From lokesh at sarai.net Tue Dec 6 16:31:22 2005 From: lokesh at sarai.net (lokesh at sarai.net) Date: Tue, 06 Dec 2005 12:01:22 +0100 Subject: [Deewan] Special Invitation Message-ID: Greetings ! You are cordially invited to the release of special issue of SANDHAN. A panel discussion on the theme 'Literature and Theory : A Focus on Hindi' would follow the release. Ravi Sinha, Manager Pandey, Anamika, Archana Verma and Rajendra Yadav would share their ideas on the occasion. TIME AND VENUE : SATURDAY, 10 TH DEC 2005 AT 5 P.M. OXFORD BOOK STORE, STATESMAN HOUSE FIRST FLOOR, 148 BARAKHAMBA ROAD, NEW DELHI 110001 Waiting to hear from you subhash gatade 011-27872835 From ravikant at sarai.net Wed Dec 7 18:41:21 2005 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Wed, 7 Dec 2005 18:41:21 +0530 Subject: [Deewan] First Notice on Shaharnama Message-ID: <200512071841.21874.ravikant@sarai.net> From an old sarai loyalist, Sudheesh Pachauri who has started writing a column on books for a recently launched literary-lifestyle magazine from Dainik Bhaskar Group called Aha Zindagi(tan-man-jeevan ki pehli sampurna patrika), which boasts of a circulation figure of 1,34,636(Dec.2006). Sudheesh has nentioned other books but the title goes for deewan02: Balli maran se dareebe talak In dinon hindi mein gaon-gaon bahut hota raha hai, ab shaharnama likha jane laga hai. Deewane sarai cyberdeewanon ki ek sanstha hai. yeh vikassheel samaj adhyayan peeth, dilli ka ek upakram hai jo samay-samay par nagarik space ke adhyayan karti rahi hai. 'shaharnama' mein aap ek global shahri spce ka parichay pa sakte hain. is bar yahan dilli zyada dikhalai gayi hai. yon patna illahabad ka cofee house bhi. beijing bhi hai, dilli e bahut se naye space yahan hain. uske cyber mohelle bhi hain. bunty bubbly ke balli maran se dareebe talak ki dilli bhi hai. shahr ki badalti tasveeren yahan hain aur shahraati sahitya ki banagi bhi hai. char sau battees page ke is nayab sankalan ki keemat sirf do sau rupaye hain. jinhein naye spacon ke adhyayan karne hon ve ise zaroor dekhein, ek poora namoona dastavez hi hai yeh. isse apne shahar ko parhne ki tameez aati hai. Rough translation: After writing whole hog about villages hindi has now started producing stuff like shaharnama. Situated at CSDS, Delhi, Deewane sarai is an organization of cyber-fans(!) dedicated to occasional research on urban and civic spaces. You will find an introduction of a global urban space in shaharnama. Although you have Patna, Beijing and Allahabad's Coffee House here, Delhi and its new spaces, including Cybermohalla, dominate - Delhi's changing landscape from ballimaran to Dareeba. This unique collection of more than 432 pages also contains a flavour of the literature on cities. Those who are interested in new spaces must read this model document - it will tell them how to read cities. From chauhan.vijender at gmail.com Wed Dec 7 23:17:42 2005 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Wed, 7 Dec 2005 23:17:42 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSs4KWN4oCN4KSy4KWJ4KSXIOCkuOClguCkmuCkqA==?