From mahmood.farooqui at gmail.com Wed Feb 1 09:23:19 2006 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Wed, 1 Feb 2006 09:23:19 +0530 Subject: [Deewan] kismet Message-ID: Doston, The following is a short film made by a group of friends in collaboration with some homeless kids of Kusumpur Pahari...You can catch a glimpse of it here...and wonder why the children insisted on calling their film Kismet... Mahmood.. Greetings friends and family: We have made our first short film which is actually 15 minutes long, but an even shorter version is available for viewing at the following link: http://medialab.ifc.com/film_detail.jsp?film_id=317 If our film receives enough viewing and votes, it will be shown on the IFC TV channel, so we are requesting our friends and family to view and vote. Please view and vote. The film is called Kismet and was scripted by homeless kids in Delhi who also act in it. We are focussed on making films about social issues, with motivational and hopeful messages. This activity is part of our over all goal of making opportunities available to impoverished children. The films help raise awareness. We are trying to set up permanent programs that provides education and career guidance until the kids get their first non-subsistence job. Please visit us at www.eato.org to learn more about our efforts. Many thanks Regards Mudit From pandeypiyush07 at yahoo.com Thu Feb 2 08:02:27 2006 From: pandeypiyush07 at yahoo.com (piyush pandey) Date: Wed, 1 Feb 2006 18:32:27 -0800 (PST) Subject: [Deewan] first posting Message-ID: <20060202023227.56200.qmail@web30705.mail.mud.yahoo.com> Dear Friends, This is my first posting at Sarai. सराय के सभी मित्रों,सहयोगियों को मेरा नमस्कार... मित्रों, पिछले आठ वर्षों से मैं की बोर्ड का सिपाही हूं यानि नए युग की पत्रकारिता कर रहा हूं। दिल्ली में अमर उजाला से करियर की शुरुआत करने के बाद जिधर मौका मिला, उधर बह लिया। कुछ साल अखबार में रहा तो कुछ साल वेब पत्रकारिता की, इसके बाद टेलीविजन का अनुभव भी लिया। हालांकि, पत्रकारिता का हर क्षेत्र अपने आप में अलग है, सभी के अपने रोचक अनुभव भी हैं लेकिन इसके बावजूद मेरा मानना है कि टीवी पत्रकारिता बिलकुल अगल है। यहां सोचने, समझने के लिए वक्त नहीं है। आपकी पहली प्रतिक्रिया ही समाचार के बारे में आपका दृष्टिकोण निर्धारित कर देती है और किसी भी खबर को लेकर less reaction time ही आपकी सफलता का आधार भी है। सीधी बात यह कि आप कितनी जल्दी खबर ब्रेक करते हैं, सफलता बहुत हद तक इस पर निर्भर है। इसके अलावा, टेलीविजन चैनलों में सफलता टीआरपी यानि टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट से निर्धारित होती है, लिहाजा येन केन प्रकारेण टीआरपी को कैसे बढ़ाया जाए, सभी चैनल इसी मशक्कत में जुटे रहते हैं। टीआरपी की ये जंग चैनलों से नए प्रयोग करा रही है। ताजा प्रयोग है- अपराध आधारित कार्यक्रमों का प्रमुखता देना। चैनलों का मानना है कि क्राइम बिकता है, लिहाजा उसे प्रमुखता दी जानी चाहिए। आपराधिक खबरों को सनसनीखेज बनाकर प्रस्तुत करने का सिलसिला चैनलों में जिस तेजी से बढ़ा है, वो गंभीर अध्ययन का विषय है। क्या अपराध वास्तव में बिकता है ? अगर बिकता है तो क्यों बिकता है ? क्या क्राइम प्रोग्राम्स सबसे ज्यादा टीआरपी खींचते हैं या ये महज़ एक मिथ है? क्या टीआरपी का फंडा ही अपने आप में गलत है? ऐसे तमाम सवालों की पड़ताल करने की कोशिश मैं अपने शोध में कर रहा हूं। दरअसल, मेरा मानना है कि न्यूज चैनल सिर्फ Three C का फार्मूला ही समझ रहे हैं। थ्री सी यानि क्राइम(Crime) ,सिनेमा(Cinema) और क्रिकेट(Cricket) । इन विषयों से जुड़ी खबरें तो बिना महत्व समझे ही सुर्खियां पा जाती है, जबकि दूसरी कई अहम खबरें चैनल पर एक मिनट का वक्त भी बमुश्किल ही पा पाती हैं। जाहिर है, ऐसा क्यों हो रहा है,ये समझना बहुत ज़रुरी है। इस सवाल के तमाम पहलुओं की बारीकी से पड़ताल करने के लिए मुझे ये शोध महत्वपूर्ण प्रतीत होता है। हालांकि,मेरे शोध का आधार अपराध आधारित कार्यक्रम ही रहेंगे। इस शोध में क्राइम प्रोग्राम्स की समीक्षा रिपोर्ट, मीडिया विश्लेषकों और जानकारों से ऐसे कार्यक्रमों को लेकर इंटरव्यू, दर्शकों से बातचीत, टीआरपी क्या, क्यों और कैसे की जानकारी, टेलीविजन क्राइम रिपोर्टरों से बातचीत आदि जुटायी जाएगी। मैंने अपने शोध का नाम दिया है-न्यूज चैनलों का सत्यकथाकरण। शोध के बारे में विस्तृत चर्चा अगली पोस्टिंग में.......... धन्यवाद --------------------------------- Bring words and photos together (easily) with PhotoMail - it's free and works with Yahoo! Mail. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060201/0c13b745/attachment.html From sadan at sarai.net Thu Feb 2 17:47:19 2006 From: sadan at sarai.net (Sadan Jha) Date: Thu, 02 Feb 2006 17:47:19 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSk4KS44KWN4KS14KWA4KSwIOCkleCkviDgpKrgpII=?= =?utf-8?b?4KSV4KWN4KSf4KSu?= Message-ID: <43E1F84F.7010009@sarai.net> दोस्तों, मैंने यह लघु लेख करीब तीन-चार साल पहले िलखा था जब मैँ ‌अौर मेरा दोस्त प्र्भास रंजन, सराय स्वतंत्र शोधबृित के तहत 'शहर के िनॅशा' पर काम कर रहे थे. यहाँ िजस तस्वीर की बात है उसे यहाँ पोस्ट नहीँ िकया जा सकता है. तस्वीर को http://akshhar.blogspot.com देख सकते हैँ. तस्वीर का पंक्टम एक तस्वीर है। इसकी जमीन पर कुछ पेड्‍ हैँ और उन पर टीन के छोटे-छोटे प्लेट लगे हुए हैँ। यह कुछ एसा मजमा पेश करता है कि मानो ये पेड्‍ इन्ही प्लेटों के लिए खडे हों, मानो ये प्लेटें इन्ही पेडों के लिए बने हों। यह दूसरी बात कुछ अधिक यर्थाथता का बोध देती है। लेकिन, यकिन मानिए, इस तस्वीर में इन पेडों का वजूद इन प्लेटों के साथ अनिवार्यत: संबद्ध है वरना ये तस्वीर ही शायद नही ली जाती और अगर तस्वीर नही ली जाती तो हम और आप बात ही नही कर रहे होते। यह तस्वीरों के हस्तक्षेप से हो रहा संवाद है। यह एक तस्वीर के चंद लम्हों की कहानी है। इस तस्वीर में, उस पेड्‌ पर लटके टीन प्लेटों पर अंग्रेजी के बड्‍े अक्षरों में लिखा है-' एवार्सन'। नीचे एक फोन नंवर दिया गया है, एक 'समस्या' के समाधान के लिए। अपनी आवाज को पहुँचाने के लिए और किसी आवाज को दुनिया में आने से पहले ही दबा देने के लिए। इस तस्वीर के जरिए हम एवार्सन के आसपास बुन रहे ताने-बानों, और उनके विमर्शों की बात कर सकते हैं। राज्य-तंत्र और राजसत्ता, कानुन की सत्ता, इस कानुन के पुरुषवादी स्वरुप और उसकी नारीवादी व्याख्याओं में शहर की इच्छाओं, डरों और क्रूर यर्थाथों कि दुनिया में इस सामान्य से लगने वाले तस्वीर के सहारे प्रवेश कर सकते हैं। वासना और शहर की खौफनाक हकीकत से भी बात आगे बढाई जा सकती है। पर यहां मेरा सरोकार फिलहाल कुछ और ही है।इस तस्वीर में अपनी ही आँखों को ढूंढा जा रहा है-इस तस्वीर को देखते हुए, इस तस्वीर में भटकते हुए…अपनी आँखों की तलाश कहां सेशुरु की जाए? मशहूर रोलां बार्थस् के 'पंक्टम ' को ढुंढता हूँ। 'पंक्टम अर्थात् वह बिन्दु जिस पर नजर ठहरती है और उसी की होकर रह जाती है। जो किसी तस्वीर के फ्रेम को परिभाषित करती है,स्वरुपित करतीहै। जो बिन्दु आँखों को कैद करती है, जिसमे नजर बन्द हो जाता है और जिसके सहारे आप तस्वीर के पाठ की दुनिया में प्रवेश करते हैं। एस तस्वीर का पंक्टम इसके फ्रेम के भीतर नही बरन् बाहर है। यह इस फ्रेममें अनुपस्थित जितना नही है उससे अधिक अदृश्य है। यह पंक्टम तस्वीर के कैपसन के जरिए इसके फ्रेममेंअपने होने का अहसास दिला रहा है। यह पंक्टम दौलतराम कालेज की वह दीवार है जिसके आगे यह पेड्‍ खडा है, जिस पर तीन के प्लेट में एक इबारत है। एवार्सन की इस पंक्टम के बनने की चर्चा यहां कुछ अप्रासांगिक नही होगा।यदि जूम आउट करें तो यह चित्र दिल्ली विश्वविद्यालय का है। िदल्ली विश्वविद्यालय में कई सड्‍कों के नाम हैं। सौभाग्य या दुर्भाग्यवश इस सड्‌क का , जिसपर एवार्सन वाले ये पेड्‍ हैं, का कोई नाम नही है। यदि इसका कोई नाम हो भी तो वह प्रचलित नही है। खैर,नाम के अभाव में एस सड्‌क, जिसपर हमारे तस्वीर का पंक्टम मौजूद है, का ठोस ज्योग्राफिया बयान लाजिमी हो जाता है। यह सड्‌क रिंग रोड, जो दिल्ली के मुख्य सडकों में से एक है, से ही निकलती है और मानसरोवर छात्रावास, खालसा कालेज, मिराण्डा हाउस, आर्टस् फैकल्टी और दौलतराम कालेज होते हुए कमलानगर, रुपनगर और शक्तिनगर तक जाती है। कुछ और भी जगहों को शामिल किया जा सकता है लेकिन फिलहाल उन्हें रहने दें। यहाँ गौरतलब हो कि तस्वीर का पेड्‍ कोई अकेला पेड्‍ नही है जिसपर टीन की यह पट्टी लगी है। एवार्सनकी पट्ट बाले पेड्‌ खालसा कालेज से ही शुरु हो जाते हैं। और जब भी इस सड्‍क पर आप शहर से परेशान होकर इन पेडों की छाह की ओर, इनकी हरियाली की ओर नजर दौराएंगे आपको इनकी तना पर एवार्सन की पट्टी मिल ही जाएगी। दिल्ली विश्वविद्यालय की यह सड्‍क जो अपनी 'रंगीनी' के कारण खासी तादाद में शहर के मजनुओं का सैरगाह, उनका ख्वावगाह है और इस कारण से कई महत्वपूर्ण रुपों में इस तस्वीर के पाठों को स्वरुपित करता है।यह पंक्टम परेशान करता है।तस्वीर के पाठों एवं इनके बहुतेरे 'अन्य' को विस्थापित करता है। लेकिन कुछ सवालात हैं जिनसे रुबरु हुए बगैर पाठों के इन बहुतेरे अन्य का विस्थापन नही पढा जा सकता है। सबसे पहले, दिल्ली विश्वविद्यालय की यह सड्‍क, ग्लर्स् कालेज की यह दीवार ही क्यूँ? इन टीन प्लेटों को इस सड्‍क पर लगाने वाले, ग्लर्स कालेज के सामने (बहुत चुपके से) प्रदर्शित करनेवालों के बाजारीय हथकँडों में किस प्रकार के मिथकों का बोलबाला है। इस सड्‍क, इस कालेज के बारे में वे कौन सी पुरुषवादी सोच काम कर रही है जिसने इस सड्‍क को, इस कालेज को इस तस्वीर की 'सबसे नजदीकी पृष्टभूमि' प्रदान की? एवार्सन करने वालों के द्वारा इस जगह का चुनाव क्योँ?इस 'क्योँ के साथ कई प्रकार की समस्याएँ जुडी हुई है। इस 'क्योँ' के साथ हम कितनी दूर तक जा सकते हैं? संस्‍कृति , खासकर जनसंस्कृति के अध्ययन में अक्सर बिच मझधार में ही यह 'क्योँ ' हमारा साथ छोड्‍कर बोरिया बिस्तर समेट भाग खडा होता है। जिस तरह के दृश्य जगहों की बात हम करना चाहते हैं उनके पीछे के व्यक्तियों खि ठीक-ठीक मंशा जानना असंभव है और मेरी माने तो सैद्धांतिंक रुप से गैर-जरुरी भी। यह प्रयास असंभव इसलिये नही कि आप उन तक नही पहुँच सकते या फिर वो अपनी मंशा आपसे साझा करने के लिये तैयार नही होंगे। समस्या तो तब खडी होती है जब आप उस 'कहे गये' मंशा को पढने, व्याख्यायित करने बैठते हैं और पाते हैं कि जो कहा गया है वह महज चेतन मानस कि एक अभिव्यक्ति मात्र है। यह अहसास होता है कि इस व्यक्त चेतन के पीछे का अव्यक्त अचेतन अधिक महत्वपूर्ण होगा। और फिर, आप पुरे पाठ में अकेले रह जाते हैं- अपनी ही कल्पनाओँ के साथ, अपने ही विम्बोँ में उलझे हुए। एक दुसरी भी समस्या है, थोडी अधिक जटिल। यह पाठ के लेखक के बहुवचन होने कि समस्या से उपजता है। इस समस्या में लेखक स्वयं ही विस्थापित होता चलता है। जिसने ये टीन प्लेट लगवायी क्या उसे ही इस पाठ का लेखक माना जाय? क्या उस संस्‍कृति और उन मिथकों को इनका लेखक नही माना जाय जिसने इस तख्ती लगवाने वाले की मनोबृति को प्रभाबित करते हुए उसे इस जगह पर टीन प्लेटें लगवाने हेतु प्रेरित किया? क्या हम ही इस पाठ के लेखक नही हैँ जो इस अदने से तस्वीर के बहुतेरे संभाब्य पाठों में से महज एक खास हिस्से को तरजीह दे रहे हैं? या फिर आप ही क्योँ नही जो अपने पठन के दौरान अपने अनुभवोँ और ज्ञान के द्वारा पुरे पाठ को परिमार्जित करते चल रहे हैँ? और भी बहुतेरे सवाल हैं जो लेखक के कटघरे में खडे होने से उपजते हैं। और…लेखक स्वयंही एक पाठ हो जाता है। लेकिन, अभी इसे भी रहने दें। यहां उस जनसंस्कृति, शहर के उस जनस्थान की ओर लौटें जिसमे तस्वीरका यह विम्ब, इसके बनते बिगडते अक्स एवं इस अक्स में साँस लेता शहर हमारे आँखों से टकराता है। यह देह होता शहर है और है, देह पर फिसलती कुछ जोडी जुडी आखें। शहर और देह का रिस्ता बहुत पुराना न भी हो लेकिन नारीवादी विमर्श के लिए कुछ नया भी नही है। थोडी देर के लिये इस पँक्टम से अपना ध्यान हटाकर वापस इस तस्वीर के उपस्थित फ्रेम की ओर लौटे तो पाते हैं कि इस दृश्य के मूल में एक देह है-अजन्मा, अनदेखा लेकिन अपरिचित अनजाना नही। इस तस्वीर के सारे दावे/प्रतिदावे इसी देह पर हो रहे हैं। इस अजन्मे देह के अस्तित्व को मिटाने का आहवान है यह टीन-प्लेट परन्तु, इस देह के अस्तित्व को हम कहां खोजें? निश्चित तौर पर इस देह की अहमिता जितनी इसको धारण/परित्याग करने वाले गर्भ पर निर्भर है उतनी ही यह डर व असुरक्षा की एक सामान्य शहरी मनोबृति में भी। इसप्रकार, हम पाते हैं कि दावे/प्रतिदावों का स्थान उस अजन्मे गर्भ से बदलकर उस गर्भ धारण करनेवाली नारी देह पर आ जाता है। इसका मतलब यह कती नही है कि कोख और उसको धारण करने वाली देह, दो भिन्न ईकाईयां हैं। यहां इन्हे महज संवाद और विमर्श के बहाने दो दैहिक जगहों के रुप में प्रयोग किया गया है जो एक दुसरे में उपस्थित होते हुए भी भिन्न दृष्टिकोण की मांग करते दिखते हैं। एक नजर से देखें तो एवार्सनकी यह टीन-प्लेट इस देह को मुक्त करती है। गर्भाधान भारत में अनिवार्यत: एक सामाजिक बंधन की पूर्वकल्पना करता है और अपवादों को छोड्‍ दें तो कोख द्वारा मातृ-देह पर की जा रही दावों की वैधता वस्तुत: विवाह की सामाजिक प्रक्रिया के माध्यम से ही होती है। दुसरे शब्दों में कहें तोकोख मातृ-देह पर दावे पेशकर उस देह को औपनिवेशिक बनाता है। उस देह को अधिकृत कर लेता है (भले ही यह औपनिवेशिकरण, यह अधिकार प्यार/मातृत्व की सबसे मूल, सबसे स्फूट और सबसे मूक अभिव्यक्ति ही क्योँ न हो)। एवार्सन का यह प्रचार मातृ-देह को अपने ही कोख के द्वारा किए गये अधिकार को खत्म करता है। गर्भाधान के साथ संबद्ध सामाजिक बंधनों को तोरता हुआ, यह फ्री-सेक्स के साथ जुडे उस थोडे से भय को भी खत्म करता है जो एक नारी देह तमाम गर्भनिरोधक तरीकों और कंडोम के उपयोग के बाद भी अपने साथ ढोती है। अब यह देह उस सामाजिक भय से मुक्त होकर दुसरे देह से मिल सकती है, जो एक अजन्मे, अनजाने और अनचाहे (बच्चे की) देह की संभावना का प्रतिफलन है। लेकिन यह तो महज एक स्तर है।इस स्तर के ठीक नीचे देह का एक बिल्कुल भिन्न और आभासी तौर पर कहैं तो ठीक बिपरीत रुप नजर आता है। इस दूसरे स्तर पर यही टीन-प्लेत और इनकी यही इबारत, देह को बिबाह के सामाजिक बंधनों से मुक्त करने के बजाय सामाजिक संस्था के रुप में बिबाह की उपयोगिता और देह की इस संस्था पर निर्भरता के मुद्दे को पुन: आरोपित करती है। यह विज्ञापन नारी देह को उसके कोख की भय से तो मुक्त करता है लेकिन उस भय के पीछे के मूल कारण सामाजिक भय को अपने विमर्श के केन्द्र में बनाए रखता है। यह पोषता है इस भय को। यह पहले नारी देह पर सामाजिक वक्तव्यों को स्थापित करता है-शादी गर्भाधान की अनिवार्य पूर्वकल्पना है ( या फिर कुछ दुसरे तरह के सामाजिक-आर्थिक भय जो शहरी जीवन की गतिशीलता और गर्भाधान के कारण होती अधिक व्यवहारिक परेशानियों द्वारा उत्पन्न होता है)। फिर यह नारी देह को उस प्रक्रिया का निदान बताता है जिसके कारण यह भय आरोपित होता है। लेकिन एसा करते हुए यह कभी उस भय का निदान नही करता है बल्कि यह भय को और अधिक व्यापक बनाता है।नारी देह को हमेशा सामाजिक मान्यताओं के भय के आगोश में रखता है। यह आगोश और इस आगोश का अहसास इस टीन-प्लेट को देखते हुए जागृत हो उठती है। पहला संदेश दुवारा लोटकर आता है- फ्री-सेक्स की संसकृति में गर्भाधान सबसे बडी सामाजिक समस्या है और एवार्सन हि इसका एकमात्र उपाय है। इस टीन-प्लेट से नजरें फिसलती हुई नारी देह पर अटकती है उसे असुरक्षित, भयाक्रांत करते हुए कमजोर बनाती चलती है।शहर द्वारा, इसकी दृष्टि के द्वारा नारीदेह पर कब्जा करने का यह महज एक हथकंडा है। शहर के नजर के पास ऐसे हथकँडों की एक पूरी श्रृखला है जिसके द्वारा शहर और इसके पुरुषवादी नजरों का राज चलता है। यह नारी देहों पर होता दस्तदराजी है: शहर के देह पर, इबारतों कि नारी देहों पर पुरुषवादी नजरों की। "दस्त=हाथ, दराज=लम्बा करके छुलाना, काफी हद तक अश्लील तरीके से जुल्म; अत्याचार; दुस्साहस ; गुस्ताखी; मार पीट”।1 इतिहासकार शाहिद अमीन /ज्ञान पांडे ने औपनिवेशिक काल के अंग्रेज परस्त उर्दु अखवार के 1921 में छपी एक रपत का हवाला देते हुए इस शब्द का इस्तेमाल किया है। औपनिवेशिक देह तो अब रहा नही लेकिन दस्तदराजी तो शायद हमेशा ही कायम रहेगी। यह एक ऐसा उदाहरण है जहां जनस्थान की रचना, महिलावादी स्वरों को शांत कर नही हो रही है। कुछ गहरा और बडे नाजूक हाथों से पक रहा है। पुरुषवादी शक्तियां उभरकर मैदान में आमने सामने नही हैं। यह खेल तो महिलाओं की उपस्थिती से ही हो रहा है। शर्त बस इतनी कि देखने वला, मजा लेने वला हमेशा पुरुश देह हि है। दस्तदराजीके नये नये नुस्खे ईजाद करता-देह का शहर, शहर के देह…देह में ढलती नजर। सदन झा (सदन झा और प्रभास रंजन, शहर के निशान)। From raviratlami at gmail.com Sat Feb 4 17:35:43 2006 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Sat, 4 Feb 2006 17:35:43 +0530 Subject: [Deewan] Fw: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts Message-ID: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> दोस्तों, मॉज़िल्ला-फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र का एक नया एक्सटेंशन पद्मा(http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi ) जारी किया गया है जो कि तमाम हिन्दी के विविध फ़ॉन्टों को गतिमय रूप से, स्वचालित रुप से, यूनिकोड में परिवर्तित कर ब्राउज़र में खुद-ब-खुद प्रदर्शित करता है. यानी की अब किसी भी हिन्दी साइट में बिना किसी फ़ॉन्ट संबंधी बाधा के यूनिकोड में पढ़ सकते हैं, भले ही वह हिन्दी साइट यूनिकोड में नहीं हो! तकनॉलाज़ी की सीमाएँ अंतहीन ही हैं... अपने अनुभव, बग्स (किन साइटों- फ़ॉन्टों पर काम करता है, किन पर नहीं...) इत्यादि साझा अवश्य करें. ----- Original Message ----- From: "G Karunakar" To: Sent: Saturday, February 04, 2006 11:30 AM Subject: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts Ever visited a Indian language newspaper website and couldnt read it becoz the encoding was proprietry or the fonts didnt work, a little know gem of Indic tools - Padma makes it possible, an extension written for Mozilla/Firefox it converts the website text to unicode and redisplays the page, making it readable in your browser - all dynamically and automatically. Developed by Nagarjuna Venna, Padma Indraganti, it is inspired by Kolichala Sureshs implementation of a converter from RTS to Unicode for the Internet Explorer. >From the home page ( http://padma.mozdev.org ) Padma is a technology for transforming Indic text between various public and proprietary formats. This extension applies the technology to Mozilla based applications. Padma is available as an extension for Firefox, Thunderbird and Netscape platforms. Padma currently supports Telugu, Malayalam, Tamil, Devanagari and Gujarati scripts. The following output formats are supported: Unicode, RTS (for Telugu script) . Input methods supported are: RTS, Unicode, ISCII, ITRANS. Many popular newspapers website encodings are supported. So just install the extension and browse the sites, now automatically converted to unicode. The current stable version of Padma is 0.4.4. http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi Mailing list - http://mozdev.org/mailman/listinfo/padma -- ************************************* * Work: http://www.indlinux.org * * Blog: http://cartoonsoft.com/blog * ************************************* ------------------------------------------------------- This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Do you grep through log files for problems? Stop! Download the new AJAX search engine that makes searching your log files as easy as surfing the web. DOWNLOAD SPLUNK! http://sel.as-us.falkag.net/sel?cmd=k&kid3432&bid#0486&dat1642 _______________________________________________ Indlinux-hindi mailing list Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi From nangla at cm.sarai.net Sun Feb 5 22:26:28 2006 From: nangla at cm.sarai.net (=?UTF-8?B?IuCkuOClgOCkj+CkriDgpLLgpYjgpKwsIOCkqOCkvuCkguCkl+CksuCkviDgpK7gpL7gpIHgpJvgpYAi?