From vijaykharsh at gmail.com Fri Aug 10 10:49:33 2007 From: vijaykharsh at gmail.com (VIJAY PANDEY) Date: Fri, 10 Aug 2007 10:49:33 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KSg?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSJ4KSm4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWL4KSX?= Message-ID: प्रि‍य दोस्‍तों, मेरठ के प्रकाशन उद्योग के सफरनामे पर आपको ले चलने के लि‍ए मैं वि‍जय कुमार पाण्‍डेय सीएसडीएस सराय की फेलोशि‍प के तहत दीवान की पोस्‍टिंग ‍के जरि‍ए चौथी बार हाजि‍र हूं। जून-जुलाई का महीना प्रकाशन उद्योग के लिहाज से बहुत ही व्‍यस्‍त होने के कारण पोस्टिंग में देरी हुई इसके लिए खेद है। लगभग दौ सौ साल पहले शुरू मेरठ का प्रकाशन उद्योग अब प्रमुखतया शैक्षिक पुस्‍तकों के प्रकाशन तक केन्द्रित होकर रह गया है। आजादी के पहले तक मेरठ शैक्षिक पुस्‍तकों के विक्रय का प्रमुख केन्‍द्र था। उस समय मेरठ में कई बड़े पुस्‍तक विक्रेता थे, जिनका मुख्‍य व्‍यवसाय पुस्‍तक विक्रय था। साथ ही ये कुछ पुस्‍तकें भी प्रकाशित करते थे। इनमें रामनाथ केदारनाथ, जयप्रकाश नाथ एंड कंपनी, खैराती लाल, रस्‍तोगी एंड कंपनी, राजहंस प्रकाशन आदि प्रमुख थे। उस समय शैक्षिक पुस्‍तकों का प्रकाशन प्रमुख रूप से सरकारी प्रकाशन प्रकाशन हाउस ही करते थे। उत्‍तर भारत के कई शहरों में मेरठ से ही पाठय पुस्‍तकें जाती थीं। आजादी के बाद स्थिति में बदलाव हुआ। मेरठ कालेज के एमए अर्थशास्‍त्र के छात्र राजेन्‍द्र अग्रवाल की पहल से मेरठ के प्रकाशन उद्योग के स्‍वरूप में बदलाव हुआ। राजेन्‍द्र अग्रवाल ने सर्वप्रथम मेरठ कालेज के हास्‍टल मदन मोहन से 1950 में भारत भारती के नाम से प्रकाशन व्‍यवसाय शुरू किया। बाद में कालेज प्रशासन की आपत्ति के बाद कचहरी रोड पर किराए पर आफिस लिया। उस दौर में मेरठ में पुस्‍तक विक्रय और प्रकाशन के सभी केन्‍द्र सुभाष बाजार में ही थे। सुभाष बाजार से बाहर उस समय प्रकाशन हाउस खोलने की बात भी नहीं सोची जा सकती थी। शुरू में तब के कई प्रकाशकों ने राजेन्‍द्र अग्रवाल को समझाने का प्रयास किया। लेकिन बाद में धीरे-धीरे कमोबेश सभी बड़े प्रकाशक कचहरी रोड पर ही आ गए। अब तो कचहरी रोड को प्रकाशन मार्ग भी कहा जाता है। इस समय कचहरी रोड पर चित्रा प्रकाशन, नगीन प्रकाशन, प्रगति प्रकाशन, जीआर बाटला एंड संस, भारत भारती प्रकाशन आदि मेरठ के बड़े प्रकाशनों के आफिस बने हैं। आज मेरठ में शैक्षिक प्रकाशनों के कई बड़े नाम हैं। मात्र दस साल पहले शुरू अरिहंत प्रकाशन प्रतियोगी परीक्षाओं के प्रकाशन में पूरे देश में अग्रणी है। अभी हालात यह हैं कि शायद ही पूरे देश में कोई ऐसी दुकान होगी जहां मेरठ से प्रकाशित पुस्‍तकें न हों। मेरठ को प्रकाशनों का शहर भी कहा जा सकता है। मेरठ के प्रकाशनों की कोई आधिकारिक गिनती तो नहीं की गई है लेकिन मेरठ के प्रकाशन उद्योग से जुड़े लोगों का मानना है कि मेरठ में छोटे बड़े तकरीबन 75 प्रकाशन हैं। उद्योग से जुड़े लोग इसका सालाना टर्नओवर तकरीबन दो सौ करोड़ मानते हैं। इस व्‍यवसाय में प्रत्‍यक्ष एवं अप्रत्‍यक्ष रूप से तकरीबन एक लाख लोगों को रोजगार मिला हुआ है। व्‍यवसाय को इस स्थिति में पहुंचाने के लिए मेरठ के प्रकाशकों ने जी तोड़ मेहनत की है। -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070810/0849dadf/attachment.html From gora at sarai.net Fri Aug 10 03:20:57 2007 From: gora at sarai.net (gora at sarai.net) Date: Fri, 10 Aug 2007 03:20:57 +0530 (IST) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= SCIM keymap for Hindi Baraha system Message-ID: <42444.122.162.155.81.1186696257.squirrel@mail.sarai.net> Hi, Sorry for the cross-posts to several groups. Please trim follow-ups. As several people had requested this, I have made a SCIM keymap for Hindi, using the layout followed by the closed- source Baraha system. Please download it from http://oriya.sarovar.org/download/hi-baraha.mim , copy it to /usr/share/m17n, and restart SCIM. It should then show up as "hi-baraha" under the Hindi section. I have no access to Baraha, and the person helping me with this was unclear on various things, so it will likely require some additional input from someone who is familiar with Baraha, and can test this out. I need clarifications on the following: 1. How are consonants typed, e.g., is it typed as "k" + "a" for "ka", or just as "k", or are both allowed? How about "kaa", i.e., "ka" followed by vowel sign a? 2. How are conjuncts typed, e.g., how would one type "kra"? From the description that I was given, I have made "kra" = "k" + "^" + "r", assuming that "^" is used as the halant key. To assist you in testing out the keymap, you may wish to download a list of Hindi conjuncts from http://oriya.sarovar.org/download/conjuncts-hi-words.txt Please note that both the above links are temporary, and liable to disappear in a few days. Regards, Gora From gora at sarai.net Fri Aug 10 21:10:28 2007 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Fri, 10 Aug 2007 21:10:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= SCIM keymap for Hindi Baraha system Message-ID: <1186760428.6418.118.camel@anubis> Hi, An updated Baraha Hindi keymap is now available at: http://oriya.sarovar.org/download/hi-baraha.mim . Simply download the file, copy it to /usr/share/m17n/ and restart SCIM. It should show up as hi-baraha under the Hindi section (you will need to have both the scim, and scim-m17n packages installed). This fixes the earlier map, which was completely wrong, and I believe that it should be what is required, barring any bugs, and a few shortcomings noted at the top of the file. I will consider extending this to other Indian languages. Please follow up here if there are any issues with the keymap. Regards, Gora From gora at sarai.net Sat Aug 11 13:30:37 2007 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Sat, 11 Aug 2007 13:30:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= SCIM keymap for Hindi Baraha system In-Reply-To: <1186760428.6418.118.camel@anubis> References: <1186760428.6418.118.camel@anubis> Message-ID: <1186819237.6418.169.camel@anubis> On Fri, 2007-08-10 at 21:10 +0530, Gora Mohanty wrote: [...] > This fixes the earlier map, which was completely wrong, and I believe > that it should be what is required, barring any bugs, and a few > shortcomings noted at the top of the file. I will consider extending > this to other Indian languages. Please follow up here if there are > any issues with the keymap. [...] I have made up preliminary Baraha keymaps for the following scripts: Bengali, Gujarati, Kannada, Malayalam, Oriya, Punjabi, Tamil, and Telugu. A zip file containing all these maps is available at http://oriya.sarovar.org/download/baraha-maps.zip Download this, unzip it (this will create the file INSTALL, and several .mim files in the current directory). Follow the instructions in the file INSTALL to install the desired maps. Essentially, what you have to do is to copy the maps to /usr/share/m17n, and restart SCIM. These maps were made by a simple transliteration of Unicode codepoints, and will probably need some work. Regards, Gora From beingred at gmail.com Sat Aug 11 00:36:11 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 11 Aug 2007 00:36:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSwIDog4KSs4KSC4KSm4KWC4KSVIOCkleClgCDgpKjgpYvgpILgpJUg?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkuOCkguCkteCkv+Ckp+CkvuCkqA==?= Message-ID: <363092e30708101206r6c58d513n57a174bc2c22811a@mail.gmail.com> आलोक प्रकाश पुतुल लोहा गरम है छत्तीसगढ़ का बस्तर इन दिनों बेहद गरम है. वैसे गरम होना बस्तर की तासीर है. 30 फीसदी से भी कम साक्षरतावाले बस्तर के आदिवासी सदियों से अपनी इबारत खुद ही लिखते रहे हैं, जिसमें शोषण का अंतहीन सिलसिला है औऱ इस शोषण के खिलाफ़ अनवरत चलनेवाली लड़ाई है. 1857 का कोया विद्रोह हो या उससे पहले 1825 में परलकोट के गेंद सिंह की लड़ाई, बस्तर हमेशा से संघर्ष करता रहा है. 1910 के अंग्रेजों के खिलाफ़ भूमकाल विद्रोह से जुड़े किस्से तो आज भी लोक कथाओं और गीतों के रुप में बस्तर की हवा में तैर रहे हैं, जो हमेशा शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देते रहते हैं. लेकिन इस बार दृश्य थोड़ा बदला हुआ है. सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ और औद्योगिक घराने बस्तर में पहली बार संगठित हो कर एक छत के नीचे आए हैं. उनका दावा है कि वे बस्तर के आदिवासियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें साक्षर बनाना चाहते हैं, नागर समाज जो सुख-सुविधाएं भोगता है वह सब कुछ उन्हें उपलब्ध कराना चाहते हैं और यह भी कि वे आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ना चाहते हैं. देश में सबसे अधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में 70 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है, जो छत्तीसगढ़ की कुल आदिवासी जनसंख्या का 26.76 प्रतिशत है. लेकिन सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ व औद्योगिक घरानों के इस दावे से बस्तर का आदिवासी समाज डरा और सहमा हुआ है और थोड़ा-थोड़ा नाराज़ भी. नाराजगी की यही आग बस्तर में धीरे-धीरे सुलग रही है. इस मामले की शुरुवात 4 जून 2005 को होती है. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह और टाटा स्टील कंपनी के बीच एक एमओयू में हस्ताक्षर के साथ घोषणा हुई कि टाटा स्टील बस्तर में 10 हजार करोड़ रुपए की लागत से प्रथम चरण में 2 मिलीयन टन और भविष्य में 3 मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट लगाएगा. महीने भर बाद 5 जुलाई 2005 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एस्सार ग्रुप के साथ एक करार किया, जिसमें एस्सार ने बस्तर में प्रथम चरण में 1.6 मिलीयन टन और फिर 1.6मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लॉंट लगाने की घोषणा की. खनिज संपदा में बेहद संपन्न छत्तीसगढ़ में इन दोनों ही एमओयू को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हुईं. ज़ाहिर है, दुनिया की इन दो शक्तिशाली स्टील कंपनियों के साथ हुए एमओयू को लेकर लोगों में भारी उत्सुकता थी. मसलन इन कंपनियों को कितनी ज़मीन दी जाएगी, ज़मीन कहां की और किसकी होगी, अगर आदिवासियों की जमीन ली जाएगी तो जमीन के बदले आदिवासियों को कितना मुआवजा मिलेगा, उनके पुनर्वास की क्या-क्या शर्ते हैं, इन कंपनियों को पानी कहां से मिलेगा, स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर कितने होंगे, आदि-आदि. सवाल कई थे लेकिन इन सारे सवालों पर सरकार चुप थी. किस्सा एमओयू का ऐसी स्थिति में सरकार और इन दोनों कंपनियों के एमओयू का खुलासा ज़रुरी था. देश में होने वाले एमओयू अब तक सार्वजनिक दस्तावेज़ माने जाते रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार के साथ हुए एमओयू को सार्वजनिक करने की कौन कहे, इस पर कोई बात भी करने के लिए तैयार नहीं थी. सूचना के अधिकार के तहत जब लोगों ने इन एमओयू की छाया प्रति सरकार से चाही तो उन्हें जो जवाब मिला वह चौंकाने वाला था. सरकार की तरफ से बताया गया कि एमओयू को किसी तीसरे पक्ष को सार्वजनिक नहीं करने की शर्त भी एमओयू में है, इस लिहाज से एमओयू की प्रति उन्हें नहीं दी जा सकती. कांग्रेसी विधायकों ने भी ज़ोर-आजमाइश की लेकिन वे भी एमओयू की प्रति हासिल करने में नाकाम रहे. अंततः मामला विधानसभा तक जा पहुंचा. विधान सभा के बजट सत्र में जब विधायकों ने एमओयू की शर्तों के बारे में सरकार से जानना चाहा तो जन प्रतिनिधियों के सामने भी सरकार ने इन दोनों कंपनियों के साथ हुए एमओयू को सदन के पटल पर रखने से इंकार कर दिया. ज़ाहिर है, यह आकलन करना मुश्किल नहीं था कि सरकार ने प्रलोभन या दबाव में आकर एमओयू में ऐसी शर्तें शामिल की हैं, जो राज्य की जनता के हित में नहीं थीं. इसलिए सरकार इसे सार्वजनिक करने से बचती रही. बाद में सरकारी दफ्तरों से एमओयू का सच जिस तरह से छन-छन कर सामने आने लगा, उससे यह साबित हो गया कि सरकार ने सारे नियम-कायदे को ताक पर रख कर इन दोनों कंपनियों से समझौता किया है. तार-तार कानून छत्तीसगढ़ सरकार ने इन एमओयू में दोनों कंपनियों को बस्तर में कहीं भी ज़मीन चुनने का अधिकार दे रखा था. यानी इन कंपनियों के लिए केंद्र सरकार के उस नियम को धत्ता बता कर ज़मीन देने का आश्वासन दिया गया था, जिसके तहत इस तरह के किसी भी संयंत्र को लगाने से पहले जन सुनवाई के बाद पर्यावरण मंडल की अनापत्ति ज़रुरी होती है. यहां तक कि संयंत्र के रिजर्व फॉरेस्ट के इलाके में इस तरह की अनापत्ति की ज़रुरत की भी राज्य सरकार ने अनदेखी कर दी. बिजली की कमी से जुझ रहे छत्तीसगढ़ ने इन दोनों कंपनियों को न केवल बिजली वितरण के लिए अधोसंरचना उपलब्ध कराने का आश्वासन इस एमओयू में दिया है, बल्कि बिजली उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी भी सरकार ने ली है. जन सुविधाओं के विस्तार या स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार जैसी कोई भी शर्त इस एमओयू में नहीं शामिल की गई. एमओयू में सरकार ने कंपनियों को नए आयरन ओर के पट्टों के अलावा ऐसे पट्टे देने का भी आश्वासन दिया है, जिनका लाइसेंस पहले से ही किसी और कंपनी के पास है. इन पट्टों से आयरन ओर निकाल कर उनके निर्यात पर भी किसी तरह का प्रतिबंध एमओयू में शामिल नहीं है, यानी दोनों कंपनियां बस्तर में स्टील प्लांट लगाए बिना आयरन ओर बेचने का काम कर सकती हैं. यह सब कुछ 99 साल तक निर्बाध तरीके से चल सकेगा क्योंकि एमओयू की शर्तें आगामी 99 सालों तक प्रभावशाली हैं. इन सबों के अलावा एमओयू में इन दोनों कंपनियों को स्टील प्लांट के लिए आवश्यक पानी उपलब्ध कराने का जिम्मा भी सरकार ने लिया है. टाटा स्टील ने 35 मिलीयन गैलन पानी प्रति दिन की जरुरत बताई है तो एस्सार ने पहले 25 मिलीयन गैलन पानी, फिर उससे 2.7 गुणा ज्यादा पानी की मांग रख दी. हालांकि इस एमओयू में स्टील प्लांट के साथ वाटर ट्रिटमेंट प्लांट लगाने का कोई जिक्र नहीं था. बस्तर की शंखिनी और डंकिनी नदी का पानी जिन्होंने देखा होगा, उनके लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल है कि ये नदियां पानी की नदियां हैं. अपने लौह अयस्क की धुलाई के बाद पानी को शंखिनी-डंकिनी में बहाने वाली एनएमडीसी ने इन नदियों को लाल और कीचड़युक्त नाले में बदल दिया है. शंखिनी-डंकिनी को बचाने के लिए लगभग 7 साल पहले एक जनहित याचिका लगाई गई थी लेकिन उस जनहित याचिका पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई. यहां यह उल्लेखनिय है कि टाटा और एस्सार, दोनों ही कंपनियों को स्टील प्लांट लगाने की स्थिति में इंद्रावती नदी से पानी लेना पड़ेगा, जो पिछले कुछ सालों से सूखे का सामना कर रही है. इंद्रावती के घटते जल स्तर के कारण छत्तीसगढ़ को उड़ीसा पर निर्भर रहना पड़ता है, जहां से 45 टीएमसी पानी इंद्रावती में छोड़ा जाता है. लेकिन हर साल पानी को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है. जानकारों के अनुसार पिछले 10 सालों से इंद्रावती के लगातार घटते जल स्तर के कारण बस्तर के कम से कम 4 हज़ार तालाब सूख चुके हैं. हालत ये है कि आम जनता को अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए भी इस नदी से मुश्किल से पानी मिल पाता है. ऐसे में स्टील प्लांट लगने की दशा में आदिवासियों को इस पानी से भी वंचित होना पड़ेगा. एस्सार ने 2006 में ही बस्तर के बैलाडीला से विशाखापटनम तक 267 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन का निर्माण किया है. दुनिया की दूसरी सबसे लंबी पाइपलाइन के सहारे हर साल 80 लाख टन लौह अयस्क के चुरे की ढ़ुलाई की जा सकेगी. एस्सार स्टील के महानिदेशक प्रशांत रुइया की मानें तो सड़क मार्ग से लोहे के परिवहन में प्रति टन 550 रुपए के बजाय इस पाइपलाइन से परिवहन में प्रति टन केवल 80 रुपए का खर्चा आएगा. लेकिन इस पाइपलाइन को लेकर भी कम विवाद नहीं हैं. टाटा और एस्सार द्वारा स्टील प्लांट लगाने संबंधी गड़बड़ियों के मुद्दे पर जनहित याचिका लगाने वाले राज्य के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी कहते हैं- एस्सार ने इस पाइपलाइन के लिए भी अब तक मुआवजे का भुगतान नहीं किया है. इसके अलावा इस पाइपलाइन के लिए 8.4 मीटर चौड़ाई की ज़रुरत थी, लेकिन एस्सार कंपनी ने 20 मीटर की चौड़ाई में सारे पेड़ काट डाले. बहरहाल बस्तर में स्टील प्लांट के एमओयू का मामला राजनीतिक गलियारे में उलझ गया और टाटा व एस्सार ने अपने स्टील प्लांट के लिए बस्तर में ज़मीन तलाशना शुरु कर दिया. टाटा ने अपने लिए 5 हज़ार एकड़ से अधिक भूमि अधिग्रहण के लिए बस्तर के लोहण्डीगुड़ा इलाके के 10 गांवों का चयन किया, वहीं एस्सार ने अपने लिए दंतेवाड़ा से 20 किलोमीटर दूर धुरली और भांसी में 2500 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण की शुरुवात कर दी. स्टील संयंत्रों की स्थापना के लिए जिस तरह की नई तकनीक आई है, उसमें इतनी अधिक जमीन की जरुरत को लेकर ही सबसे पहले सवाल उठने शुरु हो गए. इससे पहले 1955 में जब भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना की जा रही थी, उस समय भी बड़ी मात्रा में लोगों को विस्थापित करके इस्पात संयंत्र की नींव रखी गई. लेकिन 1972 के आसपास यह समझ में आ गया कि इतनी अधिक जमीनों की जरुरत नहीं थी. अंततः लगभग 50 प्रतिशत जमीनें सरकार को वापस कर दी गई और बाद में औने-पौने भाव में व्यवसायियों ने सरकार से जमीन खरीद ली. टाटा और एस्सार द्वारा इतनी ज़मीन मांगे जाने के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस जमीन का इस्तेमाल बैंक से लोन लेने के लिए किया जाएगा. लेकिन बस्तर में जमीन पाना इतना आसान नहीं था. आदिवासियों ने अपनी सभाएं बुलाई और साफ कर दिया कि टाटा या एस्सार को अपनी ज़मीन नहीं देंगे. सरकार में शामिल विधायक और सांसद भी जनता के साथ आ गए और प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले इलाके की हवा गरम होने लगी. आज हालत ये है कि लोहण्डीगुड़ा-बेलर और भांसी-धुरली के इलाके में लोग टाटा-एस्सार का नाम सुनते ही भड़क उठते हैं. किस्से अरबो हैं असल में लोहण्डीगुड़ा-बेलर में टाटा और भांसी व धुरली में एस्सार के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा अकारण नहीं है. सच तो ये है स्टील प्लांट और लोहे के नाम पर बस्तर ने अब तक जो कुछ देखा और भुगता है, उसे भुला पाना बस्तर के आदिवासियों के लिए संभव नहीं है. लोहा बस्तर और छत्तीसगढ़ के जन जीवन में रचा-बसा हुआ है. आयरन ओर से इस्पात बनाने की शुरुवात भी यहां पहली बार नहीं हो रही है. आगरिया गौंड़ आदिवासी तो जाने कब से आयरन ओर को गला कर इस्पात बनाने का काम करते रहे हैं. 19वीं शताब्दी के आरंभ में आगरिया आदिवासियों के कम से कम 441 परिवार घरेलू भट्ठियों में आयरन ओर से इस्पात बनाने का काम कर रहे थे. और तो और, टाटा ने पहले भी बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की पहल की थी. पुराने दस्तावेज़ों की मानें तो 1896 में जमशेदजी टाटा ने भी कुछ भूगर्भ शास्त्रियों के साथ बस्तर का दौरा किया था और बस्तर के लौह खदानों की उपलब्धता व गुणवत्ता के आधार पर बस्तर या उड़ीसा के संबलपुर में स्टील प्लांट लगाने की संभावनाएं तलाशी थीं, लेकिन रेललाइन व दूसरे यातायत के साधनों के अभाव में यह इरादा टालना पड़ा. इस इलाके में दूसरा कदम रखा एनएमडीसी ने. 15 नवंबर 1958 को स्थापित एनएमडीसी ने 1968 में इसी बस्तर के बैलाडीला से लौह अयस्क का उत्पादन शुरु किया. 14 हिस्सों में बंटे लौह अयस्कों की 2 डिपाजिटों से एनएमडीसी ने उत्खनन शुरु किया और जापान निर्यात करना शुरु कर दिया. प्रति दिन लगभग 1 करोड़ 22 लाख रुपये के 27 लाख टन आयरन ओर का निर्यात किया जा रहा था. लेकिन यह तो तस्वीर का एक पहलू है. बस्तर में कोंटा इलाके के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं-एनएमडीसी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण ही किया है. आज भी एनएमडीसी में इस इलाके के अधिकतम 15 फीसदी लोगों को रोजगार मिला है. लेकिन बात केवल रोजगार की नहीं है. एनएमडीसी की खदानों की लीज जब 1995 में खत्म हुई, उसी के आस पास भारत सरकार से संबद्द साइंस एंड टेक्नालॉजी सेल की रिपोर्ट सामने आई. रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर द्वारा इस इलाके की व्यापक जांच और सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रम एनएमडीसी द्वारा लगातार उत्खनन और पर्यावरण की घोर उपेक्षा के कारण माईनिंग एरिया के चारों ओर के 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र का पर्यावरण, फ्लोरा-फाना, बॉयोडायवरसिटी, जंगल, खेती और जीव जगत बुरी तरह प्रभावित हुआ है. यह पूरा इलाका वन रहित हो गया है. केंद्र और राज्य सरकारों ने भी समय-समय पर माना कि एनएमडीसी के उत्खनन के कारण इस इलाके में रहने की परिस्थियां बदत्तर हुई हैं. इस इलाके के लगभग 100 किलोमीटर के विस्तार में बहने वाली शंखिनी नदी में लौह अयस्क की धुलाई के बाद छोड़े गए पानी के कारण शंखिनी और डंकिनी नदी लाल दलदल वाले क्षेत्र में बदल गईं. लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी ये नदियां मुसीबत बन गईं. गावों में नई-नई बीमारियों का प्रकोप फैलता चला गया. सैकड़ों गावों का पानी प्रदूषित हो गया और सिंचाई की सुविधा छिन गई. इन नदियों के दलदल में सैकड़ों पालतू पशु समा गए. कई बच्चे भी इन नदियों के दलदल में फंस कर अपनी जान गंवा बैठे. वायदों का सच बनाम नगरनार इधर 90 के दशक में ही बस्तर के मावलीभाटा और नगरनार में भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने स्टील प्लांट लगाने की जब घोषणा की तो बैलाडीला में जल, जंगल और जमीन की हालत से वाकिफ आदिवासियों ने संगठित हो कर यह सवाल पूछा कि इस स्टील प्लांट से हमें क्या मिलेगा. ज़ाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. यहां तक कि इस प्लांट के लिए जमीन अधिगग्रहण के दौरान जब आदिवासियों ने अपने पुनर्वास को लेकर सरकारी नीति का खुलासा चाहा तो पता चला कि इस स्टील प्लांट के लिए सरकार ने कोई पुनर्वास नीति बनाई ही नहीं है. लेकिन सरकार के लिए यह स्टील प्लांट तो जैसे नाक की बात हो गई थी. सरकारी दमन चक्र ऐसा चला कि सैकड़ों आदिवासियों के साथ-साथ कई लोग पुलिस और एनएमडीसी के गुंडों के हाथों प्रताड़ित हुए. भारत जन आंदोलन के नेता व तब के अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त ब्रह्मदेव शर्मा को तो गुंड़ों ने नगरनार का विरोध करने पर लगभग नंगा करके जुलूस निकाला था और सार्वजनिक रुप से उन्हें प्रताड़ित किया था. ये वही ब्रह्मदेव शर्मा थे, जिनकी एक आईएएस के रुप में पूरे बस्तर में तूती बोलती थी. बहरहाल स्टील प्लांट का विवाद गहराता गया और सरकारी फाइलों का बोझ बढ़ता रहा. 1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तो सरकार ने उन पुरानी परियोजनाओं को खंगालना शुरु किया, जो मध्य प्रदेश से विरासत में मिली थी. इसी क्रम में राज्य बनने के कुछ ही दिन बाद एनएमडीसी ने फिर से बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की और आनन-फानन में दंतेवाड़ा के गीदम के घोटपाल और हीरानार में स्टील प्लांट के लिए आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जा करना शुरु कर दिया. 5वीं अनुसूची लागू होने के करण बस्तर के इस अधिसूचित क्षेत्र में नियमानुसार ग्राम सभा की सहमति से ही ज़मीन ली जा सकती है. लेकिन इस तरह के नियम को ताक पर रख कर जब जमीन अधिग्रहण का काम चालू रहा तो आदिवासी सरकार के खिलाफ लामबंद होने लगे और भूमि अधिग्रहण के मामले की गूंज दिल्ली तक जा पहुंची. छत्तीसगढ़ सरकार ने भी माना कि अधिग्रहण के लिए आवश्यक नियमों का पालन नहीं किया जा सका है. अंततः एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने अपना काम-धाम इस इलाके से समेट लिया। इसके बाद एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बार फिर अपना रुख नगरनार की ओर किया. बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर है नगरनार. बस्तर के सर्वाधिक घनी आबादी और उत्कृष्ट कृषि योग्य भूमि वाले इस इलाके में जब स्टील प्लांट लगाने के ख्वाब आदिवासियों को दिखाए गए तो उन्हें बताया गया कि इस इलाके के आदिवासियों के लिए रोजगार, आवास, शिक्षा औऱ चिकित्सा के क्षेत्र में संभावनाओं के नए दरवाज़े खुलेंगे लेकिन इसका सच बस्तर की सल्फी से भी कड़वा साबित हुआ. मई 2001 में जब भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने नगरनार में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की तो आदिवासियों को कई सब्जबाग दिखाए गए. कहा गया कि 40 हज़ार लोगों को रोजगार दिया जाएगा, लोगों को ज़मीन के बदले जमीन दी जाएगी, बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाएगी, खेतों के बदले पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा और यह भी कि सभी लोगों को घर बना कर दिए जाएंगे. लेकिन जब इस स्टील प्लांट के लिए 300 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण का काम शुरु हुआ किया तो एनएमडीसी और राज्य सरकार की नियत आदिवासियों की समझ में आ गई. शुरुवात तो ग्राम सभा से से ही हुई जहां ज़मीन अधिग्रहण से पहले गांव वालों की सहमति लेनी थी. सरकार ने तो जैसे तय कर रखा था कि नियम-क़ायदा को ताक पर रख कर चाहे जैसे भी हो एनएमडीसी के लिए आदिवासियों की ज़मीन हासिल करनी है. लेकिन जब आदिवासियों से बंदूक की नोंक पर सहमति बनाने के प्रयास शुरु हुए तो लोगों ने विरोध करना शुरु कर दिया. 24 अक्टूबर 2001 को ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ आदिवासियों ने जब एनएमडीसी और सरकार का विरोध करना शुरु किया तो पुलिस ने पहले तो निहत्थे लोगों पर बर्बरता से लाठियां बरसाई और जब बात उससे भी नहीं बनी तो गोलियां चलाई गई. महिलाओं समेत 50 से अधिक लोग बुरी तरह हताहत हुए. लेकिन आदिवासियों का विरोध इस तरह की कार्रवाई से भी कम नहीं हुआ. 2 मार्च 2002 को आदिवासियों ने अपनी ग्रामसभा की और तय किया कि एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट के लिए ज़मीन अधिग्रहण का काम नियम-क़ानून के दायरे में हो और विस्थापित होने वाले आदिवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था के अलावा उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाए, जिससे उनकी आजीविका चलती रहे. उम्मीद की जा रही थी कि सरकार आदिवासियों की इन मांगों पर विचार करेगी और मामला सुलझ जाएगा. लेकिन किसी भी क़ीमत पर एनएमडीसी को नगरनार में ज़मीन दिलवाने पर अड़ी हुई सरकार को आदिवासियों का यह विरोध नहीं जंचा. इस ग्रामसभा के अगले दिन से ही पुलिस ने विस्थापित होने वाले आदिवासियों को धमकाना शुरु कर दिया. विस्थापित आदिवासियों को मनमाने तरीके से तय किए गए मुआवजे के चेक जबरदस्ती लेने के लिए पुलिस ने सारे हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए. कस्तूरी, नगरनार या आमागुड़ा जैसे प्रभावित गांव के लोगों के जेहन में आज भी 10 मार्च की याद ताज़ा है. अपनी 5 एकड़ ज़मीन एनएमडीसी के हवाले करने वाले नगरनार गांव में हड्डियों के ढ़ांचे की तरह दिखने वाले रुपसाय हल्बी में बताते हैं- "पुलिस ने उस रात अपनी बर्बरता की सारी हदें लांघ दी थीं." गांव वालों के अनुसार एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले गांवों में पुलिस ने देर रात को धावा बोला और गांव में महिलाओं और बच्चों समेत जो भी नज़र आया, उन्हें बेतहाशा पीटना शुरु किया. घरों में सो रहे लोगों के दरवाज़े तोड़ डाले गए और लोगों को गांव की गलियों में घेर-घेर कर जानवरों की तरह मारा गया. महिलाओं समेत लगभग 300 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. लेकिन इसके बाद कुछ भी नहीं हुआ. यह "कुछ नहीं होना" नगरनार के लोगों के लिए एक ऐसा नासूर बन गया, जिसका जख्म लगातार रिसता रहता है. जिस स्टील प्लांट के लिए एनएमडीसी और सरकार ने आदिवासियों पर इतने जुल्म ढ़ाए, उस प्रस्तावित इलाके में एनएमडीसी ने रातों-रात चाहरदिवारी बना दी और अपने बोर्ड टांग दिए. इस बात को लगभग 5 साल होने को आए, लेकिन चाहरदिवारी के अलावा स्टील प्लांट का काम आगे नहीं बढ़ा. जिन आदिवासियों की ज़मीन छीनी गई, उनके पास कोई साधन नहीं बचा. खेती वे कर नहीं सकते थे, क्योंकि ज़मीन एनएमडीसी के कब्जे में है और वायदे के मुताबिक उन्हें नौकरी तो मिली ही नहीं, क्योंकि स्टील प्लांट का काम ही शुरु नहीं हुआ. 303 विस्थापित परिवारों में से 43 परिवार तो ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजे की राशी भी नहीं मिली. नगरनार में एनएमडीसी की चाहरदिवारी में ही बने राज्य के पहले आईएसओ थाना के सहायक उपनिरीक्षक प्रमोद मिश्रा अपनी कुर्सी पर लगभग पसरते हुए कहते हैं- "अभी भी शायद आदिवासियों के ख़िलाफ़ कुछ मामले लंबित हैं." ज़ाहिर है, अपना सब कुछ गंवा देने के बाद अब आदिवासियों के हिस्से अदालतों के चक्कर हैं, भूख है, बदहाली है और वायदों के ढेर तो हैं ही, जिसके पूरे होने की उम्मीद अब सभी लोग छोड़ चुके हैं. एनएमडीसी के टेक्नीकल डायरेक्टर पीएस उपाध्याय और नगरनार परियोजना के प्रबंधक आलोक मेहता बताते हैं कि अब नगरनार में स्टील प्लांट के बजाय एक लाख टन वार्षिक उत्पादन की क्षमता का स्पंज ऑयरन संयंत्र लगाया जाएगा. इसके अलावा 10 मेगावाट क्षमता वाले केप्टिव पावर प्लांट की भी स्थापना की जाएगी. लेकिन बस्तर में अब इस बात पर भरोसा करने को कोई तैयार नहीं है. वैसे भी स्टील प्लांट की तुलना में स्पांज ऑयरन संयंत्र में लोगों को कितना रोजगार मिलेगा, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. लोहा गरम है टाटा स्टील ने जब लोहण्डीगुड़ा में अपने संयंत्र के लिए ज़मीन अधिग्रहण की घोषणा की तो प्रस्तावित संयंत्र से विस्थापित होने वाले 10 गांवों के लोगों को बैलाडीला और नगरनार की बदहाली याद आ गई. टाकरागुड़ा, कुम्हली, बड़ांजी, बेलर, सिरिसगुड़ा, बड़ेपरौदा, दाबपाल, धूरागांव, बेलियापाल और छिंदगांव के लोगों ने साफ कर दिया कि वे जिस भूमि पर बरसों से खेती करते आए हैं, उसे किसी भी हालत में स्टील प्लांट को के लिए नहीं देंगे. टाटा के प्रस्तावित संयंत्र के लिए इस इलाके की 2161 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण किया जाना था. हालांकि जब जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई शुरु की गई तब टाटा ने अपने प्रस्तावित इस्पात संयंत्र की प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी पेश नहीं की थी. 3906000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले बस्तर में केवल 27.5 प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है. स्थानीय लोगों की मानें तो इस मामले में जगदलपुर का हिस्सा और भी पिछड़ा है, जहां 56 प्रतिशत किसानों के पास एक एकड़ या उससे भी कम ज़मीन है. इसमें भी लोहण्डीगुड़ा के इलाके में सबसे अधिक कृषि योग्य भूमि है. टाटा की प्रस्तावित स्टील प्लांट की 2161 हेक्टेयर जमीन में से 1861 हेक्टेयर जमीन आदिवासियों की कृषि भूमि है. ग्रामीण टाटा द्वारा प्रस्तावित मुआवजे से भी असंतुष्ट थे. हालांकि टाटा के अनुसार-सीमित विकल्पों के बावजूद इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर रखकर, भूखंड को सही स्वरूप देकर एवं भूखंड की सीमा के यथोचित निर्धारण के जरिए विस्थापन को न्यूनतम किया जाए। टाटा स्टील ने आदिवासियों को पुनर्वास के पर्चे भेजे हैं, उसके अनुसार-अपनी 75 % से ज्यादा जमीन से वंचित होने वाले प्रभावित जमीन मालिकों की संख्या लगभग 840 है और प्रभावित होने वाले घरों की संख्या लगभग 225 है। पुनर्स्थापना एवं पुनर्वास का यह पैकेज मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ के समक्ष विगत 15 दिसम्बर 2005 को एवं जिला पुनर्वास समिति के सदस्यों के समक्ष 26 दिसम्बर 2005 को प्रस्तुत किया गया था। जिला पुनर्वास समिति के सुझाव को ध्यान में रखते हुए, प्रशिक्षण एवं नियोजन से संबंधित प्रावधानों की यथासंभव व्याख्या की गई है।... भू-अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुरुप मुआवजा जिसमें तोषण, ब्याज तथा छत्तीसगढ़ सरकार की पुनर्वास नीति 2005 के अनुसार अनुग्रह राशि भी सम्मिलित है। टाटा के अनुसार ऊसर जमीन के लिए 50 हज़ार रुपए प्रति एकड़, एकल फसल वाली असिंचित जमीन के लिए 75 हज़ार रुपए प्रति एकड़ और दोहरी फसल वाली सिंचित जमीन के लिए 1 लाख रुपए प्रति एकड़ मुआवजे का प्रावधान रखा गया है. लेकिन ग्रामीणों की मांग थी कि उन्हें इस तरह के मुआवजे के साथ-साथ स्टील प्लांट में शेयर भी मिले. इसके अलावा मांगों की एक लंबी फेहरिस्त थी, जिसको लेकर टाटा स्टील और जिला प्रशासन कोई आश्वासन देने के मूड में भी नहीं था. ऐसे में जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राज्य बनने की पांचवीं वर्षगांठ का उत्सव चल रहा था, उस समय माड़िया आदिवासी बहुल लोहण्डीगुड़ा के लोग टाटा और टाटा के पक्ष में खड़ी सरकार के ख़िलाफ लामबंद हो रहे थे. 