From janni_sun at yahoo.co.in Tue Sep 5 15:50:58 2006 From: janni_sun at yahoo.co.in (lata kashyap) Date: Tue, 5 Sep 2006 11:20:58 +0100 (BST) Subject: [Deewan] name Message-ID: <20060905102058.67986.qmail@web7812.mail.in.yahoo.com> HELLO.RAVIKANYTJI. MY NAME IS LATA. --------------------------------- Here's a new way to find what you're looking for - Yahoo! Answers Send FREE SMS to your friend's mobile from Yahoo! Messenger Version 8. Get it NOW -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060905/d3626f32/attachment.html From raviratlami at gmail.com Tue Sep 5 16:42:27 2006 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Tue, 05 Sep 2006 16:42:27 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSu4KS/4KSC4KSX4KSf4KSoICjgpJXgpYM=?= =?utf-8?b?4KSk4KS/4KSm4KWH4KS1IOCktuCljeCksOClh+Cko+ClgCDgpJXgpYcg4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkq+CkvOClieCkqOCljeCknykg4KS54KS/4KSo?= =?utf-8?b?4KWN4KSm4KWAIOCkleClgeCkguCknOClgCDgpKrgpJ8g4KS54KWH4KSk4KWB?= =?utf-8?b?IOCkqOCkr+CkviDgpJHgpKjgpLLgpL7gpIfgpKgg4KSV4KWB4KSC4KSc4KWA?= =?utf-8?b?4KSq4KSf?= Message-ID: <44FD5B9B.7080600@gmail.com> कई मित्रों को इसकी आवश्यकता थी. पाराशर जी ने फिर इस हेतु याद दिलाया. यूँ तो इंटरनेट पर फ़ोनेटिक हिन्दी के लिए तमाम तरह के ऑनलाइन कुंजीपट उपलब्ध हैं, परंतु इनस्क्रिप्ट नहीं था उसे यूनिनागरी में रमण कौल ने उपलब्ध करवाया. रेमिंगटन का छहारी पर जो उपलब्ध है वह आम प्रचलित कृतिदेव से भिन्न है. अंततः पाठकों की मांग काम आई. रेमिंगटन (कृतिदेव) हिन्दी कुंजीपट यहाँ पर उपलब्ध है- http://raviratlami.googlepages.com/Remington-Krutidev-Online-Hindi-Easy-Editor.htm इस पृष्ठ पर रेमिंगटन हिन्दी कुंजी पट (कृतिदेव श्रेणी के हिन्दी फ़ॉन्ट) में हिन्दी टाइप करने की सुविधा है. कुंजीपट को थोड़ा व्यवहारिक बनाया गया है. आधे अक्षरों यानी हलन्त के लिए टिल्ड (~) का प्रयोग करें. उदाहरण के लिए, कक्का लिखने के लिए टाइप करें – dd~dk. मात्राओं के लिए चित्र में दर्शाए अनुसार कुंजियाँ इस्तेमाल करें उदाहरण के लिए – कौ लिखने के लिए dR टाइप करें. यह पृष्ठ हिन्दी लिखने के लिये आपको एक सुलभ, ऑनलाइन तरीका प्रदान करता है. अन्य भाषाएँ लिखने में भी इसका उपयोग हो सकता है, जैसे - मराठी, नेपाली, इत्यादि. इस पृष्ठ पर लिखे हिन्दी को काट – चिपका कर हर प्रकार के अनुप्रयोगों में इस्तेमाल में लिया जा सकता है. इसे अंकित जैन तथा यूनिनागरी पृष्ठों में उपलब्ध कूट स्रोतों के सम्मिश्रण से तैयार किया गया है, अतः उन्हें धन्यवाद. किसी तरह की कोई गारंटी/वारंटी नहीं. अपने स्वयं के जोखिम पर इस्तेमाल करें. बग रपट तथा अपने सुझाव इस पते पर भेजें – raviratlami at gmail dot com रवि From ravikant at sarai.net Tue Sep 5 17:53:22 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 5 Sep 2006 17:53:22 +0530 Subject: [Deewan] name In-Reply-To: <20060905102058.67986.qmail@web7812.mail.in.yahoo.com> References: <20060905102058.67986.qmail@web7812.mail.in.yahoo.com> Message-ID: <200609051753.22742.ravikant@sarai.net> dear lata, aap deewan list par aa chuki hain. shukriya ravikant मंगलवार 05 सितम्बर 2006 15:50 को, lata kashyap ने लिखा था: > HELLO.RAVIKANYTJI. MY NAME IS LATA. > > > --------------------------------- > Here's a new way to find what you're looking for - Yahoo! Answers > Send FREE SMS to your friend's mobile from Yahoo! Messenger Version 8. Get > it NOW From ravikant at sarai.net Tue Sep 5 17:55:40 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 5 Sep 2006 17:55:40 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: [Hindi-Forum] How to convert your blog to a book Message-ID: <200609051755.40261.ravikant@sarai.net> उपयोगी कड़ी, किसी और डाक-सूची से. शुक्रिया रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Fwd: [Hindi-Forum] How to convert your blog to a book Date: मंगलवार 05 सितम्बर 2006 15:33 From: ravikant Yuyutsu To: ravikant at sarai.net --- narayan prasad wrote: > To: hindi-forum at yahoogroups.com > From: narayan prasad > Date: Mon, 4 Sep 2006 12:09:48 +0100 (BST) > Subject: [Hindi-Forum] How to convert your blog to a > book > > ब्लॉग को किताब की > शक्ल कैसे दें - इसके > बारे में > सिलसिलेवार तरीका > ठीक से नहीं दिया गया > है । प्रत्येक चरण > उदाहरण के साथ > समझाया जाना चाहिए । > पहला चरण तो स्पष्ट > है । किन्तु दूसरा > चरण कई चरणों का समूह > है जो किसी दक्ष > चिट्ठाकार को ही > मालूम पड़ेगा । > एक बात और यह है कि > टेम्पलेट के लिए > प्रोग्राम का जो अंश > अन्त में दिया गया > है, उतना प्रयोग कर > मैंने देखा । परन्तु, > Encoding कैसे सेट किया > जाता है ? इस > प्रोग्राम भर से तो > हमें जाल-स्थान पर > आरम्भ में केवल junk > दिखता है । फिर IE के > माध्यम से View --> Encoding --> > Unicode (UTF-8) करने पर > देवनागरी पाठ दिखाई > देता है । > --- नारायण प्रसाद ************************************************************************** http://akshargram.com/sarvagya/index.php/Howto_convert_your_blog_to_a_bookHow > to convert your blog to a book > From सर्वज्ञ > Jump to: navigation, search > [edit] > ब्लॉग को किताब की > शक्ल कैसे दें > आमतौर पर ब्लॉग एक > डायरी की शक्ल में > होता है। पर, थोड़े से > प्रयत्न से आप इसकी > मदद से अपनी किताब या > उपन्यास भी लिख सकते > हैं। वैसे यहाँ केवल > ब्लॉगर से संबंधित > चर्चा की गई है पर > संभवतः यह अन्य > ब्लॉग लेखन तंत्रों > पर थोड़े फेरबदल के > साथ लागू हो। अधिक > जानकारी के लिए यहाँ > देखें। > > इस विधा के इस्तेमाल > के कुछ नमूने यहाँ > उपलब्ध हैं। > The Castle of Otranto > लाईफ ईन ए एचओवी लेन > बुनो कहानी > > आइए इस विधा का > प्रयोग का > सिलसिलेवार तरीका > देखें: > > पहले तो एक अदद > ब्लॉग का निर्माण > कीजीए। > फिर आप अपनी किताब > के सारे अध्याय > ब्लॉग में प्रकाशित > कर दें। नए अध्याय > बाद में भी जोड़े जा > सकते हैं। > हर अध्याय एक > प्रविष्टी यानि > ब्लॉग एन्ट्री > होगी। > हर अध्याय की स्थाई > कड़ी या पर्मालिंक > नोट करिए। > एक और ब्लॉग > प्रविष्टी तैयार > कीजिए अध्याय सूची > के रूप में, बाकि > सारे अध्याय के > पर्मालिंक यहाँ कड़ी > यानि हाईपरलिंक का > काम करेंगे। > अपने ब्लॉग का > शीर्षक किताब के > शीर्षक पर रखिए। > ब्लॉग की सेटिंग > में सिर्फ एक ब्लॉग > पोस्ट दिखने का चयन > करिए। इससे पाठकों > को हमेशा किताब का > मुखपृष्ठ अध्याय > सूची के रूप में पहले > दिखेगा। ध्यान रहे > कि विषय सूची कि > प्रविष्टि की > प्रकाशन तिथि सबसे > नविनतम होनी चाहिए, > क्योंकि > प्रविष्टियां > तिथिनुसार दिखाई > जाती हैं और हमें > मुख्य पृष्ठ पर विषय > सूची ही दिखानी है। > साथ ही इस टेम्पलेट > को डाउनलोड कर, अपने > ब्लॉग के टेम्पलेट > सेक्शन में चस्पा (copy & > paste) कर दीजिऐ, > इच्छानुसार रंग - > चित्रों का समावेश > कर दें। > आपकी सहायता के लिए > एक विषय सूची या > अनुक्रमणिका का > उदाहरण पेश है। > > bordercolor="#000000" bgcolor="#000000"> >

border="40" cellpadding="0" bordercolor="#FBF5C1" > bgcolor="#FFFFFF">
>

align="center">विषय > तालिका


align="center">अध्याय > १

href="LINK">अध्याय २

>
>
> तो देर किस बात की > है, मिटा डालिये छपास > की पीड़ा और दिखा > दीजिये प्रकाशकों > को अंगूठा। > > > > --------------------------------- > Try the all-new Yahoo! Mail . "The New Version is > radically easier to use" � The Wall Street Journal __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com --------------- From ravikant at sarai.net Tue Sep 5 18:04:24 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 5 Sep 2006 18:04:24 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: [Reader-list] [Announcements] Storytelling performance at SAA Message-ID: <200609051804.24316.ravikant@sarai.net> जनेवि के इर्द-गिर्द रहनेवालों के लिए अपने महमूद राम के दास्कतानगोई के करतब देखने का एक अनोखा मौक़ा. चूँकें मत! रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [Reader-list] [Announcements] Storytelling performance at SAA Date: मंगलवार 05 सितम्बर 2006 13:18 The School of Arts and Aesthetics cordially invites you to Tilism-i-Hoshruba, or the Empire of Enchantments: a presentation of dastangoi, or the lost form of Urdu Storytelling in a brilliant revival by Mahmood Farooqui and Danish Husain on Friday, September 8, 2006 at the Auditorium, School of Arts and Aesthetics JNU at 4:30 pm ============================================== This Mail was Scanned for Virus and found Virus free ============================================== _______________________________________________ announcements mailing list announcements at sarai.net https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/announcements _________________________________________ reader-list: an open discussion list on media and the city. Critiques & Collaborations To subscribe: send an email to reader-list-request at sarai.net with subscribe in the subject header. To unsubscribe: https://mail.sarai.net/mailman/listinfo/reader-list List archive: <https://mail.sarai.net/pipermail/reader-list/> ---------------- From ravikant at sarai.net Thu Sep 7 17:27:42 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 7 Sep 2006 17:27:42 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSw4KWH4KSu4KS/4KSC4KSX4KSf4KSoICgg4KSV4KWD?= =?utf-8?b?4KSk4KS/4KSm4KWH4KS1IOCktuCljeCksOClh+Cko+ClgCDgpJXgpYcg4KS5?= =?utf-8?b?4KS/4KSo4KWN4KSm4KWAIOCkq+CkvOClieCkqOCljeCknyApIOCkueCkvw==?= =?utf-8?b?4KSo4KWN4KSm4KWAID4g4KSV4KWB4KSC4KSc4KWAIOCkquCknyDgpLngpYc=?= =?utf-8?b?4KSk4KWBIOCkqOCkr+CkviDgpJHgpKjgpLLgpL7gpIfgpKgg4KSV4KWB4KSC?= =?utf-8?b?4KSc4KWA4KSq4KSf?= Message-ID: <200609071727.42991.ravikant@sarai.net> ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Re: Fwd: [Deewan] रेमिठDate: गुरुवार 07 सितम्बर 2006 17:21 From: "Yogender Dutt" To: "Ravikant" रवि, यह निहायत महत्वपूर्ण औज़ार है। हमने इसे चलाकर देखा। काफ़ी मज़े में चलता है। थोड़ा और जाँच-परख कर अंतिम रपट दी जाएगी। बहरहाल हमारे टेक-कुंठित और काहिल ज़ेहन में यह सवाल आ रहा है कि किसी और औज़ार से नक़ल-चिपकाकर हम वही नतीजा क्यों हासिल नहीं कर सकते, या फिर इसे पद्मा के साथ समेकित क्यों नहीं कर लिया जाए? अगर यह हो पाए तो हमें हमारी मुराद मिल जाएगी, कम से कम अभी के लिए! शुक्रिया योगेन्द्र व रविकान्त On Thu, 07 Sep 2006 Ravikant wrote : >---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > >Subject: Fwd: [Deewan] रेमिंगटन (कृतिदेव श्रेणी के हिन्दी फ़ॉन्ट) हिन्दी > कुंजी पट हेतु नया ऑनलाइन कुंजीपट >Date: गुरुवार 07 सितम्बर 2006 16:30 > From: Ravikant >To: translation1 at gmail.com > >---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- > >Subject: [Deewan] रेमिंगटन (कृतिदेव श्रेणी के हिन्दी फ़ॉन्ट) हिन्दी कुंजी पट > हेतु नया ऑनलाइन कुंजीपट >Date: मंगलवार 05 सितम्बर 2006 16:42 > From: Ravishankar Shrivastava >To: Chithakar at googlegroups.com, hindi digest subscribers >, hindibhasha at googlegroups.com, "deewan at sarai.net" > > >कई मित्रों को इसकी आवश्यकता थी. पाराशर जी ने फिर इस हेतु याद दिलाया. यूँ तो >इंटरनेट पर फ़ोनेटिक हिन्दी के लिए तमाम तरह के ऑनलाइन कुंजीपट उपलब्ध हैं, > परंतु इनस्क्रिप्ट नहीं था उसे यूनिनागरी में रमण कौल ने उपलब्ध करवाया. > रेमिंगटन का छहारी पर =E0��ो उपलब्ध है वह आम प्रचलित कृतिदेव से भिन्न है. > अंततः पाठकों की मांग काम आई. रेमिंगटन (कृतिदेव) हिन्दी कुंजीपट यहाँ पर > उपलब्ध है- > >http://raviratlami.googlepages.com/Remington-Krutidev-Online-Hindi-Easy-Edit >o r.htm > > > >इस पृष्ठ पर रेमिंगटन हिन्दी कुंजी पट (कृतिदेव श्रेणी के हिन्दी फ़ॉन्ट) में > हिन्दी टाइप करने की सुविधा है. कुंजीपट को थोड़ा व्यवहारिक बनाया गया है. > आधे अक्षरों यानी हलन्त के लिए टिल्ड (~) का प्रयोग करें. उदाहरण के लिए, > कक्का लिखने के लिए टाइप करें – dd~dk. मात्राओं के लिए चित्र में दर्शाए > अनुसार कुंजियाँ इस्तेमाल करें उदाहरण के लिए – कौ लिखने के लिए dR टाइप करें. > >यह पृष्ठ हिन्दी लिखने के लिये आपको एक सुलभ, ऑनलाइन तरीका प्रदान करता है. > अन्य भाषाएँ लिखने में भी इसका उपयोग हो सकता है, जैसे - मराठी, नेपाली, > इत्यादि. इस पृष्ठ पर लिखे हिन्दी को काट – चिपका कर हर प्रकार के अनुप्रयोगों > में इस्तेमाल में लिया जा सकता है. > >इसे अंकित जैन तथा यूनिनागरी पृष्ठों में उपलब्ध कूट स्रोतों के सम्मिश्रण से > तैयार किया गया है, अतः उन्हें धन्यवाद. किसी तरह की कोई गारंटी/वारंटी नहीं. > अपने स्वयं के जोखिम पर इस्तेमाल करें. > >बग रपट तथा अपने सुझाव इस पते पर भेजें – raviratlami at gmail dot com > >रवि >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > >------------------------------------------------------- > >--------------------------- --------------- From rajeshkajha at yahoo.com Fri Sep 8 10:31:00 2006 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 7 Sep 2006 22:01:00 -0700 (PDT) Subject: [Deewan] prabhasakshi unicode par Message-ID: <20060908050100.89186.qmail@web52902.mail.yahoo.com> http://www.prabhasakshi.com/unicode.htm प्रभासाक्षी का यह ट्रायल पन्ना देखिये... राजेश __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com From ravikant at sarai.net Fri Sep 8 15:40:27 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 8 Sep 2006 15:40:27 +0530 Subject: [Deewan] prabhasakshi unicode par In-Reply-To: <20060908050100.89186.qmail@web52902.mail.yahoo.com> References: <20060908050100.89186.qmail@web52902.mail.yahoo.com> Message-ID: <200609081540.27789.ravikant@sarai.net> देखा, अच्छा है, पर ट्रायल ही है, क्योंकि जैसे ही आप दूसरे पन्ने पर जाते हैं, सामग्री पुरानी एनकोडिंग में आने लगती है. और राजेश जी आपका संदेश पढ़ने के लिए मुझे http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html का सहारा लेना पड़ा. मुझे लगता है, जीमेल पर आ जाना आपके लिए सेहतमंद रहेगा. रविकान्त शुक्रवार 08 सितम्बर 2006 10:31 को, Rajesh Ranjan ने लिखा था: > प्रभासाक्षी का यह ट्रायल पन्ना देखिये... राजेश From tripathimrityunjay at gmail.com Sat Sep 9 16:09:20 2006 From: tripathimrityunjay at gmail.com (mrityunjay tripathi) Date: Sat, 9 Sep 2006 16:09:20 +0530 Subject: [Deewan] KAVITA.......................DEKHAHU Message-ID: Bhartendu harishchandra k janmdin par do taja tareen kavitaon ka lutf len............................................... Dekhi tumhari dilli ! sadho dekhi thumari dilli ! CP par ghume hatyari panje sadhe billi Sheelampur me gost uraven parlment k sher janpath- vanpath jagmag-jagmag baki sarak andher chirai-churmun bitia betva ghayal jangh gaseeten bari bari karon k bhitar gost khoon k chinte sadak ramp hai dono or hava m faili hain madayen le bajar ka chabuk piten hatyare muskayen be rojgari k kamod par PM panv pasare oobh-choobh karte hum bandhu fislan bhare kinare sapno ki bach gai fasal ko charti jaye illi dekhi tumhari dilli sadho................................ in nainan m basi midia ! sujhai na kachhu bin TV ke talaf rahain nit jia rojahi dekhu sundarien k dakun k hatyaran k chor milenge yahan samachar vachak k lakdak bane m bal barhay bali pahire kot pahiri darhi vale muskayen hatya ki khabar par sex ka graf uchalen jane kahan s paven aankara del banai so fekain "pahli pahli bar" jhooth ka live chanel relain marat aadmi k munh bhitar darain mike pura ambani k lanch diner m gift pack bharpura "sabse tej" flate hathiaven 24*7 ka dhandha sex nasha aur bhakti bhav k dandha parai n manda aai TRP ki aandhi toota chautha khambha yehi karan main kahhu banahu tum patrkar mor pia in nainan m basi midia ! -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060909/9bdb3b86/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Sep 11 18:33:59 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 11 Sep 2006 18:33:59 +0530 Subject: [Deewan] nimantran: Media, Politics and Solidarity seminar Message-ID: <200609111833.59992.ravikant@sarai.net> Media, Politics and Solidarity Media Seminar Series II Organized by Media and Communication Group of ISF 2006, World Social Forum- India Tuesday, 12 September, 2006 Venue: The Sarai Programme, Centre for the Study of Developing Societies 29, Rajpur Road, Delhi 110054 Time: 2:00-5:00 pm Towards an Alternative Media- The articulation on this theme can touch upon the diverse media and communication tools, initiatives, experiments that have gone into making of plural and democratic media. In the realm of old and new media, there are several dynamic developments towards creating peoples’ media. Speaker-Seema Mustafa, Journalist Rich Media, Poor Democracy – The basic premise of this theme can address the several myths about the media--in particular, that the market compels media firms to "give the people what they want"--that limit the ability of citizens to grasp the real nature and logic of the media system. If we value our democracy, can we organize politically to restructure the media in order to affirm their connection to democracy. Speaker- Paranjoy Guha Thakurta, Director, School of Convergence, Journalist and Film maker Truth, Market Forces and Media- Market forces blur’s various facet of society. Its command the monopoly over the distribution, production of the news/ views on in a society. The corporate globalization and liberalization have given a tremendous boost to the Media and Information technologies. Does this also hold true for revealing the truth? Speaker- Umesh Anand, Editor, Civil Society Publication and Journalist Towards India Social Forum: Another “Media Culture” is possible- WSF-India and the proposed ISF would like to open create spaces where diverse forms of media, their practitioners, and those who reflect on, or critically engage with these practices, can come together, discuss and debate, enter into shared pursuits, to build on democratic, plural and independent media within and across open spaces, as opposed to corporatised and profit-oriented media. Speaker- Aditya Nigam, Senior Fellow, Centre for the Study of Developing Societies Mukul Sharma, Journalist/ Writer, Director, Amnesty International – India Moderator: Mr. Shuddhabrata Sengupta, SARAI From ravikant at sarai.net Tue Sep 12 18:22:06 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 12 Sep 2006 18:22:06 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: Kaise gira Twin Tower Message-ID: <200609121822.07022.ravikant@sarai.net> agar aap ise dekhne se chook gaye the tho yahan vistaar se juDwan towers ke girne ki sachitra kahani bayan kee gayii hai. shukriya Khadeeja. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: Kaise gira Twin Tower Date: मंगलवार 12 सितम्बर 2006 12:51 From: "Khadeeja Arif" To: ravikant at sarai.net http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/1123_tower_attack/ http://www.bbc.co.uk/ This e-mail (and any attachments) is confidential and may contain personal views which are not the views of the BBC unless specifically stated. If you have received it in error, please delete it from your system. Do not use, copy or disclose the information in any way nor act in reliance on it and notify the sender immediately. Please note that the BBC monitors e-mails sent or received. Further communication will signify your consent to this. ------------------------------------------------------- From gnj_chanka at rediffmail.com Wed Sep 13 12:08:45 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 13 Sep 2006 06:38:45 -0000 Subject: [Deewan] mritiwinjay ji ki delhi Message-ID: <20060913063845.28323.qmail@webmail47.rediffmail.com> ?????????????????????????????? ,???????????? ?????? ?????????????????? ?????? ?????? ????????? ??????????????? ????????? ????????????..????????????????????? ?????????????????????  ?????? ????????????..! ???????????? ?????? ???????????? ????????????????????? ?????? ???????????? ???????????? ?????????????????????????????? ???????????? ?????????????????? ?????? ???????????? ????????? ???????????? ????????????,?????? ????????? ?????? ??? ???????????? ?????? ?????????....?????????????????? ?????? ???????????? ?????? ???????????? ???????????? ???????????????????????? ????????????????????? ?????? ??????????????? ?????? ??????????????? ????????????????????????????????? ?????? ????????? ??????m ???????????? ???????????? ????????????...... ??????????????????????????? -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060913/0a19700c/attachment.html From ravikant at sarai.net Wed Sep 13 15:10:39 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 13 Sep 2006 15:10:39 +0530 Subject: [Deewan] unicode par lekh Message-ID: <200609131510.40718.ravikant@sarai.net> dosto, unicode ke baare mein jaankaari deta lekh jo main Sahara Samay, 9 Sitambar 2006 se saabhar le raha hoon aur chandan ji ko sadhanyavaad bhi. is lekh mein sirf ek baat ghalat hai ki unicode ke liye aapko high-end hardware chahiye. baharhaal ise aur logon ko dein, forward karein circulate karein. shukriya ravikant युनिकोड एक कंप्युटर कई भाषाएं बालेंदु दाधीच सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास और सुधार की निरंतर प्रक्रिया चलती रहती है और इसी संदर्भ में पिछले कुछ वर्षों से सूचनाओं के भंडारण की एक आधुनिकतम पद्धति लोकप्रिय हो रही है जिसे युनिकोड कहते हैं। युनिकोड के माध्यम से पहली बार सूचना प्रौद्योगिकी पर अंग्रेज़ी की अनिवार्य निर्भरता से मुक्ति की संभावनाएं दिख रही हैं क्योंकि यह पद्धति एक आम कम्प्यूटर को विश्व की सभी भाषाओं में काम करने में सक्षम बना सकती है। ज़ाहिर है, आईटी क्षेत्र में भारतीय भाषाओं को विकसित होते देखने की आकांक्षा रखने वाले लोग युनिकोड में छिपी संभावनाओं को देखकर उत्साहित हैं क्योंकि कई दशकों बाद अब हम बिना अंग्रेज़ी हैं। मीडिया में कंप्युटर की क्षमताओं का प्रयोग करने की स्थिति में आ रहे हैं। मीडिया में कंप्युटर टेक्नालॉजी की असंदिग्ध रूप से महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि मीडिया भी आने वाले वर्षों में इस काल-विभाजक परिघटना से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। हालांकि युनिकोड है तो सिर्फ़ डेटा के स्टोरेज संबंधी एकोडिंग मानक, लेकिन इसके प्रयोग से कंप्यूटरों की कार्यप्रणाली और उनके इस्तेमाल के तौर-तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव आ सकता है क्योंकि डेटा ही कंप्युटरों के संचालन का केंद्र बिंदु है। भले ही हम कंप्यूटर का किसी भी काम के लिए प्रयोग करें, मसलन लेखन कार्य के लिए, ध्वनि रिकार्डिंग या फिर वीडियो प्रोसेसिंग के लिए, हमें इसके लिए कंप्यूटर को या तो कुछ सूचनाएं देनी पड़ती है (जैसे टाइपिंग के माध्यम से रिकॉर्डिंग के ज़रिए) या फिर हम कुछ सूचनाएं कंप्यूटर से ग्रहण करते हैं (मसलन पहले रिकार्डेड वीडियो को देखना या पहले से मौजूद फाइलों को खोलना)। इन्हें क्रमश: इनपुट और आउटपुट के रूप में जाना जाता है। इन दोनों प्रक्रियाओं में जिन सूचनाओं (डेटा) का प्रयोग होता है, उन्हें कंप्यूटर पर अंकों के रूप में स्टोर किया जाता है क्योंकि वह सिर्फ़ अंकों की भाषा जानता है, और वह भी सिर्फ़ दो अंको- 'शून्य' तथा 'एक' की भाषा। इन दो अंकों का भिन्न-भिन्न ढंग से पारस्परिक बाइनरी संयोजन कर अलग-अलग डेटा को कंप्युटर पर रखा जा सकता है। मिसाल के तौर पर 01000001 का अर्थ है। अंग्रेज़ी का कैपिटल ए अक्षर और 00110001 से तात्पर्य है 1 का अंक।         