From neelimasayshi at gmail.com Fri Apr 6 17:58:26 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 6 Apr 2007 17:58:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSk4KWA4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJrgpL/gpJ/gpY3gpKDgpL7gpJXgpL7gpLDgpYAg4KSq?= =?utf-8?b?4KSwIOCkj+CklSDgpKjgpJzgpLAgLSDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSa?= =?utf-8?b?4KS/4KSf4KWN4KSg4KS+4KSV4KS+4KSwIOCkueCkv+CkguCkpuClgCA=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSCIOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOClgCA=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4oCN4KSv4KWL4KSCIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYjgpIIg?= =?utf-8?b?KOCkpeClhyk=?= Message-ID: <749797f90704060528n42d37fb1h543ede800289e33b@mail.gmail.com> भागीदार अवलोकन पद्धति यानि पार्टीसिपैंट आब्‍जर्वेशन मैथड से शोध करने में एक दिक्‍कत यह रहती है कि कब आप आब्‍जर्वर कम और पार्टीसिपैंट ज्‍यादा हो जाओ पता ही न‍हीं चलता। हमने शुरू से ही इस खतरे की ही खातिर जब इस पद्धति को अपनाया तो अपना शोध ब्‍लॉग अलग बनाया था ताकि घालमेल जितना हो सके कम हो। चिट्ठाकारी को आजकल तो काफी नजदीक से देख रही हूँ इसीलिए आज की चिट्ठाकारी पर तटस्‍थ दृष्टि से विचार में कठिनाई है इसलिए तय पाया कि अतीत की चिट्ठाकारी पर एक नजर डाली जाए और नैरेटिव्‍स इकट्ठे करें और जाने कि इन बैठे-ठालों खाते पीते घरबारी लोगों कि जिंदगी में आखिर कौन सी कमी थी कि ये चिट्ठाकारी करने आ बैठे। आज तो चलो पीठ में खुजली होती हैइसलिए लिखते हैं (और खुजली सिर्फ पीठ में नहीं होती) लेकिन तब तो अपनी पीठ भी खुद खुजानी पड़ती थी फिर क्‍यों नहीं आराम से अपनी जिंदगी जीते रहे ? तो आज का विचारणीय विषय है *हिंदी चिट्ठाकार हिंदी में चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं (थे) * हिंदी की *पहली पोस्‍ट * से मेरा पहला परिचय मसिजीवी के शोध आलेख से हुआ था। पोस्‍ट है- * "नमस्ते। क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं? यदि नहीं, तो यहाँ देखें। आलोक द्वारा प्रकाशित। * इस आलेख में मसिजीवी ने इस पोस्‍ट की तुलना नील आर्मस्‍ट्रांग के उस प्रसिद्ध 'छोटे से' कदम से की है जो मानवता के लिए एक 'ज्‍याईंट लीप' था। उसके बाद की काफी कहानी अलग अलग जगहों पर दर्ज है, आजकल जितेंद्र यह कहानी *यहाँ* *, यहाँ * और *यहाँ*सुना रहे हैं। (सराए वाले रविकांत ये ना कहें कि हमें तो पका पकाया शोध प्रबंध तैयार मिल रहा है) खैर इस पहले कदम के बाद जो जो लोग इस यात्रा में मिलते गए यानि आलोक, पद्मजा, देवाशीष चक्रवर्ती, जीतेंद्र चौधरी, ईस्वामी , पंकज नरूला, रमण कौल, रवि रतलामी, अतुल अरोरा, अनूप शुक्ला, बेंगाणी बंधु आदि वे आखिर क्‍यों लिख रहे थे, हिंदी में क्‍यों। मतलब पीठ छोडिए उनके हाथों में खुजली क्‍यों हो रही थी। जबाव पूरा तो हमारे पास नहीं है लेकिन अनुमान वही है जो मेरे शोध का विषय है- ये सब एक जाति से हैं मुलायम-माया के सरोकार की जाति नहीं वरन हिंदी जाति। हिंदी जाति का मन आपस में लिंकित होता हे इसी भाषा से। और ये सब इसे ब्‍लॉगित कर इनके लिंकित मन को ही अभिव्‍यक्ति दे रहे थे। तभी तो- जब *जितेंद्र मिडिल ईस्‍ट पहुँचते हैं*- * हिन्दी मे लिखने के लिये सबके अपने अपने कारण होंगे, क्योंकि हम सभी अंग्रेजी मे भी लिखने की क्षमता रखते है, फ़िर भी हमने हिन्दी ही चुनी। मेरे तो निम्नलिखित कारण है: हिन्दुस्तान को छोड़ते समय लगा था, शायद हिन्दी पीछे छूट गयी और अब तो बस अंग्रेजी से ही गुजारा चलाना होगा.... * ओर बेबाकी और सूक्ष्‍मता से *सुनील दीपक* कह उठते हैं- * मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं. * वैसे जितेंद्र को इस सवाल के पूछे जाने से ही मानो आपत्तिहैं (कितनी प्‍यारी आपत्ति है) * अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर गुजारी है। हँसे, गाए,रोये हिन्दी मे है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्मे देख देखकर समय काटा है, क्यों ना लिखे हिन्दी? * वैसे विदेश में बसे चिट्ठाकार इस खुजली को कहीं ज्‍यादा शिद्दत से महसूस करते हैं। मसलन *वरुण ने लिखा- * * सच यही है कि मेरे हिन्दी ब्लॉग की शुरुआत के पीछे कौतूहल ही मुख्य भावना थी (मेरे स्कूल में भी एक भावना थी, वो फिर कभी). हिन्दिनी के टूल ने मुझे बहुत प्रभावित किया था और मेरा हिन्दी ब्लॉग एक किस्म का geek's show off ही था. पर फिर मैंने महसूस किया कि हिन्दी को मैं किस कदर "मिस" कर रहा था * हम देश में रह रहे हिंदीजीवी, हिंदीखोर, हिंदी प्रेमी इसे उतनी शिद्दत से महसूस नहीं करते क्‍योंकि 'मिस' नहीं करते। उनके लिए ये मेरी हिंदी जिंदाबाद का नारा नहीं है वे तो चिट्ठा लिखते हैं क्‍योंकि बस लिखते हैं, मसलन *मसिजीवी कहते हैं * - * मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.मैं चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी. यूँ तो मैने किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे चिट्ठे लिखे हैं, जिन पर आए दिन विवाद चलते रहते हैं. * तो मित्रो आप भी सोचो और बताओ कि किसने कहॉं कहॉं बता रखा है कि वे हिंदी में चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं यदि लिंक मेल में काम न कर रहे हों तो आप इस पोस्‍ट को विस्‍तार से मेरे ब्‍लॉग http://linkitmann.blogspot.com/ पर देख सकते हैं -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070406/7c535967/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Apr 7 12:30:15 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 7 Apr 2007 12:30:15 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSk4KWA4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJrgpL/gpJ/gpY3gpKDgpL7gpJXgpL7gpLDgpYAg4KSq4KSw?= =?utf-8?b?IOCkj+CklSDgpKjgpJzgpLAgLSDgpLngpL/gpILgpKbgpYAg4KSa4KS/4KSf?= =?utf-8?b?4KWN4KSg4KS+4KSV4KS+4KSwIOCkueCkv+CkguCkpuClgCDgpK7gpYfgpIIg?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN4KSg4KS+4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkleCljeKAjeCkrw==?= =?utf-8?b?4KWL4KSCIOCkleCksOCkpOClhyDgpLngpYjgpIIgKCDgpKXgpYcgKQ==?= In-Reply-To: <749797f90704060528n42d37fb1h543ede800289e33b@mail.gmail.com> References: <749797f90704060528n42d37fb1h543ede800289e33b@mail.gmail.com> Message-ID: <200704071230.15617.ravikant@sarai.net> नीलिमा, बहुत बहुत शुक्रिया, इस बेहतरीन पोस्ट के लिए. 'हिन्दी जाति' की अवधारणा के प्रति मैं हमेशा से सशंकित रहा हूँ, इसलिए भी कि यह राष्ट्रवाद के साथ नत्थम-गुत्था रही है, पर अब जब कि आप अपने शोध से इसको खोल रही हैं, मुझे इसका परिवर्तित और परिवर्धित मूल्य समझ में आ रहा है. मज़ेदार बात यही है कि लोग जानबूझ कर हिन्दी में लिखते रहे हैं, ‌‌‌और ‌ऐसे लोगों की तादाद शायद हिन्दी जनपद में उतनी नहीं रही है जो किसी और विषय या अनुशासन से आते हों पर हिन्दी में लिखते हों, पर रामविलास जी ख़ुद, या अज्ञेय, या जोशी जी जैसे कितने लोग तो रहे हैं इस तरह के. उम्मीद है कि चिट्ठाकारी की दुनिया की आज़ादी हमें आपके ज़रिए और ऐसे नए चेहरों और उनकी कृतियों से परिचित कराती रहेगी. वैसे, हिन्दुस्तान टाइम्स और दैनिक दोनों में नीलेश मिश्रा की रपट पर जो हंगामा हुआ, उससे भी इस दुनिया की कुछ चिंताओं पर रोशनी पड़ सकती है, कि शायद यह इतना आज़ाद द्वीप भी नहीं, जितना हम समझते रहे हैं. क्या ख़याल है? बाक़ी, आपकी कड़ियों को और खँगालने पर ही कुछ और कह सकूँगा. एक बार फिर शुक्रिया. शुभेच्छा रविकान्त शुक्रवार 06 अप्रैल 2007 17:58 को, Neelima Chauhan ने लिखा था: > भागीदार अवलोकन पद्धति यानि पार्टीसिपैंट आब्‍जर्वेशन मैथड से शोध करने में एक > दिक्‍कत यह रहती है कि कब आप आब्‍जर्वर कम और पार्टीसिपैंट ज्‍यादा हो जाओ पता > ही न‍हीं चलता। हमने शुरू से ही इस खतरे की ही खातिर जब इस पद्धति को अपनाया > तो अपना शोध ब्‍लॉग अलग बनाया था ताकि घालमेल जितना हो सके कम हो। चिट्ठाकारी > को आजकल तो काफी नजदीक से देख रही हूँ इसीलिए आज की चिट्ठाकारी पर तटस्‍थ > दृष्टि से विचार में कठिनाई है इसलिए तय पाया कि अतीत की चिट्ठाकारी पर एक नजर > डाली जाए और नैरेटिव्‍स इकट्ठे करें और जाने कि इन बैठे-ठालों खाते पीते > घरबारी लोगों कि जिंदगी में आखिर कौन सी कमी थी कि ये चिट्ठाकारी करने आ बैठे। > आज तो चलो पीठ में खुजली होती > हैइसलिए लिखते > हैं (और खुजली > सिर्फ पीठ में नहीं > होती) > लेकिन तब तो अपनी पीठ भी खुद खुजानी > पड़ती थी फिर क्‍यों नहीं आराम से > अपनी जिंदगी जीते रहे ? तो आज का विचारणीय विषय है *हिंदी चिट्ठाकार हिंदी में > चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं (थे) > * > हिंदी की *पहली पोस्‍ट * > से मेरा पहला परिचय मसिजीवी के शोध आलेख से > हुआ था। पोस्‍ट है- > > * > > > "नमस्ते। > क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं? > यदि नहीं, तो यहाँ > देखें। > आलोक द्वारा प्रकाशित। > > * > > > इस आलेख में मसिजीवी ने इस पोस्‍ट की तुलना नील आर्मस्‍ट्रांग के उस प्रसिद्ध > 'छोटे से' कदम से की है जो मानवता के लिए एक 'ज्‍याईंट लीप' था। उसके बाद की > काफी कहानी अलग अलग जगहों पर दर्ज है, आजकल जितेंद्र यह कहानी > *यहाँ* > *, यहाँ * और > *यहाँ*सुना रहे हैं। (सराए वाले > रविकांत ये ना कहें कि हमें तो पका पकाया शोध प्रबंध > तैयार मिल रहा है) > खैर इस पहले कदम के बाद जो जो लोग इस यात्रा में मिलते गए यानि आलोक, पद्मजा, > देवाशीष चक्रवर्ती, जीतेंद्र चौधरी, ईस्वामी , पंकज नरूला, रमण कौल, रवि > रतलामी, अतुल अरोरा, अनूप शुक्ला, बेंगाणी बंधु आदि वे आखिर क्‍यों लिख रहे > थे, हिंदी में क्‍यों। मतलब पीठ छोडिए उनके हाथों में खुजली क्‍यों हो रही थी। > जबाव पूरा तो हमारे पास नहीं है लेकिन अनुमान वही है जो मेरे शोध का विषय है- > ये सब एक जाति से हैं मुलायम-माया के सरोकार की जाति नहीं वरन हिंदी जाति। > हिंदी जाति का मन आपस में लिंकित होता हे इसी भाषा से। और ये सब इसे ब्‍लॉगित > कर इनके लिंकित मन को ही अभिव्‍यक्ति दे रहे थे। > तभी तो- > जब *जितेंद्र मिडिल ईस्‍ट पहुँचते > हैं*- > > * > > हिन्दी मे लिखने के लिये सबके अपने अपने कारण होंगे, क्योंकि हम सभी > अंग्रेजी मे भी लिखने की क्षमता रखते है, फ़िर भी हमने हिन्दी ही चुनी। मेरे तो > निम्नलिखित कारण है: > हिन्दुस्तान को छोड़ते समय लगा था, शायद हिन्दी पीछे छूट > गयी और अब तो बस अंग्रेजी से ही गुजारा चलाना होगा.... > > * > > ओर बेबाकी और सूक्ष्‍मता से *सुनील दीपक* > कह उठते हैं- > > > * > > मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले > लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत > है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी > बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर > आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, > मालूम है हमें कि हम कौन हैं. > > * > > > वैसे जितेंद्र को इस सवाल के पूछे जाने से ही मानो > आपत्तिहैं (कितनी प्‍यारी आपत्ति > है) > > > > * > > अमां यार क्यों ना लिखे, पढे हिन्दी मे है, सारी ज़िन्दगी हिन्दी सुनकर गुजारी > है। हँसे, गाए,रोये हिन्दी मे है, गुस्से मे लोगो को गालियां हिन्दी मे दी है, > बास पर बड़्बड़ाये हिन्दी मे है। हिन्दी गीत, हिन्दी फ़िल्मे देख देखकर समय काटा > है, क्यों ना लिखे हिन्दी? > > * > > वैसे विदेश में बसे चिट्ठाकार इस खुजली को कहीं ज्‍यादा शिद्दत से महसूस करते > हैं। मसलन *वरुण ने > लिखा- > * > > > > * > > सच यही है कि मेरे हिन्दी ब्लॉग की शुरुआत के पीछे कौतूहल ही मुख्य भावना थी > (मेरे स्कूल में भी एक भावना थी, वो फिर कभी). हिन्दिनी के टूल ने मुझे बहुत > प्रभावित किया था और मेरा हिन्दी ब्लॉग एक किस्म का geek's show off ही था. पर > फिर मैंने महसूस किया कि हिन्दी को मैं किस कदर "मिस" कर रहा था > > * > > हम देश में रह रहे हिंदीजीवी, हिंदीखोर, हिंदी प्रेमी इसे उतनी शिद्दत से > महसूस नहीं करते क्‍योंकि 'मिस' नहीं करते। उनके लिए ये मेरी हिंदी जिंदाबाद > का नारा नहीं है वे तो चिट्ठा लिखते हैं क्‍योंकि बस लिखते हैं, मसलन *मसिजीवी > कहते हैं > * - > * > > मैं चिट्ठा अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे चिट्ठा लिखने की शराब की > तरह लत पड़ी हुई है.मैं चिट्ठा न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने > कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.मैं > चिट्ठा नहीं लिखता, हकीकत यह है कि चिट्ठा मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा > लिखा आदमी. यूँ तो मैने किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि > यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे चिट्ठे लिखे हैं, जिन पर आए दिन विवाद चलते रहते > हैं. > > * > > तो मित्रो आप भी सोचो और बताओ कि किसने कहॉं कहॉं बता रखा है कि वे हिंदी में > चिट्ठाकारी क्‍यों करते हैं > > > > यदि लिंक मेल में काम न कर रहे हों तो आप इस पोस्‍ट को विस्‍तार से मेरे > ब्‍लॉग http://linkitmann.blogspot.com/ पर देख सकते हैं From beingred at gmail.com Sat Apr 7 21:23:37 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 7 Apr 2007 21:23:37 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= send mailing list. Message-ID: <363092e30704070853w19568cdfs443646df92835a0c@mail.gmail.com> please send mailing list. read full interview of Arundhati roy in Hindi on http://hashiya.blogspot.com/ यह ठीक-ठीक एक युद्ध है और हर पक्ष अपने हथियार चुन रहा है : अरुंधति राय हमारे पास उग्र उपभोक्तावाद और आक्रामक लिप्सा पर पलता हुआ एक बढ़ता मध्यवर्ग है. पश्चिमी देशों के औद्योगीकरण के विपरीत, जिनके पास उनके उपनिवेश थे, जहां से वे संसाधन लूटते थे और इस प्रक्रिया की खुराक के लिए दास मजदूर पैदा करते थे, हमने खुद को ही, अपने निम्नतम हिस्सों को, अपना उपनिवेश बना लिया है. हमने अपने अंगों को ही खाना शुरू कर दिया है. लालच, जो पैदा हो रही है (और जो एक मूल्य की तरह राष्ट्रवाद के साथ घालमेल करते हुए बेची जा रही है ) केवल अशक्त लोगों से भूमि, जल और संसाधनों की लूट से ही शांत हो सकती है. हम जिसे देख रहे हैं वह स्वतंत्र भारत में लड़ा गया सबसे सफल अलगाववादी संघर्ष है-मध्यवर्ग और उच्चवर्ग का बाकी देश से अलगाव. यह एक स्पष्ट अलगाव है न कि छुपा हुआ. वे इस धरती पर मौजूद दुनिया के अभिजात के साथ मिल जाने के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं. --- क्या कोई यकीन करेगा कि नंदीग्राम के लोग धरना पर बैठ जाते और गीत गाते तो पश्चिम बंगाल सरकार पीछे हट जाती? -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070407/ac2cea3f/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Apr 11 14:22:28 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 11 Apr 2007 14:22:28 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS54KS/4KSC4KSm?= =?utf-8?b?4KWAIOCkn+CkvuCkh+CkquCkv+CkguCklw==?= Message-ID: <200704111422.29145.ravikant@sarai.net> comuter par hindi mein likhne ke aaj kai tareeqe maujood hain. unmein se kuchh tareeqon ka zikra yahan hai. ise hamne abhvyakti patrika se sabhar liya hai. yahan par zyadatar Windows operating system aur internet explorer ki charcha kii gayii vaise mera apna tajurba hai ki Windows par bhi mozilla firefox istemaal karna bharatiya bhashaon ke liye behtar hai. open office bhi mere khayal se Word se behtar kam karta hai. aur agar aap poora linux istemaal karein toh bat hi kya hai! isliye isase bhi behtar typing takneek ki darkar ho - windows ya linux par - toh aap mujhe is soochi par ya alag se likh sakte hain. is lekh ki web-kaRiyon ko dekhne ke liye is ek kari par jayein: http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/pradyogiki/2007/unicodetyping.htm cheers ravikant कंप्यूटर पर हिंदी टाइपिंग श्रीश बेंजवाल शर्मा हिंदी टाइपिंग से अनभिज्ञ बहुत से लोगों को भ्रम होता है कि कंप्यूटर पर हिंदी टाइप करने के लिए टाइपिंग सीखनी पड़ती है लेकिन यह आवश्यक नहीं है। आजकल यूनिकोड के आगमन के पश्चात हिंदी टाइपिंग हेतु कई फोनेटिक टूल उपलब्ध हैं जिनसे आप इंग्लिश में लिखेंगे और वह अपने आप हिंदी में बदल कर टाइप हो जाएगा। मैं हिंदी और इंग्लिश समान गति से लिखता हूँ जबकि मैंने हिंदी टाइप करना कभी नहीं सीखा। अतः नए लोगों को यह बात मन से निकाल देनी चाहिए कि हिंदी के लिए अलग से टाइपिंग सीखने की ज़रूरत होती है। चूँकि आजकल यूनिकोड हिंदी प्रचलन में है अतः इसी को सीखने की बात करते हैं। हिंदी दिखाई न देने की समस्या पहले बात करते हैं आपके कंप्यूटर तथा साइटों पर हिंदी टैक्स्ट दिखाई न देने की। आपके पास विंडोज़ चाहे कोई भी हो उसमें हिंदी दिखाई देने के लिए बस एक अदद यूनिकोड हिंदी फॉन्ट चाहिए। विंडोज़ एक्स पी में मंगल नाम का यूनिकोड फॉन्ट पहले से ही होता है। दूसरी विंडोज के लिए आप यहाँ से डाउनलोड कर सकते हैं। इसको डाउनलोड करके विंडोज फॉन्ट्स डायरेक्ट्री में कॉपी कर दीजिए, जो कि आमतौर पर c:\windows\fonts होती है, यह इंस्टाल हो जाएगा। अधिकतर मामलों में हिंदी न दि खाई देने का यही कारण होता है। वेबसाइटों पर हिंदी दिखाई न देने का दूसरा कारण हो सकता है आपके ब्राऊजर में Character Encoding का सही न होना। इसके लिए अपने ब्राऊज़र के View मीनू में Character Encoding को Unicode (UTF-8) पर सैट करें। इस प्रक्रिया को चित्र सहित विस्तार से यहाँ समझाया गया है। ऐसा करने के बाद आपका ब्राऊजर में हिंदी अच्छी तरह दिखाई देगी । यदि अब भी आपको हिंदी ठीक से नहीं दिख रही तो अधिक जानकारी हेतु इस लिंक पर जाएँ। हिंदी टाइपिंग अब बात आती है हिंदी टाइपिंग की। यद्यपि सामान्य ऐप्लीकेशनों जैसे वर्डप्रैड, इंटरनेट एक्सप्लोरर आदि में हिंदी टाइप करने के लिए एक यूनिकोड फॉन्ट का होना ही पर्याप्त है लेकिन विंडोज़ में हर जगह हिंदी लिखने हेतु हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं का सपोर्ट इनेबल किया जाना चाहिए। विंडोज में हिंदी सपोर्ट इनेबल करना विंडोज एक्स पी में इसके लिए Control Panel>Regional and Language Options में जाएँ। इसके बाद Languages टैब पर क्लिक करके Supplemental language support में Install files for complex script and right-to-left languages (including Thai) चैकबॉक्स को सलेक्ट करें तथा OK पर क्लिक करें। अब आपसे विंडोज़ एक्स पी की सीडी माँगी जाएगी जिसके उपरांत इंस्टालेशन प्रकिया संपन्न होगी। उपरोक्त प्रक्रिया विस्तार से अन्य सभी ऑपरेटिंग सिस्टमों सहित विकिपीडिया पर इस लेख में विस्तार पूर्वक समझाई गई है: Help Multilingual support (Indic) एक बार ऐसा कर लेने के बाद आप विंडोज़ में सभी यूनिकोड समर्थित ऐप्लीकेशनों आदि समेत हर जगह हिं दी में लिख सकते हैं यहाँ तक कि फ़ाइलों के नाम भी हिंदी में दे सकते हैं। हिंदी टाइपिंग की विधियाँ हिंदी टाइपिंग की वैसे तो कई विधियाँ हैं पर प्रचलन में निम्न तीन हैं : 1. रेमिंगटन टाइपिंग: यह वाला सबसे पुराना और अब काफ़ी हद तक आउटडेटेड तरीक़ा है। यह एक टच टाइपिंग विधि है। इसके लिए पहले से टाइपराइटर पर हिंदी टाइपिंग सीखी होनी चाहिए। यह सिर्फ़ उनके लिए उपयोगी है जिन्होंने पहले से टाइपराइटर पर हिंदी टाइपिंग सीखी हो तथा इसके अभ्यस्त हों। कंप्यूटर पर नए सिरे से सीखने हेतु यह उपयुक्त नहीं। 2. इनस्क्रिप्ट टाइपिंग: इसका विकास भारत सरकार के राजभाषा विभाग ने किया था। यह भी एक टच टाइपिंग प्रणाली है। यह विधि भारतीय भाषाओं में टाइपिंग की सर्वाधिक वैज्ञानिक विधि है। इस विधि से कंप्यूटर पर सर्वाधिक गति से हिंदी टाइप की जा सकती है। यद्यपि यह हिंदी टा इपिंग की सर्वश्रेष्ठ विधि है लेकिन इसके लिए भी कुछ समय (एकाध हफ्ते से लेकर महीने तक) अभ्यास करना पड़ता है। 3. फोनेटिक टाइपिंग: यह हिंदी टाइप करने का सबसे आसान तथा वर्तमान में सर्वाधिक प्रचलित तरीक़ा है। इसकी ख़ासियत है कि इसे सीखने में बिल्कुल समय नहीं लगता। आप सीधे हिंदी में लिखना शुरू कर सकते हैं। उदाहरण के लिए आपको 'राम' लिखना है तो आप टाइप करेंगे 'raama'। यह भारती य भाषाओं के ध्वन्यात्मक गुण (Phonetic Property) पर आधारित हैं अर्थात ''जैसा बोला जाता है वैसे ही लिखा जाता है''। अतः इंटरनेट पर अधिकतर हिंदी प्रयोगकर्ता इसी विधि का उपयोग करते हैं। अधिकतर नई साइटें तथा सॉफ्टवेयर भी इसी को अपना रहे हैं तथा अतः अब मैं इसी के बारे में चर्चा करूँगा। फोनेटिक हिंदी टाइपिंग के लिए दो तरह के टूल उपलब्ध हैं: ऑनलाइन और ऑफ़लाइन * ऑनलाइन टूल: ऑनलाइन वालों में आप टूल की साइट पर जाकर वहाँ हिंदी में टाइप करके फिर उसे कॉपी करके जहाँ लिखना हो वहाँ पेस्ट करते हैं। इसलिए यह तरीका उपयुक्त नहीं, इसमें कॉपी पेस्ट का झंझट है। दूसरा चूँकि ये टूल अधिकतर सर्वर पर आधारित होते हैं अतः इनकी टाइपिंग स्पीड कम होती है। इन टूल का एकमात्र लाभ यह है कि अपने कंप्यूटर से दूर होने पर (घर से बाहर आदि) आप बिना कोई टूल डाउनलोड किए साइट पर जाकर हिंदी लिख सकते हैं। उदाहरण के लिए हिंदिनी तथा यूनीनागरी नामक टूल। इस टूल द्वारा हिंदी टाइप का डेमो देखने हेतु QuillPad पर जाए। * ऑफलाइन टूल: दूसरी ओर ऑफलाइन टूल को एक बार डाउनलोड करके उससे किसी भी विंडोज़ ऐप्लीकेशन जैसे वर्डपैड, IE, गूगल टॉक आदि में कहीं भी सीधे हिंदी लिख सकते हैं। इस तरह के टूल्स को फोनेटिक IME (Input Method Editor) कहा जाता है। नियमित प्रयोग के लिए यही टूल उपयुक्त होते हैं। इन टूल्स की स्पीड तेज़ होने के साथ ही इनके द्वारा लिखना कहीं अधिक सुविधाजनक होता है। इसके अतिरिक्त इनमें कई अन्य फंक्शन भी होते हैं। तीन सर्वाधिक प्रचलित IME हैं: Baraha IME, HindiWriter तथा Hindi Indic IME तीनों की अपनी अपनी खूबियाँ (Pro) तथा कमियाँ (Cons) हैं। इस बारे में विस्तार से जानने के लिए यह तुलनात्मक समीक्षा पढ़िए। HindiWriter केवल हिंदी के लिए है। BarahaIME अधिकतर भारतीय भाषाओं में कार्य करता है। Indic IME में हिंदी के लिए Hindi Indic IME यहाँ से डाउनलोड करें, अन्य भाषाओं के लिए यहाँ जाएँ। Indic IME में रेमिंगटन तथा इनस्क्रिप्ट के कीबोर्ड भी हैं। अगर आपको इनमें से कोई टाइपिंग पहले से आती है तो Indic IME प्रयोग करें। रेमिंगटन के लिए तो एकमात्र विकल्प यही है, इनस्क्रिप्ट के लिए विंडोज़ एक्स पी तथा विंडोज़ विस्टा में अंतनिर्मित डिफॉल्ट कीबोर्ड भी होता है। BarahaIME उपरोक्त तीनों में सरलतम टूल है। इसे डाउनलोड तथा इंस्टाल करें। Run करने पर BarahaIME का Icon आपके Taskbar में System Tray में आ जाएगा। System Tray Icon पर रा इट क्लिक करिए तथा Language > Hindi चुनिए। अब आप हिंदी में टाइप करने के लिए तैयार हैं। कोई भी शब्द हिंदी में टाइप करने हेतु उसकी समांतर स्पैलिंग इंग्लिश में टाइप कीजिए, उदाहरण के लिए 'मेरा भारत महान' लिखने के लिए टाइप कीजिए 'meraa bhaarata mahaana'. हिंदी तथा अंग्रेज़ी में Switch करने के लिए F11 या F12 कुँजी का प्रयोग करें अर्थात एक साथ दोनों भाषाओं में लिखा जा सकता है। BarahaIME द्वारा हिंदी टाइपिंग की विधि इस Quick Start Guide में चित्रों समेत अच्छी तरह बताई गई है। एकाध हफ्ते में ही आपकी अच्छी स्पीड बन जाएगी और समय के साथ बढ़ती जाएगी। अंत में अधिक क्या कहूँ हिंदी में लिखने का आनंद तो इसका प्रयोग शुरू करने के बाद ही समझा जा सकता है। अन्य ऑपरेटिंग सिस्टम लिनक्स के अधिकतर नए संस्करणों में रेमिंगटन, फोनेटिक तथा इनस्क्रिप्ट तीनों प्रकार के कीबोर्ड अंतर्निमित होते हैं। मैकिंटोश हेतु केवल इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड उपलब्ध है। इन दोनों के बारे में सर्वज्ञ विकी पर जानकारी उपलब्ध कराए जाने के प्रयास चल रहे हैं। हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग संबंधी जानकारी के लिए तीन बहुत उपयोगी साइटें हैं एक तो परिचर्चा हिंदी फोरम जो कि विश्व में पहली फोरम है जो पूर्णतया देवनागरी लिपि में है। दूसरी नारद नामक साइट जो सभी हिंदी ब्लॉगों की फीड को एक जगह दिखाती है। तीसरा है सर्वज्ञ नामक विकी जिस पर हिंदी टाइपिंग और ब्लॉगिंग के बारे में काफ़ी जानकारी मौजूद है। ये सभी साइटें पूरी तरह अव्यवसायिक तथा लाभरहित हैं जो इंटरनेट पर हिंदी के प्रचार-प्रसार से जुड़ी हैं। हिंदी टाइपिंग संबंधी किसी भी मदद के लिए आप मुझे ई-मेल कर सकते हैं या परिचर्चा हिंदी फोरम में हिंदी लिखने मे सहायता नामक सबफोरम में पूछ सकते हैं। Baraha संबंधी मदद के लिए यह थ्रेड ख़ास तौर पर बनाया गया है। इस लेख का नवीनतम संस्करण यहाँ पर उपलब्ध है। नीचे दिए गए कुछ लिंक भी हिंदी टाइपिंग हेतु उपयोगी हैं। * Quick Start Guide for Reading and Writing (Typing) Hindi Text * बारहा, हिंदीराइटर तथा इंडिक IME की तुलनात्मक समीक्षा * Can't See in Hindi सर्वज्ञ – हिंदी विकी पर * हिंदी कैसे लिखें - सर्वज्ञ - हिंदी विकी पर * हिंदी लिखने में सहायता - परिचर्चा - हिंदी फोरम पर * Setting up your browser for Indic scripts - हिंदी विकिपीडिया पर * Enabling Complex Text Support for Indic Scripts - विकिपीडिया पर From bhagwati at sarai.net Wed Apr 11 14:33:25 2007 From: bhagwati at sarai.net (bhagwati at sarai.net) Date: Wed, 11 Apr 2007 11:03:25 +0200 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: [Reader-list] Fwd: Nandigram meet with WBengal activists Message-ID: <273595f8175b5a2e56a11dda47bcb12e@sarai.net> SCHOLARS FOR CRITICAL PRACTICE (Delhi University) Invites you to a discussion on "Left Politics After Nandigram" Speakers: Vaskar Nandy (trade unionist) Sumit Chowdhury (film-maker and journalist) Chair: Tanika Sarkar The speakers are West Bengal-based activists who have been involved in the struggle in Singur and Nandigram and are in Delhi briefly. Date: April 14, 2007 Time: 11 am Venue: Department of Political Science (2nd floor, New Arts Faculty Building, Delhi University) Apoorvanand, Madhulika Banerjee, Satish Deshpande, Dilip Menon, Nivedita Menon, Prabhu Mohapatra, Ujjwal Kumar Singh, Nandini Sundar, Achin Vanaik Aditya Nigam XB-7 Sah-Vikas Apts, 68 Patparganj, Delhi-110092 Tel: 2223 1855 (R), 3942199, 3951190 (O) _________________________________________ From zaighamimam at gmail.com Sun Apr 15 10:59:11 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sun, 15 Apr 2007 10:59:11 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSq4KSo4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClgCDgpLDgpYfgpLIsIOCkquCkueCksuCkviDgpKrgpL4=?= =?utf-8?b?4KSw4KWN4KSfIOCksuClh+CkleCksCDgpLngpL7gpJzgpL/gpLAg4KS5?= =?utf-8?b?4KWC4KSC?= Message-ID: नमस्‍कार ''सपनों की रेल'' का पहला पार्ट लेकर हाजिर हूं। इलाहाबाद से जौनपुर (एजे) और इलाहाबाद से फैजाबाद (एएफ) के बीच चलने वाली पैसेंजर रेलों का इतिहास और वर्तमान खंगालने से जुडे इस शोध में पहली ही बार कई रोचक जानकारियां हाथ लगीं। तथ्‍यों का नीरस अंबार भी मिला है, लेकिन कोशिश यही रहेगी कि मजेदार पक्ष को उभार सकूं। विषय पूरी तरह समझ आ जाए इसलिए हर पहलू पर फोकस करने की कोशिश है। सुविधा के लिए जानकारियों बिंदुवार प्रस्‍तुत कर रहा हूं। पटरी पर रेल एजे और एएफ की शुरुआत 1940 के करीब (करीब इसलिए क्‍योंकि आधिकारिक आंकडा रेलवे के पास भी मौजूद नहीं है) हुई। आजादी की तमाम गहमागहमियों के बावजूद अंग्रेजों ने इस सवारी गाडी को हरी झंडी दिखाई। वजह थी उनका अपना पूरब का आक्‍सफोर्ड(इलाहाबाद विश्‍वविद्यालय स्‍थापना 1985, अब केंद्रीय विश्‍वविद्यालय) जो शिक्षा का बडा केंद्र होने के बावजूद अपने ही नजदीकी जिलों जौनपुर, सुल्‍तानपुर, प्रतापगढ और फैजाबाद (ये जिले अपनी जमीदारी रियासतों के लिए मशहूर रहे हैं। प्रतापगढ के राजा भईया इसका एक उदाहरण हैं)से कटा था। जमीदारों के होनहार बच्‍चे अपनी गाडियों में झटपट इलाहाबाद तक का सफर तय कर लिया करते थे, लेकिन यहां बसने वाले प्रगतिशील किसानों और दूसरे वर्गों को इलाहाबाद तक पहुंचने में पसीने छूट जाते थे। सडक बेहद खराब थीं।