From deewan at mail.sarai.net Fri Dec 1 00:19:28 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Fri, 1 Dec 2006 00:19:28 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSw4KS+4KS54KSkIOCkh+CkpuCljOCksOClgCDgpJU=?= =?utf-8?b?4KWHIOCkmuCkqOCljeCkpiDgpLbgpYfgpLA=?= Message-ID: <282cc3f20611301049m75f4d18cu5da533a90db673bc@mail.gmail.com> दोस्तो फरहत इदौरी की एक नायाब गज़ल के दो शेर पेश करने की इजाज़त चाह्ता हू! सफर की हद है वहा तक के कुछ नीशान रहे चले चलो की जहा तक यह आसमान रहे ये क्या उठाये क़दम और आगई मजिल मज़ा तो जब है कि पैरो मे कुछ थकान रहे दो शेर और देखिये, लोग हर मोड पे रुक रुक के चलते क्यु है इतना डरते है तो फिर घर से नीकलते क्यु है!! नीन्द से मेरा ताल्लुक ही नही बरसो से खाब आ आ के मेरे छत पे टहलते क्यु है जल्द ही एक और शायर की गज़ल के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के अलविदा शाहनवाज़ -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061201/517a9828/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Fri Dec 1 12:09:00 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: 1 Dec 2006 06:39:00 -0000 Subject: [Deewan] =?iso-8859-1?q?=E0=A4=B0=E0=A4=BE=E0=A4=B9=E0=A4=A4_=E0?= =?iso-8859-1?q?=A4=87?= Message-ID: <20061201063900.8004.qmail@webmail102.rediffmail.com>  bahut khoob!!! lajavab sher hain,sahnavaj bahi agli posting ka intejar rahega. kamal. On Fri, 01 Dec 2006 दीवान wrote : >दोस्तो फरहत इदौरी की एक नायाब गज़ल के दो शेर पेश करने की इजाज़त चाह्ता हू! > >सफर की हद है वहा तक के कुछ नीशान रहे >चले चलो की जहा तक यह आसमान रहे >ये क्या उठाये क़दम और आगई मजिल >मज़ा तो जब है कि पैरो मे कुछ थकान रहे > > >दो शेर और देखिये, > >लोग हर मोड पे रुक रुक के चलते क्यु है >इतना डरते है तो फिर घर से नीकलते क्यु है!! >नीन्द से मेरा ताल्लुक ही नही बरसो से >खाब आ आ के मेरे छत पे टहलते क्यु है > >जल्द ही एक और शायर की गज़ल के साथ फिर मुलाकात होगी, तब तक के ठलविदा >शाहनवाज़ >_______________________________________________ >Deewan mailing list >Deewan at mail.sarai.net >http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061201/c8297b71/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Sat Dec 2 12:36:23 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Sat, 2 Dec 2006 12:36:23 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSv4KS5IOCkl+ClgOCkpCDgpJXgpL4g4KSu4KS+4KSu?= =?utf-8?b?4KSy4KS+IOCkueCliA==?= Message-ID: <6a32f8f0612012306r708bb98h84da6f5a866fadec@mail.gmail.com> *मोमिन *की एक पंक्ति लगातार दिमाग में चक्कर लगा रही है- *तुम मेरे पास होते हो गोया ।*** *जब कोई दूसरा नहीं होता ॥*** इसे पढ़ते ही एक गाना याद आता है- *ओ मेरे शाहे खुदा ओ मेरी जाने जनाना*** *तुम मेरे पास होते हो कोई दूसरा नहीं होता*** - हसरत जयपुरी (लव इन टोकियो) हकीम मुहम्मद मोमिन खां , गालिब के समकालीन थे। *मजाज *की भी एक पंक्ति देख लें- *अभी कमसिन हो**, **नादां हो**, **कहीं खो दोगे दिल मेरा**…**॥*** मेरा खयाल है कि यहां आप के मन में जरूर एक पंक्ति याद आ रही होगी। यदि ऐसा न हुआ तो याद दिलाना मेरे जिम्‍मे रहा। सदन जी के वास्ते- *किसने जलाई बस्तियां बाजार क्यों लुटे*** *मैं चांद पर गया था**, **मुझे कुछ पता नहीं**………**॥*** -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061202/9766f47f/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Thu Dec 7 18:57:40 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Thu, 7 Dec 2006 18:57:40 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: On Dalit Literaure Message-ID: <200612071857.41971.ravikant@sarai.net> bbc.co.uk/hindi se hi hai na? Khadeeja ko dhanyavad sahit. Enjoy! ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: On Dalit Literaure Date: बुधवार 06 दिसम्बर 2006 12:40 From: "Khadeeja Arif" To: ravikant at sarai.net 'दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात संभव नहीं' राजेंद्र यादव संपादक, 'हंस' पत्रिका राजेंद्र यादव मानते हैं कि आज के समय में दलित और स्त्री विमर्श के बिना कोई साहित्यिक कार्यक्रम पूरा नहीं होता 50 वर्ष पहले दलित साहित्य कहीं नहीं था पर आज दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात नहीं की जा सकती है. बल्कि मैं कहूँगा कि आज मुख्यधारा दलित और स्त्री साहित्य की ही है. कोई भी सम्मेलन, कोई भी बहस इन दोनों चीजों के बिना नहीं हो सकती. वहाँ या तो दलित साहित्य होगा या फिर स्त्री साहित्य. दलित साहित्य का इतिहास काफी पुराना है. भक्ति काल से अगर देखें तो उस वक्त भक्ति साहित्य था और संत साहित्य था. भक्त कवियों में सूरदास जैसे लोग थे. ये अभिजात्य थे. शहर के बीच या मंदिरों में रहते थे. संत साहित्य समाज के बाहर के लोग थे. इनमें ज़्यादातर लोग चमार, भंगी, रंगरेज इस तरह के लोग हैं. भक्ति साहित्य में स्त्री कोई नहीं है पर संत साहित्य में स्त्रियाँ भी हैं, मुसलमान हैं, दलित हैं. यह सामूहिक साहित्य था और केवल हिंदी में ही नहीं बल्कि मराठी और तमिल में भी था. यह मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर था पर इसे मान्यता नहीं दी गई. बल्कि आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने तो यह तक कह दिया कि कबीर के पास न तो भाषा है और न व्याकरण है और न इनके पास कोई सुदृढ़ वैचारिक आधार है, सब सुनी-सुनाई बातें हैं. उन्होंने तो कबीर के साहित्य को साहित्य ही नहीं माना था. उनके लिए तुलसीदास ही सर्वश्रेष्ठ थे. उनका साहित्य ही सर्वोपरि था. बदलती परिभाषाएं आज स्थितियाँ बदल गई हैं. आज हालत यह है कि तुलसी को कोई नहीं पूछ रहा है. देश और दुनिया में आज सबसे ज़्यादा काम कबीर पर हो रहा है. ज्योतिबा फूले की किताब ग़ुलामगीर के बारे में कहा जाता रहा है कि अगर एंगेल्स ने उसे पढ़ लिया होता तो अपनी बहुत सी मान्यताओं को वो दोबारा से समझने का प्रयास करते तो ऐसा नहीं है कि दलित साहित्य आज की चीज़ है. आज के दौर ने और उससे पहले ज्योतिबा फूले और अंबेडकर के काम ने इसे एक वैचारिक आधार दिया है पर इसका इतिहास काफ़ी पुराना है. ज्योतिबा फूले की किताब ग़ुलामगीर के बारे में कहा जाता रहा है कि अगर एंगेल्स ने उसे पढ़ लिया होता तो अपनी बहुत सी मान्यताओं को वो दोबारा से समझने का प्रयास करते. लोकतंत्र में सिर्फ़ एक जाति और वर्ग का ही वर्चस्व नहीं होता है. दूसरी जातियों और वर्गों को भी अवसर मिलता है और इस वजह से देश में दलित साहित्य फला-फूला है. विविधता किसी भी विचार और साहित्य को ज़िंदा बनाती है और दलित साहित्य का इस दिशा में भारतीय साहित्य को योगदान है. साहित्य- विचार और रचनात्मकता मराठी दलितों में तो बाकायदा साहित्य लेखन की परंपरा रही है. हमारे यहाँ उत्तर भारत में राजनीति पहले है और साहित्य बाद में. अस्पृश्यता दलित साहित्य को लेकर भी है. आज विश्वविद्यालयों में चार दिन का सम्मेलन कबीर के लेखन पर हो सकता है पर उसी विश्वविद्यालय के अध्यापक आज के दलित साहित्यकार को मान्यता देने से मना कर देते हैं, उसके साहित्य को स्वीकार नहीं करते हैं कुछ दलित लेखक मुख्यधारा में आए हैं और काम कर रहे हैं. हाँ एक सवाल ज़रूर है कि वैचारिक रूप से तो यह साहित्य काफी अच्छा है पर रचनात्मकता के हिसाब से देखें तो कमज़ोर