From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Jul 3 15:29:50 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 3 Jul 2007 15:29:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCkmuCljOCklQ==?= Message-ID: <6a32f8f0707030259x495aac58i764a46239a8a05b7@mail.gmail.com> *यह है मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक--* लालकिले से दो-तीन फर्लांग दूर एक मुगलकालीन इलाका है। नाम है-चांदनी चौक। पुरानी दिल्ली का यह तंग इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है, जिससे हम हिन्दुस्तानियों के रिश्ते बड़े रूहानी हैं। यूं तो सन् 1646 में जब मुगल बादशाह शाहजहां अपनी राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया तो चांदनी चौक का बसना हुआ। उस वक्त से यह लगातार आबाद होता गया। और इसकी ख्याती विदेशों तक फैल गई। उस वक्त एक ख्याती प्राप्त बाजार जैसा हो सकता था, संभवत: यह वैसा ही था। पूरा इलाका अपेक्षाकृत धनी और प्रभावशाली व्यापारियों का ठिकाना था। कई प्रसिद्ध दुकानें थीं, जिसका वजूद आज भी है। उस वक्त आबादी दो लाख से भी कम थी। आज नजारे बदल गए हैं। शहर फैल चुका है। आबादी पचास गुना से भी ज्यादा है। बहुत मुमकिन है कि अब आप यहां बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी भी तय कर सकें। भूलभूलैया वाली कई छोटी-बड़ी गलियां जो दिक्कत पैदा करेंगी, सो अलग। खैर! इसके बावजूद देश की जनता से चांदनी चौक के जो पुराने ताल्लुकात कायम हुए थे वो अब भी बने हुए हैं। क्योंकि, इसका रंग खुद में ख़ालिस भी है और खुशनुमा भी। इस बाजार में लगने वाली भीड़ के बारे में मत पूछिए ! यहां गाड़ी के बजाय पैदल दूरी तय करना आसान काम है। मौका-बेमौका होने को बेताब नोंक–झोंक यहां की रोजमर्रा में शामिल है। शायद इसलिए, बल्लीमारान में रहते हुए मिर्जा गालिब ने कभी कहा था कि, ''रोकलो, गर गलत चले कोई, बख़्श दो, गर खता करे कोई'' आज बल्लीमारा की ये गलियां बड़ी मशहूर हैं। नए उग आए बाजारों के मुकाबले चांदनी चौक बाजार अपनी दयानतदारी पर बड़ी तारीफ बटोरता है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल में भी यह बाजार हमारी सारी जरूरतों को पूरा करते हुए खांटी देशीपन का आभास कराता है। पश्चिम के तौर-तरीकों की नकल यहां मायने नहीं रखती है। वैसे भी यहां के देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों के क्या कहने हैं ! शायद इस वास्ते लोग अपने अनमनेपन के बावजूद यहां आते हैं। यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां कोई बदलाव हुआ ही नहीं। समय और जरूरत के हिसाब से यह बाजार अपनी शक्ल बदलता रहा है। पुरानी चीजें नए रूप में आती गई हैं। लेकिन, पूरी आबादी को साथ लेकर। जीवन से जुड़े रोजगार को दाव पर रखकर शाहजहांनाबाद के हुक्मरानों ने यहां कोई बदलाव नहीं किए थे। पर, आज हालात बदल रहे हैं। अब तो देश की गणतांत्रिक सरकार भी ऐसे फैसले करने लगी है, जिससे लाखों लोगों का वजूद ही खतरे में पड़ जाता है। इस बाजार के आस-पास रिक्शा, ठेला चलाने वाले मजदूर फिलहाल ऐसी ही कठिनाई से जूझ रहे है, किसी हो जाने वाले अंतिम फैसले के इंतजार में। ब्रजेश झा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070703/8d801f3c/attachment.html From jha.brajeshkumar at gmail.com Tue Jul 3 15:43:03 2007 From: jha.brajeshkumar at gmail.com (brajesh kumar jha) Date: Tue, 3 Jul 2007 15:43:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSv4KWC4KSCIA==?= =?utf-8?b?4KSc4KWB4KSh4KS8IOCkleCksCDgpKzgpKjgpL4g4KSP4KSVIOCkrA==?= =?utf-8?b?4KWH4KSc4KWL4KSh4KS8IOCkl+ClgOCkpA==?= Message-ID: <6a32f8f0707030313x61ecd718l803d45369a4ba5d6@mail.gmail.com> *गुलजार ने सिनेमाई गीतों को नए प्रतिमान दिए। इनके लिखे पहले गीत के पूरे होने की रोचक कहानी कुछ यूं है- *** 'मोरा गोरा रंग लई ले' इस गीत का जन्म वहां से शुरू हुआ जब बिमल-दा और सचिन-दा ने सिचुएशन समझाई। कल्याणी (नूतन) जो मन-ही-मन विकास (अशोक कुमार) को चाहने लगी है, एक रात चूल्हा-चौका समेटकर गुनगनाती हुई बाहर निकल आई। " ऐसा करेक्टर घर से बाहर जाकर नहीं गा सकता" , विमल-दा ने वहीं रोक दिया। "बाहर नहीं जाएगी तो बाप के सामने कैसे गाएगी?" सचिन-दा ने पूछा। "बाप से हमेशा वैष्णव कविता सुना करती है, सुना क्यों नहीं सकती?" बिमल-दा ने दलील दी। "यह कविता-पाठ नहीं है, दादा, गाना है।" "तो कविता लिखो। वह कविता गाएगी"। "गाना घर में घुट जाएगा।" "तो आंगन में ले जाओ। लेकिन बाहर नहीं जाएगी।" " बाहर नहीं जाएगी तो हम गाना भी नहीं बनाएगा।",सचिन-दा ने भी चेतावनी दे दी। कुछ इस तरह से सिचुएशन समझाई गई मुझे। मैंने पूरी कहानी सुनी, देबू से। देबू और सरन दोनों दादा के असिस्टेंट थे। सरन से वे वैष्णव कविताएं सुनीं जो कल्याणी बाप से सुना करती थी। बिमल-दा ने समझाया कि रात का वक्त़ है, बाहर जाते डरती है, चांदनी रात में कोई देख न ले। आंगन से आगे नहीं जा पाती। सचिन-दा ने घर बुलाया और समझाया : चांदनी रात में डरती है, कोई देख न ले। बाहर तो चली आई, लेकिन मुड़-मुड़के आंगन की तरफ देखती है। दरअसल, बिमल-दा और सचिन-दा दोनों को मिलाकर ही कल्याणी की सही हालत समझ में आती है।सचिन-दा ने अगले दिन बुलाकर मुझे धुन सुनाई : *ललल ला ललल लला ला* गीत के पहले-पहले बोल यही थे। पंचम (आर.डी.बर्मन) ने थोड़ा-सा संशोधन किया : *ददद दा ददा ददा दा*** सचिन-दा ने फिर गुनगुनाकर ठीक किया : *ललल ला ददा दा लला ला*** गीत की पहली सूरत समझ में आई। कुछ ललल ला और कुछ ददद दा- मैं सुर-ताल से बहरा भौंचक्का-सा दोनों को देखता रहा। जी चाहा, मैं अपने बोल दे दूं : *तता ता ततता तता ता*** सचिन-दा कुछ देर हार्मोनियम पर धुन बजाते रहे और आहिस्ता-आहिस्ता मैंने कुछ गुनगुनाने की कोशिश की। टूटे-टूटे से शब्द आने लगे : दो-चार... दो-चार... दुई-चार पग पे अंगन- *दुई-चार पग... बैरी कंगना छनक ना-*** गलत-सलत सतरों के कुछ बोल बन गए: *बैरी कंगना छनक ना*** *मोहे कोसों दूर लागे *** *दुई-चार पग पे अंगना-*** सचिन-दा ने अपनी धुन पर गाकर परखे, और यूं धुन की बहर हाथ आ गई। चला आया। गुनगुनाता रहा। कल्याणी के मूड को सोचता रहा। कल्याणी के ख्याल क्या होंगे ? कैसा महसूस किया होगा ? हां, एक बात ज़िक्र के काबिल है। एक ख़्याल आया, चांद से मिन्नत करके कहेगी: मैं पिया को देख आऊं जरा मुंह फिराई ले चांद फ़ौरन ख़्याल आया, शैलेन्द्र यही ख़्याल बहुत अच्छी तरह एक गीत में कह चुके हैं : दम-भर को जो मुंह फेरे-ओचंदा- मैं उनसे प्यार कर लूंगी बातें हजार कर लूंगी- कल्याणी अभी तक चांद को देख रही थी। चांद बार-बार बदली हटाकर झांक रहा था, मुस्करा रहा था। जैसे कह रहा हो, कहं जा रही हो ? कैसे जाओगी ? मैं रोशनी कर दूंगा। सब देख लेंगे। कल्याणी चिढ़ गई। चिढ़के गाली दे दी : *तोहे राहू लागे बैरी* *मुसकाए जी जलाई के* चिढ़के गुस्से में वहीं बैठ गई। सोचा, वापस लौट जाऊं। लेकिन मोह, बांह से पकड़कर खींच रहा था। और लाज, पांव पकड़कर रोक रही थी। कुछ समझ में नहीं आया,क्या करे ? किधर जाए ? अपने ही आपसे पूछने लगी: *कहां से चला है मनवा* *मोहे बावरी बनाई के* गुमसुम कल्याणी बैठी रही। बैठी रही, सोचती रही, काश, आज रोशनी न होती। इतनी चांदनी न होती। या मैं ही इतनी गोरी न होती कि चांदनी में छलक-छलक जाती। अगर सांवली होती तो कैसे रात में ढंकी-छुपी अपने पिया के पास चली जाती। लौट आई बेचारी कल्याणी, वापस घर लौट आई। यही गुनगुनाते : *मोरा गोरा रंग लई ले* * मोहे श्याम रंग दई दे* - गुलज़ार -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070703/95b4346e/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Tue Jul 3 19:51:03 2007 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Tue, 3 Jul 2007 19:51:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS+4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KSo4KWAIOCkmuCljOCklQ==?= In-Reply-To: <6a32f8f0707030259x495aac58i764a46239a8a05b7@mail.gmail.com> References: <6a32f8f0707030259x495aac58i764a46239a8a05b7@mail.gmail.com> Message-ID: <292550dd0707030721w448ab247r6aa284ad28e3d56c@mail.gmail.com> ब्रजेश बाबु दमदार पाति लिखे हो भाई, बधाई स्‍वीकारोा भैया 'दीक्षितकालीन छौंक' काहे कह रहे हो) इसकी बुनियाद तो आदरणीय जगमोहनजी ने रखी थी, जो पहले भी इस तरह के कारनामों को अंजाम देते रहे हैंा याद कीिजए, इमरजेंसी के दौरान यही जनाब थे िजन्होंने िदल्ली तबाह की थीा क्या नहीं िकया थाा यही जनाब जब शहरी िवकास मंत्री बनकर आए तो िदल्ली कैसी होनी चािहए- इस बात पर जम कर बबाल मचाया ...... आैर भाई िवजय गोयल का नाम तो आपने सुना ही होगाा अरे वही िवजय जी जो कभी िदल्ली विश्विद़यालय छात्र संघ के नेता भी रहे थेा तो विजय बाबु ने भी कम ज्ोर नहीं लगाया चांदनी चौक का नक्‍शा बिगाड्ने मेंा क्‍या कहते हैं, पुरानी दिल्‍ली फ्ेस्टिवल भी शुरू किया भाई नेा पुरानी दिल्‍ली का 'पुरानापन' लौटाने के लिए कुछ कुर्सियां और बत्‍ती वगैरह भी लगवाए भाईजान नेा क्‍यों मुख खुलवा रहे हो ब्रजेश बाबुा सरकार, सत्‍ता, व्‍यवस्‍था, शासन, प्रशासन कोई नहीं चाहता है कि गरीब-मजलूम कमाए-खाए, जिन्‍दा रहे शान सेा तो अगर तुमने 'दीिक्ष्तकालीन छौंक' कहा भी तो जुल्‍म थोड्े ही कियाा चलो, लिखते रहो भाईा अच्‍छा लगता हैा आज तो और भी अच्‍छा लगा एके साथ दु गो पाति आया हमारे डाकखाने मेंा शुभकामनाओं सहित राकेश On 7/3/07, brajesh kumar jha < jha.brajeshkumar at gmail.com> wrote: > > *यह है मुगलकालीन बाजार पर दीक्षितकालीन छौंक-- * > > लालकिले से दो-तीन फर्लांग दूर एक मुगलकालीन इलाका है। नाम है-चांदनी चौक। > > पुरानी दिल्ली का यह तंग इलाका चंद पेचिदां गलियों से घिरा एक बड़ा बाजार है > , जिससे हम > > हिन्दुस्तानियों के रिश्ते बड़े रूहानी हैं। यूं तो सन् 1646 में जब मुगल > बादशाह शाहजहां अपनी > > राजधानी आगरा से दिल्ली ले आया तो चांदनी चौक का बसना हुआ। उस वक्त से यह > लगातार > > आबाद होता गया। और इसकी ख्याती विदेशों तक फैल गई। उस वक्त एक ख्याती प्राप्त > बाजार जैसा > > हो सकता था , संभवत: यह वैसा ही था। पूरा इलाका अपेक्षाकृत धनी और प्रभावशाली > व्यापारियों > > का ठिकाना था। कई प्रसिद्ध दुकानें थीं , जिसका वजूद आज भी है। उस वक्त आबादी > दो लाख से > > भी कम थी। आज नजारे बदल गए हैं। शहर फैल चुका है। आबादी पचास गुना से भी > ज्यादा है। > > बहुत मुमकिन है कि अब आप यहां बिना कंधे से कंधा टकराए एकाधा गज की दूरी भी > तय कर > > सकें। भूलभूलैया वाली कई छोटी-बड़ी गलियां जो दिक्कत पैदा करेंगी , सो अलग। > > खैर ! इसके बावजूद देश की जनता से चांदनी चौक के जो पुराने ताल्लुकात कायम > हुए थे वो अब > > भी बने हुए हैं। क्योंकि , इसका रंग खुद में ख़ालिस भी है और खुशनुमा भी। इस > बाजार में लगने वाली > > भीड़ के बारे में मत पूछिए ! यहां गाड़ी के बजाय पैदल दूरी तय करना आसान काम > है। मौका-बेमौका > > होने को बेताब नोंक –झोंक यहां की रोजमर्रा में शामिल है। शायद इसलिए, > बल्लीमारान में रहते हुए > > मिर्जा गालिब ने कभी कहा था कि, > > '' रोकलो, गर गलत चले कोई, > > बख़्श दो, गर खता करे कोई '' > > आज बल्लीमारा की ये गलियां बड़ी मशहूर हैं। नए उग आए बाजारों के मुकाबले > चांदनी चौक बाजार अपनी > > दयानतदारी पर बड़ी तारीफ बटोरता है। क्योंकि, नई आधुनिकता से लबरेज माहौल > में भी यह बाजार हमारी सारी जरूरतों को पूरा करते हुए खांटी देशीपन का आभास > कराता है। पश्चिम के तौर-तरीकों की नकल यहां मायने नहीं रखती है। वैसे भी यहां > के देशी ठाठ वाले जायकेदार व्यंजनों के क्या कहने हैं ! > > शायद इस वास्ते लोग अपने अनमनेपन के बावजूद यहां आते हैं। > > यह कहना उचित नहीं होगा कि यहां कोई बदलाव हुआ ही नहीं। समय और जरूरत के > हिसाब से यह बाजार अपनी शक्ल बदलता रहा है। पुरानी चीजें नए रूप में आती गई > हैं। लेकिन, पूरी आबादी को साथ > > लेकर। जीवन से जुड़े रोजगार को दाव पर रखकर शाहजहांनाबाद के हुक्मरानों ने > यहां कोई बदलाव नहीं > > किए थे। पर, आज हालात बदल रहे हैं। अब तो देश की गणतांत्रिक सरकार भी ऐसे > फैसले करने लगी है, > > जिससे लाखों लोगों का वजूद ही खतरे में पड़ जाता है। इस बाजार के आस-पास > रिक्शा, ठेला चलाने वाले > > मजदूर फिलहाल ऐसी ही कठिनाई से जूझ रहे है, किसी हो जाने वाले अंतिम फैसले के > इंतजार में। > > > > ब्रजेश झा > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ Ph: +91 9811972872 "SABSE KHATARNAK HOTA HAI HUMARE SAPNON KA MAR JANA" -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070703/d0f5e487/attachment.html From zaighamimam at gmail.com Thu Jul 5 14:44:52 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Thu, 5 Jul 2007 14:44:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= http://www.merirail.blogspot.com/ Message-ID: फोटो यात्रा http://www.merirail.blogspot.com/ साहेबान, पढा-पढा कर आपको बहुत उबा दिया। अब पेश है कुछ तस्‍वीरें जो मेरे शोध से जुडी हैं एक ब्‍लाग के जरिए आपके सामने पेश कर रहा हूं। ये भी बता दूं कि इस ब्‍लाग पर तस्‍वीरों के अलावा शोध से जुडी दूसरी तमाम बातों को भी जगह मिलेगी। अभी शुरुआत ढाई दर्जन तस्‍वीरों के साथ कर रहा हूं। ये तस्‍वीरें सफर के दौरान ली गईं है। तस्‍वीरें अच्‍छी खिचें इस बात पर ध्‍यान कम रहा कोशिश ये थी ज्‍यादा से ज्‍यादा चीजों को बटोर के आपके सामने पेश कर सकूं। आपकी खट्टी मीठी टिप्‍पणियों, सुझावों का इंतजार रहेगा। एक बार फ‍िर ढेर सारा शुक्रिया जैगम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070705/081a808f/attachment.html From rakesh at sarai.net Fri Jul 6 12:03:54 2007 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Fri, 06 Jul 2007 12:03:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?http=3A//www=2Emer?= =?utf-8?q?irail=2Eblogspot=2Ecom/?= In-Reply-To: References: Message-ID: <468DE252.2050707@sarai.net> प्रिय जैगम भाई आपकी हर पतरी का मुरीद हूं. अब आपने तस्‍वीरें भी भेजनी शुरू कर दी है. शुक्रिया आपका. अच्‍छा है यह दस्‍तावेजीकरण. भाईजान लगे हाथ शौचालयों की दीवारों पर सवारियों द्वारा उकेरे संदेशों और मनोभावों से भी हमें दो-चार करवा दें, बड़ी मेहरबानी होगी. एक छोटी-सी सलाह और. ये जो चने-मुंगफली से लेकर गरम-चाय और समोसा बेचने वाले होते हैं इन रेलों और स्‍टेशनों पर, उनकी साक्षात्‍कारनुमा तस्‍वीरें भी जानदार होंगी, ऐसा लगता है मुझे. शुभकामनाओं सहित zaigham imam wrot > > फोटो यात्रा > > http://www.merirail.blogspot.com/ > > साहेबान, > > पढा-पढा कर आपको बहुत उबा दिया। अब पेश है कुछ तस्‍वीरें जो मेरे शोध से जुडी हैं एक > ब्‍लाग के जरिए आपके सामने पेश कर रहा हूं। ये भी बता दूं कि इस ब्‍लाग पर तस्‍वीरों के > अलावा शोध से जुडी दूसरी तमाम बातों को भी जगह मिलेगी। अभी शुरुआत ढाई दर्जन > तस्‍वीरों के साथ कर रहा हूं। ये तस्‍वीरें सफर के दौरान ली गईं है। तस्‍वीरें अच्‍छी खिचें > इस बात पर ध्‍यान कम रहा कोशिश ये थी ज्‍यादा से ज्‍यादा चीजों को बटोर के आपके > सामने पेश कर सकूं। > > आपकी खट्टी मीठी टिप्‍पणियों, सुझावों का इंतजार रहेगा। > > एक बार फ‍िर ढेर सारा शुक्रिया > > जैगम > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -- Rakesh Kumar Singh Sarai-CSDS 29, Rajpur Road Delhi-110054 Ph: 91 11 23960040 Fax: 91 11 2394 3450 web site: www.sarai.net web blog: http://blog.sarai.net/users/rakesh From ravikant at sarai.net Sat Jul 7 12:21:26 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jul 2007 12:21:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= gulzar ki ek kavita Message-ID: <200707071221.26069.ravikant@sarai.net> गिरीन्द्र और ब्रजेश के लिए, इसलिए कि गिरीन्द्र अपने गाँव को ज़िन्दा रखे हुए हैं, और ब्रजेश बीच-बीच में गुलज़ार छोड़ते हैं. वैसे गुलज़ार वाला लेख मैंने कहीं पढ़ा है, याद नहीं आ रहा है, अंग्रेज़ी के फ़िल्मफ़ेयर में या कहाँ, कृपया स्रोत का ज़िक्र अवश्य करें. नीचे की कविता एक पुरानी साइट http://www.kaavyaalaya.org/ से है. कुछ अच्छी कविताएँ हैं यहाँ. रविकान्त ईंधन छोटे थे, माँ उपले थापा करती थी हम उपलों पर शक्लें गूँधा करते थे आँख लगाकर - कान बनाकर नाक सजाकर - पगड़ी वाला, टोपी वाला मेरा उपला - तेरा उपला - अपने-अपने जाने-पहचाने नामों से उपले थापा करते थे हँसता-खेलता सूरज रोज़ सवेरे आकर गोबर के उपलों पे खेला करता था रात को आँगन में जब चूल्हा जलता था हम सारे चूल्हा घेर के बैठे रहते थे किस उपले की बारी आयी किसका उपला राख हुआ वो पंडित था - इक मुन्ना था - इक दशरथ था - बरसों बाद - मैं श्मशान में बैठा सोच रहा हूँ आज की रात इस वक्त के जलते चूल्हे में इक दोस्त का उपला और गया! - गुलज़ार From ravikant at sarai.net Sat Jul 7 12:50:54 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jul 2007 12:50:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= kavita kosh as wiki Message-ID: <200707071250.54973.ravikant@sarai.net> http://hi.literature.wikia.com/wiki/कॉपीराइट कॉपीराइट संबंधी यह घोषणा काफ़ी दिलचस्प है. रविकान्त कविता कोश में कॉपीराइट के बारे में कविता कोश में संकलित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित रचनाकारों, प्रकाशकों अथवा अन्य वैध कॉपीराइट-धारकों के पास सुरक्षित हैं। यद्यपि इसकी संभावना बहुत ही कम है तथापि यह संभव है कि किसी रचनाकार या प्रकाशक को उनके द्वारा लिखी गई या प्रकाशित की गई किसी रचना के कविता कोश में होने पर आपत्ति हो। इसी से सम्बंधित कुछ बातें यहाँ नीचे दी जा रही हैं। विकिपीडिया की तरह, कविता कोश पूरी तरह से अव्यावसायिक जालस्थल है। कविता कोश विकि तकनीक पर आधारित एक जालस्थल है और विश्व भर से लोग इसके विकास में भाग लेते हैं। इस कोश के अस्तित्व और विकास के पीछे किसी का कोई भी आर्थिक हित नहीं है। कविता कोश के निर्माण के लि ये जालस्थल की सेवा उपलब्ध कराने वाली संस्था Wikia.com कोश के जालस्थल पर कुछ विज्ञापन दिखाती है और इस तरह यह संस्था इस सेवा को मुफ़्त उपलब्ध करा पाती है। कविता कोश का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी काव्य को इंटरनैट पर एक जगह प्रतिष्ठित करना है ताकि पूरा संसार इसका लाभ उठा सके। कविता कोश की स्थापना के पीछे एक ही आशा है कि कोश के अस्तित्व में आने से हिन्दी का व्य का प्रचार-प्रसार तेजी से पूरे विश्व में हो सकेगा। कविता कोश में संकलित सभी रचनाओं के साथ रचनाकारों का नाम दिया जाता है जिससे रचनाकार को उचित श्रेय मिलता है। इंटरनैट आज के युग में सूचना प्रसार का सबसे बड़ा, लोकप्रिय और सशक्त माध्यम है। वर्तमान युग में इंटरनैट पर किसी भी सूचना को फैलने से रोका नहीं जा सकता। बच्चन की मधुशाला इस समय सैकडों जालस्थलों पर उपलब्ध है। हिन्दी की हज़ारो काव्य रचनाएँ इंटरनैट पर जहाँ-तहाँ फैली पडी हैं। कवि ता कोश इन सभी रचनाओं को एक स्थान पर लाने का एक प्रयास मात्र है। रचनाकार स्वयं अपनी रचनाओं को कविता कोश में संकलित करना चाहते हैं; क्योंकि इससे रचनाकार का काव्य विश्वभर में पढा़ और सराहा जा सकता है। जब किसी आर्थिक लाभ को लेकर रचनाओं को संकलित या प्रयोग किया जाता है तभी रचनाकारों को आपत्ति होती है। लेकिन कविता कोश की पूर्णतया अव्यावसायिक प्रकृति को देखते हुए रचनाकार (और कॉपीराइट-धारक) इंटरनैट पर कविता कोश जैसे संकलन से केवल प्रसन्न ही हैं। कविता कोश के प्रशंसको में हिन्दी के बहुत से प्रख्यात रचनाकार भी शा मिल हैं। और बहुत से रचनाकार जो अभी कोश में संकलित नहीं हैं -वे भी अपनी रचनाओं को कोश में संकलित करने के इच्छुक हैं। देखा गया है कि प्रिंट माध्यम के पाठक और इंटरनैट के पाठक अलग-अलग होते हैं। जो लोग पुस्तक खरी दकर पढ़ने में रुचि रखते हैं -उन्हें इंटरनैट पर उपलब्ध मूल्यरहित सामग्री भी अच्छी नहीं लगती और वे पुस्तक खरीदकर ही पढ़ते हैं। साथ ही लोग पुस्तकें इस लिये भी खरीदते हैं क्योंकि पुस्तकों का संकलन किया जा सकता है और जब चाहे उसे पढ़ा जा सकता है। इसलिये कविता कोश, किसी भी रचनाकार या प्रकाशक को किसी भी तरह की आर्थिक हानि नहीं पहुँचाता। इसके विपरीत कविता कोश रचनाकार की रचनाओं को वहाँ तक भी पहुँचाता है जहाँ उनकी प्रिंट पुस्तक नहीं पँहुच पाती। इससे रचनाकार के पाठक-समूह में वृद्धि होती है। कविता कोश में कुछ पुस्तकों के प्रकाशकों के नाम भी दिये जाते हैं -इससे उन लोगों को प्रकाशक से सम्पर्क करने में सुविधा होती है जो पुस्तक को खरीदना चा हते हैं। इस प्रकार कविता कोश रचनाकार, प्रकाशक और पाठक; सभी के लिये लाभकर है। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि कविता कोश हिन्दी और हिन्दी काव्य को विश्व भर में प्रसारित करने का एक सशक्त मा ध्यम है। फिर भी यदि किसी रचनाकार / कॉपीराइट-धारक को कोई आपत्ति है तो उनसे अनुरोध कि वह हिन्दी काव्य के प्रचार-प्रसार को ध्यान में रखते हुए, कविता कोश के योगदानकर्ताओं से अनजाने में हुई भूल को क्षमा कर दें। यदि कॉपीराइट-धारक को कोई आपत्ति है तो कृपया kavitakosh at gmail.com पर सूचित कर दें। जिन रचनाओं के कविता कोश में होने पर उनके कॉपीरा इट-धारक आपत्ति प्रकट करेंगे; उन्हें कविता कोश से हटा दिया जाएगा। From ravikant at sarai.net Sat Jul 7 14:18:58 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jul 2007 14:18:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ghazal Message-ID: <200707071418.58454.ravikant@sarai.net> मुझे नहीं पता था कि आचार्य ने ग़ज़लें भी कही हैँ! बहरहाल एक तो है ही यहाँ. बहुत बड़ा ख़ज़ाना है साहब और शास्त्रीयता के प्रदत्त मानदंडों से नितांत परे. रविकान्त http://hi.literature.wikia.com/wiki/ग़म_न_हो_पास_/_जानकीबल्लभ_शास्त्री ग़म न हो पास इसी से उदास मेरा मन । साँस चलती है, चिहुँक चेतता नहीं है तन ।। नींद ऐसी न किसी और को आई होगी, जाग कर ढूँढती धरती कहाँ है मेरा गगन । मौसमी गुल हो निछावर, बहार तुम पर ही, क़ाबिले दीद ख़िजाँ में खिला है मेरा चमन । भूलकर कूल ग़र्क़ कश्तियाँ हुईं कितनी, लौट मझधार से आया चिरायु ख़ुद मरण । बुलबुलों ने दिया दुहरा कलाम ग़ंचों का, गंध बर मौन रहा आह! एक मेरा सुमन । From ravikant at sarai.net Sat Jul 7 17:14:23 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Jul 2007 17:14:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KWH4KSsLQ==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSh4KS/4KSv4KS+IOCkleCkviDgpK3gpLXgpL/gpLfgpY3gpK8=?= Message-ID: <200707071714.23942.ravikant@sarai.net> एक उपयोगी परिचर्चा: मीडिया विमर्श नामक वेब/पत्रिका से साभार. पूरी परिचर्चा के लिए इस कड़ी पर जाएँ. रविकान्त http://www.mediavimarsh.com/jun-aug07/paricharcha-anyanya-shaileshbhartiya.htm वेब-मीडिया का भविष्य -------------------------- शैलेष भारतवासी आज से १० वर्ष पहले सम्भवतः किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि इंटरनेट पर हिन्दी भी लिखी-पढ़ी जा सकेगी। हाँ, भारत सरकार के विज्ञापन और निविदाएँ स्कैनित रूप में अवश्य अपलोड की जाती रही थीं जिसमें भाषायी बंधन नहीं था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उस समय के अंतरजाल की दुनिया अंग्रेज़ी की गुलाम थी। यद्यपि अब भी अप्रत्यक्ष रूप से तकनीकी जगत् इस भाषा का दास ही है। हिन्दी फ़ॉन्टों की खोज ने अंतरजाल पर देशी वेबसाइटों के दरवाजे खोल दिए। १००-२०० लोगों तक इक्की-दुक्की हिन्दी साइटें पहुँचती रहीं। तब तक शायद ये प्रवासियों तक ही सीमित थीं। फ़ोन की तरह इंटरनेट भी मध्यमवर्गीय परिवारों की पहुँच से दूर था। सूचना क्रांति हुयी। इंटरनेट के व कस्बों तक पसरने लगे। या यूँ कहिए, हिन्दी के असली प्रयोक्ताओं तक इंटरनेट भी पहुँचने लगा। कुछ हद तक अंग्रेज़ी का अल्प ज्ञान और कुछ हद तक निजभाषा प्रेम देवनागरी टंकण-टूलों के निर्माण के हेतु बने। कालान्तर में यूनिकोड नाम का महाशस्त्र आ गया। बीबीसी रेडियो अपना वेबसाइट लेकर आ चुका था जोकि यूनिकोड की मदद से तैयार किया गया था। रेडियो के माध्यम से www.bbchindi.com का प्रचार-प्रसार हुआ। देश-विदेश के हिन्दी प्रेमी यहाँ तक पहुँचने लगे । साथ-साथ हिन्दी-ब्लॉगिंग (हिन्दी-चिट्ठाकारी) का भी विकास हो रहा था। यूरोपीय भाषायी ब्लॉगरों की भाँति हिन्दी में भी स्वतंत्र पत्रकारों का जन्म होने लगा। देवनागरी तथा अन्य भारतीय लिपियों के टाइपिंग टूलों में निरंतर विकास होता रहा। देखते-देखते देश के प्रतिष्ठित समाचर पत्र भी इस क्षेत्र में कूद पड़े। दैनि क जागरण www.jagran.com हो गई। हर समाचार पत्र, साहित्यिक एवम् गैरसाहित्यिक पत्रिकाएँ और टीवी समाचार चैनलों के अपने-अपने वेबसाइटें हो गईं। अब पाठकों को यह समझ में आ गया होगा कि मीडिया का पूरे बाज़ार की नज़र हिन्दी वेब-पत्रकारिता पर है। एक अध्ययन के मुताबिक यूरोप के लोग सही ख़बरों के लिए समाचार-चैनलों और समाचार-पत्रों पर कम विश्वास करते हैं, ब्लॉगरों पर अधिक भरोसा करते हैं। इंटरनेट ने स्वतंत्र पत्रकारिता को बल दिया है। हालाँकि भारतवर्ष में अभी हिन्दी वेब-पत्रकारिता अपने शैशवकाल में है पर शिशु जवान तो होगा ही! यदि उसको सही देखभाल और उचित पोषण मिला तो युवावस्था जल्दी भी आ सकती है। परन्तु क्या है सही देखभाल और उचित पोषण? कौन-कौन सी घातक बीमारियाँ हमारे इस शिशु का अहित कर सकती हैं? इसके लिए हमें शिशु की उत्पत्ति, वर्तमान और उसके भविष्य पर विचार करना होगा। अतः हमने इस परिचर्चा के माध्यम से हिन्दी वेब-पत्रकारिता से जुड़े तमाम धुरंधरों से इस संदर्भ में चर्चा की है। हिन्दी वेब-पत्रकारिता की सही दशा और दिशा जानने की कोशिश की है। हमने अंतरजाल पर सक्रिय कुछ हिन्दी-प्रयोक्ताओं से निम्नांकित बिंदुओं पर उनकी स्वतंत्र प्रतिक्रियाएँ माँगी थी- हिंदी वेब-पत्रकारिता की भारत में स्थिति, विश्व में स्थिति, दिशा, तकनीक की उपलब्धता, इंटरनेट की देश में स्थिति, लोगों का रूझान, प्रिंट मीडिया के मुकाबले उनकी लोकप्रियता, वेबमीडिया की पहुँच(पहुँच कहाँ कहाँ तक ), वेबपत्रकारिता का आम आदमी से सम्बन्ध, हिन्दी साहित्य और वेब-पत्रकारिता हमें ढेरों ईपत्र मिले जिसमें कुछ को हम अक्षरशः प्रकाशित कर रहे हैं। परिचर्चा संयोजक- शैलेश भारतवासी, नई दिल्ली From ravikant at sarai.net Tue Jul 10 12:28:06 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 10 Jul 2007 12:28:06 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSk4KWN4KSu?= =?utf-8?b?4KWA4KSv4KSk4KS+IOCkleClhyDgpIfgpLDgpY3gpKYt4KSX4KS/4KSw4KWN?= =?utf-8?b?4KSmIOCkheCkr+Cli+Ckp+CljeCkr+Ckvg==?= Message-ID: <200707101228.06241.ravikant@sarai.net> नीचे वर्तमान सत्र के शोधार्थी यतीन्द्र मिश्र की पोस्टिंग है, जिसे चंदन जी ने मामूली डाक से प्राप्त कर टंकित किया है. यतीन्द्र की योजना है कि वे शोधकार्य को पुस्तकाकार में छापेंगे. दीवान के पाठकों की टिप्पणियाँ आमंत्रित हैं, इस उम्मीद के साथ भी कि यतीन्द्र के अयोध्या में तब तक ब्रॉडबैंड आ जाएगा, और वे ख़ुद अपनी पोस्टिंग कर पाएँगे. रविकान्त सराय-सीएसडीएस स्वतंत्र शोधवृत्ति 2006-07 (शहरी जीवन के अनतर्गत ‘अयोध्या’ पर अध्ययन के लिए पिछले तीन महीनों, अप्रैल-जून की रिपोर्ट) यतीन्द्र मिश्र आत्मीयता के इर्द-गिर्द अयोध्या पिछले तीन महीनों में (अप्रैल-जून, 2007) अयोध्या के आम जीवन, समाज और संस्कृति का आन्तरिक व आत्मीय अध्ययन करने पर एक बात जो सबसे प्रमुखता से सामने आती है, वह यह है कि यह शहर अपना विशद धार्मिक रखने के बावजूद मिथक और इतिहास की सन्धि पर खड़ा नज़र आता है। कालिदास की उज्जयिनी, बुद्ध की कपिलवस्तु, वासवदत्ता की मथुरा और अशोक के पाटलिपुत्र की तरह मिथकीय सन्दर्भों में राजा मनु द्वारा निर्मित और विक्रमादित्य द्वारा दूसरी बार बसाया गया यह शहर इतिहास और वर्तमान, परम्परा और फंतासी, आमजन और श्रद्धालुओं के बीच ढ़ेरों सवालों से रूबरू होने का दिलचस्प मौका मुहैया कराता है। यह एक ऐसा शहर है, जिसे हम छीज रही परम्पराओं को किसी हद तक, थोड़ा बहुत बचा लेने के श्रम में लगे प्रतीक नगर के रूप में पढ़ सकते हैं। उस निहायत गैर पारम्परिक और आधुनिक शहर के उदाहरण के तौर पर, हमारे यहाँ भारत में जिस तरह मगध, वाराणसी, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, उज्जैन, गुण्टूर, मदुरै और श्रीरंगपट्टम या विदेशों में प्राहा, रोम, बगदाद, लन्दन, प्राग और पेरिस को देखने, पढ़ने और समझने का जतन किया जाता रहा है। इस शोध-वृत्ति के दौरान, अयोध्या को बहुत करीब से देखने के प्रयास में, ढ़ेरों स्थानों, मठ-मन्दिरों, हवेलियों और ड्योढ़ियों, विभिन्न रियासतों द्वारा बनवाये गए सरायों-मन्दिरों एवं व्यक्तियों व मुर्धन्यों से पिछले तीन महीने में मिलना और जानना सम्भव हुआ है। इस परियोजना के विस्तार को समझने के लिए, इनमें से कुछ का नामोल्लेख करना यहाँ प्रासंगिक है। एक संक्षिप्त सूची क्रमवार अंकित है- (1) रामानुज सम्प्रदाय (श्री वैष्णव) के प्रमुख स्थानः यज्ञवेदी, विजय राघव मन्दिर, अशर्फी भवन, उत्तर तोताद्रिमठ, बैकुण्ठ मण्डप, दर्भशयन भगवान का दिव्य देश, बैकुण्ठनाथ मन्दिर, कौशलेश सदन, नेपाली मन्दिर एवं दन्तधावन कुण्ड का मन्दि र। (2) रामानन्द सम्प्रदाय के प्रमुख स्थानः श्रीराम गुलेला, बड़ा स्थान अथवा बड़ी जगह, रत्न सिंहासन, श्री मणिरामदास जी की छावनी एवं हनुमानगढ़ी, बड़ी छावनी, तपस्वी जी की छावनी। (3) अन्य प्राचीन एवं प्रमुख स्थानः उदासीन आश्रम रानोपाली, श्रावणकुंज, त्रेता के ठाकुर, विदेहजा दूल्हा निकुंज, मत्तगजेन्दर, शेषावतार मन्दिर, सहस्त्रधारा, गोप्रतार घाट। (4) कुछ विशिष्ट स्थानः गोलाघाट के बाग में मुस्लिम फकीर शाह कलन्दर की गुफा, अनन्य राम भक्त मुस्लिम साधि का बड़ी बुआ की दरगाह, बाल विधवाओं और सन्यासिनों का राम घाट स्थित आश्रय, सिया सुहाग बा ग जो प्रचलित अर्थों में माईबाड़ा कहलाता है, प्रख्यात पखावजी स्वामी रामशंकर दास ‘पागलदास’ का घर ‘जय मृदंग’, प्रमुख सन्त बाबा राममंगल दास का स्थान गोकुल भवन एवं महर्षि अरविन्द का आश्रम श्री अरवि न्द साधनालय आदि। कुल दुर्लभ, दिलचस्प, इतिहासपरक और महत्त्वपूर्ण तथ्य भी इस काम को करने के क्रम में हाथ आये हैं, उनमें से कुछ का उल्लेख नीचे दिया जा रहा है, यह बताने के लिए कि अयोध्या किस तरह अपनी संस्कृति को रचती रही है, किस तरह उसने अपनी स्वायत्तता अर्जित की है और किन अर्थों में वह वा ल्मीकि, महाकवि कालिदास, तुलसीदास, स्वामी युगलानन्यशरण, बनादास, शाहकलन्दर और पागलदास जैसे दिग्गज साधकों, कवियों सूफ़ियों और कलाकारों की प्रतिभा की साक्षी रही है। (1)ज़्यादातर मठ-मन्दिरों में रसिक भक्ति की परम्परा रही है, जो कृष्ण की मधुरोपासना के प्रमुख केन्द्रों (मथुरा, वृन्दावन एवं द्वारिका) एवं दक्षिण में श्रृंगार भक्ति के प्रमुख केन्दों (वृहदीश्वर शि व मन्दिर, तन्जौर मन्दिर, मीनाक्षी मन्दिर एवं चेन्नई के कापालीश्वर शिव मन्दिर) से मिलती जुलती है। (2)राम की आदि नगरी की मान्यता के बावजूद ज़्यादातर मठ-मन्दिरों में सीता की पूजा और उनकी अनन्यता का इतिहास मौजूद है। सीता की अष्टसखियों द्वारा अपने राम के श्रृंगार की मिथकीय कथाएँ प्रचलित हैं। लक्ष्मण किला में सीता की मूर्ति स्थापना के लिए उन्हें वधू रूप में सौ वर्ष पूर्व डोली में बिठाकर मिथिला से गरिमापूर्ण ढंग से लाया गया है, जिस तरह आज भी कोई बहू अपना पीहर छोड़कर ससुराल अपने पति के घर रहने आती है। कनक भवन, विअहुति भवन, लक्ष्मणकिला एवं जानकीघाट के मन्दिर इस परम्परा के सबसे सशक्त उदाहरण हैं। (3)हज़ार वर्ष पूर्व की मान्यता में स्थापित श्रावण कुंज मन्दिर में इस बात का प्रणाण मिलता है कि यहाँ रामचरित मानस के बालकाण्ड की सबसे प्राचीन हस्तलिखित पाण्डुलिपि मौजूद थी, जो पिछले तीस वर्ष पूर्व चोरी हो गयी। यह कृति सम्वत् 1661 की लिखी है तथा इसका उल्लेख गीता प्रेस द्वारा छपे रामचरितमानस के लगभग सारे संस्करणों में सबसे प्राचीनतम पाण्डुलिपि के रूप में होता रहा है। इससे सम्बन्धित सारे तथ्यों, मुकदमों और तत्कालीन अयोध्या समाज द्वारा की गयी प्रतिक्रियाओं का वर्णन शोध-वृत्ति की समाप्ति पर पुस्तक में दिया जाएगा। (4)लक्ष्मणकिला में एक कक्ष चिन्हित हुआ है, जहाँ स्वामी विवेकानन्द पधारे थे और उन्होंने कुछ दिनों तक सत्संग किया था। इसी तरह सरयूबाग स्थित संस्कृत पाठशाला में दयानन्द सरस्वती कई बार आए थे एवं विक्रमादित्यकालीन प्राचीनतम मन्दिर श्री कालेराम मन्दिर में उत्तर भारतीय शास्त्रीय संगीत के सशक्त हस्ताक्षर पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर जी ने कई बार विभिन्न उत्सवों पर शास्त्रीय गायन किया था। (5)अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्रों में कई स्थल ऐसे हैं, जो समन्वय की मिसाल प्रस्तुत करते हैं। इनमें प्रमुख रूप से जियनपुर स्थित कबीर मठ. फैजाबाद बाईपास के पास साईंदाता सम्प्रदाय का आश्रम एवं भरत की कर्मस्थली नन्दीग्राम प्रमुख हैं। (6)लगभग सौ वर्ष पूर्व (सम्वत् 1959 विक्रमी में) अयोध्या के प्राचीनतम स्थलों को रेखांकित करने के लिए तत्कालीन न्यायाधीश एडवर्ड, बड़ा स्थान के महान्त स्वर्गीय श्री राममनोहर प्रसादाचार्य एवं तत्कालीन अयोध्या नरेश प्रताप नारायण सिंह ‘ददुआ महाराज’ के नेतृत्व में एक कमेटी गठित हुई थी, जिसने उस वक्त प्राचीन एवं पौराणिक 148 स्थानों की सूची तैयार की थी और उसे उन स्थानों पर पत्थरों में अंकित करके लगवा दिया था। यह सभा ‘अयोध्या तीर्थ विवेचनी सभा’ कहलाती है। पूरी सूची इस शोधवृत्ति के दौरान ढूँढ़ ली गई है, जिसमें से अधिकांश स्थान आज लगभग लुप्तप्राय हो गए हैं, साथ ही उनमें से अधिकांश स्थानों को इंगित करने वाले पत्थरकी अयोध्या और उसके आस-पास के क्षेत्रों में नहीं रहे। मगर ऐतिहासिक कालक्रम की अवधारणा के फलस्वरूप यह सूची अपने पूरे विस्तृत ब्यौरे के साथ पुस्तक में इस कारण दे दी जाएगी कि हम जान सकें पौराणिकता के मानक पर अयोध्या का अस्तित्व आज किताना बदल चुका है। (7)अयोध्या के मठ-मन्दिरों, विभिन्न रियासतों के आश्रित स्थानों एवं साधुओं की तपस्थलियों में संगीत की परम्परा ढूँढ़ने पर एक दुर्लभ तथ्य सामने आया है कि यहाँ पूजन के दौरान नृत्य की जो व्यवस्था थी, उसमें ‘खड़ी महफिल’ लगभग सभी जगहों पर आयोजित होती थी। भारतीय शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में आज ‘खड़ी’ एवं ‘बैठकी’ महफिल का ऐतिहासिक महत्त्व माना जाता है। इसी तरह ‘रामधुन’ की परम्परा यहाँ अति प्राचीन है, जिसे यहाँ के अधिकांश बुर्जुग साधु-सन्तों ने यह कहकर परिभाषित किया है कि ‘रामधुन लय में भक्ति का शोर है।’ (8)जानकी घाट के संस्थापक श्री करुणासिन्धु जी ने रामचरितमानस की हिन्दी में पहला टीका लिखी थी। (9)रामघाट स्थित बाल विधवाओं एवं सन्यासिनों के आश्रम स्थल सिया सुहाग बाग, जो माईबाड़ा भी कहलाता है, वहाँ जाने पर पता लगता है कि यह स्त्रियाँ किस तरह अपना निर्वासित जीवन जी रही हैं। उनमें से कुछ साध्वियाँ इतनी छोटी हैं कि प्रारम्भिक पाठशाला में पढ़ती हैं। एक लड़की शा रदादासी, जिसका घर का नाम शुचिता है इण्टर में पढ़ती है। यदि हम थोड़ी देर के लिए दीपा मेहता की फ़िल्म ‘वाटर’ के कुछ अंशों को सजीव रूप से प्रत्यक्षतः देखना चाहें, तो हमें माईबाड़ा आना ही पड़ेगा। (10)संगीत की परम्परा में एक अद्भुत बात यह भी पता लगी है कि विभिन्न रियासतों के मन्दिरों में बाहर से भी गायकों की टोली आती थी, कुछ नर्तकियाँ इन अवसरों पर वहाँ देखी जा सकती थीं और सखी सम्प्रदाय के मन्दिरों में विशेष उत्सव होते थे। कुछ प्राचीन साक्ष्य इस बात के भी मिले हैं कि पूर्णतया कृष्ण को अर्पित हवेली संगीत का माहौल कुछ स्थानों पर अयोध्या में भी रहा है तथा रेहुआ रियासत के मन्दिर में तो स्वयं उनकी महारानी ही नृत्य करती थीं। उन्होंने अपने जीवन के 75 वर्षों तक मन्दिर में नृत्य सेवा अर्पित करते हुए गुजारे थे। एक दुर्लभ तथ्य यह भी है कि मुगल दरबारों का प्रमुख गायन मुबारकबादी यहाँ कनक भवन और अमावाँ राज के मन्दिर में प्रचलित था। (11)मन्दिरों से उपजी हुई कथिकों की परम्परा एवं मानस गायन यहाँ की विशेषता रहे हैं। बलदेव कथि क, कल्लू कथिक एवं ओंकार कथिक की इस परम्परा को आगे बढ़ाने की चर्चा से यह बात स्पष्ट होगी कि किस तरह छोटे-छोटे धार्मिक शहरों ने कला की दुनिया पर अपनी अमिट छाप छोड़ी है। साथ ही दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से आज बिल्कुल विलुप्त हो गयी रामलीला की प्राचीन परम्परा पर भी प्रकाश डाला जाएगा। (12)स्थानीय विधायक श्री लल्लू सिंह से बातचीत के आधार पर इस बात की पड़ताल करना आसान होगा कि रामजन्मभूमि एवं बाबरी मस्ज़िद प्रकरण में क्यों विश्व हिन्दू परिषद और उनके अनुषंग संस्थान अयोध्या को प्रभावित नहीं कर पाए हैं। (13) सामान्य जनता, विशिष्ट लोगों, कलाकारों एवं मन्दिर अर्चकों से व्यापक बातचीत के दौरान उन ढ़ेरों लोगों की भूमिका का भी संक्षिप्त विश्लेषण पुस्तक में स्थआन पाएगा, जो इस बात की नुमा इन्दगी करेगा कि अयोध्या ने साहित्य, कला, संस्कृति, अध्यात्म और मत सम्प्रदाय के नाम पर कितने महापुरुषों को पैदा किया है। (14)कुछ बेहद चौंकाने वाले और तथ्यपूर्ण संवाद हमें हासिल हुए हैं, जो अयोध्या का वर्तमान चेहरा प्रतिबिम्बित करते हैं। जैसे कि पूर्व में दिवंगत हुए प्रमुख सन्त साधक स्वामी राममंगल दास जी का यह कथन कि ‘साठ हज़ार लोगों में साठ साधु भी नहीं हैं।’ या सुग्रीव किला के प्रवर्तक श्री पुरुषो त्माचार्य जी का यह कथन ‘यहाँ के साधुओं में लंगोटी पहनने की परम्परा ही जब ख़त्म हो गयी है, तब वह पवित्रता कहाँ से आएगी?’ और माईबाड़ा की देख-रेख करने वाली रामजानकी दासी का यह कहना ‘हमने सिर पर कभी केश नहीं रखा, मगर नये जमाने की ये दासियाँ बड़ी मॉडर्न हैं, यह बाल नहीं कटाना चाहतीं। उन्हें अभी भी अपने रूप का आकर्षण है। ऐसे में राम कहाँ से मिलेगा?’ (15)इसी तरह के सैकड़ों ऐसे तथ्य, इतिहासपरक सामग्री और आध्यात्मिक कथाएँ अयोध्या अध्ययन के दौ रान प्राप्त हुई हैं, जिनकी प्रासंगिकता और महत्ता के आधार पर उल्लेख किया जाएगा। आगामी जुला ई माह के अन्त तक का समय अन्य स्थलों पर भ्रमण, लोगों से बातचीत, एवं साक्ष्य आदि जुटाने में व्यतीत होंगे। इसके उपरान्त दो माह का समय (अगस्त-सितम्बर 2007) पुस्तक को लिखने में इस्तेमाल करने की योजना है। अन्त में, अक्टूबर माह में यह कोशिश रहेगी कि पूरी पुस्तक संयोजित करके सराय संस्था को समुचित साक्ष्यों, प्रमाणों एवं किंवदन्तियों के लेखा-जोखा के साथ सौंप दी जाए। धन्यवाद सहित। (यतीन्द्र मिश्र) दिनांकः 05.07.2007 राजसदन, अयोध्या मो. 9415047710 From ravikant at sarai.net Tue Jul 10 15:10:49 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 10 Jul 2007 15:10:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksDog4KSy4KSY4KWBIOCkuOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= Message-ID: <200707101510.49189.ravikant@sarai.net> संडे नभाटा: 8 जुलाई 2007, नई दिल्ली. पृष्ठ 12 से अविकल नक़लित. बहुरूपिया शहर सं: श्वेता सारदा राजकमल प्रकाशन, मूल्य - 175 रु. इसमें दैनंदिन जीवन के ताप में पकी अनुभूतियों का बयान है. नौजवानों के अपने जीवन के अनुभव हैं जो अंकुर और सराय जैसी संस्था के प्रयासों से संयोजित-पल्लवित और प्रकाशित हुए. दिल्ली की कुछ श्रमिक वर्गीय बस्तियों में रहनेवाले नौजवान अपने समय के सच को किस तरह झेलते हैं, इसका काफी कुछ अंदाजा उनके लेखन से चलता है. इन्होंने कहीं कहानी शैली में तो कहीं डायरी की तरह अपनी बात रखी है. उनमें अभिव्यक्त होने की एक ललक दिखती है. कहीं-कहीं तो उनकी सूक्ष्म दृष्टि और अपने परिवेश को चित्रित करने का उनका कौशल अचंभित करता है. ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहन देने की जरूरत है. From shveta at sarai.net Mon Jul 9 18:33:38 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Mon, 09 Jul 2007 18:33:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksDog4KSy4KSY4KWBIOCkuOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= In-Reply-To: <200707101510.49189.ravikant@sarai.net> References: <200707101510.49189.ravikant@sarai.net> Message-ID: <4692322A.10903@sarai.net> > संडे नभाटा: 8 जुलाई 2007, नई दिल्ली. पृष्ठ 12 से अविकल नक़लित. > > बहुरूपिया शहर > ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहन देने की > जरूरत है. > > प्रोत्साहन दें तो कैसे? थोड़ा कोई बताए! From ravikant at sarai.net Tue Jul 10 18:42:12 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 10 Jul 2007 18:42:12 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS54KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksDog4KSy4KSY4KWBIOCkuOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= In-Reply-To: <4692322A.10903@sarai.net> References: <200707101510.49189.ravikant@sarai.net> <4692322A.10903@sarai.net> Message-ID: <200707101842.12326.ravikant@sarai.net> श्वेता, ये प्रोत्साहन देने का आग्रह मेरे ख़याल से एक अनाम पब्लिक से है! मुझे वह पंक्ति थोड़ी पेट्रोनाइज़िंग लगी. रविकान्त सोमवार 09 जुलाई 2007 18:33 को, Shveta ने लिखा था: > > संडे नभाटा: 8 जुलाई 2007, नई दिल्ली. पृष्ठ 12 से अविकल नक़लित. > > > > बहुरूपिया शहर > > ऐसे प्रयासों को प्रोत्साहन देने की > > जरूरत है. > > प्रोत्साहन दें तो कैसे? थोड़ा कोई बताए! > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From gora at sarai.net Tue Jul 10 00:43:14 2007 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Tue, 10 Jul 2007 00:43:14 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= The last of the Urdu hand-lettered newspapers Message-ID: <1184008394.9233.3.camel@anubis> Hello, शायद लोगों को पसंद आए: http://www.wired.com/culture/lifestyle/news/2007/07/last_calligraphers We should try to get hold of copies of this newspaper. Regards, Gora From ravikant at sarai.net Wed Jul 11 16:53:22 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 11 Jul 2007 16:53:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS8?