From deewan at mail.sarai.net Wed Jan 3 19:16:51 2007 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Wed, 3 Jan 2007 05:46:51 -0800 (PST) Subject: [Deewan] prabhasakshi Message-ID: <20070103134651.18460.qmail@web52903.mail.yahoo.com> http://www.prabhasakshi.com/ShowArticle.aspx?ArticleId=070103-115805-060110 Regards, Rajesh __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070103/c29c0fc7/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Thu Jan 4 16:16:00 2007 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Thu, 4 Jan 2007 16:16:00 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KS54KWB4KSIIOCkruClgeCkpuCljeCkpuCljeCkpCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KS/IOCkl+CkvuCksuCkv+CkrCDgpK7gpLAg4KSX4KSv4KS+LA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkr+CkvuCkpiDgpIbgpKTgpL4g4KS54KWILi4uLi4uLi4u?= Message-ID: <63309c960701040246w46a09343n96d3d03b2c0e9e21@mail.gmail.com> पुछते हैं वह कि गालिब कौन है कोई बतला वो कि हम बतलायें क्या... सचमुच कोई पुछे तो चेहरा लाल हो जाता है,लेकिन कोई ऐसी बेवकुफी नही करता है.मेरे गालिब चचा आज भी जिदा हैं.अपनी हवेली से लेकर मजार तक वो शेरो-शायरी करते मुझे मिल जाते हैं.लाल किले की सामने वाली सड्क पर चचा आज भी पतंगो पे शायरी लिख के चुन्ना बीबी के लिए उडाते हैं.....यकीन मानिए दोस्त्! आप यह नही कह सकते है कि गालिब मर गए.वो तो खुद कहते हैं- हुई मुद्द्त कि गालिब मर गया,पर याद आता है वह हर इक बात पे कहना कि यु होता तो क्या होता... गालिब का जन्मोत्सव जोश के साथ दिल्ली मे मनाया गया.पुरानी दिल्ली से लेकर निजामुद्दीन तक गालिब के नज्म महकते रहे.देश और विदोशो से आए शायर दिल्ली की वही रोनक लौटाने की कोशिश करते नज़र आए जैसा गालिब चचा किया करते थे.पाकिस्तान के मशहुर शायर फरहाज़ अहमद ने समां को बनाये रखा.वही विख्यात डांसर उमा शर्मा ने गालिब की गज़लो और शायरी के साथ बेले डांस पेश किया तो गालिब की ये चंद लाईने जुबां पे आ गयी- इश्क ने गालिब निकम्मा कर दिया वर्ना हम भी आदमी थे काम के.... जब उमा जी ने गालिब की सुफिया नज़्मो को लेकर नाटिका शुरु की तो गालिब के ये शौक याद आ गये- न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता डुबोया मुझको होने ने ,न होता तो मैं क्या होता........ गिरीन्द्र नाथ झा. आप मेरे ब्लाग का भी चक्कर लगा सकते हैं-www.anubhaw.blogspot.com From deewan at mail.sarai.net Fri Jan 5 16:01:03 2007 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Fri, 5 Jan 2007 16:01:03 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: [DOCUWALLAHS2] What Is YouTube? http://www.youtube.com/signup Message-ID: <200701051601.03697.ravikant@sarai.net> इस सूची पर शायद कुछ लोगों को यूट्यूब - जिसे हाल में गूगल ने ख़रीद लिया है, पर जो अभी भी मुक़्त और मुफ़्त है - के बारे में ‌‌इतनी जानकारी न हो. ‌‌अधो-चिपकित/नक़लित से लाभ ‌उठाएँ. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [DOCUWALLAHS2] What Is YouTube? http://www.youtube.com/signup Date: शुक्रवार 05 जनवरी 2007 00:39 From: "Frederick Noronha" To: docuwallahs2 at yahoogroups.com What Is YouTube? http://www.youtube.com/signup YouTube is a way to get your videos to the people who matter to you. With YouTube you can: * Upload, tag and share your videos worldwide * Browse thousands of original videos uploaded by community members * Find, join and create video groups to connect with people with similar interests * Customize your experience with playlists and subscriptions * Integrate YouTube with your website using video embeds or APIs http://www.youtube.com/t/help_cat05 Do I have to sign up to upload videos? Yes. Since videos are attached to your profile, you must sign up as a member to upload videos. Becoming a member also allows you to save videos, create playlists, and leave comments, among many other features. How long do my videos stay on YouTube? Videos stay on YouTube until the members who uploaded them choose to take them down. Videos which violate the terms of use and have been flagged may be taken down by YouTube. How long can my video be? Most videos on YouTube are under five minutes long. There is a 10-minute length limit (unless you have a Director account). Longer videos require more compression to fit in the 100MB size limit, and the quality will go down as the length of the video goes up. What video file formats can I upload? YouTube accepts video files from most digital cameras and camcorders, and cell phones in the .AVI, .MOV, and .MPG file formats. What's the best format to upload for high quality? We recommend the MPEG4 (Divx, Xvid) format at 320x240 resolution with MP3 audio, at 30 frames per second. Resizing your video to these specifications before uploading will help your clips look better on YouTube. How long will my video take to upload? Depending on your connection speed and the size of the video, it can take anywhere from a few minutes to several hours to upload a video. Generally, if you have a high-speed internet connection you can expect the upload to take somewhere between 1-5mins for every 1MB. However, the experience is different for every user because of the variation in connection speeds. Is there a limit to how much I can upload? Currently, the only limit is 100MB and 10 minutes in length per video (there is no length limit for Director accounts). We don't have any limit for the number of videos you can upload, and don't foresee adding a ceiling anytime in the future. So get crankin' and upload as many videos as you'd like—it's more content for the whole YouTube community to enjoy! -- FN M: 0091 9822122436 P: +91-832-240-9490 (after 1300IST please) http://fn.goa-india.org http://fredericknoronha.wordpress.com ------------------------------------------------------------------ If you haven't sent in your self-introduction to the list as yet, please send it in. Let's get to know each other better via Docuwallahs2. ------------------------------------------------------------------ Yahoo! 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मुबारकवाद के साथ, रविकान्त ---------------------------- *चौराहा*/*हिन्दी और सम्मान* (हंस, दिसंबर, 2006) *विभास * पिछली सदी के अवसान और इस सदी के आरंभ में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों को ऊपरी तौर पर भी देखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि इस दौरान 'अस्मिता' पर आधारित मुद्दों पर सबसे ज़्यादा लिखा गया है। यह स्थिति केवल हिन्दी की ही नहीं है। इतिहासकार फ्रेडेरिक कूपर ने अपनी पुस्तक कोलोनियलिज़्म इन क्वेश्चनः थ्योरी, नॉलेज, हिस्टरी की शुरुआत में अंग्रेज़ी में उपनिवेशवाद पर लिखे 1993 से 2003 तक के अकादमिक लेखों में सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए गए शब्दों का एक रोचक आँकड़ा प्रस्तुत किया है, जिसे उन्होंने एक ग्राफ़ या आरेख से भी दर्शाया है। इसके अनुसार इन वर्षों में औपनिवेशिकता पर हुए विमर्श में 'आधुनिकता' की अवधारणा 'आधुनिकीकरण' की अवधारणा की तुलना में प्रयोग में पिछड़ती गई है। इन शब्दों में 'संस्कृति', 'शहरीकरण' आदि शब्द भी हैं। जिन चार-पाँच शब्दों को आरेख में दर्शाया गया है उनमें 'क्लास' या 'वर्ग' अनुपस्थित हैं। पर जो शब्द 1993 में भी सबसे ज़्यादा प्रयोग की किया गया था और 2003 तक उसके प्रयोग की गति और ज़्यादा बढ़ी वह है - 'अस्मिता'। इस आँकड़े से कम-से-कम अंग्रेज़ी में हो रहे औपनिवेशिकता संबंधी विमर्श की दिशा का पता तो चलता ही है। फ्रेडेरिक कूपर, जो मुख्यतः अफ्रीकी उपनिवेशवाद के इतिहासकार रहे हैं, ने अफ्रीकी औपनिवेशिक राज्यों के संदर्भ में 'गेटकीपर स्टेट' की धारणा प्रस्तुत की थी। इस धारणा के अनुसार अफ्रीका को जिस योजनाबद्ध तरीके से जीता गया, इस तरीके से वहाँ राज्य स्थापित नहीं किया गया। अफ्रीका में औपनिवेशिक शासकों की स्थिति 'गेटकीपर-स्टेट' की रही जो बाहर की दुनिया और राष्ट्र के संबंधों की सत्ता पर काबिज़ रहे पर राष्ट्र के अंदर अपनी राज्य-सत्ता को उस विस्तार और गहराई से नहीं लागू कर पाए। दरअसल उन्हें अफ्रीका से जिन संसाधनों का दोहन करना था, उसके लिए राज्य के उपकरणों को राष्ट्र के अंदर व्यवस्थित तरीके से लागू करने की ज़रूरत नहीं थी। उनके 'उत्तराधिकारी' राज्यों ने भी इसी दरबान की भूमिका का उत्तराधिकार ग्रहण किया। इस दृष्टि से