= =?utf-8?b?4KS+?= Message-ID: <8bdde4540512070947y16f31e8ep9ba6f788c2bd06e0@mail.gmail.com> नमस्‍कार, हिन्‍दी की दुनिया के लिए शुभ और हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत के लिए तो वाकई अहम खबर कवि लाल्‍टू का अब हिन्‍दी ब्‍लॉग है। तबियत खुश करता है। विचरें तसल्‍ली की गारंटी http://laltu.blogspot.com/ विजेंद्र From ravikant at sarai.net Thu Dec 8 13:06:51 2005 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 8 Dec 2005 13:06:51 +0530 Subject: [Deewan] Re: =?utf-8?b?4KSs4KWN4oCN4KSy4KWJ4KSXIOCkuOClguCkmuCkqOCkvg==?= In-Reply-To: <8bdde4540512070947y16f31e8ep9ba6f788c2bd06e0@mail.gmail.com> References: <8bdde4540512070947y16f31e8ep9ba6f788c2bd06e0@mail.gmail.com> Message-ID: <200512081306.51557.ravikant@sarai.net> शुक्रिया विजेन्द्र, अच्छे रचनाकारों को ब्लॉग रचते देखना सुखद अहसास है. लाल्टू के ब्लॉग से दो कविताएँ अपनी पसंद की, चुन रहा हूँ. पहली कंप्यूटर पर है, दूसरी शहर पर. रविकान्त ---- कंप्यूटर स्मृति का एक टुकड़ा इस कार्ड में है दूसरा उसमें एक टुकड़ा यह विकल्प देता है कि स्मृति को हम बचपन जवानी या बुढ़ापे में बाँटें या बाँटें लिखने और पढ़ने के कौशल में या देखने सूँघने या चखने की आदत में बाँटने के अलग अलग विकल्पों की उलझन से हमें उबारता है एक और टुकड़ा हम बटनों पर बैठे हैं निर्जीव स्मृतियाँ अब चमत्कार नहीं हमारी उँगलियों के स्पर्श से पैदा करती हैं स्पर्धाएँ स्पर्धाओं में हार जीत अहं, रक्तचाप एक टुकड़ा बुझते ही बुझता है एक टुकड़ा प्यार चेतना और कंप्यूटर में तुलना चलती लगातार। १९९५ (उत्तर प्रदेश(पत्रिका)-मार्च १९९७) वो आईं गाड़ियाँ वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! बत्ती जो हो गई हरी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी खिड़की पे खड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! पुलकी बदमाश बड़ी खींच लाई कुर्सी खिड़की पे जा चढ़ी ओ हो हू हा ऊँची मंज़िल से चीखे पुलकी बार बार नीचे हल्ला गुल्ला दौड़ें खुल्लम खुल्ला रंग रंग की कार बहुत कहा मत करो शोर पुलकी न मानी न मानी रही अड़ी की अड़ी वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! अब बत्ती हो गई लाल कैसा हुआ कमाल छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी लाल गाड़ी पीली गाड़ी हल्की गाड़ी ट्रक भारी रुक गईं सारी सारी की सारी मन मसोस पुलकी ने की उतरने की तैयारी कुर्सी पर उतारे पैर, फिर छलाँग मारी तब तक हुई बत्ती हरी फिर से और फिर .... वो आईं गाड़ियाँ ! वो आईं गाड़ियाँ ! ***********************************************१९९२ (चकमक १९९३) On Wednesday 07 Dec 2005 11:17 pm, Vijender chauhan wrote: > नमस्‍कार, > हिन्‍दी की दुनिया के लिए शुभ और हिन्‍दी ब्‍लॉगजगत के लिए तो वाकई अहम > खबर कवि लाल्‍टू का अब हिन्‍दी ब्‍लॉग है। तबियत खुश करता है। विचरें > तसल्‍ली की गारंटी > http://laltu.blogspot.com/ > विजेंद्र From ravikant at sarai.net Thu Dec 8 16:59:14 2005 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 8 Dec 2005 16:59:14 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KS44KSw4KSV4KS+4KSw4KWAIOCkuOClgOCkoeClgA==?