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkreCkvuCktSDgpLDgpL/gpKrgpYvgpLDgpY3gpJ/gpL/gpII=?= =?utf-8?b?4KSXOiDgpJrgpYzgpKXgpYAg4KSq4KWL4KS44KWN4KSf?= Message-ID: <200707111653.22946.ravikant@sarai.net>  आलोक पुराणिक की  चौथी पोस्ट- 1958-1967 की अवधि उर्फ युद्धों के मारे बाजार 1958-1967 की अवधि में भारत ने दो युद्धों  का सामना किया, 1962 में चीन के साथ और 1965 में पाकिस्तान के साथ। इस अवधि की बाजार रिपोर्टिंग में इन युद्धों की छाप साफ दिखायी देती है। सामान्य बाजार रिपोर्टिंग के साथ-साथ युद्ध के असर को भी बाजार रिपोर्टिंग ने इंगित किया।       दृढ़ धातुएं और लोहेतर.........       धातुएं दृढ़ होती थीं और मेवा और लोहेतर धातुओं में तेजी के दौर देखे जाते थे। शेयर बाजार सुधरकर भी नरम होता था और सराफे में अन्त तक नरमी होती थी। देखें -   हिन्दुस्तान , सोमवार ता. 22 दिसम्बर, 1958, पेज नंबर 7       दो कालम की रिपोर्ट दिल्ली बाजार, कपास वायदे में तेजी, सरसों तथा तेलों के भाव नीचे मांग अधिक होने से मेवाओं के भाव बढ़े-धातुएं दृढ़ (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली 21 दिसम्बर। आलोच्य सप्ताह में अधिकांश स्थानीय मंडियों जैसे गल्ला, तिलहन और चीनी में मिलाजुला रुख रहा, लेकिन तेल मूंगफली, सरसों, वायदों तथा तेल में मुलायमी की धारणा थी। जिन्स  वायदों में गुड़ वायदों में अनियमित घटाबढ़ी चली, जबकि कपास वायदे के भाव एक नए उच्च स्तर पर पहुंच गए। अन्य बाजारों में मेवा तथा लोहेतर धातुओं में तेजी का दौर था, जबकि शेयर बाजार में बाद में सुधार के बावजूद नरमी थी। सराफे में अन्त तक नरमी रही। कारोबार प्राय सभी मंडियों में कम हुआ। गल्ले दड़ा गेहूं की सप्लाई अच्छी थी। उठाव कम होने से उसमें थोड़ी मुलायमी थी। फार्म गेहूं की आमद के अनुसार खपत होने से उसके भाव स्थिर थे, मगर शनिवार कोभाव 50 नए पैसे प्रति मन बढ़ कर रु. 20 प्रति मन हो गए। गरडा चने का स्टाक अच्छा था। मांग कम और आमद अच्छी होने से उसमें 25 नए पैसों की नरमी आई, जबकि पीले चने के भाव रु. 19.50 पर रहे। जौ की आमद की अपेक्षा उठाव कम होने से उसमें 50 नए पैसों की गरमी आकर अन्त में भाव रु. 15.50 पर रहे। चावलों में घटिया माल का स्टाक अच्छा था। उठाव कम होने से उसमें थोड़ी नरमी थी। ................ नरमी के मुकाबले जब गरमी आती थी, तो इसका आशय होता था कि भाव ऊपर जा रहे हैं। गरमी और तेजी लगभग पर्यायवाची शब्द के तौर पर प्रयुक्त होते रहे हैं। इसी तरह नरमी और मुलायमी का आशय यह है कि भाव बढ़ने की प्रवृत्ति नहीं दिखा रहे थे, बल्कि गिरने की प्रवृत्ति दिखा रहे थे। रौनक को कांग्रेसी धक्का शेयर बाजार तब परेशान हो जाता था, जब निजी क्षेत्र के मुनाफे पर किसी तरह की सीमा लगाने की बात कही जाती थी। ये वह दौर था, जब सार्वजनिक क्षेत्र, समाजवाद के मसले कांग्रेस में जबरदस्त चर्चा के विषय थे। इस चर्चा का असर शेयर बाजार पर खासा पड़ता था। देखें- हिन्दुस्तान, शुक्रवार 2 जनवरी, 1959 पेज नंबर सात, दो कालम बम्बई शेयर (वार्षिक समीक्षा) प्रारम्भिक रौनक के बाद 1958 के अंत में निराशा बम्बई, 1 जनवरी। 1957 की तुलना में 1958 का वर्ष शेयर बाजार के लिए काफी उत्साह का वर्ष रहा और लगभग सभी शेयरों में चहुंमुखी सुधार हुआ। बाजार में पुन विश्वास की भावना आ जाने से कारोबार में भी वृद्धि हुई और वर्ष के अधिक हिस्से में भावों में ऊंचे की भावना रही, किन्तु वर्ष के अन्त में शेयर बाजार की भावना को गहरा धक्का लगा और भाव गिर गए। इसका मुख्य कारण कांग्रेस कार्य समिति का वह प्रस्ताव था जिसमें निजी क्षेत्र लाभ पर सीमा लगाने की बात कही थी। इस प्रस्ताव का असर यह हुआ कि शेयरों का काफी लाभ खत्म हो गया और वे वर्ष के उच्चतम भावों से काफी नीचे बन्द हुए। वर्ष के प्रारम्भ से ही शेयर बाजार में ऊंचे की भावना आ गई। यह भावना अनेक अनुकूल कारणों से आई जिनमें स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर टाटा आयरन एण्ड स्टीलकम्पनी लिमिटेड द्वारा बोनस शेयर जारी करने की सम्भावना थी।  इस्पात के सीमातीत उत्पाद की सम्भावना, कपड़े की मांग बढ़ जाने की आशा और केन्द्रीय बजट में कुछ राहत मिलने के उम्मीद भी इसका कारण थे। बाद में टिस्को के संचालकों ने प्रति पांच शेयरों पर एक बोनस शेयर की घोषणा भी कर दी,  जिस पर उन्हे सरकार की अनुमति मिल गई। अमरीका से भारत को 22.5 करोड़ डालर का ऋण मिलने की खबरों से और फ्रांस तथा जापान से भी सहायता मिल जाने की सम्भावना से भी बाजार में यह तेजी की भावना आई। इसके अलावा सीमेंट के रिटेंशन भावों में रु. 10 प्रति टन की शीघ्र वृद्धि की सम्भावना भी इसका कारण थी। फरवरी माह में बाजार की भावना दबी हुई थी। केन्द्रीय वित्तमंत्री के इस्तीफे तथा बजट सम्बन्धी अनिश्चितताओं के कारण यह स्वाभाविक भी था। किन्तु जब 28 फरवरी को बजट प्रस्ताव पेश हुए तो बाजार में कुछ मंदी आई  किन्तु यह मंदी अधिक समय तक कायम नहीं रह सकी और भाव पुन : सुधर गए। इसका मुख्य कारण केन्द्रीय बजट में कोई नए कर  न लगाया जाना था। 19 मार्च को कपड़े के उत्पादन कर में कमी कर दिए जाने और अनिवार्य डिपाजिट योजना के समाप्त कर दिए जाने से व्यापारियों को यह अनुमान हुआ कि सरकार का रवैया निजी क्षेत्र के प्रति सहयोगपूर्ण हो रहा है। यह सुधार मई माह तक जारी  रहा। मई में इंडियन आयरन और टाटा आयरन स्टील कम्पनियों में कर्मचारियों की हड़ताल से भावों में गिरावट आई। इसके अलावा इसी समय आयोजन आयोग ने लोकसभा के सामने यह प्रस्ताव पेश किया कि आगामी दो वर्ष में करों में रु.100 करोड़ रुपये की अतिरिक्त वृद्धि की जानी चाहिए। इससे निकट भविष्य में और लगाए जाने की आशंका बढ़ी। ....................जून माह से भाव नए ऊंचे स्तर पर पहुंचने लगे। इस समय इस्पात उद्योग की हड़ताल भी समाप्त हो गई थी जिससे बाजार में रौनक आ गई। जुलाई माह में कपड़े के उत्पादन कर में और कमी कर दिए जाने और सीमेंट के रिटेंशन भावों में वृद्धि कर दिए जाने से शेयरों में ऊंचे की भावना और बलवती हुई। भारत सरकार ने निर्यात को प्रोत्साहन  देने की जिस योजना की इसी समय घोषणा की  उससे और वस्त्रोद्योग जांच समिति की सिफारिशों सो बाजार में रौनक फैल गई। वित्तमंत्री द्वारा जीवन बीमा निगम की विनियोग नीति की घोषणा का भी बाजार में स्वागत किया गया। यह ऊंचे की भावना बाद में और दृढ़ होती गई। इसके मुख्य कारण इस्पात के रिटेंशन भावों में और वृद्धि कर दिया जाना तथा वित्तमंत्री को अपनी विदेश यात्रा के दौरान में और विदेशी सहायता का आश्वासन मिल जाना था। ऊंचे की यह भावना नवम्बर माह में राष्ट्रीय विकास परिषद द्वारा खाद्यान्नों के थोक व्यापार का समाजीकरण करने के निश्चय से रुक गई। परिषद ने जो निश्चय इस समय किये उनका यह अर्थ था कि निजी क्षेत्र पर और नियंत्रण लगाये जाएंगे। इसी समय कांग्रेस कार्य समिति ने पूर्ण समाजवाद के ध्येय को प्राप्त करने के लिए जिन तरीकों का सुझाव दिया उनसे बाजार की भावना को गहरा धक्का लगा। इन सुझावों में मुख्य यह था कि निजी क्षेत्र के लाभ पर सीमा लगाई जायगी। वित्तमंत्री ने कलकत्ता के असोसिएटेड चेम्बर आफ कामर्स की सभा में भाषण दिया, उससे बाजार से विश्वास की भावना उठ गई। सभा में वित्तमंत्री ने यह स्पष्ट रुप से घोषित कर दिया कि करों में कमी किए जाने की जरा भी संभावना नहीं है। इससे वर्ष के अंत में बाजार में घबराहट फैल गई। यह स्वाभाविक ही था। इस घबराहट के कारण तेजड़ियों ने कटान की जिससे शेयर नीचे बंद हुए। ............ From ravikant at sarai.net Wed Jul 11 16:55:48 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 11 Jul 2007 16:55:48 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS8?= =?utf-8?b?4KS+4KSwIOCkreCkvuCktSAtIOCkmuCkvuCksC8y?= Message-ID: <200707111655.48484.ravikant@sarai.net> खौफ-ए-समाजवाद शेयर बाजार इस बात का खौफ खा जाया करता था कि कांग्रेस कार्यसमिति ने निजी क्षेत्र पर लाभ की सीमा लगाने की बात कह दी थी। पर मसला सिर्फ इतना भर नहीं थी, शेयर बाजार इस बात पर भी डर  जाया करता था कि थोक व्यापार के सामाजीकरण की बात चल रही है। सामाजीकरण का आशय राष्ट्रीयकरण से ही लगाया  जाता था। पूर्ण समाजवाद का ध्येय तो शेयर बाजार को बहुत नागवार गुजरता था। बाजार की भावना को धक्का लग जाता था। वित्त मंत्री कुछ स्पष्टीकरण देते थे, बाजार की भावना उठ जाया करती थी।  पर कुल मिलाकर शेयर बाजार समाजवाद का खौफ बहुत खाता था। उधार की खुशी शेयर बाजार के जिक्र में गालिब का जिक्र कुछ आउट आफ प्लेस टाइप है, पर जिक्र बनता है-गालिब ने कहा है कि कर्ज की पीते थे और समझते थे कि रंग लायेगी ..............। विदेशी कर्ज मिलने की बात से शेयर बाजार में रंग आ जाया करता था। ऊपर की रिपोर्ट बताती है कि शेयर बाजार इस बात पर खुश हो जाया करता था कि वित्तमंत्री को अपनी विदेश यात्रा के दौरान विदेशी सहायता का आश्वासन मिल गया या अमेरिका, फ्रांस और जापान से सहायता की संभावनाएं बाजार में तेजी की भावना ले आती थीं। इसकी वजह मोटे तौर  पर एक तो यह मानी जा सकती है कि कर्ज से बटोरे गये संसाधनों के चलते सरकार निजी क्षेत्र पर करों का बोझ कम डालेगी यानी कि कर कम तो मुनाफे ज्यादा होंगे। दूसरी वजह यह  मानी जा सकती है कि सरकार को अगर बाहर से सहायता मिलेगी, तो इसका निवेश कुछ परियोजनाओं में होगा, जिनसे निजी क्षेत्र की कंपनियों को फायदा हो सकता है। यानी उनके मुनाफे बढ़ सकते हैं। विदेशों से उधार इस तरह से खुशी लेकर आया करता था। बच गये की राहत शेयर बाजार राहत महसूस करता था, जब कोई बहु-आशंकित प्रस्ताव टल जाता था। देखें- हिन्दुस्तान गुरुवार 8 जनवरी, 1959 पेज नंबर सात, दो कालम का समाचार लाभ पर सीमा न लगाने की संभावना से और सुधार (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 7 फरवरी। स्थानीय शेयर बाजार की भावना में आज और सुधार हुआ। इस संभावना के कारण कि निजी क्षेत्र के लाभ पर सीमा लगाने संबंधी प्रस्ताव कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में पेश नहीं किया जाएगा लगभग सभी शेयरों के भाव ऊंचे उठ गए।       स्टील शेयरों का ऊंचे स्तर पर कारोबार हुआ।       टैक्सटाइलों में स्वदेशी, कोहनूर और स्टैण्डर्ड में अच्छी खरीद की गई।       विविध समूह में नेशनल रेयर, सिंधिया और टाटा केमिकल दृढ़ रहे। कहा जाता है कि लाइफ इंश्योरेंस कार्पोरेशन ने बढ़ते भावों पर सिंधिया की खरीद की। इस संकेत से कि प्रीमियर आटो कम्पनी रु. 6 प्रति शेयर का लाभांश घोषित करने वाली है, आज प्रीमियर आटो भी ऊंचे उठे। ............ (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) नागपुर अधिवेशन में निजी क्षेत्र के लाभ पर सीमा लगाने वाला प्रस्ताव पेश नहींकिया जायेगा, इस बात से बाजार प्रसन्न हो जाता था और प्रसन्नता का इजहार ऊपर उठकर करता था। सहानुभूति में मजबूती बाजार में सहानुभूति के तत्व खासे पाये जाते थे। सरसों और खल सरसों आपस मेंसहानुभूति होती थी। देखें- हिन्दुस्तान गुरुवार 8 जनवरी, 1959, पेज सात , दो कालम दिल्ली बाजार गल्ला मंडी में तेजी जारी-तेलों के भाव भी ऊंचे (हमारे संवाददाता द्वारा) दिल्ली, 7 जनवरी। स्थानीय बाजारों में आज भी अनाजों में तेजी का दौर रहा। तेल मंडी में भी भाव ऊंचे उठे तथा जिंस वायदों में नया समर्थन मिल जाने से दृढ़ता रही। बढ़िया गेहूं के भाव अधिक ऊंचे होने से मध्यम श्रेणी के लोग मोटे अनाज खरीदने लगे। इससे बढ़िया गेहूं के भाव आज रुके रहे, किन्तु मोटे अनाजों में 25 नए पैसों से 62 नए पैसे प्रति मन की तेजी आई। सस्ते अनाज की दुकानों के कबतक खुलने के बारे में घोषणा न होने के कारण लोग अपनी जरुरत का अनाज खरीदने में व्यस्त हैं। इससे दड़ा गेहूं के भाव थोड़े और बढ़ कर रु. 21.25 प्रति मन हो गए। चावलों के भाव भी थोड़े सुधरे। ..........तेल मूंगफली तथा सरसों वायदों में पंजाब के सटोरियों की खरीदारी तथा बम्बई की मजबूती की खबरों से वृद्धि हुई। खल सरसों में सरसों की सहानुभूति में मजबूती थी। .......... बाजार हिचकिचाया क्यों यानी मतलब माने ये मतलब शेयर बाजार की रिपोर्टिंग में कई बार तमाम राजनीतिक-आर्थिक कदमों के वो मतलब समझाये जाते थे, जो शेयर बाजार समझता था। देखें- हिन्दुस्तान सोमवार, 12 जनवरी, 1959 पेज नंबर 7 दो कालम बीमा निगम के समर्थन से बाजार में चमक मुनाफा सीमित प्रस्ताव के बावजूद दृढ़ता बम्बई, 11 जनवरी। जीवन बीमा निगम की खरीदारी और मन्दड़ियों की पटान के कारण दलाल स्ट्रीट में गत सप्ताह चमक थी। भावों में व्यापक वृद्धि हुई और बन्द होते समय  बाजार की रुख मजबूत था। नागपुर में कांग्रेस अधिवेशन निकट होने के फलस्वरुप नया हिसाब आशाजनक रुख के साथ शुरु हुआ। इस अधिवेशन में निजी क्षेत्र में निजी क्षेत्र में मुनाफा सीमितकरने का कांग्रेस कार्य समिति के प्रस्ताव पर विचार किया जाना था। गत वर्ष के अंत में इस प्रस्ताव के मसविदे के कारण ही शेयर बाजार को भारी धक्का लगा था। यह आश्चर्य की बात है कि इस अनिश्चितता के वातावरण में बाजार आगे बढ़ा  और कांग्रेस कार्यसमिति द्वारा यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने के बाद भी बाजार और आगे बढ़ा। बाजार में आम भावना यह थी कि मुनाफे सम्बन्ध में प्रस्ताव कार्यान्वित करते समय नरमी से काम लिया जाएगा। गत सेटिलमेंट में बदले की नीची दर,अच्छी टेकनीकल स्थिति और समय समय पर जीवन बीमा निगम के समर्थन के कारण बाजार को आगे बढ़ने का प्रोत्साहन मिला। लेकिन बाजार में अभी तक हिचकिचाहट की भावना मौजूद है और नागपुर अधिवेशन की समाप्ति के बाद सम्भवत वह प्रकट हो सकती है। इसका कारण यह तथ्य बताया जा रहा है कि वित्त मंत्री जो कि व्यावहारिक दृष्टिकोण के लिएप्रसिद्ध हैं और जो कि स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं, अपने नेता से भिन्न रुख नहीं अपनाएंगे। नागपुर अधिवेशन में जो विचार विनिमय हुआ उसे यह बात स्पष्ट हो गई कि देश को  विदेशी सहायता के बजाय अपने साधनों से ही प्रगति के पथ पर आगे बढ़ना है। इसका मतलब यह हुआ कि देश को आगामी बजट में और करों के लिए तैयार हो जाना चाहिए। .............. बाजार इसलिए हिचकिचा रहा था कि वित्तमंत्री जो वैसे तो व्यवहारिक हैं, फिर भीअपने नेता की राय से अलग रुख नहीं अपनायेंगे। इसलिए समाजवाद-जनित तनाव रहेंगे। इसलिए बाजार हिचकिचाहट ही दिखायेगा। रिपोर्ट में बताया गया कि अगर यह बात सामने आती है कि देश को अपने साधनों पर बढ़ना है, विदेशी सहायता के आधार पर नहीं, तो इसका मतलब यह हुआ कि करों में बढ़ोत्तरी होगी, इसका मतलब मुनाफे में कमी होगी, इसका मतलब कि बाजार हिचकिचायेगा। उपेक्षा और भावों का बढ़ना नागपुर  अधिवेशन चाहे जो प्रस्ताव पास करे, पर बाजार उस पर अपनी समझदारी कायम करता था। यह समझदारी सिर्फ घोषणाओं पर आधारित न होकर व्यावहारिकताओं पर आधारित होती थी। और बाजार रिपोर्टिंग इस बात को साफ करती थी। देखें- हिन्दुस्तान  19 जनवरी, 1959 पेज नंबर सात, दो कालम बम्बई शेयर कर वृद्धि की आशंकाओं के बावजूद बाजार में रौनक (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 18 जनवरी। मंदड़ियों की पटान सटोरियों खरीद के कारण दलाल स्ट्रीट मेंशेयरों की भावना आलोच्य सप्ताह में काफी अच्छी रही और अनेक शेयरों के भाव ऊंचे उठ गये। बन्द होते समय बाजार में स्थिरता थी। आलोच्य सप्ताह में बाजार का रुख यही प्रदर्शित करता था कि विकास की ओर  अग्रसर होती हुई देश की वर्तमान अर्थव्यवस्था में शेयरों की स्थिति काफी दृढ़ है। इसी कारण शेयर बाजार ने कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन के प्रस्तावों की उपेक्षा कर दी है। ऐसा लगता है कि व्यापारियों में अब यह विश्वास पैदा हो गया है कि आगामी केन्द्रीय बजट में विनियोग को कोई खास धक्का नहीं दिया जायेगा क्योंकि पहले ही देश में ऐसा वातावरण पैदा कर दिया गया है  जिससे विनियोग बहुत कठिन हो गया है। .......साथ ही बाजार में यह आम भावना भी है कि हाल में बाजार में जो गिरावट आई थी उसके कारण शेयरों की स्थिति सुधार के पक्ष में है और सुधार की यह भावना फिलहाल बाजार में जारी रहेगी। यह संभव है कि बजट के निकट आने पर बाजार में पुन खासी गिरावट आ जाए। ................ अफवाह की खबर और असर शेयर बाजार में अफवाह बाकायदा खबर बनती रही है,क्योंकि उसका असर बाजार पर होता रहा है। देखें- हिन्दुस्तान सोमवार, 19 जनवरी, 1959 पेज नंबर सात, सिंगल कालम बम्बई तिलहन अरंडी का निर्यात कोटा जारी होने के अफवाह वायदों में ऊंचे की भावना (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 18 जनवरी। गत सप्ताह स्थानीय तिलहन बाजार में तेलों और तिलहनों में ऊंचे की भावना रही और वायदों के भाव एक नए ऊंचे स्तर पर पहुंच गये। मजबूती की इस भावना को इन अफवाहों ने काफी प्रोत्साहन दिया कि सरकार शीघ्र ही अरंडी का निर्यात कोटा घोषित कर देगी। साथ भी व्यापारियों को यह विश्वास भी था कि ब्राजील द्वारा वर्तमान नीचे भावों पर कारोबार के लिए उत्सुक न होने के कारण शीघ्र ही विदेशों से भारतीय तेल अरंडी की अच्छी मांग आएगी। इसके अलावा बाजार में यह भी कहा जा रहा था कि अगर निर्यात कोटा जारी कर दिया गया तो जापान और जर्मनी भारतीय अरंडी की अच्छी खरीद करेंगे। .............. उम्मीद पर दुनिया कायम रहती है, और अफवाह पर बाजार। यह सूक्ति इस तरह की खबरों को देखकर गढ़ी जाये, तो बताइए गलत होगी क्या। From ravikant at sarai.net Wed Jul 11 17:02:51 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 11 Jul 2007 17:02:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KSc4KS+?= =?utf-8?b?4KSwIOCkreCkvuCktSAtIOCkmuCkvuCksC8z?= Message-ID: <200707111702.51157.ravikant@sarai.net> अनियमितता का मतलब वह नहीं......       बाजार रिपोर्टिंग में जब अनियमितता –शब्द का प्रयोग किया जाता था, तो अनियमितता का आशय यह नहीं होता था कि बाजार में घपले चल रहे हैं। बल्कि अनियमितता का आशय यह होता था कि बाजार एक नियमित प्रवृत्ति –ऊपर जाने की या, नीचे जाने की नहीं दिखा रहा है , बल्कि कभी ऊपर कभी नीचे जा रहा है। देखें- हिन्दुस्तान शनिवार, 24 जनवरी, 1959 पेज नंबर सात दो कालम सूंठ में तेजी-चने के भाव और बढ़े –वायदे नरम (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली 23 जनवरी। आज स्थानीय वायदा बाजारों में अन्त में नरमी आई। तैयार मंडियों में गिनी-चुनी जिन्सों के भावों में बढ़ोत्तरी हुई। किराने में सूंठ के भावों में लगभग रु. 10 प्रति मन की तेजी आई। चने के भाव कुछ ऊंचे हुए। ............जिन्स वायदों में अनियमितता रही। गुड़ वायदे मामूली नरम खुलकर सुधरे, मगर केन्द्रीय खाद्य मंत्री श्री अजीत प्रसाद जैन के अवकाश ग्रहण करने की खबर से भाव कमजोर हो गये। बाद में सरसों वायदे की सहानुभूति में भावों में सुधार हुआ था, वह भी बाद में  बिक्री के दबाव में टिक न सका और भाव फिर कमजोर हो गए। .......... उस कनेक्शन का डर यूनियनों का डर खासा होता था। खास तौर पर भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस से जुड़े यूनियन नेताओं की बातों का शेयर बाजार के भावों पर फर्क पड़ता था। आज यह बात खासी अजीब सी लग सकती है। आज बड़ी कंपनियों के ट्रेड यूनियन नेताओं के नाम-बयान भले ही अखबारों के लिए कोई अहमियत न रखें, पर एक दौर में अख़बार से लेकर शेयर बाजार तक इनका नोटिस लेते थे। देखें- हिन्दुस्तान, सोमवार 26 जनवरी, सन् 1956 पेज नंबर सात दो कालम की खबर बम्बई शेयर विक्रेता बाजार पर छा गए-कपड़े के उत्पादन में कमी (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई 25 जनवरी। केंद्रीय सरकार का बजट प्रस्तुत किए जाने में अभी पांच सप्ताह शेष हैं और शेयर बाजार में ताजी गिरावट आ गई है। बाजार का रुख पूर्णत सतर्कता पूर्ण  था। नया हिसाब सतर्क रुख से साथ शुरु हुआ और बाजार पर विक्रेता छाए हुए थे। भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस द्वारा सम्बन्धित टाटा कर्मचारी संघ के अध्यक्ष श्री माइकेल जोन ने जमशेदपुर में एक सभा में कहा कि टाटा स्टील के प्रबन्धकों ने वेतन के ढांचे में संशोधन करने के सिलसिले में रु. 1,02,00000 अधिक खर्च करना स्वीकर कर लिया है, जबकि यूनियन ने इस कार्य के लिए रु. 3 करोड़ की मांग की थी और कम्पनी के वित्तीय वर्ष के अंदर इस की घोषणा कर दी जाएगी।  इस भाषण का बाजार की भावना पर प्रतिकूल असर पड़ा। .... यूनियन के नेताओं के बयान से बाजार की भावना आहत होती थी, यह दिन भी शेयर बाजारों ने देखे हैं और अब..............., अब यूनियनें हैं ही कहां। हैं तो वो धमक कहां हैं। चीन के हमले की तेजी सराफे में  बाजार निर्मम होता है। सराफा बाजार अपवाद नहीं है। चीन के हमले की शुरुआत का दौर था वह। बाजार में कारोबारी इस स्थिति का नफा-नुकसान देखकर सौदे कर रहे थे। बाजार में तेजी थी, चीनी के हमले की, देखें- हिंदुस्तान  22 अक्तूबर 1962, पेज नंबर सात, दो कालम की खबर बम्बई सराफा भारतीय चौकियों पर चीनी हमले से सराफे में तेजी (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 21 अक्तूबर। गत सप्ताह सराफा वादा तेज रहा। शुरु के कारोबार में कुछ मुलायम रहने के बाद नेफा और लद्दाख के क्षेत्रों में भारतीय चौकियों पर चीनियों के हमले, दीवाली के कारण तैयार बाजार में खरीदारी बढ़ने और फलस्वरुप स्टाक कम होने के कारण दोनों धातुएं कारोबारियों को आकर्षित करती रहीं। चांदी वायदा शुरु के कारोबार में कुछ मुलायम होकर 222.40 पर आ गया लेकिन बाद में तेजी से ऊपर उठा। भाव 224 तक ऊँचा जाकर पूर्व सप्ताह से रु. 1.40 ऊंचा रु. 223.85 पर बन्द हुआ। तैयार चाँदी रु. 220.90 से 222.90 तक ऊंची गई और रु. 222.75 पर बन्द हुई। चाँदी की आमद का औसत 20 सिल्ली प्रतिदिन का था, जबकि खरीदारी 15 सिल्लियों की रही। स्टाक 700 सिल्लियों का आंका जाता है। सोना वायदा 118.45 से रु. 120.55 की ऊंचाई पर पहुंच गया और पूर्व स्तर की तुलना में दो रुपए ऊँचा रु. 120.20 पर बन्द हुआ। तैयार सोने में भी तेजी थी। भारीखरीदारी के कारण वह 117.60 से रु. 121.25 पर बन्द हुआ, जबकि पूर्व सप्ताह का बन्द भाव रु. 117.40 था  और इस प्रकार लगभग चार रुपये की तेजी आई। ......... चीन से लड़ाई में शेयर बाजार को घाटा खासा दिलचस्प है यह देखना कि जब सरकार चीन से लड़ने के लिए कृतसंकल्प हो रही थी, तब शेयर बाजार इस पर चिंतित था और हिचकिचा रहा था यानी इस वजह से मजबूती का रुख नहीं दिखा रहा था। देखें- हिंदुस्तान  22 अक्तूबर 1962, पेज नंबर सात, दो कालम की खबर बम्बई शेयर नेफा सीमा पर संघर्ष की खबरों का बाजार पर प्रभाव मुहुर्त कारोबार की धूमिल सम्भावनाएं (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 21 अक्तूबर। ताजे प्रोत्साहन के अभाव में गत सप्ताह दलाल स्ट्रीट में गतिरोध की स्थिति रही। बाजार की भावना नेफा सीमा पर चीनी सीमा की कार्यवाही सेप्रभावित होती रही। कारोबार मामूली था और रुख उत्साहजनक नहीं था। मुहुर्त कारोबार की सम्भावनाएं धूमिल प्रतीत होती हैं। देश में यातायात हड़ताल के कारण शहर के बाजारों की सक्रियता में बाधा पहुंची है। मजदूरों और कारीगरों के हड़ताल के कारण बम्बई कपड़ा बाजार में हड़ताल की स्थिति गम्भीर है। फलस्वरुप कपड़े की डिलीवरी सभी स्तर पर रुकी हुई है। इसका रेशम और रेशमी सामान के बाजार पर प्रभाव पडा है, जहां कि उत्तर भारत के खरीदार और आढ़तिए खरीदारी करना नहींचाहते। इस स्थिति में खुदरा दुकानदारों का लाभ हुआ है, और अच्छा कारोबार कर रहे बताए जाते हैं। भावों में आम वृद्धि के कारण यहां भी गिरावट आई है। नेफा सीमा की गम्भीर स्थिति के कारण दलाल स्ट्रीट में नया हिसाब हिचकिचाहट के साथ खुला। सप्ताह भर इसी बात का बाजार की भावना पर प्रभाव पड़ता रहा क्योंकि सरकार चीनियों को पीछे धकेलने के लिए कृतसंकल्प है। इसका मतलब सुरक्षा खर्च में वृद्धि और आगामी अर्ध वर्ष की अवधि के लिए आयात कार्यक्रम में गम्भीर कटौती हो सकता है। सीमा पर सैनिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में उद्योग के लाभ के सम्बन्ध में कारोबारियों में चिन्ता पैदा हो गई है। यदि बाजार का समर्थन किया गया है निश्चित रुप से मन्दड़ियों की पटान के रुप में था। ............फिर भी बाजार ने शुक्र और शनि को ऊपर उठने का प्रयत्न किया लेकिन ढोला चौकी क्षेत्र लद्दाख में चीनियों के नए हमले की खबर से प्रगति रुक गई। (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) चीन से लड़ने की कृत-संकल्पता का आशय था-सुरक्षा व्यय में और बढ़ोत्तरी। इसका आशय था और कर, इसका आशय था कंपनियों के लाभ में कमी। इसका आशय था शेयर बाजार की निराशा और इसका नतीजा शेयर बाजार की हिचकिचाहट के रुप में निकला। जैसा कि ऊपर की रिपोर्ट इंगित करती है-सीमा पर सैनिक संघर्ष की पृष्ठभूमि में उद्योग के लाभ के सम्बन्ध में कारोबारियों में चिन्ता पैदा हो गई है। .... देश की चिंताओं को शेयर बाजार अलग तरह से शेयर करता है। चीन के हमले के समय इस बात के संकेत साफ तौर पर देखे जा सकते थे। बाजार रिपोर्टिंग ने इसे साफ तौर पर सामने रखा है। सोना आ गया तो...............सोना डूबा यह देखना खासा दिलचस्प है कि राष्ट्रीय आपदा के समय सरकार द्वारा की जाने वाली विभिन्न घोषणाओं को बाजार किस तरह से लेता रहा है।  देखें- हिन्दुस्तान 30 अक्तूबर, 1962, पेज सात, दो कालम दिल्ली सराफा सीमा स्थिति बिगड़ने से चांदी तेज-सोने में मुलायमी (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली 27 अक्तूबर। आलोच्य सप्ताह में सराफा बाजार में बाद की गिरावट के बावजूद पूर्व सप्ताह की अपेक्षा चाँदी में मजबूती रही। जबिक सोने में लगभग रु. 5 की मंदी आई। कारोबार अधिक था और भावों में घटाबढ़ी भी अच्छी चली। उत्तरी सीमा पर चीनी सेना के और आगे बढ़ने और वहां स्थिति बिगड़ने  से बाजार का श्रीगणेश तेजी के साथ हुआ। व्यापक खरीदारी से भाव और तेज हो गए। कलकत्ता की एक प्रमुख पार्टी की बिक्री के भावों में नरमी दिखाई दी। बम्बई में अवैध सोने की आमद बढ़ने से भी भाव टूटे। अमरीका द्वारा क्यूबा पर नाकेबन्दी किए जाने और उत्तरी सीमा पर स्थिति गम्भीर होने से भावों में अकस्मात सुधार हुआ था, किन्तु यहां तथा बम्बई में आमद अच्छी होने से सुधार अस्थायी सिद्ध हुआ। चांदी में बदला मंडियों के पक्ष में चालू होने से भी बाजार प्रभावित हुआ। इसके अतिरिक्तभारत-चीन सीमी विवाद पर वार्ता के लिए चीन सरकार तैयार होने के समाचारों से भी बाजार पर थोड़ा प्रभाव हुआ। सबसे अधिक प्रभाव केन्द्रीय प्रतिरक्षा मंत्री के उस वक्तव्य का पडा, जिसमें अपील की थी कि अवैध जमा सोना सरकार को दे दिया जाय। इससे सटोरियों को यह भय हुआ कि आवश्यकता पड़ने पर सरकार सम्भवत सोना जब्त कर लेगी। घबराहट की बिक्री हुई। बाजार में भी सोने की आमद बढ़ी। इस तरह से सोना और टूटा। उसके साथ-साथ चांदी भी मुलायम हुई थी, किन्तु भारत द्वारा चीन सरकार का प्रस्ताव ठुकरा दिए जाने और उठाव अच्छा होने से चाँदी में फिर सुधार हुआ। (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) सोने के बाजार का अर्थशास्त्र यूं समझा गया कि अगर बाजार का अवैध सोना सरकार के पास चला जायेगा, तो इसका मतलब यह हुआ कि बाजार में सोने की आपूर्ति बढ़ जायेगी। सोने की आपूर्ति बढ़ने का मतलब कि भाव गिरेंगे। भाव गिरेंगे, तो अभी ही बेचनाश्रेयस्कर है। बाजार को न चीन से मतलब, न भारत से, न उसे आपदा से मतलब, न आपदा के सामने से मतलब। उसके लिए हर कदम का अनुवाद इस भाषा में होता है-कि मांग कम होगी या ज्याद ा और आपूर्ति कम होगी या ज्यादा। देश टूटे, तो सोने का टूटना जरुरी नहीं है। वहां अर्थशास्त्र कुछ अलग किस्म का है। बाजार रिपोर्टिंग इस प्रवृत्ति के संकेत साफ तौर पर मिलते हैं। चीन के बाद पाकिस्तान से शेयर बाजार में कटान शेयर बाजार युद्ध से डरता है। चीन युद्ध के बाद 1965 पाकिस्तान से युद्ध के समय भी कुछ इसी तरह का नजारा देखने में आया। देखें- हिन्दुस्तान 29 अप्रैल, 1965 पेज नंबर सात, दो कालम का शीर्षक, सिंगल कालम की खबर बम्बई शेयर सीमा पर सैनिक कार्यवाही बढ़ने की आशंका से कमजोरी (हमारे बम्बई संवाददाता द्वारा) बम्बई , 28 अप्रैल। बहुत स्थिर खुलने के बाद आज शेयरों में गिरावट आई। सिन्ध-कच्छ सीमा और कश्मीर सीमा पर सैनिक कार्यवाही बढ़ने की आशंका से सभी समूहके सभी प्रमुख सट्टा शेयरों में कटान की गई। प्रमुख शेयरों में भी समर्थन का अभाव था।       स्टील शेयर अपने निम्नतम स्तर पर बंद हुए। टेक्सटाइल शेयरों में सेंचुरी, स्टैंडर्ड, डाइंग..कमजोर थे जबकि विविध समूह में नेशनल रेयन, लोको., वोल्टास, सिंधिया और हिन्द मोटर नीचे थे। (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) युद्ध के बावजूद युद्ध में तमाम आइटमों में अलग-अलग कारणों से गिरावट और चढ़ाव होता था, इसकी महीन रिपोर्टिंग हिंदुस्तान की बाजार रिपोर्टिंग में सामने आयी है- हिन्दुस्तान 3 मई, 1965 पेज सात तीन कालम शीर्षक,  दो कालम की खबर       दिल्ली मण्डी की साप्ताहिक समीक्षा गेहूं में गिरावट किंतु चना उछला: अंत में तेल मूंगफली नीचा दालचीनी, लालमिर्च, बादाम-गिरी पिस्ते में तेजी : जीरा नरम       (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली 2 मई। भारत सरकार द्वारा रक्षा मंत्रालय के लिए गेहूं खरीदने की अफवाहों के बावजूद भारत-पाक सीमा (कच्छ-सिंध) पर पाकिस्तानी हमले  होने के कारण घबराहटपूर्ण बिक्री से गेहूं के भाव रु. 4 से र. 8 गिर गए। नई फसल के गेहूं की आवक 8,000 बोरी दैनिक तक पहुंच जाने से स्टाकिस्टों के हौसले टूट गये। दिल्ली ग्रेन मर्चेंट्स एसोसिएशन द्वारा ब्याज दर व गोदाम भाड़ा बढ़ाए जाने के समाचारों से मंदे का प्रभाव पडा। पंजाब मार्केटिंग फेडरेशन व पंजाब के सिविल सप्लाई विभाग द्वारा गेहूं की खरीदारी आरम्भ करने के समाचारों का विशेष प्रभाव नहीं पडा। चना रु 6.50 प्रति क्विंटल तक उछल गया, जबकि दालें अंत में नीचे लुढ़कने लगीं। ..................... (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) नयी फसल के गेहूं की आवक 8,000 बोरी दैनिक तक पहुंच जाने से स्टाकिस्टों के हौसले टूट गये , वरना युद्ध की खबर आम तौर पर उछाला लेकर आती है। पाकिस्तान की इन्कारी से टूट गये युद्ध संबंधी ब्रिटिश प्रस्तावों  पर  पाकिस्तान की इन्कारी से पिस्ता डोडी के भाव गिर गये। बाजार अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर गहरी नजर रख रहा था और बाजार रिपोर्टिंग में इसके संकेत साफ तौर पर दिखायी दे रहे थे। हिन्दुस्तान 14 मई, 1965, पेज सात, तीन कालम का शीर्षक, दो कालम की खबर दिल्ली की मण्डियां गोला व उसके तेल में मजबूती : पिस्ता कंधारी, डोडीमें मुलायमी मसूर, उड़द, ग्वार और ज्वार में नरमी : गेहूं खामोश (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली, 13 मई। ब्रिटिश प्रस्तावों पर पाकिस्तान की इंकारी के फलस्वरुप राजनीतिक स्थिति फिर उलझने की आशंका से तथाकथित पिस्ता डोडी जून डिलीवरी के भावरु. 80 प्रति क्विन्टल टूटते सुने गए। हाजर में पिस्ता कंधारी व डोडी के भावों में रु. 26 से रु. 62 तक की गिरावट आई। इसके विपरीत गोला व उसके तेल में रु. 5 से लेकर 16 की भड़कती तेजी दिखाई दी। गेहूं की आवक फिर 4,000  बोरी हो गई। मसूर, उड़द, ग्वार व ज्वार में रु. 1 से 3 निकल गए। मूंगफली, अलसी व महुआ के तेलों  में भी मुलायमी का रुख था। ...... (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) तस्करी के उछाल तस्करी का आशय़ सिर्फ यह नहीं है कि माल एक देश से दूसरे देश को पार होता है, बल्कि एक राज्य से दूसरे राज्य को अनधिकृत तौर पर पार होने वाला माल भी तस्करी के दायरे में आता है। और इसका बाजार की प्रवृत्तियों पर बाकायदा असर पड़ता रहा है। देखें- हिन्दुस्तान 12 जून, 1965, पेज नंबर सात तीन कालम का शीर्षक, दो कालम का इंट्रो व एक कालम की खबर- दिल्ली की मंण्डियां बढ़िया ज्वार दृढ़: लोबिया ऊंचा : सरसों तथा उसके तेल में तेजी       (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा)       दिल्ली 11 जून। बिजाई*[1]* <#_ftn1> के लिए पंजाब की मंडियों के तस्करी निर्यात होने की चर्चा से बढ़िया ज्वार दो रुपए बढ़ाकर बोली गई। इसीलिए एकसप्ताह में लोबिया 5 से 15 रुपए प्रति क्विन्टल उछल गया। मंदी की आशा से गेहूं के खरीदार पीछे हट गए। चना व छिलका चना में मजबूती रही। सररों लाहा  कच्ची घानी में 2 से 6 रु. की और तेजी आई। गोला दो रु. बढ़ गया। चीनी में 35 रु. प्रति बोरी की प्रीमियम सुनी गई।...............       पंजाब में सोनीपत मंडी में बढ़िया ज्वार का भाव 95 रु. तक होने के समाचारों से चोरी छिपे निर्यात  होने की चर्चा से इसके  भाव ऊंचे में 82 रु. की बजाए 84 रु. बोले गये। ............. (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) तस्करी होती थी। बाजार में इसका साफ फर्क पड़ता था। बाजार रिपोर्टिंग में इसे इंगित भी किया जाता था। एक और उदाहरण देखें- हिन्दुस्तान 7 अक्तूबर, 1965, पेज सात तीन कालम का शीर्षक, दो कालम का समाचार दिल्ली की मंडियां जोरदार लिवाली से प्रमुख तेलों के भाव बढ़े : तेल गोला भड़का मूंग, मटर, व जौ में लाभ : मक्की में  नरमी : दालचीनी में हानि (हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा) दिल्ली 6 अक्तूबर। सटोरियों की जोरदार लिवाली से प्रमुख तेलों के भाव में रु. 5 से 16 रुपये बढ गए। मूंग, मटर, व जौ में जहां लाभ हुआ, वहां उड़द व मक्की में नरमी रही। दालचीनी में रु. 100 निकल गए लेकिन हल्दी में मजबूती दिखाई दी। दाल मिल वालों की जोरदार मांग पर आज स्थानीय अनाज मंड में मूंग के भाव दो रुपए और बढ़ गए। कहा जाता है कि लगभग 2.000 टन मूंग की धोया दाल प्रतिदिन असम के व्यापारी भी उठा रहे हैं। कलकत्ता व  महाराष्ट्र  के व्यापारियों की मांग भी चल रही थी, महाराष्ट्र की मूंग दिल्ली में रु. 150 बिक रही है जबकि महाराष्ट्र की कुछ मंडियों में इनका भाव रु. 160 चल रहा है। व्यापारिक क्षेत्रों में यह आम चर्चा है पश्चिम बंगाल  असम से दालों का पाकिस्तान  चीन को तस्कर निर्यात बढ़ रहा है। स्टाक के अभाव में हरी मटर रु. 5 बढ़ गई। .......... विदेशी आशा से उछलता बाजार जैसा कि पहले भी इंगित किया जा चुका है कि बाजार को विदेश से बहुत आशाएं होती थीं। वैसे ये आशाएं अब भी होती हैं। तब सरकार द्वारा विदेशी सहायता की आशा प्रकट करने से बाजार बहुत खुश हो जाया करता था। देखें- हिन्दुस्तान 7 अक्तूबर, 1965, पेज सात दो कालम का शीर्षक, दो कालम का समाचार बम्बई शेयर पटान के कारण शेयरों में सुधार : सेंचुरी और ऊंचे (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई 6 अक्तूबर। शेयर बहुत स्थिर खुले और पटान के कारण उनमें और सुधार हुआ और वे चालू सेटिलमेंट के अंतिम दिन मजबूत बंद हुए । हालांकि बाहरी समर्थन का अभावथा लेकिन उप प्रधानमंत्री द्वारा अधिक विदेशी सहायता प्राप्त करने की आशा प्रकट करने के फलस्वरुप स्थानीय कारोबारियों ने नई बिक्री नहीं की। स्टील शेयर बहुत स्थिर रहे। टेक्सटाइल समूह  में डाइंग स्थिर थे। लेकिन सेंचुरी आगे रहे। .................. (बोल्ड इटैलिक शोधकर्ता ने किया है) राष्ट्रीयकरण न होने के उपलक्ष्य में शेयर बाजार राष्ट्रीयकरण न होने का स्वागत अपने अंदाज में करता था, देखें- हिन्दुस्तान 29 अक्तूबर 1967 पेज 9 दो कालम का शीर्षक, एक कालम की खबर बम्बई शेयर कांग्रेस कार्यसमिति के निर्णय से प्रमुख शेयरों में पटान (हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा) बम्बई, 18 अक्तूबर। कांग्रेस कार्यकारिणी द्वारा बैंकों और आम बीमे का राष्ट्रीयकरण तत्काल न किये जाने का निर्णय लिये जाने से शेयर आज बेहतर रहे और बाद में ऊंचे बंद हुए। अनेक प्रमुख शेयरों में मंदड़ियों की पटान हुई और नया समर्थन भी प्राप्त हुआ। बाद में मुनाफा वसूली से भाव कुछ गिरे हालांकि रुख स्थिर ही रहा। .. From ravikant at sarai.net Wed Jul 11 17:06:36 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 11 Jul 2007 17:06:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: meerut ka prakashan udyoga II Message-ID: <200707111706.37011.ravikant@sarai.net> chunki yeh pichhli bar sahi nahin aaya tha. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: meerut ka prakashan udyoga II Date: मंगलवार 10 जुलाई 2007 17:21 From: "VIJAY PANDEY" To: ravikant at sarai.net • बीसवी शताब्‍दी के शुरुआती सालों में देवनागरी हाईस्‍कूल में पं रामनारायण मिश्र भूगोग पढ़ाते थे। उनके संपादन में 1924 में मासिक प‍त्रिका भूगोल का प्रकाशन हुआ। वैसे तो भूगोल विषय बहुत ही शुष्‍क समझा जाता है लेकिन इस पत्र में पंडित जी ने लेखों को बहुत ही रोचक भाषा में प्रस्‍तुत करते थे। वे अपने पत्रों में विदेशों की कई वैज्ञानिक उप‍लब्‍धियों का विवरण भी प्रकाशित करते थे। उन्‍होंने इस पत्र के कई विशेषांक प्रकाशित किए। उनका पत्र विद्यार्थियों के अलावा भी काफी लो‍कप्रिय था। लगभग इसी समय के आसपास मेरठ में बड़े पैमाने पर शैक्षिक पुस्‍तकें के प्रकाशन की नींव पड़ी। • शैक्षिक प्रकाशनों और साहित्यिक प्रकाशनों से इतर भी आम जनमानस में लोकप्रिय लोकसाहित्‍य का प्रकाशन भी मेरठ से हुआ। 1932 में जवाहर बुक कंपनी की स्‍थापना कर लक्ष्‍मीचंद अग्रवाल ने लोक साहित्‍य के प्रचार प्रसार का बीड़ा उठाया। अपने शुरुआती सालों में ही जवाहर बुक कंपनी से प्रकाशित पुस्‍तकें आम आमदियों को खूब पसंद आयी। लक्ष्‍मीचंद ने मेरठ के तत्‍कालीन प्रकाशन स्‍वरूप से एकदम हटकर केवल लोक साहित्‍य के प्रकाशन पर अपना ध्‍यान केन्‍द्रित रखा। जवाहर बुक कंपनी से प्रकाशित होने वाली आल्‍हा, ढोला, रागनियां और भजन खासे लोकप्रिय थे। उन दिनों आल्‍हा, ढोला, भजनों और रागनियों का गायन गांव की चौपालों में खूब होता था। लोक कला ही आम जन के मनोरंजन का साधन थीं। इसके अलावा तोता मैना की कहानियां सहित कई लोक प्रचलित किस्‍से कहानियों का प्रकाशन जवाहर बुक कंपनी के लिए फायदे का सौदा साबित हुई। यहां से प्रकाशित किताबें दिल्‍ली, मथुरा, लखनउ तक जाती थीं। जहां एक ओर खड़ी बोली के केन्‍द्र पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में कई नामचीन साहित्‍यकार साहित्‍य साधना में लगे थे वहीं जवाहर बुक कंपनी आम जनमानस में प्रचलित किस्‍से कहानियों और लोकगीतों के प्रकाशन में पूरी तल्‍लीनता से लगी थी। इस अलावा जवाहर बुक कंपनी धार्मिक किताबों के प्रकाशन में भी लगे थे। हालांकि लोकप्रिय साहित्‍य के प्रकाशन में लगे होने के कारण जवाहर बुक कंपनी को खास तवज्‍जो नहीं दी जाती थी, लेकिन जनमानस के साहित्‍य को एकत्र कर उसे प्रकाशित कर आम जन तक पहुंचाने में जवाहर बुक कंपनी के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती है। लक्ष्‍मीचंद अग्रवाल ने जहां पुराने आल्‍हा, ढोला, होली सांग को प्रकाशित किया वहीं उन्‍होंने नए आल्‍हा, ढोला और होली सांग लिखवाकर भी प्रकाशित कराए। उन दिनों जवाहर बुक कंपनी से प्रकाशित चौधरी बेधड़क के भजन की किताबें भी पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश में खूब बिकती थीं। हालांकि समय बीतने के साथ जवाहर बुक कंपनी ने तकनीकी में कई बदलाव किए लेकिन अब यह केवल पूजा, आरती, व्रत की किताबों के प्रकाशन के छोटे दायरे तक ही सी‍मित रह गयी है। ------------------------------------------------------- From beingred at gmail.com Wed Jul 11 23:43:19 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 11 Jul 2007 23:43:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 49, Issue 4 In-Reply-To: References: Message-ID: <363092e30707111113r7630b67cm65c27b12740965e4@mail.gmail.com> namaste ajkal deewan se ayi har mail men bas koora dikhta hai. isaki kya wajah ho sakti hai? kuchh upaay karen jaldi. main kuchh bhi nahin padh pa raha hoon. yah dikkat 20-25 dinon se hai. On 7/10/07, deewan-request at mail.sarai.net wrote: > > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at mail.sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at mail.sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at mail.sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. [?????]?????? ??? - ???