एशिया - विशेषतः भारत-जैसे देशों में औपनिवेशिक राज्य का विस्तार राष्ट्र के अंदर अपेक्षाकृत अधिक गहराई से हुआ है। जो घरेलू शासन-व्यवस्था उन्होंने चलाई, वही उनके 'उत्तराधिकारियों' ने क़ायम रखी है। इस शासन-व्यवस्था के कुछ रूपों को भारत का एक वर्ग मुक़्तिदायी अनुभव के रूप में देखता है। इस शासन के वाहन-अंग्रेज़ी और उसे लागू करने वाले मैकाले का पूजन-अभिनंदन किया जाने लगा है। पिछले दिनों चंद्रभान प्रसाद जी के नेतृत्व में जो आयोजन हुआ उसने काफ़ी लोगों के चौंकाया है। इस आयोजन में लॉर्ड मैकाले का जन्मदिन मनाया गया और अंग्रेज़ी-माता का देवी रूप में पोस्टर जारी किया गया, स्तुतियाँ गाई गईं। यह कामना की गई कि हर दलित नवजात बच्चा पहली ध्वनि-एबीसीडी की सुने। अंग्रेज़ी-माता या देवी की तसवीर स्टैच्यू ऑफ़ लिबर्टी का अनुकरण थी सिर्फ़ उसके हाथों में मशाल की जगह कलम थी। यह एक नई दलित आइकनोग्राफ़ी है। इस आयोजन को भले ही 'गिमिक' कहा जाए पर इतना तो तय है कि इनकी नीयत खुली और नज़रिया स्पष्ट है। जिस समाज में सम्मान का स्रोत है वहाँ सामाजिक स्म्मान पाने का तरीका सत्ता-प्राप्ति के अलावा और क्या हो सकता है? यह इस बात का भी निदर्शन व प्रमाण है कि आज भारतीय भाषाएँ सत्ता का वाहन नहीं हैं, हिन्दी तो क़तई नहीं। भले ही इन भाषाओं की सत्ता के अपने छोटे-छोटे द्वीप हों पर अब तो हिन्दी के प्रेमी-अंग्रेज़ी विद्वान भी मानने लगे हैं, 'हिन्दी हैज़ लॉस्ट इट्स केस'। जो दक्षिण भारतीय भाषाएँ हिन्दी को अपने लिए ख़तरा मानती थीं, वे भी अंग्रेज़ी के आगे पूर्ण प्रणत हैं। ऐसी हालत में अंग्रेज़ी बरतना सम्मान का अधिकारी बनाता है तो सम्मान के लिए संघर्षत लोग हिन्दी या भारतीय भाषाएँ छोड़कर अंग्रेज़ी का आराधन कर रहे हैं तो क्या आश्चर्य? पर सवाल है कि ऐसे में हिन्दी के दलित-साहित्य की क्या प्रासंगिकता होगी? कुछ विद्वानों ने इस संदर्भ में कबीर जैसे संतों का हवाला देकर यह कहा है कि कबीर ने संस्कृत की सत्ता के बरअक़्स तत्कालीन प्रबलतर सत्ता फ़ारसी का अनुमोदन नहीं किया बल्कि अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम अपने अनुभवों की भाषा को बनाया जो सत्ता और प्रतिष्ठा की सबसे निचली पायदान पर व्याप्त थी। पर संभवतः कबीर उस सत्ता का युद्ध नहीं लड़ रहे थे जो आज लड़ा जा रहा है, बल्कि रघुवीर सहाय की कविता के शब्दों का सहारा लेकर कहें तो कबीर समाज को बदलने के लिए भाषा का युद्ध लड़ रहे थे और उन्होंने अपनी बानी में "निरक्षक का हिरदै" खोलकर रखा था। लेकिन इस सवाल पर भी विचार होना चाहिए कि हिन्दी का वह कौन सा रूप है जो समाज को बदलने की लड़ाई भाषा के मोर्चे पर लड़ सकता है? इसी से जुड़ा सवाल यह है कि हिन्दी-साहित्य की वे कौन-सी प्रवृत्तियाँ-गतिविधियाँ हैं जो साहित्य के मोर्चे पर समाज के बदलाव की भूमिका तैयार कर रही हैं। इस बात में कम लोगों को संदेह होगा कि यह वही साहित्य है जो समाज में कुचली गई पहचान के तबक़ों द्वारा लिखा गया है। उसमें दलित, स्त्री, आदिवासी, किसान-मज़दूर जैसे तमाम तबक़े शामिल हैं। इसलिए सत्ता-प्राप्ति का विचार हो तो हिन्दी का दलित-साहित्य भले अप्रासंगिक हो जाए पर समाज और साहित्य के स्वास्य के लिए इसकी ज़रूरत बनी रहेगी। पत्रिकाएँ नया ज्ञानोदय, अंक-45 और वागर्थ अंक-136 परस्पर अपना कलेवर बदल लिया है। संपादक रवींद्र कालिया अपने साथ कई स्तंभकार भी नया ज्ञानोदय में साथ ले आए हैं। अंक पठनीय है। मैनेज़र पांडेय का 'संवादधर्मी दारशिकोह' एक ज़रूरी आलेख है जो इतिहास, दर्शन, संस्कृति, भाषा अनुवाद, साहित्य और राजनीति सब में रुचि रखने वालों को कुछ न कुछ उपलब्ध कराता है। यह आलेख जेएनयू में पढ़ा गया था जिसकी प्रस्तुति राहुल सिंह ने की है, पर कहाँ पढ़ा गया इसका उल्लेख होना चाहिए था। उसी तरह अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश के संवाद की प्रस्तुति की गई है उसमें इस संवाद की जगह का उल्लेख नहीं है जबकि इसमें पाठकों की भी भागीदारी है। अशोक वाजपेयी राजनैतिक, धार्मिक और बाज़ार की सत्ता को असहिष्णु और अलोकतांत्रिक बताते हुए कहते हैं कि ये सत्ताएँ समाज में साहित्य का कुपाठ कर रही हैं। उदय प्रकाश इन सत्ताओं में आलोचना को भी सूसन सोंटाग के हवाले से शामिल करते हुए कहते हैं कि आलोचनाएँ रचना के साथ वही सलूक़ करती हैं जो सत्ताएँ जनता, नागरिक या वंचित मनुष्यता के साथ करती हैं और ये मनमानी व्याख्याएँ और अर्थ के अनर्थ बंद होने चाहिए। उदय प्रकाश आवेश में यग नज़रअंदाज़ कर जाते हैं कि आलोचनाएँ असहमति की भी अभिव्यक्तियाँ हैं और असहमति को बंद करना ख़तरनाक है। विजय कुमार ने गुंटर ग्रास की हालिया आत्मस्वीकृतियों पर लिखे लेख में उनके साहित्यिक अवदान पर हमेशा की तरह बढ़िया लिखा है। गुंटर ग्रास के लेखन का विश्लेषण उन्होंने मार्मिक ढंग से किया है। समयांतर, (अक्तू, 2006) में इसी विषय पर लिखे हरिमोहन शर्मा के लेख में इस विवाद के संबंध में ज़्यादा जानकारियाँ हैं। दोनों ही गुंटर ग्रास को दोषी नहीं मानते हैं। नया ज्ञानोदय में कविताओं की संख्या कहानियों से ज़्यादा है। संजय कुंदन की कहानी 'गाँधी जयंती' आजकल लगे रहो मुन्नाभाई के यूफ़ोरिया में भुला दी गई वास्तविकता की ओर ध्यान आकर्षित कराती है। फ़िल्म में मुन्ना भाई भले ही गाँधीग़िरी को अपना लेते हो पर वास्तविक भाई लोग गांधी को रौंद कर ही 'भाई' बन पाते हैं। अंत थोड़ा फ़ार्मूलाबद्ध होते हुए भी कहानी प्रभावित करती है। विनोद चोपड़ा की लगे रहो मुन्नाभाई की समीक्षा कथादेश, नवंबर-06 के विनोद और वागर्थ के विनोद यानी क्रमशः विनोद अनुपम और विनोद दास दोनों ने की है. दोनों इसे सफल विनोदपूर्ण फ़िल्म मानते हैं। विनोद अनुपम इसे 'गाँधी वाली सहजता से ही आज गाँधी की प्रासंगिकता के प्रति सचेत करने वाली फ़िल्म मानते हैं पर विनोद दास के अनुसार इस फ़िल्म में दिखाई जाने वाली गांधीगिरी खोखली, हास्यास्पद और पाखंडी है। फ़िल्मों की चर्चा आजकल साहित्यिक पत्रिकाओं में स्थान बनाती नज़र आती है, कथन-52 में जबरीमल्ल पारख ने सिनेमा में बच्चों की उस्थिति पर, नया ज्ञानोदय में प्रदीप तिवारी ने आलमआरा के बाद शुरू हुए सवाक् सिनेमा के अभ्युदय पर, वर्तमान साहित्य, अक्तू-06, में विजय शर्मा ने साहिर की फ़िल्मी शायरी पर लिखा है। समयांतर और प्रगतिशील वसुधा, अंक-70 में फ़िल्म संबंधी पुस्तकों की समीक्षा पर प्रताप सिंह और प्रहलाद अग्रवाल के लेख हैं। फ़िल्मों की समीक्षा पर वसुधा में विनोद भारद्वाज से बातचीत भी है। इस संबंध में उद्भावना, अंक-71 में फ़िल्मों के विषय में (हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी तथा बास-द लॉस्ट हीरो) अजय कुमार से विष्णु खरे की बातचीत फ़िल्म समीक्षा के फॉर्म को एक खुलापन देने वाला प्रयोग है। विष्णु खरे हमेशा की तरह दो-टूक और बेबाक राय देते हैं। साथ ही वे राय बनाने में कई और हिन्दी के समीक्षकों की तरह सिर्फ़ कथा और संवादों की समीक्षा न करते हुए फ़िल्म के कला-माध्यम के अनुरूप फ़िल्म दृश्य संबंधी व्याकरण का भी ध्यान रखते हैं, जिसका अभाव ऐसी समीक्षाओं में खटकता है। फ़िल्मों को मिला यह स्पेस स्वागत योग्य हैं। वागर्थ-136 के संपादक दो हैं-कुसुम खेमानी और एकांत श्रीवास्तव. लेकिन इस बदले हुए रूप के नए अंक में कोई संपादकीय नहीं है। अलबत्ता लीलाधर जगूड़ी से संवाद में दोनों संपादक शरीक़ हैं। पत्रिका का स्तर बना हुआ है, कम-से-कम रवींद्र कालिया की अनुपस्थिति अखरती नहीं। कुछ पुराने स्तंभ बरकरार है। किसी एख विदेशी विद्वान का परिचय देने का काम तो विजय कुमार ने नया ज्ञानोदय में संभाल लिया है पर वागर्थ की 'वैचारिकीट' स्तंभ में वो फिर भी हैं—'पढ़ने की क्रिया' के बारे में गंभीर अकादमिक विमर्शों को सुलभ बनाते हुए। विदेशी विद्वान के परिचय का काम इस अंक में मैनेज़र पांडेय की पुस्तक का अंश रखकर लिया गया है। अडोर्नो पर उनका लेख पठनीय है। विजय कुमार का लेख जहाँ पाठक के नज़रिए से लिखा गया है वहीं राजेश जोशी का 'कवि की नोटबुक' में लेखक के नज़रिए से रचना-प्रक्रिया पर कुछ महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ हैं। एक महत्त्वपूर्ण अंश—"मुझे लगता है कि बहुसर्जक के लेखन का बहुत बड़ा हिस्सा वास्तव में सृजन नहीं होता...उसके द्वारा किया जाने वाला रचना-उत्पादन वस्तुतः उसका अभ्यास होता है। अभ्यास से किया जाने वाला उत्पादन...