(सडकों की हालत अभी भी बेहद खस्‍ता है) इलाहाबाद के 100 किलोमीटर के दायरे में आने वाले इन जिलों से यहां तक पहुंचने के लिए दिनभर लग जाता था। उस समय इलाहाबाद से गुजरने वाली मेन लाइन ( दिल्‍ली-हावडा रेल मार्ग) से एक लाइन (इलाहाबाद जंक्‍शन से )इन जिलों के लिए भी निकलती थी। मगर इस लाइन पर सवारी गाडियां नहीं अंग्रेजों का दस्‍ता घूमता रहता था। मांग उठी कि इस लाइन से सवारी गाडियां चलाई जाएं, अंग्रेजों ने मेहरबानी की और इन दो पैसेंजर रेलों को हरी झंडी दिखा दी गई। इन रेलों की शुरुआत में इलाहाबाद के संगम और हाईकोर्ट का भी खासा योगदान है। (इनकी व्‍याख्‍याएं अगली पोस्टिंगों में की जाएंगीं) फुस्‍स भाप की शक्ति और डीजल इंजन 1993 तक इन दोंनो पैसेंजर रेलों को खींचने की जिम्‍मेदारी बूढे होकर यार्ड में सडने वाले भाप के इंजनों की थी। भाप इंजन यानि जेम्‍स वाट इंजन। टनों कोयला खा खाकर दौडने वाले इंजन की खासियत यह थी इसे चलने के बजाय रुकना पंसद था, इंजन बार बार फेल भी हो जाते थे। 1985 से 1993 के बीच इंजन फेल होने की घटनाओं में बेतहाशा बढोत्‍तरी हुई। रेलवे की नाक में दम हो गया। फैसला किया गया कि इन इंजनों को तुरंत बदल दिया जाए। और वाकई इंजन बदल दिए गए। वाराणसी लोकोमोटिव कारखाने के डीजल इंजनों को रेल के डिब्‍बों में जोड दिया गया। यह एतिहासिक बदलाव था। डिब्‍बा या लोहे का कबाड अमूमन आठ डिब्‍बों वाली इन रेलों में डिब्‍बों की संख्‍या बदलती रहती है, नहीं बदलता तो सिर्फ उनका हुलिया। दोंनो रेलों के लिए डिब्‍बों की व्‍यवस्‍था करना उत्‍तर रेलवे (लखनऊ मंडल) की जिम्‍मेदारी है। जहां से मेल और एक्‍सप्रेस रेलों से खारिज हो चुके जनरल कोच के डिब्‍बे इन रेलों में लगाने के लिए आते हैं। ये डिब्‍बे ऐसे डिब्‍बे होते हैं जिनकी गिनती कबाड में की जाती है। पैच वर्क के जरिए डिब्‍बों में जान डालने की कोशिश जरुर होती है मगर फ‍िर भी, खिडकी की गायब राड, उखडी सीटें, नदारद बेसिन, गुम हो चुके पंख, बल्‍ब्‍ा असलियत बयान कर देते हैं। रही सही कसर पूरी करते हैं इनमें सफर करने वाले होनहार यात्री जो रेल के देरी से चलने से लेकर अपनी निजी जिंदगी का गुस्‍सा भी इन्‍हीं डिब्‍बों पर उतारते हैं। रनिंग स्‍टाफ रेल के लिए आधिकारिक रुप से तीन स्‍टाफ होता है। चालक, परिचालक और गार्ड। ये सभी एक प्रमोशन (गुड्स रेल से पैसेंजर रेल में) पाकर इन रेलों को चलाने योग्‍य बनते हैं। रेल संचालन के क्षेत्र में इन्‍हें 5-8 साल तक का अनुभव होता है। आमतौर पर दूसरी सभी रेलों में रनिंग स्‍टाफ के तौर पर टीटीई की नियुक्ति भी होती है, मगर नहीं इसमें चेकिंग जैसा कोई प्रावधान नहीं है। सफर के साथी रेल की सफर के साथी यानि यात्री 70 प्रतिशत छात्र हैं। दूसरे लोगों में काम की तलाश में इलाहाबाद आने वाले मजदूर, इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील और तीसरे दर्जे के सरकारी कर्मचारी शामिल हैं। कमाई के लिए मुंबई, दिल्‍ली, गुजरात और कलकत्‍ता जैसे शहरों को जाने वाले गंवई मजदूर भी इलाहाबाद आने के लिए (क्‍योंकि उनके यहां से सीधे बडे शहरों को रेल नहीं जाती )इन्‍हीं रेलों का सहारा लेते हैं। आईए मिलें इलाहाबाद-जौनपुर पैसेंजर यानि अपनी एजे से तकनीकी पहूल इलाहाबाद से जौनपुर के बीच एजे रोज 2 चक्‍कर मारती है । अप यानि इलाहाबाद-जौनपुर के बीच गाडी नंबर होता है 1एजे और 3 एजे। जबकि डाउन यानि जौनपुर से इलाहाबाद के बीच इनका नाम 2 एजे और 4 एजे हो जाता है। 95 किलोमीटर के अपने रुट के दौरान रेल कुल 16 बार रुकती है। यह सारे स्‍टापेज आधिकारिक है। ज्‍यादातर स्‍टापेज 2 मिनट के हैं। तीन स्‍टापेजों प्रयाग, जंघई और जफराबाद में रेल क्रमश: 5, 30 और 10 मिनट के लिए खडी होती है। 1एजे सुबह 5:20 पर इलाहाबाद से चलती है। 3 एजे का समय शाम के 5:00 बजे निर्धारित है। वापसी में यानि जौनपुर से चलने वाली 2 एजे सुबह 5:20 पर चलती है। 4 एजे का समय शाम 5:00 बजे का है। यह कैसी स्‍पीड रेलवे के नियमों के मुताबिक रेल की न्‍यूनतम स्‍पीड 45 किलोमीटर प्रतिघंटा है, लेकिन 95 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए 4:30 घंटे का आधिकारिक टाइमटेबल बनाया गया है। स्‍टापेजों को लेकर देखें को समय का 1 घंटा 17 मिनट रुकने में खर्च होता। यानि रेल 3 घंटे 13 मिनट लगातार दौडती रहती है। इस हिसाब रेल की चाल 30 किलोमीटर प्रतिघंटे से भी कम बैठती है। साफ है रेलवे का कानून खुद उसी के लिए मजाक है। रुकना ही जिंदगी है पैसेंजर रेल अपने सफर के दौरान रोजाना कम से 20 से भी अधिक बार चेन पुलिंग का सामना करती है। सिंगल टै्क होने की वजह से एक दर्जन गाडियों को जिनमें मालगाडियां प्रमुख रुप से शामिल हैं इसे रोककर पास दिया जाता है। रेल नियमित रुप से दो घंटे तक विलंबित रहती है। एक सरसरी निगाह स्‍टेशनों पर इलाहाबाद--------1: प्रयाग 2: फाफामऊ 3: थरवई 4: सराय चंडी 5: फूलपुर 6: उग्रसेनपुर 7: बरियाराम 8: जंघई 9: जरौना 10: बरसेटी 11: भनौर 12: बारीगांव नवादा 13: मरियाहूं 14: शुदनीपुर 15: सलखापुर 16: जफराबाद------जौनपुर --------------अगली पोस्टिंग में पैसेंजर रेल कैसे बनी सपनों की रेल, गंवारों की इंजीनियरिंग का शानदार नमूना, ''एसीपी'' की अनूठी परंपरा और अभी भी जिंदा है अंग्रेजियत। और हां अपनी एएफ से मिलना न भूलिएगा। धन्‍यवाद सैयद जैगम इमाम -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070415/985b8f66/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Apr 16 15:19:03 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 16 Apr 2007 15:19:03 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS24KSs4KWN4KSm?= =?utf-8?b?4KSV4KWL4KS2IOCkleCkviDgpJzgpKjgpY3gpK4=?= Message-ID: <200704161519.03799.ravikant@sarai.net> दोस्तो, अभिव्यक्ति से साभार. यह सूत्र मैं इसलिए भी शुरू कर रहा हूँ, क्योंकि शब्दकोश हममें से हर कोई इस्तेमाल करता है, कोई कम और कोई थोड़ा ज़्यादा. और हमारी अपनी पसंद-नापसंद भी होती है, किसी को बुल्के साहब अच्छे लगते हैं, किसी को बाहरी साहब. हमारे यहाँ भी कोश-निर्माण की पुरानी परंपरा है, जो अमरकोश और दीगर प्राचीन निघंटुओं तक जाती है. उर्दूदाँ लोग फ़रहंगे आसफ़िया का नाम बड़े आदर से लेते हैं, तो हिन्दुस्तानी-अंग्रेज़ी के संदर्भ में मैं फ़ैलन के कोश का फ़ैन हूँ. ये मिसा ल मैं इशारतन दे रहा हूँ पर चाहता हूँ कि ज़्यादा से जानकारी इस सूची पर इकट्ठा हो सके. आपके पास अगर ऑनलाइन डिक्शनरियों की कड़ियाँ हों तो कृपया अपनी टीका के साथ भेजें. सबसे पहले तो मैं यह जानना चाहूँगा कि आपने किन कोशों से अपना रिश्ता बनाया, अपने बौद्धिक विकास के किस पड़ाव पर और क्यों, किसी को दरकिनार किया तो क्यों. थोड़ा सा वक़्त निकालें, यह बहस निहायत दिलचस्प होगी. शब्दकोश का जन्म अशोक श्री श्रीमाल आज जब हमें किसी कठिन शब्द के अर्थ, भावार्थ या मायने जानने की ज़रूरत पड़ती है, तो हम तत्काल शब्दकोष का सहारा लेते हैं। 'शब्द कोष' अथवा 'डिक्शनरी' आज ज़िंदगी का एक आम हिस्सा बन चुकी है। विभिन्न भाषाओं के विभिन्न आकार-प्रकार में आज शब्दकोष जिज्ञासु लोगों की ज्ञान-पिपासा शां त करने हेतु मौजूद हैं। क्या आपने सोचा है कि संबंधित भाषा के हज़ारों-लाखों शब्दों और उनके सही अर्थों को एक स्थान पर संकलित करने की यह नितांत मौलिक परिकल्पना आख़िर थी किसकी? कौन है वह शख़्स, जिसने सर्वप्रथम इस कठिन और दुष्कर कार्य को करने के लिए शब्दों का संग्रह किया? स्नातक नहीं बन सका अठारहवीं शताब्दी के शुरुआती दौर में लगभग पूरे विश्व में शिक्षा और साहित्य का विकास अपने चरम-बिंदु पर था। मुद्रण-कला का आविष्कार और छापेखानों की शुरुआत ने ज्ञान-प्राप्ति के साधनों में क्रांति पैदा कर दी थी। लोगों की जिज्ञासा दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी। ऐसे दौर में सि तंबर, 1709 में लिवफ़ील्ड में एक पुस्तक विक्रेता के घर एक बालक का जन्म हुआ। उसका नाम था सैमुअल जानसन। जानसन के पिता एक निर्धन व्यक्ति थे। बचपन में जानसन बहुत बीमार पड़ गया। जब उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हुआ, तो उसके पिता उसे इलाज के लिए लंदन ले गए। लंबे उपचार के बाद जा नसन ठीक तो हो गया, किंतु उसका चेहरा स्थायी रूप से ख़राब हो गया। यहाँ तक कि उसे अपनी एक आँख से भी हाथ धोना पड़ा। जानसन की ज़िंदगी का काफ़ी बेशकीमती हिस्सा बीमारी की भेंट चढ़ गया। इसके अतिरिक्त पैसों के अभाव ने भी उसकी शिक्षा को प्रभावित किया। सन 1728 में उन्नीस वर्ष की आयु में जानसन अपने एक अमीर मित्र द्वारा सहायता का आश्वासन पाकर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में अध्ययन हेतु जा पहुँचा। किंतु मित्र द्वारा सहायता नहीं दिए जाने के का रण जानसन को ऑक्सफ़ोर्ड से बिना स्नातक की उपाधि लिए वापस लौटना पड़ा। लिवफ़ील्ड लौटने के पश्चात आजीविका की समस्या जानसन के सामने मुँह बाये खड़ी थी। उसने सन 1736 में एडियल में एक स्कूल की शुरुआत की। लेकिन उसे मात्र तीन छात्र मिल पाए। अध्यापकीय जीवन से जानसन को भले ही आर्थिक लाभ न हुआ हो, मगर उसे अपने तीन विद्यार्थियों में से एक डेविड गैरिक के रूप में अच्छा सहयोगी प्राप्त हुआ। यह वही गैरिक था, जो बाद में विश्व-विख्यात अभिनेता बना। स्कूल की असफलता के बाद जानसन डेविड गैरिक को साथ लेकर लंदन चला आया। सन 1738 में अत्यंत नि र्धनता के बीच उसकी पहली पुस्तक 'लंदन एं पोएम इन-इमिटेशन ऑफ थर्ड सेटायर ऑफ जुनेबल' छपी, जिसे अच्छी लोकप्रियता तो मिली, मगर जानसन के लिए यह आर्थिक रूप से अधिक लाभप्रद नहीं हो सकी। सन 1744 ई. में जानसन की दूसरी क़ृति 'लाइफ़ ऑफ रिचर्ड' बाज़ार में आई। शब्दकोश निर्माण की घोषणा लेखक बनना शायद जानसन का उद्देश्य नहीं था। वह तो जैसे किसी और ही काम के लिए दुनिया में आया था। उसके कल्पनाशील मस्तिष्क में सृजित होनेवाली योजना सन 1747 में उसके द्वारा अंग्रेज़ी भाषा के शब्दकोष की घोषणा के रूप में सामने आई। इसके बाद तो सैमुएल जानसन बिलकुल समर्पण भाव से इस का र्य में जुट गया। लगातार आठ वर्षों तक वह शब्द संकलन के कार्य में जुटा रहा। वह रात-रात भर जा गकर शब्दकोष तैयार करने में तल्लीन रहता। इस दौरान वह खाने-पीने की भी सुध भुला बैठा। इसी बीच सन 1952 में अपनी पत्नी पार्टर के आकस्मिक निधन से जानसन को ज़बर्दस्त मानसिक आघात लगा । मगर उसने अपने शब्दकोष निर्माण के कार्य में शिथिलता न आने दी। अतः उसकी मेहनत रंग लाई और सन 1755 में दुनिया का पहला शब्दकोष प्रकाशित हुआ। इस शब्दकोष ने जानसन को सचमुच अमर कर दिया। शब्दकोष के कारण जानसन को इतनी अधिक लोकप्रियता अर्जित हुई कि शब्दकोष के बीस सालों बाद सन 1775 में उसी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने जानसन को ससम्मान 'डॉक्टर ऑफ लॉ' की मानद उपाधि से सम्मानित किया, जहाँ से तक़रीबन 50 साल पहले धन के अभाव में उसे बिना डिग्री के खाली हाथ लौटना पड़ा था। इस ज़िंदादिल मस्तमौला शख़्स ने साहित्य संसार को शब्दकोष की परिकल्पना के रूप में अनुपम तोहफ़ा दिया। सन 1784 में 77 वर्ष की अवस्था में सैमुएल जानसन हमेशा के लिए इस संसार से चल दिया। http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/sanskriti/shabdkosh.htm 16 अप्रैल 2007 From beingred at gmail.com Wed Apr 18 10:21:55 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 18 Apr 2007 10:21:55 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSvIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkteCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: <363092e30704172151t18ba42afo93d0354130b45d47@mail.gmail.com> कौन ज्यादा कौन कम जय गोस्वामी मेरी समझ है कि वह मुख्यमंत्री खुद भी अकेला होते ही शोग्रस्त हो जाते हैं. -नंदीग्राम के बारे में सुनील गंगोपाध्याय, आनंद बाजार पत्रिका, 16 मार्च, 07 ताकि पहचान न करा सके इसलिए जिसकी जीभ उन्होंने काट ली बलात्कार के बाद दोनों हाथों से दोनों पैरों को पकड़ फाड़ डाला गया जिसके नवजात बच्चे को, जिसके पति की गरदन काट कर फेंक दी गयी आंगन के किनारे, मर गया, फिर भी मुंह में पानी नहीं देने दिया गया, उन महिलाओं के भीतर शोक की जो आग जल रही है उसे अलग रखो उस शासक की दो घंटे की उदासी, जिसने गोली चलाने का हुक्म दिया था फिर नाप लो कौन ज्यादा हेै, कौन कम सोचो, किसने कहा था जीना हराम कर दूंगा अगर जरूरत हुई, तो जान से मार डालूंगा, जान से...` इतना ही तो कहा था तभी मोर के मुंह से आ गया खून फिर वह नाचते हुए परिक्रमा करने लगा श्मशानों की उसके नृत्य से गिरने लगे हर दिशा में जलते पंख... ऐसी ही कुछ और कविताएं पढ़ने के लिए आयें. http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070418/1f962ad4/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Apr 18 10:23:52 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 18 Apr 2007 10:23:52 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Deewan Digest, Vol 37, Issue 1 In-Reply-To: References: Message-ID: <363092e30704172153x1b72c92dv7046d0ceece6ef2f@mail.gmail.com> कौन ज्यादा कौन कम जय गोस्वामी मेरी समझ है कि वह मुख्यमंत्री खुद भी अकेला होते ही शोग्रस्त हो जाते हैं. -नंदीग्राम के बारे में सुनील गंगोपाध्याय, आनंद बाजार पत्रिका, 16 मार्च, 07 ताकि पहचान न करा सके इसलिए जिसकी जीभ उन्होंने काट ली बलात्कार के बाद दोनों हाथों से दोनों पैरों को पकड़ फाड़ डाला गया जिसके नवजात बच्चे को, जिसके पति की गरदन काट कर फेंक दी गयी आंगन के किनारे, मर गया, फिर भी मुंह में पानी नहीं देने दिया गया, उन महिलाओं के भीतर शोक की जो आग जल रही है उसे अलग रखो उस शासक की दो घंटे की उदासी, जिसने गोली चलाने का हुक्म दिया था फिर नाप लो कौन ज्यादा हेै, कौन कम सोचो, किसने कहा था जीना हराम कर दूंगा अगर जरूरत हुई, तो जान से मार डालूंगा, जान से...` इतना ही तो कहा था तभी मोर के मुंह से आ गया खून फिर वह नाचते हुए परिक्रमा करने लगा श्मशानों की उसके नृत्य से गिरने लगे हर दिशा में जलते पंख... ऐसी ही कुछ और कविताएं पढ़ने के लिए आयें http://hashiya.blogspot.com/ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070418/11f5706b/attachment.html From beingred at gmail.com Wed Apr 18 10:27:13 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Wed, 18 Apr 2007 10:27:13 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSc4KSvIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkleCkteCkv+CkpOCkvg==?= Message-ID: <363092e30704172157y6411eb61r4d0517913a063b01@mail.gmail.com> send mailing list please. कौन ज्यादा कौन कम जय गोस्वामी मेरी समझ है कि वह मुख्यमंत्री खुद भी अकेला होते ही शोग्रस्त हो जाते हैं. -नंदीग्राम के बारे में सुनील गंगोपाध्याय, आनंद बाजार पत्रिका, 16 मार्च, 07 ताकि पहचान न करा सके इसलिए जिसकी जीभ उन्होंने काट ली बलात्कार के बाद दोनों हाथों से दोनों पैरों को पकड़ फाड़ डाला गया जिसके नवजात बच्चे को, जिसके पति की गरदन काट कर फेंक दी गयी आंगन के किनारे, मर गया, फिर भी मुंह में पानी नहीं देने दिया गया, उन महिलाओं के भीतर शोक की जो आग जल रही है उसे अलग रखो उस शासक की दो घंटे की उदासी, जिसने गोली चलाने का हुक्म दिया था फिर नाप लो कौन ज्यादा हेै, कौन कम सोचो, किसने कहा था जीना हराम कर दूंगा अगर जरूरत हुई, तो जान से मार डालूंगा, जान से...` इतना ही तो कहा था तभी मोर के मुंह से आ गया खून फिर वह नाचते हुए परिक्रमा करने लगा श्मशानों की उसके नृत्य से गिरने लगे हर दिशा में जलते पंख... ऐसी कुछ और कविताओं के लिए आयें http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070418/5e739ef0/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Apr 18 17:51:36 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 18 Apr 2007 17:51:36 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fwd: Hindi blogging kaise karein Message-ID: <200704181751.36424.ravikant@sarai.net> shaayad aapmein se kuchh logon ko iske bare mein pata ho. lekin jinhein pata nahin hai aur jo roman mein hindi likhne ke aadee hain (jaise ki abhi main kar raha hUn), toh ve avashya is link par jaakar baqui links bhi dekh lein. saral hai. cheers ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Hindi blogging Date: बुधवार 18 अप्रैल 2007 13:41 From: "Shivam Vij" To: Ravikant http://googleblog.blogspot.com/2007/04/now-you-can-blog-in-hindi.html ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Thu Apr 19 14:19:10 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 19 Apr 2007 14:19:10 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= tech-charcha Message-ID: <200704191419.11228.ravikant@sarai.net> हिन्दी चिट्ठाजगत में अब जमकर टेक-चर्चा होने लगी है. पेश है ऐसे ही एक नए ब्लॉग की कड़ी, जो चिट्ठाकार की अपनी टेक-यात्रा की एक झाँकी भी है. यहाँ जिस रवि का ज़िक्र है, वह हैं रवि रतलामी, जो इस सूची पर भी बाक़ायदा मौजूद हैं. मज़े लें रविकान्त http://kkarnatak.wordpress.com/2007/04/19/intro_1/ मैं और हिन्दी लेखन April 19th, 2007 · रवि जी ने कुछ रैगिंग लेने के अंदाज में पूछा …. “चलिए हमें बताएं कि आप इस चिट्ठे पर हिन्दी में कैसे लिखते हैं, सरल तरीका क्या है और यदि आप लिनक्स में हिन्दी लिखने का कोई सरल तरीका बता सकते हैं तो बताएं ” . ये रैगिंग भी थी और मेरी क्षमताओं को जानने की कोशिश भी. रवि जी भले ही मुझे ना जानते हों पर मैं उन्हें जानता हूँ विभिन्न कंप्यूटर पत्रिकाओं में छ्पते उनके लेखों से. अभी इसी महीने “लिनक्स फॉर यू” में भी उनका लेख छ्पा है . उनका लिनक्स के हिन्दी-करण में भी काफी योगदान रहा है. तो वो यदि पूछें लिनक्स और हिन्दी के बारे में थोड़ा आश्चर्य होता है. ये सवाल तो मैने आपसे पूछ्ना है रवि जी. वैसे उन्मुक्त जी भी बता सकते हैं. जहां तक मेरा सवाल है मैं बताता हूँ अपने बारे में ( ज्ञानदत्त पाण्डे जी भी यही जानना चाहते हैं ). मेरा कंप्यूटर और हिन्दी से बहुत पुराना नाता है. मैं चिट्ठाजगत ( हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ) से अरसे से जुड़ा हुआ हूँ लेकिन सिर्फ एक पाठक की हैसियत से. इसलिये लगभग सभी को इस माध्यम से जा नता हूँ. जहां तक हिन्दी की बात है हिन्दी मेरी मातृभाषा है . कंप्यूटर पर हिन्दी की जरूरत मुझे पड़ी सन 1996 में . मैं एक मैनुफेक्चरिंग कंपनी में काम करता था वहां हम लोग मजदूरों के लिये ट्रेनिंग मैनुअल बनाते थे जो कि हिन्दी में होते थे . ये सब उन दिनों बाहर से टाइप करवाने पड़ते थे. इसमें एक तो समय बहुत लगता था और फिर एक बार बनने के बाद उनको बदलना बहुत मुश्किल होता था .तो हम चाहते थे कि इसको कंप्यूटर में ले के आना . उस समय माइक्रोसोफट वर्ड उतना पॉपुलर नहीं था . हम लोग ‘एमि प्रो’ और ‘फ्री लांस ग्राफिक्स’ इस्तेमाल में लाते थे . उस समय किसी स्थानीय कंपनी से हमने कुछ सोफ्टवेयर लिया जो कि ‘रैमिंगटन क़ी बोर्ड’ पर चलता था. इसको इस्तेमाल करने मे काफी समस्या आती थी. अप्रेल 1998 (शायद) में चिप’ पत्रिका का पहला अंक आया था ( ये ‘चिप’ के ‘चिप-इंडिया’ बनने और ‘डिजिट’ के आने से काफी पहले की बात थी ) उसमें भा रत-भाषा के प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी दी गयी थी और साथ में ‘शुशा’ फोंट भी थे . तब से ही में ‘शुशा’ फोंट इस्तेमाल करने लगा. बाद में संस्थान के लिये ‘अक्षर’ और ‘श्री-लिपि’ भी लिये जो आज भी कुछ विभागों में सफलता पूर्वक चल रहे हैं. जहां तक अंतरजाल (वैब) पर हिन्दी की बात है मैने अपनी पहली हिन्दी साइट 1998 में बनायी थी. उस समय वी.एस.एन.एल के डायल अप ऎकाउंट होते थे और वो सर्वर स्पेस देते थे आपको अपनी साइट होस्ट करने के लिये . उसी में अपनी साइट ] बनायी थी ‘शुशा फोंट’ इस्तेमाल करके जो केवल हमारे संस्थान के लोगों के लिये थी. मैने अपनी पर्सनल साइट 1999 में ‘एंजल फायर” में होस्ट की इसमें भी कुछ पेज हिन्दी के थे. फिर जियोसिटीज (geocities) में 2001 में अपनी साइट बनायी . उस समय जियोसिटीज (geocities) को याहू ने नहीं लिया था. उसी समय ई-ग्रुप्स में (जो कि अब याहू-ग्रुप है) अपना एक ग्रुप भी बनाया. मेरी साईट इसी ग्रुप की साईट थी. इसमें भी काफी पेज “शुशा’ में थे. लेकिन बाद में सदस्यों के कहने पर कुछ पेजों को ‘रोमनागरी’ में बदला ,क्योकि शुशा वाले पेजों को देखने के लिये फोंट डाउंलोड करना पड़ता था, और कुछ को पी.डी.एफ्. में. ये साइट आधे-अधूरे रूप में आज भी मौजूद है . जहां तक लिनक्स का सवाल है लिनक्स का प्रयोग भी खूब किया लेकिन अधिकतर प्रयोग सर्वर पर ही किया डैक्सटौप पर नहीं . हम लोग ‘HP-Ux’ और ‘AIX’ पर काम करते थे तो ‘युनिक्स’ पर हाथ साफ था. सारे सर्वर युनिक्स पर ही थे. लिनक्स को जाना पी.सी.क़्यू. लिनक्स के माध्यम से और एक दो बार विंडोज पार्टीशन करने के चक्कर में अपने कीमती डाटा भी खो दिये . लिनक्स को डैस्क्टोप में केवल प्रयोग के लिये ही इस्तेमाल किया और लगभग सभी फ्लेवर पर काम किया . पी.सी.क़्यू. लिनक्स ,रैड हैट , सूसे , डैबियन , युबंटू और भी बहुत सारे . अपने संस्थान में लिनक्स को स्थापित किया . पूरा का पूरा मेल सिस्टम लिनक्स पर बदला . फायर-वाल के लिये पहले ‘चैक-पॉंईट’ और फिर ‘सूसे फायरवाल’ का प्रयोग किया , प्रोक्सी सर्वर के लिये ‘स्कविड’ का प्रयोग किया . ये सभी अभी भी मेरे पहले वाले संस्थान में सफलता पूर्वक चल रहे हैं . जहां तक डैक्सटौप का सवाल है उसके लिये भी काफी प्रयास किया पर लिनक्स कभी भी मेरे पसंद का ओ.एस. नहीं बन पाया .वर्ड प्रोसेसिंग के लिये भी ‘मुक्त और मुफ्त’ विकल्प देखे. स्टार ऑफिस के व्यवसायिक होने से पहले उसे भी आजमाया और फिर ‘ओपन ऑफिस’ को भी . हाँलाकि मुझे तो ‘ओपन ऑफिस’ ठीक लगा पर मेरे संस्थान के लोगों के बीच नहीं चला . मुख्य कारण रही इसकी माइक्रोसौफ्ट वर्ड के साथ कम्पैटेबिलिटी . क्योकि अधिकतर लोग माइक्रोसौफ्ट वर्ड इस्तेमाल करते हैं और उनके द्वारा भेजी गयी सामग्री ओपन ऑफिस में कभी कभी नहीं खुलती. जहां तक रही कम्प्यूटर पर मेरे हिन्दी लेखन की बात तो मैं माइक्रोसौफ्ट विस्टा और ऑफिस 2007 इस्तेमाल करता हूं . मैने विस्टा में ‘हिन्दी भाषा पैक’ और ऑफिस के लिये ‘इंडिक आई.एम.ई.’ लगा रखा है. कभी कभी बराहा भी इस्तेमाल कर लेता हूं. लिनक्स में यदि कभी हिन्दी का इस्तेमाल करना हो तो ऑनलाईन टूल इस्तेमाल कर लेता हूं. लिनक्स में आजकल फैडोरा और स्लेड (सुसे लिनक्स इंटरप्राइज डैस्कटौप 10 ) इस्तेमाल करता हूं. इस चिट्ठे में मैं उन तकनीकी विषयों को छूना चाहता हूं जो कि एक संस्थान के लिये आवश्यक हैं और जि नके बारे में अभी भी हिन्दी चिट्ठा जगत में चर्चा नहीं होती जैसे ई.आर.पी, फायरवाल , नैटवर्किंग वगैरह वगैरह . हिन्दी कैसे लिखें बताने के लिये पंकज भाई का वीडियो है , सर्वज्ञ है , श्रीस जी हैं और भी बहुत लोग हैं और फिर रवि जी तो हैं ही. वैसे रवि जी आपका विंडोज विस्टा वाला लेख भी पढ़ा था उसमें आपने लिखा था कि विंडोज विस्टा में 3डी सपोर्ट है . मेरे हिसाब से ऎसा नहीं है . विंडोज विस्टा केवल एअरो इफेक्ट ही सपोर्ट करता है 3डी नहीं .ये तो अभी तक इनबिल्ट केवल लिनक्स में ही है. शेष फिर….. From ravikant at sarai.net Thu Apr 19 14:32:45 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 19 Apr 2007 14:32:45 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KWHIOCklOCksCDgpJvgpL7gpKrgpYcg4KSV4KWAIOCkpuClgeCkqA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+?= Message-ID: <200704191432.46057.ravikant@sarai.net> क्या होता है जब चिट्ठाकारों के बारे में छापे की दुनिया बात करती है? महमूद को ख़ुद पर लगाए गए इल्ज़ामात की थोड़ी अनुगूँज शायद यहाँ सुनाई दे. अक्षरग्राम से साभार. टिप्पणियाँ भी बेहद दिलचस्प हैं. इस कड़ीदार आलेख के लिए नीचे की एक कड़ी पर जाएँ: http://www.akshargram.com/2007/04/10/620/ और मज़े लें. रविकान्त ब्लागर साथी छापे की दुनिया में Posted on अप्रैल 10th, 2007 अनूप शुक्ला हमारे ब्लागर साथी अपने ब्लाग पर लिखने के अलावा अब पत्र-पत्रिकाऒं में भी स्थान बना रहे हैं। अप्रैल माह की कादम्बिनी में प्रतीक का लेख छपा है जिसका शीर्षक है मोबाइल की दुनिया में फो र-जी। इसमें चौथी पीढ़ी के मोबाइल के बारे में बड़ी सहज, सरल भाषा में जानकारी दी गयी है। भा रत में अभी दूसरी-तीसरी पीढ़ी के मोबाइल चलन में हैं। प्रतीक अपने इस लेख में पूरी जानकारी देते हुये बताते हैं कि चीन इस दिशा में बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है और आने वाले समय में मोबाइल के क्षेत्र में चीन का वर्चश्व होगा। कादम्बिनी के इसी अंक में गौरी पालीवाल का विकी पीडिया पर संक्षेप में लेख छपा है जिसका शीर्षक है आनलाइन विश्वकोश। बेहतर होता कि गौरी पालीवाल जी निरंतर पर मुतुल का लिखा लेख देख लेतीं। इससे सामग्री विस्तार के साथ-साथ विकिपीडिया के बारे में और अच्छी जानकारी दी जा सकती थी। बहरहाल दोनों लेख कादम्बिनी में देख कर जी खुश हो गया। प्रख्यात कथा पत्रिका हंस के अप्रैल अंक में जानी-पहचानी कथाकार,चिट्ठाकार प्रत्यक्षाजी की कहा नी पिकनिक छपी है। पढ़िये और बताइये कैसी लगी आपको कहानी। नया ज्ञानोदय में पिछले कुछ अंको से ब्लाग आदि के बारे में मनीषा कुलश्रेष्ठ के लेख छप रहे थे। उन पर कुछ आपात्ति जताते हुये पिछले अंक में हसन जमाल जी ने टिप्पणी की थी। यह काहते हुये कि इंटरनेट की बात करना ऐसा ही है जैसा रोटी न होने पर भूखे लोगों को केक खाने की सलाह देना।रवि रतलामी ने नया ज्ञानोदय के अप्रैल अंक में अपनी संतुलित प्रतिक्रिया देते हुये जानकारी देने का प्रयास किया है उनका पत्र नया ज्ञानोदय के अप्रैल अंक में छपा है। यह सूचनार्थ है। आशा है कि हिंदी ब्लागजगत के साथियों की भागेदारी आगे भी प्रिंट मीडिया में उल्लेखनीय प्रगति करेगी। From chauhan.vijender at gmail.com Thu Apr 19 15:02:29 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 19 Apr 2007 15:02:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?tech-charcha?= In-Reply-To: <200704191419.11228.ravikant@sarai.net> References: <200704191419.11228.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540704190232l2e6ec08akc41eefd40bbdb56b@mail.gmail.com> जी बंधुवर, यह निश्‍चय ही एक स्‍वागत योग्‍य कदम है। इस वैविध्‍य से कई रिक्‍त स्‍थानों की पूर्ति होगी मसिजीवी On 4/19/07, Ravikant wrote: > > हिन्दी चिट्ठाजगत में अब जमकर टेक-चर्चा होने लगी है. पेश है ऐसे ही एक नए > ब्लॉग की कड़ी, जो > चिट्ठाकार की अपनी टेक-यात्रा की एक झाँकी भी है. यहाँ जिस रवि का ज़िक्र है, > वह हैं रवि > रतलामी, जो इस सूची पर भी बाक़ायदा मौजूद हैं. > > मज़े लें > रविकान्त > > http://kkarnatak.wordpress.com/2007/04/19/intro_1/ > > मैं और हिन्दी लेखन > April 19th, 2007 · > > रवि जी ने कुछ रैगिंग लेने के अंदाज में पूछा …. "चलिए हमें बताएं कि आप इस > चिट्ठे पर हिन्दी में कैसे > लिखते हैं, सरल तरीका क्या है और यदि आप लिनक्स में हिन्दी लिखने का कोई सरल > तरीका बता सकते > हैं तो बताएं " . ये रैगिंग भी थी और मेरी क्षमताओं को जानने की कोशिश भी. > > रवि जी भले ही मुझे ना जानते हों पर मैं उन्हें जानता हूँ विभिन्न कंप्यूटर > पत्रिकाओं में छ्पते उनके लेखों > से. अभी इसी महीने "लिनक्स फॉर यू" में भी उनका लेख छ्पा है . उनका लिनक्स के > हिन्दी-करण में भी काफी योगदान रहा है. तो वो यदि पूछें लिनक्स और हिन्दी के > बारे में थोड़ा > आश्चर्य होता है. ये सवाल तो मैने आपसे पूछ्ना है रवि जी. वैसे उन्मुक्त जी > भी बता सकते हैं. जहां > तक मेरा सवाल है मैं बताता हूँ अपने बारे में ( ज्ञानदत्त पाण्डे जी भी यही > जानना चाहते हैं ). > > मेरा कंप्यूटर और हिन्दी से बहुत पुराना नाता है. मैं चिट्ठाजगत ( हिन्दी और > अंग्रेजी दोनों ) से > अरसे से जुड़ा हुआ हूँ लेकिन सिर्फ एक पाठक की हैसियत से. इसलिये लगभग सभी को > इस माध्यम से जा > नता हूँ. जहां तक हिन्दी की बात है हिन्दी मेरी मातृभाषा है . कंप्यूटर पर > हिन्दी की जरूरत मुझे > पड़ी सन 1996 में . मैं एक मैनुफेक्चरिंग कंपनी में काम करता था वहां हम लोग > मजदूरों के लिये ट्रेनिंग > मैनुअल बनाते थे जो कि हिन्दी में होते थे . ये सब उन दिनों बाहर से टाइप > करवाने पड़ते थे. इसमें > एक तो समय बहुत लगता था और फिर एक बार बनने के बाद उनको बदलना बहुत मुश्किल > होता > था .