= In-Reply-To: <4386EF22.704@boltblue.com> References: <4386EF22.704@boltblue.com> Message-ID: <200512081659.14921.ravikant@sarai.net> कविवर, भारत सरकार की सीडी को हम सोनिया सीडी भी कहते हैं, क्योंकि उसका लोकार्पण उन्होंने ही किया था. देखने हम भी गये थे और तमाशा भी हुआ! दयानिधि मारन ने फ़रमाया कि सिर्फ़ हमारे यहाँ ही फ़ॉन्ट ख़रीदने पड़ते हैं - चलिए देर-सवेर अहसास तो हुआ. बहरहाल कहने को तो बहुत कुछ है इस सीडी में पर काम सब नहीं करता. जैसे स्पेल-चेकर है, ओआरसी है, पर चलता नहीं है. जो चीज़ थोड़ा बहुत काम करती है, वह है, फ़ॉन्ट - तक़रीबन 600 फ़ॉन्ट हैं इसमें, जिनमें 150 ओपन टाइप हैं, पर सिर्फ़ एक समूह का फ़ॉन्ट ही मुकम्मल है. इश्तहार बड़े-बड़े आए थे पर लोगों ने अपने आधे-अधूरे काम सरकार को दे दिये, और सस्ती वाहवाही या ठेका लूट लिया होगा. लगभग सारे औज़ार विन्डोज़ के लिए हैं - लिनक्स के लिए शायद ही कुछ. इसपर लोगों ने ब्लॉगजगत में काफ़ी कुछ लिखा भी है - रविशंकर श्रीवास्तव आदि ने. मैं यह मेल दीवान लिस्ट पर भी डाल रहा हूं, अन्य मित्र समीक्षा वाले दूसरे लिंक भी दे देंगे. मैं वैसे चाहूंगा कि आप ख़ुद कुछ सॉफ़्टवेयर टेस्ट करके हमें बताएँ. एक बात और, कोई भी औज़ार अपने स्रोत-कोड के साथ नहीं है. आपका रविकान्त On Friday 25 Nov 2005 4:31 pm, you wrote: > रविकांत जी, भारत सरकार की हिन्दी सीडी पर अपनी प्रतिक्रिया कृपया मुझे बताएँ, > धन्यवाद. मोहन > > > ================================================================ > शुभकामनाओं के साथ हमेशा > मोहन > MOHAN RANA : > Please read my online logbook in Hindi: > http://wordwheel.blogspot.com/ > =============================================================== From chauhan.vijender at gmail.com Fri Dec 16 21:52:38 2005 From: chauhan.vijender at gmail.com (Vijender chauhan) Date: Fri, 16 Dec 2005 21:52:38 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KS54KS/4KSo4KWN4oCN4KSm4KWAIOCkueCkvuCkiA==?= =?utf-8?b?4KSq4KSwIOCkn+Clh+CkleCljeKAjeCkuOCljeKAjeCknyDgpJXgpYAg?= =?utf-8?b?4KSq4KWN4KSw4KSV4KWD4KSk4KS/?= Message-ID: <8bdde4540512160822jdd4050du9a3334c2e3e02018@mail.gmail.com> मित्रगणो, एक सहचर ने आलेख के लिए विषय सोचा है 'हिन्‍दी हाईपर टेक्‍स्‍ट की प्रकृति ' मैने सोचा कि देखें कि नेट पर क्‍या उपलब्‍ध है। नतीजा ठन ठन गोपाल। तो चिट्ठेकार बिरादरी के पंचो और इस लिस्‍ट के बिरादरो आप ही तय करो कि न जाने किस किस पर विचार हो रहा है पर माध्‍यम की ही अवहेलना। तो भैया कुछ सामग्री हो तो सुझाव दें। लिंक भी दें तो और अच्‍छा। अपन गारंटी देते हैं कि आलेख तैयार होते ही झट ब्‍लाग में चस्‍पा करने के लिए मांग लेंगे। विजेंद्र From lokesh at sarai.net Sat Dec 17 11:20:31 2005 From: lokesh at sarai.net (Lokesh) Date: Sat, 17 Dec 2005 11:20:31 +0530 Subject: [Deewan] invitation Message-ID: <43A3A727.4070100@sarai.net> Greetings ! You are cordially invited to a program on 20 th December 2005 at Tagore Hall, Delhi University, ( North Campus) 12 noon. You