वह इस बात को अक्सर नज़रअंदाज़ करता है कि वह अलग-अलग ढंग से अपने को दोहरा रहा होता है। रचने के जो पैटर्न, जो सांचे या खाक़े उसकी संवेदना, विचार या कहें कि अंतःकरण में तैयार हो चुके होते हैं उनसे अपनी वास्तविक सृजनात्मक क्षमता वाली रचनाओं से मिलती-जुलती रचनाएँ बनाना या बनाते चले जाना बहुत कठिन नहीं होता। थोड़ा ध्यान से देखने पर हम अभ्यास से बनी रचना को कमज़ोर और वास्तविक रचना को थोड़ा बेहतर पा सकते हैं।" इस तर्क की पुष्टि इधर प्रकाशित दो कहानी-लेखकों की कहानियाँ से होती है। इनमें एक हिन्दी के स्थापित लेखक उदय प्रकाश की युद्धतर आम आदमी में प्रकाशित कहानी 'रुक्कू' है और दूसरे अपेक्षाकृत नए परंतु संभावनाशील चर्चित युवा संपादक व कहानी लेखक प्रभात रंजन की नया ज्ञानोदय में प्रकाशित कहानी 'लाइटर' है। यद्यपि दोनों ही उस तरह के बहुसर्जक या प्रोलिफिक लेखक नहीं है। उदय प्रकाश यातना और विकास की अंधाधुंध दौड़ में उत्पन्न सभ्यता की विभीषिका का चित्रण करने वाले कथाकारों में अन्यतम हैं। उल्लेख्य कहानी भी यथार्थ और कल्पना के जादुई मेल-जोल की प्रविधि अपनाते हुए आगे बढ़ने की भागमभाग के सामने कुचले जाने वालों की निरीह यातना की कहानी है, लेकिन क्षमा करें, यह कहानी प्रस्तुत अर्थ में अभ्यास की कहानी जिस विषय या चरित्र पर कुछ पहले तद्भव में उनकी इससे बेहतर कहानी 'फ्लैश बैक' आ चुकी है। इस लिहाज़ से 'लाइटर' उनके अभ्यास की कहानी ही लगती है। कथन-52 हमेशा की तरह एक ज़रूरी मुद्दे पर केंद्रित है-बच्चों के प्रति माता-पिता की ज़िम्मेदारी। बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी से संबंधित परिचर्चा में अंतोन मकारेंको, ज़्यां द्रेज और फैसल अल्काजी शामिल हैं। इनमें ज्यां द्रेज विश्वसनीय तर्कों व आंकड़ों के साथ इस संदर्भ में राज्य की भूमिका का विश्लेषण करते हैं। दूधनाथ सिंह की 'डायरी' में उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के साथ-साथ उनकी विरासत के पूर्व-पुरुष उस्ताद अलाउद्दीन खां को भी भाव पूर्ण श्रद्धा के साथ किया गया है। नाग बोडस, अमरकांत के संस्मरण मार्मिक हैं और मार्कंडेय के जिक्र में शरारत की ज़रा सी छौंक लगी हुई है जो दूधनाथ सिंह से अपेक्षित है। समयांतर, अक्तू-06 और भारतीय लेखक, अप्रैल-जून-06 के अंक पुस्तक और प्रकाशनों पर केंद्रित हैं। समयांतर के आयोजन 'परिच्छेद' में विभिन्न विषयों पर प्रकाशित पुस्तकों की चर्चा है और कई नए प्रकाशनों और प्रकाशन-गृहों की सूचनाएँ हैं। पर समयांतर के इस अंक में टाइप की कई तरह की अशुद्धियाँ रह गई हैं। चूंकि अंक में काफ़ी सामग्री पठनीय और सूचनाप्रद है—इसलिए ये गलतियाँ खटकती हैं। साहित्यिक गॉसिप में समयांतर अव्वल है, इस अर्थ में उसकी तुलना अंग्रेज़ी के फ़िल्मी स्टारडस्ट से की जा सकती है। भारतीय लेखक का अंक लेखक-प्रकाशक संबंधों पर केंद्रित है। इस संबंध में जो चर्चा हुई है उसमें लेखकों का पक्ष हावी रहा है। पांच लेखकों के बरअक़्स एक प्रकाशक दीनानाथ मल्होत्रा प्रकाशक का पक्ष पूरी तरह रखने में सफल नहीं हो पाए हैं। लेखक-प्रकाशक और पाठक के संबंधों की इस चर्चा में यदि इनके बीच पर कोई सेतु यानी छपे शब्द की सेहत सुधारने पर कोई आम सहमति बन सके तो क्या ही अच्छा हो? मेरा आशय इस ओर है कि कम्प्यूटर-तकनीक से हिन्दी की छपाई तो काफ़ी सस्ती और सुलभ हो गई है पर उसमें कई अनियमितताएँ और अड़चनें दिखती हैं। अगर हिन्दी का सर्व-स्वीकृत फांट बनाया जा सके, की-बोर्ड की मुश्किल हट सकें तो क्या ही उपकार हो. ऐसा नहीं है कि इस संबंध में प्रयत्न नहीं हो रहे लेकिन इस और एक सामूहिक प्रयत्न की ज़रूरत हो जिसमें ज़्यादा-से-ज़्यादा हिन्दी को बरतने वाले शामिल हो सकें। इस ओर प्रकाशकों, संपादकों, लेखकों और हिन्दी की प्रकृति को जानने और मानने वाले तक नीक विदों के सामूहिक प्रयास की अपेक्षा है। इस असहमति, अलगाव भरे प्रतिस्पर्द्धी समय में शायद यह अपेक्षा कुछ ज़्यादा है, पर यदि बेहतर तकनीक बेहतर उत्पादन नहीं दे पाती तो उसका क्या लाभ? ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Fri Jan 5 19:35:02 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 5 Jan 2007 19:35:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: hindi aur sammaan Message-ID: <200701051935.02969.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: hindi aur sammaan Date: शुक्रवार 05 जनवरी 2007 18:38 From: Mohan Rana To: undisclosed-recipients:; बंधुवर, आपको भी नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ, स्तंभ अच्छा लगा, भेजते रहें. मुझे लगता है, हिन्दी में बस विभूतियों का जीवन परिचय रह जाएगा दसवीं कक्षा की परीक्षाओं के लिए.. कुछ दिन पहले एक लेखक संघ की बैठक की रपट पढ़ी, उसमें जो प्रस्ताव पारित किए गए पढ़ कर मैं दंग रह गया...सोचने लगा यह लेखकों के हित में काम करने वाला संगठन है या किसी राजनैतिक दल की शाखा.. अंग्रेजी में कहावत है If You Pay Peanuts, You Get Monkeys. एक प्रकाशक से जब मैंने कुछ साल पहले रायल्टी की बात कही तो उनके चेहरे पर एक अचरज का भाव आया... जैसे वह शब्द उन्होंने पहली बार सुना हो.. कर दिया ना खेल खराब मैंने बाद में सोचा, अब अगली किताब छापने में अनाकानी यह प्रकाशक करेगा.. और हालत भी ऐसी है ना, पिछले साल दिल्ली में एक गोष्ठी में जाने का अवसर मुझे मिला... वहाँ जो "साहित्यकार" वो या तो विश्वविद्यालय में हिन्दी का प्राध्यापक/ प्राध्यपिका या कोई सरकारी अधिकारी और साहब हर किसी की किताब प्रकाशक के पास लगी हुई है... कुछ कुछ किसी कल्ब जैसा माहौल वहाँ... और उनके अड़ोसी पड़ोसी तक को पता नहीं कि कोई "साहित्यकार" उनके बीच में हैं... एक पत्रिका के दफ्तर में यह मुझे एक "सीरियस" साहित्यकार ने गंभीर मुद्रा में चेताया कि देखिए क्या स्थिति है! ..'समाज में (हिन्दी)लेखक की उपस्थिति दर्ज ही नहीं कहीं भी..' फिर हम दोनों एक लंबे मौन में ठहर गए, फंसे रह जाते उस मूक अंतराल में, पर सौभाग्यवश तभी उनका सहायक कमरे में चाय ले आया. ऐसा क्यों है कि "सच" को जानकर हमें गुस्सा ही आता है जबकि उसकी तलाश में हम बावले हुए जा रहे हैं. .. यह भी संभव है कि शायद दसवीं कक्षा की हिन्दी परीक्षाएँ हों ही ना, "जॉब" के लिए हिन्दी पढ़ना लिखना आवश्यक थोड़े ही है. वैसे भी ज्यादा सोचने से "हैडएक" हो जाता है. ---------- कुशल से होंगे मोहन Ravikant wrote: --  ================================================================ शुभकामनाओं के साथ हमेशा मोहन MOHAN RANA : http://wordwheel.blogspot.com/ =============================================================== ----------------------------------- From ramannandita at gmail.com Fri Jan 5 23:38:26 2007 From: ramannandita at gmail.com (Nandita Raman) Date: Fri, 5 Jan 2007 23:38:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Happy New Year Message-ID: <007001c730f4$998656a0$1601a8c0@BIJLIBANO> A very Happy New Year! Warm regards, Nandita -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070105/5968cfb2/attachment.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: new year card.pdf Type: application/pdf Size: 55841 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070105/5968cfb2/attachment.pdf From ravikant at sarai.net Mon Jan 8 18:34:45 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 8 Jan 2007 18:34:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Hindi Monthly ' Jan Vikalp' Message-ID: <200701081834.46174.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Hindi Monthly ' Jan Vikalp' Date: सोमवार 08 जनवरी 2007 17:26 From: "Pramod Ranjan" Dear friend, Here is introduced to you a new hindi monthly magazine named 'jan vikalp'. This monthly is against the difference and inequality caused due to Caste, Sex, Religion and is committed for public opposition againt the social evils, discrimination and atrocities on the weaker sections of our society. Please click this link to have a feel of the magazine: http://vikalpmonthly.googlepages.com/ If you endorse this magazine we solicit your help in forwarding this message to your friends who are interested in ideological discourse. Renowned author Premkumar Mani and Young journalist and author Pramod Ranjan are editors of 'Jan Vikalp'. http://vikalpmonthly.googlepages.com/ 'जन िवकल्प' भारत की वंिचत जितयों, समूहों का वैचािरक आन्दोलन है | आगामी अंकों में िविभन्न िवषयों पर िवचारोत्तेजक लेख पढ़ने के िलए 'जन िवकल्प' की सदस्यता लें | सदस्यो को पित्रका हर माह 5 तारीख को डाक से भेजी जाती है| ORKUT COMMUNITY : http://www.orkut.com/Community.aspx?cmm=25211177 http://vikalpmonthly.googlepages.com/ -- जन िवकल्प(मािसक) सामािजक चेतना की वैचािरकी ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 -------------------------- From girindranath at gmail.com Wed Jan 10 20:28:01 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Wed, 10 Jan 2007 20:28:01 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSv4KWL4KSn?= =?utf-8?b?4KWN4KSv4KS+IOCkl+CkvuCkpeCkvi4uLi4uLi4=?= Message-ID: <63309c960701100658t4fdefaf2o91c2be6ee81b76e9@mail.gmail.com> 000अयोध्या गाथा....... दिल्ली की शाम के बारे में क्या कहा जाए खासकर ऐसे मुख से जिसने तंग सड्को पर धुल को उड्ते देखा है,जिसने सुरज के अस्त होते ही लालटेन की रोशनी से रात को निहारा है.