है, इसमें कमियाँ हैं. एक अच्छा दलित उपन्यास हिंदी में शायद एक या दो होंगे. कहानी संग्रह पाँच-छह हो सकते हैं. लिख सब रहे हैं पर उपन्यास विधा जहाँ पहुँच गई है, वहाँ ये बचकाने लगते हैं. अब चिंता यह है कि हम लोग जिस तरह की रचनाधर्मिता से निकलकर आए हैं उसकी तुलना में यह काफ़ी पीछे लगता है. पर उसी समय यह भी शंका होती है कि कहीं हम भी रामचंद्र शुक्ल की ही भाषा तो नहीं बोल रहे हैं. यह द्वंद्व बना हुआ है. अस्पृश्यता दलित साहित्य को लेकर भी है. आज विश्वविद्यालयों में चार दिन का सम्मेलन कबीर के लेखन पर हो सकता है पर उसी विश्वविद्यालय के अध्यापक आज के दलित साहित्यकार को मान्यता देने से मना कर देते हैं, उसके साहित्य को स्वीकार नहीं करते हैं. यह एक बड़ी चुनौती है. क्या है दलित साहित्य नाटक के मंच पर स्त्री का चरित्र अगर कोई पुरुष निभा रहा होता है तो वह वैसा प्राकृतिक प्रभाव कभी भी नहीं ला सकता है जैसा कि एक स्त्री ख़ुद दे सकती है. यही साहित्य में है. साहित्य में जो दलितों के बारे में प्रेमचंद ने लिखा, नागार्जुन ने लिखा, अमृतलाल नागर ने लिखा, वो बहुत अच्छा और सटीक है पर सहानुभूति की उपज है. इसमें वो तो नहीं हो सकता था जो दलित का अनुभव है. सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि दलित अपनी स्थिति को देखें. उसे लोगों के सामने लाएं. अपना इतिहास लिखें. हालांकि इसके लिए उन्हें प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा दोनों का सामना करना पड़ेगा इसी तरह स्त्री की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें स्त्री ही समझ सकती है और वही उन्हें समझा सकती है. सच्चे अर्थों में सामने रख सकती है. जो दलित समुदाय के लोग ख़ुद लिखें वो है दलित साहित्य क्योंकि उनकी पीड़ा को उनसे ज़्यादा कोई ग़ैर दलित नहीं समझ सकता है. चुनौतियाँ दलित साहित्य में आज सबसे बड़ी चुनौती अपनी बात को कहने की है. मैं हमेशा से कहता हूँ कि दलितों और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है. जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वो तो सवर्णों और पुरुषों का है. उसमें दलित कितना मालिक के लिए वफ़ादार था. कितना मालिक के कहने पर उसने बस्तियाँ जलाईं, कैसे उसने मालिक की जगह अपने सीने पर गोली खाई...ये इतिहास है. स्त्री कितनी पतिव्रता थी, निष्ठावान थी, हमारे लिए सती हो जाती थी, कैसे उसने राजवंश को बचाने के लिए अपने बच्चे की बलि दे दी....ये स्त्री का इतिहास है. यानी ये इनका नहीं, इनकी वफ़ादारी का इतिहास है. दरअसल इतिहास उनका होता है जो अपने फैसले ख़ुद लेते हैं. ये दलित और स्त्री अपने फैसले नहीं ले सकते थे. तो सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि दलित अपनी स्थिति को देखें. उसे लोगों के सामने लाएं. अपना इतिहास लिखें. हालांकि इसके लिए उन्हें प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा दोनों का सामना करना पड़ेगा. (पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारि From deewan at mail.sarai.net Fri Dec 8 18:37:38 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Fri, 8 Dec 2006 13:07:38 -0000 Subject: [Deewan] Zizek journal Message-ID: Hi All, This mail is on behalf of Dr Paul Taylor a faculty of the Institute of Communications Studies, University of Leeds. Dr Taylor has launched a peer-reviewed (and open-access) journal dedicated to the study of Zizek (http://ics.leeds.ac.uk/zizek/). Beginning with a challenge to the general equation of internet with English, he is keen to have the material available to a wider public (non-English speaking). Thus, he is looking for academics/students who would be