अक्षरों या पाठ्य सामग्री और कंप्युटर पर स्टोर किए जाने वाले बाइनरी डिजिट्स के बीच तालमेल बिठाने वाली प्रणाली को एनकोडिंग टेबल के माध्यम से कंप्युटर यह तय करता है कि फलां बाइनरी कोड को फलां अक्षर या अंक के रूप में स्क्रीन पर प्रदर्शित किया जाए। किस एनकोडिंग में कितने बाइनरी अंक प्रयुक्त होते हैं, इसी पर उसकी क्षमता और नामकरण निर्भर होते हैं। उदाहरण के तौर पर अब तक लोकप्रिय एस्की एनकोडिंग को 7 बिट एनकोडिंग कहा जाता है क्योंकि इसमें हर संकेत या सूचना के भंडारण के लिए ऐसे सात बाइनरी डिजिट्स का प्रयोग होता है। एस्की एनकोडिंग के तहत इस तरह के 128 अलग-अलग संयोजन संभव हैं यानी इस एनकोडिंग का प्रयोग करने वाला कंप्युटर 128 अलग-अलग अक्षरों या संकेतों को समझ सकता है। अब तक कंप्युटर इसी सीमा में बंधे हुए थे और इसीलिए भाषाओं के प्रयोग के लिए उन भाषाओं के फोंट तक सीमित थे जो इन संकेतों को कंप्यूटर स्क्रीन पर अलग-अलग ढंग से प्रदर्शित करते हैं। यदि अंग्रेज़ी का फोंट इस्तेमाल करें तो 01000001 संकेत को ए अक्षर के रूप में दिखाया जाएगा। लेकिन यदि हिन्दी फोंट का प्रयोग करें तो यही संकेत ग, म या च अक्षर के रूप में प्रदर्शित किया जाएगा।          युनिकोड एक 16 बाइट की एनकोडिंग व्यवस्था है, यानी इसमें हर संकेत को संग्रह और अभिव्यक्त करने के लिए सोलह बाइनरी डिजिट्स का इस्तेमाल होता है। इसीलिए इसमें 65536 अद्धितीय संयोजन संभव हैं। इसी वजह से युनिकोड हमारे कंप्युटर में सहेजे गए डेटा को फोंट की सीमाओं से बाहर निकाल देता है। इस एनकोडिंग में किसी भी अक्षर, अंक या संकेत को सोलह अंकों के अद्धितीय संयोजन के रूप में सहेज कर रखा जा सकता है चूंकि किसी एक भाषा में इतने सारे अद्धितीय अक्षर मौजूद नहीं हैं इसीलिए इस स्टैंडर्ड (मानक) में विश्व की सारी भाषाओं को शामिल कर लिया गया है। हरभाषा को इन 65536संयोजनों में से उसकी वर्णमाला संबंधी आवश्यकताओं के अनुसार स्थान दिया गया है। इस व्यवस्था में सभी भाषाएं समान दर्ज़ा रखती है और सहजीवी हैं। यानी युनिकोड आधारित कंपयूटर पहले से ही विश्व की हर भाषा से परिचित है। भले ही वह हिन्दी हो या पंजाबी, या फिर उड़िया। इतना ही नहीं, वह उन प्राचीन भाषाओं से भी परिचित है जो अब बोलचाल में इस्तेमाल नहीं होतीं, जैसे कि पाली या प्राकृत। और उन भाषाओं से भी जो संकेतों के रूप में इस्तेमाल होती हैं, जैसे कि गणितीय या वैज्ञानिक संकेत।          युनिकोड के प्रयोग से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि एक कंप्युटर पर दर्ज़ किया गया पाठ (टेक्स्ट) विश्व के किसी भी अन्य युनिकोड आधारित कंप्युटर पर खोला जा सकता है। इसके लिए अलग से उस भाषा के फोंट का इस्तेमाल करने की अनिवार्यता नहीं है क्योंकि युनिकोड केंद्रित हर फोंट में सिद्धांतत: विश्व की हर भाषा के अक्षर मौजूद हैं। कंप्युटर में पहले से मौजूद इस क्षमता को सिर्फ़ एक्टीवेट (सक्रीय) करने की ज़रूरत है जो विंडोज़ एक्सीपी, विंडोज़ 2000, विंडोज़ 2003, विंडोज़ विस्ता, मैक एक्स 10, रेड हैट लिनक्स, उबन्तु लिनक्स आदि ऑपरेटिंग सिस्टम के ज़रिए की जाती है। विश्व भाषाओं की यह उपलब्धता सिर्फ़ देखने या पढ़ने तक ही सीमित नहीं है। हिन्दी जानने वाला व्यक्ति युनिकोड आधारित किसी भी कंप्यूटर में टाइप कर सकता है, भले ही वह विश्व के किसी भी कोने में क्यों न हो। सिर्फ़ हिन्दी ही क्यों, एक ही फाइल में, एक ही फोंट का इस्तेमाल करते हुए आप विश्व की किसी भी भाषा में लिख सकते हैं। इस प्रक्रिया अंग्रेज़ी कहीं आड़े नहीं आती। विश्व भर में चल रही भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में सूचना प्रौद्योगिकी का यह अपना अलग ढंग का योगदान है।          युनिकोड आधारित कंप्यूटरों में हर काम किसी भी भारतीय भाषा में किया जा सकता है, बशर्ते ऑपरेटिंग सिस्टम या कंप्युटर पर इन्स्टॉल किए गए सॉफ्टवेयर युनिकोड व्यवस्था का पालन करें। मिसाल के तौर पर माइक्रोसॉफ्ट के आफिस संस्करण, सन माइक्रोसिस्टम्स के स्टार आफिस या फिर ओपनसोर्स पर आधारित ओपनआफिस.ऑर्ग जैसे सॉफ्टवेयरों में आप शब्द संसाधक (वर्ड प्रोसेसर), तालिका आधारित सॉफ्टवेयर (स्प्रेडशीट), प्रस्तुति संबंधी साफ्टवेयर (पावर-प्वाइंट आदि) तक में हिन्दी और अन्य भाषाओं का बिल्कुल उसी तरह प्रयोग कर सकते हैं जैसे अब तक अंग्रेज़ी में किया करते थे। यानी न सिर्फ़ टाइपिंग बल्कि सॉर्टिंग, इंडेक्सिंग, सर्च, मेल मर्ज़, हेडर-फुटर, फुटनोट्स, टिप्पणियां (कमेंट) आदि सब कुछ।          कंप्यूटर पर फाइलों के नाम लिखने के लिए भी अब अंग्रेज़ी की ज़रूरत नहीं रह गई है। यदि आप अपनी फाइल का नाम हिन्दी में 'मेरीफाइल.डॉक' भी रखना चाहें तो इसमें कोई अड़चन नहीं है। इंटरनेट पर भी अब युनिकोड का मानक खूब लोकप्रिय हो रहा है और धीरे-धीरे लोग पुरानी एनकोडिंग व्यवस्था की सीमाओं से निकल कर युनिकोड अपनाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। गूगल, विकिपीडिया, एमएसएन आदि इसके उदाहरण है जिनमें हिन्दी में काम करना उसी तरह संभव है जैसे अंग्रेज़ी में। युनिकोड आधारित भारतीय भाषाओं की वेबसाइटों की विषय वस्तु (कॉन्टेंट) सर्च इंजनों द्वारा भी सहेजी जाती है यानी विश्व स्तर पर उनकी उपस्थिति और दायरा बढ़ता है। फिलहाल सर्च इंजनों पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की वेबसाइटों की स्थिति दयनीय है क्योंकि हर वेबसाइट में अलग-अलग फोंट का इस्तेमाल होने के कारण सर्च इंजनों के लिए उनकी विषय वस्तु को समझना संभव नहीं है। युनिकोड के प्रयोग से यही काम उनके लिए बहुत आसान हो जाता है।          युनिकोड आधारित वेबसाइटों या पोर्टलों को देखने के लिए पाठक के पास संबंधित फोंट होने की अनिवार्यता नहीं है। अगर कोई वेबसाइट युनिकोड में है तो उसे विश्व में किसी भी स्थान पर फोंट डाउनलोड किए बिना न सिर्फ़ देखा जा सकता है बल्कि उसके लेखों को अपने कंप्युटर पर सहेजा भी जा सकता है। डाइनामिक फोंट नामक टक्नोलॉजी के ज़रिए यह सुविधा सीमित अर्थों में पहले भी थी लेकिन कंप्यूटर पर सहेजे गए लेख तभी पढ़े जा सकते थे यदि कंप्युटर में संबंधित फोंट मौजूद हों। पर अब यह सीमा नहीं रही।          कंप्यूटर अब अंग्रेजी का मोहताज नहीं रहा और इसीलिए युनिकोड ने उसकी सम्पूर्ण कार्यप्रणाली बदल दी है। डेटा के भंडारण के साथ-साथ उसकी प्रोसेसिंग और प्रस्तुति के तरीके भी बदल गए हैं। चूंकि युनिकोड सोलह बाइट की एनकोडिंग व्ववस्था है और विश्व के अधिकांश सॉफ्टवेयर पुरानी एनकोडिंग व्ववस्था को ध्यान में रखते हुए विकसित किए गए थे इसलिए ऐसे सॉफ्टवेयर युनिकोड टेक्स्ट को समझ नहीं पाते। नतीजन विश्व भर में सॉफ्टवेयरों को युनिकोड समर्थनयुक्त बनाने की प्रक्रिया चल रही है। किसी कंप्यूटर आवश्यकता है ताज़ातरीन विन्डोज़, लिनक्स या मैक ऑपरेटिंग सिस्टम का प्रयोग। चूँकि इन ऑपरेटिंग सिस्टम के संसाधनों की अपनी ज़रूरतें हैं इसलिए इस बात की काफ़ी संभावना है कि संबंधित कंप्यूटर कम से कम पेंटियम-4,2 गीगाहर्ट्ज़ श्रेणी का हो और इन्हीं कारणों से युनिकोड की ओर प्रस्थान करने में कुछ आवश्यक बिंदुओं पर विचार करने की आवश्यकता पड़ सकती है। From ravikant at sarai.net Wed Sep 13 15:15:48 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 13 Sep 2006 15:15:48 +0530 Subject: [Deewan] ek aur Message-ID: <200609131515.49092.ravikant@sarai.net> ham log yeh baatein kafi samay se kahte aa rahe hain, achchhi baat yeh hai ki ab mukhyadhara ki media mein bhi yeh baatein hone lagi hain. unicode par do lekh, sahara samay ke ek hi ank mein! chandan ko ek bar phir shukriya. ravikant युनिकोड हिन्दी मीडिया के लिए ज़रूरी है बालेंदु दाधीच Sahara Samay, 9 September 2006. कुछ हफ़्ते पहले दिल्ली में 'मीडिया में युनिकोड की प्रासंगिकता' पर अमेरिकन इंस्टीटयूट ऑफ इंडियन स्टडीज़ की ओर से आयोजित एक गोष्ठी में मैंने किसी बड़े मीडिया संस्थान को पूरी तरह युनिकोड समर्थित करने में आड़े आने वाली वित्तीय उलझनों का ज़िक्र किया था। इस पहलू ने युनिकोड के प्रति उत्साहित लोगों को थोड़ा उद्वेलित किया। लेकिन युनिकोड अपनाने की अनिवार्य आवश्यकता के साथ-साथ व्यावसायिक और वित्तीय पहलुओं पर व्यावहारिक दृष्टि डालना ज़रूरी है।         किसी अख़बार के युनिकोडीकरण की तीन श्रेणियां हो सकती हैं- उसकी वेबसाइट या पोर्टल को युनिकोड युक्त किया जाना, वेबसाइट के साथ-साथ अख़बार के निर्माण तंत्र (जिसमें कंपोजिंग, डिजाइनिंग, समाचार वितरण व संकलन व्यवस्था, ग्राफिक्स आदि आते हैं) को युनिकोडित किया जाना और वेबसाइट और अख़बार के साथ-साथ उस समाचार संस्थान की संपूर्ण व्यवस्था (विज्ञापन संकलन, वितरण व्यवस्था, प्रबंधन, अकाउंटिंग, ईआरपी डेटाबेस, ई-मेल प्रणालियां आदि) का भी युनिकोडित किया जाना। इन तीनों श्रेणियों में युनिकोडित होने वाले कंप्यटरों और सॉफ्टवेयरों की संख्या अलग-अलग है और इस प्रक्रिया में होने वाला ख़र्च भी इसी तथ्य पर आधारित है।          एक बड़ी समस्या यह है कि हिन्दी अख़बारों में पारंपरिक रूप से इस्तेमाल होने वाले सॉफ्टवेयर युनिकोड का समर्थन नहीं करते। इनमें से जो सॉफ्टवेयर अंर्तराष्ट्रीय कंपनियों ने तैयार किए हैं, उनके ताजा संस्करण ख़रीदकर युनिकोड में काम शुरू किया जा सकता है लेकिन जिन सॉफ्टवेयरों का भारत में विकास हुआ है (मसलन समाचार संकलन और प्रबंधन सॉफ्टवेयर, ईआरपी प्रणालियां आदि) उनका नए सिरे से विकास किए जाने की ज़रूरत है। जहां ख़रीदे जाने वाले सॉफ्टवेयरों को लेकर तो कोई उलझन नहीं है लेकिन जिन सॉफ्टवेयरों का नए सिरे से विकास होना है, उन पर होने वाला ख़र्च काफ़ी अधिक हो सकता है क्योंकि विकास की यह प्रक्रिया महीनों चल सकती है।          यदि कोई बड़ा भाषायी अख़बार पुराने फॉर्मेट में चल रही अपनी डाइनेमिक वेबसाइट या पोर्टल को युनिकोडित करना चाहता है तो इस प्रक्रिया में दो से पांच लाख रुपए तक की लागत आ सकती है। हो सकता है कि कुछ अख़बार फिलहाल सिर्फ़ इतना ही कर इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति को मज़बूत करने भर के इच्छुक हों। ऐसी स्थिति में उनका ख़र्च काफ़ी सीमित हो सकता है। लेकिन यदि उस मीडिया संस्थान का प्रबंधन अपने पूरे अख़बार की निर्माण प्रणाली को युनिकोडित करना चाहे तो इस प्रक्रिया में ज़रूरी हार्डवेयर व सॉफ्टवेयर पर आने वाला ख़र्च वहां इस्तेमाल कंप्युटरों की संख्या, कंप्युटरों की क्षमताओं (युनिकोड हो सकता है या नहीं), कर्मचारियों की संख्या, सॉफ्टवेयरों की लाइसेंसिंग प्रणाली, ऑटोमेशन और सेवाओं के स्तर आदि पर निर्भर करेगा। अख़बार के आकार और ज़रूरतों के अनुसार यह राशि पांच लाख से पंद्रह लाख रुपए तक हो सकती है। बहुत से हिन्दी अख़बारों में अब भी 486 या पेंटियम सीरीज के शुरूआती कंप्युटर इस्तेमाल हो रहे हैं। उनमें हार्डवेयर का अपग्रेडेशन ज़रूरी होगा। लेकिन जिन अख़बारों के पास पहले से ही कम से कम विंडोज़ एक्सपी या 2000 ऑपरेटिंग सिस्टम वाले कंप्युटर हैं, उनमें हार्डवेयर पर होने वाला ख़र्च बहुत कम होगा।          यदि अख़बार का प्रबंधन युनिकोडीकरण को सिर्फ़ विषय-वस्तु (कॉन्टेंट) से संबंधित विभागों तक सीमित न रखना चाहे और उसे अपने संस्थान की सम्पूर्ण व्ववस्था (ईआरपी, विज्ञापन, वितरण, डेटाबेस, संदेश-प्रणालीयां आदि) में लागू करना चाहे तो उसे पांच से दस लाख रुपए तक की अतिरिक्त राशि ख़र्च करनी पड़ सकती है। यहां यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि बहुत कम भाषायी अख़बार गैर-संपादकीय विभागों में इस तरह के आधुनिक सॉफ्टवेयरों का इस्तेमाल करते हैं। आम तौर पर वे टैली या बिजी जैसे अकाउंटिंग पैकेज से काम चला लेते हैं। यादि संबंधित अख़बार इस श्रेणी में आता है तो उसमें विभाग के युनिकोडीकरण पर होने वाला ख़र्च भी इन सॉफ्टवेयरों तक ही सीमित होगा। इस तरह अलग-अलग मीडिया संस्थान के लिए युनिकोडीकरण पर ख़र्च होने वाली धनराशि अलग-अलग हो सकती है।          सवाल उठता है कि क्या मीडिया संस्थानों को यह अतिरिक्त ख़र्च करना चाहिए? जी हां, विश्व के लिए पूरी तरह अनुकूल (वर्ल्ड रेडी) बनने के लिए दो से तीस लाख रुपए के बीच होने वाला यह ख़र्च अनावश्यक नहीं है। भले ही, शुरू में उन्हें यह ख़र्च गैर-ज़रूरी लगे लेकिन आगे चलकर इससे होने वाले लाभ इस वित्तीय कष्ट को निष्प्रभावी बना सकते हैं। गूगल जैसे सर्च इंज़नों में दृश्यता (विजिबिलिटी) बढ़ने से अख़बार के दायरे में होने वाले विस्तार और उससे मिलने वाले प्रचार को यदि वित्तीय लाभ में बदलकर देखा जाए तो भी यह खर्च बहुत छोटा लगेगा। वैसे भी एक बार सब जगह युनिकोडीकरण का तकनीकी वातावरण होने पर युनिकोड समर्थक उत्पादों की कीमतें घट जाएंगी।          युनिकोड का सबसे बड़ा लाभ मानकीकरण है जो भारतीय भाषा संस्थानों द्वारा सूचना प्रौद्योगिकी के आधुनिकतम अनुप्रयोगों का रास्ता साफ कर देगा। मानकीकरण की स्थिति में सभी संस्थानों में टेक्स्ट एक ही फॉरमेट में इस्तेमाल होगा। यानी भाषायी प्रकाशन संस्थान फोंट और कुछ हद तक की-बोर्ड लेआउट की सीमा से मुक्त हो जाएंगे। जो पाठ एजेंसी की ख़बरों में इस्तेमाल होता है, उसे फोंट बदले बिना जस का तस अख़बार में इस्तेमाल किया जा सकेगा और इंटरनेट पोर्टल या ई-न्यूज़पेपर पर भी भेजा जा सकेगा।          