उसके लिए तो दिल्ली की शाम सचमुच मर मिट्नेवाली होती है. लेकिन यहा की शाम मे भी वह कभी_कभार अपने शहर की परछाई को देखता है, यह अलग बात है कि वह यह सबकुछ पर्दे पर देखता है. कुछ ऐसा ही देखने मिला इंडिया हैबिटेट के गुलमोहर हाल में. युवा डाक्युमेंट्री फिल्ममेकर वाणी की फिल्म अयोध्या गाथा में अयोध्या की गलियों को काफी सहजता से पेश किया गया. आप या हम जिस अयोध्या कि खबरिया जनाबों के द्वारा देखते या पढते है ठीक विपरीत उसके वाणी ने दिखया. हां यह अलग बात है कि एनडीटीवीवाले ऐसी सच्चाई को दिखाते आये है.मंदिर्-मस्जिद की राजनीति मे फंसीअयोध्या के बासिन्दे को वाणी ने बोलने का मौका दिया...तो सब् गुबार निकल पडे. मेले अट्खेलियां ..रामलला के दर्शन ....मस्जिद के अजान के बीच में भी वहां अब सियासत की बु आ रही. अब गलियो को देखकर कोई यह नही कह सकता है कि तुम्हारे शहर का मौसम बडा सुहाना लगे... इक शाम चुडा लू गर बुरा न लगे.. पुलिस चौकी मे तब्दील हो चुकी अयोध्या के लोग अब परेशान नजर आते हैं. वाणी ने सबकुछ सपाट ढंग से पर्दे पर उतार डाला. वहां के लोगो की दास्तां सुनकर जहन में कुछ्-कुछ होने लगा.फुटेज और प्रतिक्रिया गजब के नजर आयी. शायद यही है अयोध्या गाथा. अपने एक दोस्त की जुबां पेश करुं तो इन सियासती लोगों की बत कह सकुं- गंगा बोली मै सबसे बडी, क्यो कि हर कोई मुझसे निकला. शिव बोले मै सबसे बडा, क्यो कि मेरी जटा से तु निकली. हिमालय बोला मै सबसे बडा, क्योकि मेरेपास तु ठहरा... हनुमान बोले मै सबसे बडा , क्यो कि मै ने तुझे अपने हथेलीपर उठाया संघ के लोग बोले मै ही सबसे बडा,,, आखिर मेरी जेब मे तु सब.. अयोध्या के संग यही कु्छ हो रहा है, मंदर मस्जिद के बीच मे अपनी अयोध्या....... आखिर मस्जिद् तो बना दी शब भर मे इमां की हरारत वालो ने मन अपना पुराना पापी ठहरा बरसो मे नमाज़ी बन न सका... आप मेरे ब्लाग www.anubhaw.blogspot.com का भी चक्कर लगा सकते है... गिरीन्द्र नाथ झा From tripathimrityunjay at gmail.com Thu Jan 11 21:03:05 2007 From: tripathimrityunjay at gmail.com (mrityunjay tripathi) Date: Thu, 11 Jan 2007 21:03:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= yes! Message-ID: are deevano, kya hal chal hain ! saddam ki fanshi ki khabar naye sal ka jalwa hai, nithari uska deshi sanskar, is mahan loktantra ki bhi kuchh katha kahi jaye to behtar. mahmood bhai, aap kahan ho! From chandma1987 at gmail.com Mon Jan 15 15:55:23 2007 From: chandma1987 at gmail.com (chandan sharma) Date: Mon, 15 Jan 2007 15:55:23 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= hamara kaya hai. Message-ID: हमारा क्या है हम तो जो मुर्गेमुर्गियाँ हैं हमें ऐसे मार दो या वैसे मार दो हलाल कर दो या झटके से मार दो चाहो तो बर्ड फ्लू हो जाने के डर से मार दो मार दो जी, जीभरकर मार दो मार दो जी, हज़ारों और लाखों की संख्या में मार दो परेशान मत होना जी, यह मजबूरी है हमारी कि मरने से पहले हम तड़पती ज़रूर हैं. चीख़ती-चिल्लाती ज़रूर हैं चेताती हैं ज़रूर कि लोगों, भेड़-बकरियों और मनुष्यों तुम भी अच्छी तरह सुन लो, समझ लो, जान लो की आज हमें मारा जा रहा है तो कल तुम्हारी बारी आ सकती है अकेले की नहीं लाखों के साथ आ सकती है हम जानती हैं हमारे मारे जाने से क्रांतियाँ नहीं होतीं हम जानती है कि हमारे मारे जाने को मरना तक नहीं माना जाता हम जानती है हम आदमियों के लिए साग-सब्जियाँ है, फल-फ्रूट है हमारे मरने से सिर्फ़ आदमी का खाना कुछ और स्वादिष्ट हो जाता है. हमें मालूम है मुर्गे-मुर्गी होने का मतलब ही है अपने आप नहीं मरना, मारा जाना हमें मालूम है हम मुर्गे-मुर्गी होने का अर्थ नहीं बदल सकते फिर भी हम मुर्गे-मुर्गियाँ है जो कभी किसी कविता, किसी कहानी में प्रकट हो जाते हैं हम मुर्गे-मुर्गियाँ है इसलिए कभी किसी को इस बहाने यह याद आ जाता है कि ऐसा मनुष्यों के साथ भी होता है, फिर-फिर होता है हम मुर्गे-मुर्गियाँ हैं इसलिए हम सुबह कुकड़ू कूँ ज़रूर करते हैं हम अपनी नियति को जानकर भी दाने खाना नहीं छोड़ते हैं कुछ भी, कैसे भी करो मुर्गे-मुर्गियों को आलू बैंगन नहीं समझा जा सकता. विष्णु नागर ए-34, नवभारत टाइम्स आपर्टमेंट्स मयूर विहार, फेज़-1 दिल्ली-110091 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070115/10ea7b07/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Jan 15 16:54:08 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 15 Jan 2007 16:54:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= aaj ke kavi sammelan - I Message-ID: <200701151654.08626.ravikant@sarai.net> dosto, ek aur patan-gatha? shayad. baharhal pesh hai akshar-sangoshthi Aprail-June, 2006 se sabhar aur Chandan ji ko shukriya sahit. vaise hammein se kai log aise kavi sammelnon/mushayron ke gavah rahe hain, tho unpar aapki pratikriya, ya unke tajurbe dilchasp honge. ham yeh poori shrinkhla aapko parhne ka mauqa denge. maze lein ravikant आज के कवि सम्मेलनः कितनी कविता? कैसा मनोरंजन? परिचर्चा पर भूमिका-लेख-1 लक्ष्मीशंकर वाजपेयी, प्रसिद्ध ग़ज़लकार, आकाशवाणी में उपनिदेशक दृश्य 1:- स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में ऐतिहासिक लाल किले में होने वाला देश का सर्वाधिक प्रतिष्ठित कवि सम्मेलन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री एवं जनप्रिय नेता पं. नेहरू अपनी कैबिनेट के सा थ बैठे कविताएँ सुन रहे हैं। यहाँ हर क्षेत्र की नामी गिरामी विशाल जन समूह उमड़ा हुआ है। आमंत्रि त कवियों में है मैथिलीशरण गुप्त, सुमित्रानन्दन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, महादेवी वर्मा, डा. शिव मंगल सिंह सुमन जैसे नाम। ये सभी अपनी श्रेष्ठतम कविताएँ सुना रहे हैं और हज़ारों की संख्या में उपस्थित जनसमुदाय भरपूर आनंदित हो रहा है। दृश्य2:- कानपुर से लगे हुए उन्नाव जिले के एक गाँव में कवि सम्मेलन... (वर्ष 1977 या 78) सुबह के लगभग 4 बजे तक कवि सम्मेलन के तीन चक्र चल चुके हैं। सीमित साधनों से आयोजित इस कवि सम्मेलन में कई प्रतिष्ठित गीतकार सम्मिलित हैं क्योंकि उनका मुख्य सरोकार कवि सम्मेलन के बाद मिलने वाला 'लिफ़ाफ़ा' न होकर कविता को आम लोगों तक पहुँचाने का मिशन है। दूर-दूर के गाँवों से बैलगाड़ियों से चल कर यहाँ लोग पूरी उत्सवधर्मिता के साथ आए हैं और रातभर एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ रचनाओं का पाठ हुआ है। इस कवि सम्मेलन में दो हास्य कवि भी हैं। उनमें से एक रमई काका हमारे मन में बस जाइये क्योंकि- 'सांवले है आप / काला है हमारा मन / ऐसी बैक ग्राउंड भला / और कहां पाओगे...' रमई काका ने चार-चार चक्रों में श्रोताओं को भरपूर हंसाया है लेकिन एक भी चुटकला नहीं सुनाया हैं, ऊलजलूल फिकरे नहीं कसे हैं, किस्से नहीं गढ़े हैं, कहीं भी फूहड़ता या भौंडे मजाक का सहारा नहीं लिया है। हास्य का आधार रहा है गहरा व्यंग्य, विसंगितियों पर कटाक्ष तथा जीवन की वे परिस्थितियाँ जो हास्य को जन्म देती हैं। दृश्य 3:- घनघोर आपातकाल चल रहा है। (1975-77) सवा लाख विरोधी नेता जेल में हैं। पुलिसिया ज़्यादतियों के सही-गलत किस्से अदृश्य सूचना तंत्र के माध्यम से लोगों तक पहुँच जाते हैं। जनता में बेहद आक्रोश उफन रहा है पर खुलकर आवाज़ उठाने का साहस करना आफ़त को न्यौता देना है। ऐसे भयावह वातावरण में आयोजित कवि सम्मेलन में कानपुर के आज के कवि सुमन दुबे की घन गरज आवाज़ में कविता की पंक्तियाँ गूँज रही हैं और मेले आयोजित इस कवि सम्मेलन में 20-25हज़ार का जन समूह गगन भेदी तालियों से आकाश गुंजा रहा है ... भौंरे को पूरी आज़ादी / वह तो मधुऋतु का बेटा है / दो दिन हुए चमन में आए / फूलों के सर पर बैठा है / चारों और यही चर्चा है / यह तो काल का कर्णधार है / माली तक स्वागत करता है / कलियों का बेहद दुलार है... कवि सम्मेलन में नेता भी हैं, कमिश्नर, कलेक्टर, आई.जी., डी.आई.जी., पुलिस भी; पर 'मधुऋत कवि ता' पर कौन सी दफ़ा लग सकती है। कुछ अन्य कवि भी इसी तरह बेख़ौफ प्रतीकों के माध्यम से जनता के आक्रोश को स्वर दे रहे हैं यही तो कविता भी सार्थकता है, कवि सम्मेलनों की प्रांसगिकता है...। दृश्य 4:- (लगभग 1990 के बाद का समय) ऐतिहासिक लाल किले का कवि सम्मेलन ...। लाल किले की ऐतिहासिकता तो बरकरार है किंतु इस कवि सम्मेलन की प्रतिष्ठा प्रश्नों के घेरे में है। पवित्र स्वाधीनता दिवस या गणतन्त्र दिवस जैसे राष्ट्रीय पर्व पर आयोजित इस 'राष्ट्रीय' कवि सम्मेलन में एक भी ऐसा कवि नहीं है जो साहित्य में प्रतिष्ठित हो और 'प्रतिष्ठित या स्थापित' तो छोड़िए, साहित्य में जिसका नाम भी लिया जाता हो। वह कवि जो मुख्यधारा के कवि हैं जिन्हें ज्ञानपीठ या साहित्य अकादमी सम्मान मिला है उन्हें यदि आमंत्रित भी कर लिया जाए तो शयद ही वे इसमें आना चाहेंगे। पूरे कवि सम्मेलन में थोक में आमंत्रित किए गए तथाकथित कवियों में अपवाद के तौर पर एक दो ऐसे गीतकार हैं जिनके काव्य संग्रह प्रकाशित हैं अथवा जिनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती हैं अन्यथा देश में 'गीत' अथवा 'नवगीत' श्रेष्ठतम नाम यहाँ नहीं हैं। गीतकारों के नाम पर प्रायः ऐसे गीतकार काव्यपाठ कर रहे हैं जो या तो एक पड़ोसी देश की नाक तोड़ने/आँख फोड़ने जैसे फड़कते युद्धगीत दहाड़-दहाड़ कर सुना