=) Date: Sun, 05 Feb 2006 17:56:28 +0100 Subject: [Deewan] NM se, 01 Message-ID: <79fb3fbe09114c30201f94eb3ed1e728@sarai.net> Namaskar! Nangla Maanchi ke Cybermohalla lab ka aap se anurodh hai ki un ke lekhon ko parhte rahiye aur comment karte rahiye. Nangla Maanchi mein survey ho chuka hai. Aur court ke adeshon ki hawa bahut garam beha rahi hai. Is mahol mein hum likh ke aap logon se kuchh share kar rahe hain. Lekhon ka silsila ab se shuru rahega. -------------------------------------------- आजकल -जानू- आजकल मुझे नांगला खाली होता सा लग रहा है। जब शाम के समय मैं घर से बाहर टहलने निकलता हूँ तो लोग कम लगते हैं। कुछ समय पहले तो चलने में कितना ध्यान देना पड़ता था, अब बेफ़िक्री से चलता हूँ। चौखट के बाहर अपना डेरा डाले, अपने में मस्त ताश खेलते आदमी अब कई दिनों से नज़र नहीं आए हैं। बाज़ार में लोग कम दिखते हैं। सामान बेचने वाले खाली बस बैठे हुए ही नज़र आते हैं। अंकुर बता रहा था आजकल जब वो खेलने जाता है तो उसे खेलने के लिये ख़ूब जगह मिल जाती है, पहले जैसे जगह घेरने या कम जगह में काम चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती। होटल वाले कहते हैं रात को बहुत खाना बच जाता है, जबकि वो रोज़ के हिसाब से ही बना रहे हैं। दुकानों से टीवी और सीडी किराये पर ले जाना कम हो गया है। शौचालय पहले की तरह साढ़े चार बजे अब नहीं खुलता। एसटीडी वाला कहता है कोई फ़ोन करने आ ही नहीं रहा। शायद जहाँ फ़ोन करते थे, वहाँ से संपर्क बनाने के लिये अब फ़ोन की ज़रूरत नहीं पड़ रही उन्हें... "कहाँ?” -अंकुर- मणिलाल अपनी बेटी मीनू का दाखिला कराने शेरशाह स्कूल पहुँचे। मैडम ने पूछा, “कहाँ रहते हो?” “नांगलामाँची में,” उन्होंने जवाब दिया। “ये कहाँ है?” "प्रगति मैदान के पास जो सड़क नौएडा की तरफ़ जाती है, उसी सड़क पर प्रगति मैदान की लाल बत्ती क्रॉस कर के,” वो बोले। “अच्छा वहाँ, जहाँ पहले कुछ दलदल और झाड़ियाँ थीं? जो झील जैसे बना है? पर वहाँ तो कुछ नहीं है।" टीचर कुछ याद करने की कोशिश करते हुए बोलीं। “पर अब है, मैडमजी,” मणिलाल बोले। समझाना थोड़ा मुश्किल था। मणिलाल जिस जगह की बात कर रहे थे, वहाँ कोई आता-जाता नहीं था। सामने रिंग रोड थी, जिस पर से सब गुज़र जाया करते थे। फिर कुछ चार-पाँच परिवारों ने अपने घर बनाने के लिये मिट्टी डाल-डाल के दलदल की उस ज़मीन के कुछ टुकड़ों का भराव किया। जितना हो पाया, उतना कवर किया। बिना दीवारों के तरपाल की छतें डाल कर कुछ घर बनाए। दिन भर घर के बाहर रहते, और शाम को वापस आते थे। वो अपने आसपास अकेलापन महसूस करते थे। शाम को चारों तरफ़ अंधेरा रहता था। आसपास के दलदल के बीचों-बीच घरों के अंदर टिमटिमाती बत्तियाँ अंधेरे को और भी गहरा कर देतीं थीं। जब सब सो जाते थे, तो उन के घरों के पास कोई भटकता भी नहीं था। और जब सुबह होती तो दो-चार लोगों को अपने पास बसा हुआ पाते। मणिलाल भी इन्हीं में से एक थे। उन्हें पता था कि जितना भराव करो, जितनी महनत करो, उतनी ही जगह तुम्हारी। वो थोड़े चालाक थे। उन्होंने काफ़ी सारी जगह का मलबे से भराव कर के अपना बना लिया। शुरू में तो वो अकेले ही थे, पर फिर उन्होंने गाँव से अपने परिवार को बुला लिया। उनके परिवार से पहले उन के जीजा दिल्ली आ गए। दोनों ने मिल कर कुछ प्लान किया, और अपने मन के हिसाब से जगह भर के उस पर अपना घर बनाया। इस के बाद उन्होंने अपने बीवी-बच्चों को भी बुला लिया। इसी तरह धीरे-धीरे कुछ लोग वहाँ आ कर बस गये। फिर एक माहौल बनना शुरू हुआ – लोगों का सुबह काम पर जाना, शाम को आना, आते वक़्त महारानी बाग, भोगल, आश्रम से घर के लिये सामान लेते आना, घर में खाना पकाना, बच्चों से बातें करना। ऐसा होते होते ही मणिलाल ने मीनू का स्कूल में दाखिला कराने का सोचा था, और अब उस का दाखिला पहली क्लास में हो भी गया था। मणिलाल मीनू को स्कूल छोड़ने और स्कूल से लेने जाते थे। स्कूल से वापस आते हुए जब वो बस कंडकटर को कहते कि नांगला का टिकट चाहिये तो वो भी पूछते, “कहाँ का?” तो मणिलाल मैडम को दिया हुआ जवाब उन्हें देते। पर धीरे धीरे बसेरा बनता, बसता, फैलता गया, और उस के साथ साथ उस के बारे में शहर में खबर भी। सीएम लैब, नांगला माँछी --------------------------- प्यासों की प्यास बुझाता है नांगला, दिल्ली में आने वालों का बसेरा है नांगला। --------------------------- From nangla at cm.sarai.net Sun Feb 5 22:29:00 2006 From: nangla at cm.sarai.net (=?UTF-8?B?IuCkuOClgOCkj+CkriDgpLLgpYjgpKwsIOCkqOCkvuCkguCkl+CksuCkviDgpK7gpL7gpIHgpJvgpYAi?=) Date: Sun, 05 Feb 2006 17:59:00 +0100 Subject: [Deewan] NM se, 02 Message-ID: लाउड स्पीकर -जानू- एक आवाज़ मस्जिद के माइक से निकल कर गलियों में छाती है, कानों को छूती हुई बसेरे की अलग से पहचान कराती है। हर जगह मस्जिद हैं। लेकिन यहाँ इन मस्जिदों का तजुर्बा ही दूसरा है। हर शाम एक नई आवाज़ लोगों के ज़हन में समाती है। कभी तो ये आवाज़ लोगों को चौंका-सा देती है। वैसे तो लोग अपना काम करते हुए रहते हैं। लेकिन जिस समय मस्जिद से आवाज़ निकल कर गलियों में आती है, तो कुछ क्षण के लिये लोग थम से जाते हैं। यहाँ तक हाथ का निवाला हाथ में ही रह जाता है। जो मुँह में है वो मुँह में रुक जाता है। कुछ आवाज़ें ऐसी हैं जिन्हें सुन कर लोग ख़ुश हो जाते हैं, तो कुछ लोग घबराए हुए नज़र आते हैं। पर अहसास जो भी हो, कुछ देर के लिये सभी ठहर ज़रूर जाते हैं। जहाँ जिस के क़दम होते हैं, वहीं थम से जाते हैं। कुछ आवाज़े तो आम हो चुकीं हैं, पर कुछ ऐसी हैं जो लोगों की भूख, प्यास, छुट्टी भी हर लेतीं हैं। एक आवाज़ ऐसी है, जिसके आने पर कोई एक परेशान होता है। लेकिन कान सब के खड़े हो जाते हैं। ये आवाज़ है जो सब की जानी-पहचानी सी हो गई है - किसी बच्चे के खो जाने की आवाज़। “ध्यान दो! एक बच्चा जो क्रीम कलर का सूट पहने है, जिस के बाल छोटे-छोटे हैं, पैरों में नीले रंग की रूपाली चप्पल है, उम्र लगभग 3 से 5 साल है। बच्चे का नाम दानिश है, पिता का नाम नसरुद्दीन। आप अपने बेटे को पुरानी मस्जिद के पास आकर ले जाएं।" ये तो था हाल का पता। लेकिन और इस तरह के कई मामले होते हैं, और सामने आते रहते हैं। जब तक खोए लड़के के पापा नहीं मिल जाते तब तक मस्जिद के राजा हाफ़िज़ जी बराबर गुहार लगाते रहते हैं। कहीं कहीं तो अपनी आवाज़ के साथ-साथ बच्चे के रोने की आवाज़ भी सुनवाते हैं, कि लोग समझ जाएँ किस के बच्चे की आवाज़ है। कभी उस आवाज़ में "मम्मी", “अम्मी", “पापा", “अब्बू" होता है, तो कहीं सिर्फ़ रोने की ही आवाज़ लोगों के कानों तक आती है। ये तो हैं शांत आवाज़े, जो हवा की तरह बहती रहतीं हैं, और फिर शांत हो जातीं हैं। लेकिन कुछ आवाज़ें वर्षा की तरह आतीं हैं। जैसे राशन कार्ड और पहचान पत्र की आवाज़ें। ये हल्की रिमझिम बूंदों की तरह लोगों को भिगो देतीं हैं। पहली ही आवाज़ की तरह ये भी गलियों में से गुज़र कर लोगों के ज़हन में बस जातीं हैं। लोग सुबह होते ही मस्जिद के हाफ़िज़ का दिमाग़ खाने लगते हैं कि - “कहाँ बनेगा पहचान पत्र?” तो हाफ़िज़ साहब सुबह-सुबह प्रधान से सलाह कर के जगह और दूसरी डीटेल्ज़ के साथ अनाउनंसमेंट कर के लोगों को तसल्ली दे देते हैं। लोग अपनी छुट्टी और कामों को छोड़ कर, फ़ॉर्म भर कर जमा करते हैं। कुछ आवाज़ें तो बिलकुल अंजान होतीं हैं, जैसे कि - “फ़लाँ-फ़लाँ साहब आप जनाब को सुबह से खोज रहे हैं। आप कहीं भी हों, मस्जिद के पास से ले जाएँ।" इस तरह हाफ़िज़ साहब कई बार नाम ले ले कर पुकारते हैं। इसी तरह छोटी-बड़ी घटनाएँ जब घट जातीं हैं तो इन के बारे में भी आवाज़ मस्जिद से निकल कर आती है। जैसे एक बार एक लड़के का एक्सीडेंट हो गया, तो मस्जिद से आने वाली आवाज़ कुछ इस तरह थी - “एक पंद्रह वर्षीय लड़के का रिंग रोड लाल बत्ती के पास एक्सीडेंट हो गया है। सभी लोग वहाँ मौजूद हो कर उसकी पहचान कर लें।" ऐसी आवाज़ों को सुन कर लोग ख़ुद-ब-ख़ुद पहुँचना शुरु कर देते हैं। और बसेरे की एक फ्रमुख आवाज़ है - चुनाव में दावेदारों की। जब कोई ताजदार बाबर, वीपी सिंह जैसे नेताओं का आगमन होना होता है तो लोगों तक उस की आवाज़ पहुँच जाती है कि - "आज इन की रैली है। तमाम बस्ती के लोगों से गुज़ारिश है कि कॢपा कर के सभी रोड पर पहुँच जाएँ और गाड़ी में बैठ जाएँ। आज जंतर मंतर में झुग्गियों के टूटने के प्रति रैली है।" हर किसी को इस तरह ताज़ी ख़बर मिलती रहती है। कभी तो ऐसा शोर नज़र आता है कि लोगों के ज़ेहन में दर्द सा हो जाता है। कि - “आज बस्ती टूटने वाली है। आज सभी लोग यहीं पर रहें।" लेकिन आज तो ये आवाज़ भी आम बन चुकी है। अब तो कोई इस पर ग़ौर नहीं करता। लेकिन कुछ तो सहमी-सहमी साँसें लेने लगते हैं। अरे एक अच्छी बात तो मैं भूल ही रहा था, कि - “आज इन की बारात है। जिन को निमंत्रण है, वो लोग खाना खाने के लिये स्कूल पर पहुँच जाएँ। हाँ, एक बात और! हिंदू भाई भी पहुँच जाएँ। आप के लिये खाने की अलग व्यवस्था की गई है।“ ये भी शाम के वक़्त ही सुनाई देता है। यहाँ तक कि सामान के गुम या चोरी होने, और फिर लौटा दिये जाने पर मिल जाने की भी आवाज़ आती है- “किसी साहबान का बैग गिर गया है। नाम गयासुद्दीन है। बैग में कुछ साढ़े चार सौ रुपये हैं। भाई साहब, आप अपना बैग मस्जिद में आकर ले जाइये, आपकी महरबानी होगी।" फिर एक आवाज़ है, जो हर सुबह की आवाज़ है, कि पढ़ने वाले बच्चे मस्जिद में आ जाएँ। आज़ान और नमाज़ तो अपने समय से होती ही रहती है। और कुछ पर्वों में तो आवाज़ों की भीड़ ही उमड़ पड़ती है - ईद, बक्र-ईद, मुहर्रम, जुम्मे के दिन... संडे -जानू- इन जनाब को देखिये! इन के आव-भाव से लग रहा है कि इन के लिये सप्ताह में ये एक दिन ऐसा है कि बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं करता! शरीर पर आलस ही आलस निखार ले रहा है। मन है, कि बस ज़मीन पर लगे अपने बिस्तर पर लेटे ही रहें। सूरज कब का निकल चुका है, पर मुँह पर चादर औढ़ कर ये किरणों से आँख-मिचोली खेलने में लगे हैं। पर इन दादा-पोता की जोड़ी को देखिये! हफ़्ते भर में अपने शरीर में भरी थकान को तोड़ने के लिये कैसे चुस्त हो गये हैं! बारी-बारी एक दूसरे के शरीर पर तेल की मालिश कर रहे हैं। फिर पानी को अच्छी तरह गरम कर के मन लगा कर नहाएंगे। ये तो इन के हर संडे का प्रोग्राम है। संडे का दिन, मतलब इन के पास शहर में क़दम रखने का समय ही नहीं। एक-दूसरे के साथ समय बिताते हुए ही सारा दिन कहाँ निकल जाता है, पता ही नहीं चलता। हफ़्ते भर की व्यस्तता में जो समय एक दूसरे के साथ नहीं बिता पाते, उस की कसर संडे के दिन पूरी करने की कोशिश करते हैं। पर वहीं कुछ लोग ऐसे हैं जो संडे की सुबह अपने अंदर अलग ही चुस्ती ले आते हैं। संडे सुबह आई जी स्टेडियम के पास एक बाज़ार लगता है, जिस में सामान काफ़ी अच्छा और सस्ता मिल जाता है। इस बाज़ार को चोर बाज़ार के नाम से जाना जाता है। यहाँ जा कर ये लोग सेकेण्ड हैंड सामान को अपने घरों में जुगाड़ से चलाने के लिये ख़रीद लाते हैं। चादर, कूलर, लत्ता-कपड़ा, बिजली का सामान – ये सबवस्तुएँ नांगला के अंदर लाई जातीं हैं। अब इन जनाब को देखिये। कितने प्यार से किसी की मदद ले कर फ़्रिज ले आ रहे हैं। अब ये फ़्रिज गर्मी में पानी ठण्डा करने के मकसद से लिया है, या फिर घर के बिखरे-फैले पड़े सामान को व्यवस्थित रूप में रखने के लिये अलमारी बना के काम में लाने के लिये, ये तो यही बता सकते हैं! यहाँ एसटीडी दुकान की चहल-पहल को देखिये! ये भी संडे की ही ख़ासियत है। आज के दिन दुकानों पर कम, यहाँ ज़्यादा भीड़ नज़र आती है। यहाँ सुनने को मिलेगा कि कौन है, कहाँ का रहने वाला है। सुबह के वक़्त यहाँ लंबी लाइन लगी मिलती है, और हर कुछ मिनट बाद सुनाई देता है, “हाँ, हम बोल रहे हैं, दिल्ली से...” सीएम लैब, नांगला माँछी --------------------------- प्यासों की प्यास बुझाता है नांगला, दिल्ली में आने वालों का बसेरा है नांगला। --------------------------- From nangla at cm.sarai.net Sun Feb 5 22:34:34 2006 From: nangla at cm.sarai.net (=?UTF-8?B?IuCkuOClgOCkj+CkriDgpLLgpYjgpKwsIOCkqOCkvuCkguCkl+CksuCkviDgpK7gpL7gpIHgpJvgpYAi?=) Date: Sun, 05 Feb 2006 18:04:34 +0100 Subject: [Deewan] NM se, 03 Message-ID: <68d2be3bb66073c5a33d784fe1a3e1d9@sarai.net> शनिवार -जानू- तमन्ना की नींद टूटी। वो अपने हसीन बेड से लिपटे बिस्तर को छोड़कर जागती हुई, अपनी पलकों को धीरे-धीरे खोलती हुई, शरीर को टाइट करते हुए उठी। बिस्तर को ओढ़े हुए हल्के गुलाबी रंग के पर्दे को हटा कर उसने दरवाज़ा खोला और सामने लगे दर्पण में देखा। अपना चेहरा देखते हुए, बालों पर हाथ मारा और यकायक कुछ सोच कर उस के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान खिलखिलाई। वो मुड़ी और साहिल के बिस्तर के पास गई, उस के सिरहाने पर बैठ गई। चादर के नीचे से साहिल का चेहरा झांक रहा था - आँखें बंद, किसी गहरे सपने में खोई हुईं एकदम शांत लग रहीं थीं। बाल तकिये से चिपके हुए बिखरे-बिखरे हो रहे थे। तमन्ना ने चादर थोड़ी नीचे सरकाई और उस के गाल पर एक हल्का सा किस दिया। तो साहिल ने थोड़ा हिलते हुए अपनी बाहें फैलाईं और तमन्ना के गले में डाल दीं। तमन्ना ने अपनी मुलायम हथेली से उस के हाथ को सहलाया, और आँखें मटकाते हुए, कमर के झटके के साथ उठी और बिस्तर से दूर हट गई। उस के दूर होते ही साहिल ने बनावटी रूठने की "ह्म्म्म" की आवाज़ निकाल कर चादर खींच कर अपना चेहरा ढक लिया। फिर क्या, रोज़ की तरह तमन्ना घर से निकल कर, दरवाज़ा बंद करते हुए पुश्ते पर बने शौचालय की तरफ़ चल दी। वो रोज़ सुबह जल्दी ही जाती, वहाँ भीड़ लगने से पहले। वहाँ उसी की तरह एक-दो औरतें उसे दिखतीं, जो प्लास्टिक के गिलास में पानी भर के उसी के साथ अलग-अलग डब्बा रूपी शौचालयों में दाख़िल हो जातीं। फिर बाहर निकल के, वहीं बने नल और साथ में रखे साबुन से हाथ-मुँह धोतीं, और शौचालय की देखभाल करती औरत को एक रुपया दे कर अपने घरों की तरफ़ रवाना हो जातीं। तमन्ना भी अब घर की तरफ़ चल दी। अब तक कुछ और औरतें और आदमी भी नज़र आने लगे थे। सब बोतलें या डिब्बे लिये हुए थे। कुछ तो उसी शौचालय की तरफ़, और कुछ यमुना के मैदान की तरफ़ जा रहे थे। सभी रात में जिस में सोते हैं, उन्हीं कपड़ों में थे, या फिर कुछ पहन कर अपनी शरीर को ढाँक लिया था। आदमियों में किसी ने तो सिर्फ़ तहमक ही लपेटी हुई थी, तो कोई-कोई निकर और बनियान, और पैरों में रूपानी चप्पल पहने नज़र आ रहे थे। सभी के बाल सो कर अभी उठे होने से अलग-अलग आकार लिये हुए थे। तमन्ना ने मन में सोचा, मज़ा आए अगर किसी दिन रुक कर बालों के आकार के हिसाब से सब को नाम दूँ! पर अभी तो वो रुकी नहीं। उसे घर जा कर खाना बनाना है, पति को गर्म चाय दे कर उठाना है और बच्चों को स्कूल भेजना है। ये सोच कर तमन्ना जल्दी-जल्दी क़दम बढ़ाते हुए वापस घर की तरफ़ हो ली। सवेरा होने से पहले “जानू" 01 सूरज अभी नहीं निकला है। बसेरे में धुएँ की धुँध नज़र आ रही है। पुश्ता पर कई लोगों के घरों पर चूल्हा जल रहा है। लोग अपने चूल्हों के पास बैठ कर चाय की चुस्कियाँ लगा रहे हैं। ये चूल्हे कमरों के अंदर नहीं बल्कि बाहर ही हैं - सड़क के साथ ही चूल्हा है, और यही रसोईघर है। जब लोग गुज़रते हैं तो इसे छूते नहीं, बस देखते हुए निकल जाते हैं। एक महिला रोटी बना रही है। वो गुँधे आटे की थाली सड़क पर ही रख देती है और खाना बनाने लगती है। उस के पीछे दरवाज़ा है, जिस पर पर्दा नहीं है। जब रसोई ही सड़क पर है, तो पर्दा कैसा। सर्दी का मौसम है। उस ने एक कनस्तर में पानी भर के चूल्हे पर चढ़ा दिया है। हल्की आँच पर पानी गर्म हो रहा है। कनस्तर के बगल में एक छ:-सात साल का लड़का बैठ कर लकड़ियों को हिलाता जा रहा है जिस से आग की लपट और तेज़ हो रही है। वो बराबर पानी को छू कर देखता जा रहा है कि कितना गर्म है। फिर वो आवाज़ लगाता है, “मम्मी, पानी गर्म हो गया।" तो वो औरत अंदर से आ कर पानी को पलट कर ले जाती है, और कनस्तर को दोबारा पानी से भर देती है। वहीं गली से लोग गुज़र रहे हैं। पर गलियाँ सिर्फ़ निकलने के लिये नहीं हैं, वहाँ कुछ लोग अपने पैरों से चादर को टाइट कर कर ओढ़ के सो रहे हैं। कुछ लोगों का तो सोने का समय ही सुबह में होता है। लोग उन से कटते हुए अपने रास्ते पर निकल जाते हैं। 02 एक लड़का, जिस की उम्र पंद्रह से सोलह साल है, जो सुबह की पहली किरण दो सौ से चार सौ रुपये कमा कर ही देखता है। वो अपने बालों को हमेशा लंबा रखता है। उस के कंधे पर हमेशा एक झोली रहती है। उस का रंग सांवला है और वो मुँह में हर वक़्त दिलबाग चबाता रहता है। वो हमेशा उन जगहों पर जाता है जहाँ शायद जाने से सब कतराते हैं। ये ज़मीन से पैसा उठाता है, लेकिन जिसे उठाने को कोई राज़ी नहीं होगा। वो अपने शरीर को झुका कर काम की कोई भी चीज़ उठाता है और अपनी झोली में भर लेता है। उसके पीछे कुत्ते-सुअर घूमते रहते हैं, पर वो निडर हो कर नांगला के आसपास कूड़ा फेंकने के स्थानों पर घूमता है। जहाँ उसे कुछ मिल जाए – प्लास्टिक की बोतल, काग़ज़ का टुकड़ा - वो उसे हाथ से या लोहे की तार से उठा कर बीनता फिरता है। एक डंडे के नीचे चुंबक लगा कर वो नांगला में बनी नालियों में डाल कर चलता निकल जाता है, और जो कुछ उस से चिपकता है उसे अपने तसले में जमा करता रहता है। सूरज निकलने से पहले वो अपना काम पूरा कर के किसी दुकान पर सभी लोगों के साथ चाय पीता है और सूरज ने के साथ साथ वो भी निकल जाता है। सीएम लैब, नांगला माँछी --------------------------- प्यासों की प्यास बुझाता है नांगला, दिल्ली में आने वालों का बसेरा है नांगला। --------------------------- From nangla at cm.sarai.net Sun Feb 5 22:36:30 2006 From: nangla at cm.sarai.net (=?UTF-8?B?IuCkuOClgOCkj+CkriDgpLLgpYjgpKwsIOCkqOCkvuCkguCkl+CksuCkviDgpK7gpL7gpIHgpJvgpYAi?