तो हम चाहते थे कि इसको कंप्यूटर में ले के आना . उस समय माइक्रोसोफट > वर्ड उतना पॉपुलर > नहीं था . हम लोग 'एमि प्रो' और 'फ्री लांस ग्राफिक्स' इस्तेमाल में लाते थे > . उस समय किसी > स्थानीय कंपनी से हमने कुछ सोफ्टवेयर लिया जो कि 'रैमिंगटन क़ी बोर्ड' पर चलता > था. इसको > इस्तेमाल करने मे काफी समस्या आती थी. अप्रेल 1998 (शायद) में चिप' पत्रिका > का पहला अंक आया > था ( ये 'चिप' के 'चिप-इंडिया' बनने और 'डिजिट' के आने से काफी पहले की बात > थी ) उसमें भा > रत-भाषा के प्रोजेक्ट के बारे में जानकारी दी गयी थी और साथ में 'शुशा' फोंट > भी थे . तब से ही > में 'शुशा' फोंट इस्तेमाल करने लगा. बाद में संस्थान के लिये 'अक्षर' और > 'श्री-लिपि' भी लिये जो > आज भी कुछ विभागों में सफलता पूर्वक चल रहे हैं. जहां तक अंतरजाल (वैब) पर > हिन्दी की बात है मैने > अपनी पहली हिन्दी साइट 1998 में बनायी थी. उस समय वी.एस.एन.एल के डायल अप > ऎकाउंट होते > थे और वो सर्वर स्पेस देते थे आपको अपनी साइट होस्ट करने के लिये . उसी में > अपनी साइट > ] बनायी थी 'शुशा फोंट' इस्तेमाल करके जो केवल हमारे संस्थान के लोगों के > लिये थी. मैने अपनी > पर्सनल साइट 1999 में 'एंजल फायर" में होस्ट की इसमें भी कुछ पेज हिन्दी के > थे. फिर जियोसिटीज > (geocities) में 2001 में अपनी साइट बनायी . उस समय जियोसिटीज (geocities) को > याहू ने > नहीं लिया था. उसी समय ई-ग्रुप्स में (जो कि अब याहू-ग्रुप है) अपना एक ग्रुप > भी बनाया. मेरी > साईट इसी ग्रुप की साईट थी. इसमें भी काफी पेज "शुशा' में थे. लेकिन बाद में > सदस्यों के कहने पर > कुछ पेजों को 'रोमनागरी' में बदला ,क्योकि शुशा वाले पेजों को देखने के लिये > फोंट डाउंलोड करना > पड़ता था, और कुछ को पी.डी.एफ्. में. ये साइट आधे-अधूरे रूप में आज भी मौजूद > है . > > जहां तक लिनक्स का सवाल है लिनक्स का प्रयोग भी खूब किया लेकिन अधिकतर प्रयोग > सर्वर पर ही > किया डैक्सटौप पर नहीं . हम लोग 'HP-Ux' और 'AIX' पर काम करते थे तो > 'युनिक्स' पर > हाथ साफ था. सारे सर्वर युनिक्स पर ही थे. लिनक्स को जाना पी.सी.क़्यू. लिनक्स > के माध्यम से > और एक दो बार विंडोज पार्टीशन करने के चक्कर में अपने कीमती डाटा भी खो दिये > . लिनक्स को > डैस्क्टोप में केवल प्रयोग के लिये ही इस्तेमाल किया और लगभग सभी फ्लेवर पर > काम किया . > पी.सी.क़्यू. लिनक्स ,रैड हैट , सूसे , डैबियन , युबंटू और भी बहुत सारे . > अपने संस्थान में > लिनक्स को स्थापित किया . पूरा का पूरा मेल सिस्टम लिनक्स पर बदला . फायर-वाल > के लिये > पहले 'चैक-पॉंईट' और फिर 'सूसे फायरवाल' का प्रयोग किया , प्रोक्सी सर्वर के > लिये > 'स्कविड' का प्रयोग किया . ये सभी अभी भी मेरे पहले वाले संस्थान में सफलता > पूर्वक चल रहे हैं . > > जहां तक डैक्सटौप का सवाल है उसके लिये भी काफी प्रयास किया पर लिनक्स कभी भी > मेरे पसंद का > ओ.एस. नहीं बन पाया .वर्ड प्रोसेसिंग के लिये भी 'मुक्त और मुफ्त' विकल्प > देखे. स्टार ऑफिस के > व्यवसायिक होने से पहले उसे भी आजमाया और फिर 'ओपन ऑफिस' को भी . हाँलाकि > मुझे तो 'ओपन > ऑफिस' ठीक लगा पर मेरे संस्थान के लोगों के बीच नहीं चला . मुख्य कारण रही > इसकी माइक्रोसौफ्ट > वर्ड के साथ कम्पैटेबिलिटी . क्योकि अधिकतर लोग माइक्रोसौफ्ट वर्ड इस्तेमाल > करते हैं और उनके > द्वारा भेजी गयी सामग्री ओपन ऑफिस में कभी कभी नहीं खुलती. > > जहां तक रही कम्प्यूटर पर मेरे हिन्दी लेखन की बात तो मैं माइक्रोसौफ्ट > विस्टा और ऑफिस 2007 > इस्तेमाल करता हूं . मैने विस्टा में 'हिन्दी भाषा पैक' और ऑफिस के लिये > 'इंडिक आई.एम.ई.' लगा > रखा है. कभी कभी बराहा भी इस्तेमाल कर लेता हूं. लिनक्स में यदि कभी हिन्दी > का इस्तेमाल करना > हो तो ऑनलाईन टूल इस्तेमाल कर लेता हूं. लिनक्स में आजकल फैडोरा और स्लेड > (सुसे लिनक्स इंटरप्राइज > डैस्कटौप 10 ) इस्तेमाल करता हूं. > > इस चिट्ठे में मैं उन तकनीकी विषयों को छूना चाहता हूं जो कि एक संस्थान के > लिये आवश्यक हैं और जि > नके बारे में अभी भी हिन्दी चिट्ठा जगत में चर्चा नहीं होती जैसे ई.आर.पी, > फायरवाल , नैटवर्किंग > वगैरह वगैरह . हिन्दी कैसे लिखें बताने के लिये पंकज भाई का वीडियो है , > सर्वज्ञ है , श्रीस जी हैं > और भी बहुत लोग हैं और फिर रवि जी तो हैं ही. > > वैसे रवि जी आपका विंडोज विस्टा वाला लेख भी पढ़ा था उसमें आपने लिखा था कि > विंडोज विस्टा में > 3डी सपोर्ट है . मेरे हिसाब से ऎसा नहीं है . विंडोज विस्टा केवल एअरो इफेक्ट > ही सपोर्ट करता > है 3डी नहीं .ये तो अभी तक इनबिल्ट केवल लिनक्स में ही है. > > शेष फिर….. > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070419/edf03364/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Thu Apr 19 15:09:54 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Thu, 19 Apr 2007 15:09:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KWHIOCklOCksCDgpJvgpL7gpKrgpYcg4KSV4KWAIOCkpuClgQ==?= =?utf-8?b?4KSo4KS/4KSv4KS+?= In-Reply-To: <200704191432.46057.ravikant@sarai.net> References: <200704191432.46057.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540704190239w3e7ccfd1uefa56788c43a20c4@mail.gmail.com> अब अगर महमूद भाई को दिक्‍कत होती है तो अर्धसूचनात्‍मक लेख लिखने से पहले सोचना चाहिए था। यह निश्‍िचित है कि इधर प्रिंट ने हिंदी चिट्ठाकारी पर ध्‍यान देना शुरू किया है। इस कड़ी में इस रविवार को जनसत्‍ता में प्रकाशित आवरण कथा विशेष रूप से महत्‍वपूर्ण है जो समग्रता का परिचय देती है इसलिए इसका व्‍यापक स्‍वागत भी हुआ। पूरा लेख नीचे दिया जा रहा है। यदि मय साज सज्‍जा देखना चाहें तो एक चक्‍कर लगाएं खुद लेखिका सुजाता तेवतिया के ब्‍लॉग http://bakalamkhud.blogspot.com/2007/04/blog-post_16.html वैसे मुख्‍य लेख इस प्रकार है- अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे -सुजाता तेवतिया *सुजाता का यह लेख आज जनसत्‍ता में आवरण कथा के रूप में छपा और जगदीशजी ने इसकी छवि भी अपलोड की लेकिन मित्रों को इसे पढ़ने में तकलीफ हो रही थी। तारणहार बने रवि रतलामीजी और उन्‍होंने लेख को यूनीकोडित कर भेजा है। प्रकाशित लेख में इस सामग्री के अतिरिक्‍त कुछ बॉक्‍स आइटम भी हैं कितु अभी तो लीजिए पेश है मुख्‍य लेख- * ** ** *अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे *पूरी एक शताब्दी पीछे चर्चित रहे बालमुकुन्द गुप्त के 'शिवशंभू के चिट्ठे' अब इंटरनेट पर हिन्दी ब्लॉग बन कर धूम मचा रहे हैं। खड़ी बोली गद्य की भाषा का यह आरंभिक स्वरूप जितना रोचक और आत्मीय था, अंतर्जाल पर हिन्दी के चिट्ठे भी वैसे ही रोचक और आत्मीय शैली में अभिव्यक्ति का माध्यम बन गए हैं। अत: इसे हिन्दी की एक नई विधा माना जाए तो अनुचित न होगा। अंतरिक्ष की भांति अनन्त साइबर स्पेस पर ये हिन्दी चिट्ठे हमेशा के लिए दर्ज हो जाने वाली डायरी की तरह हैं। 'वेबलॉग' से 'ब्लॉग' बना और ब्लॉग का हिन्दी शब्द आया 'चिट्ठा' - सर्वप्रथम आलोक जी द्वारा - जो अब लगभग मानक हो चला है। यूँ तो अंग्रेजी चिट्ठाकारी अमेरिका में 1997 से प्रचलित हो चली है लेकिन हिन्दी का यह पहला 'चिट्ठा' 2 मार्च 2003 को प्रकाश में आया। इसे वास्तविक लोकप्रियता हासिल हुई रवि रतलामी के 'अभिव्यक्ति' में छपे लेख से जिसने कई नेट-प्रयोक्ताओं को हिन्दी ब्लॉग बनाने के लिए उकसाया। कुल जमा 10 वर्ष की ब्लॉग विधा और उसमें भी हिन्दी ब्लॉग की 4 वर्ष की आयु यद्यपि किन्हीं निष्कर्षों तक पहुँचने के लिए नाकाफ़ी है तथापि यह मानने में कोई संकोच नहीं कि अंतर्जाल पर हिन्दी का प्रचार करने वाली यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधा है। अंतर्जाल पर हिन्दी में मिलने वाली सामग्री का सबसे बड़ा भाग ये चिट्ठे हैं जो भविष्य में कीबोर्ड लेखन की इस अद्यतन विधा के परिष्कृत और निरंतर परिवर्तित होने का संकेत देती है। हिन्दी के इन चिट्ठों में ताज़गी है और कोई एक सामान्य विशेषता, गुण या स्वरूप न होने पर भी इनकी अनगढ़ता और बेबाकी सभी चिट्ठों में सामान्यत: मिलती है। इस चिट्ठाजगत में न विषयों का बंघन है न नियमों की कवायद। पूरी तरह से अनौपचारिक यह विधा हर एक ब्लॉगर या चिट्ठाकार को अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता देती है। यहाँ लोग जूतों से लेकर रसोई, बाथरूम और खान-पान से लेकर सुभाष चंद्र बोस, वर्ल्ड कप क्रिकेट, आरक्षण तक पर लिख सकते हैं और पाठक इन्हें पढ़ते भी हैं। किसी के लिए चिट्ठाकारी शौक है, किसी के लिए अपने मन की भड़ास निकालने का माध्यम तो किसी के लिए समय नष्ट करने का सर्वश्रेष्ठ साधन है। यद्यपि इन चिट्ठों का व्यावसायिक पक्ष भी है और गूगल इन चिट्ठाकारों को एडसेन्स द्वारा धन कमाने के अवसर भी देता है। पर सामान्यत: इन चिट्ठाकारों में धन कमाने की उतनी चाह नहीं जितनी लिखने और खुद को पढ़वाने की चाह है। बैठे-ठाले का चिन्तन और शौकिया लेखन इन चिट्ठों के नाम और परिचयात्मक वाक्यों में भी झलकता है जो इन्हें निराला बनाता है - जैसे फ़ुरसतिया, निठल्ला-चिन्तन, नोटपैड, कॉफ़ी हाउस, टैमपास, नुक्ताचीनी, वाद-संवाद, गप-शप, ब्लॉगिया कहीं का, खाली-पीली, ठलुआ, मटरगश्ती, मस्ती की बस्ती। ब्लॉगिंग का माध्यम न केवल देसी हिन्दी प्रेमियों को आकर्षित कर रहा है वरन् प्रवासी भारतीयों को भी बहुत लुभा रहा है। सबसे रोचक तो है कि हिन्दी चिट्ठों के शुरूआती दौर में सामने आने वाले बहुत से चिट्ठाकार विदेश में रह रहे भारतीय ही हैं जो अनायास ही हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास के साक्षी और निर्माणकर्ता भी हो गए। जितेन्द्र चौधरी, पंकज नरूला, प्रतीक, अनुनाद, रमण कौल इन्हीं आरंभिक बलॉगरों में से हैं। यहाँ तक कि हिन्दी के तमाम चिट्ठों को संकलित करके एक स्थान पर दिखाने वाली फ़ीड एग्रीगेटर साइट नारद.अक्षरग्राम.कॉम भी इन्हीं के प्रयासों का परिणाम है। नारद न केवल इन चिट्ठों की रोज़ की आवाजाही पर नज़र रखता है वरन् इन चिट्ठों की चर्चा करता है साथ ही साहित्यिक गतिविधियों, ब्लॉगज़ीन ; ब्लॉग मैगज़ीन व काव्य प्रतियागिताओं का भी संचालन समय-समय पर करता है। नियमितता और लोकप्रियता के आधार पर वह इन चिट्ठों की रेटिंग भी करता है। चिट्ठाकारी की विधा के सभी पहलू बड़े दिलचस्प है जिसमें 'टिप्पणी' एक रोचक भूमिका निभाती है। जैसा कि बहुत से ब्लॉगर मानते हैं कि हिन्दी चिट्ठा लेखन छपास - छपने की इच्छा-पीड़ा का इलाज है उस दृष्टि से यहाँ छप कर न केवल न छपने के दर्द से मुक्ति मिलती है वरन् पाठकों की त्वरित प्रतिक्रियाएँ टिप्पणियों के रूप में पाकर लेखक धन्य हो जाते हैं। लेखन की किसी भी विधा और माध्यम में यह स्थिति संभव नहीं है। ये टिप्पणियाँ न केवल लेखक का उत्साहवर्धन करती है वरन् उसे निरन्तर माँजते रहने में भी कारगर साबित होती है। हालाँकि, कभी-कभी मामला 'एक दूसरे की पीठ खुजाने की तरह' टिप्पणी करने और टिप्पणी पाने वाला भी हो जाता है। ब्लॉग में टिप्पणी का महत्व बताते हुए एक जीतू का कथन है - ''टिप्पणी का बहुत महत्व है, ब्लॉग लिखने में, बकौल शुक्ला जी; रामचंद्र नहीं - अनूप शुक्ला ...बिना टिप्पणी का ब्लॉग उजड़ी माँग की तरह होता है। जिसकी जितनी टिप्पणियाँ उसके उतने सुहाग।'' एक सबसे रोचक पहलू इन चिट्ठों की भाषा और शैली है। रचनात्मकता की कई छटाएँ यहाँ देखने को मिलती है। यहाँ भाषा आभिजात्य, शुद्धता और मानक भाषा से आतंकित हुए बिना अपना स्वरूप निर्मित करती है। इस दृष्टि से ये हिन्दी चिट्ठे भाषा की नई भंगिमा लिए है। ये हिन्दी भाषा की नई प्रयोगशाला है। शब्दों की नई टकसाल हैं और टकसाल भी ऐसा जिसमें व्याकरण के नियमों की जकड़बंदी और पांडित्य का माहात्म्य नहीं है। यहाँ भाषा आम हिन्दुस्तानी की मातृभाषा है, बोलचाल की भदेस बोली है। यहाँ अंग्रेजी के हिन्दी पर्याय संस्कृत कोश में ढूँढने के बजाय खुद गढ़े जाते हैं और विद्यमान शब्दावली को इंटरनेट के अनुसार विकसित और परिष्कृत किया जा रहा है। यहाँ बात करते-करते लोग बिहारी, मैथिली, भोजपुरी, पंजाबी के शब्दों और अभिव्यक्तियों पर उतर आते हैं। चिट्ठाकार, चिट्ठाकारिता, चिट्ठा जगत, चिट्ठोन्मुक्त जैसे शब्द तो प्रचलन में है ही साथ ही आधिपत्य की तर्ज पर ब्लॉगपत्य, पोस्ट करने के लिए पोस्टियाना, टिप्पणी देने के लिए टिप्पियाना, टिप्पणी की इच्छा रखना - टिप्पेषणा आदि शब्दों का इस्तेमाल यहाँ बेरोक-टोक होता है। यहाँ कुबेरनाथ राय की पंक्तियाँ 'भाषा बहता नीर...' सही साबित होती लगती है। 'ब्लॉगित' हिन्दी जनों के 'लिंकित' मनों; एक शोध् ब्लॉग का नाम भी यह इंगित करती है कि भाषा निरन्तर प्रवाहमान है। रोचक तथ्य यह भी है कि हिन्दी चिट्ठा जगत ने न केवल छपास पीड़ित, अनगढ़ लेखकों को आकर्षित किया है वरन् हिन्दी पत्रकारिता व मीडिया जगत से भी कई हस्तियों को लुभाया है। मोहल्ला, कस्बा, मुम्बई ब्लॉग्स ऐसे ही पत्रकारों के ब्लॉग है जो मीडिया लेखन के तयशुदा एजेंडों से मुक्त होकर स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं। फ़िर भी, अंतर्जाल के हिन्दी चिट्ठाजगत में यह निरालापन है कि सुगढ़, सुविचारित और अनुभवी लेखन यहाँ स्तुत्य तो हैं लेकिन लोकप्रिय होने की शर्त नहीं है। बल्कि आम बातों के आम ब्लॉग, साधरण बातें, व्यंग्य और बहसें यहाँ अधिक लोकप्रिय हैं। यद्यपि हिन्दी के जाने-माने ब्लॉग्स अभी लगभग 500 ही हैं जबकि अंग्रेजी के हज़ारों ब्लॉग्स हैं। फ़िर भी नित नए ब्लॉग्स हिन्दी में सामने आ रहे हैं और रोज़ाना नारद पर रजिस्टर हो रहे हैं। अत: आने वाले कुछेक वर्षों में यह चिट्ठा जगत अनंत विस्तार पाएगा, नारद विस्तार पाएगा या नए फ़ीड एग्रीगेटर सामने आएँगे इसमें संदेह नहीं। इस लेख का भी यही उद्देश्य समझा जाए। एकमात्र जो समस्या रह जाती है वह तकनीक का है। हिन्दी के पहले चिट्ठे पर आलोक जी ने भी यही लिखा था 'नमस्ते! क्या आप हिन्दी देख पा रहे हैं। यदि नहीं तो यहाँ पर देंखे।' माने यह कि कीबोर्ड पर हिन्दी लेखन और अन्य तकनीकी जानकारियाँ एक बड़ी बाधा है लोकप्रियता के रास्ते में। नारद, वर्डप्रेस, ब्लॉगस्पाट, गूगल सहित कई अन्य ब्लॉगर इस संबंध में सहायता करते हैं कि 'हिन्दी कैसे लिखें'। फ़िर भी समस्या अभी व्यापक है क्योंकि अंग्रेज़ी में लिखने वालों को यह नहीं पूछना पड़ता कि ''अंग्रेज़ी में कैसे लिखें?'' साथ ही यह भी कि हिन्दी चिट्ठाकारिता की दुनिया अभी काफ़ी सीमित है। हिन्दी चिट्ठा जगत से बाहर बहुत कम ब्लॉगरों की पहुँच है। अधिकांश केवल नारद पर दिख कर और टिप्पणी पाकर संतुष्ट हो जाते हैं। यदि हिन्दी ब्लॉगिंग की लोकप्रियता के ऊँचे प्रतिमान छूने हैं तो अधिक व्यापक होना होगा। चार वर्षीया हिन्दी चिट्ठाकारिता इस बुलंदी को छूने के लिए आरंभिक तैयारी की अवस्था से गुजर रही है। यद्यपि विषयों की कोई प्रतिबंध या नियमावली यहाँ नहीं है तथापि कई मुद्दों पर विविधता कम ही मिलती है। फ़ैशन, फ़िटनेस, सौन्दर्य, यात्रा, पाक कला, टेकनॉलाजी, खेल से जुड़े ब्लॉग अभी नहीं के बराबर है। लेकिन इस विकासमान विधा का स्वरूप इतना शीघ्र तय नहीं किया जा सकता। निरन्तर विविधतामय लेखन का एकमात्र रास्ता है यह। हिन्दी चिट्ठाकारिता की विधा का स्वरूप क्या होगा? यह हिन्दी के चिट्ठाकार और आने वाला समय ही तय करेंगे और इससे पहले कि मीडिया, विश्वविद्यालय, साहित्य और आलोचना के बड़े-बड़े विद्वान इसे अपनी सुगढ़ भाषा में कोई रूपाकार देने की कोशिश करें उससे पहले ही यह तय करना होगा कि अनौपचारिक लेखन की यह चिट्ठा विधा अपने स्वरूप के मूल और मुख्य गुण यानी बेबाकी, अनगढ़ता, भदेसपने और फक्कड़पने को बनाए रखे। इसे अन्य माध्यमों से अलगाने वाला मुख्य बिन्दु भी यही है जो इन हिन्दी के चिट्ठों में सूखी मिट्टी पर पड़ी फ़ुहार से उठने वाली सोंधी गंध की सी ताज़गी का एहसास दिलाता है। On 4/19/07, Ravikant wrote: > > क्या होता है जब चिट्ठाकारों के बारे में छापे की दुनिया बात करती है? महमूद > को ख़ुद पर लगाए गए > इल्ज़ामात की थोड़ी अनुगूँज शायद यहाँ सुनाई दे. अक्षरग्राम से साभार. > टिप्पणियाँ भी बेहद > दिलचस्प हैं. इस कड़ीदार आलेख के लिए नीचे की एक कड़ी पर जाएँ: > > http://www.akshargram.com/2007/04/10/620/ > > और मज़े लें. > > रविकान्त > > ब्लागर साथी छापे की दुनिया में > Posted on अप्रैल 10th, 2007 अनूप शुक्ला > > हमारे ब्लागर साथी अपने ब्लाग पर लिखने के अलावा अब पत्र-पत्रिकाऒं में भी > स्थान बना रहे हैं। > अप्रैल माह की कादम्बिनी में प्रतीक का लेख छपा है जिसका शीर्षक है मोबाइल की > दुनिया में फो > र-जी। इसमें चौथी पीढ़ी के मोबाइल के बारे में बड़ी सहज, सरल भाषा में जानकारी > दी गयी है। भा > रत में अभी दूसरी-तीसरी पीढ़ी के मोबाइल चलन में हैं। प्रतीक अपने इस लेख में > पूरी जानकारी देते > हुये बताते हैं कि चीन इस दिशा में बहुत तेजी से प्रगति कर रहा है और आने > वाले समय में मोबाइल के > क्षेत्र में चीन का वर्चश्व होगा। कादम्बिनी के इसी अंक में गौरी पालीवाल का > विकी पीडिया पर > संक्षेप में लेख छपा है जिसका शीर्षक है आनलाइन विश्वकोश। बेहतर होता कि गौरी > पालीवाल जी > निरंतर पर मुतुल का लिखा लेख देख लेतीं। इससे सामग्री विस्तार के साथ-साथ > विकिपीडिया के बारे में > और अच्छी जानकारी दी जा सकती थी। बहरहाल दोनों लेख कादम्बिनी में देख कर जी > खुश हो गया। > प्रख्यात कथा पत्रिका हंस के अप्रैल अंक में जानी-पहचानी कथाकार,चिट्ठाकार > प्रत्यक्षाजी की कहा > नी पिकनिक छपी है। पढ़िये और बताइये कैसी लगी आपको कहानी। नया ज्ञानोदय में > पिछले कुछ अंको > से ब्लाग आदि के बारे में मनीषा कुलश्रेष्ठ के लेख छप रहे थे। उन पर कुछ > आपात्ति जताते हुये पिछले अंक > में हसन जमाल जी ने टिप्पणी की थी। यह काहते हुये कि इंटरनेट की बात करना ऐसा > ही है जैसा > रोटी न होने पर भूखे लोगों को केक खाने की सलाह देना।रवि रतलामी ने नया > ज्ञानोदय के अप्रैल अंक > में अपनी संतुलित प्रतिक्रिया देते हुये जानकारी देने का प्रयास किया है उनका > पत्र नया ज्ञानोदय > के अप्रैल अंक में छपा है। यह सूचनार्थ है। आशा है कि हिंदी ब्लागजगत के > साथियों की भागेदारी आगे > भी प्रिंट मीडिया में उल्लेखनीय प्रगति करेगी। > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070419/d3bdc854/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Apr 19 17:16:40 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 19 Apr 2007 17:16:40 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KWHIOCklOCksCDgpJvgpL7gpKrgpYcg4KSV4KWAIOCkpuClgeCkqA==?= =?utf-8?b?4KS/4KSv4KS+?= In-Reply-To: <8bdde4540704190239w3e7ccfd1uefa56788c43a20c4@mail.gmail.com> References: <200704191432.46057.ravikant@sarai.net> <8bdde4540704190239w3e7ccfd1uefa56788c43a20c4@mail.gmail.com> Message-ID: <200704191716.40840.ravikant@sarai.net> जनाब विजेन्द्र जी और रवि मैंने तो इसी इरादे से गोल-मोल कहा ही था कि लोग-बाग़ जाग कर कुछ कहें, सुनें. तो इस लिंक के लिए बहुत-बहुत शुक्रिया. जनसत्ता कभी-कभार ही देख पाता हूँ, तो यह बेहतरीन चीज़ शायद नेट पर ही देख पाता सो जल्द देख लिया. रवि का ज्ञानोदय वाला उत्तर भी बहुत अच्छा जमा है. कृपया जितने सारी टीपें आईं हैं, ज्ञानोदय के लेख के जवाब में - मेरे ख़याल से तीन हैं - सब युनिकोडित करने की कृपा करें. गर्मा-गर्मी चल रही है, देखकर ऊर्जस्वित महसूस करता हूँ. रविकान्त गुरुवार 19 अप्रैल 2007 15:09 को, आपने लिखा था: > अब अगर महमूद भाई को दिक्‍कत होती है तो अर्धसूचनात्‍मक लेख लिखने से पहले > सोचना चाहिए था। यह निश्‍िचित है कि इधर प्रिंट ने हिंदी चिट्ठाकारी पर ध्‍यान > देना शुरू किया है। इस कड़ी में इस रविवार को जनसत्‍ता में प्रकाशित आवरण कथा > विशेष रूप से महत्‍वपूर्ण है जो समग्रता का परिचय देती है इसलिए इसका व्‍यापक > स्‍वागत भी हुआ। पूरा लेख नीचे दिया जा रहा है। यदि मय साज सज्‍जा देखना चाहें > तो एक चक्‍कर लगाएं खुद लेखिका सुजाता तेवतिया के ब्‍लॉग > http://bakalamkhud.blogspot.com/2007/04/blog-post_16.html > > वैसे मुख्‍य लेख इस प्रकार है- > अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे -सुजाता > तेवतिया > > *सुजाता का यह लेख आज जनसत्‍ता में आवरण कथा के रूप में छपा और जगदीशजी ने > इसकी छवि भी अपलोड की लेकिन मित्रों को इसे पढ़ने में तकलीफ हो रही थी। > तारणहार बने रवि रतलामीजी और उन्‍होंने लेख को यूनीकोडित कर भेजा है। प्रकाशित > लेख में इस सामग्री के अतिरिक्‍त कुछ बॉक्‍स आइटम भी हैं कितु अभी तो लीजिए > पेश है मुख्‍य लेख- * > ** > ** > *अंतर्जाल पर हिन्दी चिट्ठे > From ravikant at sarai.net Fri Apr 20 16:16:42 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 20 Apr 2007 16:16:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KSq4KSo4KWL?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleClgCDgpLDgpYfgpLIgLCDgpKrgpLngpLLgpL4g4KSq4KS+4KSw?= =?utf-8?b?4KWN4KSfIOCksuClh+CkleCksCDgpLngpL7gpJzgpL/gpLAg4KS54KWC4KSC?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200704201616.42316.ravikant@sarai.net> रविवार 15 अप्रैल 2007 10:59 को, zaigham imam ने लिखा था: > नमस्‍कार > ''सपनों की रेल'' का पहला पार्ट लेकर हाजिर हूं। क्या बात है! अपनी सपनों की रेल के पहले स्टेशन तक के इस सफ़र पर हमें साथ ले चलने के लिए हम आपके अहसानमंद है. आप जिन तफ़्सीलात में जा रहे हैं, वे वाक़ई दिलचस्प हैं. उन्हें देने में कंजूसी बरतने की कोई ज़रूरत नहीं. > पटरी पर रेल > इन रेलों की शुरुआत में इलाहाबाद के संगम और हाईकोर्ट का भी खासा योगदान है। > (इनकी व्‍याख्‍याएं अगली पोस्टिंगों में की जाएंगीं) और हमें इसका इंतज़ार रहेगा, क्योंकि हम तो आपके द्वारा दी गई शुरुआती जानकारियों के आधार पर इसका रिश्ता सिर्फ़ विश्वविद्यालय से जोड़ पा रहे थे. इस प्रसंग में मुझे लगता है कि जब गाड़ी शुरू की गई होगी तो इसमें बेटिकटी या सुविधाहीनता का वैसा अपवाद नहीं बरता गया होगा, जो बाद में जाकर इसका नियम हो जाता है. उन दिनों के बारे में हम शायद पुराने यात्रियों/कर्मचारियों से मिल कर जान पाएँगे. > रनिंग स्‍टाफ > आमतौर पर दूसरी सभी रेलों में रनिंग स्‍टाफ के तौर पर टीटीई की नियुक्ति > भी होती है, मगर नहीं इसमें चेकिंग जैसा कोई प्रावधान नहीं है। क्या बात है! बीच बीच में मैजिस्ट्रेट चेकिंग ज़रूर होती होगी. तब क्या आलम बनता है? या बिल्कुल ही राम-भरोसे है? > सफर के साथी > रेल की सफर के साथी यानि यात्री 70 प्रतिशत छात्र हैं। दूसरे लोगों में काम की > तलाश में इलाहाबाद आने वाले मजदूर, इलाहाबाद हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले > वकील और तीसरे दर्जे के सरकारी कर्मचारी शामिल हैं। कमाई के लिए मुंबई, > दिल्‍ली, गुजरात और कलकत्‍ता जैसे शहरों को जाने वाले गंवई मजदूर भी इलाहाबाद > आने के लिए (क्‍योंकि उनके यहां से सीधे बडे शहरों को रेल नहीं जाती )इन्‍हीं > रेलों का सहारा लेते हैं। > > > यह कैसी स्‍पीड > रेलवे के नियमों के मुताबिक रेल की न्‍यूनतम स्‍पीड 45 किलोमीटर प्रतिघंटा है, > लेकिन 95 किलोमीटर की दूरी तय करने के लिए 4:30 घंटे का आधिकारिक टाइमटेबल > बनाया गया है। > स्‍टापेजों को लेकर देखें को समय का 1 घंटा 17 मिनट रुकने में खर्च होता। यानि > रेल 3 घंटे 13 मिनट लगातार दौडती रहती है। इस हिसाब रेल की चाल 30 किलोमीटर > प्रतिघंटे से भी कम बैठती है। साफ है रेलवे का कानून खुद उसी के लिए मजाक है। > > > रुकना ही जिंदगी है > पैसेंजर रेल अपने सफर के दौरान रोजाना कम से 20 से भी अधिक बार चेन पुलिंग का > सामना करती है। सिंगल टै्क होने की वजह से एक दर्जन गाडियों को जिनमें > मालगाडियां प्रमुख रुप से शामिल हैं इसे रोककर पास दिया जाता है। रेल नियमित > रुप से दो घंटे तक विलंबित रहती है। कब से ऐसा है? चेन पुलिंग के क्या कारण होते हैं? गौतम सान्याल की पीजी भौजी जैसे मज़ेदार हैं क्या? क्या यहाँ भी 'भैकम्प' काटा जाता है, जेसे कि बिहार में? उसमें स्थानीय लोग कौन-कौन से जुगाड़ भिड़ाते हैं? मुझे एक बार इसी तरह एक शादी में बीच टाल के खेत में उतारा गया था, क्योंकि वहीं से शादी वाला गाँव नज़दीक पड़ता था! गार्ड के केबिन में कोई नहीं था, हम उसमें चढ़ गए, हमने एक गोल स्टीयरिंग जैसी चीज़ घुमाई और गाड़ी फुस्स से हवा निकाल कर रुक गई. हम इत्मीनान से उतर कर शादी में गए. मुझे पता है कि यह काम डिब्बों के बीच लगी हवा के दबाव वाली पाइपों के जोड़ को तोड़ कर भी किया जाता है. आप इस जनोपयोगी जुगाड़ के बारे में और बता कर जन-कल्याण करें. > --------------अगली पोस्टिंग में पैसेंजर रेल कैसे बनी सपनों की रेल, गंवारों > की इंजीनियरिंग का शानदार नमूना, ''एसीपी'' की अनूठी परंपरा और अभी भी जिंदा > है अंग्रेजियत। और हां अपनी एएफ से मिलना न भूलिएगा। साहब आपके इन लघु-अध्यायों के नाम मनोहर हैं. अल्लाह करे ज़ोरे क़लम और कुछ ज़यादा! उम्मीद है इस शोध की रफ़्तार वही होगी जो इसका वायदा है. > > धन्‍यवाद > सैयद जैगम इमाम बहुत-बहुत शुक्रिया. माफ़ कीजिएगा. आपके आग्रह पर ही मैंने इतना बकने की हिम्मत करके इस स्वतंत्र शोध में अपनी टाँग अड़ाई. शुक्रिया रविकान्त From beingred at gmail.com Fri Apr 20 17:33:53 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Fri, 20 Apr 2007 17:33:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS14KS44KSC4KSk?= =?utf-8?b?IOCkleClgCDgpJfgpLXgpL7gpLngpYA=?= Message-ID: <363092e30704200503p28ff0c59l2dc95f2739a58e3@mail.gmail.com> वसंत की गवाही रेयाज-उल-हक कुछ शब्द उनके लिए जो नंदीग्राम में मार दिये गये कि मैं गवाह हूं उनकी मौत का. मैं गवाह हूं कि नयी दिल्ली, वाशिंगटन और जकार्ता की बदबू से भरे गुंडों ने चलायीं गोलियां निहत्थी भीड़ पर अगली कतारों में खड़ी औरतों पर. मैं गवाह हूं उस खून का जो अपनी फसल और पुरखों की हड्डी मिली अपनी जमीन बचाने के लिए बहा. मैं गवाह हूं उन चीखों का जो निकलीं गोलियों के शोर और राइटर्स बिल्डिंग के ठहाकों को ध्वस्त करतीं. मैं गवाह हूं उस गुस्से का जो दिखा स्टालिनग्राद से भागे और पश्चिम बंगाल में पनाह लिये हिटलर के खिलाफ. मैं गवाह हूं अपने देश की भूख का पहाड़ की चढ़ाई पर खडे दोपहर के गीतों में फूटते गड़ेरियों के दर्द का अपनी धरती के जख्मों का और युद्ध की तैयारियों का. पाकड़ पर आते हैं नये पत्ते सुलंगियों की तरह और होठों पर जमी बर्फ साफ होती है. यह मार्च जो बीत गया आखिरी वसंत नहीं था मैं गवाह हूं. http://hashiya.blogspot.com -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070420/006a5dd6/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Fri Apr 20 19:32:26 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Fri, 20 Apr 2007 19:32:26 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KS+4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkquCksCDgpI/gpJUg4KSU4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSy4KWH4KSWLSDgpIbgpJwg4KSm4KWI4KSo4KS/4KSVIOCkreCkvg==?