रहे हैं अथवा फ़िल्मी अंदाज़ के ऐसे रोमांटिक गीत जो तालियाँ तो बटोर लेते हैं पर उनका स्तर आनंद बक्षी के गीतों से भी नीचे ही रहता है। मंच पर हास्य के नाम पर फूहड़, अश्लील, भौंडी तुकबंदियाँ करने वालों की भरमार है। काव्यपाठ का तीन चौथाई वक़्त चुटकलेबाज़ी या जोकरी में गंवाने के बाद वे रचना के नाम पर कुछ पुरानी घिसीपिटी तुकबंदियाँ पेश कर रहे हैं। दृश्य 5:- दिल्ली की एक प्रमुख दशहरा समिति के अध्यक्ष दशहरे के दूसरे दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम करना चाहते हैं एवं कवि सम्मेलन उन्हें सबसे अच्छा विकल्प लग रहा है। जिस कवि से उन्होंने संपर्क सा धा है वह उन्हें दशहरे एवं दशहरा समिति के महत्व को देखते हुए, स्तरीय कवि सम्मेलन करने एवं श्रेष्ठ गीतकारों, व्यंग्यकारों को आमंत्रित करने का सुझाव देता है। किंतु अध्यक्ष जी चाहते हैं, एक दो गी तकार बेशक बुला लीजिए किंतु 4-5 हास्य कवियों को अवश्य बुलाइए। इसका प्रचार भी वे 'हास्य कवि सम्मेलन' के रूप में करना चाहते हैं। अध्यक्ष जी की दृढ़ मान्यता है कि 'कवि सम्मेलन' से बात बनेगी नहीं, 'हास्य कवि सम्मेलन' के नाम पर बहुत भीड़ जुटेगी। दृश्य 6:- देश की एक प्रतिष्ठत संस्था ने हिन्दी दिवस के संदर्भ में 'हास्य कवि सम्मेलन' के आयोजन का जोर शोर से प्रचार किया है। बहुत सारे पोस्टर छपवाए गए हैं। आठ कवियों में से चार हास्य के हैं तथा बाकी गीत एवं ओज आदि के हैं। इस कवि सम्मेलन के संयोजक की भी यही मान्यता है कि 'हास्य कवि सम्मेलन' के नाम से ही लोग जुट पाएँगे। इन दृश्यों के माध्यम से कुछ बातें तो आसानी से स्पष्ट हो ही गई होंगी कि कैसे कवि सम्मेलनों में हज़ारों लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती थी। (और ऐसा पूरे विश्व में सिर्फ़ भारत में ही होता है कि इतने विराट जन समूह में कविता सीधी सम्प्रेषित हो)। कैसे देश के श्रेष्ठतम कवि अपनी श्रेष्ठतम रचनाएँ सुनाते थे। तब क्या हज़ारों लोगों का मनोरंजन नहीं होता था? क्या वे सब के सब जानबूझकर 'बोर' होने के लिए कष्ट उठाकर, दूर-दूर से आकर, रात-रात भर जागकर कवि सम्मेलन सुनने आते थे? तब से अब साक्षरता का स्तर बहुत बढ़ गया है। हिन्दी के अख़बार एवं पत्रिकाओं की संख्या बढ़ी है। हिन्दी में प्रकाशित होने वाली किताबों की संख्या बढ़ी है। फिर ऐसा क्यों हुआ कि हिन्दी कविता का स्तर इतना गिर गया? अब मंच सज्जा इतनी भव्य एवं आकर्षण होती है, श्रोताओं की भीड़ भी भरपूर होती है लेकिन कवि सम्मेलन में यदि कुछ नहीं होता तो वह है 'कविता'। 30-40 वर्ष पहले किसी कवि के पास कविता कमज़ोर होती थी तो कवि सम्मेलन के मंच पर जाते हुए उसके हाथ पांव कांपते थे लेकिन अब स्थिति यह है कि जिसके पास अच्छी कविता होती है उसके मंच पर जाने में हाथ पांव फूलते हैं। अब मंचों पर ऐसे कवियों की एक पूरी जमात हावी हो गई है जिनका हिन्दी साहित्य तो छेड़िए, हिन्दी कविता या हिन्दी कविता की परम्परा से भी कोई नाता-रिश्ता नहीं है। ये सिर्फ़ 'शब्दों की चा ट' परोसकर तुरंत ताली बटोरने की कला में पारंगत हैं। इनका बस एक मात्र उद्देश्य है अधिक से अधि क ताली बटोरना। इन्हें अपनी कविता पर भरोसा नहीं होता तभी ये हर पांच दस सेकंड बाद भीख मांग, गिड़गिड़ा कर तालियाँ बजाने की फ़रमाइश करते हैं। ठीक इस तरह जैसे बन्दर भालू का खेल दिखाने वाले मदारी या बाजीगर मिनट-मिनट पर बच्चों से ताली बजवाते रहते हैं। जैसे एक फ़ार्मूला फ़िल्म का निर्माता एक ‘मसाला फ़िल्म' तैयार करता है जिसमें थौड़ा प्यार, थोड़ी मारधाड़, थोड़ा सेक्स, थोड़ी सी भावुकता, थोड़ी सी कॉमेडी आदि हो, कवि सम्मेलनी कवि भी 'मसाला कविताएँ' तैयार करते हैं। थोड़ी सी देश भक्ति, थोड़ी सा रोमांस, थोड़ा सा आक्रो श... श्रोताओं की भआवुकता का ठीक उसी प्रकार शोषण या कि ‘इमोशनल ब्लैकमेल' जिस तरह कुछ घटिया टीवी सीरियल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए करते हैं। ‘कोढ़ में खाज़' की स्थिति ये है कि टीवी चैनल ऐसी ही कविता को प्रचार-प्रसार दे रहे हैं। यही कविता देश के बाहर जाती है। शर्मनाक स्थिति तब बनती है जब लन्दन में एक पाकिस्तानी विद्वान बड़े आश्चर्य से सवाल करते हैं कि क्या सचमुच यही हिन्दी कविता लिखी जा रही है भारत में? कई दूसरी भाषाओं के साहित्यकार भी यही जिज्ञासा प्रकट कर देते हैं कि हिन्दी में अब ऐसी कविताएँ लिखी जा रही हैं? आख़िर उन्हें टीवी चैनलों के माध्यम से कवि सम्मेलनी घटिया कविता का चेहरा ही देखने को मिल पा ता है। लगभग 20 वर्ष पहले लोकप्रिय पत्रिका 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' ने कवि सम्मेलनों में आ रही गिरावट पर आमुख कथा छापी थी - कवि सम्मेलन या कांव-कांव सम्मेलन! तब तक कवि सम्मेलनों में सांड़-सूंड, भोंपू, बौडाम, कुल्हड, सनकी, डंठल आदि भौंडे उपनाम वाले हास्य कवियों का उदय हो चुका था। कवि सम्मेलनों की संख्या भी काफ़ी बढ़ी गई थी। कवि सम्मेलन ग़ैर हिन्दी भाषी प्रान्तों में भी होने लगे थे। वहाँ हिन्दी अधिक न समझने के कारण, हल्की-फुल्की हास्य कविताएँ समझ पाना आसान था। बस इसी का लाभ हास्य कवियों ने उठाया। ग़ैर हिन्दी भाषी प्रान्तों में, कवि सम्मेलनों में पारिश्रमि क, हिन्दी प्रदेशों की तुलना में कई गुना मिलता था इसलिए हास्य कवि खूब रकम बटोरने लगे तथा कई कवि सम्मेलनों के संयोजक भी बन गए। पहले कवि सम्मेलनों में गीतकारों या वीर रस के कवियों की ही अधिकता रहती थी, हास्यकवि एक या दो बुलाये जाते थे ताकि रस परिवर्तन हो सके तथा जनता को गंभीर कविताओं के बीच थोड़ा सा हँसने का भी अवसर मिल जाए। यह बात ठीक उस दौर की गम्भीर हिन्दी फ़िल्मों की तरह थी जिनमें जॉनी वाकर या महमूद का होना अनिवार्य सा होता था। जैसे-जैसे कवि सम्मेलनों की लोकप्रियता बढ़ती गई, उसमें पारिश्रमिक बढ़ता या वैसे-वैसे ही उसमें नकली या बनावटी कवियों का प्रवेश होता गया। स्थिति बिगड़ते-बिगड़ते यहाँ तक आ पहुँची है कि अब तो 'कवि सम्मेलन' का नाम तक ख़तरे में आ गया है जैसाकि आपने दृश्य 5एवं 6 में देखा है। अभी गोपालदास नीरज जैसे एक दो नाम हैं जिन्हें 50-60 वर्षों की लोकप्रियता (और फ़िल्म गीतकार के अतिरिक्त ग्लैमर) के कारण बुला लिया जाता है। सचमुच के गीतकार, कवि सम्मेलनों में 'विलुप्त प्राणि यों' की प्रजाति में शामिल होते जा रहे हैं। अनेक गीतकारों ने कवि सम्मेलनों को या तो अलविदा कह दिया अथवा बाज़ार के दबाव में हास्य व्यंग्य में दलबदल कर दिया। हाँ, कच्ची भावुकता परोसने वाले अथवा गलेबाजी करने वाले कुछ गीतकार हास्य कवि सम्मेलनों में शायद अतिथि रूप में रस परि वर्तन के लिए बुलाए जाते रहें। कवि सम्मेलनी कविता के पतन की चर्चा करते हुए स्मरण आवश्यक है कि कवि सम्मेलन का मंच एक पवित्र सांस्कृतिक मंच है। इसी मंच पर हमारे देश के महान कवि शोभायमान होते थे। 1965 एवं 1971 के युद्ध के समय इसी कवि सम्मेलन के मंच से दिनकर की वाणी जोश जगाती थी। देवराज दिनेश की 'भारत माँ की लोरी' पूरे देश को आश्वस्ति देती थी। इन्हीं मंचों पर कभी 'राम की जल समाधि' जैसी अति गंभीर रचनाएँ पढ़ी जाती थीं और हज़ारों आँखें नम हो जाती थीं। हमें यह भी स्मरण करना आवश्यक है कि दिल्ली में नादिरशाह के क़त्लेआम को, आख़िर उसके साथ आए शायर का एक शेर ही रोक पाया था। किसी भी क्षेत्र में कैसा भी पतन हो उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने, अलख जगाने का दायित्व कविता का ही है। इसीलिए कविता को मनुष्य की आख़िरी उम्मीद भी कहा गया है। यदि कविता ही नहीं बची, तो फिर बचेगा क्या? From ravikant at sarai.net Tue Jan 16 13:17:42 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 16 Jan 2007 13:17:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Announcing: The 2007 Sarai-CSDS Independent Fellowship Projects Message-ID: <200701161317.43194.