interested in translating the material on the journal into regional languages. Those helping him out would get credit on the journal. He is also looking for journal submissions in bi-lingual format. He would be in a better position to explain the mechanics of the work related to the journal. Those interested in collaborating with him on the project can get in touch with him at p.a.taylor at leeds.ac.uk I would be grateful if you could circulate this email amongst other Indian academics and scholars. Cheers, Kishore -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061208/9a07c4f4/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Wed Dec 13 16:09:31 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Wed, 13 Dec 2006 02:39:31 -0800 (PST) Subject: [Deewan] Fwd: On Dalit Literaure In-Reply-To: <200612071857.41971.ravikant@sarai.net> Message-ID: <744763.82636.qm@web37401.mail.mud.yahoo.com> Namaste! Rajendra yadav kee baten achchhi lagee. par, baato me kaheen-kaheen jhol bhee dikhta hai. Rajendraji maha-anubhaav hain; isliye anubhavon ka sahara zyada lete hain aur kaee baar vimarsh kee naiyaa ko common sense kee dariyaa me dubo dete hain aur zarir hai common sense kee dariyaa me bhanwar to quadam quadam par rahate hain. Daliton ke muttaliq uthane vaale sahaanubhuti aur swaanubuti ke prashn ko shaayad itni saralataa se hal nahee kaee jaa sakataa, uske liye 'epistemic privelege' aur 'epistemic relativism' jaisee gyanmimanseey maidanon me nikaee-guraee karnee hogee, par unfortunately in madinon me Hindi ka hal abhee chala hee nahee hai. Rajendrajee kahate hain ki Dalit sahitya mukhyadhara ban gayee hai, lekin kisi radical shai ko mukhyahaara me zagah banaa lena utna samasyaa-mukt masla nahee hai; ek popular sher ka sahara len to kah sakate hai - Chhapate ho in dinon bahut akhbaar me sahib kyaa jhol koi aayaa hai kirdaar me sahib. Rajendraji Nagarjun kee rachanaon me daliton ke prati sirf sahaanubuti hee kalpit kar pate hain.ise yadi we 'Harizan - gaathaa ' aur 'Balchanama' ke sahaare spasht kar dete to ham nausikuye bhee swaan-bhuti ka marm samajh pate. par ,Baharhaal, 'Hans' ka mahattva to hai hee aur hindi me dalit-prashna ke masale ko lekar Sholay film ka samvaad yaad aata hai ki-"Gabbar se tumhen ek hee aadmi bachaa sakataa hai aur wah Gabbar khud hai" saabhibadan, Sanjeev दीवान wrote: bbc.co.uk/hindi se hi hai na? Khadeeja ko dhanyavad sahit. Enjoy! ravikant ---------- आगे भेजे गए संदेश ---------- Subject: On Dalit Literaure Date: बुधवार 06 दिसम्बर 2006 12:40 From: "Khadeeja Arif" To: ravikant at sarai.net 'दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात संभव नहीं' राजेंद्र यादव संपादक, 'हंस' पत्रिका राजेंद्र यादव मानते हैं कि आज के समय में दलित और स्त्री विमर्श के बिना कोई साहित्यिक कार्यक्रम पूरा नहीं होता 50 वर्ष पहले दलित साहित्य कहीं नहीं था पर आज दलित साहित्य के बिना साहित्य की बात नहीं की जा सकती है. बल्कि मैं कहूँगा कि आज मुख्यधारा दलित और स्त्री साहित्य की ही है. कोई भी सम्मेलन, कोई भी बहस इन दोनों चीजों के बिना नहीं हो सकती. वहाँ या तो दलित साहित्य होगा या फिर स्त्री साहित्य. दलित साहित्य का इतिहास काफी पुराना है. भक्ति काल से ठगर देखें तो उस वक्त भक्ति साहित्य था और संत साहित्य था. भक्त कवियों में सूरदास