From ravikant at sarai.net Sat Apr 1 15:01:39 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Apr 2006 15:01:39 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS24KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCkviDgpJXgpL7gpLDgpYvgpKzgpL7gpLAgLQ==?= 1 Message-ID: <200604011501.39597.ravikant@sarai.net> दोस्तो, नमस्कार। मैं अनिल पांडेय हूं और मेरा शोध का विषय है 'देशी फिल्मों का कारोबार (पश्चिमी उत्तार प्रदेश के विशेष संदर्भ में)। करीब ढ़ाई महीने के दौरान मैंने जो शोध किया है उसका संक्षिप्त व रोचक विवरण आपके सामने है। आपने मशहूर फिल्म शोले जरूर देखी होगी। क्या आपने वह 'शोले' देखी है जिसमें बसंती तांगे की बजाय बुग्गी (भैंसा गाड़ी) पर और गब्बर सिंह घोड़े के बजाय गधो पर आता है? वह 'धाूम' फिल्म देखी है जिसमें हाइटेक चोर सुपर रेसर मोटर साईकिल की बजाय साईकिल पर आते हैं? या फिर बंटी और बबली को भैंस चुराते देखा है? नहीं देखी है तो जरूर देखिए। आप हँसते-हँसते लोट पोट हो जाएंगे। इस फिल्म का नाम है 'देशी शोले', देशी धाूम' और 'यूपी के बंटी और बबली'। इन फिल्मों की सीडी आपको देश की राजधाानी दिल्ली सहित हरियाणा और पश्चिमी उत्तार प्रदेश में कहीं भी मिल जाएगी। इतना ही नहीं बालीवुड की तमाम सुपरहिट फिल्मों के देशी संस्करण भी आपको यहां मिल जाएंगे। जी जां, हम बात कर रहे हैं देशी फिल्मों की। संचार तकनीक के क्षेत्र में आई क्रांति ने लोगों को जन संचार माधयमों के करीब लाने का काम किया है। अखबार, टेलीविजन और रेडियो तो घर-घर पहुंच ही चुका है, अब फिल्में भी लोगों के घरों तक पहुंच रही हैं। डीवीडी और वीसीडी ने घरों को 'होम थिएटरों' में तब्दील कर दिया है। संचार तकनीक के विकास ने देश भर में कई स्थानों पर 'नए बालीवुड' को जन्म दिया है। जहां अपनी भाषा और परिवेश को धयान में रखकर फिल्में बनाई जा रही हैं। देशी फिल्मों का यह सफर महाराष्ट्र के मालेगांव से शुरू होकर बाया दिल्ली मेरठ पहुंच गया है। इन देशी फिल्मों की खासियत यह होती है कि मामूली बजट में तैयार ये फिल्में सिनेमाहाल में नहीं सीडी पर रीलीज होती हैं। यानी इन्हें सिर्फ सीडी प्लेयर के माधयम से छोटे पर्दे पर देखा जा सकता है। ये फिल्में शहरों में कम गांवों में ज्यादा देखी जाती हैं। देशी फिल्मों के लिहाज से बात करें तो ठेठ खड़ी हिंदी में संभवत: सबसे ज्यादा फिल्में बन रही हैं। इनमें से ज्यादातर फिल्में पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनाई जाती हैं। कुछ फिल्मों का निर्माण हरियाणा में भी होता है। इनमें से ज्यादातर फिल्में हास्य प्रधाान होती हैं। पश्चिमी उत्तार प्रदेश की ठेठ भाषा इसके लिए सबसे उपयुक्त होती है क्योंकि पश्चिमी उत्तार प्रदेश की भाषा गुदगुदी और चुटीली है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश में देशी फिल्मों का कारोबार देश के दूसरे हिस्सों से शायद कहीं ज्यादा है। मेरठ के केबल चैनलों के लिए कार्यक्रम निर्माण करने वाले अनीस भारती कहते हैं, ''मेरठ में हर महीने तकरीबन दर्जन भर नई फिल्में बन जाती हैं। करीब पचास हजार लागत वाली ये फिल्में डेढ़ से दो लाख का कारोबार कर लेती हैं।'' तीन-चार वर्षों में मेरठ में एक 'नए बालीवुड' का अवतार हुआ है। यह है 'देशी बालीवुड'। हम यहां इसी देशी बालीवुड की चर्चा कर रहे हैं। दिल्ली से सटे होने और पश्चिमी उत्तार प्रदेश के किसानों के समृध्द होने के कारण मेरठ में देशी फिल्म उद्योग के फलने-फूलने में मदद मिली है। देश की राजधाानी दिल्ली में फिल्म निर्माण से संबंधिात उपकरण व तकनीक आसानी से उपलब्धा हो जाते हैं। दूसरा कारण मेरठ का रंगमंच से गहरा जुड़ाव है। मेरठ के वरिष्ठ रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, निर्देशक और सभासद जगजीत सिंह के मुताबिक मेरठ रंगकर्मियों का गढ़ रहा है। यहां के थिएटर से निकले तमाम कलाकार बालीवुड में काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से यहां नाटय गतिविधिायां बंद सी हो गई हैं। लिहाजा थिएटर से जुड़े लोगों ने देशी फिल्मों का निर्माण शुरू कर दिया। मशहूर निर्देशक केदार शर्मा के शार्गिद रह चुके जगजीत ने 'दोस्ती के हाथ' नामक हिंदी फिल्म का निर्माण किया है जो जल्दी ही रीलीज होने वाली है। देशी फिल्मों को चार श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो बालीवुड फिल्मों का देशी रूपांतरण होती हैं। ऐसी फिल्मों की भरमार है। मशहूर फिल्म शोले पर आधाारित अब तक यहां तीन फिल्में बन चुकी हैं। देशी तेरे नाम, देशी युवा, देशी धाूम, देशी गदर और देशी हीरो नंबर वन व यूपी के बंटी और बबली आदि फिल्मों ने अच्छा कारोबार किया है। दूसरी श्रेणी में हास्य प्रधाान फिल्में आती हैं। जिनकी भाषा चुटीली व संवादों में हंसी के फौव्वारे होते हैं। हालांकि कई बार इन फिल्मों के संवाद द्विअर्थी व भाषा फूहड़ होती है। टी सीरीज की ताऊ रंगीला इस श्रेणी की सुपर-डुपर हिट फिल्म है। इसके अलावा इस श्रेणी की छिछोरों की बारात, ताऊ बहरा, ब्याह और गौंणा घोल्लू का, दुधिाया हरामी, करे मनमानी रम्पत हरामी, बेवकूफ खानदान और साली दिल्ली वाली जैसी फिल्में भी खूब देखी जाती हैं। तीसरी श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो यहां के सांस्कृतिक ताने-बाने पर तैयार की जाती हैं। जिन्हें हम मौलिक देशी फिल्म कह सकते हैं। इनमें भी बम्बइया फिल्मों की तरह कई बार मसाला मिला दिया जाता है। ये फिल्में सालीन होती हैं। इसीलिए गांव के लोग इसे पसंद करते हैं। इन फिल्मों में सामाजिक उद्देश्य भी छिपा होता है। 'धााकड़ छोरा' इस श्रेणी की चर्चित और सुपरहिट फिल्म है। इसके अलावा निकम्मा, कर्मवीर और बुध्दूराम भी इसी श्रेणी की सुपरहिट फिल्में हैं। चौथी श्रेणी में धाार्मिक फिल्में आती हैं। इनकी भी खूब मांग है। कृष्ण सुदामा, चारों धााम, माता-पिता के चरणों में, द्रौपदी चीर हरण, सती सुनोचना और पिंगला भरथरी जैसी फिल्में पश्चिमी उत्तार प्रदेश और हरियाणा में खूब देखी जाती हैं। देशी फिल्मों का सबसे मजबूत पक्ष चुटीली भाषा और किरदारों के संवाद अदायगी का खालिस देशी अंदाज है। बालीवुड की फिल्मों का देशी रूपांतरण तो बहुत ही रोचक होता है। कहानी और संवादों का स्थानीयकरण्ा कर दिया जाता है। यहां देशी शोले का उदाहरण दिया जा सकता है। फिल्म का एक प्रसिध्द सीन है। वह है जब 'कालिया' जय और बीरू के हाथों पिटकर वापस आता है तो ''अब तेरा क्या होगा कालिया'' की जगह देशी शोले का संवाद देखिए। गब्बर कहता है, ''के समझ रख्या था गब्बर तने पनीर के पकोड़े खिलावगा.... तने तो गब्बर का नाम मूत में लड़ा दिया।'' इसी फिल्म में एक जगह बीरू बसंती को गब्बर के समाने नाचने को मना करता है तो गब्बर का एक डायलाग बहुत प्रसिध्द हुआ था, ''बहूत याराना लगता है।'' तो देशी शोले के गब्बर की सुनिए। वह बसंती से कहता है, ''घणी सेटिंग लग री है।'' ऐसी फिल्मों में एक और प्रयोग किया जाता है। बालीवुड फिल्मों के पात्रों और किरदारों में 'लोकल टच' डालकर फिल्म की कहानी का स्थानीयकरण कर दिया जाता है। मसलन गोविंदा की हीरो नंबर-वन पर आधाारित फिल्म देशी नंबर वन की कहानी एक गांव के बनिए (लाला) और उसके नौकर की कहानी है। लाला नौकरी देते हुए नौकर के सामने शर्त रखता है कि अगर वह नौकरी छोड़कर जाएगा तो लाला उसके नाक कान काट लेगा। नौकर भी शर्त रखता है कि अगर लाला ने उसे नौकरी से निकाला तो वह भी मालिक के नाक कान काट लेगा और उसकी बेटी से ब्याह करेगा। नौकर के रूप में होता है 'देशी हीरो नंबर वन'। वह अपने कारनामों से लाला को परेशान कर दर्शकों को खूब हंसाता है। देशी हीरो की वेश भूषा असली फिल्म के हीरो गोविंदा की नकल है। हाफ पेंट और चमकीली शर्ट के साथ देशी हीरो ने गले में टाई व कंधो पर गमछा लटका रखा है। सिर पर गांधाी टोपी पहने देशी हीरो देखते ही बनता है। इसके अलावा फिल्मों को हास्य का पुट देने के लिए दृश्यों को रोचक बनाया जाता है। जैसे शोले में गब्बर चट्टान पर खड़ा होता है तो देशी शोले में वह गोबर के उपलों के ढेर पर खड़ा होता है। दूसरी बनी 'देशी शोले' में डाकू घोड़े की बजाय गधो पर आते हैं और बंदूक की बजाय उनके हाथों में लाठियां होती हैं। फिल्मों में गाने भी होते हैं उन्हें भी देशी भाषा में अनुवादित कर दिया जाता है। कई बार कुछ फिल्में हास्य पैदा करने के चक्कर में फूहड़ता और अश्लीलता की हदों को पार कर जाती हैं। यहां फिल्मों का जिक्र लाजिमी है। ये हैं कलियुग की रामायण और कलियुग का महाभारत। इन दोनों फिल्मों पर धाार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने के कारण प्रतिबंधा लगा दिया गया है। कलियुग की रामायण में सीता को बीड़ी पीते हुए और राम को मुजरा सुनते हुए दिखाया गया था तो कलियुग का महाभारत में कृष्ण रथ की बजाय मोटर साईकिल पर आते हैं और अर्जुन और दूसरे योध्दा तीर धानुष की बजाय हाकी लेकर युध्द करने जाते हैं। देशी फिल्मों में बढ़ती फूहड़ता से चिन्तित जगजीत सिंह कहते हैं, ''यह सब ज्यादा दिन नहीं चलने वाला। लोग ऐसी फिल्मों को देखना पसंद नहीं करते।'' लेकिन सच्चाई यह है कि ऐसी फिल्में देखी भी खूब जाती हैं और कारोबार की दृष्टि से सफल भी मानी जाती हैं। टी सीरीज ने छिछोरों की बारात' नामक एक फिल्म बनाई और खूब बिकी। इस फिल्म के निर्देशक एस. गोपाल टाटा ने फिल्म का नाम सुनकर पहले तो इसे बनाने से इनकार कर दिया। लेकिन बाद में व्यावसायिक मजबूरियों के चलते जब फिल्म बनाई तो यह चल निकली। बकौल श्री टाटा, ''इस फिल्म को देखकर जब लोग मेरी तारीफ करते हैं तो मुझे अपने आप पर हंसी आती है।'' देशी फिल्मों का कारोबार निकटता के सिध्दांत पर आधाारित है। अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त युवा निर्देशक यतीश यादव इसे भारतीय लोगों के अपनी संस्कृति से गहरे लगाव के रूप में देखते हैं। उनके मुताबिक, ''भारतीयों को अपनी जमीन और भाषा से बड़ा प्यार होता है। यही वजह है कि मेरठ का दूधिाया या किसान अमोल पालेकर की 'पहेली' की बजाय 'धााकड़ छोरा' देखना ज्यादा पसंद करेगा। इसमें उन्हें अपनापन सा लगता है। देशी फिल्मों के निर्माण और प्रचलन का एक महत्वपूर्ण कारण गांवों से मनोरंजन के पारंपरिक साधानों मसलन लोक नृत्य, लोक गीत व नाटकों का लुप्त होना है। गांव के लोक कलाकार रोजी रोटी की तलाश में शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं। ऐसे में शाम को चौपालों पर 'गवइयों' की जगह अब देशी फिल्मों ने ले ली है। सचार क्रांति ने इसे और भी आसान बना दिया है। बालीवुड की पहुंच शहरों तक है। देशी बालीवुड ने मुंबई और गांव की दूरी को कम कर दिया है। इसने फिल्मों को गांवों तक और सही कहें तो आम लोगों तक पहुंचा रहा है। देशी बालीवुड ने साबित कर दिया है कि फिल्म जनसंचार का एक सशक्त माधयम है। अभी तक इसका उपयोग केवल मनोरंजन के लिए किया जा रहा है। जबकि सामाजिक चेतना पैदा करने और लोगों को जागरुक करने में इस माधयम को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। क्रमश..... From ravikant at sarai.net Sat Apr 1 15:02:15 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Sat, 1 Apr 2006 15:02:15 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSm4KWH4KS24KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCliw==?= =?utf-8?b?4KSCIOCkleCkviDgpJXgpL7gpLDgpYvgpKzgpL7gpLAtMg==?= Message-ID: <200604011502.15641.ravikant@sarai.net> gataank se aage.... कैसे बनती हैं फिल्में तकनीक और गुणवत्ता के आधार पर देशी फिल्मों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे फिल्में आती हैं जो गुणवत्ता व तकनीकी दृष्टि से बेहतर होती हैं। इन फिल्मों की समयावधि 2 से 3 घंटे होती है। प्रोफेशनल कलाकारों के साथ यह फिल्म बनाई जाती है। इसे बनाने में 2 से 3 लाख रूपए खर्च होते हैं। 