=) Date: Sun, 05 Feb 2006 18:06:30 +0100 Subject: [Deewan] NM se, 04 Message-ID: नोटिस बोर्ड -"जानू” और लखमी- साइन बोर्ड – जो कभी रास्ता बताते हैं, कभी बिन माँगी सलाह देते हैं, कभी नसीहत देते हैं कि ख़ुद को शहर में कैसे पेश किया जाए, और कभी रास्ते से ध्यान खींच कर किसी और दिशा में ले जाते हैं! "यहाँ गैस लाइन है, इसे न खोदें।" “इस चौराहे का नाम है ---।" “दिल्ली रेलवे स्टेशन में आप का स्वागत है।" “अपना घर किराये पर देने से पहले किरायदार की जाँच करवा लें।" “यहाँ पंचर ठीक किये जाते हैं।" एमरजेंसी के बाहर पनपती साँसों के बीच लगा बोर्ड, "एमरजेंसी वॉर्ड"। "प्लीज़ यूज़ मी" लिये कूड़ेदान। हाँ, और एक बोर्ड याद आया जो मेरे पड़ोस में ही लगा है जो किसी प्रॉपर्टी डीलर का आभास कराता है -“यहाँ प्लॉट सस्ते में मिलते हैं"। पर अब आप को क्या बताऊँ, न ही यहाँ कोई प्रॉपर्टी डीलर है, और न ही कोई प्रॉपर्टी! पर बोर्ड अपनी जगह पर लगा ही लगा है। इन्हीं बोर्डों की तरह एक और बोर्ड भी है, जो सरकार के सफ़ाई अभियान के तहत बटोरी जा रही बस्तोयों के सामने समय-समय पर खड़ा कर दिया जाता है - एक ऐसा बोर्ड जो बिना कुछ कहे, बिना हाथ-पाँव इस्तेमाल किये, अपने पर लगे एक सूचना पत्र के शब्दों को दोहरा देता है, और जो इस बस्ती के सामने भी लगा है। "यह सरकारी भूमि है। इसे खाली कर दो। ये किसी भी समय, या किसी भी दिन तोड़ी जा सकती है।" इसे पढ़-पढ़ कर सब के रोंगटे खड़े हो रहे थे। गिरती शाम और उठती रात का पहला पहर था। कोमल भाई इस साइन बोर्ड को पढ़ कर बसेरे में दाखिल हुए। उन के मन में एक तस्वीर बनती तो दूसरी बिगड़ जाती। इन्हीं बनती, ओझल होती तस्वीरों के साथ पतली गलियों से गुज़रते हुए वो घर पहुंचे और हथेली के सहारे घर के दरवाज़े पर टेक लगाते हुए बोले, “मीना, दरवाज़ा खोलो!” अपने पति की आवाज़ को पहचानते हुए मीना ने एकदम दरवाज़ा खोल दिया। कोमल भाई बोले, “ये लो केले। अम्मी कहाँ हैं? उन्होंने खाना खा लिया?” बेटे की आवाज़ सुन कर अम्मी बोलीं, “हाँ बेटा। अभी खाना खिला कर ही बहु मेरे पास बैठी थी। अब तुम दोनों भी खा लो और आराम से सो जाओ।" कोमल भाई ने मुँह हाथ धो कर, मीना से तहमक माँगते हुए अपना मुँह पोंछा और फिर तहमक कमर पर बाँध लिया। उधर मीना ने बिस्तर पर अख़बार बिछा कर थाली में खाना लगा दिया और कोमल का इंतज़ार करने लगी। कोमल ने बैठते ही रोटी का टुकड़ा तोड़ा। निवाला लबों से लगाते हुए बोला, “मीना, तुम भी खाओ।" फिर कुछ देर रुक कर वो बोले, “मीना, तुम ने कुछ सुना है...” “नहीं तो,” मीना बोली, “क्यों, क्या हुआ?” “आज आते हुए मेरी नज़र एक नीले बोर्ड पर पड़ी। उस पर लिखा था कि ये सरकारी ज़मीन है। इसे खाली कर दो..” “अरे आप क्या बात कर रहे हैं,” मीना ने कहा। "ये भनक तो कई दिनों से मेरे कानों में पड़ रही है। चाहो तो अम्मी से पूछ लो!” अब अम्मी से चैन न हुई और वो उठ कर कोमल की बगल में जा कर बैठ गईं। बोलीं, “बेटा, कोई नई बात है क्या?” कोमल बोला, “हाँ माँ। आज नोटिस बोर्ड पढ़ा।" “पर बेटा, वो तो मंगलवार से लगा हुआ है। उस दिन जब हम बाज़ार से आ रहे थे तो बहु ने मुझे पढ़ाया था। ये तो सब को मालूम है। बेटा, अभी चिन्ता कर के कुछ नहीं होगा। सो जाओ। सुबह की सुबह देखी जाएगी।" रात का गुप अंधेरा था। खिड़की खुली थी। पर सब स्थिर था। अंदर भी उतना ही अंधेरा था जितना बाहर। सब मिला-मिला लग रहा था। शराब पिये किसी शख़्स की क़दमों की आहट आने लगी। वो अपनी धुन में कुछ बोल रहा था। एकदम उस की आवाज़ ऊँची हो गई। "कल अगर ये झुग्गी न टूटी तो मेरा नाम भी शराबी नहीं।" एक दूसरी आवाज़ आई, “ज़रा हाथ लगा के तो दिखाओ!” “कल देख लेना। कल देख लेना।" ये आवाज़ें कोमल के कानों मे जैसे ही पड़ीं, उस ने अपने बिस्तर से उठ कर कोमल से कहा, “कल बस्ती टूट जाएगी!” “कोई बुरा सपना देखा है तुमने, चलो अब सो जाओ,” इतना कह कर कोमल करवट ले कर सोने को हुआ। पर आवाज़ फिर आई, और कोमल ने सर उठा कर ध्यान दिया। आवाज़ आ रही थी, “कल बस्ती टूटेगी, टूटेगी। मुझे शराबी मत समझो, आज मैं होश में हूँ।" कोमल बोला, “कोई पागल शराबी है! परेशान मत हो, चल तू भी यहीं सो जा।" सुबह मीना और कोमल की आँख लगभग एक ही साथ खुली। दोनों ने खिड़की में से आती सुबह की आवाज़ों को सुन कर समय का अंदाज़ा लगाना चाहा, पर उन की कुछ समझ नहीं आया। एक चुप्पी लिये हलचल की तरंगें खिड़की से कमरे में बह रहीं थीं। कोमल ने झट उठ कर दरवाज़ा खोला और बाहर झाँका। अपनी गली से गुज़रता हुआ, दूसरी गलियों से निकलता हुआ बाहर की तरफ़ जाने लगा। सभी घरों के दरवाज़े खुले थे। लग रहा था गली में दीवारें कम, दरवाज़े ज़्यादा हैं। ये सुबह शराबी की बात का हकीकत बनने की सुबह थी। पुलिस कोहरे की तरह बस्ती को घेरे खड़ी थी, और धीरे धीरे हर चीज़ को अपनी लंबी अंगुलियों से छू कर ढंक रही थी। पुलिस की वर्दी को देख कर कोमल एक पुलिस वाले के पास गया और उस से पूछा, “भाई, ये क्या हो रहा है?” पुलिस वाला बोला, “ये नोटिस बोर्ड पे क्या लिखा है?” “सर, हमें नहीं पता..” कोमल बोला। “नहीं पढ़ा तो सुन! बस्ती को खाली कर दो, आज बस्ती टूटेगी।" कोमल को पुलिस से बात करते देख कुछ और लोग आसपास आ कर खड़े हो गए थे। टूटने का सुन कर सब के कानों में पुलिस वाले की नहीं, बल्कि पिछली रात वाले शराबी की आवाज़ गूँजने लगी, जैसे वो कह रहा हो, "तुम सब मुझे नशे में समझ रहे थे। देखो, ख़ुद ही देखो, कल रात की शराब को सुबह बहते हुए देखो! चलो अब जाओ घर खाली करो, पुलिस के तुम्हारे ये सारे बाप यहाँ यूँ ही नहीं खड़े हैं!” कोमल बस्ती की तरफ़ मुड़ा अंदर जाती गली को देख रहा था। आज तक जिस गली में साइकल से बड़ी कोई गाड़ी दाखिल नहीं हुई थी, वहाँ आज होने जा रही थी। ये पहली बार होगा। और ये पहली गाड़ी बुल-डोज़र होगी, जिस के गुज़रने के बाद किसी और के गुज़रने की गुंजाइश नहीं रहेगी। सीएम लैब, नांगला माँछी --------------------------- प्यासों की प्यास बुझाता है नांगला, दिल्ली में आने वालों का बसेरा है नांगला। --------------------------- From mahmood at sarai.net Tue Feb 7 11:12:02 2006 From: mahmood at sarai.net (mahmood at sarai.net) Date: Tue, 07 Feb 2006 06:42:02 +0100 Subject: [Deewan] Rabia Message-ID: As part of the Mahindra and Mahindra theatre festival today, Teusday, at 4 pm at FICCI, a performance of Rabia-an invocation of Rabia Basri's life through Bharatnatyam, Meera's bhajans, qawwalis...Performed By Seema Agarwal... I helped out with the script.. Please come if you can...passes at venue/free entry... From rakesh at sarai.net Tue Feb 7 15:26:38 2006 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Tue, 07 Feb 2006 15:26:38 +0530 Subject: [Deewan] Medianagar 02 noticed! Message-ID: <43E86ED6.6040700@sarai.net> Dear All Prof. Lal Bahadur Verma has taken notice of Medianagar 02 in the January 2006 issue of his monthly magazine 'Itishasbodh'. The original text is as follows: मीडियानगर दो अगर किसी को 'खालिस-फर्जी' परिघटना को समझना हो, इस पर ध्यान न गया हो, तो इस प्रतिनिधि परिघटना पर ध्यान देने के लिए विकासशील समाज अध्ययन पीठ द्वारा प्रकाशित और राकेश कुमार सिंह द्वारा संपादित मीडिया नगर 2 जरूर पढ़ना चाहिए। 'लुभाऊ' 'कमाऊ' शहर के 'चमकाऊ' और 'भरमाऊ' चरित्र पर हिन्दी में एक साथ इतनी सामग्री दुर्लभ है। ढ़ाई-तीन सौ पृष्ठों की पत्रिका में सिन-माहौल के अलावा मीडिया के उत्पादन, संप्रेक्षण और कानूनी निजाम पर जरूरी लेख है। फर्जीतंत्र का भी कैसे भूमंडलीकरण हो रहा है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पत्रिका में बेहद गंभीर और प्रासंगिक मुद्दों पर रोचक और सरल ढंग से बात रखी गई है इसलिए शोधपरक सामग्री भी सामान्य पाठक के लिए भी ग्राह्य है। The above can roughly be translated as follows: If anybody wants to understand the phenomenon of 'orginial copy', or if one did not notice it, then Medianagar 02 is a must read. It is published by CSDS and edited by Rakesh Kumar Singh. It is a rare collection of materals on 'chamkau' and 'bharmau' aspects of 'lubhau' and 'kamau' city. Besides Cine-environment this 250-300 page journal has important articles on media prodcution, representation and legal regime also. It also explains that how the 'fake' is becoming a global phenomenon. Its style of presentation is another quality. It presents serious and relevant issues in such an interesting and simple manner that all the research materials become very easy to grasp. -- Rakesh Kumar Singh Sarai-CSDS 29, Rajpur Road Delhi-110054 Ph: 91 11 23960040 Fax: 91 11 2394 3450 web site: www.sarai.net web blog: http://blog.sarai.net/users/rakesh/ From gnj_chanka at rediffmail.com Thu Feb 9 19:19:45 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 9 Feb 2006 13:49:45 -0000 Subject: [Deewan] Gaunon me machatee DHOOM ..Buntee Or Bublee Message-ID: <20060209134945.4094.qmail@webmail18.rediffmail.com>   Geetoon ka chalan yadee hum sahar me dekhte hain to yeha na sochen ke gaun es se aachutaa rahega..delee university ke north campus me jab aap praves karte hain aur Mansarower hostel ke pass se gujarte hain to gareeon me tej aawaj se bajte geet khud ko aapne liye ek platform bana rahe hote hain.Himes Resmea ka '" Tera tera surur .." ho ya "Dhoom mcha le dhoom" .....geeton ki kahanee yeheen khatam nahi hotee hai ..jara Bihar ke seemawartee gauno me ghume...Loudspeaker par jor-jor se baj rahe geet yahan bhi khuch deelee ke tasweer he pesh kar rahe hain. fush ka gahar( puwal aadee se bana ghar.)aur bansh ke bare khambon me latka Loudspeaker geeton ko Mast andaz me sabko suna raha hai. Forbesganj jo ke Nepal-Bihar ke sema per basa jila hai ,wahan ka ek gaun GHURNA BAZAR bhe Bantee Aur Bablee ke "Kazra re kazra re" ke madhur dhun me mast hai.Esee gaun ka Sahjoo Saha ,jo KreteeNagar(Delee) me rikswa chalata hai ,kahata hai "Chandnee Chowk se ek tho baza durga puja me gaun le gae the, gaun me khub sunte hain sab ......bara maza aata hai.." Prawasee sanskretee en Prawaseeon ke man ko es kadar prabhaweet kar rahee hai ke aab ye log bhee Sahar ke awo-hawa ko gaun talag pahuncha ne lage hain. Gaunon me aab to filmee nam bhi rakhe jane lage hain...Sahajoo saha ne aapne bete ka nam rakha hai- BANTEE. waha kahata hai ke "Sahjoo,Gorakh, Sumateea namon ka yug khatam hua aab hai samaye Arman, Bantee , Akshya, Bablee ,Kusum ka...." Geeton ka prabhaw sahar ke sarkon se aab gaun ki galleon me DHOOM MACHANE laga hai. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060209/4201ba83/attachment.html From gnj_chanka at rediffmail.com Fri Feb 10 10:52:27 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (gnj_chanka) Date: Fri, 10 Feb 2006 06:22:27 +0100 (CET) Subject: [Deewan] Fw: DSC-00465.jpg Message-ID: <20060210052227.557A928DB7C@mail.sarai.net> forwarded message attached. -------------- next part -------------- ***** NOTE: An attachment named DSC-00465.pIf was deleted from this message because it possibly contained a windows executable or other potentially dangerous file type. Contact admin at sarai.net for more information. From gnj_chanka at rediffmail.com Fri Feb 10 11:36:55 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (gnj_chanka) Date: Fri, 10 Feb 2006 07:06:55 +0100 (CET) Subject: [Deewan] Word file Message-ID: <20060210060655.8061128DB3D@mail.sarai.net> Please see the file. -------------- next part -------------- ***** NOTE: An attachment named New_Document_file.pif was deleted from this message because it possibly contained a windows executable or other potentially dangerous file type. Contact admin at sarai.net for more information. From tripathi_mrityunjay at yahoo.co.in Fri Feb 10 14:03:00 2006 From: tripathi_mrityunjay at yahoo.co.in (mrityunjay tripathi) Date: Fri, 10 Feb 2006 08:33:00 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] allahabad ke naye rang ........mrityunjay Message-ID: <20060210083300.92499.qmail@web8602.mail.in.yahoo.com> doston, allahabad university central ho gayi to aakoot dhan ka laabh is university ke parjivion ko dikhne laga. kaise is paise ko loot khaen , yah aajkal university me mukhhya charcha ka vishay hai. so paisa kya nahi kara deta hai ! aabhi tak allahabadi log ek khas andaj me allahabadi bamon(inhey GADDDA kaha jata hai.) ke bare me bataty they ki ve aavaj khoob karatey hain , par unase koi ghayal nahi hota hai. par aajkal log sahme hue hain. central university banne ke bad university me hui do ghatnaon me 2 log mare gaye. taja durghatna ek larki ke sath cher-chaar ko lekar thi. goli chalai ek SSP ke larke ne, ghayal hua azamgarh ke ek SP samarthak thekedar ka larka. university addministration ka khayal hai ki vah larki bhi kam bari jimmedar nahi hai kyonki uske saath pahle bhi cherkhani ho chuki hai. chhatranetao ne is visay par koi khas pahal nahi li. aajkal allahabad me purvanchal ke gunda tabke ke logo ki aamad barh rahi hai. pahle yah centar banarus tha. ab banarus me ............. 1. sangthit aapradh ki mar ke chalty naye ubharty gunde jagah nahi bana pa rahe hain aur 2.purvanchal ke gunda tabko me allahabad me ghar banvane ki hor machi hui hai.sayad isliye ki allahabad abhi unko banaarus ki apekchha jyada shant lagata hai. jo ho, in vajhon se allahabad me crime ka graph nit upar charhata jata hai aur sath hi sath university me bhi. aagar aap sab jababi kuchh bhegenge to mere liye behatar hoga. mrityunjay --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060210/5b6a657d/attachment.html From gora_mohanty at yahoo.co.in Wed Feb 15 00:52:59 2006 From: gora_mohanty at yahoo.co.in (Gora Mohanty) Date: Tue, 14 Feb 2006 19:22:59 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] Introductory Linux book in Hindi Message-ID: <20060214192259.19221.qmail@web8501.mail.in.yahoo.com> Hello, Sorry for the posting in English, but my home computer is not yet set up for Hindi browsing and input. Thanks to Raj Mathur, I came to to know today about an invaluable resource. The Linux documentation project, http://www.tldp.org, publishes a variety of documentation on Linux and open-source tools. One of their introductory guides to Linux has apparently been translated into Hindi. Please see the English version of "Introduction to Linux - A Hands on Guide" in various formats at the top of the page, http://www.tldp.org/guides.html. The Hindi version is at http://www.geocities.com/linuxparichay/. Ravikant, can we at Sarai consider having this book published on paper? Regards, Gora __________________________________________________________ Yahoo! India Matrimony: Find your partner now. Go to http://yahoo.shaadi.com From sanjeevranjanmishra at yahoo.com Thu Feb 16 20:24:19 2006 From: sanjeevranjanmishra at yahoo.com (Sanjeev Ranjan) Date: Thu, 16 Feb 2006 06:54:19 -0800 (PST) Subject: [Deewan] Introductory posting Message-ID: <20060216145420.24097.qmail@web42208.mail.yahoo.com> Mitron, Main mooltah itihaas ka chaatr raha hoon aur vyavsaayik pravandhan ka bhi prakshikchan liya hai. Thori-bahoot abhiruchi darshan, Saahitya ityadi wishyon mein bhi rahi hai tathaa pichhle kuch dashkon ke darmayaan Hindi-belt mein ghatit ho rahee saamjik tabdiliyon ke gatishastra ke prati kaafi lagav mahsoos karta hoon. Sarai / C.S.D.S. swantantra sodhvriti ke tahat nayi taknikon ke dwara gyanavinimay ki sanhita mein, daliton ke sandarbh mein, ho rahi tabdilyon ka adhyayan main apne shodhkarya “gyan-vinimay kee nayee takneekain aur mail banaate dalit” ke dwara karoonga. Bharat mein gyan-vinimay ki prakriya kabhi bhi Jaati-nirpeksha nahee rahee hai. Praacheen kaal main gyan ke barchaswata-praapta shroton tak daliton kee pahooch durlabh thee. Bhakti-kaal ke daur mein neeche ke paaydaan par khare logon ne pahlee baar “Aayo gyan kee aandhi re” (Kabir), mahsoos kiya tha. Par, utpadan-vyavastha kee tatkaalin swarup ke chalte iskee apnee maryaadaaein thee. Jaati-nirpeksha shiksha-vyavastha kee shuruwat se haalaat badalne praarambha hue. Par, gyan ke janpad mein daliton kee aawajahi inke beech madhyabarg ke uday ke saath prarambh hua. Sabhi Chhetra mein inhone dastak diya, Aaatmakatha inkee priy saahityik vidha banee Jahan inhone apne saandra khatte-meethe anubhav darz kiye. Inhonein schoolon, collezon, librariyon evam hostalon ke anubhavon ke 0sahare aadhunik shikcha kee ghoshit jaati-nirpekshta ko samasyamoolak banaayaa. Nayi taknikon ne gyana-vinimay ke maahaul ko kaafi-kuchh badal daala hai. Bibhinn shaikchhanik sansthanon ke dalit chhaatron ki ungaliyon ka computer ke keypad se sahaj rishta ban chukka hai. Main apne sodhkarya ke dwara jaanana chahoonga ki wahan ki sthiti kaisi hai, apne jaatigat pahchaan ka koee chinha chore bagair jab dalit tammam suchanaaye haasil karta hai, jinhe tatshadris sharton par hee koyee sawarn bhee haasil kar paataa hai to dalit kya mahsoos karte hain ? Gyan-vinimay ki puranee taknikon ke baraqs nayee taknikon ko rakhnein par kya niskarsh nikaala jaa sakta hai ? Nayee taknikon ke saath mel banaanein ke khel main inkee Jaatigat sthiti kahan kahan visible hotee hai ? Kahin aisa to nahin hai ki gyanarjan ke ye shrot itne sangharsh-mukt hain ki dalit saahitya ke roop mein darz kiya jaa sakne waala jaatigat anubhav yahan ghatit hi nahin hota hai ? yaa phir yahan anubhavon ko narrate karne par sthapit saahityakaaron ka varchaswa toot raha hai, jinka sthan naye asaahityik (?) cybersebi lenge ? Iske atirikta main ye Jaanane ka prayas karoonga ki gyan-vinimay ke printottar maadhyamo ke maarphat daliton ke dwara apne paros evam shesh duniya tatha iske beech apnee jagah kee khayali tasvir bananein ki prakriya mein kya paribartan hua hai evam ya daanhyam Jeevan-sailee mein nihit Jaatimulak tatvon ko kis trah asarangej kar rahe hain ? Apne shodhkaray ke dauraan hue anubhavon ke saath shighra hazir ho raha hoon. Sujhawon kee pratiksha mein, abhivadan sahit Sanjeev --------------------------------- What are the most popular cars? Find out at Yahoo! Autos -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060216/c5a24720/attachment.html From raviratlami at gmail.com Fri Feb 17 09:34:22 2006 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Fri, 17 Feb 2006 09:34:22 +0530 Subject: [Deewan] Introductory posting - Open-Office 2.2 Help Localization References: <20060216145420.24097.qmail@web42208.mail.yahoo.com> Message-ID: <000201c633a2$102fe290$0401a8c0@anvesh> मित्रों, सराय फ्लॉस परियोजना के तहत मैं पिछले कुछ समय से ओपनऑफ़िस.