= =?utf-8?b?4KS44KWN4oCN4KSV4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= Message-ID: <749797f90704200702s5108574bk816957e8a74f1740@mail.gmail.com> आज दैनिक भास्‍कर में चिट्ठाकारी पर एक विजेंद्र का एक परिचयात्‍मक लेख प्रकाशित हुआ है। वैसे लेख उनके चिट्ठे पर भी उपलब्‍ध है। लिंक है http://masijeevi.blogspot.com/2007/04/blog-post_20.html दीवान के पाठकों के लिए लेख प्रस्‍तुत है। एक नजर डालें- कमी बेसी हो तो हमें बताएं *हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा * हिंदी की चिट्ठाकारिता ने अपने पाँव अब पालने से बाहर निकाल लिए हैं और वह अब सही मायने में अपने पाँवों पर खड़ी है। सूचना तकनीक का सबसे मूर्तिमान रूप इंटरनेट है। और इंटरनेट पर हिंदी की मौजूदगी का सबसे अहम हिस्‍सा है हिंदी ब्‍लॉग जिनके लिए वहॉं चिट्ठे शब्‍द का इस्‍तेमाल होता है। ब्‍लॉग 'बेवलॉग' का संक्षिप्‍त रूप है जो एक व्‍यक्तिगत बेवसाईट होती है। ब्‍लॉग करने वाले ब्‍लॉगर कहलाते हैं तथा ब्‍लॉगलेखन ही ब्‍लॉगिंग कहलाता है। हिंदी में इनके लिए क्रमश: चिट्ठाकार व चिट्ठाकारिता शब्‍दों का इस्‍तेमाल किया जाता है। अंग्रेजी में चिट्ठाकारी की शुरूआत 1997 में डेव वाइनर के ब्‍लॉग 'स्क्रिप्टिंग न्‍यूज' से हुई। जबकि हिंदी में चिट्ठाकारी की शुरूआत 2003 में हुई जब आलोक ने अपना चिट्ठा "नौ दो ग्यारह" शुरू किया फिर धीरे धीरे पद्मजा, जितेंद्र, रवि रतलामी, पंकज, अनूप, देवाशीष आदि चिट्ठाकार जुड़ते गए और कारवां बनता गया। आज हिंदी में 500 से अधिक चिट्ठे हैं जिनमें से बहुत से बेहद सक्रिय हैं। चिट्ठाकारी हिंदी की दुनिया की एक अहम परिघटना है। ये चिट्ठे जो अकसर चिट्ठेकार ने बेहद अनौपचारिक व अनगढ़ता के साथ अपने आस- पास के विषयों पर या देश-दुनिया की घटनाओं पर लिखें होते हैं, वे सार्वजनिक दुनिया में आम भारतीय की राय की नुमाइंदगी करते हैं। इलाहाबाद उच्‍च न्‍यायालय का मुसलमानों के अल्‍पसंख्‍यक होने को लेकर हुआ फैसला हो या राहुल गांधी के बयान या कुछ और....इनपर आम देशवासी की राय जानने का एक आसान तरीका है कि नारद ( http://narad.akshargram.com/ ) पर जाएं और देखें कि आम देशवासी जिनमें साईबर कैफे चलाने वाले सागरचंद नाहर हैं, सरकारी अफसर अनूप हैं, अध्‍यापिका घुघुती बासुती हैं, गृहिणियाँ, विद्यार्थी और तमाम काम करने वाले लोग हैं उन्‍होंने अपने चिट्ठों पर इन विषयों पर क्‍या लिखा है। ये सैकड़ों चिट्ठाकार अपने चिट्ठों पर इन विषयों पर अपनी बेबाक राय देते हैं- ये राय किसी संपादक की मेज से नहीं गुजरती, किसी सेंसर बोर्ड की कैंची का शिकार नहीं होती, एकदम खुली बिंदास राय सबके सामने सबके लिए। यही नहीं आप इस राय पर इतनी ही खुली प्रतिक्रिया तुरंत दे सकते हैं। यह राय मशवरे का एकदम लोकतांत्रिक रूप है। चिट्ठाकारी के इसी खुलेपन के कारण इसे दुनिया भर के सबसे ताकतवर मीडिया रूप के में पहचाना जा रहा है। आज के दिन तक दुनिया में कम से कम साढ़े सात करोड़ चिट्ठे हैं (स्रोत – टैक्‍नाराटी) और ये केवल अंग्रेजी में नहीं है वरन जापानी, रूसी, फ्रेंच स्‍पेनिश में ही नहीं वरन फारसी, हिंदी, मलयालम, मराठी, बंगाली आदि दुनिया की बहुत सी भाषाओं मे चिट्ठेकारी हो रही है। दरअसल ये आम गलतफहमी है कि इंटरनेट की भाषा अंग्रेजी है क्‍योंकि सच्‍चाई तो यह है कि दुनियाभर की चिट्ठासामग्री का केवल 30% ही अंग्रेजी में है। हिंदी चिट्ठाकारी ने देवनागरी लिपि को इस्‍तेमाल करने की शुरुआती दिक्‍कतों की वजह से धीमी गति से अपना सुर शुरू किया था लेकिन अब इसने भी रफ्तार पकड़ ली है। हिंदी चिट्ठाकारी के इस द्रुत विकास का श्रेय जहाँ कुछ पुराने चिट्ठेकारों को जाता है जिन्‍होनें हिंदी में लिखने ओर पढ़ने की तमाम तकनीकी दिक्‍कतों को दूर करने में बहुत सा समय और ऊर्जा खर्च की। वहीं हिंदी चिट्ठाकारी को अपने पैरों पर खड़ा करने में नारद और अक्षरग्राम ने भी सबसे अहम भूमिका अदा की है। नारद दरअसल एक फीड एग्रीगेटर है जिसका मतलब यह है कि उपलब्‍ध हिंदी चिट्ठों पर जैसे ही कोई नई सामग्री आती है यह उसकी सूचना दर्शा देता है। इच्‍छुक चिट्ठाकार इस चिट्ठे पर जाकर टिप्‍पणियों के माध्‍यम से लेखक का उत्‍साहवर्धन करते हैं, गलतियों के विषय में सुझाव देते हैं। इससे सबसे बड़ा फायदा यह हुआ है कि इसने हिंदी चिट्ठाकारों का एक जीवंत समुदाय खड़ा किया है जिसके सदस्‍य एक दूसरे का साथ देने के लिए तत्‍पर रहते हैं। नारद के अलावा इंटरनेट पर हिंदी के परवानों ने सर्वज्ञ व परिचर्चा जैसे मंच भी खड़े किए हैं जो हिंदी को इंटरनेट की समर्थ भाषा के रूप में खड़े करने की दिशा में मील का पत्‍थर हैं। सवर्ज्ञ जहाँ एक हिंदी का विकी-एनसाईक्‍लोपीडिया है जो किसी भी विषय पर हिंदी में सामग्री मुहैया कराता है वहीं परिचर्चा हिंदी में वाद- संवाद का एक मंच है। आज न केवल बहुत से चिट्ठाकार लिख रहे हैं वरन वे लिखने के लिए दुनिया जहान के विषयों को चुन रहे हैं। कनाडा में रह रहे एकाउटेंट समीर व्‍यंग्‍य लिखना पसंद करते हैं तो इटली में बसे डाक्‍टर सुनील दीपक को कला और संस्‍कृति पर कीबोर्ड चलाना भाता है, हैदराबाद के वैज्ञानिक व कवि लाल्‍टू सामाजिक बदलाव की अलख के लिए चिट्ठाकारी करते हैं, मनीषा सरकारी कर्मचारियों के लिए ब्‍लॉग चलाती हैं जिसमें वेतन आयोग से संबंधित समाचार व अफवाहें होती हैं, साहित्यिक व पत्रकारी विषयों पर लिखने वालों की तो खैर एक लंबी कतार है हिंदी चिट्ठाकारी में। एन डी टी वी के पत्रकार अविनाश ने तो मोहल्‍ला नाम से चिट्ठा शुरू ही किया है पत्रकारों और विशेषज्ञों से लिखवाने के लिए। राजेंद्र यादव का तुलसी विरोधी लेख हाल में उन्‍होंनें मोहल्‍ले में छापा है और यदि एक बार राजेंद्रजी को मिली टिप्‍पणियों पर नजर डाल ली जाए तो सहज ही समझ आ जाता है कि चिट्ठाकारिता के बिंदासपन का क्‍या मतलब है। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि समाचार, व्‍यंग्‍य, तकनीकी विषय, साहित्‍य, खेल, स्‍त्री हित के विषय आदि सभी क्षेत्रों में लेखन अब हिंदी चिट्ठाकारी में हो रहा है। जो आजाद खयाली और आजाद तबियत इस चिट्ठाकारी की सबसे अहम खासियत है वही इसे जटिल परिघटना बना देती है। लोगों की आपसी आजादी और अहम अक्‍सर टकराते रहते हैं और नित नए विवाद चिट्ठाकारिता में खड़े होते रहते हैं। हाल की हिंदी चिट्ठाकारी में ऐसे कई विवाद खड़े हुए। हिंदू व मुसलमान पहचान के सवाल पर हुआ तीखा 'इरफान विवाद' फिर इंटरनेट पर पहचान के सवाल पर 'मुखौटा विवाद' हुआ। 'मोहल्‍ला विवाद', 'बेनाम टिप्‍पणी विवाद' अन्‍य कुछ विवाद हैं लेकिन ये सब विवाद अपनी जगह हैं और यह बात अपनी जगह कि चिट्ठाकारिता इन विवादों से मजबूत होकर उभरती रही है। यही नहीं चिट्ठाकारी ने अपनी आजाद तबियत के ही हिसाब से अपनी भाषा और मुहावरे भी खुद गड़े हैं- शिक्षित समाज की टकसाली हिंदी को चिट्ठाकारी में आभिजात्‍यपूर्ण मानकर छोड़ दिया जाता है और अखबारी भाषा को भी औपचारिकता से भरा हुआ मानकर उसमें जरूरी वदलाव किए जाते हैं और एक अनौपचारिक भदेस भाषा और अनगढ़ शैली वहॉं पसंद की जाती है जो स्‍माइलियों [:)] से होती है। आम चिट्ठाकारी जुमला यह है कि अखबार पढ़ा जाता है और चिट्ठा बांचा जाता है इसीलिए अखबार में लिखा जाता है जबकि चिट्ठे में पोस्टियाना होता है। तो भाई लोगन आप समझ सकते हैं कि हम जैसे ब्‍लॉगिए को अखबार के लिए लिखने में कितना कष्ट हुआ होगा। अगर सही में हमें बांचना चाहें तो हमारे चिट्ठे पर पधारो सा। -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070420/46737741/attachment.html From ravikant at sarai.net Sun Apr 22 00:57:50 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sun, 22 Apr 2007 00:57:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KS+4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkquCksCDgpI/gpJUg4KSU4KSwIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSWLSDgpIbgpJwg4KSm4KWI4KSo4KS/4KSVIOCkreCkvuCkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4oCN4KSV4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= In-Reply-To: <749797f90704200702s5108574bk816957e8a74f1740@mail.gmail.com> References: <749797f90704200702s5108574bk816957e8a74f1740@mail.gmail.com> Message-ID: <200704220057.50837.ravikant@sarai.net> शुक्रिया नीलिमा जी, विजेन्द्र साहब. ख़ूबसूरत, संयत. पर अब जबकि हमने पर्याप्त बड़ाइयाँ कर दी हैं, थोड़ा आलोचनोन्मुख भी हो सकते हैं. किस दिशा में, आइए सोचे. रविकान्त शुक्रवार 20 अप्रैल 2007 19:32 को, Neelima Chauhan ने लिखा था: > आज दैनिक भास्‍कर में चिट्ठाकारी पर एक विजेंद्र का एक परिचयात्‍मक लेख > प्रकाशित हुआ है। वैसे लेख उनके चिट्ठे पर भी उपलब्‍ध है। लिंक है > http://masijeevi.blogspot.com/2007/04/blog-post_20.html > > > दीवान के पाठकों के लिए लेख प्रस्‍तुत है। एक नजर डालें- कमी बेसी हो तो हमें > बताएं > *हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा > > * > > > From zaighamimam at gmail.com Sun Apr 22 15:06:54 2007 From: zaighamimam at gmail.com (zaigham imam) Date: Sun, 22 Apr 2007 15:06:54 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCkleCljeCksOCkruCkvuCkguCklSAyMi4wNC4wNy/gpI/gpJzgpYcv?= =?utf-8?b?4KSP4KSP4KSr?= Message-ID: पत्र क्रमांक 22.04.07/एजे/एएफ सेवा में, रविकांत जी यात्री, सवारी गाडी एजे, एएफ (सपनों की रेल) विषय - 20 अप्रैल की आपकी यात्रा के संदर्भ में आभार। हमारी सवारी गाडी अनुग्रहीत हुई ।आप जैसे पसिंजर ने इसमें ''कदम'' रखा। बेहतर रेल संचालन के लिए दिए गए आपके बहूमूल्‍य सुझावों के लिए हम तहेदिल से शुक्रगुजार हैं। आपको अवगत कराना है कि तफ्सीलात वाकई बेहद दिलचस्‍प हैं, सब्र करें उनका सफर जरुर कराएंगें। अभी तो गाडी स्‍टेशन से छूटी है। स्‍पीड धीरे- धीरे बढेगी। कुपया, इसका भी ख्‍याल करें कि पटरियां अंग्रेजों के जमाने की हैं, गाडी तेज चलेगी तो पटरी से उतरने का खतरा रहेगा। खैर, आपकी उत्‍सुकताओं के बाद हमने स्‍पीड बढाने का फैसला किया है लेकिन इसके लिए एक कडी शर्त है, आपकी तरफ से लगातार ''चेन पुलिंग'' होनी चाहिए। भैकंम के किस्‍से के संदर्भ बता दें कि हमारे रुट पर गाडी रोकने की यह तरकीब काफी पुरानी हो चुकी है, हमारे ज्‍यादातर यात्री अब ''एसीपी'' करते हैं। लेकिन निराश न होईए भैकंप के बारे में हम पुरानी तहों तक जा रहे हैं जहां के शानदार किस्‍से आपकी खिदमत में पेश किए जाएंगें। और मजिस्‍टेट चेकिंग। मान्‍यवर, वैसे तो इस चेकिंग का खुलासा होने के बाद हमारी पोल खुल जाएगी लेकिन चलिए आप का हंसने का इरादा है तो ये भी सही। बहरहाल, अब यह भी फैसला किया गया है कि आपको यह भी बताएं कि आप जैसे यात्री जो पहली बार इन गाडियों में सफर करते हैं तो उनका ''क्‍या'' होता है। अगली पोस्टिंग बस तैयार है, तकनीकी पहलुओं का परीक्षण हो जाए फ‍िर हरी झंडी दिखाई जाएगी। आपका सैयद जैगम इमाम डीआरएम, सराय मंडल (अस्‍थायी पद) सपनों की रेल -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070422/bb9a7e17/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Apr 23 15:51:53 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Apr 2007 15:51:53 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSq4KSk4KWN4KSw?= =?utf-8?b?IOCkleCljeCksOCkruCkvuCkguCklSAyMi4wNC4wNy/gpI/gpJzgpYcv4KSP?= =?utf-8?b?4KSP4KSr?= In-Reply-To: References: Message-ID: <200704231551.54083.ravikant@sarai.net> हुज़ूर ज़ैग़म इमाम साहब, आपका जवाब निहायत दिलचस्प और चुटीला है, और अब आपका उपन्यासकार रूप खुल कर बाहर आ रहा है, जो कि हम चाहते थे. तो बाबुई क़लम से लिखी आपकी ग़ैर-बाबुई टीप मैंने सराय के दूसरे बाशिंदों को सुनाई, और उन्हें बेहद भाई. मुझे पता है कि आप टेस्ट रन कर रहे थे पहली पोस्ट में और अब धड़ा धड़ निकल पड़ेंगे. भई, हम-जैसे लोग भी इस सवारी गाड़ी के ढीठ सवारी ठहरे, तो चेन-पुलिंग तो करते ही रहेंगे. उसके बारे में निश्चिंत रहें. एक बार फिर शुक्रिया रविकान्त रविवार 22 अप्रैल 2007 15:06 को, zaigham imam ने लिखा था: > पत्र क्रमांक 22.04.07/एजे/एएफ > > > > सेवा में, > > रविकांत जी > > यात्री, सवारी गाडी एजे, एएफ (सपनों की रेल) > > विषय - 20 अप्रैल की आपकी यात्रा के संदर्भ में आभार। > > हमारी सवारी गाडी अनुग्रहीत हुई ।आप जैसे पसिंजर ने इसमें ''कदम'' रखा। बेहतर > रेल संचालन के लिए दिए गए आपके बहूमूल्‍य सुझावों के लिए हम तहेदिल से > शुक्रगुजार हैं। आपको अवगत कराना है कि तफ्सीलात वाकई बेहद दिलचस्‍प हैं, सब्र > करें उनका सफर जरुर कराएंगें। अभी तो गाडी स्‍टेशन से छूटी है। स्‍पीड धीरे- > धीरे बढेगी। कुपया, इसका भी ख्‍याल करें कि पटरियां अंग्रेजों के जमाने की > हैं, गाडी तेज चलेगी तो पटरी से उतरने का खतरा रहेगा। खैर, आपकी उत्‍सुकताओं > के बाद हमने स्‍पीड बढाने का फैसला किया है लेकिन इसके लिए एक कडी शर्त है, > आपकी तरफ से लगातार ''चेन पुलिंग'' होनी चाहिए। भैकंम के किस्‍से के संदर्भ > बता दें कि हमारे रुट पर गाडी रोकने की यह तरकीब काफी पुरानी हो चुकी है, > हमारे ज्‍यादातर यात्री अब ''एसीपी'' करते हैं। लेकिन निराश न होईए भैकंप के > बारे में हम पुरानी तहों तक जा रहे हैं जहां के शानदार किस्‍से आपकी खिदमत में > पेश किए जाएंगें। और मजिस्‍टेट चेकिंग। मान्‍यवर, वैसे तो इस चेकिंग का खुलासा > होने के बाद हमारी पोल खुल जाएगी लेकिन चलिए आप का हंसने का इरादा है तो ये भी > सही। बहरहाल, अब यह भी फैसला किया गया है कि आपको यह भी बताएं कि आप जैसे > यात्री जो पहली बार इन गाडियों में सफर करते हैं तो उनका ''क्‍या'' होता है। > अगली पोस्टिंग बस तैयार है, तकनीकी पहलुओं का परीक्षण हो जाए फ‍िर हरी झंडी > दिखाई जाएगी। > > > > आपका > > सैयद जैगम इमाम > > डीआरएम, सराय मंडल (अस्‍थायी पद) सपनों की रेल From ravikant at sarai.net Mon Apr 23 15:56:42 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Apr 2007 15:56:42 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSa4KS/4KSf4KWN?= =?utf-8?b?4KSg4KS+4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkquCksCDgpI/gpJUg4KSU4KSwIOCksg==?= =?utf-8?b?4KWH4KSWLSDgpIbgpJwg4KSm4KWI4KSo4KS/4KSVIOCkreCkvuCkuOCljQ==?= =?utf-8?b?4oCN4KSV4KSwIOCkruClh+Ckgg==?= In-Reply-To: <8bdde4540704220532h7f1224f1ue24e9fdc1c9855b3@mail.gmail.com> References: <749797f90704200702s5108574bk816957e8a74f1740@mail.gmail.com> <200704220057.50837.ravikant@sarai.net> <8bdde4540704220532h7f1224f1ue24e9fdc1c9855b3@mail.gmail.com> Message-ID: <200704231556.42805.ravikant@sarai.net> हाँ साहब पूरी महाभारत मची है, क‌ई पर्व एक-साथ. एक-एक कर पढ़ता हूँ. वैसे आपसे 'पधारो सा' का मूल पता करना था. राजस्थानी से है? रविकान्त रविवार 22 अप्रैल 2007 18:02 को, Vijender chauhan ने लिखा था: > रविकांतजी > चिट्ठाई दुनिया में आत्‍मालोचन, आत्‍मालोड़न चल ही रहा है। आज ही पूरी > चिट्ठाकारी को शर्मिंदा करता अविनाश का माफीनामा आया है। नजर डालें > > http://mohalla.blogspot.com/2007/04/blog-post_22.html > > विजेंद्र > > On 4/22/07, Ravikant wrote: > > शुक्रिया नीलिमा जी, विजेन्द्र साहब. > > ख़ूबसूरत, संयत. पर अब जबकि हमने पर्याप्त बड़ाइयाँ कर दी हैं, थोड़ा > > आलोचनोन्मुख भी हो सकते हैं. > > किस दिशा में, आइए सोचे. > > > > रविकान्त > > > > शुक्रवार 20 अप्रैल 2007 19:32 को, Neelima Chauhan ने लिखा था: > > > आज दैनिक भास्‍कर में चिट्ठाकारी पर एक विजेंद्र का एक परिचयात्‍मक लेख > > > प्रकाशित हुआ है। वैसे लेख उनके चिट्ठे पर भी उपलब्‍ध है। लिंक है > > > http://masijeevi.blogspot.com/2007/04/blog-post_20.html > > > > > > > > > दीवान के पाठकों के लिए लेख प्रस्‍तुत है। एक नजर डालें- कमी बेसी हो तो > > > > हमें > > > > > बताएं > > > *हम ब्‍लॉगिए हैं, हमारे चिट्ठे पर पधारो सा > > > > > > * > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From confirmations at emailenfuego.net Mon Apr 23 18:06:04 2007 From: confirmations at emailenfuego.net (confirmations at emailenfuego.net) Date: Mon, 23 Apr 2007 07:36:04 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?q?Activate_your_Emai?= =?utf-8?b?bCBTdWJzY3JpcHRpb24gdG86IOCkruCli+CkueCksuCljeCksuCkvg==?= Message-ID: <9805737.881177331764380.JavaMail.rsspp@app3> Hello there, You recently requested an email subscription to मोहल्ला. We can't wait to send the updates you want via email, so please click the following link to activate your subscription immediately: http://www.feedburner.com/fb/a/emailconfirm?i=1560540&k=CLHQMxJSaW (If the link above does not appear clickable or does not open a browser window when you click it, copy it and paste it into your web browser's Location bar.) From shveta at sarai.net Mon Apr 23 20:08:57 2007 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Mon, 23 Apr 2007 20:08:57 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Invitation to the launch of BAHURUPIYA SHEHR Message-ID: <462CC501.6000401@sarai.net> Dear Sabhi, अशोक माहेश्वरी, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली शर्मिला भगत, अंकुर: सोसाइटी फ़ॉर ऑल्टर्नेटिव्ज़ इन एजुकेशन, दिल्ली रवि सुंदरम, सराय-सीएसडीएस, दिल्ली बहुरूपिया शहर शहर पर नए लेखों का एक संकलन के विमोचन के अवसर पर आपको आमंत्रित करते हैं। सायं 7:00 बजे, 01 मई 2007, ऐम्फ़ीथियेटर, इंडिया हैबिटैट सेंटर, लोदी रोड, नई दिल्ली लेखक किताब से कुछ अंश पढेंगे और कृष्ण कुमार, शिक्षा शास्त्री अनुराग कश्यप, फ़िल्म निर्देशक अनामिका, लेखिका रविकांत, इतिहासकार किताब पर अपने विचार रखेंगे >< लेखक - अज़रा तबस्सुम / अंकुर कुमार / दिलिप / जानू नागर / नीलोफ़र / यशोदा सिंह / शमशेर अली / सूरज राय / राबिया क़ुरेशी / नसरीन / सैफ़ुद्दीन / बॉबी ख़ान / कुलविंदर कौर / त्रिपन कुमार / राकेश खैरालिया / बब्ली राय / लव आनंद / हिना अंसारी / लख्मी चंंद कोहली / किरण वर्मा / >< Paperback Pages: 264 Prce: Rs. 175/- >< Kitaab in book stores par uplabdh hogi: *Allahbad* Lok Bharti Prakashan, Darbari Building, First Floor, Mahatma Gandhi Marg Allahbad - 211001, UP Wheeler Book Shop Civil Lines 19, Mahatma Gandhi Marg Allahbad, UP *Lucknow* Universal Book Sellers 82, Hazratganj Lucknow, UP Universal Book Distributors' Company Aarif Chamber Kapurthala Commercial Complex Aliganj Lucknow, UP Useful Book Service S 3/21-23 Shastri Market Near B Block Crossing Indiranagar, Lucknow - 226016, UP Ph - 0522 -380063, 346805 Fax - 0522 - 2341975 *Chandigarh* Punjab Book Center Sector 22-B Chandigarh Shivalik Book Center Sec 17-D Chandigarh *Indore* Jain Sons Book Shop 33 Bakshi Gali Rajwada Road Indore, MP Sarvdaya Sahitya Bhandar Mahatma Gandhi Marg Indore, MP Scholar Book Point Diamond Market Opposite Apollo Tower Indore, MP Reader's Paradise 16, LG Apollo Nagar 2 Mahatma Gandhi Marg Indore, MP *Mumbai* Paridrishya Prakshan 6, Dadi Santuk Lane Near Church, Dhobi Talab 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Delhi Teksons Book Shop G-5, South Extension, Part I New Delhi Delhi Book Comany Connaught Place (Rajiv Chowk) New Delhi Frontline South Extension Part I New Delhi *Patna* Rajkamal Prakshan Pvt Ltd Branch Office, Patna, Bihar Vani Prakshan and Novelty and Company Ashok Rajpath, Patna, Bihar Magazine Corner Rajendra Nagar Patna, Bihar *NOIDA* Teksons Book Shop Sector 18, Market NOIDA From ravikant at sarai.net Mon Apr 23 20:49:29 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 23 Apr 2007 20:49:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KS54KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksDog4KSP4KSVIOCkuOCkrg==?= =?utf-8?b?4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= Message-ID: <200704232049.30659.ravikant@sarai.net> अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सुधीश जी की समीक्षा, कल(22.4.07) के दैनिक हिन्दुस्तान से. चंदन जी को साभार. दीवान के पाठकों को बता दूँ कि सायबर मोहल्ला सराय और अंकुर का संयुक्त प्रॉजेक्ट है, जिसकी प्रयोगशालाएँ, दिल्ली की तीन बस्तियों में चल रही हैं. इन तीन बस्तियों के नाम हैं: लोकनायक जयप्रकाश कॉलोनी, दक्षिणपुरी, और नांगला माची, जो अब उजाड़ी जा चुकी है. रविकान्त http://epaper.hindustandainik.com/Default.aspx?selpg=731 साइबर संसार के ब्लॉग लेखक सुधीश चौधरी दिल्ली में लिखने-पढ़ने वालों के कई इलाके हैं। कई अड्डे हैं। कई सैरगाहें हैं। कई ऐशगाहें भी हैं। कई कत्लगाहें हैं। नित्य उजड़ती बसती दिल्ली के दिल में बहुत सी जगह है। दिल्ली में अपने-अपने आसमान में अपनी-अपनी पतंग उड़ाते हुए अनेक युवा लेखक भी लिखते-पढ़ते हैं। वे किसी साहित्यिक ऐशगाह के मोहताज नहीं हैं। किसी बड़े लेखक तक उनकी पहुँच नहीं है, उन्हें इसकी परवाह नहीं है। उन्हें किसी की कृपा की दरकार नहीं। वे किसी की महानता से आतंकित नहीं। उसकी अपनी जगह अपना इलाका है। वे इस बात का अहसान भी नहीं जताते फिरते कि वे लेखक हैं। उन्होंने मिलकर एक किताब लिखी है, ‘बहुरूपिया शहर’। उनका गद्य आँखें खोलने वाला है। एकदम ताज़ा दैनिक और बेहद हरकत वाला जीवन बताने वाला गद्य, जिसे आप कविता की तरह पढ़ सकते हैं। इनका लेखन पहला विधिवत ‘साइबर स्पेसी’ लेखन है जो एक ही पल में उनकी कलम की ताकत को उनकी लिखने की धार को बताता है। आम कलम इसी तरह जिन्दगी से जुड़कर जब बोलती है, शहर की बस्तियों की परत दर परत खोलती चलती है। इनके आगे हिन्दी के प्रख्यात रिपोर्तज पुराने लगते हैं। ये लेखक दिल्ली की झुग्गी झोंपड़ी बस्तियों में पले-बड़े हुए हैं। वह उनका अपना जगत है। वे ही उसकी पहली सूचना दे रहे हैं वरना आज की हिन्दी में किसी बस्ती, किसी झुग्गी को जगह कहाँ? इसीलिए यहाँ की बेहद एक्शन भरी टूटी-फूटी जिन्दगी के नितांत गैर रूमानी चित्रण मिलता है। इन बस्तियों के लेखक अपने हैं जैसे कि नांगला माची के या जेपी कॉलोनी के या दक्षिणपुरी के। ये बस्तियाँ अपने लेखक पैदा कर चुकी हैं। अजरा, जानू, लख्मीचंद, राकेश खैरालिया से लेकर बाबी ख़ान, त्रिपन कुमार, नसरीन शमशेर, नीलो फर, सूरज राय कोई बीस नाम इस ‘बहुरूपिया शहर’ का निर्माण करते हैं। ये हिन्दी के ‘ब्लॉगर’ हैं। ‘ब्लॉगर राइटर’ हैं। ‘ब्लॉगर लेखक’ हैं। उनकी कलम ब्लॉग में ही खुली है। ये कवि हैं, कथाकार हैं। रेखाचित्रकार हैं। डायरी, टीका, हस्तक्षेप और पता नहीं कितनी रचना विधाओं को वे रोज़ जन्म दे रहे हैं। जो लोग इलेक्ट्रॉनिक तकनीक और कंप्यूटर को पश्चिमी-पश्चिमी चिल्लाकर रोते हैं वे जान लें कि इसी तकनीक ने इन अनंत हाशियों को एक बेबाक वाणी दी है। यह इनकी ताकत है। जेनरेशन नेक्सट हिन्दी में यही हैं। दिल्ली ने इन्हें बुलाया है। ताकत की मार ने इन्हें झुग्गियों में धकेला है। हर तरह से हाशियाकृत लोग हैं यहाँ वही ‘हाशिया जीवन’ है। किसी के घर में ठेला लगता है, कोई बसस्टॉप पर पानी की टंकी लगा पानी पिलाता है, कोई राज मिस्त्री है, कोई बेलदार का बच्चा है, जो अपने पिता के साथ काम करता है। कोई खोमचा लगाता है। कोई पटरी बाज़ार में जुराब, रुमाल, कंघे बेचता है। कितने काम नहीं करते ये लोग? कोई सुबह निकल मौसम के अनुसार आइसक्रीम या मूँगफली बेचता है। करोलबाग से लेकर चाँदनी चौक तक फेरी लगाकर आज ये कल वो बेच सकता है। अपनी ही तरह की इकोनॉमी वाली छोटी मलिन बस्तियों में जाकर ज़रूरत का सामान बेचते हैं सेवाएँ देते हैं। कुछ भी तय नहीं है। और अब वह ‘नांगला माची’ नहीं हैं। उसे उजाड़ दिया गया है सारे लोग दर-ब-दर हुए हैं। अभी जेपी कॉलोनी बची है। ये नए और वाकई युवा लेखक इन्हीं में रहते हैं। हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई साथ-साथ। हिन्दी ब्लॉग लेखक की खासियत यह है कि इनका जन्म ‘सराय’ के साइबर स्पेस में ही हुआ है। किसी साहित्यिक मासिक के दफ़्तर में संपादक के आशीर्वाद से नहीं हुआ। हरेक के पास अपनी कलम है, जो अपने ब्लॉग में अपना मचान लगाती है और सारे दुःख दर्द हँसी-मजाक वहीं बाँटती। ये शेअर्ड अनुभवों के लेखक हैं। यह नितांत शहरी पीढ़ी है मगर हाशिए पर कर दी गई इकनॉमी की है। इस साइबर सरस्वती के अनंत आकाश में बहुत से सार्थक ब्लॉग लेखक हैं, हिन्दी वालों इन्हें जानो-पहचानो और उस दादगिरी को तोड़ दो, जो कथित चंद ठेकेदारों ने बना रखी है। लेखन की असली मुक्ति यहीं है। अपने साइबर स्पेस में। From avinashonly at gmail.com Mon Apr 23 22:59:22 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 23 Apr 2007 12:29:22 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <1846008.760271177349362937.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// क्या टीवी संपादक मदारी हो गये हैं ? Posted: 23 Apr 2007 07:18 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/111142857/blog-post_23.html उमाशंकर सिंह मीडिया पर जब भी बहस होती है- बाज़ार और विवेक दो पक्ष होते हैं। उमाशंकर सिंह ने आईबीएन 7 पर एक कार्यक्रम में हुई बहस पर अपनी राय रखी है। जैसा कि उनकी राय से ज़ाहिर होता है, वे विवेक के साथ हैं और मंशा ये कि नैतिकताएं किसी भी कीमत पर बची रहनी चाहिए। लेकिन जब ये कीमत कुछ सौ या हज़ार करोड़ को नुक़सान पहुंचाने लगे, तब भी क्‍या उमाशंकर का यही पक्ष रहेगा, यह इस विश्‍लेषण में साफ नहीं है। आज मीडिया एक इंडस्‍ट्री है, उसे बाज़ार के नियम-कायदे के हिसाब से अपने को तय करना पड़ता है। इसमें विचार के लिए जगह बनाने की लड़ाई बड़ी है। बात ये होनी चाहिए कि ये जगह कैसे बनेगी। हम मोहल्‍ला के व्‍यूअर्स से इस मुद्दे पर उनकी राय चाहते हैं। रवीश ने इसी मुद्दे पर अपने ब्‍लॉग पर लेख लिखा है, मोहल्‍ले में पढ़ते हैं उमाशंकर की बात। एक मदारी निकलता है। जहां आठ-दस लोगों के जुड़ने की उम्‍मीद होती है, वहीं मदारी अपना बंदर नचाने लगता है। न्‍यूज़ चैनल का एक संपादक बोलता है- जिसमें लोगों की दिलचस्‍पी है, उसे क्‍यों न दिखाएं। नचाने और ख़बर दिखाने के मौजूदा खेल में आपको ज्‍यादा फर्क नज़र नहीं आएगा। अरे संपादक जी, लोगों की दिलचस्‍पी तो ब्‍लू फिल्‍म देखने में भी होती है। लगा कर छोड़ दीजिए न अपने चैनल पर। एक दिन शायद आप ऐसा कर भी देंगे और फिर ऐसे ही सीना तान कर कहते नज़र आएंगे कि भई जो लोग देखना चाहते हैं दिखाने में हर्ज़ क्‍या है। संदर्भ एक न्‍यूज़ चैनल पर बहस का। कई वरिष्‍ठ पत्रकार बैठे हैं। कुछ टीवी के लोग हैं, तो कुछ अख़बार के। मुद्दा है क्‍या दिखाया जाना चाहिए, क्‍या नहीं। टीवी संपादक कहते हैं कि अमिताभ के घर के बाहर एक लड़की कलाई काटती है, तो लोग जानना चाहते हैं। बहुत ख़ूब। आपको लड़की की कटी कलाई दिख रही है, लेकिन नशे की खुमारी नहीं। फील्‍ड में खड़ा आपका रिपोर्टर हो सकता है कि ख़बर के सही आयाम को नहीं पकड़ पाया हो, लेकिन आप तो वरिष्‍ठ हैं! आपको पकड़ना चाहिए था! ठीक है, तुरंत मौक़े पर तथ्‍य नहीं तलाशे जा सकते थे, जिनके आधार पर फौरी तौर पर ये तय किया जा सके कि लड़की सही कह रही है या सफेद झूठ। लेकिन कॉमन सेंस तो लगाते। जिन सवालों को खड़ा कर बाद में उस लड़की की मंशा को एक्‍सपोज़ करने की बात की गयी, उन सवालों पर पहले ही चिंतन कर लेते। ठीक शादी के दिन, नशे की हालत में, एक लड़की, एक नामी अभिनेता के नामी बेटे के साथ अपना नाम जोड़ रही है... बयानों के अलावा कुछ नहीं है उसके पास साबित करने को और बयानों में भी इतना विरोधाभास है कि साफ लग रहा है, उसके पास खोने को कुछ नहीं पाने को सारा जहां है। जिन संपादकों ने उस ख़बर को तानने का फ़ैसला किया लगता है, उनके पास भी खोने को कोई क्रेडिबिलिटी नहीं, पाने को टीआरपी है। शादी के अंदर का मसाला नहीं मिला, तो बाहर ही सही। कहीं ये शादी में कैमरा नहीं घुसने देने का बदला तो नहीं था, जो चैनलों ने अपने ढंग से अमिताभ के परिवार से चुकाना चाहा! अरे अपनी कैपिसिटी में आप भी फेमस होंगे। चार लोग आपको भी चाहते होंगे। दो दीवाने या दीवानी आपकी भी होगी, कोई किसी दिन मौक़ा पा कर तन जाए तो आपकी क्‍या हालत होगी। किस तर्क के साथ सामने आएंगे। ऐसी हालत में आप भी चुप रहेंगे, जैसे कि अमिताभ का परिवार चुप रहा। क़ाबिलियत भी इसी में थी। हैरत होती है कि सभी इसे लड़की की पब्लिसिटी स्‍टंट कहते रहे, फिर भी पब्लिसिटी देते रहे। पब्लिसिटी स्‍टंट की मारी सिर्फ वो लड़की नहीं, कई टीवी संपादक भी नज़र आते हैं। लड़की अभिषेक की नहीं, चैनलों की इज्ज़त उतार गयी और आप इसी तर्क में भटकते रहे कि लोग जो देखना चाहते हैं, क्‍यों न दिखाएं। चर्चा रिचर्ड गेरे की शिल्‍पा को प्‍यार की झप्‍पी की भी हुई। टीवी संपादक कहते हैं कि मंच पर शिल्‍पा का हावभाव बता रहा था कि उसे गेरे की ये हरकत अच्‍छी नहीं लगी, इसलिए ख़बर उठाना ज़रूरी था। गज़ब की नज़र है आपकी संपादक जी। यही हावभाव बॉडी लैंगुएज़ आप कलाई काटने वाली लड़की की क्‍यों नहीं पहचान पाये। शायद इसलिए कि उसकी खुमारी को पहचान कर आप एक मसाला नहीं गंवाना चाहते थे और शिल्‍पा की कही बात का भाव समझना-समझाना आपको मसाले के मुफीद लगा। संपादकत्‍व का ये दोहरापन नहीं चलेगा। और तो और, मंच पर मौजूद एक दक्षिणपंथी नेता की तरफ मुख़ातिब हो टीवी संपादक ने कहा- ये एक ऐसा मामला था जैसे मामलों को आपके कार्यकर्ता भी भारतीय संस्‍कृति पर हमला मानते हैं। तोड़फोड़ मचा देते हैं। कहने का मतलब कि इस बार शिवसैनिकों की ज़ि‍म्‍मेदारी संपादकों ने उठा ली। लगे मोरल पुल‍िसिंग करने। जब शिल्‍पा ने कहा कि शिकायत नहीं है, तब जा कर चुप हुए। ख़बर को लेकर ये अपने तरह की दक्षिणपंथी सोच है। टीवी संपादक कहते हैं कि अमिताभ के बेटे की शादी के बारे में लोग जानना चाहते हैं। लोग अमिताभ जैसा बनना चाहते हैं, इसलिए वो देखते हैं। दिखाने में हर्ज़ क्‍या है। अख़बार के संपादक कहते हैं कि भई अगर अमिताभ नहीं चाहते तो ताकझांक करने की ज़रूरत क्‍या है। लेडीज़ संगीत के दौरान बजे गाने और बरातियों के खाने पर अंदाज़ा लगा लगा कर आप क्‍या बता रहे थे। तो टीवी संपादक का जवाब देखिए, अंदाज़ा तो कैबिनेट और कार्यकारिणी की बैठकों के दौरान भी लगाये जाते हैं, ख़बर उनसे भी बनाये जाते हैं। अरे भई, अभिषेक-ऐश की शादी और सरकार या राजनीतिक पार्टियों की बैठक में तुलना कर आप क्‍यों अपनी भद पिटवा रहे हैं। इस शादी का आम लोगों की ज़ि‍न्‍दगी पर कोई असर नहीं पड़ने वाला... सिवाय इसके कि वो भी इसी तरह से शादी करने या कम से कम ऐसी शादी में शिरकत करने का सपना देखें। लेकिन सरकार या दल की बैठकों में लिये जाने वाले फ़ैसले आम लोगों पर सीधा असर डाल सकते हैं। उसके बारे में सचेत रखना, जागरूक करना, पब्लिक ओपिनियन बनाना मीडिया का फर्ज़ है। इसलिए कई बार बात सूत्रों के हवाले से भी होती है। आपने अगर शादी की सूचनाएं समारोह के सूत्रों के हवाले से दी हों, तो ये आपके संपादकत्‍व की पराकाष्‍ठा है। आम लोगों को ग्‍लैमर खींचता है। पर वो आपको क्‍यों खींचता है। आपको तो इन सब से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए। ज़्यादातर मौक़ों पर ऐसा तब होता है, जब इंसान ऐसे माहौल में पला-बढ़ा हो, जहां भयंकर वैचारिक दीनता छायी हो। समय के साथ उसका कद और पद तो बढ़ गया हो लेकिन सोच वहीं रह गयी हो। कइयों का पद भी सिर्फ और सिर्फ इसलिए बढ़ा है, क्‍योंकि टीवी में वे ऐसे वक्‍त आये, जब जानकार ज़्यादा नहीं थे। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं रहने वाला। वो दिन आएगा, जब मदारी बंदर ही नचाएगा और संपादक ख़बर ही दिखाएगा। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=1560540&key=CLHQMxJSaW If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070423/5f375024/attachment.html From chauhan.vijender at gmail.com Tue Apr 24 09:17:50 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Tue, 24 Apr 2007 09:17:50 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KS+4KS54KWB?= =?utf-8?b?4KSw4KWC4KSq4KS/4KSv4KS+IOCktuCkueCksDog4KSP4KSVIOCkuA==?= =?utf-8?b?4KSu4KWA4KSV4KWN4KS34KS+?= In-Reply-To: <200704232049.30659.ravikant@sarai.net> References: <200704232049.30659.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540704232047wf7b4208u67e3f433d6df773c@mail.gmail.com> लेख ब्‍लॉगजगत तक पहुँचाने के गुनहगाार हम पहले हो चुके हैं। चिट्ठाजगत की प्रशंसाएं और आशंकाएं भी हॉं दर्ज हो रही हैं। आप भी नजर डालें और शामिल हों। http://masijeevi.blogspot.com/2007/04/blog-post_23.html तथा http://linkitmann.blogspot.com/2007/04/blog-post_23.html विजेंद्र On 4/23/07, Ravikant wrote: > > अपने चिर-परिचित अंदाज़ में सुधीश जी की समीक्षा, कल(22.4.07) के दैनिक > हिन्दुस्तान से. > चंदन जी को साभार. दीवान के पाठकों को बता दूँ कि सायबर मोहल्ला सराय और > अंकुर का > संयुक्त प्रॉजेक्ट है, जिसकी प्रयोगशालाएँ, दिल्ली की तीन बस्तियों में चल > रही हैं. इन तीन बस्तियों > के नाम हैं: लोकनायक जयप्रकाश कॉलोनी, दक्षिणपुरी, और नांगला माची, जो अब > उजाड़ी जा चुकी > है. > > रविकान्त > > http://epaper.hindustandainik.com/Default.aspx?selpg=731 > साइबर संसार के ब्लॉग लेखक > सुधीश चौधरी > > दिल्ली में लिखने-पढ़ने वालों के कई इलाके हैं। कई अड्डे हैं। कई सैरगाहें > हैं। कई ऐशगाहें भी हैं। कई > कत्लगाहें हैं। नित्य उजड़ती बसती दिल्ली के दिल में बहुत सी जगह है। > दिल्ली में अपने-अपने आसमान में अपनी-अपनी पतंग उड़ाते हुए अनेक युवा लेखक भी > लिखते-पढ़ते हैं। > वे किसी साहित्यिक ऐशगाह के मोहताज नहीं हैं। किसी बड़े लेखक तक उनकी पहुँच > नहीं है, उन्हें इसकी > परवाह नहीं है। उन्हें किसी की कृपा की दरकार नहीं। वे किसी की महानता से > आतंकित नहीं। उसकी > अपनी जगह अपना इलाका है। वे इस बात का अहसान भी नहीं जताते फिरते कि वे लेखक > हैं। > उन्होंने मिलकर एक किताब लिखी है, 'बहुरूपिया शहर'। > > उनका गद्य आँखें खोलने वाला है। एकदम ताज़ा दैनिक और बेहद हरकत वाला जीवन > बताने > वाला गद्य, जिसे आप कविता की तरह पढ़ सकते हैं। इनका लेखन पहला विधिवत 'साइबर > स्पेसी' लेखन > है जो एक ही पल में उनकी कलम की ताकत को उनकी लिखने की धार को बताता है। आम > कलम इसी > तरह जिन्दगी से जुड़कर जब बोलती है, शहर की बस्तियों की परत दर परत खोलती > चलती है। इनके > आगे हिन्दी के प्रख्यात रिपोर्तज पुराने लगते हैं। ये लेखक दिल्ली की झुग्गी > झोंपड़ी बस्तियों में > पले-बड़े हुए हैं। वह उनका अपना जगत है। वे ही उसकी पहली सूचना दे रहे हैं > वरना आज की हिन्दी में > किसी बस्ती, किसी झुग्गी को जगह कहाँ? इसीलिए यहाँ की बेहद एक्शन भरी > टूटी-फूटी जिन्दगी के > नितांत गैर रूमानी चित्रण मिलता है। इन बस्तियों के लेखक अपने हैं जैसे कि > नांगला माची के या जेपी > कॉलोनी के या दक्षिणपुरी के। ये बस्तियाँ अपने लेखक पैदा कर चुकी हैं। > > अजरा, जानू, लख्मीचंद, राकेश खैरालिया से लेकर बाबी ख़ान, त्रिपन कुमार, > नसरीन शमशेर, नीलो > फर, सूरज राय कोई बीस नाम इस 'बहुरूपिया शहर' का निर्माण करते हैं। ये हिन्दी > के 'ब्लॉगर' > हैं। 'ब्लॉगर राइटर' हैं। 'ब्लॉगर लेखक' हैं। उनकी कलम ब्लॉग में ही खुली है। > ये कवि हैं, कथाकार > हैं। रेखाचित्रकार हैं। डायरी, टीका, हस्तक्षेप और पता नहीं कितनी रचना > विधाओं को वे रोज़ जन्म > दे रहे हैं। जो लोग इलेक्ट्रॉनिक तकनीक और कंप्यूटर को पश्चिमी-पश्चिमी > चिल्लाकर रोते हैं वे जान > लें कि इसी तकनीक ने इन अनंत हाशियों को एक बेबाक वाणी दी है। यह इनकी ताकत > है। जेनरेशन > नेक्सट हिन्दी में यही हैं। दिल्ली ने इन्हें बुलाया है। ताकत की मार ने > इन्हें झुग्गियों में धकेला है। > हर तरह से हाशियाकृत लोग हैं यहाँ वही 'हाशिया जीवन' है। किसी के घर में ठेला > लगता है, कोई > बसस्टॉप पर पानी की टंकी लगा पानी पिलाता है, कोई राज मिस्त्री है, कोई > बेलदार का बच्चा > है, जो अपने पिता के साथ काम करता है। कोई खोमचा लगाता है। कोई पटरी बाज़ार > में जुराब, > रुमाल, कंघे बेचता है। > कितने काम नहीं करते ये लोग? कोई सुबह निकल मौसम के अनुसार आइसक्रीम या > मूँगफली बेचता है। > करोलबाग से लेकर चाँदनी चौक तक फेरी लगाकर आज ये कल वो बेच सकता है। अपनी ही > तरह की > इकोनॉमी वाली छोटी मलिन बस्तियों में जाकर ज़रूरत का सामान बेचते हैं सेवाएँ > देते हैं। कुछ भी तय > नहीं है। और अब वह 'नांगला माची' नहीं हैं। उसे उजाड़ दिया गया है सारे लोग > दर-ब-दर हुए हैं। > अभी जेपी कॉलोनी बची है। ये नए और वाकई युवा लेखक इन्हीं में रहते हैं। > हिन्दू, मुसलमान, सिख, > ईसाई साथ-साथ। > हिन्दी ब्लॉग लेखक की खासियत यह है कि इनका जन्म 'सराय' के साइबर स्पेस में > ही हुआ है। > किसी साहित्यिक मासिक के दफ़्तर में संपादक के आशीर्वाद से नहीं हुआ। > > हरेक के पास अपनी कलम है, जो अपने ब्लॉग में अपना मचान लगाती है और सारे दुःख > दर्द हँसी-मजाक > वहीं बाँटती। ये शेअर्ड अनुभवों के लेखक हैं। यह नितांत शहरी पीढ़ी है मगर > हाशिए पर कर दी गई > इकनॉमी की है। इस साइबर सरस्वती के अनंत आकाश में बहुत से सार्थक ब्लॉग लेखक > हैं, हिन्दी वालों > इन्हें जानो-पहचानो और उस दादगिरी को तोड़ दो, जो कथित चंद ठेकेदारों ने बना > रखी है। > लेखन की असली मुक्ति यहीं है। अपने साइबर स्पेस में। > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070424/511cd4ef/attachment.html From vijaykharsh at gmail.com Tue Apr 24 17:08:30 2007 From: vijaykharsh at gmail.com (VIJAY PANDEY) Date: Tue, 24 Apr 2007 17:08:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KSg?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSJ4KSm4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWL4KSX?= Message-ID: *प्रि‍य दोस्‍तों, मेरठ के प्रकाशन उद्योग के सफरनामे पर आपको ले चलने के लि‍ए मैं वि‍जय कुमार पाण्‍डेय सीएसडीएस सराय की फेलोशि‍प के तहत दीवान की पोस्‍टिंग ‍के जरि‍ए दूसरी बार हाजि‍र हूं। पहली पोस्‍टिंग में मुझसे और फेलोशि‍प के वि‍षय मेरठ के प्रकाशन उद्योग से आपका परि‍चय हुआ था। मेरठ के प्रकाशन उद्योग के सफरनामे के शुरुआती चरणों से भी आप रूबरू हुए थे। * * * *अबकी बार से मैं आपको सि‍लसि‍लेवार तरीके से मेरठ के प्रकाशन उद्योग की शुरुआत, प्रकाशन उद्योग की प्रमुख घटनाओं और मेरठ शहर के वि‍कास के संक्षि‍प्‍त सफरनामे पर ले चलूंगा। अगली बार मेरठ के मौजूदा प्रकाशन उद्योग ने कैसे आकार लि‍या इससे रूबरू कराउंगा। तो चलि‍ए चलते है मेरठ के प्रकाशन उद्योग और इस उद्योग के चलते मेरठ शहर के वि‍कास की यात्रा पर। * * * मेरठ के प्रकाशन उद्योग की यात्रा का आधुनि‍क मेरठ शहर के वि‍कास से गहरा नाता रहा है। लगभग दो सौ साल पहले 1806 में ब्रि‍तानि‍यों ने मेरठ में कैंट की स्‍थापना की। इसी समय को आधुनि‍क मेरठ शहर के सफरनामे की शुरुआत का भी माना जा सकता है। मेरठ में कैंट की स्‍थापना के आसपास ही मेरठ में प्रकाशन उद्योग की नींव पड़ी। मेरठ में पहला छापाखाना कब स्‍थापि‍त हुआ, इसका फि‍लहाल कोई साक्ष्‍य नहीं मि‍ला है। हो सकता है आगे शोध के दौरान इसके बारे में कुछ मालूम हो सके। 1849 में समाचार पत्रों और मुद्रणालयों से संबंधि‍त एक रि‍पोर्ट प्रकाशि‍त हुई। यह रि‍पोर्ट वर्तमान उत्‍तर प्रदेश (तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों) की थी। इस रि‍पोर्ट के मुताबि‍क उस समय तक उत्‍तर प्रदेश (तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों) में 23 मुद्रणालय थे। इनमें पुस्‍तक मुद्रण के अति‍रि‍क्‍त 29 समाचार पत्र और पत्रि‍काएं छपते थे। 1850 तक तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों (इसमें लखनउ शामि‍ल नहीं है) में कुल 24 मुद्रणालय थे। इनमें आगरा में सात, बनारस चार, दि‍ल्‍ली में दो, मेरठ में दो, लाहौर में दो और बरेली, कानपुर, इंदौर व शि‍मला में एक-एक छापेखाने थे। मेरठ के प्रकाशन उद्योग के वि‍कास में हि‍न्‍दी और उर्दू दोनों सगी बहनों का बराबर का योगदान था। लेकि‍न शुरुआती सालों में मेरठ उर्दू प्रकाशन के ही जाना जाता था। मेरठ के छापेखानों में आज से सवा सौ साल पहले तक अधि‍कांश प्रकाशन उर्दू में ही होते थे। 1850 के आसपास मेरठ से एक समाचार पत्र जाम ए जम्‍शैदनि‍कलता था। हालांकि‍ यह अखबार कि‍स छापेखाने में छपता था और पत्र की सामग्री के वि‍षय में कुछ भी मालूम नहीं है। मेरठ के ऐति‍हासि‍क कस्‍बे सरधना की बेगम समरु, जि‍न्होंने ईसाई धर्म स्‍वीकार कर लि‍या था, का भी प्रकाशन उद्योग के वि‍कास में सराहनीय योगदान है। बेगम समरु के ईसाई धर्म स्‍वीकार करने से सरधना रोमन कैथोलि‍क मि‍शनरि‍यों का केन्‍द्र बन गया। यहां ईसाई मि‍शनरि‍यों ने 1848 के आसपास एक मुद्रणालय खोला। इसका उद्देश्‍य धर्म प्रचार में योगदान करना था। इसमें 1850 से पहले उनकी धार्मि‍क पुस्‍तकें प्रकाशि‍त होती थीं इसके अलावा ईसाई पादरि‍यों के व्‍याख्‍यान और वार्तालाप फारसी और देवनागरी में छापे जाते थे। 1857 के गदर से पहले देश के कई हि‍स्‍सों में जनमानस में ब्रि‍तानि‍यों के खि‍लाफ माहौल बन रहा था। मेरठ से प्रकाशि‍त होने वाली पुस्‍तकों, समाचार पत्रों, पंपलेटों आदि‍ ने यहां इस भूमि‍का को बखूबी नि‍भाया। 1857 में जमीलुद्दीन हि‍ज्र साहब मेरठ से अपना एक पत्र नि‍कालते थे। वह दि‍ल्‍ली के सादि‍क उल अखबार का भी संपादन करते थे। उनका यह अखबार शाही महल भी जाया करता था। 1857 के गदर के बाद जब मुगि‍लया सल्‍तनत के अंति‍म बादशाह बहादुरशहर जफर के खि‍लाफ ब्रि‍तानि‍यों ने मुकदमा चलाया, उसमें इस अखबार का जि‍क्र बार बार आया है। इसके चलते हि‍ज्र साहब को गि‍रफ्तार कि‍या गया। उनके खि‍लाफ भी मुकदमा चला और उन्हें तीन साल की सजा मि‍ली। उन्‍नीसवीं सती के अंति‍म दशकों से पहले खड़ी बोली के गढ़ मेरठ के प्रकाशन उद्योग में हि‍न्‍दी का प्रकाशन अपेक्षाकृत कम होता था। लेकि‍न सदी के अंति‍म दशकों में इसमें बदलाव हुआ। इसमें दयानंद सरस्‍वती के आर्य समाज और मेरठ के ही स्‍थानीय नि‍वासी पंडि‍त गौरीदत्‍त शर्मा का भारी योगदान था। स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के भाषणों से प्रभावि‍त होकर खुद को देवनागरी के प्रचार के लि‍ए समर्पि‍त कर देने वाले पंडि‍त गौरीदत्‍त शर्मा ने 1887 में एक मासि‍क पत्र देवनागरी गजट और 1892 में देवनागरी प्रचारक नि‍काला। 1894 में नागरी प्रचारि‍णी सभा का गठन कर मासि‍क पत्र देवनागर का प्रकाशन कि‍या। ये सभी पत्र यही के छापेखानों में प्रकाशि‍त होते थे। इसके अलावा पंडि‍त जी ने एक उपन्‍यास देवरानी जेठानी की कहानी भी लि‍खा था। पहली बार 1870 में इसका प्रकाशन मेरठ के जि‍याई छापेखाने में लीथो पद्ध्‍ति‍ से हुआ। इसकी प्रति‍ आज भी कलकत्‍ता के नेशनल लाइब्रेरी में सुरक्षि‍त है। हि‍न्‍दी के मशहूर साहि‍त्‍यकार आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने इसे खड़ी बोली हि‍न्‍दी का पहला उपन्‍यास कहा है। पंडि‍त जी ने अपने पत्रों के जरि‍ए देवनागरी को बढ़ावा देने के लि‍ए देवनागरी गजट में भजन और आरती प्रकाशि‍त कि‍ए। उनके भजन महि‍लाओं में काफी लोकप्रि‍य थे। पंडि‍त जी देवनागरी के प्रचार को लेकर इतने समर्पित थे कि‍ वे परस्‍पर अभि‍वादन में भी जय नागरी का प्रयोग करते थे। आचार्य क्षेमचंद्र सुमन के मुताबि‍क हि‍न्‍दी का दूसरा उपन्‍यास वामा शि‍क्षकमुंशी कल्‍याणराय ने मुंशी ईश्‍वरी प्रसाद के साथ मि‍लकर 1872 में लि‍खा था। यह लगभग 11 साल बाद 1883 में मेरठ के वि‍द्या दर्पण छापेखाने में मुद्रि‍त हुआ था। इन साहि‍त्‍यकारों के प्रयास से खड़ी बोली के गढ़ जनपद मेरठ में उन्‍नीसवीं सदी के अंत में हि‍न्‍दी प्रकाशन भी बहुतायत में होने लगे। * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070424/caf3085a/attachment.html From avinashonly at gmail.com Tue Apr 24 22:51:24 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Tue, 24 Apr 2007 12:21:24 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <2079240.1052941177435284214.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// हिंदुत्व की ज़मीन पर बाबा रामदेव का योग Posted: 24 Apr 2007 12:08 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/111617706/blog-post_24.html सुभाष चंद्र मौर्य बाबा रामदेव इस वक्‍त भारत के सबसे चर्चित योगगुरु हैं। उनकी लोकप्रियता बड़े राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, धार्मिक महंथों और यहां तक कि मुल्‍क के नगरों-महानगरों में भरे-पड़े मध्‍यवर्ग के बीच सबसे अधिक है। ऐसे योगगुरु जो मुंगेर योगाश्रम और रिखिया आश्रम के स्‍वामी सत्‍यानंद सरस्‍वती की तरह निर्विवादित नहीं हैं, फिर भी उनकी स्‍वीकार्यता चमत्‍कृत करती है। जेएनयू के शोध छात्र सुभाष मौर्य ने उनकी मंशा और उनके कारोबार का अपनी तरह से विश्‍लेषण करने की कोशिश की है। बाबा रामदेव के दो चेहरे हैं। एक वो, जिसमें वह लोगों को योग की दीक्षा देते नजर आते हैं। दूसरा वो, जिसमें वह अपने शिविरों में प्रवचन देते नजर आते हैं। दोनों चेहरों को ठीक से जानने और पहचानने की जरूरत है। जब बाबा रामदेव योग की शिक्षा देते नजर आते हैं, खासकर समाचार चैनलों पर, तो बेहद तर्कवादी नजर आते हैं। उस समय बाबा रामदेव ज़ोर देकर कहते हैं कि उन्‍होंने फलां रोग में वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करके साबित किया है कि योग इसमें कितना कारगर है। उस समय ऐसा लगता है वह पूरी तरह तर्क बुद्धि में यकीन रखने वाले शख्‍स हैं। वही बाबा रामदेव जब आस्‍था चैनल पर प्रवचन देते हैं, तो बिल्‍कुल आस्‍थावादी नजर आते हैं। उस समय उनका आदर्श होता है श्रद्धा और भक्ति। उस समय तर्क या प्रमाण को वह सिरे से भूल कर आसाराम बापू या उन्‍हीं की तरह के तथाकथित संत नज़र आते हैं। दिन-ब-दिन उनके कार्यक्रमों में योग कम, प्रवचन ज्‍यादा बढता जा रहा है। या यों कहें तो बेहतर होगा कि उनका असली चेहरा सामने आता जा रहा है। नोएडा में इन दिनों बाबा रामदेव का शिविर चल रहा है। किसी भारत विकास परिषद के ख्‍यातिनाम पुरूष ने इसी शिविर में उन्‍हें ईश्‍वर का अवतार कहा और बाबा मुस्‍कुरा कर सुनते रहे। क्‍या यही है बाबा रामदेव का असली चेहरा? अगर बाबा रामदेव की योग शिक्षा को परे रखकर उनके प्रवचनों को ध्‍यान से सुना जाए तो यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि वह हिंदुत्‍व की ज़मीन तैयार कर रहे हैं। उनके प्रवचनों में सिर्फ हिंदुत्‍व और उसके आदर्श ही नजर आते हैं। उसमें देश की साझा और सा‍मासिक संस्‍कृति का रत्ती भर ज़‍िक्र नहीं आता। बाबा रामदेव के मुरीद करोड़ों में हैं, और वह भी योग की वजह से। करोड़ों लोगों पर उनका प्रभाव भी है। मुश्किल यह है कि लोग उनके पास आते तो हैं योग के माध्‍यम से अपनी बीमारियों का इलाज पाने के लिए, लेकिन योग के साथ-साथ उन्‍हें हिंदुत्‍व का प्रवचन भी मिलता है। और यह घुट्टी इस तरह पिलायी जाती है कि धर्म, आस्‍था, भावना, समर्पण जैसे शब्‍द बड़ी मिठास के साथ भीतर तक घुलते जाते हैं। ऐसे लोग भाजपा, बजरंग दल और विश्‍व हिंदू परिषद जैसे संगठनों के लिए बड़े मुफीद पड़ते हैं। आखिर ऐसे ही लोग तो जय श्री राम के नारे पर कारसेवा और क़त्‍लेआम के लिए निकल सकते हैं। बाबा रामदेव की यह भूमिका ठीक वैसी ही है, जैसे अस्‍सी के दशक में दूरदर्शन पर दिखाये जाने वाले रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों की रही थी। देश में अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में सांप्रदायिकता के उभार में इन धारावाहिकों की भू‍मिका स्‍वीकार करने में शायद ही किसी को गुरेज हो। इन दोनों धारावाहिकों ने राम एवं कृष्‍ण के बहाने हिंदुत्‍व की छवि आम जनमानस में पुनर्जीवित कर दी। और बाबा रामदेव भी यही कर रहे हैं। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=1560540&key=CLHQMxJSaW If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070424/4b3ac3af/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Apr 25 15:14:51 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 25 Apr 2007 15:14:51 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSc4KS8?= =?utf-8?b?4KS/4KSh4KWH4KSC4KS4IOCkquCljeCksOClguCkqyBmcm9tIEJpcHVsIFBh?= =?utf-8?q?mdey?= Message-ID: <200704251514.52640.ravikant@sarai.net> पराया शहर, नए छात्र ******* दिल्ली में छात्रों का आंकड़ा यही है कि 1483 वर्ग किलोमीटर में फैली इस दिल्ली में अनगिनत छात्र रहते हैं। कभी गिनती नहीं की गई, लेकिन बड़ी तादाद में स्कूल-कॉलेज, कोचिंग इंस्टीट्यूट इस बात की गवाही जरूर देते हैं कि छात्रों का ये कुनबा इस महानगर में एक शहर की तरह है। उनकी हैसियत मजबूत है। आवाज कमजोर है, बाकी पूरी अवाम की तरह। दिल्ली के तीन विश्वविद्यालयों में जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय की तो दुनिया में पहचान है। तीसरा विश्वविद्यालय खुला है, गुरु गोविंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय। ** इनमें से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय 38 साल का जवान है। जवान इसलिए, क्योंकि 1969 में स्थापना के बाद जेएनयू छात्रों की तादाद के लिए नहीं बल्कि उनकी शिक्षा के लिए जाना जाता है। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के प्रयासों से संविधान में कानून बनाकर इसकी स्थापना की गई। अरावली पहाड़ी की वादियों में करीब एक हजार एकड़ में फैले इस विश्वविद्यालय के कैंपस में 5500 छात्र पढ़ते हैं और यहीं पर रहते हैं। लेकिन यहां पर जितने छात्र रहते हैं उससे ज्यादा छात्र इसके आसपास रहते हैं। ** मुनीरका, शेख सराय, कटवरिया सराय, जिया सराय, लाडो सराय, कालू सराय ऐसे सराय हैं जिसका एंटीना सीधा जेएनयू और आईआईटी दिल्ली से जुड़ा है। यहां ऐसे छात्र बसते हैं, भारतीय संघ लोक सेवा आयोग, इंजीनियरिंग और मेडिकल की तैयारी जिनकी रगों में धर्म बनकर दौड़ता है। इन छात्रों की तैयारी और उम्मीद के बीच की कड़ी इतनी मजबूत होती है कि सालों नहीं टूटती। छात्र का हौसला भले टूट जाए, सपने नहीं टूटते। आप इनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। हौसला और कामयाबी। ** कटवरिया सराय और मुनीरका भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा की तैयारी करने वालों का गढ़ है, तो वहीं कालू सराय इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज की तैयारी करने वाले छात्रों का। कालू सराय में देश के सभी प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थानों की मुख्य शाखाएं (दिल्ली की) हैं। संख्या चाहे जो हो अगर आप दिल्ली में नहीं रहते तो यह जानकर ही अनुमान लगा सकते हैं कि इस वटवृक्ष जेएनयू के नीचे साधना करने वाले छात्रों की बदौलत सैकड़ों मकान मालिक मालामाल हो चुके हैं। मकान मालिकों ने जमीन के नामालूम से टुकड़े पर छोटी-छोटी जाने कितनी अनगिनत कोठरियां बना ली है। यह किसी कालकोठरी से कम नहीं हैं, लेकिन कभी भी कोई कमरा खाली नहीं रहता। ** दिल्लीवालों को दिल्ली विश्वविद्यालय के बारे में कुछ बताना नामुनासिब है। लेकिन खम ठोंकने के अंदाज में तो बता ही सकता हूं। 1922 में जब ये विश्वविद्यालय बना तो उस समय सिर्फ तीन कॉलेज हुआ करते थे जिन्हें जोड़कर एक विश्वविद्यालय बना दिया गया। सेंट स्टीफंस कॉलेज, हिंदू कॉलेज और रामजस कॉलेज। लेकिन विश्वविद्यालय की ये बुनियाद बड़ी पक्की साबित हुई। अंग्रेजों का जमाना था जब स्थापना के वक्त शिक्षा के इस मंदिर में सिर्फ और सिर्फ 750 छात्र पढ़ा करते थे। यह आजादी के बाद का जमाना है जब इस समय करीब एक दशक से यह विश्वविद्यालय देश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के रुतबे पर कायम है। महानगर में इस समय इस विश्वविद्यालय के 79 कॉलेज हैं और छात्रों की तादाद 2,20,000 के करीब। विश्वविद्यालय के दो कैंपस हैं एक साउथ कैंपस जो जेएनयू के करीब दक्षिण दिल्ली में है और दूसरा नॉर्थ कैंपस, मॉल रोड पर। ** एक बार फिर ले चलता हूं आपको यहां की कालकोठरियों में। कैंपस के पास पटेल चेस्ट, क्रिस्चियन कॉलोनी, हडसन लेन, ऑट्रम लेन, विजय नगर, किंग्सवे कैंप, मुखर्जी नगर तमाम ऐसे इलाके हैं जो सामने-सामने दिखते हैं कि ये किस कदर छात्रों से अटे पड़े हैं। जाने कितनी तंग गलियां हैं और तंग कमरे। जिनमें सुनहरे भविष्य का ख्वाब लिए छात्र बसते हैं। ** दो प्रमुख विश्वविद्यालयों के साथ जिन इलाकों का जिक्र मैंने किया है, मैं उनके बारे में बात करना चाहता हूं। इन इलाकों में तंग कमरे में रहने वाले छात्रों के सुनहरे भविष्य की खिड़की है। जिस खिड़की के पार दिखता है रेज़िडेंस प्रूफ। भला जो घर नहीं है उसका कोई प्रूफ हो सकता है ? यहीं से शिक्षा के साथ-साथ एक और संघर्ष शुरू होता है। बात तो मैंने कइयों से की है। इनकी दिक्कतों का जिक्र नहीं करना चाहता। जिस तरह चावल के एक पके दाने से पूरे चावल की नब्ज पकड़ में आ जाती है उसी तरह खुद आप भी चावल का एक दाना चखिए। आप मुखातिब हैं नवीन कुमार से और उनके अनुभवों से.... *अकाउंट और बाइक के आगे रेड लाइट**** ***(*नवीन कुमार की बातें बिना काट छांट के पेश हैं। सारी बातें दिलचस्प हैं और कैसेट में कैद हैं, बाद में ये सबकुछ सराय के पास होगा। चाहें तो सुनें...