5 नवंबर 2005 को हज़ारों लोगों ने बेलर में एक आमसभा की. भाजपा विधायक लच्छू कश्यप, बैदुराम कश्यप और भाजपा के ही सांसद बलीराम कश्यप ने सभा को संबोधित करते हुए लोगों को आश्वस्त किया कि मुख्यमंत्री से चर्चा कर के टाटा के इस्पात संयंत्र के लिए कहीं और जगह तलाश की जाएगी. लेकिन भाजपा सांसद कुछ ही रोज में टाटा संयंत्र के सुर में सुर मिलाने लगे. सरकार के प्रतिनिधि गांव वालों को समझाने में लग गए कि उन्हें संयत्र लगने से क्या-क्या फायदा होगा. टाटा संयंत्र के खिलाफ लोग संगठित होते रहे और सरकार ने भी जमीन अधिग्रहण का अपना एजेंडा लागू करना आरंभ किया. उधर एस्सार के खिलाफ भी दंतेवाड़ा के भांसी और धुरली में इसी तरह का माहौल बन रहा था. एस्सार ने भांसी और धुरली गांव के आस पास 1254 हेक्टेयर जमीन अपने स्टील प्लांट के लिए चिन्हांकित की थी. लेकिन जनता ने एस्सार के प्रस्तावित स्टील प्लांट का विरोध शुरु कर दिया. मुद्दे भांसी-धुरली में भी वही थे. बंदूक की नोंक पर संविधान फिर शुरु हुआ ग्राम सभा का खेल यानी बंदूक की नोक पर संविधान. अनुसूचित क्षेत्र Scheduled Area के लिए 1996 में पारित हुए पंचायत राज विस्तार कानून पेशा (Provisions of the Panchayats Extension to Scheduled Area PESA) सबसे पहले लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों की रक्षा के लिए सामने आया. ग्रामीणों के विरोध प्रदर्शन के बीच सरकार ने टाटा स्टील के लिए सबसे पहले 10 मई 2006 को लोहण्डीगुड़ा-बेलर की ग्राम सभाओं का विशेष सम्मेलन आयोजित किया था लेकिन ग्रामीणो ने पुनर्वास के विरोध में अपनी आपत्ति दर्ज कराई और अपनी 13 सूत्री मांग रखी। गांव वालों ने जिला प्रशासन को 13 सूत्री मांग पत्र सौंपकर स्पष्ट कर दिया कि था जब तक ये मांगें मानी नहीं जाती हैं, तब तक ये गांव खाली नहीं होगे. बेलर-लोहण्डीगुड़ा के लोगों की मांग थी कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा स्टील प्लांट में 49 प्रतिशत शेयर की व्यवस्था के अलावा बंजर जमीन का 5 लाख, एकफसली जमीन का 7 लाख और दो फसली जमीन का 10 लाख रुपए मुआवजा, प्रभावित परिवारों में से एक को अनिवार्य रुप से नौकरी जैसी शर्तें रखी गई थीं. लेकिन अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए ग्रामीणों के व्यापक विरोध को देखते हुए ग्राम सभाओं के सम्मेलन रद्द कर दिए गए. दुबारा 7 जून को ग्राम सभा की कोशिश भी असफल साबित हुई. इसके बाद 20 जुलाई 2006 को ग्राम सभा का आयोजन किया गया. इससे 2 दिन पहले जिला प्रशासन ने ग्रामीणों की बैठक ली. बड़ांजी और बेलर के सरपंच के अनुसार कलेक्टर ने इस बैठक में बताया कि पुनर्वास को लेकर हमारी सारी मांगें मान ली गई हैं. कलेक्टर की इस घोषणा के बाद कुछ ग्रामीण मांगों को लेकर हुई सहमति का जब लिखित प्रमाण लेने पर अड़ गए तो फिर से ग्राम सभा पर संकट के बादल मंडराने लगे. लेकिन जिला प्रशासन किसी भी तरह ग्राम सभा निपटाने के मूड में था. इसके बाद प्रशासन ने पूरे इलाके में धारा 144 लागू कर दिया और 55 ग्राम प्रमुखों के खिलाफ मामला दायर कर दिया गया। 17 लोगों को तो गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया गया। लेकिन इसके बाद भी 20 जुलाई को हुए ग्रामसभा में गतिरोध कायम रहा. 2 ग्राम पंचायतों में तो सभा हो ही नहीं पाईं. जिन 8 गांवों में ग्रामसभाएं हुईं, उनमें भी 3 पंचायतों में ग्रामीणों के फैसले ग्रामसभा की पंजी में दर्ज ही नहीं हुए. बाद में सरकारी अधिकारियों द्वारा ग्रामसभा में अनुपस्थित लोगों को सभापति बता कर पंजी में मनमाने निर्णय दर्ज कर लिए गए. इसके बाद 3 अगस्त 2006 को इस इलाके में सशर्त ग्रामसभा आयोजित की गई. गांव वालों की मानें तो अब तक हुए ग्रामसभाओं में भारी पुलिस बल का इस्तेमाल कर लोगों पर दबाव बनाया गया. इस ग्राम सभा में आदिवासियों को बुला कर उन्हें पर्ची दी गई और उनसे अंगूठे का निशान लगवा कर उनसे जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण के लिए सहमति ले ली गई. कुम्हली गांव में एक चौराहे पर बैठे एक बुजुर्ग वेणुधर कहते हैं- अगर बंदूक के बल पर आयोजित सभा को आप ग्रामसभा कहते हैं, तो मुझे कुछ नहीं कहना है. उनके साथ बैठे दूसरे बुजुर्ग घासूराम, धनीराम, हीरा आदि भी कहते हैं कि ग्रामसभा के नाम पर खानापूर्ति हुई है. खेती पर आश्रित ये सभी लोग टाटा के संयंत्र के खिलाफ हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव के सभी लोग संयंत्र के खिलाफ हैं. गांव में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके नाम पर कोई जमीन ही नहीं है और ऐसे सभी लोग इस इलाके में संयंत्र के पक्ष में हैं. एक पंचायत सचिव बताते हैं कि सरकारी योजनाओं से किसी भी तरह जुड़े हुए लोग टाटा के संयंत्र का विरोध नहीं कर सकते. ऐसा करने का साहस जिन लोगों ने किया, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. लोहंडीगुड़ा में टाटा के पक्ष में जिला प्रशासन द्वारा 2 ग्रामसभाओं के बाद माना जा रहा था कि अब टाटा के लिए स्टील प्लॉंट का रास्ता साफ हो गया लेकिन इसके बाद आदिवासियों ने 24 फरवरी 2007 को अपनी ग्रामसभा बुलाई. जाहिर तौर पर सरकार के लिए यह चुनौती थी. टाकरागुड़ा और बेलर में आमसभा के बाद आदिवासियों पर पुलिस का कहर बरपा और आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व भाकपा के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम समेत कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए. बस्तर एक बार फिर सुलग उठा और लोहण्डीगुड़ा और बेलर में आंदोलन तेज होने लगा. सरकार और आदिवासी आमने-सामने आ गए. दोनों ने एक दूसरे पर हमला बोलना शुरु कर दिया. कई पुलिस वाले आदिवासियों के आक्रोश के शिकार हुए. दूसरी ओर आंदोलन से नाराज जिला प्रशासन द्वारा आदिवासियों को मारा–पीटा गया, लाठियां बरसाई गईं. इससे भी मन नहीं भरा तो आदिवासियों को गिरफ्तार कर के जेलों में भर दिया गया. लेकिन इससे आदिवासियों के हौसले में कमी नहीं आई. आदिवासी आज भी अपनी मांग के लिए अड़े हुए हैं. लोहण्डीगुड़ा और उसके आसपास के गांवों में एक अजीब-सा आक्रोश पसरा हुआ है, जिसका शिकार कोई भी हो सकता है. हालत ये है कि लोग अपनी जान देने पर तुले हुए हैं. आज से 45 साल पहले लोहण्डीगुड़ा में 31 मार्च 1961 को सरकारी लेवी के खिलाफ लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों ने उग्र आंदोलन शुरु किया और 13 आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. जिन आदिवासियों ने जनता के मुद्दे पर अपनी जान दे दी थी, उनमें कुम्हली गांव के अजम्बर सिंह भी शामिल थे. शायद इतिहास अपने को दुहराता है. अजम्बर के बेटे बल्देव सिंह इस बार लोहण्डीगुड़ा में टाटा के खिलाफ ताल ठोंककर खड़े हैं. बल्देव कहते हैं- "मेरे पास पांच एकड़ जमीन है और मेरी पूरी जमीन ली जा रही है. जनता और अपने स्वाभिमान की लड़ाई में अगर मेरी जान भी चली जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं है. मैं एक ही बात जानता हूं-लड़ाई जारी रहनी चाहिए." लेकिन इलाके के भाजपा सांसद बलीराम कश्यप इस तरह की लड़ाई को गैरजरुरी बताते हुए कहते हैं कि लोहण्डीगुड़ा में बाहरी हस्तक्षेप के कारण माहौल बिगड़ा है. कश्यप का मानना है कि टाटा का विरोध करने वाले असल में विकास के विरोधी हैं. हालांकि उनकी ही पार्टी के स्थानीय विधायक लच्छुराम कश्यप और डाक्टर सुभाउ कश्यप पूरे मामले में जिला प्रशासन की भूमिका को संदिग्ध बताते हैं। लच्छुराम कश्यप कहते हैं- " ग्रामसभा के लिए ग्राम पंचायतों पर दबाव डाल कर बैठक बुलाई गई. जिला प्रशासन द्वारा जबरिया जमीन अधिग्रहण के लिए लिए अदिवासियों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे अपनी जमीन टाटा को दे दें." दोनों विधायकों ने टाटा का यह मामला विधानसभा में भी जोर-शोर से उठाया है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार अपनी ही पार्टी के विधायकों द्वारा उठाए गए मुद्दे को लेकर चिंतित है. टाटा-एस्सार भाई-भाई उधर एस्सार की ग्रामसभा का किस्सा भी लोहण्डीगुड़ा से अलग नहीं है. दंतेवाड़ा के धुरली और भांसी में सरकार ने जब एस्सार के लिए जमीन अधिग्रहण का काम शुरु किया तो ग्राम सभा के लिए पूरे इलाके को पहले पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया. उसके बाद भांसी की 280 हेक्टेयर और धुरली की 109.5 हेक्टेयर भूमि के लिए 10 जून 2006 और 3 अगस्त 2006 को ग्रामसभा की राय ली गई. 10 जून को हुई विशेष ग्रामसभा में राज्य के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा एस्सार का साथ देने के लिए पहुंचे. नक्सलियों के खिलाफ बस्तर में सरकारी संरक्षण में सलवा जुड़ूम नामक आंदोलन चलाने वाले आदिवासी विधायक महेंद्र कर्मा का तर्क था कि एस्सार के स्टील प्लांट से इस इलाके का विकास होगा लेकिन ग्रामीणों ने उनकी बात तक नहीं सुनी और नारेबाजी करते हुए सभा का बहिष्कार कर दिया. महेंद्र कर्मा का आरोप था कि भाकपा के लोग ग्रामीणों को भड़का रहे हैं और जनहित के मुद्दे पर राजनीति की जा रही है. इस बीच लगभग 1300 ग्रामीणों ने कलेक्टर को पत्र लिख कर स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी जमीन एस्सार को नहीं देंगे. जाहिर है, प्रताड़ना और दबाव का दौर यहां भी चला. 9 सितंबर 2006 को जब भांसी में विशेष ग्राम सभा का आयोजन किया गया तो इस छोटे से गांव में सशस्त्र बल की दो कंपनियां तैनात कर दी गईं. इसके अलावा जिला पुलिस बल के 100 से अधिक जवान गांव के चप्पे -चप्पे पर तैनात कर दिए गए. दंतेवाड़ा जिला आदिवासी महासभा के सचिव रामा सोरी का आरोप है कि भूअर्जन के लिए अनैतिक तरीका अपनाया गया और ग्रामसभा के लिए भी जबरदस्ती की गई. हालांकि एस्सार के प्रतिनिधि विजय क्रांति इस तरह के दबाव और प्रताड़ना को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि जमीन अधिग्रहण का काम हमारा नहीं सरकार का है. इसके लिए सरकार क्या-क्या तरीका अपनाती है, यह सरकार मामला है. हालांकि वे यह नहीं बताते कि 10 जून 2006 की सभा में सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ एस्सार के क्षेत्रीय निदेशक समेत कई महत्वपूर्ण अधिकारी क्यों उपस्थित थे. एस्सार के विस्थापितों के मुद्दे पर पुनर्वास समिति की बैठक की अध्यक्षता करने वाले राज्य के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री केदार कश्यप के अनुसार एस्सार स्टील परियोजना के शुरु होने से यहां एक लाख 30 हजार से अधिक स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे. ज्ञात रहे कि देश भर में एस्सार स्टील के लगभग 15 हज़ार कर्मचारी हैं. ऐसे में अकेले बस्तर में सवा लाख से अधिक लोगों को रोजगार क्या संभव है ? केदार कश्यप की मानें तो 1700 लोगों को एस्सार के स्टील प्लांट में नौकरी दी जाएगी, इसके अलावा लगभग 5 हजार लोग स्टील प्लांट के दूसरे काम में लगेंगे. स्टील प्लांट के शुरु होने के बाद लगभग 1 लाख 25 हजार लोगों को स्टील प्लांट के विभिन्न सहायक उद्योगों में रोजगार मिल जाएगा. आयरन ओर ऊर्फ दिल्ली दूर है लेकिन बस्तर के विभिन्न मुद्दों पर पिछले कई सालों से क़ानूनी लड़ाइयां लड़ने वाले अधिवक्ता प्रताप नारायण अग्रवाल स्टील प्लांट की स्थापना और रोजगार के मुद्दे को किनारे करके देखने की बात करते हैं. उनका तर्क है कि बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील प्लांट लगाने के बजाय मूल रुप से आयरन ओर का उत्खनन करने और उसके निर्यात में इनटरेस्टेड हैं. दोनों ही इस्पात कंपनियों के साथ हुए एमओयू में सरकार ने उन्हें उनकी सुविधानुसार आयरन ओर के पट्टे उपलब्ध कराने के लिए आश्वस्त किया है. इसके अलावा सरकार ने उन्हें बस्तर से आयरन ओर के उत्खनन, निर्यात और बिक्री की छूट भी दी है. प्रताप नारायण अग्रवाल को आशंका है कि ये दोनों कंपनियां अपने दूसरे संयंत्रों के लिए कच्चा माल यहां से ले जाएंगी. बस्तर के लोहे पर अभी तक एनएमडीसी का कब्जा रहा है, जिसका एकाधिकार खत्म करने के लिए पिछले चार दशकों में कई कोशिशें हुईं. आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के शुरुवाती दौर में एनएमडीसी को बीमार बना और बता कर बैलाडीला की लोहे की खदानों को निजी हाथों में देने की कई कोशिशें की गईं. इस मुद्दे को मीडिया में जोरशोर से उठाने वाले पत्रकार सुदीप ठाकुर कहते हैं- तत्कालीन इस्पात व खान मंत्री संतोष मोहन देव और प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने बैलाडीला की सबसे कीमती खदान 11 बी को मित्तल समूह की निप्पन डेनरो के हवाले करने के लिए कई योजनाएं बनाईं. प्रधानमंत्री के इशारे पर सबसे पहले एनएमडीसी और निप्पन डेनरो में करार करवा कर एक नयी कंपनी बनवाई गई. इस नई कंपनी बैलाडीला मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड में हास्यास्पद तरीके से निप्पन डेनरो की 89 प्रतिशत साझेदारी थी और एनएमडीसी के हिस्से केवल 11 प्रतिशत. सुदीप ठाकुर का दावा है कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव की कोशिशों के बाद बैलाडीला की लौह खदानों पर निजीकरण ने अपना शिकंजा कसना शुरु कर दिया. दूसरी ओर एनएमडीसी के हाथों से लौह खदानों को लेकर निजी हाथों में दिए जाने की वकालत करते हुए टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक एम बी मुथुरमन कहते हैं कि एनएमडीसी अब तक सारे अयस्क जापान जैसे देशों को निर्यात करता रहा है. यह राष्ट्रहित के खिलाफ है. ऐसे में अगर बस्तर के लौह खदानों की लीज बस्तर में ही संयंत्र लगाने वालों को दी जाएगी, तो इससे अच्छा और क्या होगा. ताज़ा मामले में टाटा और एस्सार समूह ने भी राज्य सरकार के साथ एमओयू करने के बाद सबसे पहले बैलाडीला की लौह खदानों पर अपनी नजरें टिकाई. 27 अक्टूबर 2005 को एस्सार ने और 13 मार्च 2006 को टाटा ने लौह खदानों के लिए अपना आवेदन दिया. इससे पहले भी इस इलाके में खदानों की लीज के लिए 25 आवेदन आए थे, लेकिन सरकार ने उन आवेदनों को निरस्त करते हुए 1 नवंबर 2006 को केवल एस्सार समूह को 2285 हेक्टेयर क्षेत्र का हिस्सा देने की अनुशंसा भारत सरकार को अनुमोदन के लिए भेज दी. लगभग 2 महीने बाद 28 दिसंबर को ही केंद्र सरकार ने इसे अपनी हरी झंडी दे दी. लेकिन 25 अन्य आवेदनों पर विचार क्यों नहीं हुआ, इसके जवाब में मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं- "क्योंकि दूसरे लोग बस्तर में उद्योग नहीं लगा रहे हैं." नो मेंस लैंड आम तौर पर अशांत इलाकों में पूंजी निवेश से उद्योगपति हमेशा से बचते रहे हैं. ऐसे में देश में सर्वाधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में टाटा और एस्सार की दिलचस्पी ने कई सवाल खड़े किए हैं. हालांकि कहा यही जा रहा है कि बस्तर के अपार खनिज का मोह कोई छोड़ना नहीं चाहता. दूसरी ओर सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी है. लेकिन लोगों की निगाह सरकारी संरक्षण में नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा द्वारा नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे सलवा जुड़ूम यानी शांति अभियान और टाटा-एस्सार के समीकरण की ओर भी है. टाटा-एस्सार ने जिस समय छत्तीसगढ़ सरकार से एमओयू किया उसके आसपास ही जून 2005 से बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुड़ूम अभियान शुरु हुआ. इस अभियान के बाद नक्सलियों ने अपना हमला तेज़ किया और आज हालत ये है कि पिछले 22 महीनों में कश्मीर समेत देश के किसी भी दूसरे हिस्से से ज्यादा लोग मारे गए हैं. जगदलपुर के पत्रकार राजेंद्र तिवारी के अनुसार टाटा ने फरसपाल, मासोड़ी, कुंदेपाल, दारापाल, चिदरापाल व फूलगट्टा की 2690 हेक्टेयर जमीन सरकार से लीज पर मांगी थी. सलवा जुड़ूम शुरु होने के बाद 50 हज़ार से अधिक लोग अपने गांवों को छोड़ कर सरकारी शिविरों में रह रहे हैं, लगभग 40 हज़ार लोगों को बस्तर छोड़ कर पड़ोसी राज्यों उड़ीसा और महाराष्ट्र में शरण लेनी पड़ी है. सैकड़ों गांव खाली हो गए हैं. नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी के महासचिव गणपति ने सलवा जुड़ूम को लेकर पहले ही कई गंभीर आरोप लगाए हैं. Independent Citizens' Initiative को लिखे एक पत्र में गणपति का कहना है- " There is immense wealth in the areas inhabited by adivasis from Jharkhand to AP and all the big guns have their greedy eyes fixed on this wealth. Hence they leave no stone upturned to grab this wealth even if it means massacring the indigenous people, razing entire villages to the ground and suspending all fundamental rights of the people. In just the three states Chattisgarh, Jharkhand and Orissa over three lakh crores of rupees are likely to be pumped in to extract several times more wealth to fill the coffers of these steel and aluminium barons of India and imperialist countries.. ... This is the logic behind salwa judum." लेकिन नक्सली संगठन इस मुद्दे पर खामोश हैं कि सरकारी कैंपों में जो लोग रह रहे हैं, वे नक्सलियों की दहशत के कारण अपना गांव छोड़ कर शरणार्थी बनने को मजबूर हुए हैं. एक तरफ सलवा जुड़ूम में शामिल नहीं होने वाले आदिवासियों को सलवा जुड़ूम समर्थकों के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है, तो दूसरी ओर सलवा जुड़ूम का साथ देने वालों को नक्सली अपना निशाना बना रहे हैं. पिछले दो साल में 700 से अधिक लोग इन दो पाटों के बीच फंस कर अपनी जान गंवा चुके हैं. नक्सल प्रभावित बस्तर के कोंटा विधानसभा के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं- "बस्तर में पहली बार आम जनता इतनी दहशत में है. हमें ऐसा नया राज्य तो नहीं चाहिए था. नक्सली, सरकार और उद्योगपतियों ने आदिवासियों को जिस तरह प्रताड़ित किया है, उससे अगर आदिवासियों के लिए अलग बस्तर राज्य की मांग तेज हो जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए." कवासी लखमा की आवाज़ कोई सुन रहा है ? हाशिया पर पढें -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070811/08ae396f/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Aug 11 00:36:11 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 11 Aug 2007 00:36:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS44KWN4KSk?= =?utf-8?b?4KSwIDog4KSs4KSC4KSm4KWC4KSVIOCkleClgCDgpKjgpYvgpILgpJUg?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkuOCkguCkteCkv+Ckp+CkvuCkqA==?= Message-ID: <363092e30708101206r6c58d513n57a174bc2c22811a@mail.gmail.com> आलोक प्रकाश पुतुल लोहा गरम है छत्तीसगढ़ का बस्तर इन दिनों बेहद गरम है. वैसे गरम होना बस्तर की तासीर है. 30 फीसदी से भी कम साक्षरतावाले बस्तर के आदिवासी सदियों से अपनी इबारत खुद ही लिखते रहे हैं, जिसमें शोषण का अंतहीन सिलसिला है औऱ इस शोषण के खिलाफ़ अनवरत चलनेवाली लड़ाई है. 1857 का कोया विद्रोह हो या उससे पहले 1825 में परलकोट के गेंद सिंह की लड़ाई, बस्तर हमेशा से संघर्ष करता रहा है. 1910 के अंग्रेजों के खिलाफ़ भूमकाल विद्रोह से जुड़े किस्से तो आज भी लोक कथाओं और गीतों के रुप में बस्तर की हवा में तैर रहे हैं, जो हमेशा शोषण के खिलाफ लड़ने की प्रेरणा देते रहते हैं. लेकिन इस बार दृश्य थोड़ा बदला हुआ है. सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ और औद्योगिक घराने बस्तर में पहली बार संगठित हो कर एक छत के नीचे आए हैं. उनका दावा है कि वे बस्तर के आदिवासियों का विकास करना चाहते हैं, उन्हें साक्षर बनाना चाहते हैं, नागर समाज जो सुख-सुविधाएं भोगता है वह सब कुछ उन्हें उपलब्ध कराना चाहते हैं और यह भी कि वे आदिवासियों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ना चाहते हैं. देश में सबसे अधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में 70 फीसदी जनसंख्या आदिवासियों की है, जो छत्तीसगढ़ की कुल आदिवासी जनसंख्या का 26.76 प्रतिशत है. लेकिन सरकार, विपक्षी राजनीतिज्ञ व औद्योगिक घरानों के इस दावे से बस्तर का आदिवासी समाज डरा और सहमा हुआ है और थोड़ा-थोड़ा नाराज़ भी. नाराजगी की यही आग बस्तर में धीरे-धीरे सुलग रही है. इस मामले की शुरुवात 4 जून 2005 को होती है. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह और टाटा स्टील कंपनी के बीच एक एमओयू में हस्ताक्षर के साथ घोषणा हुई कि टाटा स्टील बस्तर में 10 हजार करोड़ रुपए की लागत से प्रथम चरण में 2 मिलीयन टन और भविष्य में 3 मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लांट लगाएगा. महीने भर बाद 5 जुलाई 2005 को छत्तीसगढ़ सरकार ने एस्सार ग्रुप के साथ एक करार किया, जिसमें एस्सार ने बस्तर में प्रथम चरण में 1.6 मिलीयन टन और फिर 1.6मिलीयन टन की उत्पादन क्षमता वाला स्टील प्लॉंट लगाने की घोषणा की. खनिज संपदा में बेहद संपन्न छत्तीसगढ़ में इन दोनों ही एमओयू को लेकर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं हुईं. ज़ाहिर है, दुनिया की इन दो शक्तिशाली स्टील कंपनियों के साथ हुए एमओयू को लेकर लोगों में भारी उत्सुकता थी. मसलन इन कंपनियों को कितनी ज़मीन दी जाएगी, ज़मीन कहां की और किसकी होगी, अगर आदिवासियों की जमीन ली जाएगी तो जमीन के बदले आदिवासियों को कितना मुआवजा मिलेगा, उनके पुनर्वास की क्या-क्या शर्ते हैं, इन कंपनियों को पानी कहां से मिलेगा, स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर कितने होंगे, आदि-आदि. सवाल कई थे लेकिन इन सारे सवालों पर सरकार चुप थी. किस्सा एमओयू का ऐसी स्थिति में सरकार और इन दोनों कंपनियों के एमओयू का खुलासा ज़रुरी था. देश में होने वाले एमओयू अब तक सार्वजनिक दस्तावेज़ माने जाते रहे हैं, लेकिन छत्तीसगढ़ सरकार टाटा और एस्सार के साथ हुए एमओयू को सार्वजनिक करने की कौन कहे, इस पर कोई बात भी करने के लिए तैयार नहीं थी. सूचना के अधिकार के तहत जब लोगों ने इन एमओयू की छाया प्रति सरकार से चाही तो उन्हें जो जवाब मिला वह चौंकाने वाला था. सरकार की तरफ से बताया गया कि एमओयू को किसी तीसरे पक्ष को सार्वजनिक नहीं करने की शर्त भी एमओयू में है, इस लिहाज से एमओयू की प्रति उन्हें नहीं दी जा सकती. कांग्रेसी विधायकों ने भी ज़ोर-आजमाइश की लेकिन वे भी एमओयू की प्रति हासिल करने में नाकाम रहे. अंततः मामला विधानसभा तक जा पहुंचा. विधान सभा के बजट सत्र में जब विधायकों ने एमओयू की शर्तों के बारे में सरकार से जानना चाहा तो जन प्रतिनिधियों के सामने भी सरकार ने इन दोनों कंपनियों के साथ हुए एमओयू को सदन के पटल पर रखने से इंकार कर दिया. ज़ाहिर है, यह आकलन करना मुश्किल नहीं था कि सरकार ने प्रलोभन या दबाव में आकर एमओयू में ऐसी शर्तें शामिल की हैं, जो राज्य की जनता के हित में नहीं थीं. इसलिए सरकार इसे सार्वजनिक करने से बचती रही. बाद में सरकारी दफ्तरों से एमओयू का सच जिस तरह से छन-छन कर सामने आने लगा, उससे यह साबित हो गया कि सरकार ने सारे नियम-कायदे को ताक पर रख कर इन दोनों कंपनियों से समझौता किया है. तार-तार कानून छत्तीसगढ़ सरकार ने इन एमओयू में दोनों कंपनियों को बस्तर में कहीं भी ज़मीन चुनने का अधिकार दे रखा था. यानी इन कंपनियों के लिए केंद्र सरकार के उस नियम को धत्ता बता कर ज़मीन देने का आश्वासन दिया गया था, जिसके तहत इस तरह के किसी भी संयंत्र को लगाने से पहले जन सुनवाई के बाद पर्यावरण मंडल की अनापत्ति ज़रुरी होती है. यहां तक कि संयंत्र के रिजर्व फॉरेस्ट के इलाके में इस तरह की अनापत्ति की ज़रुरत की भी राज्य सरकार ने अनदेखी कर दी. बिजली की कमी से जुझ रहे छत्तीसगढ़ ने इन दोनों कंपनियों को न केवल बिजली वितरण के लिए अधोसंरचना उपलब्ध कराने का आश्वासन इस एमओयू में दिया है, बल्कि बिजली उपलब्ध कराने की जिम्मेवारी भी सरकार ने ली है. जन सुविधाओं के विस्तार या स्थानीय बेरोजगारों को रोजगार जैसी कोई भी शर्त इस एमओयू में नहीं शामिल की गई. एमओयू में सरकार ने कंपनियों को नए आयरन ओर के पट्टों के अलावा ऐसे पट्टे देने का भी आश्वासन दिया है, जिनका लाइसेंस पहले से ही किसी और कंपनी के पास है. इन पट्टों से आयरन ओर निकाल कर उनके निर्यात पर भी किसी तरह का प्रतिबंध एमओयू में शामिल नहीं है, यानी दोनों कंपनियां बस्तर में स्टील प्लांट लगाए बिना आयरन ओर बेचने का काम कर सकती हैं. यह सब कुछ 99 साल तक निर्बाध तरीके से चल सकेगा क्योंकि एमओयू की शर्तें आगामी 99 सालों तक प्रभावशाली हैं. इन सबों के अलावा एमओयू में इन दोनों कंपनियों को स्टील प्लांट के लिए आवश्यक पानी उपलब्ध कराने का जिम्मा भी सरकार ने लिया है. टाटा स्टील ने 35 मिलीयन गैलन पानी प्रति दिन की जरुरत बताई है तो एस्सार ने पहले 25 मिलीयन गैलन पानी, फिर उससे 2.7 गुणा ज्यादा पानी की मांग रख दी. हालांकि इस एमओयू में स्टील प्लांट के साथ वाटर ट्रिटमेंट प्लांट लगाने का कोई जिक्र नहीं था. बस्तर की शंखिनी और डंकिनी नदी का पानी जिन्होंने देखा होगा, उनके लिए यह स्वीकार कर पाना मुश्किल है कि ये नदियां पानी की नदियां हैं. अपने लौह अयस्क की धुलाई के बाद पानी को शंखिनी-डंकिनी में बहाने वाली एनएमडीसी ने इन नदियों को लाल और कीचड़युक्त नाले में बदल दिया है. शंखिनी-डंकिनी को बचाने के लिए लगभग 7 साल पहले एक जनहित याचिका लगाई गई थी लेकिन उस जनहित याचिका पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई. यहां यह उल्लेखनिय है कि टाटा और एस्सार, दोनों ही कंपनियों को स्टील प्लांट लगाने की स्थिति में इंद्रावती नदी से पानी लेना पड़ेगा, जो पिछले कुछ सालों से सूखे का सामना कर रही है. इंद्रावती के घटते जल स्तर के कारण छत्तीसगढ़ को उड़ीसा पर निर्भर रहना पड़ता है, जहां से 45 टीएमसी पानी इंद्रावती में छोड़ा जाता है. लेकिन हर साल पानी को लेकर विवाद बढ़ता ही जा रहा है. जानकारों के अनुसार पिछले 10 सालों से इंद्रावती के लगातार घटते जल स्तर के कारण बस्तर के कम से कम 4 हज़ार तालाब सूख चुके हैं. हालत ये है कि आम जनता को अपनी जरुरतें पूरी करने के लिए भी इस नदी से मुश्किल से पानी मिल पाता है. ऐसे में स्टील प्लांट लगने की दशा में आदिवासियों को इस पानी से भी वंचित होना पड़ेगा. एस्सार ने 2006 में ही बस्तर के बैलाडीला से विशाखापटनम तक 267 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन का निर्माण किया है. दुनिया की दूसरी सबसे लंबी पाइपलाइन के सहारे हर साल 80 लाख टन लौह अयस्क के चुरे की ढ़ुलाई की जा सकेगी. एस्सार स्टील के महानिदेशक प्रशांत रुइया की मानें तो सड़क मार्ग से लोहे के परिवहन में प्रति टन 550 रुपए के बजाय इस पाइपलाइन से परिवहन में प्रति टन केवल 80 रुपए का खर्चा आएगा. लेकिन इस पाइपलाइन को लेकर भी कम विवाद नहीं हैं. टाटा और एस्सार द्वारा स्टील प्लांट लगाने संबंधी गड़बड़ियों के मुद्दे पर जनहित याचिका लगाने वाले राज्य के वरिष्ठ अधिवक्ता कनक तिवारी कहते हैं- एस्सार ने इस पाइपलाइन के लिए भी अब तक मुआवजे का भुगतान नहीं किया है. इसके अलावा इस पाइपलाइन के लिए 8.4 मीटर चौड़ाई की ज़रुरत थी, लेकिन एस्सार कंपनी ने 20 मीटर की चौड़ाई में सारे पेड़ काट डाले. बहरहाल बस्तर में स्टील प्लांट के एमओयू का मामला राजनीतिक गलियारे में उलझ गया और टाटा व एस्सार ने अपने स्टील प्लांट के लिए बस्तर में ज़मीन तलाशना शुरु कर दिया. टाटा ने अपने लिए 5 हज़ार एकड़ से अधिक भूमि अधिग्रहण के लिए बस्तर के लोहण्डीगुड़ा इलाके के 10 गांवों का चयन किया, वहीं एस्सार ने अपने लिए दंतेवाड़ा से 20 किलोमीटर दूर धुरली और भांसी में 2500 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण की शुरुवात कर दी. स्टील संयंत्रों की स्थापना के लिए जिस तरह की नई तकनीक आई है, उसमें इतनी अधिक जमीन की जरुरत को लेकर ही सबसे पहले सवाल उठने शुरु हो गए. इससे पहले 1955 में जब भिलाई इस्पात संयंत्र की स्थापना की जा रही थी, उस समय भी बड़ी मात्रा में लोगों को विस्थापित करके इस्पात संयंत्र की नींव रखी गई. लेकिन 1972 के आसपास यह समझ में आ गया कि इतनी अधिक जमीनों की जरुरत नहीं थी. अंततः लगभग 50 प्रतिशत जमीनें सरकार को वापस कर दी गई और बाद में औने-पौने भाव में व्यवसायियों ने सरकार से जमीन खरीद ली. टाटा और एस्सार द्वारा इतनी ज़मीन मांगे जाने के पीछे यह तर्क दिया गया कि इस जमीन का इस्तेमाल बैंक से लोन लेने के लिए किया जाएगा. लेकिन बस्तर में जमीन पाना इतना आसान नहीं था. आदिवासियों ने अपनी सभाएं बुलाई और साफ कर दिया कि टाटा या एस्सार को अपनी ज़मीन नहीं देंगे. सरकार में शामिल विधायक और सांसद भी जनता के साथ आ गए और प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले इलाके की हवा गरम होने लगी. आज हालत ये है कि लोहण्डीगुड़ा-बेलर और भांसी-धुरली के इलाके में लोग टाटा-एस्सार का नाम सुनते ही भड़क उठते हैं. किस्से अरबो हैं असल में लोहण्डीगुड़ा-बेलर में टाटा और भांसी व धुरली में एस्सार के ख़िलाफ़ लोगों का गुस्सा अकारण नहीं है. सच तो ये है स्टील प्लांट और लोहे के नाम पर बस्तर ने अब तक जो कुछ देखा और भुगता है, उसे भुला पाना बस्तर के आदिवासियों के लिए संभव नहीं है. लोहा बस्तर और छत्तीसगढ़ के जन जीवन में रचा-बसा हुआ है. आयरन ओर से इस्पात बनाने की शुरुवात भी यहां पहली बार नहीं हो रही है. आगरिया गौंड़ आदिवासी तो जाने कब से आयरन ओर को गला कर इस्पात बनाने का काम करते रहे हैं. 19वीं शताब्दी के आरंभ में आगरिया आदिवासियों के कम से कम 441 परिवार घरेलू भट्ठियों में आयरन ओर से इस्पात बनाने का काम कर रहे थे. और तो और, टाटा ने पहले भी बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की पहल की थी. पुराने दस्तावेज़ों की मानें तो 1896 में जमशेदजी टाटा ने भी कुछ भूगर्भ शास्त्रियों के साथ बस्तर का दौरा किया था और बस्तर के लौह खदानों की उपलब्धता व गुणवत्ता के आधार पर बस्तर या उड़ीसा के संबलपुर में स्टील प्लांट लगाने की संभावनाएं तलाशी थीं, लेकिन रेललाइन व दूसरे यातायत के साधनों के अभाव में यह इरादा टालना पड़ा. इस इलाके में दूसरा कदम रखा एनएमडीसी ने. 15 नवंबर 1958 को स्थापित एनएमडीसी ने 1968 में इसी बस्तर के बैलाडीला से लौह अयस्क का उत्पादन शुरु किया. 14 हिस्सों में बंटे लौह अयस्कों की 2 डिपाजिटों से एनएमडीसी ने उत्खनन शुरु किया और जापान निर्यात करना शुरु कर दिया. प्रति दिन लगभग 1 करोड़ 22 लाख रुपये के 27 लाख टन आयरन ओर का निर्यात किया जा रहा था. लेकिन यह तो तस्वीर का एक पहलू है. बस्तर में कोंटा इलाके के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं-एनएमडीसी ने छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण ही किया है. आज भी एनएमडीसी में इस इलाके के अधिकतम 15 फीसदी लोगों को रोजगार मिला है. लेकिन बात केवल रोजगार की नहीं है. एनएमडीसी की खदानों की लीज जब 1995 में खत्म हुई, उसी के आस पास भारत सरकार से संबद्द साइंस एंड टेक्नालॉजी सेल की रिपोर्ट सामने आई. रिमोट सेसिंग एप्लीकेशन सेंटर द्वारा इस इलाके की व्यापक जांच और सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार की गई इस रिपोर्ट के अनुसार भारत सरकार के सार्वजनिक उपक्रम एनएमडीसी द्वारा लगातार उत्खनन और पर्यावरण की घोर उपेक्षा के कारण माईनिंग एरिया के चारों ओर के 35 हजार हेक्टेयर क्षेत्र का पर्यावरण, फ्लोरा-फाना, बॉयोडायवरसिटी, जंगल, खेती और जीव जगत बुरी तरह प्रभावित हुआ है. यह पूरा इलाका वन रहित हो गया है. केंद्र और राज्य सरकारों ने भी समय-समय पर माना कि एनएमडीसी के उत्खनन के कारण इस इलाके में रहने की परिस्थियां बदत्तर हुई हैं. इस इलाके के लगभग 100 किलोमीटर के विस्तार में बहने वाली शंखिनी नदी में लौह अयस्क की धुलाई के बाद छोड़े गए पानी के कारण शंखिनी और डंकिनी नदी लाल दलदल वाले क्षेत्र में बदल गईं. लाखों लोगों के लिए जीवनदायिनी ये नदियां मुसीबत बन गईं. गावों में नई-नई बीमारियों का प्रकोप फैलता चला गया. सैकड़ों गावों का पानी प्रदूषित हो गया और सिंचाई की सुविधा छिन गई. इन नदियों के दलदल में सैकड़ों पालतू पशु समा गए. कई बच्चे भी इन नदियों के दलदल में फंस कर अपनी जान गंवा बैठे. वायदों का सच बनाम नगरनार इधर 90 के दशक में ही बस्तर के मावलीभाटा और नगरनार में भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने स्टील प्लांट लगाने की जब घोषणा की तो बैलाडीला में जल, जंगल और जमीन की हालत से वाकिफ आदिवासियों ने संगठित हो कर यह सवाल पूछा कि इस स्टील प्लांट से हमें क्या मिलेगा. ज़ाहिर है, इसका जवाब किसी के पास नहीं था. यहां तक कि इस प्लांट के लिए जमीन अधिगग्रहण के दौरान जब आदिवासियों ने अपने पुनर्वास को लेकर सरकारी नीति का खुलासा चाहा तो पता चला कि इस स्टील प्लांट के लिए सरकार ने कोई पुनर्वास नीति बनाई ही नहीं है. लेकिन सरकार के लिए यह स्टील प्लांट तो जैसे नाक की बात हो गई थी. सरकारी दमन चक्र ऐसा चला कि सैकड़ों आदिवासियों के साथ-साथ कई लोग पुलिस और एनएमडीसी के गुंडों के हाथों प्रताड़ित हुए. भारत जन आंदोलन के नेता व तब के अनुसूचित जाति जनजाति आयोग के आयुक्त ब्रह्मदेव शर्मा को तो गुंड़ों ने नगरनार का विरोध करने पर लगभग नंगा करके जुलूस निकाला था और सार्वजनिक रुप से उन्हें प्रताड़ित किया था. ये वही ब्रह्मदेव शर्मा थे, जिनकी एक आईएएस के रुप में पूरे बस्तर में तूती बोलती थी. बहरहाल स्टील प्लांट का विवाद गहराता गया और सरकारी फाइलों का बोझ बढ़ता रहा. 1 नवंबर 2000 को जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तो सरकार ने उन पुरानी परियोजनाओं को खंगालना शुरु किया, जो मध्य प्रदेश से विरासत में मिली थी. इसी क्रम में राज्य बनने के कुछ ही दिन बाद एनएमडीसी ने फिर से बस्तर में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की और आनन-फानन में दंतेवाड़ा के गीदम के घोटपाल और हीरानार में स्टील प्लांट के लिए आदिवासियों की ज़मीन पर कब्जा करना शुरु कर दिया. 