ऑर्ग 2.2 मदद फ़ाइलों का हिन्दी अनुवाद कर रहा हूँ. उम्मीद है कि आने वाले कुछ ही महीनों में यह कार्य पूर्ण हो जाएगा, तब हमें एक सम्पूर्ण ऑफ़िस सूट पूरी तरह हिन्दी में ही उपलब्ध हो जाएगा - मदद फ़ाइलों सहित. ज्ञातव्य हो कि इसके इंटरफ़ेस का अनुवाद रेडहेट के राजेश रंजन ने पहले ही कर लिया है. वर्तमान प्रगति निम्न है- मदद फ़ाइलों के तक़नीकी वाक्यांश जिनका अनुवाद किया जाना है कुल : 36636 अनुवादित: 12297 (33.57%) फ़ज़ी (आंशिक अनुवाद) : 7686 (20.98%) अनुवादित नहीं : (45.46%) आपका, रविशंकर श्रीवास्तव From nangla at cm.sarai.net Mon Feb 20 17:04:06 2006 From: nangla at cm.sarai.net (=?UTF-8?B?IuCkuOClgOCkj+CkriDgpLLgpYjgpKwsIOCkqOCkvuCkguCkl+CksuCkviDgpK7gpL7gpIHgpJvgpYAi?=) Date: Mon, 20 Feb 2006 12:34:06 +0100 Subject: [Deewan] NM se, 05 Message-ID: नांगला क्या था [01]? -दिलिप- मैं एक शख़्स से मिला जिस ने नीली पैंट, सफ़ेद शर्ट पहनी थी। उस की अजय देवगन जैसी छोटी-छोटी आँखें थीं। वो बोला, “नांगला माँछी से ले कर प्रगति मैदान तक खुला मैदान था। एक ऐसा मैदान जिस में राजाओं को दूर से आते देख लोग विद्रोह में युद्ध का आदेश दे देते थे। ये मैदान ही बना रहा। इस मैदान में कई आविश्कार हुए, जिस का एक रूप बना नांगला माँछी। बंटी -अंकुर- जब मैंने उस सत्रह साल के लड़के को बसेरे में पहली बार देखा तब सुबह का वक़्त था। वो दिखने में थोड़ा सा काला था, और उस का एक हाथ और एक पैर थोड़ा कमज़ोर थे। उस ने सफ़ेद शर्ट और काली पैंट पहनी थी, और उस की पैंट की एक जेब में गिलास और दूसरी में एक पेन था। वो रास्ते से चला जा रहा था, लोगों को सलाम-नमस्ते करता हुआ। कुछ बच्चे उस के पीछे लगे थे और उसे पागल-पागल कह रहे थे। उस समय उसे देख कर उस के बारे में मुझे कुछ समझ नहीं आया था। धीरे-धीरे उस ने उस ने अपनी बातचीत, रहन-सहन और अदाओं से बसेरे के लोगों के दिल में जगह बना ली। वो बसेरे में अजनबी की तरह घूमता रहता। कभी यहाँ, तो कभी वहाँ। लोग उसे जहाँ भी देखते, उसे से कहते, “बंटी बेटा खाना खाएगा?” तो वो कहता, “नहीं दीदी, अभी उन अम्मा ने खिला दिया।" बच्चे उसे छेड़ते और उस के साथ मज़े भी करते। जब वो बच्चों से ज़्यादा परेशान हो जाता तो आसपास चल रहे किसी भी कुत्ते को उठा लेता और बच्चों को डराने के लिये उन की तरफ़ उसे करता। पर उस का एक हाथ कमज़ोर होने की वजह से वो उस के हाथ से छूट जाता, और बच्चे डर के भाग जाते। बंटी को कुत्तों से लगाव था। वो ऐसे भी अकसर किसी छोटे से कुत्ते को अपने साथ रखता। रात में वो किसी भी चबूतरे पर सो जाता, और सोने से पहले कुत्ते को चबूरे के आसपास कहीं रस्सी से बाँध देता। फिर अगले दिन वो उसे ले कर घूमता रहता। एक दिन वो मेरी गली मे आया और सब से बातचीत करने लगा। शाम का वक़्त था। उजाला तो कम था ही, पर लाइट भी कम आ रही थी। वो आया और एक चबूतरे पर बैठ गया। उसे देख कर उस के आसपास भीड़ इकठ्ठा हो गई। सब उस से उस के बारे में पूछने लगे। मेरे पापा ने बड़े प्यार से पूछा: बेटा, बोलो, कहाँ के रहने वाले हो? बंटी (कुछ शांत मूड में): अंकल, बिहार का। पापा: यहाँ कैसे पहुँचे? यहाँ अकेले ही हो क्या? बंटी की आँखों में आँसू आ गए। सब लोग एकदम सीरियस हो गए। बंटी: अंकल, मैं ट्रेन में खेल रहा था। अचानक ट्रेन चल पड़ी। मेरे सारे दोस्त कूद गए। हाथ-पैर ख़राब होने की वजह से मैं नहीं उतर पाया और निज़ामुद्दीन पर आ कर उतर गया और यहाँ नांगला में आ गया। और यहाँ मुझे ये दीदी मिलीं (मेरी जान-पहचान की एक आंटी की तरफ़ इशारा करते हुए)। कुछ देर ऐसे ही बातचीत चली। फिर उस ने मेरे घर में खाना खाया। उस दिन वो बसेरे को छोड़ गया। लोग आज भी उसे याद करते हैं। नांगला क्या था [02]? -दिलिप- इन का चेहरा मुर्झाया सा था। इन्होंने धोती पहनी हुई थी, हाथ में एक लकड़ी थी, जैसे ज़िंदगी को अपनी मुठ्ठी में पकड़ रखा है। उन दादा ने कहा, “बैठ जा और सुन। आज जहाँ नांगला है, वहाँ एक घना जंगल था। इस में साँप, बंदर, शेर जैसे जानवर थे। कुछ लोगों ने जंगल काट काट के लकड़ी की झोंपड़ियाँ बनाईं, और आज ये एक बस्ती का रूप ले चुका है। बसेरा छोड़ गए -अंकुर- शाम का वक़्त था। घरों के बाहर चूल्हे जल रहे थे और कुछ औरतें खाना बना रहीं थीं। मैं अपनी गली से बाहर निकला और पुश्ता की तरफ़ गया। वहाँ कुछ चहल-पहल थी। आदमियों का एक झुंड था, पर थोड़ा फैला-फैला सा था। पास में एक लाइन में तीन रिक्शे खड़े थे। उन में घर का सामान – जैसे कनस्तर, बोरी में भरे बर्तन, झोले में बंधे कपड़े - लदा हुआ था। रिक्शों के आसपास उन का कोई रखवाला या कोई मालिक नज़र नहीं आ रहा था। कुछ देर बाद एक लड़की वहाँ आई। उस के गोल चेहरे पर उस के बाल बिखरे थे। उस ने गुलाबी रंग का सूट और पैरों में चप्पल पहने थे। उस के सर पर एक बक्सा था। वो बक्से को रिक्शे पर रख कर चली गई। अब मैं समझा कि कोई बसेरे को छोड़ के जा रहा है। कुछ देर पाद उस के परिवार वाले भी कुछ न कुछ सामान ले कर रिक्शे की तरफ़ आने लगे। इस तरह तीनों रिक्शे भर गए। वो पाँच लोग थे। उन्होंने रिक्शों पर लदे सामान पर कुछ जगह बनाई और बसेरे को आखरी सलाम देते हुए निकल गए, किसी नये बसेरे की तरफ़। नांगला क्या था? -दिलिप- 03 एक अठाईस साल का शख़्स जिस के बाल 'तेरे नाम' के सलमान खान जैसे हैं। उस ने सफ़ेद पैंट और काली शर्ट पहनी थी, जिस पर चमकते मोती लगे थे। वो बोला, “यार, यहाँ पहले दलदल ही दलदल था, जिसे तीन-चार लोगों ने भरा। मैं भी इन में से एक था, हालांकि तब मैं छोटा सा था। दलदल ख़त्म होते ही घर बनते चले गए।" 04 ये ख़ुद को यहाँ का प्रधान कहते हैं। धोती-कुर्ती, सर पर टोपी जिसकी आगे की नोक थी। वो बोला, “सुन। यहाँ पहले चारों तरफ़ पानी ही पानी था। हम ने मिट्टी भर-भर के भरवाई।जो छोड़ दिया, वो आज यमुना नदी है। उस नदी के साथ-साथ एक बस्ती है, जिस के अंदर तीन आकार हैं - मतलब तीन बसेरे हैं। इन को मिलाकर नाम दिया जाता है, नांगला माँछी।" सीएम लैब, नांगला माँछी --------------------------- प्यासों की प्यास बुझाता है नांगला, दिल्ली में आने वालों का बसेरा है नांगला। --------------------------- From sanjeevranjanmishra at yahoo.com Tue Feb 21 15:38:22 2006 From: sanjeevranjanmishra at yahoo.com (sanjeevranjanmishra) Date: Tue, 21 Feb 2006 11:08:22 +0100 (CET) Subject: [Deewan] *****SPAM***** eBook.pdf Message-ID: <20060221100822.4087D28D7FA@mail.sarai.net> An embedded and charset-unspecified text was scrubbed... Name: not available Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060221/695ad978/attachment.pl -------------- next part -------------- An embedded and charset-unspecified text was scrubbed... Name: not available Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060221/695ad978/attachment-0001.pl From ravikant at sarai.net Tue Feb 21 15:57:32 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 21 Feb 2006 15:57:32 +0530 Subject: [Deewan] Gaunon me machatee DHOOM ..Buntee Or Bublee In-Reply-To: <20060209134945.4094.qmail@webmail18.rediffmail.com> References: <20060209134945.4094.qmail@webmail18.rediffmail.com> Message-ID: <200602211557.32628.ravikant@sarai.net> गिरीन्द्र, आप सही फ़रमाते हैं कि प्रवासी संस्कृति उपभोग और आनंद का नया जाल बुन रहा है. लेकिन थोड़ा ठहरकर सोचने की ज़रूरत है कि क्या फ़िल्मी चीज़ों का गाँव मेँ चलन उतना नया है? नाम भले ही आज अशोक, दिलीप,नूतन से बदलकर बंटी-बबली और अक्षय हो रहे हैं, लेकिन चलन तो काफ़ी पुराना है. रेणु(पंचलाइट)की गवाही लेँ, या श्रीलाल शुक्ल(राग दरबारी)की, या फिर अपनी ही यादोँ को खँगालेँ, तो पाएंगे कि चाहे दुर्गा-पूजा के नाटक मंच पर 'बाई जी' का नाच हो, या गणेश-चतुर्थी पर लौंडा नाच, या बारात पर बैंड वाले की धुन - गाने ज़्यादातर फ़िल्मी ही होते थे. बीबीसी तो लोकप्रिय था, निष्पक्ष रेडियो ख़बरों के प्रसारक के रूप मेँ, लेकिन गाने तो पहले रेडियो सीलॉन, रेडियो नेपाल, और बाद में विविध भारती से जमकर सुने जाते थे. गंगा-स्नान जैसे विशेष मौक़ोँ पर क़स्बाई सिनेमाहॉल वाले लोक-लुभावन फ़िल्मेँ लगाते थे, और बाज़ार की ख़रीदारी के अलावा धार्मिक, पारिवारिक-सामाजिक फ़िल्मेँ देखने-दिखाने का चलन आम था. कुछ फ़िल्मोँ ने लोकप्रियता की तमाम हदेँ तोड़ दीं - शोले व दीगर डाकू फ़िल्मोँ के कई स्थानीय नाटकीय संस्करण लिखे, छापे व खेले गए. नागिन या जय संतोषी माँ की कहानी पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है. ज़्यादा अहम सवाल यह है कि कौन क्या सुन रहा था/है? किस टोल में कौन सा स्टेशन बज रहा है, बड़े-बूढ़े क्या सुन रहे हैं, और रेडियो संस्कृति इतना पुरुष-प्रधान क्योँ रहा. टेप के आने से यह निश्चय ही टूटा, और बदलीं जातीय पहचान की रेडियो-आधारित रूढ़ियां. टीवी और सीडी के बाद और नया क्या हो रहा है? मेरे विनम्र ख़याल में स्टेटस की लड़ाई में जो हैसियत पहले रेडियो को मिली हुई थी, वही अब टीवी की हो गई है.क्या मोबाइल के इर्द-गिर्द कौतूहल और ईर्ष्या अब समाप्त-प्राय है? रविकान्त पुनश्च: कजरारे को कजरारे ही रहने दिया जाए, कज़रा रे न किया जाए, वरना महमूद नाराज़ हो जाएंगे! On Thursday 09 Feb 2006 7:19 pm, girindranath jha wrote: > > Geetoon ka chalan yadee hum sahar me dekhte hain to yeha na sochen ke gaun > es se aachutaa rahega..delee university ke north campus me jab aap praves > karte hain aur Mansarower hostel ke pass se gujarte hain to gareeon me tej > aawaj se bajte geet khud ko aapne liye ek platform bana rahe hote > hain.Himes Resmea ka '" Tera tera surur .." ho ya "Dhoom mcha le dhoom" > .....geeton ki kahanee yeheen khatam nahi hotee hai ..jara Bihar ke > seemawartee gauno me ghume...Loudspeaker par jor-jor se baj rahe geet yahan > bhi khuch deelee ke tasweer he pesh kar rahe hain. fush ka gahar( puwal > aadee se bana ghar.)aur bansh ke bare khambon me latka Loudspeaker geeton > ko Mast andaz me sabko suna raha hai. Forbesganj jo ke Nepal-Bihar ke sema > per basa jila hai ,wahan ka ek gaun GHURNA BAZAR bhe Bantee Aur Bablee ke > "Kazra re kazra re" ke madhur dhun me mast hai.Esee gaun ka Sahjoo Saha ,jo > KreteeNagar(Delee) me rikswa chalata hai ,kahata hai "Chandnee Chowk se ek > tho baza durga puja me gaun le gae the, gaun me khub sunte hain sab > ......bara maza aata hai.." Prawasee sanskretee en Prawaseeon ke man ko es > kadar prabhaweet kar rahee hai ke aab ye log bhee Sahar ke awo-hawa ko gaun > talag pahuncha ne lage hain. Gaunon me aab to filmee nam bhi rakhe jane > lage hain...Sahajoo saha ne aapne bete ka nam rakha hai- BANTEE. waha > kahata hai ke "Sahjoo,Gorakh, Sumateea namon ka yug khatam hua aab hai > samaye Arman, Bantee , Akshya, Bablee ,Kusum ka...." Geeton ka prabhaw > sahar ke sarkon se aab gaun ki galleon me DHOOM MACHANE laga hai. From ravikant at sarai.net Tue Feb 21 15:55:21 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 21 Feb 2006 15:55:21 +0530 Subject: [Deewan] Fw: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts In-Reply-To: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> References: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> Message-ID: <200602211555.21706.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो जैसा कि रविशंकर श्रीवास्तव ने नीचे उद्धृत संदेश में बताया, आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. लेकिन इस औज़ार में कुछ कमियां अभी भी हैं. एकाध अक्षर, ख़ासकर संयुक्ताक्षर ठीक से नहीं आते. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। On Saturday 04 Feb 2006 5:35 pm, Ravishankar Shrivastava wrote: > दोस्तों, > > मॉज़िल्ला-फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र का एक नया एक्सटेंशन > पद्मा(http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > ) जारी किया गया है जो कि तमाम हिन्दी के विविध फ़ॉन्टों को गतिमय रूप से, > स्वचालित रुप से, यूनिकोड में परिवर्तित कर ब्राउज़र में खुद-ब-खुद प्रदर्शित > करता है. यानी की अब किसी भी हिन्दी साइट में बिना किसी फ़ॉन्ट संबंधी बाधा के > यूनिकोड में पढ़ सकते हैं, भले ही वह हिन्दी साइट यूनिकोड में नहीं हो! > > तकनॉलाज़ी की सीमाएँ अंतहीन ही हैं... > > अपने अनुभव, बग्स (किन साइटों- फ़ॉन्टों पर काम करता है, किन पर नहीं...) > इत्यादि साझा अवश्य करें. > > ----- Original Message ----- > From: "G Karunakar" > To: > Sent: Saturday, February 04, 2006 11:30 AM > Subject: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts > > > > Ever visited a Indian language newspaper website and couldnt read it > becoz the encoding was proprietry or the fonts didnt work, a little > know gem of Indic tools - Padma makes it possible, an extension > written for Mozilla/Firefox it converts the website text to unicode > and redisplays the page, making it readable in your browser - all > dynamically and automatically. Developed by Nagarjuna Venna, Padma > Indraganti, it is inspired by Kolichala Sureshs implementation of a > converter from RTS to Unicode for the Internet Explorer. > > >From the home page ( http://padma.mozdev.org ) > > Padma is a technology for transforming Indic text between various > public and proprietary formats. This extension applies the technology > to Mozilla based applications. Padma is available as an extension for > Firefox, Thunderbird and Netscape platforms. Padma currently supports > Telugu, Malayalam, Tamil, Devanagari and Gujarati scripts. The > following output formats are supported: Unicode, RTS (for Telugu > script) . Input methods supported are: RTS, Unicode, ISCII, ITRANS. > > Many popular newspapers website encodings are supported. > So just install the extension and browse the sites, now automatically > converted to unicode. > > The current stable version of Padma is 0.4.4. > http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > Mailing list - http://mozdev.org/mailman/listinfo/padma > > -- > > ************************************* > * Work: http://www.indlinux.org * > * Blog: http://cartoonsoft.com/blog * > ************************************* > > > > > ------------------------------------------------------- > This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Do you grep through log > files for problems? Stop! Download the new AJAX search engine that makes > searching your log files as easy as surfing the web. DOWNLOAD SPLUNK! > http://sel.as-us.falkag.net/sel?cmd=k&kid3432&bid#0486&dat1642 > _______________________________________________ > Indlinux-hindi mailing list > Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net > https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Mon Feb 20 18:33:19 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 20 Feb 2006 18:33:19 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSw4KWBIOCkpuCkpOCljeCkpCDgpLDgpYA=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSV4KWN4KS4IOCklOCksCDgpJzgpYHgpJfgpL7gpKHgpLw=?= Message-ID: <200602201833.19904.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। From ravikant at sarai.net Tue Feb 21 14:15:28 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 21 Feb 2006 14:15:28 +0530 Subject: [Deewan] Fw: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts In-Reply-To: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> References: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> Message-ID: <200602211415.28995.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो जैसा कि रविशंकर श्रीवास्तव ने नीचे उद्धृत संदेश में बताया, आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. लेकिन इस औज़ार में कुछ कमियां अभी भी हैं. एकाध अक्षर, ख़ासकर संयुक्ताक्षर ठीक से नहीं आते. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। On Saturday 04 Feb 2006 5:35 pm, Ravishankar Shrivastava wrote: > दोस्तों, > > मॉज़िल्ला-फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र का एक नया एक्सटेंशन > पद्मा(http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > ) जारी किया गया है जो कि तमाम हिन्दी के विविध फ़ॉन्टों को गतिमय रूप से, > स्वचालित रुप से, यूनिकोड में परिवर्तित कर ब्राउज़र में खुद-ब-खुद प्रदर्शित > करता है. यानी की अब किसी भी हिन्दी साइट में बिना किसी फ़ॉन्ट संबंधी बाधा के > यूनिकोड में पढ़ सकते हैं, भले ही वह हिन्दी साइट यूनिकोड में नहीं हो! > > तकनॉलाज़ी की सीमाएँ अंतहीन ही हैं... > > अपने अनुभव, बग्स (किन साइटों- फ़ॉन्टों पर काम करता है, किन पर नहीं...) > इत्यादि साझा अवश्य करें. > > ----- Original Message ----- > From: "G Karunakar" > To: > Sent: Saturday, February 04, 2006 11:30 AM > Subject: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts > > > > Ever visited a Indian language newspaper website and couldnt read it > becoz the encoding was proprietry or the fonts didnt work, a little > know gem of Indic tools - Padma makes it possible, an extension > written for Mozilla/Firefox it converts the website text to unicode > and redisplays the page, making it readable in your browser - all > dynamically and automatically. Developed by Nagarjuna Venna, Padma > Indraganti, it is inspired by Kolichala Sureshs implementation of a > converter from RTS to Unicode for the Internet Explorer. > > >From the home page ( http://padma.mozdev.org ) > > Padma is a technology for transforming Indic text between various > public and proprietary formats. This extension applies the technology > to Mozilla based applications. Padma is available as an extension for > Firefox, Thunderbird and Netscape platforms. Padma currently supports > Telugu, Malayalam, Tamil, Devanagari and Gujarati scripts. The > following output formats are supported: Unicode, RTS (for Telugu > script) . Input methods supported are: RTS, Unicode, ISCII, ITRANS. > > Many popular newspapers website encodings are supported. > So just install the extension and browse the sites, now automatically > converted to unicode. > > The current stable version of Padma is 0.4.4. > http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > Mailing list - http://mozdev.org/mailman/listinfo/padma > > -- > > ************************************* > * Work: http://www.indlinux.org * > * Blog: http://cartoonsoft.com/blog * > ************************************* > > > > > ------------------------------------------------------- > This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Do you grep through log > files for problems? Stop! Download the new AJAX search engine that makes > searching your log files as easy as surfing the web. DOWNLOAD SPLUNK! > http://sel.as-us.falkag.net/sel?cmd=k&kid3432&bid#0486&dat1642 > _______________________________________________ > Indlinux-hindi mailing list > Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net > https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From raiamit14 at rediffmail.com Wed Feb 22 13:53:26 2006 From: raiamit14 at rediffmail.com (AMIT RAI) Date: 22 Feb 2006 08:23:26 -0000 Subject: [Deewan] 2nd posting Message-ID: <20060222082326.19630.qmail@webmail49.rediffmail.com>   hallo sar, is posting ko main hindini.com/tool/hug2.html me type karke bhej raha hun,koi dikkat aaye to bataiye. dhanyavaad Amit rai -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060222/5d0c8117/attachment.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: second_report_1_.doc Type: application/msword Size: 28160 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060222/5d0c8117/attachment.doc From ravikant at sarai.net Wed Feb 22 19:03:41 2006 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Wed, 22 Feb 2006 14:33:41 +0100 Subject: [Deewan] amit rai's second posting Message-ID: <011770a77e13f3fd40c4ad27a97f865b@sarai.net> हरसूद शहर को नर्मदा सागर बान्ध परियोजना के बावत मीडिया की नजर से देखने के सन्दर्भ मे अध्ययन की शुरुआत बान्ध परियोजनाओ कीशिनाख्त से कर सकते हैं, सिद्धान्त्तत किसी परियोजना की शिनाख्त कई तरह से कर सकतेहैं, १. किसी क्षेत्र विशेष की जरुरतो (पेयजल,सिंचाई,नगरीय/औद्योगिक उपयोग के लिये पानी,पनबिजली,बाढ प्रबन्धन आदि, २. इंजीनियरिंग दृष्टिकोण से किसी स्थल को बान्ध बनाकर जलाशय निर्मित करने के लिये (या बरान या बेबर बनाने के लिये)उपयुक्त पाया जा सकता है या. ३. किसी क्षेत्र (नदी घाटी या उपघाटी)के समग्र मास्टर प्लान मे बिभिन्न स्थलों पर परियोजनाऐं सोची गयी हों, यह भी लगता है कि कुच परियोजनाऐ चुनावी रणनीतियों का परिणाम होती हैं तथा ये लोगों के दिमाग पर हावी हो जातीं हैं, नर्मदा सागर परियोजना की घोषणा भी ६० के दशक में कुश इन्हीं उद्देश्यों को लेकर हुई और उसी समय ही इस परियोजना से प्रभावित क्षेत्रों की गणना भी कर ली गयी थी.बांध आयोग की रिपोर्ट के अनुसार इस परियोजना से संबंधित गणनाओं का काम मूलतः संबंधित राज्य सरकार का सिचाई विभाग करता है,ये विभाग मूलतः इंजीनियरों के बिभाग हैं,परियोजना के विभिन्न गैर इंजीनियरिंग पहलुओं(जैसे कृषि,पर्यावरण,ऊर्जा,वित्तीय,आर्थिक व सामाजिक पहलुओं)को या तो विभागीय स्तर पर ही संभाल लिया जाता है या संबंधित विभागों व एजेंसियों से परामर्श करके या उनकी टिप्पणियों के आधार पर संभाला जाता है,परियोजना बनाते समय केंद्रीय जल आयोग और पर्यावरण व वन मंत्रालय के दिशा निर्देशों को ध्यान मे रखना होता है(क्योंकि अंततः कोई भी परियोजना जांच हेतु इन्हीं संस्थाओं के पास जाय्येगी) राज्य सरकार की स्वीकृति मिलने के बाद परियोजना केंद्र सरकार के पास स्वीकृति हेतु भेजी जाती है,केंद्र सरकार द्वारा राज्य की ऐसी परियोजना को स्वीकृति का कोई स्पष्ट संवैधानिक या कानूनी विधान नही है किंतु यह दो तरह से स्थापित हो गयी हैः मध्यम व बडी बांध परियोजनाओं के लिये राष्ट्रीय योजना में शामिल किये जाने की शर्त के रूप मे और पर्यावरण सुरक्षा अधिनियम व वन संरक्षण कानून के अंतर्गत पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा मंजूरी की शर्त के रूप में, इसमें एक तीसरा आयाम यह है कि अंतरप्रांतीय नदियों(अर्थात एक से अधिक प्रांतों में बहने वाली नदियों) के मामले में एक अंतरप्रांतीय पहलू होता है जिस पर केंद्र सरकार को ध्यान देना होता है, निवेश के मापदंड के अनुसार स्वीकृति देने के लिए तकनीकी सलाहकार समिति का बुनियादी मापदंड लाभ - लागत अनिपात का होता है,विदेशी हुकूमत के दौर में सिंचाई परियोजनाए अक्सर राजस्व कमाने के मकसद से स्वीकृत की जाती थीं और स्वीकृति का मानदंड वह होता था कि सरकार को इस निवेश से वित्तीय लाभ दर क्या होगी? स्वतंत्र भारत में आर्थिकनियोजन की शुरुआत के बाद यह महसूसकिया गया कि ऐसी परियोजनाओं का आकलन राजकोष में आने वाले राजस्व के आधार पर नही बल्कि अर्थव्यवस्था को मिलने वाले लाभों से किया जाना चाहिए,तदनुसार वित्तीय लाभ की जगह लाभ-लागत अनुपात का मापदंड अपनाया गया,इसमें किसी पेचीदा और परिष्कृत सामाजिक - आर्थिक लागत - लाभ विश्लेषण का आग्रह नही था, परियोजना की प्रमुख समस्या यहीं से ही शुरू होती है,परामर्श और समस्या - निवारण के लिये किसी संस्थागत व्यवस्था के अभाव में विस्थापन,पुनर्स्थापन व पुनर्वास की प्रक्रिया अक्सर गंभीर असंतोष को जन्म देती है,जब यह असंतोष,किसी गैर - सरकारी संगठन के नेतृत्व में जन विरोध या आंदोलन का रूप ले लेता है तो सरकारी मशीनरी की प्रतिक्रिया नासमझी की होती है और कभी कभी बल प्रयोग की,यह कई परियोजनाओं के संदर्भ में हो चुका है,नौकरशाही परंपराएं सरकार व गैर-सरकारी संगठनों के बीच अच्छे कामकाजी संबंधों को सुगम नही बनाती,राज्य गैर सरकारी संगठनों पर आरोप लगाता है कि वे टकराव का रास्ता अपना रहे हैं और राज्य के क्रियाकलाप में बाधा डाल रहे हैं,वास्तव में होता यह है कि राज्य स्वयं लोगों से सलाह-मशवरा करने मे असफल रहता है,कार्यों में विलंब करता है,जानकारी देने से कतराता है,तथा क्रियान्वयन के मामले में जडता व कल्पनाशीलता के अभाव से ग्रस्त रहता है,इसकिये लोग व गैर सरकारी संगठन टकरावके मार्ग पर धकेले जाते हैं. नर्मदा सागर परियोजना की घोषणा तो ६० के दशक में ही हो जाती है परंतु इन पर अमल में लाने की कोई समय सीमा नही रखी गयी,लेकिन इसकी वास्तविक शुरूआत होती है ८० के दशक में,इस लंबे अंतराल में जनजीवन की आम मानसिकता को मैनेज करने में बहुत बडा हाथ रहता है जनसंचार माध्यमों का,घोषणा की शुरूआत में तो पश्चिम की तरह से विकास के नजरिए के तहत विस्थापन को राष्ट्रहित के नाम पर बलिदान की तरजीह दी गयी,इसे विभिन्न समाचार पत्रों ने सकारात्मक तौर पर लिया जबकि जानकारी के अभाव में प्रतिरोध के स्वर ही नही थे,ऐसे में सत्ता समर्थक संचार से लाभ संबंधी सूचनाएं जन जन तक पहुचायी गयीं,ऐसा करना इसलिए भी सुलभ हो गया क्योंकि राष्ट्रहित में भारत के मंदिरों के लिये बलिदान का तर्क स्वतंत्रता प्राप्ति के समय अभी नया ही था,इस तरह के तर्कों के प्रमाण वाले कई समाचार पत्रों और रिपोर्टों को एकत्र करना इस अध्ययन का प्रथम चरण है,इसमे ६० के दशक के मीडिया की उन सूचनाओं की जानकारी प्राप्त करने का लक्ष्य है जिन्होने बांधों के पक्ष में एक जनस्वीकृत दृष्टि बनायी और यदि कहीं प्रतिरोध की स्थिति बनी भी तो क्या वह बांध परियोजनाओं की जानकारी के साथ थी या महज विस्थापन के दर्द को लिये एक अस्वीकृत भाव . From smyunus at sify.com Wed Feb 22 22:17:25 2006 From: smyunus at sify.com (smyunus at sify.com) Date: Wed, 22 Feb 2006 21:47:25 +0500 (IST) Subject: [Deewan] (no subject) Message-ID: <1140625045.43fc8e95baf0d@mail.sify.com> dear ravikant, sorry to bother you once again for the subscribtion of deewan list.i havn't got any mail from dewan yet. however now i am getting messages from reader list. my yahoo id is : lovableyunus at yahoo.co.in kindly help me in being part of deewan. regards, yunus -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060222/3290bd5f/attachment.html From gnj_chanka at rediffmail.com Thu Feb 23 13:40:35 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 23 Feb 2006 08:10:35 -0000 Subject: [Deewan] test mail Message-ID: <20060223081035.24614.qmail@webmail27.rediffmail.com>   केवल जाच के लिए. इग्नोर करे. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060223/dc3eaf88/attachment.html From ravikant at sarai.net Thu Feb 23 14:56:01 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 23 Feb 2006 14:56:01 +0530 Subject: [Deewan] test mail In-Reply-To: <20060223081035.24614.qmail@webmail27.rediffmail.com> References: <20060223081035.24614.qmail@webmail27.rediffmail.com> Message-ID: <200602231456.01829.ravikant@sarai.net> गिरीन्द्र, नीचे का संदेश कहता है: केवल जाँच के लिए. इग्नोर करे. यह मुझे http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html पर डालकर ही पता चला, जिसका मतलब है कि पाठ सही ढंग से युनिकोडित नहीं था. लेकिन आप सही जा रहे हैं रविकान्त On Thursday 23 Feb 2006 1:40 pm, girindranath jha wrote: > केवल जाच के > लिए. इग्नोर > करे. From ravikant at sarai.net Mon Feb 20 18:33:19 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 20 Feb 2006 18:33:19 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSX4KWB4KSw4KWBIOCkpuCkpOCljeCkpCDgpLDgpYA=?= =?utf-8?b?4KSu4KS/4KSV4KWN4KS4IOCklOCksCDgpJzgpYHgpJfgpL7gpKHgpLw=?= Message-ID: <200602201833.19904.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। From ravikant at sarai.net Tue Feb 21 14:15:28 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 21 Feb 2006 14:15:28 +0530 Subject: [Deewan] Fw: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts In-Reply-To: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> References: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> Message-ID: <200602211415.28995.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो जैसा कि रविशंकर श्रीवास्तव ने नीचे उद्धृत संदेश में बताया, आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. लेकिन इस औज़ार में कुछ कमियां अभी भी हैं. एकाध अक्षर, ख़ासकर संयुक्ताक्षर ठीक से नहीं आते. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। On Saturday 04 Feb 2006 5:35 pm, Ravishankar Shrivastava wrote: > दोस्तों, > > मॉज़िल्ला-फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र का एक नया एक्सटेंशन > पद्मा(http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > ) जारी किया गया है जो कि तमाम हिन्दी के विविध फ़ॉन्टों को गतिमय रूप से, > स्वचालित रुप से, यूनिकोड में परिवर्तित कर ब्राउज़र में खुद-ब-खुद प्रदर्शित > करता है. यानी की अब किसी भी हिन्दी साइट में बिना किसी फ़ॉन्ट संबंधी बाधा के > यूनिकोड में पढ़ सकते हैं, भले ही वह हिन्दी साइट यूनिकोड में नहीं हो! > > तकनॉलाज़ी की सीमाएँ अंतहीन ही हैं... > > अपने अनुभव, बग्स (किन साइटों- फ़ॉन्टों पर काम करता है, किन पर नहीं...) > इत्यादि साझा अवश्य करें. > > ----- Original Message ----- > From: "G Karunakar" > To: > Sent: Saturday, February 04, 2006 11:30 AM > Subject: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts > > > > Ever visited a Indian language newspaper website and couldnt read it > becoz the encoding was proprietry or the fonts didnt work, a little > know gem of Indic tools - Padma makes it possible, an extension > written for Mozilla/Firefox it converts the website text to unicode > and redisplays the page, making it readable in your browser - all > dynamically and automatically. Developed by Nagarjuna Venna, Padma > Indraganti, it is inspired by Kolichala Sureshs implementation of a > converter from RTS to Unicode for the Internet Explorer. > > >From the home page ( http://padma.mozdev.org ) > > Padma is a technology for transforming Indic text between various > public and proprietary formats. This extension applies the technology > to Mozilla based applications. Padma is available as an extension for > Firefox, Thunderbird and Netscape platforms. Padma currently supports > Telugu, Malayalam, Tamil, Devanagari and Gujarati scripts. The > following output formats are supported: Unicode, RTS (for Telugu > script) . Input methods supported are: RTS, Unicode, ISCII, ITRANS. > > Many popular newspapers website encodings are supported. > So just install the extension and browse the sites, now automatically > converted to unicode. > > The current stable version of Padma is 0.4.4. > http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > Mailing list - http://mozdev.org/mailman/listinfo/padma > > -- > > ************************************* > * Work: http://www.indlinux.org * > * Blog: http://cartoonsoft.com/blog * > ************************************* > > > > > ------------------------------------------------------- > This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Do you grep through log > files for problems? Stop! Download the new AJAX search engine that makes > searching your log files as easy as surfing the web. DOWNLOAD SPLUNK! > http://sel.as-us.falkag.net/sel?cmd=k&kid3432&bid#0486&dat1642 > _______________________________________________ > Indlinux-hindi mailing list > Indlinux-hindi at lists.sourceforge.net > https://lists.sourceforge.net/lists/listinfo/indlinux-hindi > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From ravikant at sarai.net Tue Feb 21 15:55:21 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 21 Feb 2006 15:55:21 +0530 Subject: [Deewan] Fw: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts In-Reply-To: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> References: <000201c62a10$6fc06180$0401a8c0@anvesh> Message-ID: <200602211555.21706.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नीचे की ख़बर मैंने दैनिक भास्कर से नक़ल कर के चिपकायी है. थोड़ी हैरत होनी चाहिए क्योंकि ये अख़बार युनिकोड फ़ॉन्ट में नहीं छपते, सिर्फ़ नभाटा ही युनिकोड इस्तेमाल करता है. लेकिन अगर आप फ़ायरफ़ॉक्स इस्तेमाल करते हैं तो जैसा कि रविशंकर श्रीवास्तव ने नीचे उद्धृत संदेश में बताया, आपको सिर्फ़ एक छोटा सा औज़ार पद्मा (04.4) http://padma.mozdev.org/ पर जाकर डाउनलोड कर लेना है, और फिर इस एक्सपीआई जुगाड़ पर डबल क्लिक करने से यह आपके ब्राउज़र में स्थापित हो जाएगा. ब्राउज़र को फिर से चालू करने के बाद आप दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, राजस्थान पत्रिका, पंजाब केसरी और अमर उजाला मज़े में पढ़ सकते हैं, ख़बरों, लेखों को नेट की दुनिया में घुमा सकते हैं, वह सब कर सकते हैं जो अब तक अंग्रेज़ी के पाठ के साथ संभव था. अब न्यूज़रैक का इस्तेमाल भी आसान हो जाएगा. मज़े लीजिए और करुणाकर जैसे टेकी मित्रों से प्रार्थना कीजिए कि वे यह जुगाड़ शुषा, सूर्या आदि फ़ॉन्ट के लिए कर दें. पद्मा से सिर्फ़ हिन्दी का काम आसान नहीं हो रहा, दूसरी भारतीय भाषाओं का भी हो रहा है. लेकिन इस औज़ार में कुछ कमियां अभी भी हैं. एकाध अक्षर, ख़ासकर संयुक्ताक्षर ठीक से नहीं आते. रविकान्त गुरू-गीता दत्त को आदरांजलि जयप्रकाश चौकसे http://www.bhaskar.com/defaults/film.php महान फिल्मकार गुरूदत्त और गीतादत्त की पुत्री नीना ने अपनी मां के गीतों को रीमेक्स के लिए गाया है और उसकी बेटी नफीसा मेमन ने उन्हें संगीत वीडियो में प्रस्तुत किया है। ‘पल’ नामक यह प्रयास गुरूदत्त और गीतादत्त को समर्पित किया गया है। गुरूदत्त की मृत्यु को 40 वर्ष हो चुके हैं। विज्ञान की पढ़ाई करने वाली नफीसा मॉडलिंग के क्षेत्र में पहले ही प्रवेश कर चुकी है। ज्ञातव्य है कि गुरूदत्त के एक पुत्र ने फिल्म बनाने का प्रयास किया था। उनके दो पुत्रों में एक अभी सक्रिय है परंतु पुत्री और पुत्री की पुत्री आदरांजलि प्रस्तुत कर रही है। जिस समय उनका विवाह हुआ था गीतादत्त को सितारा हैसियत प्राप्त थी और गुरूदत्त निर्देशन के क्षेत्र में प्रवेश कर रहे थे। यह प्रेम विवाह था। शादी के बाद गुरूदत्त भी सितारा निर्देशक हो गए और उन्होंने अभिनय भी प्रारंभ किया। गीतादत्त पार्श्व गायन के क्षेत्र में उतनी सफल नहीं हुईं, जितनी उनमें प्रतिभा थी या यूं कहें कि उन्होंने अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का भरपूर दोहन नहीं किया। गीतादत्त अभिनय करना चाहती थीं और गुरूदत्त ने उन्हें नायिका लेकर ‘गौरी’ नामक एक फिल्म प्रारंभ भी की थी। कुछ रीलों के बाद आपसी विवाद के कारण फिल्म निरस्त कर दी गई। दरअसल दो अत्यंत प्रतिभाशाली और तुनकमिजाज लोगों की शादी हमेशा तूफान में फंसी नाव की तरह होती है। एक तो नाव के भीतर भी तूफान होता है और वह समुद्र में आए तूफान से कम खतरनाक नहीं होता। गीतादत्त की अभिनय इच्छा अब उनकी नातिन के द्वारा अभिव्यक्त हो रही है। गुरूदत्त की अद्‌भुत प्रतिभा उनके पुत्रों के पास नहीं थी और किसी भी महान फिल्मकार के पुत्र शिखर तक नहीं पहुंचे। शांताराम, मेहबूब खान, विमलराय का काम आगे नहीं बढ़ा। राजकपूर के पुत्रों ने फिल्में बनाईं परंतु वे अपने पिता के स्तर को छू भी नहीं पाए। कोई भी वंश कभी हमेशा कायम नहीं रह पाता। क्षण-भंगुरता से जीवन शासित है। इस तथ्य के बावजूद इस देश में कन्या शिशु को गर्भस्थ अवस्था में ही नष्ट कर दिया जाता है। आज हम गुरूदत्त और गीतादत्त का स्मरण कर रहे हैं क्योंकि पुत्री और नातिन एक लघु प्रयास कर रहीं हैं। क्या इस संगीत वीडियो में गुरूदत्त के गीतांकन की झलक दिखाई देगी। उनकी शैली की सादगी कमाल की थी। याद कीजिए ‘प्यासा’ का गीतांकन-‘जाने क्या तूने कही जाने क्या मैंने सुनी, बात बस बन ही गई’। रोशनी के नाम पर