़ीडेंस प्रूफ बनाना सीख जाते हैं। शायद फर्जी तरीके अपनाना ? *पति-पत्नी और पता*** दिल्ली में नौकरी पेशा करने वाला एक वर्ग ऐसा है जिसको नौकरी की बदौलत घर के पते का प्रमाण मिल जाता है। लेकिन दिक्कत तब होती है जब उनका पता बदल जाए। घर का पता बदलते ही नए प्रमाण और रेज़ीडेंस एड्रेस बदलवाने की कवायद शुरू होती है। कुछ लोगों को नौकरी की बदौलत भी रेजीडेंस प्रूफ नहीं मिल पाता। दिलचस्प यह है कि पति के पते को पत्नी का पता नहीं माना जाता। पिता के पते को बेटी का पता जरूर माना जाता है। इसलिए एक दिक्कत तब शुरू होती है जब दिल्ली से बाहर की लड़की पत्नी बनकर आती है। यानी फिर पहचान हासिल करने की कवायद। *परदेशियों को कौन पूछे* दिल्ली की झुग्गियों में बांग्लादेशी भी रहते हैं जो सरकार की नजर में अवैध है। कुछ कारण है जो इन झुग्गियों में हर साल आग लगती है। इस आग में न सिर्फ झुग्गीवालों के सपने जल जाते हैं बल्कि पूंजी भी जलकर खाक हो जाती है। क्योंकि अवैध रिहायश होने से बांग्लादेशियों के लिए बैंक में पैसा रखना संभव नहीं। ठीक वही हालत होती है, जो फुटपाथी लोगों की होती है। *एनसीआर के दिल्लीवाले*** दिल्ली से सटे उपनगरों गुड़गांव , फरीदाबाद, नोएडा और गाजियाबाद के लोग वो लोग हैं जो दिल्ली के ज्यादा करीब हैं अपने राज्यों उत्तर प्रदेश और हरियाणा की राजधानी से दूर। ये वो लोग हैं जिनका दफ्तर दिल्ली में है और घर दूसरे राज्य में। इसलिए इनकी समस्याएं अलग तरह की है। ये लोग दो राज्यों के बीच जी रहे हैं। और घर के पते को लेकर परेशान रहते हैं। *मकसद--* इस रिसर्च का मकसद है इस बात को उजागर करना कि दिल्ली सत्ता का केंद्र है। देश की सबसे बड़ी न्यायपालिका यहीं हैं। तीनों सेनाओं का मुख्यालय यहीं है। भारत विश्व से मुकाबला कर रहा है। लेकिन इसी दिल्ली के लोग एक वाहियात समस्या से जूझ रहे हैं - रेजीडेंस प्रूफ। किसी भी देश के विकास का पैमाना होता है वहां रहने वाले लोगों का जीवन स्तर। तो क्या ये जीवन स्तर पिज्जा , बर्गर जैसी चीजें दरवाजे पर हासिल कर लेने का ही दूसरा नाम है? भले ही कोई एक मामूली और बेतुकी सी बात रेजीडेंस प्रूफ के लिए कोई भटकता रहे? यानी लोग एक इमानदार फर्जीवाड़ा कर रहे हैं, जो करना लोगों की मजबूरी है। *अपने बारे में** * और दोस्तों, मैं आपसे मुखातिब हूं बिपुल पांडेय। पेशे से पत्रकार। पढ़ाई के साथ-साथ उन्नीस सौ तिरानबे से अखबारों में लिखना शुरू किया। इलाहाबाद में आकाशवाणी में कविता पाठ का मौका मिला। साहित्य में रुचि है और लेखन ही जीवन यापन का साधन बना हुआ है। फिलहाल स्टार न्यूज हिंदी चैनल में एसोसिएट प्रोड्यूसर के पद पर काम कर रहा हूं। उम्मीद है शोध का विषय आपको अपना लगा होगा। कई कहानियां (परेशानियां) तो आपके जेहन में भी होंगी। मुझसे साझा करें तो अच्छा लगेगा। मुझे मेल ( bipulpandey at gmail.com ) कर सकते हैं, और बात (09899983503) भी। From ravikant at sarai.net Thu Mar 15 16:03:42 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 15 Mar 2007 16:03:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KSg?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSJ4KSm4KWN4KSv4KWL?= =?utf-8?b?4KSX?= Message-ID: <200703151603.42386.ravikant@sarai.net> sarai independent felloship 2007 ke tahat Vijay Pandey vijaykharsh at gmail.com ki pehli posting. प्रिय दोस्तों, सराय-सीएसडीएस इंडिपेंडेंट फेलोशिप 2007 के लिए यह मेरी पहली पोस्टिंग है। मेरे प्रोजेक्ट का विषय मेरठ का प्रकाशन उद्योग है। वर्तमान में मैं दैनिक जागरण मेरठ  में बतौर कनिष्ठ  उप संपादक कार्यरत हूं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक में अपनी पैठ बना चुके मेरठ का प्रकाशन उद्योग से खुद मेरठ शहर ही उदासीन है। इसी उदासीनता ने मुझे इस विषय के प्रति आकर्षित किया। इस क्रम में सबसे पहले मेरठ के प्रकाशन उद्योग के इतिहास से बावस्ता होने की कोशिशों के नतीजे के साथ सहयोग व सुझावों की उम्मीद रखे आपके सामने उपस्थित हूं। मेरठ में प्रकाशन उद्योग का लम्बा इतिहास रहा है। 19वीं सदी के शुरूअाती दशकों में मेरठ उत्तर भारत में अनुदित के साथ मौलिक प्रकाशन का प्रमुख केन्द्र था। 1849 में मुद्रणालयों से संबंधित रपट के मुताबिक दक्षिण उत्तरी भागों, जिसे अब उत्तर प्रदेश कहते हैं, में उस समय तक 23 मुद्रणालय थे। इनमें प्रमुखतया पुस्तक मुद्रण का काम होता था। 