5वीं अनुसूची लागू होने के करण बस्तर के इस अधिसूचित क्षेत्र में नियमानुसार ग्राम सभा की सहमति से ही ज़मीन ली जा सकती है. लेकिन इस तरह के नियम को ताक पर रख कर जब जमीन अधिग्रहण का काम चालू रहा तो आदिवासी सरकार के खिलाफ लामबंद होने लगे और भूमि अधिग्रहण के मामले की गूंज दिल्ली तक जा पहुंची. छत्तीसगढ़ सरकार ने भी माना कि अधिग्रहण के लिए आवश्यक नियमों का पालन नहीं किया जा सका है. अंततः एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने अपना काम-धाम इस इलाके से समेट लिया। इसके बाद एनएमडीसी और छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बार फिर अपना रुख नगरनार की ओर किया. बस्तर के जिला मुख्यालय जगदलपुर से लगभग 40 किलोमीटर दूर है नगरनार. बस्तर के सर्वाधिक घनी आबादी और उत्कृष्ट कृषि योग्य भूमि वाले इस इलाके में जब स्टील प्लांट लगाने के ख्वाब आदिवासियों को दिखाए गए तो उन्हें बताया गया कि इस इलाके के आदिवासियों के लिए रोजगार, आवास, शिक्षा औऱ चिकित्सा के क्षेत्र में संभावनाओं के नए दरवाज़े खुलेंगे लेकिन इसका सच बस्तर की सल्फी से भी कड़वा साबित हुआ. मई 2001 में जब भारत सरकार के उपक्रम एनएमडीसी ने नगरनार में स्टील प्लांट लगाने की घोषणा की तो आदिवासियों को कई सब्जबाग दिखाए गए. कहा गया कि 40 हज़ार लोगों को रोजगार दिया जाएगा, लोगों को ज़मीन के बदले जमीन दी जाएगी, बच्चों को मुफ्त शिक्षा दी जाएगी, खेतों के बदले पर्याप्त मुआवजा दिया जाएगा और यह भी कि सभी लोगों को घर बना कर दिए जाएंगे. लेकिन जब इस स्टील प्लांट के लिए 300 एकड़ ज़मीन अधिग्रहण का काम शुरु हुआ किया तो एनएमडीसी और राज्य सरकार की नियत आदिवासियों की समझ में आ गई. शुरुवात तो ग्राम सभा से से ही हुई जहां ज़मीन अधिग्रहण से पहले गांव वालों की सहमति लेनी थी. सरकार ने तो जैसे तय कर रखा था कि नियम-क़ायदा को ताक पर रख कर चाहे जैसे भी हो एनएमडीसी के लिए आदिवासियों की ज़मीन हासिल करनी है. लेकिन जब आदिवासियों से बंदूक की नोंक पर सहमति बनाने के प्रयास शुरु हुए तो लोगों ने विरोध करना शुरु कर दिया. 24 अक्टूबर 2001 को ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ आदिवासियों ने जब एनएमडीसी और सरकार का विरोध करना शुरु किया तो पुलिस ने पहले तो निहत्थे लोगों पर बर्बरता से लाठियां बरसाई और जब बात उससे भी नहीं बनी तो गोलियां चलाई गई. महिलाओं समेत 50 से अधिक लोग बुरी तरह हताहत हुए. लेकिन आदिवासियों का विरोध इस तरह की कार्रवाई से भी कम नहीं हुआ. 2 मार्च 2002 को आदिवासियों ने अपनी ग्रामसभा की और तय किया कि एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट के लिए ज़मीन अधिग्रहण का काम नियम-क़ानून के दायरे में हो और विस्थापित होने वाले आदिवासियों के पुनर्वास की व्यवस्था के अलावा उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन दी जाए, जिससे उनकी आजीविका चलती रहे. उम्मीद की जा रही थी कि सरकार आदिवासियों की इन मांगों पर विचार करेगी और मामला सुलझ जाएगा. लेकिन किसी भी क़ीमत पर एनएमडीसी को नगरनार में ज़मीन दिलवाने पर अड़ी हुई सरकार को आदिवासियों का यह विरोध नहीं जंचा. इस ग्रामसभा के अगले दिन से ही पुलिस ने विस्थापित होने वाले आदिवासियों को धमकाना शुरु कर दिया. विस्थापित आदिवासियों को मनमाने तरीके से तय किए गए मुआवजे के चेक जबरदस्ती लेने के लिए पुलिस ने सारे हथकंडे अपनाने शुरु कर दिए. कस्तूरी, नगरनार या आमागुड़ा जैसे प्रभावित गांव के लोगों के जेहन में आज भी 10 मार्च की याद ताज़ा है. अपनी 5 एकड़ ज़मीन एनएमडीसी के हवाले करने वाले नगरनार गांव में हड्डियों के ढ़ांचे की तरह दिखने वाले रुपसाय हल्बी में बताते हैं- "पुलिस ने उस रात अपनी बर्बरता की सारी हदें लांघ दी थीं." गांव वालों के अनुसार एनएमडीसी के प्रस्तावित स्टील प्लांट वाले गांवों में पुलिस ने देर रात को धावा बोला और गांव में महिलाओं और बच्चों समेत जो भी नज़र आया, उन्हें बेतहाशा पीटना शुरु किया. घरों में सो रहे लोगों के दरवाज़े तोड़ डाले गए और लोगों को गांव की गलियों में घेर-घेर कर जानवरों की तरह मारा गया. महिलाओं समेत लगभग 300 लोगों को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. लेकिन इसके बाद कुछ भी नहीं हुआ. यह "कुछ नहीं होना" नगरनार के लोगों के लिए एक ऐसा नासूर बन गया, जिसका जख्म लगातार रिसता रहता है. जिस स्टील प्लांट के लिए एनएमडीसी और सरकार ने आदिवासियों पर इतने जुल्म ढ़ाए, उस प्रस्तावित इलाके में एनएमडीसी ने रातों-रात चाहरदिवारी बना दी और अपने बोर्ड टांग दिए. इस बात को लगभग 5 साल होने को आए, लेकिन चाहरदिवारी के अलावा स्टील प्लांट का काम आगे नहीं बढ़ा. जिन आदिवासियों की ज़मीन छीनी गई, उनके पास कोई साधन नहीं बचा. खेती वे कर नहीं सकते थे, क्योंकि ज़मीन एनएमडीसी के कब्जे में है और वायदे के मुताबिक उन्हें नौकरी तो मिली ही नहीं, क्योंकि स्टील प्लांट का काम ही शुरु नहीं हुआ. 303 विस्थापित परिवारों में से 43 परिवार तो ऐसे हैं, जिन्हें मुआवजे की राशी भी नहीं मिली. नगरनार में एनएमडीसी की चाहरदिवारी में ही बने राज्य के पहले आईएसओ थाना के सहायक उपनिरीक्षक प्रमोद मिश्रा अपनी कुर्सी पर लगभग पसरते हुए कहते हैं- "अभी भी शायद आदिवासियों के ख़िलाफ़ कुछ मामले लंबित हैं." ज़ाहिर है, अपना सब कुछ गंवा देने के बाद अब आदिवासियों के हिस्से अदालतों के चक्कर हैं, भूख है, बदहाली है और वायदों के ढेर तो हैं ही, जिसके पूरे होने की उम्मीद अब सभी लोग छोड़ चुके हैं. एनएमडीसी के टेक्नीकल डायरेक्टर पीएस उपाध्याय और नगरनार परियोजना के प्रबंधक आलोक मेहता बताते हैं कि अब नगरनार में स्टील प्लांट के बजाय एक लाख टन वार्षिक उत्पादन की क्षमता का स्पंज ऑयरन संयंत्र लगाया जाएगा. इसके अलावा 10 मेगावाट क्षमता वाले केप्टिव पावर प्लांट की भी स्थापना की जाएगी. लेकिन बस्तर में अब इस बात पर भरोसा करने को कोई तैयार नहीं है. वैसे भी स्टील प्लांट की तुलना में स्पांज ऑयरन संयंत्र में लोगों को कितना रोजगार मिलेगा, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. लोहा गरम है टाटा स्टील ने जब लोहण्डीगुड़ा में अपने संयंत्र के लिए ज़मीन अधिग्रहण की घोषणा की तो प्रस्तावित संयंत्र से विस्थापित होने वाले 10 गांवों के लोगों को बैलाडीला और नगरनार की बदहाली याद आ गई. टाकरागुड़ा, कुम्हली, बड़ांजी, बेलर, सिरिसगुड़ा, बड़ेपरौदा, दाबपाल, धूरागांव, बेलियापाल और छिंदगांव के लोगों ने साफ कर दिया कि वे जिस भूमि पर बरसों से खेती करते आए हैं, उसे किसी भी हालत में स्टील प्लांट को के लिए नहीं देंगे. टाटा के प्रस्तावित संयंत्र के लिए इस इलाके की 2161 हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के अधिग्रहण किया जाना था. हालांकि जब जमीन अधिग्रहण की कार्रवाई शुरु की गई तब टाटा ने अपने प्रस्तावित इस्पात संयंत्र की प्रोजेक्ट रिपोर्ट भी पेश नहीं की थी. 3906000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले बस्तर में केवल 27.5 प्रतिशत हिस्सा ही कृषि योग्य है. स्थानीय लोगों की मानें तो इस मामले में जगदलपुर का हिस्सा और भी पिछड़ा है, जहां 56 प्रतिशत किसानों के पास एक एकड़ या उससे भी कम ज़मीन है. इसमें भी लोहण्डीगुड़ा के इलाके में सबसे अधिक कृषि योग्य भूमि है. टाटा की प्रस्तावित स्टील प्लांट की 2161 हेक्टेयर जमीन में से 1861 हेक्टेयर जमीन आदिवासियों की कृषि भूमि है. ग्रामीण टाटा द्वारा प्रस्तावित मुआवजे से भी असंतुष्ट थे. हालांकि टाटा के अनुसार-सीमित विकल्पों के बावजूद इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि आवश्कताओं को न्यूनतम स्तर पर रखकर, भूखंड को सही स्वरूप देकर एवं भूखंड की सीमा के यथोचित निर्धारण के जरिए विस्थापन को न्यूनतम किया जाए। टाटा स्टील ने आदिवासियों को पुनर्वास के पर्चे भेजे हैं, उसके अनुसार-अपनी 75 % से ज्यादा जमीन से वंचित होने वाले प्रभावित जमीन मालिकों की संख्या लगभग 840 है और प्रभावित होने वाले घरों की संख्या लगभग 225 है। पुनर्स्थापना एवं पुनर्वास का यह पैकेज मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़ के समक्ष विगत 15 दिसम्बर 2005 को एवं जिला पुनर्वास समिति के सदस्यों के समक्ष 26 दिसम्बर 2005 को प्रस्तुत किया गया था। जिला पुनर्वास समिति के सुझाव को ध्यान में रखते हुए, प्रशिक्षण एवं नियोजन से संबंधित प्रावधानों की यथासंभव व्याख्या की गई है।... भू-अधिग्रहण कानून के प्रावधानों के अनुरुप मुआवजा जिसमें तोषण, ब्याज तथा छत्तीसगढ़ सरकार की पुनर्वास नीति 2005 के अनुसार अनुग्रह राशि भी सम्मिलित है। टाटा के अनुसार ऊसर जमीन के लिए 50 हज़ार रुपए प्रति एकड़, एकल फसल वाली असिंचित जमीन के लिए 75 हज़ार रुपए प्रति एकड़ और दोहरी फसल वाली सिंचित जमीन के लिए 1 लाख रुपए प्रति एकड़ मुआवजे का प्रावधान रखा गया है. लेकिन ग्रामीणों की मांग थी कि उन्हें इस तरह के मुआवजे के साथ-साथ स्टील प्लांट में शेयर भी मिले. इसके अलावा मांगों की एक लंबी फेहरिस्त थी, जिसको लेकर टाटा स्टील और जिला प्रशासन कोई आश्वासन देने के मूड में भी नहीं था. ऐसे में जब छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में राज्य बनने की पांचवीं वर्षगांठ का उत्सव चल रहा था, उस समय माड़िया आदिवासी बहुल लोहण्डीगुड़ा के लोग टाटा और टाटा के पक्ष में खड़ी सरकार के ख़िलाफ लामबंद हो रहे थे. 5 नवंबर 2005 को हज़ारों लोगों ने बेलर में एक आमसभा की. भाजपा विधायक लच्छू कश्यप, बैदुराम कश्यप और भाजपा के ही सांसद बलीराम कश्यप ने सभा को संबोधित करते हुए लोगों को आश्वस्त किया कि मुख्यमंत्री से चर्चा कर के टाटा के इस्पात संयंत्र के लिए कहीं और जगह तलाश की जाएगी. लेकिन भाजपा सांसद कुछ ही रोज में टाटा संयंत्र के सुर में सुर मिलाने लगे. सरकार के प्रतिनिधि गांव वालों को समझाने में लग गए कि उन्हें संयत्र लगने से क्या-क्या फायदा होगा. टाटा संयंत्र के खिलाफ लोग संगठित होते रहे और सरकार ने भी जमीन अधिग्रहण का अपना एजेंडा लागू करना आरंभ किया. उधर एस्सार के खिलाफ भी दंतेवाड़ा के भांसी और धुरली में इसी तरह का माहौल बन रहा था. एस्सार ने भांसी और धुरली गांव के आस पास 1254 हेक्टेयर जमीन अपने स्टील प्लांट के लिए चिन्हांकित की थी. लेकिन जनता ने एस्सार के प्रस्तावित स्टील प्लांट का विरोध शुरु कर दिया. मुद्दे भांसी-धुरली में भी वही थे. बंदूक की नोंक पर संविधान फिर शुरु हुआ ग्राम सभा का खेल यानी बंदूक की नोक पर संविधान. अनुसूचित क्षेत्र Scheduled Area के लिए 1996 में पारित हुए पंचायत राज विस्तार कानून पेशा (Provisions of the Panchayats Extension to Scheduled Area PESA) सबसे पहले लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों की रक्षा के लिए सामने आया. ग्रामीणों के विरोध प्रदर्शन के बीच सरकार ने टाटा स्टील के लिए सबसे पहले 10 मई 2006 को लोहण्डीगुड़ा-बेलर की ग्राम सभाओं का विशेष सम्मेलन आयोजित किया था लेकिन ग्रामीणो ने पुनर्वास के विरोध में अपनी आपत्ति दर्ज कराई और अपनी 13 सूत्री मांग रखी। गांव वालों ने जिला प्रशासन को 13 सूत्री मांग पत्र सौंपकर स्पष्ट कर दिया कि था जब तक ये मांगें मानी नहीं जाती हैं, तब तक ये गांव खाली नहीं होगे. बेलर-लोहण्डीगुड़ा के लोगों की मांग थी कि केंद्र और राज्य सरकार द्वारा स्टील प्लांट में 49 प्रतिशत शेयर की व्यवस्था के अलावा बंजर जमीन का 5 लाख, एकफसली जमीन का 7 लाख और दो फसली जमीन का 10 लाख रुपए मुआवजा, प्रभावित परिवारों में से एक को अनिवार्य रुप से नौकरी जैसी शर्तें रखी गई थीं. लेकिन अपनी मांगों को लेकर अड़े हुए ग्रामीणों के व्यापक विरोध को देखते हुए ग्राम सभाओं के सम्मेलन रद्द कर दिए गए. दुबारा 7 जून को ग्राम सभा की कोशिश भी असफल साबित हुई. इसके बाद 20 जुलाई 2006 को ग्राम सभा का आयोजन किया गया. इससे 2 दिन पहले जिला प्रशासन ने ग्रामीणों की बैठक ली. बड़ांजी और बेलर के सरपंच के अनुसार कलेक्टर ने इस बैठक में बताया कि पुनर्वास को लेकर हमारी सारी मांगें मान ली गई हैं. कलेक्टर की इस घोषणा के बाद कुछ ग्रामीण मांगों को लेकर हुई सहमति का जब लिखित प्रमाण लेने पर अड़ गए तो फिर से ग्राम सभा पर संकट के बादल मंडराने लगे. लेकिन जिला प्रशासन किसी भी तरह ग्राम सभा निपटाने के मूड में था. इसके बाद प्रशासन ने पूरे इलाके में धारा 144 लागू कर दिया और 55 ग्राम प्रमुखों के खिलाफ मामला दायर कर दिया गया। 17 लोगों को तो गिरफ्तार कर जेल भी भेज दिया गया। लेकिन इसके बाद भी 20 जुलाई को हुए ग्रामसभा में गतिरोध कायम रहा. 2 ग्राम पंचायतों में तो सभा हो ही नहीं पाईं. जिन 8 गांवों में ग्रामसभाएं हुईं, उनमें भी 3 पंचायतों में ग्रामीणों के फैसले ग्रामसभा की पंजी में दर्ज ही नहीं हुए. बाद में सरकारी अधिकारियों द्वारा ग्रामसभा में अनुपस्थित लोगों को सभापति बता कर पंजी में मनमाने निर्णय दर्ज कर लिए गए. इसके बाद 3 अगस्त 2006 को इस इलाके में सशर्त ग्रामसभा आयोजित की गई. गांव वालों की मानें तो अब तक हुए ग्रामसभाओं में भारी पुलिस बल का इस्तेमाल कर लोगों पर दबाव बनाया गया. इस ग्राम सभा में आदिवासियों को बुला कर उन्हें पर्ची दी गई और उनसे अंगूठे का निशान लगवा कर उनसे जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण के लिए सहमति ले ली गई. कुम्हली गांव में एक चौराहे पर बैठे एक बुजुर्ग वेणुधर कहते हैं- अगर बंदूक के बल पर आयोजित सभा को आप ग्रामसभा कहते हैं, तो मुझे कुछ नहीं कहना है. उनके साथ बैठे दूसरे बुजुर्ग घासूराम, धनीराम, हीरा आदि भी कहते हैं कि ग्रामसभा के नाम पर खानापूर्ति हुई है. खेती पर आश्रित ये सभी लोग टाटा के संयंत्र के खिलाफ हैं. हालांकि ऐसा नहीं है कि गांव के सभी लोग संयंत्र के खिलाफ हैं. गांव में बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिनके नाम पर कोई जमीन ही नहीं है और ऐसे सभी लोग इस इलाके में संयंत्र के पक्ष में हैं. एक पंचायत सचिव बताते हैं कि सरकारी योजनाओं से किसी भी तरह जुड़े हुए लोग टाटा के संयंत्र का विरोध नहीं कर सकते. ऐसा करने का साहस जिन लोगों ने किया, उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया. लोहंडीगुड़ा में टाटा के पक्ष में जिला प्रशासन द्वारा 2 ग्रामसभाओं के बाद माना जा रहा था कि अब टाटा के लिए स्टील प्लॉंट का रास्ता साफ हो गया लेकिन इसके बाद आदिवासियों ने 24 फरवरी 2007 को अपनी ग्रामसभा बुलाई. जाहिर तौर पर सरकार के लिए यह चुनौती थी. टाकरागुड़ा और बेलर में आमसभा के बाद आदिवासियों पर पुलिस का कहर बरपा और आदिवासी महासभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष व भाकपा के पूर्व विधायक मनीष कुंजाम समेत कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए. बस्तर एक बार फिर सुलग उठा और लोहण्डीगुड़ा और बेलर में आंदोलन तेज होने लगा. सरकार और आदिवासी आमने-सामने आ गए. दोनों ने एक दूसरे पर हमला बोलना शुरु कर दिया. कई पुलिस वाले आदिवासियों के आक्रोश के शिकार हुए. दूसरी ओर आंदोलन से नाराज जिला प्रशासन द्वारा आदिवासियों को मारा–पीटा गया, लाठियां बरसाई गईं. इससे भी मन नहीं भरा तो आदिवासियों को गिरफ्तार कर के जेलों में भर दिया गया. लेकिन इससे आदिवासियों के हौसले में कमी नहीं आई. आदिवासी आज भी अपनी मांग के लिए अड़े हुए हैं. लोहण्डीगुड़ा और उसके आसपास के गांवों में एक अजीब-सा आक्रोश पसरा हुआ है, जिसका शिकार कोई भी हो सकता है. हालत ये है कि लोग अपनी जान देने पर तुले हुए हैं. आज से 45 साल पहले लोहण्डीगुड़ा में 31 मार्च 1961 को सरकारी लेवी के खिलाफ लोहण्डीगुड़ा के आदिवासियों ने उग्र आंदोलन शुरु किया और 13 आदिवासियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. जिन आदिवासियों ने जनता के मुद्दे पर अपनी जान दे दी थी, उनमें कुम्हली गांव के अजम्बर सिंह भी शामिल थे. शायद इतिहास अपने को दुहराता है. अजम्बर के बेटे बल्देव सिंह इस बार लोहण्डीगुड़ा में टाटा के खिलाफ ताल ठोंककर खड़े हैं. बल्देव कहते हैं- "मेरे पास पांच एकड़ जमीन है और मेरी पूरी जमीन ली जा रही है. जनता और अपने स्वाभिमान की लड़ाई में अगर मेरी जान भी चली जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं है. मैं एक ही बात जानता हूं-लड़ाई जारी रहनी चाहिए." लेकिन इलाके के भाजपा सांसद बलीराम कश्यप इस तरह की लड़ाई को गैरजरुरी बताते हुए कहते हैं कि लोहण्डीगुड़ा में बाहरी हस्तक्षेप के कारण माहौल बिगड़ा है. कश्यप का मानना है कि टाटा का विरोध करने वाले असल में विकास के विरोधी हैं. हालांकि उनकी ही पार्टी के स्थानीय विधायक लच्छुराम कश्यप और डाक्टर सुभाउ कश्यप पूरे मामले में जिला प्रशासन की भूमिका को संदिग्ध बताते हैं। लच्छुराम कश्यप कहते हैं- " ग्रामसभा के लिए ग्राम पंचायतों पर दबाव डाल कर बैठक बुलाई गई. जिला प्रशासन द्वारा जबरिया जमीन अधिग्रहण के लिए लिए अदिवासियों पर दबाव डाला जा रहा है कि वे अपनी जमीन टाटा को दे दें." दोनों विधायकों ने टाटा का यह मामला विधानसभा में भी जोर-शोर से उठाया है. लेकिन लगता नहीं है कि सरकार अपनी ही पार्टी के विधायकों द्वारा उठाए गए मुद्दे को लेकर चिंतित है. टाटा-एस्सार भाई-भाई उधर एस्सार की ग्रामसभा का किस्सा भी लोहण्डीगुड़ा से अलग नहीं है. दंतेवाड़ा के धुरली और भांसी में सरकार ने जब एस्सार के लिए जमीन अधिग्रहण का काम शुरु किया तो ग्राम सभा के लिए पूरे इलाके को पहले पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया गया. उसके बाद भांसी की 280 हेक्टेयर और धुरली की 109.5 हेक्टेयर भूमि के लिए 10 जून 2006 और 3 अगस्त 2006 को ग्रामसभा की राय ली गई. 10 जून को हुई विशेष ग्रामसभा में राज्य के नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा एस्सार का साथ देने के लिए पहुंचे. नक्सलियों के खिलाफ बस्तर में सरकारी संरक्षण में सलवा जुड़ूम नामक आंदोलन चलाने वाले आदिवासी विधायक महेंद्र कर्मा का तर्क था कि एस्सार के स्टील प्लांट से इस इलाके का विकास होगा लेकिन ग्रामीणों ने उनकी बात तक नहीं सुनी और नारेबाजी करते हुए सभा का बहिष्कार कर दिया. महेंद्र कर्मा का आरोप था कि भाकपा के लोग ग्रामीणों को भड़का रहे हैं और जनहित के मुद्दे पर राजनीति की जा रही है. इस बीच लगभग 1300 ग्रामीणों ने कलेक्टर को पत्र लिख कर स्पष्ट कर दिया कि वे अपनी जमीन एस्सार को नहीं देंगे. जाहिर है, प्रताड़ना और दबाव का दौर यहां भी चला. 9 सितंबर 2006 को जब भांसी में विशेष ग्राम सभा का आयोजन किया गया तो इस छोटे से गांव में सशस्त्र बल की दो कंपनियां तैनात कर दी गईं. इसके अलावा जिला पुलिस बल के 100 से अधिक जवान गांव के चप्पे -चप्पे पर तैनात कर दिए गए. दंतेवाड़ा जिला आदिवासी महासभा के सचिव रामा सोरी का आरोप है कि भूअर्जन के लिए अनैतिक तरीका अपनाया गया और ग्रामसभा के लिए भी जबरदस्ती की गई. हालांकि एस्सार के प्रतिनिधि विजय क्रांति इस तरह के दबाव और प्रताड़ना को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं कि जमीन अधिग्रहण का काम हमारा नहीं सरकार का है. इसके लिए सरकार क्या-क्या तरीका अपनाती है, यह सरकार मामला है. हालांकि वे यह नहीं बताते कि 10 जून 2006 की सभा में सरकारी अधिकारियों के साथ-साथ एस्सार के क्षेत्रीय निदेशक समेत कई महत्वपूर्ण अधिकारी क्यों उपस्थित थे. एस्सार के विस्थापितों के मुद्दे पर पुनर्वास समिति की बैठक की अध्यक्षता करने वाले राज्य के लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री केदार कश्यप के अनुसार एस्सार स्टील परियोजना के शुरु होने से यहां एक लाख 30 हजार से अधिक स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे. ज्ञात रहे कि देश भर में एस्सार स्टील के लगभग 15 हज़ार कर्मचारी हैं. ऐसे में अकेले बस्तर में सवा लाख से अधिक लोगों को रोजगार क्या संभव है ? केदार कश्यप की मानें तो 1700 लोगों को एस्सार के स्टील प्लांट में नौकरी दी जाएगी, इसके अलावा लगभग 5 हजार लोग स्टील प्लांट के दूसरे काम में लगेंगे. स्टील प्लांट के शुरु होने के बाद लगभग 1 लाख 25 हजार लोगों को स्टील प्लांट के विभिन्न सहायक उद्योगों में रोजगार मिल जाएगा. आयरन ओर ऊर्फ दिल्ली दूर है लेकिन बस्तर के विभिन्न मुद्दों पर पिछले कई सालों से क़ानूनी लड़ाइयां लड़ने वाले अधिवक्ता प्रताप नारायण अग्रवाल स्टील प्लांट की स्थापना और रोजगार के मुद्दे को किनारे करके देखने की बात करते हैं. उनका तर्क है कि बस्तर में टाटा और एस्सार स्टील प्लांट लगाने के बजाय मूल रुप से आयरन ओर का उत्खनन करने और उसके निर्यात में इनटरेस्टेड हैं. दोनों ही इस्पात कंपनियों के साथ हुए एमओयू में सरकार ने उन्हें उनकी सुविधानुसार आयरन ओर के पट्टे उपलब्ध कराने के लिए आश्वस्त किया है. इसके अलावा सरकार ने उन्हें बस्तर से आयरन ओर के उत्खनन, निर्यात और बिक्री की छूट भी दी है. प्रताप नारायण अग्रवाल को आशंका है कि ये दोनों कंपनियां अपने दूसरे संयंत्रों के लिए कच्चा माल यहां से ले जाएंगी. बस्तर के लोहे पर अभी तक एनएमडीसी का कब्जा रहा है, जिसका एकाधिकार खत्म करने के लिए पिछले चार दशकों में कई कोशिशें हुईं. आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण के शुरुवाती दौर में एनएमडीसी को बीमार बना और बता कर बैलाडीला की लोहे की खदानों को निजी हाथों में देने की कई कोशिशें की गईं. इस मुद्दे को मीडिया में जोरशोर से उठाने वाले पत्रकार सुदीप ठाकुर कहते हैं- तत्कालीन इस्पात व खान मंत्री संतोष मोहन देव और प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने बैलाडीला की सबसे कीमती खदान 11 बी को मित्तल समूह की निप्पन डेनरो के हवाले करने के लिए कई योजनाएं बनाईं. प्रधानमंत्री के इशारे पर सबसे पहले एनएमडीसी और निप्पन डेनरो में करार करवा कर एक नयी कंपनी बनवाई गई. इस नई कंपनी बैलाडीला मिनरल डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड में हास्यास्पद तरीके से निप्पन डेनरो की 89 प्रतिशत साझेदारी थी और एनएमडीसी के हिस्से केवल 11 प्रतिशत. सुदीप ठाकुर का दावा है कि प्रधानमंत्री नरसिंहराव की कोशिशों के बाद बैलाडीला की लौह खदानों पर निजीकरण ने अपना शिकंजा कसना शुरु कर दिया. दूसरी ओर एनएमडीसी के हाथों से लौह खदानों को लेकर निजी हाथों में दिए जाने की वकालत करते हुए टाटा स्टील के प्रबंध निदेशक एम बी मुथुरमन कहते हैं कि एनएमडीसी अब तक सारे अयस्क जापान जैसे देशों को निर्यात करता रहा है. यह राष्ट्रहित के खिलाफ है. ऐसे में अगर बस्तर के लौह खदानों की लीज बस्तर में ही संयंत्र लगाने वालों को दी जाएगी, तो इससे अच्छा और क्या होगा. ताज़ा मामले में टाटा और एस्सार समूह ने भी राज्य सरकार के साथ एमओयू करने के बाद सबसे पहले बैलाडीला की लौह खदानों पर अपनी नजरें टिकाई. 27 अक्टूबर 2005 को एस्सार ने और 13 मार्च 2006 को टाटा ने लौह खदानों के लिए अपना आवेदन दिया. इससे पहले भी इस इलाके में खदानों की लीज के लिए 25 आवेदन आए थे, लेकिन सरकार ने उन आवेदनों को निरस्त करते हुए 1 नवंबर 2006 को केवल एस्सार समूह को 2285 हेक्टेयर क्षेत्र का हिस्सा देने की अनुशंसा भारत सरकार को अनुमोदन के लिए भेज दी. लगभग 2 महीने बाद 28 दिसंबर को ही केंद्र सरकार ने इसे अपनी हरी झंडी दे दी. लेकिन 25 अन्य आवेदनों पर विचार क्यों नहीं हुआ, इसके जवाब में मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं- "क्योंकि दूसरे लोग बस्तर में उद्योग नहीं लगा रहे हैं." नो मेंस लैंड आम तौर पर अशांत इलाकों में पूंजी निवेश से उद्योगपति हमेशा से बचते रहे हैं. ऐसे में देश में सर्वाधिक नक्सल प्रभावित बस्तर में टाटा और एस्सार की दिलचस्पी ने कई सवाल खड़े किए हैं. हालांकि कहा यही जा रहा है कि बस्तर के अपार खनिज का मोह कोई छोड़ना नहीं चाहता. दूसरी ओर सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ अपनी पूरी ऊर्जा झोंक दी है. लेकिन लोगों की निगाह सरकारी संरक्षण में नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा द्वारा नक्सलियों के खिलाफ चलाए जा रहे सलवा जुड़ूम यानी शांति अभियान और टाटा-एस्सार के समीकरण की ओर भी है. टाटा-एस्सार ने जिस समय छत्तीसगढ़ सरकार से एमओयू किया उसके आसपास ही जून 2005 से बस्तर में नक्सलियों के खिलाफ सलवा जुड़ूम अभियान शुरु हुआ. इस अभियान के बाद नक्सलियों ने अपना हमला तेज़ किया और आज हालत ये है कि पिछले 22 महीनों में कश्मीर समेत देश के किसी भी दूसरे हिस्से से ज्यादा लोग मारे गए हैं. जगदलपुर के पत्रकार राजेंद्र तिवारी के अनुसार टाटा ने फरसपाल, मासोड़ी, कुंदेपाल, दारापाल, चिदरापाल व फूलगट्टा की 2690 हेक्टेयर जमीन सरकार से लीज पर मांगी थी. सलवा जुड़ूम शुरु होने के बाद 50 हज़ार से अधिक लोग अपने गांवों को छोड़ कर सरकारी शिविरों में रह रहे हैं, लगभग 40 हज़ार लोगों को बस्तर छोड़ कर पड़ोसी राज्यों उड़ीसा और महाराष्ट्र में शरण लेनी पड़ी है. सैकड़ों गांव खाली हो गए हैं. नक्सली संगठन सीपीआई माओवादी के महासचिव गणपति ने सलवा जुड़ूम को लेकर पहले ही कई गंभीर आरोप लगाए हैं. Independent Citizens' Initiative को लिखे एक पत्र में गणपति का कहना है- " There is immense wealth in the areas inhabited by adivasis from Jharkhand to AP and all the big guns have their greedy eyes fixed on this wealth. Hence they leave no stone upturned to grab this wealth even if it means massacring the indigenous people, razing entire villages to the ground and suspending all fundamental rights of the people. In just the three states Chattisgarh, Jharkhand and Orissa over three lakh crores of rupees are likely to be pumped in to extract several times more wealth to fill the coffers of these steel and aluminium barons of India and imperialist countries.. ... This is the logic behind salwa judum." लेकिन नक्सली संगठन इस मुद्दे पर खामोश हैं कि सरकारी कैंपों में जो लोग रह रहे हैं, वे नक्सलियों की दहशत के कारण अपना गांव छोड़ कर शरणार्थी बनने को मजबूर हुए हैं. एक तरफ सलवा जुड़ूम में शामिल नहीं होने वाले आदिवासियों को सलवा जुड़ूम समर्थकों के आक्रोश का सामना करना पड़ रहा है, तो दूसरी ओर सलवा जुड़ूम का साथ देने वालों को नक्सली अपना निशाना बना रहे हैं. पिछले दो साल में 700 से अधिक लोग इन दो पाटों के बीच फंस कर अपनी जान गंवा चुके हैं. नक्सल प्रभावित बस्तर के कोंटा विधानसभा के आदिवासी विधायक कवासी लखमा कहते हैं- "बस्तर में पहली बार आम जनता इतनी दहशत में है. हमें ऐसा नया राज्य तो नहीं चाहिए था. नक्सली, सरकार और उद्योगपतियों ने आदिवासियों को जिस तरह प्रताड़ित किया है, उससे अगर आदिवासियों के लिए अलग बस्तर राज्य की मांग तेज हो जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए." कवासी लखमा की आवाज़ कोई सुन रहा है ? हाशिया पर पढें -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070811/08ae396f/attachment-0001.html From gora at sarai.net Sun Aug 12 01:22:24 2007 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Sun, 12 Aug 2007 01:22:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= [Indlinux-hindi] SCIM keymap for Hindi Baraha system In-Reply-To: <1186819237.6418.169.camel@anubis> References: <1186760428.6418.118.camel@anubis> <1186819237.6418.169.camel@anubis> Message-ID: <1186861944.3026.12.camel@anubis> On Sat, 2007-08-11 at 13:30 +0530, Gora Mohanty wrote: [...] > I have made up preliminary Baraha keymaps for the following scripts: > Bengali, Gujarati, Kannada, Malayalam, Oriya, Punjabi, Tamil, and > Telugu. A zip file containing all these maps is available at > http://oriya.sarovar.org/download/baraha-maps.zip [...] I have made a project for this on the NRCF-sponsored IndLinux server. The project is at http://code.indlinux.net/projects/baraha-maps/ You can download the zip file mentioned above in my earlier message from the project page. The direct link for download is http://code.indlinux.net/frs/?group_id=28&release_id=8 . Please note that the http://oriya.sarovar.org link is likely to disappear as that web page belongs to a different project. Regards, Gora From jhamanoj01 at yahoo.com Mon Aug 13 21:36:19 2007 From: jhamanoj01 at yahoo.com (manoj jha) Date: Mon, 13 Aug 2007 09:06:19 -0700 (PDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Bas,ek akkhad nazm-numa Message-ID: <528636.53990.qm@web37404.mail.mud.yahoo.com> Bandhugan, maine kuchh pahle Naaraaz Darbhangwee ke do ash'aar aapse saajhaa kiyaa thaa.is baar ek nazm jaisi ek shai aapse baant rahaa hoon.NaraazBhai dharam-dhandhee aur bhaavnaa-bhangur type ke logon ko chai aur beedee pee-pee kar galiyate rahte hain.us galiyaahat kee rangat is nazm me bhee hai.Hindi me likhtaa to zyaada ramaanee lagta,par mujhe Unicode nahee aatee aur NaaraazBhai ko to mail karnaa bhee nahee aataa,to lijiye Nazm-numa baanchiye- EK RAAJAA THAA KAHEEN, THAA KABHEE THAA HEE NAHEE, YAA HOTE HOTE RAH GAYAA THAA YAA KABHEE JAN KALPNAA ME VYARTH USKE BAH GAYAA THAA WO HAZAARON SAAL KE US FAASLE SE MERE GHAR ME MOOTATAA HAI TYPE -TYPE KE DHARAM- MONKEY KISIM- KISIM KE DHARAM -DONKEY, MUTRA- NAD ME KOODTAA HAI GHAR HAMAARAA DOOBTAA HAI, HE PRABHO TOO SOOTATAA* HAI ! {*sootana maithili me sone aur nishchint hone ke liye istemaal hota hai} --------------------------------- Yahoo! oneSearch: Finally, mobile search that gives answers, not web links. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-174 Size: 2155 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070813/4cbccc9f/attachment.bin From jeebesh at sarai.net Tue Aug 14 20:57:29 2007 From: jeebesh at sarai.net (Jeebesh Bagchi) Date: Tue, 14 Aug 2007 11:27:29 -0400 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [water.community] PNN HINDI is launching its website www.pnnhindi.com References: <8b2ca7430708140713w5d4ea50bne12c437291d66345@mail.gmail.com> Message-ID: <7EA910AF-34F8-4B24-A5BB-6011EEB5A47A@sarai.net> Begin forwarded message: > From: "water comnunity" > Date: 14 August 2007 10:13:07 AM EDT > To: water.community at lists.riseup.net > Subject: [water.community] PNN HINDI is launching its website > www.pnnhindi.com > > Respected All > > PNN HINDI is launching its website www.pnnhindi.com now. 70-80 > people are watching per day its Hindi website. More than 3000 > readers have visited the site. > > PNN Hindi has good readership. Please visit www.pnnhindi.com > today. Your comments and suggestions are welcome to make any > amendment as it is the outcome of its team. > > > > In solidity > > > > -- > Siraj Kesar > 011 22756796, 9211530510 > PNN Hindi Sewa, Delhi-91 From neelimasayshi at gmail.com Thu Aug 16 14:44:24 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Thu, 16 Aug 2007 14:44:24 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSIIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS34KS+IOCksuClh+CkleCksCDgpIbgpK/gpL4g4KS54KWIIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4oCN4KSy4KWL4KSsIOCkleCliyDgpJzgpYvgpKHgpLzgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuCkviDgpKzgpY3igI3gpLLgpYngpJc=?= Message-ID: <749797f90708160214l49969e22n49bbcdc8396fe7b3@mail.gmail.com> मोहल्‍ला से साभार : नयी भाषा लेकर आया है ग्‍लोब को जोड़ने वाला ब्‍लौग *अरविंद कुमार*, *भाषाकर्मी* *अरविंद कुमार वही सज्‍जन हैं, जिन्‍होंने हिंदी का पहला थिसॉरस यानी पहला समांतर कोश रचा है। शब्‍दों के समंदर में तैरने वाले अरविंद कुमार की बारीक नज़र हिंदी ब्‍लॉगिंग पर भी है। अभी अभी उन्‍होंने एक पत्रिका में हिंदी ब्‍लॉगिंग पर एक लेख लिखा है। पत्रिका का नाम बया है और अभी इसका दूसरा ही अंक आया है। नये अंक का आवरण आप यहां देख पा रहे हैं। बहरहाल, अरविंद कुमार बता रहे हैं कि हिंदी ब्‍लॉगिंग दुरूह और भारी भाषाई प्रयोगों के समांतर कैसे सहज अभिव्‍यक्ति की नयी राह बता रहा है।* *दुनिया* को एकदम तात्‍कालिक संपर्क से जोड़ने का काम किया है इलेक्‍ट्रॉनिक क्रांति ने। पहले बिजली, फिर उसके तारों का जाल, फिर टेलीफ़ोन, तार, रेडियो, टेलिविज़न और अब इंटरनेट... ये सब नयी तकनीकें लायी हैं नये शब्‍द... इंटरनेट पहले शुरू हुआ केवल रोमन लिपि में, फिर तो चीनी, जापानी, अरबी... सभी भाषाएं वहां पहुंची। हिंदी को कुछ देर लगी- एक बड़ा कारण था हिंदी का कोई फ़ौंट सर्वस्‍वीकृत और सर्वप्रचलित नहीं था। *यूनिकोड* ने जब से संसार की सारी लिपियों को जोड़ा है, तबसे खुला है हिंदी के लिए इंटरनेट का महाद्वार। भीतर घुसो तो आसानी से मिल जाता है ब्‍लौग। ब्‍लाग, ब्‍लौग, ब्‍लॉग, ब्‍लोग- कैसी भी लिखो हिंदी के लिए नया शब्‍द है। कुछ और नये शब्‍द हैं- ब्‍लॉगिया, चिट्ठा, चिट्ठाकारिता, चिप्‍पीकार आदि। इंटरनेट लेखक ऑनलाइन काम करते हैं, तो हिज्‍जों की इतनी परवाह नहीं करते। अपनी बात लिखने-पढ़वाने से मतलब रहता है। ब्‍लौग का मूल है अंगरेज़ी blog जो weblog का संक्षिप्‍त रूप है। इस पर नये शब्‍द आम लोग बना रहे हैं, विद्वान नहीं। न अंगरेज़ी में, न हिंदी में, न किसी और भाषा में। चिट्ठा है तो पुराना शब्‍द, यहां इसके माने नये हैं- किसी एक जन का पत्र, प्रविष्टि, रचना जो वह किसी ब्‍लौगिंग साइट पर पोस्‍ट कर दे। ब्‍लौगिंग करने वाले को अब हिंदी में कहने लगे हैं चिट्ठाकार या फिर शानदार शब्‍द ब्‍लौगिया। हिंदी चिट्ठाकारिता पर भारत के अंगरेज़ी और हिंदी पत्रों में कई बार लिखा जा चुका है। मुझे हाल ही में *दैनिक भास्‍कर*के दिल्‍ली-फरीदाबाद संस्‍करण के 20 अप्रैल 2007 के औप-एड पेज पर *विजेंद्रसिंह चौहान* का लेख *हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा*बहुत पसंद आया। मेरी राय में यह सुंदर संक्षिप्‍त लेख सर्वाधिक जानकारी से भरपूर है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार अपने खुलेपन के कारण यह दुनिया भर के सबसे ताक़तवर मीडिया के रूप में पहचाना जा रहा है। आज के दिन दुनिया में कम से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं। केवल अंगरेज़ी में नहीं। जापानी, रूसी, फ़्रैंच, स्‍पेनिश के साथ फ़ारसी, हिंदी, मलयालम, मराठी, बांग्‍ला आदि बहुत-सी भाषाओं में चिट्ठाकारी हो रही है। लेखक ने लिखा है, *हिंदी की चिट्ठाकारिता ने अपने पांव अब पालने से निकाल लिये हैं। अब वह सही मायनों में अपने पांवों पर खड़ी है।