क्षमा मांगते हुए बल्ब की हल्की-पीली जॉनडिसी रोशनी में नहाई कलकता की सड़क पर वहीदा रुककर अनिच्छुक ग्राहक को ललचा रही है। रात के रहस्य को उजागर करता कैमरा सचिव देव बर्मन के संगीत पर संचालित हो रहा है। सांवली सलोनी वहीदा मुड़कर देखती है तो दर्शक दिल को थाम नहीं पाता। भारतीय सिनेमा में गीतांकन के क्षेत्र में राजकपूर, विजय आनंद, राज खोसला और गुरूदत्त ने अद्‌भुत काम किया है और वर्तमान पीढ़ी में संजय लीला भंसाली विशुद्ध जीनियस हैं। जब गीतादत्त ने पार्श्व गायन शुरू किया ‘मेरा सुंदर सपना टूट गया’, तब नूरजहां पाकिस्तान जा चुकी थीं और लता नूरजहां के प्रभाव (बरसात 49) से मुक्त हो चुकीं थीं। उस समय आशा भोंसले का उदय नहीं हुआ था और गीता की गायिकी अद्‌भुत और अभिनव थी परंतु उन्होंने दोहन नहीं किया। नफीसा और नीना अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करेंगी। On Saturday 04 Feb 2006 5:35 pm, Ravishankar Shrivastava wrote: > दोस्तों, > > मॉज़िल्ला-फ़ॉयरफ़ॉक्स ब्राउज़र का एक नया एक्सटेंशन > पद्मा(http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > ) जारी किया गया है जो कि तमाम हिन्दी के विविध फ़ॉन्टों को गतिमय रूप से, > स्वचालित रुप से, यूनिकोड में परिवर्तित कर ब्राउज़र में खुद-ब-खुद प्रदर्शित > करता है. यानी की अब किसी भी हिन्दी साइट में बिना किसी फ़ॉन्ट संबंधी बाधा के > यूनिकोड में पढ़ सकते हैं, भले ही वह हिन्दी साइट यूनिकोड में नहीं हो! > > तकनॉलाज़ी की सीमाएँ अंतहीन ही हैं... > > अपने अनुभव, बग्स (किन साइटों- फ़ॉन्टों पर काम करता है, किन पर नहीं...) > इत्यादि साझा अवश्य करें. > > ----- Original Message ----- > From: "G Karunakar" > To: > Sent: Saturday, February 04, 2006 11:30 AM > Subject: [Indlinux-hindi] Padma: transformer for Indic scripts > > > > Ever visited a Indian language newspaper website and couldnt read it > becoz the encoding was proprietry or the fonts didnt work, a little > know gem of Indic tools - Padma makes it possible, an extension > written for Mozilla/Firefox it converts the website text to unicode > and redisplays the page, making it readable in your browser - all > dynamically and automatically. Developed by Nagarjuna Venna, Padma > Indraganti, it is inspired by Kolichala Sureshs implementation of a > converter from RTS to Unicode for the Internet Explorer. > > >From the home page ( http://padma.mozdev.org ) > > Padma is a technology for transforming Indic text between various > public and proprietary formats. This extension applies the technology > to Mozilla based applications. Padma is available as an extension for > Firefox, Thunderbird and Netscape platforms. Padma currently supports > Telugu, Malayalam, Tamil, Devanagari and Gujarati scripts. The > following output formats are supported: Unicode, RTS (for Telugu > script) . Input methods supported are: RTS, Unicode, ISCII, ITRANS. > > Many popular newspapers website encodings are supported. > So just install the extension and browse the sites, now automatically > converted to unicode. > > The current stable version of Padma is 0.4.4. > http://downloads.mozdev.org/padma/padma-0.4.4.xpi > > Mailing list - http://mozdev.org/mailman/listinfo/padma > > -- > > ************************************* > * Work: http://www.indlinux.org * > * Blog: http://cartoonsoft.com/blog * > ************************************* > > > > > ------------------------------------------------------- > This SF.net email is sponsored by: Splunk Inc. Do you grep through log > files for problems? Stop! Download the new AJAX search engine that makes > searching your log files as easy as surfing the web. 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On Thursday 09 Feb 2006 7:19 pm, girindranath jha wrote: > > Geetoon ka chalan yadee hum sahar me dekhte hain to yeha na sochen ke gaun > es se aachutaa rahega..delee university ke north campus me jab aap praves > karte hain aur Mansarower hostel ke pass se gujarte hain to gareeon me tej > aawaj se bajte geet khud ko aapne liye ek platform bana rahe hote > hain.Himes Resmea ka '" Tera tera surur .." ho ya "Dhoom mcha le dhoom" > .....geeton ki kahanee yeheen khatam nahi hotee hai ..jara Bihar ke > seemawartee gauno me ghume...Loudspeaker par jor-jor se baj rahe geet yahan > bhi khuch deelee ke tasweer he pesh kar rahe hain. fush ka gahar( puwal > aadee se bana ghar.)aur bansh ke bare khambon me latka Loudspeaker geeton > ko Mast andaz me sabko suna raha hai. Forbesganj jo ke Nepal-Bihar ke sema > per basa jila hai ,wahan ka ek gaun GHURNA BAZAR bhe Bantee Aur Bablee ke > "Kazra re kazra re" ke madhur dhun me mast hai.Esee gaun ka Sahjoo Saha ,jo > KreteeNagar(Delee) me rikswa chalata hai ,kahata hai "Chandnee Chowk se ek > tho baza durga puja me gaun le gae the, gaun me khub sunte hain sab > ......bara maza aata hai.." Prawasee sanskretee en Prawaseeon ke man ko es > kadar prabhaweet kar rahee hai ke aab ye log bhee Sahar ke awo-hawa ko gaun > talag pahuncha ne lage hain. Gaunon me aab to filmee nam bhi rakhe jane > lage hain...Sahajoo saha ne aapne bete ka nam rakha hai- BANTEE. waha > kahata hai ke "Sahjoo,Gorakh, Sumateea namon ka yug khatam hua aab hai > samaye Arman, Bantee , Akshya, Bablee ,Kusum ka...." Geeton ka prabhaw > sahar ke sarkon se aab gaun ki galleon me DHOOM MACHANE laga hai. From mahmood.farooqui at gmail.com Wed Feb 22 13:29:59 2006 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Wed, 22 Feb 2006 13:29:59 +0530 Subject: [Deewan] Gaunon me machatee DHOOM ..Buntee Or Bublee In-Reply-To: <200602211557.32628.ravikant@sarai.net> References: <20060209134945.4094.qmail@webmail18.rediffmail.com> <200602211557.32628.ravikant@sarai.net> Message-ID: bhaiyya mere yahan unicode kambakht aana hi nahin chahta hai. agar ravikant ko meri narazgi ki itni parvaah na hoti aur mujhe ravikant ki itni parvaah na hoti to main qatai yeh roman numa dagh is list pe na lagata. Magar jaisa main kal rakesh se kah raha tha ki mere jaise khudsaakhta desi aadmi ke saath yeh ajeeb chakkar chal para hai ki jab main naagri mein likhta hoon to apne aap usmein tatsam shabd aane lagte hain, urdu mein lilhta hoon to voh apne aap khaspasand ho jati hai. Hindustani likhne ke liye mujhe lamuhala roman akhtiyar karna parta hai. To Bhaiyya Ravikant, jinhein Banti aur Babli aur Rang De Basanti donon hi pasand aayin thin, aur kyun na aayein, kya voh bhaartiya upbhokta samaj ke baahar hain, ne itna mera khyal rakha ki kajrare ko kajra re na banaya jaye. Haalaanki agar aap agar kajra se poochhein to voh khud bhi yahi kahega ki bhaiyya main kajra re hi theek hoon. Jab Guru Gulzar ne kah diya to koi kuchh bhi likhe kee farar painda hai. Balki main to yeh tak maanne ko taiyyar hoon ki shayad Aishwarya hi voh kajra hai jise mukhatib karte hue amitabh ji yeh gaana gaa rage hain. Balki agar afvaahon par dhyaan diya jaaye, aur unpar dhyaan na dene ki aisi koi maqul vajah bhi mujhe nahin dikhti, to aishwarya sachmuch voh kajra hain jo amitabh ki raaton ki neend ka chadar theen, pichhle kuchh maheenon se. Ab choonki voh ek achhe ghar se bhi hain aur dekhi parkhi bhi hain isliye kya muzaiqa hai agar voh ab unke bete ki raaton ko thora kajiyara kar dein. Kyun bhai girindranath, kajjan bai ka recard sunna agar jaaiz hai to bunty aur babli mein kya burai hai? Kyunki voh chhutshahre nahin, dilli-bambai ke hawai prawaasi zyaada lagte hain? To isse to gaanv ka masla aur chhota ho gaya na-bajaaye iske ki aap unke upar koi 'authentic' chhutshahrapan laadein, jiske daman aur jiski oob se voh din raat vaise hi jhel rahe hain, hum unko chhutshahripan ke naam pe do aise chapandukh dikhaate hain jinko dekh ke hi yeh lagta hai ki khaate peete hain, khate peete rahenge aur kewal khaayenge aur piyenge hi. Is tarah hum chhutshahrepan ko bina chhutshahar mein ghuse hue darsha sakte hain. CHhutshahripan bhi ho gaya aur dlli bambai ki sair bhi. Kaun kambakht aisa darshak hoga jo rani mukherji ke latkon jhatkon ko padrauna ya basti se mansoob karega. Padrauna ya basti vaala to hargiz nahin. To film bachi kiske liye, un ganwaaron ke liye jo bare shahar pahunchna chahte hain, un chhutshahron ke liye jinehin chhutsharipan se mukti ke elava aur kuchh nahin chahiye aur un barshahron ke liye jinhein chhutshahripan ke naam pe aap sab kuchh dikha sakte hain unke liye voh kewal ek item hai. To item ki kya kami hai. Ek dhhondon hazar milte hain... yunhi gar rota raha mahmood to phir ai deewan waalon dekhna ravikant ko ki akela hansta rah gaya On 21/02/06, Ravikant wrote: > > गिरीन्द्र, > > आप सही फ़रमाते हैं कि प्रवासी संस्कृति उपभोग और आनंद का नया जाल बुन रहा है. लेकिन थोड़ा > ठहरकर सोचने की ज़रूरत है कि क्या फ़िल्मी चीज़ों का गाँव मेँ चलन उतना नया है? > नाम भले ही आज अशोक, दिलीप,नूतन से बदलकर बंटी-बबली और अक्षय हो रहे हैं, > लेकिन चलन तो काफ़ी पुराना है. रेणु(पंचलाइट)की गवाही लेँ, या श्रीलाल शुक्ल(राग दरबारी)की, > या फिर अपनी ही यादोँ को खँगालेँ, तो पाएंगे कि चाहे दुर्गा-पूजा के नाटक मंच पर 'बाई जी' का > नाच हो, या गणेश-चतुर्थी पर लौंडा नाच, या बारात पर बैंड वाले की धुन - > गाने ज़्यादातर फ़िल्मी ही होते थे. बीबीसी तो लोकप्रिय था, निष्पक्ष रेडियो ख़बरों के प्रसारक के > रूप मेँ, लेकिन गाने तो पहले रेडियो सीलॉन, रेडियो नेपाल, और बाद > में विविध भारती से जमकर सुने जाते थे. गंगा-स्नान जैसे विशेष मौक़ोँ पर क़स्बाई सिनेमाहॉल वाले > लोक-लुभावन फ़िल्मेँ लगाते थे, और बाज़ार की ख़रीदारी के अलावा धार्मिक, पारिवारिक-सामाजिक > फ़िल्मेँ देखने-दिखाने का चलन आम था. कुछ फ़िल्मोँ ने लोकप्रियता की तमाम हदेँ तोड़ दीं - शोले व > दीगर डाकू फ़िल्मोँ के कई स्थानीय नाटकीय संस्करण लिखे, छापे व खेले गए. नागिन या जय > संतोषी माँ की कहानी पर तो बहुत कुछ लिखा जा चुका है. > > ज़्यादा अहम सवाल यह है कि कौन क्या सुन रहा था/है? > किस टोल में कौन सा स्टेशन बज रहा है, बड़े-बूढ़े क्या सुन रहे हैं, > और रेडियो संस्कृति इतना पुरुष-प्रधान क्योँ रहा. टेप के आने से यह निश्चय ही टूटा, और बदलीं > जातीय पहचान की रेडियो-आधारित रूढ़ियां. टीवी और सीडी के बाद और नया क्या हो रहा है? मेरे > विनम्र ख़याल में स्टेटस की लड़ाई में जो हैसियत पहले रेडियो को मिली हुई थी, वही अब टीवी की > हो गई है.क्या मोबाइल के इर्द-गिर्द कौतूहल और ईर्ष्या अब समाप्त-प्राय है? > > रविकान्त > > पुनश्च: कजरारे को कजरारे ही रहने दिया जाए, कज़रा रे न किया जाए, वरना महमूद नाराज़ हो > जाएंगे! > > > > On Thursday 09 Feb 2006 7:19 pm, girindranath jha wrote: > > > > Geetoon ka chalan yadee hum sahar me dekhte hain to yeha na sochen ke gaun > > es se aachutaa rahega..delee university ke north campus me jab aap praves > > karte hain aur Mansarower hostel ke pass se gujarte hain to gareeon me tej > > aawaj se bajte geet khud ko aapne liye ek platform bana rahe hote > > hain.Himes Resmea ka '" Tera tera surur .." ho ya "Dhoom mcha le dhoom" > > .....geeton ki kahanee yeheen khatam nahi hotee hai ..jara Bihar ke > > seemawartee gauno me ghume...Loudspeaker par jor-jor se baj rahe geet yahan > > bhi khuch deelee ke tasweer he pesh kar rahe hain. fush ka gahar( puwal > > aadee se bana ghar.)aur bansh ke bare khambon me latka Loudspeaker geeton > > ko Mast andaz me sabko suna raha hai. Forbesganj jo ke Nepal-Bihar ke sema > > per basa jila hai ,wahan ka ek gaun GHURNA BAZAR bhe Bantee Aur Bablee ke > > "Kazra re kazra re" ke madhur dhun me mast hai.Esee gaun ka Sahjoo Saha ,jo > > KreteeNagar(Delee) me rikswa chalata hai ,kahata hai "Chandnee Chowk se ek > > tho baza durga puja me gaun le gae the, gaun me khub sunte hain sab > > ......bara maza aata hai.." Prawasee sanskretee en Prawaseeon ke man ko es > > kadar prabhaweet kar rahee hai ke aab ye log bhee Sahar ke awo-hawa ko gaun > > talag pahuncha ne lage hain. Gaunon me aab to filmee nam bhi rakhe jane > > lage hain...Sahajoo saha ne aapne bete ka nam rakha hai- BANTEE. waha > > kahata hai ke "Sahjoo,Gorakh, Sumateea namon ka yug khatam hua aab hai > > samaye Arman, Bantee , Akshya, Bablee ,Kusum ka...." Geeton ka prabhaw > > sahar ke sarkon se aab gaun ki galleon me DHOOM MACHANE laga hai. > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > From brajesh_1974 at rediffmail.com Sat Feb 25 00:55:20 2006 From: brajesh_1974 at rediffmail.com (Brajesh Kumar Jha) Date: 24 Feb 2006 19:25:20 -0000 Subject: [Deewan] सार-रूप Message-ID: <20060224192520.26093.qmail@webmail34.rediffmail.com>   शोद्ध के जुड़ी दो बातें—– 'बोल पहिया कि रात-दिन धकेलते रहो'(फिल्म-यहां)जैसे गीत आने तक हि्न्दी सिनेमाई गानेअपने पचहत्तर साल का सफर पूरा कर चुका है। यकीनन,इस दरमियान वक्‍त तेज रफ्तार से बदलता रहा और उसके तेवर भी।ऐसे में सिनेमाई गीत अपनी भाषा व मुहावरों को गढने-बदलनेका आदी ओर अभ्यस्त होता गया। ढेरों प्रयोग हुए। समय, परिवेश व नाजुक रिश्ते की संवेदनात्मकअभिव्यक्ति के, शब्दों को गढने ओर गुनने के। और हां, ये सफल भी रहे। तभी तो 'कजरारे कजरारेतेरे कारे कारे नैनां' गायकी के कई अंदाजों के साथ भाषा के स्तर पर पंचमेल खिचडी का रूप लिए सामने आई और दम भर चली।यानी, प्रयोग का एक मुकम्मल रूप हमारे नजीर आया। बात एसी है कि यहं गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मोद्योग में नहीं मिल पाया। फिल्में आती हैं,चली जाती हैं। सितारे भी पीछे रह जाते हैं। बस रह जाते हैं तो कुल अच्छे-भले गीत जो 'दुनिया,ये दुनिया तुफान मेल' व 'अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का' की तरह युगों तक बजता रहेगा। पचहत्तर साल लम्बे सफर के इन्हीं प्रयोगात्मक पहलुओं पर शोध टिका रहेगा। धन्यवाद ब्रजेश कुमार क्षा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060224/8c6d3eae/attachment.html From brajesh_1974 at rediffmail.com Sat Feb 25 00:56:23 2006 From: brajesh_1974 at rediffmail.com (Brajesh Kumar Jha) Date: 24 Feb 2006 19:26:23 -0000 Subject: [Deewan] सार-रूप Message-ID: <20060224192623.14291.qmail@webmail33.rediffmail.com>   शोद्ध के जुड़ी दो बातें—– 'बोल पहिया कि रात-दिन धकेलते रहो'(फिल्म-यहां)जैसे गीत आने तक हि्न्दी सिनेमाई गानेअपने पचहत्तर साल का सफर पूरा कर चुका है। यकीनन,इस दरमियान वक्‍त तेज रफ्तार से बदलता रहा और उसके तेवर भी।ऐसे में सिनेमाई गीत अपनी भाषा व मुहावरों को गढने-बदलनेका आदी ओर अभ्यस्त होता गया। ढेरों प्रयोग हुए। समय, परिवेश व नाजुक रिश्ते की संवेदनात्मकअभिव्यक्ति के, शब्दों को गढने ओर गुनने के। और हां, ये सफल भी रहे। तभी तो 'कजरारे कजरारेतेरे कारे कारे नैनां' गायकी के कई अंदाजों के साथ भाषा के स्तर पर पंचमेल खिचडी का रूप लिए सामने आई और दम भर चली।यानी, प्रयोग का एक मुकम्मल रूप हमारे नजीर आया। बात एसी है कि यहं गीत को जितना तवज्जह मिला, उतना संसार के किसी भी अन्य फिल्मोद्योग में नहीं मिल पाया। फिल्में आती हैं,चली जाती हैं। सितारे भी पीछे रह जाते हैं। बस रह जाते हैं तो कुल अच्छे-भले गीत जो 'दुनिया,ये दुनिया तुफान मेल' व 'अफसाना लिख रही हूं तेरे इंतजार का' की तरह युगों तक बजता रहेगा। पचहत्तर साल लम्बे सफर के इन्हीं प्रयोगात्मक पहलुओं पर शोध टिका रहेगा। धन्यवाद ब्रजेश कुमार क्षा -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060224/956c056d/attachment.html From gnj_chanka at rediffmail.com Sat Feb 25 12:05:30 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 25 Feb 2006 06:35:30 -0000 Subject: [Deewan] telephone booth sanskritee Message-ID: <20060225063530.25201.qmail@webmail52.rediffmail.com>     दोस्त मै गिरीन्द्र्, मेरे शोध का विषय है-प्रवासी इलाको मे टेलिफोन बूथ सस्कृति". मै ठपने शोध मे टेलिफोन बूथ की बदलती तस्वीर पर काम कर रहा हु.शहर के प्रवासी इलाके मे मौजूद बूथ भी बदल रहे है. पर ग्रामीण इलाके के बूथ नही बद्ले है. " मडावली इलाके का ठध्ध्यन और वहा पर मौजूद टेलिफोन बूथ्" यह इलाका काफी बडा है.यहा सामान्यत्: मध्य वर्ग के कामकाजी लोग रहते है.खासकर प्रवासी बिहारी..जो कमाने आते है... मडावली के जिस इलाके के बारे मे मै बता रहा हु, वह है रिक्शे वालो की बस्ती.एक आगन मे सिमटा करीब द्स परिवार्...कमाने वाले ..चलाते है सब रिक्शा..कोई उतर बिहार से तो कोई मध्य बिहार से.बहुतो तो ठपने परिवार के साथ है तो कुछ ठकेले भी बसेरा बसाए है.पर इन सब मे बस्ती की भावना हिलोडे मार रही है..जिसे आप देख कर मह्सूस कर सकते है.मनोज ठररिया का है तो झुमरी भाभी जहानाबाद की, झुमरी भाभी के पति रमेश भैया रिक्शा चलाते है और मनोज को छोटा भाई मानते है. इसे बया करना मुश्किल है.. इस चहारदीवारी से घिरे मकान की तस्वीर शाम ढलते ही बदल जाती है, काम करने वाले वापस आ जाते है.हर खोपले मे रोटी पक्ने लगती है..रेडियो मे "बजाते रहो" की आवाज तेज हो जाती है. मनोज को घर की याद आज ज्यादा आ रही है ,इसलिए वह आज घर बात करेगा. ठभी शाम के ८ बजे है..वह बाहर निकलता है,रोड के पास एक "चलता फिरता टेलिफोनबूथ्" है, वह वही चला गया और बतीयाने लगा...इस बूथ को एक प्रवासी ही चला रहा है-रमेश ,बक्सर से है.टाटा का फिक्स्ड वायरलैस सैट वाला उसका यह बूथ है,एक ठैले पर उसका पूरा लाव-लश्कर है,एक बैट्री है जिससे बल्व जलता है.मीटर पर उठै पैसै देकर हर कोइ चला जाता है.. मनोज बात कर वापस आता है..काफी खुश है..क्योकि उसने ठपने गाव दोलगची(ठररिया) के एकमात्र बूथ पर फोन कर ठपनी मा से बात किया है. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/8f556bd6/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Feb 25 13:58:00 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Feb 2006 13:58:00 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSs4KWN4KSw4KSc4KWH4KS2IOCkleClgCDgpKrgpLk=?= =?utf-8?b?4KSy4KWAIOCkluClh+Ckqg==?= Message-ID: <200602251358.00705.ravikant@sarai.net> ब्रजेश की पहली खेप. बधाई, युनिकोड पर विजय पताका फहराने के रास्ते पर हैं आप. बादवाला मेल साफ़ आया, लेकिन इस वाले को http://lang.ojnk.net/hindi/unifix.html - यहाँ से शुद्ध करके डाल रहा हूँ. ब्रजेश फ़िल्मी गानों की भाषा पर काम कर रहे हैं. मज़े लें, और अपने ख़यालात भी रखें. रविकान्त नियमानुरूप भेजा जाने वाला स्वतंत्र शोध-कार्य का अनौपचारिक खेप। आगे जब फिल्मी गीतों पर लम्बी चर्चा होनी है तो इच्छा है,शुरूआत में स्थूल ही सही इसकी एक व्याख्या तो हो। मोटे तौर पर मेरा खयाल है भावों की अभिव्यक्ति के वास्ते वर्णों को जब किसी लय व सुर का सहयोग मिलता है तो वह गीत का आकार पा लेता है। टाकिंग साङ्ग में अच्छे गीत के संबंध में जावेद अख्तर ने कहा है कि अच्छे शब्द, धुन,आर्केस्ट्रा और इसकी बढ़िया प्रस्तुति श्रेष्ठ गीतों के वास्ते जरूरी चीज है। इसमें किसी एक की व्याख्या कदापि सरल नहीं है और यहं तो सभी एक दूसरे से जुड़े होते हैं। इस सवाल का जवाब भी हरेक के लिए अलग-अलग हो सकता है।आखिर यह व्यक्तिगत सौन्दर्यबोध का मामला है। आगे वो इन्हीं गुम्फित वाक्यों की सरल व्याख्या करते हैं। वैसे भी क्या गीत की कोई एक मुकम्मल परिभाषा संभव है? मुझे लगता है यह उतना सरल नहीं है जितना दिखता है। इसकी विरासत पर एक संक्षिप्त नजर- हमारे यहं गीतों की विरासत बड़ी गहरी है। जितना पीछे लौटते हैं उतना ही समृद्ध नजर आता है। वीरगाथा काल के रासो काव्यों को ही देखें-'परमाल रासो'। यह लोक-गेय काव्य है। आल्हा-लोकगीत शैली की शुरूआत यहीं से हुई। भक्तिकाल तक आते-आते लगभग हर कुछ गेय रूप में आने लगा। लोरी हो, विरह या श्रृंगार के गीत हों, सूफीपन हो या फिर कुछ और गीत। दूसरी तरफ लोक परम्पराओं त्योहारों से जो गीत उपज रहे थे सो अलग। खैर! फिलहाल हम इतना भर कहना चाहते हैं कि 'आलमआरा'(1931) में गीत अचानक नहीं फूटा बल्कि, इसकी एक परम्परा थी जो भारतीय समाज में आदिकाल से अब तक बेहद लोकप्रिय रही है। जनमानस पर सीधा और ज्यादा प्रभाव पड़े इस वास्ते सिनेमा गीतों का इस्तेमाल शुरू से करता रहा। ऐसे में वक्‍त के हिसाब से इसका बदलना लाजमी था और यह बदला भी। शुरूआती सिनेमा के गीत पर फिलहाल एक मोटी चर्चा- वैसे तो भारतीय फिल्मों में गीत-संगीत के प्रभाव का दौर मूक फिल्मों के युग से ही चल पड़ा था। जब कभी मूक फिल्मों का प्रदर्शन सिनेमाघरों में होता तब संगीतकारों की टोली हौल के स्टेज पर उपस्थित रहकर फिल्म के मूड के अनुसार गीत-गजल प्रस्तुत करती थी। वह सिनेमा के शिल्पक विकास का दौर था। स्पूलों को बदलने में कई बार फिल्मों के बीच दो-चार अंतराल आ जाते थे। बारम्बार आ जाने वाला यह अंतराल शुद्ध मनोरंजन में आड़े न आए इस वास्ते भी सिनेमा के बीच नाच-गाने की व्यवस्था होती थी। तब के सिनेमाई इश्तहार में फिल्म के नाम के साथ-साथ मोटे अक्षरों में यह भी लिखा होता था-'साथ में जिन्दा नाच और गाना'। नाच-गाने के इस कार्यक्रम ने कुछ गीतों को बड़ा लोकप्रिय किया जैसे- 'राजा जानी न मारो रे नैनवा के तीक'। या फिर 'छोटा सा बालम मोरे अंगना में गिल्ली खेले'। आगे इम्पीरियल फिल्म कंपनी द्वारा जब 'आलमआरा' बनाई गई तब देश में बड़े स्तर पर राजनीतिक-सामाजिक क्रांति चल रही थी। लोगों का आत्मविश्वास आसमान पर था। अत: शब्दों के इस्तेमाल में तबदीली आने लगी। तभी तो गाने आए दे दे खुदा के नाम पर गर हिम्मत है देने की। ध्यान हो 'आलमआरा' के गीत की ये पंक्तियां एक फकीर के मुख से गवाए गए थे। आगे स्थितियां बदलती रही। उसके हर रंग-ढंग का असर सिनेमाई गीत की भाषा पर दिखता रहा। अब रही बात लोक-परम्पराओं और गीतों की तो इसके सम्बन्ध में क्या कहनें ! जबर्दस्त हस्तक्षेप रहा अब तक के फिल्मी गीतों पर। फिलहाल इसकी सूची तैयार कर रहा हूँ। शोद्ध का एक मुकम्मल रूप सामने आए इस लिए गीतों को हमने कार्ययोजनाओं के तहत कुछ इस तरह बांटा है। १)राजनीतिक-सामाजिक चेतनाओं से प्रभावित गीत। २) स्वत: प्रस्फुटित मनोभावों के गीत। ३)कला(साहित्य,लोक-संगीत,शास्त्रीय-संगीत) से प्रभावित गीत। वैसे तो मैंने प्रमाणिक स्रोत के कुछ साधनों को इकट्ठा किया है। आगे आप सब से भी सहयोग की उम्मीद है। अगला खेप जल्द ही। धन्यवाद ब्रजेश कुमार झा jha.brajeshkumar at gmail.com From ravikant at sarai.net Sat Feb 25 14:02:57 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Feb 2006 14:02:57 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSuIOCkleClgCDgpJXgpKHgpLzgpL/gpK8=?= =?utf-8?b?4KS+4KSC?= Message-ID: <200602251402.57161.ravikant@sarai.net> ब्रजेश की डाक से याद आया कि दो अद्भुत स्रोत हैं, नेट पर गानों के लिए: http://www.cs.wisc.edu/~navin/india/songs/isongs/indexes/stitle/index_i.html http://www.hindilyrix.com/ रविकान्त From lovableyunus at yahoo.co.in Sat Feb 25 14:48:12 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sat, 25 Feb 2006 09:18:12 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] *****SPAM***** Asahaye Mahanagar II Message-ID: <20060225091812.52727.qmail@web42202.mail.yahoo.com> An embedded and charset-unspecified text was scrubbed... Name: not available Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/bed71a1b/attachment.pl -------------- next part -------------- An embedded and charset-unspecified text was scrubbed... Name: not available Url: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/bed71a1b/attachment-0001.pl From jeebesh at sarai.net Sat Feb 25 14:51:56 2006 From: jeebesh at sarai.net (Jeebesh Bagchi) Date: Sat, 25 Feb 2006 14:51:56 +0530 Subject: [Deewan] posting from mohd syed Message-ID: not sure why did it got tagged as a spam....will check with the sys admin ------------- From: mohd syed Content preview: Asahaye Mahanagar II (Helpline karyakartaon ke nazariye se delhi shahar ka adhyaan) Choonki mere shodh ka daramadar helpline per nirbhar hai , is lihaz se ye janna zaroori hai ke aakhir helpline hoti kya hai.? Aasaan lafzon main helpline ek telephone service hai jo logo ki gopniyata ko surakshit rakhte huye,unhen apni zati preshani,muddon, sawalaoon aur zarooraton ke baare main baat karne main madad karti hai. Helpline ki sabse bari khobi ye hai ki yeh telephone dwara upyog main laayi jaati hai , ise koi bhi, kabhi bhi, kahin se bhi laabh utha sakta hai.khas taur se un ‘samassiyaon’ aur muddon ke liye jinke baare main hum aamne saamne khul kar baat karne main jhijhakte hain. Sirf yahi nahin balki ye caller ko ek aur taaqat deti hai, apni marzi ke mutabiq baat jaari rakhne ki, use is baat ki aazaadi hai ki apni suvidha aur samasiya anusaar call kare. [...] From tripathi_mrityunjay at yahoo.co.in Sat Feb 25 14:57:08 2006 From: tripathi_mrityunjay at yahoo.co.in (mrityunjay tripathi) Date: Sat, 25 Feb 2006 09:27:08 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] second posting Message-ID: <20060225092709.44742.qmail@web8603.mail.in.yahoo.com> sabse pahele ek kavita ka jayaaka lein ............. kavita veeren dangaval ki hai ghaffar chehare par ek vachaal musskaan katthe ke chamakdar lote par jaltarng tajurabe sa hi aata hai yeh sab kurta safed hi rahega atineelgrasta jhakkajhakk ghutane to khair dukhenge hi solah ghante jab lagatar baithana hoga is bitte bhar ki gumati mein "ab vo bat kahan rahi saheb ab to ek se ek aave laga hai university mein parhane ke liye." is hikarat mein hai chaplusi ka ek adwitiya dhang tazurabe se hi aata hai yeh sab "apana ladaka haii ekram wah baharhal chhathi se aage nahin gaya." itana zaroor hai ki kabhi kisi chhatraneta tak se gali nahin khai ghaffar ne halanki udhar bhi na diya kisi kamzor aasami ko. shahar allahabad ke chhatra rajniti se garhe riste ko yeh kavita batati hai aur yeh bhi ki "ek se ek" parhane wale nabbe ke dashak mein aaye, jo nishaya hi prachalit manyataon ke hisab se samanya nahin the. ab kuchh batein allahabad mein pasare degree colleges se: in collegon mein administration aur management ke aage chhatra neta bhigi billi bane rahaate hain. ek purani ghatana, jo log sunate hain,haalanki usake dastavezi praman nahin hain,yeh ki CMP degree college mein ek chhatra neta sirf isliye nanga hokar daura tha kyonki prashasan ne us par dabav dala aur use goad(adoopt) lene ka aashwashan diya tha. hal mein usi degree college meiin vice president priti tripathi ne apane liye chamber ki mang ki . use anya dusare lampat purush padadhikariyon ke sath baithana padata tha. na hi usaki yeh mang puri huee,ulte usaka charitrahanan karate huye pura administratin aur dusare neta usake khilaph khade ho gaye. iisase in colleges mein chhatraon ki sthiti ka namuna liya ja sakata hai. inamein classes na ke barabar chalati hain. yahan syllabuses shayad hi kabhi pure hote hon.yahan ke achchhe chhatra bina enrollment ke university mein classes lete hain.shahar ke aaspas pasare gramin ilakon se aane wale chhatra hi inamein daakhila lete hain.ve apas mein to paryapta mar peet karate hain lekin college administration aur state ke khilaf aandolan karane se darate hain.kaarib karib apane pitaon ki tarah joapane ghusse ki catharsis apane hi band samuday mein kar dalate hain. ECC mein,2002 mein,HAASIL film ki shooting ke virodh mein chhatra sangh ne call di. virodh ka karan padhai mein shooting se hone wala disturb tha.college administration ne PAC bula li aur president sahit tamam chhatron ko dhun diya.wahin university mein chhatra netaon ne film nirmataon se shooting ke liye paise mange.do tarah ke ye response do tarike ki chhatra rajniti bakhanate hain.administrationAU mein chhatra netaon se darata hai jabki degree colleges mein mamala isaka ulat hai.pratirodh ka sangathit hona isaki vazah hai. ab kuchh batein aparadhikaran ke sandarbh mein; 90 ke dashak mein chhatra rajniti mein naye tarah ka power balance bana.pichhadi aur dalit jatiyon ke creami layer ki taraf se mukhya dhara rajniti mein aane ki mang uthi. ve aaye, ek aitihasik prakriya ke tahat aur unake aane se savarna kabza tuta.abhi bhi yeh prakriya chal rahi hai aur kai tarah ke conflicts ki vazah bani huee hai,jisaka sabse mukhar rup chhatra sangh chunavon mein dikhata hai.UP ki politics mein aparadhikaran ke karan hi kamobesh chhatra rajniti ke bhi aparadhikaran ke karan hain.chhatra neta kamalesh yadav,jo pichhale chunav mein mahamantri pad ke ummidvaar the,ki Ex vice president manoj singh dwara ki gayee hatya ko is aalok mein samajha ja sakata hai. khair,mazedaar yeh hai ki allahabad university mein president ka achunav ladane wale candidates ki umra ausatan 40 varsha hai.is ek tathya se mushkil yeh hoti hai ki is rajniiti ko chhatra rajniti kaha ja sakata hai ya .................... --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! 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URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/c4a70613/attachment.html From lovableyunus at yahoo.co.in Sat Feb 25 15:13:09 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sat, 25 Feb 2006 09:43:09 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] Asahaye Mahanagar III Message-ID: <20060225094309.40760.qmail@web42201.mail.yahoo.com> Asahay mahanagar III (Helpline karyakartaon ke nazariye se delhi shahar ka adhyaan) Abhi kuch hi dino pehle delhi helpline network ki meeting thi, aur main us meeting ko attend karne gaya. yeh meeting har baar alag sanstha ayojit karti hai, aur main pehle bhi aisi meeting attend kar chukka hoon, lekin is baar ki meeting kuch alag thi ,is baar meeting se pehle mere mun main kuch sawal aur kuch dilemma the. · Is baar main meeting main insider ki haisiyat se jaoonga ya outsider ki haisiyat, helpline worker ki tarah ya shodhkarta ki tarah ? · Is baar meeting ek aisi sanstha me ayojit thi jo ‘humjinsi’ purusho ke saath kaam karti hai. Aur mere munn main ye manthan tha ki main aise purushon ki taraf ‘bais’ hoon ya phir so called ‘libral’ hoon. Khud se mulaqaat Jab main sanstha ke office main dakhil ho raha tha to maine aas pas dekha ,upper niche dekha ki koi mujhe dekh to nahi raha hai. Meri talash paros ki ki ek chhat par khatam hui jahan ek aunty khadi hui thi aur unki nazre mujhe dekh rahin thi. Ab tak to main yeh sooch raha tha ki main ‘humjinsi’ puroshon ke bare main kya sochta hoon ? Magar aunty par nazar parte he main yeh sochne laga ki wo mere baare main kya sooch rahi hongi? Jaise hi main office main dakhil hua saamne hi char paanch ladke khade huye the aur aapas mai Baat cheet kar rahe the, has-bol rahe the . Hao-bhao se wo mujhe ‘humjinsi’ hi lag rahe the( ya phir shayad gay, ya kuch aur mere paas abhi koi definition nahi hai aur naahi koi sabot). halanki purushon ke beech mujhe koi jhijhak nahin hoti ( ab tak mujhe yahi lagta tha) lekin un purushon ke saamne main aaram se nahin tha. Ab jab ki unsabhi ki aankhen mujh par thi to mere mun main ye chal raha tha ki wo mere bare main kya soch rahe honge? Kamre ki deewaron par poster lage hue the jo samlangik, humjinsi purushon ke the aur jo samlangikta ki promotion or acceptance ke liye the. Ek sticker par likha tha: Kya aap aise purush hain jo doosre puroshon ki taraf aakarshit hote hain? Kya aap is wishay par purush slahkar se baat karna chahte hain? Sampark karein: **** Dost helpline Monday to Saturday 2pm to 8 pm Helpline number:******** Wo jagah mujhe anjaan lag rahi thi aur main khud ko akela ‘purush’ mehsoos kar raha tha. Usi pal main, usi jagah mujhe ye ahsaas hua ki is kamre ke baahar ye log minority hain aur kamre ke ander main. Is akelepan ko dus sawaliya aankon ne tora aur main ne jaldi se apna ek maqsad unhe bataya ki main ‘helpline meeting’ attend karne aaya hoon aur Rahul se milna chahta hoon . Rahul us sanstha ka coordinator hai or Unhi main se hai. Ajeeb baat hai ki jab mujhe ye ahsaas hua ki Unhi main se ek mera jaanne wala hai to mujhe kuch rahat mili aur main bazahir sukoon se sofe par baith gaya or office ka jaiza lene laga ,deewaro par aur bhi kai cheese thi jinke bare main aainda posting main likhoonga. Helpline meeting Meeting main kul paanch tarah ki helpline member the, inmain se childline ke alawa baaqi helpline zyada popular nahin hain , aur is meeting ka agenda bhi yahi tha ki kis tarha in helplines ki publicity ki jaaye, (kyonki publicity main bahut paisa lagta hai) legal helpline ki member ne bataya ki unhone radio mirchi par sirf ek baar prasaar karwaya to unke saatth hazaar rupay lag gay, isi tarah ek or member ne bataya ki Times of India main ek chhote se ad main chaar so rupay lagtey hain, ab choonki in helpline ka budget kam hota hai to ye publicity par zyada kharch nahin kar sakte. Phir ek mashwara aaya ki kyon na community radio par helpline ke bare main prasar kiya jaye, is par Maine apni swachik sewa dete huye kaha ki main helpline service par ek radio program banane main unki maddad karonga. Cancer support helpline ki member ne kaha ki agarche ek list bana kar chapwai jaye to students ke zariye college main bhi publicity ki ja sakti hai. Is par ye ashanka uthi ki is tarah number baatne main kuch helpline ko apatti hai. Kyonki aksar is tarah bahut zayada abuse calls aane lagte hain. Jis se bahut pareshani hoti hai Pichle kuch dino ke andur, main mukhtalif helpline karyakartaon se mila aur unse wo baaten ki jo pehle kabhi nahi karta tha ,kuch ne mujhse aisi batein ki jo wo pehle nahin karte the,ya phir shayad main sun nahin paata tha ab abuse calls ko hi le lijiye jo ki unke liye ek spreshani ka baies hai. helpline karyakarta rozana dher saari samassiyaon ko sunte hain magar khud unke liye ‘samassiya’ zara hat ke hotin hain. apni agli posting mein, main helpline karyakartaon ke bare main likhoonga aur ye likhoonga ki helpline main kis kis tarah ki calls aati hain. --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/99afd2ad/attachment.html From lovableyunus at yahoo.co.in Sat Feb 25 15:21:18 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sat, 25 Feb 2006 09:51:18 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] Ashaye mahanagar II (re sent) Message-ID: <20060225095119.68934.qmail@web42205.mail.yahoo.com> Asahaye Mahanagar II (Helpline karyakartaon ke nazariye se delhi shahar ka adhyaan) --------------------------------------------------------------------------------------------------- Choonki mere shodh ka daromadar helpline per nirbhar hai , is lihaz se ye janna zaroori hai ke aakhir helpline hoti kya hai.? Aasaan lafzon main helpline ek telephone service hai jo logo ki gopniyata ko surakshit rakhte huye,unhen apni zati preshani,muddon, sawalaoon aur zarooraton ke baare main baat karne main madad karti hai. Helpline ki sabse bari khobi ye hai ki yeh telephone dwara upyog main laayi jaati hai , ise koi bhi, kabhi bhi, kahin se bhi laabh utha sakta hai.khas taur se un ‘samassiyaon’ aur muddon ke liye jinke baare main hum aamne saamne khul kar baat karne main jhijhakte hain. Sirf yahi nahin balki ye caller ko ek aur taaqat deti hai, apni marzi ke mutabiq baat jaari rakhne ki, use is baat ki aazaadi hai ki apni suvidha aur samasiya anusaar call kare. Kisi bhi helpline main nimn main