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Urbanstudy] Announcing: The 2007 Sarai-CSDS Independent Fellowship Projects Date: मंगलवार 16 जनवरी 2007 02:53 From: Vivek Narayanan To: reader-list at sarai.net, commons-law at sarai.net, urbanstudygroup at sarai.net SELECTED SARAI-CSDS INDEPENDENT FELLOWSHIP PROPOSALS: 2007 (list is alphabetical by last name; please enable Unicode on your computer to read the Devanagiri fonts) Priya Babu, Chennai. Performance in the Aravani (Transgender) Community in Tamilnadu Dwaipayan Banerjee, Delhi. Towards A Postcolonial Code Smita Banerjee, Delhi. Cinematic City: A Study of 1950s and 1960s Popular Bangla Cinema Julius Basaiawmoit & Renee C. Lulam, Shillong. The Changing Faces of Democratic Spaces in Urban Cosmopolitan Shillong Mithun Narayan Bose, Kolkata. Tracing Life from the Stroke: Documenting the Rickshaw-Painting of Kolkata Streets Pritham Chakravarty, Chennai. Urban Sabha Dramas Arnab Chatterjee, Kolkata. Beyond Private and Public: New Perspectives on Personal and Personalist Social Work Neelima Chauhan, Delhi: ब्लॉगित हिन्दी जाति का लिंकित मन: ब्लॉगों में हिन्दी हायपरटेक्स्ट का अध्ययन (“The Linked Mind of the Blogged Hindi Jati: A Hypertextual Study of Hindi Blogs”) Raman Jit Singh Chima, Bangalore. The Regulation of the Internet by the Indian State through Legal Structures and Mechanisms Burton Cleetus, Delhi. Urbanisation, Western Medicine and Modernity: The Rockefeller Foundation in Travancore Ajit Kr. Dvivedi, Delhi. मीडिया की नज़र में सीलिंग बनाम पुश्ते का विस्थापन ("Media Study: Comparative Reporting on Ceilings and Displacement from Jamuna Pushta”) Anuja Ghoshalkar, Mumbai. Papa Aajoba. Ranu Ghosh, Kolkata. The Changing Industrial Landscape of Kolkata: Jay Engineering Works Sukanya Ghosh, Mumbai. Animation and the Development Ideal: The Idea of Nation, the Socialist Impetus and Animation Film Design in India Rajeev Ranjan Giri, Delhi. सरस्वती की सार्वजनिक दुनिया (“The Public World of the Journal Saraswati, 1900-1920”) M.S. Harilal, Thiruvananthapuram. Adopting Modernisation, Negotiating Modernisation: Modern and Traditional Ayurvedic Sectors in the Context of Transformation Zaigham Imam, Delhi/Allahabad: सपनों की रेल (“Railways of Dreams”) Santana Issar & Aditi Saraf, Delhi. Old Dog, New Tricks: Rethinking Animal Activism in an Urban Context Vivek Kumar Jain, Delhi. दिल्ली विश्वविद्यालय के रेहड़ी खोमचेवालों का ज़िन्दगीनामा (“A Study of Social and Cultural Spaces on the DU Campus”) Deepak Kadyan, Delhi. Popular Musical Traditions and the Configuration of Jat Identity in Haryana Ram Ganesh Kamatham, Bangalore. Vikram and Vetal: A Contemporary Urban Play Shahnawaz Khan, Srinagar. 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Imphalwood: Digital Revolution and the Death of Celluloid -- Vivek Narayanan Sarai: The New Media Initiative Centre for the Study of Developing Societies 29 Rajpur Road Delhi 110 054 _______________________________________________ Urbanstudygroup mailing list Urban Study Group: Reading the South Asian City To subscribe or browse the Urban Study Group archives, please visit https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/urbanstudygroup ---------------------------------------------- From girindranath at gmail.com Tue Jan 16 14:10:31 2007 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Tue, 16 Jan 2007 14:10:31 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KS+4KSv4KSm?= =?utf-8?b?IOCkueCkv+CkqOCljeCkpuClgCDgpKzgpY3gpLLgpL7gpJfgpLDgpYsg?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkpuClgeCkqOCkv+Ckr+CkviDgpIXgpK3gpYAg4KSU4KSw?= =?utf-8?b?IOCkieCkguCkmuCkvuCkiOCkr+CliyDgpJXgpYsg4KSb4KWB4KSQ4KSX?= =?utf-8?b?4KWALg==?= Message-ID: <63309c960701160040y7826e8b6g6587b88165deb79c@mail.gmail.com> हिन्दी ब्लागरो को लेकर कई बातें सामने आ रही है, दर असल कुछ दिन पहले तक ब्लाग वर्ल्ड मे हिन्दी की पहचान काफी कम थी. लोग बाग इस दुनिया पुरी तरह परिचीत नही हो पाए थे.लेकिन आज कल स्थिती बदल चुकी है. ब्लागरो की दुनिया में हिन्दी का प्रवेश तेज गति से हो रहा है.लोग जमकर पोस्टींग कर रहे हैं.हिन्दी से जुडे क ई ग्रुप इस ओर काम कर रहे हैं. विभिन्न विषयो पर ब्लागरो के बेबाक राय पढ कर हर कोई आनंदित हो सकता है. फोटो से लेकर रिर्पोटो को पढकर आप यह कह सकते है कि मीडिया का यह रुप जबरद्स्त है. खासकर मीडिया से जुडे ब्लागर अपनी बात को काफी मजेदार ढंग से पेश कर रहे है. वही हिन्दी साहित्य से जुडे ब्लाग भी काफी रोचक है. कविता-कहानियो का भंडार यहां देखने और पढ्ने को मिल रहा है,इसी बहाने कई नये कवि,कथाकार और स्केच लेखक सामने आ रहे है. छोटे शहरो के कई ब्लागर जमकर ब्लागिंग कर रहे है. हिन्दी पट्टी के रांची,पट्ना.भोपाल्,जमशेदपुर ,जबलपुर आदि जगहो के ब्लागरो की उपस्थिती भी काफी उत्साह वर्धक है. ब्लागरो को मिलने वाले कामेंट उन्हे लिख्नने के लिए आगे बढाते है.ब्लाग वर्ल्ड मे ऐसे भी हिन्दी ब्लागर है जो छोटे शहरो की कई दबी बातो को उठा रहे है. शायद ब्लागरो की दुनिया अभी और उंचाईयो को छुऐगी. गिरीन्द्र नाथ झा www.anubhaw.blogspot.com From ravikant at sarai.net Wed Jan 17 12:21:38 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 17 Jan 2007 12:21:38 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpIngpLA=?= =?utf-8?b?4KWN4KSm4KWCLeCknOCkl+CkpC/gpK7gpYHgpLbgpLDgpY3gpLDgpKvgpLwg?= =?utf-8?b?4KSG4KSy4KSuIOCknOCkvOCljOCkleClgA==?= Message-ID: <200701171221.38824.ravikant@sarai.net> परिकथा : सितंबर-अक्टूबर, 2006, से साभार, चंदन जी को सधन्यवाद. रविकान्त ------ उर्दू-जगत बा अदब बा-मुलाहिज़ा मुशर्रफ़ आलम ज़ौकी ये साल उर्दू के लिए बदनसीबी का साल रहा। कितनी ही बड़ी हस्तियाँ इस जहान से रुख़सत हो गईं, ‘गड़रिया’ वाले अशफ़ाक़ अहमद चले गए तो ऐसा लगा, मंटो के बाद उर्दू अफ़साने की दुनिया एक बार फिर वीरान हो गई हो। मज़े-मज़े की बातें करने वाले मुशफ़िक़ ख़ाज़ा ने भी दुनिया को अपना आख़िरी सलाम कह दिया। बरसों से बीमार चले आ रहे अहमद नदीम क़ासमी ने भी हमेशा के लिए अपनी आँखें बन्द कर लीं, कहते हैं, जाने वाले कभी नहीं आते जाने वालों की याद आती है लेकिन मेरी समझ में एक बात कभी नहीं आई। जो दुनिया छोड़ कर चले गए, उनके बारे में सिर्फ़ अच्छा क्यों लिखा जाता है। मेरे ख़्याल से जो ज़िंदा हैं, वो ज़्यादा 'दाद' के मुस्तहक़ हैं। क्योंकि वो ऐसे आलम में ज़िंदा हैं, जहाँ दहशतपसंदी है, भेदभाव है, एड्स है, भ्रूण-हत्याएँ हैं और एक-दूसरे की जान लेता हुआ इंसान है। अहमद नदीम क़ासमी चले गए। हिन्दुस्तान से पाकिस्तान तक उन पर लिखे जाने वाले तारीख़ी मज़ामीन की भीड़ लग गई वो बड़े अदी ब, बड़े शायर थे, इसमें कोई शक नहीं। मगर क़ासमी की कलम ने कभी भी हिन्दुस्तान को अच्छे लफ़्ज़ों में याद नहीं किया। क़ासमी उन लोगों में थे जो शायद, वजह कोई भी रही हो, मगर हिन्दुस्तान का बँटवारा या अपना अलग पाकिस्तान चाहते थे और तक़्सीम के बाद भी अपने अदब में इसी नज़रिए की परवरिश करते रहे। यही वजह है कि पार्टीशन के बाद का ‘क़ासमी’ मुझे पसन्द नहीं आया। बहुत अच्छा लिखने के बावजूद। अपनी उम्र के आख़िरी बरसों में वो एक उपन्यास लिख रहे थे यह उपन्यास (शायद ही पहली या दूसरी क़िस्त) उनकी मशहूर पत्रिका फ़ुनून में छपनी भी शुरू हुई थी कि उनकी मौत का परवाना आ गया। दिलचस्प यह है कि यह उपन्यास भी हिन्दो-पाक में होने वाली दो बड़ी जंगों पर आधारित था। शुरू की क़िस्तों में जो कहानी की फ़िज़ा क़ासमी ने बुनी थी, ऐसी कला त्मक 'बुनत' तो हमारे यहाँ भी किसी के पास नहीं है। न बिज्जी, न कृष्णा सोबती, न निर्मल वर्मा। क़ासमी ग़ज़ब के ख़िलाड़ी थे, मगर पूरे पाकिस्तानी। ऐसा पाकिस्तानी, जिसके दिल में हिन्दुस्तान के लिए कोई जगह न थी और यह बात सिर्फ़ क़ासमी पर लागू नहीं होती। इंतज़ार हुसैन या अहमद फ़राज़ भी जब पाकिस्तानी मीडिया के सामने होते हैं तो हिन्दुस्तान के ख़िलाफ़ बोलते हुए उनकी ज़बान मिर्ची से भी ज़्यादा तेज़ हो जाती है। मैंने आज तक किसी हिन्दी या उर्दू कलमकार को कश्मीर के मुद्दे पर बोलते हुए नहीं सुना। मगर पाकिस्तान में यह वबा आम है। कश्मीर की बात करते हुए कलमकार ‘एकदम’ पाकिस्तानी या सांप्रदायिक बन जाता है। ख़ुद मैंने कई बार क़ासमी की कलम को भी घोर पाकिस्तानी महसूस करते हुए कई बार सोचा कि हिन्दुस्तानी और पाकिस्तानी लेखकों में इतना बड़ा अंतर कैसे? और मुझे जवाब भी मिल गया। हमारे देश की राजनीति जैसी भी हो, हमारा साहित्य जो मुल्कों की राजनीति से अलग रहा है। उर्दू से ज़्यादा लिबरल चरित्र इस मामले में हिन्दी ने अदा किया है। एक सेक्यूलर और जम्हूरी चरित्र। कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो हमने पाकिस्तानी की ओर साहित्यिक दा यरे में बँधते हुए, कभी पत्थर उछालने की भूल नहीं की है। पाकिस्तान के ऩये रचनाकारों में भी यह तेवर नहीं है। वहीद अहमद, से लेकर नासिर और अली मुहम्मद फर्शी तक, मगर कल तक 'पार्टीशन' की यह दीवार कम अज कम पाकिस्तानी साहित्यकारों के साहित्य में मज़बूती से खड़ी थी। हम अहमद नदीम क़ासमी की मृत्यु को साहित्य के लिए एक बहुत बड़ा 'ख़ला' मानते हैं यह केवल साहित्य नहीं, एक पूरी तहज़ीब के चले जाने जैसा है। अपने आरंभिक दिनों में क़ासमी ने मंटो को कभी नहीं माना। उनके प्रकाशित पत्र भी मंटो के लिए उनकी नाराज़गी या झल्लाहट को ही बयान करते थे। मगर यहाँ श्रद्धांजलि के तौर पर हम उनकी अंतिम तहरीर पाठकों के समक्ष रख रहे हैं। इंतक़ाल के पचास बरस बाद मंटो ज़िंदा हो गया रेडियो पाकिस्तान से मंटो का अफ़साना ‘नया क़ानून’ सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया कि ये वही हमा री कौमी रेड़ियो सर्विस है जिसने अपने यहाँ मंटो की रचनाओं को बन्द कर रखा था। क़यामे-पाकिस्तान के बाद जब मंटो लाहौर गया तो उसे