* उन्‍होंने बताया है कि चिट्ठाकारिता की शुरुआत 1997 में *डेल वाइनर* के ब्‍लौग *स्क्रिप्‍ट न्‍यूज़* से हुई। हिंदी वालों ने पहला चिट्ठा 2003 में किया। कहते हैं पहला चिट्ठा *आलोक* ने *नौ दो ग्‍यारह* लिखा। यह एक अहम परिघटना है। आज हिंदी में 500 से ज़्यादा चिट्ठे हैं। हिंदी वालों के जोश को देखते हुए एक दो साल में यह संख्‍या 5,000 तक पहुंच जाए तो अचरज नहीं होना चाहिए। मैं यहां ब्‍लौगिंग के विभिन्‍न आयामों को छूना नहीं चाहता। बया के पाठकों को उस खुली बहस की थोड़ी-सी झलक दिखाना चाहता हूं, जो काग़ज़-कलमहीन संसार में हिंदी भाषा और शब्‍दों को लेकर चल रही है: सबसे पहले पढ़‍िए *अनामदास का चिट्ठा* । ये कौन हैं किसी को पता नहीं। मैंने खोजा तो पता चला 36 वर्षीय हैं। बस इतना ही। वह अनाम ही रहना चाहते हैं। फरमाते हैं- *ब्‍लॉग की दिलचस्‍प दुनिया का रस लेने का इरादा है, ब्‍लॉग को उल्‍टा करके देखिए ग्‍लोब न सही... ग्‍लॉब तो बनता ही है यानी तक़रीबन पूरे ग्‍लोब के लोग इससे जुड़े हैं। छोटे-छोटे ब्‍लॉग लिखना चाहता हूं जो बड़े से ग्‍लोब पर बिखरे हिंदीभाषियों को सोचने और लिखने के लिए कुरेदें।* 28 अप्रैल 2007 को *शब्‍दों की शवयात्रा और हिंदी चिट्ठाकारिता*शीर्षक से उन्‍होंने लिखा- *कहते हैं- शब्द ब्रह्म है। मेरे लिए तो रोज़ी-रोटी, लोटा-लंगोटी है शब्द। शब्द मर रहे हैं, मैं चिंतित हूं। मैं चाहता हूं आप भी हों। शब्द कोई आज नहीं मर रहे, हमेशा से मरते और जन्मते रहे हैं शब्द। मौत दुख की वजह हो सकती है, चिंता की नहीं। चिंता महामारी की होती है, यह महामारी ही तो है। मुझे एक विचित्र सा डर है कि जिन शब्दों की मदद से मैं अपनी बात कहता हूं अगर एक-एक करके वे सब मर गए तो मैं क्या लिखूंगा, कौन समझेगा। वैसे ही नयी पीढ़ी के लोगों को मेरी हिंदी कभी अबूझ, कभी अटपटी लगती है। भाषा वही जीवित रहती है जो वक़्त के साथ बहती-बदलती रहती है लेकिन यहां तो बदलाव भाषा की कोशिकाओं में वायरस बनकर बैठ गया है जो हर रोज़ उसके शब्दों को कुतरता जाता है। वक़्त के साथ भाषा बदले, कोई ग़म नहीं, ग़म तो वक़्त की रफ़्तार और उसकी अंधाधुंध मार को लेकर है। शब्द हमेशा से बेकार होते रहे हैं और मरते रहे हैं। जिस 'तार' के आने पर लोग उसे पढ़ने से पहले ही अशुभ की आशंका में रोने लगते थे उसका आज क्या अर्थ रह गया है? ईमेल और एसटीडी जैसे शब्दों के हिंदी में आने के बाद यह 'तार' शब्द की स्वाभाविक मृत्यु है, मरे हुए शब्दों पर विलाप करने का कोई लाभ नहीं है लेकिन शब्दों की हत्या पर भी उज्र न होना ख़तरनाक बात है। भाषा सिर्फ़ माध्यम नहीं है, भाषा साबुत विचार है। शब्द भावना का वाहक नहीं, पूरी भावना है। पहले दो छोटे संस्मरण उसके बाद बाक़ी बातें... पहला इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मेरी जामातलाशी (घर की तलाशी को ख़ानातलाशी कहते हैं, अगर आप भूले न हों तो माफ़ कर दीजिएगा) हो रही थी, सिपाही जी का हाथ मेरी कमर के पास उभरी हुई चीज़ पर टिक गया, मैंने कहा, "बटुआ है।" सिपाही जी ने तलाशी रोक दी, हतप्रभ रह गये, उनका चेहरा खिल गया, बोले, "आप तो हिंदी बोल रहे हैं, भैलेट... पर्स सुनते-सुनते बटुआ तो भूल ही गया था।" दूसरा 1980 के दशक के आख़िरी बरसों में कलकत्ता गया, अंडरग्राउंड रेल... मेट्रो रेल की बड़ी धूम थी, भारत का पहला मेट्रो। एस्पलैनेड पर खड़ा था, एक देसी आवाज़ आयी-"भइया, पतालगाड़ी देखल जाई पहिले।" एक समृद्ध परंपरा की देन है पतालगाड़ी जो एक सहज प्रत्युत्पन्नमति (प्रेजेंस ऑफ़ माइंड) है, उसी गौरवशाली भाषिक परंपरा के वारिस शब्दों को कुपोषण की मौत मरते देखना ह्रदयविदारक है। पहले बिचड़ा बोया जाता है, फिर धान की रोपनी होती है, फ़सल पकने पर दाने निकलते हैं, दानों को चावल कहा जाता है, उन्हें खौलते पानी में डाला जाता है जिसे अदहन कहते हैं, जब दाने पक जाते हैं तो भात कहा जाता है। बहरहाल, हममें से ज़्यादातर लोगों के लिए चावल की खेती होती है और हमारी थाली में भी चावल ही होता है। शब्द बताते हैं कि वे जिनके मुंह से निकल रहे हैं वह कौन है। धान और भात कहने से ज़ाहिर होता है कि आप शायद खेत-खलिहान के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं जो मेट्रोसेक्सुअल व्यक्ति के लिए अशोभनीय बात है। सिर्फ़ दो-तीन पीढ़ी पहले शहरी हुए लोग गांव और क़स्बे की धूल-मिट्टी का एक-एक दाग़ जल्द से जल्द पोंछ देना चाहते हैं। महानगरीय व्यक्ति बनने की शुरूआत हमेशा उन शब्दों की हत्या से होती है जो आपके क़स्बाई होने की चुगली करते हैं। अगर आप मुंबईकर या डेल्हाइट नहीं हैं तो यह शर्म की बात है। मज़ेदार बात ये है कि पुराने मुंबईकर और पुरानी दिल्लीवाले दोनों ही अपने रंग-ढंग, बोल-बचन, खान-पान में पूरे देहाती हैं। अजीब कमाल है कि हर बिहारी दिल्लीवाला बन जाना चाहता है लेकिन पुरानी दिल्लीवाला नहीं। शायद थोड़ा विषयांतर हो गया। बहरहाल, भाषा के रूप में हिंदुस्तानी की कोंपले निकल ही रही थीं कि भारत विभाजन और उसके बाद की राजनीति ने उसका गला घोंट दिया, हिंदी को सरकारी कामकाज के लायक़ बनाने के नाम पर राजभाषा विभाग ने एक-से-एक नाक़ाबिले इस्तेमाल शब्द दिये, ये शब्द सिर्फ़ फ़ाइलों में ज़िंदा हैं और उनकी कोई चिंता मुझे नहीं है लेकिन ऐसे हज़ारों शब्द हैं जिन्हें तिलांजलि भी नहीं दी गयी, सिर्फ़ बिसरा दिया गया है। हिंदुस्तानी से हिंदी बनने के बाद हमारी भाषा पर अब जो मार पड़ रही है वह है ग्लोबलाइजेशनकी। टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, ट्रेन, रेडियो, इंटरनेट, कंप्यूटर जैसे नाम और उनसे जु़ड़ी शब्दावली का इस्तेमाल जायज़ है। विद्युत कंचगोलक (बल्ब), लौह पथगामिनी (रेल), धूम्रदंडिका (सिगरेट) जैसे प्रयोग तो हास्यास्पद हैं, लेकिन फलों के रस की जगह उनका जूस पीना, मुर्ग़ी को काटकर उसे चिकेन बनाकर खा जाना सहज है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भाषा का हमारा मूल स्रोत अंगरेज़ी है, हमारे शब्द ही नहीं उन्हें पिरोने का तरीक़ा तक, सब कुछ ट्रांसलेटेड है। शब्द मैनहटन से चलकर मुंबई पहुंच जाते हैं लेकिन मथुरा से दिल्ली नहीं पहुंच पाते। मैनहटन वाले शब्दों का हमेशा स्वागत और मथुरा वालों का तिरस्कार, इसने हमारी भाषा को नीरस, थोथा और बदशक़्ल बना दिया है। अगर आपको कार्रवाई, विरोध, प्रदर्शन, चिंता, ताज़ा समाचार, संकट, समस्या, आरोप, बैठक... जैसे कोई 200 शब्द आते हैं तो आप मीडिया में नौकरी कर सकते हैं और अगर आप 'खुलासा करने', 'साफ़ करने', 'जलवा बिखेरने', 'आड़े हाथों लेने', 'ठंडे बस्ते में डालने' जैसे जुमलों के इस्तेमाल में माहिर हैं तब तो आप बहुत आगे जाएंगे। हिंदी टीवी चैनलों की सफलता के बाद हिंदी भाषा की कमाई खाने वाले लोगों को लगा कि हिंदी के दिन सुधरने वाले हैं, दिन हिंदीवालों के सुधर गए लेकिन हिंदी की गत बन गयी। ऐसी हिंदी लिखने-बोलने की कोशिश हुई जो 'हर किसी' की समझ में आ जाए, इस 'हर किसी' के अज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है, अंधा कुआं है। उसकी सहूलियत के लिए उन सभी शब्दों को प्रतिबंधित कर दिया गया जो ज़रा भी कठिन लगे। ऐसी जेनेरिक भाषा बन गई है जिसमें धड़कते हुए शब्द नहीं हैं। इस 'हर किसी' को कॉकलेट, मॉकटेल की जितनी वेराइटीज़ बता दीजिए उसे सब याद हो जाएंगी लेकिन अगर आपने धान की खेती और पछुआ हवा की बात की तो वह आपको डाउनमार्केट मानकर आपका साथ छोड़ देगा। ऐसे माहौल में हिंदी चिट्ठाकारिता एक उम्मीद की किरण बनकर आयी है, देशज शब्दों और क्षेत्रीय रंग से सँवरी सुंदर हिंदी, जो अपनी हिंदी लगती है। किसी पर कोई व्यावसायिक दबाव नहीं है कि वह एक कटी-छंटी भाषा लिखे, 'हर किसी' के समझने के लिए हर ब्लॉग नहीं है, जिसे समझना होगा वह शब्द कोश की मदद ले लेगा। मुझ पर हिंदी चिट्ठाकारिता का नशा इसलिए चढ़ा है लगभग हर रोज़ मेरे अंदर सो चुके किसी न किसी शब्द को कोई हिलाकर जगा देता है। न जाने कितने दशक बाद प्रत्यक्षा जीने अपनी कविता के ज़रिए याद दिलाया पेटकुनिए एक सुंदर शब्द है पेट के बल लेटने के लिए। नई भाषा सीखते समय जैसे लोग संकल्प लेते हैं कि हर रोज़ पांच नये शब्द सीखेंगे, उसी तरह शायद हमें हर रोज़ पांच भूले हुए शब्दों को याद करने की ज़रूरत है जो अभी कोमा में हैं और उन्हें बचाया जा सकता है।* *प्रमोद सिंह* का कमेंट: *क्‍या बात है, अनामदास जी, बधाई! मगर पहले हम एक शिक़ायत फरिया लें, शिक़ायत यह कि ऐसी मीठी-सुरीली बतकही परोसते-परोसते अचानक कहां आप एकदम ग़ायब हो जाते हैं? अब यह मत समझाने लगिएगा कि कामकाजी आदमी का बड़ा टंटा है और लिख रहा है लोग सब खलिहा, फेलियर अमदी हैं...! वैसे आपकी यह चर्चा एक नहीं तीन पोस्‍ट का विस्‍तार मांगती थी। एक ही में सब लपेट कर आप निपटा लिए, अच्‍छी बात नहीं। अगला पोस्‍ट सोचना शुरू कीजिए, हम कमेंट अभी से तैयार करके रखते हैं।* *डिवाइन इंडिया* को अच्‍छा लगा यह लेख... *भाषा को दिशा की आवश्‍यकता होती है पर जो मुख सुख भी लगे कुछ शब्‍द हिंदी भाषी विद्वान भी नहीं प्रयोग करते क्‍योंकि उसका जन्‍म मात्र अन्‍य भाषा के शब्‍दों को न लेने के कारण हुई- 'लौह पथ द्रुतगामीद्ध आदि...। पेटकुनिए शब्‍द मात्र क्षेत्रीय प्रयोग की भाषा है... खड़ी बोली इससे भिन्‍न है। मैं भी 5-6 महीने से जुड़ा हूं अंतर्जाल से, किंतु दुख से कहता हूं कि इतने कम लोग हैं अच्‍छी रचनाओं को लिखने-पढ़ने वाले की जो एक आधार या झंडा उठाया है कि हिंदी, हिंदी यह मात्र छोटा-सा रंग का छींटा बन कर सुदूर से देखने का प्रयास कर रहा है... अंतर्जाल पर देवनागरी लिखी जाती है न कि अच्‍छी हिंदी...। Its an another kind of news paper not like Hindu or jansatta...like navbharat...THnx...* *अफलातून* की राय में यह था- *एकजाई लेख। 'तोरा दिल्ली में कीन देबो हावा गाड़ी' गाने वाले ही पाताल गाड़ी जैसा सुन्दर लफ़्ज गढ़ेंगे । 1978 में दिल्ली की एक अभिजनों की महफ़िल में मैंने कहा,' वह गली ही उठ गयी है'। एक महिला उत्तेजित हो गयी और अंग्रेजी में समझाने लगी कि इस जुमले पर गौर करो।* *बेनाम* ने कहा- *आइए, देवनागरी को अच्छी हिंदी बनाइए, स्वागत है। वैसे क्षेत्रीय प्रयोगों से ही हिंदी समृद्ध हो सकती है, जैसी कि ग्लोबलाइजेशन के पहले तक होती रही है लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा इसी का दुख है। अच्छा लिखने वाले हर जगह कम होते हैं, ब्लॉगिंग उसका अपवाद नहीं है लेकिन कई लोग बेहतरीन लिख रहे हैं। अनुपात शायद वही है जो अखबार पत्रिकाओं में होगा, अच्छे और बुरे लेखन का। टिप्पणी के लिए आभार।* *मसिजीवी* का कथन था- *आपके इसी हुनर के कारण तो हम आपकी कलम के मुरीद हैं। चिट्ठाकारी केवल उन पहली पीढ़ी के शहराती लोगों के ही लिए उम्‍मीद की किरण लेकर नहीं आयी है जो बिसारे हुए पेटकुनिये को याद करने की चाह लिए हुए हैं वरन हम जैसे यहीं जन्‍मे पले देहलाइट के लिए भी आस की किरण है जिसे पेटकुनिए को सीखने अपनाने का अवसर देती है।* *अभय तिवारी* ने कहा- *आपका ख़याल अच्छा है... और इस सिलसिले को बनाये रखने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि आप खोते जा रहे शब्दों को याद करते रहें... और हर पांच दस शब्द बाद हमारे सामने परोस दें... शब्द और उनका इस्तेमाल... जैसे प्रभाकर गोपालपुरिया जी ने अपने ब्लॉग में भोजपुरी कहावतों को संजोया है... और लक्ष्मी एन. गुप्ता जी ने अवधी कहावतों को दर्ज़ किया है... क्या खयाल है... सौ पचास शब्दों के चक्कर में देर होगी... और जबरिया सर पर बोझ भी होगा... यही काम दूसरे लोग भी कर सकते हैं...* *श्रीश* ने तारीफ की- *बहुत अच्छा लेख अनामदास जी। आपसे सहमत हूँ लोग प्रगतिशीलता के नाम पर देशज शब्दों को विस्मृत करते जा रहे हैं। हिन्दी में प्रचलित अंग्रेजी के शब्दों की तो कोई बात नहीं लेकिन कई उन शब्दों जिनके लिए बहुत ही आसान हिन्दी शब्द हैं उनके लिए भी जबरदस्ती अंग्रेजी के शब्द प्रयोग करते हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा।* *पीयूष* ने लिखा- *अति सुंदर अनामदास जी... बहुत शानदार लिखा है... वैसे,अब तो हालत यह हो गयी है कि कई बार कोई अच्छा हिन्दी का शब्द अरसे बाद जुबां पर आता है, तो खुद ही हैरान हो जाते हैं कि क्या ये हमारे दिमाग की ही उपज है।* *नितिन बागला* बोले... *वाकई हिन्दी चिट्ठों पर कभी कभी ऐसे शब्द टकरा जाते हैं कि अपने गांव-घर की याद ताजा हो जाती है। बेहतरीन लेख!* *सृजनशिल्‍पी* का कहना था- *अपनी मिट्टी की महक से सने शब्द हमारी सांसों में बस जाते हैं। पत्रकारिता और अनुवाद से जुड़े लोगों की भाषा से ऐसे शब्दों का नाता टूटता जा रहा है। शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं और असरहीन होते जा रहे हैं। आर्थिक पत्रकारिता की भाषा पर शोध करते समय मेरा ध्यान इस तथ्य की ओर गया था कि सदियों तक विश्व की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था रहे भारत के बाजार और कारोबार में रोजमर्रा के काम आने वाले शब्द कहां विलुप्त हो गए। आज आर्थिक और बिजनेस पत्रकारों का अंग्रेजी से शब्दों को उधार लिए बिना काम ही नहीं चलता। लेकिन यदि भारतीय अर्थव्यवस्था में सदियों से प्रचलित शब्दों को ढूंढा जा सके तो आर्थिक पत्रकारिता के लिए शब्दों की दरिद्रता नहीं रह जाएगी।* -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070816/4bb4c54e/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Thu Aug 16 17:38:25 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Thu, 16 Aug 2007 17:38:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSo4KSIIOCkrQ==?= =?utf-8?b?4KS+4KS34KS+IOCksuClh+CkleCksCDgpIbgpK/gpL4g4KS54KWIIA==?= =?utf-8?b?4KSX4KWN4oCN4KSy4KWL4KSsIOCkleCliyDgpJzgpYvgpKHgpLzgpKg=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkteCkvuCksuCkviDgpKzgpY3igI3gpLLgpYngpJc=?= In-Reply-To: <749797f90708160214l49969e22n49bbcdc8396fe7b3@mail.gmail.com> References: <749797f90708160214l49969e22n49bbcdc8396fe7b3@mail.gmail.com> Message-ID: <749797f90708160508k2a579df5t28b4bfdea4053a47@mail.gmail.com> > > मोहल्‍ला से साभार : > नयी भाषा लेकर आया है ग्‍लोब को जोड़ने वाला ब्‍लौग > > *अरविंद कुमार*, *भाषाकर्मी* > > > > *अरविंद कुमार वही सज्‍जन हैं, जिन्‍होंने हिंदी का पहला थिसॉरस यानी पहला समांतर > कोश रचा है। शब्‍दों के > समंदर में तैरने वाले अरविंद कुमार की बारीक नज़र हिंदी ब्‍लॉगिंग पर भी है। > अभी अभी उन्‍होंने एक पत्रिका में हिंदी ब्‍लॉगिंग पर एक लेख लिखा है। पत्रिका > का नाम बया है और अभी इसका दूसरा ही अंक आया है। नये अंक का आवरण आप यहां देख > पा रहे हैं। बहरहाल, अरविंद कुमार बता रहे हैं कि हिंदी ब्‍लॉगिंग दुरूह और > भारी भाषाई प्रयोगों के समांतर कैसे सहज अभिव्‍यक्ति की नयी राह बता रहा है। > * > > > *दुनिया* को एकदम तात्‍कालिक संपर्क से जोड़ने का काम किया है इलेक्‍ट्रॉनिक > क्रांति ने। पहले बिजली, फिर उसके तारों का जाल, फिर टेलीफ़ोन, तार, रेडियो, > टेलिविज़न और अब इंटरनेट... ये सब नयी तकनीकें लायी हैं नये शब्‍द... इंटरनेट > पहले शुरू हुआ केवल रोमन लिपि में, फिर तो चीनी, जापानी, अरबी... सभी भाषाएं > वहां पहुंची। हिंदी को कुछ देर लगी- एक बड़ा कारण था हिंदी का कोई फ़ौंट > सर्वस्‍वीकृत और सर्वप्रचलित नहीं था। *यूनिकोड* ने जब > से संसार की सारी लिपियों को जोड़ा है, तबसे खुला है हिंदी के लिए इंटरनेट का > महाद्वार। भीतर घुसो तो आसानी से मिल जाता है ब्‍लौग। > > ब्‍लाग, ब्‍लौग, ब्‍लॉग, ब्‍लोग- कैसी भी लिखो हिंदी के लिए नया शब्‍द है। > कुछ और नये शब्‍द हैं- ब्‍लॉगिया, चिट्ठा, चिट्ठाकारिता, चिप्‍पीकार आदि। > इंटरनेट लेखक ऑनलाइन काम करते हैं, तो हिज्‍जों की इतनी परवाह नहीं करते। अपनी > बात लिखने-पढ़वाने से मतलब रहता है। > > ब्‍लौग का मूल है अंगरेज़ी blog जो weblog का संक्षिप्‍त रूप है। इस पर नये > शब्‍द आम लोग बना रहे हैं, विद्वान नहीं। न अंगरेज़ी में, न हिंदी में, न किसी > और भाषा में। चिट्ठा है तो पुराना शब्‍द, यहां इसके माने नये हैं- किसी एक जन > का पत्र, प्रविष्टि, रचना जो वह किसी ब्‍लौगिंग साइट पर पोस्‍ट कर दे। > ब्‍लौगिंग करने वाले को अब हिंदी में कहने लगे हैं चिट्ठाकार या फिर शानदार > शब्‍द ब्‍लौगिया। हिंदी चिट्ठाकारिता पर भारत के अंगरेज़ी और हिंदी पत्रों में > कई बार लिखा जा चुका है। मुझे हाल ही में *दैनिक भास्‍कर*के दिल्‍ली-फरीदाबाद संस्‍करण के 20 अप्रैल 2007 के औप-एड पेज पर > *विजेंद्रसिंह चौहान* का लेख > *हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा *बहुत पसंद आया। मेरी राय में यह सुंदर संक्षिप्‍त लेख सर्वाधिक जानकारी से > भरपूर है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार अपने खुलेपन के कारण यह दुनिया भर > के सबसे ताक़तवर मीडिया के रूप में पहचाना जा रहा है। आज के दिन दुनिया में कम > से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं। केवल अंगरेज़ी में नहीं। जापानी, रूसी, > फ़्रैंच, स्‍पेनिश के साथ फ़ारसी, हिंदी, मलयालम, मराठी, बांग्‍ला आदि बहुत-सी > भाषाओं में चिट्ठाकारी हो रही है। लेखक ने लिखा है, > > *हिंदी की चिट्ठाकारिता ने अपने पांव अब पालने से निकाल लिये हैं। अब वह सही > मायनों में अपने पांवों पर खड़ी है।* > > उन्‍होंने बताया है कि चिट्ठाकारिता की शुरुआत 1997 में *डेल वाइनर* के > ब्‍लौग *स्क्रिप्‍ट न्‍यूज़* से हुई। हिंदी वालों ने पहला चिट्ठा 2003 में > किया। कहते हैं पहला चिट्ठा *आलोक* ने * नौ दो ग्‍यारह*लिखा। यह एक अहम परिघटना है। आज हिंदी में 500 से ज़्यादा चिट्ठे हैं। हिंदी > वालों के जोश को देखते हुए एक दो साल में यह संख्‍या 5,000 तक पहुंच जाए तो > अचरज नहीं होना चाहिए। > > मैं यहां ब्‍लौगिंग के विभिन्‍न आयामों को छूना नहीं चाहता। बया के पाठकों को > उस खुली बहस की थोड़ी-सी झलक दिखाना चाहता हूं, जो काग़ज़-कलमहीन संसार में > हिंदी भाषा और शब्‍दों को लेकर चल रही है: > > सबसे पहले पढ़‍िए *अनामदास का चिट्ठा* । > ये कौन हैं किसी को पता नहीं। मैंने खोजा तो पता चला 36 वर्षीय हैं। बस इतना > ही। वह अनाम ही रहना चाहते हैं। फरमाते हैं- > > *ब्‍लॉग की दिलचस्‍प दुनिया का रस लेने का इरादा है, ब्‍लॉग को उल्‍टा करके > देखिए ग्‍लोब न सही... ग्‍लॉब तो बनता ही है यानी तक़रीबन पूरे ग्‍लोब के लोग > इससे जुड़े हैं। छोटे-छोटे ब्‍लॉग लिखना चाहता हूं जो बड़े से ग्‍लोब पर बिखरे > हिंदीभाषियों को सोचने और लिखने के लिए कुरेदें। * > > 28 अप्रैल 2007 को *शब्‍दों की शवयात्रा और हिंदी चिट्ठाकारिता*शीर्षक से उन्‍होंने लिखा- > > *कहते हैं- शब्द ब्रह्म है। मेरे लिए तो रोज़ी-रोटी, लोटा-लंगोटी है शब्द। > शब्द मर रहे हैं, मैं चिंतित हूं। मैं चाहता हूं आप भी हों। शब्द कोई आज नहीं > मर रहे, हमेशा से मरते और जन्मते रहे हैं शब्द। मौत दुख की वजह हो सकती है, > चिंता की नहीं। चिंता महामारी की होती है, यह महामारी ही तो है। मुझे एक > विचित्र सा डर है कि जिन शब्दों की मदद से मैं अपनी बात कहता हूं अगर एक-एक > करके वे सब मर गए तो मैं क्या लिखूंगा, कौन समझेगा। वैसे ही नयी पीढ़ी के लोगों > को मेरी हिंदी कभी अबूझ, कभी अटपटी लगती है। > > भाषा वही जीवित रहती है जो वक़्त के साथ बहती-बदलती रहती है लेकिन यहां तो > बदलाव भाषा की कोशिकाओं में वायरस बनकर बैठ गया है जो हर रोज़ उसके शब्दों को > कुतरता जाता है। वक़्त के साथ भाषा बदले, कोई ग़म नहीं, ग़म तो वक़्त की > रफ़्तार और उसकी अंधाधुंध मार को लेकर है। शब्द हमेशा से बेकार होते रहे हैं और > मरते रहे हैं। जिस 'तार' के आने पर लोग उसे पढ़ने से पहले ही अशुभ की आशंका में > रोने लगते थे उसका आज क्या अर्थ रह गया है? > > ईमेल और एसटीडी जैसे शब्दों के हिंदी में आने के बाद यह 'तार' शब्द की > स्वाभाविक मृत्यु है, मरे हुए शब्दों पर विलाप करने का कोई लाभ नहीं है लेकिन > शब्दों की हत्या पर भी उज्र न होना ख़तरनाक बात है। > > भाषा सिर्फ़ माध्यम नहीं है, भाषा साबुत विचार है। शब्द भावना का वाहक नहीं, > पूरी भावना है। > > पहले दो छोटे संस्मरण उसके बाद बाक़ी बातें... > > पहला > > इंदिरा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर मेरी जामातलाशी (घर की तलाशी को > ख़ानातलाशी कहते हैं, अगर आप भूले न हों तो माफ़ कर दीजिएगा) हो रही थी, सिपाही > जी का हाथ मेरी कमर के पास उभरी हुई चीज़ पर टिक गया, मैंने कहा, "बटुआ है।" > सिपाही जी ने तलाशी रोक दी, हतप्रभ रह गये, उनका चेहरा खिल गया, बोले, "आप तो > हिंदी बोल रहे हैं, भैलेट... पर्स सुनते-सुनते बटुआ तो भूल ही गया था।" > > दूसरा > > 1980 के दशक के आख़िरी बरसों में कलकत्ता गया, अंडरग्राउंड रेल... मेट्रो रेल > की बड़ी धूम थी, भारत का पहला मेट्रो। एस्पलैनेड पर खड़ा था, एक देसी आवाज़ > आयी-"भइया, पतालगाड़ी देखल जाई पहिले।" > > एक समृद्ध परंपरा की देन है पतालगाड़ी जो एक सहज प्रत्युत्पन्नमति (प्रेजेंस > ऑफ़ माइंड) है, उसी गौरवशाली भाषिक परंपरा के वारिस शब्दों को कुपोषण की मौत > मरते देखना ह्रदयविदारक है। > > पहले बिचड़ा बोया जाता है, फिर धान की रोपनी होती है, फ़सल पकने पर दाने > निकलते हैं, दानों को चावल कहा जाता है, उन्हें खौलते पानी में डाला जाता है > जिसे अदहन कहते हैं, जब दाने पक जाते हैं तो भात कहा जाता है। बहरहाल, हममें से > ज़्यादातर लोगों के लिए चावल की खेती होती है और हमारी थाली में भी चावल ही > होता है। > > शब्द बताते हैं कि वे जिनके मुंह से निकल रहे हैं वह कौन है। धान और भात कहने > से ज़ाहिर होता है कि आप शायद खेत-खलिहान के बारे में थोड़ा-बहुत जानते हैं जो > मेट्रोसेक्सुअल व्यक्ति के लिए > अशोभनीय बात है। सिर्फ़ दो-तीन पीढ़ी पहले शहरी हुए लोग गांव और क़स्बे की > धूल-मिट्टी का एक-एक दाग़ जल्द से जल्द पोंछ देना चाहते हैं। महानगरीय व्यक्ति > बनने की शुरूआत हमेशा उन शब्दों की हत्या से होती है जो आपके क़स्बाई होने की > चुगली करते हैं। > > अगर आप मुंबईकर या डेल्हाइट नहीं हैं तो यह शर्म की बात है। मज़ेदार बात ये > है कि पुराने मुंबईकर और पुरानी दिल्लीवाले दोनों ही अपने रंग-ढंग, बोल-बचन, > खान-पान में पूरे देहाती हैं। अजीब कमाल है कि हर बिहारी दिल्लीवाला बन जाना > चाहता है लेकिन पुरानी दिल्लीवाला नहीं। > > शायद थोड़ा विषयांतर हो गया। बहरहाल, भाषा के रूप में हिंदुस्तानी की कोंपले > निकल ही रही थीं कि भारत विभाजन और उसके बाद की राजनीति ने उसका गला घोंट दिया, > हिंदी को सरकारी कामकाज के लायक़ बनाने के नाम पर राजभाषा विभाग ने एक-से-एक > नाक़ाबिले इस्तेमाल शब्द दिये, ये शब्द सिर्फ़ फ़ाइलों में ज़िंदा हैं और उनकी > कोई चिंता मुझे नहीं है लेकिन ऐसे हज़ारों शब्द हैं जिन्हें तिलांजलि भी नहीं > दी गयी, सिर्फ़ बिसरा दिया गया है। हिंदुस्तानी से हिंदी बनने के बाद हमारी > भाषा पर अब जो मार पड़ रही है वह है ग्लोबलाइजेशनकी। > > टेलीविज़न, टेलीफ़ोन, ट्रेन, रेडियो, इंटरनेट, कंप्यूटर जैसे नाम और उनसे > जु़ड़ी शब्दावली का इस्तेमाल जायज़ है। विद्युत कंचगोलक (बल्ब), लौह पथगामिनी > (रेल), धूम्रदंडिका (सिगरेट) जैसे प्रयोग तो हास्यास्पद हैं, लेकिन फलों के रस > की जगह उनका जूस पीना, मुर्ग़ी को काटकर उसे चिकेन बनाकर खा जाना सहज है। ऐसा > इसलिए है क्योंकि भाषा का हमारा मूल स्रोत अंगरेज़ी है, हमारे शब्द ही नहीं > उन्हें पिरोने का तरीक़ा तक, सब कुछ ट्रांसलेटेड है। शब्द मैनहटन से चलकर मुंबई > पहुंच जाते हैं लेकिन मथुरा से दिल्ली नहीं पहुंच पाते। मैनहटन वाले शब्दों का > हमेशा स्वागत और मथुरा वालों का तिरस्कार, इसने हमारी भाषा को नीरस, थोथा और > बदशक़्ल बना दिया है। > > अगर आपको कार्रवाई, विरोध, प्रदर्शन, चिंता, ताज़ा समाचार, संकट, समस्या, > आरोप, बैठक... जैसे कोई 200 शब्द आते हैं तो आप मीडिया में नौकरी कर सकते हैं > और अगर आप 'खुलासा करने', 'साफ़ करने', 'जलवा बिखेरने', 'आड़े हाथों लेने', > 'ठंडे बस्ते में डालने' जैसे जुमलों के इस्तेमाल में माहिर हैं तब तो आप बहुत > आगे जाएंगे। > > हिंदी टीवी चैनलों की सफलता के बाद हिंदी भाषा की कमाई खाने वाले लोगों को > लगा कि हिंदी के दिन सुधरने वाले हैं, दिन हिंदीवालों के सुधर गए लेकिन हिंदी > की गत बन गयी। ऐसी हिंदी लिखने-बोलने की कोशिश हुई जो 'हर किसी' की समझ में आ > जाए, इस 'हर किसी' के अज्ञान की कोई सीमा ही नहीं है, अंधा कुआं है। उसकी > सहूलियत के लिए उन सभी शब्दों को प्रतिबंधित कर दिया गया जो ज़रा भी कठिन लगे। > ऐसी जेनेरिक भाषा बन गई है जिसमें धड़कते हुए शब्द नहीं हैं। इस 'हर किसी' को > कॉकलेट, मॉकटेल की जितनी वेराइटीज़ बता दीजिए उसे सब याद हो जाएंगी लेकिन अगर > आपने धान की खेती और पछुआ हवा की बात की तो वह आपको डाउनमार्केट मानकर आपका साथ > छोड़ देगा। > > ऐसे माहौल में हिंदी चिट्ठाकारिता एक उम्मीद की किरण बनकर आयी है, देशज > शब्दों और क्षेत्रीय रंग से सँवरी सुंदर हिंदी, जो अपनी हिंदी लगती है। किसी पर > कोई व्यावसायिक दबाव नहीं है कि वह एक कटी-छंटी भाषा लिखे, 'हर किसी' के समझने > के लिए हर ब्लॉग नहीं है, जिसे समझना होगा वह शब्द कोश की मदद ले लेगा। मुझ पर > हिंदी चिट्ठाकारिता का नशा इसलिए चढ़ा है लगभग हर रोज़ मेरे अंदर सो चुके किसी > न किसी शब्द को कोई हिलाकर जगा देता है। न जाने कितने दशक बाद प्रत्यक्षा जीने अपनी कविता के ज़रिए याद दिलाया > पेटकुनिए एक > सुंदर शब्द है पेट के बल लेटने के लिए। > > नई भाषा सीखते समय जैसे लोग संकल्प लेते हैं कि हर रोज़ पांच नये शब्द > सीखेंगे, उसी तरह शायद हमें हर रोज़ पांच भूले हुए शब्दों को याद करने की > ज़रूरत है जो अभी कोमा में हैं और उन्हें बचाया जा सकता है। * > > *प्रमोद सिंह* का कमेंट: *क्‍या बात है, > अनामदास जी, बधाई! मगर पहले हम एक शिक़ायत फरिया लें, शिक़ायत यह कि ऐसी > मीठी-सुरीली बतकही परोसते-परोसते अचानक कहां आप एकदम ग़ायब हो जाते हैं? अब यह > मत समझाने लगिएगा कि कामकाजी आदमी का बड़ा टंटा है और लिख रहा है लोग सब खलिहा, > फेलियर अमदी हैं...! वैसे आपकी यह चर्चा एक नहीं तीन पोस्‍ट का विस्‍तार मांगती > थी। एक ही में सब लपेट कर आप निपटा लिए, अच्‍छी बात नहीं। अगला पोस्‍ट सोचना > शुरू कीजिए, हम कमेंट अभी से तैयार करके रखते हैं। * > > *डिवाइन इंडिया* को अच्‍छा लगा यह > लेख... *भाषा को दिशा की आवश्‍यकता होती है पर जो मुख सुख भी लगे कुछ शब्‍द > हिंदी भाषी विद्वान भी नहीं प्रयोग करते क्‍योंकि उसका जन्‍म मात्र अन्‍य भाषा > के शब्‍दों को न लेने के कारण हुई- 'लौह पथ द्रुतगामीद्ध आदि...। पेटकुनिए > शब्‍द मात्र क्षेत्रीय प्रयोग की भाषा है... खड़ी बोली इससे भिन्‍न है। मैं भी > 5-6 महीने से जुड़ा हूं अंतर्जाल से, किंतु दुख से कहता हूं कि इतने कम लोग हैं > अच्‍छी रचनाओं को लिखने-पढ़ने वाले की जो एक आधार या झंडा उठाया है कि हिंदी, > हिंदी यह मात्र छोटा-सा रंग का छींटा बन कर सुदूर से देखने का प्रयास कर रहा > है... अंतर्जाल पर देवनागरी लिखी जाती है न कि अच्‍छी हिंदी...। Its an another > kind of news paper not like Hindu or jansatta...like navbharat...THnx... * > > *अफलातून* की राय में यह था- *एकजाई लेख। > 'तोरा दिल्ली में कीन देबो हावा गाड़ी' गाने वाले ही पाताल गाड़ी जैसा सुन्दर > लफ़्ज गढ़ेंगे । 1978 में दिल्ली की एक अभिजनों की महफ़िल में मैंने कहा,' वह गली > ही उठ गयी है'। एक महिला उत्तेजित हो गयी और अंग्रेजी में समझाने लगी कि इस > जुमले पर गौर करो। * > > *बेनाम* ने कहा- *आइए, देवनागरी को अच्छी हिंदी बनाइए, स्वागत है। वैसे > क्षेत्रीय प्रयोगों से ही हिंदी समृद्ध हो सकती है, जैसी कि ग्लोबलाइजेशन के > पहले तक होती रही है लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा इसी का दुख है। अच्छा लिखने वाले > हर जगह कम होते हैं, ब्लॉगिंग उसका अपवाद नहीं है लेकिन कई लोग बेहतरीन लिख रहे > हैं। अनुपात शायद वही है जो अखबार पत्रिकाओं में होगा, अच्छे और बुरे लेखन का। > टिप्पणी के लिए आभार। * > > *मसिजीवी* का कथन था- *आपके इसी हुनर के कारण तो हम आपकी कलम के मुरीद हैं। > चिट्ठाकारी केवल उन पहली पीढ़ी के शहराती लोगों के ही लिए उम्‍मीद की किरण लेकर > नहीं आयी है जो बिसारे हुए पेटकुनिये को याद करने की चाह लिए हुए हैं वरन हम > जैसे यहीं जन्‍मे पले देहलाइट के लिए भी आस की किरण है जिसे पेटकुनिए को सीखने > अपनाने का अवसर देती है। * > > *अभय तिवारी* ने कहा- *आपका ख़याल अच्छा > है... और इस सिलसिले को बनाये रखने का एक तरीक़ा ये हो सकता है कि आप खोते जा > रहे शब्दों को याद करते रहें... और हर पांच दस शब्द बाद हमारे सामने परोस > दें... शब्द और उनका इस्तेमाल... जैसे प्रभाकर गोपालपुरिया जी ने अपने ब्लॉग > में भोजपुरी कहावतों को संजोया है... और लक्ष्मी एन. गुप्ता जी ने अवधी कहावतों > को दर्ज़ किया है... क्या खयाल है... सौ पचास शब्दों के चक्कर में देर होगी... > और जबरिया सर पर बोझ भी होगा... यही काम दूसरे लोग भी कर सकते हैं... * > > *श्रीश* ने तारीफ की- *बहुत अच्छा लेख > अनामदास जी। आपसे सहमत हूँ लोग प्रगतिशीलता के नाम पर देशज शब्दों को विस्मृत > करते जा रहे हैं। हिन्दी में प्रचलित अंग्रेजी के शब्दों की तो कोई बात नहीं > लेकिन कई उन शब्दों जिनके लिए बहुत ही आसान हिन्दी शब्द हैं उनके लिए भी > जबरदस्ती अंग्रेजी के शब्द प्रयोग करते हैं। पता नहीं इस देश का क्या होगा। * > > *पीयूष* ने लिखा- *अति सुंदर अनामदास जी... > बहुत शानदार लिखा है... वैसे,अब तो हालत यह हो गयी है कि कई बार कोई अच्छा > हिन्दी का शब्द अरसे बाद जुबां पर आता है, तो खुद ही हैरान हो जाते हैं कि क्या > ये हमारे दिमाग की ही उपज है। * > > *नितिन बागला* बोले... *वाकई हिन्दी > चिट्ठों पर कभी कभी ऐसे शब्द टकरा जाते हैं कि अपने गांव-घर की याद ताजा हो > जाती है। बेहतरीन लेख! * > > *सृजनशिल्‍पी* का > कहना था- *अपनी मिट्टी की महक से सने शब्द हमारी सांसों में बस जाते हैं। > पत्रकारिता और अनुवाद से जुड़े लोगों की भाषा से ऐसे शब्दों का नाता टूटता जा > रहा है। शब्द अपने अर्थ खो रहे हैं और असरहीन होते जा रहे हैं। > > आर्थिक पत्रकारिता की भाषा पर शोध करते समय मेरा ध्यान इस तथ्य की ओर गया था > कि सदियों तक विश्व की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था रहे भारत के बाजार और कारोबार > में रोजमर्रा के काम आने वाले शब्द कहां विलुप्त हो गए। आज आर्थिक और बिजनेस > पत्रकारों का अंग्रेजी से शब्दों को उधार लिए बिना काम ही नहीं चलता। लेकिन यदि > भारतीय अर्थव्यवस्था में सदियों से प्रचलित शब्दों को ढूंढा जा सके तो आर्थिक > पत्रकारिता के लिए शब्दों की दरिद्रता नहीं रह जाएगी। * > > -- > Neelima > http://linkitmann.blogspot.com > -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-863 Size: 39300 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070816/b4f8cb12/attachment.bin From ravikant at sarai.net Mon Aug 20 18:40:07 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 20 Aug 2007 18:40:07 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Indlinux-hindi] Linus Torwalds interview in Hindi - 1 Message-ID: <200708201840.07422.