se kuchh ya saari sewa hoti hain: ------------------------------------------------------------------------------------------------------- Soochna(information): Ye sewa kai helpline main di jaati hai , caller kisi vishesh paristithi, Soochna ya sawal ke baare main call karta hai aur helpline worker use mangi gai soochna deta hai, misaal ke taur per HIV/AIDS helpline main aane wali zayada tar call soochna sambandhit ho sakti hain. Kya machhar ke kaatne se Aids ho sakta hai? Nirupan(referral): Aisa aksar hosakta hai ki jo soochna caller ko chahiye wo helpline mai uplabhd na ho, to aisi stithi main worker unhain annye sewaon ke baare main jankari deta hai jahan uchit soochna mil sakti hai . referral ke liye ye zaroori hai ki helpline main vibhinn sewaon ki soochi aur adhaar samagri honi chahiye.kuch helpine apne caller ke liye doosri sansthaon ke saath appoinment bhi fix karti hain. Main bachcha god lena chahta hoon kiya aap meri madad kar sakte hain? Support: is shabd ka anuwaad zara mushkil hai kyonki is ke bahut se arth hain, magar anuwad ko nazarandaz karte huye ye samajhn zaroori hai ki support ek aham sewa hai jo helpline dawara di jaati hai, aur kisi bhi waqt mil sakti hai. Lekin iske liye woker ko bhi training aur practise ki zaroorat hoti hai, jaise ki ‘samaanbhuti’ . kaii helpline main worker khud un samassiyaon se joojh chuke hote hain isliye wo un paristithiyon aur un se juri anubhuti, peera aur samadhan ki gahri samajh rakte hain. Aur aage barh kar caller ki madad karte hain. Main ek shadi shuda aurat hoon, maa na banne ke karan bhut udas rahti hoon mun mein ajeeb ajeeb khayal aate hain, mainkya karoon? Outreach: Ye sewa zayada tar aapatkalin stithi main pradan ki jaati hai jabki caller khud apni madad karne main asamarth ho ,ya khatre main ho. Sadak par ek bachche ka accident ho gaya hai, foran aakar hospital mein bharti karwayen. Ab jabki kuch had tak ye saaf ho gaya hai ki helpline kya hoti hain . main kuch roshini is baat par dalna chahoonga ki is mahanagar mai kin 'zarooraton' ke liye log helpline ka rukh karte hain. HIV/AIDS ki jaankari ke liye Kanooni salah ke liye Musbat main phanse bachchon ki madad ke liye Sexuality sambandhit jaan kari liye Viklaang logo ki madad, sambandhit soochna ke liye Cancer pidit, sambhandhit, logo ko salah ke liye. Umar daraz logon ke liye Musibat main phansi Mahilaon ki counselling or madad ke liye. Humjinsi mahilaon ke liye Humjinsi purushon ke liye Manovigyanic or bhavnatmak madad ke liye Depression or chinta se chhutkaare ke liye Pareeksha sambandhit chinta or tension ko door karne ke liye Nasha mukti, sambandhit salah support ke liye Apaatkaleen sewaon ke liye jaise ,ambulance Career guidance ke liye. --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/476bc07c/attachment.html From lovableyunus at yahoo.co.in Sat Feb 25 15:42:43 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sat, 25 Feb 2006 10:12:43 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] Asahaye Mahanagar II Message-ID: <20060225101243.65486.qmail@web42210.mail.yahoo.com> Asahaye Mahanagar II (Helpline karyakartaon ke nazariye se delhi shahar ka adhyaan) Choonki mere shodh ka daramadar helpline per nirbhar hai , is lihaz se ye janna zaroori hai ke aakhir helpline hoti kya hai.? Aasaan lafzon main helpline ek telephone service hai jo logo ki gopniyata ko surakshit rakhte huye,unhen apni zati preshani,muddon, sawalaoon aur zarooraton ke baare main baat karne main madad karti hai. Helpline ki sabse bari khobi ye hai ki yeh telephone dwara upyog main laayi jaati hai , ise koi bhi, kabhi bhi, kahin se bhi laabh utha sakta hai.khas taur se un ‘samassiyaon’ aur muddon ke liye jinke baare main hum aamne saamne khul kar baat karne main jhijhakte hain. Sirf yahi nahin balki ye caller ko ek aur taaqat deti hai, apni marzi ke mutabiq baat jaari rakhne ki, use is baat ki aazaadi hai ki apni suvidha aur samasiya anusaar call kare. Kisi bhi helpline main nimn main se kuchh ya saari sewa hoti hain: Soochna(information): Ye sewa kai helpline main di jaati hai , caller kisi vishesh paristithi, Soochna ya sawal ke baare main call karta hai aur helpline worker use mangi gai soochna deta hai, misaal ke taur per HIV/AIDS helpline main aane wali zayada tar call soochna sambandhit ho sakti hain . Kya machhar ke kaatne se Aids ho sakta hai? Nirupan(referral): Aisa aksar hosakta hai ki jo soochna caller ko chahiye wo helpline mai uplabhd na ho, to aisi stithi main worker unhain annye sewaon ke baare main jankari deta hai jahan uchit soochna mil sakti hai . referral ke liye ye zaroori hai ki helpline main vibhinn sewaon ki soochi aur adhaar samagri honi chahiye.kuch helpine apne caller ke liye doosri sansthaon ke saath appoinment bhi fix karti hain. Main bachcha god lena chahta hoon kiya aap meri madad kar sakte hain? Support: is shabd ka anuwaad zara mushkil hai kyonki is ke bahut se arth hain, magar anuwad ko nazarandaz karte huye ye samajhn zaroori hai ki support ek aham sewa hai jo helpline dawara di jaati hai, aur kisi bhi waqt mil sakti hai. Lekin iske liye woker ko bhi training aur practise ki zaroorat hoti hai, jaise ki ‘samaanbhuti’ . kaii helpline main worker khud un samassiyaon se joojh chuke hote hain isliye wo un paristithiyon aur un se juri anubhuti, peera aur samadhan ki gahri samajh rakte hain. Aur aage barh kar caller ki madad karte hain. Main ek shadi shuda aurat hoon, maa na banne ke karan bhut udas rahti hoon mun mein ajeeb ajeeb khayal aate hain, mainkya karoon? Outreach: Ye sewa zayada tar aapatkalin stithi main pradan ki jaati hai jabki caller khud apni madad karne main asamarth ho ,ya khatre main ho. Sadak par ek bachche ka accident ho gaya hai, foran aakar hospital mein bharti karwayen. Ab jabki kuch had tak ye saaf ho gaya hai ki helpline kya hoti hain . main kuch roshini is baat par dalna chahoonga ki is mahanagar mai kin zarooraton ke liye log helpline ka rukh karte hain. Kanooni salah ke liye Musbat main phanse bachchon ki madad ke liye Sexuality sambandhit jaan kari liye Viklaang logo ki madad, sambandhit soochna ke liye Cancer pidit, sambhandhit, logo ko salah ke liye. Umar daraz logon ke liye Musibat main phansi Mahilaon ki counselling or madad ke liye. Humjinsi mahilaon ke liye Humjinsi purushon ke liye Manovigyanic or bhavnatmak madad ke liye Depression or chinta se chhutkaare ke liye Pareeksha sambandhit chinta or tension ko door karne ke liye Nasha mukti, sambandhit salah support ke liye Apaatkaleen sewaon ke liye jaise ,ambulance Career guidance ke liye. --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060225/6401dab9/attachment.html From ravikant at sarai.net Sat Feb 25 16:36:49 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 25 Feb 2006 16:36:49 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSV4KS+4KSuIOCkleClgA==?= =?utf-8?b?IOCkleCkoeCkvOCkv+Ckr+CkvuCkgg==?= In-Reply-To: <200602251402.57161.ravikant@sarai.net> References: <200602251402.57161.ravikant@sarai.net> Message-ID: <200602251636.50053.ravikant@sarai.net> करुणाकर के साथ हम कुछ शोध कर रहे थे, नतीजे उत्साहवर्द्धक रहे. अगर आपने यह कड़ी देखी होगी तो पाया होगा कि आई-ट्रांस साइट एक्सडीवीएनजी फ़ॉन्ट इस्तेमाल करता है, वह भी चित्र रूप में, लेकिन अब इन गानों को बतौर युनिकोड पाठ घुमाया जा सकता है, इनकी नक़ल की जा सकती है, अगर आपके पास पद्मा है - हाय कहने को जी चाहता है दीवारवाले अंदाज़ में - मेरे पास पदमा है. बहरहाल, गाने के अंग्रेज़ी ट्रांस्पक्रिप्ट जाएँ, फ़ायरफ़ॉक्स के टूल्स में जाएँ, फिर एक्सटेंशन, पद्मा चुनें, फिर गाने का असली हिस्सा चुनें और दायां क्लिक करने पर आईट्रांस से देवनागरी का विकल्प मिलेगा. आपके ब्राउज़र पर पलक झपकते युनिकोड में गाना आ जाएगा. फिर उसे कॉपी करके कहीं भी संपादित करें, शायद वर्डपैड सबसे अच्छा रहेगा. मैं मिसाल के लिए एक गाना नीचे चिपका रहा हूं. इब्तिदा-ऎ-इश्क़् मॆं हम् सारी रात् जागॆ अल्ला जानॆ क्या हॊगा आगॆ मौला जानॆ क्या हॊगा आगॆ दिल् मॆं तॆरी उलफ़त् कॆ बंधनॆ लगॆ धागॆ, अल्लाह्... क्या कहूँ कुछ् कहा नहीं जाऎ बिन् कहॆ भी रहा नहीं जाऎ रात्-रात् भर् करवट् मैं बदलूँ दर्द् दिल् का सहा नहीं जाऎ नींद् मॆरी आँखॊं सॆ दूर्-दूर् भागॆ, अल्लाह्... दिल् मॆं जागी प्रीत् की ज्वाला जबसॆ मैंनॆ हॊश् सम्भाला मैं हूँ तॆरॆ प्यार् की सीमा तू मॆरा राही मतवाला मॆरॆ मन् की बीना मॆं तॆरॆ राग् जागॆ, अल्लाह्... तूनॆ जब् सॆ आँख् मिलाई दिल् सॆ इक् आवाऴ् यॆ आई चल् कॆ अब् तारॊं मॆं रहॆंगॆ प्यार् कॆ हम् तॊ हैं सौदाई मुझकॊ तॆरी सूरत् भी चाँद् रात् लागॆ, अल्लाह्... ज़ाहिर है कि यह बदलाव मुकम्मल नहीं है, लेकिन इसके ज़रिए इतना बड़ा संसाधन हमारे हाथ तो आ जाता है. वहां पर उर्दू साहित्य का भी काफ़ी सारा माल है - ग़ालिब वग़ैरह पूरे के पूरे. और गुजराती भी है. फिर मिलते हैं रविकान्त On Saturday 25 Feb 2006 2:02 pm, Ravikant wrote: > http://www.cs.wisc.edu/~navin/india/songs/isongs/indexes/stitle/index_i.htm >l From rahulpandita at yahoo.com Sun Feb 26 12:51:48 2006 From: rahulpandita at yahoo.com (rahul pandita) Date: Sun, 26 Feb 2006 07:21:48 +0000 (GMT) Subject: [Deewan] 2nd Post Message-ID: <20060226072148.7377.qmail@web31712.mail.mud.yahoo.com> My 2nd Post attached in kruti dev font. Thanks and regards r Rahul Pandita www.sanitysucks.blogspot.com Mobile: 9818088664 --------------------------------- Yahoo! Cars NEW - sell your car and browse thousands of new and used cars online search now --------------------------------- -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060226/732ed6d6/attachment.html -------------- next part -------------- A non-text attachment was scrubbed... Name: Moongfali.doc Type: application/msword Size: 24064 bytes Desc: not available Url : http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060226/732ed6d6/attachment.doc From ravikant at sarai.net Mon Feb 27 01:12:24 2006 From: ravikant at sarai.net (ravikant at sarai.net) Date: Sun, 26 Feb 2006 20:42:24 +0100 Subject: =?UTF-8?B?UmU6X1tEZWV3YW5dXyAgIOCkleCkvuCkrl/gpJXgpYBfICAg4KSV4KSh4KS84KS/4KSv4KS+4KSC?= In-Reply-To: <8bdde4540602250439l1ffb4ff5l5941a8b221b16698@mail.gmail.com> References: <200602251402.57161.ravikant@sarai.net> <200602251636.50053.ravikant@sarai.net> <8bdde4540602250439l1ffb4ff5l5941a8b221b16698@mail.gmail.com> Message-ID: <675e1be8419f4b4cf1c0b6ac8869458e@sarai.net> विजेन्द्र जी, एक्स पी पर मज़े में चलेगा, अगर आप उस पर फ़ायरफ़ॉक्स लगा लें. बहुत आसान है, अगर गूगल में डाउनलोड के साथ फ़ायरफ़ॉक्स टाइप करेंगे तो वहाँ पहुँच जाएँगे, अगर सीडी चाहिए तो सराय से ले जा सकते हैं. ओपेरा पर मुझे टेस्ट करना है. आई ई आजकल मैं कम ही इस्तेमाल करता हूँ. आप चलाकर देखें तो हमें भी बताएँ. शुभ हो, रविकान्त On February 25, 1:39 pm "Vijender chauhan" wrote: > किन्‍तु मामला win xp / Opera पर भी > लागू होता है कि नहीं ? > विजेंद्र > > > > On 2/25/06, Ravikant wrote: > > करुणाकर के साथ हम कुछ शोध कर रहे थे, नतीजे उत्साहवर्द� > ��धक रहे. अगर आपने यह कड़ी देख > ी होगी तो > > पाया होगा कि आई-ट्रांस > साइट एक्सडीवीएनजी फ़ॉन्ट > इस्तेमाल करता है, वह भी > > चित्र रूप में, लेकिन अब इन > गानों को बतौर युनिकोड पाठ > घुमाया जा सकता है, इनकी > > नक़ल की जा सकती है, अगर > आपके पास पद्मा है - हाय कहने > को जी चाहता है दीवारवाले > अंदाज़ में - मेरे पास पदमा > > है. बहरहाल, गाने के अंग्रेज़ी ट्रांस्पक्रिप्� > � जाएँ, फ़ायरफ़ॉक्स के टूल्� > � में जाएँ, फिर एक्सटेंशन, पद� > ��मा > > चुनें, > > फिर गाने का असली हिस्सा > चुनें और दायां क्लिक करने > पर आईट्रांस से देवनागरी का > > विकल्प मिलेगा. आपके > ब्राउज़र पर पलक झपकते > > युनिकोड में गाना आ जाएगा. > फिर उसे कॉपी करके कहीं भी > संपादित करें, शायद वर्डपैड > सबसे अच्छा रहेगा. मैं मिसाल > > के लिए एक गाना नीचे चिपका > > रहा हूं. > > इब्तिदा-ऎ-इश्क़् मॆं हम् > > सारी रात् जागॆ अल्ला > > जानॆ क्या हॊगा आगॆ मौला > > जानॆ क्या हॊगा आगॆ दिल् > मॆं तॆरी उलफ़त् कॆ बंधनॆ लगॆ > > धागॆ, अल्लाह्... > > क्या कहूँ कुछ् कहा नहीं > > जाऎ बिन् कहॆ भी रहा नहीं > > जाऎ रात्-रात् भर् करवट् > > मैं बदलूँ दर्द् दिल् का > > सहा नहीं जाऎ नींद् मॆरी > आँखॊं सॆ दूर्-दूर् भागॆ, > > अल्लाह्... > > दिल् मॆं जागी प्रीत् की > > ज्वाला जबसॆ मैंनॆ हॊश् > > सम्भाला मैं हूँ तॆरॆ > > प्यार् की सीमा तू मॆरा > > राही मतवाला मॆरॆ मन् की > बीना मॆं तॆरॆ राग् जागॆ, > > अल्लाह्... > > तूनॆ जब् सॆ आँख् मिलाई > > दिल् सॆ इक् आवाऴ् यॆ आई > > चल् कॆ अब् तारॊं मॆं > > रहॆंगॆ प्यार् कॆ हम् तॊ > > हैं सौदाई मुझकॊ तॆरी > सूरत् भी चाँद् रात् लागॆ, > > अल्लाह्... > > ज़ाहिर है कि यह बदलाव > मुकम्मल नहीं है, लेकिन इसके > ज़रिए इतना बड़ा संसाधन > > हमारे हाथ तो आ जाता है. > वहां पर उर्दू साहित्य का भी > काफ़ी सारा माल है - ग़ालिब > > वग़ैरह पूरे के पूरे. और > > गुजराती भी है. > > फिर मिलते हैं > > रविकान्त > > > > > > > > On Saturday 25 Feb 2006 2:02 pm, Ravikant wrote: > > > http://www.cs.wisc.edu/~navin/india/songs/isongs/indexes/stitle/i > ndex_i.htm > > > l > > > > _______________________________________________ > > Deewan mailing list > > Deewan at mail.sarai.net > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan From gnj_chanka at rediffmail.com Mon Feb 27 12:19:37 2006 From: gnj_chanka at rediffmail.com (girindranath jha) Date: 27 Feb 2006 06:49:37 -0000 Subject: [Deewan] aapne sahar chorte yuwa Message-ID: <20060227064937.6132.qmail@webmail32.rediffmail.com>     छोटे शहरो की शन्ति कभी उबाउ नही होती है, खासकर् बडे शहरो की सरगर्मी और दफ्तरी वादविवादो की गहमागहमी से! किन्तु छॉटे शहरो की सौम्य खामौशी भी अब मुखर होने लगी है. जो कुछ बडे शहरो मे तेजी से हो रहा है,वही कुछ छॉटे शहरो मे कुछ धिरे से हो रहा है,लेकिन हर जगह इन दिनो चीजे इतनी तेजी से और लगातार बदल रही है कि धीरे-धीरे "बदलाव" शब्द का मतलब भी बदलने लगा है. छॉटे शहरो मे भी विभिन्न स्तरो पर बदलाव आया है.चौक- चौराहौ पर शाम ढ्लते ही लगने वाली भीड जो पहले गाव की चौपालो की तरह लगती थी ,अब वह शहरी मानसिकता को ओढे लगती है.परिवार मे ऐसे फासले आये है कि नजदिकी रिश्ते भी अपना वजुद खोने लगे है.आत्मालाप का चलन ज्यादा हो गया है,तो दुसरी और सन्वादहीनता की छविया परिवार मे ज्यादा छाने लगी है. आखिर ऐसा क्यो हो रहा है? एक बात जो उभर कर मेरे सामने आ रही है-वह है-छॉटे शहरो के तकरीबन प्रत्येक परिवार से युवा आज बडे शहरो मे जा रहे है...चाहे वे दिल्ली विश्वविद्याल्य मे पढ्ने आए हो या फिर गुरगाव या नोयाडा के काल सेन्टरो मे काम करने, ये "व्याइट्-कालर माईग्रेन्ट्" खुद तो यहा आकर बदल ही जाते है और जब भी(कभी कभार) अपने शहर जाते है तो वहा भी वही कुछ देखना चाहते है-बदलाव. ये युवा अपने शहरो को धडक-धडक धुआ उडाते आधुनिक महानगरो के आमन्त्र्ण पर पिछे छोड आए आज के "बन्टी और बबली" है! यकिन मानिए एसा करने से अपना शहर पिछे छुट जाएगा. मैलाआचल का प्रशान्त हो या परतीपरीकथा का जीतु इन की तरह हमे आगे बढ्ना होगा. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060227/7d603ba6/attachment.html From ramannandita at gmail.com Tue Feb 28 20:28:26 2006 From: ramannandita at gmail.com (Nandita Raman) Date: Tue, 28 Feb 2006 20:28:26 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSm4KWC4KS44KSw4KWAIOCkquCli+CkuOCljeCknw==?= =?utf-8?b?4KS/4KSX?= Message-ID: <1df07d930602280658h1ab97fc1r54f92f2e8d3bf6c4@mail.gmail.com> दिल्ली और आसपास के सिनेमा हॉल कि सूची बनाने पर कुल ११४ सिनेमा घरो का ऑकड़ा सामने आया । ईसमे से करीब १५ मल्टीपलेक्स है। मै यह विचार कर ही रही थी कि सन्शोधन कहा से शुरु करु कि मुझे याद आया कि पी. वी. आर. प्रीया तो मेरे घर के बगल मे ही है। सोचा कि क्यू ना यहीं से शुरुआत की जाय । एक साधारन से झोले मे कैमरा रखा, कुछ फि़ल्म ली और चल पड़ी । अभी एकआद ही तसवीर ली होगी कि सिनेमा हॉल के एक कार्यकर्ता ने आकर कहा कि बिना अनुमति के मै तसवीरे नही ले सकती हू । असल मे तो मै पी. वी. आर की ज़मीन पर थी ही नही, मै बसन्त लोक शैपिन्ग कौमपलेक्स से पी. वी. आर का चित्र ले रही थी । एक बार तो मन हुआ कि बोलू पर बेकार की बहस मे नही पड़ना चाहती थी और हॉल के अन्दर की तसवीरे भी तो लेनी थी जिसके लिये अनुमती भी चाहिए थी, सो चुप चाप कैमरा झोले मे डाल मै घर वापस आ गयी । आते ही पी. वी. आर. के मालिक अजय बिजली को मेल लिखा, कल ही उनका जवाब आया जिसमे उन्होने छाया चित्रण की अनुमती दी है । इस बीच मै गुड़गाव के सिनेमा घरो को देखने गयी । मल्टीपलेक्सो के बजाय छोटे हॉलो को पहले देखना निश्चित किया और हाथ आया एक खजाना! जय नाम का एक सिनेमा हॉल । एक छोटा और साधारण हॉल जो इसी फरवरी की सतरह तारीख को बन्द हुआ अब तोड़ा जा रहा है, मल्टीपलेक्स बनाने के लिये । हथौड़े की ठक ठक के बीच जब हॉल मे कदम रखा तो अचम्भित रह गइ । टूटी हुइ छत से आती सूरज की किरणें दीवार पर अनेक आकृतियाँ प्रतिबिम्बित कर रहीं थीं । परदे और कुर्सीयों को निकाला जा चुका था और रोड़ी व पथ्रर के बीच बिखरे थे अनेक टिकट । एक्ज़िट का टूटा साइन मानो इन छोटे सिनेमा हॉलो के विलोप की और सन्केत कर रहा था । बाकी के हॉलो का भी बुरा हाल था । शकुन्तला बन्द पड़ा था, अजय और राज में टापलेस जैसी अशलील फिल्में लगी थीं और पायल जिसमे चिंगारी लगी थी सुनसान पड़ा था । इन हॉलो की तसवीरें मै जल्दि ही ब्लॉग पर डालूगी । अगली पोस्टिगं जल्दि ही... नन्दिता -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... 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