20 से ज्यादा देशी फिल्मों के निर्देशक के रूप में काम कर चुके एस.गोपाल टाटा के मुताबिक, ''अच्छी फिल्म बनाने में करीब एक महीने का वक्त और करीब तीन लाख रूपये खर्च होते हैं। 10 दिन शूटिंग में लगते हैं और करीब 15 दिन पोस्ट प्रोडक्शन में।'' दूसरी श्रेणी की फिल्में गुणवत्ताा और तकनीक के हिसाब से कमतर होती हैं। ये फिल्में 50-60 हजार रूपये में तैयार कर ली जाती हैं। कई लोग तो 30 से 40 हजार रूपए के बजट में भी फिल्में बना लेते हैं। कई बार तो फिल्मों का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार व अभिनेता एक ही व्यक्ति होता है। ये फिल्में 'वन मैन शो' की तरह होती हैं। शादी वाले कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती है। कई बार कुछ लोग मिलकर पैसा इकट्ठा कर भी फिल्में बना लेते हैं। मेरठ के पास स्थित सरधाना में एक सिनेमाहाल के मालिक जीसान कुरैशी बताते हैं कि उनके यहां के चार लड़कों ने आपस में पैसा इकट्ठा कर फिल्म बनाई है। हीरो भी उनमें से एक है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश में आजकल यह आम बात है। कैसे होता है देशी फिल्मों का कारोबार देशी फिल्में सीडी के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं। एक फिल्म के सीडी की कीमत 25 से 50 रूपए के बीच होती है। यह फिल्म की गुणवत्ताा और समयावधिा पर निर्भर करती है। देशी फिल्में ज्यादातर ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं। पश्चिमी उत्तार प्रदेश, दिल्ली देहात और हरियाणा, जहां ये फिल्में देखी जाती हैं, के किसानों की गिनती समृध्द लोगों में होती है। यहां के गांवों में बिजली पहुंच चुकी है। लोगों के घरों में टीवी और सीडी प्लेयर तो आम बात है। वीडियो पार्लर भी यहां खूब फल फूल रहे हैं। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''चाइनीज सीडी व डीवीडी प्लेयर ने देशी फिल्म उद्योग को फलने-फूलने में बड़ी सहायता की है। काफी सस्ता होने की वजह से यह आम लोगों के घरों तक पहुंच चुका है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश और हरियाणा में तो देशी फिल्मों की सीडी तो मिलती ही है। दिल्ली के पालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में भी इनकी सीडी खूब बिकती है। पालिका बाजार में सीडी बेचने वाले दुकानदार प्रमोद के मुताबिक वह हर रोज पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनने वाली देशी फिल्मों की 60-70 सीडी बेच लेता है। प्रमोद कहते हैं, ''ये फिल्में केवल पश्चिमी उत्तार प्रदेश और हरियाणा के लोग ही नहीं खरीद कर ले जाते, क्योंकि इनमें ज्यादातर फिल्में हंसने हंसाने की होती हैं, इसलिए दूसरे लोग भी इन फिल्मों को खूब देखते हैं। देशी फिल्म उद्योग भी उसी संकट से गुजर रहा है जिससे बालीवुड। देशी फिल्मों की भी 'पायरेटेड सीडी' काफी सस्ते में बाजार में उपलब्धा हो जाती है। देशी फिल्मों के निर्माण व विपणन से जुड़ी सोनोटे कंपनी के मालिक व निर्माता-निर्देशक हंसराज के मुताबिक इससे फिल्म निर्माताओं को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। नकली सीडी असली सीडी के मुकाबले आधाी कीमत पर बाजार में उपलब्धा हो जाती है। कहां से आते हैं कलाकार देशी फिल्मों में काम करने वाले ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। इनमें से ज्यादातर कलाकारों को कोई मेहनताना नहीं दिया जाता है। ये कलाकार बस पर्दे पर किसी तरह दिख जाएं, इसी उद्देश्य से काम करते हैं। देशी फिल्मों के अभिनेता भूपेंद्र तितारिया की मानें तो कई लोग उलटे पैसे देकर इन फिल्मों में काम करते हैं। श्री तितारिया के मुताबिक ग्लैमर और फिल्मी दुनिया की चकाचौंधा लोगों को आकर्षित करती है और हर कोई अपने को पर्दे पर देखना चाहता है। यही वजह है कि पश्चिमी उत्तार प्रदेश में जिसके पास थोड़ा पैसा हुआ वह बतौर हीरो अपनी फिल्में बनाने लगता है। ऐसी फिल्में सफल भी नहीं होती। लेकिन इनका उद्देश्य मुनाफा कमाना कम अपने आपको परदे पर दिखाना ज्यादा होता है। देशी फिल्मों में काम करने वाले प्रोफेशनल कलाकारों की संख्या सीमित है। ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। निर्देशक रोल के मुताबिक उन्हें टें्रड करता है। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''शूटिंग शुरू करने से पहले उन्हें कलाकारों को अभिनय के गुर भी सिखाने पड़ते हैं। यह देशी फिल्मों के निर्देशकों के लिए एक चुनौती होती है। फिल्म की सफलता इस पर निर्भर करती है कि कलाकारों ने पात्रों को कितना जीवंत किया है।'' ऐसा भी नहीं है कि सारे कलाकार मुफ्त में ही काम करते हैं। कई कलाकारों ने शुरुआत तो मुफ्त या फिर मामूली मेहनताने से की थी लेकिन नाम और शोहरत मिलने से अब उन्हें 50 हजार रूपये से लेकर एक लाख रूपए तक मेहनताना मिलता है। सुमन नेगी प्रत्येक फिल्म के लिए एक लाख रूपए की मांग करती है तो भूपेंद्र तितोरिया का कहना है 'बुध्दूराम' फिल्म में बतौर नायक काम करने का मेहनताना 51 हजार रूपए मिला था। वैसे आमतौर पर कलाकारों को प्रत्येक फिल्म 5 से 10 हजार रूपए मेहनताना मिलता है। देशी फिल्मों में नायक के मुकाबले नायिकाओं को ज्यादा मेहनताना मिलता है। यह टें्रड बालीवुड के विपरीत है। वहां नायकों को नायिकाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा मेहनताना मिलता है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनने वाली देशी फिल्मों में काम करने वाले जाने माने कलाकारों में उत्तार कुमार, संतराम बंजारा, कमल आजाद, मुन्ना बाज, भूपेंद्र तितोरिया, सुमन नेगी, पुष्पा गुसाईं, राजू प्रिन्स और पूनम त्यागी के नाम प्रमुख हैं। देशी फिल्मों में काम करने कलाकारों की भी बालीवुड के कलाकारों की तरह स्थानीय स्तर पर पहचान और ग्लैमर कायम रहता है। बकौल सुमन नेगी, ''अक्सर लोग उन्हें पहचान जाते हैं और आटोग्राफ मांगते हैं।'' देशी फिल्मों के कलाकारों का सपना भी बालीवुड पहुंचना होता है। सुमन नेगी और भूपेंद्र तितोरिया बाया मेरठ बालीवुड पहुंच चुके हैं। ये फिल्में देशी कलाकारों के बालीवुड पहुंचने की सीढ़ी भी है। From raviratlami at gmail.com Sat Apr 1 16:15:59 2006 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Sat, 01 Apr 2006 16:15:59 +0530 Subject: [Deewan] =?UTF-8?B?4KSm4KWH4KS24KWAIOCkq+Ckv+CksuCljeCkruCliw==?= =?UTF-8?B?4KSCIOCkleCkviDgpJXgpL7gpLDgpYvgpKzgpL7gpLAtMg==?= In-Reply-To: <200604011502.15641.ravikant@sarai.net> References: <200604011502.15641.ravikant@sarai.net> Message-ID: <442E59E7.10606@gmail.com> Ravikant wrote: > gataank se aage.... > > कैसे बनती हैं फिल्में > > > तकनीक और गुणवत्ता के आधार पर देशी फिल्मों को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली श्रेणी में वे > फिल्में आती हैं जो गुणवत्ता व तकनीकी दृष्टि से बेहतर होती हैं। इन फिल्मों की समयावधि 2 से 3 > घंटे होती है। प्रोफेशनल कलाकारों के साथ यह फिल्म बनाई जाती है। इसे बनाने में 2 से 3 लाख रूपए > खर्च होते हैं। 20 से ज्यादा देशी फिल्मों के निर्देशक के रूप में काम कर चुके एस.गोपाल टाटा के > मुताबिक, ''अच्छी फिल्म बनाने में करीब एक महीने का वक्त और करीब तीन लाख रूपये खर्च होते हैं। > 10 दिन शूटिंग में लगते हैं और करीब 15 दिन पोस्ट प्रोडक्शन में।'' > दूसरी श्रेणी की फिल्में गुणवत्ताा और तकनीक के हिसाब से कमतर होती हैं। ये फिल्में 50-60 हजार > रूपये में तैयार कर ली जाती हैं। कई लोग तो 30 से 40 हजार रूपए के बजट में भी फिल्में बना लेते हैं। > कई बार तो फिल्मों का निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार व अभिनेता एक ही व्यक्ति > होता है। ये फिल्में 'वन मैन शो' की तरह होती हैं। शादी वाले कैमरे से पूरी फिल्म शूट कर ली जाती > है। कई बार कुछ लोग मिलकर पैसा इकट्ठा कर भी फिल्में बना लेते हैं। मेरठ के पास स्थित सरधाना में > एक सिनेमाहाल के मालिक जीसान कुरैशी बताते हैं कि उनके यहां के चार लड़कों ने आपस में पैसा इकट्ठा > कर फिल्म बनाई है। हीरो भी उनमें से एक है। पश्चिमी उत्तार प्रदेश में आजकल यह आम बात है। > > > कैसे होता है देशी फिल्मों का कारोबार > > > देशी फिल्में सीडी के जरिए लोगों तक पहुंचती हैं। एक फिल्म के सीडी की कीमत 25 से 50 रूपए के बीच > होती है। यह फिल्म की गुणवत्ताा और समयावधिा पर निर्भर करती है। देशी फिल्में ज्यादातर > ग्रामीण इलाकों में देखी जाती हैं। पश्चिमी उत्तार प्रदेश, दिल्ली देहात और हरियाणा, जहां ये > फिल्में देखी जाती हैं, के किसानों की गिनती समृध्द लोगों में होती है। यहां के गांवों में बिजली पहुंच > चुकी है। लोगों के घरों में टीवी और सीडी प्लेयर तो आम बात है। वीडियो पार्लर भी यहां खूब फल > फूल रहे हैं। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल टाटा के मुताबिक, ''चाइनीज सीडी व > डीवीडी प्लेयर ने देशी फिल्म उद्योग को फलने-फूलने में बड़ी सहायता की है। काफी सस्ता होने की > वजह से यह आम लोगों के घरों तक पहुंच चुका है। > पश्चिमी उत्तार प्रदेश और हरियाणा में तो देशी फिल्मों की सीडी तो मिलती ही है। दिल्ली के > पालिका बाजार और लाजपत राय मार्केट में भी इनकी सीडी खूब बिकती है। पालिका बाजार में सीडी > बेचने वाले दुकानदार प्रमोद के मुताबिक वह हर रोज पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनने वाली देशी > फिल्मों की 60-70 सीडी बेच लेता है। प्रमोद कहते हैं, ''ये फिल्में केवल पश्चिमी उत्तार प्रदेश और > हरियाणा के लोग ही नहीं खरीद कर ले जाते, क्योंकि इनमें ज्यादातर फिल्में हंसने हंसाने की होती > हैं, इसलिए दूसरे लोग भी इन फिल्मों को खूब देखते हैं। > देशी फिल्म उद्योग भी उसी संकट से गुजर रहा है जिससे बालीवुड। देशी फिल्मों की भी > 'पायरेटेड सीडी' काफी सस्ते में बाजार में उपलब्धा हो जाती है। > देशी फिल्मों के निर्माण व विपणन से जुड़ी सोनोटे कंपनी के मालिक व निर्माता-निर्देशक हंसराज के > मुताबिक इससे फिल्म निर्माताओं को काफी नुकसान उठाना पड़ता है। नकली सीडी असली > सीडी के मुकाबले आधाी कीमत पर बाजार में उपलब्धा हो जाती है। > > > > > कहां से आते हैं कलाकार > > > देशी फिल्मों में काम करने वाले ज्यादातर कलाकार स्थानीय होते हैं। इनमें से ज्यादातर कलाकारों को > कोई मेहनताना नहीं दिया जाता है। ये कलाकार बस पर्दे पर किसी तरह दिख जाएं, इसी उद्देश्य से > काम करते हैं। देशी फिल्मों के अभिनेता भूपेंद्र तितारिया की मानें तो कई लोग उलटे पैसे देकर इन > फिल्मों में काम करते हैं। श्री तितारिया के मुताबिक ग्लैमर और फिल्मी दुनिया की चकाचौंधा लोगों > को आकर्षित करती है और हर कोई अपने को पर्दे पर देखना चाहता है। यही वजह है कि > पश्चिमी उत्तार प्रदेश में जिसके पास थोड़ा पैसा हुआ वह बतौर हीरो अपनी फिल्में बनाने लगता है। > ऐसी फिल्में सफल भी नहीं होती। लेकिन इनका उद्देश्य मुनाफा कमाना कम अपने आपको परदे पर > दिखाना ज्यादा होता है। > देशी फिल्मों में काम करने वाले प्रोफेशनल कलाकारों की संख्या सीमित है। ज्यादातर कलाकार स्थानीय > होते हैं। निर्देशक रोल के मुताबिक उन्हें टें्रड करता है। देशी फिल्मों के मशहूर निर्देशक एस. गोपाल > टाटा के मुताबिक, ''शूटिंग शुरू करने से पहले उन्हें कलाकारों को अभिनय के गुर भी सिखाने पड़ते हैं। > यह देशी फिल्मों के निर्देशकों के लिए एक चुनौती होती है। फिल्म की सफलता इस पर निर्भर करती > है कि कलाकारों ने पात्रों को कितना जीवंत किया है।'' > > ऐसा भी नहीं है कि सारे कलाकार मुफ्त में ही काम करते हैं। कई कलाकारों ने शुरुआत तो मुफ्त