1850 में कुल 24 मुद्रणालय थे। इनमें से 7 अागरा, 5 दिल्ली, 2 मेरठ, 2 लाहौर, 4 बनारस, 1 बरेली, 1 कानपुर, 1 इंदौर, 1 शिमला अौर 13 लखनउ में थे। वर्तमान मेरठ जिले की सरधना तहसील जिसे बेगम समरू ने रोमन कैथोलिको का केन्द्र बना दिया था, वहां भी मिशनरियो ने एक मुद्रणालय खोल रखा था। इसमें 1850 से पहले उनकी धार्मिक पुस्तकें व पादरियों के व्याख्यान फारसी व देवनागरी में छापे जाने लगे थे। इस समय तक मेरठ के प्रकाशन उद्योग की पहचान बन गयी थी। स्वतंत्रता से पहले मेरठ पत्र पत्रिका व साहित्यिक कृतियों के प्रकाशन का प्रमुख केन्द्र था। हालांकि बीसवीं सदी में शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ मेरठ में शैक्षिक प्रकाशन शुरू हुआ। प्राइमरी व जूनियर से शुरू मेरठ का प्रकाशन व्यवसाय डिग्री स्तर की किताबें प्रकाशित कर रहा है। सन 1950 के बाद मेरठ में डिग्री स्तर की किताबों का प्रकाशन शुरू हुआ। इसके अलावा मेरठ में दंतकथा व किंवदंतियों का प्रकाशन भी स्वतंत्रता के पहले  से ही होता रहा है। 1965 में कमल पाकेट बुक्स खुलने के साथ ही लुगदी साहित्य की श्रेणी में रखे जाने वाले लोकप्रिय सामाजिक व जासूसी पुस्तकों का प्रकाशन शुरू हुआ। इनका सालाना कारोबार बीस करोड रूपये से अधिक है। इसके अलावा मेरठ के प्रकाशन व्यवसाय का सालाना कारोबार 200 करोड का है। मेरठ में छोटे बडे लगभग 200 प्रकाशक हैं। मेरठ में प्रकाशन व्यवसाय में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से तकरीबन एक लाख लोगों को रोजगार मिला है। इस यात्रा में यह उद्योग उतार चढावों का गवाह रहा हैं। बदलते समय व परिवेश के साथ नयी चुनौतियां का सामना करना पडा हैं। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य प्रकाशन उद्योग की यात्रा के साथ पेश चुनौतियों व उतार चढावों की पहचान करते हुए शहर के विकास में उद्योग की भूमिका की पडताल करना है। From jha.brajeshkumar at gmail.com Thu Mar 15 16:07:17 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Thu, 15 Mar 2007 16:07:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS+4KSc4KS/?= =?utf-8?b?4KSwIOCkueClguCkgg==?= Message-ID: <6a32f8f0703150337n6c95c19du8e89c5e6ba1d3b84@mail.gmail.com> हाजिर हूं अजीत द्विवेदी का पहला खेप नज़र के सामने है। यकीनन इस बटलोई में पका चावल सबों के मनमाफिक होगा। धन्यवाद ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070315/1c9f6628/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 16 15:03:15 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 16 Mar 2007 15:03:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= wikipedia par hindi mein aalekh Message-ID: <200703161503.15537.ravikant@sarai.net> abhivyakti se saabhaar http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/pradyogiki/2007/wikipedia.htm maze lein aur wiki ko bhi explore karein. shukriya ravikant विकिपीडिया इंटरनेट पर आधारित एक मुक्त विश्वकोश परियोजना है। यह विकि के रुप में है, यानी एक ऐसा जाल पृष्ठ जो सभी को इसका संपादन करने की छूट देता है। विकिपीडिया शब्द विकि और इनसाइक्लोपीडिया शब्दों को मिला के बना है। देखा जाए तो विकिपीडिया स्वयंसेवकों के सहयोग से निर्मित है, जिसकी भी वेब तक पहुँच है वह विकिपीडिया पर लिख सकता है और लेखों का संपादन कर सकता है, यानि आप भी इस वृहद आंदोलन का हिस्सा बन सकते हैं। विकिपीडिया के मुख्य सर्वर टैंपा, फ्लोरीडा में है, अतिरिक्त सर्वर एम्सटर्डम और सियोल में हैं। निपुण लोगों द्वारा बनाए गए विश्वकोश न्यूपीडिया के पूरक के रूप में 29 जनवरी, 2001 में इसकी शुरुआत हुई। अब यह विकिमीडिया फाउंडेशन द्वारा संचालित है जो एक ग़ैर-लाभकारी संस्था है। 2006 के मध्य में इसमें 46 लाख से भी ज़्यादा लेख थे, सिर्फ़ अंग्रेज़ी भाषा में ही 12 लाख से भी ज़्यादा लेख थे। यह 200 से भी ज़्यादा भाषाओं में है, जिसमें से 15 भाषाओं में 50 हज़ार से भी ज़्यादा लेख हैं। जर्मन भाषा के विकिपीडिया को डीवीडी में भी वितरित किया गया है। विकिपीडिया के संस्थापक जिमी वेल्स के शब्दों में यह "विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के लिए, उनके अपनी भाषा में एक बहुभाषीय, मुक्त, सबसे अधिक मुमकिन गुणवत्ता वाला विश्वकोश बनाने और वितरित करने का एक प्रयत्न है।" हालाँकि विकिपीडिया की विश्वस्तता और सत्यता पर काफ़ी विवाद भी होता रहा है। वेबसाईट पर आसानी तथा बर्बरता के साथ संपादन करने की क्षमता, असमान गुणवत्ता और कई भाषाओं में तथ्य के परोक्ष लोकप्रियता की प्राथमिकता इत्यादि की काफ़ी आलोचनाएँ हुई हैं। फिर भी इसके मुक्त वि तरण, निरंतर और काफ़ी संख्या में बदलाव, विभिन्न क्षेत्रों और भाषाओं के समावेश ने इसे इंटरनेट पर विश्व के सबसे अधिक लोकप्रिय निर्देशिका संसाधनों में से एक बना दिया है। विकिपीडिया के लिए धन की व्यवस्था विकिमीडीया फाउंडेशन के ज़रिये होती है। वर्ष 2005 की चौथी तिमाही में इसकी ज़रूरत 3,21,000 अमरीकन डॉलर थी, जिसमें 60% हार्डवेयर के लिए आवश्यक था। विकिपीडिया को मई 2004 में दो प्रमुख सम्मान मिले: पहला प्रिक्स आर्स इलेक्ट्रोनिका द्वारा गोल्डन नीसा फार डिजीटल कम्युनीटीज़, दुसरा कमुनिटी क्षेत्र में जजों द्वारा वेबी सम्मान। साथ ही विकिपीडिया को कई स्रोत्रों से प्रशंसा भी मिली है, जिनमें प्रमुख हैं: बीबीसी न्युज़, वा शिंगटन पोस्ट, द इकोनॉमिस्ट, न्यूज़ वीक, टाइम मैगज़ीन और रीडर-डाइजेस्ट। टाइम मैगज़ीन ने विकिपीडिया के संस्थापक जिमी वेल्स को वर्ष 2006 के विश्व के 100 सबसे प्रभावशा ली व्यक्तियो में से एक भी बताया। विभिन्न भाषाओं में संस्करण जुलाई 2006 तक विकिपीडिया के 151 भाषाओं में सक्रिय संस्करण है, कुल 229 भाषाओं में संस्करण है जो भिन्न अवस्थाओं में हैं। भिन्न भाषाओं के संस्करण स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। इन संस्करणों के अंशों का एक-दूसरे से कोई संबंध नहीं है, न ही इनके लेखों का कोई संबंध है, और न ही किसी भी लेख के एक भा षा से दूसरी भाषा में अनुवाद की आवश्यकता। विकिपीडिया में स्वचालित अनुवाद का स्पष्ट निषेध है, हालाँकि निपुण लोगों द्वारा अनुवाद का स्वागत भी होता है। भिन्न भाषाओं के संस्करणों को समान नीति जैसे कि "निष्पक्ष दृष्टिकोण" के ज़रिए बाँधा गया है। लेखों और चित्रों को भिन्न संस्करणों के बीच इंटरविकि (interwiki) के ज़रिए जोड़ा जा सकता है, लेखों के अनुवाद के लिए अनुरोध भी किया जा सकता है। हालाँकि अनुवादित लेख काफ़ी कम संख्या में हैं। अलेक्क्षा (Alexa) के अनुसार अंग्रेज़ी विकिपीडिया कुल ट्रैफ़िक का केवल 60% ही प्राप्त करता है। जबकि अन्य 40% भिन्न भाषाओं में है। मुख्य भाषाओं में अंग्रेजी, जर्मन, फ्रांसीसी, पोलिश, जापानी, डच, स्वीडिश, इतालवी, पुर्तगाली और स्पैनिश शामिल हैं। हिंदी विकिपीडिया विकिपीडिया के फ़ायदे बहुत हैं, और हिंदी विकिपीडिया का तीव्र विकास, हिंदी और हिंदीभाषी लोगों के लिए अच्छा है। हिंदी में विकिपीडिया की शुरुआत जुलाई 2003 में हुई थी। आज हिंदी विकिपीडिया में क़रीब 1500 मुख्य लेख है। इसमें भूगोल, इतिहास, व्यक्तिगत जीवन, विज्ञान, राजनीति, फ़िल्में, खेल और साहित्य के लेख प्रमुख हैं। हिंदी विकिपीडिया में स्वयंसेवकों का घोर अभाव है। कई लेख अभी पूरे नहीं हैं। हिंदी साहित्य, भारत और संबंधित विषयों की जानकारी हिंदी से ज़्यादा तो अँग्रेज़ी और जर्मन विकि पीडिया पर ही है। विकिपीडिया के काफ़ी फ़ायदे है, इन फ़ायदों को हिंदी बोलने और समझने वाले लोगों तक पहुँचाने के लि ए हमें हिंदी विकिपीडिया का विकास करना चाहिए। विकि स्वरूप के कारण लेखों की कड़ियों को शब्दों के साथ जोड़ना आसान है, इससे न केवल लेख के बारे मे जानकारी मिलती है, बल्कि उससे जुड़ी अन्य रोचक जानकारियाँ भी प्राप्त होती हैं, उदाहरण के लिएः अगर आप मुंबई विस्फोटों से जुड़ा लेख पढ़ रहे हैं तो उसमें आपको मुंबई के लोकल ट्रेनों के लेख की कड़ी भी मिल जाएगी। इंटर्विकि से भिन्न भाषाओं के लेख जुड़े होते है। हिंदी में महात्मा गांधी के लेख के साथ लगभग 31 और भाषाओं मे उस लेख की कड़ी है, किसी और भाषा जैसे की गुजराती मे लिखा गया लेख तुरंत ही पढ़ सकते है। विकिपिडीया मे काफ़ी तेज़ी से समसामयिक विषयों के बारे में लेखों का विकास हो सकता है जैसे कि मुंबई विस्फोटों के ख़बर का ज़ाहिर होने के चंद मिनटों में ही उसके बारे में अंग्रेज़ी विकिपीडिया में प्रासंगिक कड़ियों के साथ लेख मौजूद था। ऐसे ही परिणाम आपसी सहयोग से हम हिंदी में क्यों नहीं प्राप्त कर सकते? गूगल और अन्य सर्च इंजनों की खोज करने पर विकिपीडिया के लेख परिणामों में प्रमुखता से उभरते हैं। ज़ाहिर है कि हिंदी विकिपीडिया के विकास से इंटरनेट पर हिंदी का इस्तेमाल करने वाले लोगों की संख्या में भी वृद्धि होगी। लोगों को हिंदी का प्रयोग करने हेतु एक और मंच मिलेगा। विकिपीडिया एक ऐसा मंच है जो शिकायत का मौका नहीं देता है, बल्कि आपको अपनी ही शिकायत दूर करने का मौका देता है। अगर आपको लगता है कि कोई जानकारी अधूरी है या ग़लत है, तो आप उसमें घटजोड़ या सुधार कर सकते हैं। हिंदी में लगभग हर विषय पर जानकारी की माँग है, जो हम सबको पूरी करनी चाहिए। देखा जाय तो विकिपीडिया चिट्ठाकारिता का भी पूरक है, निजभाषा के प्रति लगा व का जो प्रदर्शन हम चिट्ठाकारी या अपने अपने जालघर बनाकर करते हैं वह साथ-साथ विकिपीडिया द्वारा भी सर्वथा संभव है। सहयोगः रवि श्रीवास्तव सौजन्यः निरंतर आभारः अनूप कुमार शुक्ल 24 फ़रवरी 2007 From ravikant at sarai.net Fri Mar 16 15:19:33 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 16 Mar 2007 15:19:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSC4KSf4KSw?= =?utf-8?b?4KSo4KWH4KSfIOCkquCksCDgpLjgpYjgpKbgpY3gpKfgpL7gpILgpKTgpL8=?= =?utf-8?b?4KSVIOCkheCkteCknOCljeCknuCkvg==?