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Indlinux-hindi] Linus Torwalds interview in Hindi Date: रविवार 19 अगस्त 2007 23:07 From: Ravishankar Shrivastava To: "indlinux-hindi at lists.sourceforge.net" Yes, read it in Hindi. here: http://raviratlami.blogspot.com/2007/08/linus-torwalds-linux-microsoft-should .html Ravi रविवार, अगस्त 19, 2007 लिनुस टॉरवाल्ड्स : ‘माइक्रोसॉफ्ट और लिनक्स के बीच डर और नफ़रत के बजाए सम्मान हो’ [एशिया की सर्वाधिक लोकप्रिय इलेक्ट्रॉनिक पत्रिका प्रकाशन समूह – (ईएफवाई जो लिनक्स फ़ॉर यू का भी प्रकाशन करती है) के जालस्थल ओपनआइटिस में हाल ही में लिनुस टॉरवाल्ड्स का साक्षात्कार प्रकाशित किया गया है. लिनुस का यह साक्षात्कार इस मामले में उदाहरण योग्य है कि यह किसी भी भारतीय मीडिया को दिया उनका यह बड़ा, वृहद, अब तक का एकमात्र, पहला साक्षात्कार है. साथ ही इसमें पूछे गए प्रश्न ईएफवाई समूह के पाठकों के हैं. ओपनआइटिस से विशेष अनुमति प्राप्त कर इस साक्षात्कार का हिन्दी अनुवाद आपके लिए प्रस्तुत किया जा रहा है. अनुमति प्रदान करने हेतु राहुल चोपड़ा का विशेष धन्यवाद. मूल साक्षात्कार अंग्रेजी में यहाँ देखें. साक्षात्कार को प्रस्तुत किया है – ईएफवाई टाइम्स के सहायक संपादक स्वप्निल भारतीय ने.] ----------- प्र: तमाम विश्व के देशों की तुलना में भारत से सर्वाधिक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर निकलते हैं, फिर भी भारत का योगदान लिनक्स के क्षेत्र में नहीं के बराबर है. उस क्षेत्र में भारतीयों के नहीं जाने के पी छे आपके विचार में क्या कारण हो सकते हैं? भारतीयों को इस क्षेत्र में जाने व उसमें गंभीर योगदान हेतु प्रोत्साहित करने के लिए आपके विचार में क्या कुछ किया जाना चाहिए? तमाम विश्व की तरह भारत में भी आपके बहुत सारे प्रशंसक हैं, क्या आपके प्रेरक, विशाल छवि का इस्तेमाल भारतीयों में उत्साह पैदा करने (के काम) में लिया जा सकता है? लिनुस: इस प्रश्न का उत्तर देना मेरे लिए वास्तव में बहुत ही कठिन है. ओपन सोर्स अपनाने में बहुत सी बातों का जटिल संयोजन होता है जिनमें इन्फ्रास्ट्रक्चर (इंटरनेट की उपलब्धता, शिक्षा, और ढेर सारी तमाम बातें जो आप यहां बोल-बता सकते हैं,), जानकारियों का प्रवाह और शायद संस्कृति – जिनका कि मैं कोई अंदाजा नहीं लगा पा रहा - कि यहाँ बड़ी अड़चनें कौन सी हैं. यदि हम भाषा अवरोध की बातें करते हैं तो बहुत से मामलों में भारत के अंग्रेज़ी भाषा समृद्ध समुदाय को लिनक्स तथा अन्य ओपन सोर्स परियोजनाओं में जुड़ने में बड़ी आसानी होती है. और, एशियाई या यूरोप के कुछ भागों में स्थित कई देशों के मुकाबले निश्चित रूप से यहाँ ओपन सोर्स से जुड़ना बड़ा आसान है. ये बात सही है कि आईटी, कम्प्यूटर और सॉफ़्टवेयर के क्षेत्र में तमाम विश्व में भारत से सर्वाधिक लोग हैं, पर ये बात भी सही है कि ये भारत के बहुसंख्यक भी नहीं हैं और मेरा ये व्यक्तिगत खयाल ये है कि मैं भारतीय समस्याओं के बारे में बहुत ज्यादा नहीं जानता जिससे कि मैं अधपके तौर पर भी ये बता पा ऊँ कि भारतीयों को ओपन सोर्स में जोड़ने के लिए बढ़िया रास्ता क्या हो सकता है. मुझे लगता है कि उत्साही, स्थानीय उपयोक्ता समुदाय हमेशा से ही बढ़िया विकल्प होते हैं और मेरे विचार में यहाँ इसकी प्रचुरता है. जहां तक मेरे ‘विशाल छवि’ का सवाल है, मैं व्यक्तिगत रूप से इस हिस्से को खासा नापसंद करता हूँ. मैं कोई बढ़िया वक्ता नहीं हूं, मैंने पिछले कई वर्षों से यात्रा करना बंद कर दिया है क्योंकि मैं अपने उस ‘विशाल छवि’ के साथ और ‘दिव्यदर्शनदृष्टा’ के रूप में देखा जाना पसंद नहीं करता. मैं सिर्फ एक इंजीनियर हूँ और मैं जो काम करता हूं, उसे करते रहने में, और सार्वजनिक जीवन में लोगों के साथ काम करने में मुझे मजा आता है. प्र: कम्प्यूटर विज्ञान के विद्यार्थियों को ‘आवश्यक रूप से पढ़ने’ के लिए आप किन-किन ऑपरेटिंग सिस्टम की और पाठ्य पुस्तकों की अनुशंसा करेंगे? लिनुस: अपने विद्यार्थी जीवन में जिन चीजों को पढ़कर मैंने अपने ज्ञान में वृद्धि की थी वे आज के समय में थोड़े पुराने पड़ चुके हैं. पिछले दशक से शिक्षा के क्षेत्र में मेरा दखल नहीं के बराबर रहा है और मुझे नहीं पता कि किस किस्म की पाठ्य पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं अतः मैं ये नहीं जानता कि किसकी अनुशंसा करूं. मैंने स्वयं बहुत पहले से शुरूआत की, और आमतौर पर बिना पुस्तकों के की. उस समय मेरे पास कुछ पुस्तकें थीं जिन्हें मैंने खूब पसंद किया था (उदाहरण के लिए, एंड्र्यू टाएनबॉम की मिनिक्स पर लिखी किताब जो मुझे आज भी याद है). मैं सोचता हूँ कि किसी भी पाठ्य पुस्तक से सीखने के बजाय ये ज्यादा महत्वपूर्ण है कि आप में कम्प्यूटरों में कुछ कसेरीगिरी (टिंकरिंग) करने की इच्छा होनी चाहिए – जैसे चीजों को खुद करके देखना व उसमें पूरा डूब जाना. मैं अपने तईं पूरी तरह यह मानता हूँ कि मैंने अपनी स्वयं की गलतियों (और दूसरों की भी ;^) से - पा ठ्य पुस्तकों की अपेक्षा - ज्यादा ही सीखा है. हालांकि एक बढ़िया किताब (और उससे भी ज्यादा अच्छा एक बढ़िया शिक्षक) आपको सीधी दिशा में इंगित करने के लिए और उस विषय में रूचि और उत्सा ह जगाने में बढ़िया काम कर सकते हैं. प्र: वर्तमान में क्या कुछ भारतीय हैं जो लिनक्स कर्नेल डेवलपमेंट में प्रमुख तौर पर सहयोग दे रहे हैं? लिनुस: मैं यह स्वीकार करता हूँ कि मैंने अभी तक किसी भी ऐसे व्यक्ति के साथ सीधे काम नहीं किया है जो कि भारत से हो. परंतु यहाँ यह स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैंने बहुत सोच समझकर यह सेटअप करने की कोशिश की है कि कर्नेल डेवलपमेंट में किसी भी समय मुझे बहुत सारे लोगों के साथ सीधे काम न करना पड़े. मैं इस बात से इत्तफाक रखता हूँ कि आमतौर पर व्यक्ति कुछ इस तरह से बना होता है कि वो सिर्फ कुछेक चुनिंदा व्यक्तियों के साथ ज्यादा अच्छी तरह से जुड़कर काम कर सकता है (अपने निकट के परिवा र और मित्रों के साथ), और मैंने डेवलपमेंट मॉडल को कुछ इसी विचार के परिप्रेक्ष्य में बनाया है: ‘डेवलपरों के नेटवर्क के रूप में’, जहाँ लोग अपने करीबी कोई दर्जन भर लोगों से आपसी विचार-विमर्श करते हैं और फिर वे दर्जन भर ‘अपने’ अन्य दर्जन भर लोगों से जिन पर वे भरोसा करते हैं, विचार-विमर्श करते हैं. तो, यदा-कदा मैं जहां सैकड़ों डेवलपरों से सम्पर्क में आता हूँ – जो मुझे कर्नेल पैच भेजते रहते हैं, मैंने एक कार्य वातावरण तैयार करने की कोशिश की है जिसमें मैं जो भी काम बहुतायत में करता हूँ तो वो बहुत कम लोगों के साथ करता हूँ, जिन्हें मैं जानता हूँ – क्योंकि मैं समझता हूं कि लोग इसी तरह से काम करते हैं. मैं निश्चित तौर पर ऐसे ही काम करना पसंद करता हूं. साथ ही, पूरी ईमानदारी से मैं यह भी स्वीकारता हूँ कि मैं जिन लोगों के साथ काम करता हूँ मैं महत्व नहीं देता कि वे कहां के हैं और कहाँ रहते हैं. स्थान का महत्व बिलकुल बाद में आता है. तो मैं जहाँ तक समझता हूँ कि शीर्ष के 10-15 लोग जिनके साथ मैं काम करता हूँ वे भारत से नहीं है – पर जब मेरी कही गई ये बात सार्वजनिक हो जाएगी तो शायद ये पता चले कि अरे इनमें से ये भी, और ये भी, भारत से हैं! प्र: कोई ऐसी बढ़िया, शानदार वजह हो सकती है कि आप भारत यात्रा के बारे में सोचें? लिनुस: जैसे कि मैंने पहले भी कहा – मुझे मंच पर बोलना अच्छा नहीं लगता, अतः मैं कॉनफ्रेंसों से बचता हूं. मैं भारत की यात्रा करना अवश्य चाहूंगा – किसी दिन छुट्टियों में. परंतु जब मैं जाऊंगा, तो कि सी को पहले से बिना बताए – एक आम, साधारण यात्री की तरह – देशाटन के लिए! प्र: बहुत सी भारतीय आईटी कंपनियाँ अपने ग्राहकों के लिए सॉफ़्टवेयर परियोजनाओं को कस्टमाइज़ करने में ही विशेष रूप से रूचि रखती हैं, और अभिनव, नवीन परियोजनाओं में जिनमें उनकी विशिष्टता होती है – रूचि नहीं रखतीं. क्या आप यह समझते हैं कि उनकी यह सोच भारत से मुक्त स्रोत में योगदान नहीं मिल पाने की प्रमुख वजह हो सकती है? लिनुस: मैं समझता हूँ कि सामाजिक सांस्कृतिक समस्याएँ (जो आप पारंपरिक संस्कृति समझते हैं उसमें ‘तकनीकी संस्कृति’ भी सम्मिलित कर लें) सबसे बड़ा कारण हैं. कुछ क्षेत्र दूसरे क्षेत्रों की अपेक्षा मुक्त स्रोत में ज्यादा कार्य कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, फिनलैंड जहां से मूलतः मैं हूं, मैं समझता हूं कि वहां के लोग मुक्त स्रोत के लिये तकनी की तथा गैर-तकनीकी दोनों वजहों से कार्य करते हैं: एक मजबूत तकनीकी संस्कृति जिसमें शक्तिशाली व्यक्तिगत तथा सामाजिक जिम्मेदारी का समावेश होता है. यह मुक्त स्रोत से जुड़ने के लिए आसान रास्ता प्रदान करता है व उत्प्रेरक होता है. और इसी परिवेश ने स्वाभाविक रूप से मुझे मुक्त स्रोत से जुड़ने में भूमिका अदा की है– इसके बारे में ज्यादा सोच-विचार किए बगैर. और यह बहुत संभव है कि भारतीय आईटी संस्कृति भली प्रकार से उस तरह से उर्वर न हो कि लोग मुक्त स्रोत परियोजनाओं से जुड़ने के लिए उत्साहित हों. इससे ये नहीं कहा जा सकता कि लोग नहीं जुड़ते, परंतु लोगों के कम प्रतिशत से जुड़ने को कुछ इस किस्म से परिभाषित तो किया जा सकता है. प्र: मुक्त स्रोत के कुछ महत्वपूर्ण फ़ायदों पर आप प्रकाश डालना चाहेंगे ताकि भारतीय आईटी फर्मों को, जो अपनी टीम को मुक्त स्रोत में कार्य करने देने में अनिश्चित होते हैं कुछ दिशा मिले? लिनुस: मेरे विचार में मुक्त स्रोत तकनॉलाजी अपने आप में ही सीखने के लिए एक विशाल व विस्तृत अनुभव होता है. यह किसी परियोजना के ‘भीतर’ तक पहुंचकर उस स्तर पर देखने जैसा अनुभव होता है कि यह वास्तव में कैसे कार्य करता है. इस अनुभव को प्राप्त करना तब वास्तविक रूप में कठिन होता है जब आप कम्प्यूटरों का प्रमुख इस्तेमाल दूसरे व्यक्तियों के परियोजनाओं को परिष्कृत करने में करते हैं. और, मेरे विचार में यह तब भी सटीक है यदि कोई विशिष्ट मुक्त स्रोत परियोजना जिसे सीधे तौर पर आप कर रहे होते हैं उससे संबद्ध न भी हों. इसीलिए बहुत सी कंपनियां अपने कर्मचारियों को ‘कंपनी कार्यों से इतर’ कार्यों के लिए, यहां तक कि कंपनी के समय में भी, प्रोत्साहित करती हैं. जहाँ तक मैं समझता हूँ कि इस विचार को लागू करने वाली कंपनी का सबसे बढ़िया उदाहरण गूगल है, परंतु इस तरह की सिर्फ यही एक कंपनी नहीं है. और सच तो यह है कि मैं भी इसी तरह कार्य करता हूँ : एक गैर-लिनक्स कंपनी में एक इंजीनियर के रूप में पगार पाता हूँ और ‘साथ में’ लिनक्स के लिए कार्य (इसके लिए प्रोत्साहित किया जाता है) करता हूँ और बहुत बार ऐसा भी होता है कि बहुत सारे मुक्त स्रोत परियोजनाओं को हर तरफ बहुतायत से इस्तेमाल किया जाता है और कंपनियों को अपने कार्यों के लिये इनके विशेषज्ञों को ढूंढ पाना मुश्किल होता है. कुछ मुक्त स्रोत की परियोजनाएं ऐसी भी होती हैं जो आईटी कंपनी सपोर्ट नहीं करती हो ती है या उसका विपणन नहीं करती होती है परंतु उन्हें कंपनी के आंतरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में इस्तेमाल में लिया जाता है. प्र: एक विशाल चिप कंपनी के कार्यपालकों से बातचीत के दौरान हमें यह भान हुआ कि नए चिप प्लेटफ़ॉर्म (उदाहरण के लिए, सांता रोसा -- सेंट्रिनो) के डिजाइन संबंधी विचार-विमर्श के दौरान लिनक्स के लोग उपस्थित ही नहीं थे. क्या आप इसे लिनक्स या हार्डवेयर निर्माताओं की तरफ से समस्या के रूप में देखते हैं? लिनुस: मुझे लगता है कि यह भी लिनक्स समुदाय की ‘संस्कृति’ का एक हिस्सा है: हम लोग इनवॉल्व नहीं होने के इतने ‘अभ्यस्त’ हो चुके हैं, और जो भी हार्डवेयर सामने हाथ आता है उसके लिए सॉ फ़्टवेयर लिखने लगते हैं, और हमारे पास आवश्यक पृष्ठभूमि भी नहीं हैं कि हम इन सब में अधिक सम्मिलि त होने की ‘कोशिश’ भी करें. फिर भी, परिस्थितियाँ धीरे-धीरे बदल रही हैं. अब अधिकाधिक हार्डवेयर कंपनियाँ (इंटेल को मिला कर) अब सचमुच में अपने आंतरिक विभागों में ड्राइवर लिखने हेतु लिनक्स कर्नेल परियोजनाएँ चलाती हैं. इसका अर्थ यह है कि उन कंपनियों के लिनक्स में काम करने वाले लोग, हार्डवेयर डिजाइन करने वाले लोगों से किसी न किसी रूप में संपर्क में आते ही हैं. पर यह भी सच है कि इससे कोई ‘तात्कालिक’ परिवर्तन नहीं होगा, मगर हार्डवेयर के कुछ जनरेशन के बाद आप निश्चित रूप से कुछ वार्तालाप तो प्रारंभ कर ही देते हैं और इससे दोनों ही तरफ के लोग दूसरे तरफ की कुछ समस्याओं को समझने तो लगते ही हैं. तो इस तरह से हम चिपसेट डिजाइनरों तथा सीपीयू डिजाइनरों से बात करते हैं. उतना तो भले ही नहीं जितना हमें करना चाहिए या हम कर सकते हैं. और यह कुछ व्यक्तियों के बीच आपसी बातचीत से होता है, और कुछेक परियोजनाओं के लिए होता है – उस तरह से नहीं जैसा कि ‘कंपनी पॉलिसी’ के रूप में होता है. जो भी हो, विचार-विमर्श तो हो रहे हैं. जैसे कि मुझे मालूम है, उदाहरण के लिए – आईबीएम के लिनक्स इंजीनियरों ने पावर चिप के सीपीयू इंजी नियरों से अच्छी खासी चर्चा की. मैंने स्वयं इंटेल के लोगों से बातचीत की है (और इंटेल के भीतर ही ढेर सारे लिनक्स पर काम करने वाले लोग हैं जो मुझसे ज्यादा काम कर रहे हैं). तो कुछ चीजें छोटे स्तर पर होने लगी हैं और दिनोंदिन विस्तार ले रही हैं. प्र: इस रिक्ति को भरने के लिए कोई सुझाव? क्या लिनक्स फ़ाउंडेशन ऐसे सहयोग के लिए केंद्रीय भाग के रूप में काम कर सकता है? लिनुस: मेरा भरोसा उच्च स्तरीय पॉलिसियों के बजाए ‘व्यक्तिगत’ शक्तियों पर ज्यादा होता है. मैं समझता हूँ कि लिनक्स फ़ाउंडेशन ऐसा स्थल है जहाँ कंपनियाँ अपनी समस्याओं पर विचार विमर्श करने जुटती हैं, और मुझे विश्वास है कि लिनक्स फ़ाउंडेशन को इन्हें सुलझाकर खुशी महसूस होती है. तो यह तो पहले से हो ही रहा है. और यह किसी उच्च स्तरीय पॉलिसी के वजह से नहीं हो रहा है बल्कि इस लिए हो रहा है कि अधिक से अधिक कंपनियाँ मुक्त स्रोत को अपना रही हैं और इस तरह से वे स्वचालित तरीके से ही सही, उनके हार्डवेयर इंजीनियर और मुक्त स्रोत समूह आपस में संपर्क में आ रहे हैं. प्र: लिनक्स कर्नेल के लिए भविष्य का पथ/योजनाएँ/नई विशेषताएँ क्या हैं लिनुस: मैं कभी भी भविष्यदृष्टा नहीं रहा हूँ – भविष्य के विशाल प्लानों की ओर ताकने के बजाए मैं छोटे समय की ‘अगले कुछ महीनों की समस्याओं’ पर ध्यान देता हूं. मैं ‘विस्तृत’ कार्य योजना में वि श्वास रखता हूँ और यदि आप तफसीलों पर ध्यान देंगे तो बड़ी समस्याएँ अपने आप ही हल हो जाती हैं. तो इस तरह से मेरे पास अभी कोई दृष्टि नहीं है कि मैं बताऊँ कि आज से पाँच साल बाद लिनक्स कर्नेल कैसा होगा – सिर्फ सामान्य बातें हैं ताकि हमारी नजरें उस पर जमी रहें. सच तो यह है कि जब यह सवाल मेरे सामने आता है तो मैं इस बात के लिए चिंतित होता हूं - जो कि तकनीकी तो कतई नहीं होता – कि ‘प्रक्रिया’ चलती रहनी चाहिए, और लोगों को एक दूसरे के साथ काम करते रहने चाहिएँ. प्र: लिनक्स तथा सोलारिस के भविष्य के संबंधों को आप कैसा देखते हैं? ये उपयोक्ताओं को किस तरह से लाभान्वित करेंगे? लिनुस: मैं इस तरह का कोई ओवरलैप इन दोनों के बीच नहीं देखता – सिवाय इसके कि मेरे विचार में सोलारिस में अधिक से अधिक ‘लिनक्स उपयोक्ता स्पेस औजारों’ का इस्तेमाल होने लगेगा (जिसमें कि जाहिरा तौर पर मेरा कोई योगदान नहीं होगा – मैं सिर्फ कर्नेल पर ही काम करता हूँ). पारंपरि क सोलारिस की अपेक्षा लिनक्स डेस्कटॉप बहुत ही बढ़िया है और मुझे उम्मीद है कि यहाँ पर सोलारि स लिनक्स मॉडल के रूप में अधिक दिखाई देगा. शुद्ध कर्नेल क्षेत्र में लाइसेंस की शर्तों की भिन्नता के कारण बहुत ज्यादा सहयोग की उम्मीद नहीं है, परंतु यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में क्या यह परिवर्तित हो सकता है. सोलारिस को जीपी एल (या तो सं.2 या सं.3) के अधीन जारी करने के नाम पर सन में बहुत हल्ला मच रहा है, और यदि ये लाइसेंस भिन्नता खतम हो जाए तो सम्मिलित रूप से बहुत ही दिलचस्प तकनॉलाजी सामने आएगी. देखो और इंतजार करो की भावना से मैं इसे ले रहा हूं. प्र: आपने लिनक्स कर्नेल में कर्नेल डेवलपरों के बीच प्रतियोगिता की भावना को हमेशा प्रोत्साहित किया है. प्रश्न यह है कि क्या लिनक्स को सोलारिस से भयभीत होना चाहिए जो कि एफओएसएस समुदाय में लिनक्स का पहला, वास्तविक प्रतिद्वंद्वी है? लिनुस: यहाँ पर मुझे इस बात का घमण्ड है कि मैं समझता हूँ कि हम सोलारिस से आसानी से प्रतियोगि ता कर लेंगे. वास्तव में मैं समझता हूँ कि यह प्रतियोगिता की भावना ही होती है जो व्यक्तियों को प्रोत्साहित करती है. अतः, नहीं, मैं कतई भयभीत नहीं हूँ. मेरे भयभीत नहीं होने का एक और बड़ा कारण यह है कि मुझे इसके बाजार की ओर से चिंतित नहीं होना पड़ता, और न ही मैं इसके बाजारी हिस्से के बारे में ध्यान देता हूँ. मैं सिर्फ इसके तकनीकी हिस्से के लिए चिंतित रहता हूँ. और, तकनीक के लिए प्रतियोगिता हमेशा अच्छी ही होती है. प्र: आप ऐसा क्यों सोचते हैं कि एसडी (एसडी शेड्यूलर) से कहीं ज्यादा बेहतर सीएफएस (कम्प्लीटली फेयर शेड्यूलर) है? लिनुस: कुछ हिस्सों में कहें तो ये बात है कि मैंने इंगो [मोलनार] के साथ लंबे समय तक काम किया है, इसका अर्थ यह है कि मैं उसे जानता हूँ, और यह भी जानता हूं कि वो एक बहुत ही विश्वसनीय व्यक्ति है और किसी भी आने वाली समस्या के प्रति पूरी जवाबदेही बड़ी तीव्रता से दिखाता है. और इस तरह की चीजें ज्यादा महत्वपूर्ण होती हैं. कुछ अन्य हिस्सों में कहें तो यह सिर्फ आंकड़ों का खेल है. अधिसंख्य लोगबाग कह रहे हैं कि एसडी से बेहतर सीएफसी है. त्रि-आयामी खेलों में भी (जो कि लोगों का कहना है – एसडी का सशक्त बिन्दु है) साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि किसी भी कोड का कोई भी हिस्सा कभी भी ‘परिपूर्ण’ नहीं हो सकता है. ये बढ़िया काम हो सकता है कि एसडी के प्रस्तावक इसे इतना बढ़िया बना लें कि पलड़ा उधर भारी हो जाए --- और हम दोनों ही कैम्प को नई दिलचस्प चीजें लाते हुए देखना चाहेंगे क्योंकि आंतरिक प्रतियोगिता से उन्हें भी प्रेरणा मिलती है. प्र: धीरे से ही सही, परंतु अनवरत, स्थिर गति से आरटी-ट्री के फीचरों को मेनलाइन में अंतर्निर्मित किया जा रहा है. बाकी बचे आरटी-ट्री को मेनलाइन में सम्मिलित करने के लिए मौजूदा परिस्थिति में आपकी क्या सोच है? लिनुस: मैं ये गारंटी नहीं दे सकता कि आरटी की सभी चीजें मानक कर्नेल में सम्मिलित कर दी जाएंगी (वहां कुछ ऐसी चीजें हैं जिन्हें जेनेरिक कर्नेल में रखने का कोई अर्थ नहीं है), परंतु हाँ, आने वाले कुछ वर्षों में उसकी बहुत सी चीजों को सम्मिलित कर देंगे. मैं लो-लेटेन्सी कार्य का बड़ा प्रशंसक हूं परंतु साथ ही मैं बड़ा दकियानूसी किस्म का भी व्यक्ति हूँ. इसी कारण से मैं बहुत सी चीजों को एग्रेसिव-मर्जिंग से बाहर कर देता हूँ क्योंकि मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूँ कि यह सिर्फ कुछेक एक्स्ट्रीम रीयल टाइम पर्सपेक्टिव के लिए ही नहीं, बल्कि ‘आम’ उपयोक्ता के लिए जिन्हें इसकी आवश्यकता नहीं है, के भी काम का हो. और इसी से यह स्पष्ट होता है कि प्रक्रिया धीमी क्यों होती है. जो कोड सम्मिलित किये जाते हैं उन्हें धीरे से जां चा परखा जाता है, जो स्थिर हो और जो काम का हो साथ ही, ये बात सिर्फ –आरटी के साथ ही नहीं है – बहुत सारे डेवलपमेंट के साथ ऐसा है. –आरटी ‘डायरेक्टेड’ कर्नेल परियोजना में से एक है और इसका एक प्रमुख डेवलपर मुख्य कर्नेल डेवलपमेंट से सीधे जुड़ा है इसीलिए ऐसा है. अन्य विशेषताओं – (जैसे कि सुरक्षा, आभासी मेमोरी परिवर्तन, वर्चुअलाइजेशन इत्यादि) इसी पथ का अनुसरण करते हैं: उन्हें विशिष्ट लक्षित वातावरण के लिए लिखा जाता है और उन विशेषताओं को धीरे से परंतु आवश्यक रूप से मानक कर्नेल में सम्मिलित किया जाता है. प्र: क्या आप समझते हैं कि –आरटी ट्री के भीतर जो तकनालॉजी के कार्य किए जा रहे हैं उनकी कोई कीमत रीयल टाइम डोमेन में है? यदि हाँ तो वे क्या हैं और उनकी धनात्मक भूमिका कहां होगी? (मैंने यह प्रश्न इसलिए पूछा क्योंकि यह साफ है कि – आरटीओएस का आरटी ट्री एक गंभीर विकल्प है चूंकि इसमें आरटीओएस की बहुत सी ख़ूबियाँ हैं वह भी पारंपरिक आरटीओएक की सीमाओं के इतर. इसे मुख्य पंक्ति में अंतर्निर्मित करने से लिनक्स को उन क्षेत्रों में पैर जमाने में मदद मिलेगी जहाँ आरटी ओएस प्रमुख रूप से छाए हुए हैं. कम से कम ऐसा मेरा विचार तो है.) लिनुस: ओह, हाँ, -आरटी ट्री की ‘बहुत’ सी विशेषताएँ शुद्ध रीयल टाइम में अच्छी हैं. और वास्तव में टाइमर कोड और कुछ इन्फ्रास्ट्रक्चर जो कि संपूर्ण लो-पावर में बढ़िया काम करते हैं, को पहले ही अंतर्निर्मित कर दिया गया है. लॉकिंग वेरिफ़ायर –आरटी से ही आया है जो कि हर एक के लिए बहुत ही काम का है. और बहुत से (और, अब तक तो लगभग सारा का सारा) प्रीएम्प्टिबल कार्य जो –आरटी में हुए हैं वे मा नक कर्नेल में आ चुके हैं क्योंकि इसने कुछ लाकिंग समस्याओं को दूर किया है. साथ ही ‘रियल टाइम’ और ‘नॉन रियल टाइम’ के बीच यदा कदा ही कोई श्वेत-श्याम लकीर खिंच पाती है, रियल टाइम लोड अब डेस्कटॉप और एम्बेडेड संसार में भी अपना अभिप्राय रखने लगे हैं. और, मुक्त स्रोत की इस एक खासियत को मैं खासतौर पर दिलचस्प पाता हूँ: बहुत बार आप किसी विशिष्ट क्षेत्र के लिए विशिष्ट डेवलपमेंट करते हैं और अंत में पाते हैं कि जो फीचर बनाया गया है उसका महत्व उस विशिष्ट क्षेत्र के बाहर कहीं ज्यादा है. तो सभी हाई-एंड के सर्वर के और लॉकिं ग ग्रेन्यूलिट कार्य जो हमने किए हैं – वे अब डेस्कटॉप और एम्बेडेड चीजों की दुनिया में बढ़िया काम आ रहे हैं क्योंकि मल्टी-कोर सीपीयू का मतलब है - एसएमपी हर जगह है. क्या इसका अर्थ यह है कि विशिष्ट क्षेत्रों के लिए किए गए ‘सभी’ कार्य जेनेरिक कर्नेल के लिए महत्वपूर्ण होते हैं? नहीं. परंतु बहुत सारे फीचर जो ‘विशिष्ट आवश्यकताओं’ के लिए बनाए जाते हैं, आमतौर पर सामान्य रूप से उपयोगी होते हैं. प्र: हाल ही में कर्नेल के स्थायित्व को लेकर कुछ टिप्पणियाँ हुई थीं. यहाँ तक कि एण्ड्रयू मॉर्टन को यह कहते पाया गया था कि बहुत बड़ी संख्या में बग रपटें पड़ी हुई हैं और बहुत से नए बग शामिल हुए हैं जिन्हें ठीक करने के पूरे प्रयास लिनक्स विकासकर्ता नहीं कर रहे हैं. इस समस्या पर आप कुछ प्रका श डाल सकेंगे? लिनुस: मूल समस्या यह है कि हम कर्नेल में ‘बहुत से’ परिवर्तन करते रहते हैं और इसके साथ बग्स तो आते ही हैं. मैं सोचता हूँ कि हम इन्हें ठीक करने में अच्छे ही हैं (और अभी हालिया लागू किया गया ‘रिग्रेशन ट्रेकिंग’ ने बहुत मदद की है), परंतु हर दूसरे महीने एक नए कर्नेल रिलीज, तथा प्रत्येक रिलीज में लगभग दस लाख लाइनों के कोड परिवर्तनों के बीच, हमें स्थायित्व के बारे में चिंतित तो होना ही चाहिए. मैं सोचता हूँ कि नए रिग्रेशन ट्रेकिंग (एड्रियन बंक द्वारा प्रारंभ किया गया तथा अब माइकल प्योत्रोव्स्की तथा उसके बेहतरीन कर्नेल ट्रैकरों की टीम द्वारा किया जा रहा है) ने बहुत मदद की है, आंशिक रूप से इसलिए भी क्योंकि डेवलपर अब अपना ध्यान ब्रेकेज रिपोर्ट पर लगा सकते हैं. और प्रत्येक दो-से-तीन माह में एक रिलीज वाला मॉडल जिसके हम पिछले कई वर्षों से अभ्यस्त हो चुके हैं, बेहद सफल रहा है. तो यह कोई ऐसी बात नहीं है जिसे कहा जाए कि हम गेंद को जानबूझ कर छोड़े दे रहे हैं – स्थायित्व हमेशा ही प्राथमिक लक्ष्य होना ही चाहिए – पर विकास का दम घोंटने की भी अनुमति यहां नहीं दी जा सकती. और यह बहुत ही जटिल पर महत्वपूर्ण संतुलन है. प्र: मुझे बहुत ही कुतूहल है कि कर्नेल के फ़ाइल सिस्टम के भविष्य में क्या है. आप रेइजर4, एक्सएफएस4, जेडएफएस तथा ऑरेकल द्वारा स्थापित नई परियोजना के बारे में क्या सोचते हैं? जेडएफएस की चर्चा इन दिनों अच्छी खासी हो रही है. रेइजर4 ने बहुत बढ़िया बेंचमार्क दिए हैं तथा एक्सएफएस4 आगे बढ़ने की पूरी तैयारी में है. उधर ऑरेकल द्वारा बनाया जा रहा फ़ाइल सिस्टम सन के जेडएफएस की बहुत सी ख़ूबियों युक्त है. हम कहाँ जा रहे हैं? आपकी राय में कौन से फ़ाइल सिस्टम में सबसे ज्यादा संभावनाएं दिखाई दे रही हैं? लिनुस: असल में, कल ही हमें जीआईटी परफ़ॉर्मेंस की समस्या से जूझना पडा, जहाँ जेडएफएस बड़े परिमाण में एक उपयोक्ता के लिए यूएफएस की अपेक्षा धीमा था (लिनक्स में नहीं, परंतु जीआईटी कर्नेल डेवलपमेंट से बाहर भी बहुत ध्यान खींच रहा है). तो मैं सोचता हूं कि बहुत सारे ‘नए फ़ाइल सिस्टम’ के पीछे जो पागलपन चल रहा है और यह अपेक्षा करना (कुछ कुछ अवास्तविक सा) कि ‘नया और परिष्कृत’ फ़ाइल सिस्टम सबकुछ परिपूर्ण कर देगा, वो शायद पुराने फ़ाइल सिस्टम की समस्याओं के कारण ज्यादा है. अंत में, यह क्षेत्र ऐसा है जहाँ आपको लोगों को लड़ने भिड़ने के लिए छोड़ देना चाहिए. फिर देखें कि अंत में जीत किसकी होती है. और ये जरूरी नहीं कि इनमें से कोई एक (संभावना भी इसी की है) ही विजेता हो. हरहमेशा, फ़ाइल सिस्टम का सही चुनाव लोड तथा परिस्थितियों पर ज्यादा निर्भर हो ता है. आपने जिन फ़ाइल सिस्टम के नाम लिए हैं उनसे ज्यादा एक चीज मुझे उत्तेजित करती है – वह है फ्लैश आधारित हार्ड डिस्क जो कि अब ‘सामान्य’ उपयोक्ताओं के लिए भी उपलब्ध हो रहे हैं. ठीक है, वे अभी भी कुछ महंगे है (और बहुत छोटे भी), परंतु फ्लैश आधारित भंडारण में पारंपरिक घूर्णन आधारित मीडिया की अपेक्षा बहुत अधिक परफ़ॉरमेंस प्रोफाइल भिन्नता है. और मुझे शक है कि ये बात फ़ाइल सिस्टम डिजाइन में अच्छा खासा प्रभाव डालेगा. अभी तो सभी फ़ाइल सिस्टम रोटेटिंग मीडिया की लेटेंसी को ध्यान में रखते हुए डिजाइन किए गए हैं. प्र: अभी जो विंडोज लांगहार्न जारी किया गया है वह लिनक्स के खतरे पर माइक्रोसॉफ़्ट का उत्तर कहा जा रहा है - ठीक वैसे ही जैसे विंडोज एनटी, नॉवेल के लिए 90 के दशक में था. लांगहार्न को ध्यान में रखते हुए क्या लिनक्स में कुछ सुधार-उन्नयन जैसा कुछ प्लान किया गया है? लिनुस: वास्तव में मैं बिलकुल भी एमएस की चिंता नहीं पालता. उनका सामर्थ्य उनकी मार्केटिंग और (जाहिरा तौर पर) बाजार का हिस्सा हैं. ‘तकनीकी’ कोण से वे कभी भी दिलचस्प नहीं रहे. और चूंकि मैं व्यक्तिगत तौर पर तकनॉलाजी को पसंद करता हूँ, मैं इन बातों पर कभी भी दिलचस्पी नहीं रखता कि एमएस क्या कर रहा है प्र: “कंप्यूटरों का अंतिम रूप क्या यही है” यह प्रसिद्ध प्रश्न नोकिया ने अपने एन-श्रेणी के मोबाइल फ़ोनों के कैम्पेन में पूछा है. क्या ऐसा कोई तकनीकी रोड मैप लिनक्स ने बनाया है जिससे कि वह कम्यूटिंग उपकरणों – जैसे कि हैण्डहेल्ड व मोबाइल उपकरणों की अगली लहरों पर राज कर सके? लिनुस: मैं समझता हूँ कि यदि कोई चीज पारंपरिक डेस्कटॉप कम्प्यूटिंग को प्रतिस्थापित कर सकती है तो वो मोबाइल कम्प्यूटिंग ही है. अब वे महज लॅपटॉप हो सकते हैं (वही मूल आर्किटेक्चर, मोबाइल), या छोटे हैण्डहेल्ड – ये मुझे नहीं पता. परंतु यह निश्चित रूप से वह क्षेत्र है जहाँ लिनक्स लाभ की स्थिति में है, दूसरे ऑपरेटिंग सिस्टम की अपेक्षा यह बहुत विस्तृत क्षेत्र में पहुंच रहा है और जिसे नकारा नहीं जा सकता ( जहाँ लिनक्स अभी शीर्ष के 500 सुपरकम्प्यूटरों में 75 प्रतिशत में इस्तेमाल में लिया जा रहा है वहीं इसे नोकिया और मोटरोला के छोटे फ़ॉर्म फैक्टर के सेल फ़ोनों में भी इस्तेमाल किया जा रहा है). प्र: लिनक्स फ़ाउंडेशन में आपके केआरए क्या हैं? लिनुस: वह प्रबंधकीय सत्र है, अतः मुझे उसे वास्तव में देखना होता है. मैं मान रहा हूँ कि केआरए से आपका तात्पर्य की-रेस्पांसिबिलिटी-एरिया है. मेरा कार्य बहुत ही साधारण रूप से पारिभाषित है: मेरा कार्य है – लिनक्स कर्नेल को मेंटेन कर रखना – जिस रूप में मैं उसे फिट समझता हूँ और जो कुछ भी मैं लिखूं वो मुक्त स्रोत हो. तो इसका मतलब पूरी तरह से यह भी नहीं हुआ कि मैं सिर्फ कर्नेल पर ही काम करूं – सही में तो कुछ चीजें जैसे कि ‘जीआईटी’ (हमारा स्रोत नियंत्रण प्रबंधन अनुप्रयोग) बहुत कुछ उसके भीतर आता है जो मैं यहाँ लिनक्स फ़ाउंडेशन में करता हूँ. यह कर्नेल को मेंटेन करने का एक बड़ा भाग है, अब यह भले ही एक अलग परियोजना है. लिनक्स फ़ाउंडेशन में संभवतः इतना ही महत्वपूर्ण है मेरे लिए, कि मैं क्या नहीं करता हूं. परिशुद्ध तकनीकी प्रबंधन के बाहर का कोई भी काम मैं नहीं करता हूँ. तो लिनक्स फ़ाउंडेशन स्वयं बहुत से भिन्न काम करता है (जैसे कि सभी कार्य समूह अपने सदस्य कंपनियों के साथ करते हैं, इत्यादि) जि नमें मैं व्यक्तिगत रूप से कभी भी शामिल नहीं होता. kramashah.... ------------------------------------------------------------------------- This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Still grepping through log files to find problems? Stop. Now Search log events and configuration files using AJAX and a browser. Download your FREE copy of Splunk now >> http://get.splunk.com/ _______________________________________________ Indlinux-hindi mailing list Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Mon Aug 20 18:44:52 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 20 Aug 2007 18:44:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSy4KS/4KSo4KS4?= =?utf-8?b?IOCkn+Cli+CksOCkteCkvuCksuCljeCkoeCljeCkuCDgpLjgpYcg4KS44KS+?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KS34KS+4KSk4KWN4KSV4KS+4KSwIC0gMg==?= Message-ID: <200708201844.52252.ravikant@sarai.net> गतांक से आगे.... रविशंकर श्रीवास्तव को अनेकशः धन्यवाद! ... प्र: लिनक्स/ओएसएस इको-सिस्टम के विकास में आप लिनक्स फ़ाउंडेशन की क्या भागीदारी देखते हैं? लिनुस: लिनक्स फ़ाउंडेशन के पास दो स्वतंत्र कार्य हैं: यह ‘डेवलपरों को सपोर्ट’ करती है – जिसमें शामिल है बहुत से इंजीनियरों को काम देना – जैसे कि मैं – तथा उन डेवलपरों के यात्रा खर्चों के लिए फंड तैयार करना जो किसी परियोजना में शामिल होते हैं परंतु जहाँ उनके नियोक्ता इन परियोजनाओं को सीधे-सीधे समर्थन नहीं देते हैं और उनके तकनीकी कॉनफ्रेंसों हेतु यात्रा खर्चों को वहन नहीं करते हैं. लिनक्स फ़ाउंडेशन का दूसरा कार्य है मूलतः एक स्थान प्रदान करना जहाँ विभिन्न कंपनियाँ (आमतौर पर सदस्य, परंतु हमेशा नहीं) एक साथ आते हैं या मुक्त स्रोत में साथ काम करते हैं. ये कार्य समूहों इत्यादि के रूप में होता है, और ये कंपनियों के भीतर शिक्षकीय कार्यक्रमों इत्यादि चलाने तथा इंजी नियरों को अन्य कंपनियों में मुक्त स्रोत के बारे में बताने हेतु उनकी यात्रा व्यवस्था करने तथा समस्याओं के बारे में मध्यक्रम के प्रबंधकों को शिक्षित करने हेतु किया जाता है. इसका तीसरा काम है विविध इंटरऑपरेबिलिटी मानकों जैसे कि एलएसबी (लिनक्स स्टैंडर्ड बेस) तैयार करना व उसे लागू करना. प्र: लिनक्स वितरणों जैसे कि नॉवेल, ज़ेंड्रॉस तथा लिनस्पायर के साथ माइक्रोसॉफ़्ट के क्रास-लाइसेंसिं ग सौदों के प्रयासों के बारे में आपकी क्या राय है? लिनक्स के विकास में ये क्या प्रभाव डाल सकते हैं? लिनुस: इस मामले में मेरी कोई गंभीर राय नहीं है. व्यापार तो व्यापार है, और मैं इसमें इनवॉल्व नहीं होता. मैं तकनॉलाजी के बारे में चिंतित रहता हूँ. हाँ, सॉफ़्टवेयर पेटेंट चिंता करने वाली बात है परंतु मैं यह भी मानता हूं कि जहां भी एमएस इनवॉल्व होता है, वहाँ लोग ज्यादा ही ओवररिएक्ट करते हैं. और इंटरनेट पर कुछ कर्णभेदी प्रतिक्रियाएँ शीर्ष की चीजों पर ही होती हैं. देखते हैं कि क्या होता है. प्र: माइक्रोसॉफ़्ट के ‘मेन इन ब्लेक’ से कभी आपकी बातचीत हुई है? लिनुस: एमएस से मेरी कभी बात नहीं हुई है. नहीं. मैं कुछ कॉन्फ्रेंसों में एमएस के लोगों के साथ जरूर रहा था (आज की अपेक्षा तब मैं पहले बहुत से कॉन्फ्रेंसों में जाता था ), परंतु मेरे पास उनके साथ सा झा करने को वास्तव में कुछ रहता ही नहीं था. मैं समझता हूँ कि दोनों तरफ पारस्परिक सतर्कता का एक सतह बना हुआ है. प्र: माइक्रोसॉफ्ट अपना स्वयं का मुक्त स्रोत लेकर आया है http://www.microsoft.com/opensource/default.mspx . इस पर आपकी क्या टिप्पणी है? लिनुस: मेरे विचार में एमएस के अंदर जो कुछ भी काम मुक्त स्रोत को ज्यादा समझने या अपनाने के लिए होता है तो वो अच्छा ही है. तो मैं चौकन्ने तरीके से आशान्वित हूँ कि वे इस धारणा, इस विचार के अभ्यस्त हो रहे हैं और भले ही ये बात न हो कि हमें ‘दोस्त’ होना चाहिए, कम से कम ये उम्मीद तो करें कि डर और नफरत के बजाए एक दूसरे के प्रति सम्मान की भावना हो. हाँ, यह बात यहाँ पर तो है कि लोगबाग डर रहे हैं कि एमएस मुक्त स्रोत के लोगों को चूस निकाल लेने की कोशिश कर रहा है, और ऐसा कोई पहली बार नहीं हो रहा है. तो, जबकि मैं कोई बिना विचारे मन में डर बसाने का समर्थन नहीं करूंगा, मैं यह भी सोचता हूँ कि एमएस के प्राचीन ऐतिहासिक व्यवहार को भी ध्यान में रखना चाहिए. प्र: लिनक्स मुफ़्त है, पूरा सुरक्षित है, फिर भी ये डेस्कटॉप उपयोक्ताओं में उतना लोकप्रिय होने में असफल रहा है. इसके पीछे क्या कारण हैं? लिनक्स को आम जनता में लोकप्रिय बनाने के लिए आपके क्या सुझाव हो सकते हैं? लिनुस: मेरे विचार में यह सिर्फ जड़त्व की समस्या है. यह सचमुच में बहुत मुश्किल होता है कि लोग अपना व्यवहार बदलें, और ये कोई एक रात में नहीं हो जाता. पिछले वर्षों में लिनक्स ने विशाल प्रगति की है और यदि मैं पीछे मुड़कर दस साल पहले की स्थिति देखूं तो जो आज की स्थिति है वो मुझे अकल्पनीय लगती है. और मुझे लगता है कि यह जारी रहेगा क्योंकि मुक्त स्रोत हर किसी के लिये बेहद अच्छा है. तो मैं सोचता हूं कि बहुत सारा दारोमदार शिक्षा पर निर्भर है – उस अभिप्राय में कि लोगों को विकल्पों के बारे में मालूम होना चाहिए और भले ही लोग स्वयं अपने तईं बदल नहीं पाएँ, परंतु वे लि नक्स से खौफ़ नहीं खाएँ (क्योंकि वे सुन चुके हैं) और वे इसे आजमाएँ. और यह भी सत्य है कि, नहीं, अभी हर कोई लिनक्स पर स्विच नहीं कर सकता है, परंतु मैं सोचता हूँ कि हमने बहुतायत में लोगों को मुक्त स्रोत के फ़ायदों का आनंद उठाते देखा है. प्र: आपने अभी हाल ही में कहा था: “सन के लिए सिर्फ जीपीएल-3 संस्करण ... उन्हें कम से कम लि नक्स में बिना किसी गिविंग बैक के भाग लेने तो देगा ही.” चूंकि लिनक्स सिर्फ जीपीएल-2 है, तो सोलारिस कैसे कर्नेल में शामिल हो सकता है जबकि वह जीपीएल-3 में जाता है (चूंकि दोनों लाइसेंस आपस में इनकॉम्पेटिबल हैं)? लिनुस: जबकि पूरा का पूरा लिनक्स कर्नेल सिर्फ जीपीएल-2 है, इसका कुछ हिस्सा ‘जीपीएल-2 या बाद का’ है. तो कुछ विशिष्ट व्यक्तिगत ड्राइवर जीपीएल-3 परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल किए जा सकते हैं. प्र: गूगल में जीआईटी के बारे में एक वार्ता के दौरान आपसे किसी ने पूछा था कि एक बहुत विशाल को ड बेस को जो कि वर्तमान में किसी केंद्रीयकृत तरीके से हैंडल किया जा रहा है उसे अपने व्यापार को छः महीने के लिए बंद किए बगैर कैसे जीआईटी पर परिवर्तित करेंगे. उस पर आपकी प्रतिक्रिया क्या रही थी? लिनुस: आह. वह एक प्रश्न था जो मैं ठीक से सुन नहीं पाया था (रेकॉर्डिंग में वह प्रश्न तो अच्छे से ही सुनाई दे रहा था), और जब मैंने रेकार्ड किए ऑडियो को बाद में सुना तो पाया कि मैंने उस पूछे गए प्रश्न का उत्तर नहीं दिया था, बल्कि उस प्रश्न का उत्तर दिया था जो मैंने समझा था कि पूछा गया था. जो भी हो, हमारे पास बहुत सारे आयात करने के औजार हैं जिनके जरिए आप किसी भी पिछली एससीएम की बड़ी परियोजनाओं को जीआईटी में आयात कर सकते हैं. परंतु समस्या निश्चित रूप से सिर्फ आयात करने के काम में नहीं है, बल्कि नए मॉडल से ‘अभ्यस्त’ होने की है! और मैं यहाँ बिलकुल स्पष्ट करना चाहूंगा कि ‘अभ्यस्त’ होने के लिए दूसरा कोई उत्तर हो सकता है सि वाय इसके कि आप शुरु हो जाएँ और आजमाएँ. पर फिर जाहिर है आप अपनी सबसे बड़ी, सबसे केंद्रीयकृत परियोजना को आयात कर इसे न आजमाएँ चूंकि इससे फिर सारा तंत्र स्थिर हो जाएगा और फिर हर कोई अप्रसन्न भी हो जाएगा. तो कोई भी स्थिर बुद्धि का व्यक्ति आपको यह सलाह नहीं देगा कि आप रातोंरात सबकुछ जीआईटी पर ले आएँ, और लोगों को अपना वातावरण बदलने को मजबूर करें. नहीं. आपको कंपनी के भीतर की छोटी परियोजनाओं से शुरूआत करनी चाहिए – संभवतः कुछ ऐसी परियोजनाओं से जिसे कोई एक समूह नियंत्रित करता व मेंटेन करता है. और उसे जीआईटी में परिवर्तित करना चाहिए. इस तरह से आप लोगों को नए मॉडल से अभ्यस्त बना सकते हैं और आप जानकारों का एक कोर ग्रुप बना सकते हैं जिन्हें जीआईटी के का र्य का पूरा ज्ञान हो जाएगा कि उसे कंपनी के भीतर कैसे इस्तेमाल किया जा सकता है. फिर आप उसे बढ़ाते रह सकते हैं. पर एक बार में नहीं. धीरे-धीरे आप अधिक से अधिक परियोजनाओं को आयात कर सकते हैं और यदि आपकी कंपनी के पास ‘एक बड़ा रिपॉसिटरी’ मॉडल हो तो आप निश्चित रूप से उस रिपॉसिटरी को मॉड्यूल सेट के रूप में रख सकते हैं क्योंकि कार्य करने वाला मॉडल ये नहीं हो सकता कि हर कोई हर चीज की (जब तक कि ‘सबकुछ’ बहुत विशाल न हो) जांच परख करे. तो आपको मूलत: एक बार में एक मॉड्यूल से परिवर्तन करना चाहिए उस बिन्दु तक, जहाँ आप समझते हैं कि अब आप जीआईटी में बाकी का सारा कुछ परिवर्तित कर सकते हैं (या ‘बाकी’ बचा इतना लीजेसी हो कि उसकी किसी को चिन्ता न हो). जीआईटी की एक बढ़िया विशेषता ये है कि यह बहुत सारे अन्य एससीएम के साथ बखूबी काम आता है. और बहुत सारे जीआईटी उपयोक्ता इसे इसी तरह इस्तेमाल करते हैं: ‘वे’ जीआईटी का इस्तेमाल करते होते हैं परंतु कभी जो लोग काम कर रहे होते हैं उन्हें ये भान नहीं होता कि वे जीआईटी में काम कर रहे हैं क्योंकि परिणाम लीजेसी एससीएम के जरिए प्रचारित होता है. प्र: हाल ही में आपने सबवर्सन और सीवीएस को लताड़ा है, उनके मूल ढांचे पर प्रश्नचिह्न लगाकर. अब चूंकि आपको सबवर्सन समुदाय से प्रतिक्रिया हासिल हो चुकी है, क्या आप के विचारों में सुधार