जैसे लोग थे. ये ठभिजात्य थे. शहर के बीच या मंदिरों में रहते थे. संत साहित्य समाज के बाहर के लोग थे. इनमें ज़्यादातर लोग चमार, भंगी, रंगरेज इस तरह के लोग हैं. भक्ति साहित्य में स्त्री कोई नहीं है पर संत साहित्य में स्त्रियाँ भी हैं, मुसलमान हैं, दलित हैं. यह सामूहिक साहित्य था और केवल हिंदी में ही नहीं बल्कि मराठी और तमिल में भी था. यह मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर था पर इसे मान्यता नहीं दी गई. बल्कि आलोचक रामचंद्र शुक्ल ने तो यह तक कह दिया कि कबीर के पास न तो भाषा है और न व्याकरण है और न इनके पास कोई सुदृढ़ वैचारिक आधार है, सब सुनी-सुनाई बातें हैं. उन्होंने तो कबीर के साहित्य को साहित्य ही नहीं माना था. उनके लिए तुलसीदास ही सर्वश्रेष्ठथे. उनका साहित्य ही सर्वोपरि था. बदलती परिभाषाएं आज स्थितियाँ बदल गई हैं. आज हालत यह है कि तुलसी को कोई नहीं पूछ रहा है. देश और दुनिया में आज सबसे ज़्यादा काम कबीर पर हो रहा है. ज्योतिबा फूले की किताब ग़ुलामगीर के बारे में कहा जाता रहा है कि ठगर एंगेल्स ने उसे पढ़ लिया होता तो ठपनी बहुत सी मान्यताओं को वो दोबारा से समझने का प्रयास करते तो ऐसा नहीं है कि दलित साहित्य आज की चीज़ है. आज के दौर ने और उससे पहले ज्योतिबा फूले और ठंबेडकर के काम ने इसे एक वैचारिक आधार दिया है पर इसका इतिहास काफ़ी पुराना है. ज्योतिबा फूले की किताब ग़ुलामगीर के बारे में कहा जाता रहा है कि ठगर एंगेल्स ने उसे पढ़ लिया होता तो ठपनी बहुत सी मान्यताओं को वो दोबारा से समझने का प्रयास करते. लोकतंत्र में सिर्फ़ एक जाति और वर्ग का ही वर्चस्व नहीं होता है. दूसरी जातियों और वर्गों को भी ठवसर मिलता है और इस वजह से देश में दलित साहित्य फला-फूला है. विविधता किसी भी विचार और साहित्य को ज़िंदा बनाती है और दलित साहित्य का इस दिशा में भारतीय साहित्य को योगदान है. साहित्य- विचार और रचनात्मकता मराठी दलितों में तो बाकायदा साहित्य लेखन की परंपरा रही है. हमारे यहाँ उत्तर भारत में राजनीति पहले है और साहित्य बाद में. ठस्पृश्यता दलित साहित्य को लेकर भी है. आज विश्वविद्यालयों में चार दिन का सम्मेलन कबीर के लेखन पर हो सकता है पर उसी विश्वविद्यालय के ठध्यापक आज के दलित साहित्यकार को मान्यता देने से मना कर देते हैं, उसके साहित्य को स्वीकार नहीं करते हैं कुछ दलित लेखक मुख्यधारा में आए हैं और काम कर रहे हैं. हाँ एक सवाल ज़रूर है कि वैचारिक रूप से तो यह साहित्य काफी ठच्छा है पर रचनात्मकता के हिसाब से देखें तो कमज़ोर है, इसमें कमियाँ हैं. एक ठच्छा दलित उपन्यास हिंदी में शायद एक या दो होंगे. कहानी संग्रह पाँच-छह हो सकते हैं. लिख सब रहे हैं पर उपन्यास विधा जहाँ पहुँच गई है, वहाँ ये बचकाने लगते हैं. ठब चिंता यह है कि हम लोग जिस तरह की रचनाधर्मिता से निकलकर आए हैं उसकी तुलना में यह काफ़ी पीछे लगता है. पर उसी समय यह भी शंका होती है कि कहीं हम भी रामचंद्र शुक्ल की ही भाषा तो नहीं बोल रहे हैं. यह द्वंद्व बना हुआ है. ठस्पृश्यता दलित साहित्य को लेकर भी है. आज विश्वविद्यालयों में चार दिन का सम्मेलन कबीर के लेखन पर हो सकता है पर उसी विश्वविद्यालय के ठध्यापक आज के दलित साहित्यकार को मान्यता देने से मना कर देते हैं, उसके साहित्य को स्वीकार नहीं करते हैं. यह एक बड़ी चुनौती है. क्या है दलित साहित्य नाटक के मंच पर स्त्री का चरित्र ठगर कोई पुरुष निभा रहा होता है तो वह वैसा प्राकृतिक प्रभाव कभी भी नहीं ला सकता है जैसा कि एक स्त्री ख़ुद दे सकती है. यही साहित्य में है. साहित्य में जो दलितों के बारे में प्रेमचंद ने लिखा, नागार्जुन ने लिखा, ठमृतलाल नागर ने लिखा, वो बहुत ठच्छा और सटीक है पर सहानुभूति की उपज है. इसमें वो तो नहीं हो सकता था जो दलित का ठनुभव है. सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि दलित ठपनी स्थिति को देखें. उसे लोगों के सामने लाएं. ठपना इतिहास लिखें. हालांकि इसके लिए उन्हें प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा दोनों का सामना करना पड़ेगा इसी तरह स्त्री की कुछ बातें ऐसी हैं जिन्हें स्त्री ही समझ सकती है और वही उन्हें समझा सकती है. सच्चे ठर्थों में सामने रख सकती है. जो दलित समुदाय के लोग ख़ुद लिखें वो है दलित साहित्य क्योंकि उनकी पीड़ा को उनसे ज़्यादा कोई ग़ैर दलित नहीं समझ सकता है. चुनौतियाँ दलित साहित्य में आज सबसे बड़ी चुनौती ठपनी बात को कहने की है. मैं हमेशा से कहता हूँ कि दलितों और स्त्रियों का कोई इतिहास नहीं है. जो इतिहास हमें पढ़ाया जाता है वो तो सवर्णों और पुरुषों का है. उसमें दलित कितना मालिक के लिए वफ़ादार था. कितना मालिक के कहने पर उसने बस्तियाँ जलाईं, कैसे उसने मालिक की जगह ठपने सीने पर गोली खाई...ये इतिहास है. स्त्री कितनी पतिव्रता थी, निष्ठावान थी, हमारे लिए सती हो जाती थी, कैसे उसने राजवंश को बचाने के लिए ठपने बच्चे की बलि दे दी....ये स्त्री का इतिहास है. यानी ये इनका नहीं, इनकी वफ़ादारी का इतिहास है. दरठसल इतिहास उनका होता है जो ठपने फैसले ख़ुद लेते हैं. ये दलित और स्त्री ठपने फैसले नहीं ले सकते थे. तो सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी यह है कि दलित ठपनी स्थिति को देखें. उसे लोगों के सामने लाएं. ठपना इतिहास लिखें. हालांकि इसके लिए उन्हें प्रतिशोध और प्रतिस्पर्धा दोनों का सामना करना पड़ेगा. (पाणिनी आनंद से बातचीत पर आधारि _______________________________________________ Deewan mailing list Deewan at mail.sarai.net http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan --------------------------------- Everyone is raving about the all-new Yahoo! Mail beta. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061213/4e912202/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Fri Dec 15 01:24:19 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Fri, 15 Dec 2006 01:24:19 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KS24KWH4KSwIOCkhuCkquCkleClhyDgpKjgpL7gpK4=?= Message-ID: <282cc3f20612141154p74e9f24cr54bd02e5fe5c9f98@mail.gmail.com> कुछ शेर के साथ फिर हाजिर हू!! एजाये जिस्म सब अपनी अपनी मजिल को जा लगे (एजाये जिस्म -- शरीर के अन्ग) एक दिल है जो परेशा रहता है!!! - एक दो जगह नही सारा जिस्म है छलनी दर्द परेशा है उठे तो कहा से उठे !! बहुत सताते है रिश्ते जो टूट जाते है खुदा किसी को भी तौफीके आशनाई ना दे (तौफीके आशनई--रिश्ते बनाने का अवसर) शाहनवाज -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061215/22dc3513/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Wed Dec 13 23:09:09 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Wed, 13 Dec 2006 23:09:09 +0530 Subject: [Deewan] jan vikalp. Message-ID: <9c56c5340612130939o3cabe1c9j6b069539b6c2e1f8@mail.gmail.com> *Dear friend, * Here is introduced to you a new hindi monthly magazine named 'jan vikalp'committed to the supressed communities of society. This monthly is against the difference and inequality caused due to Caste, Sex, Religion and is committed for public opposition againt the social evils, discrimination and atrocities on the weaker sections of our society. Please click this link to have a feel of the magazine: http://vikalpmonthly.googlepages.com/ If you endorse this magazine we solicit your help in forwarding this message