= Message-ID: <200703161519.34318.ravikant@sarai.net> wikipedia ke baad wikileaks. ravishankar shrivastav ka likha, nirantar http://www.nirantar.org/1206/tech-deergha/wikileaks par chhapa: विकिलीक्स बतायेगा पर्दे के पीछे का सच रवि रतलामी तमाम विश्व के हर क्षेत्र के स्वयंसेवी सम्पादकों के बल पर मात्र कुछ ही वर्षों में विकिपीडिया आज कहीं पर भी, किसी भी फ़ॉर्मेट में उपलब्ध एनसाइक्लोपीडिया में सबसे बड़ा, सबसे वृहद एनसाइक्लोपी डिया बन चुका है। कुछेक गिनती के उदाहरणों को छोड़ दें तो इसकी सामग्री की वैधता पर कहीं कोई प्रश्नचिह्न नहीं लगा। इसी की तर्ज पर एक नया प्रकल्प प्रारंभ किया जाने वाला है विकिलीक्स । विकिलीक्स तकनीक में तो भले ही विकिपीडिया के समान है - विकि आधारित तंत्र पर कोई भी उपयो क्ता इसमें अपनी सामग्री डाल सकेगा, परंतु इसकी सामग्री पूरी तरह अलग किस्म की होगी। इसमें हर किस्म के, बिना सेंसर किए, ऐसे गोपनीय दस्तावेज़ शामिल किये जा सकेंगे जिन्हें सरकारें और संगठन अपने फ़ायदे के लिए आम जन की पहुँच से दूर रखती हैं। यही विकिलीक्स का मूल सिद्धान्त है। विकिलीक्स में कोई भी उपयोक्ता ऐसे दस्तावेज़ों को मुहैया करवा सकता है। विकिपीडिया के विपरीत जहाँ उपयोक्ताओं के आईपी पते दर्ज किए जाते हैं, विकिलीक्स में क्रिप्टोग्रैफ़िक तकनॉलजी के जरिए इसके उपयोक्ताओं के पूरी तरह अनाम व अचिह्नित बने रहने की पूरी गारंटी दी जा रही है। जाहिर है, बहुत से दस्तावेज़ जिन्हें आम जनता तक पहुँचना चाहिए, परंतु गोपनीयता कानूनों, दंड और कानूनी कार्यवाही के भय से दबे और छुपे रह जाते हैं निश्चित रूप से आम पाठक तक प्रचुरता में पहुंचेंगे। विकिलीक्स को अभी आम जन के लिए प्रारंभ नहीं किया गया है, मगर इसकी भावी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सिर्फ इसकी सूचना मात्र से ही इसे 12 लाख गोपनीय दस्तावेज़ विभिन्न स्रोतों से उपलब्ध कराए जा चुके हैं। ऐसी आशंका भी निर्मूल नहीं कि विकिलीक्स का इस्तेमाल ग़लत कार्यों के लिए भी हो सकता है। राजनीतिक दल, संगठन व व्यक्ति एक दूसरे की पोल खोलने व ब्लेकमेल करने के अस्त्र के रूप में इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। गोपनीय दस्तावेज़ों की असलियत पर प्रश्न चिह्न भी बना रहेगा। पर सचाई यह है विकिपीडिया की विश्वसनीयता पर भी शुरूआती दिनों में प्रश्नचिह्न लगाए जाते रहे थे। गोपनीय दस्तावेज़ों के विकिलीक्स पर उपलब्ध होते ही इसकी सत्यता तथा इसकी आलोचना-प्रत्या लोचना संगठनों व सरकारों द्वारा तो की ही जा सकेगी, मतभिन्नता रखने वाले विभिन्न समूहों द्वा रा भी इनका विश्लेषण खुलेआम किया जा सकेगा ऐसे में इस तरह के प्रयोग की बातें बेमानी ही हों गी - ऐसा विकिलीक्स का मानना है। विकिलीक्स का शुभारंभ फरवरी या मार्च 2007 को प्रस्तावित है। देखते हैं इंटरनेट पर सैद्धांतिक अवज्ञा की यह गांधीगिरी क्या गुल खिलाती है! रवि रतलामी From neelimasayshi at gmail.com Fri Mar 16 18:23:55 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 16 Mar 2007 18:23:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkrOCljeKAjeCksuClieCkl+Cli+CkgiDgpK7gpYcg4oCY4KSq?= =?utf-8?b?4KS54KSa4KS+4KSo4oCZIOCkleCkviDgpLjgpLXgpL7gpLIg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?IOCknOCkvuCksOClgCDgpI/gpJUg4KSs4KS54KS4?= Message-ID: <749797f90703160553s663fd007td9e9414b2db6c76@mail.gmail.com> संभवत आपको याद हो कि मैं 'ब्‍लागित हिंदी जाति का लिंकित मन' विषय पर शोध कर रही हूँ। हिंदी ब्‍लॉगों मे 'पहचान' का सवाल मेरे शोध के केंद्र में है। चूँकि बलॉगिंग अपनी प्रकृति में ही व्‍यक्ति व उसकी अभिव्‍यक्ति में अंतर करके देखने की हामी है इसलिए छद्म नाम से ब्‍लॉगिंग अंग्रेजी व हिंदी दोनों में खूब पाई जाती है तथा इसे मान्‍यता प्राप्‍त है। या फिर कहें कि शायद प्राप्‍त है, क्‍योंकि हाल में रोचक चर्चा हिंदी ब्‍लॉगरों के बीच चल रही है, गुमनामता को लेकर और एक कथित आचार संहिता को लेकर (जी, हिंदी ब्‍लॉगिंग मेंकुछ लोग चाहते हैं कि कोई आचार संहिता होनी चाहिए) खैर दीवान के पाठकों के लिए कुछ लिंक हैं ताकि वे भी इससे दो चार हो सकें और चाहें तो बहस में शामिल हो सकें। पहले आलोचक की ये पोस्‍ट और कमेंट http://aalochak.blogspot.com/2007/03/blog-post_14.html फिर मसिजीवी कूदे रिंग में मुखौटों के साथ http://masijeevi.blogspot.com/2007/03/blog-post_15.html धुरविरोधी ने भी अपना विरोध व्‍यक्‍त किया http://dhurvirodhi.wordpress.com/2007/03/16/o-mere-sonare/ नोटपैड द्वारा किए प्रोब्‍लैमेटिक्‍स यहॉं हैं http://bakalamkhud.blogspot.com/2007/03/anonymous.html और हॉं इन सब की पृष्‍टभूमि में मसिजीवी की यह पोस्‍ट थी http://masijeevi.blogspot.com/2007/02/blog-post_23.html -- Neelima zakir Husain Post Graduate College -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070316/01763b24/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Mar 23 13:34:20 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 23 Mar 2007 13:34:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreCkvuCktSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ/gpL/gpILgpJcg?= =?utf-8?q?-1?= Message-ID: <200703231334.21201.ravikant@sarai.net> आलोक पुराणिक की पहली खेप...जो याहू के डाकबक्से में से गड़बड़ होकर आई थी. मज़े लें. रविकान्त पहली डाक –आलोक पुराणिक फर्स्ट पोस्टिंग का यही अनुवाद सटीक लगता है। सबसे पहले परिचय, मिर्जा गालिब ने बरसों पहले परिचय मांगे जाने पर कहा था- पूछा है उन्होने कि गालिब है भला कौन, कोई बतलाओ उन्हे कि हम बतलायें क्या। चचा गालिब अफोर्ड कर सकते थे, बिना परिचय दिये उनका काम चल गया। अपना परिचय अभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या। हमें बतलाना पड़ता है कि फैलोशिप के चेक पर अपना यह नाम होना चाहिए। सो नाम का परिचय और काम का परिचय जरुरी है। खाकसार का नाम आलोक पुराणिक है। काम कई तरह के करता हूं, दिल्ली विश्वविद्यालय में कामर्स पढ़ाता हूं। उससे पहले कई सालों तक हिं दी में आर्थिक पत्रकारिता की। वैसे अभी भी कर रहा हूं। इन दिनों व्यंग्य भी लिख रहा हूं। साथ में शोध करता हूं। टीवी, रेडियो, प्रिंट, इंटरनेट सब जगह में हाथ आजमाये हैं। आजमाये क्या, अभी भी आजमा रहा हूं। वैसे सही परिचय यही है कि एक धांसू सा परिचय बनाने की जुगाड़ में हूं। देखो, कब बनता है। अभी उपलब्धियों की फाइल इतनी मोटी नहीं हुई कि एक धांसू प्रोफाइल बन जाये। जब बन जायेगा, तब विस्तार से पोस्ट कर दूंगा। अभी संक्षेप में यह कि थोड़ी सी पढ़ाई और थोड़ी सी लिखाई करता हूं। मेरी शोध परियोजना का नाम यूं है- बाजार भाव रिपोर्टिंग उर्फ मिर्ची भड़की और सुस्त टाटा स्टील बचपन से अखबारों में मिर्चियों को भड़कता देख रहा हूं। और टाटा स्टील भी सुस्त होता दिखता रहा है। बचपन में सवाल उठता था कि ये स्टील सुस्त क्यों हो जाता है। बाद में खुद ही जवाब दे देता था , जरुर यह फलां च्यवनप्राश न खाता होगा। तब ही सुस्त होगा। थोड़ी उम्र बढ़ी, तो भी यह सब देखा कि मिर्चियों को भड़कना और टाटा स्टील की सुस्ती जारी है। हिंदी के अखबारों के कारोबारी पेजों पर इस तरह के शीर्षक आम तौर पर मिल जाते हैं- सोना लुढ़का, चांदी नरम रही उड़द ने छलांग लगाई, अरहर फिसली इनफोसिस कूदा, बांबे डाइंग पस्त तमाम अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग इस अंदाज में होती है। रिपोर्टिंग का यह अंदाज खासा दिलचस्प है। नवभारत टाइम्स के करीब पचास साल पुराने अंक में बाजार रिपोर्टिंग का एक दिलचस्प नमूना इस प्रकार है- नवभारत टाइम्स 22 जनवरी, 1956 पेज तीन, पेज का नाम राजधानी और उपनगर सब्जी बाजार की सैर एक पुराना खरीदार दिल्ली शनिवार सब्जी मंडी आजकल हरी मटर, आलू तथा गाजर बिकने के लिए भारी तादाद में आ रही है। मूली, शलजम तथा पत्तेदार सब्जियां भी खूब आ रही हैं। पालक मैथी बथवा आदि की भी बहार मंडी में हरियाली का समां बांधे रहती है। पीली-पीली सरसों , जिसे सब्जियों में बेचने लाया जाता है, अपनी पीली शोभा से मंडी में बसंत के आगमन को प्रकट करती सी दीखती पड़ती है। केला, चीकू नागपुरी संतरा, रसभरी आदि चल रही है। गरीबों का मेवा पिंड खजूर भी आजकल खूब बिकने आ रहा है। फलों के भाव सेब 1 ½ से 2 रुपया सेर पपीता 10 आना सेर चीकू 10,12 आना सेर संतरा एक आना दो आना प्रति माल्टा 1 आना से दो आना प्रति केला 6-9 आना दर्जन सब्जियों के भाव आलू 4-5 आना सेर गाजर 2,3 आना सेर मटर देसी 6 आना सेर मटर शिमला 8 आना सेर मूली 3 आना सेर बैंगन रतिया 5,6 आना सेर पालक 2 आना सेर इस रिपोर्ट की शैली बहुत रोचक है। वैसे अभी भी अखबारों में सब्जी बाजार और अन्य बाजारों की रिपोर्टों को बहुत बोरिंग किस्म का काम माना जाता है। अरसे से सोच रहा था कि मौका मिले, तो इस पूरे सिलसिले को समझा जाये। बाजार रिपोर्टिंग की भाषा कैसे गढ़ी गयी, इस प्रक्रिया को समझा जाये। मोटे तौर पर इस फैलोशिप में मैं इस प्रक्रिया और बाजार रिपोर्टिंग की भाषा से जुड़े तमाम पहलुओं को समझने की कोशिश करुंगा। इस शोध परियोजना के तहत हिंदी के अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग के तौर-तरीकों पर गौर किया जायेगा। पहले यह रिपोर्टिंग किस तरह से होती थी, इसका अध्ययन किया जायेगा। यह पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि पिछले पचास सालों में इन तौर-तरीकों में क्या बदलाव आये। मोटे तौर पर इसमें आजादी के समय से यानी 1947 से अब तक की बाजार रिपोर्टिंग को लिया जायेगा। मुख्यत शेयर बाजार, सोने-चांदी के बाजार और कृषि उत्पादों के बाजारों पर फोकस किया जायेगा। प्रस्तावित चैप्टर-1-परिचय-बाजारों के प्रकार चैप्टर 2-1947 से 1957 तक का सिलसिला चैप्टर 3-1957 से 1967 तक का सिलसिला चैप्टर 4-1967-1977 तक का सिलसिला चैप्टर 5-1977-1987 तक का सिलसिला चैप्टर 6-1987-1997 तक का सिलसिला चैप्टर 7- 1997 से 2007 तक की बाजार की रिपोर्टिंग चैप्टर 8- जो देखा, जो समझा और जो सुना(साक्षात्कार) चैप्टर 9-क्या कुछ बेहतर संभव है, इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश कोशिश यह होगी कि शोध को बोझिल और बोरिंग होने से बचाया जाये। इस