/2 (Ravikant) > 2. [?????]????? ??? - ???/3 (Ravikant) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Wed, 11 Jul 2007 16:55:48 +0530 > From: Ravikant > Subject: [?????]?????? ??? - ???/2 > To: deewan at sarai.net > Message-ID: <200707111655.48484.ravikant at sarai.net> > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > ???-?-??????? > > ???? ????? ?? ??? ?? ??? ?? ???? ???? ?? ?? ???????? ?????????? ?? ???? > ??????? ?? ??? ?? ???? ????? ?? ??? ?? ?? ??? ?? ???? ????? ???? ?? ???? > ??, > ???? ????? ?? ??? ?? ?? ?? ????? ???? ?? ?? ??? ??????? ?? ????????? ?? > ??? > ?? ??? ??? ????????? ?? ??? ???????????? ?? ?? ????? ????? ??? ????? > ??????? > ?? ????? ?? ???? ????? ?? ???? ?????? ?????? ??? ????? ?? ????? ?? ????? > ?? > ???? ??? ????? ?????? ??? ?????????? ???? ??, ????? ?? ????? ?? ???? ???? > ??? ??? ??? ?????? ???? ????? ??????? ?? ??? ???? ???? ??? > > > > ???? ?? ???? > > ???? ????? ?? ????? ??? ????? ?? ????? ??? ??? ?? ????? ???? ??, ?? ????? 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070711/33957456/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Jul 12 14:16:19 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 12 Jul 2007 14:16:19 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Deewan_Digest_=2C_?= =?utf-8?q?Vol_49=2C_Issue_4?= In-Reply-To: <363092e30707111113r7630b67cm65c27b12740965e4@mail.gmail.com> References: <363092e30707111113r7630b67cm65c27b12740965e4@mail.gmail.com> Message-ID: <200707121416.19844.ravikant@sarai.net> रियाज़ साहब, आपके मेल पर ध्यान दिलाने के लिए श्वेता का भी शुक्रिया. उन्होंने टेक-टीम को भी लिख दिया है. जहाँ तक मुझे समझ में आता है, ये मसला सिर्फ़ आपके साथ है. पहली बात, क्या आपने अपनी मशीन पर सेटिंग वग़ैरह चेक कर लिया है? बाक़ी सब कुछ ठीक चल रहा है, युनिकोड में, सिर्फ़ दीवान सूची के साथ ही समस्या आ रही है? अगर ऐसा है तो हमें डायजेस्ट विकल्प पर ध्यान देना होगा, कि कहीं वहीं तो एनकोडिंग नहीं गड़बड़ा जाती है? हम देखकर जल्द बताते हैं. रविकान्त बुधवार 11 जुलाई 2007 23:43 को, reyaz-ul-haque ने लिखा था: > namaste > ajkal deewan se ayi har mail men bas koora dikhta hai. > isaki kya wajah ho sakti hai? kuchh upaay karen jaldi. main kuchh bhi nahin > padh pa raha hoon. yah dikkat 20-25 dinon se hai. > > > > > On 7/10/07, deewan-request at mail.sarai.net > > wrote: > > Send Deewan mailing list submissions to > > deewan at mail.sarai.net > > > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > > deewan-request at mail.sarai.net > > > > You can reach the person managing the list at > > deewan-owner at mail.sarai.net > > > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > > > > Today's Topics: > > > > 1. 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[?????]????? ??? - ???/3 (Ravikant) > > > > > > ---------------------------------------------------------------------- > > > > Message: 1 > > Date: Wed, 11 Jul 2007 16:55:48 +0530 > > From: Ravikant > > Subject: [?????]?????? ??? - ???/2 > > To: deewan at sarai.net > > Message-ID: <200707111655.48484.ravikant at sarai.net> > > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > > > ???-?-??????? > > > > ???? ????? ?? ??? ?? ??? ?? ???? ???? ?? ?? ???????? ?????????? ?? ???? > > ??????? ?? ??? ?? ???? ????? ?? ??? ?? ?? ??? ?? ???? ????? ???? ?? ???? > > ??, > > ???? ????? ?? ??? ?? ?? ?? ????? ???? ?? ?? ??? ??????? ?? ????????? ?? > > ??? > > ?? ??? ??? ????????? ?? ??? ???????????? ?? ?? ????? ????? ??? ????? > > ??????? > > ?? ????? ?? ???? ????? ?? ???? ?????? ?????? ??? ????? ?? ????? ?? ????? > > ?? > > ???? ??? ????? ?????? ??? ?????????? ???? ??, ????? ?? ????? ?? ???? ???? > > ??? ??? ??? ?????? ???? ????? ??????? ?? ??? ???? ???? ??? > > > > > > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > > > End of Deewan Digest, Vol 49, Issue 4 > > ************************************* From neelimasayshi at gmail.com Fri Jul 13 12:04:25 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 13 Jul 2007 12:04:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWL4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KS14KS+4KSc4KWHOiDgpJrgpYvgpJ/gpYAg4KSV4KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm4KWALeCkrOCljeKAjeCksuClieCklyDgpJTgpLAg?= =?utf-8?b?4KSJ4KSo4KSV4KWHIOCkrOCljeKAjeCksuClieCkl+CksOCli+Cksg==?= Message-ID: <749797f90707122334y484f682dtf3b27e99fabcf057@mail.gmail.com> चोर दरवाजे: चोटी के हिंदी-ब्‍लॉग और उनके ब्‍लॉगरोल ये अपने मूल शोध-प्रस्‍ताव में ही था कि हिंदी चिट्ठाकारों के लिंकन व्‍यवहार का विश्‍लेषण किया जाएगा। इरादा ये देखने का है कि कौन किसे लिंक करने में रुचि लेता है। लिंक केवल सामग्री की उपयोगिता पर ही निर्भर नहीं करता वरन चिट्ठाकार की रुचि-अरुचि का परिचायक भी होता है। आमतौर पर ब्‍लॉगरोल में पसंदीदा चिट्ठों को जगह देने की प्रवृत्ति होती है। पर एक समस्‍या है ब्‍लॉगर का ब्लॉग रोल अंतहीन नहीं हो सकता इसलिए सबको प्रसन्‍न नहीं किया जा सकता, कुछ को चुनना शेष को रिजेक्‍ट करने जैसा ही होता है जो नेता टाईप या सर्वप्रिय ब्‍लागरों को पसंद नहीं वे किसी को नाराज नहीं करना चाहते अत: वे लगभग सभीको या तो अपने रोल में जगह देते हैं (जैसे शास्‍त्रीजी) या फिर वे किसी को भी जगह नहीं देते (जैसे फुरसतिया, ईस्‍वामी)। हमने शुरुआती अध्‍ययन के लिए चिट्ठाजगतके सक्रियता क्रमांक से ऊपर के चंद ब्‍लॉगरों के बलॉग रोल को देखकर ये जानने की कोशिश की कि क्‍या वे एक-दूसरे को पसंद करते हैं ? परिणाम चौंकाने वाले हैं- इस तालिका को देखें ( बहुत मेहनत से बनाई है...क्लिक कर बड़ा करें) * x-मायने लिंक नहीं दिया, Y- मायने लिंक दिया गया * चिट्ठाकार हैं- *१फुरसतिया* * **2. ई-स्वामी* * **3. मेरा पन्ना* * 4**. Raviratlami Ka Hindi Blog* * **5. उडन तश्तरी .......* * **6. मोहल्ला* * **7. azdak* * **8. मसिजीवी* * 9.हिंदयुग्‍म **10. प्रत्यक्षा * *11. जोगलिखी* *12. कस्‍बा* *13. रचनाकार * 14. काकेश *15. ई-पंडित* तो स्थिति ये है कि हिंदी ब्लॉगिंग में फिल‍हाल रुचि का वैविध्‍य (एक दूसरे को कम पसंद करने के लिए इससे सम्‍मानजनक शब्‍द मिल नहीं पाया) इतना हो गया है कि शीर्ष पर टिके ब्‍लॉगर अक्‍सर अपने ही दूसरे ब्‍लॉग को तो रोल में रख रहे हैं किंतु साथी ब्‍लॉगरों को नहीं। वैसे यहाँ यह भी विचारणीय है कि ब्‍लॉगरोल को लेकर जैसा आकर्षण व सतर्कता पहले दिखाई देता था अब नहीं है और बहुत से ब्‍लॉगर अपने ब्‍लॉगरोल हटाकर उनकी जगह विज्ञापनों को देने लगे हैं। हिंदी चिट्ठाकारी में विशिष्‍ट दो प्रवृत्तियॉं जरूर मुझे महत्वपूर्ण लगती हैं पहली है पत्रकार ब्‍लॉगरों द्वारा एक दूसरे का पुरजोर समर्थन लगभग प्रत्‍येक पत्रकार चिट्ठाकार ने एक-दूसरे को लिंकित कर रखा है, इससे सबको ट्रैफिक भी मिलता है और दरजा भी। ऐसी ही बिरादरी युवा कवियों की भी है वे भी एक दूसरे को परस्‍पर लिंकित करने में विश्‍वास रखते हैं। ये अलग बात है कि जहॉं पत्रकारों को गैर पत्रकार भी अपने ब्‍लॉगरोल में रख रहे हैं वहीं कवियों को बस एक-दूसरे का ही सहारा है। तो भाई लोग ये जो भाईचारा बहनापा है ये अक्‍सर पत्रकार का पत्रकार से है और कवि का कवि से- ऐसे में हम शोधार्थी बिरादरी को तव्‍वज्‍हो मिलने की कोई उम्‍मीद नहीं दिखती :( नीलिमा टिप्‍पणियों सहित पूरे लेख के लिए ब्‍लॉग पर पधारें -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070713/d044b891/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Jul 13 14:09:26 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 13 Jul 2007 14:09:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KS1IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpLjgpK7gpY3gpK7gpYfgpLLgpKgg?= =?utf-8?b?4KSV4KS+IOCkh+CkpOCkv+CkueCkvuCkuCAsIOCkrOCkleCkvOCljOCksiA=?= =?utf-8?b?4KSa4KSV4KWN4KSw4KSn4KSw?= Message-ID: <200707131409.26633.ravikant@sarai.net> maafi chahunga kafi lamba hai. doosri kist mein maujooda sammelan ki charcha hai. ravikant http://ashokchakradhar.blogspot.com/2007/06/blog-post_03.html Sunday, June 03, 2007 विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले बच्चे क्यों जल्दी सीख जाते हैं? क्योंकि अपनी जिज्ञासाओं को तत्काल शांत कर लेते हैं। वयस्क होते ही बंदा दस बार सोचता है कि मन में जो सवाल उठा है उसे पूछें कि न पूछें। पूछ लिया तो हेठी तो न हो जाएगी, अज्ञानी तो न माने जाएंगे। इसी चक्कर में मैंने डॉ. इन्द्रनाथ चौधुरी से वह जिज्ञासा नहीं रखी जो एक संगोष्ठी में उन्हें सुनकर मेरे अंदर कुलबुला रही थी। उन्होंने कहा था— ‘हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है’। मुझे नहीं मालूम था कि एल. डब्ल्यू. सी. क्या होता है। संगोष्ठी के बाद मिले, पूछने को हुआ तो उन्हें किसी और ने घेर लिया। अपने अगले किसी भाषण में उन्होंने फिर वही बात दो हराई कि हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है। भला हो उनका कि उन्होंने खुद ही बता दिया-- एल. डब्ल्यू. सी. का मतलब है ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’। सचमुच हिन्दी ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’ है। इस समय विश्व में काफी फैली-पसरी भाषा। मीडिया-प्रभु के हाथों में शंख, गदा, चक्र, कमल, परशु, वीणा और स्वर्ण-मुद्राओं के विविध रूपों में हिन्दी विराजमान है। मीडिया-प्रभु के चेहरे पर हिन्दी की वैश्विक मुस्कान है। उन्नीस सौ पिचहत्तर से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का सिलसिला चला। पहला नागपुर में हुआ। दूसरा सम्मेलन उन्नीस सौ छिहत्तर में मॉरीशस में हुआ। फिर सात वर्ष के अंतराल के बाद सन उन्नीस सौ ति रासी में नई दिल्ली में आयोजित हुआ। चौथा इसके दस साल बाद उन्नीस सौ तिरानवै में पुन: मॉरीशस में हुआ। पांचवां उन्नीस सौ छियानवे में त्रिनिदाद में छठा उन्नीस सौ निन्यानवे में लंदन में, सातवां दो हज़ार तीन में सूरीनाम में आयोजित हुआ और आठवां अब न्यूयार्क में होने जा रहा है। पिछले तीन बार से सरकार इस बात का ध्यान रखने लगी है कि विश्व हिन्दी सम्मेलनों का अंतराल तीन-चा र वर्ष से अधिक न हो। सात सम्मेलनों का क्या लाभ हुआ सवाल ये है कि क्यों जाते हैं लोग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में? क्यों होते हैं विश्व हिन्दी सम्मेलन? यह आठवां है। सात सम्मेलनों का क्या निचोड़ निकला, क्या लाभ हुआ? इस बात के उत्तर में सवाल किया जा सकता है कि किसी मेले, त्यौहार या पर्व का क्या लाभ होता है। अगर लाभ-हानि उसी तरह से देखेंगे जिस तरह से विभिन्न अनुदान आयोग देखते हैं तब तो बात न बनेगी। वस्तुत: विश्व हिन्दी सम्मेलन के अवसर पर पूरी दुनिया में हिन्दी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले लोगों का मेला जुड़ता है। उन लोगों से मिलने का मौका मिलता है जो भारत से सुदूर स्थित देशों में किसी न किसी प्रकार से हिन्दी से जुड़े हुए हैं। वे भारतवंशी मिलते हैं जो आज से ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले ये भूमि छोड़ कर गए थे और साथ ले गए थे रामचरितमानस का एक गुटका और पोटली में सत्तू। इन सम्मेलनों का घोषित उद्देश्य विदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना है। हिंदी का बरगद देखना यह है कि हिंदी जिन जड़ों से निकली है, उसका बरगद पूरे विश्व में कहां-कहां तक फैला है और उसने कहां-कहां अपनी जड़ें जमाई हैं। हिंदी का यह बरगद सात समंदर पार तक अपनी डालों को ले गया। कुछ मजबूत डालों ने केरेबियन देशों में अपनी जड़ें गिराईं कुछ ने गल्फ में तो कुछ ने एशिया में। अब उन जड़ों को वहां विकसित वृक्ष के तनों के रूप में देखा जा सकता है। वे जड़ें जहां गिरीं वहीं से खा द-पानी लेने लगीं। पिछले बीस बरस में मैंने काफी दुनिया देखी है। इस दौरान प्रवासी भारतीयों में धीरे-धीरे एक चिंता को विकसित होते देखा है। पश्चिम की दुनिया में अब लोगों को ख्याल आ रहा है कि उनके बच्चे बड़े हो गए और अफसोस कि वे उन्हें अपनी भाषा न सिखा पाए। अफसोस कि उन्हें अपनी संस्कृति न दे पा ए। इस मरोड़ का तोड़ क्या हो? विश्व हिन्दी सम्मेलनों में इस प्रकार की सामूहिक चिंताएं एक मंच पर आती हैं और निदान खोजती हैं। निदान का अर्थ संस्थाएं चलाने के लिए केवल आर्थिक मदद करना नहीं होता। आस्ट्रेलिया में माला मेहता अगर हिन्दी स्कूल चला रही हैं तो उसके लिए भारत का कोई संस्थान उनकी आर्थिक मदद नहीं करता है। अपने संसाधन स्वयं जुटाती हैं। दरअसल, हिन्दी स्कूल वहां के लोगों की निजी आवश्यकता है। वे जिस भाषा और संस्कृति से प्यार करते हैं, अपने बच्चों को भी सिखाना चाहते हैं। ‘हिन्दी समाज’ की डॉ. शैलजा चतुर्वेदी और ‘भारतीय विद्या भवन’ के गम्भीर वाट्स न केवल हिन्दी शिक्षण से जुड़े हैं बल्कि स्थानीय संसाधनों से सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित कराते रहते हैं। इसी तरह अमरीका में ‘भारतीय विद्या भवन’, ‘अंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति’ और ‘हिन्दी न्यास’ के तत्वावधान में हिन्दी के बहुमुखी कार्यक्रम चलते रहते हैं। रूस, नेपाल और गल्फ के कई देशों में ‘केन्द्रीय विद्यालय’ हिन्दी सिखाते हैं। इनका खाद-पानी भारत की जड़ों से जुड़ा है। भारत सरकार की सहायता से मॉरीशस में ‘विश्व हिन्दी सचिवालय’ की स्थापना हो गई है, डॉ. वी नू अरुण हाल ही में उसकी निदेशिका बनी हैं। खाद-पानी एकल भूमि से मिले या संयुक्त मिट्टियों से, दुनिया भर में हिन्दी की हरियाली फैलाने के प्रयत्न निरंतर बढ़ रहे हैं। मॉरीशस, त्रिनिदाद और सूरीनाम ऐसे देश हैं जहां भारतवंशी बहुतायत में रहते हैं। उन्होंने हिन्दी को अपने पूर्वजों से प्राप्त करके सुरक्षित रखा। स्थानीय भाषाओं के प्रभाव में कितनी सुरक्षित रख पाए, यह अलग बात है। नई पीढ़ी को भाषा-प्रदान की यह प्रक्रिया सहज ही घटित होती रही। इसमें माताओं की भूमिका अधिक रही, क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं ने भाषा नहीं छोड़ी। इन तीनों ही देशों के भारतवंशी परिवारों में भोजपुरी बोली जाती है। उनकी भोजपुरी ठीक वैसी भोजपुरी नहीं है जैसी भारत के भोजपुरी अंचल की है। उनकी भोजपुरी में उनकी स्थानीय भाषाओं के शब्द भी घुल-मिल गए हैं। मॉरीशस में बोली जाने वाली भोजपुरी में फ्रैंच और क्रियोल भाषा के शब्द हैं। विदेशों में हिन्दी से रागात्मक लगाव को बढ़ाने में हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हिन्दी गाने अपनी मधुर धुनों और पारंपरिक तरानों के कारण भारतवंशियों को बहुत अच्छे लगते हैं। गाना एक बार नहीं, बहुत बार सुना जाता है, और जो बंदिश अनेक बार सुनी जाती है वह कंठस्थ हो जाती है। मैंने पाया कि भले ही पूरे गीत का अर्थ वे नहीं समझते हैं, लेकिन त्रिनिदाद और सूरीनाम के युवा मस्ती से ये गाने गाते हैं। ‘सुहानी रात ढल गई ना जाने तुम कब आओगे’ एक ऐसा गीत है जिसे त्रिनिदाद में इस आस्था से गाते हैं जैसे वह उनका दूसरा राष्ट्र-गीत हो। कोई एक व्यक्ति गाना प्रारंभ करता है, सभी सुर मिलाने लगते हैं। हिन्दी सम्मेलनों ने भारतवंशियों के अन्दर आत्मविश्वास का सुरीला संचार किया है। आज के ज़माने में टीस की बात ये है कि आदमी तीस दिन में बदल जाता है, सूरीनाम के भारतवंशी तो एक सौ तीस साल पहले जो लोक-भाषा और लोक-संस्कृति लेकर गए थे आज भी वहां उन्हीं धुनों में गा रहे हैं और भारत को प्यार करते हैं बेशुमार। युग बीत गए पर वे ज़्यादा नहीं बदले। ऐसे भारतवंशियों को देखकर मन में अपार स्नेह उमड़ता है। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा श्रीमती इंदिरा गांधी का भाषण कितने ही लेखों में इन दिनों दोहराया जा रहा है। उन्होंने पहले सम्मेलन में कहा था कि विश्व हिन्दी सम्मेलन किसी सामाजिक या राजनीतिक प्रश्न अथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न प्रश्नों पर विचार के लिए आयोजित किया गया है। वे मानती थीं कि हमारी जितनी भी भाषाएं हैं उनके रहते हम एक संयुक्त परिवार जैसे हैं। वे सब की सब हमारी मातृभाषाएं हैं और चूंकि हिन्दी सब से बड़े भाग द्वारा बोली जाती है इसलिए हमारी राष्ट्र भाषा है। इंदिरा जी का वक्तव्य हिन्दी की आंतरिक ताकत को बताता है। बाहर से और शासन की ओर से जो ताकत उसे मिलनी चाहिए हिन्दी को अभी भी उसकी दरकार है। मा ना कि वह राजभाषा है लेकिन राजभाषा के रूप में उसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम दबा लेते हैं। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक दुरिइच्छाओं और अंग्रेज़ियत के लालों की लाल फीताशाही से हिन्दी व्यापक तबा ही का शिकार हुई। बहरहाल, पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन में तीन मुद्दे थे लेकिन प्रमुख पहला ही था— 1। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए। 2। वर्धा में विश्व हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हो। 3।हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अत्यंत वि चारपूर्वक एक योजना बनाई जाए हिन्दी अपने ही देश में अपने अधिकार खोने लगी थी और हम बात कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी की आधिकारिकता की। ऐसा हमारे मोहल्ले-समाज में भी होता है। जब घर में कोई कमतरी हो तो हम मोहल्ले के सामने अपनी अन्दरूनी कमज़ोरियां नहीं बताते। मोहल्ले से अपनी अपेक्षा बनाए रखते हैं कि वह हमारी श्रेष्ठता स्वीकार करे। संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषा की ‘श्रेष्ठता’ स्वीकार कराने के लिए कुछ निर्धारित मानक थे। हिन्दी से जुड़े आंकड़ों को लेकर हम वहां खरे नहीं उतरे। आचार्य विनोबा भावे ने पहले सम्मेलन में ही अपने देश की भाषागत विडम्बनाओं का उल्लेख किया था— ‘यूएनओ में स्पेनिश को स्थान है, अगरचे स्पेनिश बोलने वाले पंद्रह-सोलह करोड़ ही हैं। हिन्दी का यूएनओ में स्थान नहीं है, यद्यपि उसके बोलने वालों की संख्या लगभग छब्बीस करोड़ है। इसका कारण यह है कि बिहार वालों ने अपनी भाषा सेंसस में मैथिली, भो जपुरी लिखी है। राजस्थान वालों ने अपनी भाषा राजस्थानी बताई है। इन कारणों से हिंदी बोलने वालों की संख्या पंद्रह करोड़ रह गई। अगर हम इन सबकी गिनती करते तो हिन्दी बोलने वालों की संख्या कम से कम बाईस करोड़ होती। इसके अलावा उर्दू भी एक प्रकार से हिंदी ही है, जिसे बो लने-वालों की संख्या करीब चार करोड़ है’। आचार्य ने इस बात पर भी अपनी हैरानी जताई कि यूएनओ ने चीनी मंदारिन जानने वालों की संख्या सत्तर करोड़ कैसे दर्ज करा दी। दरअसल, हुआ क्या कि चीन में भाषा के प्रति राजनीतिक सदिच्छा रही और लाल झंडे तले लालफीताशाही ने देश के सारे नागरिकों से भाषा के कॉलम में एक ही नाम भरवा लिया— ‘मंदारिन’। हालांकि, वहाँ भी तीस-चालीस भाषाएं अस्तित्व और चलन में थीं। सत्तर के दशक के प्रारंभ में उनकी आबादी लगभग सत्तर करोड़ थी। जनगणना के भाषागत सर्वेक्षण के आधार पर यूएनओ ने स्वीकार कर लि या कि चीनी बोलने वाले सत्तर करोड़ हैं। और उन्होंने ‘मंदारिन’ को मान्यता दे दी। अनेक महनीय विद्वान मानते हैं कि हिन्दी की महनीयता तभी मानी जाएगी जब वह संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता पा जाएगी। दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन : बालक भी नहीं शिशु मैं अठहत्तर में मॉरीशस में गया था। दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में तो शरीक नहीं हुआ, लेकिन महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट के हिंदी विभाग में जाने का अवसर मिला। नए-नए बने प्रधानमंत्री श्री अनिरुद्ध जगन्नाथ के निजी न्योते पर हम दो कवि, मैं और श्री ओम प्रकाश आदित्य वहां गए और यह पाया कि पूरा मॉरीशस इस बात पर गर्व करता था कि हमारे देश में दूसरा विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में हमारे देश के हिंदी के बड़े-बड़े विद्वान गए थे, कवि और लेखक गए थे। डॉ. हजारी प्रसा द द्विवेदी का सम्मेलन की अंतिम गोष्ठी में दिया गया भाषण अद्भुत था। उन्होंने अपने भाषण की शुरुआत यह कहते हुए की कि आप इतनी देर से धैर्य के साथ सुन रहे हैं। मुझे आप पर दया भी आ रही थी । आपको भी मेरे ऊपर थोड़ी-थोड़ी दया आती होगी। प्राय: ऐसा कुछ छूटा नहीं है जो विद्वानों ने आपको बताया न हो। उनसे अछूती कौन सी बात कहूं मुझे समझ में नहीं आ रहा है। उनकी इस प्रस्तावना से लगता था जैसे वे अधिक नहीं बोलेंगे लेकिन वे लगभग एक घंटा बोले और सब ने बहुत एकाग्रता से सुना। उन्होंने कहा— ‘यह जो विश्व हिन्दी सम्मेलन है इसका अभी दूसरा ही वर्ष है। बहुत बालक भी नहीं शिशु है। अभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक दो साल का बच्चा है। लेकिन इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार उन्मुक्त हो रहा है’। द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन को हुए अब इकत्तीस वर्ष हो चुके हैं। आचार्य द्विवेदी की भविष्य दृष्टि सब कुछ जानती थी। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन अब बत्तीस वर्ष का परिपक्व जवान होने वा ला है। यह युवक ऊर्जावान है, इसकी क्षमताएं अपार हैं। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन पहली बार इतने विराट फलक पर आयोजित होने जा रहा है। उसका उद्घा टन सत्र भी यू. एन. की इमारत में होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नहीं है का दर्द पाले हुए हमारे आदरणीय बुजुर्ग श्री मधुकर राव चौधरी चिंतित न हों। जिस इमारत में आठवें हिंदी विश्व सम्मेलन का उद्घाटन होना है उसी इमारत में शायद ये मधुर घोषणा सुनने को मिले कि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा है। आधिकारिक भाषा क्यों नहीं होगी भला? बताइए! जब बुश, भले ही अपनी सुरक्षा के लिए, अपने पूरे देश को प्राथमिक स्तर से हिंदी सिखाने पर आमादा हैं, जब सारे मल्टीनेशनल्स बहुत बड़ा बाजार देखकर हिंदी के सॉफ्टवेयर निर्माण में अपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं, जब प्रयोक्ताओं के सूचना प्रौद्योगिकी के सद्य:विकसित ज्ञान के कारण हिंदी में सूचना समाचारों का आदान-प्रदान और प्रेमाचार हो रहा है और जब हमारे पास माशाअल्ला पैसे की भी वैसी कमी नहीं है तो फिर हिन्दी क्यों नहीं होगी संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक भाषा। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन के समय हमारे देश के सामने विदेशी मुद्रा की उपलब्धि का सवाल था। आज वैसी चिंताएं नहीं हैं। संस्कृति, भाषा और नई सूचना प्रौद्योगिकी अब जबकि हम इंटरनेट के युग में हैं पूरा विश्व अपनी भौगोलिक दूरियां समाप्त करते हुए बकौल डॉ. सुधीश पचौरी एक ग्लोकुल बन चुका है-- ‘ग्लोबल गोकुल’। गोकुल एक गांव है पर गांव से कुछ ज़्यादा है। मुहब्बत फैलाता है। ‘ग्लोकुल’ बनने के बाद एक अच्छी बात यह हुई है कि अब से सात-आठ साल पहले हिंदीवादियों का जो अहंकार था वह अब युवा-शक्ति की नई आशाओं और आकांक्षाओं के कारण धीरे-धीरे नमित हुआ है। प्रारंभ में जो लोग कंप्यूटर और तकनीक को साहित्य विरोधी, संस्कृति विरो धी और पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण मानते थे वे भी अब मानने लगे हैं कि कंप्यूटर तो एक माध्यम भर है। यह संस्कृति नहीं है, इसके माध्यम से संस्कृतियां आ-जा सकती हैं। दूसरी संस्कृति को रोकने का प्रयास करेंगे तो अपनी संस्कृति को अन्यत्र कैसे पहुंचाएंगे। हिन्दी को लेकर जो कुंठाएं थीं वे समाप्त हो गई हों ऐसा नहीं कह सकते। कई बार घर की कलह को बाहर की ताकतें ठीक करती हैं। अपना महत्व तब पता चलता है जब बाहर के लोग बताएं। हम हनुमान जी के देश के लोग हैं और अतुलित बलधामा है हिन्दी। इसको जाना माइक्रोसोफ्ट ने, गूगल ने, याहू ने और आज इंटरनेट पर सूचना भण्डारण कोई समस्या नहीं रही। गति इतनी कि आप मिली सैकिण्ड में सूचनाएं पा सकते हैं। सर्च की जो सुविधा हिन्दी में आई है उसने हिन्दी के परिवार को अचानक बहुत बड़ा किया है। आज अपनी संस्कृति और भाषा को व्यापकतम स्तर पर फैलाने का माध्यम है- नई सूचना प्रौद्योगिकी। दिन-ब-दिन नए-नए जनसंचार माध्यमों से, प्रौद्योगिकी से, हिन्दी का पाट चौड़ा हो रहा है, उसका प्रवाह तीव्र हो रहा है और लगने लगा है कि वह इस भूमंडल की एक महत्वपूर्ण सम्पर्क भाषा बन सकती है। भारतवंशी पूरे विश्व में फैले हुए हैं, वे हिन्दी के चलन को विश्वव्यापी बना सकते हैं। लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था न्यूयार्क में यह सम्मेलन जो अब होने जा रहा है, यह निन्यानवे में भी हो सकता था वहां। प्राथमिक प्रयास अमरीका के ही चल रहे थे, लेकिन छोटे-छोटे अहंकार और भविष्य की दूरगामी दृष्टि न होने के कारण अमरीका स्थित हिन्दी सेवी संस्थाएं प्रस्तावित आयोजन को साकार रूप न दे सकीं। अचानक लंदन के नौजवानों ने वह कार्यक्रम लपक लिया। देखते ही देखते सम्मेलन लंदन में सम्पन्न हो गया, और अच्छी तरह से हुआ। लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था। इससे पहले त्रिनिदाद और भारत में भी हो चुके थे। लंदन में काफी अफरा-तफरी रही। मैं भी गया था, मेरी तो तफरी रही। न तो मुझे किसी सत्र में बोलना था, न कोई शैक्षिक ज़िम्मेदारी थी, मात्र एक कविसम्मेलनी कवि की हैसियत से बुला या गया था। जग का मुजरा लेता रहा और लोगों को सुनता रहा। कैमरा साथ ले गया था, फोटो खीं चता रहा। लंदन की हिंदी की खूबसूरती पर मैंने ग्यारह रोल खर्च कर दिए। किन्हीं विद्वान को, जिन्होंने उस सम्मेलन में भाग लिया हो और अपना फोटो न मिला हो तो मुझसे संपर्क कर सकते हैं, शा यद मैं उन्हें उनका चित्र दे पाऊं। मेरे पास डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विष्णु कांत शास्त्री के घुट-घुट कर बतियाते हुए चित्र हैं। शिवानी जी के ऐसे चित्र हैं जिन्हें पाकर डॉ. मृणाल पांडे खुश हो सकती हैं। तो, छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने फोटोग्राफर की हैसियत से भाग लिया। और वहीं से मेरी रुचि सम्मेलनों में बढ़ी। लगा जैसे यह है हिंदी का एक अद्भुत मेला, एक कुंभ। जहां आप अपनी हिन्दीगत, व्यावहारिक, सांस्कृतिक भड़ांस निकाल सकते हैं। कह सकते हैं, सुन सकते हैं और अपनी कलंगी में एक पंख जोड़ सकते हैं- देखा हम भी गए थे कुंभ करने, हम भी वहां थे। वहां मैंने देखा कि आयोजक प्रिय पद्मेश गुप्ता, तितीक्षा शाह, उषा राजे सक्सेना, के़.बी़.एल़. सक्सेना, कृष्ण कुमार, महेन्द्र वर्मा और ब्रज गोयल परेशान थे क्योंकि सम्मेलन में ‘पांच बुलाए पंद्रह आए’, मुहावरा बेमानी हो गया। वहां तो पांच सौ से ज़्यादा आ गए। इतने प्रतिभागियों की व्यवस्था कैसे हो? कहां टिकाया जाए? कहां खिलाया जाए? लेकिन मैंने देखा कि नौजवान अगर किसी चीज़ में लग जाएं तो हर समस्या हल हो सकती है। बड़ी ही निष्ठा से उन लोगों ने अधिकांश के ठहरने, खाने और मनोरंजन का इंतजाम किया। सारा पैसा भारत सरकार ने दिया हो ऐसा तो नहीं था। उन्होंने अपने-अपने संसाधनों और सम्पर्कों का इस्तेमाल किया। किसी से भोजन स्पौन्सर कराया किसी से स्टेशनरी। स्वयं कितना करते! जहां से फोकट में मिल सकता था, हिन्दी के हित में लिया। किस से ले रहे हैं इस पर ध्यान नहीं दिया। एक भोजन सत्यनारायण मंदिर में क्या हो गया, भारत के अख़बारों में कोहराम मच गया कि देखिए सम्मेलन का स्वरूप धार्मिक है, इसे कट्टरवादी दक्षिण पंथी शक्तियों ने हथिया रखा है। मैं समझता हूं कि अपनी-अपनी विचारधाराएं अपने-अपने साथ हैं, लेकिन हिंदी के मामले को लेकर दक्षि ण-पंथी और वाम-पंथी होकर नहीं सोचना चाहिए। हिन्दी के लिए न कोई पक्ष हो और न प्रतिपक्ष, हिन्दी तो सबकी है। जो सरकार में हैं उन्हें भी हिंदी के हित में होना चाहिए, जो विपक्ष में हैं उन्हें भी। वस्तुत: हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में विश्व में स्थापित करना है जो एक ओर हमारे देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहिका बने दूसरी ओर हमारी साझा संस्कृति की संवाहिका। सातवें का 'सम्मेलन समाचार' अगला यानी सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन दो हज़ार तीन में सूरीनाम में हुआ। सम्मेलन में जो काम मुझे दिया गया, उसमें मुझे श्रम तो ख़ूब करना पड़ा, लेकिन आनंद भी बहुत आया। पिछले विश्व हिन्दी सम्मेलनों में प्रायः मुझे लगता था कि मैं इससे ज़्यादा कुछ कर सकता हूं। कविसम्मेलन तो एक रात में कुछ घंटों का मामला होता है और सम्मेलन चलता है तीन-चार दिन। बाकी समय में क्या करिए! सिर्फ प्रतिभागी बनकर फाइलें उठाए-उठाए घूमने में भला क्या मज़ा! आई० सी० सी० आर० ने मेरे सामने एक प्रस्तावनुमा सवाल रखा कि क्या मैं सम्मेलन के दौरान, प्रतिदि न, एक चार पेज की न्यूज़-बुलेटिन निकाल सकता हूं? सुनकर मैं तो परम प्रसन्न हो गया। उत्साह से भरकर मैंने कहा- 'जी, चार पृष्ठ क्या, मैं प्रतिदिन सोलह-पृष्ठीय समाचारपत्र निकाल दूंगा। मेरे पास अपना लैपटॉप है। साथ में डिजिटल कैमरा, जिससे मैं तस्वीरें खींचकर सीधे कंप्यूटर पर डाउनलोड कर सकता हूं। स्कैनिंग का कोई झंझट नहीं। एक टाइपिस्ट मिल जाए तो अच्छा है, वैसे मुझे टाइपिंग भी आती है। पेजमेकर और फोटोशॉप का पिछले कुछ वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं। चित्र बना सकता हूं, बाइंडिंग भी जानता हूं। ये सब तो मैं जानता हूं कि जानता हूं, लोगों का मानना है कि मैं लिख भी लेता हूं।' बहरहाल, प्रस्ताव पाकर मैं उल्लास से भरा हुआ था। एक चुनौतीपूर्ण कार्य मिला तो मैं अपनी पूर्व तैयारियों के साथ इस सम्मेलन में गया। मुझे ख़ुशी है यह बताते हुए कि पांच तारीख़ से लेकर दस तारीख़ तक श्री घनशाम दास, अनिल जोशी, राजमणि, के. बी. एल. सक्सेना और भुत सारे साथियों के सकर्मक सहयोग से मैंने न्यूज़-बुलेटिन के पांच अंक निकाले। नाम रखा 'सम्मेलन समाचार'। पांच जून को 'सम्मेलन समाचार' का स्वागतांक निकाला, छः जून को निकाला उद्घाटन के समाचारों को प्रा थमिकता देते हुए। कोई दस पेज का, कोई बारह पेज का, कोई चौदह पेज का। सामग्री हर दिन आवश्यकता से अधिक होती थी। सोचते थे कि बची हुई सामग्री को अंतिम दिन के 'विदाई अंक' में डा ल देंगे। ये पांच अंक निकालकर मुझे बहुत-बहुत आनंद आया। आनंद आया रिपोर्टिंग का, फोटोग्राफी का, पेज-सैटिंग का, प्रस्तुति-कला का, नई टीम के गठन का, घनघोर श्रम का और थकान का। मेरे अचानक जन्मे इस उत्साह और उल्लास के पीछे कुछ कारण और भी थे। पहला तो यह कि मैं विगत सम्मेलन की अख़बारी रिपोर्टों से मन ही मन थोड़ा खिन्न था। मुझे वे एकांगी लगी थीं। अगर मैं उस सम्मेलन में नहीं गया होता तो मुझे क्या पता चलता कि सचमुच क्या हुआ! मैं तो अख़बारों की रिपोर्ट को ही अंतिम मान लेता। लेकिन मैं तो वहां था। सब कुछ मैंने देखा था, सुना था। और सब कुछ वैसा नहीं था जैसा कि कुछ ख़ास अख़बारों में बताया गया था। मैंने उस सम्मेलन में लगभग दस रोल फोटो खीं चे। व्यक्तिगत वितरण के अतिरिक्त वे कहीं छपे नहीं। तब मन करता था कि इन चित्रों के साथ एक विस्तृत रिपोर्ट बनाऊं ताकि सम्मेलन की पूरी झांकी दिखा सकूं। उस दबी हुई कामना को पूरा होने का मौका मिला तो फिर मैं ख़ुश क्यों न होता। कई बार जब दाल में कंकड़ी आ जाती है तो मुंह में किरकिराहट भर जाती है। लेकिन जैसा मैंने बचपन से देखा है हम दाल नहीं फेंकते कंकड़ी थूक देते हैं। पल दो पल खाना बनाने वाले पर नाराज़ होते हैं और भूल जाते हैं। छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन के मामले में दाल-भात का तो ज़िक्र नहीं हुआ, कंकड़ी पुराण पर रोदन चलता रहा। मैं जानता था कि दाल में एक-दो कंकड़ियां थीं लेकिन भोजन सुस्वादु था। ज़मा ने ने तो यही जाना कि सारा गुड़-गोबर था। एक और भी पीड़ा थी मेरी। इस पीड़ा को वर्तमान पत्रकारिता से मेरी शिकायत भी माना जा सकता है कि प्रायः सारे अख़बार दृश्य के एक बहुत बड़े हिस्से को अनदेखा कर देते हैं। ऐसे जैसे- 'मूंदहु नयन कतहुं कछु नांही'। पत्रकारिता निर्णयात्मक ज़्यादा हो जाती है विवरणात्मक कम। पाठकों का अधिकार है कि पहले उन्हें सम्पूर्ण दृश्य दिखाया जाए। मुझे लगा कि मुझे यह मौका मिल रहा है। सो अंदर ही अंदर बहुत प्रसन्न था। तीसरी बात ये कि जामिआ मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में हम पिछले दो दशक से किसी न किसी रूप में पत्रकारिता पढ़ाते आ रहे थे। यह अवसर था जब मुझे पत्रकारिता के सैद्धांतिक पक्ष के साथ व्यावहारिक प्रयोग करने का अवसर मिल रहा था। 'सम्मेलन समाचार' प्रतिदिन शाम को छा पना बड़ा रोमांचकारी लगा। सोचा, पहले ये काम कर दिया जाए फिर विद्यार्थियों को उदाहरण के रूप में दिखाया जाए। कह सकता हूं कि 'सम्मेलन समाचार' की परिकल्पना से मेरे अंदर का विद्यार्थी सजग हो गया जो मेरे अंदर के गुरु को बहुत सारे नंबर लाकर दिखाना चाहता था। यानि मेरा उत्साह मेरे अंदर के विद्यार्थी का उत्साह था। चौथा कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पिछले सात-आठ साल से कम्प्यूटर के साहचर्य में रहते रहते यह बात शिद्दत से महसूस होने लगी कि नई सूचना प्रौद्योगिकी का पूरा-पूरा लाभ अभी हम हिन्दी में नहीं उठा पा रहे हैं। कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए हैं कि कम्प्यूटर कलम जैसा ही एक औज़ार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। प्रतिदिन अख़बार निकालने के पीछे मुझे अपने कम्प्यूटर जैसे साथी पर बड़ा भरोसा था। 'सम्मेलन समाचार' के रूप में मैं कम्प्यूटर की क्षमताओं का एक 'डैमो' देना चाहता था। कई बार ऐसा हुआ कि टाइप करने तक का समय नहीं मिला। डिजिटल कैमरे ने अलादीन के जिन्न की तरह हुकुम बजाया। आठ जून को सायंकालीन सत्र के बाद सम्मेलन में गए बारह सांसदों ने ‘सूरीनाम संकल्प’ के रूप में एक प्रस्ताव का प्रारूप बनाया। लिखा था— ‘सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हि न्दी सम्मेलन में भारतीय संसद की ओर से अधिकृत रूप से उपस्थित हुए संसद सदस्यों का यह प्रतिनिधि मंडल विश्व हिन्दी सम्मेलन के समग्र परिवेश का अध्ययन करने के पश्चात भारत सरकार से यह आग्रह करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए संसद एक संकल्प पारित करे और उसे शीघ्रातिशीघ्र क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाए’। संकल्प के नीचे सर्वश्री लक्ष्मी पांडे, नवल किशोर राय, बालकवि बैरागी, वरलु, दीना नाथ मिश्र, सरला माहेश्वरी, एपीजे, राम रघुनाथ चौधरी और सत्यव्रत चतुर्वेदी के हस्ताक्षर थे। पत्र का चित्र खींचा, आधा घंटे बाद अंक लोगों के हाथ में था। From ravikant at sarai.net Fri Jul 13 14:12:44 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 13 Jul 2007 14:12:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS24KWN?= =?utf-8?b?4KS1IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpLjgpK7gpY3gpK7gpYfgpLLgpKgu?= =?utf-8?b?Li4g4KSc4KS+4KSw4KWA?= Message-ID: <200707131412.44634.ravikant@sarai.net> अलग ताप-तेवर से होगा आठवां प्रथम सम्मेलन को हुए बीत गए बरस बाईस। सात सम्मेलन हो चुके, चीज़ें होने लगी पारदर्शी। आंकड़े अब बदल चुके हैं। कमोवेश ये बात साफ है कि आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन कुछ अलग ताप, तेवर और मिजाज़ का होना चाहिए। इसके आयोजनकर्ताओं के संकल्प भी छिपे नहीं हैं, साफ हैं। विदेश राज्यमंत्री आनंद शर्मा के निजि घनत्वपूर्ण रुचि लेने के कारण सम्मेलन की तैयारियां एक सार्थक दिशा लेने का प्रयास रही हैं। यह बात पता चलती है विश्व हिन्दी सम्मेलन की वेबसाइट www.vishwahindi.com से जि सका मीडिया लॉन्च उन्नीस मार्च को हुआ था। यह वेबसाइट श्री बालेन्दु शर्मा दाधीच के नेतृत्व में तैयार हुई है। वेबसाइट तो पिछले सम्मेलन में भी बनी थी पर ये वाली बात न थी। इस बार आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन की आधिकारिक वेबसाइट पूरी तरह यूनिकोड में बनी है और नवी नतम तकनीक पर आधारित है। इस की विषय वस्तु में निरंतर विस्तार होता रहेगा। इस वेबसाइट के चार खंड हैं। पहला खंड है सूचनात्मक, दूसरे में ऐतिहासिक महत्व की संदर्भ सामग्री है, तीसरा खंड पाठकों के साथ सम्पर्क की सुविधा प्रदान करता है यानी इंटरऐक्टिव है, चौथा डायनमिक खंड है जो निरंतर अपडैट होता रहेगा। लिखित चित्रात्मक और दृश्य श्रव्यात्मक सामग्री के अतिरिक्त इसमें ऐसी पी.डी.एफ फाइल भी होंगी जिन्हें डाउनलोड किया जा सकता है। यह वेबसाइट प्रतिदिन अपडैट होती है। स्थान की कोई समस्या नहीं है। आज अगर किसी को जानना है कि आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलनों में क्या होने जा रहा है, शेष सात सम्मेलनों में क्या हुआ था। कितने सत्र होंगे, उनका विषय क्या है तो कृपया अपने कम्प्यूटर खोलें, नेट पर जाएं और सेट कर लें। अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन विदेश मंत्रालय ने प्रारंभ से इसकी ज़िम्मेदारी उठाई है। जिस देश में सम्मेलन होता है वहां का कोई एक स्थानीय निकाय मेज़बानी करता है और विदेश मंत्रालय उसे न केवल वित्तीय सहायता देता है बल्कि आयोजन में सकर्मक रूप से सक्रिय रहता है। पिछले छ:-सात बरस में अनेक देशों से इस प्रकार की मांग उठी कि अगला विश्व हिन्दी सम्मेलन उनके देश में कराया जाए। विश्व हिन्दी सम्मेलन मान लीजिए किसी देश के अनुरोध पर वहां नहीं किया गया तो उन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन आयोजित कर लिए। त्रिनिदाद में एक बार विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ था। दोबारा न हो सका तो वहां के विश्वविद्यालय ने 2002 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन किया। इसी प्रकार कुछ देशों की मांग पर विदेश मंत्रालय ने कहा कि हम विश्व हिन्दी सम्मेलन तो नहीं करा सकते पर क्षेत्रीय हिन्दी सम्मेलन करा सकते हैं। पिछले दो वर्षों में अबूधाबी, दुबई, जापान, आस्ट्रेलिया और मॉस्को में हिन्दी सम्मेलन हुए। ये समझिए कि महाकुंभ से पहले होने वा ले अर्द्धकुंभ थे। महाकुंभ में तसल्ली से बात करने का मौका शायद न मिले पर क्षेत्रीय सम्मेलनों ने इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जितने भी क्षेत्रीय सम्मेलन हुए उनमें हिन्दी शिक्षण को लेकर गंभीर चर्चाएं हुईं। जापान के क्षेत्रीय सम्मेलन में नाट्य विधा रेखांकित हुई। वहां मिज़ोकामी और तनाका ने नाटकों के माध्यम से हिन्दी को फैलाया है। उज़्बेकिस्तान के लोग भारतीय धारावाहिकों से हिन्दी को संवर्धित कर रहे हैं। डॉ. फैज़ुल्लायेव ने रामानंद सागर की रामायण का रूसी में अनुवाद किया और पूरा धारावाहिक लोगों ने बड़े मज़े से देखा। कहना न होगा कि फिल्मी गीत, फिल्मी संवाद और धारावाहिकों ने हिन्दी को सम्पूर्ण विश्व की भाषा बना दिया है। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन तेरह जुलाई को संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय के परिसर में प्रात: दस बजे उद्घाटन होगा फिर चलेंगे नौ समा नांतर शैक्षिक सत्र। शैक्षिक सत्रों के विषय हैं-- संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी, विदेशों में हिंदी शि क्षण समस्याएं और समाधान, विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन (प्रवासी हिंदी साहित्य), हिंदी के प्रचार-प्रसार में सूचना प्रौद्योगिकी की भूमिका, वैश्वीकरण, मीडिया और हिंदी, हिंदी के प्रचार प्रसार में हिंदी फिल्मों की भूमिका, हिंदी, युवा पीढ़ी और ज्ञान-विज्ञान, हिंदी भाषा और साहि त्य- विभिन्न आयाम, साहित्य में अनुवाद की भूमिका, हिंदी और बाल साहित्य और देवनागरी लिपि। समापन सत्र में देश और विदेश के हिंदी विद्वानों का सम्मान किया जाएगा तथा पुराने अधूरे संकल्पों को दोहराया जाएगा, नए संकल्प पारित किए जाएंगे। इस बार सम्मेलन आयोजित करने की ज़िम्मेदारी पहले से ज़्यादा बड़ी है। भारतीय विद्या भवन के निदेशक डा. पी. जयरमन प्राणपण से व्यवस्थाओं में जुट गए हैं। हर सत्र में दस बोलने वाले भी रखे जाएं तो नब्बे तो वक्ता ही हो गए। वे कितना बोलेंगे यह इस पर निर्भर करता है कि हिन्दी के समाज में उनकी हैसियत कितनी है। कितने ही लोगों को टोका जा सकता है, बीच में रोका जा सकता है। कितनी ही आत्माएं कुलबुलाती रह जाएंगी, जिनको बोलने का अवसर नहीं मिल पाएगा। प्रतिभागी बनकर सुनने में भी क्या बुराई है। अनुमान है कि लगभग चार-पां च सौ लोग तो भारत से ही इस सम्मेलन में भाग लेने जाएंगे। संसार का मुश्किल से ही ऐसा कोई देश होगा जहां कोई हिन्दीभाषी न हो। हिन्दी के विकास में सरकार और स्वैच्छिक संस्थाओं से अधिक योगदान आज बाज़ार और मनोरंजन कर्मियों का है। संभवत: यही सोच कर आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन का केन्द्रीय विषय रखा गया है- ‘विश्व मंच पर हिन्दी’। सम्मेलन की तिथियां उद्घाटित होने के बाद से विश्वभर के हिन्दी-सेवियों में हलचल है। कौन नहीं चा हेगा अमरीका घूमना, कौन नहीं चाहेगा हिन्दी-सेवियों की जमात में शामिल होना और अपना किसी भी प्रकार का योगदान देना। अमरीका जाने का किराया और वहां ठहरने का खर्चा कम नहीं है फिर भी लोग उत्साहित हैं। देखते हैं यह उत्साह न्यूयार्क पहुंच कर हिन्दी के पक्ष में किस प्रकार का रूपा कार लेगा। विश्व हिन्दी सम्मेलन के बारे में इतना कहना चाहूंगा कि अब यह सम्मेलन हिन्दी का एक पर्व बनता जा रहा है। एक ऐसा मेला जहां हम दुनिया भर के हिन्दी वाले हंसते-खिलखिलाते हैं, मिलते-मिलाते हैं। एक ऐसा अवसर जब हिन्दी की विभिन्न प्रकार की बोली-शैलियां जीने वाले लोगों का आपस में मिलन होता है। भाषा किसी समाज में विभिन्न जीवन-शैलियों की जनक होती है- ये कोई ऐसी बात नहीं है जो लोगों को पता न हो। सब जानते हैं कि हमारे देश में अलग-अलग रंग, गोत्र, जाति, वर्ण और धर्म के लोग एक ही भाषा बोलते हैं। भाषा तो बोलने वालों के समुदाय की सतत निर्झरिणी है। एक समाज जिस भाषा में गुफ़्तगू करता है, जिसमें एक दूसरे से सम्प्रेषित होता है वो उस समाज की सा झेदारी होती है। विषयों का निर्धारण हो चुका है, खुला निमंत्रण है हिन्दी सेवियों को कि वे अपने विचार भेजें। उन आलेखों के चयन में कोई चूक न हो और हमारा मीडिया अन्यथा न ले क्योंकि अन्यथा लेने के सिवाय उसे विशेष आता नहीं है। सत्प्रयत्नों को रेखांकित कर देंगे तो गेन नहीं कर पाएंगे क्योंकि बारगेन नहीं कर पाएंग़े। अपनी रणनीति बदलें और प्रयत्नों को सैल्यूट करें और देखें कि आगे क्या होता है। posted by Ashok Chakradhar @ 12:49 AM 5 Comments 5 Comments: At 5:13 AM , संजय बेंगाणी said... अब तक हुए हिन्दी विश्व सम्मेलनो के बारे में अच्छा परिचय दिया. साधूवाद. At 12:13 PM , विष्णु बैरागी said... 