*) *(आईएफएस सीएसटी1- काउंटर 40-165)* ** मसला क्या है कि जब मैं 1997-98 में जर्नलिज्म की पढ़ाई करने यूनिवर्सिटी आया तो एक साल तक तो कोई अकाउंट ही नहीं था। जानता था कि रेजिडेंस प्रूफ के बिना अकाउंट खुलना मुमकिन हीं है, लेकिन एक साल बाद आईएमसी में पढ़ते वक्त वहां के पहचान पत्र (आईडी) से मेरा अकाउंट खुल गया। दिक्कत तब हुई जब मैंने कॉलेज छोड़ा। कॉलेद छोड़ते ही अकाउंट जिस तरह खुला था उसी तरह क्लोज करना पड़ा। वजह ये थी कि मैं वहां का छात्र ही नहीं रह गया था। और मेरे पास कॉलेज का पहचान पत्र ऐसा इकलौता प्रूफ था जिसकी बदौलत मैं अकाउंट खोल सकता था। इस आईडी में कोई पता नहीं था। नाम था, कोर्स का नाम था और इंस्टीट्यूट का नाम। हुआ वही, मैंने नहीं कहा था क्लोज करो.. बैंक ने कहा अकाउंट क्लोज करो.. क्योंकि वहां रह नहीं गया था। खैर.. आईआईएमसी छोड़ने के बाद मैंने फ्रीलांस (अखबारों में स्वतंत्र लेखन) शुरू किया। अखबारों में लिखता था। अखबारों से चेक आते थे। उन्हें भुनाने में इंतजार नहीं कर सकता था क्योंकि चेक छह महीने के ही लिए वैलिड होते हैं। एक-दो चेक तो इसी चक्कर में बेकार हो गए। फिर लगा कि ऐसे कैसे चलेगा भाई.... कई जगहों पर दौड़ा। सबसे पहले तो पोस्टऑफिस गया, वहां अकाउंट आसानी से खुल जाता है.. क्योंकि वहां इंट्रोड्यूसर की जरूरत नहीं होती। बाकी जगहों पर इंट्रोड्यूसर होना चाहिए यानी उसी बैंक का अकाउंट होल्डर। ताकि आप गड़बड़ी करें तो बैंक उसके गिरेबान तक पहुंच सके। लेकिन पोस्टऑफिस पहुंचा तो उसने भी कहा कि कुछ ले आइए। जहां रहते हैं वहां से ले आइए.. मैंने कहा क्या ले आएं भाई... किराये के मकान में रहते हैं... मकान मालिक से एग्रीमेंट होता नहीं है... कोई रसीद पर्ची देते नहीं.. मकान मालिक लिखेगा नहीं। कई जगह घूमने के बाद ओरिएंटल बैंक गया, जहां मेरे भैया के परिचित काम करते थे। उन्होंने कहा... दरअसल ऐसा होता नहीं है... लेकिन उन्होंने कहा कोई भी कागज लगा दो.. चलो आईआईएमसी का ही कागज लगा दो... मैंने भी आईआईएमसी के पहचान पत्र की कॉपी लगा दी... खैर अकाउंट खुल गया 2005 के आखिर में... लेकिन फॉर्म पर लिख दिया कि मैं किसी को इंट्रोड्यूस नहीं कर सकता अकाउंट खोलने के लिए। दो ही महीने बाद चेक जमा करने गया तो उसने कहा कि आपका अकाउंट है ही नहीं... मैंने कहा.. क्या बात करते हो भाई... अभी तो खुलवाया है... उसने बोला आप ऑडिट में चले जाइए... ऑडिट में गया तो पता चला कि कोई रेजिडेंस प्रूफ नहीं है... अब क्या ले आएं भाई... लेकिन उसने कहा कुछ भी ले आइए... मैंने कहा कुछ भी तो है नहीं.. ड्राइविंग लाइसेंस है नहीं... वोटर आईडी है नहीं... राशन कार्ड बना नहीं... क्या ले आएं...। इतना सुनने के बाद ऑडिटर ने खुद कहा कि 10 रुपये का स्टांप पेपर लीजिए उस पर लिखवाइए कि फलां-फलां आदमी मेरे मकान में रहता है... मैंने कहा सिग्नेचर कौन करेगा ? उसने कहा खुद कर दीजिए... हां उसने खुद मुझसे ये रास्ता बताया.. मैं क्या करता कोई चारा नहीं था... बीस रुपये में काम हो गया.. अकाउंट खुल गया और आज तक अकाउंट वैसे ही है... इसी तरह मैं मोटरसाइकिल खरीदने गया। फाइनेंस करवाना था। उसने कहा वैरिफिकेशन होगा... रेजिडेंस प्रूफ लाइए। मैंने कहा कहां से ले आउंगा प्रूफ। मेरे पास तो है नहीं... कहा तब तो नहीं दे पाएंगे कर्ज... बैंक अकाउंट के पते को प्रूफ माना नहीं... अकाउंट में ये भी देखते हैं कि ट्रांजेक्शन है या नहीं.. अब मेरे जैसे आदमी का क्या ट्रांजेक्शन होता... एकमात्र विकल्प था कि मैं किसी ऐसे आदमी को तलाश लूं जिसके पास कोई प्रूफ हो। मेरा यहां एक मित्र था। आर्मी अस्पताल में...। मैंने कहा आर्मी वाले बहुत इमानदार होते हैं। उसको मैं लेकर आया... उसका डाक्यूमेंट लाया.. और हुआ ये कि उसके नाम पर मैंने मोटरसाइकिल खरीदी... जबकि चेक सारे मैंने जमा किए... और हालत ये है कि मेरी मोटरसाइकिल पिछले छह साल से उसकी है। उसकी मौत हो चुकी है... मोटरसाइकिल खरीदने के कुछ समय बाद ही सियाचीन में हवाई हादसे में उसकी मौत हो गई। अब मोटरसाइकिल ट्रांसफर नहीं हो सकती क्योंकि उसकी मौत हो चुकी है। उसकी मौत के बाद से हालत ये है कि अगर एक भी चेक बाउंस होता था तो नोटिस उसके घर आए.. जैसा हुआ भी... अब अगर मैं एक भी रेड लाइट जंप करता हूं तो नोटिस उसके घर जाता है.... बीच में एक्सीडेंट हो गया। मैंने गाड़ी का इंश्योरेंस था इसलिए बनने के लिए दे दिया...। लेकिन पता चला कि वो पैसा उसी मित्र के अकाउंट में ट्रांसफर होगा... जो इस दुनिया में है नहीं...। आज भी उसके जितने चालान वगैरह होते हैं आर्मी हेडक्वार्टर जाते हैं। अब ट्रांसफर कैसे होगा... ट्रांसफर तो तभी होगा जब उसने वसीयत लिखी हो... वो वसीयत कैसे लिखेगा... उसके पिता आएं और ये लिखकर दें कि मेरा बेटा था.. उसकी मौत हो गई.. अब मैं इनके नाम ट्रांसफर करता हूं... कहां संभव है... वैसे कानूनी तौर पर मोटरसाइकिल है ही उसकी... मैं सिर्फ इस्तेमाल कर रहा हूं... अगर आज वो कह दें कि ये मेरी मोटरसाइकिल है तो मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जबकि हकीकत ये है कि मोटरसाइकिल मेरी है। पैसे मैंने जमा किए हैं...। लेकिन इसका एक फायदा भी है। पुलिस को चकमा दीजिए। खूब रेड लाइट जंप कीजिए चालान तो कहीं और जाना है। ** एक-दो दिक्कत थोड़े ही है। टेलीफोन लगाना था तो फिर वही- रेजिडेंस प्रूफ ले आइए। दरअसल उस समय मेरी पत्नी जेएनयू में थी। शादी हो गई तो सबकुछ नए सिरे से शुरू करना था। क्या करता... फिर वही फर्जीवाड़ा। वोटर आईडी के लिए भी कोशिश की... लेकिन होता क्या है कि छह महीने-साल भर में वो आता है वैरिफिकेशन करने। तब तक किराये का मकान बदल जाता है। अब आज की तारीख में मैं अपना टेलीफोन सिर्फ इसलिए रखता हूं क्योंकि वो रेजिडेंस प्रूफ के काम आता है। हर महीने साढ़े सात सौ रुपये खर्च करता हूं, लेकिन उसका कोई इस्तेमाल नहीं। मैं और मेरी पत्नी दोनों के पास मोबाइल फोन है। शेष अगली डाक में.... आपका दोस्त बिपुल पांडेय From ravikant at sarai.net Wed Apr 25 16:16:05 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 25 Apr 2007 16:16:05 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= Fw: remix Message-ID: <200704251616.05780.ravikant@sarai.net> दोस्तो, ये बात आप सब जानते हैं, बस याददाश्त ताज़ा कर देता हूँ, कि किसी भी डाक-सूची पर डाक डालते समय यह देख लें कि आप किस ई-मेल ख़ाते से भेज रहे हैं, क्योंकि सूची आपको सिर्फ़ उसी पहचान से जानती है जिससे आपने सब्स्क्राइब किया था. वैसे मैं तो उसे डाल ही दूँगा, जैसा कि मैंने बिपुल और राकेश के इस मेल के साथ किया, लेकिन फिर वह मेरे नाम से पहुँचेगा, जिसके चलते इसे भविष्य में ढूँढने में परेशानी हो सकती है. शुक्रिया रविकान्त > Blog bhraman par nikla tha. http://bhartiyacinemah.blogspot.com/index.html > par ye ek mazedar item mila. Lekhak mahoday bare drawit ho rahe hain. Bhej > sakein to thodi sahanubhuti zaroor bhejein inhein. maze lein > रीमिक्स - दूसरों की संपत्ति पर दिन दहाड़े डाका  जी हाँ, एक डाकू क्या करता है? केवल दूसरों की संपत्ति को लूट खसोट कर अपना करार देने के सिवाय वो कुछ कर ही नहीं सकता क्योंकि उसके पास इतनी बुद्धि और योग्याता होती ही नहीं है कि कुछ ऐसा बनाने के लिये कि जिसे वह अपना कह सके| केवल बल होता है उसके पास दूसरों की वस्तुयें लूटने के लिये| और वह करता भी यही है| आज पुराने गानों का रीमिक्स बनाने वाला भी लुटेरों की श्रेणी का ही व्यक्ति है| उसके भीतर इतनी कल्पनाशीलता तो होती ही नहीं है कि कोई नई यादगार वस्तु का निर्माण कर सके, हाँ, उसके पास शक्ति अवश्य इतनी होती है कि दूसरों की चीजों को लूट ले, और नहीं तो कम से कम विकृत तो अवश्य कर दे| जरा ध्यान से सोचिये, पुराने लोकप्रिय गीतों की रचना का श्रेय किसी एक व्यक्ति ने कभी भी नहीं लिया क्योंकि वे गीत सामूहिक परिश्रम के परिणाम थे| आज भी यदि आप में से किसी के पास पुराने गीतों के रेकार्ड (लाख या प्लास्टिक का तवा) तो आप उस पर छपे हुये विवरण में पढ़ सकते हैं कि गायक/गायिका - अबस, संगीत निर्देशक - कखग, गीतकार - क्षत्रज्ञ आदि आदि इत्यादि| मेरे कहने का मंतव्य यह है कि एक फिल्मी गीत की संरचना किसी एक व्यक्तिविशेष की नहीं होती| फिर इतने लोगों के परिश्रम से बनी संरचना को मनमाने रूप में बदल देने का अधिकार किसी को कैसे प्राप्त हो सकता है? सामान्यतः मैं रीमिक्स नहीं सुना करता परंतु परिस्थितिवश यदा-कदा सुनना ही पड़ जाता है| ऐसी ही परिस्थिति में एक रीमिक्स मुझे सुनाई दे गया जिसमें गाया जा रहा था - "ये कश्ती वाला, क्या गा रहा था, कोई इसे भी याद आ रहा था" सुन कर मुझे याद आया कि मूल गाने में "था" शब्द है ही नहीं बल्कि "था" के स्थान पर "है" है| मतलब असली बोल हैं - "ये कश्ती वाला, क्या गा रहा है, कोई इसे भी याद आ रहा है" इसी के साथ ही साथ यह भी याद आ गया कि प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र ने फिल्म श्री 420 के एक गीत में लिखा था कि - "रातों दसों दिशाओं में कहेंगी अपनी कहानियाँ.........." उनके इस गीत पर संगीतकार जयकिशन और गीतकार शैलेन्द्र के बीच जोरदार तकरार हो गया था| जयकिशन का ऐतराज था कि दिशाएँ दस नहीं आठ होती हैं और शैलेन्द्र को शब्द बदलने के लिये दबाव डालने के साथ ही साथ दबाव डलवाने का भी प्रयास किया था| पर शैलेन्द्र अपने बोलों पर अड़े रहे| उन्होंने साफ साफ कह दिया कि तुम्हें धुन बनाने से मतलब होना चाहिये, गीत के बोलों से नहीं| गीत लिखना मेरा काम है और मैं जानता हूँ कि मुझे क्या लिखना है, यदि धुन बना सकते बनाओ अन्यथा किसी और से गीत लिखवा लो| तात्पर्य यह कि वे गीतकार इतने स्वाभिमानी थे कि अपने लिखे गीत के एक शब्द में जरा भी परिवर्तन सहन नहीं कर पाते थे| (वैसे शैलेन्द्र जी बिल्कुल सही थे क्योंकि हिंदुओं में पृथ्वी और आकाश को भी दिशा ही माना गया है और इस प्रकार से वास्तव में दस दिशायें ही होती हैं|) तो मेरा प्रश्न यह है कि रीमिक्स बनाने वालों को गाने के ताल को बदलने के साथ ही साथ गीतकार के शब्दों को बदलने का अधिकार किसने दे दिया? जिन गानों के रीमिक्स आज बन रहे हैं उनके गीतकार, संगीतकार, गायक, री-रेकार्डिंग तकनीशियन आदि में से प्रायः सभी लोगों का स्वर्गवास हो चुका है| जरा सोचिये कि उनकी आत्माओं को शांति के स्थान पर क्या प्रदान कर रहे हैं हम आज?  ** -- Rakesh Kumar Singh Researcher & Translator Delhi, India http://blog.sarai.net/users/rakesh/ Ph: +91 9811972872 "SABSE KHATARNAK HOTA HAI HUMARE SAPNON KA MAR JANA" From ravikant at sarai.net Wed Apr 25 17:28:30 2007 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 25 Apr 2007 17:28:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= In-Reply-To: <2079240.1052941177435284214.JavaMail.rsspp@deepstorage1> References: <2079240.1052941177435284214.JavaMail.rsspp@deepstorage1> Message-ID: <200704251728.31100.ravikant@sarai.net> अविनाश, माफ़ करना भाई, अविनाश, ये सब अटकलें हैं. किसी संस्कृति का हर तत्व अगर सांप्रदायिक है तो मेरी माँ भी सांप्रदायिक ठहरी, क्योंकि वह रोज़ पत्थर की पूजा करके हिन्दुत्व की ज़मीन तैयार कर रही है! आनन-फ़ानन में इस तरह का सेकुलर झंडा उठा लेने वाले विमर्श को मैं गंभीर नहीं मानता, यह सस्ती और सतही पत्रकारिता है, या फिर पॉलिटिकली करेक्ट नारा! लेख में विश्लेषण का वादा है, विश्लेषण नहीं. मैंने बाबा रामदेव को बहुत ग़ौर से सुना है - योग-मुद्रा में और प्रवचन करते हुए भी. कम-से-कम मुझे तो वे हिन्दुत्ववादी नहीं दीखते, आगे क्या होगा मुझे पता नहीं. बेशक वे हिंदू हैं, लेकिन दोनों एक चीज़ नहीं है. ईश्वर का अवतार तो अमिताभ बच्चन या सचिन तेंदुलकर जैसे शख़्स को भी लोग मान सकते हैं, तो! रविकान्त मंगलवार 24 अप्रैल 2007 22:51 को, मोहल्ला ने लिखा था: > मोहल्ला > > /////////////////////////////////////////// > हिंदुत्व की ज़मीन पर बाबा रामदेव का योग > > Posted: 24 Apr 2007 12:08 PM CDT > http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/111617706/blog-post_24.html > > सुभाष चंद्र मौर्य > बाबा रामदेव इस वक्‍त भारत के सबसे चर्चित योगगुरु हैं। उनकी लोकप्रियता बड़े > राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, धार्मिक महंथों और यहां तक कि मुल्‍क के > नगरों-महानगरों में भरे-पड़े मध्‍यवर्ग के बीच सबसे अधिक है। ऐसे योगगुरु जो > मुंगेर योगाश्रम और रिखिया आश्रम के स्‍वामी सत्‍यानंद सरस्‍वती की तरह > निर्विवादित नहीं हैं, फिर भी उनकी स्‍वीकार्यता चमत्‍कृत करती है। जेएनयू के > शोध छात्र सुभाष मौर्य ने उनकी मंशा और उनके कारोबार का अपनी तरह से विश्‍लेषण > करने की कोशिश की है। बाबा रामदेव के दो चेहरे हैं। एक वो, जिसमें वह लोगों को > योग की दीक्षा देते नजर आते हैं। दूसरा वो, जिसमें वह अपने शिविरों में प्रवचन > देते नजर आते हैं। दोनों चेहरों को ठीक से जानने और पहचानने की जरूरत है। जब > बाबा रामदेव योग की शिक्षा देते नजर आते हैं, खासकर समाचार चैनलों पर, तो बेहद > तर्कवादी नजर आते हैं। उस समय बाबा रामदेव ज़ोर देकर कहते हैं कि उन्‍होंने > फलां रोग में वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करके साबित किया है कि योग इसमें कितना > कारगर है। उस समय ऐसा लगता है वह पूरी तरह तर्क बुद्धि में यकीन रखने वाले > शख्‍स हैं। वही बाबा रामदेव जब आस्‍था चैनल पर प्रवचन देते हैं, तो बिल्‍कुल > आस्‍थावादी नजर आते हैं। उस समय उनका आदर्श होता है श्रद्धा और भक्ति। उस समय > तर्क या प्रमाण को वह सिरे से भूल कर आसाराम बापू या उन्‍हीं की तरह के > तथाकथित संत नज़र आते हैं। दिन-ब-दिन उनके कार्यक्रमों में योग कम, प्रवचन > ज्‍यादा बढता जा रहा है। या यों कहें तो बेहतर होगा कि उनका असली चेहरा सामने > आता जा रहा है। > > नोएडा में इन दिनों बाबा रामदेव का शिविर चल रहा है। किसी भारत विकास परिषद के > ख्‍यातिनाम पुरूष ने इसी शिविर में उन्‍हें ईश्‍वर का अवतार कहा और बाबा > मुस्‍कुरा कर सुनते रहे। क्‍या यही है बाबा रामदेव का असली चेहरा? From chauhan.vijender at gmail.com Wed Apr 25 21:49:22 2007 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 25 Apr 2007 21:49:22 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= In-Reply-To: <200704251728.31100.ravikant@sarai.net> References: <2079240.1052941177435284214.JavaMail.rsspp@deepstorage1> <200704251728.31100.ravikant@sarai.net> Message-ID: <8bdde4540704250919q69831ca6p634ec904cddacb4f@mail.gmail.com> इस मसले पर सुजाता तेवतिया की राय पर भी गौर करें रामदेव को ऐसे देखो- सुजाता तेवतिया मौर्य जी को मोहल्ले पर पढा । ट्प्पणियाँ भी देखी। भई हम तो ना बाबा को सुनते है ना मानते हैं ।फिर भी यहाँ अजीब लगा जब मौर्य जी ने कहा "अगर बाबा रामदेव की योग शिक्षा को परे रखकर उनके प्रवचनों को ध्‍यान से सुना जाए तो यह कहना कहीं से गलत नहीं होगा कि वह हिंदुत्‍व की ज़मीन तैयार कर रहे हैं। उनके प्रवचनों में सिर्फ हिंदुत्‍व और उसके आदर्श ही नज़र आते हैं " मुझे लगता है यहाँ एक प्रकार का चश्मा पहन कर देखने से ही कहना संभव होता है । हैरानी तो यहाँ है कि वे अपनी बात के समर्थन मे बाबा का एक भी वाक्य उद्धृत नही करते। आस्था और भक्ति क्या केवल हिन्दू आदर्श हैं ? क्या अन्य धर्म तर्क पर आधारित हैं? आस्था भक्ति और श्रद्धा शायद किसी भी मानव धर्म की सत्ता के अनिवार्य पहलू हैं बिना इनके कोई धर्म खडा नही होता । जब हमा तर्क करते है तो ज़रूर इस मध्यकालीनता से आगे आ जाते हैं।प्रश्न करना, तर्क देना आधुनिकता है । इसलिए बात को कहने से पहले वैध् तर्क खोजना ज़रूरी है वर्ना यह भी एक अन्य किस्म की आस्था ही है कि भक्ति की बात होते ही हम खतरे की घण्टी सुनने लगें। मेरी नज़र मे बाबा वाला सारा मामला मार्केटिंग की दृश्टि से देखा जाना चाहिए। जो बिकाऊ नही उसकी सत्ता निरर्थक है । योग जब तक बाज़ार की उत्पादन -वितरण प्रणाली के योग्य न था उसे किसी ने नही पूछा । बाबा ने योग को देशी ही नही विदेशी बाज़ार मे भी बेचने योग्य बना दिया ।मार्केटिंग स्किल्लस अगर आपमे है तो आप गोबर भी ऊँची कीमत पर बेच सकते हैं फिर यहाँ तो *योग* है । रामदेव ने उसे ऐलोपैथी से टक्कर लेने काबिल दिखा दिया ।वर्ना कौन पूछता था इसे । अभी संस्कृत पर भी बात चली ठीकि क्या यह एक मृत भाषा है? आप संस्कृत को बाज़ार के उपयुक्त बना दें और फिर देखें कैसे यह जीवंत हो जाती है । *यहाँ यह बताना ज़रूरी है* कि मै न रामदेव की भक्त हूँ {जैसा कि इस पोस्ट के बाद माना जाने की संभावना है} ना मै उनहे सुनती हू, ना उनका समर्थन या प्रचार करना चाहती हूँ । धर्म और आस्था को हर बार बीच मे ला ला कर हम शायद इस मुद्दे के प्रति संवेदनशीलता खत्म कर देगे और सहिष्णुता को भी । हर एक बात मे कहते हो तुम कि तू क्या है, तुम्ही कहो कि ये अन्दाज़े गुफ्तगूँ क्या है...................... On 4/25/07, Ravikant wrote: > > अविनाश, > > माफ़ करना भाई, अविनाश, ये सब अटकलें हैं. किसी संस्कृति का हर तत्व अगर > सांप्रदायिक है > तो मेरी माँ भी सांप्रदायिक ठहरी, क्योंकि वह रोज़ पत्थर की पूजा करके > हिन्दुत्व की ज़मीन तैयार > कर रही है! आनन-फ़ानन में इस तरह का सेकुलर झंडा उठा लेने वाले विमर्श को मैं > गंभीर नहीं मानता, > यह सस्ती और सतही पत्रकारिता है, या फिर पॉलिटिकली करेक्ट नारा! लेख में > विश्लेषण का > वादा है, विश्लेषण नहीं. मैंने बाबा रामदेव को बहुत ग़ौर से सुना है - > योग-मुद्रा में और प्रवचन > करते हुए भी. कम-से-कम मुझे तो वे हिन्दुत्ववादी नहीं दीखते, आगे क्या होगा > मुझे पता नहीं. बेशक वे > हिंदू हैं, लेकिन दोनों एक चीज़ नहीं है. ईश्वर का अवतार तो अमिताभ बच्चन या > सचिन तेंदुलकर जैसे > शख़्स को भी लोग मान सकते हैं, तो! > > रविकान्त > > > मंगलवार 24 अप्रैल 2007 22:51 को, मोहल्ला ने लिखा था: > > मोहल्ला > > > > /////////////////////////////////////////// > > हिंदुत्व की ज़मीन पर बाबा रामदेव का योग > > > > Posted: 24 Apr 2007 12:08 PM CDT > > http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/111617706/blog-post_24.html > > > > सुभाष चंद्र मौर्य > > बाबा रामदेव इस वक्‍त भारत के सबसे चर्चित योगगुरु हैं। उनकी लोकप्रियता > बड़े > > राजनीतिज्ञों, उद्योगपतियों, धार्मिक महंथों और यहां तक कि मुल्‍क के > > नगरों-महानगरों में भरे-पड़े मध्‍यवर्ग के बीच सबसे अधिक है। ऐसे योगगुरु > जो > > मुंगेर योगाश्रम और रिखिया आश्रम के स्‍वामी सत्‍यानंद सरस्‍वती की तरह > > निर्विवादित नहीं हैं, फिर भी उनकी स्‍वीकार्यता चमत्‍कृत करती है। जेएनयू > के > > शोध छात्र सुभाष मौर्य ने उनकी मंशा और उनके कारोबार का अपनी तरह से > विश्‍लेषण > > करने की कोशिश की है। बाबा रामदेव के दो चेहरे हैं। एक वो, जिसमें वह लोगों > को > > योग की दीक्षा देते नजर आते हैं। दूसरा वो, जिसमें वह अपने शिविरों में > प्रवचन > > देते नजर आते हैं। दोनों चेहरों को ठीक से जानने और पहचानने की जरूरत है। > जब > > बाबा रामदेव योग की शिक्षा देते नजर आते हैं, खासकर समाचार चैनलों पर, तो > बेहद > > तर्कवादी नजर आते हैं। उस समय बाबा रामदेव ज़ोर देकर कहते हैं कि उन्‍होंने > > फलां रोग में वैज्ञानिक ढंग से प्रयोग करके साबित किया है कि योग इसमें > कितना > > कारगर है। उस समय ऐसा लगता है वह पूरी तरह तर्क बुद्धि में यकीन रखने वाले > > शख्‍स हैं। वही बाबा रामदेव जब आस्‍था चैनल पर प्रवचन देते हैं, तो > बिल्‍कुल > > आस्‍थावादी नजर आते हैं। उस समय उनका आदर्श होता है श्रद्धा और भक्ति। उस > समय > > तर्क या प्रमाण को वह सिरे से भूल कर आसाराम बापू या उन्‍हीं की तरह के > > तथाकथित संत नज़र आते हैं। दिन-ब-दिन उनके कार्यक्रमों में योग कम, प्रवचन > > ज्‍यादा बढता जा रहा है। या यों कहें तो बेहतर होगा कि उनका असली चेहरा > सामने > > आता जा रहा है। > > > > नोएडा में इन दिनों बाबा रामदेव का शिविर चल रहा है। किसी भारत विकास परिषद > के > > ख्‍यातिनाम पुरूष ने इसी शिविर में उन्‍हें ईश्‍वर का अवतार कहा और बाबा > > मुस्‍कुरा कर सुनते रहे। क्‍या यही है बाबा रामदेव का असली चेहरा? > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070425/3b2cebb9/attachment.html From vijaykharsh at gmail.com Thu Apr 26 01:49:27 2007 From: vijaykharsh at gmail.com (VIJAY PANDEY) Date: Thu, 26 Apr 2007 01:49:27 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KSg?= =?utf-8?b?IOCkleCkviDgpKrgpY3gpLDgpJXgpL7gpLbgpKgg4KSJ4KSm4KWN4KSv?= =?utf-8?b?4KWL4KSX?= In-Reply-To: References: Message-ID: *प्रि‍य दोस्‍तों, मेरठ के प्रकाशन उद्योग के सफरनामे पर आपको ले चलने के लि‍ए मैं वि‍जय कुमार पाण्‍डेय सीएसडीएस सराय की फेलोशि‍प के तहत दीवान की पोस्‍टिंग ‍के जरि‍ए दूसरी बार हाजि‍र हूं। पहली पोस्‍टिंग में मुझसे और फेलोशि‍प के वि‍षय मेरठ के प्रकाशन उद्योग से आपका परि‍चय हुआ था। मेरठ के प्रकाशन उद्योग के सफरनामे के शुरुआती चरणों से भी आप रूबरू हुए थे। * * * *अबकी बार से मैं आपको सि‍लसि‍लेवार तरीके से मेरठ के प्रकाशन उद्योग की शुरुआत, प्रकाशन उद्योग की प्रमुख घटनाओं और मेरठ शहर के वि‍कास के संक्षि‍प्‍त सफरनामे पर ले चलूंगा। अगली बार मेरठ के मौजूदा प्रकाशन उद्योग ने कैसे आकार लि‍या इससे रूबरू कराउंगा। तो चलि‍ए चलते है मेरठ के प्रकाशन उद्योग और इस उद्योग के चलते मेरठ शहर के वि‍कास की यात्रा पर। * * * मेरठ के प्रकाशन उद्योग की यात्रा का आधुनि‍क मेरठ शहर के वि‍कास से गहरा नाता रहा है। लगभग दो सौ साल पहले 1806 में ब्रि‍तानि‍यों ने मेरठ में कैंट की स्‍थापना की। इसी समय को आधुनि‍क मेरठ शहर के सफरनामे की शुरुआत का भी माना जा सकता है। मेरठ में कैंट की स्‍थापना के आसपास ही मेरठ में प्रकाशन उद्योग की नींव पड़ी। मेरठ में पहला छापाखाना कब स्‍थापि‍त हुआ, इसका फि‍लहाल कोई साक्ष्‍य नहीं मि‍ला है। हो सकता है आगे शोध के दौरान इसके बारे में कुछ मालूम हो सके। 1849 में समाचार पत्रों और मुद्रणालयों से संबंधि‍त एक रि‍पोर्ट प्रकाशि‍त हुई। यह रि‍पोर्ट वर्तमान उत्‍तर प्रदेश (तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों) की थी। इस रि‍पोर्ट के मुताबि‍क उस समय तक उत्‍तर प्रदेश (तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों) में 23 मुद्रणालय थे। इनमें पुस्‍तक मुद्रण के अति‍रि‍क्‍त 29 समाचार पत्र और पत्रि‍काएं छपते थे। 1850 तक तत्‍कालीन दक्षि‍णी उत्‍तरी भागों (इसमें लखनउ शामि‍ल नहीं है) में कुल 24 मुद्रणालय थे। इनमें आगरा में सात, बनारस चार, दि‍ल्‍ली में दो, मेरठ में दो, लाहौर में दो और बरेली, कानपुर, इंदौर व शि‍मला में एक-एक छापेखाने थे। मेरठ के प्रकाशन उद्योग के वि‍कास में हि‍न्‍दी और उर्दू दोनों सगी बहनों का बराबर का योगदान था। लेकि‍न शुरुआती सालों में मेरठ उर्दू प्रकाशन के ही जाना जाता था। मेरठ के छापेखानों में आज से सवा सौ साल पहले तक अधि‍कांश प्रकाशन उर्दू में ही होते थे। 1850 के आसपास मेरठ से एक समाचार पत्र जाम ए जम्‍शैदनि‍कलता था। हालांकि‍ यह अखबार कि‍स छापेखाने में छपता था और पत्र की सामग्री के वि‍षय में कुछ भी मालूम नहीं है। मेरठ के ऐति‍हासि‍क कस्‍बे सरधना की बेगम समरु, जि‍न्होंने ईसाई धर्म स्‍वीकार कर लि‍या था, का भी प्रकाशन उद्योग के वि‍कास में सराहनीय योगदान है। बेगम समरु के ईसाई धर्म स्‍वीकार करने से सरधना रोमन कैथोलि‍क मि‍शनरि‍यों का केन्‍द्र बन गया। यहां ईसाई मि‍शनरि‍यों ने 1848 के आसपास एक मुद्रणालय खोला। इसका उद्देश्‍य धर्म प्रचार में योगदान करना था। इसमें 1850 से पहले उनकी धार्मि‍क पुस्‍तकें प्रकाशि‍त होती थीं इसके अलावा ईसाई पादरि‍यों के व्‍याख्‍यान और वार्तालाप फारसी और देवनागरी में छापे जाते थे। 1857 के गदर से पहले देश के कई हि‍स्‍सों में जनमानस में ब्रि‍तानि‍यों के खि‍लाफ माहौल बन रहा था। मेरठ से प्रकाशि‍त होने वाली पुस्‍तकों, समाचार पत्रों, पंपलेटों आदि‍ ने यहां इस भूमि‍का को बखूबी नि‍भाया। 1857 में जमीलुद्दीन हि‍ज्र साहब मेरठ से अपना एक पत्र नि‍कालते थे। वह दि‍ल्‍ली के सादि‍क उल अखबार का भी संपादन करते थे। उनका यह अखबार शाही महल भी जाया करता था। 1857 के गदर के बाद जब मुगि‍लया सल्‍तनत के अंति‍म बादशाह बहादुरशहर जफर के खि‍लाफ ब्रि‍तानि‍यों ने मुकदमा चलाया, उसमें इस अखबार का जि‍क्र बार बार आया है। इसके चलते हि‍ज्र साहब को गि‍रफ्तार कि‍या गया। उनके खि‍लाफ भी मुकदमा चला और उन्हें तीन साल की सजा मि‍ली। उन्‍नीसवीं सती के अंति‍म दशकों से पहले खड़ी बोली के गढ़ मेरठ के प्रकाशन उद्योग में हि‍न्‍दी का प्रकाशन अपेक्षाकृत कम होता था। लेकि‍न सदी के अंति‍म दशकों में इसमें बदलाव हुआ। इसमें दयानंद सरस्‍वती के आर्य समाज और मेरठ के ही स्‍थानीय नि‍वासी पंडि‍त गौरीदत्‍त शर्मा का भारी योगदान था। स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के भाषणों से प्रभावि‍त होकर खुद को देवनागरी के प्रचार के लि‍ए समर्पि‍त कर देने वाले पंडि‍त गौरीदत्‍त शर्मा ने 1887 में एक मासि‍क पत्र देवनागरी गजट और 1892 में देवनागरी प्रचारक नि‍काला। 1894 में नागरी प्रचारि‍णी सभा का गठन कर मासि‍क पत्र देवनागर का प्रकाशन कि‍या। ये सभी पत्र यही के छापेखानों में प्रकाशि‍त होते थे। इसके अलावा पंडि‍त जी ने एक उपन्‍यास देवरानी जेठानी की कहानी भी लि‍खा था। पहली बार 1870 में इसका प्रकाशन मेरठ के जि‍याई छापेखाने में लीथो पद्ध्‍ति‍ से हुआ। इसकी प्रति‍ आज भी कलकत्‍ता के नेशनल लाइब्रेरी में सुरक्षि‍त है। हि‍न्‍दी के मशहूर साहि‍त्‍यकार आचार्य क्षेमचंद्र सुमन ने इसे खड़ी बोली हि‍न्‍दी का पहला उपन्‍यास कहा है। पंडि‍त जी ने अपने पत्रों के जरि‍ए देवनागरी को बढ़ावा देने के लि‍ए देवनागरी गजट में भजन और आरती प्रकाशि‍त कि‍ए। उनके भजन महि‍लाओं में काफी लोकप्रि‍य थे। पंडि‍त जी देवनागरी के प्रचार को लेकर इतने समर्पित थे कि‍ वे परस्‍पर अभि‍वादन में भी जय नागरी का प्रयोग करते थे। आचार्य क्षेमचंद्र सुमन के मुताबि‍क हि‍न्‍दी का दूसरा उपन्‍यास वामा शि‍क्षकमुंशी कल्‍याणराय ने मुंशी ईश्‍वरी प्रसाद के साथ मि‍लकर 1872 में लि‍खा था। यह लगभग 11 साल बाद 1883 में मेरठ के वि‍द्या दर्पण छापेखाने में मुद्रि‍त हुआ था। इन साहि‍त्‍यकारों के प्रयास से खड़ी बोली के गढ़ जनपद मेरठ में उन्‍नीसवीं सदी के अंत में हि‍न्‍दी प्रकाशन भी बहुतायत में होने लगे। * * -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070426/619d27f0/attachment.html From avinashonly at gmail.com Thu Apr 26 23:51:35 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Thu, 26 Apr 2007 13:21:35 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <17505543.1049771177611695494.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// मुस्लिम वोटों के लिए इश्तेहारी जंग Posted: 26 Apr 2007 05:18 AM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/112099174/blog-post_26.html बेचारा बनाकर रख दिया नासिरूद्दीन हैदर खां यूपी में चुनाव की गर्मी चरम पर है। इसके साथ चरम पर छद्म संस्‍थाओं के नाम से मुसलमानों को अपनी ओर करने के लिए उर्दू अखबारों में इश्‍तेहारों की जंग। इन विज्ञापनों में ज्‍यादातर में कांग्रेस पर निशाना है और कुछ में बसपा पर, लेकिन भाजपा मुख्‍य निशाना नहीं है। जवाबी इश्‍तेहार भी कुछ हैं, जिनमें सपा पर निशाना है। इश्‍तेहारों में सद्दाम हुसैन की चिंता है, इस्राइल है, बाबरी मस्जिद और उर्दू भी है लेकिन आम मुसलमानों के मुद्दे न के बराबर हैं। हिंदुस्‍तान के लखनऊ संस्‍करण से जुड़े नासिरूद्दीन की रिपोर्ट।सद्दाम की फाँसी पर... सोनिया के मुँह पर ताले पड़ गये... कांग्रेस को साँप सूँघ गया... आइये! बुश के एजेंटों की कदम-कदम पर खबर लें, साम्राज मुखालिफ कुव्वतों को मजबूत करें। (नौ अप्रैल 2007 को छपा एक विज्ञापन) हिन्दुस्तान की खारजा पालिसी पर सहूनी (यहूदीवादी) जाल का पर्दाफाश! सोनिया मनमोहन हुकूमत की इस्राइल नवाजी, अमरीकापरस्ती, और आलमी सहूनियत के खिलाफ खुली आवाज उठाने और सबसे आगे बढ़ कर एहतजाज करने वाले बेबाक समाजवादी रहनुमा मुलायम सिंह यादव की किरदारकुशी (चरित्रहनन) की मुहिम ताकि यह आवाज भी दब जाये और यह एहतजाज भी दम तोड़ दे। (आठ फरवरी को छपा एक विज्ञापन) यह यूपी के विधानसभा चुनाव में सेक्यूलर ताकतों की आवाज है। मुसलमानों के हमदर्दों की यह आवाज इश्तेहार के शक्ल में जारी हो रही है। जी हाँ, सद्दाम हुसैन, ईरान और इस्राइल विधान सभा के चुनावी मुद्दे हैं। यह उर्दू में छपे विज्ञापन हैं, हिन्दी वालों के लिए नहीं। यानी, यह विज्ञापन जाहिरा तौर पर मुसलमानों के लिए हैं। बेचारे मुसलमान! विधान सभा चुनाव के एलान से छह माह पहले से उर्दू अखबारों में इस तरह के इश्तेहार निकलने शुरू हो चुके थे। इन सबका मकसद सिर्फ एक है, मुसलमानों को अपनी ओर खींचना। ये सारे इश्तेहार मुसलमानों को ध्यान में रखकर, मुसलमानों के लिए बनाये गये हैं और उर्दू अखबारों के जरिये मुसलमानों तक पहुँचाये जा रहे हैं। लेकिन सबसे दिलचस्प होगा यह देखना कि इन इश्तेहार में कौन-कौन से मुद्दे है, किन पर हमले हैं और सबसे बढ़कर इन्हें कौन पार्टी जारी कर रही है। पहली बात, यह पार्टियाँ के नाम से नहीं छप रहे लेकिन इश्तेहार में इस्तेमाल रंगों, उनकी जबान और उठाये गये मसलों को देखकर किसी के लिए यह समझना मुश्किल नहीं होता कि यह किनकी ओर से और किनके खिलाफ है। मुसलमानों के मुद्दे क्या हैं सच्चर कमेटी ने मुसलमानों की समाजी-सियासी और आर्थिक पिछड़ेपन पर भले ही चार सौ पन्ने खर्च किये हों पर उत्तर प्रदेश के चुनाव में, इन इश्तेहारों पर यकीन करे तो, मुसलमानों के ये सवाल ही नहीं है। यही नहीं अगर आप इन इश्तेहार को देखें तो एक बात का पक्का यकीन हो जायेगा की मुसलमानों की सबसे बड़ी दुश्मन कांग्रेस पार्टी है। इन विज्ञापनों में नब्बे फीसदी कांग्रेस और उसके नेताओं के खिलाफ हैं। एक क्विज है- 'बूझो तो जानें।' सात सवाल हैं और सबके चार विकल्प। एक सही, तीन गलत। 1. बाबरी मस्जिद में मूर्तियाँ किसने रखवायी? 2. बाबरी मस्जिद पर राम मंदिर किसने बनवाया? 3. अब राम मंदिर को मुस्तकिल करने के लिए आहनी (लोहे की) दीवारें बनाने की साजिशें कौन कर रहा है? 4. सुप्रीम कोर्ट से इसकी इजाजत किसने माँगी?ऐसे सभी सात सवालों के चार विकल्प हैं- बीजेपी...कांग्रेस...समाजवादी पार्टी...बहुजन समाज पार्टी। जवाब क्या होगा, यह बताने की जरूरत नहीं है। बाबरी मस्जिद से जुड़ा एक और विज्ञापन है- 'मनमोहन हुकूमत और कांग्रेस हुकूमत जवाब दे बाबरी मस्जिद के मकाम पर आरजी मंदिर पुख्ता कैसे बन गया'। ताज्जुब इस बात पर है कि जिस पार्टी के लिए अयोध्या में मंदिर सबसे बड़ा मसला होना चाहिए था, वह तो लगभग इस मुद्दे को जोरशोर से उठाने से बच रही है। पर जो लोग अपने को सेक्यूलर कह रहे हैं, वही इसे बार-बार याद दिला रहे हैं। भाजपा पर सीधे हमला इन विज्ञापनों में आमतौर पर देखने को नहीं मिलता है। मिलता है यह आरोप '...भाजपा से कांग्रेस का नापाक इत्तेहाद है।' 'कांग्रेस भाजपा का नहीं समाजवादी पार्टी जैसी सेक्यूलर जमात का खातमा चाहती है।' इन दोनों इश्तेहारों में मुलायम सिंह यादव की फोटो देखी जा सकती है। एक और विज्ञापन है 'अकलियतों के मसायल तो बहुत हैं, मगर अदम तहफ्फुज सबसे बड़ा मसला'। इसमें लिखा गया है, 'बदकिस्मती से हिन्दुस्तान में आजादी के बाद 50 बरसों तक जिस पार्टी ने मुसलसल हुकूमत की उस ने अकलियतों को वोट बैंक के तौर पर तो खूब इस्तेमाल किया... इंदिरा गांधी ने इन्हें अलीगढ़, मुरादाबाद, भिवंडी, के जख्म दिये तो राजीव गांधी ने 84 के दंगे, भागलपुर और मेरठ की लरजा खूरेंजियाँ दीं... नरसिम्हा राव ने बाबरी मस्जिद की शहादत के जख्म... खौफ व दहशत की इस नापाक सियासत का खातमा करने की इमानदाराना जद्दोजहद अगर इस मुल्क में किसी की तो वह मुलायम सिंह यादव और इनकी समाजवादी पार्टी है जिसने फिरकापरस्तों की हर साजिश का डट कर मुकाबला किया।' सवाल यह है कि क्या वाकई में उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की हिफाजत से बड़ा मुद्दा कोई नहीं है और क्या पिछले तीन सालों में वाकई मुसलमानों के साथ यहाँ कुछ नहीं हुआ? एक और मुद्दा आतंकवाद से जुड़ा है। मुसलमानों के लिए यह भी अहम मसायल है। यह विज्ञापन भी सपा प्रमुख की फोटो के साथ है, जिसमें कहा गया है कि यहाँ मुस्लिम नौजवान दहशतगर्दी के नाम पर नहीं पकड़े जा रहे हैं क्योंकि 'उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सेक्यूलर हुकूमत है बकिया रियासतों में कांग्रेस और बीजेपी की हुक्मरानी।' 