लिए प्रस्ताव यह है कि इसे विवरणात्मक गद्य(NARRATIVE PROSE) में लिखा जाये। हिंदी के दैनिक हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स दोनों अखबारों की रिपोर्टिंग पर फोकस करने की यो जना है। इसके अतिरिक्त पुरानी मंडियों में जाकर पुराने लोगों से बात की जायेगी। इस तरह की रिपोर्टिंग करने वाले पुराने –नये लोगों से संवाद किया जायेगा। शोध को विशुद्ध अकादमिक शोध होने से बचाया जायेगा। From sadan at sarai.net Fri Mar 23 20:50:56 2007 From: sadan at sarai.net (Sadan) Date: Fri, 23 Mar 2007 11:20:56 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreCkvuCktSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ/gpL/gpILgpJcg?= =?utf-8?q?-1?= In-Reply-To: <200703231334.21201.ravikant@sarai.net> References: <200703231334.21201.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4603F058.4070206@sarai.net> जनाब, मजा अा गया. आपके डाक का इंतजार रहेगा. थोड़ी गुजािरस या फरमाईस, क्या चेप्टरों में जो समय का व्रगीकरण आपने िकया है उसमें कुछ रचनात्मकता हो सकती है. दस साला ब्यौरा के फारमेट में कुछ िमरची झोंकी जा सकती है क्या? सदन. Ravikant wrote: >आलोक पुराणिक की पहली खेप...जो याहू के डाकबक्से में से गड़बड़ होकर आई थी. > >मज़े लें. > >रविकान्त > > > पहली डाक –आलोक पुराणिक > > फर्स्ट पोस्टिंग का यही अनुवाद सटीक लगता है। > सबसे पहले परिचय, मिर्जा गालिब ने बरसों पहले परिचय मांगे जाने पर कहा था- > पूछा है उन्होने कि गालिब है भला कौन, कोई बतलाओ उन्हे कि हम बतलायें क्या। > चचा गालिब अफोर्ड कर सकते थे, बिना परिचय दिये उनका काम चल गया। अपना परिचय अभी ऐसा >नहीं हुआ कि कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या। हमें बतलाना पड़ता है कि फैलोशिप के चेक पर अपना >यह नाम होना चाहिए। सो नाम का परिचय और काम का परिचय जरुरी है। खाकसार का नाम आलोक >पुराणिक है। > काम कई तरह के करता हूं, दिल्ली विश्वविद्यालय में कामर्स पढ़ाता हूं। उससे पहले कई सालों तक हिं >दी में आर्थिक पत्रकारिता की। वैसे अभी भी कर रहा हूं। इन दिनों व्यंग्य भी लिख रहा हूं। साथ में >शोध करता हूं। टीवी, रेडियो, प्रिंट, इंटरनेट सब जगह में हाथ आजमाये हैं। आजमाये क्या, अभी भी >आजमा रहा हूं। > वैसे सही परिचय यही है कि एक धांसू सा परिचय बनाने की जुगाड़ में हूं। देखो, कब बनता है। अभी >उपलब्धियों की फाइल इतनी मोटी नहीं हुई कि एक धांसू प्रोफाइल बन जाये। जब बन जायेगा, तब >विस्तार से पोस्ट कर दूंगा। > अभी संक्षेप में यह कि थोड़ी सी पढ़ाई और थोड़ी सी लिखाई करता हूं। > मेरी शोध परियोजना का नाम यूं है- > बाजार भाव रिपोर्टिंग उर्फ मिर्ची भड़की और सुस्त टाटा स्टील >बचपन से अखबारों में मिर्चियों को भड़कता देख रहा हूं। और टाटा स्टील भी सुस्त होता दिखता रहा >है। बचपन में सवाल उठता था कि ये स्टील सुस्त क्यों हो जाता है। बाद में खुद ही जवाब दे देता >था , जरुर यह फलां च्यवनप्राश न खाता होगा। तब ही सुस्त होगा। >थोड़ी उम्र बढ़ी, तो भी यह सब देखा कि मिर्चियों को भड़कना और टाटा स्टील की सुस्ती जारी >है। हिंदी के अखबारों के कारोबारी पेजों पर इस तरह के शीर्षक आम तौर पर मिल जाते हैं- > सोना लुढ़का, चांदी नरम रही > उड़द ने छलांग लगाई, अरहर फिसली > इनफोसिस कूदा, बांबे डाइंग पस्त > तमाम अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग इस अंदाज में होती है। रिपोर्टिंग का यह अंदाज खासा >दिलचस्प है। नवभारत टाइम्स के करीब पचास साल पुराने अंक में बाजार रिपोर्टिंग का एक दिलचस्प >नमूना इस प्रकार है- >नवभारत टाइम्स 22 जनवरी, 1956 पेज तीन, पेज का नाम राजधानी और उपनगर > सब्जी बाजार की सैर > एक पुराना खरीदार > दिल्ली शनिवार सब्जी मंडी आजकल हरी मटर, आलू तथा गाजर बिकने के लिए भारी तादाद में आ रही >है। मूली, शलजम तथा पत्तेदार सब्जियां भी खूब आ रही हैं। पालक मैथी बथवा आदि की भी बहार > मंडी में हरियाली का समां बांधे रहती है। पीली-पीली सरसों , जिसे सब्जियों में बेचने लाया जाता >है, अपनी पीली शोभा से मंडी में बसंत के आगमन को प्रकट करती सी दीखती पड़ती है। केला, >चीकू नागपुरी संतरा, रसभरी आदि चल रही है। गरीबों का मेवा पिंड खजूर भी आजकल खूब बिकने आ >रहा है। > फलों के भाव > सेब 1 ½ से 2 रुपया सेर > पपीता 10 आना सेर > चीकू 10,12 आना सेर > संतरा एक आना दो आना प्रति > माल्टा 1 आना से दो आना प्रति > केला 6-9 आना दर्जन > > सब्जियों के भाव > आलू 4-5 आना सेर > गाजर 2,3 आना सेर > मटर देसी 6 आना सेर > मटर शिमला 8 आना सेर > मूली 3 आना सेर > बैंगन रतिया 5,6 आना सेर > पालक 2 आना सेर > > इस रिपोर्ट की शैली बहुत रोचक है। वैसे अभी भी अखबारों में सब्जी बाजार और >अन्य बाजारों की रिपोर्टों को बहुत बोरिंग किस्म का काम माना जाता है। > > अरसे से सोच रहा था कि मौका मिले, तो इस पूरे