या फिर > मामूली मेहनताने से की थी लेकिन नाम और शोहरत मिलने से अब उन्हें 50 हजार रूपये से लेकर एक लाख > रूपए तक मेहनताना मिलता है। सुमन नेगी प्रत्येक फिल्म के लिए एक लाख रूपए की मांग करती है तो > भूपेंद्र तितोरिया का कहना है 'बुध्दूराम' फिल्म में बतौर नायक काम करने का मेहनताना 51 हजार > रूपए मिला था। वैसे आमतौर पर कलाकारों को प्रत्येक फिल्म 5 से 10 हजार रूपए मेहनताना मिलता > है। देशी फिल्मों में नायक के मुकाबले नायिकाओं को ज्यादा मेहनताना मिलता है। यह टें्रड बालीवुड के > विपरीत है। वहां नायकों को नायिकाओं के मुकाबले कहीं ज्यादा मेहनताना मिलता है। > पश्चिमी उत्तार प्रदेश में बनने वाली देशी फिल्मों में काम करने वाले जाने माने कलाकारों में उत्तार > कुमार, संतराम बंजारा, कमल आजाद, मुन्ना बाज, भूपेंद्र तितोरिया, सुमन नेगी, पुष्पा गुसाईं, राजू > प्रिन्स और पूनम त्यागी के नाम प्रमुख हैं। देशी फिल्मों में काम करने कलाकारों की भी बालीवुड के > कलाकारों की तरह स्थानीय स्तर पर पहचान और ग्लैमर कायम रहता है। बकौल सुमन नेगी, ''अक्सर > लोग उन्हें पहचान जाते हैं और आटोग्राफ मांगते हैं।'' > देशी फिल्मों के कलाकारों का सपना भी बालीवुड पहुंचना होता है। सुमन नेगी और भूपेंद्र तितोरिया > बाया मेरठ बालीवुड पहुंच चुके हैं। ये फिल्में देशी कलाकारों के बालीवुड पहुंचने की सीढ़ी भी है। > > ------------------------------------------------------------------------ > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > क्या इस लेख को रचनाकार में प्रकाशित कर सकते हैं? मज़ेदार है! छत्तीसगढ़ (रायपुर दुर्ग भिलाई) में भी छत्तीसगढ़ी फ़िल्मों का कारोबार धड़ल्ले से फल फूल रहा है. एक फ़िल्म मैंने देखी थी जो बड़ी चली थी - लपरहा टूरा (बकबक करने वाला लड़का) रवि From ravikant at sarai.net Tue Apr 4 17:22:24 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 4 Apr 2006 17:22:24 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSP4KSVIOCkreCkn+CkleCkviDgpLngpYHgpIYg4KSG?= =?utf-8?b?4KSC4KSm4KWL4KSy4KSoIOCkueCliCDgpKjgpJXgpY3gpLjgpLLgpLXgpL4=?= =?utf-8?b?4KSm?= Message-ID: <200604041722.24208.ravikant@sarai.net> शशिकान्त जी की इच्छा है कि दीवान के सदस्यों को यह पढ़ने का मौक़ा दूं. रविकान्त http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1473219.cms एक भटका हुआ आंदोलन है यह [Saturday, April 01, 2006 07:39:43 pm ] दिलीप सिमियन सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी यह कहना सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं। दूसरी बात यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता है। न्याय के लिए पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर पड़ता है, सोचा जा सकता है। न्याय व्यवस्था बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्य सत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी पड़ेगी। लेकिन माओवादियों को भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर पाएंगे? नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना चाहिए। लेकिन माओवादी जिस तरह से लोगों को मार रहे हैं, उससे कहा जा सकता है कि वे निरंकुशता की राजनीति कर रहे हैं। ये है नेपाल की बात, जहां लोकतंत्र नहीं है। लेकिन भारत में तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली? थोड़ी-बहुत त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। यदि इसमें सुधार लाना है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। दुर्भाग्यवश नक्सली विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। उग्र वामपंथी (नक्सली) और उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। उग्र वामपंथियों और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते? लोगों को मारने की क्या जरूरत है? वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं? यह एक नैतिक अपराध है। मैंने जहां तक समझा है मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज निकाली। यह भी एक प्रकार की ब्राह्यणवादी विचारधारा ही है। नक्सलियों की 99 प्रतिशत मांगों, उनके आदर्शों को मैं सही मानता हूं लेकिन हत्या को राजनीति बनाना उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से जोड़ता है। नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है। नक्सलियों का कहना है कि माओ की मृत्यु के बाद यह सब हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु हुई थी। लेकिन उसके पहले सन 71 में चीन ने याहिया खान के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम किया। माओ ने श्रीलंका में भंडार नायके का समर्थन किया। और तो और वियतनाम पर अमेरिकी हमले की भी हिमायत की। चाइनीज आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा किया। माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में काम करते थे। फिर क्यों हम चलें इनके नैशनलिज्म की राह पर। नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट हैं और सब्जेक्टिवली लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां था और आज कहां है। मेरी सलाह है कि नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का मानदंड क्या है? वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है? दरअसल नक्सलियों की राजनीतिक वैधता का कोई आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े? गुजरात और देश के बाकी हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए? खेद की बात है कि नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है। बातचीत: शशिकान्त From mahmood.farooqui at gmail.com Wed Apr 5 22:00:41 2006 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Wed, 5 Apr 2006 22:00:41 +0530 Subject: =?UTF-8?B?UmU6IFtEZWV3YW5dIOCkj+CklSDgpK3gpJ/gpJXgpL4g?= =?UTF-8?B?4KS54KWB4KSGIOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqCA=?= =?UTF-8?B?4KS54KWIIOCkqOCkleCljeCkuOCksuCkteCkvuCkpg==?= In-Reply-To: <200604041722.24208.ravikant@sarai.net> References: <200604041722.24208.ravikant@sarai.net> Message-ID: Naksalwaad bhatka hua hai ya nahin yeh to us waqt taye hoga jab yeh saaf ho jaaye ki voh aandolan hai ya nahin. Agar voh aandolan hai, kewal uddwelit sarfaroshon ka ufaan nahin to phir is masle pe bahas ho sakti hai ki aaya voh bhatka hua ya raah par hai ya nahin... Aur yeh hinsa ka sawaal to dilip ji bari mithi goli ki tarah hazam kar gaye...kal hi radio pe maine manmohan singh ko kahte suna ki har voh samuh jo hinsa tyagne ko taiyar hai hum uske saath baatcheet karne ko taiyar hain... Ji bara ehsaan aapka. Pahle zara yeh to bataiye ki yadi hum hinsa na karte to kya aap kabhi humko is laayeq samajhte ki humse baatcheet karein? Kya aapne kalinganagar ke aadiwaasiyon se baatcheet ki? Kya aapke grihmantri jab manipur gaye the to un nangi, maadarzaad auraton mein se kisi se bhi unhone do minute yeh jaanne ki koshish kee ki voh kyun is tarah apni asmita luta rahi theen? Aur yeh loktantr aur uske gurgon ki duhaai bhi khoob hai...vaah saheb vaah. Yeh jo aaye din, din raat ki andekhi, anboojhi hinsa hum sab pe chaaron taraf se baras rahi hai, ek doosre ki hinsa, police ki hinsa, prashasan ki hinsa, vyavhaar ki hinsa, zaat ki hinsa, mardon ki hinsa, saason ki hinsa, baron ki bachhon pe hinsa, insaan ki jaanwaron pe hinsa, dilip ji ki loktantra pe hinsa, loktantra ki prajatantra pe hinsa-isko kahan leke jaayenge? Inka hisaab kya parlok mein hoga? Kyun sahebon? Kya naksalwaad, aur uski tamam chhitri, bikhri shaakhein aandolan hain ya nahin, pahle iska khulasa keejiye, phir hum bhatke hue naksalites pe charcha karenge, aur uske baad hinsa ka sawaal uthaayenge.... Meri to khuda se yahi dua hai ki apni naujawaani ki bhoolon ko main doosre naujwanaon pe is aasaani se na daal sakun jaisa ki dilip ji karte dikhaayi dete hain... maine majnun pe larakpan mein asad, sang uthaya tha ki.... Kiska sar yaad aaya, sir? On 04/04/06, Ravikant wrote: > शशिकान्त जी की इच्छा है कि दीवान के सदस्यों को यह पढ़ने का मौक़ा दूं. > > रविकान्त > > http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1473219.cms > > एक भटका हुआ आंदोलन है यह > [Saturday, April 01, 2006 07:39:43 pm ] > > दिलीप सिमियन > सीनियर फेलो, नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी > > यह कहना सही नहीं होगा कि हाल के वर्षों में नक्सली गतिविधियों में तेजी आई है। सच तो यह है > कि 1967 में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत के समय से ही उनकी गतिविधियां जारी हैं। हां, उनमें > थोड़ा उतार-चढ़ाव आता रहा है। देश में 92 प्रतिशत मजदूर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। मजदूरों > के खिलाफ ठेकेदार, बिचौलिये, मालिक या जमींदार की तरफ से हिंसा की जाती है। > जिन उत्पादक रिश्तों में हिंसा एक दैनिक कर्म हो, वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरोधी गतिविधियों का > होना स्वाभाविक है। हालांकि मैं नक्सलियों की हिंसात्मक गतिविधियों के पक्ष में नहीं हूं। > > दूसरी बात यह कि देश में अपराध न्याय संहिता पूरी तरह फेल हो गई है। जेसिका लाल, > प्रियदर्शिनी मट्टू आदि हत्याकांडों के मामलों पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के साथ जब अन्याय हुआ तो > क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम आदमी रोज अन्याय और अत्याचार झेलता > है। न्याय के लिए पुलिस, प्रशासन और कानून की शरण में जाता है लेकिन वर्षों तक कोर्ट-कचहरी में > चप्पलें घिसने के बाद भी जब पैसे और ऊंची रसूख वालों के पक्ष में फैसले आते हैं, तो उस पर क्या असर > पड़ता है, सोचा जा सकता है। न्याय व्यवस्था बिगड़ने से ही नक्सलवाद पनप रहा है। अगर राज्य > सत्ता अपनी वैधता को पिघलते हुए देख रही है तो वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी ही। यदि इस समस्या > से निजात पानी है तो हमें पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी लागू करनी > पड़ेगी। > > लेकिन माओवादियों को भी यह सोचना चाहिए कि हिंसा के जरिए क्या वे अपना लक्ष्य हासिल कर > पाएंगे? नेपाल में माओवादी हिंसा की एक वजह यह है कि वहां आम आदमी लोकतंत्र का हिमायती है > और माओवादी इसकी आड़ में अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे चाहते हैं कि वहां से राजतंत्र हट जाना > चाहिए। लेकिन माओवादी जिस तरह से लोगों को मार रहे हैं, उससे कहा जा सकता है कि > वे निरंकुशता की राजनीति कर रहे हैं। ये है नेपाल की बात, जहां लोकतंत्र नहीं है। > लेकिन भारत में तो लोकतंत्र है। फिर यहां खूनी खेल क्यों खेल रहे हैं नक्सली? > थोड़ी-बहुत त्रुटियों के बावजूद पिछले 5-6 दशकों से यहां संवैधानिक संस्थाएं काम कर रही हैं। यदि > इसमें सुधार लाना है तो लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। > > दुर्भाग्यवश नक्सली विचारधारा मानती है कि यहां की लोकतांत्रिक सत्ता एक झूठ है। वह मानती है > कि भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध औपनिवेशिक राज व्यवस्था है। हथियारों के माध्यम से वे यहां > पीपल्स डेमोक्रेसी यानी सर्वहारा की सत्ता स्थापित करना चाहते हैं। उग्र वामपंथी (नक्सली) और > उदार वामपंथी इसे अलग-अलग नजरिए से देखते हैं। उदार वामपंथी यानी सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई > (माले) जैसी राजनीतिक पार्टियां संवैधानिक संस्थाओं में आस्था जताकर लोकतांत्रिक तरीके से > राजसत्ता हासिल करना चाहती है जबकि नक्सली इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी गतिविधियों का > मुख्य उद्देश्य है पीपल्स आर्मी गठित करना। यह एक तरह का वामपंथी सैन्यवाद है। उग्र वामपंथियों > और उदार वामपंथियों के बीच विभाजन की मुख्य वजह ही है हिंसा। मेरा सवाल है कि आखिर > ये नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को लेकर लोकतांत्रिक तरीके से लड़ाई लड़ने के लिए तैयार क्यों नहीं होते? > लोगों को मारने की क्या जरूरत है? वे मानव प्राण को तिरस्कृत रूप से क्यों देखते हैं? यह एक नैतिक > अपराध है। > > मैंने जहां तक समझा है मानव प्राण के प्रति सम्मान ही समाजवादी आंदोलन की बुनियाद है। मुझे समझ > नहीं आता कि निरीह, निर्दोष लोगों का कत्ल करने की वैचारिक वैधता नक्सलियों ने कहां से खोज > निकाली। यह भी एक प्रकार की ब्राह्यणवादी विचारधारा ही है। नक्सलियों की 99 प्रतिशत > मांगों, उनके आदर्शों को मैं सही मानता हूं लेकिन हत्या को राजनीति बनाना उन्हें दक्षिणपंथी > फासिज्म से जोड़ता है। नक्सली जिस राह पर चल रहे हैं उससे अंतत: फायदा होगा वॉर इंडस्ट्री को। > इनकी घोर क्रांतिकारिता बकवास है। > > नक्सलियों का कहना है कि माओ की मृत्यु के बाद यह सब हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की मृत्यु हुई थी। > लेकिन उसके पहले सन 71 में चीन ने याहिया खान के साथ मिलकर पूर्वी पाकिस्तान में कत्लेआम किया। > माओ ने श्रीलंका में भंडार नायके का समर्थन किया। और तो और वियतनाम पर अमेरिकी हमले की भी > हिमायत की। चाइनीज आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा किया। माओत्से > तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के > हित में और कौमी राज्य के हित में काम करते थे। फिर क्यों हम चलें इनके नैशनलिज्म की राह पर। > नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो यह संघर्ष समाज > और देश के लिए बेहतर होगा। जैसे मादा भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियों की हत्या, न्यूनतम वेतन, > न्याय प्रणाली में सुधार, कृषि मजदूरों और शहरी मजदूरों की जीवन स्थिति में सुधार, सांप्रदायिकता > आदि को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। लेकिन इन्हें कौन समझाए। ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट हैं और > सब्जेक्टिवली लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी अंतरात्मा में झांककर देखना चाहिए कि समाजवादी आंदोलन कहां > था और आज कहां है। मेरी सलाह है कि नक्सलियों को मैक्सिमम प्रोग्राम त्यागकर मिनिमम प्रोग्राम > अपनाने चाहिए। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आखिर ज्ञान का आधार क्या है और उसकी वैधता का > मानदंड क्या है? वे यदि इस सिस्टम को अवैध मानते हैं तो बंदूक की नोक पर बनाई गई उनकी > प्रणाली अच्छी होगी, इसकी क्या गारंटी है? दरअसल नक्सलियों की राजनीतिक वैधता का कोई > आधार नहीं है। जिनके हाथ में बंदूक है, उनसे क्या बातचीत होगी। आम लोगों के जो बड़े-बड़े दुश्मन हैं, > नक्सलियों ने आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं चाहे वे बड़े से बड़े सांप्रदायिक क्यों न हों। जो खूंखार > फासिस्ट हैं, जिन्होंने बाबरी मस्जिद गिराई उनसे नक्सली क्यों नहीं लड़े? गुजरात और देश के बाकी > हिस्सों में सांप्रदायिकता के खिलाफ ये क्यों नहीं खड़े हुए? > > खेद की बात है कि नक्सलियों में बहुत से दिलवाले भी हैं, जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं और आम लोगों का > भला चाहते हैं लेकिन उन्होंने चिंतन को, विचार को त्याग दिया है। > > बातचीत: शशिकान्त > > _______________________________________________ > Deewan mailing list > Deewan at mail.sarai.net > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > > From ramannandita at gmail.com Thu Apr 6 10:51:55 2006 From: ramannandita at gmail.com (Nandita Raman) Date: Thu, 6 Apr 2006 10:51:55 +0530 Subject: [Deewan] Third posting -Part 1 Message-ID: <1df07d930604052221s6556d38ai2fad1f3cdc9a42c2@mail.gmail.com> गुडगाँव के सिनेमा हॉलों का भ्रमण किये अभी करीब एक महीना ही हुआ है पर लगता ऐसा है कि एक अरसा बीत गया हो । इस एक महीने में मैं करीब दस सिनेमा हॉलों में गयी हूँ । इस बार मैंने पुरानी दिल्ली और कनौट प्लैस के सिनेमा घरों को चुना । शुरुआत की पी.वी.आर. रिवोली से जो सी.पी. में है । पुराने हॉल को रिस्टोर कर के बनाया गया ये हॉल मानो नये पुराने के बीच खो गया हो । ना इधर का न उधर का । एक तरफ़ तो लकड़ी के पॉलिश्ड दरवाजे आपका स्वागत करते हैं और दूसरी तरफ़ फ़र्श पर आधुनिक पैटर्न हैं । फ़ूड स्टाल पर सभी प्रकार की मशीनें हैं और लाऊंज में कुछ पुराने फ़िल्म पोस्टर के प्रिन्टों से दीवार को सजाया गया है । साथ ही है फ़्लैट स्क्रीन टी.वी. जो आने वाली फ़िल्मों के ट्रेलर दिखाता है । अन्दर की साज सज्जा को देख कर ये आभास ही नहीं होता कि यहाँ कभी एक पुराना सिनेमा घर हुआ करता था । प्रोजेक्टर रूम दूसरे पुराने सिनेमा हॉलों से कुछ अलग है । दो के बजाय एक प्रोजेक्टर और बगल में फ़िल्म लोड करने के लिये होरीज़ौंटल डिस्क । ये आधुनिक प्रणाली का डिज़िटल प्रोजेक्टर है । स्फ़ूल में फ़िल्म बार बार लोड कर के एक के बाद दूसरे प्रोजेक्टर में लगाने के बजाय यहाँ एक ही बार में पूरी फ़िल्म लोड हो जाती है और आपरेटर का काम केवल वहाँ उपस्थित रहना होता है । कुछ ही समय पहले ये आपरेटर पुराने प्रोजेक्टर चालाया करते थे । जब मैंने रिवोली के एक प्रोजेक्टर आपरेटर से पूछा कि उन्हें ये बदलाव कैसा लगता है तो उन्होंने बोला कि इसमें कोइ दो राय नहीं कि इन नये प्रोजेक्टरों की क्वालिटी पुराने कारबन लैम्प प्रोजेक्टरों से बेहतर है पर इन नयी मशीनों को चलाने में वो कॉन्फ़िडेंस नहीं है जो पुरनी मशीनों के साथ था । पुराने प्रोजेक्टर अगर फ़िल्म के बीच में खराब हो जाते तो हम उन्हें किसी न किसी तरह ठीक कर लेते थे, शो नहीं रुकता था, पर इन प्रोजेक्टर के खराब हो जाने पर हम असहाय हो जाते हैं । इनका इलाज इनजीनियर ही कर सकता है । इस बात ने मन में अनेक विचार उत्तेजित किये । समय के साथ बदलाव स्वाभाविक है और जरूरी भी । पर क्या ये बदलाव रोबोटीकरण की ओर संकेत कर रहा है ? ओर इस औटोमेशन के दौर में भावनाओ का क्या स्थान है? इन्हीं विचारों में खोयी मैं निकल पडी अपने अगले पडाव की ओर - रीगल । (Contd...) नन्दिता -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060406/f9f676ea/attachment.html From mahmood.farooqui at gmail.com Sat Apr 8 11:43:22 2006 From: mahmood.farooqui at gmail.com (mahmood farooqui) Date: Sat, 8 Apr 2006 11:43:22 +0530 Subject: =?UTF-8?B?UmU6IFtEZWV3YW5dIOCkj+CklSDgpK3gpJ/gpJXgpL4g?= =?UTF-8?B?4KS54KWB4KSGIOCkhuCkguCkpuCli+CksuCkqCA=?= =?UTF-8?B?4KS54KWIIOCkqOCkleCljeCkuOCksuCkteCkvuCkpg==?= In-Reply-To: References: <200604041722.24208.ravikant@sarai.net> Message-ID: Bhai Aditya, yeh deewan list pe chaaron taraf phaili khamoshi dekhte hue main yeh jaanne ki koshish kar raha hoon ki kya asli deewaane hum aur aap hain, naksalwadi hain ya voh mahanubhav hain jinhone yeh shosha chhora hai. Yeh nepal ke awaam ko likhe khat ki aapne khoob kahi. Yahan, vahan, aaspaas nahin, dilli/ghaziabad mein nahin, gorakhpur/balia mein nahin, hinsa talashne ke liye unhein ekdam himalaya paar jana para. Vaah, kya patka hai gandhi ne hamein, na hinsa rahi na samsya rahi, jo rahi se bekhabri rahi... Aur yeh to unki taufeeq, magar voh log jo unke is khat pe sanjeedgi se ghaur kar rahe hain, voh kaun se sirphire hain... Voh khat kaise parhne ko milega? Niyazmand, bhatka hua raahi, Mahmood On 07/04/06, Aditya Nigam wrote: > bhai vaah, mazaa aa gayaa, mahmood bhai. mere muhn ki baat chhin lee > aaapne. aur miyan ghalib ka sher bhi kya khoob fit kiya hai. dilip ne haal > mein ek "khula khat" nepal ke awaam ke naam bhi likha hai - dekh aaapne? > awaam se aur maovaadiyon se 'hinsa' tyagne ki purzor appeal hai...aur us > namuraad mulk ki bhi kya kahiye ki vahaan ke daanishwar is par bahas kar > rahe hain. bahar hal, intellectual kuchh bhi karein, awaam ne koi tavajjo > nahin di, shayad... > ravikant, tumhaara bhi to kuchh izhare khayal sunein is silsile mein. > salaam > aditya > > On 6:30:41 pm 05/04/06 "mahmood farooqui" wrote: > > Naksalwaad bhatka hua hai ya nahin yeh to us waqt taye hoga jab yeh > > saaf ho jaaye ki voh aandolan hai ya nahin. Agar voh aandolan hai, > > kewal uddwelit sarfaroshon ka ufaan nahin to phir is masle pe bahas ho > > sakti hai ki aaya voh bhatka hua ya raah par hai ya nahin... > > > > Aur yeh hinsa ka sawaal to dilip ji bari mithi goli ki tarah hazam kar > > gaye...kal hi radio pe maine manmohan singh ko kahte suna ki har voh > > samuh jo hinsa tyagne ko taiyar hai hum uske saath baatcheet karne ko > > taiyar hain... > > > > Ji bara ehsaan aapka. Pahle zara yeh to bataiye ki yadi hum hinsa na > > karte to kya aap kabhi humko is laayeq samajhte ki humse baatcheet > > karein? Kya aapne kalinganagar ke aadiwaasiyon se baatcheet ki? Kya > > aapke grihmantri jab manipur gaye the to un nangi, maadarzaad auraton > > mein se kisi se bhi unhone do minute yeh jaanne ki koshish kee ki voh > > kyun is tarah apni asmita luta rahi theen? > > > > Aur yeh loktantr aur uske gurgon ki duhaai bhi khoob hai...vaah saheb > > vaah. Yeh jo aaye din, din raat ki andekhi, anboojhi hinsa hum sab pe > > chaaron taraf se baras rahi hai, ek doosre ki hinsa, police ki hinsa, > > prashasan ki hinsa, vyavhaar ki hinsa, zaat ki hinsa, mardon ki hinsa, > > saason ki hinsa, baron ki bachhon pe hinsa, insaan ki jaanwaron pe > > hinsa, dilip ji ki loktantra pe hinsa, loktantra ki prajatantra pe > > hinsa-isko kahan leke jaayenge? Inka hisaab kya parlok mein hoga? > > > > Kyun sahebon? Kya naksalwaad, aur uski tamam chhitri, bikhri shaakhein > > aandolan hain ya nahin, pahle iska khulasa keejiye, phir hum bhatke > > hue naksalites pe charcha karenge, aur uske baad hinsa ka sawaal > > uthaayenge.... > > > > Meri to khuda se yahi dua hai ki apni naujawaani ki bhoolon ko main > > doosre naujwanaon pe is aasaani se na daal sakun jaisa ki dilip ji > > karte dikhaayi dete hain... > > > > maine majnun pe larakpan mein asad, > > sang uthaya tha ki.... > > > > Kiska sar yaad aaya, sir? > > > > On 04/04/06, Ravikant wrote: > > > शशिकान्त जी की इच्छा है > > कि दीवान के सदस्यों को यह > > > पढ़ने का मौक़ा दूं. > > > रविकान्त > > > > > > http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/1473219.cms > > > > > > एक