are aware that since last three years we have been celebrating 'STREE SAMMAN DIVAS' to commemorate the BURNING OF MANUSMRITI UNDER THE LEADERSHIP OF BABASAHEB AMBEDKAR. In our very first program in 2002 we had felicitated BHANWARI DEVI for her valiant struggle for dignity of women. This year we have invited BABY HALDAR as our chief guest and we will be discussing CONDITION OF WOMEN IN UNORGANISED SECTOR. Leading activists and scholars - Illina Sen, Gautam Navlakha, Sanjay Kumar have also agreed to participate in the ensuing discussion. Hope you will spare your valuable time with us. from STREE ADHIKAR SANGATHAN From rakesh at sarai.net Wed Dec 28 14:26:01 2005 From: rakesh at sarai.net (Rakesh) Date: Wed, 28 Dec 2005 14:26:01 +0530 Subject: [Deewan] =?utf-8?b?4KSu4KWA4KS/4KSh4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIOCklQ==?= =?utf-8?b?4KWAIOCkuOCkruClgOCkleCljeCkt+Ckvg==?= Message-ID: <43B25321.5050405@sarai.net> *िमत्रों * *मीिडयानगर की समीक्षा देखें:* *_पुस्तक समीक्षा_* _ मीिडया में शहर या शहर में मीिडया _ *सुरेश पण्डित* 'मीिडयानगर' अब कोई अनजाना या अटपटा लगने वाला नाम नहीं रहा है क्योंिक इसका दूसरा अंक भी पाठकों तक पहुंच गया है। हां, यह असमंजस इसे लेकर अवश्य बना हुआ है की यह कोई पत्रिका है या पुस्तकमाला, जिसके प्रकाशन की कोई कालावधि नहीं है। इसका पहला अंक कई महिने गुजर चुके हैं। वह दिल्ली पर केन्द्रित था और उसमें शहर की मीडिया से जुड़ी कुछ छोटी मोटी किन्तु महत्वपूर्ण जानकारियां संग्राहित थी जाहिर है वे जानकारियां इतनी अपर्याप्त थी कि गम्भीर पाठक उन्हें पाकर तृप्त नहीं हो सकता था। बल्कि उसकी जिज्ञासा और अधिक बढ़ सकती थी। इसलिये यह मीडियानगर 'मीडियानगर - 02' उन जानकारियों को अधिक विस्तार से व्यापक परिप्रेक्ष्य में, ज्यादा जमीनी हकीकत के साथ करने का परिणाम दिखाई पड़ता है। इसके पहले भाग 'सिने माहौल के स्थानिक परिवेश को विभिन्न पहलुओं से देखने की कोशिश की गई है। जैसे-जैसे शहर में फैलाव आता गया है लोगों की गतिशीलता व सक्रियता बढ़ी है। उनके अवकाशकाल सिकुड़े हैं। इस शहरी आकार एवम् स्वरूप के क्रमिक परिवर्तन में सिनेमाघरों के प्रति बढ़ते आकर्षण और विकर्षण के इतिहास को बड़ी स्पष्टता के साथ देखा जा सकता है। हिन्दुस्तानी फिल्म इण्डस्ट्री के कल और आज को जानने के लिये यह ज़रूरी है कि हम जमशेदजी फ्रेमजी मदान के नाम और काम से पहले वाकिफ हो लें। यह बात जोर देकर कहना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि यहां सिनेमा के इतिहास को लेकर लिखी गई प्राय: सभी पुस्तकें या तो इनका ज़िक्र ही नहीं करती या करती भी हैं तो बड़े ही कैज्युअल अन्दाज में। बिरेनदास शर्मा कहते हैं कि मदान ने अपने फिल्म व्यवसाय की शुरुआत 1902 में कोलकता में विदेशों से मंगाई गई फिल्मों को तम्बूओं में प्रदर्शित करते हुए की थी। बाद में उनका यह उद्यम धीरे-धीरे बढ़ता हुआ एक साम्राज्य में बदल गया। 1922 की एक ख़बर के अनुसार उस वक्त मुल्क में लगभग 200 सिनेमा हाल थे और इनमें 90 प्रतिशत अमरीकी मूल की फिल्में दिखाई जाती थी। तब मदान थिएटर्स लिमिटेड के 37 थिएटर चल रहे थे। 