सिलसिले को समझा जाये। बाजार रिपोर्टिंग की >भाषा कैसे गढ़ी गयी, इस प्रक्रिया को समझा जाये। मोटे तौर पर इस फैलोशिप में मैं इस प्रक्रिया >और बाजार रिपोर्टिंग की भाषा से जुड़े तमाम पहलुओं को समझने की कोशिश करुंगा। > इस शोध परियोजना के तहत हिंदी के अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग के तौर-तरीकों पर गौर किया >जायेगा। पहले यह रिपोर्टिंग किस तरह से होती थी, इसका अध्ययन किया जायेगा। > यह पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि पिछले पचास सालों में इन तौर-तरीकों में क्या बदलाव >आये। > मोटे तौर पर इसमें आजादी के समय से यानी 1947 से अब तक की बाजार रिपोर्टिंग को > लिया जायेगा। मुख्यत शेयर बाजार, सोने-चांदी के बाजार और कृषि उत्पादों के बाजारों पर फोकस >किया जायेगा। > प्रस्तावित चैप्टर-1-परिचय-बाजारों के प्रकार > चैप्टर 2-1947 से 1957 तक का सिलसिला > चैप्टर 3-1957 से 1967 तक का सिलसिला > चैप्टर 4-1967-1977 तक का सिलसिला > चैप्टर 5-1977-1987 तक का सिलसिला > चैप्टर 6-1987-1997 तक का सिलसिला > चैप्टर 7- 1997 से 2007 तक की बाजार की रिपोर्टिंग > चैप्टर 8- जो देखा, जो समझा और जो सुना(साक्षात्कार) > चैप्टर 9-क्या कुछ बेहतर संभव है, इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश > > कोशिश यह होगी कि शोध को बोझिल और बोरिंग होने से बचाया जाये। इस लिए प्रस्ताव यह है कि >इसे विवरणात्मक गद्य(NARRATIVE PROSE) में लिखा जाये। > हिंदी के दैनिक हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स दोनों अखबारों की रिपोर्टिंग पर फोकस करने की यो >जना है। > इसके अतिरिक्त पुरानी मंडियों में जाकर पुराने लोगों से बात की जायेगी। इस तरह की रिपोर्टिंग >करने वाले पुराने –नये लोगों से संवाद किया जायेगा। > शोध को विशुद्ध अकादमिक शोध होने से बचाया जायेगा। > > > > > > > > >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From sadan at sarai.net Mon Mar 26 15:05:49 2007 From: sadan at sarai.net (Sadan) Date: Mon, 26 Mar 2007 05:35:49 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreCkvuCktSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ/gpL/gpILgpJct?= =?utf-8?b?4KSn4KSo4KWN4KSv4KS14KS+4KSm?= In-Reply-To: <679358.96549.qm@web54112.mail.yahoo.com> References: <679358.96549.qm@web54112.mail.yahoo.com> Message-ID: <460793F5.4040407@sarai.net> धन्यवाद आपके मेल का. मेरे कहने का अिभप्राय था िक जब हम मीिडया रपट की एितहािसकता को खंगालते हैं तो क्या हम पुराने चले आ रहे समय के पिरमाणों को ही फोलो करें या िफर हमारे शोध के िवषय हमे नए एितहािसक्ता की ओर ले जा रहे हैं? मैं जानता हूँ िक आपको इितहास के दलदल में फँसाना शायद नाइंस्फी हो, क्या पता आप इस मोह-पाश में बँधना ही चाहेँ... सदन. alok puranik wrote: > > अजी > मिर्ची भी झोंकी जायेगी। > हुजूर इस मुल्क में और हो क्या रहा है। नेता पब्लिक की आंख में झोंक रहा है, टीवी चैनल > व्यूअर की आंख में झोंक रहा है। हम भी झोंकेगे। वो तो पहली पोस्टिंग में थोड़ा सा फार्मल > होने का मन हो रहा था। वरना मिर्ची के सिवा और है ही क्या। > सर जल्दी ही मैं विस्तार से लिखूंगा। > आपने पढ़ा, अच्छा लगा। > आपका आलोक पुराणिक > */Sadan /* wrote: > > > जनाब, > मजा अा गया. आपके डाक का इंतजार रहेगा. थोड़ी गुजािरस या फरमाईस, क्या चेप्टरों में > जो समय का व्रगीकरण आपने िकया है उसमें कुछ रचनात्मकता हो सकती है. दस साला > ब्यौरा के > फारमेट में कुछ िमरची झोंकी जा सकती है क्या? > सदन. > > > Ravikant wrote: > > >आलोक पुराणिक की पहली खेप...जो याहू के डाकबक्से में से गड़बड़ होकर आई थी. > > > >मज़े लें. > > > >रविकान्त > > > > > > पहली डाक –आलोक पुराणिक > > > > फर्स्ट पोस्टिंग का यही अनुवाद सटीक लगता है। > > सबसे पहले परिचय, मिर्जा गालिब ने बरसों पहले परिचय मांगे जाने पर कहा था- > > पूछा है उन्होने कि गालिब है भला कौन, कोई बतलाओ उन्हे कि हम बतलायें क्या। > > चचा गालिब अफोर्ड कर सकते थे, बिना परिचय दिये उनका काम चल गया। अपना > परिचय अभी ऐसा > >नहीं हुआ कि कोई बतलाये कि हम बतलायें क्या। हमें बतलाना पड़ता है कि फैलोशिप के > चेक पर अपना > >यह नाम होना चाहिए। सो नाम का परिचय और काम का परिचय जरुरी है। खाकसार > का नाम आलोक > >पुराणिक है। > > काम कई तरह के करता हूं, दिल्ली विश्वविद्यालय में कामर्स पढ़ाता हूं। उससे पहले > कई सालों तक हिं > >दी में आर्थिक पत्रकारिता की। वैसे अभी भी कर रहा हूं। इन दिनों व्यंग्य भी लिख > रहा हूं। साथ में > >शोध करता हूं। टीवी, रेडियो, प्रिंट, इंटरनेट सब जगह में हाथ आजमाये हैं। आजमाये > क्या, अभी भी > >आजमा रहा हूं। > > वैसे सही परिचय यही है कि एक धांसू सा परिचय बनाने की जुगाड़ में हूं। देखो, कब > बनता है। अभी > >उपलब्धियों की फाइल इतनी