समान तकनीकी वातावरण से भारतीय भाषाओं में काम करने वाले सॉफ्टवेयर डवलपरों का समय और श्रम अलग-अलग फोंट आधारित उत्पाद तैयार करने के बजाय एक ही मानक वाले अधिक प्रभावी और कल्पनाशीलता से भरे उत्पाद तैयार करने में लगेगा। तब एक ही डेटा या विषय वस्तु विभिन्न रूपों में विभिन्न माध्यमों में असीमित और सहज उपयोग संभव होगा। उदाहरण के लिए, युनिकोड आधारित अख़बार का प्रबंधन यदि चाहे तो सूचना प्रौद्योगिकी की मदद से बिना किसी अतिरिक्त प्रयास ख़र्च के उसकी विषय वस्तु को इंटरनेट पोर्टल में भी बदल सकता है, ई-समाचार पत्र की शक्ल दे सकता है (अब ई-समाचार पत्रों की सदस्यता अख़बारों के सर्कुलेशन में गिनी जाने लगी है, इसलिए यह एक बड़े लाभ का विषय है), अन्य भारतीय भाषाओं में स्वचालित ढंग से अनुदित कर नए संस्करण निकाल सकता है, अन्य मीडिया में (जैसे ध्वनि आधारित मीडिया) बदल सकता है, सिंडीकेटिंग कर सकता है और पुस्तक का रूप प्रदान कर सकता है। फिलहाल हमारे अख़बार स्वचालन (ऑटोमेशन), कृत्रिम मेधा (आर्टीफिशियल इंटेलीजेंस) और विभिन्न माध्यमों के सम्मिलन (कनवर्जेंस) जैसे सूचना प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोगों से वंचित है। समग्र युनिकोडीकरण के बाद इस तरह के आधुनिकतम अनुप्रयोगों का इस्तेमाल अधिक आसान और सुलभ हो सकता है।          युनिकोड सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक ऐसी तकनीकी परिघटना है जो एकाध दशक में होती है और संपूर्ण परिदृश्य की दिशा बदलने की क्षमता रखती है। भारतीय भाषायी मीडिया को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए क्योंकि आईटी क्षेत्र में आगे आने वाले आधुनिक अनुप्रयोगों की बुनियाद इसी पर रखी जाएगी। From shahnawaz1980 at gmail.com Fri Sep 15 12:12:32 2006 From: shahnawaz1980 at gmail.com (Md Shahnawaz) Date: Fri, 15 Sep 2006 12:12:32 +0530 Subject: [Deewan] few lines for all Message-ID: <282cc3f20609142342p691db04eif1ce331e65b7beb4@mail.gmail.com> पेश है एक नज्म जिसे मैने अभी हाल ही मे लिखा है बडी उदास रात है बेबजह सी शाम है दिन ढल रहा है मगर् बेरब्त ओ बदगुमान है सुबह बेकली सी है ह्रर पहर बेकरार है बडी उदास रात है.... हर रास्ते को जा लगा नही कही निशा मिला कही मुज्महिल कफे पा मिला कही रास्ता ही खो गया अब सिर्फ इतजार है बडी उदास रात है..... -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060915/9299f2ed/attachment.html From girindranath at gmail.com Fri Sep 15 13:02:48 2006 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 15 Sep 2006 00:32:48 -0700 Subject: [Deewan] few lines for all Message-ID: <63309c960609150032l127c145du53ffb9fe185cd95c@mail.gmail.com> शहनवाजजी के लिए.... गम की अंधेरी रात में दिल बेकरार न कर..... सुबह जरुर आएगी. सुबह का इंतजार कर.. गिरीन्द्र् From shahnawaz1980 at gmail.com Fri Sep 15 13:30:41 2006 From: shahnawaz1980 at gmail.com (Md Shahnawaz) Date: Fri, 15 Sep 2006 13:30:41 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSu4KWH4KSw4KS+IOCkj+CklSDgpKvgpYfgpLXgpLA=?= =?utf-8?b?4KWH4KSfIOCktuClh+CksCDgpIXgpKrgpL7gpJXgpYAg4KSo4KSc4KWN?= =?utf-8?b?4KSw4KSw?= Message-ID: <282cc3f20609150100i6008d104xd3bffe27f68bb1c8@mail.gmail.com> मेरा एक फेवरेट शेर अपाकी नज्रर मजहब कोइ लेले और देदे मुझको इसान सलीके के तहजीब करीने का -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060915/ed78d0f6/attachment.html From girindranath at gmail.com Fri Sep 15 13:40:47 2006 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 15 Sep 2006 01:10:47 -0700 Subject: [Deewan] telephone booth Message-ID: <63309c960609150110o8b8ab60ld6ffcc7ce9872cf3@mail.gmail.com> भाग्य भी बताऐगें, फोन से बात भी कराऐगें....जनाब भूतनाथ . कश्मीरी गेट के तरफ जब आप जाते हैं तो सामने एक सिनेमा हाल आपको दिखाई देगा. ठीक इसके सामने एक लंबे बालों वाला आदमी,गेरुए कपडे मे नज़र आएगा...जनाब का नाम है-भूतनाथ.इनका अपना एक चलता-फिरता टेलीफोन बुथ है.जना ह्स्त्-रेखा के जानकार हैं..ग्रह के अनुसार रत्न मुहैया भी कराते हैं...दरअसल बुथ से ज़्यादा इनका यह बिजनैस ज्यादा गर्म है...भूतनाथ जी के जिंदगी में एक मोड उस समय आया ..जब उनका दायां हाथ और एक पैर दुर्घटना में कट गया....! जीवन में एक नया मोड आया....बहुत दिनो तक ये बेरोज़गार रहे..बाद में टाटा वालों ने इनको एक बुथ मुहैया कराया... इतनी बडी त्रासदी के बाद भी भूतनाथ ने ज़ीवन से हार नहीं माना..मस्ती के आलम में इनकी गाडी चल रही है. एक अलग हटके टेलीफोन बूथ्. गिरीन्द्र. From ravikant at sarai.net Fri Sep 15 15:52:21 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 15 Sep 2006 15:52:21 +0530 Subject: [Deewan] media ke liye hot cake bihar Message-ID: <200609151552.21964.ravikant@sarai.net> साथियो, bahut dinon ke baad hindi nest ki yatr ki tho ye paaya. kahin kahin marmik par zyaadatar ronaa-dhona. parhein aur kurhein ya anand lein - jaki rahi bhavna jaisi. ravikant http://www.hindinest.com/nibandh/n14.htm मीडिया के लिए हॉट केक - बिहार बढ़ती बाजारवादी संस्कृति में मीडिया के लिए बिहार खास खबर बन गया है। प्रदेश से लोगों के पला यन और अपराध की घटनाओं में बढोत्तरी ने राष्ट्रीय मीडिया को मसाला दिया। और मीडिया ने भी इसे बेचने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। यही वजह है कि पिछले दो दशकों से देशभर में राज्य की छवि नकारात्मक रूप से ही सामने उभरी है। बिहार की इमेज को राष्ट्रीय मीडिया ने हॉट केक की तरह प्रयोग करते हुए अराजकता और लालू को खूब बेचा, बल्कि बेचने का सिलसिला जारी है। ऐसा नहीं है कि जो बिहार में होता है वह दूसरे राज्यों में नहीं होता हो। रंगदारी बिहार, मुंबई, पूर्वोत्तर के करीब हर राज्यों और अन्य राज्य में भी मांगी जाती है, नहीं देने पर हत्याएं भी होती हंै। लेकिन मीडिया खासतौर से टीवी चैनलें, बिहार पर विशेष मेहरबान हैं तभी तो यहंा की छोटी सी छोटी खबर को सनसनी, चटपटी और मसालेदार बना कर बेचने तथा बदनाम करने का काम कर रही हैं। जाहि र है इस बाजारवादी संस्कृति में जो बिकता है वही चलता है। बिहार की नकारात्मक छवि बिक रही है। बिहार में बढते अपराध, हत्या, अपहरण आदि से जुडी खबरों को तरजीह देते हुए मीडिया बढ़-चढ़ कर प्रकाशित और प्रसारित करती हैं। नकारात्मक छवि को जिस तरह से दिखाया जाता है, उसी तरह से यहां के सकारात्मकता को दिखाने या छापने की वे जहमत नहीं करते है। बिहार की जो वास्तविक तस्वीर है वह मीडिया में ठीक से नहीं आ रही है। और जो खबरें आ रही है उसमें बाजारवाद की बू आती है। यहां अनाज, सब्जी और दूध आदि का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है। मधुबनी पेंटिंग व भा गलपुरी सिल्क आदि विश्वविख्यात हैं। यहंा के युवाओं ने देश भर में अपने बल-बूते पर इंजीनियरिंग, मेडि कल, अध्यापन, पत्रकारिता और सरकारी-निजी नौकरियों जैसे हर क्षेत्र में जगह बनायी है। जहंा तक अपराध की बात है तो शायद ही कोई ऐसा राज्य हो जहंा अपराध नहीं होता हो ? महिलाओं को लेकर दिल्ली कितनी सुरक्षित है ? यह सब जानते हैं। बिहार में दिल्ली की तरह महिलाओं के साथ कुछ नहीं होता वैसे अपराध और अपराधी किसी राज्य ,जाति और जगह के नहीं होते। अपराध और अपराधी से देश के अन्य लोग ही नहीं बल्कि बिहार में रहने वाला हर व्यक्ति भी प्रभावित होता है। मीडिया बिहार की नकारात्मक तस्वीर को इतने विभत्स ढंग से प्रोजेक्ट कर चुका है कि उसे ठीक करने में दशक लग जायेगे। लेकिन इसका खामियाजा आम बिहारी को झेलना पड़ता हैै। खास कर बिहार से बा हर, दिल्ली आदि जगहों में ' बिहारी ` शब्द गाली बन गयी है। जिसे किस मानसिकता के साथ प्रचारित किया गया है, कहा नहीं जा सकता। दबे कुचले मेहनतकश मजदूरों को देख ओए बिहारी कहने वाले शायद यह नहीं जानते कि उनके राज्य में भी मजदूर ऐसे ही रहते है ? एक बार मेरे मित्र की पत्नी बस से जेएनयू जा रही थी बस में कई मजदूर भी सवार थे जब बस सरोजनी नगर पहुंची कंडक्टर ने चिल्ला कर कहा सभी बिहारी उतर जा । मित्र की पत्नी कंडक्टर के पास गई और कहीं भैया पैसे वा पस करना ? कंडक्टर ने कहा आप तो आगे जाओगे। उन्होने कहा अभी तो आपने कहा बिहारी सब उतर जा। मैं भी बिहारी हूं। कंडक्टर ने कहा आप बिहारी कैसे हो सकती है ? बाद में बस वाले ने माफी मांगी। यह दंश हर बिहारी को झेलना पड़ता है। गौरतलब है कि बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित राष्ट््रीय और स्थानीय सभी अखबारों में सबसे ज्यादा अपराध, सेक्स और राजनैजिक खबरें ही प्रकाशित होती हैं। एक अखबार एक दिन में अपराध की औसतन २२ खबरें छापता है। साथ ही सेक्स की खबरों को तरजीह दी जाती है। कई राष्ट्रीय पत्रिका एं बिहार पर परिशिष्ट निकालती हैं उनमें भी यह सब देखने को मिलता है। हाल ही में दिल्ली में बि हार की कुूछ महिलाओं को सेक्स रैकेट के तहत गिरफ्तार किया गया था। दिल्ली ही नहीं पटना के तमाम पत्रों ने इसे फोटो सहित प्रमुखता से प्रथम पेज पर छापा, जबकि अन्य जगहों पर आए दिन हो ने वाली ऐसी घटनाओं को अंदर के पेज पर छापा जाता है। राष्ट्रीय मीडिया की तर्ज पर अपराध, अराजकता और लालू को स्थानीय मीडिया ने खूब बेचा, बल्कि यह सिलसिला जारी है। केवल नकारात्मक खबरों को प्रकाशित व प्रसारित कर बिहार को आइटम बना कर बेचा जा रहा है। अन्य राज्यों में घटने वाली आम और छोटी- मोटी खबरों को खासकर अपरा ध से जुड़ी खबरों को, राष्ट््रीय मीडिया में खास तरजीह नहीं दी जाती, लेकिन बिहार में घटने वाली छोटी से छोटी खबर को इस तरह प्रोजेक्ट किया जाता है, जैसे घटना से पूरा प्रदेश ही नहीं, देश हिल गया हो ! दुर्भाग्य की बात यह है कि बिहारी मीडिया, अपराधी से छुटभैया नेता बनने वाले या फिर एक अपरा धी के मरने या गिरफ्तार होने की खबर को प्रमुखता के साथ ऐसे प्रोजेक्ट करते हैं, जैसे कोई महान नेता हो ! एकाध अखबार ही अपराधी की सही तस्वीर पाठकों के सामने लाने की हिम्मत जुटा पाता है। यह काम अंग्रजी अखबार ज्यादा करते हैं, हालांकि उनका भी नजरिया बदला है और जो खबर अंदर के पेजों पर छपते थे वे आज मुख्य पृष्ठ पर छपने लगे हैं। आपराधिक छवि वाले नेताओ की हत्या और उससे जुड़ी खबरों को बिहार के अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर प्रमुखता से छापा जाता है और मरने वाले नेता-अपराधी का जमकर गुणगान होता है। बिहार को व्यंग्य के रूप में पेश करने वाली मीडिया को यह नहीं दिखता है कि बिहार में एक भी केंद्रीय विश्वविद्यालय, केंद्रीय अस्पताल, आईआईटी और कल-कारखना नहीं है। विकास का नहीं हो ना, पुलिस की नाक के नीचे अपराध करने वाले अपराधियों का गठजोड़ उन्हें नहीं दिखता है। बिहार बंटवारे के बाद तो यहां कहावत ही बन गयी कि बिहार को आलू, लालू और बालू के भरोसे छोड़ दिया गया। जिस राज्य की राजनीति से देश की राजनैतिक घूरी घूमे, केंद्र सरकार में कई मंत्री हो, वहां विकास न हो और उस पर व्यंग्यय हो तो यह बहुत बड़ी विडंबना है। लेकिन मीडिया को इससे क्या लेना देना उसे तो बस जेल में नेता-अपराधी के पास से मोबाइल फोन मिलने, हत्या और बलात्कार की खबर को नेशनल हुकप पर मसालेदार ढंग से देने में मजा आता है। टी वी चैनल वाले तो सभी हदों को पार कर देते है, अपराधी और बलात्कारी की तस्वीर को बार बार दिखा कर उन्हें हीरो बना देते है। राज्य स्तरीय खबर को राष्ट्रीय स्तर पर दिखाने की जबरिया कोशिश की जाती हैं। हालांकि इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है कि खबर तो खबर है। लेकिन नेता-अपराधी मरते है तो खबर बनती है वहीं गांव में कालाजार से लोग मरते है तो खबर नहीं बन पाती है। बल्कि ऐसी खबरें कई दिनों के बाद नजर आती है। भूमण्डलीयकरण और उदारवाद के बढ़ते दौर में पत्र व पत्रकारिता का व्यवसायिक नजरिया और टें्रड दो नों ही बदल गया है। झोला और दाढ़ी छाप वाले पत्रकारों की जगह आधुनिक सुविधा से लैस पत्रकारों ने ले ली है। वहीं अखबारें भी बढती व्यवसायिक स्पर्द्धा के कारण पाठकों को रिझाने के लिए चटपटी और मसालेदार खबरों को तरजीह दे रही हैं। यही वजह है कि राष्ट्रीय और बिहार के अखबारों में अपराध, सेक्स आदि की खबरें अधिक मात्रा में छप रही है। जहाँ तक विकासमूलक खबर की बात है तो उससे अखबारों को कोई लेना देना नहीं रह गया है। बिहार की जो तस्वीर है वह मीडिया में ठीक से नहीं आ रही है। और जो खबरें आ रही है उसमें बाजारवाद की बू आती है। ५ जेपी आंदोलन से जुडे रहे चर्चित कवि बाबूलाल मधुकर कहते हैं कि पत्रकारिता जगत में आज संजय की निष्पक्ष भूमिका गौण हो चुकी है। इसके लिए वे पत्रकारिता को भी दोषी ठहराते हुए कहते हैं कि आज पत्रकार सुविधाभोगी और यशस्वी बनना चाहता है। उनके अंदर का संघर्ष और चिंतनशीलता खत्म हो चुकी है। चर्चित साहित्कार परेश सिन्हा कहते है आज बाजारवाद के दौर में अपराध बिक रहा है, विकास नहीं। अत: अखबार विकास की कम और अपराध की खबरें ज्यादा छापते हैं। बदहाल बिहार के विकास के नाम पर सभी ने अपनी-अपनी रोटियां ही सेंकी हैं। वहीं भ्रष्ट व्यवस्था की जड़ें इतनी गहरी है कि विकास से जुड़ी कोई भी योजना सही ढंग से आम और सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में, अंतिम कतार में खड़े लोगों तक नहीं पहुंच पा रही है। और लोकतंत्र का चौथा खम्भा यानी मीडिया अपनी वॉच डॉग की भूमिका पूरी ईमानदारी से नहीं निभा पा रही है। बिहार की पत्रकारिता में राज्य की समस्याओं का गहराई से विश्लेषण या फिर उन्हें मुद्दा बनाने का तेवर नहीं के बराबर दिखता है। साथ ही इस बात को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि बिहार का नाम आते ही लोग नाक-भौंह सिकोड़ने लगते हैं, जैसे कोई महामारी हो। आंकडे बताते है कि अन्य राज्यों के मुकाबले में यह कई मामलों में फिसड्डी है। समय समय पर देश का प्रमुख मीडिया घराना भी आंकड़ों के मायाजाल में उलक्षा कर बिहार को बेचने का प्रयास करता रहता है। मजेदार बात यह है इस पर विवाद दिल्ली में किया जाता है बिहार में नहीं। जबकि बिहार की प्रखरता को वह जा नते है मकसद साफ रहता है, बिहार को बेचना । बिहार को लेकर जो नजरिया बनता या दिखाया जा रहा है उससे साफ जाहिर है कि बाहरी लोग इतनी जल्दी अपनी धारणा को बदल नहीं सकते। लेकिन इस पर गहन चिंतन तो कर सकते है ? आखिर क्या वजह है कि इसकी दिशा व दशा बदलने में कोई आगे नहीं आता। खुद मीडिया यहां के नकारा त्मक हालात को तो दिखाता है लेकिन सकारात्मक बातों को गोल कर जाता है। पिछड़ापन तो मीडिया को दिखता है लेकिन अन्य राज्यों की तुलना में बिहार को दी जाने वाली केंद्रीय राशि के आवंटन / सहायता नहीं दिखती है। समय-समय पर देश की जानी मानी संस्थाएं राज्यों की स्थिति का जायजा अपने रिर्पोटों में लेती रहती हैं। बिहार के एक अखबार ने बिहार वि शेषांक के माध्यम से यहंा की बदहाल तस्वीर को एक सर्वे संस्था की मदद से उजागर कर, बिहार की तकदीर को बदलने का दंभ भरने वाले तमाम राजनेताओं, राजनैतिक पार्टियों, समाजिक संगठनों और अन्य स्वयंसेवी संस्थाओं के सामने रखा, ताकि इसे देख बिहार के हालात को बदलने के लिए कुछ का रगर पहल कर सकें। लगभग सवा आठ करोड़ आबादी वाले बिहार में लगभग ८० प्रतिशत जनता गांवों में रहती है। खेती से उत्पादन साधारणतया सिंचाई की उपलब्धता और बारिश पर आधारित है। प्रत्येक साल बिहार में बाढ़-सुखाढ़ से किसानों की कमर टूट जाती है। यही नहीं यहां काम नहीं पाने वालों की संख्या पूरे देश की तुलना में सर्वाधिक है। तुलनात्मक अध्ययन से साफ होता है कि बिहार में ऐसे लोगों का प्रति शत बहुत कम है जिन्हें पूर्ण रोजगार मिला हो। यही वजह है कि यहां के लोगों पर दबाव ज्यादा है। उड़ीसा और झारखंड़ में बिहार के मुकाबले ज्यादा गरीबी है। फिर भी बिहार का अखिल भारतीय औसत काफी ज्यादा हैं। बिहार में हर पांच व्यक्तियों में से दो व्यक्ति अपनी बुनियादी जरूरत को पूरा कर पाने में असक्षम है। हालांकि चौंकाने वाला तथ्य यह है कि बिहार में दो जून का खाना नसीब नहीं होने वाले परिवारों की संख्या अपेक्षाकृत झारखंड़, उड़ीसा, प ब़ंगाल, छत्तीसगढ़ से कम है। वही बिहार में साक्षरता दर अपेक्षाकृत बहुत कम है। फिर भी यहां लोगों में खबरों को लेकर जानने की जा गरूकता अन्य राज्यों से ज्यादा है। शायद इसकी वजह यहां की राजनैतिक प्रखरता है जो हर छोटी से छोटी खबर पर अपनी नजर गडाये रहता है। जहां तक बिहार में कृषि का सवाल है तो यहां स्थित ठीक ठाक है। यहंा मानसून की अच्छी वर्षा लगभग हो ही जाती है।अगर यहां सिंचाई को पंजाब की तरह कर दिया जाये तो कृषि के क्षेत्र में बि हार सभी राज्यों को पीछे छोड़ देगा। दूसरी ओर बिहार को बदनामी के शिखर पर पहुंचाने में कानून व्यवस्था की बड़ी भूमिका रही है। फिर भी कुल संज्ञेय अपराधों में हत्या और महिलाओं के साथ यौन शोषण के मामलों में बिहार का प्रतिशत अन्य राज्यों से कम है। हालांकि बिहार में कुल अपराध आमतौ र पर देश के अन्य राज्यों की तुलना में औसतन ज्यादा है। बिहार में शिशु मृत्यु दर अखिल भारतीय औसत के मुकाबले काफी कम है। बिहार में गरीबी और शौचालय की खराब व्यवस्था होने के बावजूद शिशु मृत्यु दर कम होना जाहिर करता है कि लोगों में इसे लेकर काफी जागरूकता है। इससे स्पष्ट है कि अन्य राज्यों की तुलना में बिहार में शिशुओं की बेहतर देखभाल के लिए बेहतर तरीके का इस्तेमाल होता है। स्थानीय स्तर पर प्रदेश भर के ब्लॉकों में इंदिरा आवास योजना, ग्रामीण विकास योजना , स्वास्थ्य से जुड़ी योजना और अन्य योजना कार्यो में घोटालों की कमी नहीं रहती है, फिर भी स्थानीय और राज्य की राजधानी से प्रकाशित होने वाले अखबारों में इन्हें स्थान दिया भी जाता है तो अंदर के पृष्ठों पर, वह भी सीमित मात्रा में। देश को प्रथम राष्ट््रपति देने वाले राज्य की इतनी उपेक्षा की गई है जिसका अंदाजा खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के दौ रे के क्रम में ही पता चल पाता है। जहां जन सुविधाएं यहां हर स्तर पर नदारत मिलती है। बिहार के मामले में संवेदना और मानवीय मूल्यों से छेड़-छाड़ राष्ट्रीय और बिहार के पत्रों की नियति बनती जा रही है। आज महसूस की जा रही है कि बिहार में पुराने दौर की पत्रकारिता पुन: लौटे यानी रविवार, दिनमान, जनमत, नवभारत टाइम्स, पाटलिपुत्र टाइम्स आदि की जो बिहार की संवेदना और यहंा की पीड़ा को समझे और बिहार की सही तस्वीर पेश करें। संजय कुमार अगस्त 1, 2006 From ravikant at sarai.net Fri Sep 15 16:08:41 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 15 Sep 2006 16:08:41 +0530 Subject: [Deewan] sansmaran par charcha, bhag-1 Message-ID: <200609151608.41813.ravikant@sarai.net> hindinest se hi thoRa dhang ka aalekh, Arun Prakash ki lekhni se. shayad aanand aaye, vaise mere apne chaloo favourite kantikumar jain hain. ravikant http://www.hindinest.com/srajan/New6.htm हम इक उम्र से वाकिफ़ है -- अरुण प्रकाश संपादक, समकालीन साहित्य इनसान अपनी स्मृति की आधारशिला पर टिका होता है। उसकी स्मृतियाँ उसकी अस्मिता हैं और ये स्मृतियाँ ही उसके वर्तमान को अतीत से जोड़ती हैं। हम शायद कलम कहाँ रखी है यह भूल जाएँ, पर यह नहीं भूलते कि उर्दू क्लास के मौलवी साहब पान कैसे चबाते थे। लेकिन स्मृतियाँ कई बार हमारे दि माग़ पर बोझ भी बन जाती हैं, फिर उन्हें दिमाग के कवाड़ से ढूँढ़ना कठिन होता है। लेकिन कोई छो टी बात, कोई गंध, कोई स्पर्श झट से आपको पुरानी स्मृति से जोड़ देते हैं। संस्मरण वर्तमान में अतीत के बारे में लिखे जाते हैं। अतीत और वर्तमान के बीच वाचक के साथ काफ़ी कुछ घटित हो चुका होता है। संवेदना, भाषा, परिप्रेक्ष्य, अभिव्यक्ति, जीवन की प्राथमिकता, संबंध, दृष्टि आदि ऐसे बदल चुके होते हैं कि अतीत बिलकुल उलटा भी दिख सकता है। इमली तोड़ने के लिए आप बचपन में पेड़ पर चढ़े, गिरे, हाथ तुड़वा बैठे। तकलीफ़ हुई ऊपर से पिता ने पीटा, माँ ने कोसा। आज उसी घटना को याद कर हँसी आ सकती है। इमली की डाल कमज़ोर होती है, यह बच्चे को कहाँ पता? बेवकूफ़ी और उत्साह के मारे हाथ तुड़वा बैठे। पर तब वह हरक़त बेवकूफ़ी कहाँ लगी थी? आजकल हिंदी साहित्य में संस्मरणों की बहार है। संस्मरण की बहार यहीं नहीं है। अमरीका में लेखन-विधा के गुरु हैं विलियम जिंसर। वे लेखन का मैनुअल लिखते हैं -- जीवनी कैसे लिखें, आत्मकथा कैसे लिखें आदि आदि। उन्होंने संस्मरणों के धुँआधार प्रकाशन पर टिप्पणी की, ``यह संस्मरण का युग है। बीसवीं सदी के अंत के पहले कभी भी अमरीकी धरती पर व्यक्तिगत आख्यान की ऐसी जबर्दस्त फसल कभी नहीं हुई थी। हर किसी के पास कहने के लिए एक कथा और हर कोई कथा कह रहा है।'' संस्मरणों की बाढ़ से अमरीकी इतने दुखी हुए कि संस्मरणों की पैरोडी तक लिखी जाने लगी। शुक्र मना इये कि हिंदी में मामला यहाँ तक नहीं पहुँचा है। संस्मरण क्यों लिखे जाते हैं? क्या संस्मरण नहीं लिखे तो लेखक के पेट में मरोड़ होगा? या उबकाई आ जा एगी? वह कौन-सी र्दुनिवार इच्छा है जो संस्मरण लिखवाती है? हिंदी में संस्मरण यदाकदा लिखे जाते थे। आलोचना भी उसे एक अमहत्त्वपूर्ण विधा मानकर चलती थी, लिहाज़ा संस्मरणों की अनदेखी होती थी। जहाँ तक मेरा अनुमान है कि विश्वनाथ त्रिपाठी द्वारा नामवर सिंह पर लिखे संस्मरण `हक जो अदा न हुआ' ने ऐसा धूम मचाया कि एकदम से इस विधा की क्षमता का पुनर्प्रकटीकरण हुआ और संस्मरण की ओर कई रचनाकार मुड़े। काशीनाथ सिंह का इस तरफ़ सबसे पहले मुड़ना संगत ही माना जा ना चाहिए। आत्मकथा जैसी विधा की गंभीर विदुषी लॉरा मरकुस ने आत्मकथा और संस्मरण में अंतर करते लिखा है : ``यह अंतर केवल रूपगत नहीं है। आत्मकथा लेखक आत्म-चिंतन कर सकते हैं और संस्मरण लेखक में यह क्षमता नहीं होती।'' आचर्य नहीं कि इन दिनों प्रकाशित संस्मरणों में लेखक का व्यक्तित्व नहीं झाँकता। बल्कि संस्मरण लेखक अपने व्यक्तित्व को छिपाता है। अल्डुअस हक्सले का विचार था कि हर व्यक्ति की स्मृति उसका निजी साहित्य है। यह साहित्य प्रा इवेट है। तो लेखक इसे क्यों सार्वजनिक करना चाहता है? इसका उत्तर संस्मरणों के पैरोडीकार डेनियल हैरिस ने एक साक्षात्कार में दिया, ``संस्मरण खुद के हाशियाकरण से निबटने की कोशिश है।'' हंस, तद्भव अन्य पत्रिकाओं में ऐसे अनेक संस्मरण प्रकाशित हुए हैं जिनका उद्देय खुद के हाशियाकरण के भँवर से निकालकर साहित्य के केंद्र में लाना था। ग़ौर से देखें तो `मेरे विश्वासघात' स्तंभ में लिखने वालों की प्रबल इच्छा यही थी। एक वृद्ध लेखिका का प्रेम-प्रसंग इतना दयनीय था कि आप अविश्वास से भर उठें। `हंस' के उस स्तंभ में कुछ और विश्वासघाती आए पर वे दूसरों के छल और विश्वासघात की कथा सुनाते रहे। मज़े की बात है कि `मेरे विश्वासघात' स्तंभ बंद होने के कगार पर था पर हंस के मालिक संपादक राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी सहकर्मी अर्चना वर्मा, गौरीनाथ या राजेंद्र जी की मंडली के पंकज बिष्ट प्रभृत्त ने अपने `विश्वासघातों' का खुलासा नहीं किया और उस स्तंभ को बंद हो जाने दि या गया क्योंकि `मेरे वि विश्वासघात' स्तंभ ने अपना व्यावसायिक उद्देश्य -- लेखक और पत्रिका का प्रचार -- हासिल हो गया था। संस्मरण का एक और प्रकार है -- व्यावसायिक संस्मरण। हाल में मलयालम में एक कॉलगर्ल ने अपनी आत्मकथा लिखी और उसके कई संस्करण धड़ाधड़ बिक गए। कुख्यात अपराधी बबलू श्रीवास्तव की आत्मकथा प्रकाशित होनेवाली है। संस्मरण का एक वर्जित क्षेत्र भी है। चरित्र हनन की साज़िश रचने वाला पत्रकार संस्मरण नहीं लिखता। भ्रष्ट नेता भी संस्मरण क्यों लिखें? बलात्कारी, लुटेरा, हत्यारा, ईर्ष्यालू, धोखेबाज़ भी क्यों लिखें? ये र्वाजत संस्मरण लेखक जैसे ही कलम उठाएँगे, प्रकाशक का घर पैसों से भर जाएगा। लेखक भी रातों-रात प्रसिद्ध और समृद्ध हो जाएगा। संस्मरण में जितनी अधिक वर्जना होती है, वह उतना ही बिकाऊ होता है। बिल क्लिंटन को एक करोड़ बीस लाख डॉलर का अग्रिम इसके लिए मिला था। डैनियल हैरिस कहते हैं, ``यह संस्मरण लोकप्रिय आंदोलन जैसा रूप ले चुका है। वस्तुत: इसकी शुरुआत आठवें दाक में हो चुकी थी। अब तो इसे लोक-कला जैसी चीज़ माना जाता है -- आप संस्मरण लिखें और अपने परिवारियों और मित्रों के बीच बाँट दें। कायदे से इसे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणास्पद होना चाहिए था पर अब यह एक उद्योग है।'' प्रकाशन जगत इस तथ्य को जानता है। इन पंक्तियों को लेखक को एक पाठक-सर्वेक्षण को निर्देशित करने का अवसर मिला था। यह सर्वेक्षण दिल्ली के एक प्रतिष्ठित प्रकाशन ने करवाया था। उसमें एक प्रन था -- पाठकों में सबसे लोकप्रिय विधा कौन-सी है? मैं उम्मीद कर रहा था कि उत्तर आएगा -- उपन्यास या कहानी। पर पाठकों के बहुमत का उत्तर था -- आत्मकथा। कहना न होगा कि संस्मरण आत्मकथा की ही एक उपविधा है। आज वही प्रकाशक आत्मकथ्य और संस्मरणों की सर्वाधिक पुस्तकें छापता है। संस्मरण सिर्फ साहित्य के क्षेत्र में ही सीमित नहीं होता / संस्मरण के लिए उपन्यास लेखन जैसी कला की जरूरत नहीं होती, इसलिए इसे कोई भी लिख देता है। खिलाड़ी, व्यापारी, शिक्षक, व्याभि चारी। लेकिन मुख्यत: संस्मरण बचपन, सफलता और वर्जना को ही लेकर लिखे जाते हैं। उपन्यास में कल्पना की जरूरत बहुत अधिक होती है। पर संस्मरण में इसकी जरूरत बहुत कम। इसके साथ ही उपन्यास में प्रयोगों के बावजूद विधा की एक सीमा तो रहती ही है, संस्मरण में ऐसी कोई बंदिश नहीं होती। संस्मरण का रूप नैर्सागक और उन्मुक्त होता है। संस्मरण विरेचन भी है। मानसिक विरेचन। संस्मरणों में आत्मप्रांसा और परनिंदा प्राय: साथ साथ आते हैं। कटाक्ष्य, अपमान प्रसंग लेखक को भीतर ही भीतर मथता रहता है। व्यक्तिगत रूप से मिलकर लेखक खल पात्र को अपनी बात कह नहीं सकता। ज़रा सी फुर्सत मिलते ही ध्यान उस अपमान, उस कटाक्ष की ओर चला जाता है। महाभारत की कथा अपमान के बग़ैर आगे बढ़ नहीं सकती थी। लेखक दुर्योधन है नहीं के कुरुक्षेत्र में जाकर लड़ लें, वह कलम को तलवार बनाता है और परनिंदा शुरू कर देता। परनिंदा परोक्ष रूप से आत्मप्रांसा है। पर उससे भी संतोष न हो तो आत्मप्रशंसा पर उतर आता है। संस्मरण में एक सुर विपरीत परिस्थितियों में भी अस्तित्व बनाये रखने का होता है। इसे जिजीविषा-संस्मरण कह लें। प्राय: इसमें संस्मरण लेखक अपनी तकलीफ़ों, मुसीबतों का सुंदर वर्णन करता है और अपनी `न दैन्यम् न पलायनम्' वाली क्षमता का प्रर्दान करता है। यह भी आत्मप्रशंसा ही है। मुसीबतों को जितना अधिक बढ़ाकर दिखाया जाता है, संस्मरण-लेखक का पराक्रम उतना ही अधिक उभारा जाता है। इसी का एक रूप होता है -- विजय संस्मरण। लक्ष्य मुकिल ही नहीं, असंभव था पर संस्मरण-लेखक अपनी सूझबूझ, साहस और संघर्ष से उसे पा लेता है। संस्मरण-लेखक दोनों तरह के होते हैं -- आम और ख़ास। आम संस्मरण-लेखक आम इंसान ही होता है। वह अपने विकट अतीत, विकट समस्या (जैसे शराबखोरी) या विकट संकट (विकलांगता वग़ैरह) से जूझने का प्रसंग लिखता है। ख़ास लोग स्वयं से ऊँचे, समान, समकालीन और प्रतिद्वंद्वी के बारे में लिखते हैं। उसमें प्रतिद्वंद्वी, दुमन, समस्यामूलक संबंधों को नीचा दिखलाया जाता है। साहित्यिक लेखक प्राय: लेखकों के बारे में ही लिखता है। प्रका शक या रिक्शा वाले के बारे में नहीं। कुछ लोग संस्मरण को निजी आख्यान कहते हैं तो मेरा मन कहता है कि संस्मरण को निजी बखान कह दूँ। संस्मरण भी आत्मकथा ही है अलबत्ता वह समग्र आत्मकथा के मुकाबले काफ़ी छोटी होती है। संस्मरण अती त के ख़ास क्षणों, महत्त्वपूर्ण मोड़ों को फिर से जीवित करने की कोशिश होती है। कई बार संस्मरण लिखते समय अतीत की साधारणता भी महत्त्वपूर्ण लगने लगती है। आत्मकथा में निजी जीवन के दस्तावेज़ीकरण की कोशिश होती है तो संस्मरण में दस्तावेज़ की शुष्कता के बजाय भावना अधिक सक्रिय हो उठती है इसीलिए अतीत के मुलाकाती, परिजन, घटनाएँ अधिक आत्मीयता से प्रस्तुत हो पाती हैं। संस्मरण को आत्मकथा का फ़्लैा कहा जा सकता है। लेकिन जब दूसरे का स्मरण किया जाए तो उसे संस्मरण-चित्र कहना अधिक सही रहेगा। लेकिन वह रेखाचित्र से भिन्न ही रहेगा क्योंकि रेखाचित्र प्राय: स्टिल-लाईफ़ पेंटिंग जैसे होते हैं। संस्मरण विधा प्राय: समय के एक ख़ास दौर तक, उस दौर से जुड़ी घटनाओं, व्यक्तियों तक सीमित रहती हैं लेकिन ये सब वही होंगे जो लेखक की स्मृति में टिके हों। जो विस्मृत हो गए वे चाहे आख्यान के तर्क से कितने ही ज़रूरी हों, संस्मरण में नहीं आ पाते। लिहाज़ा संस्मरण में कार्य-कारण वाली तर्क प्रणाली अनुपस्थित हो तो आचर्य क्या? लेकिन जो स्मृति में है, वे भी सब के सब संस्मरण में आ जाएँ कोई आवयक नहीं होता। लेखक अपनी सुविधा से उन्हें छोड़ता, जोड़ता चलता है। यही स्थिति समय की है, संस्मरण में किसी का संपूर्ण जीवन-समय नहीं आता (यदि आ जाए तो वह आत्मकथा हो जाएगी) बल्कि जीवन समय के टुकड़े आते हैं। इन जीवन खंडों में संघर्षों, टकरावों, समाधान और उनके महत्त्व पर बल दिया जाता है। संस्मरण में आए व्यक्तियों, घटनाओं और उसके परिणामों का पुनर्सृजन आत्मीय और जीवंत तरीके से किया जाता है। वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी डायरी में लिखा, ``मैं यहीं नोट कर सकती हूँ कि अतीत सुंदर होता है क्यों कि उस वक्त की भावना का अहसास लोगों को कभी भी नहीं होता। बाद में उसका अहसास विस्तारि त हो जाता है। और इसीलिए हमारे पास वर्तमान के लिए पर्याप्त भावना नहीं होती, बस अतीत के लिए होती, मुझे लगता है कि हम इसीलिए अतीत के बारे में ज्यादा सोचते हैं।'' हर किसी के पास निजी आख्यान है। किसी का जीवन सामान्य अथवा असामान्य रहा हो, उस आख्यान में कोई न कोई नई, अनूठी बात ज़रूर होगी। इसीलिए समकालीन संस्मरण परिदृय में हमें इतने लोग संस्मरण लेखन में जुटे दीखते हैं। जीवन के रहस्य और अनूठेपन के प्रति उत्सुकता र्दुनिवार होती है इसीलिए उसे पाठक पढ़ना भी चाहते हैं। स्मृति हमें पहचान ही नहीं देती बल्कि अतीत और वर्तमान के बीच पुल का काम भी करती है। जब स्मृति आप पर हावी होती है तो वही होता है जो दुष्यंत कुमार ने लिखा : तुम रेल सी गुज़रती हो, मैं पुल सा थरथराता हूँ। होती है जिससे संस्मरण-लेखक गुज़रता है, लड़ता है, हारता है, जीतता है, निर्णय लेने से डरता है, नि र्णय ले लेता है। हर अनुभव से गुज़रना किसी के लिए संभव नहीं है। सिद्धांत और अनुभव के मेल से विकसित होने वाली बुद्धि के लिए पाठक दूसरों के अनुभव से अपने अनुभव की कमी की भरपाई करता है। संस्मरण एक गतिशील प्रक्रिया है जिसकी आधारशिला स्मृति है लेकिन संस्मरण सारतत्व में मनुष्य के होने का अर्थ ही खोलता है। पेंग्विन डिक्ानरी ऑफ़ लिटरेरी टर्म्स एंड लिटरेरी थ्योरी (संस्मरण १९९१) में अंग्रेज़ी के आलोचक जे.ए. कडेन ने लिखा, ``आत्मकथा अधिकांश काल्पनिक होती है। कम ही लोग प्रारंभिक जीवन के विवरणों को साफ़-साफ़ याद कर पाते हैं और इसीलिए वे दूसरों द्वारा निर्मित छवि पर निर्भर हो जाते हैं और यह स्रोत उतना ही अविश्वसनीय होता है। असहमति वाले तथ्यों या तो विस्तार पा जाते हैं अथवा दबा दिए जाते हैं।'' बावजूद इसके संस्मरण को सत्य की बैसाखी मिली हुई है और पाठक उसे सत्य ही मानते हैं। सच, असली सच जानने की उत्कंठा उन्हें संस्मरणों के पास लाती है और वे संस्मरण लेखिका द्वारा रची एक निर्मिति लेकर लौट जाते हैं। संस्मरण में सत्य का अंश होता है, संपूर्ण सत्य कभी हो भी नहीं सकता। फिर भी संस्मरण की विशेषता सत्य को ही माना जाता है। सत्य का लेबल ही उसे पाठकों के बीच उत्सुकता और स्वीकार्यता का बिंदु बनाए रखता है। अदालत में लोग शपथ लेकर भी झूठ बोलते, यह सभी जानते हैं। फिर भी पाठक यह क्यों मानते हैं कि लेखक अदालत जाकर कोई शपथ पत्र नहीं बनाया है, ने सच ही लिखा होगा? अंग्रेज़ी के उपन्यासकार एंथनी पॉवेल ने ठीक ही लिखा है, ``संस्मरण कभी भी पूरी तरह सच नहीं हो सकते क्योंकि बीती हुई हर बात, हर घटना, हर परिस्थिति को संस्मरण में ाामिल कर पाना मुमकिन भी नहीं है।'' वास्तव में संस्मरण सत्य का आभास है। वह स्मृति पर निर्भर है और स्मृति में कई जटिलताएँ होती हैं। एक तरह से देखें तो स्मृति सत्य की रितेदार ज़रूर है पर वे जुड़वाँ संतान तो कतई नहीं है। स्मृति के चमे से दूरस्थ समय की चीज़ें विशाल दिखती हैं। हम बहुत बातें भूलते भी हैं। बचपन के बारे में तो ज़रूर ही भूलते हैं। इसलिए बचपन के बारे में जो चाहे लिख दें, चलेगा। बचपन का कोई जीवाम नहीं होता। स्मृति तथ्य को धूमिल भी करती है। स्मृति के धूमिल होने और लेखकीय हस्तक्षेप से प्रसंग के ाब्द बदल जाते हैं। ज़ाहिर है ऐसे में अर्थ भी प्रभावित होगा। इसका उदाहरण देखें -- प्रसिद्ध संस्मरण-लेखक काशीनाथ सिंह ने काशी के ही समा जवादी कार्यकर्त्ता देवव्रत मजूमदार की स्मृति में संस्मरण (उसे कथा रिपोर्ताज कहा गया है) लिखा है : लंका बांके चारि दुआरा काशी के बाज़ार लंका, जो विश्विद्यालय के छात्रों, अध्यापकों, साहित्यकारों, राजनीतिक कार्यकर्त्ताओं का अड्डा रहा है। बनारस हिंदू विश्विद्यालय के मुख्य द्वार से ज़रा आगे जाकर यह लंका है। यहीं का एक प्रसंग है।पहले काशीनाथ सिंह वाला पाठ देखिये : विद्यार्थी परिषद ने पर्चों और भाषणों में चंचल पर आरोप लगाया कि वह चरित्रहीन है, लड़कियों के सोता है। चंचल के भाषण का अंश -- ``आरोप एकदम सही है। मैं सोता हूँ लेकिन लड़कियों के साथ। वि द्यार्थी परिषद वालों की तरह लड़कों के साथ नहीं। फ़ैसला आप करें कि चरित्रहीन कौन है?'' इस संस्मरण के प्रकाशन के बाद पूर्व छात्रनेता चंचल ने हंस' (पृष्ठ १६, जनवरी २००६) के अगले अंक में अपनी प्रतिक्रिया छपवायी। इसमें उन्होंने काशीनाथ सिंह की तारीफ़ ही की और अपना पाठ भी छपवा दिया। उस पाठ का संर्दाभत अंश ये रहा -- ``मित्रों आप सब विश्विद्यालय के छात्र हैं। ज़ाहिर है कि जवान हैं। आप में से कोई एक हाथ उठाये और कहे कि वह किसी लड़की से दोस्ती करना नहीं चाहता... (पूरी भीड़ में सन्नाटा था) ... मैं बताता हूँ तीन तरह के लोग हैं जो किसी लड़की से कोई वास्ता नहीं रख सकते। एक `डेड बॉडी', दूसरा `इम्पोटेंट' तीसरे आर.एस.एस. ... आप हमें वोट दें या न दें, मैं उस संस्कृति का कभी भी हामी नहीं हो सकता जिसमें पुरुषों का पुरुषों से संबंध जायज़ माना जाता है (काशी भाई ने इसका हवा ला दिया है)'' (हंस, पृ.४५, मार्च २००६) अब इस दोनों पाठों का मिलान करें। काशीनाथ सिंह वाले पाठ में चंचल लड़कियों के साथ सोने की बात मंज़ूर करते हैं पर अपने वाले पाठ में ऐसी खुली स्वीकृति नहीं। दूसरे काशीनाथ सिंह का विद्यार्थी परिषद चंचल के यहाँ आर.एस.एस. हो जाता है। काशीनाथ सिंह के पाठ में भाषा खुली है जबकि चंचल संकेत से काम लेते हैं। इस तुलना से साफ़ है कि भले ही भाव एक हो, तथ्य और प्रस्तुति में अंतर आ ही जाता है। इसके लिए घटित और लिखित के अंतराल को दोष देना अधिक उचित होगा। और घटित और लिखित का यह अंतराल हमेशा रहेगा। इसीलिए संस्मरण को पूर्ण सत्य मानने के बजाए संदेह की गुंजाइश के साथ देखना चाहिए। (शेष अगले पोस्ट में) From ravikant at sarai.net Fri Sep 15 16:08:48 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 15 Sep 2006 16:08:48 +0530 Subject: [Deewan] sansmaran, bhag -2 Message-ID: <200609151608.48586.ravikant@sarai.net> ...gataank se aage इच्छाएँ हमारे मन में बार-बार आवाजाही करती हैं। इच्छाएँ पूरी भी हो सकती हैं, अधूरी भी। अधूरी इच्छाओं को हम कल्पना से पूरा करते हैं। बेवजह दंड देनेवाले शिक्षक को पीटने की इच्छा एक दिन स्मृति में इस रूप में प्रकट हो सकती है कि आपने उस शिक्षक को पीट दिया था। स्मृति केवल सूचना नहीं है कि उसे शुद्ध रूप में फिर से हासिल कर लिया जाए। स्मृति हमारी सूचना को पहचानने की हमारी क्षमता भी धूमिल होती है। आप खोज रहे हैं कुछ मिला उसी से मिलता जुलता कुछ और। इसीलि ए प्रख्यात इतालवी कलाकार सल्वाडोर डॉली ने झूठी स्मृति की बात स्वीकारी और सच्ची कथा तथा झूठी स्मृति के बीच अंतर करने का तरीका भी बताया : ``झूठी और सच्ची स्मृतियों में जवाहर जैसा ही अंतर होता है : नकली जवाहर ही ज्यादा असली और चमकदार लगते हैं।'' इसीलिए संस्मरण को संदेह से देखा जाना चाहिए, उसे संदेह से परे मानने की भूल तो कतई नहीं करनी चाहिए वरना हम अर्धसत्यों, अधूरी इच्छाआें से घिर जाएँगे।वह स्मृति आधारित है और `द लाईफ़ ऑफ़ रीजन' जैसी कृति के लेखक जॉर्ज सेंटायना के हवाले से कहें तो -- ``स्मृति अपने आपमें एक आंतरिक अफ़वाह है।'' यह आचर्यजनक नहीं है कि अनेक संस्मरण की विश्सनीयता को लेकर विवाद पैदा होते रहे हैं। संस्मरण सत्य का आभास कैसे उत्पन्न करते हैं? इसका उत्तर रचना-पद्धति से मिलता है। संस्मरण की प्रस्तुति कथात्मक ही होती है। लिहाज़ा उसमें कथानक, चरित्र, वातावरण, विवरण, संवाद, थीम और क्रम-विभाजन भी होते हैं। जैसे कथाकार काल्पनिक को इन्हीं उपकरणों के ज़रिए विश्वसनीय बनाता है। वैसे ही संस्मरण लेखक भी इन्हीं उपकरणों को आज़माता है और झूठी स्मृति को भी सत्य का विश्वसनीय बनाता है। वैसे ही संस्मरण लेखक भी इन्हीं उपकरणों को आज़माता है और झूठी स्मृति को भी सत्य का विश्वसनीय जामा पहना दे सकता है। अगर कथेतर साहित्य को परिभाषित करना हो तो कहना पड़ेगा कि कथेतर साहित्य में किसी विषय को तथ्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यह प्रस्तुति सटीक है अथवा नहीं, तथ्य सत्य है या असत्य, यह सवाल हमेशा मुँह बाये खड़ा रहता है। फिर भी संस्मरण लेखक स्वयं द्वारा प्रस्तुत तथ्यों को सत्य ही मानता है। उसे सत्य के रूप में बहुधा धमाकेदार, पोलखोलू, सनसनीख़ेज़ खुलासे के रूप में प्रचारित भी किया जाता है। कथेतर साहित्य में डायरी, जीवनी से लेकर यात्रा-वृत्तांत तक आते हैं। अब मान लें कि आप उत्तरांचल में अल्मोड़ा का यात्रा वृत्तांत लिखते हुए अल्मोड़ा तक किसी व्यावसायिक विमान सेवहाँ पहुँचने की बात लिख दें तो आपका झूठ फौरन पकड़ में आ जाएगा क्योंकि वहाँ के लिए कोई उड़ान उपलब्ध नहीं है। यात्रा वृत्तांत का मौलिक सत्यापन हो सकता है, जीवन के तथ्यों को दस्तावेज़ों से मिला सकते हैं पर संस्मरण के तथ्यों को कैसे जाँचेंगे? संस्मरण लेखक बहुधा अपनी डायरी, फ़ोटोग्राफ़ या अन्य स्मृति चिह्नों पर निर्भर होते हैं। जहाँ ये सब न हों तो वे पूर्णत: स्मृति पर निर्भर हो जाएँगे। स्मृति में कितना झाँका जा सकता है, इस पर चर्चा अन्यत्र हम करेंगे पर इतना तय है कि स्मृति वस्तुपरकता का निर्वाह नहीं कर सकती। संचार माध्यमों में ख़बर तथ्य पर आधारित हों और तथ्य की प्रस्तुति में वस्तुपरकता का निर्वाह हो, यह आग्रह हम सब करते रहते हैं। ऐसा ही आग्रह काल्पनिक साहित्य से नहीं करते क्योंकि यह माना जाता है कि वह तथ्य आधारित नहीं, बल्कि काल्पनिक है। पर कथेतर साहित्य तथ्य आधारित होता है, उससे वस्तुपरकता का आग्रह करनाग़ैर-मुनासिब नहीं होगा। कथेतर साहित्य का उद्देय पाठकों तक सूचना पहुँचाना और पाठकों, लेखकों के विचारों और धारणाओं से सहमत करना होता इसलिए भी ज़रूरी है कि उसकी प्रस्तुति में संतुलन, सुसंगति और र्तााककता होनी चाहिए। कथेतर साहित्य में अपने समय का रोज़मर्रापन, व्यवहार, रुख और प्रवृत्ति झलकती है पर उसका आकर्षण काल्पनिक साहित्य जितना नहीं हो सकता, यही माना जाता रहा है। लेकिन तथ्य, संतुलन, सुसंगति, र्तााककता और वस्तुपरकता तो ाुष्क और अनाकर्षक होते हैं, फिर भी आत्मकथा और संस्मरण जैसे कथेतर विधाआें के प्रति पाठकों का आकर्षण इतना क्यों है, इस पर चर्चा अन्यत्र है। बहरहाल, संस्मरण में वस्तुपरकता नहीं होती, इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। संस्मरणकार में लेखक, ``ख'' के बारे में लिखा -- `ख' में अपनी बेकारी के दिनों में नौकरी पाने के लिए बहुत खुशा मद की थी तब दया कर उसकी नौकरी लगवा दी। यह प्रसंग पुस्तक में छुप गया तो लेखक ``ख'' को चोट पहुँची। `ख' के मुताबिक यह तथ्य ही ग़लत है। ख का कहना था, ``संस्मरण लेखक उन दिनों खुद बेकार था, मेरी नौकरी कैसे लगवाता? मैंने उसकी कोई खुशामद नहीं की।'' महाशय `ख' इस बाबत कोई बयान किसी पत्रिका में दे सकते हैं, पर कोई ज़रूरी नहीं कि संस्मरण का पाठक वह बयान पढ़े ही। पाठक तक सिऱ्फ संस्मरण-लेखक का ही पक्ष पहुँचेगा संस्मरण में र्वाणत लेखक का नहीं। पुस्तक में र्वाणत लेखक का भी पक्ष शामिल किया जाए, यह हो सकता है। पर इसे कौन करे और क्यों करें? यदि र्वाणत लेखक का पक्ष पुस्तक में शामिल हो जाए तो वस्तुपरकता आ जाएगी। पर ऐसा होता नहीं है। और मेरी जानकारी में किसी संस्मरण लेखक ने ऐसा किया भी नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तथ्य पर आधारित होने (वैसे इसमें भी संदेह की गुंजाइश है)'' के बावजूद संस्मरण वस्तुपरक नहीं, आत्मपरक लेखन है। संस्मरण अधूरी विधा है। दुचित्तापन इसकी बनावट में ही अंर्तानहित है। ता ज्जुब नहीं कि संस्मरण प्रथम पुरुष की टोन में लिखे जाते हैं। हृदयेश की आत्मकथा के अंश इधर छपे हैं। वहाँ एक प्रयोग दिखता है कि वाचक तृतीय पुरुष है। यानी हृदयेश ही हृदयेश के बारे में लिखते हैं : हृदयेश ने ये किया, वो किया ... वाचक हृदयेश पर कटाक्ष भी करता है, उसकी पोल भी खोलता है। इस तरह विश्वनाथ त्रिपाठी की पुस्तक नंगातलाई का गाँव का वाचक भी तृतीय पुरुष है। इसीलिए दोनों पुस्तकों को पाठकों ने विश्वसनीय माना। कहीं से संदेह की आवाज़ नहीं उठी। आत्मपरकता संदेह का बीज होती है। प्रथम पुरुष वाचक संदेह की पुष्टि कर देता है। संस्मरण लेखक इसीलिए संस्मरण को विश्वसनीय दिखाने का अतिरि क्त जतन करते दिखाई पड़ते हैं। हिंदी में संस्मरण साहित्य का इतिहास बहुत छोटा है। इसलिए इस विधा को विश्व इतिहास पर नज़र डाल लेना सही रहेगा ताकि कुछ तो पूर्वपीठिका के रूप में हो जिसके बूते आगे विचार किया जा सके। संस्मरण को आत्मकथा की ही उपविधा माना जाता है।/ लिहाज़ा कुछ कॉमन पुस्तकें हैं जो आत्मकथा और संस्मरण दोनों की पूर्वज मानी जाती है। वैसे संस्मरण का पहला बीज ११वीं सदी के जापानी उपन्यास द टेल ऑफ़ गेंजी में भी मिलता है जो आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया है। लेकिन वह अंतत: उपन्यास है। संत ऑगस्टाइन ही आत्मकथा और संस्मरण के पूर्वज हैं। चौथी शताब्दी की उनकी कृति कन्फ़ेशंस में आत्मकथा तो है ही आत्मस्वीकृतियाँ भी हैं। संत बनने के पहले वे हमारी आपकी तरह दुनियावी इंसान थे। किशोर ऑगस्टाइन ने बाग़ से नाशपाती चुराया, औरत के साथ सोया, पवित्र बाइबिल और ईसा से चिढ़ता रहा। बाद में सुधर गया। फिर आत्म स्वीकृतियाँ लिखीं। वे ईश्वर को संबोधित हैं। यह बहुत लोकप्रिय पुस्तक रही है। सो कई सदियों तक पढ़े लिखे लोग संस्मरण लिखने का साहस ही जुटा नहीं पाए। माफ़ी नामा कौन लिखे। सोलहवीं सत्रहवीं सदी में सूरत बदली। १५९५ में मोंटेन की पुस्तक एसेज़ आई। गणितज्ञ पास्कल पेंसीज़ १६५८ में प्रकाशित हुई। आचर्यजनक रूप से इन दोनों कृतियों में आत्म स्वीकृति जैसी चीज़ नहीं थी। १७८२ में प्रकाशित रूसो की प्रसिद्ध कृति कन्फ़ेशंस के आते आते संस्मरण ने सहज आख्यान का रूप ले लिया था। कथानक का ``प्रारंभ से लेकर अंत'' वाला ढाँचा ख़त्म हो गया था। अमरीकी हस्ती बेंजामिन की आत्मकथा (१७९२ में प्रकाशित) में संस्मरण के टोन में एक और चीज़ जुड़ी -- हास्य। लेकिन संस्मरणों में ईश्वर का दबदबा बना रहा। भला हो नीते का जिसने अपनी आत्मकथा (व्हाट वन बिकम्स व्हाट वन इज़) का ज़रिये इस विधा को ईश्वर से आज़ाद करा दिया। संस्मरण इतनी तरल विधा है कि अपने बारे में लिखो तो आत्मकथा लगे, दूसरों के बारे में लिखो तो रेखा चित्र या निबंध दिखे और जगहों, यात्राओं के बारे में लिखा जाए तो यात्रा-वृत्तांत। हिंदी में संस्मरण शुंरू से ही लिखे जाते रहे पर वे संकलित न हो सके। प्रारंभ के संस्मरण-लेखकों में पद्मसिंह शर्मा है जिनकी पुस्तक पद्म राग १९२९ में प्रकाशित हुई थी। जनार्दन प्रसाद द्विज का चरित्र रेखा १९४३ का प्रकाशन है। इस दौर की उल्लेखनीय संस्मरण रचना है शांतिप्रिय द्विवेदी की पथ चिह्न। इसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था। १९४४ में प्रकाशित शिवरानी देवी की पुस्तक प्रेमचंद घर में का महत्त्व भी साहित्य संसार जानता है। १९४६ में प्रकाशित् भदंत आनंद वात्स्यायन की कृति जो भूल न सका भी उल्लेखनीय है। महादेवी वर्मा की दो अत्यंत मूल्यवान कृतियाँ स्मृति की रेखाएँ १९४३ और अतीत के चलचित्र १९४१ ने संस्मरण को प्रतिष्ठा दी। मेरा परिवार और पथ के साथी भी उनकी संस्मरण पुस्तकें हैं। आज़ादी के बाद ज़रूर इस विधा में गति आई। बनारसीदास चतुर्वेदी और रेखाचित्र दोनों १९५२ के प्रकाशन) के माध्यम से और कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर -- भूले हुए चेहरे तथा दीप जले, शंख बजे -- के ज़रिये प्रमुख संस्मरण लेखक के रूप में उभरे। उपेंद्रनाथ अक की बेजोड़ संस्मरण कृति मंटो मेरा दुमन १९५० में प्रकाशित हुई थी और इसकी धूम भी खूब रही। यशपाल के सिंहावलोकन के पहले खंड का प्रकाशन भी बीसवीं सदी के छठे दशक के प्रारंभ यानी १९५१ में हुआ था। यूँ तो स्वाधीनता सैनानियों/क्रांतिकारियों के बारे में संस्मरण पुस्तक क्रांतियुग के संस्मरण मन्मथनाथ गुप्त १९३७ में ही लिख चुके थे पर जो महत्त्व और लोकप्रियता शिकार कथाओं के मशहूर लेखक/पत्रकार श्रीराम शर्मा की पुस्तक सन बयालीस के संस्मरण को मिली, वह आज भी संस्मरणकारों के लिए स्वप्न है। श्रीराम शर्मा की शिकारसंबंधी संस्मरण पुस्तक शिकार १९३२ में प्रकाशित होकर धूम मचा चुकी थी। यहाँ गांधी जी पर लिखा घनयामदास बिड़ला की संस्मरण पुस्तक बापू (१९४०) का उल्लेख करना भी समीचीन होगा। रामनरेश त्रिपाठी की पुस्तक तीस दिन : मालवीय जी के साथ का प्रकाशन वर्ष १९४२ का है। संस्मरण लिखने वालों में मोहनलाल महतों वियोगी, विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर माचवे भी रहे हैं। लेकि न छठे दाक से आठवें दाक तक संस्मरण क्षेत्र प्राय: वीरान रहा। वैसे जगदीशचंद्र माथुर की लेखकों पर लिखे संस्मरण दस तस्वीरें या अज्ञेय की पुस्तक स्मृति लेखा (इसमें भी लेखकों के ही संस्मरण हैं) इसके अपवाद थे। इन संस्मरणों को खंगालने से साफ़ हो जाता है कि संस्मरण के केंद्र में विशिष्ट ही रहे चाहे वे लेखक हों या राजनेता। तीन ऐसी पुस्तकें हैं जो मामूली लोगों के बारे में हैं। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, श्रीराम शर्मा और रामवृक्ष बेनीपुरी ने आम लोगों के बारे में लिखा और संयोग से ये तीनों पत्रकार थे। ये आम लोगों का महत्व समझ रहे थे जबकि शुद्ध साहित्यिक संस्मरण लेखक विशिष्ट को ही संस्मरण के योग्य मानते थे। यूँ काशी पर अनूठी कृति बहती गंगा के लेखक रुद्र का शिकार ने संस्मरण को मरण से जोड़ दिया। मृतकों पर ही संस्मरण क्यों लिखे जाते हैं? जीवितों पर संस्मरण लिखना साहस का काम है। जीवितों पर संस्मरण लेखन प्राय: स्तुति से लबालब रहता है पर अज्ञेय, कमलेश्वर, काशीनाथ सिंह, राजेंद्र यादव, कांतिकुमार जैन साहसी संस्मरण लेखकों में गिने जाएँगे। इन सबों ने जीवित विशिष्ट जनों पर लिखा। खंडन-मंडन, प्रतिशोध और वैर झेला पर झमेले से बच निकलने की कलाबाज़ी नहीं दिखलायी। कांतिकुमार जैन जहाँ विशिष्टों पर कलम चलाते हैं वही काशीनाथ सिंह विशिष्टों के साथ-साथ वाराणसी के सामा न्य जनों पर भी। यहाँ हरिशंकर परसाई को याद करने का उचित अवसर है। परसाई की संस्मरण पुस्तक में मामूली लोग भरे पड़े हैं। परसाई साधारण में असाधारण ढूँढ़ते हैं और क्या ख़ूब ढूँढ़ते हैं। बहुधा संस्मरण काल्पनिक कथा साहित्य के ढाँचे का अनुपालन करते लिखे जाते हैं जबकि संस्मरण काल्पनिक साहित्य नहीं हैं। संस्मरण लेखकों द्वारा कथात्मक ढाँचे का संस्मरण लिखने वालों में मोहनलाल महतो वियोगी, विष्णु प्रभाकर और प्रभाकर माचवे भी रहे हैं। लेकिन छठे दाक से आठवें दाक तक संस्मरण क्षेत्र प्राय: वीरान रहा। वैसे जगदीशचंद्र माथुर की लेखकों पर लिखे संस्मरण दस तस्वीरें या अज्ञेय की पुस्तक स्मृति लेखा (इसमें भी लेखकों के ही संस्मरण हैं) इसके अपवाद थे। व्यक्तियों की सीमाएँ होती हैं। उनकी अपनी अच्छाइयाँ भी होती हैं। इसी के योग से व्यक्ति के प्रति पाठक का रवैया तय होता है। मान लीजिए कि एक व्यक्ति दरिद्र है फिर भी मेहमानवाज़ी सहज भा व से करता है। मेहमान के समक्ष दिखावा नहीं करता। ऐसे व्यक्ति से पाठकों को सहानुभूति होती है पर यदि संस्मरण-लेखक उसका उपहार करे तो यह उपहास का टोन संस्मरण-लेखक के विरुद्ध ही जाएगा। उपहास की भाषा-शैली भी अलग होगी और रूप-ौली तो अलग होगी ही। इसलिए टोन से संस्मरण लेखक का व्यक्तित्व भी खुलता है। वस्तुत: संस्मरण का परिप्रेक्ष्य संस्मरण-लेखक ही होता है और उस तक उसके स्वर के ज़रिये ही पहुँचा जा सकता है। संस्मरण यदि टेक्स्ट है तो संस्मरण-लेखक कंटेक्स्ट है। संस्मरण में तथ्य और सूचनाओं के उचित प्रतिपादन का कारक भी महत्त्वपूर्ण होता है। अधूरे असत्य तथ्य संस्मरण को अविश्वसनीय ही नहीं बनाते बल्कि संस्मरण लेखक को विवाद, मुकदमा, मानहानि, जुर्माना, जेल तक से रूबरू करा सकते हैं। जब किसी से बदला लेना होता है तो साहसी लेखक संस्मरण लिखता है। पर कायर और चालाक लेखक अपने वैरी पर कहानी लिख डालता है क्योंकि उसे पता है संस्मरण के तथ्यों को अदालत में चुनौती दी जा सकती है, कहानी को नहीं क्योंकि वह काल्पनिक साहित्य है। संस्मरण प्रमाण आधारित होता है। हर संस्मरण में अनुभव कथाएँ भी होती हैं। अनुभव कथाओं का सजीव चित्रण कर संस्मरण लेखक पाठक का उसी अनुभव बोध से गुज़ारना चाहता है। यह अनुभव चित्रण जितनी खाँटी, जितना अनगढ़ होता है, उतना ही मौलिक और अनूठा लगता है। अनुभव हर किसी के पास होता है, लेकिन अनूठापन सब का अलग-अलग होता है। प्रथम चुंबन का अनुभव असंख्य बार वि ा संस्मरण साहित्य में आया है पर वह हर बार अनूठा लगता है क्योंकि वर्जन की तीव्रता, संलग्नता और भावना हर व्यक्ति की अलग अलग होती है। वस्तुत: अनुभव वर्णन ही संस्मरण की जान होते हैं। हर पाठक उस अनुभव से साझा करना चा हता है। अनुभव कथाओं का वर्णन उतना ही प्रभावी होगा जितना संस्मरण लेखक में लेखन की कला होगी। बहुधा ऐसे वर्णनों में संस्मरण लेखक साहित्य की ारण लेता है। ताकि वर्णन को प्रभावी और कलात्मक बना सके। हिंदी के संस्मरण में विवरण प्राय: उपेक्षित क्षेत्र रहा है। विवरण में संस्मरण लेखकको सजीवता के का रकों, रूप, ध्वनी, गंध, स्वाद, र्स्पा को संतुष्ट ध्यान रखना पड़ता है। यही स्थिति बुनियादी भावों -- भाव, पीड़ा, उदासी और उल्लास के साथ दीखती है। लेकिन विवरण कौशल का अभाव को दरकिनार करके देखें तो विश्वनाथ त्रिपाठी का संस्मरण (इसे वे स्मृति आख्यान कहते हैं) नंगातलाई का गाँव बहुत अच्छा उदाहरण है। बिसनाथ को अपने पिता के पसीने से भीगे कुर्ते और माँ के शरीर से आती दूध की गंध बहुत अच्छी लगती है। वस्तुत: विवरण में यह गुण लाने के लिए आवयक है कि लेखक स्मृति के रेशे रेशे खोले, स्मृति से सरसरी तौर पर गुज़रने से यह बारीकी नहीं आनेवा ली। संस्मरण स्मृति आधारित है। लेकिन वह सिर्फ स्मृति नहीं है। संस्मरण की मजबूरी है कि वह है तो अतीत पर, लिखी जाती है वर्तमान में। इस बीच लेखक के सोच, रुझान, परिप्रेक्ष्य, विलेषण क्षमता, जीवनानुभव, प्राथमिकता सबमें तब्दीली आ चुकी होती है। बचपन में पेंसिल चुराने की एक घटना तब बचपना लगी होगी। शायद सहज भी। पर पचास वर्ष बाद (हिंदी के अधिकांश संस्मरण-लेखक पचास पा र के होते हैं) वही घटना लेखक को महत्त्वपूर्ण लग सकती है। उसे अपने उस कृत्य पर पछतावा हो सकता है, वह अपनी भर्त्सना भी कर सकता है। जो घटना छोटी थी, मामूली थी वही महत्त्व प्राप्त कर सकती है। संस्मरण-लेखक का यह आत्मिक चिंतन संस्मरण का आख़िरी महत्त्वपूर्ण कारक है। आत्म चिंतन लेखक को अपना नज़रिया अपनाने में सहायक होता है। अखिलेा का संस्मरण वह जो यथार्थ था में यह आत्मिक चिंतन बहुत मज़बूती से उभरा है। संस्मरण में अतीत और वर्तमान के बीच संतरण और आवाजाही का माध्यम संस्मरण-लेखक ही होता है। यदि यह आवाजाही र्निावघ्न या सहज नहीं होती है तो संस्मरण वैसे ही फट जा सकता है जैसे एक बूँद सिरके से एक लीटर दूध फट जाता है। स्मृति प्रकृति का एक ऐसा वरदान है जिसके सहारे आप असंभव अतीत को संभव वर्तमान बना सकते हैं। जब आप भूखे हों तो अतीत खाये छप्पन भोग को याद कर तृप्ति का एहसास कर सकते हैं। कुछ लोग स्मृति में कल्पना को भी जोड़ देते हैं। फिर क्या है? चमत्कार होने लगता है। स्मृति सिऱ्फ स्मरण का परिणाम होती तो वह गणित के सूत्रों की तरह याद आती। स्मृति में स्मरण और हार्दिकता दोनों का मेल है। कुछ संस्मरण-लेखक उदात्तता को आसंग बनाते हैं और पाठकों का दिल जीत लेते हैं। इधर कड़वे, वैर साधक संस्मरण लिखने का चलन शुरू हुआ है। जिसके जीवित रहते खाँसी न निकली उसके मरते ही संस्मरण लिखकर लेखक अपना विरेचन करने लगे हैं। ऐसे संस्मरणों में भाषा माध्यम के बजाय चाकू बन जाती है। लेखक यह भूल जाता है कि किसी के बारे में न्याय के भाषा में निर्णय सुनाने का अधिकार उसे नहीं है क्योंकि संस्मरण में स्मृत का पक्ष शामिल नहीं है। पहले संस्मरण से संबंधित एक युग्म प्रचलित था ''प्रेरक प्रसंग''। संस्मरण को प्रेरक होना ही चाहिए, ऐसा मानते रहे होंगे। अब संस्मरण का प्रेरक हुआ तो पिछड़ा माना जाएगा जिसको पढ़कर मुँह का ज़ा यका जितना बिगड़े, कुछ संपादक उसे उतना ही नया और अच्छा संस्मरण मानते हैं, उसे छापते हैं, विज्ञापित करते हैं। संस्मरण में अनूठे व्यक्तियों, स्थितियों के बारे में लिखने का भी एक निचित उद्देश्य होना चाहिए, यह नहीं कि वैसा व्यक्ति या स्थिति है, सो लिख दिया। लेखक यह न सोचे कि जीवन सेतु उसी ने जिया है। हर पाठक जीवन के अनुभवों से लबरेज़ होता है। वह भी संस्मरण लेखन की लो क-कला में पारंगत होता है। इसलिए घिसी पिटी स्थिति, रोज़मर्रापन और विशेषताहीन व्यक्तियों के बारे में महज़ वैर या अतिरेकी प्रांसा से लदा-फदा संस्मरण लिख कर संस्मरण-लेखक पाठक को भरमा लेगा। साधारण को अनूठा बनाकर पेश करने का हुनर संस्मरण पर क्या छाप छोड़ेगा? जिसके जीवन से पाठक का मन आलोकित न हो, उसे लिखने का क्या अर्थ है? संस्मरण लेखक के बुढ़ापे की लाठी नहीं। यदि कोई संस्मरण लेखक ऐसा करता है तो उसे फ़ैज़ का यह शे'र याद करा देना चाहिए : हम इक उम्र से वाकिफ़ हैं, अब न समझाओ कि लुत्फ़ क्या है मेरे मेहरबां, सितम क्या है! (Khatm) From ravikant at sarai.net Sat Sep 16 18:22:40 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 16 Sep 2006 18:22:40 +0530 Subject: [Deewan] aaiye de-saver ham bhi hindi diwas manaa lein! Message-ID: <200609161822.41135.ravikant@sarai.net> http://abhivyakti-hindi.org/vyangya/2006/hindi.htm se saabhaar. enjoy! ravikant हिंदी की स्थिति - अनूप कुमार शुक्ल जैसे ही सितंबर का महीना आता है¸ हिंदी की याद में हर हिंदुस्तान का दिल धड़कने लगता है। हम जो शुद्ध हिंदुस्तानी ठहरे¸ हमारा जी और भी व्याकुल हो उठता है¸ सावन के महीने में जिस तरह महिला ओं को पीहर की याद आती है ठीक वैसे ही। मन में हूक सी उठती है कि सब जग हिंदीमय हो जाए। इसी तड़फ़ को बनाए रखने के लिए हर साल चौदह सितंबर को हिंदी दिवस मनाने की परंपरा चल पड़ी हैं। हर साल सितंबर का महीना हाहाकारी भावुकता में बीतता है। कुछ कविता पंक्तियों को तो इतनी अपावन क्रूरता से रगड़ा जाता है कि वो पानी पी-पीकर अपने रचयिताओं को कोसती होंगी। उनमें से कुछ बेचारी हैं:- निज भाषा उन्नति अहै¸ सब उन्नति को मूल¸ बिनु निज भाषाज्ञान के मिटै न हिय को सूल। या फिर मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती¸ भगवान भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती। या फिर कौन कहता है आसमान में छेद नहीं हो सकता.¸ एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो। कहना न होगा कि दिल के दर्द के बहाने से बात पत्थरबाजी तक पहुंचने के लिए अपराधबोध¸ निराशा¸ हीनताबोध¸ कर्तव्यविमुखता¸ गौरवस्मरण की इतनी संकरी गलियों से गुज़रती है कि असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है कि वास्तव में हिंदी की स्थिति क्या है? ऐसे में श्रीलाल शुक्ल जी का लिखा उपन्यास 'राग दरबारी' याद आता है जिसका यह वर्णन हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं पर लागू होता है:- एक लड़के ने कहा¸ "मास्टर साहब¸ आपेक्षिक घनत्व किसे कहते हैं?" वे बोल¸ ."आपेक्षिक घनत्व माने रिलेटिव डेंसिटी।" एक दूसरे लड़के ने कहा¸ "अब आप देखिए¸ साइंस नहीं अंग्रेज़ी पढ़ा रहे हैं।" वे बोले¸ ."साइंस साला बिना अंग्रेज़ी के कैसे आ सकता है?" हमें लगा कि हिंदी की आज की स्थिति के बारे में मास्टर साहब से बेहतर कोई नहीं बता सकता। सो लपके और गुरु को पकड़ लिया। उनके पास कोई काम नहीं था लिहाज़ा बहुत व्यस्त थे। हमने भी बिना भूमिका के सवाल दागना शुरु कर दिया। सवाल:- हिंदी दिवस किस लिए मनाया जाता है? जवाब:- देश में तमाम दिवस मनाए जाते हैं। स्वतंत्रता दिवस¸ गणतंत्र दिवस¸ गांधी दिवस¸ बाल दि वस¸ झंडा दिवस वगैरह। ऐसे ही हिंदी दिवस मना लिया जाता है। जैसे आज़ादी की¸ संविधान की¸ नेहरू–गांधी जी की याद कर ली जाती हैं वैसे ही हिंदी को भी याद रखने के लिए हिंदी दिवस मना लिया जाता है। राजभाषा होने के नाते इतना तो ज़रूरी ही है मेरे ख्याल से। सवाल:- लेकिन केवल एक दिन हिंदी दिवस मनाए जाने का क्या औचित्य है? जवाब:- अब अगर रोज़ हिंदी दिवस ही मनाएंगे तो बाकी दिवस एतराज़ करेंगे न! सबको बराबर मौका मिलना चाहिए। एक फ़ायदा इसका यह भी होता है कि लोगों के मन में जितनी हिंदी होती है वह सारी एक दिन में निकाल कर साल भर मस्त रहते हैं। हिंदी दिवस पर सारी हिंदी उडे.लकर बाकी सारा साल बिना हिंदी के तनाव के निकल जाता है। साल में हिंदी की एक बढ़िया खुराक ले लेने से पूरे साल देशभक्ति का और कोई बुखार नहीं चढ़ता। बड़ा आराम रहता है। सवाल:- हिंदी की वर्तमान स्थिति कैसी है आपकी नज़र में? जवाब:- हिंदी की हालत तो टनाटन है। हिंदी को किसकी नज़र लगनी है? सवाल:- किस आधार पर कहते हैं आप ऐसा? जवाब:- कौनौ एक हो तो बताएं। कहां तक गिनाएं? सवाल:- कोई एक बता दीजिए। जबाव:- हम सारा काम बुराई-भलाई छोड़कर टीवी पर हिंदी सीरियल देखते हैं। घटिया से घटिया¸ इतने घटिया कि देखकर रोना आता है¸ सिर्फ़ इसीलिए कि वो हिंदी में बने है। यही सीरियल अगर अंग्रेज़ी में दिखाया जाए तो चैनेल बंद हो जाए। करोड़ों घंटे हम रोज़ होम कर देते हैं हिंदी के लिए। ये कम बड़ा प्रमाण/आधार है हिंदी की टनाटन स्थिति का? सवाल:- अक्सर बात उठती है कि हिंदी को अंग्रेज़ी से ख़तरा है। आपका क्या कहना है? जवाब:- कौनौ ख़तरा नहीं है। हिंदी कोई बताशा है क्या जो अंग्रेज़ी की बारिश में घुल जायेगी? न ही हिंदी कोई छुई-मुई का फूल है जो अंग्रेज़ी की उंगली देख के मुरझा जाएगी। सवाल:- हिंदी भाषा में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रदूषण हिंगलिश के बारे में आपका क्या कहना है? जवाब:- ये रगड़-घसड़ तो चलती ही रहती है। जिसके कल्ले में बूता होगा वो टिकेगा। जो बचेगा सो रचेगा। समय की मांग को जो भाषा पूरा करती रहेगी उसकी पूछ होगी वर्ना आदरणीय¸ वंदनीय¸ पूजनीय बताकर अप्रासंगिक बन जाएगी। सवाल:- लोग कहते हैं कि अगर कंप्यूटर के विकास की भाषा हिंदी जैसी वैज्ञानिक भाषा होती तो वो आज के मुकाबले बीस वर्ष अधिक विकसित होता। जवाब:- ये बात तो हम पिछले बीस साल से सुन रहे हैं। तो क्या वहां कोई सुप्रीम कोर्ट का स्टे है हिंदी में कंप्यूटर के विकास पर? बनाओ। निकलो आगे। झुट्‌ठै स्यापा करने रहने क्या मिलेगा? सवाल:- बॉलीवुड वाले जो हिंदी की रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? रोटी खाते हैं¸ हिंदी बोलने से क्यों कतराते हैं? इसका जवाब ज़रा विस्तार से दें काहे से कि यह सिनेमा वालों से जुड़ा है और इसलिए जवाब में ये दिल मांगे मोर की ख़ास फ़रमाइस है लोगों की। जवाब:- इसके पीछे आर्थिक मजबूरी मूल कारण हैं। असल में तीन घंटे के सिनेमा में काम करने के लिए हीरो-हीरोइनों को कुछेक करोड़ रुपये मात्र मिलते हैं। हिंदी फ़िल्मों में काम करते समय तो डा यलाग लिखने वाला डायलाग लिख देता है वो डायलाग इन्हें मुफ्.त में मिल जाते हैं सो ये बोल लेते हैं। एक बार जहां सिनेमा पूरा हुआ नहीं कि लेखक लोग हीरो-हीरोइन को घास डालना बंद कर देते हैं। इनके लिए डायलाग लिखना भी बंद कर देते हैं। अब इतने पैसे तो हर कलाकार के पास तो होते नहीं कि पैसे देकर ज़िंदगी भर के लिए डायलाग लिखा ले। पचास खर्चे होते हैं उनके। माफ़िया को उगाही देना होता है¸ पहली बीबी को हर्जाना देना होता है¸ एक फ्लैट बेच कर दूसरा ख़रीदना होता है। हालात यह कि तमाम खर्चों के बीच वह इत्ते पैसे नहीं बचा पाता कि किसी कायदे के लेखक से डायला ग लिखा सके। मजबूरी में वह न चाहते हुए भी अपने हालात की तरह टूटी-फूटी हिंदी-अंग्रेज़ी बोलने पर मजबूर होता है। अब हिंदी चूंकि वह थोड़ी बहुत समझ लेता है लिहाज़ा उसे पता लग जाता है कि कितनी वाहियात बोल रहा है। फिर वह घबराकर अंग्रेज़ी बोलना शुरू कर देता है। अंग्रेज़ी में यह सुविधा होती है चाहे जैसे बोलो¸ असर करती है। आत्मविश्वास के साथ कुछ ग़लत बोलो तो कुछ ज़्यादा ही असर करती है। बोलचाल में जो कुछ चूक हो जाती है उसे ये लोग अपने शरीर की भाषा (बाडी लैन्गुयेज) से पूरा करते हैं। बेहतर अभिव्यक्ति के प्रयास में कोई-कोई हीरोइने तो अपने पूरे शरीर को ही लैंग्वेज में झोंक देती हैं। जिह्वा मूक रहती है¸ जिस्म बोलने लगता है। अब हिंदी लाख वैज्ञानिक भाषा हो लेकिन इतनी सक्षम नहीं कि ज़बान के बदले शरीर से निकलने लगे। तो यह अभिनेता हिंदी बोलने से कतराते नहीं। उनके पास समुचित डायलाग का अभाव होता है जिसके कारण वे चाहते हुए भी हिंदी में नहीं बोल पाते हैं। सवाल:- चलिए वालीवुड का तो समझ में आया कुछ मामला और मजबूरी लेकिन अच्छी तरह हिंदी जानने वाले बीच-बीच में अंग्रेज़ी के वाक्य क्यों बोलते रहते हैं? जवाब:- आमतौर पर यह बेवकू.फ़ी लोग इसलिए करते हैं ताकि लोग उनको मात्र हिंदी का जानकार समझकर बेवकूफ़ समझने की बेवकूफ़ी न कर बैठे। हिंदी के बीच-बीच में अंग्रेज़ी बोलने से व्यक्तित्व में उसी निखार आता है जिस क्रीम पोतने से चेहरे पर चमक आ जाती है और जीवन साथी तुरंत पट/फिदा हो जाता है। वास्तव में ऐसे लोगों के लिए अंग्रेज़ी एक जैक की तरह काम करता है जिसके सहारे वे अपने विश्वास का पहिया ऊपर उचकाकर व्यक्तित्व का पंचर बनाते हैं। लेकिन देखा गया है ऐसे लोगों का हिंदी और अंग्रेज़ी पर समान अधिकार होता है यानी दोनों भाषाओं का ज्ञान चौपट होता है उनका। सवाल:- हिंदी दिवस पर आपके विचार? जवाब:- हमें तो भइया ये खिजाब लगाकर जवान दिखने की कोशिश लगती है। शिलाजीत खाकर मर्दा नगी हासिल करने का प्रयास। जो करना हो करो¸ नहीं तो किनारे हटो। अरण्यरोदन मत करो। जी घबराता है। सवाल:- हिंदी की प्रगति के बारे में आपके सुझाव? जवाब:- देखो भइया¸ जबर की बात सब सुनते है। मज़बूत बनो-हर तरह से। देखो तुम्हारा रोना-गाना तक लोग नकल करेंगे। तुम्हारी बेवकूफ़ियों तक का तार्किक महिमामंडन होगा। पीछे रहोगे तो रोते रहोगे-ऐसे ही। हिंदी दिवस की तरह। इसलिए समर्थ बनो। वो क्या कहते हैं:- इतना ऊंचे उठो कि जितना उठा गगन है। सवाल:- आप क्या ख़ास करने वाले हैं इस अवसर पर? जवाब:- हम का करेंगे? विचार करेंगे। खा-पी के थोड़ा चिंता करेंगे हिंदी के बारे में। चिट्‌ठा/लेख लि खेंगे। लिखके थक जाएंगे। फिर सो जाएंगे। और कितना त्याग किया जा सकता है-- बताओ? 16 सितंबर 2006 From rajeshkajha at yahoo.com Wed Sep 20 09:28:50 2006 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Tue, 19 Sep 2006 20:58:50 -0700 (PDT) Subject: [Deewan] shringar aur shraddha Message-ID: <20060920035850.15750.qmail@web52907.mail.yahoo.com> hi all, can we move towards having a charactor in unicode, so that we can distingush between shringar aur shraddha...I am attaching a screenshot for the 'most wanted'. Regards, Rajesh Ranjan __________________________________________________ Do You Yahoo!? Tired of spam? Yahoo! Mail has the best spam protection around http://mail.yahoo.com -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: shra_hi-IN.gif Type: image/gif Size: 8338 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060919/b5291d75/attachment.gif From shveta at sarai.net Sun Sep 24 20:34:42 2006 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Sun, 24 Sep 2006 20:34:42 +0530 Subject: [Deewan] Nashistgah Message-ID: <45169E8A.6020707@sarai.net> Namaste, Jagah ke baare mein sochte aur baat karte huwe ek saathi, Shasher se ek shabd mila: *Nashistgah* Matlab, wo jagah jise hum banate hain, apna samay dete hain. Is shabd pe kuchh roshni daal sakta hai koi? shukriya, shveta