1930 के दशक के मध्य तक समूचे भारतीय महाद्वीप में उनकी संख्या 170 तक पहुंच गई। लेकिन चौथे दशक के मध्य तक पहुंचते-पहुंचते कम्पनी का दिवाला पिट गया क्योंकि उस पर इजारेदारी का इल्जाम लगा था। इसी तरह आराम्भिक सिनेमा के विज्ञापन का क्या स्वरूप था, उनके लिये कौन-कौन से माध्यम उपयोग में लाये जाते थे, उनकी तकनीक को अधिकारक लोकलुभावन बनाने के लिये कौन से तरीके अख्तियार किये जाते थे, फिल्मों को * * सेन्सॉर बोर्ड से पास करवाने के लिये किस वाया मीडिया को काम में लगाया जाता था इन बातों पर इस खण्ड में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। उल्लेखनीय बात यह है कि इस पुस्तक में संकलित हर लेख इसलिये दिलचस्प है क्योंकि इनको अपने कथ्य को रखने का अन्दाज़े बंया एक दूसरे से भिन्न तो है ही अपने आप में अनूठा भी है। कहीं वह सम्बन्धित व्यक्ति मुलाकात के मार्फत, कही घटना के संस्मरण के जरिये तो कहीं स्थान को यात्रा वृतान्त के द्वारा रूपांकित करता हैं इसमें मीडिया के खासतौर से सिनेमा, रेडियो, वीडियो के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र एथिक्स, दर्शन, प्रौद्योगिकी नियम कानून, उपभोक्तावाद, पाईरेसी और कमिशनखोरी आदि उन सब पक्षों का दिलचस्प विश्लेषण है जो इस तरह की किसी एक लेखक की किताब में मिलाना मुश्किल है। उत्पादन के प्रसंग में रवि सुन्दरम नकली उत्पादों के बेतहाशा मुनाफा कमाऊ किन्तु अवैध व्यापार की सम्पूर्ण क्रियाविधि पर व्यापक रोशनी डालते हैं और बताते हैं कि यह धन्धा व्यापार और राजनीति साठगांठ से बेधड़क होकर चल रहा हैं बहुत सारे उत्पादों, विशेषकर सांस्कृतिक उत्पादों सीडी, एमपीर्थी, वीसीडी केबल टेलीविजन और कम्प्यूटर पर लगाई जाने वाली रोकथाम ईर कायदेकानून शिथिल पड़ गये हैं। परिणामस्वरूप हर रोज बौद्धिक सम्पदा कानून के रखवालों, पुलिस और नकली माल की मांग को पूरा करने वालों के बीच चलने वाले एक छापामार युद्ध को साफ-साफ देखा जा सकता हैं। 1980 के दशक में यहां हुई कैसेट क्रान्ति ने संगीत की लोकप्रिय संस्कृति को पूरी तरह बदल दिया है। भूमण्डलीकरण की आरम्भिक अवस्था में कैसेट कल्चर प्राय: कानूनी थी। इसने नये कलाकारों को मौका मौका दिया तथा कम कीमतों वाली कैसेटों का बाज़ार बढ़ाकर संगीत की एचमबी, पॉलिडोर जैसे बड़ी कम्पनियों की मोनोपॉली को जबरदस्त चुनौती दी। इससे लोकसंगीत को पुनर्जीवन मिला और रिमिक्स ने बज़ार में धमाके के साथ पदार्पण किया आज पायरेसी का यह हाल है कि फिल्म रिलीज होने के तीसरे दिन ही उसकी कैसेट न केवल बाजार में आ जाती है बल्कि केबल नेटवर्क पर प्रदर्शित भी हो जाती है। इसने सिनेमाघरों की भीड़ को संकुचित कर दिया है राकेश कुमार सिंह वाज़ारवाद और इलेक्ट्रानिक उत्पाद केन्द्रों के गतिविज्ञान, इनके पारम्पारिक रिश्तों और इनमें जुड़े नेटवर्कों से सन्दर्भित सवालों पर विचार करते हुए अपने लेख में दिल्ली के पुराने अंगूरी बाग से लेकर लाजपतराय मार्केट में चल रहे इलेक्ट्रनिक्स गुडस् के उत्पादन एवम् व्यवसाय के कार्यविधि से अवगत करवाते हैं। इस व्यवसाय को फलने-फूलने का एक मात्र कारण यह हैं कि बड़ी कम्पनियों को अपने ब्राण्डों का माल कौड़ियों की कीमत में मिल जाता है। इसमें कम आर्थिक हैसियत के लोग भी कम कीमत में लोकप्रिय ब्राण्ड का (चाहे वह नकली ही क्यों न हो) उत्पादन खरीद कर स्वयम् को बड़े लोगों के बराबर मान लेने का भ्रम पाल लेते है। इन लघु औद्योगिक इकाइयों की यह विशेषता उल्लेखनीय है कि इनमें मालिक और कर्मचारी दोनों