विश्वास था कि उसकी साहित्यिक ख़िदमत में कोई कमी नहीं होगी। लेकिन इस ख़ुशफ़हमी का अन्त होते देर न लगी। मैं उन दिनों पेशावर रेड़ियो स्टेशन से स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर जुड़ा था। मंटो ने मुझे सूचना दी कि वो अपने एक दोस्त के साथ एक काम के सिलसिले में पाकिस्तान आ रहा है और वो मेरे यहाँ ठहरेगा। मेरे लिए ये सूचना प्रसन्नतापूर्ण थी। फिर उन दिनों मैं एक बंगले के दो कमरों में रहता था जिसमें शायद एक दर्जन कमरे थे जिसके लॉन कई ‘कनाल’ पर फैले हुए थे। मैंने मंटो और उसकी पत्नी के लिए एक कमरे को ख़ूब सजाया । जब मंटो आया तो अपना कमरा देखकर हैरत में रह गया। वो मेरे यहाँ तीन दिन तक रुका। उसके सा थ जो साहब थे, वो अमृतसर के एक बड़े ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और उन्हें यकीन था कि वो पेशावर का एक सिनेमा हॉल अपने और मंटो के नाम अलाट करा लेंगे। अगर वो कामयाब हो जाता तो मंटो की जिंदगी का रंग बदल गया होता। लेकिन मंटो का क़याम पेशावर में ज़्यादा दिनों तक नहीं रहा। मंटो जब तक मेरे यहाँ रहा, प्रतिदिन मेरे साथ रेडियो स्टोशन जाता रहा। वहाँ सज्जाद सरवर नेयाज़ी, नून मीम राशिद, चौधरी इक़बाल, सैयद अंसार नासिरी आदि के साथ दिलचस्प गुफ़्तुगू रहती। राशिद से दिल्ली के दिनों में उनका ताल्लुक दोस्ती में न बदल सका क्योंकि मंटो राशिद को हमेशा छेड़ते रहते थे लेकिन पेशावर में उनकी गुफ़्तुगू ‘शान्तिपूर्ण’ रही। सज्जाद सरवर नेयाजी साहब स्टेशन डायरेक्टर थे। उन्होंने मंटो की रचना भी रेकार्ड की और उसका मुआवज़ा भी अदा किया। पेशावर के लोगों ने भी मंटो का स्वागत किया लेकिन दुख की बात यह है कि मंटो का क़याम पेशावर में कुछ ही दिनों तक रहा। वापस लाहौर आकर उसने रोज़ी-रोटी के सिलसिले में काफ़ी मेहनत की लेकिन ‘अश्लील लेखक मंटो’ किसी भी मरहले में सफल न हो सका। मैं भी 1948 में पेशावर छोड़ कर लाहौर आ गया और मंटो से करीब-करीब रोज़ाना मुलाक़ात रही। लेकिन मैं भी उसी की तरह बेरोज़गार था। एक बेरोज़गार दूसरे बेरोज़गार की क्या मदद करता उन्हीं दिनों मर्कज़ी हुकूमत के वजीर इत्तलाआत व नशरियात और प्रसि द्ध लेखक एस.एम.एकराम साहब लाहौर आए और जनाब हफ़ीज़ होशियारपुरी को, जो स्टेशन डायरेक्टर या असिस्टेंट डायरेक्टर थे, मेरे पास भेजा कि शाम की चाय मेरे साथ पियो। मुझे आश्चर्च अवश्य हुआ लेकिन पैग़ाम लाने वाले मेरे दोस्त और मशहूर शायर हफीज़ होशियारपुरी थे। और निमत्रण देने वाले अनेक श्रेष्ठ ऐतिहासिक पुस्तकों के लेखक थे। मैं हाज़िर हुआ तो एकराम साहब बड़ी मुहब्बत से मिले। मुझे इस मुहब्बत पर कुछ आश्चर्य भी हुआ कि मुझको तो दूसरे बहुत से लेखकों के साथ उनके विभाग ‘बैन’ कर रखा था। उन्होंने गुफ़्तुगू का आग़ाज़ ही इस बात से किया कि मेरे सम्मान में मुझ पर से पाबन्दी हटा रहे हैं तो वो बोले, ‘‘नहीं, केवल आप पर है।’’ मैं उठ खड़ा हुआ और अर्ज़ किया कि आप जैसे विद्वान व्यक्ति से मुझे इस तरह की पेशकश की आशा नहीं थी कि मैं दूसरे सब लोगों पर पाबन्दी गवारा कर लूँ और स्वयं आपकी पेशकश से फ़ायदा उठाऊँ। मैं अपने दोस्तों को धोखा देने के बारे में सोच भी नहीं सकता जबकि मेरे दोस्तों में सआदत हसन मंटो से महान रचनाकार भी मौजूद हैं। मैं ये कहकर वहाँ चला आया। बाद में हफीज़ साहब से इस ज़्यादती का शिकवा किया तो उन्होंने क़समें खाकर बताया कि उन्हें एकरा म साहब के प्रोग्राम का पता नहीं था। नवंबर 1949 में जो ‘कुल पाकिस्तान तरक्की पसंद मुसन्नफ़ीन कांफ्रेंस’ हुई उसमें एक ऐसा प्रस्ताव भी प्रस्तुत किया गया जो मेरे आतिरिक्त मेरे दोस्त इब्राहीम जलीस के नज़दीक भी ग़लत और नुक़सानदेह था लेकिन मैं सेक्रेटरी जनरल होते हुए भी यह प्रस्ताव रुकवा ना सका और इस प्रस्ताव ने तरक्कीपंसद साहित्य की तहरीक को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया। इस प्रस्ताव के अनुसार मंटो, राशिद और क़ुर्रतलएन हैदर आदि को तरक्की पसंद पत्रिकाओं ने छापना ज़ुर्म क़रार दिया गया था। इस स्थिति के कारण मंटो मुझसे बहुत ही ख़फ़ा रहा लेकिन इसके बावजूद हमारी दोस्ती बनी रही और ये मंटो की महानता का सबूत है। मैंने बाद में संस्था की सभी शाखाओं से इस प्रस्ताव के बारे में पूछा। सबने इसके ख़िलाफ़ राय दी। 1951 में मुझे बहुत से साथियों के साथ जेल भेज दिया गया। लेकिन जब 1951 के अन्त में रिहा हुआ तो कराची में एक और ‘कुल पाकिस्तान तरक्की पसंद मुसन्नफ़ीन कांफ्रेंस’ करने का प्रोग्राम बनाया और फिर 1952 में ये कांफ्रेंस हुई। तीन अधिवेशन हुए। पहले अधिवेशन की अध्यक्षता डॉ. मौलवी अब्दुलहक़ ने की। जब मैंने ये विवादपूर्ण प्रस्ताव क्षमा याचना के साथ लोगों की मौजूदगी में वापस लिया तो बाबए-उर्दू ने अपने भाषण में कहा कि ये पहली संस्था है जो आम लोगों के सामने अपनी कमियों को तस्लीम कर रही है और ये बड़ी बात है दूसरे दो अधिवेशनों में से एक की अध्यक्षता मौलाना अबुदल मजीद सालिक ने की थी और अंतिम अधिवेशन की अध्यक्षता पीर हसामुद्दीन राशिदी ने की। लेकिन 1951 के आरंभ में जो रावलपिंडी साजिश-केस का क़िस्सा चला था और पश्चिमी एवं पूर्वी पाकिस्तान में दर्जनों रचनाकारों को नज़रबन्द कर दिया गया था तो धीरे-धीरे दोस्तों ने संस्था की कार्रवाइयों में दिलचस्पी लेना बन्द कर दी और संस्था बुझकर रह गई। लेकिन जब मैंने 1954 में इसके सबसे बड़े पद से इस्तीफ़ा दिया तो अपने इस्तीफ़े में स्पष्ट रूप से कहा था कि यदि कोई दूसरे लोग इस संस्था को संभालने के लिए आगे बढ़ें तो मैं स्वेच्छा सेवक के तौर पर उनका भरपूर सहयोग करूँगा लेकिन दुख है कि कोई भी आगे न आया। 1953 में मुझे दैनिक ‘इमरोज़’ की ज़िम्मेदारी सौंपी गई। इस बीच मंटो, अस्करी साहब ने मिलकर एक पत्रिका भी निकाल चुके थे जिसमें युसूफ़ ज़फ़र (स्वर्गीय) ने मुझे ‘जी’ खोलकर बुरा भला कहा था, लेकिन जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ, मंटो से मेरी दोस्ती पूरी शिद्दत से क़ायम रही। इस बीच मैंने ‘मंटो के नाम एक खुली चिट्ठी’ पत्रिका ‘संगमेल’ (पेशावर) में छपवाया। मैंने मंटो को चेतावनी दी कि अस्करी साहब के साथ आपका याराना बढ़ रहा है और मुझे ख़तरा है कि वो फ्रांस के ‘ज़वाल पसंद’ साहित्यकारों के प्रभाव को मंटो के ज़ेहन में प्रेवश कर दें। तब मंटो मेरे पास आया और बहुत ही गुस्से में कहा कि तुमने मेरे नाम खुली चिट्ठी लिखी है। अब मैं तुम्हारे नाम ‘बन्द चिट्ठी’ लिखूँगा। मैंने कहा, ज़रूर लिखिए। लेकिन आपने मेरी चिट्ठी पढ़ी भी है। मंटो ने बताया कि चिट्ठी उसकी नज़र से तो नहीं गुज़री। लेकिन इशके बारे में लोगों ने बताया है। मैं वो पत्रिका ले आया जिसमें वो चिट्ठी थी। मैंने कहा कि इसे पढ़ लीजिए। यदि आप इसके बावजूद मुझे ‘बन्द चिट्ठी’ लिखना चाहें तो ज़रूर लिखें। दो दिन बाद मैं मंटो के पास गया और चिट्ठी पढ़ कर सन्तुष्ट हो चुके थे। उनकी प्यारी-सी मुस्कुराहट मेरे सवाल का जवाब थी। ये बिल्कुल अलग बात है कि मेरे दोस्त फतह मुहम्मद मलिक साहब ने हाल ही में, मंटो पर जो किताब लिखी है, उसमें ये ‘स्पष्ट’ भी किया है कि मैंने मंटो के नाम जो ख़त कम्युनिस्ट पार्टी की पॉलिसी के मुताबिक लिखा था। मैं कभी कम्युनिस्ट पा र्टी का मेंबर नहीं रहा और न पार्टी के फ़ैसले मुझ पर लागू हुए हैं। मेरे ज़ेहन ने मंटो के नाम ये ख़त लिखने का फ़ैसला किया था। लेकिन मेरे अज़ीज़ दोस्त को मेरी इस मासूमाना हरकत में भी साज़िश नज़र आई। मैंने दैनिक ‘इमरोज़’ में एक साप्ताहिक ‘पंजाबी’ पेज शुरू किया था। 1954 के आरंभिक दिन थे जब मंटो मेरे पास आया और बोला कि मैंने जिंदगी में पहली बार पंजाबी में अफ़साना लिखा है। यह अपने पंजाबी पृष्ठ में दर्ज करो और मुझे इसी समय इसका परिश्रमिक दिलवा दो। परिश्रमिक का तो बन्दोबस्त हो गया लेकिन दूसरे ही दिन प्रोग्रेसिब पेपर्ज पर पुलिस का छापा पड़ा और पुलिस मेरी मेज़ की दराज़ों में से बहुत-सी ‘पांडुलिपियाँ’ समेट कर ले गई। उनमें मंटो का वो पंजाबी अफ़साना भी था जो मैं अगले ही सप्ताह ‘इमरोज़’ में छापने वाला था। मैंने ख़ुफ़िया पुलिस वालों की बहुत खुशामद कि कम से कम वो कहानी ही मुझे वापस मिल जाए लेकिन मेरी कोई सुनवाई न हुई। ये हक़ीकत है कि मंटो उन दिनों लगभग प्रतिदिन एक अफ़साना लिखता था और पच्चीस-तीस रुपये में बेच आता था और यों अपना ‘ख़र्च’ चलाता था। मृत्यु से शायद दस पंद्रह दिन पहले वो मेरे घर आया और मुझे पकड़ कर अपने घर ले गया। शराब की एक बोतल उसके पास थी जो उसने मेरे कोट की जेब में खिसका दी थी। घर पहुँचे तो बोतल मेज़ पर रखी और शायद पानी लेने या ‘बाथरूम’ इस्तेमाल करने अन्दर चला गया। तब उसकी बेगम सफ़िया बहन चुपके से मेरे पास आईं और आहिस्ता से कहा कि ख़ुदा के वास्ते उसे ज़्यादा पीने से रोकिए। आपने देखा है न कि उसका सफ़ेद रंग कैसा मिट्टी हो रहा है। ऊपर से मंटो आया और बोला, ‘‘क्या बातें हो रहीं हैं।’’ सफ़िया बहन अंदर चली गई, तब मैंने मंटो को उसकी बेगम और बेटियों के वास्ते दिए कि ‘‘पूरी तरह न सही कुछ कम कर दीजिए, ये मेरी इल्तजा है।’’ और मंटो बोला ‘‘मैंने आपको दोस्त बनाया है अपने ज़मीर की मस्जिद का इमाम मुक़र्रर नहीं किया।’’ और इसके कुछ ही दिन बाद मैं मंटो के अन्तिम संस्कार के लिए जा रहा था। आज देश के कोने-कोने से मंटो के कारनामों की गूँज सुनाई दे रही है। हर शहर में इल्मी, अदबी और फ़न्नी इदारे मंटो की यादें ताज़ा कर रहे हैं और मान रहे हैं कि मंटो ने उर्दू अफ़सानानिगारी को रूस और फ्रांस के मुख़्तसर आफ़सानों के बराबर खड़ा कर दिया था। मंटो बेरहम हक़ीक़त पसंद था। इसलिए हक़ीक़त पर से पर्दे हटाने में उसे कोई झिझक महसूस नहीं होती थी। हमारा मोआशरा अपने आप को धो खा देने और हक़ीक़त से आँखें चुराने का आदी है, इसलिए इसे मंटो के अफ़सानों ने झंझोड़ कर रख दिया। लेकिन अन्तत: ....उन पर मंटो की रचनात्मक महानता का सूरज उग के रहा। इसीलिए मैं कहता हूँ कि इंतक़ाल के पचास बरस बाद मंटो ज़िंदा हो गया है और वह सदियों ज़िंदा रहेगा। क़ासमी का खुला ख़त दरअसल क़ासमी कनफ्यूज़ थे। मंटो को न चाहकर भी मानने से मज़बूर थे। इसलिए कि पाकिस्तान पहुँचने पर चारों ओर मंटो का डंका बजने लगा था। और मंटो अपने लेखन के कारण यह सम्मान ‘डिजर्व’ भी करते थे। क़ासमी ने अपने लेख में जिस खुले ख़त का ज़िक्र किया है, उसे आप भी मुलाहिज़ा कीजिए। 'मंटो साहब, विभाजन के बाद हमारे यहाँ अच्छे और नामवर फ़नकार बहुत कम रह गए थे। इसीलिए अस्करी ने आपको बेहतरीन फ़नकार घोषित किया है। मगर आपने यह कैसे मान लिया कि हसन अस्करी कोई पाकिस्तान का बहुत बड़ा आलोचक है? दिलचस्प यह है कि अस्करी ने जिस पत्रिका में आपकी तारीफ़ की है, उसका भी सम्पादन आप दोनों मिलकर करते हैं।' बा-अदब बा-मुलाहिज़ा होशियार क़ासमी का एक रूप यह भी है। लेकिन ‘श्रद्धांजलि’ देने वाले हमेशा ऐसी बातों को नज़रअंदाज़ कर देते है। ------------------------------------------------------- From zauqui_2005 at yahoo.com Thu Jan 18 22:02:57 2007 From: zauqui_2005 at yahoo.com (mosharraf alam zauqui) Date: Thu, 18 Jan 2007 08:32:57 -0800 (PST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= ravikant sahab/zauqui Message-ID: <20070118163257.97795.qmail@web35305.mail.mud.yahoo.com> ravi ji aap deewan ho gaye.mujhe pata hi nahi. kisi ne bataya ki aap ne parikatha waLA COLOUMN SHAAMILKIYA HAI,to mujhe khushi hui. aap to bhool hi baithe. khubsurat yaadon ke saath.. mosharraf alam zauqui --------------------------------- Sucker-punch spam with award-winning protection. Try the free Yahoo! Mail Beta. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070118/bad46cf9/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Jan 25 15:52:43 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 25 Jan 2007 15:52:43 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSc4KS84KWA?= =?utf-8?b?4KSwIOCkheCkleCkrOCksOCkvuCkrOCkvuCkpuClgCAtIOCkrOCkmuCkqg==?= =?utf-8?b?4KSo?= Message-ID: <200701251552.44968.ravikant@sarai.net> दोस्तो, पिछले सालों का मेरा यह क़यास अब पुष्ट हो चला है कि नेट की साहित्यिक दुनिया में उस तरह का धार्मिक भेदभाव कम मिलता है जिसके अकादमीय संदर्भों में हम आदी हो चले हैं. शायर और कवि का फ़र्क़ कुछ मिट-सा चला है, ज्ञान के विरसे की ख़ेमेबंदी करने वालों को लिए बुरी ख़बर है कि विकी शैली में बनी हिन्दी कवियों की सूची में मीर, ग़ालिब घुसे चले आ रहे हैं, नज़ीर भी शामिल हो रहे हैं. बहरहाल, पेश है, चंदन जी को सधन्यवाद, वहीं से नज़ीर की एक प्यारी-सी कविता. दीगर कवियों का काव्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है. मज़े लें: http://hi.literature.wikia.com/wiki/ रविकान्त नज़ीर अकबराबादी / बचपन क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले । निकले थी दाईं लेकर फिरते कभी ददा ले ।। चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले । हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।। मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले । क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।। दिल में किसी के हरगिज़ ने शर्म ने हया है । आगा भी खुल रहा है, पीछा भी खुल रहा है ।। पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है । यां यूं भी वाह वा है और वूं भी वाह वा है ।। कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।। मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना । ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।। उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना । जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।। माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।। कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं । गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह में घोटते हैं ।। बाबा की मूंछ माँ की चोटी खसोटते हैं । गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।। कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें । क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।। जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना । हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।। जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना । परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।। भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।। ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है । यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।। और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है। अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है । जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।। From vivek.du at gmail.com Tue Jan 30 13:27:20 2007 From: vivek.du at gmail.com (vivek kumar jain) Date: Tue, 30 Jan 2007 13:27:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= abstract of proposal named "cultural and social spaces in DU campus" Message-ID: <2816e3070701292357p464d5b25p5a5c563d0d427103@mail.gmail.com> hello sir/madam, i am enclosing herewith the abstract of my proposal on "cultural and social spaces in DU campus" as per required by the institution rules. thanking you Vivek kumar jain -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070130/4458b0a7/attachment.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Cultural and Social Spaces on du campus final.doc Type: application/msword Size: 25600 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070130/4458b0a7/attachment.doc From chauhan.vijender at gmail.com Tue Jan 30 13:51:27 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 30 Jan 2007 13:51:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?abstract_of_propos?= =?utf-8?q?al_named_=22cultural_and_social_spaces_in_DU_campus=22?= In-Reply-To: <2816e3070701292357p464d5b25p5a5c563d0d427103@mail.gmail.com> References: <2816e3070701292357p464d5b25p5a5c563d0d427103@mail.gmail.com> Message-ID: <8bdde4540701300021y72e90999j9b1df977b53e62aa@mail.gmail.com> विवेक, शोध प्रस्‍ताव देखा- विषय रोचक है। शुभाकांक्षाएं विजेन्‍द्र On 1/30/07, vivek kumar jain wrote: > > hello sir/madam, i am enclosing herewith the abstract of my proposal on > "cultural and social spaces in DU campus" as per required by the institution > rules. thanking you Vivek kumar jain > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070130/df564ea3/attachment.html From shveta at sarai.net Tue Jan 30 18:55:52 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Tue, 30 Jan 2007 18:55:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?abstract_of_propos?= =?utf-8?q?al_named_=22cultural_and_social_spaces_in_DU_campus=22?= In-Reply-To: <2816e3070701292357p464d5b25p5a5c563d0d427103@mail.gmail.com> References: <2816e3070701292357p464d5b25p5a5c563d0d427103@mail.gmail.com> Message-ID: <45BF4760.3090404@sarai.net> Dear Vivek, Aap ka mail attachment kis font mein hai? Unicode mein to nahin hai. Aisa aya, padhna mumkin nahin huwa: *dSEil ds dYpjy ,oa lks'ky Lislksa dk vè;;u* *(fnYyh fo'ofo|ky; ds jsgM+h&[kkseps okyksa dk ftanxhukek)* Aur, PLEASE attachment mat bhejiye, mail ke text mein hi bhejiye. The posting is for others to read - not for the institution. The institution, I think, has already read it :- ) best shveta vivek kumar jain wrote: > hello sir/madam, i am enclosing herewith the abstract of my proposal > on "cultural and social spaces in DU campus" as per required by the > institution rules. thanking you Vivek kumar jain > >------------------------------------------------------------------------ > >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > >