From ravikant at sarai.net Thu Jun 1 13:08:30 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 1 Jun 2006 13:08:30 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: [asia_ICTpolicy] South Asian techies breach barriers for computing solutions Message-ID: <200606011308.31229.ravikant@sarai.net> हालाँकि डीएनए की इस रिपोर्ट मेँ कुछ अशुद्धियाँ हैं, जैसे कि ये कहना कि नेपालीनक्स ने युनिकोड बनाया, लेकिन मुख्यधारा के मीडिया में कुछ चर्चा तो हुई. लगता है किसी पत्रकार ने एशिया आईसी टी के वेबसाइट से चीज़ेँ उठाकर छाप दी हैं. उर्दू के बारे मेँ भी शहज़ाद का कहना सही नहीं है. अगर आप यह लिंक देखें तो पता चलेगा कि उर्दू के लिए बुनियादी औज़ार मौजूद हैं, भले ही उर्दू मेँ नहीं: http://geocities.com/urdutext/ बहरहाल एशियाआईसीटी वर्कशॉप की साइट ये रही: http://www.apcasiaictpolicy.net/ एक और हिन्दी किताब की दुकान मिली नेट पर, कुछ धार्मिक चीज़ेँ मुफ़्त भी हैं: http://www.pustak.org/ आप भी विचरें रविकान्त ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: [asia_ICTpolicy] South Asian techies breach barriers for computing solutions Date: Wednesday 31 मई 2006 21:58 From: "parthadhaka" To: asia_ICTpolicy at yahoogroups.com This piece of article seems to have some reference to our Dhaka meeting.. Wondering whether any of us have written this? I don't see any name of journalist here..But good to see the meeting summary is going everywhere... http://www.dnaindia.com/report.asp?NewsID=1032027&CatID=5 Best wishes, Partha From ravikant at sarai.net Thu Jun 1 14:12:51 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 1 Jun 2006 14:12:51 +0530 Subject: [Deewan] hindi tech update Message-ID: <200606011412.52006.ravikant@sarai.net> ek bar phir tech update apne purane dost ravishankar shrivastav ki kalam se ravikant http://www.abhivyakti-hindi.org/vigyan_varta/pradyogiki/2006/hindikebadhtekadam.htm अंतरजाल पर हिंदी के बढ़ते कदम —रविशंकर श्रीवास्तव अंतरजाल पर एक बार फिर से डॉट कॉम बूम छाया हुआ है। और¸ इस दफा अंतरजाल पर हिंदी भी इससे अछूता नहीं है। अंतरजाल के तमाम क्षेत्रों में हिंदी अपनी ठोस उपस्थिति दर्ज करवाने की ओर अग्रसर है। पिछले चंद महीनों में ही हिंदी चिट्‌ठाकारों की संख्या¸ जो अरसे से महज़ दो अंकों में सिमटी थी¸ दो सौ का आंकड़ा पार तो कर ही चुकी है¸ नित्य नये लोग इसमें जु.डते जा रहे हैं। माइक्रोसॉफ्.ट भाषा इंडिया ने भारतीय चिट्‌ठाकारों को मई 06 के महीने में चिट्‌ठाकारी पुरस्कारों की घोषणा भी की है¸ जिसमें हिंदी भाषा भी सम्मिलित है। कुछ नयी साहित्यिक-सांस्कृतिक पत्रिकाएं भी अंतरजाल पर हिंदी में अवतरित हुईं¸ जिसमें खालिस महिलाओं की पत्रिका तो है ही¸ एक प्रतिष्ठित खेल पत्रिका है¸ स्वास्थ्य और संस्कृति से संबंधित पत्रिका भी है। हिंदी के लिए तमाम तरह के उपयोगी अंतरजाल– उपकरणों औज़ारों की तो बात ही क्या! अब हमारे लिए लगभग हर किस्म के हिंदी के औज़ार अंतरजाल पर उपलब्ध हैं – जिनमें ई-मेल से लेकर फोरम तक¸ सभी कुछ शामिल हैं। आइए¸ अंतरजाल पर हिंदी के ऐसे ही कुछ अच्छे¸ उपयोगी उपकरणों/औज़ारों पर एक नज़र डालते हैं— हिंदी टाइप करने के कुछ अच्छे ऑनलाइन औज़ार— यूनिकोड हिंदी में टाइप करने के लिए कुछ समय पहले तक सिर्फ़ इनस्क्रिप्ट कुंजीपट ही मौजूद था¸ वह भी विंडोज़ एक्सपी या लिनक्स के नये संस्करणों में संस्थापित करने के बाद इस्तेमाल में लिया जा सकता था। इसकी निर्भरता ख़त्म करने के लिए बहुत से ऑॅफलाइन तथा ऑॅनलाइन औज़ारों की रचना विविध स्तरों पर की गई। आज अंतरजाल पर यूनिकोड हिंदी में टाइप करने के कई अच्छे ऑॅनलाइन औज़ार हैं। ता रीफ़ की बात यह है कि इनमें आपको तमाम तरह के कुंजीपट के विकल्प भी प्राप्त होते हैं। कई औज़ार तो ऐसे हैं जिनमें न सिर्फ़ हिंदी¸ बल्कि अन्य कई भारतीय भाषाओं मसलन पंजाबी¸ गुजराती¸ तमिल¸ तेलुगू इत्यादि में भी टाइप करने की सुविधाएं देते हैं। हिंदिनी के नये हग-2 औज़ार में टाइनी-एमसीई का इम्प्लीमेंटेशन इसके हिंदी अनुवाद के साथ किया गया है जिससे हिंदी पाठ को एचटीएमएल में सजाया-संवारा भी जा सकता है। इसमें .फोनेटिक हिंदी कुंजीपट विकल्प है। रमण कौल के जालस्थल पर यूनी नागरी तथा यूनीस्क्रिप्ट हिंदी में टाइप करने के लिए क्रमश: फ़ोनेटिक तथा इनस्क्रिप्ट कुंजीपट हैं तो साथ ही पंजाबी में टाइप करने के लिए भी एक कुंजीपट है। इस साइट पर शुषा तथा कृतिदेव (रेमिंगटन) फ़ॉन्ट के कुंजीपट शामिल करने हेतु कार्य जारी है। इसी से मिलते–जुलते कुछ अन्य ऑॅनलाइन कुंजीपट हैं सोर्सफ़ोर्ज पर यह बहुभाषी कुंजीपट आपको विविध भा रतीय भाषाओं को कई कुंजीपट में टाइप करने की सुविधा देता है। इसी तरह गेट2होम साइट पर आप हिंदी समेत विश्व की तमाम लोकप्रिय भाषाओं में ऑॅनलाइन टाइप कर सकते हैं। ऐसा ही एक अन्य प्रयास भारतीय भाषाओं में अनुप्रयोगों को अंग्रेज़ी से हिंदी में अनुवाद करने के लिए बनाया गया है¸ परंतु जिसका इस्तेमाल बखूबी भारतीय भाषाओं¸ जिसमें हिंदी सम्मिलित है- के टाइप करने में लिया जा सकता है। अब आपको न तो अपने कंप्यूटर पर हिंदी कुंजीपट की चिंता और न ऑॅपरेटिंग सिस्टम की चिंता – क्योंकि ऊपर दिए गए लगभग सभी साइटें इंटरनेट एक्सप्लोरर 6 और या फॉयर.फॉक्स के नये संस्करण (1•5) में विंडोज़ 98 में भी बखूबी चलते हैं। विंडोज़ एक्सपी तथा लिनक्स के ताज़ा संस्करणों (यथा फेदोरा कोर 4 या अधिक) में तो खैर यह समर्थन है ही। हिंदी के कुछ नये ऑनलाइन शब्दकोश व शब्दसंग्रह— हिंदी के लिए देखते ही देखते कोई दर्जन भर ऑॅनलाइन अंग्रे.जी-शब्दकोश उपलब्ध हो चुके हैं और नये–नये ऑॅनलाइन शब्दकोश आना जारी हैं। अब हिंदी–हिंदी शब्दकोश व शब्दसंग्रह (थिसॉरस) भी जारी किया जा चुका है जो साहित्यकारों के लिए अत्यंत उपयोगी है। ऑॅनलाइन अंग्रेजी–हिंदी शब्दकोशों की सूची में एक और नाम जु.डा है शब्दनिधि। इसे देबाशीष ने अंतरजाल की नवीनतम तकनॉलाजी एजेक्स का इस्तेमाल कर बनाया है और इसमें काफ़ी विस्तार की गुंजाइशें भी हैं। एक अन्य¸ आइट्रांस आधारित हिंदी–अंग्रेजी–हिंदी ऑॅनलाइन शब्दकोश भी है हिंदी या अंग्रेज़ी किसी भी भाषा में शब्दों के अर्थ ढूंढने की सुविधा देता है। हिंदी में मिलते–जुलते शब्दों को ढूंढने का यह बढ़िया स्थल है। आपको अपने रदीफ़–काफ़िये के लिए उचित शब्दों की खोज यहीं करनी चाहिए। ढेरों मुफ्.त के हिंदी यूनिकोड फ़ॉन्ट— बहुत सारे व्यक्तिगत तथा संस्थागत प्रयासों से हिंदी यूनिकोड के लिए ढेर सारे फ़ॉन्ट मु.फ्.त सॉ फ्टवेयर लाइसेंस के तहत जारी किए जा चुके हैं जिनका इस्तेमाल आप बखूबी अपने दस्तावेज़ों को सजाने– संवारने में कर सकते हैं। विविध स्रोतों से डाउनलोड किए जा सकने वाले इन फ़ॉन्ट के बारे में चित्रमय जानकारियों को डाउनलोड कड़ी सहित इस जालस्थल पर खूबसूरती से संग्रह किया गया है। वर्तनी जांच की क्षमता युक्त मु.फ्त हिंदी लेखक— इस हिंदी लेखक के ज़रिए आप विंडोज़ के किसी भी अनुप्रयोग में सीधे ही फ़ॉनेटिक हिंदी में टाइप कर सकते हैं। हालांकि इस हिंदी लेखक की वर्तनी जांच क्षमता थो.डी सी सीमित ही है (इसके वर्तनी जांचक डाटाबेस में हिंदी के 60 हजार शब्दों को शामिल किया गया है)¸ और यह ऑॅफ़िस एक्सपी के सा थ कार्य करता है¸ परंतु आम जन के मु.फ्त इस्तेमाल के लिए व्यक्तिगत प्रयास से इसे जारी किया गया है जिसकी सराहना की जानी चाहिए। वैसे भी¸ माइक्रोसॉ.फ्ट के भारी भरकम हिंदी ऑॅफ़िस में भी जब आप हिंदी में संयुक्ताक्षरों या बहुवचनों में वर्तनी जांच करते हैं तो पाते हैं कि सही वर्तनी वाले शब्दों को भी यह ग़लत बताता है- यानी हिंदी में वर्तनी जांच में समस्याएं तो बनी ही रहनी हैं। इंटरनेट अब अंतत: भारतीय भाषाओं की फ़ॉन्ट की समस्या से मुक्त— जी हां¸ अब कम से कम अंतरजाल पर भारतीय भाषाओं में पठन-पाठन हेतु फ़ॉन्ट की समस्या से आप मुक्त हो चुके हैं। अब आपको अपने ब्राउ.जर में विविध भारतीय भाषाओं की साइटों पर भ्रमण करने के लिए तमाम तरह के फ़ॉन्ट संस्थापित करने की आवश्यकता नहीं है। बस¸ संबंधित भाषा का एक यूनिकोड फ़ॉन्ट आपको संस्थापित करना होगा और आपका काम हो जाएगा। यानी कि एक यूनिकोड हिंदी फ़ॉन्ट मंगल या रघु से आप जागरण¸ भास्कर¸ नई दुनिया¸ नवभारत¸ अभिव्यक्ति इत्यादि सभी हिंदी के जा लस्थलों का आनंद ले सकते हैं। मॉज़िला फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र तथा उसके पद्‌मा एक्सटेंशन को इसके लिए धन्यवाद देना होगा। इस्तेमाल करने के लिए .फॉयरफ़ॉक्स चालू करें¸ फिर जाल स्थल पर पद्‌मा एकस्टेंशन के इस स्थल पर जाएं। यहां padma.xpi नाम की फ़ॉयरफॉक्स एक्सटेंशन फ़ाइल मिलेगी। इसे क्लिक कर खोलें। यह आपसे एक प्लगइन संस्थापित करने को पूछेगा। हां करें और फ़ॉयरफ़ॉक्स फिर से प्रारंभ करें। अब फ़ॉयरफ़ॉक्स में टूल्स / एक्सटेंशन पर जाएं¸ पद्‌मा दिखाई देगा। उसे चुनें ऑॅप्शन्स में क्लिक करें पद्‌मा प्रेफ़रेंस नाम का चाइल्ड विंडो खुलेगा उसमें अपडेट बटन पर क्लिक करें आपको ऑॅटोट्रांसफॉर्म सूची दिखाई देगी। उसमें अभिव्यक्ति का यूआरएल अगर नहीं दिखाई दे रहा हो तो डालें बस काम हो गया। अभिव्यक्ति –हिंदी .ऑॅर्ग में जाएं यूनिकोड में साइट का आनंद लें। हां. आप यूनिकोड में काटने-चिपकाने वाला काम भी कर सकते हैं - यानी पृष्ठों को सीधे कॉपी कर अपने पास यूनिकोड हिंदी में रख सकते हैं - अलग से फ़ॉन्ट परिवर्तक की भी आवश्यकता नहीं! यह सारा कार्य डायनॅमिक रूप से करता है और इसी वजह से हो सकता है कि आपका ब्राउज़र हिंदी साइटों को दिखाते समय कुछ धीमा हो जाए¸ मगर यह अत्यंत उपयोगी तो है ही इसमें कोई दो मत नहीं। और अब हिंदी में परिचर्चा भी— हिंदी में ऑनलाइन .फोरम की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही थी जहां हिंदी प्रेमी वाद-विवाद¸ जानकारियों का आदान-प्रदान और यों ही मटरगश्ती अपनी भाषा में कर सकें। इस कमी को भी पूरा कर लिया गया है और हिंदी फ़ोरम ‘परिचर्चा' धूम-धड़ाके के साथ प्रारंभ हो गया है। फ़ोरम में आप भी आमंत्रित हैं। चाहे अपनी समस्याएं लेकर आएं¸ विचार प्रदान करने आएं या फिर दूसरों के विचार जानने आएं। हर तरह की सामग्रियां यहां आपको मिलेंगी। फ़ोरम का जन्म बस अभी ही हुआ है¸ अत: खूब सारे विषय और ढेरों सामग्री की आशा अभी न करें¸ परंतु हिंदी के बढ़ते¸ ठोस कदमों के चलते इस फ़ोरम को समृद्ध होते देर नहीं लगेगी। 24 मई 2006 From ravikant at sarai.net Thu Jun 1 19:00:49 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 1 Jun 2006 19:00:49 +0530 Subject: [Deewan] ricksha gaan Message-ID: <200606011900.49408.ravikant@sarai.net> Shri ganganagr ke railway station par ek rickshaw walaa ye gana gaa raha tha...behatrin awaaz mein ..maine thorha sa mobile par record bhee kiya...philhaal...us gaane ko likh kar bhej raha hun.. Bhagwan do gharhee zaraa rickshaw chalaa ke dekh tu bhee humari tarah kabhee paisa kama ke dekh ghanti jo baj rahi vo teree nazar mein hai paidal jo hum chalate vo humare dil mein hai kuchh bhee na kar sake to batti jala ke dekh Bhagwaan do gharhee zaraa rickshaw chala ke dekh raveesh From gnj_chanka at rediffmail.com Fri Jun 2 12:27:13 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 2 Jun 2006 06:57:13 -0000 Subject: [Deewan] telephone booth Message-ID: <20060602065713.5143.qmail@webmail17.rediffmail.com>   टेलिफोन बुथों के बारे मे जानकर ठब ऐसा लगता है कि प्रवासियों के लिए यह वरदान ही है.वज़ीरपुर के इलाके का जब मैं चक्कर लगाता हुँ तो ऐसा हीं कुछ ठनुभव होता है. वज़ीरपुर के जिस इलाके का मैं ठध्धयन कर रहा हुँ,ठसल मे वह उत्तर बिहार से आए प्रवासी मजदुरों का ठड्डा है.भिन्न ज़िलों से आए इन प्रवासीयों के मन को बुथों के सहयोग से पढा जा सकता है.झुग्गीनुमा घरों मे रहने वाले ये लोग साम ढलते हीं टेलिफोन बुथों के इर्द्-गिर्द घुमने लगते हैं..सभी को बातें करनी है ठपने घर न ! इस इलाके के ठधिकतर बुथ भी प्रवासी हीं चला रहे हैं.इस कारण यहाँ का रुप भी बहुत कुछ श्रीनगर(बिहार्)की तरह है,ठन्तर केवल बुथों के रु मे है.यहाँ चलते-फिरते बुथ है .....या फिर कहीं रखा टेलिफोन का सेट्. यहाँ के बुथों के बारे मे और भी बहुत कुछ हैं.ठगली दोपहरी को. ग़िरीन्द्र -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060602/bcf0bc11/attachment.html From gnj_chanka at rediffmail.com Fri Jun 2 12:03:58 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 2 Jun 2006 06:33:58 -0000 Subject: [Deewan] ravisji ke geet Message-ID: <20060602063358.22319.qmail@webmail49.rediffmail.com>   भगवान को रिक्शा चलाने का न्योता देना कोई इनसे सिखे ...पर कलकत्ता मे नहीं,वहाँ तो मुश्किल होगी..खिंचना जो पड्ता है. वैसे रविशजी का यह आँखों देखा और रिकार्ड किया गीत ठच्छा लगा. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060602/0b135eb3/attachment.html From ravikant at sarai.net Fri Jun 2 16:23:29 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 2 Jun 2006 16:23:29 +0530 Subject: [Deewan] jitendra shrivastav ki kavitaayein Message-ID: <200606021623.29946.ravikant@sarai.net> जितेन्द्र श्रीवास्तव की चार कविताएँ (तद्भव डॉट कॉम के ताज़ा अंक से साभार, वैसे साइट से पढ़ें तो लगता ही नहीं कि चार मुख़्तलिफ़ कविताएँ हैं.). इसलिए भी कि ये दीवान के सरोकारों - शहर, भाषा - को संबोधित हैं. मैं तो कवियों की साज़िश में न चाहते हुए भी फँस ही जाता हूँ, आप भी मज़े लीजिए. रविकान्त 1. किन किन रास्तों पर कितना अजब होता है जीवन भी जाने किन किन कोनों से झांकता है अनुमान भी कठिन कि ठीक आने वाला पल कितने वर्ष पुराने किसी पल में पहुंचा देगा अचानक जैसे किसी दिन उठा लें आप अपनी पुरानी डायरी और यूं ही खोल दें कोई पन्ना जिसमें बिखरी हो पत्नी की हंसी बच्चों की शरारतें और नोट हो मीर का कोई शेर जैसे अचानक आपको मिल जाए दशकों बाद अपने कालेज दिनों का परिचयपत्रा जिसमें चिपकी तस्वीर की आंखंे भरी हों सपनों से और आपको याद आयें वे पगडण्डियां जिन पर आपने घण्टों इन्तजार किया उस लड़की का जिसके आगे आप धूल चटा सकते थे किसी विश्व सुन्दरी को जैसे अचानक मिल जाए वह प्रश्नपत्रा जिसको देने के बाद आप बिछड़े थे उन मित्रों से जिनके बिना रसहीन हो जाती थीं शामें बेमतलब लगने लगता था सब कुछ होने को कुछ भी हो सकता है जैसे अचानक ऐसा कुछ जैसा आपने सोचा भी न हो जैसे आप चुपचाप बैठे हों कहीं दूब पर फरवरी की धूप सेंकते हुए और अचानक कहीं दूर उड़ती एक पतंग आवाज दे आपको बांहें फैलाये और आपकी आंखों में उतरने लगे उसका रंग ठीक उन्हीं पलों में जब सर्द हवा गुदगुदा रही हो आपको और आंखों मंे उतर रहा हो कोई और भी दृश्य धीरे धीरे तो सोचिए क्या क्या याद आयेगा जीवन किन किन रास्तों पर हो आयेगा! 2. पाँच पंक्तियों की चिट्ठी यह एक धूल भरी दोपहर है जून की एक कागज फड़फड़ा रहा है पृथ्वी और आकाश के बीच न जाने इस कागज पर क्या लिखा होगा! कोई हिसाब कोई कविता या कोई चिट्ठी किसी आत्मीय के नाम कोई नहीं कह सकता कि यह कागज पृथ्वी पर ठीक उसी दशा में लौटेगा जिस दशा में उड़ा था किसी मेज से यह कहना भी मुश्किल है कि इस कागज की कोई अहमियत अब भी बची होगी किसी के जीवन में यही नहीं यह कहना भी मुश्किल है कि कागजों की कितनी अहमियत बची है कितने लोगों के जीवन में वैसे छोड़िए इन बातों को देखिए उड़ते हुए कागज को और हो सके तो बताइए कितने बरस पुराना होगा वह कितनी अनलिखी स्मृतियां दर्ज होंगी उस पर देखिए हवा का दबाव कम हो रहा है उस कागज को धरती खींच रही है अपनी ओर अभी कुछ पलों में वह हमारे पास होगा बिल्कुल दाहिने आप चाहें तो बांच सकेंगे उसे बिना किसी अवरोध के और शायद बता सकेंगे अपने अनुभव से लिखने वाले की मन: स्थिति वैसे रुकिए ! मैं देखता हूं पहले कुछ पहचाना सा लगता है यह इसे देख कर एक हूक सी उठी है अभी कलेजे में और अब मैं कह सकता हूं अपने अनुभव से कि आप चाहे जितने बड़े विशेषज्ञ हों लिखावट के पांच पंक्तियों की इस चिट्ठी को देख कर नहीं बता सकते तीव्रता मेरे धड़कनों की नहीं बता सकते कि उन्नीस सौ चौरानवे में इस एक चिट्ठी ने बदल दिया था मेरा जीवन बचा लिया था मेरी आत्मा को। 3. जरूर जाऊंगा कलकत्ता अभी और कितनी दूर है कलकत्ता! वही कलकत्ता जहां पहुंचे थे कभी अपने मिर्जा गालिब और लौटे थे जेहन में आधुनिकता लेकर मैंने कितनी कितनी बार दुहराया है वह शेर किसी सबक की तरह जिसमें दुविधा के बीच जीवन की राह तलाशता है शायर वहां सवाल ईमान और कुफ्र का नहीं वहां सवाल धर्मी और विधर्मी का नहीं वहां सवाल इक नयी रोशनी का है गालिब की यात्रा के सैकड़ोँ साल बाद मैं हिन्दी का एक अदना सा कवि जा रहा हूँ कलकत्ता मन में गहरी बेचैनी है इधर बदल गये हैं हमारे शहर वहां अदृश्य हो रहे हैं आत्मा के वृक्ष अब कोई आंधी नहीं आती जो उड़ा दे भ्रम की चादर यह जादुई विज्ञापनों का समय है यह विस्मरण का समय है इस समय रिश्तों पर बात करना प्रागैतिहासिक काल पर बात करने जैसा हो गया है हमारे शहर बदल गये हैं कलकत्ता भी बदल गया होगा पर अभी कितनी दूर है वह बैठे बैठे पिरा रही है कमर बढ़ती जा रही है हसरत कितना समय लगा होगा गालिब को वहां पहुंचने में महज देह नहीं आत्मा भी दुखी होगी उनकी उनके लिए कलकत्ता महज एक शहर नहीं था उनकी यात्रा किसी सैलानी की यात्रा न थी जब हम देखते हैं किसी शहर को वह शहर भी देखता है हमको कलकत्ते ने देखा होगा हमारे महाकवि को उसके आंसुओं को उसकी उदासी को उसके दुख को क्या कलकत्ते ने देखा होगा हमारे महाकवि की आत्मा को उसके भीतर बहती अजस्र कविता कोे? मैं कलकत्ते में कैसे पहचानूंगा उस पत्थर को जिस पर समय से दो हाथ करता कुछ पल सुस्ताने के लिए बैठा होगा हमारी कविता का मस्तक रेख्ते का वह उस्ताद मैं जी भर देखना चाहता हूं कलकत्ता इसलिए चाहे जितना पिराये कमर चाहे जितनी सताये थकान मैं लौटंूगा नहीं दिल्ली जरूर जाऊंगा कलकत्ता। 4. बहुत दिन हुए जीवन की दिशाओं में घुमरी लगाते धीरे धीरे बिला जाते हैं बहुत से ऐसे शब्द जिनकी उंगली पकड़ कर हमने सीखी थी कभी भाषा पहचानी थी कभी दुनिया जाने कब कैसे बदलता है मन का रसायन और कुछ शब्द लगने लगते हैं गंवारू जैसे बहुत दिन हुए नहीं सुने मैंने विसटुइया और भकजोन्हिया जैसे शब्द बहुत दिन हुए किसी के मुंह से नहीं सुना तरकारी बहुत दिन हुए मुझे भी 'भात` को 'भात` कहे बहुत दिन हए मुझे भी अपने ही मन को हाथ दिये। From gnj_chanka at rediffmail.com Sun Jun 4 20:44:51 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 4 Jun 2006 15:14:51 -0000 Subject: [Deewan] ye sharmaa jee kee telephone booth hai Message-ID: <20060604151451.10628.qmail@webmail47.rediffmail.com>   टेलिफोन बुथों का ठध्धयन जारी है.इसी बीच बुथों की रंग-बिरंगी आत्मा मेरे सामने नाचने लगी तो मेरा एक "मन्" जो खुद को कवि भी कभी-कभार कहता है.....कुछ कहने को मचल उठा..तो ठब वह आपके सामने है- "वज़ीरपुर के बुथ हैं कुछ ठजीब सामने से कुछ और ,और पिछे कुछ और, एक रंगीला बुथ नाम है-शर्माजी की बुथ चलाते हैं राजुजी..है जी सिवान के जैसा है नाम बुथ का वैसे हैं राजुजी.. टेलिफोनों के तारों..जो है दुर्-दुर तक फैला.. कराते है बात दरभंगा भी,तो सहरसा भी.. बुथ के पिछवाड में है इनका सी.डी. का दुकान शाम को लगती है यहाँ भीड प्रवासियों की... भोझपुरी,देसी और रंगीन सिनेमाओं के सी.डी.ये बेचते.. क्यों न हैं जो ये शर्माजी ! बुथ के संग इनके ये दुकान की ठजीब है कहानी कहते हैं कुछ और करते कुछ और शर्माजी, रंगीली बुथ की ये है छोटी कहानी.. कैसी लगी मेरी ये छुपे आत्मा की "रंगीन्" ज़ुबानी...." -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060604/c1799d73/attachment.html From ravikant at sarai.net Mon Jun 5 11:40:54 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 5 Jun 2006 11:40:54 +0530 Subject: [Deewan] brajesh ka lekh Message-ID: <200606051140.54278.ravikant@sarai.net> भारतीय पक्ष पत्रिका में छपे  ये लेख आप के नजर——- विद्रोह है या क्रांति क्या है न कि बालीवुड में कबीरा चल चला चल वाली स्थिति है। सही भी है। आखिर रूका क्या है जो रहेगा ।फिल्में आनी -जानी हैं। जो फिल्में दर्शक के दिमागों पर चढ़ जाती है वो जाने में थोड़ा वक्‍त लगाती है।ठीक यही स्थिति बड़े जगहों में ' रंग दे बसंती को ' लेकर भी हुई। फिल्म आई और दम भर चली। लोगों ने कई-कई बार फिल्म को देखा। वे लगातार बेचैनी महसूस करते रहे। गाने लगे-घर बता कर आए है , हम सुलगने आए है, खलबली है खलबली है खलबली………। तभी तो अखबारों-पत्रिकाओं के कई पन्ने खर्च हो गए इसके पीछे। बालीवुड में हर हप्‍ते दसों फिल्में आती हैं। किन्तु, इससे शहरी जीवन में बाहरी बदलाव को छोड़ कर कोई खास बात नहीं होती। यहां युवा वर्ग अपनी मर्जी से मनचाहा रफ्तार लेता है। 'धूम' आई तो बड़े शहरों में मोटरसाइकिलों की आवाज और रफ्तार एक साथ बदल गई। यह साफ-साफ दिखा। छोटे शहर इससे बिलकुल अछूते रहे, कस्बों की तो बात ही छोड़ दें। उसी तरह  ऐसा हरगिज नहीं है कि 'रंग दे बसंती' आई और बसंती-बसंती लगा पूरा देश करने। छोटे शहरों, गांव–कस्बों में कोई खलबली नहीं मची है।जबकि इस पंक्‍ति के लेखक का ख्याल है कि देश के युवाओं में हताशा, बेरोजगारी का जो आलम है उस स्थिति में यह असम्भब नहीं था। बालीवुड का इतिहास गवाह है कि पूरी फिल्म की तो बात छोड़ें केवल एक गाना ऐसी खलबली मचा सकता है। ऐसे कई उदाहरण हैं। गुलाम भारत में बनी 'बंधन' फिल्म का एक गीत है 'चल-चल रे नौजवान'।इसे कवि प्रदीप ने लिख था। कड़े सेंसर के बावजूद इस गीत ने अंग्रेजी हुकूमत को बड़ी परेशानी में डाल दिया था। महादेव भाई देसाई ने इस गीत की उपमा उपनिषद के मंत्र से की थी। बलराज साहनी उन दिनों बी.बी.सी.लंदन में थे। इस गीत को उन्होंने लंदन से प्रसारित कर दिया। या फिर आजाद भारत में –ऐ मेरे वतन के लोगो। हाँ! यह बात सही है कि तब परिस्थितियां दूसरी थी। पर , आज से भी लोग कहां संतुष्‍त हैं। नक्‍सली गतिविधियां, आतंकवादी घटनाएं रोज अखबारी खबर बनती है। हर अगली सुबह और भी साफ होता है कि युवाओं ने अपना सब्र खोया है।   लिहाजा , बालीवुड युवाओं के वास्ते फिल्म तो बना रहा है पर छोटे शहरों व कस्बाई-ग्रामीण युवकों को अपनी ओर नहीं खींच पाता। उनसे बालीवुड का सरोकार कम होता गया है। खैर! बालीवुड देशभक्ति की एक नई परिभाषा गड़ रहा है। फिल्मों में घटनाचक्र कुछ इस प्रकार बुने जाते हैं कि एक खासा दर्शक वर्ग के बीच द्वंद्व पैदा हो सके। वह कई अनाम भावों को जन्म देता है। युवकों में देशभक्ति का जज्बा पैदा करने से कहीं ज्यादा उन्हें विद्रोही बनाने की सफल कोशिश करता है। हु तू तू को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। ' रंग दे बसंती ' के पात्र गाते हैं- कुछ कर गुजरने को खुन चला खुन चला……। यहं हम उसकी प्रतिबद्धता को महसूस कर सकते हैं।खासकर बड़े शहरों में रह रहे या उस ओर पलायन कर चुके युवाओं में फक्कड़पन, गैर जिम्मेदाराना रवैया व पलायनवादी प्रवृति के बावजूद एक हूब्ब है। एक जुनून है। यही बातें वक्‍त आने पर उन्हें जिम्मेदार बना देती हैं। वह कुछ भी करने को तैयार दिखता है। अंतत: कर डालता है। हु तू तू फिल्म को ही याद करें। यहां नक्सलवादियों के साथ होकर लड़की मानवबम का रूप लेती है। और तत्कालीन मुख्यमंत्री की हत्या कर देती है जो उसकी मां थी। यह बात दूसरी है कि 'रंग दे बसंती'  फिल्म बड़ी होशियारी पिता की हत्या  पर देशभक्‍ति का मुलम्‍मा चढ़ा कर पेश करती है।यह अटपटा भी नहीं लगता है। पिछले साल एक फिल्म आई थी 'हजारों ख्‍वाहिशें ऐसी' इसमें विश्‍वविद्यालय के छात्र नक्सलवाड़ी आंदोलन की राह हो लिए थे। भूल-भुलैया में न रह कर क्या हम मान लें कि आजाद भारत का सच अब यही है। क्योंकि ,रक्षामंत्री की हत्या तो एक आतंकवादी घटना हुई ना। वह किसी विचार के तहत की गई हो या फिर भावावेश में आकर।सिनेमा होल तालियों की गड़गड़ाहट से इतना गूंजा कि पूछिए मत! यकायक महसूस हुआ कि दर्शक ऐसे समाधानों से सहमत है। 'हु तू तू ' को अंत तक देखने की हिम्मत कम ही लोग जुटा पाए थे। अत: वहां तालियों की आवाज कम ही सुनाई देती थी। यह भी कह सकते हैं कि ' हु तू तू ' से ' रंग दे बसंती ' तक के सफर में विद्रोही प्रवृति और प्रबल हुई हो। तभी तो गाने आए —– ऐ साल,वो अभी-अभी हुआ यकीं की आग है मुझमें कहीं हुई सुबह में जल गया सूरज को मैं निगल गया। एक बात गौरतलब है कि नई फिल्में कई दृश्‍यों व प्रसंगों का आभास मात्र कराती है। किन्तु , चुम्बन या उससे आगे के दृश्‍य स्पष्‍ट करती है। यहं प्रतीकों के दिन अब लद गए हैं। बाकी, जो खुलापन है वह हदतोड़ है। इस बदलाव को जैसी मर्जी हो वैसे देखें। बाजार की मांग के रूप में  या मानसिक खुलापम के तौर पर । वैसे    भी,सिनेमा दर्शकों की रुचि को परिष्‍कृत करने का जिम्मा कब का त्याग चुका है। अब आगे– व्यवस्था की खामी, विचारघारा की लड़ाई आदि कई चीजें बालीवुड दर्शकों को विभिन्न स्तरों पर महसूस कराता है। वह साफ करता है कि स्वतंत्र भारत में भी विरोध का कोई लोकतांत्रिक तरीका अपनाना बड़ा कठिन है। 'रंग दे बसंती' के घटना क्रम को ही याद कर लें या फिर 'हु तू तू' के दलित नेता को। यहां एक काबिल आदमी को जिन्दा लाश में तब्दील कर दिया जाता है। देश की सभी सरकारों ने अपने छोटे-बड़े कार्यकाल में कई बड़े-बड़े उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इस हमाम में कपड़े वाले कौन हैं इसे लेकर तो सतर्क निगाह के बावजूद जनता धोखा खाती रही है। ऐसे में बिस्मिल अश्फाक आदि की याद वो हमें क्या दिलाएंगे! बड़े आश्‍चर्य की बात है कि हममें बिस्मिल आदि को बाहरी निगाहों से देखने की आदत पड़ गई है। एक विदेशी लड़की हमें महसूस कराती हैं कि ऐसे व्यक्‍ति हमारे लिए कितनी अहमियत रखते हैं। वरना हमने तो अपनी आखें ही मूंद रखी हैं। जब नया युवा वर्ग अपनी स्मृति से इन क्रांतिकारियों को बाहर कर चुका है तो वह क्रांति और विद्रोह में कैसे फर्क कर पायेगा! वह कुछ भी करेगा तो हूब्ब में ही। आगे इसके परिणाम कभी अच्छे होंगे, ऐसी सम्भावनाएं बड़ी कम रहती हैं।  माचिस, हु तू तू से होता हुआ 'रंग दे बसंती' तक का अंत इसका प्रमाण है। एक बात और यहं देशप्रेम बहुत बिकाउ है और इसका सिने जगत के कुछ लोगों   ने  बड़ा फायदा उठाया है।  " रंग दे बसंती ' इसी  परंपरा की एक मौलिक कड़ी है। From girindranath at gmail.com Fri Jun 2 12:03:31 2006 From: girindranath at gmail.com (girindra nath) Date: Fri, 2 Jun 2006 12:03:31 +0530 Subject: [Deewan] Ravisji ke geet Message-ID: <63309c960606012333u6bb69d54y3a9b0d8b2403a553@mail.gmail.com> भगवान को रिक्शा चलाने का न्योता देना कोई इनसे सिखे ...पर कलकत्ता मे नहीं,वहाँ तो मुश्किल होगी..खिंचना जो पड्ता है. वैसे रविशजी का यह आँखों देखा और रिकार्ड किया गीत अच्छा लगा. From ravikant at sarai.net Wed Jun 7 15:28:19 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Jun 2006 15:28:19 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: anil pandey's posting : =?utf-8?b?4KSq4KS24KWN4KSa4KS/4KSu?= =?utf-8?b?4KWAIOCkieCkpOCljeCkpOCksCDgpKrgpY3gpLDgpKbgpYfgpLYg4KSu4KWH?= =?utf-8?b?4KSCIOCkpuClh+CktuClgCDgpKvgpL/gpLLgpY3gpK7gpYvgpIIg4KSV4KS+?= =?utf-8?b?IOCkleCkvuCksOCli+CkrOCkvuCksA==?= Message-ID: <200606071528.19710.ravikant@sarai.net> "Anil Pandey" se maafi sahit kyonki maine unke parि chayatmak bhag ka kuchh hissa maine edit out kar diya hai. ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: anil pandey's posting Date: Wednesday 07 जून 2006 14:43 From: "Ravi kant" To: ravikant at sarai.net पोस्टिंग—पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार मित्रों, पिछले कई दिनों से बहुत खुश हूं क्योंकि पहली बार मैंने अपना चेहरा टीवी पर देखा. छपास का अनुभव तो काफी हो चुका है लेकिन "टीवियाने" का सुख सराय की वजह से मिला है. रविकांत जी ने ही मुझे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली फिल्मों पर शोध करने करने के लिए प्रेरित किया था. तो अपने शोध कार्य का अनुभव बांटने से पहले मैं सराय का आभार व्यक्त करना चाहूंगा. इस लिए की जब मैं शोध कार्य कर मेरठ से वापस आता हूं तो सीधे सराय पंहुच कर जबरदस्ती सारा ज्ञान पलट देता हूं. शायद मेरे जैसे और भी लोग होंगे जो अपने ज्ञान का हाजमा ठीक करने के लिए वहां आते होंगे..यह सराय का बड़प्पन है....या सराय में काम करनेवालों की मजबूरी..इस बार मिलूंगा तो पूछूंगा... दोस्तों, कुछ दिनों पहले एनडीटीवी ने मेरठ में बनने वाली देशी फिल्मों पर आधे घंटे का कार्यक्रम प्रसारित किया. कार्यक्रम के बाद टाइम्स आफ इंडिया ने एंकर स्टोरी दी. अगले दिन मेरठ की फिल्मों पर संपादकीय भी लिखा. इसके बाद तो करीब सभी टीवी चैनलों ने इस पर कार्यक्रम दिखाया. इसका फायदा उन कलाकारों को मिला जो अभी तक गुमनाम थे. राष्ट्रीय मीडिया में आने से मेरठ के कलाकार उत्साहित हैं, उन्होंने बताया कि खबर के बाद मेरठ के शहरी इलाकों में भी देशी फिल्मों की सीड़ी की मांग होने लगी है, अभी तक ऐसी फिल्मों की मांग ग्रामीण इलाकों में ही थी. मेरठ मालीवुड़ (कृपया सुझाव दें कि मलयाली या किसी और फिल्म उद्योग को तो यह नाम नहीं दिया गया है) बन गया है. पांच सालों में यहां दो सौ से ज्यादा फिल्में बन चुकी हैं. इधर फिछले कुछ महीने से इसमें तेजी आई है. हर महीने 8-10 नई फिल्में बाजार में आ जाती हैं. पिछले रविवार को मेरठ गया तो पता चला की इस समय तीन फिल्मों की शूटिंग चल रही है. इस देशी फिल्म उद्योग में काम करने वाले निर्माता- निर्देशकों, अभिनेता-अभिनेत्रियों और तकनीसियनों की संख्या करीब 1500 है. जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार 50 करोड़ से ज्यादा का बताया जा रहा है. देशी सिनेमा लोगों का अपना सिनेमा है. यह गांव के लोगों के मनोरंजन के साधनों के लुप्त होने के कारण विकल्प के रुप में उभर रहा है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही नहीं पूरे देश में पारंपरिक लोक कलाकार रोजगार की तलाश में गांव छोड़कर शहर की तरफ पलायन कर रहे हैं. इसके अलावा बालीवुड फिल्मों के कनटेंट में आए परिवर्तन ने भी देशी सिनेमा को फलने फूलने में मदद की है. बम्बइया फिल्मों से तेजी से गांव गायब होता जा रहा है. पहले फिल्मों का जुड़ाव गांव से था. लेकिन गांव अब परदे से बाहर है. बालीवुड की कहानी अब मेंट्रो और विदेशों में घूमती हैं. ग्रामीण समाज की जड़े बहुत गहरी हैं. अपनी जमीन और तहजीब से जुड़ी फिल्में इन्हें आकर्षित करती हैं. देशी फिल्म उद्योग पूरी तरह इसी सिद्धांत पर आधारित है. जनसंचार की अकादमिक भाषा में इसे निकटता का सिद्धांत कहा जाता है. मेरठ के फिल्म निर्माता, निर्देशक और अभिनेता अखलाक रजा के सुनाए एक वाकए से इसे समझा जा सकता है. रजा ने वर्षों पहले एक फिल्म बनाई थी. नाम था गंगा के पार. इसकी शूटिंग पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही की गई थी. फिल्म में मेरठ निवासी राजबीर नाम का इंसपेक्टर जब यह कहता है, "मेरठ में उसके रहते कोई कैसे यहां स्मलिंग कर सकता है?" इस डायलाग पर मेरठ के सिनेमा हालों में तालियां थमती ही नहीं थीं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सिनेमाहालों में यह फिल्म खूब चली. यही वजह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली फिल्मों में "धाकड़ छोरा" और "ताऊ रंगीला" सारे रिकार्ड तोड़ देती है. 2 से 3 लाख में बनी ये फिल्में एक करोड़ रुपए से ज्यादा का कारोबार कर चुकी हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बनने वाली फिल्मों में बड़ा हिस्सा धार्मिक और कामेड़ी फिल्मों का है. इसके बाद यहां की कहानी और परिवेश को ध्यान में रख कर बनाई गई फीचर फिल्मों का नंबर आता है. इन फिल्मों में मैंने एक चीज गौर की है, वह है सामाजिक संदेश. ज्यादातर फिल्मों में एक संदेश होता है. सामाजिक बुराईयों को लेकर भी फिल्में बन रही हैं, चर्चित गुड़िया कांड और आपरेशन मजनूं पर आधारित फिल्म बनाई जा रही है. इन फिल्मों के निर्माताओं का कहना है कि फिल्म के जरिए यह संदेश देने की कोशिश की जाएगी की तरक्की के इस जमाने में हर समस्या का स्वस्थ हल निकाला जा सकता है. देशी फिल्मों का निर्माण करने वाली प्रतिष्ठित कंपनी सोनोटेक के मालिक और निर्माता- निर्देशक हंसराज के मुताबिक, "हमारी ज्यादातर फिल्में सामाजिक और शिक्षाप्रद होती हैं. ऐसी फिल्में ही लोग परिवार के साथ देखना पसंद करते हैं." मेरठ की ऐश्वर्या राय के नाम से जानी जाने वाली सुमन नेगी भी अपनी फिल्मों की सफलता का राज "फिल्म का साफ सुथरा होना" बताती हैं. हालांकि ऐसा भी नहीं की सारी फिल्में साफ सुथरी होती हैं. कुछ फिल्मों के टाईटिल का मैं जिक्र करना चाहूंगा मसलन ठरकी बुढ्ढा और रम्पत हरामी करे मनमानी. ऐसी फिल्में खास दर्शक वर्ग के लिए बनाई जाती हैं. कह सकते हैं कि ये फिल्में "A" सर्टीफिकेट की श्रेणी वाली होती हैं. देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस गोपाल टाटा ऐसी फिल्मों का भविष्य नहीं देखते. उनका कहना था कि शुरुआती फिल्मों की सफलता ने लोगों का ध्यान इस और खींचा और अब आलम यह है कि हर गली मोहल्ले में निर्माता-निर्देशक और अभिनेता पैदा हो गए हैं. ऐसे में गुणवत्ता वाली फिल्में नहीं बन पा रही हैं. लेकिन ऐसा ज्यादा दिन तक चलने वाला नहीं है. मित्रों, टाटा जी की बात सही है. शोध के दौरान मैने पाया कि फिल्में बनाना मेरठ में कुटीर उद्योग जैसा हो गया. इस कुटीर उद्योग का विस्तृत वर्णन जल्दी ही आप के सामने पेश करुंगा.. ------------------------------------ From mahmood.farooqui at gmail.com Fri Jun 9 11:45:01 2006 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Fri, 9 Jun 2006 11:45:01 +0530 Subject: [Deewan] o bhai, koi to meri posting par bolo In-Reply-To: <20060530170420.80472.qmail@web8603.mail.in.yahoo.com> References: <20060530170420.80472.qmail@web8603.mail.in.yahoo.com> Message-ID: Haan bhaiyya mrityunjay...aapka aavahan na aata to bhi main aapse sampark sadhne vaala tha... University ke alag alag rangon ko aapne khoob pakra hai, iske liye badhai to aapko milni hi chahiye aur de bhi raha hoon, yeh alag baat hai ki aapne pahle zabardasti kar di...lekin badhai to phir badhai hai, jis haal mein lile qabulni chahiye. Ab kuchh sawaal- Left naam ka ek jantu, jiska aapne thora sa zikr kiya tha, uska zara aur tafseeli khulasa keejiye? Chhatra raajneeti mein voh kis satah par maujood hai? Rajneti ke bahar uska kya astitva hai? Left chhatra netaon ka establishment left parties se kya sambandh hai? Science aur Maths ke teachers, university mein aur degree colleges mein, tuition vyaapaar se kis tarah jure hue hain? Aur agar voh tuition institute mein parhane ko taiyar hain, to isse unki qabiliyat aur unke motivation ke baare mein kya pata chalta hai? Jab koi local leader ya visiting national leader, ateeq ahmed se lekar mmj tak shahar mein aata hai to uske swagat ke liye jo ghunda-bheer ikathhe hokar naare lagati hai usmein kya kewal chhatra neta hote hain, ya unke darbari ya aam chhatron ko bhi pralobhan dekar ya dhamkiya kar ikathha kiya jata hai? Chhatra sanghon ke paas kya kuchh saalana budget bhi hota hai, yaani yeh maardhaar kisi direct aarthik faayede ke liye bhi hoti hai ya kewal aparoksh bhatton ke liye? Ek to hue chhatra neta, yaani padaadhikaari-ek hue unke aaspaas ghoomne vaale chamche, ek hui bheer? To kya bheer bhi chhhatra netaaon mein gini jaayegi? Aur ek aakhri sawaal, shahar ke local prashasan, politician-contractor-builder nexus mein chhatra raajneeti kis tarah se dakhalandazi karti hai? Jab univeristy ke chhatron ka bhavishya itna dhundhla hai to phir yeh maanna bara mushkil hai ki koi student aisa bhi hoga jo university aakar sirf parahi ke boote par apna bhavishya ujjwal bana sakta hai? Kya aise bhi kuchh larke larkiyan hain, hue hain? Aur agar hain to phir voh kahan se panap rahe hain, kyun aur kaise? isse baaqi parivesh ke baare mein kya nishkarsh nikale ja sakte hain? Pahla ee sab batava to hum tuhke kuchh aur bataavab? On 30/05/06, mrityunjay tripathi wrote: > saheban aur khas kar mahmood bhai, mana ki main jo likhta hoon vah tareef ke > kabil katai nahi hota par hoozoor, galatian ginane me aapka kya jata hai. > chacha ne arz kiya tha so aapko pesh kar raha hoon ya > rab ve samjhe hain n samjhenge meri bat de aur dil > unko jo n de mujhko juban aur ........ali sardar jafari ki tarah sheron par > coma lagana mere bas ka nahi hai...... aaiye aapko liye chalte hain > allahabad university ke women's hostel jahan se lagbhag 50 larkiyan > aarakshan ka samarthan karne medical collage pahunchi hui hain. inki baten > suniye.... neta is desh ko ''chamaristan'' bana kar chorenge........hostel > se bahar nikalne ki khabar gar pahunchi to bhi papa ne jiyada danta > nahi................itane sundar handsom doctors, inginiers se bat karne ka > mauka mila.....................aadi....aadi saji dhaji > ye larkiyan aam taur par upper middle class ki hain jinke pita purvanchal ke > savarn jation se aaye hue officers, thekedar aur neta hain.abhi tak larkion > ke is tabke ko shayad hi kisi ne kisi bhi movment me dekha ho.hostel ke > kamron se lekar kabhi kabhar bazar tak jane vali in larkion ke liye yah > mauka hai bahar niklane ka. allahabad me university me is muddey par koi > golbandi savarn chhatraneta nahi kar pa rahe hain. n hi aur dusare > vishvavidyalyon se is mudde par koi bari golbandi dikh rahi hai. keval > proffetionals ke rajdhanio me pradarshan ho rahe hain.........aisa kyun hai > ? is bat me kitani sachchhai hai ki corporate jagat abhi political system > aur power shering ke logic ko nakarte hue apni fauri jaroorat ke liye kam > kar raha hai aur yah virodh darashal niji chetra me aarakshan n lagu karne > ki chetavani hai ? khair U.P.aur bihar me laloo aur mulayam ke liye > congress ne musibat kari kar di hai. inke social combinetion me congress > darar dal rahi hai. khair.... media me bhi aarakshan ki koi mang kar sakta > hai kyonki aakhirkar patrkar log ne ''aarakshan ki aag '' lagva kar hi dam > liya. mrityunjay allahabad > > ________________________________ > Yahoo! India Answers: Share what you know. Learn something new Click here > Send free SMS to your Friends on Mobile from your Yahoo! Messenger Download > now > > > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > From gnj_chanka at rediffmail.com Mon Jun 12 12:12:24 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 12 Jun 2006 06:42:24 -0000 Subject: [Deewan] telephonebooth Message-ID: <20060612064224.26657.qmail@webmail28.rediffmail.com>   टेलिफोन बुथों की स्थिती वजीरपुर में- प्रवासियों का ठड्डा,खासकर बिहार से आए प्रवासियों का.दरठसल ये लोग यहाँ के फैक्ट्रीयों में मजदुरी करते हैं. कुछ तो परिवार के संग रहते हैं....और कुछ ठकेले..वजीरपुर के जेजे कालोनी मे इनकी आबादी देखकर आपको बिहार के उन गाँवों की तस्वीर साफ झलकने लगेगी जहाँ आप एक दफे भी गए हों... बोली-बानगी ठेठ वहीं की. भोझपुरी, मगही , मैथली भाषाऔं....से आप यहाँ रु-ब-रु हो सकते हैं.इस कमाउ शहर दिल्ली की यहाँ तस्वीर बहुत कुछ आपको समझ मे आ जाएगी...किस प्रकार दिल्ली हर एक को ठपने आँचल मे पनाह देती है. यहाँ के ठधिकतर बुथों को ये प्रवासी हीं चला रहे हैं.टाटा, रिलायंस के फिक्सड वायरलेस सेट वाले बुथ यहाँ ज्यादा है.जैसा कि रमेश कहता है-"इ सेट आराम से मिल जाता है..कोनो सरकारी झंझट नाहि... " इन बुथों पर बातें जो होती है वो ठधिकतर एसटीडी हीं.लोग ठपने गाँव्-घर बात करते हैं.लोकल होती है(ऐसी बात नहीं है कि लोकल नहीं होती है)श्यामलाल बताता है" मोबाईल से लोकल बतिया लेते हैं...." एक बात जो मुझे यहाँ पता चला कि "पोस्टकार्ड आधारित संपर्क-सूत्र' का किस प्रकार ये बुथ उनका शासन खत्म किए..मधेपुरा बिहार का इकबाल खाँ कहता है-"पहले मनीआडर्र करने के बाद भी एक ठो पोस्ट्कार्ड भेझना पङता था...कि मनीआडर्र भेझ रहे हैं...लेकिन जब से गाम में चाचा का बुथ खुलल है..एक बार फोन कर देते हैं तो ठब्बजान पोस्टमास्टर साब से पुछते रहत हैं कि मनीआडर्र कब तक आबेगा. ये सब आखिर हमारी तकनीकि सफलता का ग्रामीण स्तर तक पहुँच का प्रमाण है. ठब इकबाल के ठब्बा जान ये ना कहेगें कि- "चिट्ठी न कोई संदेश जाने वो कौन सा देश् जहाँ तुम चले गए.................." गिरीन्द्र (वहाँ के फोटो को मे ठपने ब्लाल पर पोस्ट कर दुगां) -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060612/e7603b91/attachment.html From tetra at tetrain.com Wed Jun 14 18:00:38 2006 From: tetra at tetrain.com (tetra) Date: Wed, 14 Jun 2006 18:00:38 +0530 Subject: [Deewan] test message please ignore Message-ID: <4490016E.4070708@tetrain.com> The mailman has been upgraded version 2.1.8. This is testing message to test successful delivery of message. From tetra at sarai.net Wed Jun 21 16:47:27 2006 From: tetra at sarai.net (tetra at sarai.net) Date: Wed, 21 Jun 2006 13:17:27 +0200 Subject: [Deewan] test Message-ID: <31f8518ed5aa6613b0ca5db57663f0f6@sarai.net> test From ravikant at sarai.net Thu Jun 22 14:13:16 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 22 Jun 2006 14:13:16 +0530 Subject: [Deewan] sameeksha: shaharnama - bhag 1 Message-ID: <200606221413.17671.ravikant@sarai.net> chandan ji ko shukriya sahit. ravikant samayaantar: June, 2006.(Greeshma 2006) समीक्षा लेख: रोज़ इस शहर में हुक्म नया होता है सुरेश पंडित दीवाने सराय02: सं : रविकान्त, संजय शर्मा, सराय-विकासशील समाज अध्ययन पीठ+वाणी प्रकाशन द पास्ट इज ए फॉरिन कंट्री में डेविड लावेन्थल लिखते हैं 'जब हम एक बार यह जान जाते है कि पुरा वशेष' इतिहास और स्मृतियां निरंतर बदलती रहती हैं तो हम अतीत की कैद से बाहर आ जाते हैं। हम किसी पवित्र मूल रूप की निरर्थक चाह में हताश नहीं होते हैं। इसलिए हमें ठीकरों को भी उतनी ही अहमियत देनी चाहिए जितनी हम अपनी विरासत की सचाई को देते हैं। अस्तित्व में आई कोई भी चीज अनछुई नहीं रहती और कोई भी ज्ञात तथ्य कभी अपरिवर्तनीय नहीं रहता। मगर इन तथ्यों से हमें दुखी नहीं होना चाहिए बल्कि मुक्ति की ओर बढ़ना चाहिए। इस बात को महसूस कर लेना बेहतर है कि हमारा अतीत सदा परिवर्तनशील रहा है बामुकाबले इसके कि हम उसे हमेशा, हर हाल में यकसां साबित करने की कोशिश करते रहे।' अतीत के बारे में यह वैज्ञानिक दृष्टि जहां एक ओर पुनरोत्थानवा द की संभावनाओं पर पर्दा डालती है वहीं उन धार्मिक कट्टपंथियों की सोच के खोखलेपन को भी उजा गर करती हैं जो रामराज्य या सतयुग फिर से इस वसुंधरा पर लाने के झांसे देकर लोगों को मूर्ख बनाते हैं और अपने स्वार्थ साधते हैं। जिस तरह गया समय फिर लौट कर नहीं आता उसी तरह अतीत की पुनरावृत्ति भी कभी संभव नहीं होती।पहले हम प्रकृति की गोद में बसे गांवों में रहते थे। गांव कस्बों में बदले। कस्बे नगरों में। अब नगर महानगर और महानगर मेट्रो-कोस्मो बनने की राह पर हैं। प्रकृति और मनुष्य की तरह नगर भी बदल रहे हैं। गांवों से नगरों की ओर बढ़ी आ रही भीड़ बहुत कुछ अपने पी छे छौड़ती आ रही है लेकिन जो कुछ साथ ला रही है उसका भी बड़ा हिस्सा शहरों में अपने आपको समायोजित करने के लिए उसे त्यागना पड़ा रहा है। इस के बावजूद उसके पास कुछ ऐसा भी है जो शहरों की संस्कृति को, उनके भौतिक स्वरूप को बदल रहा है। गत सदी के आखिरी दशक की शुरूआत से इस परिवर्तन चक्र का घूमाव तेज से तेजतर होता गया है। शहर में नित्य प्रति हो रहे बदलाव की एक विशेषता यह है कि वह तेज होते हुए भी इतना सूक्ष्म होता है कि यकायक दिखाई नहीं देता। इसमें जहां सर्वत्र एकरूपता देखी जा सकती है वहीं इसकी अपनी पहचान भी धूमिल होती दिखाई नहीं देती। अर्थात् दिल्ली जिस तरह के विकास की ओर अग्रसर है उसी ओर बेंगलूर, हैदराबाद या चेन्नई भी बढ़ रहे हैं। इस पर भी वे अपनी पहचान को भी शहरी लोग देख नहीं पाते। यह अध्ययन इसलिए अधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पिछले कई दशक तक हम गांव के प्रति इतने मोहासक्त थे और यह कहते गर्वस्फीत होते रहते थे कि भारत माता ग्रामवासिनी है और देश की 80 प्रतिशत जनता गांवों में बसती है। हमारी संस्कृति ग्राम प्रधान है। परंतु अब उस ग्राम-मोह से मुक्ति लेकर हमें स्वीकारना होगा कि शहर हमारे जीवन का अभिन्न अंग बन गया हैं। क्योंकि खेती से अब सकल घरेलू उत्पाद का केवल 25 प्रतिशत ही आता है जब कि 60 प्रतिशत लोग उस पर निर्भर बताये जाते हैं। गांवों की पूरी या आधी बेरोजगारी अपना पेट पा लने के लिए शहरों का मुंह ताकती है। शहरी सीमाओं के लाल डोरे हम रोज आगे और आगे खिसकते जाते हैं। हाल ही में प्रकाशित हिन्दी का मौखिक इतिहास के पन्ने पलटें तो पता लगता है कि हिन्दी के तमाम अड्डों, मिलन केंद्रों के विवरण शहरों से संबद्ध हैं। यह शहरनामा शहर के नज़रिये से समाज को देखने की एक कोशिश है। इसमें शहर का वह इतिहास है जिसने समाज को वर्तमान अवस्था तक पहुंचाया है। यह इतिहास यहां के स्थापत्य, किंवदंतियों और स्मृतियों के स्म्मिश्रण से निर्मित हुआ है। बानगी के बतौर जहां दिल्ली को अहम मिला है वहीं बनारस, पटना, इलाहाबाद, कोलकाता पर भी भरपूर डा ली गई है। विश्व-ग्राम की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए नाइजीरिया के कानो और चीन के बेजिंग जैसे शहरों को भी शामिल कर लिया गया है। इन शहरों में होने वाले मेलों, तीज त्यौहारों, धार्मिक अनुष्ठानों, साप्ताहिक हाट-बाज़ारों, ऐतिहासिक सरायों, सेक्स के नव्यतर प्रयोगो, गालियों की उपयोगिताओं, गुप्त रोगों की बनावटी विभीषिकाओं जैसे गोपनीय/अगोपनीय परिप्रेक्ष्यों को काफी मेहनत व ईमानदारी से जांच कर सामने रखा गया है। यों तो इस दीवान का आरंभ कोलकाता से होता है पर दिल्ली से संबोधित सामग्री की बहुतायत है। दिल्ली की एक सुव्यवस्थित शहर के रूप में तलाश गालिब की शेरो-शायरी से होती है। गालिब को भी अपने ज़माने के शहर से कुछ उसी तरह के शिकवे-शिकायतें थी जिस तरह की अक्सर आज भी लोग करते सुनाई देते हैं। उनकी अपनी औकात इस शहर में क्या है, गालिब कुछ इस तरह बयान करते हैं: 'हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता वगरना शहर में गालिब की आबरू क्या हैं। बादशाह की तारीफ ही उसे थोड़ा बहुत रुतबा बख्शती है, अगर वह न करे तो शहर उसे दो कौड़ी की इज्जत भी अता करने को तैयार नहीं होता। शहर रोज अपना रंगरूप बदलता है। गालिब हैरान हैं आखिर ऐसा क्यों होता है- 'रोज इस शहर में हुक्म नया होता है। कुछ समझ में नहीं आता कि क्यो होता है। वह दिल्ली के साथ कोलकात, लखनऊ, रामपुर तथा हैदराबाद के बारे में इसी तरह के अपने विचार रखते हैं, लेकिन दिल्ली की बेमुरव्वती को वह भुला नहीं पाते: 'बादशाही का जहां ये हाल हो गालिब, तो फि र। क्यों न दिल्ली कर हर इक नाचीज नव्वाबी करें' आखिर उनकी इल्तिजा पर भी गौर की जिये: 'दिल्ली के रहने वालो असद को सताओ मत। बेचारा चंद रोज का यां मेहमान है। रेमंड विलियम्स किसी किताब के हवाले से उस ग्राम के क्षरण की ओर जो पहले विश्व युद्ध तक मौजूद थी, उस शहरी तहजीब के उसकी जगह आने की बात करते हैं जो उनकी पकड़ में नहीं आ रही है। लेकिन यह दर्द उनका ही नहीं है उनसे पहले के भी बहुत से लेखक, कवि उस पुरानी व्यवस्था के बहुत से लेखक, कवि उस पुरानी व्यवस्था के ध्वस्त होते जाने का सियापा करते सुनाई देते है जो वास्तव में गांव-देहा त से जुड़ी हुई थी। पर बाद के लोग पुराने शहर के उजड़ने और नए के बसने से भी बेचैन होते दिखाई देते हैं। ऐसा लगता है कि हर शहर अपने भूगोल में ही नहीं बदल रहा है बल्कि उच्च कोटि के औद्योगिकरण के परिणामस्वरूप मन और वचन से भी बदल रह है। रेमंड विलियम्स शहर के इस विशालकाय एवं बहुआयामी होते जाने से विस्मित भी हैं तो पर्यावरण के विनाश, यातायात की सघनता, आवास की किल्लत और विकराल होती व्यवस्ता आदि से भी परेशान होते हैं। बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रकाशित महेश्वर दयाल की क्लासिक कृति दिल्ली जो एक शहर है उस तरह का विलाप सुनाई नहीं देता 1914-15 के आसपास लिखू गई ख्वाजा हसन नियामी की किताब बेगमात के आंसू और दाग देहलवी का कलाम भी दिल्ली को बढ़ाई करते नजर आते हैं। दाग तो यहां तक कहते हैं: 'मेरे दिल से दाग पूछे कोई दिल्ली के मजे, लुत्फ था दोनों जहां का इक जहां आबाद में। 'थोड़ा आगे बढ़े तो दिल्ली एक नये रूप में सामने आती है। इसमें अपराध है, सनसनीखोज कारनामें हैं और पनपता भ्रष्टाचार है। देहली का ठग (नदीम सहबाई 1933), दिल्ली का दलाल (पांडेय बेचन शर्मा' उग्र' 1928), दिल्ली की गुण्डा शाही (शंकरलाल गोयल 1930), दिल्ली का व्यभिचार (ऋषभचरण जैन 1929) जैसी किताबों के शीर्षक ही दिल्ली के आधुनिक बनने के लक्षणों को बता देते हैं। देश का बंटवारा यहां की जनसंख्या में एक आतंककारी फैलाव पैदा कर देता है और फिर दो सभ्यताओं के बीच टकरहाट शुरू हो जाती है दिल्ली एक ऐसी भीड़ के शहर में तब्दील हो जाती है जहां सब कुछ मिल जाता है पर अपनापन नहीं मिलता। क्षण-क्षण परिवर्तनशील दिल्ली ने अपने लोगों के बाह्मा परिवेश को तो बदला ही है उनकी निजी जिं दगी में भी जबर्दस्त भूचाल ला दिया है। उस पर गौर करने से पहले मंटो की उस कहानी को ज़रा याद कर लें जिसमें बंबई की खोली में रहने वाला एक व्यक्ति अपने युवा होते भाई को रोजगार दिलाने के लिए अपने साथ ले आता है। रात को उसे अपनी बगल में झीने से पर्दे की ओट में सोते हुए भाई-भाभी की रतिक्रियांए सोने नहीं देती। आगे चलकर जब उसकी भी शादी हो जाती है तो वह अपनी पत्नी के साथ पर्दे के इस ओर वही सब करना चाहता है जो उसके भाई-भाभी करते हैं। पर कर नहीं पाता। यह संंकोच जनित असमर्थता पति-पत्नी में भयानक मानसिक तनाव पैदा करती है। आखिर एक दिन वे दोनों किसी पार्क के एक निर्जन कोने में मिलने का उद्यम करते हैं कि पुलिस का एक सिपाही सार्वजनिक स्थान पर व्यभिचार करने के अपराध में उन्हें पकड़ लेता है। किसी भी मेट्रो सिटी के लिए अनजानी नहीं है। ऐसे शहरों में अब तेजी से सेक्स क्रांति का बिगुल बजने लगा है। प्राइवेसी अब पार्कों को लांघती हुई सड़कों पर चली आई है, क्योंकि घरों में भीड़ बढ़ गई है। सेक्स को लेकर पहले उभरने वाली वर्जनाएं अब तेजी से ध्वस्त होती जा रही हैं। फुटपाथी साहित्य की बजाय छोटे और बड़े पर्दे पर दिखाई जाने वाली सामग्री यौन-शिक्षा की जिम्मेदारी तो निभा ही रही है लोगों से सवाल भी पूछ रही है जो कभी मिशेल फूको ने पूछा था,'एक रोज शायद... लोग यह सवाल पूछेंगे कि अपनी सबसे पुरजोर कारस्तानियों पर छायी चुप्पी को बनाये रखने पर हम इस कदर आमादा क्यों है?' जो काम एक प्राकृतिक नियम के तहत होता है उसे हम प्राकृतिक ढंग से क्यों नहीं करते। क्यों उसके लिए पर्देदारी ज़रूरी हो जाती है और तभी एक और वाकया याद आ जाता है। उन दिनों पहले से रिजर्वेशन कराके ट्रेन में सवार होने का चलन आम लोगों की सोच के लिए बहुत दूर की बात थी। बरौनी जंक्शन से दिल्ली के लिए पंजाब मेल में बैठना था। सारी गाड़ी में कहीं बैठने की गुंजाइश दिखाई नहीं दे रही थी। आखिर सेना के लिए आरिक्षित एक डिब्बे में घुस जाता हूं थोड़ी- सी नोक-झोंक के बाद उसमें बैठे फौजी मुझे जगह दे देते हैं वे सब छुट्टियों में अपने-अपने घर जा रहे हैं। काफी लंबे अरसे बाद घर जाने की खुशी उनके चेहरों पर थिरक रही है। गाड़ी चल दी है और अचानक एक और यात्री पायदान पर लटक जाता है। बड़ी जद्दोजहद के बाद इस शर्त पर उसे अंदर आने दिया जाता है कि वह अगले स्टेशन पर उतर जायेगा। सामान के नाम पर उसके पास एक थैला है, बस। थोड़ी देर वह चुपचाप खड़ा रहता है। फौजी अपने कामों में लगे रहते हैं। और फिर वह मजमेबाजों की तरह बोलना शुरू करता है और बताता है कि उसके पास हिमालय का दुर्लभ जड़ी-बूटियों से बनाई गई तक ऐसी दवा है जिसके सेवन से कमज़ोर से कमज़ोर आदमी भी कई औरतों को संतुष्ट कर सकता है। वह प्रभावी अंदाज में दवा की विशेषताएं बताये जा रहा है और मैं सोच रहा हूं यह गलत लोगों के सामने अपना हुनर दिखा रहा है। ये सब इतने हृष्ट-पुष्ट लोग हैं। भला इन्हें इस तरह की दवा की क्या ज़रूरत है। पर तब मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता जब मैं देखता हूं कि पहले एक फौजी झिझकते हुए वह दवा लेता है फिर दूसरा-तीसरा और आखिर में लगभग सभी दवा खरीद लेते हैं। मुझे लगता है कि शारीरिक स्वस्थता भी आदमी को आश्वस्त नहीं करती कि वह औरत को संतुष्ट करने में समर्थ है और वह स्वाभाविक रतिक्रिया से जो आनंद सुलभ होता है उससे ही तृप्त नहीं होता तथा उसे अधिकाधिक पाने की कोशिश में लगा रहता है। ये दोनों ही कामनाएं, कमजोरियां ऐसी हैं जो ताकत को एक जिंस बनाकर बाजार में बेचने/खरीदने के लायक बनाती हैं। कभी कविराज हरनामदास बी ए ईर हकीम बीरूमल अर्यप्रेमी के बड़े-बड़े विज्ञापन सभी अखबारों में फौलादी ताकत बेचने के लिए छपते थे। अब उनके खानदानी शफाखाने तो नहीं रहे लेकिन सेक्स स्पेशलिस्टों व गुप्त रोग विशेषज्ञों की भीड़ ज़रूर दिल्ली में पैदा हो गई है। उनके पैंपलेट हर सार्वजनिक पेशाबघर की दीवारों पर चस्पां दिखाई दे सकते हैं। पिछले दिनों 'वियाग्रा' ने सेक्स की दुनिया में कितना बड़ा तहलका मचाया था इससे शायद ही कोई अपरिचित रहा हो। From ravikant at sarai.net Thu Jun 22 14:22:59 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 22 Jun 2006 14:22:59 +0530 Subject: [Deewan] shaharnaama sameeksha - bhag2 Message-ID: <200606221422.59769.ravikant@sarai.net> ...gataank se aage आजकल दिल्ली मे पोर्न (अश्लील/कामोउत्तेजक) साहित्य व ब्लू फिल्मों का मिलना उतना मुश्किल नहीं रहा जितना पहले कभी हुआ करता था। ब्यूटी/मसाज पार्लरों में सेक्स तृप्ति के सभी साधन अब आसानी से मिल जाते हैं। जी. बी रोड़ जैसे पारंपारिक चकलाघर अब पुराने हो गए हैं। इंटर्नेट ने सेक्स व्यापार को हाईटेक आयाम दे दिए है। 'गे पार्टनरों' (सैमलैंगिक साथी) तथा 'डेटिंग' (मिलन) के लिए साथियोँ की आवश्यकता के विज्ञान अब सर्वत्र देखे जा सकते हैं। इस तरह दिल्ली में सेक्स जीवन का परिदृश्य निरंतर गतिशील है। यहां साप्ताहिक बाज़ार अभी तक जारी है। अनुमान है कि सप्ताह के प्रत्येक दिन विभिन्न इलाकों में 400 बाजार लगे होते हैं। इनमेँ हर महीनें 70 करोड़ का क्रय-विक्रय होता है और दिल्ली नगर निगम को इनसे 70 लाख रुपये की आमदनी। इन घुमंतु बाजारों में दुकान लगाने वाले अधिकतर लोग उत्तरप्रेदश से आए हैं। ये हिंदु-मुसलमानों की दलित, पिछड़ी जातियों से संबंध रखते हैं। इनमें लगभग 50 प्रतिशत के पास अपने निजी मकान हैं। उनकी औसत आय तीन से चार हजार रुपये है। इन बाजारों की अपनी श्रेणियां हैं, जो कोलोनियों में रहने वालों की आय के अनुसार निर्धारित हुई हैं। इनमें बिकने वाले प्रसाधन, सिले हुए वस्त्र और जूते आदि ऐसी वस्तुएं होती हैं जिन्हें अधिकतर गृह उद्योग के बतौर दिल्ली में ही बनाया जाता है। ये बड़ी व विख्यात कंपनियों के उत्पादों की प्राय: नकल होती हैं जैसे-मार्गों की तरह फेयर        एंड केयर सौंदर्यवर्धक क्रीम या पेप्सोडेंट की तरह प्योरडेंट टूथपेस्ट। उनकी विशेषता यह रहती है कि ये असली की तरह दिखाई देने पर भी कीमत में सस्ती होती हैं। यह तब होता है जब हर विक्रेता को प्रतिदिन दिल्ली नगर निगम व पुलिस के सिपाही की जेब गरम करनी होती है। ये बाजार उन कोलोनियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र बने रहते हैं, जिनके निवासी, खासकर महिलाएं अल्प आय में गृहस्थी चलाती हैं लेकिन जिनकी आंखों में बड़े व हसीन सपने पलते रहते हैं। दिल्ली में अब ऐसे लोग बहुत ढूंढने के बाद ही मिलेंगे जिन्हें यहां का मूल निवासी कहा जा सकता है। विभाजन से पहले भी लोग यहां व्यापार-मजदूरी करने आते थे पर उनकी संख्या बहुत कम रहती थी। विभाजन ने जिस भीड़ को दिल्ली में धकेल दिया था, वैसी भीड़ अब हर साल इस नगर में स्वेच्छा से चली आती है और यहीं की होकर रह जाती है। यह भीड़ आसपास के राज्यों की ही नहीं केरल, तमिलनाडू, कर्नाटक व आंध्र के निवासियों की भी होती है। बिहार, उत्तरप्रेदश, हरियाण और पंजाब के लिए तो दिल्ली अब दूसरा घर बनती जा रही है। हर राज्य का निवासी अपनी पहचान बनाने के लिए अपने हमवतनों से जुड़ा रहता है और अपने शादी-ब्याह, तीज-त्यौहार उनके साथ मिलकर ही मनाता है। राजनेता अपने अपने वार्डों, विधानसभा, संसदीय क्षेत्रों में रह रहे इन विभिन्न राज्यों के बाशिंदों को वोट बैंक के रूप में देखते हुए इनकी आवश्यकताओं/सुविधाओं पर विशेष ध्यान देने लगे हैं। यह इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का ही कमाल है कि छठ पूजा, दुर्गापूजा, गणेश जयंती, ओणम और लोहड़ी जैसे पर्व जो दिल्ली के मूल निवासियों के लिए कभी अनजाने थे अब प्रतिवर्ष अधिकाधिक धूमधाम से मनाये जाने लगे हैं। दिल्ली का रहन-सहन, रीति-रिवाज, या यातायात ही नहीं बदल रहा है, खानपान में भी तेजी सी परिवर्तन आ रहा है। व्यस्तता भरी जिंदगी और समयाभाव के चलते दिल्ली के अधिकतर लोग खानपान के लिए बाजार पर निर्भर हैं। पहले कभी परांठे, पूरी सब्जियों से पेट भरने वाले लोग समोसा, कचोरी, फिर छोले भटूरे व कुलचे भटूरे और सांभर बड़ा/डोसा से अब पेटीज, पिज्जा व हैमबर्गर तक आ पहुंचे हैं। इसी तरह शिकंजी, सोडा, चाय, काफी, गन्ने का रस के बाद अब कोक, पेप्सी का आचमन होने लगा है। ढाबों, होटलों, रेस्ट्राओं के बाद फास्ट फूड चेन्स का, पिज्जा हटों का व हैम्कॉर्नरों का जमाना आ गया है। रंगीन दीवारों से सजे और अंग्रेजी म्यूजिक से बजे ये फूड कॉर्नर रंग-बिरंगे लिबास पहने एक अलग तरह के उच्चारण व अंदाज बोलते लोगों की क्षुंधा तृप्ति केंद्र बन गए हैं। आधुनिक से उत्तर आधुनिक बनते हुए दिल्ली के लोग जहां चरम बौद्धिकता, तार्किकता, समझदारी की  ओर बढ़ने का दावा करते सुनाई पड़ते हैं वहीं बढ़ते कावड़ियों के स्वागत सत्कार, दुर्गा, गणेश और पष्ठी पूजन में उमड़ती भीड़, आसाराम, मोरारी बापू, सुधांशु महाराज के प्रवचनों को सुनने की दीवानगी और पहले गणेशजी के दुग्धपान और बाद में मंकी मैन के अवतार पर अंधी श्रद्धा, ज्ञपित करते हैं कि उस बौद्धिकता की नींव बहुत खोखली हैं। प्रतिदिन शहर में कहीं न कहीं होती हिंसक वारदातों, सिनेमाघरों से संसद भवन तक होते आतंकवादी आक्रमण, पुलिस द्वारा किए जाते अकारण और अचानक हमले, दिल्लीवासियों के लिए इतने अंतरंग हो गए हैं कि वे सही सलामत रात को घर लौट आयें, यही उनके लिए गनीमत होती है। टी.वी धारावाहिकों के स्पाइडरमैन – शक्तिमान, बी ग्रेड फिल्मों के खौफनाक दृश्य कॉमिक्स और लोकसंस्कृतिक से पाले-पोसे गए अतिमानवीय चरित्र, एक ऐसी दुनिया रचते हैं जिनमें  एक साथ किंवदंतियों मिथकों और विज्ञान कथाओं के तत्व घुलते-मिलते रहते हैं। जहां तक दिल्ली की माहिलाओं के घर की परिधि को लांघने और राजनैतिक, सामजिक क्षेत्र में सक्रिय होने का सवाल है गांधी द्वारा शराब की दुकानों पर पिकेटिंग करने के लिये महिलाओं से की गई अपील के बारे में जून 1931 के किसी एक दिन के अंग्रेजी दैनिक गर्जियन में छापी मेरी कैम्पवेल की रिपोर्ट का यह अंश दृष्टव्य है: 'मुझे लगता था इस बार गांधी ने गलती कर दी है। क्योंकि दिल्ली की महिलाएं जिनमें इतनी सारी तो पर्दें में रहती हैं, इस काम को कभी अंजाम नहीं दे पायेगी। परंतु उस समय मेरी हैरत का ठिकाना न रहा जब मैंने देखा कि वेन केवल सड़कों पर निकल आई हैं बल्कि उन्होंने दिल्ली की तमाम शराब की दुकानों पर धरना भी दिया है।' हिन्दुस्तान टाइम्स के उन दिनों के समाचार बताते हैं कि वे उन धरनों के अलावा बाकायदा जलूसों, सभाओं में शामिल रहती थीं। 16 मार्च, 1930 को न्यालयों का घेराव करने पर तो उन्हें पुलिस की लाठियां भी खानी पड़ी थीं पर घरों की बुजुर्ग महिलाएं इस तरह घर से बाहर निकलने और राजनैतिक गतिविधियों में उनके भाग लेने के ख़िलाफ थीं। दूसरी ओर कुछ समाज सुधारिकों का यह भी मानना था कि राजनैतिक कार्यकर्ताओं के जेल जाने या भूमिगत होने पर घर-गृहस्थी को चलाते रहने का दायित्व वहन करना भी महिलाओं का स्वधीनता संग्राम मेंएक प्रकार से योग देना ही था। 1947 में हुए देश के विभाजन के साथ मिली आजादी ने जिस विस्थापन और जबरिया पलायन को अंजाम दिया उससे करोड़ों औरतें अपने घर-परिवार और साजो-सामान से महरूम हो गई और उन्हें फिर से अपनी घर-गृहस्थी बसाने व स्वयं को सुरक्षित तौर पर स्थापित करने के लिए भारी जद्दोजहद करनी पड़ी। एक ही झटके में उनका पर्दा उतर गया और इज्जत-आबरू के मायने बदले गए। एक अनुमान के अनुसार दिल्ली से 3.3 लाख मुसलमान चले गये और उनके बदले में कोई पांच लाख हिंदू यहां आए। शरणार्थियों के इतनी बड़ी संख्या में दिल्ली में आगमन ने यहां की शक्ल-सूरत ही नहीं मूल निवासियों की जिंदगी के हर पहलू को बदल डाला। लुट-पिटकर आई इन रिफ्यूजिनों ने जहां जो धंधा मिला उसी के सहारे जिस तरह अपना पुनर्निर्माण और अग्रेसरण शुरू किया और कामयाबियां हासिल की वह स्थानीय औरतों के लिए पहले घृणा व अवहेलना का सबब बना लेकिन अंतत: रोल मॉडल बन गया। बाद में शिक्षा के प्रसार, मीडिया की व्यापकता और पश्चिमी आधुनिकता के आगमन ने न केवल घरेलू बंधनों, सेक्स की वर्जनाओं और सामाजिक मर्यादाओं की विखंडित कर इन्हें आजाद किया बल्कि अपनी आजादी के काले-उजले पक्षों को समझने और मानावोचित अधिकारों को पाकर सुरक्षित रखने के लिए इन्हें सतत सतर्क/सावधान भी बना दिया। इस तरह यह शहरनामा दिल्ली में पिछली सदी के उत्तरार्ध में आए बहुआयामी परिवर्तनों का एक पुख्ता चेहरा सामने रखकर कुछ अन्य शहरों के सूरते हाल पर भी रोशनी डालता है। यह कोलकाता को खौफ, दहशत, अंधरे और उत्तेजना के शहर के रूप में चित्रित करता है। इसे यह उद्योग व व्यापार के एतबार में हिन्दुस्तान का सबसे बड़ा केंद्र मानता है। इसके मुताबिक यह शहर इंद्रियों से ज्यादा दिमाग पर हमलावर होता है। इसी कारण कहा जाता है: 'आज कलकत्ता जो कुछ सोचता है कल वही कुछ हिन्दुस्तान सोचने को मजबूर हो जाता है।'  इस शहर में गरीबी ओर गुरूर दोनों साथ-साथ दिखाई देते हैं। तभी तो कुर्रतुल एन हैदर इसके बारे में कहती हैं: 'अनगिनत रौशन, रूह पर बोझ बने सवालात का शहर?  कुछ लोग कहते हैं: 'कलकत्ता ही उनका जवाब भी है।' और पटना को वक्त के खूंटे में टंगा शहर कहा गया है। इस वक्त में जब हलचल होती है तब पटना भी चलायमान होता है अन्यथा यह अपने ही अंदाज में जिए चला जाता है। फर्क पड़ा है तो बस इतना ही कि पहले जब लड़कियां कहीं जाती थीं तो छोटे/बड़े भाईयों को उनका 'एस्कोर्ट' बन कर जाना होता था। अब वे बिना किसी का संरक्षण पाए भी आने जाने लगी हैं। पर इसका मतलब यह नहीं है कि  उनका आवागमन निरापद हो गया है या यहां की कानून -व्यवस्था बहुत सुधर गई है। बल्कि सच यह  है कि लड़कियों ने फबतियों अभद्र इशारों और छेड़छाड़ आदि को अनिवार्य मान उनके साथ जीना सीख लिया है। कभी-कभी वे इन सबका मुकाबला भी करने लगी हैं। काशी की गालियां, बनारस का फक्कड़पन, इलाहाबाद का कॉफी हाउस, नाजीरिया के एक शहर कानो में उभरती सिनेमाघरों की भौतिक संस्कृतिक और चीन के बेजिंग नगर में फैली सार्स की महामारी के चित्रांकन जहां इनकी निजी पहचान से पाठकों के वाबस्ता करते हैं वहीं इनकी सामाजिक राजनैतिक व्यवस्थागत खामियों से भी अवगत करवाते हैं। इस तरह यह शहरनामा दिल्ली के क्षण -क्षण रूपांतरण की एक जीवंत झांकी दिखाने की कोशिश करता है। दूसरे शहरों की टिमटिमाती रोशनियां इसकी चमक को और अधिक चकाचकता प्रदान करती है। पर बावजूद पूरी कोशिश के अभी भी बहुत कुछ छूट गया है। मसलन संस्कृति, भाषा, साहित्य, राजनीति और श्रमिक/कर्मचारी आंदोलनों पर भी कुछ गहराई से सोचा जाता तो अच्छा होता। रामलीलाओं, रंगकलाओं का निरंतर बदलता स्वरूप, विभिन्न राज्यों से आए लोगों के समाहार से बोलचाल की भाषा की बनती- बिगड़ती छवियां, प्रयाग, काशी, मुंबई, भोपाल से उखड़कर साहित्यिक प्रकाशनों का दिल्ली में केंन्द्रित हो जाना, संसदीय जीवन का अतीत और वर्तमान तथा सत्याग्रह, जलसे-जलूस आदि का अर्थ खोते जाना, जैसी बातों पर भी यदि और सामग्री होती तो यह अध्ययन अधिक सर्वांग व संपूर्ण बन सकता था।  पर जो कुछ है, वह भी कम मूल्यवान नहीं है। आखिर 422 पृष्ठों में इससे अधिक और कुछ देने की गुंजाइश भी कहां थी। हां, आशा जरूर की जा सकती है कि आगे जब कभी इस दीवान-ए-सराय का तीसरा अंक निकलेगा तो उसमें इन पहलुओं पर भी सामग्री शामिल होगी। From ravikant at sarai.net Thu Jun 22 16:09:03 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 22 Jun 2006 16:09:03 +0530 Subject: [Deewan] stree ki bauddhikta par khufiya bahas Message-ID: <200606221609.03429.ravikant@sarai.net> स्त्री की बौद्धिकता पर एक ख़ुफ़िया बहस (Hans, june 2006): -अभय कुमार दुबे http://rachanakar.blogspot.com/2006/06/blog-post_21.html समाज में जब किसी मुद्दे पर बहस बहुत तेज़ हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि वह बदलाव की पेशबंदी कर रहा है. इस समय सबसे ज्यादा तीखा विवाद मैरिट पर है, और संदर्भ पिछड़ी जातियों के आरक्षण का है. ज़ाहिर है कि सतह के ऊपर द्विज बनाम शूद्र का द्वंद्व है, पर मैरिट का कम से कम एक आया म ऐसा भी है जिस पर की जा रही बहस का मुख्य रूप अफ़वाहबाजी का है, और उसकी प्रकृति फेंटेसी नुमा है. यह पहलू है स्त्री की मैरिट का. सरगोशियों, लंतरानियों, शाम को होने वाली नशीली अड्डेबाजियों और गॉसिप कॉलमों के गुप्त मैदानों में होने वाला यह वाद-विवाद आजकल तय करने में लगा हुआ है कि स्त्री जो बोलती है, स्त्री जो लि खती है और समाज में अपने लिए बौद्धिक प्रगति के जो मौक़े संघर्ष करके हासिल करती है, क्या वा स्तव में उसे उसका एकांत श्रेय दिया जाना चाहिए? हिंदी पब्लिक-स्फेयर के इस भूमिगत माहौल से अल्बर्टों मोराविया की एक कहानी याद आ जाती है. मोराविया की यह नायिका रचनाकार बनना चाहती है. लेकिन, जब वह अपनी रचना लेकर एक वरिष्ठ साहित्यकार से मिलती है, तो किसी अंधेरी गली में खड़ी कार के भीतर खुफिया तौर पर बैठा वह पुराना पापी वैकल्पिक रचना लिख कर उसे थमा देता है, बदले में उसका सानिध्य मांगता है. उस स्त्री के साथ ऐसा कई बार होता है. साहित्य का मूल्यांकन करने वाले पुरुष को लगता है कि या तो स्त्री की रचना में बहुत से संशोधन होने चाहिए या उसे फिर से लिख डालना चाहिए. और, इस सेवा के बदले उनका उस स्त्री पर स्वाभाविक हक़ बन जाता है. उस छोटी-सी कहानी का क्लाइमेक्स बड़ा वीभत्स है; आत्महत्या की कगार पर पहुंच चुकी वह स्त्री अचानक तय करती है कि वह सिर्फ़ एक देह बन जाएगी. फिर वह स्त्री लिपिस्टिक लगाती है, और शहर की सड़कों पर संभवत: वरिष्ठ साहित्यकारों की खोज में निकल पड़ती है. ज़ाहिर है कि मोराविया का ज़माना बहुत पीछे छूट चुका है. स्त्री द्वारा रचा गया साहित्य और विमर्श-विमर्श सांस्कृतिक उत्पादन की प्रक्रिया को एक नए पा यदान पर पहुंचा चुका है. स्त्री की रचना को किसी पुराने पापी की बदरंग चिप्पी नहीं चाहिए. यह कामयाब स्त्री वह नहीं है जो हर सफल पुरुष के पीछे खड़ी रहती है. सफल पुरुष और पृष्ठभूमि में खड़ी स्त्री का आपसी संबंध कुछ ज्यादा ही सुपरिभाषित और सुनिश्चित क़िस्म का हो चुका है. चर्चा में कम आने वाली वह औरत या तो कामयाब मर्द की पत्नी है या फिर उसकी मां है. मां के रूप में या तो उसने पुरुष को ककहरा सिखाया है या फिर वह उसकी कुछ नैसर्गिक प्रवृत्तियों की जिम्मेदार है. पत्नी के रूप में वह उसकी पोशाक, कॉफी, लंच, डिनर या दोस्तों की आवभगत का कौशलपूर्ण बंदोबस्त करने के साथ-साथ यौन-सुख की नियमित सप्लाई का स्रोत है. इसके बदले में वह मंडन मिश्र अपनी एक किताब उसे भेंट कर देता है, या अन्य पुस्तकों के आभार प्रदर्शन की आख़िरी पंक्ति उसके लिए सुरक्षित कर दी जाती है. इस पंक्ति का पैटर्न भी तयशुदा है : 'और अंत में मैं भारती का शुक्रिया अदा किए बना नहीं रह सकता क्योंकि अगर वे मुझे धीरज और उत्साह न बंधातीं तो यह बौद्धिक परियोजना शा यद अपने अंजाम तक न पहुंच पाती.' किसी भी मशहूर किताब का आभार प्रदर्शन पढ़ लीजिए, उसके आख़िर में यह पंक्ति किसी न किसी रूप में मिल ही जाएगी. पृष्ठभूमि में खड़ी स्त्री को आभार प्रदर्शन के ज़रिए निबटा देने के बाद अब बहस इस बात पर है कि जब मंडन मिश्र ने शास्त्रार्थ में अपनी पराजय स्वीकार की ही नहीं, न ही पृष्ठभूमि में खड़ी पत्नी को मोर्चा संभालने की जिम्मेदारी थमाई, तो फिर यह स्त्री कहां से आ गई जो आगे निकलकर अपनी बौध्दिकता की स्वतंत्र दावेदारी कर रही है? यह स्त्री अजीब सी है. मंडन मिश्र ने इसे इतिहास के किसी पृष्ठ पर नहीं देखा. क्योंकि यह उपन्यास लिखती है, कविताएँ लिखती है, लेख लिखती है, आलो चना लिखती है, स्तंभ लिखती है, खूब लिखती है, टाइम पर लिखती है, लिखे हुए पन्नों की लाइन लगा देती है, ऊपर से जगह-जगह भाषण देते घूमती है, रिसर्च करती है, सिगरेट पीती है, शराब पीती है, कॉफी बनाती है और अक्सर सिर्फ़ अपने लिए बनाती है, गोष्ठियों में बिंदास जाती है, खुलकर हँसती है, इसका उच्चारण स्पष्ट है, और सबसे बड़ी बात तो यह है कि यह स्त्री सामाजिक रूप से सुपरिभाषित जीवन भी जी सकती है, और अगर मन चाहे तो पिता द्वारा आयोजित स्वयंवर के बि ना स्वयंवरा भी हो सकती है. मंडन मिश्र न तो इस स्त्री की शिनाख्त अपनी मां के रूप में कर पा रहे हैं, न पत्नी के रूप में. तो फिर वह कौन है? विवाह या दूसरे संस्थानों में सुरक्षित बैठी शीलवती सन्नारियां इसे 'शी-ड्रैकुला' का नाम देती हैं. वस्तुत: चूंकि इस विकट प्रश्न का उत्तर खोजने में वे नाकाम हैं, इसलिए उन्होंने पुरानी कहावत को नया रूप दे दिया है. इसीलिए स्त्री की बौध्दिकता पर होने वाली खुफिया बहस के केंद्र में यह कहावत रख दी गई है कि हर सफल स्त्री के पीछे एक पुरुष होना लाज़मी है. ध्यान रहे कि पहले पृष्ठभूमि में खड़ी स्त्री की आकृति साफ़ थी, पर पीछे खड़े इस पुरुष की अस्मिता अनाम है. अगर वह वास्तव में पीछे खड़ा होता तो उसे खुद को धन्यवाद देने की क्या ज़रूरत होती. उसे धन्यवाद स्त्री देती, वह भी उसके लिए एक अच्छी-सी पंक्ति गढ़ लेती. पीछे दिखाई दे रही वह भुतहा आकृति सफल स्त्री के प्रेमी की भी नहीं हो सकती. क्योंकि अगर वह प्रेमी होता तो फिर प्रेमिका के बारे में अफ़वाह उड़ाने की ज़रूरत क्या पड़ती! हिंदी के पब्लिक स्फेयर पर कुछ ऐतिहासिक कारणों से अधिकांशत: साहित्य और कुछ-कुछ पत्रकारिता की छाया रहती है, इसलिए बहस के औज़ारों द्वारा सबसे ज्यादा शल्यक्रिया जिन स्त्रियों की होती है, वे अक्सर साहित्यकार ही होती हैं. अगर उन्हें कोई मामूली-सा भी पुरस्कार मिला है तो उनकी का मयाबी के पीछे मौजूद पुरुष भूत पुरस्कार की निर्णय कमेटी का सदस्य निकल आता है. और, अगर वह निर्णय कमेटी का सदस्य नहीं भी है और पुरस्कार बहुत मानिंद क़िस्म का है तो हवाओं में घूमने वाली सरगोशियां खोज निकालती हैं कि पुरस्कृत कृति के पीछे अमुक की डायरी है. शाम की गोष्ठियों में यह गोपनीय तथ्य कुछ इस तरह परोसा जाता है कि जैसे जब वह डायरी उपन्यास के रूप में टीपी जा रही थी तो कोई चश्मदीद गवाह वहां साक्षात् मौजूद रहा होगा. माना जाता है कि स्त्री साहित्यकारों की हर कृति कोई न कोई वरिष्ठ पुरुष साहित्यकार ही दुरुस्त करता है, या फिर उसका पुनर्लेखन करता है, या किसी न किसी प्रकार उसे प्रस्तुति योग्य बनाता है. और, कोई स्त्री उस समय तक किसी पत्रा-पत्रिका में स्तंभ नहीं लिख सकती जब तक कल्पना की उड़ानें कि सी न किसी प्रकार उसका संबंध संपादक के साथ न जोड़ दें. इसके साथ ही यह अनकही धारणा अपने आप जुड़ जाती है कि बदले में उस पुरुष ने स्त्री रचनाकार का अगर दैहिक नहीं तो रागात्मक साहचर्य अवश्य प्राप्त किया होगा. ये सब बातें हिंदी के पब्लिक स्फेयर में एक ओपन सीक्रेट की तरह की जाती हैं कि अमुक स्त्री साहित्यकार अमुक के साथ फिट है. कई वर्षों से चल रही इस साहित्यकार का संबंध उन प्रकाशकों से भी जोड़ा जाने लगा है जो उनकी रचनाएं प्रकाशित करते हैं. चर्चाएं सुनने में आती हैं कि हिंदी का एक बड़ा प्रकाशक आजकल किसी कवि-कवि या किसी कहानीकार-कहानीकार पर ख़ासतौर से मेहरबान है. यानी इस अफ़वाहबाजी के मुताबिक स्त्री ज्यादा से ज्यादा अपनी रचना का रफ़ ड्राफ्ट ही बना सकती है जिसे लेकर पहले उसे अपनी कामयाबी के पीछे खड़े भुतहे पुरुष के पास जाना होगा, रचना ठीक करवानी होगी, बदले में उसे कम से कम रागात्मक साहचर्य का आश्वासन देना होगा, और फिर उसे प्रकाशक या संपादक से निबटना होगा जो इस पितृसत्तात्मक फेंटेसी का नया किरदार है. बहुत दिन से हिंदी का पब्लिक-स्फेयर इन बातों को अफ़वाहों या प्रवादों की श्रेणी में डालकर अपना काम चला रहा है. लेकिन, अब इससे कतराने का वक्त निकल चुका है. अब भारतीय समाज उस मुकाम पर पहुंच गया है जहां समुदायों की मैरिट के मानक तय हो रहे हैं. बेहतर होगा कि इसी दौर में स्त्री की मैरिट के मानक भी तय हो जाएं. आख़िरकार स्त्री समुदायों का समुदाय है. उसकी मैरिट का सवाल उठाने का सबसे बड़ा फ़ायदा होगा कि मैरिट के नए मानक किसी महा-आख्यान के बोझ तले दबने से बच जाएंगे. हम जानते हैं कि अभी तक समाज में मैरिट का महा-आख्यान द्विज जातियां, खा सकर ब्राह्मणों द्वारा सूत्रबद्ध किया जाता रहा है. अब पिछड़ी जातियां, दलित और आदिवासी समुदाय उसे नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश में हैं. महिलाएं और उनके पैरोकार इस मौक़े का लाभ उठा सकते हैं. वे इस क़िस्म की अफ़वाहबाजी को पितृसत्ता के विकराल तर्क के रूप में पेश करके कह सकते हैं कि पिछले बीस वर्षों से हिंदी साहित्य में स्त्री रचनाशीलता का जो उन्मेष हुआ है, उसे अब स्वतंत्र और स्वायत्त मान्यता मिलनी ही चाहिए. पहले यह काम केवल हंस जैसी पत्रिका ही करती थी, पर स्त्री द्वारा रचे गए साहित्य और स्त्री के विमर्श पर विशेषांक निकालने की दौड़ में आज तक़रीबन हर पत्रिका शामिल हो चुकी है. जहां तक प्रकाशकों का सवाल है, हर प्रकाशक मुनाफ़ा कमाना चाहता है. अपनी इसी नैसर्गिक वृत्ती के आधार पर वह जानता है कि हिंदी में इस समय सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में या तो दलित विमर्श की किताबों का शुमार है, या फिर स्त्री विमर्श की किताबों का. स्त्री पर या स्त्री द्वारा लिखी गई किताबें छापना किसी भी प्रकाशक का स्वार्थ ही हो सकता है, अपनी व्यक्तिगत रागात्मक संतुष्टि के लिए किया जाने वाला चुनाव नहीं. स्त्री की बौध्दिकता पर होने वाली यह बहस अब अफ़वाहबाजी के भूमिगत दायरों से निकाल कर ज़मीन से ऊपर लाई जानी चाहिए. स्त्री कृतियों की आलोचना की कसौटियां अलग से तय की जानी चाहिए. उसका सौंदर्यशास्त्र लाज़मी तौर पर पुरुषों द्वारा रचे गए साहित्य जैसा नहीं है. उसकी भाषा, उसका तर्क विन्यास, उसकी कहानी का क्रम, उसकी निरंतरताएं और विच्छिन्नताएं अगल क़िस्म की हैं. इस बहस का फ़ैसला अनिवार्य तौर पर भारतीय स्त्री की बौध्दिकता के सच्चे और स्वायत्त सूचकां क की निर्मिति के तौर पर होगा. और जैसे ही यह सूचकांक बनकर तैयार हो जाएगा, वैसे ही कामया ब स्त्री के सामाजिक चित्रा की पृष्ठभूमि पर छाई हुई वह भुतहा पुरुष आकृति तिरोहित हो जाएगी, जो आज उसकी मैरिट पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा है. **-** From rahulpandita at yahoo.com Fri Jun 23 19:05:00 2006 From: rahulpandita at yahoo.com (rahul pandita) Date: Fri, 23 Jun 2006 14:35:00 +0100 (BST) Subject: [Deewan] TV ke Gulab Jamun Message-ID: <20060623133500.74208.qmail@web31704.mail.mud.yahoo.com> Kabhi kabhi wo sochta ki, saala, ye channel aakhir chal kaise raha hai. Ye baat usne apne eik dost ke saath baanti. Wo donon eik doosre ko aankhon ke ishaare se bahar bulaate aur phir Gupta ji ki dukaan pur sutta peene chale jaate. Sutte ka kash lagakar, dua bahar phaenkte hue, uske dost ne jawab diya: Ye channel hai na, humare desh ka sample survey hai. Jaise humara desh chalta hai, waise hi ye channel chalta hai. Wo thoda hichkichaya, lekin phir dost se pooch betha: Aur humara desh kaise chalta hai? Dost ne aankhen band ki aur jawaab diya: Pata nahi. Sach bhi tha. Ab news channel ko chalane waale patrakar to rahe hi nahi. 24 ghante ke cycle ne sab badal kar rakh diya. Ab Sanpaadak, sanpaadak nahi, manager ho gaya. Phir dheere, dheere channel ko chalane ke liye, seedha manageron ki niyukti shuru ho gayi. Patrakar hone ka dhong ab bala kis liye, jab eik akhbaar ne ‘Published in Delhi’ ki jagah ‘Made in Delhi’ likhna chalu kar diya tha. Eik-aad tathakathit patrakar ab bhi channel ke head ke taur pur bane hue the. Dikkat ye bhi thi ki head bhi kai saare the, Ravan ke dus siron ki tarah. Aise hi eik ‘patrakar’ Lala ji ki channel mein output editor bana diye gaye. Naam tha Gaurav Sinha. Pata chala ki kucch saal pehle tak Jagbharat Times mein MCD aur DVB ke press release tayyar karte the. Uske baad Phataphat channel mein chale gaye jahan wo business reporting karne lage. Press Club mein use eik purana business reporter mila. Hi Hello ke baad office ki baat hone lagi to usne bataya ki Gaurav Sinha output head bankar aaya hai. Ye sunkar wo business reporter thahaake maarkar hasne laga. Bola, abhi 6 maheene pehle, Gaurav Sinha uske saath Pragati maidan se Auto Expo cover kar raha tha. Baad mein Gaurav Sinha ne eik Piece-to-Camera tayyar kiya, jo kucch yun tha: Mere peeche Auto Expo chal raha hai, jisme gaadiyan dekhne ko mil rahi hein. Jab wo ye camera ke saamne bol raha tha, to us business reporter ne use peeche se eik dostana laat maari aur bola: abhe champak, Auto Expo mein gaadiyan nahi to kya Gulab Jamun dekhne ko milenge kya? Iske baad Gaurav Sinha itna sakpaka gaya ki wo bina PTC kiye wahan se business reporter ke shabdon mein ‘katt liya’. Wohin Gaurav Sinha ab Lala Ji ki channel ka output editor tha. Eik din, wo Kargil yuddh ki barsi pur eik story kar newsroom mein gussa hi tha, ki saamne Gaurav Sinha kisi reporter ki copy ki dhajjiyan uda raha tha. Use dekhar, Gaurav Sinha ne us se poocha: Batao bhai Defence Correspondent sahab, Kargil Yuddh mein marne wale Indian Army ke sabse highest ranking officer ki rank kya thi? Uski aankhon ke saamne eik tasveer ubhri aur wo bola: Lieutenant Colonel. Gaurav Sinha ne jhallakar kaha: arre yaar, kya baat kar rahe ho? Major bhi to mara tha eik. Wo kucch nahi bola. Wo ajeeb manostithi mein tha. Na to use gussa aa raha tha, na hansi, na rona ... bus eik sapaat si bhaavna. Lieutenant Colonel Vishwanathan ke chehre ki tarah. Wo Vishwanathan jo Kargil rawana hone se chand ghante pehle Kashmir ghaati ke Ganderbal ilaake mein khud dynamite lagakar eik ghar mein chuppe aatankwaadiyon ko maut ki neend sulaane mein juta hua tha. Raat ko usne Press Club mein jakar khoob daroo pi. Rahul Pandita www.sanitysucks.blogspot.com Mobile: 9818088664 ___________________________________________________________ Yahoo! Messenger - with free PC-PC calling and photo sharing. http://uk.messenger.yahoo.com From kamal_bhu at rediffmail.com Fri Jun 23 20:55:37 2006 From: kamal_bhu at rediffmail.com (Kamal Kumar Mishra) Date: 23 Jun 2006 15:25:37 -0000 Subject: [Deewan] 6th post :jasoosi ... Message-ID: <20060623152537.10439.qmail@webmail35.rediffmail.com>  Jara in ishteharon par bhi gaur farmayen- LEKHAKON KI AVASHYAKTA HAI Premi Jasoos Karyaly ke antargat teen jasoosi masik janvari mah se nikalne lagenge.Iske liye lekhakon ki avashyakta hai- Kripya nimn pate par patr vayvhar karen. vayvasthapak, Premi Jasoos Karyalya, 93,chak,Allahabad-3 ------------------------------------------- Friends And Company ke antargat chapne vale Urmi (samajik) Jasoosi upanyas Jasoosi Ankh Ke liye anubhavi lekhakon ki avashyakta hai nimn pate se patra vayvhar karen Friends And Company 81,Atarsuiya,Allahabad-3 Ye donon hi vigyapan 1960 aur 70 ke dashakon men Allahabad se nikle , jab Allahabad Hind Hridyasthali men Jasosi Upanyason ke utpadan ke chetra men ek mahatvapuna kendra ke bataur khud ko sthapit kar chuka tha.1950 ke dashak ke suruat se jasoosi upanyason ke prakashan-lekhan ka jo silsila ek bar yahan suru hua to vah pure teen dashakon tak ,tab tak jab tak ki yah kendra 80 ke dashak men Meeruth sthanantarit nahin ho gaya ,vyapak paimane par chalta raha.Suruati lekhakon-prakashakon ki safaltaon se utsahit ho n jane kitne hi chote- bade prakashkon ne is chetra men apni kismat ajmane ka faisla kiya.Upar jin do ishteharon ka jikr kiya gaya hai ve aise he kuch chote prakashak hain jin par kismat jyada meharban nahin rahi.Phir bhi ye dono hi ishtehar us bhagambhag ka kuch ishara to jarur dete hain jahan Jasoosi upanyason ki mang is kadar badh gayi hai ki lekhakon ki apoorti ke liye bakayada ishtehar nikalne pad rahen hain.Unisvin sadi ke antim daur men Benaras baad men Allahabad aur phir Meeruth aur Dilli men is khas vidha ke prakashakon-lekhakon ka jamavada ya ki 1890 se 1980 ke beech kyun kar ye kendra is tarah sthanantarit hota raha yah prashn gahri partal kee mang karta hai.Is saval par philhal nahin, lekin Allahabad ke prakashan jagat ne he hamen Ibn-e-Safi jaisa dhurandhar jasoosi afsana nigar bhi diya jise bhulaya nahin ja sakta hai.Yahan M.L.Pandey se suru ho kar Ibne Safi aur dusre safal jasoosi upanyas lekhakon ke agar ek list hai to asafal, gumnam aur chadmnamon se likhne valon ki bhi ek samridh parampara dikhti hai. philhal itna hi kamal. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060623/0d433890/attachment.html From rakesh at sarai.net Mon Jun 26 14:06:19 2006 From: rakesh at sarai.net (rakesh at sarai.net) Date: Mon, 26 Jun 2006 14:06:19 +0530 Subject: [Deewan] [Fwd: contribute for media bibliography] Message-ID: <449F9C83.40703@sarai.net> -- Rakesh Kumar Singh Sarai-CSDS 29, Rajpur Road Delhi-110054 Ph: 91 11 23960040 Fax: 91 11 2394 3450 web site: www.sarai.net web blog: http://blog.sarai.net/users/rakesh/ -------------- next part -------------- An embedded message was scrubbed... From: "rakesh at sarai.net" Subject: contribute for media bibliography Date: Mon, 26 Jun 2006 11:51:16 +0530 Size: 1096 Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060626/3025d7ac/attachment.mht From raiamit14 at rediffmail.com Mon Jun 26 14:49:23 2006 From: raiamit14 at rediffmail.com (AMIT RAI) Date: 26 Jun 2006 09:19:23 -0000 Subject: [Deewan] posting 5 Message-ID: <20060626091923.3040.qmail@webmail61.rediffmail.com> नर्मदा सागर बांध और हरसूद के संदर्भ में सरकारी मीडिया के पक्ष में 'जनहित' के नाम पर जारी जानकारियों को पूर्व में रखा जा चुका है लेकिन ये वही तथ्य हैं जिनकी पहुंच आम जनता तक नही थी,उन्हें उन तकनीकी पक्षों की जानकारी नही हो पायी थी जिनके तहत वे पुनर्वास की सुविधाओं के ठधिकारों का उपयोग कर सकें.ऐसे में मीडिया ने भ्रम की स्थिति ही कयम की.इस भ्रम क स्थिति में राज्य की ओर से कई कानूनी बारीकियों का भी उल्लंघन किया जैसे 'पेसा'ठधिनियम जो २५ दिसंबर १९९६ को पारित हुआ,इसे पंचायत ठधिनियम(ठनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार)कहा जाता है इससे संभव हुआ कि राज्यपाल की बजाय ग्राम सभा को ही यह ठधिकार दिया गया है कि वह स्थानीय परिपाटियों और परिस्थितियों के ठनुरूप नियमादि बनाये. 'पेसा'ग्राम सभा को सक्षम बनाता है कि वह लोगों की परंपराओं और प्रथाओं,उनकी सांस्कृतिक ठस्मिता,सामुदायिक संसाधनों और विवाद सुलझाने की पारंपरिक व्यवस्था की सुरक्षा और संरक्षण कर सके. इसी तरह हरसूद के मामले में ठंतर्राष्ट्रीय श्रम संधि १०७, राष्ट्र संघ पर्यावरण व विकास पर निम्न आयोग(ब्रन्टलैंड आयोग) का भी उल्लंघन किया गया है. विस्थापितों को भ्रामक व ठधूरी जानकारी दी गई. वर्ष १९८२ की विस्तृत परियोजना रिपोर्टके मुताबिक इंदिरा सागर बांध परियोजना से २५५ गांव और एक शहर हरसूद प्रभावित होगा,सरकारी दस्तावेज कहते हैं कि इनमें६९ गांव तो पूर्ण डूब के क्षेत्र में आयेंगे और १८०-१८६ गांव आंशिक डूब में.पूर्ण और आंशिक की शब्दावली इस्तेमाल करने के ठभिप्राय पिछले कई बांधों के निर्माण के दौरान स्पष्ख्ो चुके हैं.गांवों की पूर्ण और आंशिक की श्रेणी में बांटकर सरकार विस्तापन की विकरालता को कम प्रदर्शित करने का प्रयास करती है. वर्ष १९८१ की जनगणना को आधार बनाकर ही सरकारी रिकार्ड बताते हैं कि इस परियोजना से ३०७३९ परिवार और ८०५७२ लोग विस्थापन के शिकार होंगे मोटे ठनुमान के मुताबिक भी ७०७३९ परिवारों में प्रति परिवार ५.७ सदस्यो के औसत से १७५२१२ लोग होने चाहिये,जबकि सरकार यह संख्या मात्र ८०५७२ ही बताती है. नर्मदा जल विवाद न्यायाधिकरण द्वारा दिये गये ठवार्ड(१९७९)और म.प्र. सरकार द्वारा १९८७ में बनायी गयी पुनर्वास नीति के ठनुसार जमीन के बदले जमीन का नियम ठनिवार्यतः लागू किया जायेगा एवं विस्थापितों को सरकार द्वार या तो सिंचित जमीन दी जायेगी ठथवा सरकार के खर्च प सिचाई की सुविधा दी जायेगी.लेकिन इसके ठीक विपरीत म.प्र. सरकार ने नकद मुआवजा बांटा और हजारों प्रभावितों में किसी एक परिवार को जमीन भी नही दी. बिना आनकारी के हरसूदवासियोंने ठपनी समस्याओं के चलते विरोध दर्ज कराया,नये हरसूद के चयन को लेकर प्रारंभ से ही हरसूद के लोगों का विरोध रहा है.इस जगह को देखने के बाद लोगों ने यहां बसना नामंजूर कर दिया था जबकि सरकार ने इस तरह के विरोध को गंभीरता से नही लिया और परिणामस्वरूप १९८४ में हरसूद की जमीन ठधिग्रहीत करने के लिये राजपत्र में धारा ५ का प्रकाशन कर दिया,१९९२ में भाजपा सरकार ने नये हरसूद का शिलान्यास करके कुछ भवनों क निर्माण कार्य शुरु कर दिया.इस बीच २२ वर्ष की लंबी समयावधि में भाजपा और कांग्रेस के कई मुख्यमंत्री बदल गये किंतु हरसूद के विकास में किसी ने कोई रूचि नही दिखायी. ठधिकारों को छीनने के साथ ही साथ हरसूदवासियों को हरसूद खाली कराने के लिये बल प्रयोग भी किया गया और भयावह स्थिति का निर्माण भी किया. इन सभी स्थितियों का जिक्र यदि मीडिया में आया भी तो वह सरकार के पक्ष मे ही विकास के नाम पर आया जबकि तस्वीर कुछ और ही थी जो हकीकत बयान करती थी.क्रमशः.....   Amit rai -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060626/c769e512/attachment.html From tetranew at sarai.net Mon Jun 26 13:14:25 2006 From: tetranew at sarai.net (tetranew) Date: Mon, 26 Jun 2006 13:14:25 +0530 Subject: [Deewan] test mail please ignore Message-ID: <449F9059.9030203@sarai.net> From ravikant at sarai.net Tue Jun 27 14:43:50 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 27 Jun 2006 14:43:50 +0530 Subject: [Deewan] ek lekh Message-ID: <200606271443.50700.ravikant@sarai.net> khaksaar ka jo likhne ke muddat baad sahara samay mein pichhle ke pichhle hafte chhapa aur rachnakar ne ise net par punarprakashit kiya hai. ismein maine rang de basanti se take off karke shahri yuvaon ki badalti duniya ke baare mein likha hai, kuchh naya nahin hai, nangla ka zikra avashya naya hai. parhne ke liye dhanyavad, pratikriya ka intezaar rahega. cheers ravikant युवाओं के बदलते मूल्य: मस्ती की पाठशाला? रविकान्त (सहारा समय में पूर्वप्रकाशित) पिछले दिनों एक दुखान्त फ़िल्म 'रंग दे बसन्ती' आकर हिट हो गई। ऐसा लगता है कि शहरी युवाओं ने इसे ख़ूब सराहा पर आलोचकों को फ़िल्म रास नहीं आई। आलोचकों की राय में 'मस्ती की पाठशाला' में पढ़ने के अलावा सब कुछ करके बर्बाद हुए कथानायक न तो अपना इतिहास समझते हैं, न ही राजनीति। नितांत निजी संयोग से आहत होकर वह राष्ट्रीय महत्व की ताक़तों से टकराते हैं और जान गँवा देते हैं। न तो यहाँ भगत सिंह जैसे शहीदों का इतिहास प्रामाणिक है, और न ही उसका आधुनिक संदर्भों में फ़िल्मी रूपांतर विश्वसनीय बन पड़ा है। वह उपनवेशवादी ज़माना कुछ और था यह ज़माना कुछ और है - दोनों को एक-दूसरे के इतना समांतर कैसे रखा जा सकता है कि फ़िल्मी नायकों को इतिहास के आईने में अपना अक्स दिखाई देने लगे! उनके हिसाब से यह फ़िल्म महान बलिदान और क्षुद्र, स्वार्थी, बेवक़ूफ़ाना आत्महत्या को एक साथ रखकर इतिहास और वर्तमान दोनों के साथ अन्याय कर रही है। एक हद तक आलोचकों की बात शायद सही है कि इतिहास के हर दौर की अपनी गति होती है, अपने सपने होते हैं, सपनों को लेकर हुए असली संघर्ष होते हैं - और इन अर्थों में इतिहास को ज्यों का त्यों दुहराया नहीं जा सकता। लेकिन इतिहास अपनी संपूर्ण प्रामाणिकता के साथ कब, कहाँ और किसे उपलब्ध है? इसलिए यह भी उतना ही सही है कि इतिहास के कुछ टुकड़े, चंद किरदार, उन किरदारों के कुछ विशेष कृत्य लोगों को प्रेरित करते हैं, इतिहास के आईने में वर्तमान की आलोचना करने के लिए और भविष्य को सुधारने के लिए कुछ कर गुज़रने के लिए। अगर इस नज़रिए से देखें तो रंग दे बसंती एक चतुर फ़िल्म है, और इसके प्रशंसकों और आलोचकों के बीच की खाई साफ़ है, जिसमें पीढ़ियों का अंतर भी है। मनोज 'भारत' कुमार की पूरब और पश्चिम के अनंत सांस्कृतिक विरोध और देशभक्ति में पगी फ़िल्मों का सेवन करके बड़ी होनेवाली हमारी पीढ़ी भी देशभक्ति रस से अघा और ऊब चुकी है। लेकिन इस फ़िल्म में देशभक्ति वाला फ़ॉर्मूला वाक़ई थोड़ा हटके है। यहाँ एक ग्लोबल गोरी मेम हिन्दुस्तानियों को अपना भूला हुआ गौरवशाली इतिहास याद दिला रही है, और इन युवाओं को बीयर पीके देर रात की अड्डेबा ज़ी करने और तेज़ बाइक चलाने से फुर्सत ही नहीं है! उनमें से जो हिन्दुत्ववादी टाइप का लड़का है, उसे न तो गोरी मेम द्वारा अपने इतिहास पर भाषण पसंद है, न ही ये आवारा और मुसलमान साथी रखनेवाले लड़के-लड़कियाँ। लेकिन धरनों-मोरचों के गुर उसे ही पता हैं। जो भी हो इतिहास, जोश, भ्रष्टाचार, प्रेरणा, त्रासदी आदि का ऐसा संयोग बनता है कि ये बालक (और एक बालिका) पहले शांतिपूर्ण विरोध करते हैं, और अंत में दो-एक राजनीतिक हत्याएँ भी कर डालते हैं, बाक़ायदा अपने को भगत सिंह-आज़ाद-दुर्गा का अवतार मानते हुए। फ़िल्म के गाने तो बेहतरीन हैं ही, इसका उपसंहार निहायत मानीख़ेज़ है। होता यह है कि पूरी मंडली - जो अब तक आतंकवादी क़रार दी जा चुकी है - ऑल इंडिया रेडियो के एफ़एम स्टेशन में घुस जाती है और 'जन-समर्पण' करती हुए अपनी मा सूमियत का इज़हार करती है - लाइव प्रसारण और 'फ़ोन-इन' के एक कार्यक्रम को हाइजैक करके - बहुत कुछ भगत सिंह वाले अंदाज़ में। लेकिन व्यवस्था को इतना धैर्य कहाँ - बेचेहरा स्पेशल कमांडो आते हैं और दिलचस्प बात यह है कि कुछ भी स्पेशल नहीं करते - अंधाधुंध गोलियाँ चलाकर इनको भून डालते हैं। इनकी लड़ाई को मीडिया-नियंत्रण की लड़ाई के ग्लोबल जनवादी दुखान्त के रूप में भी पढ़ा जा सकता है। मीडिया किसका है - यह वैश्वीकरण के दौर का अहम सवाल इसलिए भी है चूँकि मीडिया के चलते ही हम वैश्वीकृत हैं। ज़ाहिर है कि बाज़ार भी है, पर बिन मीडिया बाज़ार भी क्या, और मीडिया ख़ुद तो बाज़ार है ही। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस बाज़ार के ख़िलाफ़ हमारी पुरातन विचारधाराएँ इंच-दर-इंच लड़ाई हारती जा रही हैं। पुरातन इसलिए क्योंकि उनका प्रस्थान बिंदु और मंज़िल, समस्या और समाधान दोनों राष्ट्रवादी ढाँचे में क़ैद है। जबकि बाज़ार ग्लोबल है, और काफ़ी हद तक मीडिया भी। वसुधैव कुटुंबकम का जाप करते एलीट कब के वैश्वीकृत हो चुके पर उनसे लड़ रहे मेहनतकश लोगों के नुमाइंदे राष्ट्र या संस्कृति की झाड़ में दुबके हैं। पूँजी तरल होकर पूरे विश्व में बह रही है। हमारे लिए यह तय करना मुश्किल है कि कौन-सी कंपनी कहाँ की है, उसकी जड़ कहाँ, धड़ कहाँ, डाल-तने-पत्तियाँ कहाँ। हमारा एलीट विकास, प्रगति, निर्माण आदि के नए मानक गढ़ रहा है, जिसके प्रेरणास्रोत विश्व के नये, सॉफ़्टवेयर और आउटसोर्सिँग जैसे उद्योग हैं, वैश्विक शहर हैं, उनके मॉल हैं, मेट्रो-बरिस्ता-क्रेडिट कार्ड हैं, कौन बनेगा करोड़पति है, रियलिटी शो हैं। पिछले दस-बीस सालों में वैश्वीकरण के तहत पूरी दुनिया में धुआँधार बदलाव हुए हैं, और बदलाव की गति इतनी तेज़ है कि विश्लेषकों की लेखनी के पाँव उखड़ जाते हैं। एक साथ यह आर्थिक, राजनीतिक, सामा जिक व सांस्कृतिक परिघटना है। इसने हमारे यहाँ भी समाज के हर तबक़े को कमोबेश प्रभावित किया है, और उसका असर चतुर्दिक मौजूद है। एलीट तबक़े ने समाजवादी क़िस्म का लोककल्याणकारी नारा त्याग दिया है, और पूरी दुनिया को अपनी लीला का आँगन मानने लगा है, वहीं, वामदल राष्ट्र वादी-जनवादी- समाजवाद के अपने सीमित और मौक़ापरस्त रणनीति की आड़ में हाय-तौबा कर रहे हैं। एलीट सेंसेक्स के उछाल को स्वास्थ्य की निशानी मानता है, जबकि उनके विरोधियों के पास आलोचना करने को तो बहुत कुछ है, पर न ही उनमें ऊर्जा है, न ही विकल्प, और न ही उन्होंने प्रचार के नई तकनीक को साधने की कोशिश की है। इसलिए लगता है कि जो भी बदल रहा है, उसका एकमात्र एजेंट बाज़ार है। लेकिन बाज़ार से आए बदलाव ने कई संकट पैदा कर दिए है, जिनमें सांस्कृतिक संकट की बात सबसे ज़्यादा की जाती है। अपसंस्कृति, नंगई…न जाने क्या-क्या। और ये एक ऐसा इलाक़ा है जिसमें दक्षिणपंथी ताक़तों की ऊर्जा ज़्यादा ख़र्च हुई है, उनका विरोध ज़्यादा मुखर रहा है। लेकिन यही वह इलाक़ा है, जिसमें युवाओं के साथ उनके मूल्यों के संघर्ष भी स्पष्ट हैं, और यह भी कि उनकी निर्णायक हार हुई है। युवाओं को हमारे यहाँ आजकल नित नये विशेषणों से नवाज़ा जा रहा है - एमटीवी पीढ़ी, एसएमएस पी ढ़ी, एफ़एम पीढ़ी, जेनरेशन नेक्सट, मॉल रैट आदि-आदि, जो बाज़ार और मीडिया आदि से उनके रिश्ते का सबूत है। वैश्वीकरण ने उन्हें नौकरियाँ दी हैं, रोज़गार दिए हैं, बाज़ार ने पैसे ख़र्च करने के सा थ-साथ अड्डेबाज़ी के स्थान मुहैया कराए हैं। नये मीडिया ने उन्हें अपने ख़याल का इज़हार और रचना त्मक अभिव्यक्ति के लिए ब्लॉग दिए हैं, बहस के लिए डिस्कशन लिस्ट दिए हैं। मनोरंजन के लिए मॉल के साथ-साथ सस्ती एमपीथ्री-वीसीडी-डीवीडी दी हैं। नये उत्सव और नई आज़ादियाँ दी हैं। यह सब उनके लिबास, रहन-सहन, उनकी चिंताओं से ज़ाहिर होता है। शरीर को लेकर उनके तंग संस्कार ढीले हुए हैं। पुराने श्वेत-श्याम गानों में रिमिक्स्ड और गरमागरम चाहत के नए रंग भरे जा रहे हैं। यह बात दकियानूस ताक़तों को पसंद नहीं है। मिसाल के तौर पर, युवतियों द्वारा कम कपड़े पहनने को बुरा तो ज़्यादातर मानते हैं पर कुछ लोग तो उनके 'चालू' और उपलब्ध होने का सबूत भी। इसलिए बड़े शहरों में इस तरह की यौन हिंसा प्राय: देखने को आती है। लेकिन मीडिया में ऐसी ताक़तों का मुक़ा बला करने के लिए मल्लिका शेहरावत, दीपल शॉ, व राखी सावंत जैसे रोल मॉडल तैयार हो चुके हैं। जो कास्टिंग काउच के सत्य को न केवल उजागर करती हैं, बल्कि बिंदास होकर कहती हैं कि बड़ा रोल पाने के लिए वह उसका बेहिचक इस्तेमाल भी करेंगी। यह बिंदासपन नैतिकता के ठेकेदारों के लिए नैतिक संकट का प्रतीक है, पर वे थोड़ा-बहुत हो-हल्ला करके, हुल्लड़बाज़ी करके मीडिया फ़ुटेज खाने के अ लावा वे कुछ करने की स्थिति में नहीं हैं। लब्बोलुवाब यह कि कुछ पुराने मूल्यों को तो निश्चय ही बड़ी तेज़ी से ख़ारिज किया जा रहा है, और नए मूल्य अपनाए जा रहे हैं। आदर्श भी नए बन रहे हैं, और विरोध के नए क्षेत्र भी खुल रहे हैं। इनमें से बहुत कुछ बाज़ार-केन्द्रित और बाज़ार-प्रेरित है। और इस परिवर्तन का उत्सव मनाने के ठोस कारण हैं लोगों के पास। जैसे अभी नवभारत टाइम्स में एक लेख छपा था कि कैसे बाज़ार के इस युग में हिन्दी का अभूतपूर्व विस्तार हुआ है, और इस हद तक यह सही भी है कि इतनी बड़ी मात्रा में, पहली बार इतने सारे माध्यमों के ज़रिए हिन्दी के इतने सारे शब्द बोले या लिखे जा रहे होंगे। लेकिन ज़मीन पर ऐसी बहुत सारी लड़ाइयाँ चल रही हैं, जिनमें लोग सन्नद्ध हैं, भले ही आम तौर पर, मुख्यधारा की मीडिया में उनकी चर्चा नहीं होती। मीडिया नियंत्रण की लड़ाई ऐसी ही एक लड़ाई है। हम सब जानते हैं कि कंप्यूटर या कंप्यूटरीकृत डिजिटल प्रणाली का इस्तेमाल करते हुए गानों-फ़िल्मों, सॉफ़्टवेयर या किताबों की नक़ल करना, उसे आपस में बाँटना निहायत आसान है। यह पूरी दुनिया में आधुनिक युवा-संस्कृति का अटूट हिस्सा है। लेकिन ज़ेरॉक्स करने से लेकर फ़िल्मों आदि की नक़ल करना अवैधानिक है, चूँकि अमेरिका को जगदगुरु मानकर उसकी नक़ल में हमने बौद्धिक-संपदा के वही क़ानून अपने यहाँ लागू कर दिए हैं। हॉलीवुड से कथानक या धुन 'चुराना' हमारे लिए नया नहीं है, लेकिन अब यह सब ग़ैर-क़ानूनी है। तो अब करण जौहर जैसे आदर्श भी हैं, जो प्रिटी वुमन की धुन पहले बाक़ायदा ख़रीदते हैं, तब उसका इस्तेमाल करते हैं। 'पायरेसी' को समझे बिना उसके ख़िलाफ़ आम तौर पर प्रचार किया जाता है, चेतावनी दी जाती है, जिन्हें हमारे युवा सुनकर भी अबसुनी कर जाते हैं। नक़ल की अनौपचारिक संस्कृति इतनी गहरी है, बाज़ार इतना व्यापक है, और तकनीक इतनी सरल है कि इसे रोका नहीं जा सकता। तो हमारे युवा इसी ग़ैर-क़ानूनी और ख़तरनाक ढंग से अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी जिए जाते हैं। लेकिन जो नई कार्य-संस्कृति बन रही है कॉल सेंटरों में, या आईटी कंपनियों में, उसको लेकर हमारे यहाँ कितनी चर्चा हुई है? हमें उनमें नौकरी पानेवाले आईआईटी, आईआईएम की बड़ी तनख़्वाहों की ख़बर तो बड़े उल्लास के साथ दी जाती है, लेकिन वहाँ के मज़दूरों पर भी कोई ख़बर छपती है? उन्हें अलग-अलग टाइम ज़ोन के हिसाब से दिन-रात काम करना कैसा लगता है? उन्हें क्रुद्ध ग्राहकों की गाली सुनना कैसा लगता है? अनजाने ऐक्सेन्ट अख़्तियार करने में क्या सब करना पड़ता है? पिज़्ज़ा हट या बरिस्ता में काम करने के क्या मायने हैं? समय, अनुशासन और कार्यकुशलता के क्या मानदंड हैं? सदा मुस्कुराने का दिलो-दिमाग़ पर क्या असर होता है, कितने पैसे मिलते हैं, छुट्टियाँ कितनी हैं, कहाँ रहते हैं, कैसे आते- जाते हैं। ज़ाहिर है कि हम युवा वर्ग के कर्मक्षेत्र के बारे में ज़्यादा नहीं जानते। वहाँ यूनियनें तो होंगी नहीं, इसलिए वाम या दक्षिण के पारंपरिक संगठन के दायरे से भी वे दूर हैं। हम सिर्फ़ इसकी चिन्ता करते दिखाई देते हैं कि रात-रात भर साथ काम करने वाले युवक-युवतियाँ भला क्या करते होंगे? लेकिन यह युवावर्ग बिना हमारे घोषणापत्र के अपने तरीक़े से अपनी-अपनी लड़ाइयाँ भी लड़ रहा है। संगठनों से और पुलिस से पिट रहा है लेकिन वैलेंटाइन डे मना रहा है। दो हालिया उदाहरण पेश करता हूँ। जेसिका लाल और मेहर भार्गव के मामलों में लोग ख़ुद बाहर निकलकर आए, लगभग उसी तरह से मो मबत्तियाँ जलाकर विरोध प्रदर्शन किया जैसा कि आपने रंग दे बसंती में देखा। हमने टीवी पर देखा भी होगा, पर कम लोग जानते होंगे कि यह लामबंदी एसएमएस के ज़रिए हुई। दूसरी मिसाल –जिस दि न दिल्ली में वन-डे चल रहा था, और व्यापारियों की दुकानें सील की जा रही थीं, उसी दिन नांगला माची भी उजाड़ी जा रही थी, जिसे आपने टीवी पर नहीं देखा होगा, अख़बारों ने भी शायद ही लिखा। नांग्ला माची प्रगति मैदान के कोने पर रिंग रोड पर बसी हुई बस्ती थी, वहाँ अब कॉ मनवेल्थ गेम्स विलेज बनेगा, पर उजड़े हुओं को न तो कोई ठिया मिलेगा न ही मुआवज़ा। इस लेख के लिए अहम बात यह है कि वहाँ के युवाओं ने अंकुर के लैब में बैठकर नाँग्ला के इतिहास, उसके वर्तमान और वहाँ रहनेवाले लोगों के भविष्य के बारे में लगातार लिखा, और इंटरनेट पर ब्लॉग के रूप में या लिस्टों पर पोस्ट किया। वह बुलडोज़रों को तो नहीं रोक पाए लेकिन हाथ-पर-हाथ रखकर बैठे भी नहीं रहे, अपने आस-पड़ोस के बारे में सोचा और लिखना जब मुश्किल था तब लिखा और एक अख़बार भी निकाला, जिसका शीर्षक है - 'था- नांगला - है'। इसलिए मुझे लगता है कि बदलते युग में युवाओं के बदलते मूल्यों पर जल्दबाज़ी में निर्णय देने के पहले उनके काम देखने, उनकी आवाज़ें सुनने की ज़रूरत है। वरना दूर से हमें उनकी दुनिया अनंत मस्ती की पाठशाला ही नज़र आएगी, और उनकी शहादत बेवक़ूफ़ाना प्रतीत होगी। From ravikant at sarai.net Tue Jun 27 14:46:50 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 27 Jun 2006 14:46:50 +0530 Subject: [Deewan] ek lekh, link to rah hi gaya Message-ID: <200606271446.50360.ravikant@sarai.net> ravi Shrivastav va anya saathiyon dwara prakaashit hindi blogzine: http://rachanakar.blogspot.com From ravikant at sarai.net Thu Jun 29 18:31:24 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 29 Jun 2006 18:31:24 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: unicode par kavita Message-ID: <200606291831.24733.ravikant@sarai.net> dosto, neeche ki paaribhashik shabdaavalii dekhna na bhoolein. is shabdaavali mein sarai ka bhi ek yogdaan joRta chaloon: world wide web = jagat joRtaa jaal shukriya ravikant http://www.chaurichaura.com/news/news.php?go=fullnews&id=66 हिन्दी अपनाएं- श्री हिन्दी हिन्दुस्तान की भाषा, सारे देश-ज़हान की भाषा, आओ, इसको हम अपनाएं, इसका गौरव नित्य बढ़ाएं. वैभवशाली राष्ट्र की भाषा, हिन्दी "अंतरजाल" की भाषा, कम्प्यूटर विज्ञान की भाषा, जनता और सुलतान की भाषा. युनीकोड ने किया कमाल, हिन्दी का दे, "अन्तर्जाल", गूगल इसको दे सम्मान, माइक्रोसॉफ़्ट भी गया है, मान. है प्रयोग इसका आसान, नहीं चाहिए, ज्यादा ज्ञान, चलें लगाएं, इसमें ध्यान, कोशिश को दें नहीं विराम. "अन्तर्जाल" को दें खंगाल, इसमें कोई नहीं बवाल, कोई इसमें नहीं सवाल, इसका है परिणाम कमाल. "गुड-मॉर्निंग" को कहें विदा- बोलें सबको शुभ-प्रभात, अच्छा लगे, "रात्रि-शुभ" कहना- जब हो जाये थोड़ी रात. देश महान तभी होगा जब- भाषा को देंगे सम्मान, घर में हिन्दी, बाहर हिन्दी, हिन्दी में हों सारे काम. -श्री सिंगापुर पारिभाषिक शब्दावली: अन्तर्जाल=इन्टरनेट खंगालना=नेट-सर्फिंग युनीकोड=एक ऐसा सिस्टम जिसमें सारे अक्षरों के लिये एक अभिन्न हेक्साडेसिमल अंक निर्धारित होता है. इस कोड के आने से पहले हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को इंटरनेट पर देखने के लिये काफी मुश्किलें होती थीं. ------------------------------------------------------- From rajeshkajha at yahoo.com Fri Jun 30 10:39:55 2006 From: rajeshkajha at yahoo.com (Rajesh Ranjan) Date: Thu, 29 Jun 2006 22:09:55 -0700 (PDT) Subject: [Deewan] Fwd: unicode par kavita In-Reply-To: <200606291831.24733.ravikant@sarai.net> Message-ID: <20060630050955.91744.qmail@web52913.mail.yahoo.com> ठच्छा है! और रविकांतजी आपका राष्ट्रीय सहारा का लेख बढ़िया रहा. मस्ती की पाठशाला देखने का ठंदाज निराला है. राजेश --- Ravikant wrote: > > dosto, > neeche ki paaribhashik shabdaavalii dekhna na > bhoolein. is shabdaavali mein > sarai ka bhi ek yogdaan joRta chaloon: > > world wide web = jagat joRtaa jaal > > shukriya > > ravikant > > http://www.chaurichaura.com/news/news.php?go=fullnews&id=66 > > हिन्दी ठपनाएं- श्री > > हिन्दी हिन्दुस्तान > की भाषा, > सारे देश-ज़हान की > भाषा, > आओ, इसको हम ठपनाएं, > इसका गौरव नित्य > बढ़ाएं. > > वैभवशाली राष्ट्र > की भाषा, > हिन्दी "ठंतरजाल" की > भाषा, > कम्प्यूटर विज्ञान > की भाषा, > जनता और सुलतान की > भाषा. > > युनीकोड ने किया > कमाल, > हिन्दी का दे, > "ठन्तर्जाल", > गूगल इसको दे सम्मान, > माइक्रोसॉफ़्ट भी > गया है, मान. > > है प्रयोग इसका आसान, > नहीं चाहिए, ज्यादा > ज्ञान, > चलें लगाएं, इसमें > ध्यान, > कोशिश को दें नहीं > विराम. > > "ठन्तर्जाल" को दें > खंगाल, > इसमें कोई नहीं बवाल, > कोई इसमें नहीं सवाल, > इसका है परिणाम कमाल. > > "गुड-मॉर्निंग" को > कहें विदा- > बोलें सबको > शुभ-प्रभात, > ठच्छा लगे, > "रात्रि-शुभ" कहना- > जब हो जाये थोड़ी रात. > > देश महान तभी होगा > जब- > भाषा को देंगे > सम्मान, > घर में हिन्दी, बाहर > हिन्दी, > हिन्दी में हों सारे > काम. > > -श्री > सिंगापुर > > पारिभाषिक > शब्दावली: > ठन्तर्जाल=इन्टरनेट > खंगालना=नेट-सर्फिंग > युनीकोड=एक ऐसा > सिस्टम जिसमें सारे > ठक्षरों के लिये एक > ठभिन्न > हेक्साडेसिमल ठंक > निर्धारित होता है. > इस कोड के आने से > पहले हिन्दी और ठन्य > भारतीय भाषाओं को > इंटरनेट पर देखने के > लिये काफी > मुश्किलें होती थीं. > > ------------------------------------------------------- > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > __________________________________________________ Do You Yahoo!? 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