हुआ है या आप अभी भी उनके विचारों के कायल नहीं हुए हैं? लिनुस: मैं सशक्त वक्तव्य देने में विश्वास करता हूँ, क्योंकि तब मैं परिचर्चा को दिलचस्प देखता हूं. दूसरे शब्दों में मैं ‘बहस’ को पसन्द करता हूँ. अविवेकी बहस को नहीं, पर निश्चित रूप से मैं प्लेटोनि क चर्चा के बजाए गर्मागर्म बहस को पसंद करता हूँ और सशक्त तर्क रखने पर कभी-कभी बहुत ही वैध खण्डन प्राप्त होता है, और तब मैं खुशी से कहता हूँ: “ओह, हाँ, आप सही हैं.” पर, नहीं, ऐसा एसवीएन/सीवीएस में नहीं हुआ. मुझे शक है कि बहुत से लोग सीवीएस को पसंद नहीं करते हैं तो किसी को सीवीएस के पक्ष में तर्क देने की आशा नहीं करता. और जबकि कुछ लोगों ने मुझसे कहा कि मुझे एसवीएन के विरुद्ध इतना अशिष्ट नहीं होना चाहिए था (परंतु, भाई ये भी स्पष्ट है - मैं कोई बहुत शिष्ट व्यक्ति भी नहीं हूँ!) एसवीएन, जहाँ तक मैं समझता हूँ ‘बहुत बढ़िया’ है का एक आदर्श उदाहरण है. लोग इसके अभ्यस्त हैं, और ये काफी लोगों के लिए ‘बहुत बढ़िया’ है. परंतु ये बहुत बढ़िया उसी अभिप्राय में है जिसमें डॉस (DOS) और विंडोज को ‘बहुत बढ़िया’ कहा जाता है. तकनॉलाजी बढ़िया नहीं है, परंतु चूंकि यह हर तरफ उपलब्ध है, लोग बहुतायत से इस्तेमाल करते हैं, आम लोगों के लिए बढ़िया काम करता है और जो लोग इस्तेमाल करते हैं वे इससे खासे परिचित हैं. परंतु बहुत ही कम लोग इस पर गर्व करते हैं या इससे उत्तेजित होते हैं. जबकि दूसरी तरफ जीआईटी के पीछे ‘यूनिक्स दर्शन’ है. यह यूनिक्स की तरह नहीं, बल्कि असली यूनिक्स की तरह है और इसके पीछे यही मूलभूत विचारधारा है. यूनिक्स के लिए दर्शन है/था, ‘सभी कुछ एक फाइल है’. जीआईटी के लिए, यह है, ‘कंटेंट एड्रेसेबल डेटाबेस में सबकुछ एक ऑब्जेक्ट है’. प्र: ट्रांसमेटा में क्या कभी आल्टरनेट इंस्ट्रक्शन सेट इम्प्लीमेंटेशन पर प्रयोग किये गये? [ट्रांसमेटा क्रूसो चिप को सॉफ्ट सीपीयू के रूप में देखा जाता है – लोगों को यह बरो बी1000 इंटरप्रेटिव मशी न की याद दिलाता है जो कि वास्तव में बहुत से आभासी मशीनों का औजार है. जहाँ एक मशीन सि स्टम सॉफ़्टवेयर के लिए होता है, दूसरा कोबॉल के लिये, तीसरा फोरट्रॉन के लिये... यदि यह सही है तो कोई भी बरो 6/7000 या एचपी3000 जैसा स्टैक ढांचा या जेवीएम के लिए उचित इंस्ट्रक्शन सेट इत्यादि उस चिप पर बना सकता है] लिनुस: हमारे पास कुछ वैकल्पिक इंसट्रक्शन सेट तो वास्तव में हैं, और मैं उन पर बोलने बताने के लिए अधिकृत नहीं हूँ, फिर भी मैं इतना तो कह ही सकता हूँ कि हम इंसट्रक्शन सेट को मिलाने के लिए आम प्रदर्शन कर चुके हैं. हम तकनॉलाजी के प्रदर्शन के रूप में बता चुके हैं कि आप x86 इंस्ट्रक्शनों को जा वा बाइट कोड (वास्तव में यह एक थोड़ा सा विस्तारित पिको-जावा आईआईआरसी था) के साथ साथ चला सकते हैं. जो अनुप्रयोग हमने दिखाया था वो था लिनक्स के ऊपर डूम को चलाना, जहाँ लिनक्स का हिस्सा मा नक x86 वितरण था, परंतु डूम की बाइनरी एक विशेष रूप से कम्पाइल किया गया संस्करण था जहां इस खेल के हिस्से को पिको-जावा से कम्पाइल किया गया था. तथा सीपीयू इन दोनों को एक ही तरह से चला रहा था – जेआईटी के रूप में नेटिव वीएलआईडबल्यू इंस्ट्रक्शन सेट के रूप में. (डूम को इस लिए प्रदर्शित किया गया था चूंकि इसका स्रोत कोड उपलब्ध था, तथा इस खेल का कोर भाग पर्याप्त छोटा था जो डिमॉस्ट्रेशन के लिए सेटअप करने में उपयुक्त था – तथा ये देखने में दि लचस्प भी था.) वैसे तो भीतर और भी बहुत सी चीजें चल रही हैं, परंतु मैं उनके बारे में बोल-बता नहीं सकता. और मैं जावा के साथ व्यक्तिगत रूप से जुड़ा भी नहीं हूँ. प्र: लिनक्स के लिए इतने सारे वितरण सही हैं या गलत? चुनाव तो ठीक हैं, परंतु किसी को इतने भी विकल्प चुनने के लिए नहीं दिए जाने चाहिएँ. सैकड़ों वितरणों को बनाने में जितने आदम-घंटे इस्तेमाल में आते हैं उनका बेहतर उपयोग किया जा सकता है जैसे कि एक साथ किसी एंटरप्राइज में आएं और एमएस को चुनौती दें यदि वे कुछ कम वितरणों (जैसे कि एक इस्तेमाल के लिए एक) पर काम करें? इस पर आपके दृष्टिकोण क्या हैं? लिनुस: मेरे विचार में बहुत सारे वितरण मुक्त स्रोत के अपरिहार्य भाग हैं. और क्या ये भ्रमित करते हैं? निश्चित रूप से. क्या ये अक्षम होते हैं? हाँ. परंतु मैं यहाँ राजनीति से तुलना करना चाहूंगा: ‘प्रजातंत्र’ में इसी तरह के भ्रमित विकल्प होते हैं, और इनमें से कोई भी विकल्प आवश्यक रूप से वो नहीं होते जो आप ‘वास्तव’ में चाहते होते हैं, और कभी कभी आप सोचते हैं कि चीजें ज्यादा आसान और सफल होतीं यदि आपको चुनाव, विभिन्न पार्टी, गठबंधन इत्यादि के उलझनों से जूझना नहीं पड़ता. और, अंत में आपका चुनाव अक्षमता युक्त हो सकता है, पर यह हर एक को ‘कुछ हद तक’ इमानदार बने रहने में मदद करता है. हम सभी संभवतः ये चाहते हैं कि हमारे राजनीतिज्ञ थोड़े ज्यादा ईमानदार होते जितने कि वे हैं, तो इसी तर्ज पर हम चाहते हैं कि विभिन्न लिनक्स वितरणों में कुछ अन्य विकल्प भी होते जितने कि अभी हैं. बिना ऐसे विकल्पों के शायद हम और भी खराब हो सकते थे. प्र: 386 बीएसडी जिसमें से नेटबीएसडी, फ्रीबीएसडी और ओपनबीएसडी बनाया गया है, वो लिनक्स से पहले था परंतु 386बीएसडी और उनके व्युत्पन्नों से कहीं ज्यादा लिनक्स फैल गया. तो इस हेतु आप ला इसेंस के चुनाव या फिर डेवलपमेंट प्रक्रिया – किसको श्रेय देना चाहेंगे? क्या आप ये नहीं सोचते कि जीपीएल3, जीपीएल2 से ज्यादा अच्छे से स्वतंत्रता की संरक्षता करेगी जिसकी वजह से लिनक्स अबतक बीएसडी से बेहतर रहा है? लिनुस: मैं समझता हूं कि दोनों ही चीजें हैं – लाइसेंस की समस्या तथा समुदाय व पर्सनॉलिटी की समस्या. बीएसडी लाइसेंस ने हमेशा अलग वितरण को प्रेरणा दी है, परंतु इसका ये भी अर्थ है कि यदि कोई अलग वितरण व्यापारिक रूप से बढ़िया सफल हो गया है तो वो वापस जुड़ नहीं सकता. और यदि ये वास्तव में नहीं भी होता है (वैसे ये हो चुका है बीएसडीआई के केस में), तो लोग आपस में एक दूसरे का ‘भरोसा’ ज्यादा नहीं करते हैं. इसके विपरीत, जीपीएल2 में हालांकि अलग वितरण की प्रेरणा तो दी जाती है, परंतु इस बात के लिए भी प्रेरित किया जाता है कि (और, ‘आवश्यक’ रूप से चाहा जाता है) वे वापस लौटकर जुड़ने की का बिलियत रखें. तो आपके पास पूरे नए स्तर का भरोसा होता है: आप प्रत्येक जुड़े हुए व्यक्ति को ‘जा नते’ हैं जो लाइसेंस शर्तों से बंधे होते हैं और वे आपका लाभ नहीं उठा सकते. तो मैं देखता हूँ कि जीपीएल2 ऐसा लाइसेंस है जो लोगों को अधिकतम संभावित स्वतंत्रता देता है – इस आवश्यकता के भीतर कि आप हमेशा वापस लौटकर आपस में जुड़ सकते हैं. स्रोत कोड में विकास के लिये कोई भी आपको रोक नहीं सकता. तो क्या बीएसडी लाइसेंस और भी ज्यादा ‘मुक्त’ है? हाँ. प्रश्न ही नहीं उठता. परंतु मैं अपने किसी भी परियोजना के लिए बीएसडी लाइसेंस नहीं चाहूंगा चूंकि मैं सिर्फ स्वतंत्रता नहीं चाहता, मैं भरोसा और विश्वास भी चाहता हूँ ताकि मैं उन कोड का इस्तेमाल कर सकूं जो दूसरों ने मेरी परियोजनाओं के लिए लिखे हैं. तो मेरे लिए जीपीएल2 एक बढ़िया, संतुलित लाइसेंस है कुछ इस तरह – ‘उतना मुक्त जितना आप इसे बना सकते हैं’ इस बात को ध्यान में रखते हुए कि मैं चाहता हूँ कि हर को ई एक दूसरे पर भरोसा कर सकें व हमेशा स्रोत कूट प्राप्त कर सकें व इस्तेमाल कर सकें और इसीलिए मैं जीपीएल3 को बहुत ही बेकार लाइसेंस मानता हूँ. यह भरोसे के लायक नहीं है कि “स्रो त कूट को वापस प्राप्त किया जाए”, यह इस रूप में अपभ्रष्ट भी हो चुका है – “मैंने कोड लिखा है तो मेरा नियंत्रण इस पर भी हो सकेगा कि आप इसका कैसे इस्तेमाल करते हैं” दूसरे शब्दों में, मैं यह सोचता हूँ कि जीपीएल3 पूरी तरह क्षुद्र और स्वार्थी है. मेरे विचार में जीपी एल2 में ‘मुक्त’ तथा ‘विश्वास’ का बढ़िया संतुलन है. यह उतना मुक्त नहीं है जितना बीएसडी ला इसेंस हैं, पर ये आपको मन की शांति प्रदान करते हैं और उस बात से मेल खाते हैं जिन्हें मैं ‘ईंट का जवाब पत्थर’ कहता हूँ. मैंने आपको स्रोत कूट दिया, बदले में आपने मुझे (परिवर्तित) स्रोत कूट दिया. जीपीएल3 इस स्रोत कूट के ‘उपयोग’ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है. अब ये कुछ इस तरह है- “मैंने आपको स्रोत कूट दिया और आपने इसका इस्तेमाल किया, तो आप मुझे अपने उपकरणों को मेरे द्वारा हैक करने की अनुमति दें” देखा? मेरी नजर में बहुत ही क्षुद्रता और नीचताई है यह. प्र: अब चूंकि जीपीएल3 को अंतिम रूप दे कर जारी कर दिया गया है, क्या आप ऐसी संभावित परिस्थिति देख पा रहे हैं कि आपको लिनक्स कर्नेल को इसमें ले जाने की कोई प्रेरणा मिले? या ये इतना खराब है कि आप कभी भी इस पर विचार नहीं करेंगे? लिनुस: यह अपने आरंभिक ड्राफ़्ट से तो बहुत बेहतर है, और मैं ये भी नहीं सोचता कि यह भयंकर लाइसेंस है. मैं बस ये नहीं सोचता कि ये जीपीएल2 जैसे किस्म का ‘शानदार’ लाइसेंस है. तो मैं देखता हूँ कि जीपीएल2 की अनुपस्थिति में मैं जीपीएल3 इस्तेमाल कर सकता हूँ. पर जब मेरे पास बढ़िया लाइसेंस है तो फिर मैं चिंता क्यों करूं? इसका मतलब यह है कि मैं हमेशा व्यवहारिक रहना चाहूंगा, और ये भी सच है कि मैं सोचता हूं कि यह कोई ‘श्वेत श्याम प्रश्न’ नहीं है कि जीपीएल3 उस तरह से बढ़िया लाइसेंस नहीं है जितना जीपीएल2 है. यह संतुलन की प्रक्रिया है. और यदि जीपीएल3 की अन्य खासियतें होंगी, और मान लिया कि वे खासियतें अच्छी खासी होंगी, तो संतुलन जीपीएल3 की तरफ भी पलट सकता है. स्पष्ट तौर पर, ऐसी कोई बात मैं नहीं देख रहा हूँ, परंतु यदि सोलारिस को जीपीएल3 के अंतर्गत जा री किया जाता है, संभवतः अनावश्यक नॉन-कम्पेटिबल लाइसेंस समस्याओं को दूर रखने की वजह से तो ये एक बड़ा लाभ हो सकता है और संभवतः लिनक्स कर्नेल को जीपीएल3 के अंतर्गत री-लाइसेंस आजमाया जा सकता है. पर मुझे गलत मत समझें – मैं सोचता हूँ कि यह असंभावित है. पर मैं यहाँ साफ कर देना चाहता हूँ कि मैं किसी लाइसेंस के लिए कट्टर नहीं हूं. मैं बस ये सोचता हूं कि जीपीएल2 साफ तौर पर एक बेहतर ला इसेंस है, परंतु लाइसेंस ही सबकुछ नहीं होते. कुल मिलाकर, मैं बहुत से प्रोग्राम इस्तेमाल करता हूँ जो विभिन्न लाइसेंसों के अंतर्गत जारी किये गए हैं. मैं अपनी कोई नयी परियोजना बीएसडी (या X11-MIT) लाइसेंस में नहीं रखूंगा जबकि मैं जानता हूं कि ये बहुत बढ़िया लाइसेंस है और यह भी हो सकता है कि दूसरी परियोजनाओं के लिए एकदम सही लाइसेंस हो. प्र­: ऑपरेटिंग सिस्टम दिनों दिन कम महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं. आपने पहले भी कई मर्तबा कहा है कि कम्प्यूटर उपयोक्ता को ये जरूरी नहीं है कि उसे ऑपरेटिंग सिस्टम ‘दिखाई’ दे. ये तो अनुप्रयोग होते हैं जिनका अर्थ होता है. ब्राउजर आधारित अनुप्रयोग जैसे कि गूगल के मूल ऑफिस आधारित अनुप्रयोग अपनी क्षमता दिखाने लगे हैं. आप क्या सोचते हैं - ऑपरेटिंग सिस्टम कहाँ जा रहे हैं? लिनुस: मैं ‘ब्राउजर ओएस’ में विश्वास नहीं करता चूंकि मैं ये सोचता हूं कि लोग हमेशा कुछ न कुछ काम ऑफलाइन, स्थानीय स्तर पर अपने कम्प्यूटर पर करेंगे. शायद सुरक्षा या निजता की वजह से. और भले ही इंटरनेट कनेक्शन अब चहुंओर मिल रहा है, यह ‘हरओर’ तो नहीं ही है. तो मैं सोचता हूँ कि ये पूरा ‘वेब ओएस’ आंशिक रूप से सत्य तो है, पर कुछ दूसरे लोग इसे नकारते हैं कि ऑपरेटिंग सिस्टम तो दशकों से उपलब्ध हैं और ये क्षेत्र स्थिर और जाना पहचाना है. लोग ये नहीं चा हते कि ऑपरेटिंग सिस्टम जादुई तरीके से बदल जाए: ये ऐसा नहीं है कि 60 के दशक के लोग ‘बेवकूफ’ थे या ‘उस’ जमाने में हार्डवेयर बहुत अलग किस्म के थे! इस तरह से, मैं कोई क्रांति की उम्मीद नहीं करता. मेरे विचार में ओएस जो कर रहे हैं वो करते रहेंगे और हम निश्चित रूप से जहाँ उत्कृष्ट होते रहेंगे, मैं नहीं सोचता कि वे पूरी तरह से बदल जाएंगे. जो पूरी तरह से बदलेगा वो इंटरफेस होगा और जो काम आप ऑपरेटिंग सिस्टम के ऊपर करते हैं वो बदलेगा (और ऑपरेटिंग सिस्टम में कार्य करने वाले हार्डवेयर भी दिनोंदिन परिष्कृत होते रहेंगे) और लोग जाहिरा तौर पर इसी की परवाह करते हैं ऑपरेटिंग सिस्टम? यह वो अदृश्य वस्तु है जो चीजों को संभव बनाता है. आपको इसके बारे में चिंता ही नहीं करनी चाहिए जब तक कि आपको इस बारे में जानने की दिलचस्पी न हो कि मशीन के भीतर क्या चल रहा है. प्र: अंतिम बार मैंने सुना था कि आप पीपीसी जी4/5 मशीन अपने व्यक्तिगत इस्तेमाल के लिये प्रयोग करते हैं. अब आप क्या इस्तेमाल कर रहे हैं और क्यों? लिनुस: मैंने पावरपीसी का इस्तेमाल छोड़ दिया है क्योंकि अब कोई इस पर विकास नहीं कर रहा है, और खास तौर पर जब एक्स86-64 की विशाल क्षमताओं को नकारा नहीं जा सकता. तो हाल फिलहाल मैं एक कोर 2 ड्यूओ युक्त बॉग-मानक पीसी इस्तेमाल कर रहा हूँ. किसी अन्य आर्किटेक्चर को इस्तेमाल करना मजेदार होता है (अपने पुराने दिनों में कई वर्षों तक मैंने अल्फा का इस्तेमाल अपने मुख्य आर्कीटेक्चर के रूप में किया था, तो ये भी कोई पहली बार नहीं था), परंतु सामान के रूप में सीपीयू जहाँ हैं, वहीं हैं. जो भविष्य में कभी x86 आर्किटेक्चर को प्रतिस्थापि त कर सकेगा – यानी कुछ ऐसा जो x86 को अपने मुख्य आइएसए के रूप में आने वाले दशक में इस्तेमाल से बाहर कर देगा - वो मेरे विचार में एआरएम होगा – जिसके लिए बाजार के मोबाइल उपकरणों (की लोकप्रियता) को धन्यवाद देना होगा. प्र: लिनक्स का अर्थ आपके लिए क्या है – एक शौक, एक दर्शन, जीवन का अर्थ, नौकरी, सबसे अच्छा ऑपरेटिंग सिस्टम, या कुछ और...? लिनुस: यह ऊपर के सभी में से कुछ कुछ है. यह शौक है मेरा, परंतु भीतर से बहुत ही मायने रखने वाला. सबसे बेहतरीन शौक वे होते हैं जिनके लिए आप ‘वास्तव’ में भीतर से ध्यान देते हैं. और, आजकल तो ये जाहिरा तौर पर मेरी नौकरी ही है, और मैं खुश हूं कि मैंने इन सब को एक साथ जोड़ रखा है. मैं ‘दर्शन’ के बारे में नहीं जानता, और मैं लिनक्स पर काम किसी गहरी चारित्रिक या दार्शनिक वजहों से नहीं करता (मैं इसमें काम करता हूँ क्योंकि यह मेरे लिए खासा दिलचस्प और मजेदार होता है), पर निश्चित रूप से यह कारण हो सकता है कि भीतरी कारणों से मैं मुक्त स्रोत की प्रशंसा करता हूं कि क्यों ये काम करते हैं. प्र: चूंकि लिनक्स कर्नेल का विकास आपके ऊपर पूरी तरह से निर्भर है, आपने इसे अपने बगैर प्रगति पथ पर अग्रसर बने रहने के लिये किस तरह से संगठित करने की प्लानिंग की है – उस परिस्थिति में जब आप अपने जीवन और परिवार को अधिक समय देने का निर्णय ले लें. लिनुस: मुझे बहुत पहले से यह भान हो गया है कि लिनक्स मुझसे बहुत बड़ा हो गया है. हां, मैं तात्कालिक तौर पर अभी भी इसमें पूरी तरह से लगा हुआ हूँ, और नित्य प्रति के मेरे काम में इसका असर है और मैं एक ऐसे व्यक्ति के रूप में हूं जो कर्नेल सक्रियता के केंद्रीय पात्र के रूप में कुछ मायनों में देखा जाता हूँ, फिर भी, नहीं – मैं यह नहीं कहूंगा कि लिनक्स मुझ पर ‘भारी निर्भर’ है. तो यदि मुझे हार्ट अटैक हो जाता है और कल को मैं नहीं रहता हूँ (खुशी की बात है कि इसकी संभावना नहीं है: मैं पूरी तरह से स्वस्थ हूं), तो लोग इस बात को तो अवश्य नोट करेंगे, परंतु अभी ही सिर्फ कर्नेल को देखने भालने के लिए हजारों लोग लगे हुए हैं उनमें से कई ऐसे हैं जो बिना किसी गड़बड़ी के मेरी जगह ले सकते हैं. --- टिप्पणियां पढ़ने के लिए आप रचनाकार पर जाएँ: http://raviratlami.blogspot.com/2007/08/linus-torwalds-linux-microsoft-should.html From zaighamimam at gmail.com Mon Aug 20 22:01:08 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Mon, 20 Aug 2007 22:01:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KWA?= =?utf-8?b?IOCkruClgeCktuCljeCkleCkv+CksuCli+CkgiDgpJXgpL4g4KS44KSr?= =?utf-8?b?4KSwLi4uLi4uLi4u?= Message-ID: ''सपनों की रेल'' की रेल में एक बार फ‍िर आपका हार्दिक स्‍वागत है.................. रेल, मुसाफ‍िरों और सफर से जुड़ी रोज़मर्रा की तमाम दिक्‍कतों के बाद अब मेरा नंबर आया है। मैं भी बताऊं कि मुझे किस तरह की दिक्‍कत पेश आ रही है। कैसे मैं कई बार चाहकर भी फोटो नहीं खींच पाता, बात नहीं कर पाता। यहां तक की जानकारियां इकट्ठा करने में भी मुश्किल पेश आती है। शायद यही सब शोध की सीमाएं होती हैं। तो आईए इस बार मेरी मुश्किलों के सफर के बारे में जानिए। वैसे मैंने अपने लिए इन सब दिक्‍कतों का हल ढूंढा है लेकिन संभव हो सके तो आप भी सुझाव दें त‍ाकि दिक्कत कुछ कम हो। नाम का सूचना अधिकार अप्रैल के महीने में शोध के सबसे शुरुआती चरण में मैंने नार्दन रेलवे इलाहाबाद में सूचना अधिकार के तहत एक आवेदन किया। आवेदन में एजे और एएफ पैसेंजर रेलों से जुड़ी जानकारी मांगी गई थी। मसलन ट्रेन के शुरु होने की आधिकारिक तिथि। क्‍या इसे चलाने के लिए कोई मांग थी। सालाना आमदनी कितनी है। मेंटनेंस में कितना खर्च होता है। वगैरह वगैरह। आवेदन के कुछ ही घंटे बाद मेरे पास फोन आया। कहा गया कि मामला लखनऊ मंडल का है। इसलिए आपका आवेदन लखनऊ ट्रांसफर किया जा रहा है। लखनऊ से पता किया तो पता चला जानकारी इलाहाबाद से ही मिलेगी। बहरहाल, जून में एक लेटर आया। कहा गया सूचनाएं इकट्ठा करने का काम प्रगति पर है। जल्‍द सूचित किया जाएगा। तब से अब तक सूचना मिल ही रही है। कुछ ही ऐसा ही रवैया रहा उत्‍तर प्रदेश्‍ा लोक सेवा आयोग का जहां से सफल छात्रों का ब्‍यौरा देने से साफ इंकार कर दिया गया। कारण बताया, आयोग परीक्षाएं आयोजित करने में व्‍यस्‍त है। मेरा सवाल सिर्फ इतना था कि पिछले दस सालों में जौनपुर, फैजाबाद और प्रतापगढ़ कि कितने प्रतियोगियों को यूपीपीसीएस की परीक्षाओं में सफलता मिली। आधिकारिक और अनाधिकारिक वक्‍तव्‍य रेल से जुड़े इंटरव्‍यू करने के दौरान मैंने देखा। रेल अधिकारी काफी डिप्‍लोमैटिक इंटरव्‍यू दे रहे हैं। जब तक रिकार्डर आन तक मीठी-मीठी बातें। मसलन, रेल हमेशा सही समय पर चलती है। चेन पुलिंग अब कम हो गई है। लेकिन रिकार्डर ऑफ तो दूसरा पक्ष उजागर। ऐसा ही कई रेल में सफर कर चुके सफल प्रतियो‍गी भी करते हैं। पूछो कि आपने उत्‍पात किया। कहते हैं नहीं हम कहां थे। वो तो दूसरे लोग थे। बडी़ मुसीबत। लाख समझाओ सर.......जो सच हो वही कहिए लेकिन नहीं मानेंगे। कैसे खिंचे फोटो, कैसे हो बातचीत अब तक तीन बार रेल में सफर कर चुका हूं। अजीब तरह की दिक्‍कत। रिकार्डर और कैमरा सम्‍हाल के तैयार रहता हूं। बस मौका मिला और शुरु हो जाऊंगा। लेकिन हे भगवान.....इस कदर भीड़। हिलना मुश्किल हो जाता है। रिकार्डर और कैमरा बैग में वापस रखना पड़ता है। इस डर से टूट न जाएं। रेल यात्रियों से सर्वे के कुछ सवाल भी पूछने थे। मगर कई सवाल शोरगुल और भीड में दब गए। अभी तक रेल की जो तस्‍वीरें खींची हैं वो अंदर से ही एक जगह बैठे-बैठे। किसी तरह हाथ खिडकी के बाहर निकालकर। लोगों से मिन्‍नत कर कि भईया थोड़ा बाहर निकलने दो। वैसे सच बताऊं खिड़की से हाथ बाहर निकालने में डर लगता है। कमबख्‍त कोई उचक्‍का कैमरा ही छीन के फ़रार न हो जाए। खै़र, कुछ जो दूसरी तस्‍वीरें ब्‍लॉग मेरे www.merirail.blogspot.com पर हैं उसके लिए गंतव्‍य पर पहुंचने के बाद रेल खाली होने का इंतजार किया। मैं तरीका ढूंढा है बातचीत के दौरान किसी को नहीं बताता कि उसकी आवाज रिकार्ड हो रही है। बस सुनने या लिखने का नाटक करता हूं। आरटीआई मतलब सूचना अधिकार का चक्‍कर छोड़ दिया। खुद तथ्‍य तलाश रहा हूं। फोटो और लिखित साक्ष्‍यों के जरिए चीजों को प्रूफ करने की तैयारी है। इसके अलावा एक डाक्‍यूमेंट्री फ‍िल्‍म बनाने की तैयारी है। मुझे ऐसा लगता है कि डाक्‍यूमेंट्री के जरिए किस्‍सा काफी हद तक क्‍लीयर हो जाएगा। फोटो खींचने का भी तरीका ढूंढा है। रेल में सफर नहीं करुंगा। दूसरी गाडी़ से उन उन स्‍टेशनों पर पहुंचता रहूंगा जहां ट्रेन आती है। फ‍िर वो गहमागहमी आराम से कैमरे में कैद हो जाएगी। वैसे अब मौसम भी मेहरबान है। पिछले महीने के इलाहाबाद प्रवास के दौरान मुझे भीषण गर्मी का सामना करना पडा़। आप समझ सकते हैं कि पैसेंजर रेल जिसमें पंखे तक उखाड़ लिए गए हों में सफर करना कितना मुश्किल होगा। अगली किश्‍त में पसीने में तर ब तर एक सफर..........मैं और एजे शुक्रिया जै़गम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070820/53603a6c/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Aug 22 16:51:32 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 22 Aug 2007 16:51:32 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KS84KWB4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSw4KSk4KWB4KSyIOCkkOCkqCDgpLngpYjgpKbgpLAg4KSV4KS+IA==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSn4KSo?= Message-ID: <200708221651.32198.ravikant@sarai.net> मैंने उन्हें ज़्यादा तो नहीं पढ़ा था, पर जो भी पढ़ा था उनका लिखा वह अनोखे तेवर का लगा था. आग का दरिया तो अविस्मरणीय है. श्रद्धांजलि. रविकान्त http://www.bbc.co.uk/hindi/regionalnews/story/2007/08/070821_hyder_died.shtml उपन्यासकार क़ुर्रतुल ऐन हैदर का निधन विख्यात उपन्यासकार और लेखिका क़ुर्तुल ऐन हैदर का मंगलवार की सुबह तीन बजे दिल्ली के पास नोएडा के कैलाश अस्पताल में निधन हो गयावे 80 वर्ष की थीं. उर्दू के जाने-माने आलोचक और कुर्रतुल ऐन हैदर को नज़दीक से समझने वाले लेखक प्रोफ़ेसर शमीम हनफ़ी ने बताया कि रात में 12 के आसपास उनकी तबीयत अचानक बिगड़ गई और तीन बजे के क़रीब अस्पताल के आईसीयू में उनका निधन हो गया. वे पिछले कई दिनों से उस अस्पताल के आईसीयू में भर्ती थीं, इससे पहले भी वह बीमार पड़ीं लेकिन यह उनकी आख़िरी बीमारी थी. शोक ऐनी आपा के नाम से जानी जाने वाली कुर्रतुल ऐन हैदर के निधन से न केवल उर्दू जगत में शोक का माहौल है बल्कि भारतीय साहित्य भी उससे अलग नहीं है क्योंकि वह आज़ादी के बाद भारतीय फ़िक्शन का एक स्तंभ मानी जाती थीं. उनका जन्म 1927 में उत्तर प्रदेश के शहर अलीगढ़ में उर्दू के जाने-माने लेखक सज्जाद हैदर यलदरम के यहाँ हुआ था. उनकी मां बिन्ते-बाक़र भी उर्दू की लेखक रही हैं. उन्होंने बहुत कम आयु में लिखना शुरू किया. 1945 में जब वह 17-18 वर्ष की थीं तो उनकी कहानी का संकलन ‘शीशे का घर’ सामने आया. उनका पहला उपन्यास ‘मेरे भी सनमख़ाने’ है. विभाजन में वह अपने परिवार के साथ पाकिस्तान चली गईं लेकिन जल्द ही उन्होंने भारत वापस आने का फ़ैसला कर लिया और तब से वह यहीं रहीं. उन्होंने अपना कैरियर एक पत्रकार की हैसियत से शुरू किया लेकिन इसी दौरान वे लिखती भी रहीं और उनकी कहानियां, उपन्यास, अनुवाद, रिपोर्ताज़ वग़ैरह सामने आते रहे. सम्मान 1967 में उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया और उनके उपन्यास ‘आख़िरी शब के हमसफ़र’ के लिए उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया. उनके साहित्यिक योगदान के लिए उन्हें पदमश्री से भी सम्मानित किया गया. क़ुर्रतुलऐन हैदर का प्रसिद्ध उपन्यास ‘आग का दरिया’ आज़ादी के बाद लिखा जाने वाला सबसे बड़ा उपन्यास है. ‘आग का दरिया’ समेत उनके बहुत से उपन्यास का अनुवाद अंग्रेज़ी और हिंदी भाषा में हो चुका है. कृतियां उनके उपन्यासों में ‘आग का दरिया’, ‘सफ़ीन-ए-ग़मे दिल’, ‘आख़िरे-शब के हमसफ़र’, ‘गर्दिशे-रंगे-चमन’, ‘मेरे भी सनम-ख़ाने’ और ‘चांदनी बेगम’ शामिल हैं. उनकी कहानियों के संकलन में ‘सितारों से आगे’, ‘शीशे के घर’, ‘पतझड़ की आवाज़’ और ‘रोशनी की रफ़्तार’ शामिल हैं. उनके जीवनी-उपन्यासों में ‘कारे जहां दराज़ है’ (दो भाग), ‘चार ना वेलेट’, ‘सीता हरन’, ‘दिलरुबा’, ‘चाय के बाग़’ और ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ शामिल हैं. रिपोर्ताज़ में ‘छुटे असी तो बदला हुआ ज़माना था’, ‘कोहे-दमावंद’, ‘गुलगश्ते जहां’, ‘ख़िज़्र सोचता है’, ‘सितंबर का चाँद’, ‘दकन सा नहीं ठार संसार में’, ‘क़ैदख़ाने में तलातुम है कि हिंद आती है’ वग़ैरह शामिल हैं. अनुवाद के मैदान में भी उन्होंने काफ़ी काम किया है. हेनरी जेम्स के उपन्यास ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए लेडी’ का अनुवाद ‘हमीं चराग़, हमी परवाने’ के नाम से किया. उन्होंने अंग्रेज़ी के प्रसिद्ध लेखक के नाटक ‘मर्डर इन द कैथेड्रल’ का अनुवाद ‘कलीसा में क़त्ल’ के नाम से किया. इसके अलावा ‘आदमी का मुक़द्दर’, ‘आल्पस के गीत’, और ‘तलाश’ वग़ैरह उनके अनुवाद में शामिल हैं. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, जामिया मिलिया इस्लामिया, ज्वाहरलाल नेहरू और दिल्ली विश्वविद्यालयों के उर्दू विभाग में शोक का माहौल है. ऐनी आपा ने शादी नहीं की थी. ----- थोड़ी और सामग्री हाशिया पर: http://hashiya.blogspot.com/2007/08/blog-post_21.html From gora at sarai.net Thu Aug 23 13:53:59 2007 From: gora at sarai.net (Gora Mohanty) Date: Thu, 23 Aug 2007 13:53:59 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= New release of Baraha keymaps for all Indian languages Message-ID: <1187857439.5983.41.camel@anubis> Hello, As the Hindi keymap has been deemed satisfactory, I have made a new release of the SCIM keymaps for all Indian languages, using the Baraha layout. Besides Hindi, I have minimally tested Oriya, and invite people to test other Indian languages, and report bugs to me. To avoid cluttering up these newsgroups, I will no longer post about updates. You can get the relevant files from http://code.indlinux.net/projects/baraha-maps/ . The easiest way to do this is to follow the links under the "Latest File Releases" section towards the top of the page, though you can also get the files from CVS following the instructions under the SCM tab. Three packages are available: 1. baraha-files: This is a minimal set of files needed to install and test the keymaps. 2. remap_lang: This contains a possibly useful Perl script that transliterates between Indian languages, based on an assumed equivalence between Unicode codepoints for different Indian languages. 3. baraha-maps: This is the complete distribution, including both baraha-files, and remap_lang. In all three cases, you can install the package by downloading the tar.gz file from the corresponding "Download link", unarchiving, and typing "make". For example, with the baraha-files package: 1. Download baraha-files-0.2.tar.gz 2. Unarchive: tar xzf baraha-files-0.2.tar.gz 3. Compile, and install: cd baraha-files-0.2 make sudo make install Please let me know of any problems that arise from following these instructions. Regards, Gora From ravikant at sarai.net Sat Aug 25 11:47:20 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Aug 2007 11:47:20 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Ainee Haider audio interview(BBC) Message-ID: <200708251147.20717.ravikant@sarai.net> Khadeeja aur Naim saheb ko dhanyavaad sahit. agar aap mein se kisi ko yeh filein mail par chahiye, toh mujhe likhein, main bhej doonga. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Fwd: Ainee Haider ka BBC par interview (In Urdu) Date: शनिवार 25 अगस्त 2007 09:01 From: "C.M. Naim" Copy and paste the entire URL. Begin forwarded message: > Ainee Haider ka BBC par audio interview: > > http://www.bbc.co.uk/urdu/avconsole/nb_wm_fs.shtml? > redirect=fs.shtml&lang=ur&nbram=1&nbwm=1&bbwm=1&bbram=1&ws_pathtostory > =http://www.bbc.co.uk/go/wsstory/int/body/urdu/-/urdu/news/avfile/ > 2007/08/&ws_storyid=070821_aineehaider ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat Aug 25 13:56:58 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Aug 2007 13:56:58 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: khas mudda... Message-ID: <200708251356.58744.ravikant@sarai.net> aap bhi dekhein...lekh toh buniyadi qism ka hai par bahas smaajshastreeya mahatva ka hai. shukriya ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: khas mudda... Date: शुक्रवार 24 अगस्त 2007 21:21 From: "ajay brahmatmaj" http://passionforcinema.com/muslim-herohindi-films/ ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Sat Aug 25 14:21:08 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Aug 2007 14:21:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: fifth post covering 1968-1977 Message-ID: <200708251421.08657.ravikant@sarai.net> आलोक जी, माफ़ कीजिएगा, मैंने समझा कि ये पोस्ट मुझ तक दीवान के ज़रिए ही आई थी. रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: fifth post covering 1968-1977 Date: शुक्रवार 17 अगस्त 2007 19:22 From: "alok puranik" To: ravikant at sarai.net, vivek at sarai.net Cc: alokpuranik at yahoo.com *पांचवी पोस्ट-1968-1977 की अवधि* *कमोबेश** वैसे ही भाव * *1947 से 1968 करीब इक्कीस साल बाद का बाजार रिपोर्टिंग का सीन देखें, तो साफहोता है। बाजार रिपोर्टिंग के हाव-भाव बदले नहीं थे। देखिये-* *हिन्दुस्तान 25 जून, 1968, पेज नौ, दो कालम * *बम्बई शेयर* *कटान और समर्थन के अभाव में प्रमुख शेयर नीचे* *(हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा)* *बम्बई 24 जून। शेयर आज खामोश खुले और तेजड़ियों की कटान तथा नए समर्थन के अभाव में गिकर* *स्टील** शेयर खामोश बंद हुए। नई खरीदारी का अभाव था।......* *नकद** समूह स्थिर था। चुने हुये शेयरों में खरीदारी हुई। विविध समूह में ग्वा. रेयन, ने. रेयन, वोल्टास, सिंधिया और अन्य शेयरों में कटान हुई। ....* *कटान, खामोशी............वही सब था। * *बल्कि इसके बाद भी यही सब था। साल गये। दशक गये, पर यह कटान नहीं गयी। यह खामोशी नहीं गयी। * *तस्करी की खुली रिपोर्ट* *उस दौर में तस्करी की खुली रिपोर्ट सामान्य थी। मतलब तस्करी का क्या असर भावों पर है, इस बात को बताया जाता था। देखें-* *हिन्दुस्तान 25 जून, 1968, पेज नौ, दो कालम* *दिल्ली सराफा* *आवक बढ़ने से सोने और चांदी दोनों के भाव गिरे* *(हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा)* *दिल्ली 24 जून। प्रारम्भिक तेजी के पश्चात् सोने व चांदी के भाव आवक बढ़ने सेटूट गए। * *बम्बई के सुधऱते समाचारों से चांदी तेजाबी प्रारंभ में रु. 3.25 बढ़कर खुली थी लेकिन बाद में बिहार, उत्तर प्रदेश व पंजाब में आवक बढ़ने के कारण इसके भाव पूर्व स्तर से भी नीचे आ गए। चाँदी का सिक्का भी इसकी सहानुभूति में लुढ़क गया। आज लगभग 30 सिल्ली चांदी का माल आया जबकि उठाव 15 सिल्ली के आसपास था। * * बम्बई में कस्टम अधिकारियों की सख्ती से माल कम बनने के कारण नकली गिन्नी एक रुपया सुधरती सुनी गई। शुद्ध सोना निजी कारोबार में पहले तो रु. 163 के बजाए रु. 164 हो गया लेकिन बाद में बम्बई से 2000 तोले सोने की तस्करी आवक होने से इसके भाव गिरते सुने गए। * *...............* *कस्टम अधिकारी अगर सख्ती कर देते थे, तो भाव सुधर जाते थे। सख्त से तस्करी में कमी होती थी। तस्करी में कमी से सप्लाई या आवक में कमी होती थी, सो भाव सुधर जाते थे या बढ़ जाते थे। तस्करी आवक बढ़ती थी तो भाव गिर जाते थे। तस्करी तंत्र पर सोने के भाव बहुत हद तक निर्भर थे। और बाजार रिपोर्टिंग में इस तथ्य को ध्यान में रखा जाता था। एक और नमूना देखें- * *हिन्दुस्तान, 19 दिसम्बर 1969 पेज नंबर सात दो कालम* *दिल्ली सराफा* *तस्करी मांग से चांदी में सुधार *:* सोना व नकली गिन्नी नरम* *(हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा)* *दिल्ली 18 दिसम्बर। बम्बई में तस्करों की मांग बढ़ने की चर्चा से चांदी के भाव6 रुपए सुधर गए। शुद्ध सोना इसके विपरीत घटता सुना जा रहा था। * *यद्यपि** लंदन व न्यूयार्क में चांदी के भाव नरम चलने के समाचार थ, लेकिन बम्बई में तस्करों द्वारा हाजिर चीनी की खरीद किये जाने की चर्चा से चादीं साप्ताहिक डिलीवरी में 6 रुपए व तेजाबी में 7 रुपए प्रति किलो की वृद्धि हुई है। सुना गया है कि बम्बई के एक प्रमुख तस्कर ने लगभग 250 सिल्ली चाँदी के सौदे किये हैं। चाँदी के समर्थन में सिक्का भी 6 रुपए बढ़ गया। * *पंजाब में पुलिस वालों की गतिविधि बढ़ जाने तथा तस्करों की बिकवाली से शुद्ध सोना एक रुपये घटते सुना गया। नकली गिन्नी सोना व जेवरों के मूल्य भी मांग कमजोर होने से नीचे उतर आए। * *पुलिस की सख्ती, तस्करों की बिकवाली को बाजार रिपोर्टिंग में इंगित किया जाता था। बल्कि यह तक साफ बता दिया जाता था कि बम्बई के एक प्रमुख तस्कर ने लगभग 250 सिल्ली चांदी के सौदे किये हैं। * *हालांकि रिपोर्ट की भाषा है-सुना गया है कि बम्बई के एक प्रमुख तस्कर ने लगभग............। * * गौर की बात यह है कि बाजार रिपोर्टिंग करने वालों के ना सिर्फ तस्करों की जानकारी होती थी, बल्कि प्रमुख तस्कर, और इसके नीचे के स्तर के तस्करों की गतिविधियों के असर को अलग करके देखा जाता था। तस्करी का खासा असर बाजार रिपोर्टिंग में देखा गया। सिर्फ भारतीय तस्करों का असर ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान के तस्करों की आपूर्ति और मांग के असर को भी बाजार रिपोर्टिंग में रेखांकित किया जाता था। * *मेवे भी डरते थे राष्ट्रीयकरण से * *एक** नमूना देखें-* *हिन्दुस्तान 17 नवंबर, 1971, पेज नंबर सात तीन कालम का शीर्षक, दो कालम की खबर * *दिल्ली की मंडियां* *मेवों का कारोबार राष्ट्रीयकरण चर्चा से ठप्प *:* छो. इलायची टूटी* * (हमारे संवाददाता द्वारा)* *दिल्ली, 16 नवम्बर। मेवों के आयात व्यापार का शीघ्र ही राष्ट्रीयकरण होने की चर्चा से आज बाजार में घबराहट फैल गई तथा कारोबार ठप्प हो गया। छोटी इलायची 100 से 200 रु. टूट गई जबकि कत्था 15 रु. प्रति पेटी बढ़ गया। तेलों में कारोबार कमजोर था तथा वनस्पति का उठाव भी घट गया था। मोठ, अरहर, काबली चना आदि में मंदा जारी रहा। देसी घी के भाव 35 से 40 रु. घटाकर बोले गये। * *आज मेवों में घबराहट के कारण कोई कारोबार नहीं हुआ। पता चला है कि भारत सरकारमेवों के आयात व्यापार का राष्ट्रीयकरण करने की सोच रही है तथा शीघ्र ही इस संबंध में सरकारी निर्णय की घोषणा होने वाली है। गोले में 10 से 15 रु. का मंदा आया। टिपटुर मंडी से 800 बोरी माल आ गया था। * *किराना बाजार में छोटी इलायची , बम्बई, अमृतसर, आगरा, कानपुर आदि मंडियों के मंदे समाचारों से 100 से 200 रु. और लुढ़क गई। एक हजार छोटी इलायची का स्टाक जमा हो गया था। पाकिस्तानी तस्करों की मांग भी कमजोर थी। काली मिर्च भी 5 से 10 रु. लुढ़क गई। ....