'विश्‍‍‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन सिलसिले' आलेख पूरा पढने में बहुत ही धैर्य रख्‍ना पडा लेकिन आनन्‍द आ गया । अंग्रेजी चूंकि रोजगार की भाषा बन गई है इसलिए लोग रोटी पहले लपक रहे हैं, मां को पीछे छो ड रहे हैं । हिन्‍दी को पीठ पर ढोने के बजाय यदि पेट से जोड दिया जाए तो तस्‍वीर बदलने में पलक झपकने जितना ही समय लगेगा । 'सम्‍मेलन' से अलग हटकर बात करें तो आपके लेख ने मूल समस्‍या रेखांकित कर दी है । 'नई सूचना प्रौद्योगिकी का लाभ अभी हम हिन्‍दी में नहीं उठा पा रहे हैं । कम्‍प्‍यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ पाए हैं कि कम्‍प्‍यूटर कलम जैसा ही एक औजार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढा देता है ।' लेख का यह अंश समस्‍या का पूरा समाधान है । लोगों को पता ही नहीं है कि यूनीकोड के माध्‍यम से हिन्‍दी प्रत्‍येक कम्‍प्‍यूटर में अपनी स म्‍पूर्णता से उपलब्‍ध है । आने वाला समय कम्‍प्‍यूटर का ही है । लिहाजा, कम्‍प्‍यूटर को हिन्‍दी औजार के रूप में परिचित और प्रचारित करने पर जोर दिया जाना चाहिए । मैं ने अभी अभी ब्‍नाग विश्‍‍व में प्रवेश किया है । यद्यपित काम कर रहा हूं लेकिन सच मानिए 'यूनीकोड' का अर्थ नहीं जानता । मेरे उस्‍ताद श्री रवि रतलामी पग-पग पर पथ-प्रदर्शन कर देते हैं और मेरी गाडी चल रही है । नगरों, कस्‍बो, देहोतों में चल रहे कम्‍प्‍यूटर कोचिंग केन्‍द्रों पर यदि यह जानकारी प्रमुखता से प्रदर्शित की जाए तो सच मानिए, हिन्‍दी और कम्‍प्‍यूटर पर्याय बन जाएं । अभी तो जो लोग अंग्रेजी का ए भी नहीं जानते वे उतावले होकर कम्‍प्‍यूटर पर अंग्रेजी मे ठक-ठक करने को विवश और अभिशप्‍त हैं । आपने समस्‍या की जड बता दी है । इसके निदान के क्रियान्‍वयन को भी अभियान बनाने पर वि चार कीजिए । केवल आग्रह नहीं कर रहा हूं, मेरे योग्‍य काम बताइएगा । ऐसे अभियान से जुड कर आत्‍म सन्‍तोष मिलेगा । From kamal_bhu at rediffmail.com Fri Jul 13 17:23:44 2007 From: kamal_bhu at rediffmail.com (Kamal Kumar Mishra) Date: 13 Jul 2007 11:53:44 -0000 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= chakradhar ji ki iitihas drishti Message-ID: <20070713115344.26892.qmail@webmail24.rediffmail.com> bahut-bahut shukriya Ravikant, Silsila likhte hasya- Kavi Ki Nazron par kabhi Chakradhar ji ka apna adhyapakiya vyaktitva to kabhi unke andar chipa Patrakar samne ata hai.Hindi ki apne hi desh men adhikarikta khone aur Sanjukt Rastra men iski adhikarikta ka sawal uthne par likhte waqut chakradhar ji dwara jin rupakon ka prayog kiya gaya hai vah bhi kam dilchasp nahin hai. Chakradhar ji Indra Gandhi ke bhartiya bhasaon aur Rastrabhasha ke sandarbh men diye gaye us vaktvya -jismen swargiya Gandhi ne bhashaon ke prashn par bolte hue "sanjukt parivar" ke rupak ka istemal kiya tha- ko Hindi ki antrik takat ko vyakt karne wala pramanik vaktvya batate hain. " वे मानती थीं कि हमारी जितनी भी भाषाएं हउनके रहते हम एक संयुक्त परिवार जैसे हैं। वे सब की सब हमारी मातृभाषाएं हैं और चूंकि हिन्दी सब से बड़े भाग द्वारा बोली जाती है इसलिए हमारी राष्ट्र भाषा है। इंदिरा जी का वक्तव्य हिन्दी की आंतरिक ताकत को बताता है।" Austrelia se Mala ji ka Udahran bhi dhoond late hain. " आस्ट्रेलिया में माला मेहता ठगर हिन्दी स्कूल चला रही हैं तो उसके लिए भारत का कोई संस्थान उनकी आर्थिक मदद नहीं करता है। ठपने संसाधन स्वयं जुटाती हैं। दरठसल, हिन्दी स्कूल वहां के लोगों की निजी आवश्यकता है। वे जिस भाषा और संस्कृति से प्यार करते हैं, ठपने बच्चों को भी सिखाना चाहते हैं।" Lekin muhalle-samaj,aur sanjukta parivar ke rupakon men baat karta hamara ye pyara kavi angrezi ke lalon ke khilaf ek narazgi zahir karne ke sath hi, sasan-satta par is kadar nirbharta kyon pradarshit karta hai,ye bat samajh nahin aati??? बाहर से और शासन की ओर से जो ताकत उसे मिलनी चाहिए हिन्दी को ठभी भी उसकी दरकार है। मा ना कि वह राजभाषा है लेकिन राजभाषा के रूप में उसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम दबा लेते हैं। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीतिक दुरिइच्छाओं और ठंग्रेज़ियत के लालों की लाल फीताशाही से हिन्दी व्यापक तबा ही का शिकार हुई। vaise nai takniki(computer aur digi- cam) ke vyavhar ko lekar Chakradhar ji tamam theth Hindiwallon jaisa rukh nahin rakhte jaan kar accha laga. -ik Murid On Fri, 13 Jul 2007 Ravikant wrote : >maafi chahunga kafi lamba hai. doosri kist mein maujooda sammelan ki charcha >hai. > >ravikant > > >http://ashokchakradhar.blogspot.com/2007/06/blog-post_03.html > >Sunday, June 03, 2007 >विश्व हिन्दी सम्मेलन सिलसिले > >बच्चे क्यों जल्दी सीख जाते हैं? क्योंकि ठपनी जिज्ञासाओं को तत्काल शांत कर लेते हैं। वयस्क होते ही >बंदा दस बार सोचता है कि मन में जो सवाल उठा है उसे पूछें कि न पूछें। पूछ लिया तो हेठी तो न > हो जाएगी, ठज्ञानी तो न माने जाएंगे। इसी चक्कर में मैंने डॉ. इन्द्रनाथ चौधुरी से वह जिज्ञासा >नहीं रखी जो एक संगोष्ठी में उन्हें सुनकर मेरे ठंदर कुलबुला रही थी। उन्होंने कहा था— ‘हिन्दी एल. >डब्ल्यू. सी. है’। मुझे नहीं मालूम था कि एल. डब्ल्यू. सी. क्या होता है। संगोष्ठी के बाद मिले, >पूछने को हुआ तो उन्हें किसी और ने घेर लिया। ठपने ठगले किसी भाषण में उन्होंने फिर वही बात दो >हराई कि हिन्दी एल. डब्ल्यू. सी. है। भला हो उनका कि उन्होंने खुद ही बता दिया-- एल. >डब्ल्यू. सी. का मतलब है ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’। > >सचमुच हिन्दी ‘लैंग्वेज ऑफ वाइड सर्कुलेशन’ है। इस समय विश्व में काफी फैली-पसरी भाषा। > मीडिया-प्रभु के हाथों में शंख, गदा, चक्र, कमल, परशु, वीणा और स्वर्ण-मुद्राओं के विविध रूपों में >हिन्दी विराजमान है। मीडिया-प्रभु के चेहरे पर हिन्दी की वैश्विक मुस्कान है। > >उन्नीस सौ पिचहत्तर से विश्व हिन्दी सम्मेलनों का सिलसिला चला। पहला नागपुर में हुआ। दूसरा >सम्मेलन उन्नीस सौ छिहत्तर में मॉरीशस में हुआ। फिर सात वर्ष के ठंतराल के बाद सन उन्नीस सौ ति >रासी में नई दिल्ली में आयोजित हुआ। चौथा इसके दस साल बाद उन्नीस सौ तिरानवै में पुन: मॉरीशस >में हुआ। पांचवां उन्नीस सौ छियानवे में त्रिनिदाद में छठा उन्नीस सौ निन्यानवे में लंदन में, सातवां >दो हज़ार तीन में सूरीनाम में आयोजित हुआ और आठवां ठब न्यूयार्क में होने जा रहा है। पिछले > तीन बार से सरकार इस बात का ध्यान रखने लगी है कि विश्व हिन्दी सम्मेलनों का ठंतराल तीन-चा >र वर्ष से ठधिक न हो। > >सात सम्मेलनों का क्या लाभ हुआ >सवाल ये है कि क्यों जाते हैं लोग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में? क्यों होते हैं विश्व हिन्दी सम्मेलन? यह >आठवां है। सात सम्मेलनों का क्या निचोड़ निकला, क्या लाभ हुआ? इस बात के उत्तर में सवाल किया >जा सकता है कि किसी मेले, त्यौहार या पर्व का क्या लाभ होता है। ठगर लाभ-हानि उसी तरह से >देखेंगे जिस तरह से विभिन्न ठनुदान आयोग देखते हैं तब तो बात न बनेगी। वस्तुत: विश्व हिन्दी >सम्मेलन के ठवसर पर पूरी दुनिया में हिन्दी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले लोगों का मेला > जुड़ता है। उन लोगों से मिलने का मौका मिलता है जो भारत से सुदूर स्थित देशों में किसी न >किसी प्रकार से हिन्दी से जुड़े हुए हैं। वे भारतवंशी मिलते हैं जो आज से ड़ेढ़ सौ वर्ष पहले ये भूमि छोड़ >कर गए थे और साथ ले गए थे रामचरितमानस का एक गुटका और पोटली में सत्तू। >इन सम्मेलनों का घोषित उद्देश्य विदेशों में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना है। > >हिंदी का बरगद >देखना यह है कि हिंदी जिन जड़ों से निकली है, उसका बरगद पूरे विश्व में कहां-कहां तक फैला है और >उसने कहां-कहां ठपनी जड़ें जमाई हैं। हिंदी का यह बरगद सात समंदर पार तक ठपनी डालों को ले > गया। कुछ मजबूत डालों ने केरेबियन देशों में ठपनी जड़ें गिराईं कुछ ने गल्फ में तो कुछ ने एशिया में। ठब >उन जड़ों को वहां विकसित वृक्ष के तनों के रूप में देखा जा सकता है। वे जड़ें जहां गिरीं वहीं से खा >द-पानी लेने लगीं। > >पिछले बीस बरस में मैंने काफी दुनिया देखी है। इस दौरान प्रवासी भारतीयों में धीरे-धीरे एक चिंता >को विकसित होते देखा है। पश्चिम की दुनिया में ठब लोगों को ख्याल आ रहा है कि उनके बच्चे बड़े > हो गए और ठफसोस कि वे उन्हें ठपनी भाषा न सिखा पाए। ठफसोस कि उन्हें ठपनी संस्कृति न दे पा >ए। इस मरोड़ का तोड़ क्या हो? विश्व हिन्दी सम्मेलनों में इस प्रकार की सामूहिक चिंताएं एक मंच >पर आती हैं और निदान खोजती हैं। निदान का ठर्थ संस्थाएं चलाने के लिए केवल आर्थिक मदद करना >नहीं होता। > >आस्ट्रेलिया में माला मेहता ठगर हिन्दी स्कूल चला रही हैं तो उसके लिए भारत का कोई संस्थान उनकी >आर्थिक मदद नहीं करता है। ठपने संसाधन स्वयं जुटाती हैं। दरठसल, हिन्दी स्कूल वहां के लोगों की > निजी आवश्यकता है। वे जिस भाषा और संस्कृति से प्यार करते हैं, ठपने बच्चों को भी सिखाना चाहते >हैं। ‘हिन्दी समाज’ की डॉ. शैलजा चतुर्वेदी और ‘भारतीय विद्या भवन’ के गम्भीर वाट्स न केवल > हिन्दी शिक्षण से जुड़े हैं बल्कि स्थानीय संसाधनों से सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित कराते रहते हैं। >इसी तरह ठमरीका में ‘भारतीय विद्या भवन’, ‘ठंतरराष्ट्रीय हिन्दी समिति’ और ‘हिन्दी न्यास’ >के तत्वावधान में हिन्दी के बहुमुखी कार्यक्रम चलते रहते हैं। रूस, नेपाल और गल्फ के कई देशों > में ‘केन्द्रीय विद्यालय’ हिन्दी सिखाते हैं। इनका खाद-पानी भारत की जड़ों से जुड़ा है। >भारत सरकार की सहायता से मॉरीशस में ‘विश्व हिन्दी सचिवालय’ की स्थापना हो गई है, डॉ. वी >नू ठरुण हाल ही में उसकी निदेशिका बनी हैं। खाद-पानी एकल भूमि से मिले या संयुक्त मिट्टियों से, >दुनिया भर में हिन्दी की हरियाली फैलाने के प्रयत्न निरंतर बढ़ रहे हैं। > >मॉरीशस, त्रिनिदाद और सूरीनाम ऐसे देश हैं जहां भारतवंशी बहुतायत में रहते हैं। उन्होंने हिन्दी को >ठपने पूर्वजों से प्राप्त करके सुरक्षित रखा। स्थानीय भाषाओं के प्रभाव में कितनी सुरक्षित रख पाए, >यह ठलग बात है। नई पीढ़ी को भाषा-प्रदान की यह प्रक्रिया सहज ही घटित होती रही। इसमें > माताओं की भूमिका ठधिक रही, क्योंकि परंपरागत रूप से महिलाओं ने भाषा नहीं छोड़ी। इन तीनों > ही देशों के भारतवंशी परिवारों में भोजपुरी बोली जाती है। उनकी भोजपुरी ठीक वैसी भोजपुरी नहीं >है जैसी भारत के भोजपुरी ठंचल की है। उनकी भोजपुरी में उनकी स्थानीय भाषाओं के शब्द भी घुल-मिल >गए हैं। मॉरीशस में बोली जाने वाली भोजपुरी में फ्रैंच और क्रियोल भाषा के शब्द हैं। > >विदेशों में हिन्दी से रागात्मक लगाव को बढ़ाने में हिन्दी फिल्मों और हिन्दी गानों की महत्वपूर्ण > भूमिका रही है। हिन्दी गाने ठपनी मधुर धुनों और पारंपरिक तरानों के कारण भारतवंशियों को बहुत >ठच्छे लगते हैं। गाना एक बार नहीं, बहुत बार सुना जाता है, और जो बंदिश ठनेक बार सुनी जाती है >वह कंठस्थ हो जाती है। मैंने पाया कि भले ही पूरे गीत का ठर्थ वे नहीं समझते हैं, लेकिन त्रिनिदाद >और सूरीनाम के युवा मस्ती से ये गाने गाते हैं। ‘सुहानी रात ढल गई ना जाने तुम कब आओगे’ एक ऐसा >गीत है जिसे त्रिनिदाद में इस आस्था से गाते हैं जैसे वह उनका दूसरा राष्ट्र-गीत हो। कोई एक > व्यक्ति गाना प्रारंभ करता है, सभी सुर मिलाने लगते हैं। हिन्दी सम्मेलनों ने भारतवंशियों के ठन्दर >आत्मविश्वास का सुरीला संचार किया है। > >आज के ज़माने में टीस की बात ये है कि आदमी तीस दिन में बदल जाता है, सूरीनाम के भारतवंशी तो >एक सौ तीस साल पहले जो लोक-भाषा और लोक-संस्कृति लेकर गए थे आज भी वहां उन्हीं धुनों में गा >रहे हैं और भारत को प्यार करते हैं बेशुमार। युग बीत गए पर वे ज़्यादा नहीं बदले। ऐसे भारतवंशियों >को देखकर मन में ठपार स्नेह उमड़ता है। > >पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन का प्रमुख मुद्दा >श्रीमती इंदिरा गांधी का भाषण कितने ही लेखों में इन दिनों दोहराया जा रहा है। >उन्होंने पहले सम्मेलन में कहा था कि विश्व हिन्दी सम्मेलन किसी सामाजिक या राजनीतिक >प्रश्न ठथवा संकट को लेकर नहीं, बल्कि हिन्दी भाषा तथा साहित्य की प्रगति और प्रसार से उत्पन्न >प्रश्नों पर विचार के लिए आयोजित किया गया है। वे मानती थीं कि हमारी जितनी भी भाषाएं हैं >उनके रहते हम एक संयुक्त परिवार जैसे हैं। वे सब की सब हमारी मातृभाषाएं हैं और चूंकि हिन्दी सब से >बड़े भाग द्वारा बोली जाती है इसलिए हमारी राष्ट्र भाषा है। इंदिरा जी का वक्तव्य हिन्दी की >आंतरिक ताकत को बताता है। > >बाहर से और शासन की ओर से जो ताकत उसे मिलनी चाहिए हिन्दी को ठभी भी उसकी दरकार है। मा >ना कि वह राजभाषा है लेकिन राजभाषा के रूप में उसका कितना महत्व है और राजकाज में कितना >प्रयोग में आती है, ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिन्हें हम दबा लेते हैं। आज इस बात से इंकार नहीं किया जा >सकता कि राजनीतिक दुरिइच्छाओं और ठंग्रेज़ियत के लालों की लाल फीताशाही से हिन्दी व्यापक तबा >ही का शिकार हुई। > >बहरहाल, पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन में तीन मुद्दे थे लेकिन प्रमुख पहला ही था— >1। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया जाए। 2। वर्धा में विश्व >हिंदी विद्यापीठ की स्थापना हो। 3।हिंदी सम्मेलनों को स्थायित्व प्रदान करने के लिए ठत्यंत वि >चारपूर्वक एक योजना बनाई जाए > > >हिन्दी ठपने ही देश में ठपने ठधिकार खोने लगी थी और हम बात कर रहे थे संयुक्त राष्ट्र संघ > में हिन्दी की आधिकारिकता की। ऐसा हमारे मोहल्ले-समाज में भी होता है। जब घर में कोई कमतरी >हो तो हम मोहल्ले के सामने ठपनी ठन्दरूनी कमज़ोरियां नहीं बताते। मोहल्ले से ठपनी ठपेक्षा बनाए >रखते हैं कि वह हमारी श्रेष्ठता स्वीकार करे। > >संयुक्त राष्ट्र संघ में भाषा की ‘श्रेष्ठता’ स्वीकार कराने के लिए कुछ निर्धारित मानक थे। हिन्दी से >जुड़े आंकड़ों को लेकर हम वहां खरे नहीं उतरे। आचार्य विनोबा भावे ने पहले सम्मेलन में ही ठपने देश की >भाषागत विडम्बनाओं का उल्लेख किया था— ‘यूएनओ में स्पेनिश को स्थान है, ठगरचे स्पेनिश बोलने वाले >पंद्रह-सोलह करोड़ ही हैं। हिन्दी का यूएनओ में स्थान नहीं है, यद्यपि उसके बोलने वालों की संख्या >लगभग छब्बीस करोड़ है। इसका कारण यह है कि बिहार वालों ने ठपनी भाषा सेंसस में मैथिली, भो >जपुरी लिखी है। राजस्थान वालों ने ठपनी भाषा राजस्थानी बताई है। इन कारणों से हिंदी बोलने > वालों की संख्या पंद्रह करोड़ रह गई। ठगर हम इन सबकी गिनती करते तो हिन्दी बोलने वालों की >संख्या कम से कम बाईस करोड़ होती। इसके ठलावा उर्दू भी एक प्रकार से हिंदी ही है, जिसे बो >लने-वालों की संख्या करीब चार करोड़ है’। आचार्य ने इस बात पर भी ठपनी हैरानी जताई कि >यूएनओ ने चीनी मंदारिन जानने वालों की संख्या सत्तर करोड़ कैसे दर्ज करा दी। > >दरठसल, हुआ क्या कि चीन में भाषा के प्रति राजनीतिक सदिच्छा रही और लाल झंडे तले >लालफीताशाही ने देश के सारे नागरिकों से भाषा के कॉलम में एक ही नाम भरवा लिया— ‘मंदारिन’। >हालांकि, वहाँ भी तीस-चालीस भाषाएं ठस्तित्व और चलन में थीं। सत्तर के दशक के प्रारंभ में उनकी >आबादी लगभग सत्तर करोड़ थी। जनगणना के भाषागत सर्वेक्षण के आधार पर यूएनओ ने स्वीकार कर लि >या कि चीनी बोलने वाले सत्तर करोड़ हैं। और उन्होंने ‘मंदारिन’ को मान्यता दे दी। > >ठनेक महनीय विद्वान मानते हैं कि हिन्दी की महनीयता तभी मानी जाएगी जब वह संयुक्त राष्ट्र की >आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता पा जाएगी। > >दूसरा विश्व हिन्दी सम्मेलन : बालक भी नहीं शिशु >मैं ठठहत्तर में मॉरीशस में गया था। दूसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में तो शरीक नहीं हुआ, लेकिन महात्मा >गांधी इंस्टीट्यूट के हिंदी विभाग में जाने का ठवसर मिला। नए-नए बने प्रधानमंत्री श्री ठनिरुद्ध >जगन्नाथ के निजी न्योते पर हम दो कवि, मैं और श्री ओम प्रकाश आदित्य वहां गए और यह पाया कि >पूरा मॉरीशस इस बात पर गर्व करता था कि हमारे देश में दूसरा विश्व हिंदी सम्मेलन हुआ। > >उस सम्मेलन में हमारे देश के हिंदी के बड़े-बड़े विद्वान गए थे, कवि और लेखक गए थे। डॉ. हजारी प्रसा >द द्विवेदी का सम्मेलन की ठंतिम गोष्ठी में दिया गया भाषण ठद्भुत था। उन्होंने ठपने भाषण की >शुरुआत यह कहते हुए की कि आप इतनी देर से धैर्य के साथ सुन रहे हैं। मुझे आप पर दया भी आ रही थी >। आपको भी मेरे ऊपर थोड़ी-थोड़ी दया आती होगी। प्राय: ऐसा कुछ छूटा नहीं है जो विद्वानों ने >आपको बताया न हो। उनसे ठछूती कौन सी बात कहूं मुझे समझ में नहीं आ रहा है। >उनकी इस प्रस्तावना से लगता था जैसे वे ठधिक नहीं बोलेंगे लेकिन वे लगभग एक घंटा बोले और सब ने >बहुत एकाग्रता से सुना। उन्होंने कहा— ‘यह जो विश्व हिन्दी सम्मेलन है इसका ठभी दूसरा ही वर्ष >है। बहुत बालक भी नहीं शिशु है। ठभी तो यह पैदा ही हुआ है, एक दो साल का बच्चा है। लेकिन >इसको देखकर लगता है कि एक महान भविष्य का द्वार उन्मुक्त हो रहा है’। > >द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन को हुए ठब इकत्तीस वर्ष हो चुके हैं। आचार्य द्विवेदी की भविष्य > दृष्टि सब कुछ जानती थी। आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन ठब बत्तीस वर्ष का परिपक्व जवान होने वा >ला है। यह युवक ऊर्जावान है, इसकी क्षमताएं ठपार हैं। > >आठवां विश्व हिन्दी सम्मेलन पहली बार इतने विराट फलक पर आयोजित होने जा रहा है। उसका उद्घा >टन सत्र भी यू. एन. की इमारत में होगा। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी नहीं है का दर्द पाले हुए > हमारे आदरणीय बुजुर्ग श्री मधुकर राव चौधरी चिंतित न हों। जिस इमारत में आठवें हिंदी विश्व >सम्मेलन का उद्घाटन होना है उसी इमारत में शायद ये मधुर घोषणा सुनने को मिले कि हिंदी संयुक्त > राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा है। आधिकारिक भाषा क्यों नहीं होगी भला? बताइए! जब बुश, भले >ही ठपनी सुरक्षा के लिए, ठपने पूरे देश को प्राथमिक स्तर से हिंदी सिखाने पर आमादा हैं, जब सारे >मल्टीनेशनल्स बहुत बड़ा बाजार देखकर हिंदी के सॉफ्टवेयर निर्माण में ठपनी पूरी ताकत झोंक रहे हैं, >जब प्रयोक्ताओं के सूचना प्रौद्योगिकी के सद्य:विकसित ज्ञान के कारण हिंदी में सूचना समाचारों का >आदान-प्रदान और प्रेमाचार हो रहा है और जब हमारे पास माशाठल्ला पैसे की भी वैसी कमी नहीं है >तो फिर हिन्दी क्यों नहीं होगी संयुक्त राष्ट्र में एक आधिकारिक भाषा। पहले विश्व हिन्दी सम्मेलन >के समय हमारे देश के सामने विदेशी मुद्रा की उपलब्धि का सवाल था। आज वैसी चिंताएं नहीं हैं। > >संस्कृति, भाषा और नई सूचना प्रौद्योगिकी >ठब जबकि हम इंटरनेट के युग में हैं पूरा विश्व ठपनी भौगोलिक दूरियां समाप्त करते हुए बकौल > डॉ. सुधीश पचौरी एक ग्लोकुल बन चुका है-- ‘ग्लोबल गोकुल’। गोकुल एक गांव है पर गांव से कुछ > ज़्यादा है। मुहब्बत फैलाता है। ‘ग्लोकुल’ बनने के बाद एक ठच्छी बात यह हुई है कि ठब से सात-आ� >साल पहले हिंदीवादियों का जो ठहंकार था वह ठब युवा-शक्ति की नई आशाओं और आकांक्षाओं के कारण >धीरे-धीरे नमित हुआ है। प्रारंभ में जो लोग कंप्यूटर और तकनीक को साहित्य विरोधी, संस्कृति विरो >धी और पाश्चात्य सभ्यता का आक्रमण मानते थे वे भी ठब मानने लगे हैं कि कंप्यूटर तो एक माध्यम भर >है। यह संस्कृति नहीं है, इसके माध्यम से संस्कृतियां आ-जा सकती हैं। दूसरी संस्कृति को रोकने >का प्रयास करेंगे तो ठपनी संस्कृति को ठन्यत्र कैसे पहुंचाएंगे। > >हिन्दी को लेकर जो कुंठाएं थीं वे समाप्त हो गई हों ऐसा नहीं कह सकते। कई बार घर की >कलह को बाहर की ताकतें ठीक करती हैं। ठपना महत्व तब पता चलता है जब बाहर के लोग बताएं। हम >हनुमान जी के देश के लोग हैं और ठतुलित बलधामा है हिन्दी। इसको जाना माइक्रोसोफ्ट ने, गूगल ने, >याहू ने और आज इंटरनेट पर सूचना भण्डारण कोई समस्या नहीं रही। गति इतनी कि आप मिली सैकिण्ड >में सूचनाएं पा सकते हैं। सर्च की जो सुविधा हिन्दी में आई है उसने हिन्दी के परिवार को ठचानक >बहुत बड़ा किया है। आज ठपनी संस्कृति और भाषा को व्यापकतम स्तर पर फैलाने का माध्यम है- नई >सूचना प्रौद्योगिकी। दिन-ब-दिन नए-नए जनसंचार माध्यमों से, प्रौद्योगिकी से, हिन्दी का पाट >चौड़ा हो रहा है, उसका प्रवाह तीव्र हो रहा है और लगने लगा है कि वह इस भूमंडल की एक >महत्वपूर्ण सम्पर्क भाषा बन सकती है। भारतवंशी पूरे विश्व में फैले हुए हैं, वे हिन्दी के चलन को > विश्वव्यापी बना सकते हैं। > >लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था >न्यूयार्क में यह सम्मेलन जो ठब होने जा रहा है, यह निन्यानवे में भी हो सकता था वहां। प्राथमिक >प्रयास ठमरीका के ही चल रहे थे, लेकिन छोटे-छोटे ठहंकार और भविष्य की दूरगामी दृष्टि न होने के >कारण ठमरीका स्थित हिन्दी सेवी संस्थाएं प्रस्तावित आयोजन को साकार रूप न दे सकीं। ठचानक >लंदन के नौजवानों ने वह कार्यक्रम लपक लिया। देखते ही देखते सम्मेलन लंदन में सम्पन्न हो गया, और >ठच्छी तरह से हुआ। लंदन का विश्व हिंदी सम्मेलन छठा था। इससे पहले त्रिनिदाद और भारत में भी > हो चुके थे। लंदन में काफी ठफरा-तफरी रही। मैं भी गया था, मेरी तो तफरी रही। न तो मुझे किसी >सत्र में बोलना था, न कोई शैक्षिक ज़िम्मेदारी थी, मात्र एक कविसम्मेलनी कवि की हैसियत से बुला >या गया था। जग का मुजरा लेता रहा और लोगों को सुनता रहा। कैमरा साथ ले गया था, फोटो खीं >चता रहा। लंदन की हिंदी की खूबसूरती पर मैंने ग्यारह रोल खर्च कर दिए। किन्हीं विद्वान को, > जिन्होंने उस सम्मेलन में भाग लिया हो और ठपना फोटो न मिला हो तो मुझसे संपर्क कर सकते हैं, शा >यद मैं उन्हें उनका चित्र दे पाऊं। मेरे पास डॉ. नामवर सिंह और डॉ. विष्णु कांत शास्त्री के घुट-घुट >कर बतियाते हुए चित्र हैं। शिवानी जी के ऐसे चित्र हैं जिन्हें पाकर डॉ. मृणाल पांडे खुश हो सकती >हैं। > >तो, छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन में मैंने फोटोग्राफर की हैसियत से भाग लिया। और वहीं से मेरी रुचि >सम्मेलनों में बढ़ी। लगा जैसे यह है हिंदी का एक ठद्भुत मेला, एक कुंभ। जहां आप ठपनी हिन्दीगत, > व्यावहारिक, सांस्कृतिक भड़ांस निकाल सकते हैं। कह सकते हैं, सुन सकते हैं और ठपनी कलंगी में एक पंख >जोड़ सकते हैं- देखा हम भी गए थे कुंभ करने, हम भी वहां थे। > >वहां मैंने देखा कि आयोजक प्रिय पद्मेश गुप्ता, तितीक्षा शाह, उषा राजे सक्सेना, के़.बी़.एल़. >सक्सेना, कृष्ण कुमार, महेन्द्र वर्मा और ब्रज गोयल परेशान थे क्योंकि सम्मेलन में ‘पांच बुलाए पंद्रह >आए’, मुहावरा बेमानी हो गया। वहां तो पांच सौ से ज़्यादा आ गए। इतने प्रतिभागियों की > व्यवस्था कैसे हो? कहां टिकाया जाए? कहां खिलाया जाए? लेकिन मैंने देखा कि नौजवान ठगर किसी >चीज़ में लग जाएं तो हर समस्या हल हो सकती है। बड़ी ही निष्ठा से उन लोगों ने ठधिकांश के >ठहरने, खाने और मनोरंजन का इंतजाम किया। सारा पैसा भारत सरकार ने दिया हो ऐसा तो नहीं > था। उन्होंने ठपने-ठपने संसाधनों और सम्पर्कों का इस्तेमाल किया। किसी से भोजन स्पौन्सर कराया > किसी से स्टेशनरी। स्वयं कितना करते! जहां से फोकट में मिल सकता था, हिन्दी के हित में लिया। > किस से ले रहे हैं इस पर ध्यान नहीं दिया। एक भोजन सत्यनारायण मंदिर में क्या हो गया, भारत के >ठख़बारों में कोहराम मच गया कि देखिए सम्मेलन का स्वरूप धार्मिक है, इसे कट्टरवादी दक्षिण पंथी >शक्तियों ने हथिया रखा है। > >मैं समझता हूं कि ठपनी-ठपनी विचारधाराएं ठपने-ठपने साथ हैं, लेकिन हिंदी के मामले को लेकर दक्षि >ण-पंथी और वाम-पंथी होकर नहीं सोचना चाहिए। हिन्दी के लिए न कोई पक्ष हो और न प्रतिपक्ष, >हिन्दी तो सबकी है। जो सरकार में हैं उन्हें भी हिंदी के हित में होना चाहिए, जो विपक्ष में हैं > उन्हें भी। वस्तुत: हिंदी को एक ऐसी भाषा के रूप में विश्व में स्थापित करना है जो एक ओर हमारे >देश के लोकतांत्रिक मूल्यों की वाहिका बने दूसरी ओर हमारी साझा संस्कृति की संवाहिका। > >सातवें का 'सम्मेलन समाचार' >ठगला यानी सातवां विश्व हिन्दी सम्मेलन दो हज़ार तीन में सूरीनाम में हुआ। सम्मेलन में जो काम मुझे >दिया गया, उसमें मुझे श्रम तो ख़ूब करना पड़ा, लेकिन आनंद भी बहुत आया। पिछले विश्व हिन्दी >सम्मेलनों में प्रायः मुझे लगता था कि मैं इससे ज़्यादा कुछ कर सकता हूं। कविसम्मेलन तो एक रात में >कुछ घंटों का मामला होता है और सम्मेलन चलता है तीन-चार दिन। बाकी समय में क्या करिए! सिर्फ >प्रतिभागी बनकर फाइलें उठाए-उठाए घूमने में भला क्या मज़ा! > >आई० सी० सी० आर० ने मेरे सामने एक प्रस्तावनुमा सवाल रखा कि क्या मैं सम्मेलन के दौरान, प्रतिदि >न, एक चार पेज की न्यूज़-बुलेटिन निकाल सकता हूं? सुनकर मैं तो परम प्रसन्न हो गया। उत्साह से >भरकर मैंने कहा- 'जी, चार पृष्ठ क्या, मैं प्रतिदिन सोलह-पृष्ठीय समाचारपत्र निकाल दूंगा। मेरे > पास ठपना लैपटॉप है। साथ में डिजिटल कैमरा, जिससे मैं तस्वीरें खींचकर सीधे कंप्यूटर पर डाउनलोड >कर सकता हूं। स्कैनिंग का कोई झंझट नहीं। एक टाइपिस्ट मिल जाए तो ठच्छा है, वैसे मुझे टाइपिंग > भी आती है। पेजमेकर और फोटोशॉप का पिछले कुछ वर्षों से इस्तेमाल कर रहा हूं। चित्र बना सकता >हूं, बाइंडिंग भी जानता हूं। ये सब तो मैं जानता हूं कि जानता हूं, लोगों का मानना है कि मैं लिख >भी लेता हूं।' > >बहरहाल, प्रस्ताव पाकर मैं उल्लास से भरा हुआ था। एक चुनौतीपूर्ण कार्य मिला तो मैं ठपनी पूर्व >तैयारियों के साथ इस सम्मेलन में गया। मुझे ख़ुशी है यह बताते हुए कि पांच तारीख़ से लेकर दस तारीख़ >तक श्री घनशाम दास, ठनिल जोशी, राजमणि, के. बी. एल. सक्सेना और भुत सारे साथियों के >सकर्मक सहयोग से मैंने न्यूज़-बुलेटिन के पांच ठंक निकाले। नाम रखा 'सम्मेलन समाचार'। पांच जून >को 'सम्मेलन समाचार' का स्वागतांक निकाला, छः जून को निकाला उद्घाटन के समाचारों को प्रा >थमिकता देते हुए। कोई दस पेज का, कोई बारह पेज का, कोई चौदह पेज का। सामग्री हर दिन > आवश्यकता से ठधिक होती थी। सोचते थे कि बची हुई सामग्री को ठंतिम दिन के 'विदाई ठंक' में डा >ल देंगे। ये पांच ठंक निकालकर मुझे बहुत-बहुत आनंद आया। आनंद आया रिपोर्टिंग का, फोटोग्राफी का, >पेज-सैटिंग का, प्रस्तुति-कला का, नई टीम के गठन का, घनघोर श्रम का और थकान का। > >मेरे ठचानक जन्मे इस उत्साह और उल्लास के पीछे कुछ कारण और भी थे। पहला तो यह कि मैं विगत >सम्मेलन की ठख़बारी रिपोर्टों से मन ही मन थोड़ा खिन्न था। मुझे वे एकांगी लगी थीं। ठगर मैं उस >सम्मेलन में नहीं गया होता तो मुझे क्या पता चलता कि सचमुच क्या हुआ! मैं तो ठख़बारों की रिपोर्ट >को ही ठंतिम मान लेता। लेकिन मैं तो वहां था। सब कुछ मैंने देखा था, सुना था। और सब कुछ वैसा >नहीं था जैसा कि कुछ ख़ास ठख़बारों में बताया गया था। मैंने उस सम्मेलन में लगभग दस रोल फोटो खीं >चे। व्यक्तिगत वितरण के ठतिरिक्त वे कहीं छपे नहीं। तब मन करता था कि इन चित्रों के साथ एक > विस्तृत रिपोर्ट बनाऊं ताकि सम्मेलन की पूरी झांकी दिखा सकूं। उस दबी हुई कामना को पूरा होने >का मौका मिला तो फिर मैं ख़ुश क्यों न होता। > >कई बार जब दाल में कंकड़ी आ जाती है तो मुंह में किरकिराहट भर जाती है। लेकिन जैसा मैंने बचपन से >देखा है हम दाल नहीं फेंकते कंकड़ी थूक देते हैं। पल दो पल खाना बनाने वाले पर नाराज़ होते हैं और >भूल जाते हैं। छठे विश्व हिन्दी सम्मेलन के मामले में दाल-भात का तो ज़िक्र नहीं हुआ, कंकड़ी पुराण >पर रोदन चलता रहा। मैं जानता था कि दाल में एक-दो कंकड़ियां थीं लेकिन भोजन सुस्वादु था। ज़मा >ने ने तो यही जाना कि सारा गुड़-गोबर था। > >एक और भी पीड़ा थी मेरी। इस पीड़ा को वर्तमान पत्रकारिता से मेरी शिकायत भी माना जा सकता >है कि प्रायः सारे ठख़बार दृश्य के एक बहुत बड़े हिस्से को ठनदेखा कर देते हैं। ऐसे जैसे- 'मूंदहु नयन >कतहुं कछु नांही'। पत्रकारिता निर्णयात्मक ज़्यादा हो जाती है विवरणात्मक कम। पाठकों का >ठधिकार है कि पहले उन्हें सम्पूर्ण दृश्य दिखाया जाए। मुझे लगा कि मुझे यह मौका मिल रहा है। सो >ठंदर ही ठंदर बहुत प्रसन्न था। > >तीसरी बात ये कि जामिआ मिल्लिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग में हम पिछले दो दशक से किसी न >किसी रूप में पत्रकारिता पढ़ाते आ रहे थे। यह ठवसर था जब मुझे पत्रकारिता के सैद्धांतिक पक्ष के > साथ व्यावहारिक प्रयोग करने का ठवसर मिल रहा था। 'सम्मेलन समाचार' प्रतिदिन शाम को छा >पना बड़ा रोमांचकारी लगा। सोचा, पहले ये काम कर दिया जाए फिर विद्यार्थियों को उदाहरण के >रूप में दिखाया जाए। कह सकता हूं कि 'सम्मेलन समाचार' की परिकल्पना से मेरे ठंदर का विद्यार्थी >सजग हो गया जो मेरे ठंदर के गुरु को बहुत सारे नंबर लाकर दिखाना चाहता था। यानि मेरा उत्साह >मेरे ठंदर के विद्यार्थी का उत्साह था। > >चौथा कारण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। पिछले सात-आठ साल से कम्प्यूटर के साहचर्य में रहते रहते यह >बात शिद्दत से महसूस होने लगी कि नई सूचना प्रौद्योगिकी का पूरा-पूरा लाभ ठभी हम हिन्दी में >नहीं उठा पा रहे हैं। कम्प्यूटर और नई तकनीकों के प्रति हम सहज नहीं हो पाए हैं और न ही समझ > पाए हैं कि कम्प्यूटर कलम जैसा ही एक औज़ार है जो आपकी क्रियाशीलता को कई गुना बढ़ा देता है। >प्रतिदिन ठख़बार निकालने के पीछे मुझे ठपने कम्प्यूटर जैसे साथी पर बड़ा भरोसा था। > 'सम्मेलन समाचार' के रूप में मैं कम्प्यूटर की क्षमताओं का एक 'डैमो' देना चाहता था। > >कई बार ऐसा हुआ कि टाइप करने तक का समय नहीं मिला। डिजिटल कैमरे ने ठलादीन के जिन्न की >तरह हुकुम बजाया। आठ जून को सायंकालीन सत्र के बाद सम्मेलन में गए बारह सांसदों ने ‘सूरीनाम >संकल्प’ के रूप में एक प्रस्ताव का प्रारूप बनाया। लिखा था— ‘सूरीनाम में आयोजित सातवें विश्व हि >न्दी सम्मेलन में भारतीय संसद की ओर से ठधिकृत रूप से उपस्थित हुए संसद सदस्यों का यह प्रतिनिधि >मंडल विश्व हिन्दी सम्मेलन के समग्र परिवेश का ठध्ययन करने के पश्चात भारत सरकार से यह आग्रह >करता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को आधिकारिक भाषा की मान्यता दिलाने के लिए संसद एक >संकल्प पारित करे और उसे शीघ्रातिशीघ्र क्रियान्वित करने के लिए आवश्यक क़दम उठाए’। संकल्प के > नीचे सर्वश्री लक्ष्मी पांडे, नवल किशोर राय, बालकवि बैरागी, वरलु, दीना नाथ मिश्र, >सरला माहेश्वरी, एपीजे, राम रघुनाथ चौधरी और सत्यव्रत चतुर्वेदी के हस्ताक्षर थे। पत्र का चित्र >खींचा, आधा घंटे बाद ठंक लोगों के हाथ में था। >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070713/c98b3348/attachment.html From RAVISH at NDTV.COM Mon Jul 16 10:16:22 2007 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Mon, 16 Jul 2007 10:16:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must read... Message-ID: ???? ????? ????? ???????? ????? ??? ?? ??????? ??? ??? ???? ??????? ???? ???? ?? ??? ?? ??? ??? ????? ?????? ???? ???? ??????????? ?? ???? ?? ???? ???? ?? ?? ????? ??? ?????? ?? ??????????? ??? ???? ??? ????? ??????? ???? ?????? ???? ?? ?? ??? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ?? ?? ?? ??? ?? ???? ?? ??? ??????? ???? ??? ???? ???? ????? ?? ??? ?? ????? ???????? ????? ?? ??? ????? ?? ????? ???? ???? ???????? ????? ???? ?? ????? ??????? ?????? ??? ?? ?????? ???? ?? ??? ???? ?? ??? ???????? ???? ???? ?????? ??? ???? ???? ???????? ???? ???? ?????????? ?? ???? ????? ???????? ????? ??? ?? ???????? ????? ???? ??? ???? ??????? ????? ???? ???? ?? ?? ?????? ???? ???????? ???? ?????? ?? ????? ?? ?????? ?? ????? ???? ???? ??? ?? ??? ???????? ?? ?????? ?? ??? ???? ??? ????? ?? ??? ?? ????? ???? ?? ??????? ???? ???? ??? ?????? ? ?????????? ???? ????? ???? ?????? ????? ??? ?????? ???????? ?? ???????? ????? ??? ?? ??????? ???? ???? ?? ?? ?? ?????? ?? ????? ?? ???? ???? ?? ????? ????? 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070716/d210986e/attachment.html From RAVISH at NDTV.COM Mon Jul 16 10:17:32 2007 From: RAVISH at NDTV.COM (Ravish Kumar) Date: Mon, 16 Jul 2007 10:17:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= FW: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must read... References: Message-ID: ________________________________ From: Ravish Kumar Sent: Mon 7/16/2007 10:16 AM To: deewan at sarai.net Subject: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must read... ???? ????? ????? ???????? ????? ??? ?? ??????? ??? ??? ???? ??????? ???? ???? ?? ??? ?? ??? ??? ????? ?????? ???? ???? ??????????? ?? ???? ?? ???? ???? ?? ?? ????? ??? ?????? ?? ??????????? ??? ???? ??? ????? ??????? ???? ?????? ???? ?? ?? ??? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ?? ?? ?? ??? ?? ???? ?? ??? ??????? ???? ??? ???? ???? ????? ?? ??? ?? ????? ???????? ????? ?? ??? ????? ?? ????? ???? ???? ???????? ????? ???? ?? ????? ??????? ?????? ??? ?? ?????? ???? ?? ??? ???? ?? ??? ???????? ???? ???? ?????? ??? ???? ???? ???????? ???? ???? ?????????? ?? ???? ????? ???????? ????? ??? ?? ???????? ????? ???? ??? ???? ??????? ????? ???? ???? ?? ?? ?????? ???? ???????? ???? ?????? ?? ????? ?? ?????? ?? ????? ???? ???? ??? ?? ??? ???????? ?? ?????? ?? ??? ???? ??? ????? ?? ??? ?? ????? ???? ?? ??????? ???? 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?? ?? ??? ???? ???? ?????? ???? ??? ???? ???? ?? ????? ?????? ?? ? ravish kumar... read this on my blog..naisadak.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070716/4c64a2bc/attachment.html From beingred at gmail.com Tue Jul 17 02:30:36 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 17 Jul 2007 02:30:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 49, Issue 9 In-Reply-To: References: Message-ID: <363092e30707161400x5bbb018cmbd69a145374a7e5c@mail.gmail.com> ...aur yah phir nahin dikh raha hai. yah dikkat sirf deewan ke mail men hai. On 7/16/07, deewan-request at mail.sarai.net wrote: > > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at mail.sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at mail.sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at mail.sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. [दीवान] FW: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must > read... (Ravish Kumar) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Mon, 16 Jul 2007 10:17:32 +0530 > From: "Ravish Kumar" > Subject: [दीवान] FW: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must > read... > To: > Message-ID: > < > F221457EB307C440948C89E977D6EE0702047AF9 at delhi-mail.ARCHANA.NDTV.COM> > Content-Type: text/plain; charset="iso-8859-1" > > > > ________________________________ > > From: Ravish Kumar > Sent: Mon 7/16/2007 10:16 AM > To: deewan at sarai.net > Subject: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must read... > > > ???? ????? ????? ???????? ????? ??? ?? ??????? ??? ??? ???? ??????? ???? > ???? ?? ??? ?? ??? ??? ????? ?????? ???? ???? ??????????? ?? ???? ?? ???? > ???? ?? ?? ????? ??? ?????? ?? ??????????? ??? ???? ??? ????? ??????? ???? > ?????? ???? ?? ?? ??? ?? ???? ????? ?? ????? ?? ??? ???? ?? ???? ?? ?? ?? > ??? ?? ???? ?? ??? ??????? ???? ??? > > ???? ???? ????? ?? ??? ?? ????? ???????? ????? ?? ??? ????? ?? ????? ???? > ???? ???????? 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070717/417c4ffc/attachment.html From beingred at gmail.com Tue Jul 17 02:33:38 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Tue, 17 Jul 2007 02:33:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KWH?= =?utf-8?b?IOCkuOCkruCkryDgpJXgpYAg4KSP4KSVIOCklOCksOCkpCDgpJXgpL4g?= =?utf-8?b?4KSm4KSw4KWN4KSmIOCklOCksCDgpJXgpYHgpJsg4KS44KS14KS+4KSy?= Message-ID: <363092e30707161403n7621828cr774a79aeef785f52@mail.gmail.com> अपने समय की एक औरत का दर्द और कुछ सवाल साल के शुरू में एक कविता आयी थी यवन की परी . स्त्री की यातना, पीडा़, दर्द और आंसुओं में लिपटी उस कहानी को कहानी भर माना जा सकता था. माना भी गया. मगर यहां जो कुछ हम पढ रहे हैं-वह अपने आसपास की पीडा़ है, वेदना है, यातना है और कुछ सवाल हैं-जिनके जवाब बाकी हैं. हो सकता है कि कुछ संदेह भी हों, होने भी चाहिए, जिनके जवाब हम समय के साथ तलाशेंगे (कोशिश करेंगे) मगर अभी वे सवाल पूरे के पूरे और दर्द का वह आवेग-पूरा का पूरा. क्या हुआ जो यह सब उस कवि के बारे में है जिसे अपने समय में हम सबसे अधिक प्यार करते हैं, चाहते हैं. असीमा भट्ट का यह आत्मसंघर्ष कथादेश के जुलाई अंक में छपा है. यह बहुत लंबा है इसलिए यहां उसे क्रमवार रूप से (साभार) दिया जा रहा है. आज पहली किस्त. दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना असीमा भट्ट कितनी अजीब बात है जब मैं पत्रकारिता करती थी, लोगों से साक्षात्कार लेती थी और उनके बारे में लिखती थी और जब कुछ खास नहीं होता था तो खीझ कर कहती थी-कहानी में कोई डेप्थ नहीं है संघर्ष नहीं है ! मजा नहीं आ रहा, क्या लिखूं? आज जब अपने बारे में लिखने बैठी हूं तो बड़े पसोपेश में हूं, अपने बारे में लिखना हमेशा कठिन होता है. कहां से शुरू करूं, कुछ समझ में नहीं आ रहा. यह जीवनी नहीं है. हां मेरे जीवन की कड़वी हकीकत जरूर है. कुछ कतरनें हैं, जिन्हें लिखने बैठी हूं. बहुत दिनों से कई मित्र कह रहे थे-अपने बारे में लिखो. पर हमेशा लगता था, अपना दर्द अपने तक ही रहे तो अच्छा. उसे सरेआम करने से क्या फायदा? लेकिन सुधादी के स्नेह भरे आग्रह ने कलम उठाने पर मजबूर कर दिया क्योंकि यह सच है कि जिसे मैं अपनी निजी तकलीफ मानती हूं, सिर्फ अपना दर्द, वह किसी और का भी तो दर्द हो सकता है. लोहा-लोहे को काटता है इसलिए यह सब लिखना जरूरी है ताकि एक दर्द दूसरे के दर्द पर मरहम रख सके. हो सकता है, जिस कठिन यातना के दौर से मैं गुजरी हूं, कई और मेरी जैसी बहनें गुजरी हों, और शायद वे भी चुप रह कर अपने दर्द और अपमान को छुपाना चाहती हों. या अब तक इसलिए चुप रही हों कि अपने गहरे जख्मों को खुला करके क्या हासिल? खास करके जब जख्म आपके अपने ने दिये हों. वही जो आपका रखवाला था. जिसे अपना सब कुछ मान कर जिसके हाथों में आपने न केवल अपनी जिंदगी की बागडोर सौंप दी बल्कि अपने सपने भी न्योछावर कर दिये. बिहार के एक प्रतिष्ठित परिवार में मेरा जन्म हुआ. मेरे दादा जी अपने इलाके के जाने-माने डाक्टर थे और उनका सिनेमा हॉल और ईंट के भट्ठे का कारोबार था. समाज में हमारे परिवार का बहुत नाम और इज्जत था. मेरे नाना जी स्वयं जमींदार थे. उनकी काफी खेती-बाड़ी और काफी तादाद में पशु (गाय-बैल और भैंस) थे. पिता जी कम्युनिस्ट थे. बनारस विश्वविद्यालय में पढ़ते थे. छात्र जीवन से ही वे क्रांतिकारी हो गये. उन्होंने सरकारी तंत्र का कड़ा विरोध किया, जिसके लिए उन्हें कई बार जेल भी जाना पड़ा. लंबे समय तक उन्हें जेलों के यातनाघर (सेल) में रखा गया. बाद में उनके साथियों ने उनके लिए केस लड़ा और पिता जी जेल से बाहर आये बाद में जेपी आंदोलन में भी वे काफी सक्रिय रहे. मैं अपने माता-पिता की शादी के 14 साल बाद पैदा हुई थी. मेरे जन्म के बाद मेरे चाचा जी ने कहा था, इतने दिनों बाद हुई भी तो बेटी. इस पर मेरे पिता जी हमेशा कहते हैं-क्रांति मेरी ताकत है. मेरा विश्वास है. उन्हें मुझ पर बहुत गर्व था. वे कहते थे एक दिन आयेगा जब लोग कहेंगे देखो वह क्रांति का पिता जा रहा है. दुनिया में कोई भी शादी इसलिए नहीं होती कि उसका अंजाम तलाक हो. शादी किसी भी लड़की की जिंदगी की नयी शुरुआत होती है. नये सपने, नयी उम्मीदें, नयी उमंगें, बचपन में हर लड़की अपनी दादी-नानी से परियों की कहानी सुनती है. एक परी होती है और एक दिन सफेद घोड़े पर सवार एक राजकुमार आता है और परी को ले जाता है. दुनिया की शायद ही कोई लड़की हो, जिसने ये सपने न देखे हों-सिंड्रेला की तरह. मेरी शादी पांच जुलाई, 1993 को पटना में हुई. मेरे पति आलोकधन्वा एक प्रतिष्ठित-सम्मानित कवि हैं. खास तौर से संवेदना और प्रेम के कवि. हमारी शादी कई मायनों में भिन्न थी. जाति-बिरादरी के अलावा हमारी उम्र में लंबा अंतराल था. लगभग 20-22 साल का. शादी के वक्त मेरी उम्र 23वर्ष थी और उनकी 45 वर्ष. बड़ी उम्र होने की वजह से हमेशा उनमें एक कुंठा रहती थी. लेकिन शादी के बाद मैंने उम्र को कभी तूल नहीं दिया. प्यार किया तो पूरी तरह से डूब कर प्यार किया. पूरी शिद्दत, पूरी ईमानदारी से. मैं काफ़ी बागी किस्म की लड़की थी. बगैर उनके उम्र और दुनिया की परवाह किये मैं सरेआम, खुली सड़क पर उन्हें गले लगा कर चूम लेती थी और वे झेंपते हुए कहते-तुम प्रेमिकाओं की प्रेमिका हो. हमारा प्रेम कुछ इस तरह परवान चढ़ा. छोटे शहरों में आज भी रंगमंच के क्षेत्र में कम ही लड़कियां आगे आती हैं. पटना में भी इस क्षेत्र में इनी-गिनी लड़कियां ही थीं. मैं भी उनमें से एक थी. उन दिनों उनकी बेहद मशहूर कविता भागी हुई लड़कियां का मंचन होना था. इसका मंचन संभवतः मई 1993 में हुआ था. उसी दौरान हमारी मुलाकात हुई. मैंने उनकी कविता में भूमिका भी की. शुरू-शुरू में हमारी उस कविता को लेकर बहुत बहस होती थी. अकसर मैं कविता को बारीकी से समझने के लिए पूछती, आखिर आपने यह पंक्ति क्यों लिखी? और वे हंसते हुए जवाब देते-मैंने तुम जैसी लड़कियों के लिए ही लिखा है. धीरे-धीरे जान-पहचान दोस्ती में बदल गयी. कभी-कभी मैं उनके घर भी जाने लगी. उनकी उम्र को देख कर मुझे हमेशा लगता कि वे शादीशुदा हैं और शायद पत्नी कहीं बाहर रहती हैं या फिर अलग. एक दिन मैंने पूछ ही लिया. आपकी पत्नी कहां रहती हैं. कभी उन्हें देखा नहीं. वे जोर से हंसे और कहा-अरे पगली मैंने शादी नहीं की. -क्यों? -इसलिए कि अब तक कोई तुम जैसी पगली मेरी जिंदगी में नहीं आयी. -आप मजाक कर रहे हैं. -नहीं! मैं सच कह रहा हूं. तुमने तो जैसी मेरी कविता को सजीव बना दिया. जैसे यह कविता मैंने सिर्फ तुम्हारे लिए ही लिखी थी. -आप जैसे कवि को कोई अब तक कोई मिली क्यों नहीं आखिर? -शायद तुम मेरी तकदीर में थीं. वे अकसर ऐसी बातें करते और मैं उन्हें बस यों ही लिया करती थी. हां! एक बात जरूर थी कि उनका बात करने का खास अंदाज मुझे बहुत भाता. मुझे याद है, एक दिन शरतचंद्र के श्रीकांत की अभया और टाल्सटाय की अन्ना कारेनीना पर बातें हो रही थीं. उन दोनों को देखने की उनकी दृष्टि मुझसे भिन्न थी और मैंने सहमत न होते हुए तपाक से कहा, आपको नहीं लगता, आखिर उन दोनों स्त्रियों (अभया और अन्ना कारेनीना) की तलाश एक ही थी और वह थी प्रेम की तलाश. वे अचानक बोले-तुम्हें पता है जब मर्लिन मुनरो, अन्ना कारेनीना और इजाडोरा डंकन को एक बोतल में मिला कर हिलाया जायेगा तो उससे जो एक व्यक्तित्व तैयार होगा वह हो तुम. तुम्हारे अंदर की आग ही मुझे तुम्हारे प्रति खींचती है. आज तक मुझे तुम जैसी बातें करनेवाली लड़की नहीं मिली. मुझसे शादी करोगी? अप्रत्याशित सवाल से मैं चौक गयी-सर मैं आपकी कविताएं पसंद करती हूं. आपकी इज्जत करती हूं, लेकिन शादी के बारे में सोच भी कैसे सकती हूं, आप उम्र में मुझसे कितने बड़े हैं. -तो क्या हुआ? ब्रेख्त की पत्नी हेलेना भी उनसे लगभग 20 वर्ष छोटी थीं. दिलीप साहब और सायरा जी की उम्र तो बाप-बेटी के बराबर है. दिलीप कुमार तो सायरा बानों की मां नसीम बानो के साथ अभिनय कर चुके थे. तुमने बंदिनी देखी है?उसमें अशोक कुमार और नूतन का प्रेम देखा है? -फिर भी मैं ऐसा नहीं कर सकती. मैं अपने भाई-बहनों में सबसे बड़ी हूं. मेरी मां इसके लिए कभी राजी नहीं होगी. -उन्हें बताने की क्या जरूरत है. आखिर तुम अपनी जिदंगी अपनी मां और भाई-बहन के लिए नहीं जी रही हो. तुम्हारी जैसी खुद्दार लड़की को अपने फैसले खुद लेने चाहिए. तुम्हें अपनी शर्तों पर जीना चाहिए. -नहीं मैं आपसे शादी नहीं कर सकती-कहती हुई मैं वापस आ गयी. उन दिनों मैं एक वर्किंग वीमेंस हॉस्टल में रहती थी और पटना से प्रकाशित होनेवाले हिंदी दैनिक आज में काम करती थी. तीन दिन बाद एक बुजुर्ग महिला (मेरे पति की मित्र) मुझसे मिलने मेरे दफ्तर आयीं और बताया कि तुम्हारे आने के बाद से वह गंभीर रूप से बीमार हैं. तुम्हारे ऑफिस में फोन किया लेकिन तुमने नहीं उठाया. तुम्हारे हॉस्टल भी मिलने गया लेकिन तुमने मिलने से मना कर दिया. वह हताश हो गया है. उसे गहरा सदमा लगा है. एक बार चल कर देख लो. उसे मुझे उनसे शादी नहीं करनी थी इसलिए उनसे मिलने या बात करने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं थी. मैं उनके साथ ही उन्हें देखने उनके घर आ गयी. वाकई वे बहुत बीमार और कमजोर लग रहे थे. उस वक्त वहां उनके कुछ मित्र भी थे जो मेरे जाते ही बाहर चले गये. और मेरे कवि पति मेरे पैरों पर गिर कर रोने लगे-मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकता. तुम नहीं जानतीं तुम मेरे लिए कितनी अहमियत रखती हो. तुम्हारे आने से मेरी जिंदगी को एक नया अर्थ मिला है. मैं तुम्हें हमेशा, हर तरह से खुश रखूंगा. इतना बड़ा कवि मेरे सामने फूट-फूट कर रो रहा था. मैं स्तब्ध थी और अचानक मेरे मुंह से निकला ठीक है, आपको शादी करनी है तो जल्दी कर लीजिए वरना मेरे घरवालों का दबाव पड़ेगा तो मैं कुछ नहीं कर पाऊंगी. कहने की देर थी और हफ्ते भर में मेरी शादी हो गयी. शादीवाले दिन मेरा मन बहुत उदास था. आखिर मेरी उम्र की लड़कियों की जैसी शादी होती है, वैसा कुछ भी नहीं था. दिल के भीतर से कहीं आवाज उठ रही थी-जो हो रहा है, वह ठीक नहीं है मैं कहीं भाग जाना चाहती थी, ऐसा जी होता था कि किसी सिनेमा हॉल में जा कर बैठ जाऊं ताकि लोग मुझे ढूंढ न पायें. पर मुझे घर से बाहर जाने का मौका नहीं मिला क्योंकि शादी के कुछ दिन पहले से ही मेरे पति मुझे अपने घर ले आये थे, जहां उनकी बहनें लगातार मेरे साथ रहती थीं. लगातार रोने और मन बेचैन होने से मेरे सर में दर्द था. हमारी शादी एक साहित्य भवन में हुई थी. वहां से घर आ कर मैं जल्दी सोने चली गयी. देर रात तक मेरे पति और उनकी महिला मित्र की आवाजें मेरे कानों में पड़ती रहीं. सुबह जब मैं जागी तो मेरे पति ने मुझसे कहा जाओ-जा कर उनका पैर छुओ. -किनका? मैं चौंकी. मैंने देखा, घर में कोई और नहीं था. उन्होंने रात ही अपनी मां-बहन को अपने घर भेज दिया था. थोड़ी देर बाद उनकी बड़ी बहन का फोन आया. उन्होंने पहला सवाल किया, वो मास्टरनिया (वो महिला एक स्कूल में पढ़ाती थी, इसलिए उन्हें सब मास्टरनिया बुलाते थे) रात में कहां थी? -यहीं हमारे घर पर ही थीं. -देखो, अब वह घर भी तुम्हारा है और पति भी. अब पति और घर तुम्हें ही संभालना है. मुझे यह समझने में देर नहीं लगी कि सबने जान-बूझ कर मुझे धोखा दिया. मेरी सास-ननद को सब पता था और सबने मुझे इस आग में झोंक दिया. ऐसी थी मेरी सुहागरात! मैं शादी के पहले दिन ही बुरी तरह से बिखर गयी. मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया. मैं आज तक नहीं समझ पायी आखिर क्यों किया इन्होंने ऐसा? बाद में मैंने इस पर बड़े धैर्य और प्यार से बात की-सर मैं आपको सर कहती हूं. आपकी बेटी की उम्र की हूं फिर भी आपसे शादी की. लेकिन जब आप किसी और से प्रेम करते थे तो आपने मुझसे शादी क्यों की? आप जैसे इनसान को तो उन्हीं से शादी करनी चाहिए थी, जिससे प्रेम हो. -मैं उनसे शादी नहीं कर सकता था. -क्यों? -क्योंकि वह पहले से शादीशुदा हैं. उनके बच्चे हैं, वे उम्र में मुझसे 12 साल बड़ी हैं. मैं जैसे आसमान से नीचे गिरी. मेरे मुंह से यकायक निकला- यह कहां की हिप्पोक्रेसी है सर? आप 22 साल छोटी लड़की से शादी कर सकते हैं और 12 साल बड़ी स्त्री से नहीं तो फिर आपको उनसे प्रेम संबंध भी नहीं बनाना चाहिए. पत्नियां जब ऐसे सवाल करती हैं तो उनका क्या हश्र होता है, शायद यह किसी से छिपा नहीं. सबसे घिनौनी बात यह थी कि मेरे पति अपनी महिला मित्र को सार्वजनिक जगहों पर घोषित रूप से दीदी बुलाते थे. सुना है, पुष्पाजी भी भारती जी को राखी बांधा करती थीं, यह इलाहाबाद में सभी जानते थे. भाई-बहन के रिश्ते का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है? बाद में एक दिन उन दीदी का 60वां जन्मदिन भी हमारे ही घर पर बड़ी धूमधाम से मनाया गया. एक दिन मैंने उनसे कहा, अगर आप में साहस है तो खुल कर इस रिश्ते को स्वीकारें. मुझे खुशी होगी कि मेरे पति में इतनी हिम्मत है. यह कायरोंवाली हरकत देश के इतने बड़े कवि को शोभा नहीं देती. मैं आपका साथ दूंगी. आप उन्हें सार्वजनिक तौर पर स्वीकारें. लेकिन इसके लिए तैयार होने के बजाय उन्होंने मुझे बाकायदा धमकी दी कि मैं यह बात किसी से न कहूं, खास कर उनके भैया-भाभी और बच्चों से. वह दिन मुझे आज भी याद है, जब पहली बार उन्होंने मुझ पर हाथ उठाया. जो इनसान पहले मुझसे कहा करता था कि तुम्हारे अंदर आग है. तुम्हारे सवाल बहुत आंदोलित करते हैं, आज वही मेरे पत्नी होने के मूल अधिकार के सवाल पर मुझे प्रताड़ित कर रहा था. ऐसे में हर लड़की का आसरा मायका होता है पर मैं तो वह दरवाजा पहले ही बंद कर आयी थी. मैं बड़ी मन्नतों-मनौतियों के बाद पैदा हुई थी. इसलिए मुझे दादी और नानी के घर सभी जगह बहुत लाड़-प्यार मिला. सबके लिए मैं भगवान का भेजा हुआ प्रसाद थी. सबकी चहेती, सबकी लाडली, अपनी मरज़ी से शादी करके मैंने सबका दिल तोड़ था. चूंकि मैं कहीं जा नहीं सकती थी इसलिए छह महीने अंदर-ही-अंदर घुटती रही और सब सहती रही. एक दिन तंग आकर मां के पास चली गयी. हालांकि मुझमें मां को सब सच बताने की हिम्मत नहीं थी कि मेरे साथ क्या-क्या हो रहा है लेकिन वह मां थी. वह अपने आप समझ गयी थी कि मैं इस शादी को तोड़ने का फैसला करके आयी हूं. उन्होंने जो कहा उसने मुझे वापस लौटने पर मजबूर कर दिया. मां ने कहा, हम औरत जात को दो-दो खानदानों की इज्जत निभानी पड़ती है. एक अपने मां-बाप की और दूसरा अपने ससुराल की. अब तुमने जो किया सो किया. अब शादी तो निभानी ही पड़ेगी. वरना लोग क्या कहेंगे? शादी-ब्याह कोई गुड्डे-गुड़ियों का खेल तो है नहीं. मैं वापस वहीं लौट आयी जहां मेरे लिए एक पल भी जीना मुश्किल था, फिर भी मैंने एक अच्छी पत्नी बन कर घर बसाने की पूरी कोशिश की लेकिन मैं सफल न हो सकी. शायद मैं बंजर धरती पर फूल खिलाने की कोशिश कर रही थी. आज दुख इस बात का है कि जो रिश्ता बहुत पहले खत्म हो जाना चाहिए था उसे मैं सड़ी लाश की तरह घसीटती रही. लहरों के राजहंस में सुंदरी अपने विरेचक (बिंदी) को लगातार इस उम्मीद में गीला रखती है कि उसका पति नंद वापस आ कर उसका श्रृंगार प्रसाधन पूरा करेगा. आखिर सुंदरी हार कर कहती है, मुझे खेद है तो यही कि जितना समय इसे गीला रखना चाहिए था, उससे कहीं अधिक समय मैंने इसे गीला रखा. मेरा मन कचोटता है-क्यों हर मां सिर्फ अपनी बेटी को ही घर बसाने और बचाने की नसीहत देती है? क्यों घर बचाना सिर्फ औरतों की जिम्मेदारी है? क्यों जब किसी औरत का घर टूटता है तो सारी दुनिया उसे ही कटघरे में खड़ा करती है? क्यों कोई मां अपने बेटे से नहीं कहती कि बेटा, शादी और गृहस्थी की गाड़ी तुम्हें भी चलानी है, कि समाज और खानदान की इज्जत तुम्हारे हाथ में भी है? घर को बचाने की जवाबदेही जितनी पत्नी की है, उतनी पति की क्यों नहीं है? मेरे कई सवालों के उत्तर मुझे आज तक नहीं मिले. क्रमशः तसवीर : असीमा भट्ट अपने नाटक एक गुमनाम औरत का खत में और नीचे, आलोकधन्वा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070717/bd045fe2/attachment.html From ravikant at sarai.net Tue Jul 17 11:49:11 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 17 Jul 2007 11:49:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Deewan_Digest_=2C_?= =?utf-8?q?Vol_49=2C_Issue_9?= In-Reply-To: <363092e30707161400x5bbb018cmbd69a145374a7e5c@mail.gmail.com> References: <363092e30707161400x5bbb018cmbd69a145374a7e5c@mail.gmail.com> Message-ID: <200707171149.12037.ravikant@sarai.net> रियाज़ साहब, आसिमा भट के आत्मकथ्य के लिए शुक्रिया. रवीश की यह डाक तो किसी को सही नहीं आई होगी, पर आपका पोस्ट ठीक आया और ज़ाहिर है मैंने पढ़ा भी. आजकल हिन्दी में लेखिका आत्मकथ्य-समारोह जैसा चल रहा है. मैंने अभी-अभी मन्नू भंडारी की *एक कहानी यह भी* पढ़ी, और साथ में हंस में आईं मुख़्तलिफ़ समीक्षाएँ भी. लेखिकाओं ने अंततः तय कर लिया है कि अब वह सिर्फ़ रूमानी, आत्ममुग्ध विशिष्ट लेखकों का विषय-मात्र नहीं रहेंगी, अपनी कहानी ख़ुद लिखेंगी. मन्नू जी की कहानी बड़ी सधी हुई, और संयत है, औ र शायद जान-बूझकर ऐसी है. जिसका हमें आदर करना चाहिए. पर अपनी प्रतिक्रिया में रोहिणी अग्रवाल थोड़ी भड़क गईं हैं, जो मैं नये नारीवाद के नये तेवर के रूप में लेता हूँ, अपनी जगह शायद ठीक, पर उनकी इस बात से मैं कतई सहमत नहीं कि मन्नू जी की कहानी साहित्यिकता में कमज़ोर है, या अपने वक़्त के आम सवालों से दो-चार नहीं होती. बात सिर्फ़ इतनी है कि आम सवालों पर तो आम लोग बड़ी ख़ासो-आम बातें करते रहे हैं, और उन्हें मन्नू जी ने भी अपनी रचनाओं में हरसंभव समेटने की कोशिश की ही है. यह उनकी कहानी है, अपने घर की, अपनी ज़मीन की, अपनी कशमकश की, बड़ी ईमानदारी से लिखी गयी, और दिलों, बिस्तरों और रसोईघर की इन्हीं तन्हाइयों का बयान इसे विशिष्ट बना डालता है, जिसकी चर्चा तक विशिष्ट लेखकों के आत्मकथ्य में नहीं होता. हमारे लेखकों के यहाँ निजी-सार्वजनिक का जो अछूता, सियाह पक्ष था, लेखिकाओं ने उसे रौशन करने का क्रम शुरू कर दिया है, ज़ाहिर है इसके बाद आदरणीय राजेन्द्र जी की वह छवि तो निश्चय ही नहीं रह जायेगी उनके हमारे-जैसे प्रशंसकों के बीच. जिन लोगों ने इन या इन-जैसे प्रसंगों को पढ़ा है, उनसे निवेदन है कि हमारा ज्ञानवर्द्धन करें. रविकान्त मंगलवार 17 जुलाई 2007 02:30 को, reyaz-ul-haque ने लिखा था: > ...aur yah phir nahin dikh raha hai. yah dikkat sirf deewan ke mail men > hai. > > On 7/16/07, deewan-request at mail.sarai.net > > > > > > > > Today's Topics: > > > > 1. [दीवान] FW: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must > > read... (Ravish Kumar) > > > > > > ---------------------------------------------------------------------- > > From ravikant at sarai.net Tue Jul 17 12:00:55 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 17 Jul 2007 12:00:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) in MidJuly2007 Message-ID: <200707171200.55801.ravikant@sarai.net> Gopal Singh Nepali ki ek mashahoor Kavita: nayi anubhutiti se: http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/gsnepali/meradhan.htm yahin par aapko unka ek chhota sa parichay bhi milega. ravikant ........ मेरा धन है स्वाधीन कलम राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम जिसने तलवार शिवा को दी रोशनी उधार दिवा को दी पतवार थमा दी लहरों को खंजर की धार हवा को दी अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम रस-गंगा लहरा देती है मस्ती-ध्वज फहरा देती है चालीस करोड़ों की भोली किस्मत पर पहरा देती है संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम कोई जनता को क्या लूटे कोई दुखियों पर क्या टूटे कोई भी लाख प्रचार करे सच्चा बनकर झूठे-झूठे अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम बस मेरे पास हृदय-भर है यह भी जग को न्योछावर है लिखता हूँ तो मेरे आगे सारा ब्रह्मांड विषय-भर है रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से आदत न रही कुछ लिखने की निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम तुझ-सा लहरों में बह लेता तो मैं भी सत्ता गह लेता ईमान बेचता चलता तो मैं भी महलों में रह लेता हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम मेरा धन है स्वाधीन कलम 16 जुलाई 2007 ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) in MidJuly2007 Date: सोमवार 16 जुलाई 2007 22:44 From: "AbhiAnu" To: "AnuAbhi" The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). * समकालीन कहानियों में भारत से राजेश जैन की दो अंकों में समाप्य लंबी कहानी हिस्सेदारी का पहला भाग * हास्य-व्यंग्य में गुरमीत बेदी का नज़र में अजूबे और भी हैं इंडिया में! * धारावाहिक में ममता कालिया के उपन्यास दौड़ का सातवाँ और अंतिम भाग * इतिहास के अंतर्गत हेमंत शर्मा का आलेख पूरब में ऑक्सफ़ोर्ड * आज सिरहाने अभिरंजन कुमार का कविता संग्रह उखड़े हुए पौधे का बयान * गौरव ग्राम में- गोपाल सिंह नेपाली * तेवरियों में- ऋषभ देव शर्मा * कविताओं में- हरे राम समीप * दोहों में- पवन चंदन * अंजुमन में- सावित्री तिवारी आज़मी अश्विन ------------------------------------------------------- From beingred at gmail.com Wed Jul 18 02:08:54 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 18 Jul 2007 02:08:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KSh4KSV4KWA?= =?utf-8?b?LCDgpJzgpYsg4KSt4KS+4KSX4KWAIOCkqCDgpKXgpYAgKOCkpuCksA==?= =?utf-8?b?4KWN4KSmIOCkleCkviDgpLngpKYg4KS44KWHIOCkl+ClgeCknOCksA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS+IOCkueCliCDgpKbgpLXgpL4g4KS54KWLIOCknOCkvuCkqA==?= =?utf-8?b?4KS+LTIp?= Message-ID: <363092e30707171338v51a27ba5mbba568c3ad5eefa1@mail.gmail.com> लडकी, जो भागी न थी असीमा भट्ट के आत्मसंघर्ष का पहला हिस्सा आपने कल पढा था-आज इसका अगला हिस्सा. असीमा के इस लेख ने न सिर्फ़ स्त्री अधिकारों के संदर्भ में कुछ अहम (जिनमें कुछ क्लासिकल भी हैं) सवाल उठाये हैं बल्कि यह भी बहस पैदा की है कि एक लेखक-कवि का मूल्यांकन उसके लेखन के साथ-साथ उसके ऐसे व्यवहारों से भी क्यों नहीं होना चाहिए (यह बात सभी क्षेत्रों में लागू होती है). दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना-2 असीमा भट्ट मुझे शादी के बाद पत्नी का कोई अधिकार नहीं मिला. घर के परदों का रंग भी उनकी प्रेमिका तय करती थी. हालांकि आलोक सिनेमा नहीं देखते थे लेकिन एक बार मेरे बहुत जिद्द करने पर जब हम फिल्म सरदारी बेगम देखने गये तो वह अपनी प्रेमिका को भी साथ ले गये और वह हम दोनों के बीच में बैठी. मेरे लिए यह सब असह्य और अपमानजनक था. आलोक से सबसे बड़ी शिकायत मेरी यह रही कि उनमें कभी कोई निर्णय लेने की ताकत नहीं थी. हर बार, हर बात में जो भी करना है, वह उन दीदी से पूछ कर करना. उसे भी मैं नजरअंदाज करती रही, लेकिन मेरे मामलों में उनकी दखलंदाजी दिन पर दिन बढ़ती ही गयी. ऊपर से आलोक हमेशा यह कहें कि वे उम्र में तुमसे बड़ी हैं, कॉन्वेंट में पढ़ाती हैं, उनसें सीखो. मुझे पहले ही दिन से उस औरत का विरोध करना और एक पत्नी के अधिकार के लिए कदम उठाना चाहिए था. धीरे-धीरे मैं उदासीन और निराश होती चली गयी, जो जैसा चल रहा है, चलने दो. जहां एक ओर मैं आलोक का आत्मविश्वास बढ़ाने का काम कर रही थी, वहीं मेरा अपना आत्मविश्वास मेरे हाथ से छूटने लगा. और तब मुझे लगा कि नहीं, मुझे इस तरह से हार नहीं माननी है. इसलिए मैंने पटना छोड़ने का फैसला कर लिया. ऑफिस, थिएटर और घर के काम में मैं पिसती रहती थी. अकेली, आलोक कभी कोई मदद नहीं करते. खाना बनाना, कपड़े धोना और घर की सफाई. कभी-कभी उनकी बहन मेरे घर आती तो कहती-तोहार घर त आईना एइखन चमकत बा. (तुम्हारा घर तो आईने की तरह चमकता है). एक और बात बताते हुए अब तो हंसी आती है कि जब मैं आलोक के साथ थी तो वे नौकरानी नहीं रखते थे. मैं घर का काम करने के बाद नौकरी करने जाती, फिर शाम को थिएटर करके वापसघर आ कर घर का काम करती. कभी थकी होती तो कहती, आज ब्रेड ऑमलेट या पनीर खा लो, खाना बनाने की हिम्मत नहीं है, तो वे कहते-तुम तो पांच मिनट में खाना बना लेती हो. रात तो अपनी है, थोड़ा देर से ही सही पर खाना तो बनना ही चाहिए. अब जब मैं अलग रहने लगी तो मेरे प्यार का दम भरनेवाला इनसान दो-दो नौकरानियां रखता है. एक नौकरानी का नाम शांति था. जब कभी छुटि्टयों में मैं घर (पटना) जाती तो वह मुझे शांति कह कर पुकारते थे. मैं अपनी मरज़ी से घर पर किसी को बुला नहीं सकती थी. कभी मेरी मां-बहन मेरे घर आयी तो मेरे पति ने उन्हें अपमानित करके बाहर निकाल दिया. एक बार मेरी छोटी बहन बीमार थी. वह डाक्टर को दिखाने मेरे पास आयी. मैंने जब अपनी बहन को अपने पास रखने का फैसला लिया तो उन्होंने मुझे अपनी भाभी और उसके परिवार के सामने पीटा. एक बार उन्होंने ऐसे ही देर रात को मेरी मां को घर से निकाल दिया. मेरी मां ने एक गंदी धर्मशाला में रात गुजारी जहां पीने का पानी तक नहीं था जबकि मेरी मां ब्लडप्रेशर की मरीज हैं. बस समय बीतता गया और एक दिन वह भी आया जिसका इंतजार दुनिया की हर औरत करती है. मां बनने का इंतजार ! वह दिन मेरी जिंदगी में भी आया. आलोक को शायद अंदेशा लग गया था. उन्होंने जबरदस्ती मुझे अपनी परिचित डाक्टर शाहिदा हसन के पास भेजा. शाहिदा जी मुझे बेहद प्यार करती थीं. मुझे कभी-कभी लगता वे मेरी मां भी हैं, डाक्टर भी और एक सहेली भी. चेकअप के बाद उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए गले लगा लिया और मुझे मां बनने की शुभकामनाएं दीं. मैं शरमा गयी. मेरे लिए यह मेरी जिंदगी का पहला और अनोखा अनुभव था. क्लीनिक से घर आते-आते रास्ते भर में न जाने कितने ख्याल मन में दौड़ गये, कितने सपने मैंने बुन डाले. घर जा कर पति से क्या कहूंगी, कैसे कहूंगी. हिंदी सिनेमा के कई दृष्य आंखों के सामने घूम गये. जब एक नायिका अपने पति से कहती है कि मैं मैंने कई दृष्यों की कल्पना की. मेरा होनेवाला बच्चा कैसा होगा. लड़का होगा या लड़की? घर पहुंची तो दरवाजा खोलते ही मेरे पति चीखे- कहां थी इतनी देर? मैं कब से इंतजार कर रहा हूं चाय भी नहीं पी है मैंने, जाओ, जल्दी चाय बनाओ, और मैं बस मुस्कुराती जा रही थी. मुझे लगा शायद वे मेरे शरमाने से समझ जायें, लेकिन नहीं, हार कर मैंने ही बताया, शाहिदा जी के पास गयी थी. तो? उनके चेहरे का जैसे रंग उड़ गया. -मैं प्रेगनेंट हूं. -यह कैसे हो सकता है? यह मेरा बच्चा नहीं है. इस तरह से मेरे आनेवाले बच्चे का स्वागत हुआ. मैं किस कदर टूटी, इसका अंदाजा कोई नहीं लगा सकता. बच्चे को लेकर जो सपने मैंने देखे थे, बुरी तरह बिखर गये. रात भर सो नहीं पायी. खाना भी नहीं खाया और रोती रही. सुबह होते ही मैं शाहिदा जी के पास गयी और सब कुछ बताया. उन्होंने मुझे अबॉर्शन की सलाह दी. मैं आज भी नहीं जानती कि मेरा वह फैसला सही था या गलत पर यह सच है कि मुझे आज भी अपने बच्चे को खोने का दुख है. मैं देखना चाहती थी, मेरे गर्भ में जो बच्चा था वह लड़का था या लड़की. देखने में कैसा होता. आज वह होता तो कितने साल का होता. मैं मां बनना चहती थी पर ऐसे इनसान के बच्चे की नहीं जो अपने बच्चे को स्वीकारना ही नहीं चाहता हो. मैंने कहीं प़ढा़ था, मेल मीन्स प्रोवाइडर एंड प्रोटेक्टर. मेरे मन में हमेशा से अपने होनेवाले पति की बहुत ही सुंदर छवि थी. वह इनसान ऐसा होगा, जो मुझे बेहद प्यार करेगा. मैं उसकी बांह पकड़ कर चलूं तो लगे कि सारी दुनिया मेरे साथ चल रही है. वह मेरी ताकत और आत्मविश्वास बनेगा. लेकिन यहां तो मैं ऐसे इनसान के साथ रह रही थी, जिसके बदन से हमेशा दूसरी औरत की बू आती थी. न मुझे मेरा घर अपना लगा था, न बेडरूम. सब कुछ बंटा हुआ. हर वक्त किसी दूसरी औरत की मौजूदगी मेरे मन को सालती रहती थी. बच्चे के आने की खबर से अपनी टूटती गृहस्थी बचाने की उम्मीदें जितनी बढ़ गयी थीं, इस घटना के बाद मैं उतना ही टूट गयी. आज तक अपने पर लगा आरोप और उससे पैदा हुआ अपमान नहीं भूलती. आज भी पूछती हूं अपने पति से किसका बच्चा था वह, मुझे तो नहीं पता, तुम्हें पता हो तो तुम्हीं बतला दो. औरत के लिए दुनिया की सबसे गंदी गाली है कि उसे अपने बच्चे के बाप के बारे में मालूम न हो. सिर्फ कुतिया ही नहीं जानती कि उसके पिल्लों का बाप कौन है. मुझे खुद से नफरत हो गयी थी. मेरे भीतर की स्त्री, प्रेम, संवेदना सब कुछ जैसे एक झटके में समाप्त हो गये. मुझे किसी का छूना तक अच्छा नहीं लगता. नतीजतन हमारे बिस्तर अलग हो गये. एक ही छत के नीचे रहते हुए भी हम अलग-अलग कमरों में बंट गये. लेकिन दुनिया के सामने एक अच्छी पत्नी बने रहने में मैंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इस सबके बावजूद उनके स्वास्थ्य का, खाने-पीने में उनकी पसंद-नापसंद का हमेशा ध्यान रखा. कब उन्हें खाने में दही चाहिए, कब पपीता, कब छेना, कब केला और कब सलाद तो कब शाम को ग्रीन लेबल चाय और साथ में नाइस बिस्किट. आज भी मुझे उनकी सारी दिनचर्या याद है, जबकि हमें अलग हुए छह साल बीत गये. बड़ा मुश्किल हो रहा है आगे लिखना. ऐसा लगा रहा है जैसे मैं ऑपरेशन थियेटर में लेटी हूं और मेरे जख्मों की चीर-फाड़ हो रही है. दुबारा उसी दर्द, उसी यातना से गुजर रही हूं. मैंने जिस इनसान से शादी की, उसकी और हमारी उम्र में दो दशक का फासला था. शादी की एक रात में ही मैं अपने 20 साल पीछे छोड़ आयी. बीच के वे साल मैं जी नहीं पायी. अचानक मैं 20 साल बड़ी हो गयी. मैं अचानक अपनी उम्र के बराबर के लोगों की चाची-मामी और नानी-दादी बन गयी. बड़ा अजीब लगता, मुझे जब मेरे पिता या चाचाजी के उम्र के लोग मुझे भाभी बुलाते या मुझसे मजाक करते. एक बात और मैंने गौर की, मेरे पति को किसी से भी मेरा हंस कर बात करना अच्छा नहीं लगता. मैं उनके दोस्तों या परिवार या रिश्ते के भाई या बहनोई से सिर्फ इसलिए ठीक से बात करती क्योंकि यह एक स्वाभाविक कर्टसी है कि घर आये मेहमानों से ठीक से या तहजीब से बात की जाये, जबकि मेरा अपना कोई दोस्त, परिचित या परिवार का सदस्य मेरे घर नहीं आता था, क्योंकि मेरे पति को पसंद नहीं था इसलिए मैंने सबसे नाता तोड़ लिया था. उनके ही परिवार के सदस्यों की और मित्रों की मैं खातिर-तवज्जो करती और उनके जाने के बाद ताने मिलते कि मैं बड़ा हंस-हंस कर बात करती हूं. इस तरह के आरोप मुझे बहुत सालते पर मैंने ये बातें किसी को नहीं बतायीं. सब कुछ चुपचाप सहती और बरदाश्त करती रही. उनकी भाभी, मुझे प्यार से बेटी बुलाती थीं, क्योंकि उनकी बेटी मेरे बराबर की थी. मुझे भी उनका इस तरह प्यार से बुलाना अच्छा लगता था. मैं उन्हें मां समान मानती थी. एक दिन उनसे रोते हुए मैंने कहा- भाभी हमारा घर बचा दो. हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है. हम सिर्फ दुनिया की नजर में पति-पत्नी हैं. उन्होंने बस इतना कहा-देखो यह तुम्हारा पर्सनल मैटर है. तुम खुद ही इसे सुलझाओ. क्रमशः -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070718/a899d5f1/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Jul 18 02:16:53 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 18 Jul 2007 02:16:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 50, Issue 2 In-Reply-To: References: Message-ID: <363092e30707171346s7994422aodeece486984e05ba@mail.gmail.com> रवि भाई, शुक्रिया आपने सही कहा कि अब लेखिकाओं के इन आत्मसंघर्षों की वजह से वे बातें सामने आ रही हैं, जो लेखकों से छूट जाती थीं या जिन्हें वे छोड़ देते थे. कह सकते हैं कि लेखन अधिक लोकतांत्रिक हुआ है इससे. असीमा की पीडा़ और उनका दर्द वाकई हिला देता है, ऐसे में जब आप आलोकधन्वा और उनकी कविताओं से भी बेहद प्यार करते हों. नेपाली जी की रचना देने के लिए फिर से शुक्रिया. रेयाज़ पटना On 7/18/07, deewan-request at mail.sarai.net wrote: > > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at mail.sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at mail.sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at mail.sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. Re: [दीवान]Deewan Digest , Vol 49, Issue 9 (Ravikant) > 2. [दीवान] Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) > in MidJuly2007 (Ravikant) > 3. [दीवान]लडकी, जो भागी न थी > (दर्द का हद से गुजरना है > दवा हो जाना-2) (reyaz-ul-haque) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Tue, 17 Jul 2007 11:49:11 +0530 > From: Ravikant > Subject: Re: [दीवान]Deewan Digest , Vol 49, Issue 9 > To: deewan at sarai.net > Message-ID: <200707171149.12037.ravikant at sarai.net> > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > रियाज़ साहब, > > आसिमा भट के आत्मकथ्य के लिए शुक्रिया. रवीश की यह डाक तो किसी को > सही नहीं आई होगी, पर आपका पोस्ट ठीक आया और ज़ाहिर है मैंने पढ़ा भी. > > आजकल हिन्दी में लेखिका आत्मकथ्य-समारोह जैसा चल रहा है. मैंने अभी-अभी मन्नू > भंडारी की > *एक कहानी यह भी* पढ़ी, और साथ में हंस में आईं मुख़्तलिफ़ समीक्षाएँ भी. > लेखिकाओं ने अंततः तय कर > लिया है कि अब वह सिर्फ़ रूमानी, आत्ममुग्ध विशिष्ट लेखकों का विषय-मात्र > नहीं रहेंगी, अपनी > कहानी ख़ुद लिखेंगी. मन्नू जी की कहानी बड़ी सधी हुई, और संयत है, औ र शायद > जान-बूझकर ऐसी > है. जिसका हमें आदर करना चाहिए. पर अपनी प्रतिक्रिया में रोहिणी अग्रवाल > थोड़ी भड़क गईं हैं, > जो मैं नये नारीवाद के नये तेवर के रूप में लेता हूँ, अपनी जगह शायद ठीक, पर > उनकी इस बात से मैं > कतई सहमत नहीं कि मन्नू जी की कहानी साहित्यिकता में कमज़ोर है, या अपने > वक़्त के आम > सवालों से दो-चार नहीं होती. बात सिर्फ़ इतनी है कि आम सवालों पर तो आम लोग > बड़ी ख़ासो-आम > बातें करते रहे हैं, और उन्हें मन्नू जी ने भी अपनी रचनाओं में हरसंभव समेटने > की कोशिश की ही है. यह > उनकी कहानी है, अपने घर की, अपनी ज़मीन की, अपनी कशमकश की, बड़ी ईमानदारी से > लिखी > गयी, और दिलों, बिस्तरों और रसोईघर की इन्हीं तन्हाइयों का बयान इसे विशिष्ट > बना डालता है, > जिसकी चर्चा तक विशिष्ट लेखकों के आत्मकथ्य में नहीं होता. हमारे लेखकों के > यहाँ निजी-सार्वजनिक > का जो अछूता, सियाह पक्ष था, लेखिकाओं ने उसे रौशन करने का क्रम शुरू कर दिया > है, ज़ाहिर है > इसके बाद आदरणीय राजेन्द्र जी की वह छवि तो निश्चय ही नहीं रह जायेगी उनके > हमारे-जैसे > प्रशंसकों के बीच. > > जिन लोगों ने इन या इन-जैसे प्रसंगों को पढ़ा है, उनसे निवेदन है कि हमारा > ज्ञानवर्द्धन करें. > > रविकान्त > > > मंगलवार 17 जुलाई 2007 02:30 को, reyaz-ul-haque ने लिखा था: > > ...aur yah phir nahin dikh raha hai. yah dikkat sirf deewan ke mail men > > hai. > > > > On 7/16/07, deewan-request at mail.sarai.net > > > > > > > > > > > > > > Today's Topics: > > > > > > 1. [दीवान] FW: ???? ???? ?? ????? ?????? ??...must > > > read... (Ravish Kumar) > > > > > > > > > ---------------------------------------------------------------------- > > > > > ------------------------------ > > Message: 2 > Date: Tue, 17 Jul 2007 12:00:55 +0530 > From: Ravikant > Subject: [दीवान] Fwd: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) > in MidJuly2007 > To: deewan at sarai.net > Message-ID: <200707171200.55801.ravikant at sarai.net> > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > Gopal Singh Nepali ki ek mashahoor Kavita: nayi anubhutiti se: > > http://www.anubhuti-hindi.org/gauravgram/gsnepali/meradhan.htm > > yahin par aapko unka ek chhota sa parichay bhi milega. > > ravikant > ........ > > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > जिसने तलवार शिवा को दी > रोशनी उधार दिवा को दी > पतवार थमा दी लहरों को > खंजर की धार हवा को दी > अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > रस-गंगा लहरा देती है > मस्ती-ध्वज फहरा देती है > चालीस करोड़ों की भोली > किस्मत पर पहरा देती है > संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > कोई जनता को क्या लूटे > कोई दुखियों पर क्या टूटे > कोई भी लाख प्रचार करे > सच्चा बनकर झूठे-झूठे > अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > बस मेरे पास हृदय-भर है > यह भी जग को न्योछावर है > लिखता हूँ तो मेरे आगे > सारा ब्रह्मांड विषय-भर है > रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से > बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से > आदत न रही कुछ लिखने की > निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से > कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > तुझ-सा लहरों में बह लेता > तो मैं भी सत्ता गह लेता > ईमान बेचता चलता तो > मैं भी महलों में रह लेता > हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम > मेरा धन है स्वाधीन कलम > > 16 जुलाई 2007 > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: Abhivyakti&Anubhuti (Hindi WebZines) in MidJuly2007 > Date: सोमवार 16 जुलाई 2007 22:44 > From: "AbhiAnu" > To: "AnuAbhi" > > The message below is in Hindi Unicode Mangal font. If Hindi does not > display, please try viewing View >> Encoding >> Unicode (UTF-8). > > > > > * > समकालीन कहानियों में भारत से राजेश जैन की > दो अंकों में समाप्य लंबी कहानी हिस्सेदारी का पहला भाग > > * > हास्य-व्यंग्य में > गुरमीत बेदी का नज़र में अजूबे और भी हैं इंडिया में! > > * > धारावाहिक में > ममता कालिया के उपन्यास दौड़ का सातवाँ और अंतिम भाग > > * > इतिहास के अंतर्गत > हेमंत शर्मा का आलेख पूरब में ऑक्सफ़ोर्ड > > * > आज सिरहाने > अभिरंजन कुमार का कविता संग्रह उखड़े हुए पौधे का बयान > > > > > * > गौरव ग्राम में- > गोपाल सिंह नेपाली > > * > तेवरियों में- > ऋषभ देव शर्मा > > * > कविताओं में- > हरे राम समीप > > * > दोहों में- > पवन चंदन > > * > अंजुमन में- > सावित्री तिवारी आज़मी > > > अश्विन > > > > > > > > ------------------------------------------------------- > > ------------------------------ > > Message: 3 > Date: Wed, 18 Jul 2007 02:08:54 +0530 > From: reyaz-ul-haque > Subject: [दीवान]लडकी, जो भागी न थी > (दर्द का हद से गुजरना है दवा > हो जाना-2) > To: deewan at mail.sarai.net > Message-ID: > <363092e30707171338v51a27ba5mbba568c3ad5eefa1 at mail.gmail.com> > Content-Type: text/plain; charset="utf-8" > > लडकी, जो भागी न थी > > असीमा भट्ट के आत्मसंघर्ष का पहला हिस्सा आपने कल पढा > था-आज इसका अगला > हिस्सा. असीमा के इस लेख ने न सिर्फ़ स्त्री अधिकारों के संदर्भ में कुछ अहम > (जिनमें कुछ क्लासिकल भी हैं) सवाल उठाये हैं बल्कि यह भी बहस पैदा की है कि > एक > लेखक-कवि का मूल्यांकन उसके लेखन के साथ-साथ उसके ऐसे व्यवहारों से भी क्यों > नहीं होना चाहिए (यह बात सभी क्षेत्रों में लागू होती है). > > दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना-2 > > < > http://bp0.blogger.com/__ZySD_hi8E4/Rp0kvZ841lI/AAAAAAAAAng/McTKd3-0twY/s1600-h/asima.jpg > >असीमा > भट्ट > मुझे शादी के बाद पत्नी का कोई अधिकार नहीं मिला. घर के परदों का रंग भी उनकी > प्रेमिका तय करती थी. हालांकि आलोक सिनेमा नहीं देखते थे लेकिन एक बार मेरे > बहुत जिद्द करने पर जब हम फिल्म सरदारी बेगम देखने गये तो वह अपनी प्रेमिका > को > भी साथ ले गये और वह हम दोनों के बीच में बैठी. मेरे लिए यह सब असह्य और > अपमानजनक था. आलोक से सबसे बड़ी शिकायत मेरी यह रही कि उनमें कभी कोई निर्णय > लेने की ताकत नहीं थी. हर बार, हर बात में जो भी करना है, वह उन दीदी से पूछ > कर > करना. उसे भी मैं नजरअंदाज करती रही, लेकिन मेरे मामलों में उनकी दखलंदाजी > दिन > पर दिन बढ़ती ही गयी. ऊपर से आलोक हमेशा यह कहें कि वे उम्र में तुमसे बड़ी > हैं, कॉन्वेंट में पढ़ाती हैं, उनसें सीखो. > मुझे पहले ही दिन से उस औरत का विरोध करना और एक पत्नी के अधिकार के लिए कदम > उठाना चाहिए था. धीरे-धीरे मैं उदासीन और निराश होती चली गयी, जो जैसा चल रहा > है, चलने दो. जहां एक ओर मैं आलोक का आत्मविश्वास बढ़ाने का काम कर रही थी, > वहीं मेरा अपना आत्मविश्वास मेरे हाथ से छूटने लगा. और तब मुझे लगा कि नहीं, > मुझे इस तरह से हार नहीं माननी है. इसलिए मैंने पटना छोड़ने का फैसला कर > लिया. > ऑफिस, थिएटर और घर के काम में मैं पिसती रहती थी. अकेली, आलोक कभी कोई मदद > नहीं > करते. खाना बनाना, कपड़े धोना और घर की सफाई. कभी-कभी उनकी बहन मेरे घर आती > तो > कहती-तोहार घर त आईना एइखन चमकत बा. (तुम्हारा घर तो आईने की तरह चमकता है). > एक > और बात बताते हुए अब तो हंसी आती है कि जब मैं आलोक के साथ थी तो वे नौकरानी > नहीं रखते थे. मैं घर का काम करने के बाद नौकरी करने जाती, फिर शाम को थिएटर > करके वापसघर आ कर घर का काम करती. कभी थकी होती तो कहती, आज ब्रेड ऑमलेट या > पनीर खा लो, खाना बनाने की हिम्मत नहीं है, तो वे कहते-तुम तो पांच मिनट में > खाना बना लेती हो. रात तो अपनी है, थोड़ा देर से ही सही पर खाना तो बनना ही > चाहिए. अब जब मैं अलग रहने लगी तो मेरे प्यार का दम भरनेवाला इनसान दो-दो > नौकरानियां रखता है. एक नौकरानी का नाम शांति था. जब कभी छुटि्टयों में मैं > घर > (पटना) जाती तो वह मुझे शांति कह कर पुकारते थे. > मैं अपनी मरज़ी से घर पर किसी को बुला नहीं सकती थी. कभी मेरी मां-बहन मेरे घर > आयी तो मेरे पति ने उन्हें अपमानित करके बाहर निकाल दिया. एक बार मेरी छोटी > बहन > बीमार थी. वह डाक्टर को दिखाने मेरे पास आयी. मैंने जब अपनी बहन को अपने पास > रखने का फैसला लिया तो उन्होंने मुझे अपनी भाभी और उसके परिवार के सामने > पीटा. > एक बार उन्होंने ऐसे ही देर रात को मेरी मां को घर से निकाल दिया. मेरी मां > ने > एक गंदी धर्मशाला में रात गुजारी जहां पीने का पानी तक नहीं था जबकि मेरी मां > ब्लडप्रेशर की मरीज हैं. > बस समय बीतता गया और एक दिन वह भी आया जिसका इंतजार दुनिया की हर औरत करती > है. > मां बनने का इंतजार ! वह दिन मेरी जिंदगी में भी आया. आलोक को शायद अंदेशा लग > गया था. उन्होंने जबरदस्ती मुझे अपनी परिचित डाक्टर शाहिदा हसन के पास भेजा. > शाहिदा जी मुझे बेहद प्यार करती थीं. मुझे कभी-कभी लगता वे मेरी मां भी हैं, > डाक्टर भी और एक सहेली भी. चेकअप के बाद उन्होंने मुझे मुस्कुराते हुए गले > लगा > लिया और मुझे मां बनने की शुभकामनाएं दीं. मैं शरमा गयी. > मेरे लिए यह मेरी जिंदगी का पहला और अनोखा अनुभव था. क्लीनिक से घर आते-आते > रास्ते भर में न जाने कितने ख्याल मन में दौड़ गये, कितने सपने मैंने बुन > डाले. > घर जा कर पति से क्या कहूंगी, कैसे कहूंगी. हिंदी सिनेमा के कई दृष्य आंखों > के > सामने घूम गये. जब एक नायिका अपने पति से कहती है कि मैं मैंने कई दृष्यों की > कल्पना की. मेरा होनेवाला बच्चा कैसा होगा. लड़का होगा या लड़की? > घर पहुंची तो दरवाजा खोलते ही मेरे पति चीखे- कहां थी इतनी देर? मैं कब से > इंतजार कर रहा हूं चाय भी नहीं पी है मैंने, जाओ, जल्दी चाय बनाओ, और मैं बस > मुस्कुराती जा रही थी. मुझे लगा शायद वे मेरे शरमाने से समझ जायें, लेकिन > नहीं, > हार कर मैंने ही बताया, शाहिदा जी के पास गयी थी. तो? उनके चेहरे का जैसे रंग > उड़ गया. > -मैं प्रेगनेंट हूं. > -यह कैसे हो सकता है? यह मेरा बच्चा नहीं है. > इस तरह से मेरे आनेवाले बच्चे का स्वागत हुआ. मैं किस कदर टूटी, इसका अंदाजा > कोई नहीं लगा सकता. बच्चे को लेकर जो सपने मैंने देखे थे, बुरी तरह बिखर गये. > रात भर सो नहीं पायी. खाना भी नहीं खाया और रोती रही. सुबह होते ही मैं > शाहिदा > जी के पास गयी और सब कुछ बताया. उन्होंने मुझे अबॉर्शन की सलाह दी. मैं आज भी > नहीं जानती कि मेरा वह फैसला सही था या गलत पर यह सच है कि मुझे आज भी अपने > बच्चे को खोने का दुख है. मैं देखना चाहती थी, मेरे गर्भ में जो बच्चा था वह > लड़का था या लड़की. देखने में कैसा होता. आज वह होता तो कितने साल का होता. > मैं मां बनना चहती थी पर ऐसे इनसान के बच्चे की नहीं जो अपने बच्चे को > स्वीकारना ही नहीं चाहता हो. मैंने कहीं प़ढा़ था, मेल मीन्स प्रोवाइडर एंड > प्रोटेक्टर. मेरे मन में हमेशा से अपने होनेवाले पति की बहुत ही सुंदर छवि > थी. > वह इनसान ऐसा होगा, जो मुझे बेहद प्यार करेगा. मैं उसकी बांह पकड़ कर चलूं तो > लगे कि सारी दुनिया मेरे साथ चल रही है. वह मेरी ताकत और आत्मविश्वास बनेगा. > लेकिन यहां तो मैं ऐसे इनसान के साथ रह रही थी, जिसके बदन से हमेशा दूसरी औरत > की बू आती थी. न मुझे मेरा घर अपना लगा था, न बेडरूम. सब कुछ बंटा हुआ. हर > वक्त > किसी दूसरी औरत की मौजूदगी मेरे मन को सालती रहती थी. बच्चे के आने की खबर से > अपनी टूटती गृहस्थी बचाने की उम्मीदें जितनी बढ़ गयी थीं, इस घटना के बाद मैं > उतना ही टूट गयी. आज तक अपने पर लगा आरोप और उससे पैदा हुआ अपमान नहीं भूलती. > आज भी पूछती हूं अपने पति से किसका बच्चा था वह, मुझे तो नहीं पता, तुम्हें > पता > हो तो तुम्हीं बतला दो. औरत के लिए दुनिया की सबसे गंदी गाली है कि उसे अपने > बच्चे के बाप के बारे में मालूम न हो. सिर्फ कुतिया ही नहीं जानती कि उसके > पिल्लों का बाप कौन है. मुझे खुद से नफरत हो गयी थी. मेरे भीतर की स्त्री, > प्रेम, संवेदना सब कुछ जैसे एक झटके में समाप्त हो गये. मुझे किसी का छूना तक > अच्छा नहीं लगता. नतीजतन हमारे बिस्तर अलग हो गये. एक ही छत के नीचे रहते हुए > भी हम अलग-अलग कमरों में बंट गये. लेकिन दुनिया के सामने एक अच्छी पत्नी बने > रहने में मैंने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी. इस सबके बावजूद उनके स्वास्थ्य का, > खाने-पीने में उनकी पसंद-नापसंद का हमेशा ध्यान रखा. कब उन्हें खाने में दही > चाहिए, कब पपीता, कब छेना, कब केला और कब सलाद तो कब शाम को ग्रीन लेबल चाय > और > साथ में नाइस बिस्किट. आज भी मुझे उनकी सारी दिनचर्या याद है, जबकि हमें अलग > हुए छह साल बीत गये. > बड़ा मुश्किल हो रहा है आगे लिखना. ऐसा लगा रहा है जैसे मैं ऑपरेशन थियेटर > में > लेटी हूं और मेरे जख्मों की चीर-फाड़ हो रही है. दुबारा उसी दर्द, उसी यातना > से > गुजर रही हूं. > मैंने जिस इनसान से शादी की, उसकी और हमारी उम्र में दो दशक का फासला था. > शादी > की एक रात में ही मैं अपने 20 साल पीछे छोड़ आयी. बीच के वे साल मैं जी नहीं > पायी. अचानक मैं 20 साल बड़ी हो गयी. मैं अचानक अपनी उम्र के बराबर के लोगों > की > चाची-मामी और नानी-दादी बन गयी. बड़ा अजीब लगता, मुझे जब मेरे पिता या चाचाजी > के उम्र के लोग मुझे भाभी बुलाते या मुझसे मजाक करते. एक बात और मैंने गौर > की, > मेरे पति को किसी से भी मेरा हंस कर बात करना अच्छा नहीं लगता. मैं उनके > दोस्तों या परिवार या रिश्ते के भाई या बहनोई से सिर्फ इसलिए ठीक से बात करती > क्योंकि यह एक स्वाभाविक कर्टसी है कि घर आये मेहमानों से ठीक से या तहजीब से > बात की जाये, जबकि मेरा अपना कोई दोस्त, परिचित या परिवार का सदस्य मेरे घर > नहीं आता था, क्योंकि मेरे पति को पसंद नहीं था इसलिए मैंने सबसे नाता तोड़ > लिया था. उनके ही परिवार के सदस्यों की और मित्रों की मैं खातिर-तवज्जो करती > और > उनके जाने के बाद ताने मिलते कि मैं बड़ा हंस-हंस कर बात करती हूं. इस तरह के > आरोप मुझे बहुत सालते पर मैंने ये बातें किसी को नहीं बतायीं. सब कुछ चुपचाप > सहती और बरदाश्त करती रही. उनकी भाभी, मुझे प्यार से बेटी बुलाती थीं, > क्योंकि > उनकी बेटी मेरे बराबर की थी. मुझे भी उनका इस तरह प्यार से बुलाना अच्छा लगता > था. मैं उन्हें मां समान मानती थी. एक दिन उनसे रोते हुए मैंने कहा- भाभी > हमारा > घर बचा दो. हमारे बीच कोई रिश्ता नहीं है. हम सिर्फ दुनिया की नजर में > पति-पत्नी हैं. > उन्होंने बस इतना कहा-देखो यह तुम्हारा पर्सनल मैटर है. तुम खुद ही इसे > सुलझाओ. > क्रमशः > > -- > reyaz-ul-haque > prabhat khabar > old bypass road > kankarbagh > patna-20 > mob:09234423150 > http://hashiya.blogspot.com > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070718/a899d5f1/attachment.html > > ------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > End of Deewan Digest, Vol 50, Issue 2 > ************************************* > -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070718/d3fc5ac0/attachment.html From beingred at gmail.com Thu Jul 19 08:01:05 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Thu, 19 Jul 2007 08:01:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KWL4KSV?= =?utf-8?b?4KSn4KSo4KWN4KS14KS+IOCkleClgCDgpKjgpZvgpLAg4KSu4KWH4KSC?= =?utf-8?b?IOCkruCliOCkgiDgpLDgpILgpKHgpYAg4KSl4KWA?= Message-ID: <363092e30707181931x32c1f6b8xcbcf23aeab1964cb@mail.gmail.com> आलोकधन्वा की नज़र में मैं रंडी थी आज दोपहर में मुझे एक फोन आया. उधर से एक परिचित और वरिष्ठ सज्जन थे, जिन्होंने खासी नाराजगी से कहना शुरू किया कि असीमा जैसी औरत से यह सब लिखवा कर 'तुमलोग' ठीक नहीं कर रहे हो. आलोक आत्महत्या कर लेगा, अगर उसे अधिक प्रताडि़त किया गया. कई दशकों से पटना में जनवाद और अभिव्यक्ति की आज़ादी की लडा़ई लड़ने का दावा करनेवाला वह शख्स आज मुझसे कह रहा था कि असीमा को कुछ भी लिखने का अधिकार नहीं है और न दिया जा सकता है क्योंकि बकौल उनके 'असीमा के कई लोगों से संबंध रहे हैं.' मैं हतप्रभ था. उन्होंने कहा कि नंदीग्राम हत्याकांड के समय उसकी निंदा करनेवाले बयान पर आलोकधन्वा ने चूंकि हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था, इसलिए उससे बदला लेने के लिए तुमलोग उसे बरबाद कर रहे हो, असीमा के ज़रिये. वे बके जा रहे थे-असीमा की कोई औकात नहीं है. उसे दुनिया सिर्फ़ आलोकधन्वा की पत्नी के रूप में जानती है. उसके कोई स्वतंत्र पहचान, व्यक्तित्व नहीं है. उस औरत को इतना मत चढा़ओ तुमलोग. मैं नहीं जानता कि जनवाद क्या होता है, अगर वह एक औरत के बारे में इस तरह के शब्द इस्तेमाल करने की इजाज़त देता है. और उन्होंने जिस अभद्र भाषा का प्रयोग बार-बार किया, वह निहायत शर्मनाक थी, इसलिए भी कि हम उन्हें एक गंभीर आदमी समझते थे. हम आलोकधन्वा को बेहद प्यार करते थे, एक कवि के रूप में. आज भी उनकी कविताएं हमें अपने समय में सबसे प्यारी हैं-इसके बावजूद असीमा के सवाल और उनका दर्द हमें असीमा के साथ खडा़ करता है. अब तक आपने इस आत्मसंघर्ष की दो किस्तें ( 1, 2 )पढी हैं. आज पढिए अंतिम किस्त. दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना-3 असीमा भट्ट अब मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा था. शाहिदा जी के पास अक्सर जाती थी. वहीं मुझे जरा तसल्ली मिलती थी. कई बार उन्होंने मेरे पति से बात की, उन्हें समझाने की कोशिश की पर सब बेकार. जहां तक एक कवि और उनकी कविता से प्रेम का संबंध है तो वह मुझे आज भी है. मैं उनकी बातों और कविता की मुरीद थी. वे बातें करते हुए मुझे बहुत अच्छे लगते. ऐसा लगता है- 'इत्र में डूबे बोल हैं उनके, बात करे तो खुशबू आये.' मेरे द्वंद्व और दर्द का एक बड़ा कारण यह भी था कि जो इनसान घर से बाहर अपनी इतनी सुंदर, शालीन, संभ्रांत, ईमानदार, नफासतपसंद छवि प्रस्तुत करता है वही घर में सिर्फ मेरे लिए इतना अमानवीय क्यों हो जाता है? बात-बात पर ताने, डांट! कई बार इस कदर जीना दूभर कर देते कि मैं खुद दीवार से अपना सिर पीट लेती. अपने आपको कष्ट देती. एक बार याद है, मुझे आफिस जाने के लिए देर हो रही थी. उनके लिए पीने का पानी उबालना था. यह रोज का सिलसिला था. लगभग आधे घंटे पानी उबालना, जब तक पतीली के तले में सफेदी न जम जाये. मैं जल्दी में थी, इसलिए ज्यादा देर पानी उबालना संभव नहीं था कि तभी वे अपनी तुनकमिजाजी के साथ बहस लेकर बैठ गये-'तुम्हारा ऑफिस कोई पार्लियामेंट नहीं है जो समय पर जाना जरूरी है. पहले पानी घड़ी देख कर आधा घंटा उबालो.' -आपको क्या लगता है, डिसिप्लीन सिर्फ पार्लियामेंट में होना चाहिए और बाकी कहीं नहीं? इसी बात पर उन्हें गुस्सा आ गया और उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया. मैंने गुस्से में पूरा उबलता हुआ गरग पानी का पतीला अपने ऊपर उंड़ेल लिया, लेकिन उन पर कोई असर न हुआ. इस तरह की अनगिनत घटनाएं हैं, जहां मैं अपने आप को ही यातना देती रही. आखिरकार मैंने अपने पिता जी (मेरे पिता मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के मेंबर हैं. पूरा जीवन उन्होंने समाज सेवा में बिताया) से बात की. उन्होंने कहा-भूल जाओ उसे और अपने पैरों पर खड़ा होना सीखो. मैंने एक बच्चे की तरह गिड़गिड़ाते हुए अपने पति से तलाक मांगा- सर अब आपके साथ मेरा दम घुटता है. मुक्त कर दीजिये मुझे. हम आपसी समझ से तलाक ले लेते हैं. उनके लिए मेरा यह कहना असहृय था. उन्होंने अपने माता-पिता की दुहाई दी-अपने बूढ़े माता-पिता को इस उम्र में मैं कोई सदमा नहीं पहुंचा सकता. मेरे भाइयों के बच्चों की शादी नहीं होगी. लोग क्या कहेंगे? मेरी क्या इज्जत रह जायेगी? मैं ने इस उम्र में शादी की. तुम पूरी दुनिया में मेरी पगड़ी उछालना चाहती हो? अब तो उनके माता-पिता को गुजरे भी बहुत समय हो गया लेकिन वे आज तक तलाक को टालते आ रहे हैं. मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. मैं जिस इनसान को जानती थी, वह तो एक कम्यूनिस्ट था, लेकिन यहां मैं एक रूढ़िवादी सामंती पति को देख रही थी-साहब, बीबी और गुलाम के एक ऐय्याश और घमंडी पति की तरह, मैं एकदम से सब कुछ हार गयी थी. मेरा तो जैसे सब कुछ खत्म हो गया. वो कवि भी नहीं रहा, जिसे मैं प्यार करती थी. मेरे लिए वह दुनिया के बेहतरीन कवि थे, जिसकी कविता में मुझे झंकार सुनायी देती थी. आज मेरी ही जिंदगी की झंकार खो गयी. मैं कुछ भी नहीं बन पायी. न पत्नी, न मां. क्या थी मैं? अस्तित्व का सवाल खड़ा हो गया मेरे सामने. दोबारा उन्हीं डाक्टर दोस्त के पास गयी. शाहिदा जी ने मेरी जिंदगी बदल दी. उन्होंने समझाया-तुम पढ़ी-लिखी हो, सुंदर हो, यंग हो तुम्हारे सामने तुम्हारी पूरी जिंदगी पड़ी है. गो एहेड लिव योर लादफ, गिव चांस टु योरसेल्फ डोंट शट द डोर फॉर लव, कोई आता है तो आने दो. उन दिनों मैं इप्टा में, रक्तकल्याण कर रही थी. उसमें अंबा और इंद्राणी दोनों चरित्र मैं करती थी. लोगों ने मेरे अभिनय को बहुत पसंद किया. एक ही नाटक में दो अलग-अलग चरित्र जो एक दम कंट्रास्ट थे, करना मेरे लिए एक चुनौती थी. वहीं से राष्ट्रीय नाटक विद्यालय आने का रास्ता सूझा, हालांकि यह बहुत मुश्किल था. मेरे पति इसका जितना विरोध कर सकते थे, उन्होंने किया. उनकी मरज़ी के खिलाफ घर से भाग कर मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की परीक्षा के लिए गयी. अंतत: मेरा नामांकन नाट्य विद्यालय में हो गया. अब मेरे पति को मुझे खोने का डर और सताने लगा और वे भी मेरे पीछे-पीछे दिल्ली आ गये. वहां भी मैं खुल कर सांस नहीं ले पा रही थी. हर पल जैसे मैं किसी की पहरेदारी में हूं. मेरे क्लासमेट इसका बहुत मजाक उड़ाते थे. जाहिर है हमारे बीच उम्र का अंतराल भी सबके लिए उत्सुकता का विषय था. वे तरह-तरह की बातें करते. अब मेरे पति का व्यवहार और भी बदल गया था. लगातार मुझे खो देने की चिंता उन्हें लगी रहती, इस वजह से वे और भी अधिक असामान्य और अमानवीय व्यवहार करने लगे. यहां तक कि मैं किसी भी सहपाठी या शिक्षक से बात करती, उन्हें लगता, मैं उससे प्रेम करती हूं. मैंने हमेशा उन्हें समझाने की कोशिश की कि वे बेकार की इन बातों को छोड़ कर लिखने-पढ़ने में अपना ध्यान लगायें. लिखने के लिए उन्हें सुंदर-सुंदर नोट बुक, हैंड मेड पेपर और कलम ला कर देती. बड़े-बड़े लेखकों-विद्वानों के वाक्य लिख-लिख कर देती ताकि वे खुद लिखने के लिए प्रेरित हों. गालिब की मजार और निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर ले जाती. खूबसूरत फूल उपहार में देती, पर मेरी किसी बात का उन पर कोई असर नहीं होता. मुझे समझ में नहीं आ रहा था आखिर इन्होंने लिखना बंद क्यों कर दिया है और मैं दिन पर दिन चिड़चिड़ी होती जा रही थी. मेरा भी अपनी पढ़ाई से मन उचट रहा था. मैंने अपने पति में कई बार भगोडी़ और कायर प्रवृत्ति देखी. मुझे याद है शादी के तीन वर्ष बाद मैं ससुराल गयी थी, वहां सब लोग मुझसे यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि मुझे अब तक बच्चा क्यों नहीं हुआ. कुछ दिन पहले ही मेरी अबार्शनवाली घटना हुई थी. मैं रो पड़ी. मेरे पास कोई जवाब नहीं था. मैंने सिर्फ इतना कहा, मैं बांझ नहीं हूं, लेकिन मेरे पति ने इसका कोई जवाब नहीं दिया बल्कि उन्हें अपने पौरुष पर संकट उठता देख मुझ पर गुस्सा आया, जबकि सेक्स हमारे बीच कोई समस्या नहीं थी. जिस आदमी ने मुझसे मां बनने का गर्व छीन लिया वह मुझ पर यह आरोप भी लगाता है कि मैंने एनएसडी में एडमिशन के लिए उससे शादी की और कैरियर बनाने के लिए बच्चा पैदा नहीं किया. मेरी शादी 1993 में हुई और चार साल शादी बचाने की सारी जद्दोजहद के बाद मैं एनएसडी में 1997 में आयी. क्या एनएसडी में एडमिशन के लिए आलोकधन्वा से शादी करना जरूरी था. शादी के चार साल बाद उन्होंने मेरा एडमिशन क्यों कराया. अगर शादी करना एडमिशन की शर्त थी तो शादी के साल ही एडमिशन हो जाना चाहिए था. मेरा गर्भपात 1995 में हुआ. उस समय न मैं एनएसडी में थी और न कैरियर के बारे में मैंने सोचा था. जबकि दुनिया की हर औरत की तरह एक पत्नी और मां बनने का सपना ही मेरी पहली प्राथमिकता थी. जहां तक आलोक का सवाल है, वह पिता इसलिए नहीं बनना चाहते थे क्योंकि वह कोई भी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते थे. हद तो उन्होंने तब कर दी, जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के द्वितीय वर्ष में मुझे एक्टिंग और डायरेक्शन में से किसी एक को चुनना था. मैं एक्टिंग में स्पेशलाइजेशन करना चाहती थी. उन्होंने इसका कड़ा विरोध किया. उनका दबाव था कि मैं डायरेक्शन लूं. हमारी इस बात पर बहुत बहस हुई. उन्होंने इतना दबाव बनाया कि मानसिक तनाव के कारण मैं डिप्रेशन में चली गयी. बाद में अनुराधा कपूर ने समझाया-तुम बेहतरीन अभिनेत्री हो. यू मस्ट टेक एक्टिंग. मैंने एक्टिंग ली. मेरे पति का विरोध बरकरार रहा. उन्होंने अनुराधा कपूर पर भी आरोप लगाया कि वह फेमिनिस्ट है. तुम्हें बहका रही है. वह तो मुझे अब समझ में आ रहा है कि वह आखिर किस बात पर इतने नाखुश थे. दरअसल मुझे अभिनय अलग-अलग लड़कों के साथ करना पड़ता. अलग-अलग नाटकों में अलग-अलग चरित्र और प्रेम के दृष्य करूंगी. उनकी कुंठा यहां थी. एक तरह की असुरक्षा की भावना उनमें घर कर गयी थी. काश कि वे समझ पाते कि मेरे मन में प्रेमी के रूप में उनके अलावा कोई दूसरा नहीं था. मैं उन्हें बहुत प्यार करती थी. दुनिया की तमाम खूबसूरत चीजों में मैं उन्हें देखती थी. मेरा सबसे बड़ा सपना था वे कविता लिखे और मैं अभिनय करूं. दुनिया देखे कि एक कवि और अभिनेत्री का साथ कैसा होता है. एक छत के नीचे कविता और अभिनय पनपे. मैं उनकी कविताओं को हद से ज्यादा प्यार करती थी. आज भी उनकी पंक्तियां मुझे जबानी याद हैं. मैं उनकी कविताओं की दीवानी थी. कई बार मैं उन्हें कोपरनिकस मार्ग पर बने पुश्किन की प्रतिमा के पास ले जाती. उनकी तुलना पुश्किन से करती ताकि उनका आत्मविश्वास बढ़े. इस बीच उन्हें गले में कैंसर की शिकायत हुई. एक बच्चे की तरह उन्होंने अपना धीरज खो दिया और जीने की उम्मीदें भी. उन्हें डर था कि अब वे नहीं बचेंगे. पति ऐसे दौर से गुजर रहा हो तो एक पत्नी पर क्या बीतती है, इसका अंदाजा कोई भी पत्नी लगा सकती है. एक बच्चे की तरह उन्हें समझाती रही-कुछ नहीं होगा. फर्स्ट स्टेज है. डाक्टर छोटा-सा आपरेशन करके निकाल देंगे. उसी शहर में अकेले मैंने अपने पति के कैंसर का ऑपरेशन कराया, जहां वे मुझे बिल्कुल अकेली और बेसहारा छोड़ कर गये. वे अक्सर जब लड़ते तो मुझे कहते- तुम मुझे समझती क्या हो? मैंने इसी दिल्ली में शमशेर और रघुवीर सहाय के साथ कविताएं पढ़ी हैं. मेरे नाम पर हॉल ठसाठस भरा रहता था और लोग खड़े होकर मेरी कविता सुनने के लिए बेचैन रहते. आज उसी शहर में लोग उसकी पत्नी की कीमत लगा रहे थे. दीवार क्या गिरी मेरे खस्ता मकान की, लोगों ने उसे आम रास्ता बना दिया. बिहार में एक कहावत है कि जर, जमीन और जोरू को संभाल कर न रखा जाये तो गैर उस पर कब्जा कर लेते हैं. अब हर आदमी की निगाह मुझ पर उठने लगी. मेरे पति जिस वक्त मुझे छोड़ कर गये, उस वक्त मुझे उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी. मैंने एनएसडी से प्रशिक्षण तो प्राप्त कर लिया था पर रेपर्टरी में काम नहीं मिल पाया. अब आगे क्या करना है, पता नहीं था. एकदम शून्य नज़र आ रहा था. उनके जाने के साथ ही एक दूसरे किस्म का संघर्ष शुरू हो गया. सबसे अजब बात तो यह थी कि जैसे ही लोगों को पता चलता मैं अकेली रहती हूं, उनके चेहरे का रंग खिल जाता. मैं बिना किसी पर आरोप लगाये यह कहना चाहती हूं कि मुझे हासिल करने की कोशिश ऐसे शख्स ने भी की जिसकी खुद कोई औकात नहीं थी या फिर वैसे लोग थे जिनके अपने हंसते-खेलते परिवार थे. प्यारे-प्यारे और मेरी उम्र के बच्चे थे. वो अपनी और बच्चों के लिए दुनिया में सबसे अच्छे और ईमानदार पति और बेस्ट पापा थे और समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी. खैर अब मुझे इन बातों पर हंसी आती है. जिंदगी को इतने करीब से देखा कि अब किसी से कोई शिकायत नहीं. लोग मुझसे अजीव-अजीब सवाल पूछते, तुम अकेली कैसे रहती हो, तुम्हारा सैक्समेट कौन है. आज जो बातें मैं इतनी सहजता से लिख रही हूं उस समय ऐसा लगता जैसे कोई गरम सीसा मेरे कान में उंड़ेल रहा है. जब लोगों को पता चला कि हमारे बीच दरार है तो उन्होंने भी मेरा भरपूर इस्तेमाल करने की कोशिश की. मेरे पति की किताब की रॉयल्टी मेरे नाम से है और मुझे आज तक एक पैसा नहीं मिला है. पिछले सालों में मैंने भी उनसे कुछ नहीं मांगा लेकिन अभी हाल ही में मेरी छोटी बहन की शादी के लिए मुझे रुपये की जरूरत थी तो मैंने अपना अधिकार मानते हुए रॉयल्टी की मांग की. उन्होंने (प्रकाशक ने) मुझे बदले में पत्र भेजा कि वह रॉयल्टी का पैसा कवि को दे चुके हैं. जवाब में मैंने पत्र लिखा कि जिसके नाम रॉयल्टी होती है पैसे भी उसे मिलने चाहिए तो उन्होंने मुझे बदनाम करने की कोशिश की. उन प्रकाशक के मित्र, जो मेरे अभिनय के प्रशंसक रहे हैं, फोन करके मुझे खचड़ी और बदमाश औरत जैसे विशेषणों से नवाजते हैं और कहते हैं कि वह जिंदा है तो तुम्हारा हक कैसे हो गया उसकी किताब पर? मैंने जवाब दिया कि मैं किसी की रखैल नहीं हूं, संघर्ष करती हूं तो गुजारा होता है. मैं अपने हक का पैसा मांग रही हूं. एक औरत जब अपने हक की आवाज उठाती है तो उसके विरुद्ध कितनी तरह की साजिश होती है. वह आदमी जो पूरी दुनिया में डंका पीटता है कि वह मुझे बेहद प्यार करता है, वह मेरे बिना जी नहीं सकता, वह मेरे वियोग में मनोरोगी हो गया, उससे मैं पूछती हूं, क्या उसने पति के रूप में अपनी जिम्मेदारी निभायी? क्या उसने मुझे सामाजिक और भावानात्मक सुरक्षा दी? क्या उसने आर्थिक सुरक्षा दी? सभी जानते हैं मैं पिछले छह साल से अपनी अस्मिता और अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हूं. पिछले छह साल से नितांत अकेली एक विधवा की तरह जी रही हूं. क्या वे मेरी तमाम रातें वापस लौटा सकते हैं? भयानक अपमान के दौर से गुजरे दिनों का खामियाजा कौन भरेगा? जिसके लिए मैंने अपने जीवन की तमाम बेशकीमती रातें रोकर बितायीं, वह मेरे लिए क्या एक बार मेरी उम्र के बराबर आ कर सोच सकता है? मैं अपनी उम्र की सामान्य लड़की की तरह क भी नहीं जी पायी. कभी पति के साथ कहीं घूमने नहीं गयी, पिक्चर या पार्टी में नहीं गयी. कितनी तकलीफ होती है जब एक स्त्री अपने तमाम सपने को मार कर जीती है. छह साल से मैं अकेली एक ही घर में रह रही हूं, यह मेरे चरित्र का सबसे बड़ा सबूत है. मेरे मकान मालिक मुझे बेटी की तरह मानते हैं. मेरे घर न पुरुष है, न पुरुष की परछाईं. पर जब मैं एक बार अचानक पटना गयी तो अपने बेडरूम में मैंने दूसरी औरत के कपड़े देखे. इतना सब देखने के बाद क्या कर सकती थी मैं ? और क्या रास्ता था मेरे पास? दिन-पर-दिन मैं असामान्य होती जा रही थी. न किसी से मिलने का मन होता न बात करने का. कोई हंसता तो लगता कि मेरे ऊपर हंस रहा है. कभी मैं देर रात तक दिल्ली की सुनसान सड़कों पर अकेली भटका करती. घर आने की मेरे पास कोई वजह नहीं थी. न किसी को मेरे आने का इंतजार, न कहीं जाने की परवाह. ऐसा लगता था, या तो आत्महत्या कर लूं या किसी कोठे पर जा कर बैठ जाऊं. लेकिन नहीं, अन्य दूसरे भले घर की बेटियों की तरह मेरे मां-बाप ने भी मुझे अच्छे संस्कार दिये थे, जिसने मुझे ऐसा कुछ करने से बचाया. अपनी बीवियों पर खुलेआम चरित्रहीनता का आरोप लगानेवाले मर्द बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि वे खुद कितनी औरतों के साथ आवारगी कर चुके हैं. नहीं, किसी मर्द में स्वीकार करने की हिम्मत नहीं होती. देश का अत्यंत प्रतिष्ठित कवि, जिसके शब्दों में मैं एक रंडी हूं, उसकी आखिर क्या मजबूरी है मुझे हासिल करने की? क्यों नहीं वह मुझे अपनी जिंदगी से निकाल बाहर करता? मैंने तलाक के पेपर बनवाये. कमलेश जैन (प्रतिठित अधिवक्ता) गवाह हैं. मैंने अपने भरण-पोषण के लिए कुछ भी नहीं मांगा. तब भी वह मुझे तलाक नहीं दे रहा, बल्कि मुझे हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहा है. अपने मित्रों मंगलेश डबराल और उदयप्रकाश तक से पैरवी करवा रहा है, क्यों? इन सबके आग्रह और आलोक के माफी मांगने पर मैंने उन्हें एक मौका दिया भी था, लेकिन एक सेकेंड नहीं लगा, उन्हें अपने पुराने खोल से बाहर आने में. एकांत का पहला मौका मिलते ही पूछा-तुम्हारे कितने शारीरिक संबंध है? मैं हैरान! अगर मेरे बारे में यह धारणा है तो मुझे पाने के लिए इतनी मशक्कत क्यों की? आलोक जब मुझे हासिल करने में हर तरह से नाकामयाब हो गये तो उन्होंने मुझसे कहा-तुम रंडी हो, तुम्हारी कोई औकात नहीं, बिहारी कहीं की. दो कौड़ी की लड़की. शादी से पहले तुम्हें जानता कौन था. मेरी वजह से आज लोग तुम्हें जानते हैं, तुम जो कुछ भी हो, मेरी वजह से हो. मेरे आत्मसम्मान को ऐसी चोट पहुंची कि तंग आ कर मैंने अपने पिता का बचपन में दिया हुआ नाम क्रांति बदल लिया, जबकि मैं क्रांति भट्ट के नाम से अभिनय के जगत में अपनी पहचान बना चुकी थी. मुझे अपने पिता का इतने प्यार से दिया हुआ नाम बदलने में बहुत तकलीफ हुई थी. अभी हाल में जब मैं अपने पिता से मिली तो उनसे माफी मांगते हुए कहा, माफ कीजिए. मुझे मजबूरीवश अपना नाम बदलना पड़ा. उन्होंने जवाब दिया- कोई बात नहीं. ठीक ही किया. क्रांति असीम है. क्रांति कभी हारती नहीं. क्रांति कभी रुकती नहीं. रिवोल्यूशन इज अनलिमिटेड. मैं बिना किसी शिकायत और शिकन के आज कहना चाहती हूं- हां, दर्द हुआ था. अपने पति के मुह से रंडी का खिताब पा कर बहुत दर्द हुआ था तब जब उस इनसान ने मुझ पर इतना घिनौना आरोप लगाया. वह इनसान जिसका मैंने सारी दुनिया के सामने हाथ थामा. वह इनसान जिसके बच्चे को मैंने गर्भ में धारण किया. जो खुद मेरी गोद में मासूम बच्चे की तरह पड़ा रहता था. उसने आज पूरी दुनिया के सामने मेरी इज्जत को तार-तार कर दिया. मैं आज तक इस बात को नहीं समझ पायी कि जब दो इनसान इतने करीब होते हैं, वहां ऐसी बातें आ कैसे जाती हैं. ऐसी ठोस कुंठा और भयंकर इगो. बहुत दर्द और लंबी यातना से गुजरी इस बीच. नितांत अकेली कोई नहीं था. बंद कमरे में खुद से बातें करती थी. ऊंचे वॉल्यूम में टीवी चला कर जब रोती थी तो किसी का कंधा नहीं था. बीमार पड़ी रहती थी, कोई देखनेवाला नहीं, दवा ला कर देनेवाला नहीं. पर आज सब कुछ सामान्य लग रहा है. जब कोई घाव पक जाता है तो दर्द देता ही है और उसका फूट कर बह जाना अच्छा ही है, चाहे दर्द जितना भी हो. घाव के पकने और बहने का यही सिलसिला है. मेरा घाव भी पक कर बह गया. दर्द हुआ. बेशुमार दर्द हुआ, लेकिन अब जख्म भर गया है. दर्द भी अपनी मुराद पूरी कर चुका. मैं अपने अभिनय में अपनी काबिलियत की परीक्षा छह साल से दर्शकों को दे रही हूं और शुक्रगुजार हूं वे मुझे प्यार करते हैं. अब मेरी अपनी एक जमीन है, एक पहचान है. जब मैं राम गोपाल बजाज के साथ गोर्की का नाटक तलघर कर रही थी तो बजाज जी ने मुझसे कहा था-बहुत सालों के बाद नाट्य विद्यालय में सुरेखा सीकरी और उत्तरा वावकर की रेंज की एक्ट्रेस आयी. सिर्फ़ अपने काम की वजह से एनएसडी में मुझे सारे क्लासमेट और सीनियर, जूनियर का प्यार मिला. मेरी काम के प्रति शिद्दत और लगन की वजह से हमेशा चैलेंजिंग रोल मिले. चाहे ब्रेख्त का नाटक गुड वुमन ऑफ शेत्जुआनहो या इब्सन के वाइल्ड डक में मिसेज सॉवी या चेखव के थ्री सिस्टर्स की छोटी बहन याविक्रर्मोवंशीय में उर्वशी की भूमिका. एनएसडी के बाद सारवाइव करने के लिए मैं सोलो करती हूं. एक बार जेएन कौशल साहब ने कहा था- 10 लाइन बोलने में एक्टरों के पसीने छूटते हैं. सोलो के लिए तो बहुत माद्दा चाहिए. तुम एक बेमिसाल काम कर रही हो. मेरे प्यार में पागल या मनोरोगी होने का ढिंढोरा पीटनेवाला दरअसल इस बात से ज्यादा दुखी है कि जिसे वह दो कौड़ी की लड़की कहता था, वह हार कर, टूट कर वापस उसके पास नहीं आयी. उन्हें इस बात का बहुत बेसब्री से इंतजार था कि एक-न-एक दिन मैं उनके पास लौट आऊंगी. इसलिए उन्होंने मुझे आज तक तलाक नहीं दिया. उनके पुरुष अहं को संतुष्टि मिलती है कि मैं आज भी उनकी पत्नी हूं. शादी का मतलब होता है, एक दूसरे में विश्वास, एक दूसरे के दुख-सुख में साथ निभाना. लेकिन आलोक न मेरे दुख के साथ है, न सुख में. छह साल से ऊपर होने को आये. मुझे एक शिकायत अपने ससुरालवालों से भी है. कभी उन्होंने भी यह नहीं जानना चाहा कि आखिर समस्या कहां है. कभी किसी ने मुझसे नहीं पूछा कि आखिर बात क्या है. एक अच्छा परिवार तलाक के बाद भी रिश्ता रखता है, मेरा तो तलाक भी नहीं हुआ. अब भी मैं उस परिवार की बहू हूं. कानूनी और सामाजिक तौर पर मेरे सारे अधिकार होते हुए भी मैंने उन लोगों से कुछ भी नहीं लिया. तब भी वे लोग मुझे ही दोष देते हैं. यह सब लिख कर मेरा कतई यह इरादा नहीं कि लोग मुझसे सहानुभूति दिखायें, मुझ पर दया करें. मैं बस यह चाहती हूं कि लोगों को दूसरा पक्ष भी मालूम हो. आज तक मैं चुप रही तो लोगों ने मेरे बारे में खूब अफवाहें उड़ायीं. मैं सुकून से अपना काम करना चाहती हूं और लोग मेरी व्यक्तिगत जिंदगी की बखिया उधेड़ना शुरू कर देते हैं. जीवन की हर छोटी-छोटी खुशी के लिए मैं तरसती रही. लोग कहते हैं, मैंने उनका इस्तेमाल किया पर मैं कहती हूं, एक कम उम्र लड़की को भोगने की जो लालसा (या लिप्सा) होती है, क्या उन्होंने मेरा इस्तेमाल नहीं किया? जिस लड़की को शादी करके लाये, उसे पहले ही दिन से एक अवैध संबंध ढोने पर मजबूर किया गया. मैं जानती हूं, इस तरह के वक्तव्य किसी मर्द को अच्छे नहीं लगेंगे पर मैं यह कहना चाहती हूं कि दुनिया के हर मर्द को अपनी मां, बहन, बेटी को छोड़ कर दुनिया की सारी औरतें रंडी क्यों नजर आती हैं? मर्द उसे किसी भी तरह से हासिल करना चाहता है. आखिर यह पुरुषवादी समाज है. मर्दो में एक बेहद क्रूर किस्म का भाईचारा है. काश, यह सामंजस्य हम औरतों में भी होता. यहां तो सबसे पहले एक औरत ही दूसरी औरत का घर तोड़ती है और टूटने पर सबसे पहले घर की औरतें ही उस औरत को दोष देना शुरू कर देती हैं. मेरी कई सहेलियों ने कहा-अरे यार, समझौता करके रह लेना था, हम लोग भी तो रह रहे हैं. वे यह नहीं जानतीं कि समझौता करके रहने की मैंने किसी भी औरत से ज्यादा कोशिश की, आखिरकार मैं थक गयी. शायद और समय तक रहती तो खुदखुशी कर लेती. मुझसे कई शादीशुदा औरतें इस बात के लिए डरती हैं कि कहीं मैं उनके पति को फंसा न लूं, वे मुझे दूसरी शादी की नेक सलाह देती हैं. अपना भला-बुरा मैं भी समझती हूं पर क्या ताड़ से गिरे, खजूर में अंटकेवाली स्थिति मुझे मान्य होगी? शादी करके घर बसाने और बचाने की मैंने हर संभव कोशिश की और न बचा पाने की असफलता ने मुझे भीतर तक तोड़ दिया. एक पराजय का बोध आज भी है. आज हर कदम फूंक-फूंक कर रखती हूं, जैसे कोई दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता है. फिर भी मैं दिल से शुक्रगुजार हूं अपने पति की, उन्होंने जो भी मेरे साथ किया. अगर उन्होंने यह सब न किया होता तो आज मैं असीमा भट्ट नहीं होती. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070719/2c387ac1/attachment.html From beingred at gmail.com Fri Jul 20 00:17:57 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 20 Jul 2007 00:17:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleClh+CkteCksiDgpK7gpYHgpLjgpLLgpK7gpL7gpKgg4KS54KWA?= =?utf-8?b?IOCkpuCli+Ckt+ClgCDgpLngpYjgpII/?= Message-ID: <363092e30707191147v32526a7bgf6b2284008752393@mail.gmail.com> क्या केवल मुसलमान ही दोषी हैं? कुलदीप नैयर बैंगलूर एक चर्चित स्थान हो गया है। अभी बहुत समय नहीं बीता, वहां से आतंकवादी संबंधी समाचार आए थे। लश्कर-ए-तोइबा ने कड़ी सुरक्षा से युक्त भारतीय विज्ञान संस्थान पर, डेढ़ वर्ष पूर्व हमला किया था। मुझे स्मरण आ रहा है कि क्षेत्र में शीर्षस्थ व्यक्ति राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने, हमले से एक दिन पूर्व ही मुझे बताया था कि आतंकवादी कभी भी और कहीं भी हमला कर सकते हैं। उन्होंने अपनी मजबूरी जताई थी। मेरा उद्देश्य इस उल्लेख द्वारा यह जताने का है कि ऐसी चेतावनी के बावजूद अधिकारियों की प्रतिक्रिया निरुत्साहित सी ही रही थी। अधिकारियों ने उस समय उस आतंकवादी तंत्र के राज्य और राज्य के बाहर भी विस्तार पर गहनता से दृष्टिपात नहीं किया। जो व्यक्ति ग्लागो हवाई अड्डे पर जलती हुई जीप ले जा धमका और जो लोग उसके मददगार रहे, वे बैंगलूर के डाक्टर ही हैं। स्पष्ट ही है कि पुलिस, खुफिया एजेंसियां और राज्य की मशीनरी ने तब अपना काम बखूबी अंजाम नहीं दिया था। वे अखिल इस्लामी कट्टरतावाद और तब लीग के केंद्रों तक पहुंच पाने में असफल रहे, जहां डाक्टरों को शिक्षित-दीक्षित किया गया था। समग्र भारत में अधिकारियों के कुल मिलाकर क्रियाकलाप को देखकर मैं यही महसूस करता हूँ कि या तो उनमें अनुभव की कमी है, अथवा वे राजनीतिक दबावों के चलते अपने काम को मन लगाकर पूरा नहीं कर पाते। राजनीतिक दबाव की बात अनेक राज्यों के बारे में एक सच्चाई है। खासतौर पर महाराष्ट्र के बारे में तो यह मानना ही होगा। इसके बावजूद ग्लासगो हवाई अड्डे की घटना के बाद जो रहस्य प्रकाश में आए हैं उन्होंने भूमिगत गतिविधियों और उनके पीछे जो संगठन है, उनका पर्दाफाश कर दिया है। दुख के साथ यह स्वीकार करना पड़ता है कि तालिबान और अलकायदा के सेल (प्रकोष्ठ) भारत में भी सक्रिय हैं। उन पर यूरोप तक से कट्टरपंथियों के लिए सहायता जुटाने में सक्रिए रहने का संदेह है। जिस बात से कुछ लोगों को खासा आघात लगा है, वह यह है कि अभी कुछ साल पहले तक ही हममें से सभी सगर्व यह कहते थे कि भारतीय मुसलमानों ने बड़ी दृढ़ता के साथ अफगानिस्तान में जिदाह में योगदान हेतु उग्रवादियों के आह्वान को खारिज कर दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने 2002 में आक्सफोर्ड में बड़ी दृढ़ता के साथ यह कहा था कि 'भारतीय मुसलमान अल कायदा जैसी सोच रखने वाले नहीं हैं।' विगत कुछ वर्षों से अयोध्या में बाबरी विध्वंस जैसी कोई घटना नहीं हुई और न ही गुजरात जैसा नरसंहार हुआ है। इन दोनों घटनाओं ने मुस्लिमों और बहुलवादियों को संतप्त कर दिया था। फिर भी ये ऐसे पुराने घाव हैं कि जो हो सकता है अभी तक नहीं भर सके हों, फिर भी मुसलमानों में उन घटनाओं के प्रतिशोध जैसा कोई आक्रोश तो अब नहीं ही है। सत्य है कि ज्यादातर मुस्लिम अभी भी मुख्यधारा से दूर हैं, किंतु उन्होंने हालात के साथ रहना सीख लिया है, जबकि व्यापक तस्वीर सेक्युलर ही है। मेरा सोचना यह है कि बैंगलूर के डाक्टरों की प्रतिक्रिया की वजह इस बात को लेकर कि पश्चिम ने विगत छह दशकों में मुस्लिम विश्व के साथ क्या कुछ किया जाता रहा है। वह अलग-थलग सा महसूस करता है और सोचता है कि अमेरीका, ग्रेट ब्रिटेन और अन्य यूरोपीय देश इस आधार पर कि ईसाई और मुस्लिम सभ्यताओं में संघर्ष है, उसके साथ टकराव की राह अपना रहे हैं, जबकि यह टकराव यह स्थापित करने लिए हो रहा है कि दोनों में से कौन सर्वोच्च है। इराक पर हमले को भी इसी दृष्टि से देखा जा रहा है, यह असंदिग्ध तौर पर सिध्द हो चुका है कि उस देश के पास सामूहिक संहारक कोई आयुध नहीं थे और राष्ट्रपति बुश ने वहां जो मारकाट कराई, उसके बाहरी कारण ही थे। हजारों इराकी मारे जा चुके हैं और उनमें से हजारों को पाषाण युगीन जैसे हालात में जिन्दगी काटने पर बाध्य किया जा चुका है। अमरीका ने और अधिक सैनिक वहां भेजे हैें। यदि अमरीका अपनी आक्रामकता में कुछ बदलाव करता तो शायद मुस्लिम जगत यह सोचता कि संभवत: उसकी सोच सही नहीं है कि पश्चिम उसका शत्रु है। वस्तुकाल यदि अमरीका कुछ सदाशयता दर्शाए तो उसके भी सर्वत्र ही उसके प्रति मुस्लिम सोच में एक सीमा तक बदलाव आ सकता है। नए ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन अमरीका के संकेतों पर चलते रहने के बजाय, कुछ ऐसे कदम उठा सकते हैं कि जिससे तनाव में कमी आए। मुस्लमानों में फलस्तीन को लेकर भी चिंता है। वे उस देश की सहायतार्थ ठोस भले ही न कर सकें, परन्तु विश्वभर में मस्जिदों के मिम्बर से इसका उल्लेख होता ही है। कोई भी अब यहूदियों को समुद्र में फेंकने जैसे वाक्य का इस्तेमाल नहीं करता जो अतीत में सामानय रूप से उच्चारित होता था। इस्राइल एक हकीक्त है, जिसे अनिच्छा से ही मुस्लमान भी मान्य करते हैं। इस पर भी ऐसे कोई संकेत नहीं है कि इस्राइल अपनी उन मूल सीमाओं पर लौटने को तैयार जो संयुक्त राष्ट्रसंघ ने तब निर्धारित की थी, जब उस राज्य की स्थापना हुई थी। सऊदी अरब के प्रिंस ने इस्राइल को मान्यता देने के प्रस्ताव इस शर्त के साथ रखा है कि वह उन क्षेत्रों को खाली कर दे, जिन पर उसने युध्दों के दौरान कब्जा किया था। फिर कोई आपत्ति नहीं होगी। अमरीकाको भी इस प्रस्ताव के पीछे अपना ताकत लगानी चाहिए थी। मगर उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि अमरीकी कांग्रेंस और वाल स्ट्रीट में यहूदी लांबी बहुत अधिक सशक्त है। और इनका ही अमरीकी वित्तीय स्थिति पर प्रभुत्व है। मुस्लिमों की शिकायतें व शिकवे, जिनमें से कुछ वास्तविक और कुछ काल्पनिक, उसका यह अर्थ नहीं है कि मजहब के साथ ही कुछ गलत नत्थी है। आतंकवाद उसका हिस्सा नहीं है और जिहाद का आह्वान गलत ढंग से उभारा गया और वह इस्लाम की मूल मान्यताओं के ही खिलाफ है। टर्की पर दृष्टिपात कीजिए। वह एक इस्लामिक राज्य है। किंतु किसी ने यह नहीं सुना कि अमुक-अमुक आतंकवादी टर्किश (तुर्की) है। अभी बहुत दिन नहीं हुए इस्तम्बूल की सड़कों पर सेक्युलरवाद के समर्थन में एक जलूस निकाला गया था। इसके बावजूद टर्की की सबसे बड़ी खामी यूरोपियन बाजार नहीं बनाने को लेकर यह है कि वह एक मुस्लिम देश है। निसंदेह मुस्लिम जगत के शेखों और विदृतजनों को मिल बैठकर इस्लाम में विमत के लिए गुंजाइश की राह खोजना चाहिए। कुछ मजहबी सिध्दान्तों की पुन: व्याख्या अपेक्षित है। कोई भी देख सकता है कि टर्की, पाकिस्तान, बंगलादेश में ऐसा भी हो रहा है। किंतु आपत्ति का अधिकार और अधिक सशक्त तथा मुखर होना चाहिए। कुरान का कथन है 'अल्लाह के नाम पर उन लोगों से लड़ों जो तुम्हारे विरुध्द लड़ते हों। मगर विद्वेष का शुरुआत न करो।' आतंकवाद निर्दोषों की हत्या का एक सुनियोजित कृत है। इस्लाम इसे मंजूर नहीं करता। अधिक चिंता की बात यह है कि भारतीय राष्ट्र जो बहुलवाद और सहनशीलता से परिपोषित है, इसमें भी ऐसे लोग हों, जो मजहब को देश से ऊपर रखते हैं। कोईभी व्यक्ति एक ही साथ भारतीय और मुस्लिम होने पर गर्व कर सकता है। बैंगलूर के डाक्टरों ने भारत को बदनाम किया है, क्योंकि उन्होंने अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति बमों के माध्यम से की है। यह कृत्य जितना अभारतीय है, उतना ही गैर-इस्लामिक है। साथ ही ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन आदि में भारतीय डाक्टरों के साथ जो व्यवहार जवाबी प्रतिक्रिया के तौर पर हुआ है, वह भी दुभाग्यपूर्ण है। हर समुदाय में ही कुछ बुरे लोग होते हैं। इसके तात्पर्य सारे समुदाय के ही खराब होने का तो नहीं है। किंतु मुझे आशंका है कि कुछ पश्चिमी देश जातिवादी सोच से प्रेरित हो रहे हैं। 1990 में लंदन में भारत के उच्चायुक्त के तौर पर मैं तब स्तम्भित रह गया था, जब ब्रिटेन जैसे परिपक्व और बहुलवादी राष्ट्र में मुझे जातिवाद के उभार की झलक मिली थी, उन दिनों उपमहाद्वीप का हर व्यक्ति 'पाकी' था। बड़े-बड़े सुसभ्य ब्रिटिश जन घृणा मात से इस संज्ञा का प्रयोग करते थे। अश्वेतों को वहां सहन किया जाता था, मान्य नहीं। मैं यह सोचकर सिहर सा उठता हूं कि ब्रिटिश आव्रजन के नाम पर कौन से नए नियम-उपनियम लागू करेंगे। मारग्रेट थै्रचर ने अपने प्रधानमंत्रित्व काल के अंतिम दिनों में मुझसे कहा था कि साम्यवाद की पराजय के बाद इस्लाम संसार के लिए सबसे बड़ा खतरा होगा। मैं सोचता हूं कि उनका तात्पर्य इस्लामिक कट्टरतावाद से था। देशबंधु से साभार. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070720/900fd0fc/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Jul 20 07:13:53 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 20 Jul 2007 07:13:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkj+KAjeCkl+CljeCksOClgOCkl+Clh+Ckn+CksCDgpKjgpL4=?= =?utf-8?b?4KSw4KSmIOCkleClgCDgpIbgpLXgpL7gpJzgpL7gpLngpYAg4KSl4KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+IOCknOCksOClguCksOClgCDgpLngpYg=?= Message-ID: <749797f90707191843p4850d502o5812bed6799e3faa@mail.gmail.com> नारद की गिरती आवाजाही थामना जरूरी है नारद की आवाजाही पर हमें नजर रखनी पड़ती है, क्या करें काम ही ऐसा है बिना ये जाने कि कितने लोग आ जा रहे हैं, चिट्ठाकारी की दिशा का अनुमान करना कठिन है। इसलि जब एकाएक यह आवाजाही बढ़ीतब भी हमें बताने लायक बात लगी उसी तरह हमने ये भी दर्शाया कि विवाद काल में नारद आवाजाहीबढ़ती है। अब जब एक से ज्‍यादा एग्रीगेटर मैदान में हैं- देबाशीष याद दिला चुके हैं कि पहले भी नारद का कोई एकाधिकार नहीं था- हालांकि पुख्‍ता आंकड़ों के अभाव में भी हमें लगता है कि नारद की लोकप्रियता इतनी अधिक हुआ करती थी कि अन्‍य की स्थिति बहुत मायने नहीं रखती थी। इतने अधिक 'थी' इसलिए इस्‍तेमाल कर रहे हैं क्‍योंकि चिट्ठों की संख्‍या में आए इस उफान (चिट्ठाजगत इस समय लगभग 800 चिट्ठों को शमिल कर रहा है जबकि हमारे साथ ही शोध प्रारंभ करने वाली सह शोधार्थी गौरी ने एक यथार्थपरक अनुमान लगाते हुए फरवरी मार्च में 60-'70 सक्रिय चिट्ठों का अनुमान प्रस्‍तुत किया था) के वावजूद नारद के ट्रेफिक में खासी कमी आई है। अगर आलोकजी की शब्‍दावली में कहें तो नई दुकानों से पुरानी दुकान की ग्राहकी पर असर हुआ है। अभी केवल शुरुआत है तथा नारद के विपरीत चिट्ठाजगत व ब्‍लॉगवाणीके आवाजाही आंकड़े सार्वजनिक नहीं है इसलिए भी अभी यह कहना कठिन है कि इन एग्रीगेटरों के ट्रेफिक की आपसी सहसंबद्धता क्‍या है। पर इतना तय है कि चिट्ठाजगत के सामने आने के आस पास ही ट्रेफिक का यह चार्ट दक्षिणोन्‍मुख हुआ है। नारद तक पहुँचने वाले यूनीक विजीटरों की संख्‍या का मई से अब तक का लेखा जोखाइस प्रकार है- यूनीक विजीटरों के आंकड़ों को इसलिए लिया गया है क्‍योंकि संभवत् सर्फर प्रतिबद्धता का सबसे सटीक अनुमान इनसे ही मिलता है वैसे पेजलोड के आंकड़े भी इसी अनुपात में ही हैं। क्‍या नारद के बढ़ते कदमों में लगी ये लगाम के हिंदी चिट्ठाकारी के लिए कोई गंभीर संकेत हैं- हमारा अनुमान है कि नहीं और हॉं दोनों ही ठीक है। जैसा रविजी व देबाशीष दोनों ही बताया कि नए एग्रीगेटरों का आना कुल मिलाकर बेहतर ही है पर दिककत यह है कि यदि उनकी पेशकदमी का मतलब नारद के ट्रेफिक में कमी आना है तो ये संकेत भले नहीं कहे जा सकते क्‍योंकि इसका मतलब है कि कुल मिलाकार चिट्ठाकार आधार (ब्‍लॉगर बेस) कम है तथा वह सभी एग्रीगेटरों को ट्रेफिक देने में असमर्थ है, दूसरे शब्‍दों में पाई का आकार इतना नहीं बढ़ा है कि सबका पेट भर सके- हालांकि तब भी सब साथ साथ रह सकते हैं खासकर इसलिए कि अभी तक तीनों में से किसी के भी व्‍यवसायिक घोषित लक्ष्‍य नहीं हैं, इसलिए ट्रेफिक कम भी रहा तो भी शायद ये दुकान न समेटें। लेकिन नारद के रूतबे में कमी किसी भी हिंदी बेवसाइट या चिट्ठों के लिए एक बुरी खबर है। एक बात यह भी कि चिट्ठाजगत व बलॉगवाणी को अपना लायल्‍टी बेस बनाना नहीं पड़ा नारद के ही लायल ग्राहक उन्‍हें स्‍वमेव मिल गए हैं इससे वे कई कसालों से बच गए हैं। आलोकजी ने अपने निवेश सलाह के पोर्टल पर बतायाकि आईटी व इंटरनेटी कंपनियों की खासियत यह होती है कि उनके पास लंबी चौड़ी भौतिक संपदा यानि जमीन जायदाद नहीं होती कि वे अपने औसत निष्‍पादन के बाद भी सश्‍ाक्‍त मानी जाएं, उनकी प्रोपर्टी तो आभासी ही होती है यानि .... *मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की किसी भी कंपनी के पास न्यूनतम भौतिक संपत्ति होती है। जैसे किसी टैक्सटाइल कंपनी के पास जमीन होती है, प्लांट होता है। मशीनरी होती है। डूबती कंपनी को यह सब बेच-बाचकर भी मोटी रकम खऱीद सकती है।* दरअसल इंटरनेट बेहद आवारा नींव पर खड़ी इमारत होती है तथा इसके मनचले स्‍वभाव के कारण हर बेवसाइट को अपने ग्राहक लगातार बनाए रखने जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। कोई भी संस्‍था अपना कद भी यही मानकर चल रही होती है कि वह आपने वफादार ग्राहकों को तो कम से कम बनाकर रख ही पाएगी। अत: हमें इसे हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अहम संकेत के रूप में देखना चाहिए। नीलिमा -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070720/cca11d1a/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Jul 20 07:15:02 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 20 Jul 2007 07:15:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkj+KAjeCkl+CljeCksOClgOCkl+Clh+Ckn+CksCDgpKjgpL4=?= =?utf-8?b?4KSw4KSmIOCkleClgCDgpIbgpLXgpL7gpJzgpL7gpLngpYAg4KSl4KS+?= =?utf-8?b?4KSu4KSo4KS+IOCknOCksOClguCksOClgCDgpLngpYg=?= Message-ID: <749797f90707191845uf8d043aw4e187aecb2986eb9@mail.gmail.com> नारद की गिरती आवाजाही थामना जरूरी है नारद की आवाजाही पर हमें नजर रखनी पड़ती है, क्या करें काम ही ऐसा है बिना ये जाने कि कितने लोग आ जा रहे हैं, चिट्ठाकारी की दिशा का अनुमान करना कठिन है। इसलि जब एकाएक यह आवाजाही बढ़ीतब भी हमें बताने लायक बात लगी उसी तरह हमने ये भी दर्शाया कि विवाद काल में नारद आवाजाहीबढ़ती है। अब जब एक से ज्‍यादा एग्रीगेटर मैदान में हैं- देबाशीष याद दिला चुके हैं कि पहले भी नारद का कोई एकाधिकार नहीं था- हालांकि पुख्‍ता आंकड़ों के अभाव में भी हमें लगता है कि नारद की लोकप्रियता इतनी अधिक हुआ करती थी कि अन्‍य की स्थिति बहुत मायने नहीं रखती थी। इतने अधिक 'थी' इसलिए इस्‍तेमाल कर रहे हैं क्‍योंकि चिट्ठों की संख्‍या में आए इस उफान (चिट्ठाजगत इस समय लगभग 800 चिट्ठों को शमिल कर रहा है जबकि हमारे साथ ही शोध प्रारंभ करने वाली सह शोधार्थी गौरी ने एक यथार्थपरक अनुमान लगाते हुए फरवरी मार्च में 60-'70 सक्रिय चिट्ठों का अनुमान प्रस्‍तुत किया था) के वावजूद नारद के ट्रेफिक में खासी कमी आई है। अगर आलोकजी की शब्‍दावली में कहें तो नई दुकानों से पुरानी दुकान की ग्राहकी पर असर हुआ है। अभी केवल शुरुआत है तथा नारद के विपरीत चिट्ठाजगत व ब्‍लॉगवाणीके आवाजाही आंकड़े सार्वजनिक नहीं है इसलिए भी अभी यह कहना कठिन है कि इन एग्रीगेटरों के ट्रेफिक की आपसी सहसंबद्धता क्‍या है। पर इतना तय है कि चिट्ठाजगत के सामने आने के आस पास ही ट्रेफिक का यह चार्ट दक्षिणोन्‍मुख हुआ है। नारद तक पहुँचने वाले यूनीक विजीटरों की संख्‍या का मई से अब तक का लेखा जोखाइस प्रकार है- यूनीक विजीटरों के आंकड़ों को इसलिए लिया गया है क्‍योंकि संभवत् सर्फर प्रतिबद्धता का सबसे सटीक अनुमान इनसे ही मिलता है वैसे पेजलोड के आंकड़े भी इसी अनुपात में ही हैं। क्‍या नारद के बढ़ते कदमों में लगी ये लगाम के हिंदी चिट्ठाकारी के लिए कोई गंभीर संकेत हैं- हमारा अनुमान है कि नहीं और हॉं दोनों ही ठीक है। जैसा रविजी व देबाशीष दोनों ही बताया कि नए एग्रीगेटरों का आना कुल मिलाकर बेहतर ही है पर दिककत यह है कि यदि उनकी पेशकदमी का मतलब नारद के ट्रेफिक में कमी आना है तो ये संकेत भले नहीं कहे जा सकते क्‍योंकि इसका मतलब है कि कुल मिलाकार चिट्ठाकार आधार (ब्‍लॉगर बेस) कम है तथा वह सभी एग्रीगेटरों को ट्रेफिक देने में असमर्थ है, दूसरे शब्‍दों में पाई का आकार इतना नहीं बढ़ा है कि सबका पेट भर सके- हालांकि तब भी सब साथ साथ रह सकते हैं खासकर इसलिए कि अभी तक तीनों में से किसी के भी व्‍यवसायिक घोषित लक्ष्‍य नहीं हैं, इसलिए ट्रेफिक कम भी रहा तो भी शायद ये दुकान न समेटें। लेकिन नारद के रूतबे में कमी किसी भी हिंदी बेवसाइट या चिट्ठों के लिए एक बुरी खबर है। एक बात यह भी कि चिट्ठाजगत व बलॉगवाणी को अपना लायल्‍टी बेस बनाना नहीं पड़ा नारद के ही लायल ग्राहक उन्‍हें स्‍वमेव मिल गए हैं इससे वे कई कसालों से बच गए हैं। आलोकजी ने अपने निवेश सलाह के पोर्टल पर बतायाकि आईटी व इंटरनेटी कंपनियों की खासियत यह होती है कि उनके पास लंबी चौड़ी भौतिक संपदा यानि जमीन जायदाद नहीं होती कि वे अपने औसत निष्‍पादन के बाद भी सश्‍ाक्‍त मानी जाएं, उनकी प्रोपर्टी तो आभासी ही होती है यानि .... *मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र की किसी भी कंपनी के पास न्यूनतम भौतिक संपत्ति होती है। जैसे किसी टैक्सटाइल कंपनी के पास जमीन होती है, प्लांट होता है। मशीनरी होती है। डूबती कंपनी को यह सब बेच-बाचकर भी मोटी रकम खऱीद सकती है।* दरअसल इंटरनेट बेहद आवारा नींव पर खड़ी इमारत होती है तथा इसके मनचले स्‍वभाव के कारण हर बेवसाइट को अपने ग्राहक लगातार बनाए रखने जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। कोई भी संस्‍था अपना कद भी यही मानकर चल रही होती है कि वह आपने वफादार ग्राहकों को तो कम से कम बनाकर रख ही पाएगी। अत: हमें इसे हिंदी चिट्ठाकारी के लिए अहम संकेत के रूप में देखना चाहिए। नीलिमा -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070720/cbddea9d/attachment.html From abhay.news at gmail.com Fri Jul 20 08:48:47 2007 From: abhay.news at gmail.com (Abhay singh) Date: Fri, 20 Jul 2007 08:48:47 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWA4KSW?= Message-ID: <510a3f30707192018t301f333dg38ad1f3d51d41441@mail.gmail.com> चीख बना लो, जितनी बडी कम्यूनिटी बनानी है बना लो! घर में चाहे एकदूसरे को पहचानते हो या नहीं? पर बाहर अपनी एकजुटता का जितना ढिंढोरा पीटना है पीट लो! इंटरनेट पर ब्लोग बनालो! मीडिया में आपसी भाईचारे के नाम पे जितनी शोबाज़ी करनी है कर लो! पर कभी अपने घर मे झाँक कर नहीं देखना की तुम्हारे अपने 'बिहार' में कितने नीच और पतित समाज की फसल उग-बढ़ रही है ! पर तुम्हे इससे क्या? कहीं झड़प हुई चल दिये अपने बिहारीपन का परिचय देने! इंटरनेट पर बैठे और शुरु हो गयें भाईचारे का राग अलापने! पर कभी इस पर भी विचार किया है, कभी इस संबंध में भी कोई कदम उठाने की कोशिश की है की, जहां जिस मिट्टी में पले बढ़े हो, वहीं ऐसे कु-कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, जिसे सुनकर किसी भी भले मानुष की आंखे शर्म-सार हो जायें! सुपौल, त्रिवेणीगंज की छेदनी देवी अब अपनी चहार दिवारी से पैर बाहर नहीं निकालती! उसके लिये घर का वह बंद कोना ही उसकी सारी दुनिया है! क्यों? क्योंकि, अब वह मुँह दिखाने के लायक नहीं है! पुरा इलाका उसके नंगे उघड़े बदन को देख चुका है! अस्मत तार तार हो चुकी है!अब कैसे वह तन पर कपड़ों के चंद टुकड़े लपेटे बाहर निकलेगी? इस समाज ने तो उसे पूरी तरह "पारदर्शी" बना दिया है! कसूर? कसूर यह है की वह 'डायन' है ऐसा समाज के चंद ठेकेदार कहते हैं, उसने उस इलाके की एक बच्ची पर टोटका कर के मार डाला है! और उसे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये! क्यों, है की नहीं ? भाई ऐसे समय पर ही तो एकत्व की भावना नज़र आती है ! फिर क्या, उस औरत के तन पर ढँकी उस चादर को बात की बात में निकाल फेंका गया ! अब निर्वस्त्र कर के उसे खड़े-खड़े देखते तो भला अच्छा लगता ? तो उसे पुरे मुहल्ले मे निर्वस्त्र घुमाया गया, उसे पीटा गया और इससे भी तमाशे मे आंनद नहीं आया तो, आंख फोड़ देने की धमकी देकर मैला पिलाया गया! खेल खतम, पैसा हज़म !! हां!एक ब्रेकिंग न्यूज तो बताई ही नहीं ! इतना बड़ा तमाशा हुआ पर कोई OB-VAN पास नहीं फटकी! अजी वही OB-VAN जो चैनल वाले ले कर चलते है, Live Telecast करने के लिये! ताकी आप घर बैठे ही हो रही घटना का आनंद ले सके! ओह, सचमुच अफसोस रहा, नहीं ?? सीधा प्रसारण हो जाता तो मज़ा ही कुछ और होता!! नहीं ??? पर ज़रा रुकिये तो सही जनाब , अभी तो यह शुरुआत है! पटना के पहाड़ी मुहल्ले में एक बच्ची बीमार पड गयी! बस क्या था, आतताइयों ने इसके लिये कमला को ज़िम्मेदार बता दिया! उसे घर से खींचकर इतना पीटा गया की बेचारी वह तथाकथित "डायन" अधमरी हो गयी! कुछ और लोगों को यश मिला। क्या कहा, कि इनके घर वाले कुछ नहीं करते? करते हैं साहब, ज्यादातर मामलों मे घर वाले ही सब कुछ करते हैं- समाज के ठेकेदारों से मिल के! हां, मगर कमला जैसे कुछ एक घरवाले आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं तो उनकी भी वो पिटाई होती है कि ऊपर बैठे उनके पुरखे तक ज़बान बन्द रखने की क़सम खा लेते हैं ! अब कहां तक बताएँ आपको! अब तो इस पंचायती राज में किसी की भी खैरियत नहीं साहब और ख़ास तौर पर अगर वो महिला है तो पहले इल्ज़ाम तय और तुरन्त फ़ैसला और उसपर तुर्रा ये कि अगर वो महिला दलित है तो सज़ाओं में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है। जैसे जाजापुर (गोह, औरंगाबाद) में वार्ड पार्षद शोभा देवी को डायन बताकर मारा-पीटा गया! और तो और कुछ दिनों पहले पूर्णिया शहर के बीचोंबीच हज़ारों लोगों ने पुलिस की मौज़ूदगी में सावित्री देवी को जान से ही मार डाला!अब लो इस औरत का भी कसूर पूछ रहे हो?कसूर बता बता कर तो थक गया अब कितनी बार बताउँ। आखिर यह कैसी विकृत मानसिकता और अपराध को प्रशासन का संरक्षण है, जो किसी की बीमारी खातिर बस "मां बहन और बेटी" को दोषी ठहराती है और उसकी बाक़ायदा सजायाफ्तगी भी करती है ? मैं तुम से सिर्फ इस लिये कह रहा हूं की अगर हम बिहार के होकर भी कोई क़दम नहीं उठाते तो दुसरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?। हमारी यह मूक दर्शक भूमिका हमें हर स्तर पर 'अपराधी' ठहरायेगी ! राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को खत्म किया, और दयानंद जी ने विधवा पूनर्विवाह की शुरुआत उस माहौल में की जब धार्मिक रूढ़िवादिता की नींव को हिलाना तक संभव नहीं था ! तो क्या हम आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में इस "डायन प्रथा" को उखाड नहीं फेंक सकते हैं ? या फिर भू-मंडलीकरण के युग में भी हम यूँ हीं मध्ययुगीन कुरीतियों को मूक-बधिर होकर नज़र- अंदाज़ करते रहेंगे ? सरकार ने डायन प्रथा विरोधी विधेयक बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है! आज भी यह विधेयक कोरे पन्नों मे क़ैद हो के रह गया है! आज जरुरत है इसे सख़्ती से लागू करवाने की! उठो ! जागो !! वरना आज किसी की मां-बहन को नंगा करके मुहल्ले मे घुमा रहे हैं, गुप्तांगों को सलाखों से दाग रहे हैं, मलमुत्र पिला रहे हैं, कल शायद हमारे-तुम्हारे घर की भी बारी आ जाये! तब चुल्लू भर पानी लेके डूब मरना! सिर्फ खाना खा कर दफ़्तर और घर आकर टी.वी. देखकर ज़िन्दगी मत ख़त्म करो ! मनुष्य हो तो मनुष्यता की रक्षा के लिये भी अपना योगदान दो! तभी 'स्त्री' का वास्तविक आदर होगा वो स्त्री जो किसी की माँ,बहन और बेटी है तभी उसका सच्चा सम्मान होगा। तभी एक सुंदर समाज की रचना होगी। वरना याद रखो यह "डायन" की आड़ में किया जा रहा बर्बर और पैशाचिक कार्य कल किसी भी घर का ग्रहण बन सकता है, तब देखना कि तुम तब भी मूक दर्शक न बने रह जाओ! तब देखना कि तुम तब भी सोते न रह जाओ!! और कभी नींद खुले और यह चीख़... तुम्हारे कानों मे पड़े, तो डरना मत, बल्कि ठंडे दिमाग से सोचना कि आखिर कौन है, असली "डायन" ???...!!! राजन पाठक -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-2003 Size: 12710 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070720/bba43743/attachment.bin From abhay.news at gmail.com Fri Jul 20 08:55:41 2007 From: abhay.news at gmail.com (Abhay singh) Date: Fri, 20 Jul 2007 08:55:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KWA4KSW?= Message-ID: <510a3f30707192025x6dee267fv193a661728f2701b@mail.gmail.com> चीख बना लो, जितनी बडी कम्यूनिटी बनानी है बना लो! घर में चाहे एकदूसरे को पहचानते हो या नहीं? पर बाहर अपनी एकजुटता का जितना ढिंढोरा पीटना है पीट लो! इंटरनेट पर ब्लोग बनालो! मीडिया में आपसी भाईचारे के नाम पे जितनी शोबाज़ी करनी है कर लो! पर कभी अपने घर मे झाँक कर नहीं देखना की तुम्हारे अपने 'बिहार' में कितने नीच और पतित समाज की फसल उग-बढ़ रही है ! पर तुम्हे इससे क्या? कहीं झड़प हुई चल दिये अपने बिहारीपन का परिचय देने! इंटरनेट पर बैठे और शुरु हो गयें भाईचारे का राग अलापने! पर कभी इस पर भी विचार किया है, कभी इस संबंध में भी कोई कदम उठाने की कोशिश की है की, जहां जिस मिट्टी में पले बढ़े हो, वहीं ऐसे कु-कृत्य को अंजाम दिया जा रहा है, जिसे सुनकर किसी भी भले मानुष की आंखे शर्म-सार हो जायें! सुपौल, त्रिवेणीगंज की छेदनी देवी अब अपनी चहार दिवारी से पैर बाहर नहीं निकालती! उसके लिये घर का वह बंद कोना ही उसकी सारी दुनिया है! क्यों? क्योंकि, अब वह मुँह दिखाने के लायक नहीं है! पुरा इलाका उसके नंगे उघड़े बदन को देख चुका है! अस्मत तार तार हो चुकी है!अब कैसे वह तन पर कपड़ों के चंद टुकड़े लपेटे बाहर निकलेगी? इस समाज ने तो उसे पूरी तरह "पारदर्शी" बना दिया है! कसूर? कसूर यह है की वह 'डायन' है ऐसा समाज के चंद ठेकेदार कहते हैं, उसने उस इलाके की एक बच्ची पर टोटका कर के मार डाला है! और उसे इसकी सजा तो मिलनी ही चाहिये! क्यों, है की नहीं ? भाई ऐसे समय पर ही तो एकत्व की भावना नज़र आती है ! फिर क्या, उस औरत के तन पर ढँकी उस चादर को बात की बात में निकाल फेंका गया ! अब निर्वस्त्र कर के उसे खड़े-खड़े देखते तो भला अच्छा लगता ? तो उसे पुरे मुहल्ले मे निर्वस्त्र घुमाया गया, उसे पीटा गया और इससे भी तमाशे मे आंनद नहीं आया तो, आंख फोड़ देने की धमकी देकर मैला पिलाया गया! खेल खतम, पैसा हज़म !! हां!एक ब्रेकिंग न्यूज तो बताई ही नहीं ! इतना बड़ा तमाशा हुआ पर कोई OB-VAN पास नहीं फटकी! अजी वही OB-VAN जो चैनल वाले ले कर चलते है, Live Telecast करने के लिये! ताकी आप घर बैठे ही हो रही घटना का आनंद ले सके! ओह, सचमुच अफसोस रहा, नहीं ?? सीधा प्रसारण हो जाता तो मज़ा ही कुछ और होता!! नहीं ??? पर ज़रा रुकिये तो सही जनाब , अभी तो यह शुरुआत है! पटना के पहाड़ी मुहल्ले में एक बच्ची बीमार पड गयी! बस क्या था, आतताइयों ने इसके लिये कमला को ज़िम्मेदार बता दिया! उसे घर से खींचकर इतना पीटा गया की बेचारी वह तथाकथित "डायन" अधमरी हो गयी! कुछ और लोगों को यश मिला। क्या कहा, कि इनके घर वाले कुछ नहीं करते? करते हैं साहब, ज्यादातर मामलों मे घर वाले ही सब कुछ करते हैं- समाज के ठेकेदारों से मिल के! हां, मगर कमला जैसे कुछ एक घरवाले आवाज़ उठाने की हिम्मत करते हैं तो उनकी भी वो पिटाई होती है कि ऊपर बैठे उनके पुरखे तक ज़बान बन्द रखने की क़सम खा लेते हैं ! अब कहां तक बताएँ आपको! अब तो इस पंचायती राज में किसी की भी खैरियत नहीं साहब और ख़ास तौर पर अगर वो महिला है तो पहले इल्ज़ाम तय और तुरन्त फ़ैसला और उसपर तुर्रा ये कि अगर वो महिला दलित है तो सज़ाओं में कुछ इज़ाफ़ा हो जाता है। जैसे जाजापुर (गोह, औरंगाबाद) में वार्ड पार्षद शोभा देवी को डायन बताकर मारा-पीटा गया! और तो और कुछ दिनों पहले पूर्णिया शहर के बीचोंबीच हज़ारों लोगों ने पुलिस की मौज़ूदगी में सावित्री देवी को जान से ही मार डाला!अब लो इस औरत का भी कसूर पूछ रहे हो?कसूर बता बता कर तो थक गया अब कितनी बार बताउँ। आखिर यह कैसी विकृत मानसिकता और अपराध को प्रशासन का संरक्षण है, जो किसी की बीमारी खातिर बस "मां बहन और बेटी" को दोषी ठहराती है और उसकी बाक़ायदा सजायाफ्तगी भी करती है ? मैं तुम से सिर्फ इस लिये कह रहा हूं की अगर हम बिहार के होकर भी कोई क़दम नहीं उठाते तो दुसरों से क्या अपेक्षा की जा सकती है?। हमारी यह मूक दर्शक भूमिका हमें हर स्तर पर 'अपराधी' ठहरायेगी ! राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा को खत्म किया, और दयानंद जी ने विधवा पूनर्विवाह की शुरुआत उस माहौल में की जब धार्मिक रूढ़िवादिता की नींव को हिलाना तक संभव नहीं था ! तो क्या हम आज इस इक्कीसवीं शताब्दी में इस "डायन प्रथा" को उखाड नहीं फेंक सकते हैं ? या फिर भू-मंडलीकरण के युग में भी हम यूँ हीं मध्ययुगीन कुरीतियों को मूक-बधिर होकर नज़र- अंदाज़ करते रहेंगे ? सरकार ने डायन प्रथा विरोधी विधेयक बनाकर अपना पल्ला झाड़ लिया है! आज भी यह विधेयक कोरे पन्नों मे क़ैद हो के रह गया है! आज जरुरत है इसे सख़्ती से लागू करवाने की! उठो ! जागो !! वरना आज किसी की मां-बहन को नंगा करके मुहल्ले मे घुमा रहे हैं, गुप्तांगों को सलाखों से दाग रहे हैं, मलमुत्र पिला रहे हैं, कल शायद हमारे-तुम्हारे घर की भी बारी आ जाये! तब चुल्लू भर पानी लेके डूब मरना! सिर्फ खाना खा कर दफ़्तर और घर आकर टी.वी. देखकर ज़िन्दगी मत ख़त्म करो ! मनुष्य हो तो मनुष्यता की रक्षा के लिये भी अपना योगदान दो! तभी 'स्त्री' का वास्तविक आदर होगा वो स्त्री जो किसी की माँ,बहन और बेटी है तभी उसका सच्चा सम्मान होगा। तभी एक सुंदर समाज की रचना होगी। वरना याद रखो यह "डायन" की आड़ में किया जा रहा बर्बर और पैशाचिक कार्य कल किसी भी घर का ग्रहण बन सकता है, तब देखना कि तुम तब भी मूक दर्शक न बने रह जाओ! तब देखना कि तुम तब भी सोते न रह जाओ!! और कभी नींद खुले और यह चीख़... तुम्हारे कानों मे पड़े, तो डरना मत, बल्कि ठंडे दिमाग से सोचना कि आखिर कौन है, असली "डायन" ???...!!! www.gulzarbagh.blogspot.com रचना राजन पाठक की है. हमारे मित्र है. ईटीवी भोपाल में काम करते है, फि‍लहाल दिल्‍ली आए हुए हैं ,इसी ब्‍लॉग पर दीमागलेस के नाम से लिखते हैं शुक्रिया अभय -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 13355 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070720/9d7aac72/attachment.bin From jhamanoj01 at yahoo.com Sat Jul 21 15:31:51 2007 From: jhamanoj01 at yahoo.com (manoj jha) Date: Sat, 21 Jul 2007 03:01:51 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= bas,do akkhar asha'r Message-ID: <378245.42416.qm@web37411.mail.mud.yahoo.com> Bandhugan, mere ek mitr hain-Naaraaz Darbhangwi.Tarah-tarah ke kaamon se apne subah-dopahar-shaam ko dynamikaaymaan rakhte hain.unhi ke anusaar unhe 'kathhaakaron',kavihitta-wazon','aaloochanaa-chakaachakon' tatha anya bhaanti-bhaanti ke 'buddhijeebhiyon' se gahraa apnaaw hai.we gazalen bhi kahte hain par thora akkhar-type,isliye unhe 'saakhar-type' log pasand nahee karte,halaanki we bhi theek thaak saakhr hain..unki ichha thi ki unke chand sher thodi door tak pahunche,isliye main unke 2 tukde saajha kar raha hoon jisme lit,hit jaise hingreziya prayog bhi hai, puraskrron ke relampel se Naaraz bhai naraaz-type ho gaye hain so kahte hai- AADARNEEY KO PRIZE MILAA TO FATHERNEEY KO HARSH HUAA LAKH BECHAARE NAVLEKHAK KAA GEELAA,DIL KAA FARSH HUAA.. KUCHH GURUJAN NE THOO-THOO KINHAA,KUCHH MUNIJAN NE AHO-AHO BKHAKTAN LIT HUE KAVIVAR HIT HUE,KAVI-HITTA-UTKARSH HUA. bas ek request,isme tagazzul mat talaashiyegaa,Naraaz bhai tagazzul ko tangazzul kahte hain. --------------------------------- Building a website is a piece of cake. Yahoo! Small Business gives you all the tools to get online. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-14070 Size: 1580 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070721/8bb309b9/attachment.bin From zaighamimam at gmail.com Sat Jul 21 22:45:17 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sat, 21 Jul 2007 22:45:17 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KSv?= =?utf-8?b?4KS+IOCkh+CkqCDgpKzgpL7gpKTgpYvgpIIg4KSV4KS+IOCknOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSsIOCkruCkv+CksiDgpKrgpL7gpI/gpJfgpL4uLi4uLg==?= Message-ID: रियाज साहब क्‍या इन बातों का जवाब मिल पाएगा..... बडी सोची समझी स्क्रिप्‍ट है। लिखी गई मिटाई गई फ‍िर लिखी गई। खैर, 45 साल के पुरुष का एक भावुक निमंत्रण और 23 साल की लडकी कुर्बान हो गई। कमाल का प्रेम है। अब नफरत के पात्र हुए आलोकधन्‍वा में उस वक्‍त क्‍या हीरे जडे थे? लेखिका अपने प्रेम की उस अद्भुत अनूभूति को बिना बखाने छोड दिया। कवि कम उम्र की कमसिन कन्‍या को भोगने को आतुर थे मगर कन्‍या को तो जैसे इस बात की उत्‍सुकता ही नहीं थी कि आलोकधन्‍वा जैसे कवि की देह का स्‍पर्श कैसा होता होगा? कवि तो उसे अपनी गोद में खिलाने के शादी कर रहा था? आत्‍मकथा के जरिए आत्‍मप्रलाप करने में यही दिक्‍कतें हैं। सच्‍चाई को अपने हिसाब से लिखा जाता है। दीवान पर इस कथा के दूसरे अंक के आने के बाद मैंने अपने एक जानने वाले जो कि दीवान पर रजिस्‍टर हैं, को फोन किया। सवाल था कि ये लेखिकाएं पति से अलग होने के बाद ही क्‍यों जहर उगलती हैं। साथ में रहते हुए कुछ लिख दें.....। उन्‍होंने कहा कि दीवान पर पूछो। सो पूछ रहा हूं। आप मुझे कुछ भी कह सकते हैं। शायद मुझे ये हक भी नहीं है कि मैं इन सवालों को उठाऊं। लेकिन अगर इसे पढने का हक दिया गया तो पूछूंगा जरुर। असीमा जी की आत्‍मकथा में बार-बार एक बात उभरकर सामने आती है। वो कहीं भी कुछ गडबड नहीं करतीं। सबकुछ आलोकधन्‍वा करते हैं। एक मां को अपने अजन्‍मे बच्‍चे पर तरस नहीं आता। ये जानते हुए भी कि रक्‍त किसी का हो, कोख मां की तो बच्‍चा मां का है। वो ये कहकर बच्‍चे को खत्‍म कर देती है कि उसका पिता उसे अपना नहीं मानता। हां इस बात की टीस बार बार उसके जहन में रहती है कि उसका बच्‍चा चला गया। सच कहूं तो मुझे ये आत्‍मसंघर्ष सफाई संघर्ष लगा। हर बात पर लेखिका अपने को बचा रही है। सामने वाले को जलील करना उसका मकसद है। और हां, ये भी बता दूं कि मुझे रंडी शब्‍द का इंतजार था। जो आ भी गया, मेरी सारी शंकाएं दूर हो गई। खैर लेखिका ने अपनी असफल जिंदगी के लिए पुरुष प्रधान समाज को भी जिम्‍मेदार ठहराया है। मर्द हर औरत को भोगना चाहता है....मगर औरत कुछ नहीं चाहती है। उसकी कोई लिप्‍सा नहीं, उसकी कोई लालसा नहीं। हर मर्द के लिए मां और बहन, बेटी को छोडकर सारी औरतें रंडी है.....लेकिन औरतों के लिए बाप, भाई, बेटे को छोडकर दूसरे पुरुष भी पिता और भाई, बेटे के समान हैं.......।एक बुड्ढे लेखक की आबरु उतारने के लिए इतना करने की क्‍या जरुरत थी। किसी कवि सम्‍मेलन के मंच पर चढकर मुंह काला कर देतीं...आपकी हिम्‍मत भी दिख जाती और कवि कहीं मुंह दिखाने के काबिल न बचता। चलते-चलते एक बात और एक सज्‍जन ने कहा लेखिका हिम्‍मती है। हिंदी में इतनी साफगोई से बातें नहीं होतीं मैंने कहा बिल्‍कुल सही....ये एक नई परंपरा हो सकती है। लेकिन हम उस देश से आते हैं जहां कई बार पूर्व पति या पत्नियां अपने पति या पत्‍नियों की हत्‍या तक करा देती हैं। फ‍िर ऐसे में आत्‍मकथा के हथियार से अपने पति उर्फ एक लेखक को मारना क्‍या बडी बात है? शुक्रिया जैगम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070721/18ef41cf/attachment.html From pramodrnjn at gmail.com Sun Jul 22 20:12:44 2007 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Sun, 22 Jul 2007 20:12:44 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSv4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSc4KWN4KSe4KS+4KSo4KWL4KSm4KSvIOCkteCkv+CkteCkvuCkpg==?= Message-ID: <9c56c5340707220742p4900140dh13492ea4cc05b3b4@mail.gmail.com> परिचय और पाठ का अंतर्विरोध परिचय कैसा भी हो,वह मनुष्‍य की बहुआयामी संभावनाओं को सीमित करता है। साहित्यिक हलकों में इन दिनों चर्चा और विवाद का विष्‍य बने भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय`के परिचय प्रसंग में भी यह मूल बात ध्यान रखी जानी चाहिए। विवाद की शुरूआत नया ज्ञानोदय के मई, २००७ युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक में प्रकाशित विजय कुमार के लेख से हुई।उसके बाद विशेषांक में प्रकाशित परिचयों पर भी विवाद हुआ। यद्यपि ज्ञानोदय ने अपने लेखकों के 'परिचयों` के साथ पहली बार मसखरी नहीं की है ।पत्रिका के वर्तमान संपादक रवीन्द्र कालिया 'वागर्थ` के समय से ही अतिश्योक्तिपूर्ण परिचय प्रकाशित कर हिन्दी के साहित्यिकों को प्रसन्न करते रहे हैं । मैं अन्‍यत्र भी यह कह चुका हूं कि नया ज्ञानोदय के मई अंक में विजय कुमार के जिस लेख 'कवित्त ही कवित्त है` से विवाद का जन्म हुआ वह सदाशयतापूर्वक लिखी गई अलोचना है। उतनी ही सुरूचिपूर्ण भी, जितनी कि कलावाद को प्रश्रय देने वाली कोई आलोचना हो सकती है। इस विवाद के दोनों पक्ष गैरऱ्यथार्थपरक, और अंतत: कलावादी इसलिए भी कहे जा सकते हैं कि विजय कुमार का विरोध करने वालों ने भी इस तथ्य पर उंगली रखने की आवश्यकता नहीं समझी कि विजय जी अपनी आलोचना में 'यथार्थबोध` के स्थान पर 'सौंदर्य शिल्प और रूप-रचाव` पर जोर दे रहे हैं। न ही किसी ने यह याद करने की कोशिश की कि लेखकों के ऐसे अतिश्योक्तिपूर्ण परिचय की आवश्यकता प्राय: सभी साहित्यिक पत्रिकाओं को क्यों होने लगी है? यह सच है कि नया ज्ञानोदय के युवा पीढी विशेषांक में लेखकों के परिचय 'अतिश्योक्ति` की भी सीमा पार कर हास्यास्पद और वल्गर हो गए हैं ।अंक में किसी युवा लेखक के परिचय में लिखा गया कि 'अविवाहित कथाकार।कॉम्लेक्शन एंड क्वालिफिकेशन नो बार।बट गर्ल्स फादर मस्ट हैव ओन बार` तो किसी युवा लेखिका के बारे में कहा गया कि 'दुबली-पतली और सुन्दर कहानीकार`। इसके अलावा अन्य पत्रिकाओं की ही तरह ज्ञानोदय में प्रकाशित इन परिचयों में भी लेखकों के उंचे घराने से संबंधित होने अथवा उंची नौकरियों में होने जैसी बातों को प्रमुखता दी गई है। साहित्यिक पत्रिकाओं का 'उंचे` लोगों के प्रति मोह अलग विश्लेषण की मांग करता है। जरा सोचें, यदि कबीर अथवा रविदास के समय ये साहित्यिक पत्रिकाएं होती और उनमें से कोई उनकी वाणी छापने के लिए तैयार भी हो जाती तो उनका 'परिचय` क्या होता? क्या अभिजात संपादकीय मानसिकता यह पचा पाती कि उसका लेखक 'कपड़ा बुनता है` या 'जूता बनाता है`? और वे अपने तुलसी का परिचय क्या देते? ज्ञानोदय के मई और जून में प्रकाशित युवा पीढी पर केंद्रित दो विशेषांकों में प्रकाशित इन परिचयों के पीछे की मानसिकता को समझने में पत्रिका का जुलाई अंकसहायक बन सकता है। संभवत: यह रवींद्र कालिया के विरोधियों द्वारा ज्ञानपीठ प्रबंधन से की गई शिकायतों का असर रहा कि नया ज्ञानोदय के जुलाई अंक में लेखकों के परिचय एकदम गायब हो गए। अंक में लेखकों के सिर्फ फोटो छापे गए हैं। पिछले अंकों में प्रकाशित परिचयों के लिए संपादक ने स्पष्‍टीकरण भी दिया है। लेकिन इस अंक से एक और नई कवायद शुरू की गई है। इसमें वरिष्‍ठ कवि भगवत रावत की कविताओं और शशिकला राय द्वारा लिखी गई समीक्षा के साथ उन पत्रों को भी छाप दिया गया जो इन रचनाकारों ने संपादक के नाम लिखे थे। इन पत्रों में भगवत रावत को कहते हुए दिखलाया गया है कि 'अगर आपको यह कविता इस योग्य किसी भी कारण से न लगे कि इसे प्रकाशित किया जाए तो यह बात आप और मेरे बीच ही रहे`। शशिकला राय का पत्र है कि 'आपके आदेशनुसार समीक्षा भेज रही हूं।मुझे समीक्षा नहीं लिखने आती`। दोनों पत्रों के उपरोक्त उद्धृत हिस्सों से इन्हें प्रकाशित किए जाने के कुछ निहितार्थ तो स्वयं स्पष्‍ट हो जाते हैं लेकिन इनके प्रकाशन से यह भी संकेत मिलता है कि नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया इन चीजों को रचना का 'पूरक` मानते हैं। परिचयों के बारे में संपादकीय स्पष्‍टीकरण में उन्होंने इस आशय की बाते कहीं भी हैं। असली पेंच भी यही है। वह यह नहीं समझ पाते कि इस तरह की चीजें रचना के आस्वाद में बाधक होती हैं।परिचय तो दूर,'पाठ के बाहर कोई अर्थ नहीं है' का उदघोष करने वाले फ्रेंच चिंतक जॉक देरिदा तो यहां तक कहते थे कि रचना के साथ छपा रचनाकार का चित्र भी पाठक-आलोचक से रियायत मांगता प्रतीत होता है। मुझ जैसे अनेक लोगों की (जो पाठ के बाहर लेखक की सामाजिक पृ ठभूमि में भी अर्थों को देखते हैं, भी सहमति कम से कम देरिदा की इन बातों से तो बनती ही है) किसी रचनाकार का यह परिचय कि उसे ससुराल में 'बार` चाहिए या वह एक छरहरी सुंदरी है , किसी पाठ का पूरक नहीं हो सकता। हां, यदि आप यह बताएं कि फलां 'कर्मकांडी परिवार' से आते हैं, तो उसकी कुछ सार्थकता संभव है। तब यह देखा जा सकता है कि उसकी रचना के आंतरिक तत्व क्या हैं अथवा उसने अपनी पृष्ठभूमि का कितना अतिक्रमण किया है। इसी तरह, अगर यह बताया जाए कि यह युवा रचनाकार धोबी परिवार आता है और किशोरवस्था तक घाटों पर कपड़े साफ करता था तब उसकी पृष्‍ठभूमि यह देखने के लिए पूरक बन सकती है कि उस छूट चुके परिवेश,मेहनतकश भारतीय के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कितनी है। जाहिर है दोनों पूरकों के उपयोग में एक बडा फर्क होगा। किन्तु अंततोगत्वा यह खोज और विश्लेशण आलोचना का काम है। रचना के साथ किसी तरह की पृष्‍ठभूमि,परिचय आदि का प्रकाशन मूल रूप से पाठक के पाठ में हस्तक्षेप करना ही है। न यह बात रवीन्द्र कालिया समझ पाते हैं, न उनके विरोधी। ( नया ज्ञानोदय प्रकरण पर यह लेख प्रभात खबर के लिए लिखा गया था, जैसा कि प्रभात खबर के पटना संस्‍करण में अक्‍सर होता है, यह लेख उसके ' जिला संस्‍करणों' में 18 जुलाई,2007 को छपा । वैसे मुझे ज्‍यादा कोफत होती अगर यह पटना में छपा होता और उन जिला संस्‍करणों में नहीं, जहां के साहित्यिक पाठकों को दिल्‍ली दरबारों से संबंधित सूचनाओं का शिददत से इंतजार रहता है । गनीमत है ऐसा नहीं हुआ। ) -- >> प्रमोद रंजन , http://sanshyatma.blogspot.com/ जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी http://vikalpmonthly.googlepages.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070722/f9e0c9da/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Jul 23 12:48:57 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Jul 2007 12:48:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIfgpII=?= =?utf-8?b?4KSh4KS/4KSv4KSoIOCkrOCkvuCkr+Cli+CkuOCljeCkleCli+Ckqg==?= Message-ID: <200707231248.57526.ravikant@sarai.net> जो बात दिनेश ने मेरे लिए कही है, वह इस सूची के कई लोगों पर लागू होती है, लिहाज़ा आप भी वह करें जिसका उन्होंने मुझसे आग्रह किया है. कड़ी नीचे है. शुक्रिया रविकान्त Sunday, 22 July, 2007 जो हमारा अपना है भारतीय सिनेमा में आखिर क्या है, जो उसे सारी दुनिया के सिनेमा से अलग करता है. जो हमारा अपना है. शायद कहानी को पेश करने का गहरा रागात्मक तरीका. पश्चिम के सिनेमा के मुकाबले भा रतीय सिनेमा ने कभी कहानी कहने की यथार्थवादी शैली नहीं अपनाई. उसने यथार्थ को एक भावनाओं के संसार में चलने वाले नाट्य में बदल दिया. उनके सामने भारत का विशाल और करीब-करीब अनपढ़ जनसमूह था. जिसको उन्हें संबोधित करना था. उससे तीसरी कसम के इन्हीं शब्दों में बात की जा सकती थी, सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, वहां पैदल ही जा ना है. भारतीय सिनेमा में गीत-संगीत, उसमें निहित ड्रामा और करुणा दरअसल एक ब्रेख्तियन एलिनिएशन रचते हैं. शायद यही वजह है कि सौ साल बीत गए मगर खुशी और गम दोनों में गाने वाले इन कलाकारों से, इन कहानियों से और रुपहले परदे पर क्रियेट होने वाले इस ड्रामे से भारत के लोगों ने कभी खुद को अजनबी नहीं पाया. एक साथ लाखों आंखों में इस सिनेमा ने सपने जगाए, लाखों के मन में उम्मीदें जगाईं और हजारों दिलों में प्यार का जज्बा जगाया, (याद करें फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी पंचलैट, जिसका नायक हम तुझसे मोहब्बत करके सनम गाता है). आज भी लोग पापुलर सिनेमा के नायकों को पूजते हैं, उनके लिए अपना खून और अपनी जान तक देने को तैयार रहते हैं. हैरत की बात यह है कि कभी हमने खुद अपने सिनेमा की परंपरा को समझने का प्रयास नहीं किया. हम उसे बेहतर कहते हैं, जो शायद यूरोपियन सिनेमा की नकल पर बना आर्ट सिनेमा होता है, या फिर हालीवुड की तर्ज पर एक यूनी वर्सल लैंग्वेज में बनी फिल्म... जिसका एक ग्लोबल चरित्र है. हमने अपनी परंपरा से अपनी मौलिकता नहीं खोजी. शायद यही वजह है कि हम विश्व सिनेमा में वहां भी नहीं खड़े हो सके, जहां पिछले कुछ वर्षों से ईरान खड़ा है. मेरा अनुरोध है उन सिनेमा प्रेमियों से जो भारतीय सिनेमा की इस समृद्ध विरासत पर अपनी राय बनाना चाहें, बहस चलाना चाहें, अपनी राय व्यक्त करना चाहें, कुछ लिखना चाहें. उन सभी लोगों का इंडियन बाइस्कोप में स्वागत है. इस ब्लाग को आगे बढ़ाने में आप सभी का योगदान चाहिए, लिहाजा आपके सुझावों और प्रस्तावों का हमेशा स्वागत है... Posted by Dinesh Shrinet at 12:20 PM 0 comments Links to this post Subscribe to: Posts (Atom) ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: artical for deewan-e-sarai Date: सोमवार 23 जुलाई 2007 01:09 From: "Dinesh Shrinet" To: ravikant at sarai.net रविकांत जी, हिन्दी ब्लाग पर गंभीरता से लोगों का ध्यान खींचने में आपका बड़ा योगदान रहा है. मैंने खुद का एक ब्लाग शुरू किया. अपनी यह बिल्कुल शुरुआती दौर में है. मैं चाहता हूं आप इसमें कंट्रीब्यूट करें, अपने कमेंट्स, लेख, मत, मतैक्य भेजें. धन्यवाद दिनेश श्रीनेत http://indianbioscope.blogspot.com/ From ravikant at sarai.net Mon Jul 23 14:26:30 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Jul 2007 14:26:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] Talk by Francesca Orsini Message-ID: <200707231426.30596.ravikant@sarai.net> दोस्तो, हमने फ़्रचेस्का से निवेदन किया है कि वह हिन्दी में बोलें, और आप दिल्लीवालों से आग्रह है कि वे ज़रूर आएँ. आप सब काफ़ी अंग्रेज़ीदान हैं, लिहाज़ा मैंने इसका अनुवाद नहीं किया. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Reader-list] Talk by Francesca Orsini Date: शुक्रवार 20 जुलाई 2007 12:37 From: Ravikant To: reader-list at sarai.net You are cordially invited to Sarai-CSDS on 25th July, Wednesday, 4.00 PM for a talk on Print and Pleasure by Dr. Francesca Orsini Abstract: How do we explain the boom in commercial publishing in 19th Century north India, given the very low rates of literacy? How did commercial publishers win over to the printed page a society which was used to entertainment through oral, visual, and embodied performances. This talk seeks to answer these questions while surveying a range of successful genres in Hindi and Urdu. ------- Introduction: Francesca Orsini is Lecturer in Hindi. She took her undergraduate degree in Hindi at the University of Venice, followed by a long spell in Delhi. Her PhD research at SOAS was on the Hindi Public Sphere of the 1920s and '30s, subsequently published under the same title, from OUP. She taught at the University of Cambridge for 11 years and has just joined SOAS. Dr Orsini's main area of research is modern Hindi literature, where she has published on Hindi literary life during the nationalist period; commercial genres such as detective fiction and "social romances"; women writers and women's journals; nineteenth-century commercial publishing in Hindi and Urdu. She has organized several workshops and conferences, including one on Love in South Asia. Her recent books include Print and Pleasure: the genres of commercial publishing in nineteenth-century north India and the edited collection Hindi and Urdu Before the Divide (New Delhi: Orient Longman, 2007). _________________________________________ reader-list: an open discussion list on media and the city. Critiques & Collaborations To subscribe: send an email to reader-list-request at sarai.net with subscribe in the subject header. To unsubscribe: https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/reader-list List archive: <https://mail.sarai.net/pipermail/reader-list/> ------------------------------------------------------- From zaighamimam at gmail.com Mon Jul 23 16:28:39 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Mon, 23 Jul 2007 16:28:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqg==?= =?utf-8?b?4KSf4KS+4KSW4KS+4KS8IOCkquCli+CkuOCljeKAjeCkny4uLi4uLi4u?= =?utf-8?b?Li4uLi4u?= Message-ID: दोस्‍तों, रेल का जारी सफर आपको याद होगा। फोटो के बाद अब एक बार फ‍िर शब्‍दों के साथ आपसे रुबरु हूं। एक स्‍टेशन की कहानी है जो इस रुट पर है। आग, रेल और यहां का कारोबार तीनों एक दूसरे से गुंथे हुए हैं............इसलिए मैंने इसका नाम रखा प्रिवेंट फायर और मऊ आईमा का ''तमाशा'' वहां यानि मऊ आईमा में इसे ''तमाशा'' नहीं बल्कि ''तमासा'' कहा जाता है। मैंने स को श कर दिया। क्योंकि सही यही है। लोग कहना भी यही चाहते हैं मगर उनके मुंह से श की बजाय स निकलता है। खैर, तमाशे पर कोई सस्पेंस नहीं रखूंगा। बता दूं कि ये पटाखे़ का नाम है। पटाखे़ जो ''हवाईदार'' बनाते हैं। अब सवाल उठेगा ये हवाईदार कौन। तो अभी बताता हूं। पहले ये बता दूं कि रेल से जुडे मेरे इस शोध में मऊ आईमा क्यों आया। पटाख़ों का शहर, आगरा के पेठे और मऊ आईमा के पटाखे़ मऊ आईमा एक छोटा सा कस्बा है। इलाहाबाद-फ़ैज़ाबाद रुट पर प्रतापगढ़ से ठीक तीन स्टेशन पहले। इलाहाबाद से इसकी दूरी 32 किलोमीटर है। एएफ, इलाहाबाद-फ़ैज़ाबाद पैसेंजर यहां से होकर आगे बढ़ती है। साल के दो बडे़ त्यौहारों होली और दीवाली पर यहां रेल का स्टापेज टाइम बढ जाता है। वजह होती है पटाख़ों का बड़ा कारोबार। सस्ते और बढि़या पटाखे़। मुर्गा छाप से भी ज्यादा शक्तिशाली। एएफ में सफर करने वाला हर कोई मऊ आईमा के पटाख़े खरीदना चाहता है। इलाहाबाद और उन दूसरी जगहों जहां एएफ रुकती है, से बड़ी तादाद में लोग सिर्फ पटाख़े की खरीदारी करने के लिए आते हैं। और फिर रेल बन जाती है पटाख़ा गाडी। क्या ऊपर, क्या नीचे, क्या दाएं, क्या बाएं। सब तरफ बस पटाखे़ ही पटाखे़। इंजन में डाइवर के पटाखे़, गार्ड की बोगी में गार्ड के पटाखे़। पटाखे़ बनाने वाले जिन्हें हवाईदार कहते हैं स्टेशन के बिल्कुल पास में अपनी दुकानें सजाते हैं। रेल में पटाखे़ ऐसे बिकते हैं जैसे संडीला स्टेशन पर संडीले के लड्डू, आगरा में आगरा के पेठे और दिल्ली में पानी की बोतल। मऊ आईमा कई दूसरे मायनों में भी दिलचस्प है। आईए देखें इसकी सामाजिक बुनावट और एक दूसरा अहम कारोबार। 60 हज़ार आबादी, 70 फीसदी मुसलमान मऊ आईमा में एक अलग दुनिया बसती है। टोपी लगाने और लुंगी पहनने वालों की दुनिया। यहां के लोगों के मुताबिक कस्बे की आबादी 60 हजार है। इसमें से 70 फीसदी से ज्यादा मुसलमान हैं। इनका पटाख़ों से कोई लेन देन नहीं है। इनके अपने अलग-अलग कारोबार हैं। दुकानें, गोदाम और न जाने क्या क्या। फहीम गन्ने का रस बेचते हैं। शकील की कोल्ड डिंक की दुकान चलाते हैं। जबकि अनवर मियां शानदार शू हाउस के ''प्रोपाइटर'' हैं। यहां मुसलमान मूंगफली बेचने से लेकर शानदार कपडे की दुकानों के मालिक हैं। 2 किलोमीटर का दायरा,12 मस्जिदें ऊंगली पर दस मस्जिदें मैंने खुद गिनीं। दो कहीं अंदर थीं लिहाजा मैं उन तक नहीं पहुंच पाया। मुझे बताया गया कि यहां मस्जिदों की कुल तादाद 12 है। एकबारगी मैं हैरान था, महज दो किलोमीटर से भी कम दायरा और छोटी बडी इतनी ढेर सारी मस्जिदें। मैंने अपना दिमाग लगाते हुए एक मस्जिद के पेशे इमाम से पूछा। मेरे ख्याल से यहां के मुसलमानों में पटती नहीं है तभी तो सबकी अलग-अलग मस्जिदें हैं। उन्होंने कहा नहीं। यहां नमाज़ पढने वाले ज्यादा हैं मस्जिदों में जगह कम पडती है इसलिए ज्यादा मस्जिदें बनाई गई हैं। मस्जिदें भले ही 12 हैं मगर यहां डिग्री कालेज एक भी नहीं है। यहां पढाई का सपना देखने वाले। सुबह सवेरे सपनों की रेल यानि एएफ में लदकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी या फिर उससे जुडे कॉलेजों में जा पहुंचते हैं। गेटिस वाली अंडरवियर और पावर लूम मऊ आईमा में कारोबार की असली जड पावर लूम हैं। पावर लूम जिनकी मार्फत सूती कपडों और दूसरे कई तरह के कपडों की बुनाई होती है। कस्बे के 1000 से भी ज्यादा घरों में पावर लूम चलते हैं। कपडा इलाहाबाद से लेकर दिल्ली तक सप्लाई होता है। इसी पावर लूम पर गेटिस वाली अंडरवियर भी बनती है। बिना टैग के मार्केट में बिकने वाली अंडरवियर में बच्चों से लेकर बडे सभी प्रकार शामिल हैं। आप अगर मऊ आईमा जाएं तो यहां अंदर लोग आपको रोककर दो बातें जरुर पूछेंगे। पटाख़ा खरीदने आए हो या गेटिस वाली चड्ढी। बहरहाल, लूम ने मऊ आईमा को नया जीवन दिया है। यहां पलायन रुका है। एक लूम के मालिक हामिद अली कहते हैं कि फिलहाल हम अगले सौ, पचास बरस तक आजिविका के संकट से दूर हैं। हमारे बच्चे खुश हैं क्योंकि उन्हें यहीं रहकर अच्छा खासा पैसा कमाने का मौका मिल रहा है। अब हवाईदारों की कहानी गंधक और तमाम दूसरे जिंदा मसालों को एक दूसरे में गड्मड करते ये लोग कई पीढियों से पटाख़े बनाने में लगे हुए हैं। कस्बे की मुख्य आबादी से इनका कुछ खास लेना देना नहीं है। इनके मकान अलग हटकर हैं, जिसमें पटाख़ों का अंबार लगा रहता है। आप बताईए कैसे पटाखे़ चाहिएं। आसमान पर आपका नाम झिलमिलाना हो या फिर एक के बाद एक घंटों तक आसमान में पटाखों की बारिश करनी हो। सबकुछ मिल जाएगा। बस आर्डर दे जाईए। हवाईदारों में हिंदू भी हैं मुसलमान भी। लेकिन इन्हें हिंदू या मुसलमान नहीं कहा जाता। ये सिर्फ हवाईदार हैं। हवाईदार का मतलब क्या हुआ। इस बारे में पूछने पर 20 साल का एक हवाईदार सोच में पड जाता है। लेकिन फिर बता भी देता है। हवा वाले पटाखे़ बनाने की वजह से उनका नाम हवाईदार पड गया। ऐसे-ऐसे पटाखे़ जो शायद सोचे नहीं जा सकते। हवाईदार बनाते हैं। लेकिन अब हवाईदारों के धंधे भी कमी आई है। शादी ब्याह और दूसरे उत्सवों में पटाखे़ कम होते जा रहे हैं। खासकर असली महंगे पटाखे़ जो वाकई दर्शनीय होते हैं। पटाख़ों की इन्हीं दर्शनीयता की वजह से इनका नाम तमाशा पडा। मैं और मऊ आईमा हमारे यहां एक त्योहार होता है, शबेबारात। इसमें दीवाली की तर्ज पर पटाखे़ छोडे जाते हैं। 2001 में जब मैं इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में बीए दूसरे साल का छात्र था तो मेरा छोटा भाई जिद करके पटाखा़ लेने मऊआईमा गया था। शाम को जब वो लौटा तो उसके झोले में इतने बम थे कि मुझे यकीन नहीं हुआ। एक गड्डे की कीमत ज्‍यादा से ज्‍यादा पचास पैसे, एक रुपये। मैंने उससे कहा बेटा, सब फुस्सी होगा। उसने एक छोटा सा बम निकाला। मुझसे कहा, आग लगाके देखा जाए। मैंने कहा हां। फ‍िर इतना जोर का धमाका हुआ जिसकी मैंने कल्पना तक नहीं की थी। लडकों की भीड मेरे कमरे में जमा थी, उसमें से कुछ परमानेंट मऊ आईमा से पटाख़े घर ले जाते थे उन्होंने कहा पागल हो गए हो मऊ आईमा के पटाखे़ पर शक करते हो....। प्रिवेंट फ़ायर ये सरकारी तख्ती हर रेल में लगी होती है। आपने देखी होगी। इत्तफाक से मेरी रेल में भी ये सुरक्षित है। आप देख सकते हैं www.merirail.blogspot.com। आग रोकने के सारे इंतजाम इसमें दिए गए हैं। मैंने बस यूं ही इसको मऊ आईमा से जोड दिया है। क्या करु इस रेल में कोई नियम नहीं है, फिर आग के इंतजाम को तूल देना भला कितना सही होगा। फ‍िलहाल पटाख़ों के बारे में इतना ही। ज़रा और जानकारी जुटा लूं फ‍िर एक-एक पटाख़े का नाम और उसकी ख़ासियत भी बताऊंगा। आप चाहेंगे तो बनाने की पूरी विधि दे सकता हूं। अगली बार, मेरी मुश्किलों का सफर शुक्रिया जै़गम -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-15 Size: 94943 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070723/d3d24845/attachment.bin From jhamanoj01 at yahoo.com Mon Jul 23 17:30:56 2007 From: jhamanoj01 at yahoo.com (manoj jha) Date: Mon, 23 Jul 2007 05:00:56 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Replly to Pramod Ranjan, rachnakaron kee parichay-bubhukschha Message-ID: <504571.17539.qm@web37409.mail.mud.yahoo.com> Pramodji,gyanoday ke parichay-vivad bahut dinon tak chlaa aur isase log-baag aanandit hue tatha is bahaane sahitya-mandir ke garbh-grihon me pratisthapit sahitya-devon ka darshan-sukh mila is hetu is vivad ka aabhari hoo.par,kya is baar bhi mandir-pat sirf chand minaton ke liye khula tha aur uske vaad pandon-pujariyon ke dwara devon ka shringaar kar phir pat ko band kar diya jaayega aur baahar akhand kirtan chalta rahega. parichay me jo kuchh kaha gaya tha usase saahityakaron ki wo deenta jhalakti hai jo pathak-varg se kat jan ke vaad swaabhavik hee hai.kaisi vivashta hai ki raachnaakaron ko apna parichay film-staaron ke parichay ki parody ke roop me chhapwaana partaa hai.Aakhir-ham itne parichay-bubhUkschu kyon hain?ham paathakon se parichay de-de kar riyaayat kyon magte rahte hain?Derrida to isi bina par ki aisa karna riyayat mangna hai,lambe arse tak apnee tasweer chapaane se gurej karte rahe .Marquez apne upnyaason par motee rakam dene wale filmkaaron ko tarkaate rahe ki aisa karne se unke upanyaas ke patra ati-parichaayit ho jayenge,fixed ho jayenge.Hndi ka haaldekhkar lagta hai ki abhee Valmiki rahte to unhe apne dakaitee ke kaarnamon lee tafseel chhapwanee partee. Ek sawaal aur jee me aata hai ki mineral water pee-pee kar vaazaarwaad ko shraap denewle log tab kyon nahee kuchh bole jab isee Gyaanoday me 5-6 shumaraa pahle sampaadkeey me bhoomandeekaran par quaseede padhe gaye the. प्रमोद रंजन wrote: परिचय और पाठ का ठंतर्विरोध परिचय कैसा भी हो,वह मनुष्‍य की बहुआयामी संभावनाओं को सीमित करता है। साहित्यिक हलकों में इन दिनों चर्चा और विवाद का विष्‍य बने भारतीय ज्ञानपीठ की मासिक पत्रिका 'नया ज्ञानोदय` के परिचय प्रसंग में भी यह मूल बात ध्यान रखी जानी चाहिए। विवाद की शुरूआत नया ज्ञानोदय के मई, २००७ युवा पीढ़ी पर केंद्रित विशेषांक में प्रकाशित विजय कुमार के लेख से हुई।उसके बाद विशेषांक में प्रकाशित परिचयों पर भी विवाद हुआ। यद्यपि ज्ञानोदय ने ठपने लेखकों के 'परिचयों` के साथ पहली बार मसखरी नहीं की है ।पत्रिका के वर्तमान संपादक रवीन्द्र कालिया 'वागर्थ` के समय से ही ठतिश्योक्तिपूर्ण परिचय प्रकाशित कर हिन्दी के साहित्यिकों को प्रसन्न करते रहे हैं । मैं ठन्‍यत्र भी यह कह चुका हूं कि नया ज्ञानोदय के मई ठंक में विजय कुमार के जिस लेख 'कवित्त ही कवित्त है` से विवाद का जन्म हुआ वह सदाशयतापूर्वक लिखी गई ठलोचना है। उतनी ही सुरूचिपूर्ण भी, जितनी कि कलावाद को प्रश्रय देने वाली कोई आलोचना हो सकती है। इस विवाद के दोनों पक्ष गैरऱ्यथार्थपरक, और ठंतत: कलावादी इसलिए भी कहे जा सकते हैं कि विजय कुमार का विरोध करने वालों ने भी इस तथ्य पर उंगली रखने की आवश्यकता नहीं समझी कि विजय जी ठपनी आलोचना में 'यथार्थबोध` के स्थान पर 'सौंदर्य शिल्प और रूप-रचाव` पर जोर दे रहे हैं। न ही किसी ने यह याद करने की कोशिश की कि लेखकों के ऐसे ठतिश्योक्तिपूर्ण परिचय की आवश्यकता प्राय: सभी साहित्यिक पत्रिकाओं को क्यों होने लगी है? यह सच है कि नया ज्ञानोदय के युवा पीढी विशेषांक में लेखकों के परिचय 'ठतिश्योक्ति` की भी सीमा पार कर हास्यास्पद और वल्गर हो गए हैं ।ठंक में किसी युवा लेखक के परिचय में लिखा गया कि 'ठविवाहित कथाकार।कॉम्लेक्शन एंड क्वालिफिकेशन नो बार।बट गर्ल्स फादर मस्ट हैव ओन बार` तो किसी युवा लेखिका के बारे में कहा गया कि 'दुबली-पतली और सुन्दर कहानीकार` । इसके ठलावा ठन्य पत्रिकाओं की ही तरह ज्ञानोदय में प्रकाशित इन परिचयों में भी लेखकों के उंचे घराने से संबंधित होने ठथवा उंची नौकरियों में होने जैसी बातों को प्रमुखता दी गई है। साहित्यिक पत्रिकाओं का 'उंचे` लोगों के प्रति मोह ठलग विश्लेषण की मांग करता है। जरा सोचें, यदि कबीर ठथवा रविदास के समय ये साहित्यिक पत्रिकाएं होती और उनमें से कोई उनकी वाणी छापने के लिए तैयार भी हो जाती तो उनका 'परिचय` क्या होता? क्या ठभिजात संपादकीय मानसिकता यह पचा पाती कि उसका लेखक 'कपड़ा बुनता है` या 'जूता बनाता है`? और वे ठपने तुलसी का परिचय क्या देते? ज्ञानोदय के मई और जून में प्रकाशित युवा पीढी पर केंद्रित दो विशेषांकों में प्रकाशित इन परिचयों के पीछे की मानसिकता को समझने में पत्रिका का जुलाई ठंक सहायक बन सकता है। संभवत: यह रवींद्र कालिया के विरोधियों द्वारा ज्ञानपीठ प्रबंधन से की गई शिकायतों का ठसर रहा कि नया ज्ञानोदय के जुलाई ठंक में लेखकों के परिचय एकदम गायब हो गए। ठंक में लेखकों के सिर्फ फोटो छापे गए हैं। पिछले ठंकों में प्रकाशित परिचयों के लिए संपादक ने स्पष्‍टीकरण भी दिया है। लेकिन इस ठंक से एक और नई कवायद शुरू की गई है। इसमें वरिष्‍ठ कवि भगवत रावत की कविताओं और शशिकला राय द्वारा लिखी गई समीक्षा के साथ उन पत्रों को भी छाप दिया गया जो इन रचनाकारों ने संपादक के नाम लिखे थे। इन पत्रों में भगवत रावत को कहते हुए दिखलाया गया है कि ' ठगर आपको यह कविता इस योग्य किसी भी कारण से न लगे कि इसे प्रकाशित किया जाए तो यह बात आप और मेरे बीच ही रहे`। शशिकला राय का पत्र है कि 'आपके आदेशनुसार समीक्षा भेज रही हूं।मुझे समीक्षा नहीं लिखने आती`। दोनों पत्रों के उपरोक्त उद्धृत हिस्सों से इन्हें प्रकाशित किए जाने के कुछ निहितार्थ तो स्वयं स्पष्‍ट हो जाते हैं लेकिन इनके प्रकाशन से यह भी संकेत मिलता है कि नया ज्ञानोदय के संपादक रवीन्द्र कालिया इन चीजों को रचना का 'पूरक` मानते हैं। परिचयों के बारे में संपादकीय स्पष्‍टीकरण में उन्होंने इस आशय की बाते कहीं भी हैं। ठसली पेंच भी यही है। वह यह नहीं समझ पाते कि इस तरह की चीजें रचना के आस्वाद में बाधक होती हैं।परिचय तो दूर,' पाठ के बाहर कोई ठर्थ नहीं है' का उदघोष करने वाले फ्रेंच चिंतक जॉक देरिदा तो यहां तक कहते थे कि रचना के साथ छपा रचनाकार का चित्र भी पाठक-आलोचक से रियायत मांगता प्रतीत होता है। मुझ जैसे ठनेक लोगों की (जो पाठ के बाहर लेखक की सामाजिक पृ ठभूमि में भी ठर्थों को देखते हैं, भी सहमति कम से कम देरिदा की इन बातों से तो बनती ही है) किसी रचनाकार का यह परिचय कि उसे ससुराल में 'बार` चाहिए या वह एक छरहरी सुंदरी है , किसी पाठ का पूरक नहीं हो सकता। हां, यदि आप यह बताएं कि फलां 'कर्मकांडी परिवार' से आते हैं, तो उसकी कुछ सार्थकता संभव है। तब यह देखा जा सकता है कि उसकी रचना के आंतरिक तत्व क्या हैं ठथवा उसने ठपनी पृष्ठभूमि का कितना ठतिक्रमण किया है। इसी तरह, ठगर यह बताया जाए कि यह युवा रचनाकार धोबी परिवार आता है और किशोरवस्था तक घाटों पर कपड़े साफ करता था तब उसकी पृष्‍ठभूमि यह देखने के लिए पूरक बन सकती है कि उस छूट चुके परिवेश,मेहनतकश भारतीय के प्रति उसकी प्रतिबद्धता कितनी है। जाहिर है दोनों पूरकों के उपयोग में एक बडा फर्क होगा। किन्तु ठंततोगत्वा यह खोज और विश्लेशण आलोचना का काम है। रचना के साथ किसी तरह की पृष्‍ठभूमि,परिचय आदि का प्रकाशन मूल रूप से पाठक के पाठ में हस्तक्षेप करना ही है। न यह बात रवीन्द्र कालिया समझ पाते हैं, न उनके विरोधी। ( नया ज्ञानोदय प्रकरण पर यह लेख प्रभात खबर के लिए लिखा गया था, जैसा कि प्रभात खबर के पटना संस्‍करण में ठक्‍सर होता है, यह लेख उसके ' जिला संस्‍करणों' में 18 जुलाई,2007 को छपा । वैसे मुझे ज्‍यादा कोफत होती ठगर यह पटना में छपा होता और उन जिला संस्‍करणों में नहीं, जहां के साहित्यिक पाठकों को दिल्‍ली दरबारों से संबंधित सूचनाओं का शिददत से इंतजार रहता है । गनीमत है ऐसा नहीं हुआ। ) -- >> प्रमोद रंजन , http://sanshyatma.blogspot.com/ जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी http://vikalpmonthly.googlepages.com/ ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Boardwalk for $500? In 2007? Ha! Play Monopoly Here and Now (it's updated for today's economy) at Yahoo! Games. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-368 Size: 16624 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070723/dd155f35/attachment.bin From ravikant at sarai.net Tue Jul 24 11:36:45 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 24 Jul 2007 11:36:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Re: hi Message-ID: <200707241136.45789.ravikant@sarai.net> शायद आपने देखा होगा. इस हिन्दी पॉड-पत्रिका में ग़दर के सार-संक्षेप के अलावा भी बहुत कुछ है. स्थानीयकरण की कोशिश भी श्लाघ्य है. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: hi Date: मंगलवार 24 जुलाई 2007 00:50 From: "शशि सिंह । Shashi Singh" To: "Shashi Singh" पॉडभारती अंक 4 : अंशुल ने मचाया गदर July 23rd, 2007 [image: gadar]श्रोताओं की शिकायत रही है कि पॉडभारती का रवैया गीत-संगीत और सिनेमा के प्रति बेरूखी का रहा है। हमें पूरा यकीन है कि पॉडभारती के इस अंक में यह शिकायत दूर हो जायेगी। हमारे चतुर्थ अंक में आप सुन सकते है: - भारत-पाकिस्तान के बंटवारे की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म गदरका अनूठा पॉडिकरण - [image: anshul_samar]सिलिकन वैली में रहने वाले 13 साल के बेहद प्रतिभाशाली एनआरआई बालक अंशुल समरसे खास बातचीत और - कनाडा की उड़न तस्तरी यानी स्टार ब्लॉगर समीरलाल की एक अलग तरह की प्रतिभा की एक झलक। आपको ये अंक कैसा लगा हमें अपनी टिप्पणियों के माध्यम से अवश्य अवगत करायें। पॉडभारती का यह अंक सुनने के लिए यहां क्लिक करें। ------------------------------------------------------- From dajeet at gmail.com Wed Jul 25 14:01:13 2007 From: dajeet at gmail.com (ajeet dwivedi) Date: Wed, 25 Jul 2007 14:01:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSm4KS/4KSy4KWN?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkruClh+CkgiDgpLjgpYDgpLLgpL/gpILgpJcg4KSs4KSo?= =?utf-8?b?4KS+4KSuIOCkquClgeCktuCljeCkpOClhyDgpKrgpLAg4KS44KWHIA==?= =?utf-8?b?4KS14KS/4KS44KWN4KSl4KS+4KSq4KSoIOCkleClhyDgpK7gpYDgpKE=?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+IOCkleCkteCksOClh+CknCDgpJXgpYAg4KSk4KWA4KS4?= =?utf-8?b?4KSw4KWAIOCkleCkv+CkuOCljeCkpA==?= Message-ID: <292e6580707250131r483a8cedh25dee820fbc6e053@mail.gmail.com> *दिल्ली में सीलिंग बनाम पुश्ते पर से विस्थापन के मीडिया कवरेज की तीसरी किस्त *** अपनी पिछली किस्त में मैंने सीलिंग के कारणों, उससे प्रभावित होने वाले लोगों के आंदोलन, उसके असर (खासकर दिल्ली नगर निगम चुनावों के संदर्भ में) आदि की चर्चा की थी। उसके अपने राजनीतिक और सामाजिक आयाम थे। इस बार यमुना पुश्ते पर से झुग्गियों के उजाड़े जाने, उससे प्रभावित होने वाले लोगों और कथित रूप से दिल्ली व यमुना के सौंदर्यीकरण अभियान पर हम चर्चा करेंगे। विस्थापन हमेशा से राजनीतिक मुद्दा रहा है। यमुना पुश्ते का विस्थापन इसका अपवाद नहीं है। इसे लेकर भी काफी अरसा राजनीति हो रही। खास कर केंद्र में एनडीए सरकार के कामकाज के पांच सालों तक क्योंकि जब केंद्र में भाजपानीत एनडीए की सरकार थी, उस समय दिल्ली में कांग्रेस पार्टी की सरकार थी। ऊपर से यमुना पुश्ते पर बसी करीब साढ़े तीन लाख लोगों की आबादी में करीब 70 फीसदी मुसलमान थे, जो बुनियादी रूप से बिहार, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के रहने वाले थे और पारंपरिक रूप से कांग्रेस के वोटर थे। इसलिए जब पर्यटन और संस्कृति मंत्री जगमोहन ने यमुना के सौंदर्यीकरण के नाम पर विस्थापन की योजना को कार्यरूप देना शुरू किया तो कांग्रेस नेताओं ने इसका विरोध किया। पुश्ते पर विस्थापन की प्रक्रिया काफी पहले से जारी थी और जब फरवरी 2003 में महाअभियान शुरू हुआ उस समय तक करीब एक लाख लोग यहां से जा चुके थे। फरवरी 2003 में विस्थापन की महामुहिम शुरू हुई। लेकिन जल्दी ही छह झुग्गी वालों की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए पांच फरवरी 2003 को विस्थापन की मुहिम पर रोक लगा दी थी। लेकिन मार्च 2003 की शुरुआत में दिल्ली हाईकोर्ट की दो जजों चीफ जस्टिस बीसी पटेल और बीडी अहमद की खंडपीठ ने इस रोक को हटा दिया। हाईकोर्ट के इस फैसले से पहले चुनाव आयोग ने भी अपने पुराने आदेश में संशोधन करते हुए यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दे दी। गौरतलब है कि 2003 की मई में होने वाले लोकसभा चुनाव की वजह से पहले चुनाव आयोग ने विस्थापन की गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था। आश्चर्य की बात यह है कि दिल्ली नगर निगम ने चुनाव आयोग से यमुना पुश्ते के अलावा आरके पुरम की धापा झुग्गी, माता सुंदरी मार्ग की तीन झुग्गि बस्तियों और कबीर बस्ती को भी खाली कराने की अनुमति मांगी थी, लेकिन आयोग ने सिर्फ यमुना पुश्ते से विस्थापन को मंजूरी दी और बाकी तीन झुग्गी बस्तियों से किसी तरह की छेड़छाड़ नहीं करने का निर्देश दिया। आयोग का यह फैसला निःसंदेह अतार्किक था। बहरहाल दिल्ली हाईकोर्ट और चुनाव आयोग की मंजूरी मिलने के बाद नगर निगम ने दिल्ली पुलिस की मदद मांगी और यमुना पुश्ते से विस्थापन शुरू हो गया। करीब दो दशक से बसे हुए लोगों को वहां से उजाड़ दिया गया, बगैर पुनर्वास की पुख्ता व्यवस्था किए। मकसद था यमुना को लंदन की टेम्स नदी की तरह विकसित करना और इसके दोनों किनारों पर खूबसूरत मॉल बनाना। जब झुग्गियों का उजड़ना शुरू हुआ तो जम के राजनीति हुई। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित अपने मंत्रियों-विधायकों के साथ इसका विरोध करने पहुंची तो कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी विस्थापितों के लिए बनाई गई पुनर्वास कॉलोनी होलंबी कलां पहुंच गईं। नतीजा यह हुआ कि मई 2003 के चुनाव में पुनर्वास बस्तियों के लोगों ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लेकर उन्हें उजाड़ने वाले मंत्री जगमोहन को हरा दिया। उनके हारने के साथ ही यमुना के टेम्स नदी बनाने का फामूर्ला भी दफन हो गया। लेकिन केंद्र में कांग्रेस की जीत भी उजाड़े गए लोगों की पीड़ा को कम नहीं कर सकी। इस चुनाव के बाद करीब तीन साल कर केंद्र, राज्य और दिल्ली नगर निगम तीनों पर कांग्रेस का कब्जा रहा, लेकिन पुनर्वास बस्तियों का कल्याण नहीं हुआ। जो उजाड़े गए उनके पास अपना सामान पुनर्वास बस्तियों तक ले जाने का साधन नहीं था। मार्च महीने में बोर्ड की परीक्षाएं चल रही थीं लेकिन इन बस्तियों के छात्र अपने टूटते-बिखरते आशियाने को अपने माता-पिता के साथ सहेजने में लगे थे। विस्थापन की इस महामुहिम में सिर्फ घर नहीं उजड़े थे, हजारों लोगों की आजीविका छीन गई थी, जो सालों से वहां छोटी-मोटी दुकाने लगा कर कारोबार करते थे और अपने परिवार का पेट पालते थे। शहर से करीब 30 किलोमीटर दूर बसी पुनर्वास कॉलोनियों में जाने के बाद किसी के लिए दिल्ली में आकर काम करना संभव नहीं था। इस वजह से हजारों लोग दशकों की मेहनत-मशक्कत के बाद खाली हाथ घर लौटने को मजबूर हुए। जो थोड़े से लोग पुनर्वास बस्तियों में गए उनके लिए राह और कठिन थी। एक तरफ तो लोग यह प्रमाणित करने में लगे थे कि वे 1990 या उससे भी पहले से इन कॉलोनियों में रहते हैं तो दूसरी ओर ऐसी लूट मची थी कि पुलिस की मिलीभगत से ढेर सारे फर्जी लोगों को पुश्ते पर की बस्तियों में बसे होने का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था और पुनर्वास कॉलोनियों में जमीन आवंटित की जा रही थी। इसमें बिल्डर माफिया के लोग भी शामिल थे। जो लोग पुनर्वास बस्तियों में गए, उनके सामने दिल्ली सरकार का एक कानून बाधा बन कर खड़ा था। दिल्ली सरकार का एक कानून है, जिसके मुताबिक जो लोग 1990 से पहले दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें सात हजार तक रुपए दिए जाएंगे और होलंबी कला या भलस्वां में 18 वर्ग गज जमीन दी जाएगी। जो लोग 1990 से 98 के बीच दिल्ली में आकर बसे हैं, उन्हें 12.5 वर्ग गज का प्लाट दिया जाएगा। लेकिन ये प्लाट मुफ्त में नहीं मिलने वाले थे। दिल्ली सरकार ने 18 वर्ग गज के प्लाट की कीमत 30 हजार रुपए रखी थी। मुआवजे के रूप में मिले सात हजार रुपए से 30 हजार की जमीन खरीदना सबके वश की बात नहीं थी। ऊपर से अधिकारियों की मिलीभगत के कारण बिल्डर माफिया उजड़ रहे लोगों को हतोत्साहित भी कर रहा था और उन्हें जमीन बेच देने के लिए प्रेरित कर रहा था। कुछ नगर निगम की खामी, कुछ पैसे की कमी और कुछ बिल्डर माफिया व पुलिस व निगम कर्मचारियों की मिलीभगत का नतीजा यह हुआ कि यमुना पुश्ते से विस्थापित होने वाले महज 16 फीसदी लोगों को ही पुनर्वास कॉलोनियों में प्लाट मिल सका। सरकार के इस अभियान ने आपातकाल की याद दिला दी। उस समय दिल्ली में करीब सात लाख लोग विस्थापित हुए थे। जबकि 2003 और इससे पहले के तीन सालों में दिल्ली में करीब आठ लाख लोग विस्थापित हुए। विस्थापन के इन दोनों अभियानों में करीब 30 साल का अंतराल था लेकिन उजड़ने वाले गरीब और पिछड़े लोगों के अलावा इसमें एनडीए सरकार के केंद्रीय मंत्री जगमोहन का नाम कॉमन था। इस विस्थापन की कई वजहें बताई गईं थी, जिनमें एक वजह यह भी थी कि यमुना किनारे बसी ये झुग्गियां यमुना को प्रदूषित कर रही हैं। शहरी समस्याओं पर अध्ययन करने वाली एक संस्था हैजार्ड सेंटर ने एक अध्ययन के आधार पर बताया कि यमुना गिरने वाले 3296 एमएलडी प्रदूषित जल में से पुश्ते की बस्तियों का हिस्सा महज 2.96एमएलडी है। बाकी सारा प्रदूषित जल और गंदगी पक्की और कथित रूप से नियोजित बस्तियों से आती है। यमुना के तल को नुकसान पहुंचाने की दुहाई देकर बस्तियां उजाड़ने वाले लोगों ने ही यमुना किनारे विशाल अक्षरधाम मंदिर बनाने की मंजूरी दी थी। इस भेदभाव का कोई तर्क क्या लालकृष्ण आडवाणी या जगमोहन के पास है। झुग्गियों के लोगों के पुनर्वास की योजनाओं के प्रति दिल्ली विकास प्राधिकरण कितना गंभीर था, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगता है कि उसने ऐसी बस्तियों में रहने वालों के लिए 16.2 लाख घर बनाने की घोषणा की थी, लेकिन उसने कुल घर बनाए 5.96लाख और इनमें से कोई भी घर ऐसा नहीं था, जो झुग्गियों के लोग अफोर्ड कर सकें। अब है लाख टके का सवाल कि जब ये लोग उजाड़े जा रहे थे तब जनता की आवाज उठाने वाले अखबार और 24 घंटे चलने वाले समाचार चैनल क्या कर रहे थे। न्यूज चैनल खबरों का चयन टीआरपी (टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट) के आधार पर करते हैं। टीआरपी शहरों और टीआरपी घरों पर खास ध्यान रखा जाता है। चूंकि झुग्गी उजड़ने की खबरें टीआरपी नहीं देती हैं, (हां, अगर झुग्गियों में बलात्कार या हत्या की खबर हो, वहां भूत-प्रेत हों, कोई पुनर्जन्म की कहानी हो या नाग-नागिन का बदलानुमा सनसनीखेज कहानी बन रही हो तो उसे दिखाया जा सकता है क्योंकि ऐसी खबरों में झुग्गी गौण हो जाती है और सनसनी मुख्य तत्व हो जाती है) इसलिए झुग्गियों की खबरें नहीं दिखाई गईं। अखबारों के खास कर अंग्रेजी अखबारों और उनके पाठकों के सरोकार झुग्गियों से नहीं जुड़ते हैं, बल्कि उन्हें भी लगता है कि ये झुग्गियां शहर के माथे पर बदनुमा दाग हैं और इन्हें जितनी जल्दी हटाया जाए, उतना अच्छा है। इसलिए वहां खबर तो रही, लेकिन इस अभियान का स्वागत करती हुई। जहां तक हिंदी के अखबारों का सवाल है तो वे अंग्रेजी अखबारों की अंधी नकल में व्यस्त हैं और महंगे विज्ञापन हासिल करने के लिए मध्यवर्ग को लुभाने में लगे हैं, यह अलग बात है कि उनका सारा प्रसार नए साक्षर और पिछडे वर्गों की वजह से बढ़ रहा है। मध्यवर्ग को लुभाने की अपनी इस कोशिश में उन्होंने भी या तो इस खबर की अनदेखी की या जैसे-तैसे छाप कर अपने कर्तव्य की इतिश्री की। एक अंग्रेजी अखबार ने इस अभियान को रिकंस्ट्रक्टिंग यमुना का नाम दिया, जिसने दिल्ली में सीलिंग को डिकंस्ट्रक्टिंग दिल्ली का नाम दिया था। अगली किस्त में मीडिया की नजर में दिल्ली का रिकंस्ट्रक्शन बनाम दिल्ली का डिकंस्ट्रक्शन पर चर्चा करेंगे। उसी में यमुना पुश्ते के विस्थापन को कवर करने में मीडिया का वर्ग, वर्ण और नस्ल भेद भी सामने आएगा। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070725/5c01d5cd/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Thu Jul 26 06:08:46 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 26 Jul 2007 06:08:46 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KS+4KSq4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpIbgpKbgpL8t4KSH4KSw4KWL4KSf4KS/4KSVIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KS+4KS54KS/4KSk4KWN4oCN4KSvIOCklOCksCDgpKvgpY3gpLDgpYc=?= =?utf-8?b?4KSC4KSa4KWH4KS44KWN4oCN4KSV4KS+?= Message-ID: <8bdde4540707251738l12972703w4ae842108656c144@mail.gmail.com> छापे का आदि-इरोटिक साहित्‍य और फ्रेंचेस्‍का रविकांत व संजय ने यह आयोजन किया था जो बेहद अनौपचारिक से वातारण में हुआ, इतना कि किसी छोटी सी बात पर स्‍थापित इतिहासकार शाहिद अमीन भुनभुना सकें और लोग उनकी इस भुनभुनाहट का ज्‍यादा बुरा न मानें। अवसर था एक छोटा सी वार्ता जिसमें फ्रेंचेस्‍का ऑर्सिनी ने 'प्रिंट व प्‍लेजर' विषय पर बोला और बाद में एक चर्चा हुई। फ्रेंचेस्‍का हिन्‍दी की स्‍थापित विद्वान हैं, दक्षिण एशिया में प्रेम के इतिहास पर अपनी पुस्‍तक के लिए अधिक जानी जाती हैं पर उनका काम हिंदी के इतिहास पर एक अहम काम है जिसे विश्‍वविद्यालयी बिरादरी के हिंदी विभाग सहजता से नजरअंदाज करना पसंद करते हैं। पहले कैंब्रिज में थीं अब हाल में लंदन विश्‍वविद्यालय में पहुँच गई हैं। 'प्रिंट एंड प्‍लेजर' कोई काव्‍यशास्‍त्रीय व्‍याख्‍यान नहीं था, ये 19वीं सदी के उत्‍तरार्ध में शुरूआती हिदी छपाई की सामग्री के अनुशीलन पर आधारित एक शोध था और कई मायने में आंखे खोलने वाला कार्य था। पूरे विवरण की तो यहॉं आवश्‍यकता शायद नहीं पर काम की और कुछ मजेदार बातें बताई जा सकती हैं- फ्रेंचेस्‍का ने मुख्‍यधारा साहित्‍य नहीं वरन उस समय छप रहे लोकप्रिय साहित्‍य मसलन शायरी, किस्‍से, ठुमरी व अन्‍य गायकी आदि पर काम किया है और ये सब के लिए सामग्री उन्‍हें ब्रिटेन की लाइब्रेरियों से प्राप्‍त हुई जहॉं ये सारा ही साहित्‍य 'इंडियन इरोटिक' साहित्‍य श्रेणी के तहत वर्गीकृत किया गया है। मुझे ये बेहद मजेदार बात लगी क्‍योंकि इसमें ऐसा 'कुछ नहीं' था कि इसे कामकला का साहित्‍य माना जा सके। सबसे जरूरी बात जो मुझे वर्तमान ब्‍लॉगिंग के लिए दूरगामी प्रभाव वाली लगती है वह यह है कि फ्रेंचेस्‍का के शोध का परिणाम यह कहता है कि जब कोई नया माध्‍यम आता है तो वह विद्यमान माध्‍यम के आनंद (प्‍लेजर) को ही गढ़ने की कोशिश करता है। जब छापा आया तो उसने चालू मौखिक परंपरा (खासतौर पर किस्‍सागोई, पारसी थियेटर व नौटंकी) से मिलने वाले आनंद को ही प्रिंट में देने की कोशिश की, उन्‍हें इमीटेट किया। ताकि आरंभ में लोगों को नए माध्‍यम से वहीं प्‍लेजर मिले जो पहले से विद्यमान माघ्‍यमों से मिलता है- भाषा में भी उन्‍होंने हिंदी, उर्दू, ब्रज का तथा लिपि में देवनागरी तथा फारसी लिपि दोनों का मिलाजुला इस्‍तेमाल किया। इसके ब्‍लॉगिंग निहितार्थ देखें तो यह पूरी तरह लागू होता दिखाई देता है- आरंभिक ब्‍लॉगिंग पहले से विद्यमान मीडिया रूपों यानि प्रिंट व आडियो-विज्‍युअल रूपों के प्‍लेजर को ही मुहैया कराने की कोशिश कर रही है पर जैसे जैसे ये स्‍वतंत्र रूप हासिल करती जाएगी इसका प्‍लेजर अलग होगा। और हॉं छापे के उभार के समय वाचिक साहित्‍य के पुरोधाओं ने छापे के उभार को वैसे ही कोसा था जैसे अनवर जमाल और छापे के दूसरे लोग, वर्तमान हाईपरटेक्‍स्‍ट वालों को पानी पी पी कर कोसते हैं। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070726/12528df9/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Jul 26 14:59:15 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 26 Jul 2007 14:59:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSb4KS+4KSq4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpIbgpKbgpL8t4KSH4KSw4KWL4KSf4KS/4KSVIOCkuOCkvg==?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSk4KWN4oCN4KSvIOCklOCksCDgpKvgpY3gpLDgpYfgpILgpJo=?= =?utf-8?b?4KWH4KS44KWN4oCN4KSV4KS+?= In-Reply-To: <8bdde4540707251738l12972703w4ae842108656c144@mail.gmail.com> References: <8bdde4540707251738l12972703w4ae842108656c144@mail.gmail.com> Message-ID: <200707261459.15617.ravikant@sarai.net> शुक्रिया विजेन्दर शुक्रिया कि आप में से कुछ लोग लोग न सिर्फ़ आए बल्कि बातचीत को आगे ले जाने की कोशश भी कर रहे हैं. मेरे पास उनका यह पेपर अंग्रेज़ी में है, वादा करता हूँ, कि उसे जल्द से जल्द आप सब को हिन्दी में मुहैया करा दूँगा. क्योंकि उस पर्चे में और भी माल है, काफ़ी दिलचस्प. विजेन्दर ने जो सिरा पकड़ा है, उसे आगे बढ़ाते हुए कहूँगा कि जब नया माध्यम आता है तो अपने साथ कई तरह की - नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक - चिंताएँ भी लेकर आता है. अवसर तो होता ही है यह नए सिरे से सामग्री गढ़ने का, उसकी साज-सज्जा का, प्रस्तुति का. इस लिहाज़ से एक बात साफ़ है उन्नीसवीं सदी के उत्तर प्रदेश में कि प्रकाशक अपने पाठक वर्ग के बारे में निश्चिंत नहीं है कि वह किस लिपि का प्रयोग करता है, इसलिए वह उर्दू और देवनागरी दोनों का इस्तेमाल करता है. जो बाद में जाकर सिनेमा जैसे दृश्य-श्रव्य माध्यम की कास्टिंग में जाकर एक प्रतीकात्मक उपस्थिति बनता है. रवि श्रीवास्तव व अन्य ब्लॉगर अब कह रहे हैं कि लिपि की दीवार मायने नहीं रखती, आप रोमन हिन्दी के ज़रिए हमारा ब्लॉग पढ़ सकते हैं, उन्हें पता है कि एसएमएस के इस युग में बाहुत सारे लोग रोमन के सहारे ही संवाद कर रहे हैं, जो देवनागरी या भारतीय भाषा के औज़ार हैं, उसका उन्हें ज़्यादा इल्म नहीं. तो मैं यहाँ भी एक समांतरता देखता हूँ. लेकिन यह बात भी लगभग सिद्ध ही है कि हर माध्यम अभिव्यक्ति के नायाब रूप लेकर आता है इसलिए अपने विद्यमान को यथावत पेश नहीं करता, न ही इस नई पेशगोई में वही बात रह जाती है, जो उसके पहले के रूप में थी. मुझे लगता है कि औज़ारों को बनाने आदि की दिशा में ब्लॉगरों को थोड़ा और प्रयास करना चाहिए, भाषा और प्रौद्यौगिकी के अंतर्संबंधों पर काम करने के लिए कुछ और हाथ, दिमाग़ और डिजिटल गतिविधि से फ़ायदा ही होगा. कल विजेन्दर से इस पर बात भी हो रही थी. रविकान्त गुरुवार 26 जुलाई 2007 06:08 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > छापे का आदि-इरोटिक साहित्‍य और > फ्रेंचेस्‍का > > From pramodrnjn at gmail.com Mon Jul 30 23:44:39 2007 From: pramodrnjn at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSq4KWN4KSw4KSu4KWL4KSmIOCksOCkguCknOCkqA==?=) Date: Mon, 30 Jul 2007 23:44:39 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSw4KWC4KSj?= =?utf-8?b?4KWN4oCNIOCkleCkruCksiDgpLjgpYcg4KSV4KWB4KSbIOCkuOCktQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KSy?= Message-ID: <9c56c5340707301114t4ba55cedw75f69c0acb62a6f4@mail.gmail.com> अरूण कमल से प्रमोद रंजन की बातचीत साहित्‍य प्राय: उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं ... अरुण कमल, हिंदी के महत्वपूर्ण कवि। जन्म : १५ फरवरी १९५४. ४ कविता पुस्तकें 'अपनी केवल धार` (१९८०), 'सबूत` (१९८९), 'नए इलाके में` (१९९६) व 'पुतली में संसार` (२००४) प्रकाशित। आलोचना पुस्तक 'कविता और समय` तथा अनुवाद की भी ३ पुस्तकें। कई देशों की यात्राएं। समसामायिक विषयों पर भी लेखन। कविता के लिए भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार (१९८०), सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार (१९८९), श्रीकांत वर्मा स्मृति पुरस्कार (१९९०), रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार (१९९६), शमशेर सम्मान (१९९७) तथा वर्ष १९९८ का साहित्य अकादमी पुरस्कार। संप्रति : पटना विश्विद्यालय में अंग्रेजी के प्राध्यापक। प्रमोद रंजन : आपको २०वीं सदी के एक महत्वपूर्ण कवि के रूप में रेखांकित किया गया और २१वीं सदी में भी आपकी रचना सक्रियता बनी हुई है। इस दौरान विश्व पटल पर कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं । हिंदी की मुख्यधारा की रचनाशीलता को दिशा देने वाला समाजवाद हाशिए पर चला गया है। अब भूमंडलीकरण को निर्मित करने वाली आर्थिक शक्तियां एक भिन्न किस्म का समाजशास्‍त्र भी गढ़ रही हैं। आप इन परिवर्तनों को कैसे देखते हैं? अरुण कमल : किसी भी साधारण आदमी के जीवन में अचानक न तो एक सदी खतम होती है, न दूसरी शुरू। सब कुछ एक साथ लगातार चलता रहता है। दुनिया का बदलना और आपका लिखना पढ़ना भी। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की समाजवादी सरकारें आज नहीं हैं। लेकिन यह भी सच है कि क्यूबा, चीन और वियतनाम हैं। और दक्षिणी अमेरिका में नये वामपंथी रूझान हैं। नेपाल में बदलाव है। भारत में भी वामपंथियों को आज संसद में पहले के मुकाबले ज्यादा जगहें हैं । पूरी दुनिया में पूंजीवाद त्रस्त है। और सबसे बड़ी बात यह कि हार जाने से न तो आदर्श समाप्त होते हैं न स्वप्न। साहित्य किसी बाह्य राजनीतिक सत्ता से नहीं, इन्हीं आदर्शों और स्वप्नों से प्रेरित होता है। अंधेरे में ही सबसे उज्जवल, सुगंध भरे फूल फूटते हैं। साहित्य प्राय: उनका पक्ष लेता है जो हारे हुए हैं, जो अपना सब कुछ खो चुके हैं। 'हो न सके जो पूर्ण काम उनको प्रणाम।` प्रमोद रंजन : मौजूदा स्थिति में क्या भूमंडलीकरण का कोई व्यवहारिक विकल्प हो सकता है? इसे एकमात्र विकल्प मानने वाले भी इसमें निहित साम्राज्यवाद के खतरे को चिन्हित करते हैं। ऐसे में भारतीय जनता का स्टैंड क्या होना चाहिए? इस संदर्भ में सत्तागत नीतियां क्या होनी चाहिए? अरुण कमल : आरम्भ से ही समूची दुनिया को एक में जोड़ने-बांधने का सिलसिला चल रहा है। पूंजीवाद ने यह काम सबसे ज्यादा और सबसे तेजी से किया जो मानव इतिहास में अभूतपूर्व है। इसके अनेक फायदे हैं। यह जरूरी भी है। तकनीकी क्रांति ने इसमें बहुत हाथ बंटाया है। आज पूंजी और श्रम-शक्ति दोनों अबाध गति से पूरे भूमंडल में संचरण कर रहे हैं। इसका अर्थ यह भी है कि पूंजीवाद के विरोध की शक्तियां भी एक साथ पूरे भूमंडल में फैल सकती हैं। हम पीछे नहीं लौट सकते। हम वापस स्वयंसम्पूर्ण ग्राम-व्यवस्था में नहीं जा सकते। जरूरत इस बात की है कि जो लोग नया संसार-समानता-स्वतंत्रता के मूल्यों पर आधारित शोषणमुक्त संसार-बनाना चाहते हैं वे भी एकजुट हों। ऐसी कोशिशें चल रही हैं। प्रमोद रंजन : सूचनाओं के महाविस्फोट ने मध्यवर्ग को एक तरह के वर्चूअल (आभासी) संसार का निवासी बना दिया है। कहा जा रहा है कि जल्दी ही प्रतिरोध की बची-खुची कवायदें भी समाचार माध्यमों के दृश्य पटल का हिस्सा भर रह जाएंगी। क्या यह श्रेयकर होगा कि इस आभासी संसार का आनंद 'सभी` को उपलब्ध हो पाए? ऐसा होना किस तरह मनुष्यता के खिलाफ जाएगा? रियल से वर्चूअल की यह यात्रा कितनी प्रायोजित है? अरुण कमल : एक तरफ टेलिविजन, विज्ञापन आदि का 'आभासी` संसार है तो दूसरी तरफ स्वयं कठोर भौतिक जीवन का 'वास्तविक` संसार भी है। स्वयं अमेरिका और यूरोप का मध्यवर्ग इन दो संसारों के द्वंद्व को महसूस करता है जिसका एक प्रमाण इन समृद्ध देशों का अवसाद भरा, कुटुम्बहीन अकेलापन है। मध्यवर्ग को वास्तविक जीवन का पूरा अंदाज है-नौकरी में असुरक्षा, काम के बढ़ते घंटे, अवकाश का अभाव, प्रेम की कमी, जीवन में जोखिम जिसे टी.एस.इलियट ने बहुत पहले भांपा था- 'हाउ योज इज द लाइफ वी हैव लॉस्ट इन लिविंग?` कहां है वो जीवन जो हमने जीने में खो दिया? इसलिए पूंजीवाद का विरोध अंतत: वे लोग भी करेंगे जो आज इसके आश्रय हैं। क्योंकि नये समाज के निर्माण का अर्थ सुखभरे समाज का निर्माण है जहां आप चार घंटे काम करेंगे और बाकी समय पढ़ेंगे-लिखेंगे, संगीत सुनेंगे, घूमेंगे, मछली मारेंगे, बागवानी करेंगे और आजाद रहेंगे। मनुष्य को आभासी नहीं, वास्तविक सुख चाहिए। एक को नहीं। सबको। प्रमोद रंजन : ऐसा लगता है जैसे वर्चस्व की सांप्रदायिक प्रवृत्ति ने 'सभ्यताओं के संघर्ष` का वैचारिक चोगा पहन लिया है। अमेरिका द्वारा इराक के जबरन अपदस्थ किए गए रा ट्रपति सद्दाम हुसेन और भारतीय संसद पर हमला करने के आरोपी अफजल में क्या आप भी कोई समानता देखते हैं? एक समानता तो यह है कि दोनों विश्व के महान लोकतांत्रिक देशों (अमेरिका समर्थित देश द्वारा सद्दाम व भारत द्वारा अफजल) की न्याय व्यवस्थाओं द्वारा घोषित जघन्य अपराधी हैं और मृत्यु दंड की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इसके अलावा एक इतर प्रश्न यह भी पूछना चाहूंगा कि भगत सिंह और अफजल में क्या असमानताएं हैं? अरुण कमल : नहीं। सद्दाम हुसेन को पहले तो अमेरिका ने ही खड़ा किया था जैसे लादेन को, जैसे तमाम जनतंत्र और जन-विरोधियों को। फिर सद्दाम हुसेन को इराक की संप्रभुतासंपन्न सरकार ने नहीं, वरन् अमेरिकी कठपुतली सरकार ने सजा दी है, उसकी पोषित न्यायपालिका ने। इसलिए यह गलत है। जबकि जिस हत्यारे का आप नाम ले रहे हैं उसे एक संप्रभुतासम्पन्न संसद पर हमले के लिए सजा दी जा रही है, जिसके लिए उसके मुंह में कभी खेद का एक शब्द भी नहीं है। दोनों की तुलना गलत है। मैं किसी भी प्रकार की हत्या या अत्याचार का विरोधी हूं। चाहे वह हत्या एक व्यक्ति करे या कोई समूह या सरकार। आपके प्रश्न के अंतिम खंड के बारे में मेरा कहना है कि जिस पंक्ति में महान् शहीद भगत सिंह का नाम लिखा जाए उसमें किसी और का नाम न लिखें। स्वर्णाक्षर केवल शहीदों के लिए है, क्रांतिकारियों के लिए। पेशेवर हत्यारों के लिए नहीं। प्रमोद रंजन : एक मार्क्सवादी होने के नाते इन दिनों सशक्त रूप से अभिव्यक्ति पा रहे सामाजिक समूहों की अस्मिताओं के संघर्ष को आप किस रूप में देखते हैं? क्या आपका कवि इनमें किसी मानवीय दष्टिकोण की तलाश कर पा रहा है? मार्क्सवादी दलों ने इधर अपने ऐजेंडे में वर्ग के साथ-साथ वर्ण को भी प्रमुखता से शामिल करना आरंभ किया है। जाति हिंदू समाज की मूल सच्चाई रही है। भारतीय मार्क्सवादियों को इसे समझने में इतनी देर क्यों लगी? राजनीति ही नहीं, बौद्धिक हलकों में भी समाज का इतना सूक्ष्म विश्लेशण करने वाले मार्क्सवादी इतिहासकार, साहित्यिक व अन्य समाज-संस्कृतिकर्मी इसे प्रमुखता देने से क्यों बचते रहे? इतने लंबे समय तक इस यथार्थ की उपेक्षा को क्या आयातित विचारों का खुमार भर माना जाए, या षडयंत्र भी? अरुण कमल : वंचित सामाजिक समूहों का उभार पिछले कुछ दशकों की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। और यह बहुत खुशी की बात है। जब तक हाशिया केन्द्र नहीं बनेगा और फिर एक ऐसा समाज न होगा जहां न तो केन्द्र होगा न हाशिया, तब तक यह उभार चलता रहेगा। लेकिन हमें केन्द्र-हाशिया नहीं, समतल एकरस भूमि चाहिए। जहां तक वर्ग और वर्ण तथा मार्क्सवादी इतिहासकारों की भूमिका की बात है तो मैं विनम्रतापूर्वक कहूंगा कि मेरा ज्ञान इस विषय में बहुत कम है। आप किसी इतिहासकार से इस पर बात करें तो मेरा भी फायदा होगा। फिर भी मुझे लगता है, हांलाकि मैं गलत हो सकता हूं, कि आज भारतीय जीवन को चलाने वाली व्यवस्था न तो सामंती है न जाति-आधारित। जैसा कि आपके पूर्व प्रश्न भी बताते हैं आज यहां पूंजीवाद ही मुख्य चालक-शक्ति है। आज शोषण का मुख्य कारण पूंजी है। हांलाकि अंतर्विरोध अनेक हैं जैसे जाति, धर्म, योनि, क्षेत्र, भाषा आदि पर आधारित। एक ही साथ अनेक प्रकार के विभेद और शोषण मौजूद हैं। सबका खात्मा जरूरी है। आप कहते हैं कि जाति हिंदू धर्म की मूल सच्चाई है। हो सकता है। लेकिन क्या धर्म बदलने से यह खत्म हो जाता है। अगर ऐसा होता तो फिर दूसरे धर्मों के लोग जाति-आधारित फायदे क्यों चाह रहे हैं? मेरा अनुभव है कि पाकिस्तान में भी, जो शुद्ध मुस्लिम देश है, जात-पांत है, कबीले हैं, यहां तक कि गोत्र हैं और पंथ विभाजन जैसे शिया-सुन्नी-अहमदिया आदि तो है ही। और म्यांमार में भी जो शुद्ध बुद्ध-राष्ट्र है, जात-पांत तथा सामाजिक विभेद है। जबकि 'हिंदू` नेपाल में अपेक्षाकृत कम। स्वयं भारत में भी सभी धर्मों में जाति-भेद आज भी लगभग एक जैसा है। मैं नहीं जानता क्यों। लेकिन इतना लगता है कि वर्ण तथा जाति की व्यवस्था का संबंध केवल धर्म से नहीं है। कोई और कारण भी है। मार्क्सवादी इतिहास का इतिहास ज्यादा लंबा नहीं है। फिर भी मार्क्सवादी इतिहासकारों ने इस बारे में सोचा है। इरफान हबीब का एक लेख जाति-व्यवस्था पर बहुत महत्वपूर्ण है जिसमें वह पूछते हैं कि ऐसा क्यों है कि बुद्ध से लेकर अब तक जितने भी शासक आये-देशी या विदेशी-सबने जाति-व्यवस्था को लगातार मजबूत ही किया और आज भी कर रहे हैं। डॉ। रामशरण शर्मा ने भी विचार किया है। और भारत को समझने के लिए सर्वोपरि डी.डी. कोसाम्बी को पढ़ना जरूरी है। मैं यह भी सोचता हूं कि ऐसा क्यों है कि कोई ऐसी जाति नहीं जिसमें अमीर-गरीब दो वर्ग न हों? जहां मलाई और मट्ठा दोनों न हों? आज शोषण का मुख्य कारण पूंजीवाद है, जाति या धर्म नहीं। बेरोजगार हर जाति-धर्म में हैं। दरिद्रता हर जगह हर जाति में है, जैसे सम्पन्नता कहीं कम कहीं ज्यादा। फिर भी जाति की भावना है और शायद रहेगी। क्योंकि यह एक मानसिक अवस्था भी है; अपने को ऊंचा या नीचा समझना। चेखव ने लिखा है कि वह एक मोची के बेटे थे। उन्हें यह बात सालती थी। एक सुबह उन्होंने तै किया कि मैं इसे भूल रहा हूं और वह नये आदमी बन गये। ऐसा ही गोर्की ने भी किया। ऐसा ही राहुल जी ने भी किया। लेकिन यह रास्ता कठिन है। अपनी सारी पूर्वप्रदत्त पहचानों को छोड़ना सबसे कठिन है, पूर्वाग्रहों को तोड़ पाना उससे भी कठिन। जैसा कि आइन्सटाइन ने कहा है, 'एक परमाणु के विखंडन से कहीं अधिक कठिन है पूर्वाग्रहों का खंडन`। फिर भी हम सब उस जातिविहीन, वर्गविहीन और धर्मविहीन समाज की इच्छा करते हैं। चाहे जैसे हो, यह हो। इसके लिए जरूरी है कि पूरे सामाजिक जीवन को उन्नत, आधुनिक और तकनीक सम्पन्न बनाया जाय ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार काम पा सके, ताकि उसे पुश्तैनी काम करने पर मजबूर न होना पड़े। हमारे समाज के सबसे दलित भंगी-मेहतर और उनकी स्त्रियां पहले माथे पर मैला ढोती थीं। नये आधुनिक शौचालयों ने उनको इस अमानवीयता से मुक्त किया। इसी तरह पूरा जीवन बदल सकता है। न तो मेहतर का बच्चा पाखाना धोने वाला मेहतर बनना चाहता है न ब्राह्मण का बेटा आरती घुमाने वाला भिखमंगा ब्राह्मण। बिना जाति-मुक्ति के देश का कल्याण नहीं हो सकता। यह बातचीत जन विकल्‍प के उदधाटन अंक जनवरी,2007 में प्रकाशित हुई थी। इसके कुछ और हिस्‍से यहां पढ सकते हैं http://sanshyatma.blogspot.com/ -- जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी http://vikalpmonthly.googlepages.com/ ........................................ 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