मोटी नहीं हुई कि एक धांसू प्रोफाइल बन जाये। जब बन > जायेगा, तब > >विस्तार से पोस्ट कर दूंगा। > > अभी संक्षेप में यह कि थोड़ी सी पढ़ाई और थोड़ी सी लिखाई करता हूं। > > मेरी शोध परियोजना का नाम यूं है- > > बाजार भाव रिपोर्टिंग उर्फ मिर्ची भड़की और सुस्त टाटा स्टील > >बचपन से अखबारों में मिर्चियों को भड़कता देख रहा हूं। और टाटा स्टील भी सुस्त > होता दिखता रहा > >है। बचपन में सवाल उठता था कि ये स्टील सुस्त क्यों हो जाता है। बाद में खुद ही > जवाब दे देता > >था , जरुर यह फलां च्यवनप्राश न खाता होगा। तब ही सुस्त होगा। > >थोड़ी उम्र बढ़ी, तो भी यह सब देखा कि मिर्चियों को भड़कना और टाटा स्टील की > सुस्ती जारी > >है। हिंदी के अखबारों के कारोबारी पेजों पर इस तरह के शीर्षक आम तौर पर मिल > जाते हैं- > > सोना लुढ़का, चांदी नरम रही > > उड़द ने छलांग लगाई, अरहर फिसली > > इनफोसिस कूदा, बांबे डाइंग पस्त > > तमाम अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग इस अंदाज में होती है। रिपोर्टिंग का यह > अंदाज खासा > >दिलचस्प है। नवभारत टाइम्स के करीब पचास साल पुराने अंक में बाजार रिपोर्टिंग > का एक दिलचस्प > >नमूना इस प्रकार है- > >नवभारत टाइम्स 22 जनवरी, 1956 पेज तीन, पेज का नाम राजधानी और उपनगर > > सब्जी बाजार की सैर > > एक पुराना खरीदार > > दिल्ली शनिवार सब्जी मंडी आजकल हरी मटर, आलू तथा गाजर बिकने के लिए भारी > तादाद में आ रही > >है। मूली, शलजम तथा पत्तेदार सब्जियां भी खूब आ रही हैं। पालक मैथी बथवा आदि > की भी बहार > > मंडी में हरियाली का समां बांधे रहती है। पीली-पीली सरसों , जिसे सब्जियों में > बेचने लाया जाता > >है, अपनी पीली शोभा से मंडी में बसंत के आगमन को प्रकट करती सी दीखती पड़ती > है। केला, > >चीकू नागपुरी संतरा, रसभरी आदि चल रही है। गरीबों का मेवा पिंड खजूर भी आजकल > खूब बिकने आ > >रहा है। > > फलों के भाव > > सेब 1 ½ से 2 रुपया सेर > > पपीता 10 आना सेर > > चीकू 10,12 आना सेर > > संतरा एक आना दो आना प्रति > > माल्टा 1 आना से दो आना प्रति > > केला 6-9 आना दर्जन > > > > सब्जियों के भाव > > आलू 4-5 आना सेर > > गाजर 2,3 आना सेर > > मटर देसी 6 आना सेर > > मटर शिमला 8 आना सेर > > मूली 3 आना सेर > > बैंगन रतिया 5,6 आना सेर > > पालक 2 आना सेर > > > > इस रिपोर्ट की शैली बहुत रोचक है। वैसे अभी भी अखबारों में सब्जी बाजार और > >अन्य बाजारों की रिपोर्टों को बहुत बोरिंग किस्म का काम माना जाता है। > > > > अरसे से सोच रहा था कि मौका मिले, तो इस पूरे सिलसिले को समझा जाये। बाजार > रिपोर्टिंग की > >भाषा कैसे गढ़ी गयी, इस प्रक्रिया को समझा जाये। मोटे तौर पर इस फैलोशिप में मैं > इस प्रक्रिया > >और बाजार रिपोर्टिंग की भाषा से जुड़े तमाम पहलुओं को समझने की कोशिश करुंगा। > > इस शोध परियोजना के तहत हिंदी के अखबारों में बाजार रिपोर्टिंग के तौर-तरीकों > पर गौर किया > >जायेगा। पहले यह रिपोर्टिंग किस तरह से होती थी, इसका अध्ययन किया जायेगा। > > यह पता लगाने की कोशिश की जायेगी कि पिछले पचास सालों में इन तौर-तरीकों में > क्या बदलाव > >आये। > > मोटे तौर पर इसमें आजादी के समय से यानी 1947 से अब तक की बाजार रिपोर्टिंग को > > लिया जायेगा। मुख्यत शेयर बाजार, सोने-चांदी के बाजार और कृषि उत्पादों के > बाजारों पर फोकस > >किया जायेगा। > > प्रस्तावित चैप्टर-1-परिचय-बाजारों के प्रकार > > चैप्टर 2-1947 से 1957 तक का सिलसिला > > चैप्टर 3-1957 से 1967 तक का सिलसिला > > चैप्टर 4-1967-1977 तक का सिलसिला > > चैप्टर 5-1977-1987 तक का सिलसिला > > चैप्टर 6-1987-1997 तक का सिलसिला > > चैप्टर 7- 1997 से 2007 तक की बाजार की रिपोर्टिंग > > चैप्टर 8- जो देखा, जो समझा और जो सुना(साक्षात्कार) > > चैप्टर 9-क्या कुछ बेहतर संभव है, इस सवाल का जवाब तलाशने की कोशिश > > > > कोशिश यह होगी कि शोध को बोझिल और बोरिंग होने से बचाया जाये। इस लिए > प्रस्ताव यह है कि > >इसे विवरणात्मक गद्य(NARRATIVE PROSE) में लिखा जाये। > > हिंदी के दैनिक हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स दोनों अखबारों की रिपोर्टिंग पर > फोकस करने की यो > >जना है। > > इसके अतिरिक्त पुरानी मंडियों में जाकर पुराने लोगों से बात की जायेगी। इस तरह > की रिपोर्टिंग > >करने वाले पुराने –नये लोगों से संवाद किया जायेगा। > > शोध को विशुद्ध अकादमिक शोध होने से बचाया जायेगा। > > > > > > > > > > > > > > > > > >_______________________________________________ > >Deewan mailing list > >Deewan at mail.sarai.net > >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > > ------------------------------------------------------------------------ > Sucker-punch spam > > with award-winning protection. > Try the free Yahoo! 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