'पंजाब और उत्तराखंड में भाजपा क्यों जीती?' राजनीतिक विश्लेषक चाहे जो कहें, यह एक इश्तेहार कहता है 'क्योंकि कांग्रेस फिरकापरस्त भाजपा से लड़ने के बजाय यूपी की सेक्यूलर समाजवादी हुकूमत को गिराने की साजिशों में मसरूफ थी।' इसी तरह एक पूरे पन्ने का विज्ञापन है, जिसमें बताया गया है कि 'कांग्रेस का सेक्यूलरिज्म एक ढकोसला है' और 'गोरखपुर का फसाद भाजपा और कांग्रेस की मुश्तरका साजिश है।' जिन लोगों को उत्तर प्रदेश की राजनीति में थोड़ी सी भी दिलचस्पी है, वे जानते हैं कि कांग्रेस चुनावी लड़ाई में किस पायदान पर है। कम से कम अभी नम्बर एक या नम्बर दो पर तो नहीं ही दिखती। फिर क्या वजह है कि सत्ताधारी पार्टी के हिमायती इतनी बड़ी ऊर्जा, पैसा और दिमाग कांग्रेस की ही मुखालफत में लगा रहे हैं? हालांकि कांग्रेस के बाद जिन दो इश्तेहारों में बसपा और मायावती पर हमले हैं, उनके विषय भी कमोबेश ऐसे ही हैं। एक है 'मायावती हमेशा बाबरी मस्जिद के कातिलों के साथ खड़ी नजर आयीं' तो दूसरा इश्तेहार 'बहन जी का असली चेहरा' दिखाने का दावा करता है। इसमें मायावती और बसपा के 'मुस्लिम विरोधी' होने की बातें कही गयीं हैं। इश्तेहार पलटवार इनके खिलाफ चंद इश्तेहार मुखालफत में भी निकले हैं। जैसे, मुसलमानों की बात हो और उर्दू का जिक्र नहीं, यह मुमकिन नहीं। एक विज्ञापन है, जिसमें मुलायम सिंह यादव की तस्वीर है। शब्द हैं, 'उर्दू के गहवारे (जन्‍म स्‍थान) में उर्दू को नयी जिंदगी... उत्तर प्रदेश में लोग अब तक उर्दू का कत्ल ही देखते आये थे।' फिर वर्तमान सरकार द्वारा उर्दू के लिए किये गये कामों की फेहरिस्त गिनायी गयी हैं। इसके जवाब में एक इश्तेहार आया है। शब्द हैं, 'उर्दू के गहवारे में उर्दू का कत्ल... समाजवादी सरकार ने साजिश के तहत पीसीएस (जे) में शामिल उर्दू के पर्चे खारिज कर दिया ताकि उर्दू तबके को अदलिया के ओहदों पर फायज होने से रोका जा सके। ... समाजवादी सरकार 13 हजार उर्दू असातिजा (शिक्षकों) की तक्करुरी (नियुक्ति) का झूठा दावा कर रही है... एक भी उर्दू मीडियम स्कूल कायम नहीं किया... उर्दू को रोजी रोटी से जोड़ने का दावा करने वाली मुलायम सरकार किस तरह उर्दू वालों का पेट चाक कर रही और उर्दू को रोजगार से दूर कर रही है।' जब सद्दाम हैं, तो गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के जिक्र पर किसी को ताज्जुब क्यों हो? 'सोनिया का कांग्रेस मुलायम पर गर्म और मोदी पर नरम, आखिर क्यों? ... जम्हूरियत और सेक्यूलरिज्म का गला घोंटने के लिए आज सारे मफादपरस्त अनासिर और फिरकापरस्त ताकतें एक हो गयी हैं।' इसके जवाब में एक इश्तेहार आया है जिसमें अल्फाज के बजाय एक बड़ी फोटो है। शीर्षक है- 'यह दोस्ती` हम नहीं छोड़ेंगे' इसके बाद एक दूसरे का हाथ थामे अभिवादन करते मुलायम सिंह यादव और नरेन्द्र मोदी की तस्वीर। 'साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं, खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं'- ठीक फोटो के नीचे यही शेर है। जौहर विश्वविद्यालय एक वक्त में प्रदेश की राजनीति का अहम मुद्दा रहा। भला इस पर चुनाव के मौके पर बात न हो तो मुसलमानों की बात कहाँ पूरी होगी। एक इश्तेहार छपा- 'मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी की हकीकत'। इसमें इस बात पर सवाल उठाया गया है कि जब मुख्यमंत्री ने कहा था कि विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए पैसे की कमी नहीं होने दी जायेगी तो इसे बनाने के लिए मुसलमानों से जकात और सदकात की रकम क्यों माँगी गयी और प्रो चांसलर चंदा लेने सऊदी अरब और दुबई क्यों गये। इश्तेहार के मुताबिक, इसका प्रस्ताव 'मौलाना मोहम्मद अली जौहर अरबी फारसी और उर्दू यूनिवर्सिटी' के रूप में था। इल्जाम लगाया है कि 'इसके नाम में से पहले अरबी फारसी और उर्दू को हटा दिया गया और आखिर में मौलाना मोहम्मद अली के नाम से 'मौलाना' का लफ्ज भी निकाल दिया गया।' कौन जारी कर रहा है यह इश्तेहार जिन नामों से छापे जा रहे हैं, उनके बारे में मुसलमानों के बीच सरगर्म कारकून और आलिम भी नहीं जानते। चंद नाम देखें- यूपी बचाओ मोर्चा-लखनऊ, अंजुमन खुद्दाम मिल्लत- लखनऊ, इंसाफ मोर्चा-दिल्ली, ऑल इंडिया सेक्यूलर डेमोक्रेसी फ्रंट-दिल्ली, अकलियती वकास मिन्हऱ्यूपी, सेक्यूलर महाज- लखनऊ, आलमी उर्दू काउंसिल-दिल्ली/ लखनऊ, पॉलिटिकल फोरम ऑफ इंडिया मुस्लिम-नयी दिल्ली, सेक्यूलर मुस्लिम यूथ फ्रंट-दिल्ली...आदि। मुसलमानों के हमदर्दों के दिमाग में भी मुसलमानों की खाँचे में गढ़ दी गयी छवि (स्टीरियोटाइप) है कि पीछा नहीं छोड़ती। इन इश्तेहारों के कथ्य से तो यही लगता है। जैसे मुसलमान तो दिमाग से काम नहीं लेता, वह तो दिल से काम लेता है, जज्बाती होता है न! वह तो सिर्फ उर्दू जबान समझता है! उसे बाबरी मस्जिद, जौहर विश्वविद्यालय, दंगा, सददाम, इस्राइल, ईरान... जैसे मुद्दों पर एकजुट किया जा सकता है! चुनाव शुरू हो चुके हैं, इसलिए इसकी हकीकत जल्द ही पता चल जायेगी। तब तक तो हमें इंतजार करना ही पड़ेगा कि क्या वाकई मुसलमानों के लिए पढ़ाई, स्कूल, हेल्थ सेंटर, रोजगार, राजनीति में भागीदारी जैसे सवाल कोई मुद्दा नहीं है। फिर सच्चर कमेटी की सिफारिशों के बारे में भी इसी रोशनी में विचार करना होगा। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070426/880c47ed/attachment.html From avinashonly at gmail.com Fri Apr 27 22:42:02 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Fri, 27 Apr 2007 12:12:02 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <10061918.1063841177693922759.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// आइए विद्यापति से मिलें: एक पुरानी कविता का पुनर्पाठ Posted: 27 Apr 2007 08:50 AM GMT-06:00 http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/112448564/blog-post_27.html विद्यापति हमारी भाषा मैथिली के बड़े कवि हैं। बंगाल भी उन पर अपना अधिकार जताता रहा है और हिंदी की शुरुआती पाठ्य-पुस्तकों में आदि कव‍ि के रूप में उनका परिचय छात्रों से कराया जाता है। विद्यापति राजा शिव सिंह के दरबारी कवि थे, लेकिन उनके सरोकार दरबार से बाहर भी जुड़े हुए थे। कहते हैं कि शंकर उनके घर में नौकर बन कर रहे थे। बहरहाल, विद्यापति का काल 1350 ईस्‍वी का था, और उस वक्‍त के समाज की कल्‍पना हम आप कर सकते हैं। कितने बंधन, कितनी मर्यादा और पंडित परंपराओं का कितना बड़ा बोझ रहा होगा उस समय में! लेकिन अभिव्‍यक्ति की आज़ादी का शिखर विद्यापति की कविताओं में पूरे वेग के साथ मौजूद है। उन्‍हें गांव-गांव में गाया जाता है, और कभी उनके गीतों को लेकर श्‍लीलता-अश्‍लीलता की बहस ज़ोर नहीं पकड़ती। आज हम ज़रा-सी ऐसी बात अपने साहित्‍य में करते हैं, तो कहर बरपा हो जाता है। हम बीच-बीच में विद्यापति के ऐसे पदों का रसास्‍वादन करेंगे, जो मिथिला के गांव-गांव में लोकप्रिय है और प्रेमोद्रेक के मामले में भी वे गीत बड़े उत्तम हैं। इन गीतों का सार हिंदी के जन‍कवि बाबा नागार्जुन ने हिंदी में बताये हैं। रवीश कुमार ने कहा कि इन गीतों को मोहल्‍ले में गाइए और उसकी लय में औरों को भी झुमाइए। सैसब जौबन दुहु मिल गेल। स्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।। वचनक चातुरि लहु-लहु हास। धरनिये चांद कएल परगास।। मुकुर हाथ लए करए सिंगार। सखि पूछए कइसे सुरत-विहार।। निरजन उरज हेरत कत बेरि। बिहुंसए अपन पयोधर हेरि।। पहिलें बदर‍ि सम पुन नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग।। माधव पेखल अपरूब बाला। सैसब जीबन दुहु एक भेला।। विद्यापति कह तोहें अगेआनि। दुहु एक जोग एह के कह सयानी।।बचपन और जवानी दोनों मिल गये। आंखों ने कानों की राह पकड़ ली, तीर चलने लगे। बातचीत में चतुराई आ गयी। हंसी की रफ्तार मद्धिम पड़ी। चांद ने धरती को आलोकित कर दिया। हाथ में आईना लेकर तरुणी बनाव-सिंगार रचाने लगी। सहेली से मालूम करना चाहती है- कामकेलि क्‍या होती है? अकेले में आप ही अपना सीना देखती है, अपने कुचों की ओर देख-देख कर आप ही मुस्‍कराती है। वह पहले बेर की तरह के थे, फिर नारंगी जैसे होने लगे। कन्‍हाई ने देखा- यह अनोखी है, बचपन और जवानी दोनों इसी में आकर मिले हैं। कवि विद्यापति ने तरुणी से कहा- तुम तो भारी नादान हो! बचपन और जवानी दोनों एक जगह मिलते हैं तो लड़की सयानी कहलाती है। -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070427/7bce4cea/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 28 12:59:00 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 28 Apr 2007 12:59:00 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSg4KWH4KSV4KWH?= =?utf-8?b?IOCkleClhyDgpKbgpYzgpLAg4KSu4KWH4KSCIOCkruClm+CkpuClgg==?= =?utf-8?b?4KSwIOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqCA6IOCkuOCkrCDgpLDgpLgg4KSy?= =?utf-8?b?4KWHIOCkl+Ckr+ClgCDgpKrgpL/gpILgpJzgpKHgpYfgpLXgpL7gpLI=?= =?utf-8?b?4KWAIOCkruClgeCkqOCkv+Ckr+Ckvg==?= Message-ID: <363092e30704280029l471ad2f2rb7710e0d3645ca60@mail.gmail.com> कुमार अनिल भाकपा माले लिबरेशन से जुडे़ रहे हैं. अभी प्रभात खबर में हैं. मई दिवस को देखते हुए आज के हालात में मज़दूर संगठनों पर उनकी चिंताएं इस लेख के माध्यम से सामने आयी हैं. आगे भी वे कुछ लिखेंगे इस मसले पर. हमारा इरादा आज के राजनीतिक-आर्थिक हालात में मज़दूर आंदोलन पर एक बहस चलाने का है. आइए आप भी इसमें हिस्सा लीजिए. कब चेतेगा मजदूर वर्ग कुमार अनिल बड़ी अजीब स्थिति है. सीपीएम से जुड़ी सीटू पटना में इस बार अलग से मजदूर दिवस मनायेगी. पिछले क ई वर्षों से क म-से-क म पहली मई को सारी ट्रेड यूनियनें एक मंच पर आती रही हैं. इस बार मामला नंदीग्राम को लेकर उलझ गया. नंदीग्राम में कि सानों पर हुए दमन को जहां अन्य संगठन मुद्दा बनाना चाहते हैं, वहीं सीपीएम अपनी सरकार की आलोचना को तैयार नहीं है. वाम मोरचे में फूट पड़ गयी. एटक, यूटीयूसी(लेस), यूटीयूसी, ए टू व एचएमएस एक मंच पर होंगे व दूसरी ओर होगी सीटू . बहुत दिनों के बाद कि सानों के मुद्दे पर ट्रेड यूनियनों में बहस हुई. आजादी के बाद से ही कि सानों व दूसरे तबकों के आंदोलनों से मजदूर वर्ग का आंदोलन कटता चला गया. आज मजदूर वर्ग का आंदोलन पूरी तरह अपनी ही मांगों में सिमट क र रह गया है. वेतन, बोनस, प्रोन्नति, भत्ता ही उसके लिए सब कुछ है. आंदोलन अपनी राष्ट्रीय भूमिका खोता चला गया. Read full story on http://hashiya.blogspot.com -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/742952a8/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 28 13:00:09 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 28 Apr 2007 13:00:09 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSv4KS+?= =?utf-8?b?IOCkruCkueCkvuCkrOCksuClgCDgpLLgpYzgpJ/gpYfgpJfgpL4g4KSF?= =?utf-8?b?4KSq4KSo4KWAIOCkruCkvuCkguCkpiDgpK7gpYfgpII=?= Message-ID: <363092e30704280030j34c7c885m3a8e842c7da29931@mail.gmail.com> एमजे अकबर के लिए अलग से कोई परिचय देने की ज़रूरत नहीं है. आजकल वे अंतररष्ट्रीय मुद्दों,कखासकर अमेरिकी नीतियों, पर लगातार लिख रहे हैं.अपने इस लेख में वे अमेरिका के इराक से लौटने को लेकर अमेरिका में चल रहे राजनीति की चर्चा कर रहे हैं. यह लेख प्रभात खबरमें हाल ही में प्रकाशित हो चुका है. वहां से साभार. पुनर्वापसी की ओर दुनिया एमजे अकबर शांति की बात करना क्या देशभक्ति है? अमेरिका आज बहस के इसी मुद्दे से गुजर रहा है. इराक में उसकी हार का निहितार्थ और जीत का अर्थ तलाशा जा रहा है. निश्चय ही युद्ध को सदैव देशभक्ति से जोड़ा गया है. किसी भी नेतृत्व के लिए एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में बिगुल जीत का ध्वज माना गया. जो जितना ज्यादा अपनी मातृभूमि का कर्ताधर्ता बनता जाता है, वह अपने लोगों को उतना ही अधिक कब्र की ओर धकेल सकता है. आतंक वादियों की देशभक्ति भी ऐसा ही मजबूत लबादा है, जो अपने पापों को ऐसे ही गैरजिम्मेदार तरीके से घालमेल कर बहाना-बनाना चाहते हैं. read full story on http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/20ea4341/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 28 13:01:02 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 28 Apr 2007 13:01:02 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSs4KSC4KSX4KS+?= =?utf-8?b?4KSyIOCkruClh+CkgiDgpKrgpYvgpILgpJfgpL7gpKrgpILgpKU=?= Message-ID: <363092e30704280031j40694e46ja8b0ec0072a2a463@mail.gmail.com> बंगाल में पोंगापंथ वाकई देश में सीपीएम किस तरह से मार्क्स का नाम लेकर धार्मिक ब्रह्मणों और आर्थिक ब्राह्मणों (अमेरिकनों) के लिए लाल कालीन बिछाये हुए है, यह देखने लायक है. हंस के मार्च अंक से साभार पलाश विश्वास बंगाल के शरतचन्द्रीय बंकिमचन्द्रीय उपन्यासों से हिंदी जगत भली-भांति परिचित है, जहां कुलीन ब्राह्मण जमींदार परिवारों की गौरवगाथाएं लिपिबद्ध हैं. महाश्वेता देवी समेत आधुनिक बांग्ला गद्य साहित्य में स्त्राी अस्मिता व उसकी देहमुक्ति का विमर्श और आदिवासी जीवन यंत्राणा व संघर्षों की सशक्त प्रस्तुति के बावजूद दलितों की उपस्थिति नगण्य है. हिंदी, मराठी, पंजाबी, तमिल, कन्नड़ और तेलुगू भाषाओं की तरह बांग्ला में दलित साहित्य आंदोलन की कोई पहचान नहीं बन पाई है और न ही कोई महत्त्वपूर्ण दलित आत्मकथा सामने आई है, बेबी हाल्दार के आलोआंधारि जैसे अपवादों को छोड़कर. आलो आंधारि का भी हिंदी अनुवाद पहले छपा, मूल बांग्ला आत्मकथा बाद में आयी. read full story on http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/6e396bd8/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 28 13:01:49 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 28 Apr 2007 13:01:49 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSH4KSk4KS/4KS5?= =?utf-8?b?4KS+4KS4IOCkqOCkv+CksOCljeCkruCkvuCkoyDgpJTgpLAg4KSw4KS+?= =?utf-8?b?4KS34KWN4KSf4KWN4KSwIOCkleCkviDgpIbgpJbgpY3gpK/gpL7gpKg=?= Message-ID: <363092e30704280031m5394661bs177cee6cd8dac1da@mail.gmail.com> इतिहास निर्माण और राष्ट्र का आख्यान *ऐसे समय में, जब हिंदीब्लाग में घमसान मचा हुआ हो और निहायत सतही और निरर्थक बातों पर (वेब) पन्ने काले किये जा रहे हों, एक गंभीर और शोधपरक लेख देना खतरे से खाली नहीं है. खतरा इस बात का कि पाठक नहीं मिलेंगे. सारा ध्यान तो भड़काऊ चिट्ठों पर ही चला जाता है. फिर भी एक बात ज़रूर है कि जो बहस चल रही है वह इतिहास और तथ्यों की ही है. इसी संदर्भ में वैभव सिंह का लेख, तद्भव से साभार. * *इतिहास निर्माण और राष्ट्र का आख्यान (सन्दर्भ : उन्नीसवीं सदी का हिन्दी लेखन) * वैभव सिंह *भारत * में परम्परागत रूप से इतिहास के प्रामाणिक स्रोतों के अभाव में पौराणिक मिथकीय कथाओं और शास्त्राों ने ही इतिहास की भूमिका का निर्वाह किया है। हिन्दू धर्म की कतिपय धर्मशास्त्राीय मान्यताओं जैसे अवतारवाद , वर्णधर्म और कर्मकाण्ड को सामाजिक आदर्श का दर्जा प्राप्त था और विभिन्न पौराणिक मिथकीय पात्रां एवं घटनाओं को इन्हीं सामाजिक आदर्शों की प्राप्ति या इनसे विचलित होने के आधार पर व्याख्यायित किया जाता था। धार्मिक मान्यताओं द्वारा अनुमोदित इन सामाजिक आदर्शों को विभिन्न रोचक कथाओं के जरिए वैधता दिलाने का काम पुराणों ने इतनी कुशलता के साथ किया कि इतिहास की जरूरत ही नहीं रह गयी। read full story on http://hashiya.blogspot.com/ -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/386d144d/attachment.html From beingred at gmail.com Sat Apr 28 13:03:29 2007 From: beingred at gmail.com (reyaz-ul-haque) Date: Sat, 28 Apr 2007 13:03:29 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSF4KSq4KSo4KS+?= =?utf-8?b?IOCkpuClh+CktiDgpIXgpKwg4KSP4KSVIOCkluCkuOCljeCkuOClgCA=?= =?utf-8?b?4KS54KWI?= Message-ID: <363092e30704280033s7a7076f7j8356c75d0c6381aa@mail.gmail.com> अपना देश अब एक खस्सी है नंदीग्राम पर सबसे मुखर विरोध बांग्ला में हुआ और वहां अनगिनत रचनाएं सामने आयीं. हमने पहले भी कई रचनाएं दी हैं. आज एक और कविता. हालांकि यह सिंगूर और नंदीग्राम में शुरुआती दौर में हुई घटनाओं के बाद लिखी गयी थी. अनुवाद विश्वजीत सेन का है. इसके साथ ही नंदीग्राम पर आयी नयी फ़िल्म भी देखना न भूलें. यह फ़िल्म उपलब्ध करवाने के लिए हम पत्रकार मित्र तथागत भट्टाचार्य और विश्वजीत सेन के आभारी हैं. प्रतुल मुखोपाध्याय अपना देश अब एक खस्सी है जिसकी खाल उतार ली गयी है मुंड से वंचित प्रेत जैसा उल्टा लटक रहा है वह टांग, सीना, रांग, चांप, गरदन आपको किस हिस्से की ज़रूरत है खुल्लमखुल्ला कहना होगा इसी तरह बिकेगा अपना देश उसके कुछ हिस्से खास बन जायेंगे खास नियम, खास अर्थतंत्र खास जगह, खास पहचान 'खास' मतलब आप उसे विदेशी भी कह सकते हैं उन जगहों में देश का कानून खामोश ही रहेगा वहां बजेगा वैश्वीकरण का बाजा अपना देश भी सेज़ का भेस पहनेगा read full poem and see a video on http://hashiya.blogspot.com -- reyaz-ul-haque prabhat khabar old bypass road kankarbagh patna-20 mob:09234423150 http://hashiya.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/864e27fd/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Sat Apr 28 16:46:30 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Sat, 28 Apr 2007 16:46:30 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSl4KWA?= =?utf-8?b?IOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksOCli+CkgiDgpKrgpLAg?= =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkqOCknOCksC0g4KS44KWB4KSo4KWA4KSyIOCkpuClgA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSV?= Message-ID: <749797f90704280416h26dfa5f2wa14b0bbde91b058a@mail.gmail.com> दीवान के मित्रों को हिंदी चिट्ठाकारी की दुनिया का परिचय देने के जारी क्रम में आज पेश है, एक बेहद लोकप्रिय चिट्ठाकार सुनील दीपक का परिचय। पूरा परिचय मय चित्र व टिप्‍पणियों के मेरे चिट्ठे पर भी पढ़ा जा सकता है: साथी चिट्ठाकारों पर एक नजर- सुनील दीपक काफी इंतजार के बाद शॉंति की आहट चिट्ठाजगत में सुनाई दे रही है। गनीमत है। हमें जो काम करना है वह बिध्‍नआशंका देता है पर करना तो है ही। शोध एक निर्मम कार्य है। हम पिछले कुछ दिनों से चिट्ठाजगत में इधर उधर की खाक छानते रहे हैं- इधर उधर यानि इस प्रोफाइल उस प्रोफाइल, इस पोस्‍ट उस पोस्‍ट। पर आप मानेंगे कि हमारी भी सीमाएं हैं- समय की भी और सामर्थ्‍य की भी। हमें साथी चिट्ठाकारों पर टिप्‍पणी करनी है। इधर दो लोगों ने यह काम किया है। एक तो अविनाश ने *अपने माफीनामे में * जीतू, फुरसतिया, मसिजीवी और जगदीश के चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व पर टिप्‍पणी की है। दूसरी और दूसरी ओर *चौपटस्‍वामी ने विवाद की अविनाशप्रियता * में इंस्‍क्राइब से लेकर फुरसतिया, जीतू, रवि समेत सब की यहॉं तक कि सृजन के चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व पर अपनी राय दी है। मुझे फिलहाल विवाद पर तो कुछ नहीं कहना है पर इतना तय है कि अलग अलग चिट्ठाकार जिन अलग अलग चिट्ठाई व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं वह अनिवार्यत: वही नहीं है जिसकी घोषणा वे अपनी प्रोफाइल में करते हैं। आज चंद चिट्ठाकारों पर विचार किया जा रहा है। किंतु पहले एक डिस्‍क्‍लेमर- *यह चिट्ठाकारों की चिट्ठाई शख्सियत का आख्‍यान है, यानि वे अपने बारे में क्‍या राय रखते हैं (प्रोफाइल व खुद की पोस्‍टें), अन्‍य उनके विषय में क्‍या राय रखते हैं (टिप्‍पणियॉं व अन्‍य लोगों की पोस्‍टें), व्‍यक्तित्‍व के अन्‍य अभिव्‍यक्‍त पक्ष जिनमें उनके द्वारा चुने विषय, शैली अआदि पक्षों पर विचार किया गया है। शोध की शैली पुन: नैरेटिव विश्‍लेषण की ही है। अत: इसमें एक सीमा के बाद व्‍यक्तिनिष्‍ठता आने का जोखिम होता है, भले ही हमने बाकायदा इस व्‍यक्तिनिष्‍ठता को सीमित रखने का प्रशिक्षण लिया हुंआ है। इस शख्सियत आख्‍यान को समूचे व्‍यक्तित्‍व पर लागू न किया जाए- कोई चिट्ठाकार अपनी जाति जिंदगी में कैसा इंसान है इसका विश्‍लेषण करने में मेरी रूचि नहीं है। दूसरी बात यह कि ये काम शुद्धत: शोध के लिए किया जा रहा है- शोध की अंतिम रपट में यह कैसे जुड़ेगा यह समय रहते बताया जाएगा। सभी लोगों का विश्‍लेषण यहॉं संभव नहीं यह कार्य क्रमश: है।* आज सुनीलजी की बात करें (निर्विवाद से शुरू करना ही बेहतर है, यूँ भी सुनील हमारे प्रिय ब्‍लॉगर हैं) सुनील जाहिर है सबसे लोकप्रिय चिट्ठाकार हैं। *उनकी प्रोफाइल* बेहद संक्षिप्‍त है उसमें यदि आज के *तरकश के साक्षात्‍कार * को जोड़ लिया जाए तो उनके व्‍यक्तित्‍व की जो छाप बनती है व‍ह है- सुनील एक संवेदनशील व संतुलित व्‍यक्तित्‍व के स्‍वामी हैं। उनकी लेखनी में यह संवेदनशीलता सहज ही जाहिर होती है। उनकी अवलोकन क्षमता गजब की है। बहुभाषिक व बहुसांस्‍कृतिक अनुभवों के कारण वे सहज ही सबसे परिपक्‍व हिंदी चिट्ठाकार हैं। इस परिपक्‍वता को वे बोझ नहीं बनने देते इसलिए वे किसी किस्‍म का अग्निशमन दस्‍ता नहीं परिचालित करते, और ये कार्य कहीं कम परिपक्‍वता के साथ जीतू और अनूप आदि को करना पड़ता है। सुनील की चिट्ठाकारी को सबसे अधिक व्‍याख्‍यायित करते उनके शब्‍द हैं- * मेरे विचार से चिट्ठे लिखने वाले और पढ़ने वालों में मुझ जैसे मिले जुले लोगों की, जिन्हें अपनी पहचान बदलने से उसे खो देने का डर लगता है, बहुतायत है. हिंदी में चिट्ठा लिख कर जैसे अपने देश की, अपनी भाषा की खूँट से रस्सी बँध जाती है अपने पाँव में. कभी खो जाने का डर लगे कि अपनी पहचान से बहुत दूर आ गये हम, तो उस रस्सी को छू कर दिल को दिलासा दे देते हैं कि हाँ खोये नहीं, मालूम है हमें कि हम कौन हैं. * अपनी चिट्ठाकारी के भविष्‍य पर सुनीलजी ने मेरे टैग-प्रश्‍नों के उत्‍तर में कहा था- मेरी चिट्ठाकारी का भविष्य शायद कुछ विशेष नहीं है, जब तक लिखने के लिए मन में कोई बात रहेगी, लिखता रहूँगा, पर मेरे विचार में जैसा है वैसा ही चलता रहेगा. मेरे लिए चिट्ठाकारी मन में आयी बातों को व्यक्त करने का माध्यम है, जिन्हें आम जीवन में व्यक्त नहीं कर पाता, और साथ ही विदेश में रह कर हिंदी से जुड़े रहने का माध्यम है. अन्‍य चिट्ठाकारों की राय प्रथम दृष्‍ट्या प्रभावित होने वाली है, हालांकि कुछ गहरे पैठने पर एक किस्‍म का 'पहुँची चीज़ हैं भई..' वाला भाव भी दिखाई देता है। प्रमोद के बीस साल बाद उपन्‍यास में *उनका चित्रण * कुछ ऐसा ही संकेत करता है- 'अबकी सुनील दीपक दिखे. पुलिसवाले उनके पीछे नहीं साथ थे. बहस हो रही थी. दीपक बाबू इटैलियन में झींक रहे थे, पुलिसवाले उन्‍हें मराठी में समझा पाने में असफल होने के बाद अब चायनीज़ की गंदगी पर उतर आये थे.पता चला हरामख़ोरों ने भले आदमी का कैमरा जब्‍त कर लिया है. सुनील दीपक ने चीखकर कहा रवीश कुमार ऐसे नहीं छूटेगा, वे मामला एमनेस्‍टी इंटरनेशनल तक लेकर जायें' कुल मिलाकर सुनील की चिट्ठाई शख्सियत अपनी हिंदी (सिर्फ भाषा नहीं सम्‍यक हिंदी) जड़ों से ऊर्जा लेती है। वे विवादों से दूर रहना पसंद करते हैं- चिट्ठाई अहम के संघर्षों से भी। बाकी कुछ आप जोड़ना चाहें तो बताएं। नीलिमा -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070428/ee76935a/attachment.html From avinashonly at gmail.com Sun Apr 29 21:53:27 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Sun, 29 Apr 2007 11:23:27 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <1004845.536601177863807272.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// कहां हैं मकबूल फिदा हुसैन ? Posted: 29 Apr 2007 12:58 AM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/112807941/blog-post_29.html अपूर्वानंद मकबूल फिदा हुसैन में बहुत लोगों की रुचि हैं। जिनकी नहीं है, वे भी जानना चाहते हैं कि फिदा इन दिनों किस खुराफात में लगे हुए हैं। और जो सृजन को सामाजिक मान्‍यताओं की सभी चौहद्दियां लांघकर अभिव्‍यक्ति की आज़ादी के सर्वोच्‍च शिखर की तरह मानते हैं, उनके लिए फिदा साहसी भी हैं और समर्थ शिल्‍पी भी। इसलिए, सबके लिए ये जानना ज़रूरी है कि मकबूल फिदा हुसैन इन दिनों कहां हैं? दरअसल मकबूल फिदा हुसैन से हमारे मुल्‍क की सरकार नाराज़ है। वो सरकार, जिनको लोकतांत्रिक मानी जाने वाली कुछ पार्टियों का समर्थन सांप्रदायिकता विरोध के नाम पर मिला हुआ है। शायद यही वजह है कि वे पराये मुल्‍क में मन मसोस कर रह रहे हैं, और यहां नहीं लौट पा रहे। दिल्‍ली युनिवर्सिटी में प्राध्‍यापक और सांप्रदायिकता विरोधी अधिकतर मुहिमों में शामिल रहने वाले अपूर्वानंद ने ये सूचना जनसत्ता के जरिये दी है। हिंदी संवाद जगत के लिए यह प्रश्‍न अभी पूछे जाने योग्‍य नहीं बना है। बाकी लोग जानते हैं कि वे दुबई में हैं और चित्र बनाने के अपने पुराने काम में लगे हुए हैं। क्‍या हुसैन हिंदुस्‍तान आने से इसलिए तो नहीं बच रहे कि यहां आते ही उनकी गिरफ्तारी का ख़तरा है? क्‍या वे अघोषित निर्वासन में हैं? हुसैन ने खुद इस पूरे प्रसंग को हल्‍का करने की कोशिश करते हुए एक अंग्रेज़ी दैनिक के संपादक को कुछ समय पहले कहा था‍ कि वे अपनी मर्जी से भारत आ सकते हैं। लेकिन शायद वे वाकिफ हैं कि मई 2006 के बाद वे इसे लेकर निश्‍िचंत नहीं हो सकते कि भारत में वे सुरक्षित रह पाएंगे। पिछले साल पांच मई को संयुक्‍त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के गृह मंत्रालय ने कानून मंत्रालय से सलाह करने के बाद मुंबई और दिल्‍ली पुलिस को इस आशय का निर्देश जारी किया कि कलाकार एमएफ हुसैन के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाए, क्‍योंकि उनकी कलाकृतियां धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाती हैं। अधिकारियों का एक समूह हुसैन की कलाकृतियों की समीक्षा करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा कि उनमें भड़काऊ तत्‍व हैं और वे घृणा पैदा कर सकती हैं। इसलिए पर्याप्‍त आधार है कि हुसैन पर इन अपराधों के लिए प्रासंगिक धाराओं के अंतर्गत कार्रवाई की जाए। फरवरी 2006 में इंदौर की एक अदालत ने हुसैन के विरुद्ध एक मामला दर्ज करते हुए उन्‍हें अदालत में हाजिर होने का सम्‍मन जारी किया। आरोप था कि वे अपनी कलाकृतियों के जरिये भारत की एकता को तोड़ने और अश्‍लीलता बढ़ाने जैसे अपराध कर रहे हैं। मेरठ की एक अदालत ने भी हुसैन के खिलाफ मामले की सुनवाई शुरू की। महाराष्‍ट्र, इंदौर, राजकोट, मेरठ के अलावा दिल्‍ली और बिहार आदि में हुसैन के खिलाफ बीसियों मामले दर्ज हैं। पिछले साल संसद में जब एनसीआरटी द्वारा प्रकाशित हिंदी की नयी स्‍कूली किताबों पर भारतीय जनता पार्टी की पहल पर लगभग सारे राजनीतिक दलों ने हमला किया, तो प्रेमचंद, पांडे बेचन शर्मा उग्र, धूमिल, मोहन राकेश, ओमप्रकाश वाल्‍मीकि के साथ हुसैन की आत्‍मकथा के अंश को सांसदों ने खास तौर पर अश्‍लील ठहराते हुए उसे किताब से हटाने की मांग की। भारत की धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की सरकार ने जब दिल्‍ली और मुंबई पुलिस को साक्ष्‍यों की पर्याप्‍तता के आधार पर हुसैन के विरुद्ध मुनासि‍ब कार्रवाई करने को हरी झंडी दिखायी, उसके ठीक बाद लंदन में उनकी कलाकृतियों की एक बड़ी प्रदर्शनी में कुछ लोग ज़बर्दस्‍ती घुस आये और हुसैन की कलाकृतियों को नष्‍ट करने की कोशिश की। एशिया हाउस गैलरी ने प्रदर्शनी बंद कर दी। उसने अपनी वेबसाइट से हुसैन प्रदर्शनी से संबंधित प्रत्‍येक उल्‍लेख को हटा दिया। लॉर्ड मेघनाद देसाई जैसे बुद्धिजीवियों ने इस हमले और एशिया हाउस के इस फैसले की भर्त्‍सना की और इसे अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता पर गहरे आघात की संज्ञा दी। इस घटना पर लंदन के भारतीय दूतावास के पास टिप्‍पणी करने को कुछ नहीं था। सबसे आश्‍चर्यजनक थी केंद्र सरकार की सक्रिय पहलकदमी। कानून व्‍यवस्‍था पर ख़तरे की आशंका जताते हुए कानून मंत्रालय ने हुसैन की छह कलाकृतियों की जांच की और कहा जाता है, इस नतीजे पर पहुंची कि हुसैन के खिलाफ कार्रवाई का पुख्‍ता आधार है। यह वही केंद्र सरकार है, जो मध्‍यप्रदेश, राजस्‍थान, कर्नाटक, गुजरात में मुसलमानों और ईसाइयों पर लगातार हमलों, हत्‍याओं पर अपनी निष्क्रियता के पक्ष में यह दलील देती है कि कि कानून व्‍यवस्‍था बनाये रखना राज्‍यों का मामला है और वह संवैधानिक लाचारी में है। हुसैन पर फिर यह केंद्रीय सक्रियता क्‍यों? राजीव धवन जैसे विधिवेत्ता कहते हैं कि ऐसा बिना किसी नीतिगत निर्णय के किया नहीं गया होगा। क्‍या हुसैन विरोधी अभियान की अनदेखी करना उसका समुचित उत्तर है? भारतीय कला और संस्‍कृति जगत तो ऐसा ही मानता प्रतीत होता है। हुसैन क्‍यों संप्रदायवादियों के लिए एक ज़रूरी निशाना हैं? इसका एक उत्तर तो यह है कि हुसैन संभवत: रवि वर्मा के बाद पहले ऐसे चित्रकार हैं, जो जिनके द्वारा निर्मित छवियां किसी न किसी प्रकार प्रतीकात्‍मक दर्जा हासिल कर चुकी हैं। हुसैन भारत की स्‍मृतियों को ऐंद्रिक, मांसल रेखाओं के जरिये जीवंत करने के अभियान में जुटे प्रतीत होते हैं। वे दोहरे दूषण में संलिप्‍त हैं। मुसलमान होते हुए भी वे रूपाकारों के सर्जन-व्‍यापार में संलग्‍न हैं। और मुसलमान होने के बावजूद वे हिंदू मिथकीय स्‍मृतियों को आधुनिक रूपाकार में ढालने की कोशिश कर रहे हैं। हुसैन इस लिहाज से भी एक महत्‍वपूर्ण निशाना बनते कि वे बिंबों, छवियों के संसार में काम करते हैं और पिछले दो दशक से संप्रदायवादी राजनीति बिंबों और छवियों के आधार पर ही एक नयी लोकप्रिय और आक्रामक सामूहिक स्‍मृति के निर्माण के कार्य में लगे हुए हैं। राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और उसके सैकड़ों छोटे-बड़े संगठन ऐसी हिंदू देवमाला का निर्माण करना चाहते हैं, जो उनके हिंदू राष्‍ट्र के प्रथम नायक-नायिकाओं की भूमिका का निर्वाह करते हुए दिखाई पड़े। अत्‍यंत हृष्‍ट-पुष्‍ट शरीर वाले शस्‍त्रधारी देवता, युद्ध का आह्वान करते हुए या आक्रमण का नेतृत्‍व करते हुए देवताओं की छवियों के समांतर उनको चुनौती देने वाली देवमाला मात्र एमएफ हुसैन ने निर्मित की। उनकी मोटी रेखाओं में यथार्थ भ्रम से मुक्‍त सीता, सरस्‍वती, हनुमान, राम, दुर्गा आदि के बिंबों में एक स्‍वप्निल काव्‍यात्‍मकता है, जो उन्‍हें किसी हिंदू राष्‍ट्र की आक्रमणकारी सेना का नेतृत्‍व करने के लिए अयोग्‍य भी बना देती है। इसलिए भी इस वैकल्पिक देवमाला का विनाश आवश्‍यक है। यह बात दीगर है कि हुसैन लगातार कहते हैं, भारत की मंदिर कला परंपरा स्‍वयं धार्मिक स्‍थलों को अत्‍यंत ऐंद्रिक देह व्‍यापार के वलय में घेरती है। इस प्रकार देखें तो धर्म यहां दैहिक आवरण को छोड़ कर नहीं, उसके साथ, उसके भीतर चलने वाला व्‍यापार है। फिर यहां किसी प्रकार के शुद्धतावाद की जगह कहां है? -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070429/79e303f9/attachment.html From neelimasayshi at gmail.com Mon Apr 30 12:24:41 2007 From: neelimasayshi at gmail.com (Neelima Chauhan) Date: Mon, 30 Apr 2007 12:24:41 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KS44KS+4KSl4KWA?