ही लगभग बराबर की मेहनत करते हैं। इसलिये आन्नद विवेक तनेजा का मानना है कि पाइरेसी का एक उजला पक्ष भी है और वह यह की सस्ते सिनेमाघरों के उजड़ते जाने के दौर में नकली डीडियों कैसेट भी किसी फिल्म को फर्स्ट डे फर्स्ट शो में दिखला देने की सन्तुष्टि भी कम हैसियत वाले लोगों को प्रदान कर देती है। अब वीडियो प्लेयर झुग्गी-झोपड़ियों भी पाया जा * *सकता है। उत्पादन के विवेन्द्रीकरण ने आम लोगों के मरते को बचाये रखने में खासी अहम भूमिका अदा की हैं। पर पुस्तक का तीसरा खण्ड असली और नकली के बीच की फांक को ज्यादा स्पष्टता के साथ उद्घाटित करता है। जितना गुड़ उतनी मिठास वाली उक्ति का चारितार्थ करने के लिये इसमें बदरंग तस्वीरें और घरघराती आवाज को नकली वीडियों को असली पहचान बताया गया हैं। सस्ती टैक्नॉलॉजी के जरिये उत्पादों की खपत का दायरा तो विस्तृत होता है लेकिन क्वालिटी में गिरावट आ जाती है। वैसे भी छोटी औद्योगिक इकाइयों में जब उत्पादन थोक में होता है तो गुणवत्ता से समझौता करना पड़ता है। शहरी स्लम एरियाओं और गांवों, कस्बों तक मनोरंजन पहुंचाने की पहलकदमी वीडियो कैसेट्स को आसानी से उपलब्धता के कारण शुरू हुई और धीरे-धीरे बड़े चायघर, वीडियो में बदलते चले गये। इस वीडियो क्रान्ति ने दर्शक वर्ग को विकेन्द्रित करने, उसे स्थानीय बनाने और बिखेरने ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई सीनेमा जहां सामुहिकता का प्रतीक था वीडियो ने उसे बिखेरना शुरू कर दिया और आज केबल नेटवर्किगने सबको अकेला कर दिया है। इस्लामी सूफी संगीत जो कभी मज़ारों पर बड़े भाक्तिभाव से गाया और तन्मयता से सुना जाता था, आज बाज़ार से होता हुआ गली मोहल्लों तक पहुंच गया है। यही हाल हिन्दुओं के भजन कीर्तन का हुआ है। खदीजा आरिफ का लेख ऑडियो कैसेट के निर्माण की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत करवाते हुए इनकी मार्केटिंग के तौर तरीकों और उनमें आने वाली कठिनाइयों का खुलासा करता है। उदारीकरण की नीति को सफल बनाने तकाजों ने जिस तरह विकसनशील देशों की सरकारों को अपने नियम कानून ढ़ीले करने, बल्कि निष्प्रभावी बनाने के लिये दबाव बनाया उसका परिणाम यह हुआ कि आयात निर्यात तो बन्धनों से मुक्त हुआ ही है बहुत से काले धन्धों को भी खुलकर खेलने की छूट मिल गई है। शहरों की बढ़ती सीमाओं नें नगत नियोजन की प्रक्रिया और मास्टर प्लैन को धत्ता बताते हुए स्वेच्छया जहां तहां निर्माण कर अवैध अतिक्रमण की रूढ़ परिभाषा को ही खारिज कर दिया है उधर वीसीडी, डीवीडी एमपीथ्री से लेकर मोबइल फोन तक का गैरकानूनी व्यपार धड़ल्ले से चल निकला है। वैश्वीकरण के बाद खासतौर से जिस तरह से शहरों का विकास हो रहा है और मीडिया के विभिन्न उपकरणों के दायरे विसतृत जनसमुदाय को अपने आगोश में समेट रहे हैं उसी परिदृश्य को मीडिया नगर-02 'उभरता मंज़र' में प्रदर्शित करने का एक सुचिन्तित प्रयास किया गया है। उत्तर औद्योगिक नगर के रूप में अहमदाबाद के नये बनते चेहरे पर अविनाश प्रकाश डालते हैं। यह चेहरा देश के चार महानगरों को शंघाई, टोकियो, सिंगापूर, या न्यूयॉर्क बनाने के दावों को खारिज करते हुए अपने आपको देश के भावी शहर का मॉडल बताने का गुमान कर रहा है। विकास के परम शिखर पर पहुंचने के लिये इसने जो कुर्बानिया दी है उसकी दूसरे शहरों के इतिहास में मिसाल मिलना लगभग नामुमकिन है इसने अपनी विशिष्ट पारंपारिक संस्कृति के कवच कुण्डल