* *मेवों के आयात निर्यात के राष्ट्रीयकरण की चर्चा से बाजार घबरा जाता था। छोटी इलायची टूट जाती थी। मोठ, अरहर, काबली चना में भी मंदा आ जाता था। पाकिस्तानों तस्करों की मांग कम रहती थी, तो इसका असर छोटी इलायची पर पड़ता था।* *उस दौर में राष्ट्रीयकरण, समाजवाद की चर्चा का असर शेयर बाजार पर तो पड़ता ही था। पर बाकी बाजार भी इस असर से अछूते नहीं रहते थे। राष्ट्रीयकरण का बहुआयामी असर उस दौर की बाजार रिपोर्टिंग दिखाती है। * *युद्ध** के असर में बाजार* * राष्ठ्रीयकरण से तो बाजार बहुत सहमा, फिर युद्ध ने सहमाया। भारत-पाकिस्तान युद्ध का बाजार पर जबरदस्त पडा। * *एक** नमूना देखें-* *हिन्दुस्तान 29 नवम्बर, 1971, पेज सात, चार कालम* *बम्बई शेयर * *भारत-पाक सीमा पर तनाव का बाजार पर प्रभाव-अंत में कुछ सुधार* *(हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा)* *बम्बई, 28 नवम्बर। भारत-पाक सीमा पर बढ़ते हुए संघर्ष और गत सप्ताह पाकिस्तान द्वारा संकटकाल की घोषणा का बम्बई बाजार की सक्रियता पर प्रभाव पड़ता रहा। समर्थन के अभाव और घबराहट की कटान से भाव नए नीचे स्तर पर गिर गए। चुने शेयरों में खरीद और मन्दड़ियों की पटान से बन्द होते समय मामूली सुधार हुआ। फिर भी बन्द होते समय चहुंमुखी मामूली गिरावट दिखाई दी और बाजार का रुख कमजोर था। * * निर्यात के लिए अधिक सहायक नीति और विकास कटौती के संबंध में सरकार के प्रारम्भिक निर्णय के संशोधन की संभावना की खबरों से सप्ताह स्थिर रुख के साथ खुला। लेकिन अगले दिन पाकिस्तान द्वारा संकटकाल की घोषणा के फलस्वरुप घबराहटपूर्ण कटान से शेयरों के भावों में गिरावट आई। .....* * कारोबार के रुख में सतर्कता थी क्योंकि सीमा पर खिंचाव बना हुआ था औरकिसी भी समय युद्ध संभव था। पेशेवर तटस्थ बने रहे। ........अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों द्वारा पाकिस्तान पर युद्ध टालने और राजनीतिक समझौते करने के लिए दबाव डालने की खबरों से बाजार की भावना को कुछ सीमा तक सहायता मिली। * * बाजार युद्ध की आशंका से परेशान था। पाकिस्तान में संकटकाल की घोषणा से बाजार में गिरावट आयी। पर बाजार इस बात को लेकर कुछ राहत भी महसूस कर रहा था कि अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां पाकिस्तान पर युद्ध टालने और राजनीतिक समझौते करने के लिए दबाव डाल रही थीं। * * युद्ध के समय बाजार भारी ऊहापोह में था।* * युद्ध का असर तस्करी पर, तस्करी का असर सोने के भावों पर * *बाज**ार** रिपोर्ट**िंग बताती है कि युद्ध का असर कितना बहुआयामी था। एक नमूनादेखें- * *हिन्दुस्तान 5 दिसम्बर, 1971 पेज नंबर सात दो कालम* *दिल्ली सराफा * *तस्करी आवक घटने से सोना तेज *:* चांदी में नरमी* *(हमारे संवाददाता द्वारा)* *दिल्ली , 4 दिसम्बर। तस्करी आवक घटने के कारण शुद्ध सोना एकदम 4 रुपए बढ़ता सुना गया। इसके विपरीत चांदी 2.50 रुपये टूट गई। कारोबार संतोषजनक रहा। * * भारत के कई हवाई अड्डों पर पाकिस्तानी हमला होने की खबर से सोने की तस्करी आवक एकदम बंद हो जाने की आशंका थी, जिससे निजी कारोबार में शुद्ध सोना 4 रुपए बढ़कर 198 रुपए हो गया। जेवर और स्टैंडर्ड सोने में भी दो-दो रुपए की तेजी आई। * * यद्यपि आज कच्ची चाँदी की आवक 20 सिल्ली तथा मांग 15 सिल्ली की थी लेकिन आरम्भ में चाँदी के भाव पाकिस्तानी हमला होने की खबर से 509.50 से घटकर 506 रह गए थे। बाद में भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा पाकिस्तानी हमले का मुंहतोड़ जवाब देने की घोषणा से चांदी साप्ताहिक डिलीवरी के भाव सुधरकर 507 रुपए हो गए लेकिन पूर्वस्तर से फिर भी 2.50 रुपए नीचे थे। सिक्का भी चांदी के समर्थन में 4 रुपए प्रति सैंकड़ा टूट गया। ..........* * युद्ध का मतलब था तस्करी को सोने की आवक रुकना और तस्करी के सोने की आवक रुकने का मतलब था, कुल सप्लाई में कमी। इसलिए बाजार के भाव बढ़ गये। सोने के बाजार के लिए युद्ध सिर्फ युद्ध नहीं था, सोने की सप्लाई रुकने का कारक था, बाजार रिपोर्टिंग इस बात को रेखांकित करती है। * *युद्ध** में गेहूं तेज* *युद्ध** का असर सारे आइटमों पर एक सा नहीं था, कुछ आइटमों के भाव बढ़ रहे थे, कुछ के कम हो रहे थे। एक नमूना देखें-* *हिन्दुस्तान 5 दिसम्बर, 1971 पेज नंबर सात तीन कालम* * दिल्ली की मंडियां* *हमले की खबर से चीनी व तेल नरम *:* गेहूं , बादाम कागजी तेज* *(हमारे व्यापार संवाददाता द्वारा)* *दिल्ली, 4 दिसम्बर। पाकिस्तान द्वारा भारत के विरुद्ध हवाई हमला शुरु कर दिए जाने की खबर से यद्यपि तेलों के भाव घट गए लेकिन कारोबार संतोषजनक था। गेहूं 3 से 4 रुपए बढ़ गया जबकि बाजरा, दाल उड़द, और दाल मूंग के भाव ढीले गए। सूखे मेवों में किशमिश और बादाम कागजी के भाव जहां तेज हो गए वहां बादाम गिरी 200 रु.घटाकर बोली गई।* *...पाकिस्तान द्वारा भारत के हवाई अड्डों पर व्यापक हमला करने के पश्चातराष्ट्रपति श्री गिरि द्वारा देश में आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दिए जाने से किराना बाजार में आज कारोबार सुस्त रहा। धनियां 10 से 20 रुपए घटाकर बोला गया क्योंकिस्टाकिस्ट अपना माल बेच रहे थे। * *गेहूं के भाव बढ़ रहे थे, पर बाजरा, दाल उड़द और दाल मूंग के भाव ढीले हो रहे थे। * *जीत** का जोश बाजार में * * 1971 में भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय का असर शेयर बाजार पर कुछ यूं दिखा-* *हिन्दुस्तान 7 दिसम्बर 1971, पेज सात दो कालम* *बंबई शेयर* *(हमारे बंबई कार्यालय द्वारा)* *बंबई, 6 दिसंबर। औद्योगिक शेयर कमजोर रुख के साथ खुले लेकिन शीघ्र ही उनमें सुधार हुआ और वे स्थिर रुख के साथ ऊंचे बन्द हुए। पाकिस्तान के शहरों और नगरों पर भारी बमबारी और युद्ध की अनुकूल खबरों के फलस्वरुप मंदड़ियों ने सभी प्रमुखसट्टा शेयरों में पटान की। सभी शेयर अपने नए नीचे स्तर से सुधरे और बेहतर भावों पर बन्द हुए। * *टाटा स्टील और मुकन्द बेहतर थे। टेक्सटाइल वर्ग में सेंचुरी अपने नीचे के स्तर की तुलना में दस रुपए से अधिक सुधर गए। अंत में स्टैंडर्ड ऊंचे गए। प्रारम्भिक कमजोरी के बाद विविध शेयरों में सुधार हुआ। ............* * पाक शहरों पर बमबारी की खबरों से बाजार सुधरा। * * बंगलादेश में भारतीय सेना का मार्ग प्रशस्त होने के बाद बाजार और बेहतरहुआ। * *हिन्दुस्तान 10 दिसम्बर 1971 पेज सात दो कालम* *बम्बई शेयर * * भारतीय सेना की विजय की खबरों से शेयरों में तेजी* *(हमारे बम्बई कार्यालय द्वारा)* *बम्बई, 9 दिसम्बर। बहुत स्थिर खुलने के बाद औद्योगिक शेयर आगे बढ़े और ऊंचे बन्द हुए। बंगला देश में पाकिस्तानी सेनाओँ के प्रतिरोध खत्म होने और पश्चिमी पाकिस्तान में हमारी सेनाओं की आगे बढ़ने की खबर से बाजार में आशाजनक वातावरण पैदा हो गया है। टाटा आर्डीनरी , मुकन्द, सेंचुरी स्टैंडर्ड, ने. रेयन और सिंधिया में मन्दड़ियों ने पटान की। जीवन बीमा निगम ने अच्छे शेयरों का समर्थन किया। ने. रेयन 10 रु. बढ़ गए। टाटा आर्डी. एक रुपए उछले। मुकन्द आधा रुपये ऊंचे गए। सेंचुरी में 10 रुपए की वृद्धि हुई। स्टैण्डर्ड 11 ऊंचे थे। ....* *जीवन बीमा निगम के समर्थन का मतलब है कि निगम ने बाजार में खऱीदारी की। गौरतलब है कि तब जीवन बीमा निगम की खऱीद-बिक्री उल्लेखनीय मानी जाती थी। * *मुकन्द , सेंचुरी स्टैंडर्ड, नेशनल रेयन महत्वपूर्ण शेयरों में गिने जाते थे। * *मिटे नामियों के निशां कैसे कैसे, जमीं खा गयी आसमां कैसे कैसे। * *शेयर बाजार की कवरेज को देखकर यह पता लगाया जा सकता है कि किस वक्त किस कंपनीका बोलबाला बाजार में होता था। * *पाकिस्तान से उम्मीद* *1971 के युद्ध के करीब तीन साल बाद बाजार पाकिस्तान से कुछ उम्मीद भी लगाया करता था, एक नमूना देखिये -* *हिन्दुस्तान 2 दिसम्बर 1974, पेज 5, एक कालम की खबर* *बम्बई शेयर* *बाजार** में चमक लेकिन अंत में कमजोरी * *बम्बई , 1 दिसम्बर (ह.स.)। गत सप्ताह के अधिकांश भाग में मंदड़ियों की पटान औरतेजड़ियों के समर्थन से दलाल स्ट्रीट में चमक रही। लेकिन बन्द होते समय रुख कमजोर रहा। * *तेजड़ियों के पक्ष में दो कारण थे, नरोरा में कांग्रेस के उच्च नेताओं के सम्मेलन के बाद 13 सूत्री कार्यक्रम और कुछ विश्वसनीय सूत्रों के अनुसार लाभांशपर लगे प्रतिबंध या तो उदार बनाए जाने या पूर्णत *: *किये जाने की आशा। इस स्थिति का तेजड़ियों ने लाभ उठाया और बाजार का समर्थन किया जबकि मंदड़ियों ने अपनी बिक्रीकी पटान की। पूरे सप्ताह भाव ऊपर उठाए गए ....................अनेक वर्षों के बाद भारत-पाकिस्तान में व्यापार शुरु होने के सम्बन्ध में समझौता निकट होने की खबर से भावना को सहारामिला। * *बन्द** होते समय, समर्थन के अभाव और ऊंचे स्तर पर मुनाफा वसूली तथा तेजड़ियों की कटान से भाव गिर गए। सिंधिया स्टीम के एक प्रमुख तेजड़िये द्वारा भुगतान न किए जाने के फलस्वरुप कुछ सदस्यों की जो कठिनाई का सामना करना पड़ा उसके कारण चिंता पैदा हो गई। सम्भवत*:* ऐसे और मामले सामने आ सकते हैं। वस्तुत बाजार संकटसे बाहर नहीं है।. * * बाजार इस उम्मीद में उछल जाया करता था कि लाभांश पर लगा प्रतिबंध या तो उदार बनाया जायेगा, या हटा लिया जायेगा। फिर बाजार को यह उम्मीद भी थी कि भारत-पाकिस्तान में व्यापार शुरु हो जायेगा। इस उम्मीद पर भी बाजार उठा। * * बाजार हर तरफ से उम्मीद लगाया करता था, पाकिस्तान से भी, जिसे कुछ सालों पहले युद्ध में हराया गया था। बाजार का तर्क अलग होता है, पाकिस्तान से व्यापारहोगा, तो नये बाजार मिलेंगे। नये बाजार मतलब नयी बिक्री, और नयी बिक्री मतलब नये मुनाफे। * * उम्मीद नाउम्मीदी पाकिस्तान के तस्करों से भी * * सिर्फ आधिकारिक कारोबार से ही बाजार उम्मीद नहीं लगाता था।* * पाकिस्तान से होने वाली तस्करी से भी बाजार उम्मीद बांधता था यानाउम्मीद होता था। * * एक खबर देखिये-* * हिन्दुस्तान 2 दिसम्बर 1974, पेज 5, एक कालम की खबर* * दिल्ली सराफा (सा.समीक्षा)* * सोने व जेवर में हानि * * दिल्ली, 30 नवंबर, (ह.स.)। पूर्वी भारत से तस्करी आवक होने तथा व्यापारसंबंध होने के बाद पाकिस्तान से तस्करी आवक बढ़ने की उम्मीद से सोना व जेवरों में 10 से 14 रु. का मंदा आया। चांदी भी सीमित कारोबार में टूट गई। * * लखनऊ, वाराणसी, मेरठ, कलकत्ता आदि पूर्वी भारत की मंडियों में तस्करी आवक बढ़ने तथा बाद में बंबई में स्टैंडर्ड सोने का भाव टूट जाने से गत सप्ताह सराफा बाजार में सोना विटूर व बिस्कुट के भाव 530 और 540 से घटकर 516 और 530 रु. होते सुना गया। जेवर और स्टैंडर्ड सोने में 512 व 521 रु. पर 13 से 14 रु. का मंदा आया। मंदे की तह में यह कारण भी विद्यमान था कि पाकिस्तान से व्यापार संबंध होने के बाद जब वहां से माल आने लगेगा तब उसकी आड़ में चोरी-छिपे सोना भी आ जाएगा। असली गिन्नी का भाव 400 रु. सुना गया। * * सोने का बाजार इस चिंता में आ गया कि पाकिस्तान से तस्करी आवक बढ़ी, तो भाव गिर जायेंगे। * * इसके अलावा आशंका यह भी कि पाकिस्तान से व्यापार संबंध होने के बाद जब वहां से माल आने लगेगा तब उसकी आड़ में चोरी-छिपे सोना भी आ जाएगा। मतलब सोने की सप्लाई बढ़ जायेगी, मतलब सोने के भाव गिरने का अंदेशा। * * बाजार हर मसले को इस दृष्टिकोण से देखता था। * * और देखता क्या था, देखता है। * *चिंता** यहां भी* * हिन्दुस्तान 2 दिसम्बर 1974, पेज 5, दो कालम की खबर* * दिल्ली की मंडियां(साप्ता. समीक्षा)* * मोटे अनाज और दालों में नरमी *:* चीनी में मजबूती* * दिल्ली, 30 नवम्बर (ह.स.) ............* * किराना व मेवे*: * भारत-पाकिस्तान व्यापार संबंध पुन: कायम होने की खबर से जहां लालमिर्च की मांग घट गई वहां हल्दी,सुपारी, काली मिर्च, छोटी इलायची आदि मसालों में तेजी आने की उम्मीद थी क्योंकि पाकिस्तान को इनका निर्यात हो सकता है। तस्करी आवक न होने तथा पाकिस्तान में इसका स्टाक खत्म हो जाने की चर्चा से लौंग के भाव 285- 290 से उछलकर 330-335 रुपए प्रति किलो की चोटी पर जा पहुंचे। ....* * ...............मांग सुस्त होने से गोला भी ढीला पड़ने लगा। * * पाकिस्तान से व्यापार संबंध स्थापित होने की खबर से किराना और मेवे के बाजार में उतार आया कुछ आइटमों में और चढ़ाव आया कुछ आइटमों में। * * वजह वही साफ है, जो आइटम पाकिस्तान में बेचे जा सकते हैं, उनके भावबढ़े। * * जिन आइटमों की सप्लाई पाकिस्तान आधिकारिक या तस्करी के जरिये होने की सं भावित थी, उनके भाव कम हुए। * * तस्करी आवक न होने तथा पाकिस्तान में स्टाक खत्म होने की चर्चा से लौंग के भाव यहां के बाजारों में ऊपर चले गये।* * बाजार सिर्फ आधिकारिक घटनाक्रम से नहीं चलता। पाकिस्तानों के तस्करों से भी उम्मीद रखता था बाजार, और नाउम्मीद भी होता था। * *तस्करी अंदरुनी भी* *तस्करी का मामला बड़ा मामला था। * *सिर्फ पाकिस्तान से होने वाली तस्करी ही बाजार पर असर नहीं डाल रही थी। आंतरिक तस्करी के असर भी भावों पर दिखते थे और ये असर रिपोर्टिंग में रेखांकित किये जाते थे। एक नमूना देखें-* *हिन्दुस्तान 26 मई, 1975 पेज नंबर पांच दो कालम* *दिल्ली मंडी की साप्ताहिक समीक्षा* *गेहूं फार्म और दालों में तेजी *:* वनस्पति व तेल नीचे* *दिल्ली 24 मई (ह.स.)। सप्लाई स्थिति जटिल होने तथा स्टाकिस्टों की मांग पर गेहूं फार्म में 20 रु. की जोरदार तेजी आई। अन्य अनाजों में कारोबार कमजोर था जबकि दालें तेज हो गईं। चीनी बाद में सुधार के बावजूद ढीली थी जबकि प्रमुख खाद्य तेलों और वनस्पति के भावों में गिरावट आई। किराना व सूखे मेवों में मिलाजुला रुख था। * *पड़ोसी राज्यों से गेहूं की तस्करी आवक कमजोर होने तथा बढ़िया माल की आवक कमजोर व मांग अधिक होने के कारण स्थानीय अनाज मंडी में गेहूं के भाव 5 से 20 रु. बढ़कर 180-220 रु. हो गए। * *...दिल्ली प्रशासन द्वारा गेहूं में तेजी के विरुद्ध व्यापारियों को चेतावनीदेने का उल्टा असर पडा। सुना है व्यापारियों ने अपनी दुकानों पर बढ़िया फार्म गेहूं रखना ही छोड़ दिया। यह माल गुप चुप रुप से उपभोक्ताओं को ऊंचे दाम पर बेच दिया जाता है। सुना है कि दिल्ली की देहाती मंडियों और पड़ोसी राज्यों से गेहूं के ट्रक रात को आते हैं और तुरन्त उन्हे भूमिगत कर दिया जाता है। * * ........भारतीय प्रतिनिधिमंडल द्वारा मेवों के सम्बन्ध में अफगानिस्तान यात्रा करने की खबर से गत सप्ताह किशमिश, बादाम-पिस्ता और आबजोश आदि मेवों के भाव लुढ़क गए। गोले के भाव हालांकि बाद में सुधरकर 840-970 रुपए हो गए लेकिन पूर्व स्तर से फिर 10-30 रुपए नीचे हो गए थे। इस बार केरल में गोले का उत्पादन अधिक बताया जाता है। * * पड़ोसी राज्यों से तस्करी की आवक कम होने के कारण दिल्ली की मंडियों में भाव ऊपर होते थे, और रिपोर्टिंग में इस बात को चिन्हित किया जाता था कि इस तेजी के पीछे कमजोर तस्करी आवक है। * * तस्करी ही तस्करी, आंतरिक और विदेशी बाजार के भावों पर खासा प्रभाव रखती थी। * * * *छापों का असर* * जुलाई 1975, आपातकाल की घोषणा के ठीक बाद का समय था।( 25 जून 1975 को आपातकाल की घोषणा की गयी थी। यह 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक रहा।) इस दौर में कारोबारों पर छापे मारे जाने का असर भावों पर देखे गये-* *हिन्दुस्तान 26 जुलाई, 1975 पेज पांच दो कालम* *दिल्ली की मंडियां* *स्टाक व आवक की अधिकता से चावल के भाव गिरे * *दिल्ली-25 जुलाई (ह.स.) गत दो सप्ताह में पंजाब और हरियाणा से 25,000 बोरीचावलों की आवक होने तथा स्थानीय स्टाक लगभग 80000 से 1,00,000 क्विण्टल तक हो जाने के अनुमान से चावल बासमती और बेगमी के भाव 10 से 15 रुपये टूट गए। वर्षा अच्छी होने से पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में चावल का उत्पादन बढ़ने से बाजार में भी गिरावट आई।* *दिल्ली की नरेला मंडी में 2,000 क्विन्टल आवक होने से गेहूं देसी के भाव 5 रुपये प्रति क्विण्टल टूट गए। चने और इसकी दाल तथा बेसन में भी बिकवाली बढ़ जाने से दो-दो रुपए की हानि हुई। सरकारी छापों के कारण उत्पादन मंडियों में चने की आवक बढ़ने की चर्चा थी। बाजार दिसावरी मांग के अभाव में 5 रुपए घटाकर बोला गया। .........* * सरकारी छापों के कारण मंडियों में चने की आवक बढ़ी सो भाव गिरना तो तय था। * *आपातस्थिति का खात्मा और शेयर बाजार* *आपातस्थिति के खात्मे की घोषणा का शेयर बाजार पर सकारात्मक असर पडा। बाजार रिपोर्टिग में इसे दर्ज किया गया है। एक उदाहरण देखें-* *हिन्दुस्तान 22 मार्च, 1977 पेज सात सिंगल कालम* *दिल्ली शेयरों में उछाला* *नई दिल्ली , 21 मार्च (समाचार)। स्थानीय शेयर बाजार में आज उछाला आया। चुनावपरिणामों और आपात स्थिति समाप्त किये जाने से प्रभावित लिवाल बढ़ने से सभी शेयर लगातारसुधरकर मजबूती से बंद हुए।.* * चुनाव परिणामों में जनता पार्टी की विजय हुई थी और आपातस्थिति की समाप्ति की घोषणा कर दी गयी थी।* *अनिश्चितता के तनाव* * पर जनता पार्टी की जीत भर से अनिश्चितता की स्थिति खत्म नहीं हुई। तमाम तरह की अनिश्चितताएं बनी हुई थीं। बाजार इन अनिश्चितताओं के असर में झूल रहा था, बाजार रिपोर्टिंग ने इसे दर्ज किया है-* *हिन्दुस्तान 28 मार्च, 1977 पेज सात तीन कालम की खबर* *दिल्ली मंडी की साप्ताहिक समीक्षा* *राजनीतिक घटनाचक्र का कारोबार की धारणा पर प्रभाव* *दिल**्ली 27 मार्च (ह.स.) उत्पादन मंडियों में सप्लाई स्थिति सुगम होने तथा मांग के अभाव में गत सप्ताह मूंगफली और बिनौला के तेलों में 40 रु. प्रतिक्विंटल तक मंदा आया। तेल सरसों पक्की घानी व तेल गोले के भाव 12 से 13 रुपये प्रति टीन लुढ़क गए। तेल अलसी 60 रुपए और बढ़ाकर बोला गया। नीरस कारोबार में चीनी के भाव 14 रुपए तक लुढ़क गए। दालों में मिला-जुला रुख रहा जबकि गेहूं में मजबूती तथा चावल और चने में नरमी दिखाई दी। स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार कांग्रेस को लोकसभा के चुनाव में अभूतपूर्व हार का सामना करना पड़ा और केन्द्र में श्री मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बन गई। * *......* *तेल तिलहन* *यद्यपि** श्री जगजीवनराम व उनके साथियों द्वारा नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री श्री देसाई के मंत्रिमंडल में गतिरोध और अनिश्चितता का वातावरण पैदा उत्पन्न कर दिए जाने की खबर थी लेकिन ............कुछ व्यापारियों का विचार है था कि श्री देसाई अपने अनुभव और सूझबूझ के बल पर वर्तमान संकट को पार कर लेंगे। निकट भविष ्य में विधानसभा चुनाव होने की संभावना है। संभवत इसीलिए यह अनुमान है कि जनता पार्टी के अध्यक्ष देश के नए प्रधानमंत्री श्री देसाई भी महंगाई को घटाने का प्रयास करेंगे। तेलों की सहानुभूति में वनस्पति के भाव भी लगभग 4 रुपए प्रतिटीन घटकर 151 से 152.25 रुपए प्रति टीन रह गए। * * जनता पार्टी के नेताओं में आपसी मतभेद की खबरों के चलते बाजार में अनिश्चितता थी। * * तेल *–*तिलहन के बाजार भी राजनीतिक घटनाक्रम पर बारीकी से नजर रख रहे थे और भविष्य की आशाओं और उम्मीदों में झूल रहे थे। * * * *मोरारजी की जय हो, बिकवाल चुप* *अनिश्चितता छंटने की खबर के बाद बाजार उछला। एक खबर देखें-* *हिन्दुस्तान 28 मार्च, 1977 पेज सात एक कालम की खबर* *कलकत्ता शेयर समीक्षा* *नई आर्थिक नीति की आशा से भावों में तेजी* *कलकत्ता 27 मार्च(ह.स.) स्थानीय लायन्स रेंज में गत सप्ताह औद्योगिकों को व्यापक रुप से उल्लेखनीय लाभ रहा। श्री मोरारजी देसाई के प्रधानमंत्री बनने के घोषणा से व्यापारियों में उत्साह था। * *यह लाभ दस्ती डिलीवरी शेयरों में अधिक था। बाजार की टैक्नीकल स्थिति अच्छी होने के कारण भारी खरीद कारोबार हुआ। * *नकद** शेयरों में भी अच्छा कारोबार हुआ। यहां तक कि दूसरी श्रेणी के शेयरों में भी पूछताछ चली। बिकवाल चुप ही रहे। कारोबारियों के अनुसार सरकार की संभावित नीति परिवर्तन से अर्थ व्यवस्था को और बल मिलेगा। * * बाजार अनिश्चितता को सख्त नापसंद करता है। यह बात रिपोर्टिंग में इंगित की गयी है।* *सोना बाहर तो भाव नीचे* * नयी सरकार से शेयर बाजार को उम्मीदें थीं, तो सोने के बाजार में खासी आशंकाएं थी। एक खबर देखें-* *हिन्दुस्तान 28 मार्च, 1977 पेज सात दो कालम की खबर* *दिल्ली सराफा बाजार की साप्ताहिक समीक्षा* *कारोबार** में अनिश्चितता * *दिल्ली 27 मार्च (ह.स.) गत सप्ताह सर्राफा बाजार में दोतरफा घटा-बढ़ी के बादअनिश्चित रुख रहा। चांदी में बाद में गिरावट के बावजूद कुछ मजबूती थी जबकि सोना विटूर आवक बढ़ने से 9 रुपये प्रति दस ग्राम गिर गया। जेवर और स्टैंडर्ड सोने में प्रारम्भिक गिरावट के बाद फिर सुधार हो गया। * *कच्ची चांदी की आवक कमजोर होने से तेजाबी प्रारम्भ में 1300 बढ़कर 1305 खुली और न्यूयार्क के तेज समाचार से इसके भाव बढ़ते-बढ़ते गुरुवार को 1329 रुपए तक जा पहुंचे। केन्द्र में जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री मोरारजी देसाई के प्रधान मंत्री बनने के उपरान्त व्यापारियों को चांदी का निर्यात कोटा शीघ्र मिलने की आशा थी। लेकिन गणतंत्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष श्री जगजीवनराम और उनके साथियों द्वारा नए मंत्रिमंडल में शामिल होने के निर्णय करने के उपरान्त पीछे हट जाने से चान्दी में कारोबार घट गया और शनिवार को भाव गिरते-गिरते 1302 रह गए। चान्दी की तरह इसका सिक्का भी 1390 से बढ़कर 1419 रु. होने के बाद फिर घटकर 1392 रुपए प्रति सैकड़ा रह गया। * *पंजाब, उत्तर प्रदेश आदि से आवक होने तथा मांग के अभाव में सोना विटूर 9 रुपए घटकर 578 से 583 रुपए रह गया। कहा जाता है कि श्री देसाई स्वर्ण नियंत्रण कानून को सख्त करने की सोच रहे हैं। अगर ऐसा हुआ तो दबा हुआ सोना बाहर आने की संभावना है जिससे इसके भाव और घट सकते हैं। जेवर और स्टैंडर्ड सोने के भाव दो तरफा घटा-बढ़ी दिखाने के बाद अंत में 574 से 594 रुपए पर मजबूत रहे। बंबई से आवक कमजोर होने से भी अनुकूल प्रभाव पडा। असली गिन्नी मांग के अभाव में 3 रुपए घटकर 415 से 422 रुपए ही रह गई। * * तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सोने के मामले में सख्ती दिखायेंगे, इस आशंका से बाजार परेशान हो गया। सोना बाहर तो बाजार नीचे, बाजार की रिपोर्टिंग में लगातार यह भाव सामने आता रहा है। * * * ------------------------------------------------------- From miyaa_mihir at yahoo.com Mon Aug 27 01:20:52 2007 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Sun, 26 Aug 2007 12:50:52 -0700 (PDT) Subject: प्रसून का एक गीत Message-ID: <388034.15503.qm@web53602.mail.re2.yahoo.com> मेरा पहला हिन्दी पोस्ट प्रसून का गीत हो ये मेरी ही पसंद है. मेरी रुचि के विषय साहित्य और फिल्म और खेल और संगीत और राजनीति ठर्थात तरुणाई/युवता से जुडे हर बियाबान में फैले हैं. तो आगे यूँ ही रसीदें मिलती रहेंगीं! ...मिहिर खुल के मुस्कुराले तू दर्द को शर्माने दे बूँदों को धरती पर् साज़ एक बजाने दे झील एक आदत है तुझमें ही तो रहती है और नदी शरारत है तेरे संग बहती है उतार ग़म के मो़ज़े ज़मीं को गुनगुनाने दे कंकरों को तलवों में गुदगुदी मचाने दे बाँसुरी की खिडकियों पे सुर ये क्यों ठिठकते हैं आँख के समन्दर क्यों बेवजह छलकते हैं तित्तलियाँ ये कह्ती हैँ ठब बसंत आने दे जंगलों के मौसम को बस्तियों पे छाने दे खुल के मुस्कुराले तू दर्द को शर्माने दे... -प्रसून जोशी --------------------------------- Take the Internet to Go: Yahoo!Go puts the Internet in your pocket: mail, news, photos & more. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070826/8bfef83d/attachment.html From rakeshjee at gmail.com Mon Aug 27 10:26:25 2007 From: rakeshjee at gmail.com (Rakesh Singh) Date: Mon, 27 Aug 2007 10:26:25 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KS4?= =?utf-8?b?4KWC4KSoIOCkleCkviDgpI/gpJUg4KSX4KWA4KSk?= In-Reply-To: <388034.15503.qm@web53602.mail.re2.yahoo.com> References: <388034.15503.qm@web53602.mail.re2.yahoo.com> Message-ID: <292550dd0708262156q1e7cbf46he7bf699dd9d95ed7@mail.gmail.com> धन्‍यवाद मिहिर इतने अच्‍छे गीत के लिए. निश्चित ही प्रसून के गीतों और उनके संवादों में दम है. मुझे भी अब लगने लगा है कि उनके कामों पर एक गंभीर चिंतन ज़रूर किया जाना चाहिए. शायद यह संभव भी है. मैं तो कम से कम सहमत हूं. एक बार फिर धन्‍यवाद राकेश On 8/27/07, mihir pandya wrote: > > मेरा पहला हिन्दी पोस्ट प्रसून का गीत हो ये मेरी ही पसंद है. > मेरी रुचि के विषय साहित्य और फिल्म और खेल और संगीत और राजनीति अर्थात > तरुणाई/युवता से जुडे हर बियाबान में फैले हैं. तो आगे यूँ ही रसीदें मिलती > रहेंगीं! > > > > ...मिहिर > > > > > > > > खुल के मुस्कुराले तू > दर्द को शर्माने � �े > बूँदों को धरती पर् > साज़ एक बजाने दे > > > > झील एक आदत है > तुझमें ही तो रहती है > और नदी शरारत है > तेरे संग बहती है > > > > उतार ग़म के मो़ज़े > ज़मीं को गुनगुनाने दे > कंकरों को तलवों में > गुदगुदी मचाने दे > > > > बाँसुरी की खिडकियों पे > सुर ये क्यों ठिठकते हैं > आँख के समन्दर क्यों > बेवजह छलकते हैं > > > > तित्तलियाँ ये कह्ती हैँ > अब बसंत आने दे > जंगलों के मौसम को > ब� ��्तियों पे छाने दे > > > > खुल के मुस्कुराले तू > दर्द को शर्माने दे... > > > > -प्रसून जोशी > > ------------------------------ > Take the Internet to Go: Yahoo!Go puts the Internet in your pocket:mail, news, photos & more. > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ Ph: +91 9811972872 ''सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना'' - पाश -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-1 Size: 4519 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070827/6a629555/attachment.bin From ravikant at sarai.net Wed Aug 29 14:10:57 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 29 Aug 2007 14:10:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJrgpJUg?= =?utf-8?b?4KSm4KWHIOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+Ckvjog4KSs4KS+4KSvIOCkruCkvw==?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSwIOCkquCkguCkoeCljeCkr+Ckvg==?= Message-ID: <200708291410.57672.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... Date: बुधवार 29 अगस्त 2007 02:08 From: mihir pandya To: ravikant ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे अभी तक दीवान पर पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. राखी पर जयपुर से... ...मिहिर ................................................. चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... ये एक अजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें अमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन अमिताभ अपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. अम्रर अकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना अतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी अतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी अपना काम कर गयी. अब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित अमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा अपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. ….. सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, हे राम का अमज़द एक अपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि अमिताभ ने अपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का असर है. इसलिये चक दे अभी भी एक अपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत अपवाद है. ….. चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे अपना अक्स दिखाई देता है. ….. हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. अगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना अध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे अच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. और वो सोलह लडकियाँ... सोलह अलग-अलग नाम, सोलह अलग-अलग किरदार, सोलह अलग-अलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. अगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने अपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद अभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... From vkt.vijay at gmail.com Wed Aug 29 17:07:37 2007 From: vkt.vijay at gmail.com (vijay thakur) Date: Wed, 29 Aug 2007 17:07:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?RndkOiDgpJrgpJUg?= =?utf-8?b?4KSm4KWHIOCkh+CkguCkoeCkv+Ckr+Ckvjog4KSs4KS+4KSvIOCkrg==?= =?utf-8?b?4KS/4KS54KS/4KSwIOCkquCkguCkoeCljeCkr+Ckvg==?= In-Reply-To: <200708291410.57672.ravikant@sarai.net> References: <200708291410.57672.ravikant@sarai.net> Message-ID: बहुत अच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित अमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के अलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, अनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...अब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं। On 8/29/07, Ravikant wrote: > > > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा > आज > भर ले... > Date: बुधवार 29 अगस्त 2007 02:08 > From: mihir pandya > To: ravikant > > ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. > पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे अभी तक दीवान पर > पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. > > राखी पर जयपुर से... > ...मिहिर > > > ................................................. > > चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... > > ये एक अजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें अमिताभ को > "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन अमिताभ अपनी > पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. अम्रर अकबर एन्थोनी की बात आने > पर > उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना अतार्किक विचार कैसे चलेगा? > संयोगों > और अतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. > आज > भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का > खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके > बावजूद > कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी अतार्किकतायें पीछे छूट > गयीं और कहानी अपना काम कर गयी. अब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी > नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित अमीन की फिल्म चक दे > इण्डिया > देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही > पकाऊ > थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा अपने > पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी > मेलोड्रामा > दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही > दोहराता > है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप > किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही > दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. > ….. > सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के > सिनेमा > में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद > नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या > राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, > हे राम का अमज़द एक अपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये > ही > रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम > कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना > चाहिये. > आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने > धुरंधर याद कर पायेंगे कि अमिताभ ने अपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की > भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का > परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के > दशक > में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो > किया यह उसी का असर है. इसलिये चक दे अभी भी एक अपवाद ही कही जाएगी, > मुख्यधारा > नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत अपवाद है. > > ….. > चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो > है > कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे > भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख > जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ > जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही > नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की > लडाई > हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे अपना अक्स दिखाई देता है. > ….. > हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर > प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द > की > मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. > मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. > इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. > अगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना अध्याय पढें तो > मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों > वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का > होना > एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा > जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी > सत्ता संरचना को उनसे अच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. > खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. > और वो सोलह लडकियाँ... सोलह अलग-अलग नाम, सोलह अलग-अलग > किरदार, > सोलह अलग-अलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला > को > सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि > है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी > में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप > बिन्दिया > नायक को नहीं भूल सकते. अगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक > धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को > ही > जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. > शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ > उसने > अपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार > फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. > शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद अभी भी > कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और > ना > चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा > किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/4cd19bbc/attachment.html From miyaa_mihir at yahoo.com Thu Aug 30 01:14:08 2007 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Wed, 29 Aug 2007 12:44:08 -0700 (PDT) Subject: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: बाय मिहिर पंड्या In-Reply-To: Message-ID: <12754.90032.qm@web53604.mail.re2.yahoo.com> vijay thakur wrote: बहुत ठच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित ठमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के ठलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...