= =?utf-8?b?IOCkmuCkv+Ckn+CljeCkoOCkvuCkleCkvuCksCDgpKrgpLAg4KSP4KSV?= =?utf-8?b?IOCkqOCknOCksCDigJMg4KSq4KWN4KSw4KSk4KWN4KSv4KSV4KWN4KS3?= =?utf-8?b?4KS+IC0t4KSv4KS+IOCkleCkueClguCkgiDgpJXgpL8g4KSq4KWN4KSw?= =?utf-8?b?4KSk4KWN4KSv4KSV4KWN4KS3IOCkleCliyDgpKrgpY3gpLDgpK7gpL4=?= =?utf-8?b?4KSjIOCkleCljeCkr+Ckvg==?= Message-ID: <749797f90704292354k120dc22cmce6e47d9ac46d3c3@mail.gmail.com> इस कड़ी में पहले सुनील दीपक पर लिखा था, आज पेश है चिट्ठाकार प्रत्‍यक्षा पर विचार- साथी चिट्ठाकार पर एक नजर – प्रत्यक्षा --या कहूं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या साथी चिट्ठाकारों पर लिखना कोई आसान काम नहीं !सुनील दीपक जी पर लिखते हुए मैंने जाना ! फुरसतिया जी को आकर सुझाव देना पडा कि कम लिखा गया है शोध कार्य जरा मेहनत से किया जाए ! थोडी विवादी बयार भी चलने को हुई यूनुस भाई के रहमों करम से पर रवि जी ने संभाल लिया यह कहकर कि यह तो धर्म का काम काम है गीता या कुरान पढने के समान ! सो संतोष और सब तरफ सुकून पाकर लिखने बैठे ! इधर विवादों के घेरे में से समकाल की मसीहाई आवाज भी सुनाई दी कि बेकार के मामालों पर वक्त बेकार करने कि बजाए --- *लिखना चाहिए था घुघुती बासुती,प्रत्यक्षा,रत्ना,अन्तर्मन,रचना और नीलिमा जैसे स्वरों पर जो दो मोर्चों पर लडते हुए भी इस हिंदी चिट्ठा संसार को नई भंगिमा दे रहे हैं. * तो हम भी सोचे कि एक एक करके इन साथियों पर लिखा जाए ! आज प्रत्यक्षा जी को चुना ! वैसे जब हम नए नए आए थे तो प्रत्यक्षा जी ने हमें अपने 5 शिकारों में लिस्टित किया था और हमने कहा कि *मुजरिम हाजिर है प्रत्यक्षा* जी ! खुद शिकार बनी *प्रत्यक्षा जी ने अपने बारे में * बताते हुए जो कहा हमने उसमें भी उनके चिट्ठाकार व्यक्तिव को देखने की कोशिश की- * "चौथी बात ..... कभी नहीं सोचा था कि चिट्ठा लिखूँगी । मैं अपने को एक बहुत प्रायवेट पर्सन समझती थी । आसानी से नहीं खुलने वाली । चिट्ठाकारी ने ये मुगालता अपने बारे में खत्म कर दिया । चिट्ठाकारी के माध्यम से अंतर्मुखी व्यक्तित्व के खुलने की बात को स्वीकार करते हुए वे बताती हैं कि यह संक्रामक रोग उन्हें किस कदर अजीज है और इससे मिलने वाला आनंद कैसा है - " छूत की बीमारी एक बार जो लगी सो ऐसे ही छूटती नहीं..... तो बस हाजिर हैं हम भी यहाँ.....इस हिन्दी चिट्ठों की दुनिया में लडखडाते से पहले कदम.......चिट्ठाकरों को पढ कर वही आनंद मिल रहा है जो एक ज़माने में अच्छी पत्रिकओं को पढ कर मिलता था......सो चिट्ठाकार बँधुओं...लिखते रहें, पढते रहें और ये दुआ कि ये संख्या दिन दो गुनी रात चौगुनी बढती रहे......." * प्रत्यक्षा के लिए..बाहर की बेडौल दुनिया का सही इलाज है रचनाकार के शब्द कटार सी तेज धार वाले विद्रोह के खून से रंगे वे शब्द जब बीन बजाने पर सांप की तरह फुंफकारते हुए पिटारी से बाहर आते हैं तब इन पर अंकुश लगा पाना किसी की मजाल नहीं- *गौर फरमाएं -* * आपके ख्याल में दुनिया बडी बेडौल है ? सही फरमाया आपने जनाब! पर इसका भी इलाज है मेरे पास.. और भी शब्द हैं न मेरे पास... इन्हें भी देखते जाईये....... इन्हे देखिये..ये खून से रंगे शब्द हैं..विद्रोह के......ये तेज़ धार कटार हैं…. संभलिये..वरना चीर कर रख देंगे....बडी घात लगाकर पकडा है इन्हे...कई दिन और कई रात लगे, साँस थामकर, जंगलों में, पहाडों पर , घाटियों में, शहरों में पीछा करके ,पकड में आये हैं..पर अब देखें मेरे काबू में हैं..... बीन बजाऊँगा और ये साँप की तरह झूमकर बाहर आ जायेंगे..ये हैं बहुत खतरनाक, एक बार बाहर आ गये तो वापस अंदर डालना बहुत मुश्किल है" * चिट्ठाकारी की अदा से भीतर का ताप- आक्रोश बाहर चिट्ठों के रूप में क्या सकारात्मक रूप ले लेता है यह तो उनके चिट्ठों को पढकर बखूबी जाना जा सकता है ! यहां की दुनिया में इन शब्दों को सच्चे सहृदय भी तो मिलते हैं— *जब कद्रदान मिलें, तब इन्हे बाहर निकालूँगा* प्रत्यक्षा का सच्चा सीधा चिट्ठाकार व्यक्तित्व उनके उन चिट्ठों से सामने आता है जिनमें वे *रसोई में बने छुट्टी के दिन के नाश्ते * से लेकर *गुड के बनने की मिठास * तक पर लिखती हैं ! यही कारणे है कि उन्हें *चिट्ठा जगत के विवादों में भी पडना नहीं भाता* वे तो तब *परेशान होती हैं जब* पर मुझे इनसे परेशानी नही परेशानी तो तब होती है जब सही, गलत हो जाता है सफेद काला हो जाता है परेशानी में उन्हें *इरफान की कहानी* लिखनी पडती है ! * * *" अब आप बतायें ये और हम , हिन्दू हैं या मुसलमान , या सिर्फ इंसान । दोस्ती , भाईचारा ,देशप्रेम . किसमें एक दूसरे से ज्यादा और कम । और क्यों साबित करना पडे । जैसे एक नदी बहती" * * * प्रत्यक्षा का साहित्य प्रेमी मन उनकी हर पोस्ट में झलकता है गुलजार, खैयाम कमलेश्वर आदि के जिक्र से लेकर कविताओं की बानगी वे देती चलती हैं ! खुद भी कवि हृदया हैं पर इस जगह कविता की ज्यादा दरकार न पाकर वे कहती हैं * * *" अब देखिये इलजाम लगता है हम पर कि ऐसी कवितायें लिखते हैं जिसे कोई समझता नहीं . अरे भाई, कविताई का यही तो जन्मसिद्ध अधिकार है. जब सब समझ जायें तो फिर कविता क्या हुई. पर यहाँ तो भाई लोगों के लेख में भी ऐसी बातें घुसपैठियों की तरह सेंध मार रही है" * जहां कविता है वहां गणित कहां , समीकरण कहां , आंकडे कहां वहां तो होगी विशुद्ध भावना और आस्था-- * * *मुझे बचपन से गणित समझ नहीं आता जब छोटी थी तब भी नहीं और आज जब बड़ी हो गई हूँ तब भी नहीं * उनके चिट्ठाकार का यह आस्थावादी मन ही है जो स्त्री-विमर्श के मुठभेडी मुद्दों पर भी उनका सौम्य रूप ही सामने लाता है ! उनके रसोई विवाद में दिए तर्कों की साफगोई की तारीफ करते हुए *मसिजीवी कहते हैं -* * ..... इतना कहने के बाद भी व्‍यक्तिगत तौर पर मुझे प्रत्‍यक्षा के इस तर्क की सराहना करनी पड़ेगी कि एक पुरुष किसी स्‍त्री पसंद को शोषण की किस्‍म बताए यह (मेल शोवेनिज्‍म़) अनुचित है" * देखिए प्रत्यक्षा *अपने प्रोफाइल में * अपने बारे में क्या लिखती हैं-- * * *कई बार कल्पनायें पँख पसारती हैं.....शब्द जो टँगे हैं हवाओं में, आ जाते हैं गिरफ्त में....कोई आकार, कोई रंग ले लेते हैं खुद बखुद.... और ..कोई रेशमी सपना फिसल जाता है आँखों के भीतर....अचानक , ऐसे ही शब्दों और सुरों की दुनिया खींचती है...रंगों का आकर्षण बेचैन करता है....* प्रत्यक्षा की चिट्ठाकार दुनिया में रंग है, समर्पण है , ललक है , सुकून है , भाव हैं बाहर का कुरूप जगत जहां उनकी आस्थावादी चिट्ठाकार लेखनी का संस्पर्श पाकर ताजा और रंगमय दिखने लगता है ! यहां जटिलता नहीं सादगी है , शोर नहीं मंथरता है, चौंध नहीं सौम्यता है! ओर हॉं ढेर सारा अतीतमोह यानि नास्‍तॉल्जिया है। तो यह हैं प्रत्यक्षा जी हमारी नजर से ! जब हिंदी साहित्य का आधा इतिहास लिखा जा रहा है तो क्यों न हम भी हिंदी चिट्ठा जगत का आधा इतिहास दर्ज कर दें! ऎसे ही और रूपों में ! नीलिमा -- Neelima http://linkitmann.blogspot.com -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070430/3535b4b7/attachment.html From paliwal.gauri at gmail.com Mon Apr 30 22:09:08 2007 From: paliwal.gauri at gmail.com (Gauri Paliwal) Date: Mon, 30 Apr 2007 22:09:08 +0530 Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= second post- kyonki har blog kuch..... Message-ID: <5bf3a8c90704300939m39d06446s8e368bf07293ac9f@mail.gmail.com> "क्योंकि हर ब्लॉग कुछ कहता है" विषय पर अपनी दूसरी पोस्टिंग लिखने से पहले एक ईमानदार स्वीकारोक्ति.. "शोध का ये विषय उससे कहीं दुश्कर है-जितना मैंने सोचा था। दरअसल, इस फेलोशिप मिलने के बाद ही हिन्दी ब्लॉगिंग यानि हिन्दी चिट्ठाकारिता में इस तेज़ी से परिवर्तन हुए हैं कि शोध का दायरा लगातार फैलता जा रहा है, जबकि प्रस्ताव देते वक्त हिन्दी में बमुश्किल 60-70 सक्रिय ब्लॉग थे।" फिर भी, शायद यही इस विषय में शोध का मज़ा भी है कि हम जितना जानते हैं,उससे कहीं अधिक जानने के लिए बचा है। शायद,शोध पत्र प्रस्तुत करते वक्त कई ऐसे नए सवाल भी खड़े होंगे-जिनके बारे में हमने सोचा भी न हो। इस स्वीकारोक्ति के बाद एक घोषणा- मैंने सराय के शोध के दौरान केस स्टडी के लिए ही एक व्यंग्य ब्लॉग mastikibasti.blogspot.com बनाया है। इस पर हिन्दी के कई व्यंग्यकारों से लिखवाने की कोशिश की जाएगी। इस ब्लॉग से क्या, क्यों और कैसे निष्कर्ष निकालने की कोशिश होगी-इस पर अगली पोस्टिंग में बात होगी। बहरहाल, हिन्दी चिट्ठों के बारे में इन दिनों मीडिया में भी इतनी चर्चा है कि सराय के सभी साथी इस "खेल" से परिचित होंगे। मैंने अपनी पहली पोस्टिंग में इस बात का ज़िक्र किया था कि हिन्दी में सक्रिय तौर पर ब्लॉग लिखने वालों की संख्या अभी सीमित है। हालांकि, हिन्दी में ब्लॉग लिखने वालों की संख्या में तेज़ी से इजाफा हो रहा है,पर अभी भी मेरा मानना है कि सक्रिय ब्लॉग लिखने वालों की संख्या सीमित ही है। प्रमुख ब्लॉग एग्रीगेटर नारद के मुताबिक फिलहाल हिन्दी में ब्लॉग की संख्या 600 से कुछ ज्यादा है। यद्यपि, कई चिट्ठों के नाम हमारी सूची में हैं, लेकिन सूची पूरी नहीं कही जा सकती। इस बार, मैंने सोचा कि यही देखा जाए कि हिन्दी में नियमित तौर पर कितने लोग चिट्ठाकारी कर रहे हैं। अब, नियमित का दायरा क्या हो ? अपनी समझ के मुताबिक और सहूलियत के लिए मैंने उन चिट्ठों को नियमित माना जो सप्ताह में कम से कम एक बार अपडेट किए गए हों। लेकिन, मुमकिन है कि इक्का दुक्का सक्रिय चिट्ठाकार किसी विशेष हफ्ते में एक भी पोस्ट न डाल पाए हों, इसलिए मैंने इस अवधि को नौ दिन कर दिया। हिन्दी ब्लॉग एग्रीगेटर नारद और हिन्दी ब्लॉग्स डॉट कॉम के जरिए 31 मार्च से आठ-नौ अप्रैल तक के चिट्ठों को खंगाला तो निष्कर्ष में निम्नलिखित तथ्य सामने आए। इन नौ दिनों में कुल 150 लोगों ने चिट्ठे लिखे थे। इनमें से कुछ लोगों के एक से अधिक चिट्ठे भी हैं यानि ब्लॉग की संख्या भले करीब 150 थी, लेकिन लिखने वाले उससे कम हैं। इऩमें से कुछ चिट्ठाकार अति सक्रियता की अवस्था मे दिखे यानि इनके चिट्ठे पर नौ दिनों में 10 से भी अधिक पोस्टिंग डाली गईं। इनमें प्रमोद सिंह के अज़दक का रिकॉर्ड धुआंधार था, जिन्हें इतने वक्त में 21 पोस्ट डालीं। इनके अलावा,वाह मनी (15),मोहल्ला (13),छू लो आसमान (18), कमल शर्मा (18),हिन्द युग्म (19),महाशक्ति (12),कुछ लम्हे (10),वर्षा (10) और ममताटीवी (11) मुख्य हैं। इसी तरह सक्रिय ब्लॉग की श्रेणी भी बनायी जा सकती है। इसमें वो सारे चिट्ठे हैं, जिनकी बदौलत हिन्दी चिट्ठों की दुनिया फल-फूल रही है। लेकिन, खास बात यह कि 150 में से कम सक्रिय चिट्ठों की भी बड़ी संख्या थी। मेरी जानकारी के मुताबिक, करीब 38 चिट्ठे ऐसे थे,जिन पर नौ दिनों में केवल एक पोस्ट डाली गई। इनमें रत्ना की रसोई, बारह पत्थर, रेलगाड़ी, होम्योपेथी, दस्तक,राजलेख का हिन्दी चिट्ठा, नितिन हिन्दुस्तानी का हिन्दी चिट्ठा, यूयुत्सु, ख्वाब का दर, देश-दुनिया, इंकलिंक, रिफ्लेक्शन, विपन्न बुद्धि उवाच, शब्द यात्रा, शब्द संघर्ष, महावीर, आवारा बंजारा, शत शत नमन, कुछ सच्चे मोती, मानस के हंस, युगान्तर और चंपा का ब्लॉग जैसे चिट्ठे शामिल हैं। दिलचस्प बात यह है कि इन कम सक्रिय ब्लॉग्स में से कुछ इस अध्ययन के बाद दोबारा दिखायी ही नही दिए यानि इन पर फिर कोई पोस्ट नहीं डाली गई। पहली नज़र में इस तरह के अध्ययन से एक बात साफ हो गई कि हिन्दी में महज़ 100-110 ब्लॉग्स पर ही नियमित तौर पर पोस्टिंग हो रही है। वैसे, इसमें कोई दो राय नहीं कि हिन्दी में चिट्ठों की संख्या में अचानक काफी बढ़ोतरी हुई है। रोज़ दो-तीन नए ब्लॉग मैदान में उतर रहे हैं। लेकिन,चार साल के हिन्दी ब्लॉगिंग के इतिहास में केवल 100 से 150 सक्रिय चिट्ठे यह बताते हैं कि नियमित लिखना मज़ाक नहीं है। ब्लॉग मुफ्त में बनाए जा सकते हैं,लिहाजा ब्लॉगिंग के बारे में सुनकर या पढ़कर उत्सुकता में ब्लॉग बनाने वालों की संख्या बहुत अधिक है (हिन्दी -अंग्रेजी और सभी भाषाओं में), लेकिन नियमित लिखना बेहद दुश्कर है। अब, हिन्दी ब्लॉग पर नियमित लिखा नहीं जाता, इसलिए सर्च इँजन के जरिए इन पर हिट्स भी नहीं पड़ते यानि सर्च इँजन के जरिए इऩ्हें नए पाठक नहीं मिल पा रहे हैं। वरिष्ठ चिट्ठाकार रवि रतलामी ने ब्लॉग 'एक शाम तेरे नाम' पर मनीष की लिखी एक पोस्ट(हिन्दी चिट्ठाकारिता: कैसा है इसका वर्तमान और क्या होगा इसका भविष्य) पर टिप्पणी करते हुए लिखा- " यह कहना कि सर्च से हिन्दी पृष्ठों पर लोग नहीं आते, तो आज की स्थिति में यह कथन गलत है। मेरे पृष्ठों पर अब 70 प्रतिशत लोग सर्च इंजन के जरिए पहुंचते हैं- जी हां, हिन्दी सर्च इंजन के जरिए। इसका कारण है-पृष्ठों में सामग्री की प्रचुरता। अगर सामग्री ही नहीं होगी तो सर्च इंजन क्या खाक खोजेगा? " साफ है-हिन्दी चिट्ठाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती नियमित लिखना है। अब, यह मुमकिन कैसे होगा-यह हिन्दी चिट्ठाकारी के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। अभी जो लोग हिन्दी में सक्रिय चिट्ठाकारी कर रहे हैं, उनके लिखने की चंद खास वजह हैं। मसलन, लिखने की खुजली, अभिव्यक्ति की माध्यम मिलना, हिन्दी से जुड़ाव, विदेश में बैठकर हिन्दी वासियों से संपर्क का साधन आदि आदि (नीलिमा जी ने-हिन्दी चिट्ठाकार हिन्दी में चिट्ठाकारी क्यों करते हैं(थे) पर अच्छा लिखा है)। मेरा अध्ययन भी जारी है। लेकिन,मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग जब लेखक को अर्थलाभ कराने लगेगी, तब इसमें नियमित लिखने वाले लेखकों-पाठकों की संख्या बढ़ेगी और विषयों में बहुत तेज़ी से विविधता दिखायी देगी। (अति प्रारंभिक निष्कर्ष)। दरअसल, अभी तक हिन्दी ब्लॉगिंग पर विषयों की वो विविधता नहीं दिखायी देती-जो इसके लिए पाठकों का नया वर्ग तैयार कर सके। चिट्ठाकार अपने अंदाज में अपनी बात कहते हैं-कभी साहित्य की किसी विधा में तो कभी किस्से के तौर पर, कभी देखी-पढ़ी बातों का जिक्र होता है तो कुछ चिट्ठों पर अति गंभीर विषयों पर बहस हो रही है। दिलचस्प बात देखिए कि टेलीविजन न्यूज की दुनिया में जो चार चीजें सबसे ज्यादा टीआरपी खींचती हैं,उनमें से एक पर भी हिन्दी में विशेष ब्लॉग नहीं है। ये चार चीजें यानि 4C हैं- Cricket, Cinema, Crime and Celebrity.। हिन्दी में चिट्ठाकार अपने अंदाज में क्रिकेट पर (खिलाड़ियों पर भड़ास) लिख तो मारते हैं-लेकिन क्रिकेट को समर्पित कोई ब्लॉग नहीं दिखता। ये सवाल अहम है कि क्या सिर्फ क्रिकेट के ब्लॉग के पाठक नहीं है ? इसी तरह, धारणा है कि सिनेमा में सभी की जबरदस्त दिलचस्पी होती है। टीवी चैनल पर आने वाले कार्यक्रम और अखबारों के बदलते साप्ताहिक परिशिष्ट इस बात की बहुत हद तक पुष्टि भी करते हैं, पर हिन्दी में मुख्यधारा के सिनेमा को पूरी तरह समर्पित कोई सक्रिय ब्लॉग नहीं है। हां, सिलेमा एक ब्लॉग जरुर है। उस पर अच्छी विश्लेषणात्म पोस्ट भी नियमित लिखी जाती हैं,लेकिन सिनेमा पर लेखन का आर्ट फार्मूला ज्यादा मालूम पड़ता है। क्राइम बिकता है- लेकिन अपराध जगत की ख़बरें ,उसके पहलू, उससे जुड़े किस्से, उससे जुड़ी सावधानियां, सुझाव आदि देने वाला कोई हिन्दी ब्लॉग शायद नहीं है। अंग्रेजी में कई बड़ी सेलेब्रिटी लिख रही हैं,लेकिन हिन्दी में ऐसा नहीं है। हिन्दी में न तो कोई सेलेब्रिटी (इक्का दुक्का पत्रकारों को ही मान लें सेलेब्रिटी) लिख रहा है और न सेलेब्रिटी पर लिखा जा रहा है। हिन्दी ब्लॉगिंग के बारे में एक दिलचस्प बात और देखने को मिल रही है। वो है-ग्रुपिज़्म यानि समूहवादिता। हिन्दी चिट्ठों की संख्या भले 150 से ज्यादा नहीं है, लेकिन चिट्ठाकारों के बीच लिखने और पढ़ने के अँदाज़ में ही ग्रुपिज्म की झलक दिखायी दे रही है। हालांकि, यह बात बेहद प्रारंभिक दौर के निष्कर्षों के आधार पर कह रही हूं लेकिन मुझे लगता है कि इससे कई अच्छे हिन्दी चिट्ठों को नुकसान हो रहा है, और होगा। पहले मैंने सोचा था कि शोध करते वक्त अपना एक निजी ब्लॉग भी बनाया जाएगा,लेकिन इस ग्रुपिज़्म और उसमें बह जाने के खतरे के चलते मैंने यह इरादा फिलहाल छोड़ दिया है। दरअसल, पार्टीसिपैंट आब्‍जर्वेशन मैथड अपनाने में बड़ा खतरा यह रहता ही है कि आप ऑब्जर्व करना छोड़, भागीदार बन जाते हो। बहरहाल,बातें कुछ और कहनी हैं-लेकिन तथ्यों के साथ हाज़िर होना चाहती हूं..इसलिए इस बार इतना ही। हां, इस विषय पर शोध का विचार आने के बाद से मुझे लगता है कि हिन्दी ब्लॉगिंग का विस्तार तभी हो सकेगा,जब लोगों को अर्थलाभ की संभावनाएं दिखायी पड़े। मेरे शोध का एक पहलू इस आयाम से भी जुड़ेगा। इसकी शुरुआत हो चुकी है, जिसकी चर्चा अगली पोस्टिंग में। -गौरी (नोट- मजे की बात यह है कि जिस दिन मैंने पोस्ट लिखी, उसी दिन नारद एग्रीगेटर पर भी सक्रिय-कम सक्रिय आदि से जुड़ी एक लिस्ट हाजिर हो गई। नारद ने सक्रिय ब्लॉग को 400 के करीब आंका है,लेकिन नारद ने 15 दिन में कम से कम एक बार अपडेट होने वाले चिट्ठों को भी सक्रिय का दर्जा दिया है। पर,जब ब्लॉग पर कंटेंट का महत्व बढ़ता जा रहा हो,तो पखवाड़े में एक पोस्ट कम लगती है और इसलिए मैंने नौ दिन की अवधि रखी।) From avinashonly at gmail.com Mon Apr 30 22:58:24 2007 From: avinashonly at gmail.com (=?UTF-8?B?4KSu4KWL4KS54KSy4KWN4KSy4KS+?=) Date: Mon, 30 Apr 2007 12:28:24 -0500 (CDT) Subject: =?utf-8?b?W+CkpuClgOCkteCkvuCkqF0=?= =?utf-8?b?4KSu4KWL4KS54KSy?= =?utf-8?b?4KWN4KSy4KS+?= Message-ID: <23137759.722751177954104011.JavaMail.rsspp@deepstorage1> मोहल्ला /////////////////////////////////////////// हिंदी ब्लॉगिंग का तहलका Posted: 30 Apr 2007 12:11 PM CDT http://feeds.feedburner.com/~r/mohalla/~3/113082138/blog-post_30.html हिंदी ब्‍लॉगिंग क्‍या है? क्‍या ये दुनिया की और भाषाओं से कोई अलग चीज़ है? क्‍या तुर्की या उर्दू में होने वाली ब्‍लॉगिंग को भी उनका समाज और मीडिया इतने ही खुशरंग तरीके से लेता है, जैसा हिंदी में लिया जा रहा है? हिंदी में अपनी बात कहने वाले और इंटरनेट से दो-चार हाथ करने वालों ने गूगल और वर्डप्रेस और न जाने किस किस की दया से मुफ्त में अपना-अपना पन्‍ना बनाया और अब मीडिया में इन पन्‍नों की चर्चा छायी हुई है। किसी भी खेल या किसी भी विधा का ईजाद क्‍या महज चार सालों की उम्र में मीडिया को अपनी ओर इस कदर खींच सकता है? इन सवालों के जवाब तो रवि रतलामी, फुरसतिया, जीतेंद्र चौधरी, देबाशीष या सृजन शिल्‍पी देंगे, हम तो इस आपाधापी का आनंद लेने वालों में से हैं। मसिजीवी की तरह। नयी ख़बर है, हिंदी ब्‍लॉगिंग का तहलका। रचयिता हैं रविकांत। अरे, अपने वही सराय वाले! कमाल का लिखा है भाई साहब। हमने तो उन्‍हें एसएमएस कर दिया... ज़‍िन्‍दाबाद है गुरु। मोहल्‍ले में उनकी वाणी सौजन्‍यवश उचार रहे हैं। The New Hindi Medium The unease among Hindi veterans over the brave new world of Internet blogging is fast being swept aside by young pioneers who view their tongue not as a burden but as an opportunity. Ravikant explores the generation gapThe Hindi blogosphere, running into something like 500 blogs today, is reminiscent of the formative years of the language when it made the transition from the oral and handwritten mode to the print media. But the similarity between the two eras and the two technologies ends here. And, given the Hindi language’s notoriously fraught relationship with technology in general and mass-media in particular, it is not surprising that the Hindi bloggers on the Internet are all young — mostly in their twenties and thirties. It is almost a given to think of Hindi as an embattled language, but the fact remains that it has managed to erase its arch-rival Urdu, has almost devoured ‘its’ various dialects and has pretty much made peace with the status of English as the post-colonial global language of this country. Hindiwallahs feel let down by the State, but they have always loathed Commerce equally. Ironically, it is the content-hungry and numbers-driven media bazaar, in the form of print since the early-19th century; films from the 1930s onwards; followed by the radio; and later still, the television, that has given Hindi its unassailable contemporary status as potentially one of the world’s major languages. But there is a parallel world that lives on the fringes of this media market — a fragile unstable world of little magazines where high closure rates are balanced by an equally high number of launches. So this world of laghu patrikas carries on with its missionary zeal and self-proclaimed janpakshdhar attitude — its content almost exclusively literary and political. The new mass media, called the Internet, comes to Hindi in this context. If we compare those who created websites in the late-1990s and those who are blogging now, to those who are still quite satisfied with the print media, the generation gap is obvious. However, the blogs come at a time when some of the leading print journals and all the important newspapers are available on the Web. Nurtured by those who glorified Hindi as the language of eternal struggle, the youth today is still having a tough time trying to convince the wider public that the Internet is not elitist, that embracing it does not amount to eating cake while the hungry millions go without bread. This is literally how the debate went recently when Manisha Kulshreshtha, a pioneer who set up the webportal, Hindinest, started writing in praise of the Net in her column in Naya Gyanoday. Hasan Jamal, the editor of Shesh and a familiar name in socialist circles, charged her with elitism. This could have gone unnoticed a couple of years ago, but not anymore. Jamal saheb got a taste of his own medicine when he got furious responses from the readers of his magazine. One of the respondents, Ravi Ratlami, yes, sitting in Ratlam — another pioneer who has tirelessly worked at translating the free software desktops and other tools in Hindi under a voluntary effort called Indlinux — told Jamal to stop being a “frog in the well” and see his own works reach the far flung corners of the globe via Ratlami’s freewheeling blogzine, Rachnakar. Shesh might not be available in Chhattisgarh but his article on Rachnakar certainly is. “Just try typing your name in Hindi on Google,” Ratlami told Jamal. So it would seem that the netters are now in a position to take on the old media, although they still have some way to go. There is still anxiety in some quarters about things — including generating unnecessary controversy in the Hindi blogosphere. This happened recently when discussions on Hindus and Muslims became too hot to handle for many. Amidst the accusations and protestations that followed, the underlying sentiment favoured sheltering and protecting the new public domain from extreme expressions of identity-oriented narrow political debates. The creators of spaces like Narad, Sarvagya, Paricharcha, Hindini and others have invested much effort in providing the basic tools and healthy initial content for Hindi blogging, and they do not want anybody to ruin it. They do not want another Partition, as one blogger said. Sounds familiar. To sum up, the Hindi blogosphere at the moment looks like a vibrant, if a bit cautious space. Bloggers are commenting on a range of things and it has become a space for innovation, discussion and sharing. Collectively, they can be credited with achieving what the various language and technology departments run by the government have failed to do. And their language is refreshingly different from sarkari Hindi — like roadside mechanics, they have invented a whole new jargon to come to terms with a global technology and tech-inspired spaces that need to be tweaked locally. Toh aaiye chittha likhein, chtthakaar banein, kachcha chttha kholein, aur bedharak Tipiyaein. Ravikant is a literary historian May 05, 2007 -- You are subscribed to email updates from "मोहल्ला." To stop receiving these emails, you may unsubcribe now http://www.feedburner.com/fb/a/emailunsub?id=1560540&key=CLHQMxJSaW If you prefer to unsubscribe via postal mail, write to: मोहल्ला, c/o FeedBurner, 549 W Randolph, Chicago IL USA 60661 This Email Delivery powered by FeedBurner. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20070430/13979d61/attachment.html