भटका हुआ आंदोलन है यह > > > [Saturday, April 01, 2006 07:39:43 pm ] > > > > > > दिलीप सिमियन > > > सीनियर फेलो, नेहरू > > > मेमोरियल लाइब्रेरी > > > यह कहना सही नहीं होगा कि > > हाल के वर्षों में नक्सली > > गतिविधियों में तेजी आई है। > > > सच तो यह है कि 1967 में > > नक्सलवादी आंदोलन की > > शुरुआत के समय से ही उनकी > > गतिविधियां जारी हैं। हां, > > > उनमें थोड़ा उतार-चढ़ाव > > आता रहा है। देश में 92 > > प्रतिशत मजदूर असंगठित > > क्षेत्र में काम करते हैं। > > > मजदूरों के खिलाफ ठेकेदार, > > बिचौलिये, मालिक या जमींदार > > की तरफ से हिंसा की जाती है। > > > जिन उत्पादक रिश्तों में > > हिंसा एक दैनिक कर्म हो, > वहां नक्सलवाद जैसी प्रतिरो > > धी गतिविधियों का > > > होना स्वाभाविक है। > > हालांकि मैं नक्सलियों की > > हिंसात्मक गतिविधियों के > > > पक्ष में नहीं हूं। > > > दूसरी बात यह कि देश में > > अपराध न्याय संहिता पूरी > > तरह फेल हो गई है। जेसिका > > > लाल, प्रियदर्शिनी मट्टू > > आदि हत्याकांडों के मामलों > > पर गौर कीजिए। मध्यवर्ग के > > > साथ जब अन्याय हुआ तो > > क्रिमनल जस्टिस सिस्टम पर > > सवाल उठाए जाने लगे लेकिन आम > आदमी रोज अन्याय और अत्याचा� > > � झेलता > > > है। न्याय के लिए पुलिस, > > प्रशासन और कानून की शरण में > > जाता है लेकिन वर्षों तक > > > कोर्ट-कचहरी में चप्पलें > > घिसने के बाद भी जब पैसे और > > ऊंची रसूख वालों के पक्ष में > > फैसले आते हैं, तो उस पर क्या > > > असर पड़ता है, सोचा जा सकता > है। न्याय व्यवस्था बिगड़ने > > से ही नक्सलवाद पनप रहा है। � > > �गर राज्य > > > सत्ता अपनी वैधता को > > पिघलते हुए देख रही है तो > > वैकल्पिक सत्ता हथियाएगी > > > ही। यदि इस समस्या से > > निजात पानी है तो हमें > > पॉलिटिकल डेमोक्रेसी के > > साथ-साथ सोशल डेमोक्रेसी भी > > > लागू करनी पड़ेगी। > > > > > > लेकिन माओवादियों को भी > > यह सोचना चाहिए कि हिंसा के > > जरिए क्या वे अपना लक्ष्य > > > हासिल कर पाएंगे? नेपाल > > में माओवादी हिंसा की एक वजह > > यह है कि वहां आम आदमी > > > लोकतंत्र का हिमायती है > > और माओवादी इसकी आड़ में > > अपना अजेंडा चला रहे हैं। वे > > चाहते हैं कि वहां से > > > राजतंत्र हट जाना चाहिए। > > लेकिन माओवादी जिस तरह से > > लोगों को मार रहे हैं, उससे > > > कहा जा सकता है कि वे > > निरंकुशता की राजनीति कर > > रहे हैं। ये है नेपाल की बात, > > > जहां लोकतंत्र नहीं है। > > लेकिन भारत में तो लोकतंत्र > > है। फिर यहां खूनी खेल क्यों > > > खेल रहे हैं नक्सली? > > थोड़ी-बहुत त्रुटियों के > > बावजूद पिछले 5-6 दशकों से > > यहां संवैधानिक संस्थाएं > > > काम कर रही हैं। यदि इसमें > सुधार लाना है तो लोकतांत्र� > > �क व्यवस्था को अपनाकर लक्ष्� > > �� हासिल किया जा सकता है। > > > > > > दुर्भाग्यवश नक्सली > > विचारधारा मानती है कि यहां > > की लोकतांत्रिक सत्ता एक > > > झूठ है। वह मानती है कि > > भारत एक अर्ध सामंती, अर्ध > > औपनिवेशिक राज व्यवस्था > > है। हथियारों के माध्यम से > > > वे यहां पीपल्स डेमोक्रेस > > ी यानी सर्वहारा की सत्ता स्� > > ��ापित करना चाहते हैं। उग्र > > � > > �ामपंथी (नक्सली) और > > > उदार वामपंथी इसे अलग-अलग > > नजरिए से देखते हैं। उदार > > वामपंथी यानी सीपीआई, > > > सीपीएम, सीपीआई (माले) जैसी > > राजनीतिक पार्टियां > > संवैधानिक संस्थाओं में > > आस्था जताकर लोकतांत्रिक > > > तरीके से राजसत्ता हासिल > > करना चाहती है जबकि नक्सली > > इन्हें झूठ मानते हैं। उनकी > > > गतिविधियों का मुख्य > > उद्देश्य है पीपल्स आर्मी > > गठित करना। यह एक तरह का > > वामपंथी सैन्यवाद है। उग्र > > > वामपंथियों और उदार > > वामपंथियों के बीच विभाजन > > की मुख्य वजह ही है हिंसा। > > > मेरा सवाल है कि आखिर ये > > नक्सली मॉडरेट डिमांड्स को > > लेकर लोकतांत्रिक तरीके से > > लड़ाई लड़ने के लिए तैयार > > > क्यों नहीं होते? लोगों को > > मारने की क्या जरूरत है? वे > > मानव प्राण को तिरस्कृत रूप > > से क्यों देखते हैं? यह एक > > > नैतिक अपराध है। > > > > > > मैंने जहां तक समझा है > > मानव प्राण के प्रति सम्मान > > ही समाजवादी आंदोलन की > > > बुनियाद है। मुझे समझ > > नहीं आता कि निरीह, निर्दोष > > लोगों का कत्ल करने की > > वैचारिक वैधता नक्सलियों > > > ने कहां से खोज निकाली। यह > भी एक प्रकार की ब्राह्यणवा� > > �ी विचारधारा ही है। नक्सलिय� > > ��ं की 99 प्रतिशत > > > मांगों, उनके आदर्शों को > > मैं सही मानता हूं लेकिन > > हत्या को राजनीति बनाना > > > उन्हें दक्षिणपंथी > > फासिज्म से जोड़ता है। > > नक्सली जिस राह पर चल रहे > > हैं उससे अंतत: फायदा होगा > > > वॉर इंडस्ट्री को। इनकी > > घोर क्रांतिकारिता बकवास > > > है। > > > नक्सलियों का कहना है कि > > माओ की मृत्यु के बाद यह सब > > हुआ। 1976 में माओत्से तुंग की > > > मृत्यु हुई थी। लेकिन > > उसके पहले सन 71 में चीन ने > > याहिया खान के साथ मिलकर > > पूर्वी पाकिस्तान में > > > कत्लेआम किया। माओ ने > > श्रीलंका में भंडार नायके > > का समर्थन किया। और तो और > > वियतनाम पर अमेरिकी हमले की > > > भी हिमायत की। चाइनीज > > आर्मी ने अमेरिकी आर्मी के > > साथ मिलकर वियतनाम पर कब्जा > > > किया। माओत्से तुंग अति > > राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन > प्याओ को अपना उत्तराधिकारी > > बनाया। वह हमेशा राज्य के > > > हित में और कौमी राज्य के > > हित में काम करते थे। फिर > क्यों हम चलें इनके नैशनलिज� > > �म की राह पर। > > > नक्सली या माओवादी यदि > > खून खराबा और हिंसा त्याग > > दें और बाकी मांगें रखें तो > > > यह संघर्ष समाज और देश के > > लिए बेहतर होगा। जैसे मादा > भ्रूण हत्या, नवजात बच्चियो� > > � की हत्या, न्यूनतम वेतन, > > > न्याय प्रणाली में सुधार, > > कृषि मजदूरों और शहरी > > मजदूरों की जीवन स्थिति में > > > सुधार, सांप्रदायिकता आदि > > को कॉमन इश्यू बना सकते हैं। > > लेकिन इन्हें कौन समझाए। > > ऑब्जेक्टिवली ये राइटिस्ट > > > हैं और सब्जेक्टिवली > > लेफ्टिस्ट। इन्हें अपनी > > अंतरात्मा में झांककर > > देखना चाहिए कि समाजवादी > > > आंदोलन कहां था और आज कहां > है। मेरी सलाह है कि नक्सलिय� > > ��ं को मैक्सिमम प्रोग्राम त् > > यागकर मिनिमम प्रोग्राम > > > अपनाने चाहिए। मैं उनसे > > पूछना चाहता हूं कि आखिर > > ज्ञान का आधार क्या है और > > > उसकी वैधता का मानदंड > > क्या है? वे यदि इस सिस्टम को > > अवैध मानते हैं तो बंदूक की > > > नोक पर बनाई गई उनकी > > प्रणाली अच्छी होगी, इसकी > > क्या गारंटी है? दरअसल > > नक्सलियों की राजनीतिक > > > वैधता का कोई आधार नहीं > > है। जिनके हाथ में बंदूक है, > > उनसे क्या बातचीत होगी। आम > > लोगों के जो बड़े-बड़े > > > दुश्मन हैं, नक्सलियों ने > > आज तक उन्हें धमकाया तक नहीं > > चाहे वे बड़े से बड़े > > सांप्रदायिक क्यों न हों। > > > जो खूंखार फासिस्ट हैं, > > जिन्होंने बाबरी मस्जिद > > गिराई उनसे नक्सली क्यों > > नहीं लड़े? गुजरात और देश के > > > बाकी हिस्सों में सांप्रद > > ायिकता के खिलाफ ये क्यों नह� > > ��ं खड़े हुए? > > > > > > खेद की बात है कि नक्सलियो� > > �� में बहुत से दिलवाले भी हैं, > > जोशीले हैं, बुद्धिजीवी हैं > > और आम लोगों का > > > भला चाहते हैं लेकिन > > उन्होंने चिंतन को, विचार को > > > त्याग दिया है। > > > बातचीत: शशिकान्त > > > > > > _______________________________________________ > > > Deewan mailing list > > > Deewan at mail.sarai.net > > > http://mail.sarai.net/cgi-bin/mailman/listinfo/deewan > > From raviratlami at gmail.com Fri Apr 7 17:05:25 2006 From: raviratlami at gmail.com (Ravishankar Shrivastava) Date: Fri, 07 Apr 2006 17:05:25 +0530 Subject: [Deewan] Asgar Wajahat's collection of stories - Main Hindu Hun in pdf e-book format Message-ID: <44364E7D.9090002@gmail.com> मित्रों, असग़र वजाहत का संपूर्ण कहानी संग्रह - मैं हिन्दू हूँ - इंटरनेट पर रचनाकार में प्रकाशित हो चुकी है जिसकी कड़ी निम्न है: http://rachanakar.blogspot.com/2006/04/blog-post_114425846580214194.html इसी संग्रह को ऑफ़लाइन इस्तेमाल के लिए या उन कम्प्यूटरों पर जिनमें यूनिकोड समर्थन नहीं होता हैं (विंडोज 95/98) में तथा पीडीए, पॉकेटपीसी, टेबलेट पीसी इत्यादि में पढ़ने हेतु पीडीएफ़ ई-बुक फ़ॉर्मेट में भी जारी किया गया है, जिसे निम्न कड़ी से मुफ़्त इस्तेमाल व वितरण हेतु डाउनलोड किया जा सकता है - (1.86 मे.बा. फ़ाइल) http://hyperupload.com/download/023f805398_q2hvk11b43a5ubhq/Asgar-wazahat-story-collection.PDF कहानी संग्रह अत्यंत पठनीय , ज्ञानवर्धक और आनंददायक. यह मेरा कहना है! अपनी राय से अवगत करावें रवि From shveta at sarai.net Tue Apr 11 19:11:56 2006 From: shveta at sarai.net (Shveta) Date: Tue, 11 Apr 2006 19:11:56 +0530 Subject: [Deewan] Nangla se shehr Message-ID: <443BB224.8060302@sarai.net> Dear All, Pichle dedh saal se Cybermohalla ke Nangla mein lab ki diaries ka blog hai: http://nangla-maachi.freeflux.net Visthapan ke dauran Nangla se lekh bhi ab us par ab us par blog hona shuru hain. (Neeche latest posts ki fehrist hai). Aap sab ke comments, aur kahaniyon ka intezaar rahega, shveta किसी घने जगंल मे धीरे-धीरे फैलती आग, Rakesh 01.04.2006 दिल का ख़ौफ़ जैसे ही आँखों मे उतरता है तो हवा, जगह, चीज़ें, वक़्त, सब कुछ शून्य होता नज़र आता है। वो दहला देने वाला मंज़र जब आँखों के आगे आता, तो हाथ पैरों में चीटियाँ सी काटने लगतीं । अलग-अलग ख़्याल मन में घर कर जाते। अभी बस्ती में घरों को तोड़ने का काम चल रहा था। कि वहां पर फैले हुए दीवार के टुकड़े, जिनके बीच में छोड़े गये रहने वालों के जूते, चपल्ल, खिलौने, कैलेन्डर लगे हुए छूट गये थे। कुछ और घर टूटे, जिन की छाप अभी भी घूमते-फिरते लोगों के दिलो-दिमाग़ पर दस्तक दे रही थी। लेकिन उस दस्तक के जवाब में किसी के पास में कुछ नहीं बचा था। बस्ती में किसी के घर में मोढ़े पर ही बातचीत करते शख़्स घर टूटने वालों की सिसकियाँ सुन तो रहे थे, मगर दिलासा देने के अलावा और कुछ ना था। ये वक़्त उस मुकाम पर आ पहुँचा था जहाँ पर कुछ छोड़ना भी मुश्किल था और पाना भी मुश्किल। (Read whole post) कोई घर कब बना था, तब पता चलता है जब उसे तोड़ा जाता है, Suraj 31.03.2006 वो आंटी जब अपने सामानो को निकाल के घर खाली करने की तैयारी कर रहीं थीं तो वो बता रहीं थीं कि यह मेरे बेटे ने अपने जन्मदिन पर बनवाया था। यह दीवार मेरे पती और उनके भाई के अलग होने की निशानी है । यह छत मेरे बेटे के कमाने की वजह से पक्का हुआ था । आज हर घर अपने टूटने से पहले अपने बनने को दोहरा रहा है । (Read whole post) अब कोई शक़ नहीं है, Neelofar 31.03.2006 अब ज़्यादातर घर टूट चूके हैं । लोग ख़ुद भी अपने हाथों से अपने घरों को तोड़ रहे हैं और उसमें से वो चीज़े निकाल रहे है जो उनके काम मे आ सकती है । घरों की अदंरुनी सतह, जिसे हम अपने लिये सजाते हैं, वो अब नज़र आ रही है । जैसे कि एक दीवार पर पजांब केसरी के काफ़ी सारे पन्ने चिपके हुए हैं, जिसमें हीरो-हिरोइन कि बड़ी सुन्दर-सुन्दर फ़ोटोएं हैं । वो आते जाते की नज़र को कम से कम एक बार तो अपनी तरफ़ मे खीचं ही रही हैं। (Read whole post) ऐसी आज़ादी नहीं चाहिये, Yashoda 31.03.2006 मैं इस जगह से भाग रही थी क्योंकि इसमें हमारे कल की गहरी परछाई छुपी है । जिससे हम पीछा नहीं छुड़ा सकते, वो नज़रो के बदलते फ़्रेम में हमारा पीछा करती है। मैंने देखा है लोगों को दायरों से उकसाते हुए, पर आज नांगला को आज़ादी नहीं चाहिए । इतना खुला मैदान नहीं चाहिए जहाँ धड़कते सामानों पर ताश की महफिल उजागर कर सकें । वो बहता हुआ अकेला नल नहीं चाहिए, जहाँ कल तक पानी के लिए बनी लम्बी लाइन में लोग रोज़ की थकान को मिटाते हुए चलते थे । (Read whole post) “सब कुछ कंट्रोल में है", Love Anand 30.03.2006 बस्ती के अन्दर जाने वाले रास्तों पर घुसते ही पुलिस वाले गली के मोड़ पर एक कोने मे खड़े होकर बात कर रहे हैँ। एक के हाथों मे एक रडियो की तरह दिखने वाला वॉकीटॉकी है, जिसमें झिलमिलाहट के साथ किसी के बोलने की आवाज़ आ रही है। (Read whole post) "ये कब गया यहाँ से ?” Lakhmi 30.03.2006 [I] "सरकार जब किसी को फांसी देती हैं, तो उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछती है। पर हमसे तो वो भी नहीं पूछा । 