उतार स्थानीय वेशभूषा, रहनसहन, खानपान और बोलचाल को भी तिलांजलि दे दी है। बड़ी मुश्किलों के बाद अब यह संस्कृति विहीन संस्कृति (ग्लोबल कल्वर) का शहर होने का गौरव आर्जित करने जा रहा है। अन्तिम खण्ड के किसी चीज़ पर 'ध्यान देने' और हररोज के अपने जीवनक्रम में क्या फर्क रहता है इस पर फोक्स करता है। यह फर्क दरअसल अपनी क्षमता के मुताबिक हमारे देखने और तलाशने को रिसर्च की नज़रों से पुन: देखने और तलाशने की प्रविधि को * * अलग करता है। लेखक की मान्यता है कि रि-सर्च इस दुनिया को समझने के लिये रोज के देखने से हटकर एक 'दूसरी नज़र' से देखने की प्रक्रिया है। और इसमें इमकान, इन्द्रियेतर भाव और दूसरे सन्दर्भ भी शामिल रहते हैं। इस खण्ड रिसर्चरों द्वारा किये गये फील्ड वर्क के अनुभवों को उसी रूप में पाठकों के सामने रखने का एक प्रयास है जिस रूप में उन्हें अनुभव किया जाता रहा है। 'आवाज सुनने का हासिल' में समीना मिश्रा कुछ डॉक्युमेन्ट्री फिल्मों के निर्माण के दौरान अपने साउण्ड रिकॉडिंग के अनुभवों को पाठकों से शेयर करती हैं। वे बताती हैं कि कभी कभी एक ऐसा लम्हा, दरपेश होता है जिसे हम न शब्दों में बाँध सकते हैं और न तस्वीर में। एक दुकान पर खिलौने देखती बच्ची जब एक गुड़िया उठाकर दबाती है तो उससे निकलती एक अंग्रेजी संगीत की धुन गली से गुजरते वाहनों और पैदल चलते लोगों की बातचीत के शोर में घुल-मिल जाती है। पर साउण्ड रेकॉर्डिस्ट को तो इस सारी आवाज़ों को बरकरार रखते हुए गुड़िया की आवाज़ को खास उभार देना होता है ताकि माहौल का मंज़र भी ओइल न हो और मक़सद भी पूरा हो जाये। ऐसी अनेकों सिचुएशन होती हैं और उनमें बनते बिगड़ते कोलाज में आपको अपनी चाही आवाज़ को विशिष्टता देते हुए बाकी सब कुछ ज्यों का त्यों बनाये रखना होता है। 'कुछ किस्से कुछ कारना में' पढ़ना इसलिये दिलचस्प मगर भरा है क्योंकि इनमें सिनेमा और उससे सम्बन्धित अन्य सन्दर्भों से जुड़ी घटनाओं व्यक्तियों और वस्तुओं का जिक्र किया गया है जिनके बारे में हम पढ़कर या सुनकर ऊपरी या सरसरी जानकारी तो रखते हैं पर इस बात से अंजान रहते हैं कि इनके माध्यम से सिनेमा का इतिहास भी उजागर होता है। *पुस्तक का नाम – मीडिया नगर **02 **उभरता मंज़र**, **प्रकाशक **: * *सराय**, **विकासशील समाज अध्ययन पीठ**, 29 **राजपुर रोड**,* *दिल्ली**-110054, **वाणी प्रकाशन**, **दिल्ली मूल्य **: **रु**. 125* -- Rakesh Kumar Singh Sarai-CSDS 29, Rajpur Road Delhi-110054 Ph: 91 11 23960040 Fax: 91 11 2394 3450 web site: www.sarai.net web blog: http://blog.sarai.net/users/rakesh/ From ravikant at sarai.net Thu Dec 29 13:10:01 2005 From: ravikant at sarai.net (Ravikant) Date: Thu, 29 Dec 2005 13:10:01 +0530 Subject: [Deewan] Re: [Internal] =?utf-8?b?4KSu4KWA4KS/4KSh4KSv4KS+4KSo4KSX4KSwIA==?= =?utf-8?b?4KSV4KWAIOCkuOCkruClgOCkleCljeCkt+Ckvg==?= In-Reply-To: <43B25321.5050405@sarai.net> References: <43B25321.5050405@sarai.net> Message-ID: <200512291310.02059.ravikant@sarai.net> ताकि सनद रहे, यह समीक्षा संधान नामक पत्रिका के ताज़ा अंक में छपी है. रविकान्त On Wednesday 28 Dec 2005 2:26 pm, Rakesh wrote: > *िमत्रों > * > > *मीिडयानगर की समीक्षा देखें:* > > *_पुस्तक समीक्षा_* > > > > > _ मीिडया में शहर या शहर में मीिडया _ > > *सुरेश पण्डित* > > >