ठब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं। On 8/29/07, Ravikant wrote: ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... Date: बुधवार 29 ठगस्त 2007 02:08 From: mihir pandya To: ravikant ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे ठभी तक दीवान पर पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. राखी पर जयपुर से... ...मिहिर ................................................. चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... ये एक ठजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें ठमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन ठमिताभ ठपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. ठम्रर ठकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना ठतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और ठतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी ठतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी ठपना काम कर गयी. ठब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित ठमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा ठपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. ….. सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, हे राम का ठमज़द एक ठपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि ठमिताभ ने ठपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का ठसर है. इसलिये चक दे ठभी भी एक ठपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत ठपवाद है. ….. चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे ठपना ठक्स दिखाई देता है. ….. हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. ठगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना ठध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे ठच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. और वो सोलह लडकियाँ... सोलह ठलग-ठलग नाम, सोलह ठलग-ठलग किरदार, सोलह ठलग-ठलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. ठगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने ठपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद ठभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better Globetrotter. Get better travel answers from someone who knows. Yahoo! Answers - Check it out. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/84654b5d/attachment.html From miyaa_mihir at yahoo.com Thu Aug 30 01:14:08 2007 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Wed, 29 Aug 2007 12:44:08 -0700 (PDT) Subject: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: बाय मिहिर पंड्या In-Reply-To: Message-ID: <12754.90032.qm@web53604.mail.re2.yahoo.com> vijay thakur wrote: बहुत ठच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित ठमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के ठलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...ठब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं। On 8/29/07, Ravikant wrote: ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... Date: बुधवार 29 ठगस्त 2007 02:08 From: mihir pandya To: ravikant ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे ठभी तक दीवान पर पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. राखी पर जयपुर से... ...मिहिर ................................................. चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... ये एक ठजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें ठमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन ठमिताभ ठपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. ठम्रर ठकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना ठतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और ठतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी ठतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी ठपना काम कर गयी. ठब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित ठमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा ठपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. ….. सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, हे राम का ठमज़द एक ठपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि ठमिताभ ने ठपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का ठसर है. इसलिये चक दे ठभी भी एक ठपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत ठपवाद है. ….. चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे ठपना ठक्स दिखाई देता है. ….. हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. ठगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना ठध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे ठच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. और वो सोलह लडकियाँ... सोलह ठलग-ठलग नाम, सोलह ठलग-ठलग किरदार, सोलह ठलग-ठलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. ठगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने ठपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद ठभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Be a better Globetrotter. Get better travel answers from someone who knows. Yahoo! Answers - Check it out. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/84654b5d/attachment-0001.html From miyaa_mihir at yahoo.com Thu Aug 30 01:19:31 2007 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Wed, 29 Aug 2007 12:49:31 -0700 (PDT) Subject: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: बाय मिहिर पंड्या In-Reply-To: Message-ID: <252048.20840.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> सबसे पहले, वो क्या कहते हैं हिन्दी में.. भिडते ही! माफी पिछले खाली पोस्ट के लिये... बिजय आपकी बात ठीक है कि मुस्लिम किरदार फिल्मों में आते रहे हैं लेकिन जब मैनें लिखा कि 'मुख्यधारा के सिनेमा में नायक' तो बात थोडी ठलग है. ज़रा गौर कीजिये जिन फिल्मों का आपने नाम लिया.. फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक फ्राइडे.. क्या इन सभी का मूल विषय आतंकवाद नहीं? और ठब आतंकवाद पर फिल्म बनायेंगे तो मुख्य किरदार तो मुस्लिम ही होगा ना! हाँ दृष्टि का फर्क हो सकता है और ये मानना पडेगा कि इनमें से कई फिल्में एक सही दृष्टिकोण के साथ बनाई गयी हैं. लेकिन मेरा कहना ये है कि कोई ऐसा विषय जिसका मुस्लिम समाज और उसकी समस्याओं से सीधा लेना-देना ना हो (जैसा चक दे में है) वहाँ कोई मुस्लिम किरदार नायक क्यों नही होता? यूँ ही, बिना किसी वजह... कोई मसाला फिल्म जिसका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो, जो हमें बिल्कुल पसंद ना आये, जिसमें कोई संदेश ना हो, जिसका यथार्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता ना हो. लेकिन जिसका नायक मुस्लिम हो (यूँ ही!). यह ठब संयोग से भी नहीं होता. ठब ठगर मैं ठपनी बनाई परिभाषा के ठनुसार फिल्मों की चीर्-फाड करूँ तो जो फिल्में मेरी इस 'मसाला फिल्म-मुस्लिम नायक' परिभाषा में आ सकती हैं वो होगीं- धूम जिसमें एक नायक ठली है. (यहाँ भी वो द्वितीयक भूमिका में है और उसका ताल्लुक गैर-कानूनी धंधों से दिखाया गया है). तिग्मान्शू धूलिया की चरस याद आती है जिसमें एक मुस्लिम किरदार नायक था और जहाँ तक मुझे याद है दो लडकों की कहानी (जिम्मी शेरगिल तथा उदय चोपडा) होने के बावजूद वो ही मुख्य नायक था. यूँ तो रंग दे बसँती का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन ठबतक आप मेरी बात समझ ही गये होगें. ठपर्णा सेन की मि. एण्ड मिसेस. ऐयर इसका सुन्दर उदाहरण है कि जब हम एक मुस्लिम को हमारे दिमाग़ में बना दी गयी छवि से उलट पाते हैं तो कितना ठजीब और आश्चर्य का एहसास होता है. और् हमारी फिल्में इन स्टिरियोटाइप छवियों के निर्माण में एक प्रमुख कारक हैं. -मिहिर vijay thakur wrote: बहुत ठच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित ठमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के ठलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...ठब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं। On 8/29/07, Ravikant wrote: ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... Date: बुधवार 29 ठगस्त 2007 02:08 From: mihir pandya To: ravikant ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे ठभी तक दीवान पर पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. राखी पर जयपुर से... ...मिहिर ................................................. चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... ये एक ठजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें ठमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन ठमिताभ ठपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. ठम्रर ठकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना ठतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और ठतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी ठतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी ठपना काम कर गयी. ठब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित ठमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा ठपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. ….. सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, हे राम का ठमज़द एक ठपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि ठमिताभ ने ठपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का ठसर है. इसलिये चक दे ठभी भी एक ठपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत ठपवाद है. ….. चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे ठपना ठक्स दिखाई देता है. ….. हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. ठगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना ठध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे ठच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. और वो सोलह लडकियाँ... सोलह ठलग-ठलग नाम, सोलह ठलग-ठलग किरदार, सोलह ठलग-ठलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. ठगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने ठपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद ठभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Need a vacation? Get great deals to amazing places on Yahoo! Travel. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-9746 Size: 21770 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/50259d77/attachment.bin From miyaa_mihir at yahoo.com Thu Aug 30 01:19:31 2007 From: miyaa_mihir at yahoo.com (mihir pandya) Date: Wed, 29 Aug 2007 12:49:31 -0700 (PDT) Subject: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: बाय मिहिर पंड्या In-Reply-To: Message-ID: <252048.20840.qm@web53607.mail.re2.yahoo.com> सबसे पहले, वो क्या कहते हैं हिन्दी में.. भिडते ही! माफी पिछले खाली पोस्ट के लिये... बिजय आपकी बात ठीक है कि मुस्लिम किरदार फिल्मों में आते रहे हैं लेकिन जब मैनें लिखा कि 'मुख्यधारा के सिनेमा में नायक' तो बात थोडी ठलग है. ज़रा गौर कीजिये जिन फिल्मों का आपने नाम लिया.. फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिज़ा, ब्लैक फ्राइडे.. क्या इन सभी का मूल विषय आतंकवाद नहीं? और ठब आतंकवाद पर फिल्म बनायेंगे तो मुख्य किरदार तो मुस्लिम ही होगा ना! हाँ दृष्टि का फर्क हो सकता है और ये मानना पडेगा कि इनमें से कई फिल्में एक सही दृष्टिकोण के साथ बनाई गयी हैं. लेकिन मेरा कहना ये है कि कोई ऐसा विषय जिसका मुस्लिम समाज और उसकी समस्याओं से सीधा लेना-देना ना हो (जैसा चक दे में है) वहाँ कोई मुस्लिम किरदार नायक क्यों नही होता? यूँ ही, बिना किसी वजह... कोई मसाला फिल्म जिसका उद्देश्य केवल पैसा कमाना हो, जो हमें बिल्कुल पसंद ना आये, जिसमें कोई संदेश ना हो, जिसका यथार्थ से दूर दूर तक कोई वास्ता ना हो. लेकिन जिसका नायक मुस्लिम हो (यूँ ही!). यह ठब संयोग से भी नहीं होता. ठब ठगर मैं ठपनी बनाई परिभाषा के ठनुसार फिल्मों की चीर्-फाड करूँ तो जो फिल्में मेरी इस 'मसाला फिल्म-मुस्लिम नायक' परिभाषा में आ सकती हैं वो होगीं- धूम जिसमें एक नायक ठली है. (यहाँ भी वो द्वितीयक भूमिका में है और उसका ताल्लुक गैर-कानूनी धंधों से दिखाया गया है). तिग्मान्शू धूलिया की चरस याद आती है जिसमें एक मुस्लिम किरदार नायक था और जहाँ तक मुझे याद है दो लडकों की कहानी (जिम्मी शेरगिल तथा उदय चोपडा) होने के बावजूद वो ही मुख्य नायक था. यूँ तो रंग दे बसँती का नाम भी लिया जा सकता है लेकिन ठबतक आप मेरी बात समझ ही गये होगें. ठपर्णा सेन की मि. एण्ड मिसेस. ऐयर इसका सुन्दर उदाहरण है कि जब हम एक मुस्लिम को हमारे दिमाग़ में बना दी गयी छवि से उलट पाते हैं तो कितना ठजीब और आश्चर्य का एहसास होता है. और् हमारी फिल्में इन स्टिरियोटाइप छवियों के निर्माण में एक प्रमुख कारक हैं. -मिहिर vijay thakur wrote: बहुत ठच्छा लगा चकदे..... पर मिहिर की समीक्षा जिसमें शाहरुख और शिमित ठमीन की फिल्म स्टाइलों पर एक नजर के ठलावा भी बहुत कुछ दिया गया है। एक जगह मिहिर ने लिखा है, "सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है..." मैं इससे सहमत हूं मगर पूर्णतः नहीं क्योंकि बीच-बीच में विभिन्न विषयों पर कई मुस्लिम किरदार वाली फिल्में आती रही हैं यथा- फना, ठनवर, मिशन कश्मीर, फिजा, मकबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, ब्लैक फ्राइडे...ठब इनमें कुछ को तो मुख्यधारा की सिनेमा में रख ही सकते हैं, यह सही है कि हिन्दू नाम वाले किरदार की तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। मिहिर ने कुछेक दृश्यों को पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार ऐसा दिखने में आता है कि दृश्य भावनात्मक बनाने के चक्कर में फिल्मकार दृश्य को पकाऊ बना देते हैं। On 8/29/07, Ravikant wrote: ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... Date: बुधवार 29 ठगस्त 2007 02:08 From: mihir pandya To: ravikant ये पहला लेख/समीक्षा आपको भेज रहा हूँ. पढकर राय दीजिये और दीवान पर डाल दीजिये ठीक लगे तो. मुझे ठभी तक दीवान पर पोस्टिंग करना ठीक से समझ नहीं आया है. राखी पर जयपुर से... ...मिहिर ................................................. चक दे इण्डिया : हुँकारा आज भर ले... ये एक ठजीब सी तुलना है. पिछले सप्ताह मैनें ठमिताभ को "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के दिन ठमिताभ ठपनी पसन्दीदा फिल्मों के बारे में बात कर रहे थे. ठम्रर ठकबर एन्थोनी की बात आने पर उन्होनें कहा कि हम सभी को लगता था कि इतना ठतार्किक विचार कैसे चलेगा? संयोगों और ठतार्किकताओं से भरी ये कहानी सिर्फ मनमोहन देसाई के दिमाग का फितूर है. आज भी हम उस फिल्म के पहले दृश्य को देखकर हंसते हैं. एक नली से तीनों भाइयों का खून सीधा माँ को चढता हुआ दिखाया जाना एक मेडीकल जोक है. लेकिन इन सबके बावजूद कुछ है जिसने देखने वाले से सीधा नाता जोड लिया. सारी ठतार्किकतायें पीछे छूट गयीं और कहानी ठपना काम कर गयी. ठब आप क्या कहेंगे इसे... मैं इसे एक फिल्मी नाम देता हूँ… दिल का रिश्ता. पिछले ह्फ्ते शिमित ठमीन की फिल्म चक दे इण्डिया देखते हुए भी मुझे ऐसा ही एहसास हुआ. वैसे फिल्म के कई प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ थे जैसे कबीर खान के घर छोडने का प्रसंग जहाँ पडोस में रहने वाला बच्चा ठपने पिता से कह्ता है, "पापा मैनूं भी गद्दार देख्नना है". इस जगह भारी मेलोड्रामा दिखाई देता है. या वो सारी बोर्ड मीटिंग्स जहाँ चेयरमैन बार-बार ये ही दोहराता है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये भी स्टिरियोटाइप किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके बावजूद मुझे फिल्म पसन्द आयी और इसका कारण वो ही दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे दिल से बनाई गई फिल्म है जो नज़र आ ही जाता है. ….. सबसे पहले सबसे खास बात... याद कीजिये कि मुख्यधारा के सिनेमा में आखिरी बार आपने कब एक मुस्लिम को नायक के रूप में देखा था? आसानी से याद नहीं आयेगा ये तय है. हमारे दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख ने भी हमेशा राज या राहुल या वीर प्रताप सिंह या मोहन भार्गव जैसी भूमिकाएँ ही निभाई हैं. हाँ, हे राम का ठमज़द एक ठपवाद कहा जा सकता है. शायद जयदीप के लिये सबसे मुश्किल ये ही रहा हो की यशराज को एक ऐसी कहानी के लिये कैसे मनाया जाये जिसके नायक का नाम कबीर खान है. यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर से देखा जाना चाहिये. आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या ये पहले सम्भव था या हो सकता था? पुराने धुरंधर याद कर पायेंगे कि ठमिताभ ने ठपनी बादशाहत के दौर में मुस्लिम नायक की भूमिकाएँ भी निभाई हैं लेकिन शाहरुख के खाते में ये तथ्य नहीं है. यह समय का परिवर्तन है. मित्रों का तो यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी दुर्घटना नब्बे के दशक में ही सम्भव थी. मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक की शुरूआत में जो किया यह उसी का ठसर है. इसलिये चक दे ठभी भी एक ठपवाद ही कही जाएगी, मुख्यधारा नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत ठपवाद है. ….. चक दे एक खेल आधारित फिल्म का मूल नियम ध्यान रखती है और वो है कमज़ोर की विजय. भारत द्वारा निर्मित सबसे चर्चित खेल फिल्म लगान की तरह चक दे भी कमज़ोरों के विजेता बनकर निकलने की कहानी है. यहाँ आपको सारे भेदभाव दिख जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, खेल के आपसी भेदभाव और इनके खिलाफ लडाई साथ-साथ जारी है. टॉम एण्ड जेरी की लडाई में जीत हमेशा टॉम की ही होती है और यही नियम हमारी फिल्मों पर भी लागू होता है. सच यही है कि आम दर्शक ज़िन्दगी की लडाई हारे हुये किरदार से ही रिलेट करता है. वहीं उसे ठपना ठक्स दिखाई देता है. ….. हॉकी की भारत में क्या जगह थी इसे दिखाने के लिये बहुत सुन्दर प्रतीक चुना गया है. देश की राजधानी के हृदयस्थल को निहारती मेजर ध्यानचन्द की मूरत उस केन्द्रीय स्थान की गवाही देती है जो आजाद भारत में हॉकी ने पाया था. मेजर ध्यानचन्द हॉकी स्टेडियम जैसे लुटियंस की बनाई दिल्ली को निहार रहा है. इंडिया गेट के मध्य भाग से देखने पर ठीक सामने राष्ट्रपति भवन दिखाई देता है. ठगर आप सुनील खिलनानी की आइडिया ऑफ इंडिया का शहर और सपना ठध्याय पढें तो मालूम होगा कि इस नक्शे को बनाने में क्या सत्ता संरचना काम कर रही थी. क्यों वायसराय के घर के लिये उन्नयन कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ ध्यानचंद का होना एक कमाल के प्रतीक की खोज है. और इसका श्रेय भी मैं जयदीप साहनी को दूंगा जिन्होंनें एकबार फिर साबित कर दिया है की नये बनते शहर की बुनावट और उसकी सत्ता संरचना को उनसे ठच्छा समझने वाला हिन्दी सिनेमा में और कोई नहीं है. खोसला का घोसला के बाद चक दे एक और उपलब्धि है जयदीप के लिये. ….. और वो सोलह लडकियाँ... सोलह ठलग-ठलग नाम, सोलह ठलग-ठलग किरदार, सोलह ठलग-ठलग पहचान. हर एक ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. वैसे कोमल चौटाला को सबसे ज्यादा पसंद किया गया है और खुद ममता खरब ने कहा है कि कोमल मे मेरी छवि है लेकिन काम के मामले में मेरी पसंद शिल्पा शर्मा रही. आपने उसे खामोश पानी में देखा होगा और हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी में नहीं देखा होगा. लेकिन आप बिन्दिया नायक को नहीं भूल सकते. ठगर ये उनका फिल्म जगत में आगमन माना जाये तो ये एक धमाकेदार आगमन है. वो आयी… वो छायी टाइप! लेकिन आखिर में श्रेय तो जयदीप को ही जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. शाहरुख के लिये ये फिल्म स्वदेस वाले खाते में जाती है जहाँ उसने ठपना किंग खान वाला स्टाइल छोडकर काम किया है. स्वदेस हालाँकि ज्यादा परतदार फिल्म थी लेकिन चक दे भी उसी खाते में है. स्तर भले कम हो लेकिन खाना वही है. शाहरुख को चाहनेवालों के लिये ये एक नया रूप तो है ही. (हाँ मेरी पसंद ठभी भी कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख का सर्वश्रेष्ठ काम मानती है. ना स्वदेस को और ना चक दे को). ये फिल्म तो बस उम्मीद है कि हिन्दुस्तानी फिल्मों की मुख्यधारा किसी नये प्रयोगशील रास्ते पर आगे बढ रही है... _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Need a vacation? Get great deals to amazing places on Yahoo! Travel. -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: not available Type: application/defanged-20 Size: 21770 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/50259d77/attachment-0001.bin From beingred at gmail.com Fri Aug 31 22:27:41 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 31 Aug 2007 22:27:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 55, Issue 3 In-Reply-To: References: Message-ID: <363092e30708310957r60e04b5aqae1485b37d4ff5a1@mail.gmail.com> bhai, ismen kuchh bhi nahin dikh raha hai. kya padhen? On 8/30/07, deewan-request at mail.sarai.net wrote: > > Send Deewan mailing list submissions to > deewan at mail.sarai.net > > To subscribe or unsubscribe via the World Wide Web, visit > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > or, via email, send a message with subject or body 'help' to > deewan-request at mail.sarai.net > > You can reach the person managing the list at > deewan-owner at mail.sarai.net > > When replying, please edit your Subject line so it is more specific > than "Re: Contents of Deewan digest..." > > > Today's Topics: > > 1. Re: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: > बाय मिहिर पंड्या (mihir pandya) > > > ---------------------------------------------------------------------- > > Message: 1 > Date: Wed, 29 Aug 2007 12:44:08 -0700 (PDT) > From: mihir pandya > Subject: Re: [दीवान]Fwd: चक दे इंडिया: > बाय मिहिर पंड्या > To: vijay thakur > Cc: deewan at mail.sarai.net, deewan > Message-ID: <12754.90032.qm at web53604.mail.re2.yahoo.com> > Content-Type: text/plain; charset="iso-8859-1" > > > > vijay thakur wrote: बहुत अच्छा > लगा चकदे..... पर à¤(r)िहिर की > सà¤(r)ीक्षा जिसà¤(r)ें शाहरुख à¤"र > शिà¤(r)ित अà¤(r)ीन की फिल्à¤(r) स्टाइलों > पर एक नजर के अलावा भी बहुत कुछ > दिया गया है। > एक जगह à¤(r)िहिर ने लिखा है, "सबसे > पहले सबसे खास बात... याद > कीजिये कि à¤(r)ुख्यधारा के > सिनेà¤(r)ा à¤(r)ें आखिरी बार आपने कब > एक à¤(r)ुस्लिà¤(r) को नायक के रूप à¤(r)ें > देखा था? आसानी से याद नहीं > आयेगा ये तय है..." à¤(r)ैं इससे सहà¤(r)त > हूं à¤(r)गर पूर्णतः नहीं क्योंकि > बीच-बीच à¤(r)ें विभिन्न विषयों > पर कई à¤(r)ुस्लिà¤(r) किरदार वाली > फिल्à¤(r)ें आती रही हैं यथा- फना, > अनवर, à¤(r)िशन कश्à¤(r)ीर, फिजा, > à¤(r)कबूल, शूट आउट एट लोखंडवाला, > ब्लैक फ्राइडे...अब इनà¤(r)ें कुछ > को तो à¤(r)ुख्यधारा की सिनेà¤(r)ा > à¤(r)ें रख ही सकते हैं, यह सही है > कि हिन्दू नाà¤(r) वाले किरदार की > तरह फ्रिक्वेंट नहीं है। > à¤(r)िहिर ने कुछेक दृश्यों को > पकाऊ कहा है...सही है ...कई बार > ऐसा दिखने à¤(r)ें आता है कि दृश्य > भावनात्à¤(r)क बनाने के चक्कर à¤(r)ें > फिल्à¤(r)कार दृश्य को पकाऊ बना > देते हैं। > > > On 8/29/07, Ravikant wrote: > ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > > Subject: äšÃ¤• ä¦Ã¥‡ ä‡Ã¤£Ã¥Ã¤¡Ã¤¿Ã¤¯Ã¤¾ : > ä¹Ã¥Ã¤Ã¤•ä¾Ã¤°Ã¤¾ ä†Ã¤œ > ä­Ã¤° ä²Ã¥‡... > Date: बुधवार 29 अगस्त 2007 02:08 > From: mihir pandya > To: ravikant > > ये पहला लेख/सà¤(r)ीक्षा आपको भेज > रहा हूँ. > पढकर राय दीजिये à¤"र दीवान पर > डाल दीजिये à¤à¥€à¤• लगे तो. à¤(r)ुझे > अभी तक दीवान पर > पोस्टिंग करना à¤à¥€à¤• से सà¤(r)झ > नहीं आया है. > > राखी पर जयपुर से... > ...à¤(r)िहिर > > > ................................................. > > चक दे इण्डिया : हुँकारा आज > भर ले... > > ये एक अजीब सी तुलना > है. पिछले सप्ताह à¤(r)ैनें > अà¤(r)िताभ को > "सी.एन.एन. आई.बी.एन." पर बोलते > सुना. स्वत्नंत्रता दिवस के > दिन अà¤(r)िताभ अपनी > पसन्दीदा फिल्à¤(r)ों के बारे > à¤(r)ें बात कर रहे थे. अà¤(r)्रर अकबर > एन्थोनी की बात आने पर > उन्होनें कहा कि हà¤(r) सभी को > लगता था कि इतना अतार्किक > विचार कैसे चलेगा? संयोगों > à¤"र अतार्किकताà¤"ं से भरी ये > कहानी सिर्फ à¤(r)नà¤(r)ोहन देसाई के > दिà¤(r)ाग का फितूर है. आज > भी हà¤(r) उस फिल्à¤(r) के पहले दृश्य > को देखकर हंसते हैं. एक नली से > तीनों भाइयों का > खून सीधा à¤(r)ाँ को चढता हुआ > दिखाया जाना एक à¤(r)ेडीकल जोक है. > लेकिन इन सबके बावजूद > कुछ है जिसने देखने वाले से > सीधा नाता जोड लिया. सारी > अतार्किकतायें पीछे छूट > गयीं à¤"र कहानी अपना काà¤(r) कर > गयी. अब आप क्या कहेंगे इसे... > à¤(r)ैं इसे एक फिल्à¤(r)ी > नाà¤(r) देता हूँ… दिल का रिश्ता. > पिछले ह्फ्ते शिà¤(r)ित अà¤(r)ीन की > फिल्à¤(r) चक दे इण्डिया > देखते हुए भी à¤(r)ुझे ऐसा ही > एहसास हुआ. वैसे फिल्à¤(r) के कई > प्रसंग तो बहुत ही पकाऊ > थे जैसे कबीर खान के घर छोडने > का प्रसंग जहाँ पडोस à¤(r)ें रहने > वाला बच्चा अपने > पिता से कह्ता है, "पापा à¤(r)ैनूं > भी गद्दार देख्नना है". इस जगह > भारी à¤(r)ेलोड्राà¤(r)ा > दिखाई देता है. या वो सारी > बोर्ड à¤(r)ीटिंग्स जहाँ चेयरà¤(r)ैन > बार-बार ये ही दोहराता > है, "ये चकला-बेलन चलाने वाली > भारतीय नारियाँ हैं". क्या ये > भी स्टिरियोटाइप > किरदार नहीं हैं? लेकिन इनके > बावजूद à¤(r)ुझे फिल्à¤(r) पसन्द आयी > à¤"र इसका कारण वो ही > दिल का रिश्ता है. ये एक सच्चे > दिल से बनाई गई फिल्à¤(r) है जो नज़र > आ ही जाता है. > ….. > सबसे पहले सबसे खास > बात... याद कीजिये कि à¤(r)ुख्यधारा > के सिनेà¤(r)ा > à¤(r)ें आखिरी बार आपने कब एक > à¤(r)ुस्लिà¤(r) को नायक के रूप à¤(r)ें > देखा था? आसानी से याद > नहीं आयेगा ये तय है. हà¤(r)ारे > दौर के सबसे बडे नायक शाहरुख > ने भी हà¤(r)ेशा राज या > राहुल या वीर प्रताप सिंह या > à¤(r)ोहन भार्गव जैसी भूà¤(r)िकाएँ ही > निभाई हैं. हाँ, > हे राà¤(r) का अà¤(r)ज़द एक अपवाद कहा > जा सकता है. शायद जयदीप के लिये > सबसे à¤(r)ुश्किल ये ही > रहा हो की यशराज को एक ऐसी > कहानी के लिये कैसे à¤(r)नाया > जाये जिसके नायक का नाà¤(r) > कबीर खान है. यह एक बहुत ही > à¤(r)हत्वपूर्ण तथ्य है जिसे गौर > से देखा जाना चाहिये. > आज SRK ऐसा रोल कर सकता है, क्या > ये पहले सà¤(r)्भव था या हो सकता > था? पुराने > धुरंधर याद कर पायेंगे कि > अà¤(r)िताभ ने अपनी बादशाहत के > दौर à¤(r)ें à¤(r)ुस्लिà¤(r) नायक की > भूà¤(r)िकाएँ भी निभाई हैं लेकिन > शाहरुख के खाते à¤(r)ें ये तथ्य > नहीं है. यह सà¤(r)य का > परिवर्तन है. à¤(r)ित्रों का तो > यहाँ तक कहना है कि गदर जैसी > दुर्घटना नब्बे के दशक > à¤(r)ें ही सà¤(r)्भव थी. à¤(r)नà¤(r)ोहन सिंह > à¤"र लालकृष्ण आडवाणी ने इस दशक > की शुरूआत à¤(r)ें जो > किया यह उसी का असर है. इसलिये > चक दे अभी भी एक अपवाद ही कही > जाएगी, à¤(r)ुख्यधारा > नहीं. लेकिन ये एक खूबसूरत > अपवाद है. > > ….. > चक दे एक खेल आधारित > फिल्à¤(r) का à¤(r)ूल नियà¤(r) ध्यान रखती > है à¤"र वो है > कà¤(r)ज़ोर की विजय. भारत द्वारा > निर्à¤(r)ित सबसे चर्चित खेल > फिल्à¤(r) लगान की तरह चक दे > भी कà¤(r)ज़ोरों के विजेता बनकर > निकलने की कहानी है. यहाँ आपको > सारे भेदभाव दिख > जायेंगें जैसे जेन्डर, इलाका, > खेल के आपसी भेदभाव à¤"र इनके > खिलाफ लडाई साथ-साथ > जारी है. टॉà¤(r) एण्ड जेरी की > लडाई à¤(r)ें जीत हà¤(r)ेशा टॉà¤(r) की ही > होती है à¤"र यही > नियà¤(r) हà¤(r)ारी फिल्à¤(r)ों पर भी > लागू होता है. सच यही है कि आà¤(r) > दर्शक ज़िन्दगी की लडाई > हारे हुये किरदार से ही रिलेट > करता है. वहीं उसे अपना अक्स > दिखाई देता है. ….. > हॉकी की भारत à¤(r)ें क्या > जगह थी इसे दिखाने के लिये > बहुत सुन्दर > प्रतीक चुना गया है. देश की > राजधानी के हृदयस्थल को > निहारती à¤(r)ेजर ध्यानचन्द की > à¤(r)ूरत उस केन्द्रीय स्थान की > गवाही देती है जो आजाद भारत > à¤(r)ें हॉकी ने पाया था. > à¤(r)ेजर ध्यानचन्द हॉकी > स्टेडियà¤(r) जैसे लुटियंस की > बनाई दिल्ली को निहार रहा है. > इंडिया गेट के à¤(r)ध्य भाग से > देखने पर à¤à¥€à¤• साà¤(r)ने > राष्ट्रपति भवन दिखाई देता > है. > अगर आप सुनील खिलनानी की > आइडिया à¤'फ इंडिया का शहर à¤"र > सपना अध्याय पढें तो > à¤(r)ालूà¤(r) होगा कि इस नक्शे को > बनाने à¤(r)ें क्या सत्ता संरचना > काà¤(r) कर रही थी. क्यों > वायसराय के घर के लिये उन्नयन > कोण सबसे ऊँचा रखा गया था. यहाँ > ध्यानचंद का होना > एक कà¤(r)ाल के प्रतीक की खोज है. > à¤"र इसका श्रेय भी à¤(r)ैं जयदीप > साहनी को दूंगा > जिन्होंनें एकबार फिर साबित > कर दिया है की नये बनते शहर की > बुनावट à¤"र उसकी > सत्ता संरचना को उनसे अच्छा > सà¤(r)झने वाला हिन्दी सिनेà¤(r)ा à¤(r)ें > à¤"र कोई नहीं है. > खोसला का घोसला के बाद चक दे > एक à¤"र उपलब्धि है जयदीप के > लिये. ….. > à¤"र वो सोलह लडकियाँ... > सोलह अलग-अलग नाà¤(r), सोलह अलग-अलग > किरदार, > सोलह अलग-अलग पहचान. हर एक > ऊर्जा की खान. जैसे उबलता लावा. > वैसे कोà¤(r)ल चौटाला को > सबसे ज्यादा पसंद किया गया है > à¤"र खुद à¤(r)à¤(r)ता खरब ने कहा है कि > कोà¤(r)ल à¤(r)े à¤(r)ेरी छवि > है लेकिन काà¤(r) के à¤(r)ाà¤(r)ले à¤(r)ें > à¤(r)ेरी पसंद शिल्पा शर्à¤(r)ा रही. > आपने उसे खाà¤(r)ोश पानी > à¤(r)ें देखा होगा à¤"र हज़ारों > ख्वाहिशें ऐसी à¤(r)ें नहीं देखा > होगा. लेकिन आप बिन्दिया > नायक को नहीं भूल सकते. अगर ये > उनका फिल्à¤(r) जगत à¤(r)ें आगà¤(r)न à¤(r)ाना > जाये तो ये एक > धà¤(r)ाकेदार आगà¤(r)न है. वो आयी… वो > छायी टाइप! लेकिन आखिर à¤(r)ें > श्रेय तो जयदीप को ही > जाएगा जिन्होंनें इतने तीखे, > तेज़्-तर्रार किरदार रचे. ….. > शाहरुख के लिये ये फिल्à¤(r) > स्वदेस वाले खाते à¤(r)ें जाती है > जहाँ उसने > अपना किंग खान वाला स्टाइल > छोडकर काà¤(r) किया है. स्वदेस > हालाँकि ज्यादा परतदार > फिल्à¤(r) थी लेकिन चक दे भी उसी > खाते à¤(r)ें है. स्तर भले कà¤(r) हो > लेकिन खाना वही है. > शाहरुख को चाहनेवालों के > लिये ये एक नया रूप तो है ही. > (हाँ à¤(r)ेरी पसंद अभी भी > कभी हाँ, कभी ना को ही शाहरुख > का सर्वश्रेष्ठकाà¤(r) à¤(r)ानती है. > ना स्वदेस को à¤"र ना > चक दे को). ये फिल्à¤(r) तो बस > उà¤(r)्à¤(r)ीद है कि हिन्दुस्तानी > फिल्à¤(r)ों की à¤(r)ुख्यधारा > किसी नये प्रयोगशील रास्ते > पर आगे बढ रही है... > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > > --------------------------------- > Be a better Globetrotter. Get better travel answers from someone who > knows. > Yahoo! Answers - Check it out. > -------------- next part -------------- > An HTML attachment was scrubbed... > URL: > http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070829/84654b5d/attachment.html > > ------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > End of Deewan Digest, Vol 55, Issue 3 > ************************************* > -- REYAZ-UL-HAQUE__________________________ prabhat khabar, old bypass road, kankarbagh, patna-20 Ph - 0612234881 - - http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070831/ffb8ef34/attachment.html