to your friends who are interested in ideological discourse. Renowned author *Premkumar Mani * and Young journalist and author *Pramod Ranjan* are editors of '*Jan Vikalp*'. Contact Address: vikalpmonthly at gmail.com Teacher's Colony, Kumhrar, Patna, Bihar, India PIN:800 026 Phone: 92 34 25 10 32, +91612 2360 369 http://vikalpmonthly.googlepages.com/ http://vikalpmonthly.googlepages.com/ -- Vikalp ( masik) Samajik chetna ki viachariki ........................................ Teacher's Calony Po : Bahadurpur Housing Calony Kumhrar, Patna - 800026 Mo : 9234251032, Res : 0612-2360369,2582573 -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061213/eefa2f66/attachment.html From deewan at mail.sarai.net Mon Dec 18 16:08:23 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Mon, 18 Dec 2006 05:38:23 -0500 Subject: [Deewan] invitation_ day for women's dignity Message-ID: <45866F9F.3030305@sarai.net> *Invitation for a programme to celebrate * *'Day for Women's Dignity'* /Stree Adhikar Sangathan /is organising a Seminar and Cultural Programme on the occasion of /'Stree Samman Divas'/ ( Day for Women's Dignity) on 20^th December at Tagore Hall, Delhi University, (North Campus) at 12 noon. Leading Gujarati Poetess and activist *Ms saroop dhruv*, Litterateur-activist *Mudra rakshas* have agreed to participate in the discussion. Leading cultural troupes of the city have also agreed to present programmes to commemorate the occasion. To underline the fact of the societal violence against women which continues unabated till date 'Stree Adhikar Sangathan' has been celebrating the day when /Manusmriti/ was burnt ( 25 December 1927) under the leadereship of Dr Ambedkar 79 years ago as a day for Women's Dignity since last four years. It is a considered opinion of the Organisation / /Sangathan/ that today officially the Manusmriti might have been replaced by the more egalitarian Indian Constitution more than fifty years ago but at an informal level it continues to hold sway over the thinking and actions of a vast majority of the Indian people. Taking into consideration the university calendar the programme is being organised on 20 th December itself.As part of this celebrations it has been decided to hold a seminar to discuss the topic *'Critique Of Our Culture : Resisting The System'* which would be followed by cultural programs. Stree Adhikar Sangathan Contact : H 4. Pusa Apts, Rohini, Sector 15, Delhi 110085, Ph 011-27872835 IIIT, Jhalwa, Allahabad, Ph: 0532-2552324 From deewan at mail.sarai.net Tue Dec 19 00:36:15 2006 From: deewan at mail.sarai.net (=?utf-8?b?4KSm4KWA4KS14KS+4KSo?=) Date: Tue, 19 Dec 2006 00:36:15 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KS44KSsIOCkleClgCDgpJXgpL/gpLjgpY3gpK7gpKQg?= =?utf-8?b?4KSu4KWHIOCkq+CkqOCkviDgpLngpYgg4KSc4KSsIOCkpOCkleCljQ==?= Message-ID: <282cc3f20612181106m7add4ff1rc29cb10ccbc2ff45@mail.gmail.com> अमजद ईस्लाम अमजद के दो शेर! ईन दोनो शेरो मे बेहतरीन फलसफा है १. सब की किस्मत मे फना है जब तक् आसमानो मे कोई जिन्दा है!! २. मै खिला हू तो किसी खाक मे मिलना है मुझे वह तो खुशबू है उसे अगले नगर जाना है!! शाहनवाज -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20061219/eb70985b/attachment.html