'कब-कब' करते करते हमें यहाँ से खदेड़ दिया। बताओ, पहले तो दीवारों पर नम्बर लिख गए, और बाद में उसपर ख़ुद ही पेन्ट कर के ढक दिया। हम क्या करें?” (Read whole post) कहाँ जाएंगे, नहीं मालूम, Suraj 30.03.2006 आज हर कोई अपनी धुन मे रमा हुआ है । कोई व्यस्त है, तो कोई सामानों की रखवाली कर रहा है । हर तरफ़ सामानों का निबटारा और तोड़ना चल रहा है। और जो टूट चुका है, उनमें चुनाई चल रही है । बच्चे कील कच्चड़ और कबाड़ चुनकर उनके बदले आइसक्रीम ले रहे हैं । पुलिस और सर्वे वाले इधर-उधर घूमते नज़र आ रहें हैं । कोई जाने की सोच रहा है, तो कोई यहाँ जमावड़ा बनाने की ताक में है - जैसे आइसक्रीम वाला, चने वाले, फल वाले, कबाड़ी और और भी । यहाँ कोई आस के साथ राह ताक रहा है तो कोई चाहत लिए अभी तक अपने घरों मे बैठे हैं । हर कोई किसी ना किसी चाहत को अपनी आँखों मे समाए नज़र आ रहें हैं। (Read whole post) बुनियाद खिसक रही है, Shamsher 29.03.2006 बसेरे में बनती कहानियां और बनते अनुभवों को भला कैसे तोल या नकार सकते हैं? जहाँ ज़िंदगियां, रिश्ते और फ़ैंसले बनते-बिगड़ते रहते हैं । कुछ नम अहसास हैं जो बसेरे की गलियों, मोहल्लो मे पनपते हैं । एसे ही एक कहानी नाँगला मे पिछले कई महीनों से रचती चलती आ रही है । पिछले दिनों से नाँगला में सर्वे होते चले आ रहे हैं । एक ही दिन बस्ती में कुछ-कुछ दूरी पर लोगों के झुंड लगे थे ।और उनके बीच एक साहब मोटा शरीर, पैन्ट कमीज पहना हुआ, हाथों में फ़ाइल लिए था । आसपास लोगों का घेरा लगा हुआ था । जगह जगह ऐसा नज़ारा था । लोग अपने साथ मे राशन कार्ड या प्रमाण पत्र या अन्य आवासीय कागज़ात हाथों में लिए खड़े थे । (Read whole post) क्या नांगला आज तोड़ दी जाएगी? Nasreen 29.03.2006 नांगला में दाख़िल होते ही कई बातचीत की आवाज़ें मेरे कानों में पड़ीं । एक हलचल थी । और एक आस भी कि कोई तो हमारी ऊपर वालों से सिफ़ारिश कर दे और हमारा बसेरा उठे ना । पर लोग फिर भी अपना घर खाली कर रहे थे, और अपना सामान अपने घरों के बाहर रख रहे थे । (Read whole post) समय का वज़न, Neelofar 29.03.2006 समय का एक बहुत भारी वज़न होता है, जिसे लोग अपने साथ मे लेकर चलते हैं । जैसे चलते-चलते बीच में एक आदमी ने हमें रुकया। उसका चेहरा पसीने मे तर-बतर था। और भारी समानों को उठाने से जो सांस फूलती है, कपड़े मटमैले होते हैं, वो ऐसा नज़र आ रहा था। उसने हमसे कहा: “सुनिये मैड़म, क्या हमारी भी झुग्गी टूटेगी?” हमें कुछ समझ में नहीं आया । हम ने पूछा, "जी क्या?” उस ने अपना सवाल दोबारा पूछा। फिर वो बोला, “हमारे पास तो कुछ नही! हमारा राशन कार्ड ही है, जो सन 90 का बना है"। (Read whole post) एक अफ़रा-तफ़री का माहौल है, Neelofar 29.03.2006 सब तरफ़ भीड़ है । पुलिस की रैली कतार में इतमिनान से बैठी हुई है । ज़मीन पर जगह -जगह समान बंधा हुआ रखा है। गलियो में लोगों के चलने का, बातचीत का बहुत शोर है। एक घर के बाहर चारपाई पर दो टीवी और कुछ गठरियों में बंधा हुआ सामन और उसके बीच में एक आदमी गोद में कुछ डायरी और टेलिफ़ोन लेकर बैठा है, और आते जाते लोगों को देख रहा है। (Read whole post) From lovableyunus at yahoo.co.in Fri Apr 14 04:27:35 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Thu, 13 Apr 2006 23:57:35 +0100 (BST) Subject: [Deewan] Aasahaye Mahanagar- The Helpless City Message-ID: <20060413225735.55788.qmail@web42209.mail.yahoo.com> Each Helpline gets different types of calls representing diverse requirments of ‘help’ in a city .They usually operate in different shifts i.e morning evening and night. Recently I happen to be in the child helpline during the morning shift and came across a few cases . These cases are common but interesting to me because they present certain pictures of Delhi ,Picures that reflects the helplessness of the city and representing those parts of the city which are usually ignored or not seen. A man brought a seventeen year old girl, he found him on the road roaming helplessly ,when enquired she told that she belongs to jharkhand and was sent to Delhi by her parents to work through a palacement agency . she was working some where but was not treated humanly so she left the place to return home but lost in the way. And then she came in contact with childline.. There was a emergency call from an adoption center about a four year old boys in Kalawati Saran hospital to provide medical care and nursing. Three Street children came to childline for shelter one of them was a repeater and he brought the other two. Repeater also mentioned that he has earlier escaped from a shelter home in Kingswaycamp. There was a rescue call from Zor bagh about a nine year old kid who works in a house and was thrashed by the owner ,the caller wanted helpline worker to come immediately and save the child. The worker replied that he is referring the case to the concerned organization in the zone. Another lost child was refered by a concerned citizen from chandnichowk ,he was roaming aimlessly, he was brought to delhi by some elder friend for the sake of ‘ghommne ke liye’. Parents of a runaway child came to take him back but he was not willing to return, he ran away from his home as was beaten by his parents as he sold out his school bag to kabadi wala. A fifteen year old girl was sitting near one of the the ladies staff she was pregnant and was thrown out by her step sister when it was found that she is pregnant. There was a complaint from Police station tilak marg thana that they called for help during night as they found a girlchild on the road but the worker did not replied Such calls and cases are very common in childline now let us see the key words in these cases once again. Placements agencies Placement agencies are very common in delhi , they provide domestic maid servants to the Delhites who need them. Since domestic work like cleaning and washing does not need skilled labor it is a low paid job . mostly girls of 12 to 18 years of age are hired for such purpose . Usually girls from jharkhand ,west bengal and bihar are brought to delhi for this purpose.There are many reasons and causes for such a movement, first of all these poverty ridden areas do not have much employment and livelihood opportunities ,the families are large ,hence girls are pushed to Delhi to work..But then a question arises that how can somebody send his/her daughter just like that? Answer lies in the existence of placement agencies and agents. These agents and agencies are run by people who first came to delhi in search of work and then later on established their own service. Agents bring girls from different villages to delhi promising their parents that they will regularly send money earned by their daughters ,usually they are In-Laws of the village and some time different villages ,many a times their better half is also the copartner in the business. the suspician is minimised when almost each family has sent its daughter to work. These domestic help placement agencies keep a record of these girls but they usually show less number of girls , that too of above eighteen years to save them from Law enforcing agencies.they say that they are registered bodies ,but as per my knowledge no such act for registeration of placment agensies exist. When these girls are brought to Delhi ,it is usually their first encounter, they are not able to commincate easily because of language problem ,they don’t know complicated routes and roads of Delhi , they are placed in different familes of different parts of the city, their remuneration is collected by the agencies , and hence they don’t have money to go back home . if they are lucky enough to get a nice employer then there is no problem otherwise there are all kinds of horrible stories, of being beaten up badly ,of being sexually abused ,of being sold to people for flesh trade or being pregnant after promises of marriage. If any such girl in distress come in contact with helpline ,they try to help her , unfortunately if the girl has ran away after being abused she is not able to identify the place where she was kept , so then they try to trace her address and contact her family ,either with the help of Police , other network organisations or self . in few cases report is also launched against placement agencies but they are left free with out any charges when the girl say that she was brought by her own will, send by her family or that the agent is her some uncle, chacha, Mama or brother. And hence the helpline is left with the responsibility of searching her home or any other shelter where she can be rehabilitated. Adoption center Adoption center is another part of the city to which helpline workers interact with, these are the centers where small children uptill 0 to 7 years of age are kept as helpline workers don’t have a shelter and facility for them.. many a times small children are lost or abondaned because of various reasons . if any such child came in touch with childline or police or any organization or hospital they are referred to Adoption centers/agencies. The Ministry of Social Justice and Empowerment , GOI . set up the Central Adoption Resource Agency in 1990 popularly known as CARA. It is a Central Authority in the matter of adoptions,it regulates ,monitors and inspect adoption agencires and it only works for adoption of destitute and orphan children in Institutions. As per a document published by CARA there are approximately 69 indian Adoption placement agencies spread over the length and breadth of the country,to carry out inter country adoptions of children. There are 248 foreign agencies through which inter-country adoptions are done. In 2001 total 1899 in country adoptions were done , and 1298 inter- countery adoptions were done. People who dont have children some time want to adopt other children ,City needs Adoption agencies to take care of orphan ,abondaned and destitutes kids and adoptions agencies needs helplines, voluntary organizations , donations and ‘kids’ to run their service . yes both kids and donations are back bone of any adoption agencies.Adoption is covered in the Hindu Adoption and Maintenace Act , which is very strict means it is not easy to adopt a child in india ,it does not allow people other than Hindu to adopt children in India, also the Donations given by Indian families are not much , this is probably the reason why inter country adoptions are increasing day by day. The system in the city seems ok but there are instances where adoption agencies has deliberately not tried to restore lost children , so that he/she can be adopted by some one in need. Though there are few mechanisms to regulate adoptions yet it does not work all the time. Street children/ Escaped News about children running from government homes is not new for delhites but the reasons of why do they run from such homes? Usually don’t get space in any newspaper expect whenever it is a sensational story. Government shelter homes come under the department of Social Welfare and Juvenile Justice care and protection Act 2000 (JJ Act). JJ act is the social legislation for children from zero to eighteen years of age. This act imposes the state with the primary responsibility of ensuring that all the needs of children are met and that their basic human rights are fully protected . It define children in two categories,children in need of care and protecion and children in conflict with law. the former are kept in shelter homes and competent authority for them is Child welfare Committee , where as later are kept in observation homes and the competent authority for them is Juvenile Justice Board.( I will provide detail about these seperately) Unfortunately both the places are literally ‘jail’ for children, here they are usually kept half fed ,with no recreation accept TV, they do a lot of work for the staff , are abused by elder and stronger boys. And all limits of corruption are crossed by the staff so running away seems the best option for them Recently Mr Raj mangal Prasad Director of an NGO Association for Development brought out some facts about the ill practices of the Department of social welfare Delhi through Right to Information Act. Currently there are 10 shelter homes run by govt in which 1873 children are staying , govt spend approximately3500 rupees perchild / month, department was not able to provide clear breakup of expenditure, how ever these figure given by department themselves give us some idea: Under wear were purchased @67/piece as compare tomarket rate of 35 PT shoes @210 market rate 120 ladies shoes @280 market rate150 sweater @365 market rate 250 More than 70 % of Ambulances donated by CATS to be used as medical van are used by the staff for commuting. Most of the children staying in these shelter homes know their complete or partial address but , they have no one to take care of them as a result they are stucked in as if they are jailed. Zone Zone division is a constantly is a major concern for helplines in Delhi, basically delhi has been divided in to various zones by different systems , for instance childline works in Five zones, Delhi police works in Nine Zones . each zones has a set of issues and problems , but each one has a common problem of Zone overlapping . many atimes helpline worker try to avoid overlapping cases, by saying that it does not lie in there zone Particulary Police , in Delhi there are many places where areas of two police stations are divided by a Road, or railway line or just a park so if some one go there to lodge an FIR about a crime may be as serious as rape. The first question that is asked is ‘ ye ghatna road ke kis taraf hui’ at this if one manages to give a fairly precise anwer then the next question is ‘aap ko ye ladka/ladki kahan mile’.. and hence the ‘zone’ excuse is presented before you. --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060413/e64857b9/attachment.html From lovableyunus at yahoo.co.in Sun Apr 23 02:45:51 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sat, 22 Apr 2006 22:15:51 +0100 (BST) Subject: [Deewan] Aasahaye Mahanagar V Message-ID: <20060422211551.86639.qmail@web42202.mail.yahoo.com> In continuing my work on reading Delhi from the perspective of helpline workers, recently I went to attend a symposium organized by a foundation on rights and needs of elderly, it was held at Indian Habitat Center and more than 60 people came to attend it . Majority of the participants were 'senior citizen', (may be because younger generation do not put this agenda on their priority). The reason behind my presence was the fact that foundation also runs a helpline for old age people in Delhi . After being there I got to know few concerns of the old age people , I met few people working with elderly, and volunteers of old age helpline. Then later on I went to the helpline and interacted with volunteers to saw and capture some glimpse of the aging city. The Aging city With the sensex touching the highest point and youngster loosing control on music, ‘here and now’ seems the appropriate philosophy of life. if seen through the eyes of Mr Mathur a volunteer in the helpline for senior citizen, The picture is a little gloomy . he shared with me that one faces alot of many challenges as he crosses 60 ( some times a little earlier or later), with memory getting weak, body fragile and prone to ailments & infections and decrease in most of capabilities even the simplest task become hard to accomplish. With the increase in longevity and the fear of remaining 'alone' and of 'dying', as near and dear ones starts going away, the old age people are left with loneliness, despair and alienation. According to him older people want respect ,companionship and opportunities to live with their beliefs and dignity, on their little bit of pension and savings or on children, but the ever-increasing 'cost of living in a city' is creating barriers in doing so. Their dignity and self-respect is shattered in the harsh encounter with the younger generation. with rapid urbanization their joint family ‘dream’ is only left in drama, even if the youngsters are concerned about the senior citizens they don’t get enough time from jobs to know their needs as they are busy in fulfilling requirments of the family in this cut throat competition , as a result all that comes in the share of older people is weakness, arthritis, all type of ailments, body ache, sleeplessness and feeling of uselessness . Mr Mathur said that Being 66 himself he is able to empathize with the clients who contact them through phone or personally, when they ventilate their feelings, when they abuse their son, or in-laws or the helpline worker himself, he know how it feels when one has to travel in buses, and walk in bright sun to save money for other priorities when there are less chances of extra income. He also knows the pain of not being taken seriously and not able to comprehend the situation quickly. After being attached to organization he once again found himself part of mainstream. He also stated that no young person can do counselling at old age helpline as old person do because they can not understand 'our' situation ,but he clarified that the helpline also need young people to run around and do all the leg work to assist old people in distress and to respond to their call. The 'call' for help by senior citizen can be understood through the number of cases recieved by the helpline ,as it is one form of 'their voices'. since 1999 the helpline has so far received over 124326 calls and visits seeking help. An overwhelming 17368 were predominantly of legal/medical and financial nature as on March31st þ 2006, other social problems (16099) followed by loneliness (15971) pension fund/insurance issues accounted for 14913, regarding relationship with family members were 12718 and rest were about general inquires.In general following are some of the ‘help’ provided to senior citizens: Guidance in getting medical/shelter aid from govt as well as Non-govt agencies Submission of claim forms with concerned authorities Counseling for psychological, emotional problems. Interaction with family members, relatives, friends etc. Restoration of basic facilities like water phone &electricity Questions that arise in my mind: Our needs wants and desire require fulfillment of some sort or another ,but when should we name them as services ,facilities or help? What is 'help' ? How many classification of citizenship can we do in a city, senior , responsible ,antisocial ,differently abled,secondary,indegenious, migrant,refugee, marginalised? feedback and suggestions are invited yunus --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060422/9d8eb5f7/attachment.html From lovableyunus at yahoo.co.in Sun Apr 23 21:26:56 2006 From: lovableyunus at yahoo.co.in (mohd syed) Date: Sun, 23 Apr 2006 16:56:56 +0100 (BST) Subject: [Deewan] Aasahaye Mahanagar VI Message-ID: <20060423155656.86533.qmail@web42207.mail.yahoo.com> While interacting with helpline workers I have found a common thread in the helplines i have visited ,each of them has one or more volunteer or worker who was himself or herself beneficiary of Helpline at some point or another ,and the help they got from it was the motivating factor for them to be associated with it. following is a life history of a worker. Child helpline worker PK belongs to bihar , (generally people will call him a runaway child) according to him he left his home at the age of 16 after having disagreement in his family, he was tenth passed at that time full of confidence and energy that he can do any thing . After leaving his home he spent some time on streets of India , first he travelled many places then he went to punjab and started working in a Dhaba , he worked there for few months but sooner came to know that nothing good will come out of it so he left that and went to Faridabad and started working in a thread factory. He liked that job and was very hard working & sincere ,so very soon he got promoted to the post of supervisor. Pk was doing well in the factory until one day, when the tragic accident took place, there was fire all over the factory many people were burnt including him , he was unconscious for more than one month , his employeer was a nice man and he took care of him , but when he became conscious, he found his life miserable as 40 % of his body was burnt , he was not able to do any work by his hands, his confidence was shattered and out going personality was transformed , he did not wanted to interact with other people so he went back his home. when he returned he home did not wanted to show his face to anybody but people kept asking questions about his burnt body ,which made him very depressed , so he again left his home came to Delhi and contacted childline . childline workers treated him diferently from rest of the world and helped him to come over trauma. with the help of counsellors and medical treatment he once again gained his self respect and courage to move on. He was so impresed by the service that he volunteered himself in childline after the recovery. Since than he has been working in childline as a team member and helpling children in distress specially children who live on street . PK said that he enjoy his work as its gives him satisfaction . he is also pursuing higher studies through correspondence .he likes do challenging jobs as it boosts his confidence. At times there are difficulties and problems in helpline to when the get difficult cases ,but the worst part of his job is the 'shift' changing rituals which no body likes,as it disturbs the whole routine. Interestingly PK said that he is a change person 'outside' helpline otherwise we wont be able to survive, for example 'helpline worker' are suppose to be soft spoken with controlled emotional involvement , but as he leaves his office he become a differently person , he is a tough guy when he travel in a local train, where there are lots of people ready to mess and over power the weak , so he is ready all the time to give equal and opposite reaction, this is the reason why some times he feels very restricted and frustrated in handling 'difficult calls' . At last they have to be in a boundry , have to bear all 'abuses' on phone . Responding to the job timings he said that that 9 to 5 job is good because it does not disturb the routine ,one can have a personal life too, can enjoy to avoid all sort of stress and frustration. on being asked that what do he do in his free time at home to relax he said that at home he loves music especially old songs of lata and Pankaj Udhas. Even today he dont like making many friends ,he has only one friend with whom he go out for movies and walk. following are the different services childhelpline provides to children in distress: Medical Shelter Repatriation Rescue from abuse Death related Sponsorship Child lost Emotional support and guidance Information about referral /Childline. --------------------------------- Jiyo cricket on Yahoo! India cricket Yahoo! Messenger Mobile Stay in touch with your buddies all the time. -------------- next part -------------- An HTML attachment was scrubbed... URL: http://mail.sarai.net/pipermail/deewan/attachments/20060423/c9e9cfb6/attachment.html From rahulpandita at yahoo.com Mon Apr 24 11:48:53 2006 From: rahulpandita at yahoo.com (rahul pandita) Date: Mon, 24 Apr 2006 07:18:53 +0100 (BST) Subject: [Deewan] Channel, mausami ka juice aur Naxalbari Message-ID: <20060424061853.37942.qmail@web31713.mail.mud.yahoo.com> Channelon ki duniya itni lubhavni thi ki pradhaanmantri tak apne upwaas 'live' TV channelon pur todne lage. Mausami ke juice ka eik ghoont lete hi, TV patrakaar ne pradhaanmantri se poocha: kaisa mehsoos ho raha hai? Unhone aankhen band ki aur jaise hi patrakaar ye sochkar mike hatane lage ki pradhaanmantri ji kucch bolna nahi chahte, pradhaanmantri ji ki aankhen khuli aur unke munh se apni eik kavita ki panktiyaan phoot padin: kaal ke kapaal pur likh likh ke mitaa ta hun, geet naya gaata hun. Bus phir kya tha, patrakaron ki pau-baarah ho gayi. Unhe apni byte jo mil gayi thi! Netaon abhinetaon ko TV pur dikhne ki lat pad chuki thi. Unke saamne jab vibhinn TV channelon ke mike aapas mein takraate, to wo jawaani mein apni preysi ki chudiyon ki khankhanahat bhool jaate. Bada hi ajeeb daur tha. Neta abhineta bante ja rahe the aur abhineta safed kurta-pyjama pehan kar rajneeti ke akhade mein utarne ka mann bana chuke the. Wo bhi roz TV pur mike thaame dikhai padta tha. Us din shaam ko mama ka phone aaya. Bole: Beta TV pur khoob dikhte ho. Hum to wahin pur tumhe khoob aashish dete hein. Uske channel mein do cheezon ki bharmaar thi: eik prashikshuon ki aur eik sanpaadakon ki. Darasal Rajat Verma ke jaane ke baad 'Lala Ji' kisi sanpaadak pur bharosa kar hi nayi paaye. Isi liye sanpaadakon ke sang unhone 'musical chair' ka game shuru kar diya. Phir prashikshu yaani Interns kaam to kar hi rahe the. Aur chaawal ki mill se munaafa to aa hi raha tha. March ke maheene mein increment se theek pehle logon ko prateekatmak 'sack' karna chaloo ho jaata. Eik din subah office pahunche to pata chala Ashok Mehta ko alwida keh diya gaya hein. Doosre din Seema Chaudhary. Tiwari ji bechaare sakte mein the. Kahin unhe pink slip (wo business journalist the) pakda diya gaya to? Eik rajneetik party ke naare ko taud-maraud kar, unke dost unhe chidaate: Baari baari sabki baari, ab ki baari Rohit Tiwari. March mein 'sack abhiyaan' chalane ka ye faayda hota ki worker increment to duur, ye sochkar raahat ki saans lete ki unki naukri is basant mein bacch gayi. Lekin mann hi mann wo kasam khaate ki chaahe jo ho jaaye, agle basant tak wo kisi 'professional' channel mein naukri khoj lenge. Issi beech eik 'comrade' reporter Naxalbari ke daure se waapas laute. Aate hi unhaune office ke saamne khaali plot mein raat ko 'Royal Stag' aur 'ande ki burji' ke beech kucch reporters ki sabha bulayi. Comrade ka chehra 'Bourgeoisie' taakton ke khilaaf gusse se tamtama raha tha. Maumbatti ki madham roshni mein Comrade ne group ko sanbodhit kiya: Doston, mein Charu Majumdar ke baete se milkar aaya hun. Unhone waada kiya hein ki agar sanstha se paanch log jud jaaye, to wo khud yahan aakar humara Union banwayenge. Kya kehte ho? Kar rahe ho haath khada? Usne haath khada kar diya. 'Wonderful', Comrade ne uski taraf dekh kar kaha. Eik reporter ka mobile baj utha. Eik chaar peg peekar ludak chuka tha. Aur eik mootne, plot ke kaune mein chala gaya. Do 'goodnight' kehkar khisak gaye. 'Sarvahara' abhi kranti ke liya tayyar nahi tha. Doosra, teesra aur chautha basant yahin guzaarna unki niyatti thi. Rahul Pandita www.sanitysucks.blogspot.com Mobile: 9818088664 ___________________________________________________________ Switch an email account to Yahoo! Mail, you could win FIFA World Cup tickets. http://uk.mail.yahoo.com From ravikant at sarai.net Mon Apr 24 12:32:13 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Mon, 24 Apr 2006 12:32:13 +0530 Subject: [Deewan] Hindi Blog by a friend of Sarai Message-ID: <200604241232.13668.ravikant@sarai.net> kyonki vahan par sarai bhi linkit hai. cheers ravikant ---------- Forwarded Message ---------- I wish to share my latest post on Nrmada and other issues. http://janapad.blogspot.com/ Manoj - ------------------------------------------------------- From ravikant at sarai.net Tue Apr 25 16:35:53 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Tue, 25 Apr 2006 16:35:53 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSk4KWA4KSoIOCkl+CkvOCknOCkvOCksuClh+Ckgg==?= Message-ID: <200604251635.53557.ravikant@sarai.net> चांद शेरी साहब की ओर से, जो उन्होँने राकेश को मीडियानगर मेँ छपने के लिए भेजी थीं. चंदन जी ने टाइप किया, उनका शुक्रिया. ravikant एक मुल्क तूफ़ाने-बला की ज़द में है दिल सियासत दान का मसनद में है अब मदारी का तमाशा छोड़ कर आज कल वो आदमी संसद में है एकता का तो दिलों में है मुक़ाम वो कलश में है न वो गुम्बद में है ज़िन्दगी भर ख़ून से सींचा जिसे वो शजर मेरा निगाहे-बद में है फिर है ख़तरे में वतन की आबरू फिर बड़ी साज़िश कोई सरहद में है एक जुगनू भी नहीं आता नज़र यह अंधेरा किस बुरे मक़सद में है चिलचिलाती धूप में 'शेरी' ख़याल हट के मंज़िल से किसी बरगद में है दो आज का रांझा हीर बेच गया हीरे जैसा ज़मीर बेच गया इक कबाड़ी को वो निरा जाहेल मीर- तुलसी - कबीर बेच गया सोने - चाँदी के भाव व्यापारी दे के झांसा कथीर बेच गया इक कबीले की शान रखने को अपनी बेटी वज़ीर बेच गया बाप - दादा की उस हवेली को एक अय्याश अमीर बेच गया कह के 'शेरी' उसे चमत्कारी कोई पत्थर फ़क़ीर बेच गया तीन कोई दाता- अमीर ढूँढेंगे शहर में क्या फ़क़ीर ढूंढेंगे मोतबर रहनुमा नहीं कोई राह ख़ुद राहगीर ढूंढेंगे हम नए दौर की किताबों में ख़ाक तुलसी - कबीर ढूंढेंगे बिक गया है जो चन्द सिक्कों में उसमें हम क्या ज़मीर ढूंढेंगे ये तो शतरंज है सियासत की गोटियाँ ख़ुद वज़ीर ढूंढेंगे पीर अपनी भुला के हम 'शेरी' दीन - दुखियों की पीर ढूंढेंगे From ravikant at sarai.net Fri Apr 28 11:01:06 2006 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Fri, 28 Apr 2006 11:01:06 +0530 Subject: [Deewan] Fwd: 27 =?utf-8?b?4KSF4KSq4KWN4KSw4KWI4KSy?= 2006 Message-ID: <200604281101.06978.ravikant@sarai.net> प्यारी कविता. कवि हैं मोहन राणा. रविकान्त ---------- Forwarded Message ----------